पल्लव वंश कब से कब तक चला? - pallav vansh kab se kab tak chala?

पल्लव राजवंश: पल्लव राजवंश की स्थापना की जानकारी में मतभेद है। अवशेषों के अनुसार कहा जा सकता है कि सातवाहन वंश के पतन के बाद ही इस वंश की स्थापना हुयी। कुछ इतिहासकार पल्लव वंश का संस्थापक बप्पदेव को मानते हैं जो आंध्र प्रदेश पर शासन करता था। पल्लव वंश की राजधानी कांची थी। इस वंश का वास्तविक संस्थापक सिंहविष्णु को माना जाता है। pallava dynasty upsc ssc notes in hindi.

पल्लव वंश कब से कब तक चला? - pallav vansh kab se kab tak chala?

Table of Contents

  • पल्लव राजवंश
  • सिंह विष्णु (575-600 ई०)
    • महेन्द्रवर्मन प्रथम (600-630 ई०)
      • नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई०)
      • महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668-670 ई०)
      • परमेश्वरवर्मन प्रथम (670-695 ई०)
      • नरसिंहवर्मन द्वितीय (695-720 ई०)
      • परमेश्वरवर्मन द्वितीय (720-730 ई०)
    • नंदिवर्मन द्वितीय (730-795 ई०)(भीम वंश)
      • दंतीवर्मन (796-847 ई०)
      • नंदिवर्मन तृतीय (847-872 ई०)
      • नृपतंगवर्मन (872-882 ई०)
      • अपराजित वर्मन (882-897 ई०)

पल्लव राजवंश

सिंह विष्णु (575-600 ई०)

  • सिंह विष्णु पल्लव वंश का एक प्रतापी शासक था। इसी कारण इसे पल्लवों का वास्तविक संस्थापक भी कहा जाता है।
  • इसने अवनि सिंह की उपाधी धारण की।
  • अपने शासनकाल में इसने चेर, चोल, पाण्डय व कलभ राजाओं को युद्ध में पराजित कर अपनी ख्याती बढ़ायी। इसकी जानकारी वैलूर के पालैयम ताम्रपत्र से प्राप्त होती है।
  • सिंह विष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इसने मामल्लपुरम में वराहगुहा मंदिर का निर्माण कराया था। इसी मंदिर में इसने अपनी व अपनी पत्नियों की प्रतिमाएं भी स्थापित करवायी थी।
  • संस्कृत के महाकवि भारवि इसी के दरबार में थे। इनके द्वारा “किरातार्जुनीयम” की रचना की गई थी।

महेन्द्रवर्मन प्रथम (600-630 ई०)

  • महेन्द्रवर्मन प्रथम अपने पिता सिंह विष्णु की मृत्यु के बाद शासक बना।
  • इसने मत्तविलास नाम के एक हास्य ग्रंथ की रचना की थी, जिस कारण इसे मत्तविलास की उपाधी प्राप्त हुई । अन्य उपाधियां जैसे “गुणभर”, “शत्रुमल्ल” एवं ”लिलतांकुर” भी धारण करी थी।
  • इसी के समय में पल्लवों का चालुक्यों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया ।
  • चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय द्वारा महेन्द्रवर्मन प्रथम युद्ध में पराजित हुआ था।
  • ये प्रसिद्ध संगीतज्ञ रूद्राचार्य का शिष्य भी था।
  • अपने पिता से भिज्ञ ये जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु बाद में संत अप्पर के संपर्क में आकर इसने जैन धर्म को छोड़ शैव धर्म को अपना लिया।
  • महेन्द्रवर्मन प्रथम को मंदिरों के निर्माण की महेन्द्र शैली का जनक माना जाता है। कठोर पत्थरों को काट कर गुहा मंदिरों का निर्माण करवाया जिन्हें मण्डप कहा जाता था। मक्कोंडा मंदिर, अनंतेश्वर मंदिर इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

नरसिंह वर्मन प्रथम (630-668 ई०)

