कर्ण का जन्म कुन्ती के गर्भ से हुआ था और उसके पिता सूर्य थे। लोकलाज के भय से कुन्ती ने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे सूत (सारथि) ने बचाया और उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण महान् धनुर्धर, शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और दानवीर बना। एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। Show सभी दर्शक अर्जुन की धनुर्विद्या के प्रदर्शन को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, किन्तु तभी कर्ण ने सभा में उपस्थित होकर अर्जुन को द्वन्द्वयुद्ध के लिए ललकारा। कृपाचार्य ने कर्ण से उसकी जाति और गोत्र के विषय में पूछा। इस पर कर्ण ने स्वयं को सूत-पुत्र बताया, तब निम्न जाति का कहकर उसका अपमान किया गया। उसे अर्जुन से द्वन्द्वयुद्ध करने के अयोग्य समझा गया, परन्तु दुर्योधन कर्ण की वीरता एवं तेजस्विता से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया। साथ ही उसे अपना अभिन्न मित्र बना लिया। गुरु द्रोणाचार्य भी कर्ण की वीरता को देखकर चिन्तित हो उठे और कुन्ती भी कर्ण के प्रति किए गए बुरे व्यवहार के लिए उदास हुई। द्वितीय सर्ग: आश्रमवास रश्मिरथी खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। (2018, 17, 16) राजपुत्रों के विरोध से दु:खी होकर कर्ण ब्राह्मण रूप में परशुराम जी के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए गया। परशुराम जी ने बड़े प्रेम के साथ कर्ण को धनुर्विद्या सिखाई। एक दिन परशुराम जी कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे, तभी एक कीड़ा कर्ण की जंघा पर चढ़कर खून चूसता-चूसता उसकी जंघा में प्रविष्ट हो गया। रक्त बहने लगा, पर कर्ण इस असहनीय पीड़ा को चुपचाप सहन करता रहा, और शान्त रहा। क्योकि कहीं गुरुदेव को निद्रा में विघ्न न पड़ जाए। जंघा से निकले रक्त के स्पर्श से गुरुदेव को निद्रा भंग हो गई। अब परशुराम को कर्ण के ब्राह्मण होने पर सन्देह हुआ। अन्त में कर्ण ने अपनी वास्तविकता बताई। इस पर परशुराम ने कर्ण से ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का अधिकार छीन लिया और उसे श्राप दे दिया। कर्ण गुरु के चरणों का स्पर्श कर वहाँ से चला आया। तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश (2017, 15) बारह वर्ष का वनवास और अज्ञातवास की एक वर्ष की अवधि समाप्त हो जाने पर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं और दुर्योधन से अपना राज्य वापस माँगते हैं, लेकिन दुर्योधन पाण्डवों को एक सूई की नोंक के बराबर भूमि देने से भी मना कर देता है। श्रीकृष्ण सन्धि प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास आते हैं। दुर्योधन इस सन्धि प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता और श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का प्रयास करता है। श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाकर उसे भयभीत कर दिया। दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया। श्रीकृष्ण ने कर्ण को उसके जन्म का इतिहास बताते हुए उसे पाण्डवों का बड़ा भाई बताया और युद्ध के दुष्परिणाम भी समझाए, लेकिन कर्ण ने श्रीकृष्ण की बातों को नहीं माना और कहा कि वह युद्ध में पाण्डवों की ओर से सम्मिलित नहीं होगा। दुर्योधन ने उसे जो सम्मान और स्नेह दिया है, वह उसका आभारी है। चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा ‘रश्मिरथी’ खंडकाव्य के चतुर्थ सर्ग का कथानक अपने शब्दों में लिखिए। (2008, 12) पंचम सर्ग : माता की विनती (2013 10) अथवा कुन्ती को चिन्ता है कि रणभूमि में मेरे ही दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे। इससे चिन्तित हो वह कर्ण