Show कला, संस्कृति की वाहिका है। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्त्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है। भारतीय कला को जानने के लिये उपवेद, शास्त्र, पुराण और पुरातत्त्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पड़ता है। कला का मानक कला स्वरूप अपने आप में निहित हैं।पी चिदंबरम की ने dil भारतीय कला की विशेषताएँ[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
कला का हमारे समाज में क्या महत्व है?कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है। यह कठिन तपस्या है, साधना है। इसी के माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार रूप देता है। कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है।
कला समाज क्या है? कला समाज को प्रभावित करती है और समाज से प्रभावित भी होती है। किसी ने कहा कला समाज की अभिव्यक्ति है तो किसी ने कला को परिवर्तन की अभिव्यक्ति माना है। कला को आप किस रूप में देखते है इस बात पर तो बहस की गुंजाईश है मगर इस बात पर सभी एकमत होते हैं कि कला और समाज एक दूसरे के बिना जीवित नहीं रह सकते।
कला ने समाज को क्या दिया?कला के अधिकांश विषय तत्कालीन समाज की समस्यायें ही होती है, इस उद्देश्य से किये गये सृजन में व्यक्तित्व गौण रूप ले लेता है ओर समाज की आवश्यकताओं का प्रतिबिम्ब उसके सृजन मे स्पष्ट झलकता रहता है। कलाकार ऐसी स्थिति में उद्देश्य अभिव्यक्ति के माध्यम से आत्मशान्ति प्राप्त करना चाहता है।
जिस समाज में कला का स्थान नहीं है वह समाज कैसे हो जाता है?इसका कारण यह है कि जिसे ढालना है, उसे उसके गुण-धर्म के आधार पर ही ढाला जा सकता है। कोई मूर्ति बनानी होती है, तो पहले जिस माध्यम में बनानी है, उसके चरित्र को समझाना पड़ता है।
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