संस्कृत में स्वर व्यंजन को क्या कहते हैं? - sanskrt mein svar vyanjan ko kya kahate hain?

हम इससे पहले ही – संस्कृतवर्णमाला की अंग्रेजी, उर्दू और चीनी के साथ तुलना – इस लेख में तथा निम्न यूट्यूब वीडिओ के द्वारा स्पष्ट कर चुके हैं कि किस तरह से संस्कृत वर्णमाला अंग्रेजी, उर्दू और चीनी से बेहतर है। अब चूँकि हमने संस्कृत वर्णमाला का महत्त्व जान लिया है तो अब बारी बारी से वर्णमाला का अभ्यास करते हैं। हम अपने अभ्यास की शुरुआत स्वरों से कर रहे हैं।

यूट्यूब वीडिओ –

स्वर किसे कहते हैं?

जैसे कि संस्कृत वर्णमाला में स्वर तथा व्यञ्जनों का अलग अलग-विभाग (जो अंग्रेजी में नहीं) होता है। अब प्रश्न है – ये स्वर होते क्या है? क्यों इन्हे बाकी व्यञ्जनों से अलग रखते हैं? हमने संगीत में भी स्वर सुने हैं। (सा। रे। ग। म …) परन्तु संगीत के स्वर अलग होते हैं। हम भाषा के स्वरों की बात कर रहे हैं।

अब इन स्वरों को भी स्वर यह नाम कैसे मिला?

इस विषय में महर्षि पतञ्जलि कहते हैं –

स्वयं राजन्ते इति स्वराः

यानी जो स्वयं (खुद से ही) विराजमान हो जाते हैं वे स्वर कहलाते हैं। इसी के आधार पर हम स्वरों की व्याख्या पढ़ रहे हैं –

स्वर की व्याख्या

  • स्वर उन ध्वनियों को कहते हैं जो बिना किसी अन्य वर्णों की सहायता के उच्चारित किए जाते हैं।
  • स्वतन्त्र रूप से बोले जाने वाले वर्ण स्वर कहलाते हैं।

ये थी किताबी व्याख्याएं। अब हम आसानी से समझाते हैं। स्वर वे होते हैं, जिनको अपने मुंह से निकालने के लिए किसी दूसरे वर्ण की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे ‘अ’ एक स्वर है। यदि हमें मुंह से अ की आवाज़ निकालनी है, तो बस बोल दीजिए – अ। बात खतम।

केवल अ ही क्यों? कोई अन्य स्वर भी ले लीजिए। इ, उ, ए इत्यादि। हर एक स्वर स्वतन्त्र होता है। अपने आप उच्चारित होता है।

इसके विपरीत व्यंजन होते हैं। कोई भी व्यञ्जन बिना किसी स्वर की सहायता के नहीं बोला जा सकता है। जैसे –

  • क्

हम क् यह ध्वनि मुंह से नहीं निकाल सकते। हमें इसके लिए किसी स्वर की आवश्यकता होगी। फिर चाहे वह आगे हो या पीछे। जैसे –

  • क् + अ – क
  • अ + क् – अक्

स्वर की मदद के बिना किसी भी व्यंजन की ध्वनि निकालना असंभव है।

स्वरों का एक और लक्षण

जबतक हमारे फेफडों में सांस है तब तक हम स्वर की ध्वनि को लंबा खींच सकते हैं। जैसे –

  • अ ऽ ऽ ऽ ऽ …

जबतक सांस है तब तक बोलते रहिए। इसके विपरीत व्यंजनों को हम नहीं खींच सकते। एक झटके से व्यञ्जनों की आवाज़ आती है और बाद में हम केवल स्वरों को ही खींचते हैं। जैसे कि क इस व्यंजन को ज्यादा देर तक खींच के देखिए।

  • क ऽ ऽ ऽ ऽ

दरअसल यहाँ अन्त में क् इस व्यंजन की ध्वनि नहीं, अपितु अ इस स्वर की ध्वनि सुनाई देती है। क् तो चुटकी जैसे निकल जाता है।

  • क् अ ऽ ऽ ऽ ऽ

संस्कृत वर्णमाला में कितने स्वर होते हैं?

संस्कृत में स्वर व्यंजन को क्या कहते हैं? - sanskrt mein svar vyanjan ko kya kahate hain?
संस्कृत में स्वर व्यंजन को क्या कहते हैं? - sanskrt mein svar vyanjan ko kya kahate hain?
संस्कृत वर्णमाला में स्वर

हम ने देख लिया है कि स्वर किसे कहते हैं। अप सवाल है कि संस्कृत वर्णमाला में स्वर कितने हैं?

