इस पर्वत पर जाने से डरता था रामायण का बाली, वजह है बेहद रोचकAuthored by गरिमा सिंह | Show
नवभारतटाइम्स.कॉम | Updated: 5 May 2022, 11:15 am रामायाण में वानरराज बाली और सुग्रीव की चर्चा की गई है। ये दोनों भाई थे जिनका आपस में खूब स्नेह था, लेकिन एक गलतफहमी के कारण दोनों एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गए। इसी दुश्मनी के कारण सुग्रीव को एक पर्वत पर छुपकर रहना पड़ा जहां बाली नहीं जा सकता था। इस पर्वत पर बाली के नहीं जाने की एक बेहद खास वजह उसका अपना बल और पराक्रम था। आइए जानें आखिर बाली की ताकत ही उसकी कमजोरी कैसे बन गई।अपना यह राशिफल हर दिन ईमेल पर पाने के लिए क्लिक करें - सब्सक्राइब करेंक्लिक करे
बाली ने सागर मंथन के समय अपने बल से देवताओं की सहायता की थी। पुरस्कार के रूप में इनका विवाह अप्सरा तारा से हुआ। अपने बल से बाली ने रावण को भी परास्त कर दिया था। एक बार दुंदुभी नाम का असुर बाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। दोनों के बीच मलयुद्ध आरंभ हो गया। बाली ने दुंदुभी का वध कर दिया और क्रोध में उसके शव को उठाकर आकाश मार्ग से कई किलोमीटर दूर फेंक दिया। हवा में उड़ते हुए दुंदुभि के शरीर से रक्त की कुछ बूंदें मातंग ऋषि के आश्रम में गिर गईं। रक्त की बूंदें देखकर ऋषि बहुत क्रोधित हो गए। यह भी पढ़ें:शुक्रवार को शुक्र आ रहे हैं अपनी राशि तुला में, शुभ संयोग का मिलेगा कई राशियों को फायदा तपोबल से जानी पूरी घटनाऋषि मातंग ने अपने तपोबल से यह जान लिया कि यह कार्य किसने और क्यों किया है। बाली ने युद्ध के लिए ललकारने पर असुर का वध किया था इसलिए उसका वध करने में कोई बुराई नहीं थी लेकिन बल के मद में किसी के शव का अपमान और तपस्वी के आश्रम को अपवित्र करना यह पाप था। बाली के व्यवहार से क्रोधित होकर मातंग ऋषि ने बाली को शाप दिया कि यदि वह उनके आश्रम के एक योजन की दूरी के अंदर आया तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। यह भी पढ़ें:विदुर नीति: जो लोग ये दो काम नहीं करते उनके धन का नाश होना तय है यहां स्थित था मातंग ऋषि का आश्रममातंग ऋषि का आश्रम ऋष्यमूक पर्वत के पास स्थित था। मान्यता है कि दक्षिण भारत में प्राचीन विजयनगर साम्राज्य के विरुपाक्ष मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित पर्वत को उस काल में ऋष्यमूक कहा जाता था और यही रामायण काल का ऋष्यमूक पर्वत है। सुग्रीव ने उठाया इस शाप का लाभसुग्रीव को इस घटना का ज्ञान था और बाली भी यह बात जान चुका था कि उसे ऋषि मातंग ने शाप दिया है। इसलिए वह भूल से भी ऋष्यमूक पर्वत की तरफ नहीं जाता था। जब बाली ने सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया और उसका वध करना चाहा तो सुग्रीव अपने सहयोगियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर बनी गुफा में भाग गया। इस गुफा को सुग्रीव गुफा कहा जाने लगा। इसी गुफा में भगवान राम और सुग्रीव की मुलाकात हुई थी। आज भी यहां सुग्रीव की मूर्तिइस स्थान पर सुग्रीव अपने सलाहकारों के साथ रहते थे, जो उनके समर्थक के रूप में सदैव उनके साथ खड़े रहे। इनमें महाबली हनुमानजी भी शामिल थे। आज भी इस पर्वत पर गुफा के समीप एक मंदिर बना है, जहां सूर्य देव और सुग्रीव की मूर्ति स्थापित है। बाद में श्रीराम ने बाली का वध करके, सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया। यह भी पढ़ें:अक्टूबर महीने के प्रमुख व्रत और त्योहार, तिथि और महत्व Navbharat Times News App: देश-दुनिया की खबरें, आपके शहर का हाल, एजुकेशन और बिज़नेस अपडेट्स, फिल्म और खेल की दुनिया की हलचल, वायरल न्यूज़ और धर्म-कर्म... पाएँ हिंदी की ताज़ा खबरें डाउनलोड करें NBT ऐप लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने के लिए NBT फेसबुकपेज लाइक करें
