कबीर के दार्शनिक विचारों का निरूपण? - kabeer ke daarshanik vichaaron ka niroopan?

हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है। सभी की बनावट में एक जैसी हवा, खून, पानी का प्रयोग हुआ है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, नींद सभी की जरूरतें एक जैसी हैं। सूरज, प्रकाश और गर्मी सभी को देता है, वर्षा का पानी सभी के लिए है, हवा सभी के लिए है। सभी एक ही आसमान के नीचे रहते हैं। इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेद-भाव नहीं करता तो फिर मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, छुआ-छूत का भेद-भाव क्यों है? ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे जिनके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कबीर ने अपने उपदेशों के द्वारा समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया और आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया। संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय या शास्त्रीय नहीं था। अपने जीवन में उन्होंने जो अनुभव किया, जो साधना से पाया, वही उनका अपना ज्ञान था। जो भी ज्ञानी, विद्वान उनके सम्पर्क में आते उनसे वे कहा करते थे।

'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखों की देखी। 

सैकड़ों पोथियाँ (पुस्तकें) पढ़ने के बजाय वे प्रेम का ढाई अक्षर पढ़कर स्वयं को धन्य समझते थे। कबीर को बाह्य आडम्बर, दिखावा और पाखण्ड से चिढ़ थी। मौलवियों और पण्डितों के कर्मकाण्ड उनको पसन्द नहीं थे। मस्जिदों में नमाज़ पढ़ना, मंदिरों में माला जपना, तिलक लगाना, मूर्तिपूजा करना, रोजा या उपवास रखना आदि को कबीर आडम्बर समझते थे। कबीर सादगी से रहना, सादा भोजन करना, पसन्द करते थे। बनावट उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। अपने आस-पास के समाज को वे आडम्बरों से मुक्त बनाना चाहते थे। साधु-संतों के साथ कबीर इधर-उधर घूमने जाते रहते थे। इसलिए उनकी भाषा में अनेक स्थानों की बोलियों के शब्द आ गए हैं। कबीर अपने विचारों और अनुभवों को व्यक्त करने के लिए स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे। कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' भी कहा जाता है। कबीर अपनी स्थानीय भाषा में लोगों को समझाते, उपदेश देते थे। जगह-जगह पर उदाहरण देकर अपनी बातों को लोगों के अन्तर्मन तक पहुँचाने का प्रयास करते थे। कबीर की वाणी को साखी, सबद और रमैनी तीन रूपों में लिखा गया जो 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। कबीर ग्रंथावली में भी उनकी रचनाएँ संग्रहीत हैं।

कबीर की दृष्टि में गुरु का स्थान भगवान से भी बढ़कर है। एक स्थान पर उन्होंने गुरु को कुम्हार बताया है, जो मिट्टी के बर्तन के समान अपने शिष्य को ठोंक-पीटकर सुघड़ पात्र में बदल देता है। सज्जनों, साधु-संतों की संगति उन्हें अच्छी लगती थी। यद्यपि कबीर की निन्दा करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं थी लेकिन कबीर निन्दा करने वाले लोगों को अपना हितैषी समझते थे।

'निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। 

उस समय लोगों के बीच में ऐसी धारणा फैली हुई थी कि मगहर में मरने से नरक मिलता है। इसलिए कबीर अपनी मृत्यु निकट जानकर काशी से मगहर चले गये और समाज में फैली हुई इस धारणा को तोड़ा। 1518 ई० में उनका निधन हो गया। कबीर सत्य बोलने वाले निर्भीक व्यक्ति थे। वे कटु सत्य भी कहने में नहीं हिचकते थे। उनकी वाणी आज के भेद-भाव भरे समाज में मानवीय एकता का रास्ता दिखाने में सक्षम है।

कबीरदास के गुरु संत रामानन्द

रामानन्द का जन्म 1266 ई० में प्रयाग में हुआ था। इनकी माता का नाम सुशीला और पिता का नाम पुण्य दमन था। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसलिए रामानन्द के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे पूजा-पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानन्द कबीर के गुरु थे। रामानन्द की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में हुई। रामानन्द प्रखर बुद्धि के बालक थे। अतः धर्मशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा गया। वहीं दक्षिण भारत से आये गुरु राघवानन्द से उनकी भेंट हुई। राघवानन्द वैष्णव सम्प्रदाय में विश्वास रखते थे। उस समय वैष्णव सम्प्रदाय में अनेक रूढ़ियाँ थीं। kabir das in hindi

कबीरदास की काव्य रचनाएँ 

कबीर के शिष्यों ने उनकी वाणियों का संग्रह 'बीजक' नाम के ग्रंथ में किया। बीजक कबीर की प्रामाणिक रचना मानी जाती है। बीजक के तीन मुख्य भाग हैं- साखी, सबद, रमैनी।

  • साखी - साखी संस्कृत 'साक्षी', शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कबीर की शिक्षाओं, उपदेशों और सिद्धांतों का निरूपण अधिकतर साखी में हुआ है। 
  • सबद - सबद गेय पद अर्थात् संगीतात्मक शैली में है। इसमें उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है। इनमें कबीर के प्रेम और अंतरंग साधना की अभिव्यक्त हुई है। 
  • रमैनी - यह चौपाई छंद में लिखी गई है जिसमें कबीर ने दार्शनिक और रहस्यवादी विचारों को प्रकट किया है।

