चल, चपल कलम, निज चित्रकूट चल देखें, Show तरु-तले विराजे हुए,-शिला के ऊपर, अंचल-पट कटि में खोंस,
कछोटा मारे, "निज सौध सदन में उटज पिता ने छाया, सम्राट स्वयं
प्राणेश, सचिव देवर हैं, सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया, क्या सुन्दर लता-वितान तना है मेरा, प्रहरी निर्झर, परिखा प्रवाह की काया, औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ, तनु-लता-सफलता-स्वादु आज ही आया, जिनसे ये प्रणयी प्राण त्राण पाते हैं उनका वर्णन ही बना विनोद सवाया, किसलय-कर स्वागत-हेतु हिला करते हैं, निधि खोले दिखला रही प्रकृति निज माया, कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा? वह बधू जानकी बनी आज यह जाया, फल-फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी, क्रीड़ा-साम्राज्ञी बनी स्वयं निज छाया, मैं पली पक्षिणी विपिन-कुंज-पिंजर की, कब उसे छेड़ यह कंठ यहाँ न अघाया? गुरुजन-परिजन सब धन्य ध्येय हैं मेरे, मेरे पीछे ध्रुव-धर्म स्वयं ही धाया, नाचो मयूर, नाचो कपोत के जोड़े, तितली, तूने यह कहाँ चित्रपट पाया? आओ कलापि, निज चन्द्रकला दिखलाओ, शुक, पढ़ो,-मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया, अयि राजहंसि, तू तरस तरस क्यों रोती, जिन पर मानस ने पद्म-रूप मुँह बाया, ओ निर्झर, झरझर नाद सुना कर झड़ तू। जीवन को तूने गीत बनाया, गाया, ओ भोली कोल-किरात-भिल्ल-बालाओ, लो, मेरा नागर भाव भेट जो लाया, सब ओर लाभ ही लाभ बोध-विनिमय में, निकले फूलों का रंग, ढंग से
ताया, थे समाधिस्थ से राम अनाहत सुनते, देवर के शर की अनी बनाकर टाँकी निज मन्दिर उसने यही कुटीर
बनाया! "हा! ठहरो, बस, विश्राम प्रिये, लो थोड़ा,
"अच्छा, ये पौधे कहो फलेंगे कब लौं? "मैं तो नद का परमार्थ इसे मानूँगा "तुम इसी भाव से भरे यहाँ आये हो? मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया, उच्चारित होती चले वेद की वाणी, "पर यह क्या, खग-मृग भीत भगे आते हैं, देखो, यह मेरा नकुल देहली पर से "भाभी, भय का उपचार चाप यह मेरा, "गृह-कलह शान्त हो, हाय! कुशल हो कुल की, "भद्रे, न भरत भी उसे छोड़ आये हों, देखी सीता ने स्वयं साक्षिणी हो हो,- इतने में कलकल हुआ वहाँ जय जय का, जिस पर पाले का एक पर्त-सा छाया, उस सरसी-सी, आभरणरहित, सितवसना, फिर बोले वे-"क्या करूँ और मैं कहिए, "है श्रद्धा पर ही श्राद्ध, न आडम्बर पर, यह कह सीता-सह नदी-तीर प्रभु आये, पट-मण्डप चारों ओर तनें मन भाये, आलान बने द्रुम-काण्ड गजों के जैसे, उस ओर पिता के भक्ति-भाव से भरके, तदन्तर बैठी सभा उटज के आगे, "यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।" "क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी, युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी- "हा! लाल? उसे भी आज गमाया मैंने, पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में, मेरे तो एक अधीर हृदय है बेटा, "हे अम्ब, तुम्हारा राम जानता है सब, "हा मातः, मुझको करो न यों अपराधी, "राघव, तेरे ही योग्य कथन है तेरा, हे वत्स, तुम्हें वनवास दिया मैंने ही, "हा आर्य! भरत के लिये और था इतना?" सन्नाटा-सा छा गया सभा में क्षण भर, हँस कर जावालि वशष्टि ओर तब हेरे, "हे देव, विफल हो वार वार भी, मन की,- "भाभी, तुम पर है मुझे भरोसा दूना, तुमने मुझको यश दिया स्वयं श्रीमुख से, "अभिषेक अम्बु हो कहाँ अधिष्ठित, कहिए, तब सबने जय जयकार किया मनमाना, इस भाँति जनों के मनोंमुकुल खिलते थे, "मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी, "वन में तनिक तपस्या करके एक घड़ी भी बीत न पाई, साकेत महाकाव्य का मूल उद्देश्य क्या है?'साकेत' का मुख्य उद्देश्य रामकथा के उपेक्षित पात्रों को प्रकाश में लाना है। महाकाव्य के लिए घटना का ऐक्य होना आवश्यक है । इसीलिए गौण कथाओं का होना भी आवश्यक है। उर्मिला का विरह इस काव्य की प्रमुख घटना होने के कारण उर्मिला और लक्ष्मण का पुनर्मिलन प्रमुख उद्देश्य है ।
साकेत महाकाव्य का अर्थ क्या है?'साकेत महाकवि' मैथिलीशरण गुप्त का लिखा महाकाव्य है जो 12 सर्गों में लिखा गया है। शुरुआती सर्गों में श्रीराम को वनवास का आदेश, अयोध्यावासियों का करुण-रुदन और वनगमन की झांकियां हैं। अंत के सर्गों में लक्ष्मण की पत्नी व राजवधू उर्मिला के वियोग का वर्णन है। साकेत मुख्यत: उर्मिला को केन्द्र में रख कर ही लिखी गयी है।
साकेत में किसका वर्णन है?साकेत श्रीरामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है।
साकेत का अर्थ क्या होता है?साकेत नाम का मतलब भगवान कृष्ण, एक ही इरादा होने होता है।
|