के पास जाती है और उसे उसके जन्म के विषय में सब बताती है। कर्ण कुन्ती की बातें सुनकर भी दुर्योधन का साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है, किन्तु अर्जुन को छोड़कर अन्य किसी पाण्डव को न मारने का वचन कुन्ती को दे देता है। कर्ण कहता है कि तुम प्रत्येक दशा में पाँच पाण्डवों की माता बनी रहोगी। कुन्ती निराश हो जाती है। कर्ण ने युद्ध समाप्त होने के पश्चात् कुन्ती की सेवा करने की बात कही। कुन्ती निराश मन से लौट आती है। षष्ठ सर्ग : शक्ति परीक्षण श्रीकृष्ण इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि कर्ण के पास इन्द्र द्वारा दी गई ‘एकघ्नी शक्ति है। जब कर्ण को सेनापति बनाकर युद्ध में भेजा गया तो श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को कर्ण से लड़ने के लिए भेज दिया। दुर्योधन के कहने पर कर्ण ने घटोत्कच को एकनी शक्ति से मार दिया। इस, विजय से कर्ण अत्यन्त दुःखी हुए, पर पाण्डव अत्यन्त प्रसन्न हुए। श्रीकृष्ण ने अपनी नीति से अर्जुन को अमोघशक्ति से बचा लिया था, परन्तु कर्ण ने फिर भी छल से दूर रहकर अपने व्रत का पालन किया। सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा (2011) रश्मिरथी खण्डकाव्य के सप्तम सर्ग की कथावस्तु पर प्रकाश डालिए। (2016) श्रीकृष्ण के संकेत करने पर अर्जुन निहत्थे कर्ण पर प्रहार कर देते हैं। कर्ण की मृत्यु हो जाती है, पर वास्तव में नैतिकता की दृष्टि से तो कर्ण ही विजयी रहता है। श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि विजय तो अवश्य मिली, पर मर्यादा खोकर। प्रश्न 2. कथानक ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य का कथानक ‘महाभारत’ के प्रसिद्ध पात्र कर्ण के जीवन प्रसंग पर आधारित हैं। इन प्रसंगों ने कर्ण के व्यक्तित्व को एक नई छवि प्रदान की है। कथानक का संगठन सुनियोजित प्रकार से किया गया है। प्रसंगों का समय भिन्न-भिन्न है, लेकिन उन्हें इस प्रकार श्रृंखलाबद्ध किया गया हैं। कि कथा के प्रवाह में बाधा नहीं पड़ती और उसका क्रमबद्ध विकास होता है। कथा का अन्त इस प्रकार किया गया है कि वह कर्ण की विशेषताओं को विभूषित करते हुए समाप्त हो जाती है। पात्र एवं चरित्र-चित्रण इस खण्डकाव्य में कर्ण के उपेक्षित जीवन और उसकी चारित्रिक विशेषताओं पर ही प्रकाश डालना कवि का उद्देश्य रहा है। अन्य पात्रों का चुनाव इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कथानक में एक भी अनावश्यक पात्र को स्थान नहीं दिया गया है। कर्ण के चरित्र में वर्तमान युग के सामाजिक स्तर पर उपेक्षित व्यक्तियों एवं कुन्ती के रूप में समाज के नियमों से प्रताड़ित नारियों की व्यथा को स्वर दिया गया है। इस प्रकार इस खण्डकाव्य में पात्रों का चरित्र-चित्रण अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से हुआ है। कर्ण जैसे महान् गुणों से सम्पन्न. नायक को कवि ने मुख्य पात्र बनाया है। अन्य पात्रों का चित्रण कर्ण की चारित्रिक विशेषताओं को प्रकाशित करने के लिए किया गया है। सम्पूर्ण काव्य में वीर रस को ही प्रधानता दी गई है। छन्दों में अवश्य विभिन्नता है। आदर्शोन्मुख उद्देश्य के लिए लिखी गई इस रचना को सफल खण्डकाव्ये कहा जा सकता हैं। ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य का उद्देश्य (2013) ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के माध्यम से कवि ने उपेक्षित, लेकिन प्रतिभावान मनुष्यों के स्वर को वाणी दी है। यदि कर्ण को बचपन से समुचित सम्मान प्राप्त हुआ होता, जन्म, जाति और कुल आदि के नाम पर उसे अपमानित न किया गया होता तो वह कौरवों का साथ कभी भी नहीं देता। शायद तब महाभारत का युद्ध भी नहीं हुआ होता। कवि ने यह स्पष्ट किया है कि प्रतिभाएँ कुण्ठित होकर समाज को पतन की ओर अग्रसर कर देती हैं। इस खण्डकाव्य में प्राचीन पृष्ठभूमि पर आधुनिक समस्याओं का निरूपण किया गया है। इसमें समाज में नारियों की मनोदशा का भी यथार्थ वर्णन किया गया है, साथ ही समाज में उनकी स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रकारे उद्देश्य की दृष्टि से भी यह एक सफल खण्डकाव्य है। इस खण्डकाव्य में प्राचीन पृष्ठभूमि पर आधुनिक समस्याओं का निरूपण किया गया है। इसमें समाज में नारियों की मनोदशा का भी यथार्थ वर्णन किया गया है, साथ ही समाज में उनकी स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है। इस प्रकारे उद्देश्य की दृष्टि से भी यह एक सफल खण्डकाव्य है। काव्यगत विशेषताएँ प्रस्तुत खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं। 1. वण्र्य विषय खण्डकाव्य की दृष्टि से यह एक सफल खण्डकाव्य है। इसके कथानक की रचना में कवि ने अपनी सूझबूझ का अच्छा परिचय दिया है। दिनकर जी की इस रचना का प्रमुख पात्र कर्ण है। वह समाज के उन व्यक्तियों का प्रतीक है, जो वर्ण-व्यवस्था पर आधारित अमानवीय क्रूरता एवं जड़ नैतिक मान्यताओं की विभीषिका के शिकार हैं। वर्ण व्यवस्था, जाति-प्रथा, एवं ऊँच-नीच की भावना वर्तमान युग की ज्वलन्त समस्याएँ हैं। इन्हीं के कारण भारतीय समाज में योग्य एवं कर्मठ व्यक्तियों की उपेक्षा एक सामान्य बात है। कर्ण ऐसे ही पीड़ित एवं उपेक्षित जनों को आदर्श प्रतीक है। 2. प्रकृति चित्रण यद्यपि रश्मिरथी काव्य में प्रकृति चित्रण कवि का विषय नहीं है, तथापि पात्रों के चित्रण-वर्णन के दौरान यत्र-तत्र प्रकृति का चित्रण हुआ है, जो अत्यन्त सशक्त है; जैसे|
3. रस निरूपण प्रस्तुत खण्डकाव्य में वीर रस की प्रधानता है। साथ ही करुण एवं वात्सल्य रस को भी स्थान दिया गया है। जहाँ कर्ण और कुन्ती का वार्तालाप हैं, वहाँ वात्सल्य रस देखने को मिलता है- “मेरे ही सुत मेरे सुत को ही मारें, कलापक्षीय विशेषताएँ। (2010)
प्रश्न 3. “उड़ती वितर्क-धागे पर चंग-सरीखी, कवि ने प्रभावशाली संवाद शैली का अनुसरण करते हुए वर्णनात्मक शैली की कमियों का निराकरण कर दिया है- “पाकर प्रसन्न आलोक नया, कौरवसेना का शोक गया। सर्गों का क्रम भी कवि की रचनात्मक विशेषताओं को व्यक्त करता है। छन्द एवं अलंकार कवि ने प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग छन्द प्रयोग किए हैं। विषय, मानसिक परिस्थितियों तथा घटनाओं के संवेदनात्मक पक्ष को दृष्टि में रखते हुए इनका आयोजन किया गया हैं। अलंकारों में सहजता और संक्षिप्तता हैं, वे स्वाभाविक रूप से ही प्रयुक्त हुए हैं। वस्तुतः अलंकारों के प्रदर्शन के प्रति कवि की रुचि नहीं हैं। इस प्रकार भावात्मक एवं कलात्मक दृष्टि से ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य एक उत्कृष्ट रचना है। यह रचना वर्तमान युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है, जो आधुनिक युग के समाज की बुराइयों को दूर करने का सन्देश देती है। चरित्र-चित्रण पर आधारित प्रश्न प्रश्न 4. 1. महान् धनुर्धर कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। लोकलाज के भय से कुन्ती अपने पुत्र को नदी में बहा देती है, तब एक सूत उसका लालन-पालन करता है। सूत के घर पलकर भी कर्ण महादानी एवं महान् धनुर्धर बनता है। एक दिन अर्जुन रंगभूमि में अपनी बाणविद्या का प्रदर्शन करता है, तभी वहाँ आकर कर्ण भी अपनी धनुर्विद्या का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करता है। कर्ण के इस प्रभावपूर्ण प्रदर्शन को देखकर द्रोणाचार्य एवं पाण्डव उदास हो जाते हैं। 