सुग्रीव रामायण के एक प्रमुख पात्र है। इनके पिता सूर्यनारायण और माता अरुण देव थे। बालि इनके बड़े भाई थे। हनुमान के कारण भगवान श्री राम से उनकी मित्रता हुयी। वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड तथा युद्धकाण्ड तथा गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस किष्किंधा कांड में श्री हनुमान जी महाराज द्वारा भगवान श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव जी के मध्य हो मैत्री कराई जाती है जिसे श्रीरामचरितमानस के दोहा क्रमांक 4 किष्किंधा कांड में श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने वर्णित किया है। से वाल्मीकि रामायण एवं श्री रामचरितमानस दोनों में ही सुग्रीव जी का वर्णन वानरराज के रूप में किया गया है। जब भगवान श्री रामचंद्र जी से उनकी मित्रता हुयी तब वह अपने अग्रज बालि के भय से ऋष्यमूक पर्वत पर अंजनी पुत्र श्री हनुमान जी तथा कुछ अन्य वफ़ादार रीछ (ॠक्ष) (जामवंत) तथा वानर सेनापतियों के साथ रह रहे थे। लंका पर चढ़ाई के लिए सुग्रीव ने ही वानर तथा ॠक्ष सेना का प्रबन्ध किया था।उन्होंने भगवान राम की रावण को मारने में मदद की थी। बालि से वैर[संपादित करें]दुंदुभि के बड़े भाई मायावी की बालि से किसी स्त्री को लेकर बड़ी पुरानी शत्रुता थी। मायावी एक रात किष्किन्धा आया और बालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। ललकार स्वीकार कर बालि उस असुर के पीछे भागा। साथ में सुग्रीव भी उसके साथ था। भय के कारण भागते हुये मायावी ज़मीन के नीचे बनी एक कन्दरा में घुस गया। बालि भी उसके पीछे-पीछे गया। जाने से पहले उसने सुग्रीव को यह आदेश दिया कि जब तक वह मायावी का वध करके लौटकर नहीं आता, तब तक सुग्रीव उस कन्दरा के मुहाने पर खड़ा होकर पहरा दे। एक वर्ष से अधिक अन्तराल के पश्चात कन्दरा के मुहाने से रक्त बहता हुआ बाहर आया। सुग्रीव ने असुर की चीत्कार तो सुनी परन्तु बालि की नहीं। यह समझकर कि उसका अग्रज रण में मारा गया, सुग्रीव ने उस कन्दरा के मुँह को एक शिला से बन्द कर दिया और वापस किष्किन्धा आ गया जहाँ उसने यह समाचार सबको सुनाया।[1] मंत्रियों ने सलाह कर सुग्रीव का राज्याभिषेक कर दिया। कुछ समय पश्चात बालि प्रकट हुआ और अपने अनुज को राजा देख बहुत कुपित हुआ। सुग्रीव ने उसे समझाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु बालि ने उसकी एक न सुनी और सुग्रीव के राज्य तथा पत्नी रूमा को हड़पकर उसे देश-निकाला दे दिया। डर के कारण सुग्रीव ने ऋष्यमूक पर्वत में शरण ली जहाँ शाप के कारण बालि नहीं जा सकता था। यहीं सुग्रीव का मिलाप हनुमान के कारण राम से हुआ।[2] सुग्रीव-बालि द्वंद्व[संपादित करें]राम के यह आश्वासन देने पर कि राम स्वयं बालि का वध करेंगे, सुग्रीव ने वालि को ललकारा। बालि ललकार सुनकर बाहर आया। दोनों में घमासान युद्ध हुआ, परंतु दोनो भाइयों की मुख तथा देह रचना समान थी, इसलिए राम ने असमंजस के कारण
अपना बाण नहीं चलाया। अंततः बालि ने सुग्रीव को बुरी तरह परास्त करके दूर खदेड़ दिया। सुग्रीव निराश होकर फिर राम के पास आ गया।[3] राम ने इस बार लक्ष्मण से सुग्रीव के गले में माला पहनाने को कहा जिससे
वह द्वंद्व के दौरान सुग्रीव को पहचानने में ग़लती नहीं करेंगे और सुग्रीव से बालि को पुन: ललकारने को कहा। हताश सुग्रीव फिर से किष्किन्धा के द्वार की ओर बालि को ललकारने के लिए चल पड़ा। जब बालि ने दोबारा सुग्रीव की ललकार सुनी तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। तारा को शायद इस बात का बोध हो गया था कि सुग्रीव को राम का संरक्षण हासिल है क्योंकि अकेले तो सुग्रीव बालि को दोबारा ललकारने की हिम्मत कदापि नहीं करता। अतः किसी अनहोनी के भय से तारा ने बालि को सावधान करने की चेष्टा की। उसने यहाँ तक कहा कि सुग्रीव को