कबीरदास की रचनाएँ

  • निर्गुण भक्तिधारा के प्रतिपादक संत कबीर ने बीजक, सबद्, रमैनी, साखी आदि रचनाएं लिखी, जिनमें सामाजिक सुधार, व्यवहारिक व उपयोगितावादी दृष्टिकोण, सामाजिक समानता आदि का उल्लेख किया गया है।
  • कबीरदास की रचनायें तीन ही प्रसिद्ध हैं-'साखी', 'सबद' और 'रमैनी'।
  • कबीरदास जी ने इन तीनों कृतियों में अपने ही जीवन दर्शन को अंकित नहीं किया है, अपितु समस्त संसार के व्यवहार का चित्रण किया है।
  • कबीरदास की साखियाँ अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हैं। इन साखियों के पढ़ने और मनन करने से अज्ञानी और मोह ग्रसित व्यक्ति को जीवन की श्रेष्ठता के आधार मिलते हैं और जीवन सुधार करके जीवन को सार्थक और उपयोगी बनाने का मार्ग दर्शन भी प्राप्त होता है।
  • ये साखियाँ दोहे हैं, जबकि अन्य दोनों रचनाएँ 'सबद और रमैनी' पदों में हैं।
  • कबीरदास ने अपनी रचनाओं में गुरू-महिमा का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह और कहीं नहीं मिलता है। गुरू को ईश्वर से बड़ा सिद्ध करने का इतना बड़ा प्रयास किसी और ने किया ही नहीं।

कबीरदास के दोहे

  • बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिल्या कोए जो मुन्न खोजा अपना, तो मुझसे बुरा ना कोए.
  • काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब?
  • ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोए अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए.
  • धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए माली सींचे सौ घड़ा, ऋतू आये फल होए.
  • साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाये मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये
  • बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं, फल लागे अतिदूर
  • माँगन मरण सामान है, मत कोई मांगे भीख माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख
  • कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
  • पोथी पढ़ पढ़ कर जग मुआ, पंडित भायो न कोई ढाई आखर प्रेम के, जो पढ़े सो पंडित होए
  • दुःख में सिमरण सब करे, सुख में करे न कोए जो सुख में सिमरन करे, तो दुख काहे को होय

कबीरदास के प्रसिद्द दोहे

चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह।

जिसको कुछ नहीं चाहिए, वह शहनशाह॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।

कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर॥

सुख मे सुमिरन ना किया, दुःख में करते याद।

कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।

बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।

हरिरूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।

तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

माया मरीन मन मरा, मर-मर गए शरीर।

आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।

तिनका तिनके से मिला तिनका तिन के पास॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।

हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।

सार-सार को गहि रहे थोथा देई उडाय॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।

आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।

आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय॥

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय॥

तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय॥

साहब के दरबार में साँचे को सिर पाव।

 झूठ तमाचा खायेगा, रंक्क होय या राव॥

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदे साँच है, ताके हिरदे आप॥

झूठी बात न बोलिये, जब लग पार बसाय।

कहो कबीरा साँचगह, आवागमन नसाय॥

साँच शब्द हिरदे गहा, अलख पुरुष भरपुर।

प्रेम प्रीति का चोलना, पहरैदास हजूर॥

साँई सों साचा रहो, साँई साँच सुहाय।

भावे लम्बे केस रख, भावै मूड मुड़ाय॥

साँच बिना सुमिरन नहीं, भय बिन भक्ति न होय।

पारस में पड़दा रहै, कंचन किहि विधि होय॥

सच सुनिये सच बोलिये, सच की करिये आस।

सत्य नाम का जप करो, जग से रहो उदास॥

कबीर लज्जा लोक की, बोले नाहीं साँच।

जानि बूझ कंचन तजै, क्यों तू पकड़े काँच॥

साँचे को साँचा मिलै, अधिका बढ़े सनेह।

झूठ को साँचा मिले, तब ही टूटे नेह॥

जाकी साँची सुरति है, ताका साँचा खेल।

आठ पहर चौंसठ घड़ी, हे साँई सो मेल॥


कबीरदास का दर्शन/नैतिक विचार 

कबीरदास सच्चे अर्थों में क्रांतिस्रष्टा एवं दूरद्रष्टा थे। उन्होंने मध्यकाल की दहलीज पर खड़े होकर समाज के समक्ष ऐसे आदर्शों व मूल्यों की प्रस्तावना प्रस्तुत की, जो न केवल अपने स्वरूप में आधुनिक है, अपितु मानव व समाज कल्याण हेतु अनिवार्य रूप से आवश्यक भी है। वह कबीर दास ही हैं, जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से समाज के समक्ष समतावादी भावना का मूल्य रखा। वे सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि जड़ताओं का न केवल खुलासा करते हैं, अपितु इनसे प्रतिवाद भी स्थापित करते हैं। कबीर के दर्शन में चिंतन एवं साधना के आधार पर ब्रह्म, जीव, माया, जगत एवं सहज साधना जैसे विचार व्यक्त किये गए हैं।