2. सामाजिक विडम्बना का शिकार कर्ण क्षत्रिय कुल से सम्बन्धित था, लेकिन उसका पालन-पोषण एक सूत के द्वारा हुआ, जिस कारण वह सूतपुत्र कहलाया और इसी कारण उसे पग-पग पर अपमान का बूंट पीना पड़ा। शस्त्र विद्या प्रदर्शन के समय प्रदर्शन स्थल पर उपस्थित होकर वह अर्जुन को ललकारता है, तो सब स्तब्ध रह जाते हैं। यहाँ पर कर्ण को कृपाचार्य की कूटनीतियों का शिकार होना पड़ता है। द्रौपदी के स्वयंवर में भी उसे अपमानित होना पड़ा था। 3. सच्चा मित्र कर्ण दुर्योधन का सच्चा मित्र है। दुर्योधन कर्ण की वीरता से प्रसन्न होकर उसे अंगदेश का राजा बना देता है। इस उपकार के बदले भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन जाता है। वह श्रीकृष्ण और कुन्ती के प्रलोभनों को ठुकरा देता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि मुझे स्नेह और सम्मान दुर्योधन ने ही दिया। अतः मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है। वह तो सब कुछ दुर्योधन पर न्योछावर करने को तत्पर रहता है। 4. गुरुभक्त कर्ण सच्चा गुरुभक्त हैं। वह अपने गुरु के प्रति विनयी एवं श्रद्धालु है। एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सोए हुए थे तभी एक कीट कर्ण की जंघा में घुस जाता है, रक्त की धारा बहने लगती है, वह चुपचाप पीड़ा को सहता है, क्योकि पैर हिलाने से गुरु की नींद खुल सकती थी, लेकिन आँखें खुलने पर वह गुरु को अपने बारे में सब कुछ बता देता है। गुरु क्रोधित होकर उसे आश्रम से निकाल देते हैं, लेकिन वह अपनी विनय नहीं छोड़ता और गुरु के चरण स्पर्श कर वहाँ से चल देता है। 5. महादानी कर्ण महादानी है। प्रतिदिन प्रात:काल सन्ध्या वन्दना करने के पश्चात् वह याचकों को दान देता है। उसके द्वार से कभी कोई याचक खाली नहीं लौटा। कर्ण की दानशीलता का वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है। “रवि पूजन के समय सामने, जो भी याचक आता था, इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कर्ण के पास आते हैं। यद्यपि कर्ण इन्द्र के छल को पहचान लेता है तथापि वह इन्द्र को सूर्य द्वारा दिए गए कवच और कुण्डल दान में दे देता है। 6. महान् सेनानी कौरवों की ओर से कर्ण सेनापति बनकर युद्धभूमि में प्रवेश करता है। युद्ध में अपने रण कौशल से वह पाण्डवों की सेना में हाहाकार मचा देता है। अर्जुन भी कर्ण के बाणों से विचलित हो उठते हैं। श्रीकृष्ण भी उसकी वीरता की प्रशंसा करते हैं। भीष्म उसके विषय में कहते हैं “अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे, इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्ण का चरित्र दिव्य एवं उच्च संस्कारों से युक्त है। वह शक्ति का स्रोत है, सच्चा मित्र है, महादानी और त्यागी है। वस्तुतः उसकी यही विशेषताएँ उसे खण्डकाव्य का महान् नायक बना देती हैं। प्रश्न 5. 1. युद्ध विरोधी एवं मानवता का पक्षधर ‘रश्मिरथी’ के श्रीकृष्ण युद्ध के प्रबल विरोधी हैं और मानवता के प्रति संवेदनशील हैं। उन्हें यह ज्ञात है कि युद्ध की विभीषिका मानवता के लिए कितनी दुखदायी होती है। पाण्डवों के वनवास से लौटने के पश्चात् श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए हस्तिनापुर जाते हैं और युद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न करते हैं, किन्तु हठी दुर्योधन नहीं मानता। कौरवों से पाण्डवों के लिए वे पाँच गाँव ही माँगते हैं। दुर्योधन के द्वारा अस्वीकार करने पर वे सोचते हैं कि वह कर्ण की शक्ति प्राप्त कर ही युद्ध में अपनी जीत की कल्पना कर रहा है। यदि कर्ण उसका साथ छोड़ दे तो यह युद्ध रोका जा सकता है। इस युद्ध को रोकने के लिए उन्होंने कर्ण से कहा- यह मुकुट मान सिंहासन ले, 2. निडर एवं स्फुटवक्ता श्रीकृष्ण निडर एवं स्फुटवक्ता अर्थात् बात को स्पष्ट कहने वाले हैं। वे युद्ध नहीं चाहते हैं। वे चाहते हैं कि कौरवों और पाण्डवों के मध्य सुलह हो जाए। इसके आधार पर उन्हें कायर नहीं कहा जा सकता। वे