किष्किन्धा का राजकुमार घोषित कर वालि उसके साथ संधि कर ले। किन्तु बालि ने इस शक से कि तारा सुग्रीव का अनुचित पक्ष ले रही है, उसे दुत्कार दिया। किन्तु उसने तारा को यह आश्वासन दिया कि वह सुग्रीव का वध नहीं करेगा और सिर्फ़ उसे अच्छा सबक सिखायेगा।[4] लक्ष्मण को शांत करना[संपादित करें]तारा तथा सुग्रीव लक्ष्मण के साथ बालि के वध के पश्चात् तारा ने यही उचित समझा कि सुग्रीव को स्वामी स्वीकार करे क्योंकि उसने अंगद के हितों की रक्षा भी तो करनी थी। जब सुग्रीव राजोल्लास में तल्लीन हो गया और राम को सीता का ढूंढने का वचन भूल गया तो राम ने लक्ष्मण को उसे अपना वचन याद कराने को भेजा। लक्ष्मण वैसे भी काफ़ी ग़ुस्सैल थे। उन्होंने किष्किन्धा की राजधानी पम्पापुर में लगभग आक्रमण बोल दिया। सुग्रीव को अपनी ग़लती का अहसास हो गया लेकिन लक्ष्मण का सामना करने की उसकी हिम्मत न हुयी। उसने तारा से आग्रह किया कि वह लक्ष्मण को शान्त कर दे। तारा रनिवास से मदोन्मत्त निकली और लक्ष्मण को शान्त किया। उसने महर्षि विश्वामित्र का उदाहरण दिया कि ऐसे महात्मा भी इन्द्रिय विषयक भोगों के आगे लाचार हो गये थे फिर सुग्रीव की तो बिसात ही क्या और यह भी कि वह मनुष्य नहीं वरन् एक वानर है। तारा ने यह भी वर्णन किया कि सुग्रीव ने चारों दिशाओं में सेना एकत्रित करने के लिए दूत भेज दिये हैं। वाल्मीकि रामायण तथा अन्य भाषाओं के रूपांतरणों में यह उल्लेख है कि अधखुले नयनों वाली मदोन्मत्त तारा के तर्कों को सुनकर लक्ष्मण थोड़ी शान्त हो गये और उसके पश्चात् सुग्रीव के आगमन और उससे सीता को खोजने का आश्वासन पाकर वापस चले गये। रामायण के कुछ क्षेत्रीय रूपांतरणों में यह भी दर्शाया गया है कि जिस समय लक्ष्मण ने किष्किन्धा की राजधानी के राजमहल के गर्भागृह में क्रोधित होकर प्रवेश किया था उस समय सुग्रीव के साथ मदिरा-पान करने वाली उसकी प्रथम पत्नी रूमा नहीं अपितु तारा थी और भोग विलास में वह दोनों तल्लीन थे। यहाँ पर यह याद दिलाना उचित होगा कि राम से मैत्री करते समय सुग्रीव ने अपने राज्य के छिन जाने से भी अधिक बालि द्वारा अपनी पत्नी रूमा के छिन जाने का खेद प्रकट किया था। कुछ संस्करणों में लक्ष्मण को शांत करने के लिए तारा नहीं वरन् सुग्रीव स्वयं लक्ष्मण के सामने आता है तथा उनको यह आश्वासन दिलाता है कि उसने सेना एकत्रित करनी शुरु कर दी है। सुग्रीव से यह आश्वासन पाकर लक्ष्मण थोड़ा शान्त हो जाते हैं। लंका युद्ध में[संपादित करें]राम और लक्ष्मण सुग्रीव से युद्ध की मंत्रणा करते हुये लंका युद्ध के दौरान सुग्रीव ने कुम्भकर्ण को ललकार कर क़रीब-क़रीब अपनी मौत को दावत दे दी थी। कुम्भकर्ण को युद्ध में वानर सेना का नाश करते देख सुग्रीव ने एक साल का वृक्ष उखाड़कर कुम्भकर्ण पर आक्रमण बोल दिया। लेकिन वह वृक्ष कुम्भकर्ण के सिर से टकराकर टूट गया। कुम्भकर्ण ने फिर सुग्रीव को पकड़कर घसीटा और उसे मार ही डालता लेकिन लक्ष्मण ने ऐन वख़्त पर आकर सुग्रीव को बचा लिया।[6] सन्दर्भ[संपादित करें]
सुग्रीव कहां रहता था और क्यों?सुग्रीव अपने भाई बाली से डरकर जिस कंदरा में रहता था, उसे सुग्रीव गुफा के नाम से जाना जाता है। यह ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित थी। ऐसी मान्यता है कि दक्षिण भारत में प्राचीन विजयनगर साम्राज्य के विरुपाक्ष मंदिर से कुछ ही दूर पर स्थित एक पर्वत को ऋष्यमूक कहा जाता था और यही रामायण काल का ऋष्यमूक है।
3 सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर क्यों रहते थे?प्रश्न-3 सुग्रीव किस कारण से ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे? उत्तर - बाली सुग्रीव को मार डालना चाहता था इसलिए सुग्रीव अपनी जान बचाने के लिए ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे।
सुग्रीव कहाँ के रहने वाले थे?सुग्रीव बाली का भाई और वानरों का राजा था। वह किष्किन्धा में रहता था।
ऋष्यमूक पर्वत पर कौन रहता था?रामायण के अनुसार ऋष्यमूक पर्वत में ऋषि मतंग का आश्रम था। वालि ने दुंदुभि असुर का वध करने के पश्चात् दोनों हाथों से उसका मृत शरीर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। हवा में उड़ते हुए मृत दुंदुभि के मुँह से रक्तस्राव हो रहा था जिसकी कुछ बूंदें मतंग ऋषि के आश्रम पर भी पड़ गयीं।
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