  • जब वे कहते हैं कि 'यदि जनेऊ पहनने से कोई ब्राह्मण होता है तो फिर ब्राह्मण अपनी पत्नी को तो जनेऊ नहीं पहनाता, फिर वह तो शूद्र हो गयी, ऐसे में वह अपनी पत्नी का बनाया भोजन क्यों खाता है?' कबीर इसके माध्यम से एक और ब्राह्णवाद पर प्रहार करते हैं तो दूसरी ओर महिलाओं के प्रति भेद्भावी वाली सामाजिक दृष्टिकोण पर भी प्रहार करते हैं।
  • संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता। जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।  
  • वे जो भी कहते और करते थे, वह आत्मविश्वास के साथ करते थे और विवेक का साथ कभी नहीं छोड़ते थे। उन्होंने सत्य की खोज को सभी धर्म और पंथ के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की है।  
  • वे सच्चे मानवतावादी थे। मानव मानव में उन्होंने जाति और धर्म के नाम पर कभी झगड़ा नहीं कराया, बल्कि सत मार्ग दर्शन करके मिथ्या अभिमान को नष्ट करने का उपदेश दिया। 
  • कबीर बराबर प्रयत्नशील रहे कि दुखी, असहाय और पीड़ित जनता के बीच सुख-शांति का प्रसार हो एवं उसका जीवन सुरक्षित और आनंदमय हो। 
  • कबीर सुखी जीवन की कला भक्ति को बताते थे। कबीर के पास यही ज्ञान था, इसी ज्ञान के सहारे वे जनजीवन मे हरियाली लाने का प्रयास करते रहे। वे कहते हैं कि 'अगर तुम अपनी भलाई चाहते हो, तो मेरी बातो को ध्यान से सुनो और उन पर अमल भी करो।' वे हम मानव को सर्वप्रथम स्वयं को स्थिर करने, शांत होने, अपने को पहचानने एवं आनंद मे रहने को कहते हैं। उनके अनुसार जब मानव मन के सारे विकारों को दूर करके शांत स्थिर चित्त से बैठेगा, तो वह हर प्रकार की विषम परिस्थिति से बचा रहेगा।  
  • कबीर व्यावहारिकता पर बल देते हैं। उनके सारे सुझाव सीधे और अनुकरणीय हैं। वे मानव को सांसारिक प्रपंच से हटाकर •अंतर्मुखी होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि दूर का सोचना व्यर्थ है। समीपता में ही सुख का वास है। 
  • सभी शरीर धारियों को इस संसार में अपने कर्मानुसार दुख उठाना ही पड़ता है। दुख की इस घड़ी मे कतई घबड़ाना नहीं चाहिए, बल्कि शांतिपूर्वक दुख को सहन करना चाहिए। ज्ञानीजन अपने ज्ञान के बल पर इस दुख की मार को स्थिर चित्त से शांति पूर्वक भोग लेते हैं, लेकिन अज्ञानीजन दुख की मार से तिलमिला जाते हैं और रूदन करने लगते हैं।
  • सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। शद्धि के पश्चात ही भक्ति रस में मन रमता है और सांसारिक प्रपंच से मन शनैः शनैः हटने लगता है। वे कहते है मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा। 
  • वे कहते हैं कि विवेक के निर्देशों का पालन करने वाले जीवन में असीम आनंद का प्रवाह होता है। विवेकी व्यक्ति किसी होता, क्योकि उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की समस्त स्थितियाँ नश्वर एवं क्षणिक हैं। 
  • आनंद दूसरों को दुख देकर नहीं, बल्कि इच्छापूर्वक स्वयं दुख झेलने से ही प्राप्त होता है। 
  • कबीर के बारे में उपरोक्त विचार दर्शन उनकी साहित्यिक रचनाओं मे मिलता है। कबीर की वाणी का एक-एक शब्द इसी दिशा में लक्षित रहा कि समाज से अंधविश्वास व भ्रांतियों समाप्त हो, समाज सुसंस्कारित हो और ईश्वरोन्मुख गति को प्राप्त करे। मानव-मानव से द्वेष न रखें व ऊँच-नीच जात-पात जैसी कोई भावना किसी के हृदय में नहीं रहे। 
  • कबीर का जीवन एक अच्छे और कुशल गृहस्थ की तरह व्यतीत हुआ। घर-गृहस्थी में उलझे होने के कारण कबीरदास की शिक्षा न हो पाई। कबीरदास को पुस्तकीय ज्ञान भले ही प्राप्त न हुआ हो लेकिन उन्हें सांसारिक अनुभव अवश्य प्राप्त हुआ था। कहा जाता है कि इन्होनें तत्कालीन हिन्दू संत महात्मा रामानन्द जी से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी।
  • कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं जिसे उन्होंने राम, केशव, माधव, रहीम, हरि आदि अनेक नामों से संबोधित किया।
  • कबीर ने निराकार ब्रह्म को 'राम' नाम से संबोधित किया।
  • कबीर के राम सगुण साकार नहीं हैं वे तो निर्गुण, अव्यक्त और निराकार हैं।
  • कबीर ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है।
  • कबीर जीव और ब्रह्म अर्थात् आत्मा और परमात्मा को एक ही मानते हैं। 
  • कबीर के ब्रह्म जिस प्रकार सर्वव्यापक एवं सर्वविद्यमान हैं उसी प्रकार आत्मा केवल शरीर न होकर सर्वत्र है। क्योंकि आत्मा ब्रह्म का ही रूप है। 
  • कबीर के अनुसार जब जीव अपना वास्तविक स्वरूप पहचान लेता है तब वह खुद को परमात्मा के नज़दीक पाता है एवं सांसारिकता एवं त्रिविध दु:खों- दैहिक, भौतिक व दैविक से मुक्त हो जाता है और ऐसी आत्मा अजर-अमर हो जाती है। 
  • कबीर ने जगत को परब्रह्म परमेश्वर की सत्ता एवं अभिव्यक्ति माना है।
  • कबीर जगत को शाश्वत, नित्य एवं चिंतन मानते हैं लेकिन वह जीवन एवं संसार को क्षणभंगुर एवं असत्य मानते हैं। 
  • कबीर के अनुसार जन्म-मरण से मुक्ति स्वयं को ब्रह्म में लीन कर देने से मिलती है।
  • कबीर कहते हैं मनुष्य को राम से मिलाने का सबसे बड़ा अवरोध माया है। 
  • कबीर ने माया को अविद्या कहा है। 
  • काम, वासना एवं तृष्णा को माया जन्म देती है।
  • माया को वशीभूत करने के लिये कबीर ने राम भक्ति का मार्ग सुझाया है। 
  • कबीर की सहज-साधना ब्रह्म की प्राप्ति के लिये है, इसे प्राप्त करने के लिये विषय-वासनाओं का त्याग आवश्यक माना गया है।