उत्तर है – तेरह (१३)।

संभवतः आप को हिन्दी स्वरों के बारे में पता हो। हिन्दी में ग्यारह (११) स्वर होते हैं। तथा कुछ अंग्रेजी स्वरोच्चार भी हैं। ॠ और ऌ ये दो स्वर संस्कृत में हिन्दी से ज्यादा है। अतः संस्कृत स्वरों की कुल संख्या तेरह बन जाती है। और वे तेरह स्वर हैं –

अ। आ। इ। ई। उ। ऊ। ऋ। ॠ। ऌ। ए। ऐ। ओ। औ॥

हालांकि ॡ यह भी एक स्वर अस्तित्व में है। तथापि इसका भाषा में प्रयोग न के बराबर होने से इस वर्णमाला में नहीं गिनते हैं।

इन स्वरों के अलावा संस्कृत में नौ (९) प्लुत स्वर भी होते हैं। जिनको मिला कर संस्कृत में २२ स्वर हो जाते हैं। तथापि इन प्लुत स्वरों का व्यवहार में अधिक उपयोग नहीं होता है। तथा शालेय पुस्तकों में भी इनका ज़िक्र नहीं होता है। अतः इनको भी नज़रंदाज़ किया जाता है।

प्लुत स्वरों के बारे में हमने इसी लेख में नीचे लिखा है।

संस्कृत वर्णमाला में ह्रस्व और दीर्घ स्वर

ह्रस्वदीर्घप्लुतअआअ३इईइ३उऊउ३ऋॠऋ३ऌ–ऌ३–एए३–ऐऐ३–ओओ३–औऔ३कुल ५कुल ८कुल ९ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर और प्लुत स्वर

ह्रस्व स्वर वे होते हैं जिनका उच्चारण काल एक मात्रा होता है। इनका उच्चारण बहुत कम समय में होता है। ह्रस्व स्वर पांच (५) हैं –

अ। इ। उ। ऋ। ऌ॥

जिन स्वरों का उच्चारण करने के लिए दो मात्रा समय लगता है वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। इनका उच्चारण किंचित् लंबा करते हैं। दीर्घ स्वर आठ (८) हैं –

आ। ई। ऊ। ॠ। ए। ऐ। ओ। औ॥

प्लुत स्वर

वस्तुतः प्लुत स्वर केवल संस्कृत में ही नहीं, अपितु दुनिया की हर भाषा में होते हैं। परन्तु इनका शास्त्रीय अभ्यास केवल संस्कृत में ही किया गया है।

प्लुत स्वर वे होते हैं जिनका उच्चारण काल तीन मात्राएं होता है। प्लुत स्वरों का उच्चारण कुछ ज्यादा ही लंबा होता है। यानी दीर्घ से भी ज्यादा। प्लुत स्वर नौ (९) हैं।

अ३। इ्३। उ३। ऋ३। ऌ३। ए३। ऐ३। ओ३। ओ३॥

सामान्यतः किसी को दूर से बुलाने के लिए प्लुत स्वर का प्रयोग होता है – आगच्छ कृष्ण३।

ॐ इस चिह्न को बहुत बार ओ३म् ऐसा लिखा जाता है। यहां भी ओ३ यह स्वर प्लुत है।

अं और अः क्या हैं?

जैसे कि हमने पहले बताया है कि वर्णमाला में स्वर तेरह हैं। तो इन स्वरों के पश्चात् स्वरों के विभाग में अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अः) ये दो वर्ण दिखते हैं वे क्या हैं? इन दोनों को स्वरों में गिना जाए (क्योंकि वे स्वरों के विभाम में दिखते हैं) तो स्वरों की संख्या पंधरह १५ बन जाती है।

असल में अं और अः स्वर नहीं हैं। अपितु इन्हे स्वराश्रित अथवा स्वरादि कहा जाता हैं।

स्वराश्रित

स्वर + आश्रित – स्वराश्रित। जो हमेशा स्वरों के आश्रय (पनाह) में रहता है उसे स्वराश्रित कहते हैं। अं और अः ये दोनों भी स्वरों के अलावा नहीं रह सकते हैं। अतः ये स्वराश्रित हैं।

स्वरादि

स्वर + आदि – स्वरादि। जिनके आदि (शुरुआत) में स्वर होता है उन्हे स्वरादि कहते हैं। अं और अः की शुरुआत में हमेशा कोई ना कोई स्वर होता ही है।

सामान्य रूप से इन्हे अ के साथ दिखाया जाता है। परन्तु वाक्यों में हम इनको अन्य स्वरों के साथ भी देख सकते हैं। जैसे – मुनिं – इं। भानुं – उं। मुनिः – इः। भानुः – उः॥