  • नरसिंहवर्मन प्रथम अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।
  • इसने “मामल्ल” की उपाधी धारण की।
  • इसने चालुक्यों से अपने पिता महेन्द्रवर्मन प्रथम की हार का बदला लेना का निर्णय लिया और अपनी सैन्य शक्ति संगठित कर उत्तर की ओर विजय अभियान शुरू किया । इसकी जानकारी कुर्रम अभिलेख से प्राप्त होती है ।
  • चालुक्य वंश के शासक पुलकेशिन द्वितीय को इसने युद्ध में पराजित कर उनकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया । इसकी जानकारी हमें वातापी(वर्तमान बादामी) के मल्लिकार्जुन मंदिर के पाषाण अभिलेख से प्राप्त होती है-
    • पुलकेशिन द्वितीय के साथ 3 युद्ध किए पिरयाल, शूरमार एवं मणिमंगलम और तीनों में ही पुलकेशिन द्वितीय को परास्त किया ।
    • वातापी को जीतने पर “वातापीकोण्ड” की उपाधी धारण की।
    • इसी के राज्यकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांचीपुरम आया था।
  • इसने कई मंदिरों का निर्माण भी करवाया तथा इस शैली के मंदिरों को मामल्ल शैली कहा गया –
    • एकाश्मक रथ मंदिरों का निर्माण करवाया। इन्हें सप्तपगौड़ा भी कहा जाता है।
    • महामल्लपुरम नामक एक नगर की स्थापना की, इसे वर्तमान में महाबलिपुरम नाम से जाना जाता है । यहीं पर धर्मराज मंदिर, सात पेरू मंदिर का निर्माण भी करवाया।

महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668-670 ई०)

  • अपने पिता नरसिंह वर्मन प्रथम की मृत्यु उपरान्त शासक बना।
  • इसके शासन काल में भी पल्लवों एवं चालुक्यों का संघर्ष चलता रहा।
  • चालुक्य वंश के शासक विक्रमादित्य प्रथम के साथ युद्ध में इसकी मृत्यु हो गयी।

परमेश्वरवर्मन प्रथम (670-695 ई०)

  • 670 ई0 में अपने पिता की मृत्यु के बाद शासक बना ।
  • इसके एकमल्ल, लोकादित्यु एं गुणभाजन की उपाधियां धारण की ।
  • चालुक्य नरेश विक्रमादित्य के साथ हुए सभी युद्ध बिना निष्कर्ष के ही समाप्त हुए ।
  • अपने पूर्वजों की भांति से भी शैव मतानुयायी था । इसने मामल्लपुरम में गणेश मंदिर का निर्माण करवाया था ।

नरसिंहवर्मन द्वितीय (695-720 ई०)

  • इसका शासनकाल शान्तिपूर्ण रहा। अतः इसने कला एंव साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया । इसे मंदिर निर्माण की राजसिंह शैली का जनक कहा जाता है –
    • पाषाण ईंटों से मंदिरों का निर्माण करवाया ।
    • कांची में कैलाशनाथ मंदिर, ऐरावतेश्वर मंदिर एवं बैकुण्ठ पेरूमल बनवाया ।
    • कांची में ही इसने एक संस्कृत महाविद्यालय भी बनवाया ।
  • इसने राजसिंह, अगमप्रय व शंकर भक्त की उपाधी धारण की ।
  • संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान दंडी इसी के दरबार में थे ।
  • वर्ष 720 ई0 में इसने अपना एक प्रतिनिधिमंडल चीन भेजा था ।

परमेश्वरवर्मन द्वितीय (720-730 ई०)

  • चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय से एक अपमानजनक संधि के प्रस्ताव को स्वीकार न करने के कारण। चालुक्य नरेश ने गंग वंश के शासक के सहयोग से युद्ध में पराजित कर इसकी हत्या कर दी ।
  • इसकी मृत्यु के उपरान्त पल्लव वंश में कोई भी योग्य शासक न होने के कारण चालुक्यों ने कांची पर अधिकार कर लिया ।

नंदिवर्मन द्वितीय (730-795 ई०)(भीम वंश)