कबीरदास का भक्ति पक्ष 

कबीरदास निराकारवादी हैं। कबीर के अनुसार निराकार की प्राप्ति ज्ञान द्वारा संभव है, यह ज्ञान सत गुरु द्वारा प्रदान किया जाता है। उन के अनुसार ईश्वर मानव के भीतर है उसे बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, काबा, काशी में ढूँढता फिरता है जबकि ईश्वर स्वयं व्यक्ति के भीतर है। कबीर ने राम नाम का मंत्र अपने गुरु रामानंद से लिया है। परंतु कबीर के राम वह नहीं है, जो तुलसी के राम हैं बल्कि उनके 'राम' मात्र प्रतीक हैं। कबीर के राम जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। उनके 'राम', इस्लाम के सत्तावादी एक एकेश्वरवादी खुदा भी नहीं हैं। कबीर के अनुसार 'राम' समस्त जीव और जगत से भिन्न नहीं है। कबीर राम की अवधारणा को व्यापक रूप प्रदान करना चाहते थे। कबीर नाम में विश्वास रखते हैं रूप में नहीं। कबीर ने राम नाम के साथ लोक मानस में शताब्दियों से रचे बसे संश्लिष्ट भावों को व्यापक एवं उदात्त स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बंधने से रोकने की भरपूर कोशिश की है। कबीर ने निर्गुण राम शब्द का प्रयोग किया है- “निर्गुण राम जपुहौं रे भाई" कभी वह राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी मानते हैं, तो कभी दास्य भाव या स्वामी, तो कभी-कभी वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और स्वंय को उनका पुत्र। निर्गुण निराकार के साथ भी इस तरह का सहज, सरस मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणत है। कबीर की साधना मानने से नहीं जानने से शुरू होती है।

कबीरदास के काव्य में सामाजिक चेतना 

कबीरदास भक्त एवं आध्यात्मिक होते हुए भी समाज के प्रति संवेदनशील एवं चिंताशील हैं। वे हमेशा सामाजिक समरसता की बात करते हैं। वे जातिवाद, सांप्रदायिकता आदि जड़ताओं पर न केवल प्रहार करते हैं। अपितु इनके प्रतिवाद भी स्थापित करते हैं। जातिवाद को उन्होंने समाज की प्रगति में मुख्य अवरोध माना है इसलिये वह इस पर चोट करते हुए “जाति-पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजो सौ हरि को होई" की भावाभिव्यक्ति करते हैं।

हिंदू-मुस्लिम जिस राम-रहीम के भ्रामक भेद के आधार पर साम्प्रदायिकता का प्रसार कर रहे थे, उसके प्रति कबीर दास ने प्रतिवाद करते हुए तीखा प्रहार किया। उनकी मूल मान्यता मानव मात्र की एकता के आधार पर समाज की समानत की संकल्पना प्रस्तुत करना है। वे हिंदू-मुस्लिम दोनों की एक रस होने की बात करते हैं। इसलिये उन्होंने दोनों के लिये कह है- "हिंदू कहत हैं राम हमारा, मुसलमान रहिमाना।" इस प्रकार कबीरदास ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों व धार्मिक आडंबरों पर प्रहार किया है। वे सच्चे अर्थों में प्रगतिशील समाज की संकल्पना लेकर आते हैं। उनकी मूल चिंता मानव व उसके कल्याण की है। अतः उनकी दृष्टि में मानव का विकास उसकी आधारभूत आवश्यकताएँ महत्त्व रखती हैं। कबीर कहते हैं-

“पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजौं पहार।

 वाते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।" 

कबीर आडंबरों से इतर चकिया को वरीयता देते हैं जो समाज नीति व अर्थव्यवस्था के विकास की धुरी है। चकिया यहाँ उन सभी साधनों, तत्त्वों का प्रतीक है, जिनसे व्यक्ति का जीविकोपार्जन होता है तथा जिनसे सभ्यता व भौतिकता का विकास होता है और समाज नित ऊँचाइयों को छूता है। 

कबीर दास मात्र हिंदू समाज की रूढ़ियों का ही खंडन नहीं करते, उनकी दृष्टि मुस्लिम समाज के आडंबरों पर भी जाती है। वे इसके प्रति मात्र मूकदर्शक न होकर सच्चे क्रांतिवीर नज़र आते हैं। वे समाज के पथप्रदर्शक हैं। वे कहते हैं- 'कंकड़ पाथर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय'। इस अभिव्यंजना द्वारा मुस्लिमों के आडंबरों का खंडन करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट हे कि कबीर के काव्य में सामाजिक चेतना सकल समाज के व्यापक कल्याण की है जिसमें क्या मुस्लिम, क्या हिंदू, क्या नाथ क्या सिद्ध, किसी भी संप्रदाय, किसी भी जाति व किसी भी क्षेत्र की भेदमूलक व्यवस्था उनके प्रतिवाद के दायरे के बाहर नहीं रह पाई है। कबीर प्राणिमात्र के प्रति प्रेम पर बल देते हैं। वे न केवल सामाजिक समरसता की बात करते हैं बल्कि सभी प्राणी यानि मानव, पशु, जीव-जंतु के कल्याण की बात करते हैं। कबीरदास मात्र मूकदर्शक न होकर सच्चे क्रांतिवीर नजर आते हैं।

कबीर मात्र आलोचक या खंडनकर्ता नहीं अपितु क्रांति व वीरता के सच्चे उपासक भी हैं। उनकी कविता की मूल भावना ने समतावाद की स्थापना की है।

तर्कवादिता

  • कबीरदास की जो बात सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह यह है कि एक समझदार इंसान को किसी की बात अंधेपन के साथ स्वीकार नहीं करनी चाहिए। उसे सिर्फ वही बातें माननी चाहिएँ जो उसके तर्कों और अनुभवों की कसौटी पर खरी उतरे।
  • 17वीं शताब्दी में लगभग यही बात यूरोप के एक विचारक रेने डेकार्ट ने कही थी जिसे 'संदेह पद्धति' के नाम से जाना जाता है। उसने कहा था कि किसी भी बात को स्वीकार करने से पहले व्यवस्थित तरीके से उसमें निहित हर धारणा पर संदेह करना चाहिए और जब हर प्रश्न का संतोषप्रद उत्तर मिल जाए तो ही उसे स्वीकार करना चाहिए। इसे 'वैज्ञानिक चिंतन पद्धति' कहते है, उसकी सैद्धांतिक स्थापना डोकार्ट, न्यूटन तथा थॉमस हॉब्स ने ही की थी।