अं और अः स्वरों के पालतू हैं।

यदि अभी भी समझने में परेशानी है, तो ऐसा समझिए की ये दोनों स्वरों के स्वरों के घर में रहने वाले पालतू जानवर जैसे हैं।

हमारे घर में अधिकृत सदस्य तो हमारे माता-पिता, भाई-बहन तथा दादा-दादी ऐसे मनुष्य ही होते हैं। तथापि यदि हमारे घर कुत्ता, बिल्ली जैसा कोई पालतू जानवर हो, तो उसे हम घर का अधिकृत सदस्य नहीं मानते। फिर भी वह घर में रहने वाला एक सदस्य ही होता है, जो पूरी तरह से हम पर ही आश्रित होता है। ठीक वैसे ही ये अनुस्वरा (अं) और विसर्ग (अः) स्वरों के पालतू जानवर जैसे हैं।

स्वरों के उच्चारण स्थान

व्यंजनों के समान स्वरों के भी उच्चारण स्थान होते हैं। इस तालिका में स्वरों के उच्चारण स्थान लिखे हैं।

स्वरउच्चारण स्थानसंज्ञाअ। आ॥कण्ठकण्ठ्यइ। ई॥तालुतालव्यउ। ऊ॥ओष्ठऔष्ठ्यऋ। ॠ॥मूर्धामूर्धन्यऌदन्तदन्त्यए। ऐ॥कण्ठतालुकण्ठतालव्यओ। औ॥कण्ठौष्ठकण्ठौष्ठ्यस्वर, उनके उच्चारण स्थान और उच्चारण स्थान के अनुरूप संज्ञा

उच्चारण स्थान और संज्ञा में अंतर

उच्चारण स्थान एक मुख में स्थित एक अवयव का नाम है। जहां से वर्णों का उच्चारण होता है। तथा संज्ञा वर्ण की होती है। उच्चारण स्थान के अनुसार यह संज्ञा वर्ण को मिलती है। जैसे – अ। अ इस स्वर का उच्चारण स्थान है – कण्ठ। इसीलिए अ कण्ठ्य वर्ण है।

  • कण्ठ – मुख में स्थित एक शारीरिक अवयव। यानी गला।
  • कण्ठ्य – जिसका उच्चारण कण्ठ से होता है। जैसे – अ और कवर्ग के व्यंजन।

ठीक इसी प्रकार से अन्यों के बारे में भी समझना चाहिए।

इस विषय को हम ने इस यूट्यूब वीडिओ के द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है। इसे ज़रूर देखिए –

सभी स्वर मृदु होते हैं।

वर्णमाला में जितने भी वर्ण हैं, उनके मृदु तथा कठोर ऐसे दो भाग किए हैं। सन्धिप्रकरण में इस बात का बहुत ख़्याल रखना पड़ता है। जैसे कि जश्त्व सन्धि। जश्त्व सन्धि में मृदु वर्ण की वजह से वर्गीय प्रथमाक्षर का तृतीय बन जाता है। उदा॰ जगत् + ईश – जगदीश।

हमे एक बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि सारे स्वर मृदु होते हैं। जहाँ जहाँ मृदु वर्णों की बात होती है, वहाँ उन मृदु वर्णों में सारे स्वरों की भी गिनती होती है।

अच्

पाणिनीय व्याकरण में स्वरों को एक अलग नाम से जाना जाता है। जो हे – अच्। अब स्वरों को पाणिनीय व्याकरण में अच् क्यों कहते हैं? इस बात को समझना बहुत ही रसपूर्ण है। तथापि विस्तारभय से हम यह बात यहाँ नहीं लिख सकते। उस बात को किसी स्वतन्त्र लेख में लिखा जाएगा।

अजन्त शब्द

जैसे कि हमने पहले पढ़ लिया है कि स्वरों का ही दूसरा नाम अच् है। अतः अजन्त यानी स्वरान्त। यहाँ अच् + अन्त – अजन्त। ऐसा जश्त्व सन्धि है। जिन शब्दों के अन्त में अच् (यानी स्वर) होता है, वह शब्द अजन्त शब्द कहलाता है। जैसे – राम (अ)। मुनि (इ)। भानु (उ)। पितृ (ऋ) इत्यादि

उपसंहार

इस प्रकार से हम ने स्वरों के बारे में समझाने का प्रयत्न किया है। तथापि यहां हमारा कार्य पूरा नहीं हुआ है। इसके बाद हम व्यंजनों के लेकर एक (संभवतः दो) लेख लिख रहे हैं। लिखना पूरा होने के बाद शीघ्र ही उसकी कड़ी इसी लेख में यहाँ हम छोड़ देगे। इति लेखनसीमा॥