  • पल्लव वंश के अंतिम शासक परमेश्वरवर्मन की मृत्यु उपरान्त राजसत्ता के लिए गृहयुद्ध छिड़ गया । किसी भी योग्य उत्तराधिकारी के न होने के कारण भीम वंश(पल्लवों के सहयोगी) के शासक नंदिवर्मन ने सत्ता संभाली ।
  • इसने पल्लवों की सैन्य शक्ति को पुनः संगठित किया और कांची को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त कराया ।
  • राष्ट्रकूट वंश के दंतिदुर्ग ने 750 ई0 में नंदिवर्मन द्वितीय पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया। युद्ध उपरान्त एक संधि के अनुसार नंदिवर्मन द्वितीय और दंतिदुर्ग की पुत्री रेवा का विवाह किया गया ।
  • वैष्णव धर्म का अनुयायी था।
  • इसने मंदिर निर्माण में जिस शैली का प्रयोग किया उसे नंदिवर्मन शैली नाम से जाना जाता है । इस शैली में छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण किया जाता था । इस शैली के मंदिरों में कांची का मुक्तेश्वर मंदिर प्रमुख है ।
  • प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरूमंगई अलवार इसके समकालीन थे ।

दंतीवर्मन (796-847 ई०)

  • नंदिवर्मन द्वितीय और रेवा का पुत्र था । इसका नाम अपने नाना दंतिदुर्ग के नाम पर रखा गया ।
  • प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य इसी के समकालीन थे ।

नंदिवर्मन तृतीय (847-872 ई०)

  • अपने पिता दंतीवर्न की मृत्यु उपरान्त गद्दी पर बैठा ।
  • इसके शासन काल तक पल्लव वंश की शक्ति काफी शीण हो चुकी थी ।
  • इसने पल्लों को पुनः संगठित करने का प्रयास किया तथा पांडयों को युद्ध में हराया ।
  • अपने दादा की भांति इसने राष्ट्रकूट वंश के नरेश अमोघवर्ष की पुत्री शंखा से विवाह किया।

नृपतंगवर्मन (872-882 ई०)

  • नंदिवर्मन तृतीय एवं उसकी राष्ट्रकूट रानी शंखा का पुत्र था।
  • अपने राज्यकाल में पाण्डय नरेश वरगुण द्वितीय को पराजित करा।

अपराजित वर्मन (882-897 ई०)

  • नृपतंगवर्मन का पुत्र अपराजित वर्मन इस वंश का अंतिम शासक बना।
  • ये एक अयोग्य एंव कमजोर शासक था।
  • इस स्थिति का फायदा उठाकर इसके सामंत चोल वंश के आदित्य प्रथम ने इसकी हत्या कर दी तथा पल्लव वंश के राज्य को अपने चोल साम्राज्य में समाहित कर लिया।

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पल्लव वंश कब से कब तक रहा?

पल्लव वंश की स्थापना वर्ष- 575 ईस्वी. पल्लव वंश का अंत- 897 ईस्वी. पल्लव वंश का शासनकाल- लगभग 622 वर्ष ( 275 ईस्वी से लेकर 897 ईस्वी तक). पल्लव वंश की राजधानी- कांची.

पल्लव वंश का अंत कैसे हुआ?

नृपतुंगवर्मन् का पुत्र अपराजित इस वंश का अंतिम सम्राट् था। पल्लवों के सामंत आदित्य प्रथम ने अपनी शक्ति बढ़ाई और 893 के लगभग अपराजित को पराजित कर पल्लव साम्राज्य को चोल राज्य में मिला लिया। इस प्रकार पल्लव साम्राज्य का अस्तित्व समाप्त हुआ

पल्लव वंश के बाद कौन सा वंश आया?

अपराजित पल्‍लव वंश का अंतिम शासक और 872-913 ई. के बीच नृपतुंगवर्मन् और उसके पुत्र अपराजित ने शासन किया। इस वंश का अंतिम सम्राट् अपराजित था। पल्लवों के सामंत आदित्य प्रथम ने अपराजित को पराजित कर पल्लव साम्राज्य को चोल राज्य में मिला लिया।

पल्लव वंश की स्थापना कब हुई थी?

पल्लव वंश का इतिहास (History of pallava dynasty) : इतिहास के अनुसार पल्लव वंश की स्थापना चौथी शताब्दी में हुई। यहाँ तेलगु और तमिल क्षेत्र में पल्लवों ने लगभग 600 वर्षों तक शासन किया। वैसे पल्लव का अर्थ होता है - लता और यह तमिल शब्द टोंडाई का रूपांतरण है जिसका अर्थ भी लता ही होता है।