यह जानना रोचक हो सकता है कि 16वीं और 17वीं शताब्दियों के इन तीनों विचारकों से लगभग 2-3 शताब्दी पहले कबीरदास अपने तरीके से उसी वैज्ञानिक चिंतन पद्धति का खाका खींच चुके थे। उनका कहना था कि सिर्फ उसी बात को सच मानो जिसे तुमने अपनी आँख से देखा हो।

उनका कथन है "तु कहता कागद की लेखी, में मैं कहता आँखिन की देखी"

  • इस दृष्टिकोण की प्रासंगिकता यह है कि सभी रूढ़िवादी धारणाएँ तथा आस्थाएँ, जो कि आज के समय में अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं और सिर्फ इसलिए चलती जा रही हैं कि लोग उनके आदि हो चुके हैं, उन सभी पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।  
  • जो प्रश्न गैलीलियों, कॉपरनिकस और ब्रूनों ने रूढ़िवादी ईसाइयत के विरूद्ध यूरोप में खड़े किए थे, लगभग वही सवाल कबीरदास ने भारत की रूढ़िवादी परंपराओं के सामने खड़े किए और खुलकर तर्कवाद, अनुभववाद तथा आधुनिक जीवन दृष्टि को प्रस्तावित किया। कबीरदास की संपूर्ण नैतिक विचारधारा इसी तर्कवाद पर आधारित है। वे सिर्फ एकाध मुद्दे पर चूके हैं।

जातिवाद का विरोध

  • कबीरदास ने जातिवाद का कठोर शब्दो में खंडन किया। उस समय के समाज मे जहाँ जातिवाद अपने प्रचंड रूप में मौजूद था और तथाकथित निम्न जातियों के मानवाधिकार हर कदम पर खतरे मे रहते थें जातिवाद का इतना प्रचंड विरोध करना बेहद क्रांतिकारी कदम था।  
  • जातिवाद का थोड़ा बहुत विरोध बौद्ध परंपरा ने भी किया था पर उस विरोध में वैसी उग्रता और तीक्ष्णता नहीं थी जो कबीरदास के विरोध में दिखती है। 

एक अर्थ में कबीर ने पहली बार जातीय वर्चस्व को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी रास्ता सुझाया। अपने कुछ कथनों में तो वे जातीय श्रेष्ठता का दम भरने वाले ब्राह्मणों को धिक्कारते हुए यहाँ तक कहते हैं कि अगर तुम ब्राह्मण और ब्राह्मणी की संतान हो और जन्म से श्रेष्ठता का दावा करते हो तो तुम बाकी मनुष्यों की तरह ही क्यो पैदा हुए, किसी विशेष तरीके (या किसी और रास्ते) से तुम्हारा जन्म क्यों नहीं हुआ?
"जो तू बांभन-बंभनी का जाया, आन बाट हवै क्यों नही आया।"

कबीरदास जाति व्यवस्था का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं कर रहे थे कि वे खुद एक ऐसी जाति से थे जो भेद-भाव का दंश झेल रही थी। उनके विरोध में तर्को की पैनी धार भी थी। उनका सामान्य सा प्रश्न था कि अगर व्यक्तियों मे ऊँच-नीच करनी ही है तो उसका आधार उनके व्यक्तित्व तथा ज्ञान में होना चाहिए, न कि इस संयोग में कि उनका जन्म किस परिवार में हुआ है, जन्म के संयोग के आधार पर किसी व्यक्ति को जीवनभर के लिए अपमान और किसी निकृष्ट व्यवसाय के लिए बाध्य कर देना कैसे तार्किक हो सकता है? उन्होंने इसी तर्क को अपने एक और प्रसिद्ध कथन में इस प्रकार प्रस्तुत किया

"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान॥"

  • कहने की जरूरत नहीं कि कबीरदास का यह जाति विरोध हमारे लिए भी बेहद प्रासंगिक है। ऊपर से भले ही हम जाति व्यवस्था से मुक्त नजर आते हो सच यह है कि आज भी हमारा समाज बड़े पैमाने पर जातीय मानसिकता से संचालित होता है। 
  • विवाह संबंधों में जाति की भूमिका आज भी प्रचंड है। सबसे निकृष्ट पेशे (जैसे शौचालयों को सफाई करना, मरे हुए जानवरों का चमड़ा उतारना) आज भी कुछ जातियों के सदस्यों को ही अपनाने पड़ते हैं। यह सही है कि आजादी मिलने के बाद हमारे देश ने जातीय भेदभाव के शिकार रहे लोगों को शिक्षा तथा नौकरी के क्षेत्रों में आरक्षण जैसी विशेष सुविधाएँ दी हैं, किन्तु यह भी सच है कि उन सुविधाओं के बावजूद अभी तक समाज का पर्याप्त समतलीकरण नहीं हो पाया है। सबसे ज्यादा जरूरी है कि उन लोगों का दिमाग बदला जाए जो आज भी अपनी जातीय श्रेष्ठता के दंभ से भरे है और यह बात समझने को बिल्कुल तैयार नहीं है कि आधुनिक समाज में प्रत्येक मनुष्य का सम्मान और हिस्सा उसकी योग्यताओं तथा मानवीय जरूरतों से निर्धारित होना चाहिए, न कि सिर्फ इस तुक्के से कि उसका जन्म किस परिवार या जाति में हुआ है।