दुर्योधन को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास करते हैं, लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं है, अपनी जिद पर अड़ा है, लेकिन जब वह उनके हित की दृष्टि से दी गई सलाह को नहीं मानती है तो वे कहते हैं कि- तो ले अब मैं भी जाता है, 3. सदाचारी एवं व्यावहारिक श्रीकृष्ण सदाचारी एवं व्यावहारिक हैं। उनके सभी कार्य सदाचार एवं शील के परिचायक हैं। उनका उद्देश्य सदाचारपूर्ण समाज की स्थापना करना है और वे यही चाहते हैं कि सभी सदाचरण करें। वे सदाचार को ही जीवन का सार मानते हुए कहते हैं कि- नहीं पुरुषार्थ केवल जाति में है, 4. गुणवानों के पक्षधर ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के श्रीकृष्ण गुणवान व्यक्तियों के प्रबल समर्थक एवं प्रशंसक हैं। इस कारण वे अपने विरोधी के गुणों का भी सम्मान करते हैं। यद्यपि कर्ण कौरव पक्ष का योद्धा था फिर भी श्रीकण के मन में उसके गुणों के प्रति बहुत आदर है। वे उसका गुणगान करते नहीं थकते। उसकी मृत्यु के उपरान्त वे अर्जुन से उसके बारे में कहते हैं कि- मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह, 5. कूटनीतिज्ञ ‘दिनकर’ द्वारा रचित ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के श्रीकृष्ण कूटनीतिज्ञ हैं। महाभारत के श्रीकृष्ण के चरित्र से उनके चरित्र की विशेषताएँ मिलती हैं, किन्तु इस खण्डकाव्य में उनके कूटनीतिज्ञ स्वरूप का ही चित्रण हुआ है। पाण्डवों की जीत का आधार उनकी कूटनीति ही थी। वे पाण्डवों की ओर से कूटनीति की चाल चलकर दुर्योधन की सबसे बड़ी शक्ति कर्ण को उससे अलग करने का प्रयास करते हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता का पता इन पंक्तियों में उनके द्वारा कहा गया यह कथन स्पष्ट करता है– कुन्ती का तू ही तनय श्रेष्ठ, 6. अलौकिक गुणों से युक्त ‘रश्मिरथी’ खण्डकाव्य के श्रीकृष्ण महाभारत के श्रीकृष्ण की ही तरह अलौकिक गुणों से युक्त हैं। वे लीलामय पुरुष हैं, क्योंकि उनमें अलौकिक शक्ति विद्यमान है। जब वे दुर्योधन के दरबार में पाण्डवों के दूत बनकर जाते हैं, तो दुर्योधन उन्हें बाँधना चाहता है और कैद करना चाहता है, तो उस समय वे अपना लीलामय विराट स्वरूप दिखाते है- हरि ने भीषण हुँकार किया, इस प्रकार उपरोक्त बिन्दुओं को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण निडर एवं स्फुटवक्ता, अलौकिक गुणों से युक्त होते हुए महाभारत के श्रीकृष्ण के चरित्र के समस्त गुणों को अपने अन्दर समाहित किए हुए हैं। इसके साथ-ही-साथ उनका चरित्र लोकमंगल की भावना से युक्त है। श्रीकृष्ण का यह स्वरूप कवि ने इस खण्डकाव्य में युग के अनुसार ही प्रकट किया है। इसके कारण उनके महाभारतकालीन चरित्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है- कर्ण का चरित्र चित्रण क्या है?कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों।
कविता के आधार पर कर्ण के चरित्र की क्या विशेषता है?गुरुभक्ति : कर्ण सच्चा गुरु भक्त है। वह अपने गुरु के लिए सर्वस्व त्याग करने को तत्पर है। अत्यधिक कष्ट सहकर भी वह अपने गुरु परशुराम की निद्रा को बाधित नहीं करना चाहता। गुरु द्वारा श्राप दिए जाने के बावजूद वह अपने गुरु की निंदा सुनना पसंद नहीं करता।
कर्ण एकांकी का नायक कौन है?इसकी कथावस्तु महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्ण के जीवन से सम्बद्ध है। प्रथम सर्ग का नाम 'रंगशाला में कर्ण' है। इस सर्ग में कर्ण के जन्म से लेकर द्रौपदी के स्वयंवर तक की कथा का संक्षेप में वर्णन है। कुन्ती को; जब वह अविवाहित थी; सूर्य की आराधना के फलस्वरूप एक तेजस्वी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।
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