साम्प्रदायिकता का विरोध

  • संत कबीर की तर्कवादी सोच का दूसरा पहलू वहाँ दिखता है जहाँ वे सांप्रदायिकता पर करारी चोट करते हैं। उनके समय में इस्लाम भारत में आया ही था और भारत के निवासियों के सामने एक रहस्य बनकर खड़ा था। 
  • उच्च जातियों के लोग प्रायः उससे आतंकित थे क्योंकि उनके लिए अपनी धार्मिक परंपराओं की रक्षा करना कठिन हो रहा था जबकि निम्न जातियों के बहुत से लोग इस्लाम के प्रति आकर्षित भी हो रहे थे क्योंकि उस मजहब मे सभी व्यक्ति खुदा के सामने बराबर माने जाते थे। जातिवादी भेदभाव से त्रस्त व्यक्ति को समतावादी मजहब आकर्षित क्यों न करता? 
  • कबीरदास की सोच यह थी कि व्यक्ति का मजहब चाहे जो भी हो, इस बात से उसे या दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अगर ईश्वर एक है तो निस्संदेह उसी ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को बनाया है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि कुछ लोग उसे 'ब्रह्म' कहते हैं जबकि कुछ 'खुदा'।  

वे इस बात से अचंभित रहते थे कि हिंदू मुसलमान के नाम पर लोग रात-दिन झगड़ा करने की फिराक मे क्यों रहते है? उन्होंने अपने बारे में स्पष्ट घोषणा की कि मैं 'न हिन्दू न मुसलमान' हूँ। उन्होने अपने समय के अन्य लोगों को भी फटकारते हुए यह समझाने का प्रयास किया। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि-

“हिंदु कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना।

आपस मे दोऊ लड़ते है, मरम कोऊ नहीं जाना॥"

  • कहने की जरूरत नहीं है कि वर्तमान समय में सांप्रदाकिता के जहर से लड़ने के लिए कबीरदास की यह सोच बेहद प्रासंगिक हो जाती है। हम कहने को भले ही 21वीं शताब्दी में हो, किंतु जिस तरह से हम बात-बात पर हिंदू-मुस्लिम दंगों के स्तर पर पहुँच जाते हैं, उससे यही सिद्ध होता है कि चेतना के स्तर पर हम मध्यकाल की सीमाओं को लांघ नही सके हैं।

आडंबरों का विरोध

  • कबीरदास की तर्कवादी सोच का तीसरा पहलू उनके आडंबर विरोधी नज़रिए मे दिखता है। वे मध्यकाल के संत थे, इसलिए ईश्वर में उनकी गहरी आस्था थी किन्तु अपनी सहज तार्किकता से वे समझाते थे कि ईश्वर, जो आने आप में पूर्ण है, किसी भी प्राणी से यह अपेक्षा नहीं रखता होगा कि वह उसके नाम पर बलि चढाए, तीर्थाटन या कर्मकांड करे। 
  • अपनी इसी तार्किकता के चलते उन्होने हिंदूओं और मुसलमानों में प्रचलित आडंबरों पर करारा प्रहार किया।  
  • उनके व्यंग बाण इतने तीखे होते थे कि उनकी चोट खाने वाला पंडा या मुल्ला जवाब देने के काबिल नहीं रहता था और तुरंत आत्मसमर्पण या पलायन की मुद्रा अख्तियार कर लेता था। 

आंडबरों का विरोध करते समय कबीर ने दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों पर बराबर प्रहार किया है। उन्होने देखा था कि हिंदू लोग पत्थर की मूर्ति बनाकर पूजते हैं जो कबीर की नजर में हास्यास्पद् था। उनका दावा था कि अगर पत्थर की मूर्ति पूजने से भगवान मिलते हैं तो मैं पहाड़ की पूजा करूंगा क्योंकि उसमें ज्यादा बड़े भगवान होने चाहिए। फिर, इस व्यंग्य बाण के बाद वे खुद कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति पूजने से बेहतर है कि पत्थर की चक्की को पीसा जाए ताकि भूखे आदमी को पेट भरने के लिए अनाज तो मिल सके। उनका कथन है-

“पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजू पहार। कि

तातें तो चाकी भली, पिस खाये संसार॥"

इस प्रकार, उन्होनें यह भी देखा कि हिंदुओं मे मुंडन कराने की प्रथा प्रचंड रूप में विद्यमान है। विशेष रूप से मंदिरों और मठो में ईश्वर के साधक इस लालच में गंजे हो जाते थे कि इस परंपरा पर चलकर स्वर्ग तथा ईश्वर की उपलब्धि कुछ आसान हो जाएगी। कबीरदास ने इस अतार्किक परंपरा पर जबरदस्त व्यंग्य करते हुए कहा कि अगर गंजा होने से स्वर्ग की प्राप्ति होने लगे तो सभी लोग गंजे हो जाएंगे। फिर वे मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि अगर गंजा होने से स्वर्ग मिलता तो सारी भेडे स्वर्ग चली जाती किंतु बार-बार मूड़े जाने के बावजूद उन्हें स्वर्ग नहीं मिलता। उनका कथन है-

"मूंड मुडाए हरि मिले, सब कोई लेय मुडाय।

बार-बार के मूंडते, भेड न बैकुंठ जाय॥"

कबीर ने मुसलमानों को भी आडंबरों के लिए उतने ही क्रोध के साथ फटकारा है। जब उन्होने मस्जिद के ऊपर चढ़कर मौलवी को अजान करते देखा तो व्यंग्य करते हुए पूछा कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा है जो नीचे से तुम्हारी आवाज नहीं सुन पाता। मौलवी पर व्यंग्य करते हुए कबीर ने निम्नलिखित प्रसिद्ध कथन कहा-

“काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय। 

ताँ चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥"

  • आज भी हमारे देश में धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास हर जगह मौजूद है। इन आडंबरों के रहते हम वैज्ञानिक स्वभाव से युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। कबीर का महत्त्व यह है कि वे हमें आडंबरों और अंधविश्वासों पर तार्किक सवाल खड़े करना सिखाते हैं। ऐसा वैज्ञानिक स्वभाव अगर सभी का हो जाए तो निश्चित तौर पर तमाम रूढ़ियाँ और अतार्किक प्रथाएँ समाप्त हो सकती हैं।

धन लिप्सा से दूर

  • कबीर हमें कुछ अन्य मामलों में भी नैतिक सलाह देते हैं और उनकी अधिकांश नैतिक सलाह आज भी हमारे काम की हैं।
  • उदाहरण के लिए एक दोहे में उन्होने सलाह दी है कि व्यक्ति को बहत अधिक धन कमाने की लालसा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वह किसी काम नहीं आता है। उतना ही धन काफी है कि परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाएँ और अतिथि का सत्कार करने में कोई समस्या पेश न आए। 

आज के उपभोक्तावादी समाज के लिए कबीर का यह संदेश बेहद उपयोगी है

"साई उतना दीजिए. जामें कटम समाय। 

मैं भी भखा न रहँ साध न भखा जाय॥"

  • कोई चाहे तो कह सकता है कि आर्थिक विचारों के स्तर पर कबीर समाजवाद और गांधीवाद के नजदीक ठहरते हैं।

अहिंसा समर्थक

  • कबीर ने अहिंसा का विचार भी अत्यंत गहराई के साथ रखा है। उन्होंने महावीर और बुद्ध की परंपरा के अलावा वैष्णव परंपरा से भी अहिंसा का सिद्धांत सीखा और निजी जीवन में उपयोग किया।
  • उनका एक कथन है कि चींटी हो या हाथी, सब एक ही ईश्वर के प्राणी हैं (सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय)। 

एक दूसरे कथन में तो उन्होंने माँसाहार करने वालों को जमकर फटकार लगाई है और चेतावनी दी है कि उनके द्वारा की गई पशु-हत्याओं का हिसाब ईश्वर अवश्य करेगा। वे मजेदार सा तर्क देते हुए कहते हैं कि बकरी तो सिर्फ पत्ते खाती है पर इतने ही पाप से उसकी खाल उतार ली जाती है। सोचकर देखिये कि जो इंसान बकरी खाते है, उनका क्या हाल होने वाला है।

"बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

जे नर बकरी खात है, तिनका कौन हवाल॥"

विनम्रता 

  • कबीरदास के अन्य नैतिक उपदेश भी वर्तमान में बेहद प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए उनकी सलाह है कि व्यक्ति को दूसरो से बातचीत के लिए विनम्र भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। 
  • वे इस बात को समझते थे कि अधिकांश झगड़ें भाषा की असावधानियों के कारण ही जन्म लेते हैं, न कि वैचारिक या मानसिक वैगरीत्य के कारण, इसलिए उन्होनें स्पष्ट सलाह दी कि व्यक्ति को यथासंभव मधुर भाषा का प्रयोग करना चाहिए। 

भाषा इतनी मीठी होनी चाहिए कि सुनने वाले तो ठंडक महसूस करें ही, खुद बोलने वाले के कलेजे में भी ठंडक पड़ जाए। उनका प्रसिद्ध दोहा है

“ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।

औरन को सीतल करें, आपहु सीतल होय॥"

  • कुछ मामलों में कबीरदास उस परंपरा के नजदीक पहुँच जाते हैं जो आधुनिक काल में महात्मा गांधी के व्यक्तित्त्व में दिखती है और प्राचीन काल में ईसा मसीह, बद्ध और महावीर के जीवन में। ईसा मसीह और कि अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। इस कथन का भाव सिर्फ इतना है कि हमें अपने होशो-हवास मे किसी का भी बुरा नहीं करना चाहिए- उनका भी नहीं जिन्होने हमारे साथ बुरा किया हो। 

यह नैतिक जीवन की एक उच्च भूमि है जहाँ पहुँचना आसान नहीं होता, किंतु कबीर फिर भी यह सलाह जरूर देते हैं कि अपने दुश्मनों से भी प्यार करना सीखे। उनका एक कथन है-

"जो तोकू काँटा बुवै, ताहि बोऊ तू फूल"

अर्थात जो व्यक्ति तुम्हारी राह में काँटा बोता है, तुम उसकी राह में भी फूल बो दो। यह दृष्टिकोण ठीक वही है जो जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धांत 'क्षमा वीरस्य भूषय' में दिखाता है। ईसा मसीह के उस कथन में भी यही भाव मौजूद है जो उन्होनें सूली पर चढ़ाए जाते समय अपने विरोधियो के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा था कि-

"हे ईश्वर! इन्हें माफ कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।"

आत्म आलोचना 

  • कबीर हमें आत्म-आलोचना करना भी सिखाते हैं। आमतौर पर हमारी आदत होती है कि हम दूसरों की कमियों और अपनी अच्छाइयाँ तुरंत देख लेते हैं। कहा भी जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने मामले में सबसे अच्छा वकील होता है और दूसरों के मामले मे सबसे बुरा जज। 
  • कबीर हमें इस निम्न मानसिकता से मुक्त करना चाहते हैं। वे सिखाते हैं कि दूसरो पर कठोर कसौटियो का प्रयोग करने की बजाय खुद पर उनका इस्तेमाल करना चाहिए और अपनी कमियों को ईमानदारी से स्वीकार करने का हौंसला रखना चाहिए।

एक कथन में वे बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि जब वे एक बुरे व्यक्ति की खोज में निकले तो बहुत कोशिश करने पर भी उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला। अंत में जब उन्होने ईमानदारी से अपने भीतर झाँका तो पाया कि उनसे बुरा व्यक्ति तो कोई है ही नहीं -

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। 

जो दिल खोजो आपना, मुझसे बुरा ने कोय॥"

कबीर नीति के नकारात्मक पहलू

किसी भी व्यक्ति के विचार इतने पूर्ण नहीं होते कि उन पर सवाल न उठाए जा सके। कबीर भी पूर्ण नहीं है। उनके विचारों में कुछ ऐसे पक्ष मौजूद हैं जिन्हें पढ़कर चिंता होती है। उनके समय में तो उन कमियों पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई, पर आधुनिक काल मे, जब हर विचारक कई विचारधाराओं की कसौटियो से परखा जाने लगा है तब कबीर के कमजोर पक्ष भी खुलकर सामने आने लगे। kabir ji ka jivan parichay

कबीर नीति पर सबसे गंभीर प्रश्न चिहन नारीवादी विचारको द्वारा लगाया गया है। कबीर के कई ऐसे पद हैं जिनमें वे नारी की अनावश्यक निंदा करते हए नजर आते हैं। दरअसल, वे मध्यकाल की जिस परंपरा 'माया' समझा जाता था और उन पर आरोप था कि वे पुरूषो का ध्यान भटकाने में लगी रहती हैं। समझ नहीं आता कि कबीर जैसा महातार्किक आदमी ऐसे बेवकूफाना विचारों से कैसे प्रभावित हो गया? आज यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कबीरदास ने महिलाओं को कितना बुरा-भला कहा है। उदाहरण के लिए, वे एक दोहे मे कहते हैं कि जब नारी की परछाई मात्र पड़ने से साँप अंधा हो जाता है तो नारी की संगति में रहने वाले पुरूषो की स्थिति क्या होगी।

"नारी की झाई पड़त, अंधा होत भुजंग।

कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी के संग॥" 

एक दूसरे दोहे मे तो कबीर ने यहाँ तक कहा है कि नारी उन तीन सुखों का नाश कर देती है जो पुरूषो के पास होते हैं। ये तीन सुख भक्ति, मुक्ति और ज्ञान हैं किंतु नारी से प्रभावित पुरूष इन सुखों की उपलब्धि कर ही नहीं पाता

“नारी नसावै तीनि सुख, जे नर पासै होई।

भगति, मक्ति, निज जान में, पैसि न सकई कोई॥" 

  • कबीरदास के अंधसमर्थक इन कथनों पर भी सफाई देने की मुद्रा मे रहते हैं पर सच यह है कि हमें इस बिंदु पर कबीरदास की सीमा स्वीकार कर लेनी चाहिए। कोई भी विचारक चाहे वह कितना भी महान हो सभी पक्षों पर बराबर प्रगतिशील नहीं हो सकता। कबीर नारी के मुद्दे पर अपने समय की सीमाओं को नहीं लांघ सके, उनकी यह कमी तो हमें माननी ही होगी। kabirdas jivan parichay
  • कबीर की दूसरी सीमा यह है कि वे सबकों विनम्र भाषा का प्रयोग करने की सलाह देते है, किंतु खुद इतनी आक्रामक भाषा का प्रयोग करते हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाए। यह अंतर्विरोध हर जगह तो नहीं दिखता, किंतु कबीर के कुछ कथनों मे जरूर झलकता है- विशेषतः वहाँ जहाँ वे किसी मुल्ले या पंडे पर आडंबरो या जातिवादी व्यवहार के कारण प्रहार कर रहे हैं। कुछ लोग इसे कबीर की सीमा मानते हैं तो कुछ का मानना है कि इस गुस्से और आक्रामकता के कारण ही कबीर 'कबीर' बन सके। 

कबीर की तीसरी सीमा यह है कि वे इस जगत को झूठा घोषित करते हैं। दरअसल, वे शंकराचार्य से प्रभावित थे जिन्होनें संपूर्ण संसार को मिथ्या कहा था। कबीरदास भी कई स्थानों पर इहलोक को झूठा साबित करते हैं। उदाहरण के लिए उनका एक कथन है

“यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुलि जाना है।"  

  • कबीर के समय तो यह दृष्टिकोण चल जाता था पर आज नहीं चल पाता। वर्तमान विश्व के अधिकांश लोग सैद्धांतिक तौर पर चाहे माने या नही, पर व्यावहारिक तौर पर समझ चुके हैं कि यह दुनिया ही वास्तविक और अंतिम दुनिया है, इसलिए इसे झूठा मानना और किसी काल्पनिक दुनिया के सपने देखना निरर्थक है।

कबीर के दार्शनिक सिद्धांतों का निरूपण कीजिए?

कबीर मानते हैं कि भक्ति, उपासना तथा साधना से भक्त परमब्रह्म को प्राप्त कर उसमें विलीन होकर एकमेव हो जाता है। कबीर ने जीव और ब्रह्म के सम्बन्धों को पति-पत्नी के सम्बन्धों का रूपक लेकर व्यक्त किया है। कबीर ने ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सहज साधना को सर्वोपरि माना है।

कबीर का दार्शनिक सिद्धांत किस वाद पर आधारित है?

Expert-Verified Answer. Answer: कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक, एक समाज सुधायक,एक भक्त कवि, तथा एक सच्चे मानवतावादी संत थें। ये एक सीधे-साधे और सच्चे साधक थें, अतः इन्होनें कोई दार्शनिक सम्प्रदाय नहीं खड़ा किया वरन तत्कालीन भारत में प्रचलित दर्शनों से जो कुछ भी उन्हें भला एवं अनुकूल प्रतीत इन्होनें उसे ग्रहण कर लिया।

कबीर दासजी का जीवन परिचय देते हुए उनकी दार्शनिक विचारधारा का वर्णन कीजिए?

कबीर दास जी का जन्म विक्रम संवत 1455 अर्थात सन 1398 ईस्वी में हुआ था। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ था। यह भी माना जाता है कि इनको जन्म देने वाली, एक विधवा ब्राह्मणी थी। इस विधवा ब्राह्मणी को गुरु रामानंद स्वामी जी ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था।

कबीर का दार्शनिक चिंतन कौन है?

" 1 इस प्रकार कबीर मूलत: भक्त हैं। अग्रवाल ने लिखा हैं कि "भक्ति' शब्द मूलत: अनुराग और भागीदारी का आशय लेकर ही आया था। इस मूल आशय में समर्पण सत्ता के भय से उत्पन्न नहीं, प्रेम और अनुराग का ही समर्पण है। भक्त पराजित सैनिक की तरह समर्पण करने वाले को नहीं, बराबरी के प्रेम में समर्पण करने वाले को कहा जाता था।