हिन्दू, मुसलमान, ब्राह्मण, धनी, निर्धन सबका वही एक प्रभु है। सभी की बनावट में एक जैसी हवा, खून, पानी का प्रयोग हुआ है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, नींद सभी की जरूरतें एक जैसी हैं। सूरज, प्रकाश और गर्मी सभी को देता है, वर्षा का पानी सभी के लिए है, हवा सभी के लिए है। सभी एक ही आसमान के नीचे रहते हैं। इस तरह जब सभी को बनाने वाला ईश्वर, किसी के साथ भेद-भाव नहीं करता तो फिर मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, छुआ-छूत का भेद-भाव क्यों है? ऐसे ही कुछ प्रश्न कबीर के मन में उठते थे जिनके आधार पर उन्होंने मानव मात्र को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कबीर ने अपने उपदेशों के द्वारा समाज में फैली बुराइयों का कड़ा विरोध किया और आदर्श समाज की स्थापना पर बल दिया। संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए उनका ज्ञान पुस्तकीय या शास्त्रीय नहीं था। अपने जीवन में उन्होंने जो अनुभव किया, जो साधना से पाया, वही उनका अपना ज्ञान था। जो भी ज्ञानी, विद्वान उनके सम्पर्क में आते उनसे वे कहा करते थे। Show
'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखों की देखी। सैकड़ों पोथियाँ (पुस्तकें) पढ़ने के बजाय वे प्रेम का ढाई अक्षर पढ़कर स्वयं को धन्य समझते थे। कबीर को बाह्य आडम्बर, दिखावा और पाखण्ड से चिढ़ थी। मौलवियों और पण्डितों के कर्मकाण्ड उनको पसन्द नहीं थे। मस्जिदों में नमाज़ पढ़ना, मंदिरों में माला जपना, तिलक लगाना, मूर्तिपूजा करना, रोजा या उपवास रखना आदि को कबीर आडम्बर समझते थे। कबीर सादगी से रहना, सादा भोजन करना, पसन्द करते थे। बनावट उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। अपने आस-पास के समाज को वे आडम्बरों से मुक्त बनाना चाहते थे। साधु-संतों के साथ कबीर इधर-उधर घूमने जाते रहते थे। इसलिए उनकी भाषा में अनेक स्थानों की बोलियों के शब्द आ गए हैं। कबीर अपने विचारों और अनुभवों को व्यक्त करने के लिए स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते थे। कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी' भी कहा जाता है। कबीर अपनी स्थानीय भाषा में लोगों को समझाते, उपदेश देते थे। जगह-जगह पर उदाहरण देकर अपनी बातों को लोगों के अन्तर्मन तक पहुँचाने का प्रयास करते थे। कबीर की वाणी को साखी, सबद और रमैनी तीन रूपों में लिखा गया जो 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। कबीर ग्रंथावली में भी उनकी रचनाएँ संग्रहीत हैं। कबीर की दृष्टि में गुरु का स्थान भगवान से भी बढ़कर है। एक स्थान पर उन्होंने गुरु को कुम्हार बताया है, जो मिट्टी के बर्तन के समान अपने शिष्य को ठोंक-पीटकर सुघड़ पात्र में बदल देता है। सज्जनों, साधु-संतों की संगति उन्हें अच्छी लगती थी। यद्यपि कबीर की निन्दा करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं थी लेकिन कबीर निन्दा करने वाले लोगों को अपना हितैषी समझते थे। 'निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। उस समय लोगों के बीच में ऐसी धारणा फैली हुई थी कि मगहर में मरने से नरक मिलता है। इसलिए कबीर अपनी मृत्यु निकट जानकर काशी से मगहर चले गये और समाज में फैली हुई इस धारणा को तोड़ा। 1518 ई० में उनका निधन हो गया। कबीर सत्य बोलने वाले निर्भीक व्यक्ति थे। वे कटु सत्य भी कहने में नहीं हिचकते थे। उनकी वाणी आज के भेद-भाव भरे समाज में मानवीय एकता का रास्ता दिखाने में सक्षम है। कबीरदास के गुरु संत रामानन्दरामानन्द का जन्म 1266 ई० में प्रयाग में हुआ था। इनकी माता का नाम सुशीला और पिता का नाम पुण्य दमन था। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों और संस्कारों के थे। इसलिए रामानन्द के विचारों पर भी माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे पूजा-पाठ में रुचि लेने लगे थे। रामानन्द कबीर के गुरु थे। रामानन्द की प्रारम्भिक शिक्षा प्रयाग में हुई। रामानन्द प्रखर बुद्धि के बालक थे। अतः धर्मशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा गया। वहीं दक्षिण भारत से आये गुरु राघवानन्द से उनकी भेंट हुई। राघवानन्द वैष्णव सम्प्रदाय में विश्वास रखते थे। उस समय वैष्णव सम्प्रदाय में अनेक रूढ़ियाँ थीं। kabir das in hindi कबीरदास की काव्य रचनाएँकबीर के शिष्यों ने उनकी वाणियों का संग्रह 'बीजक' नाम के ग्रंथ में किया। बीजक कबीर की प्रामाणिक रचना मानी जाती है। बीजक के तीन मुख्य भाग हैं- साखी, सबद, रमैनी।
कबीरदास की रचनाएँ
कबीरदास के दोहे
कबीरदास का दर्शन/नैतिक विचारकबीरदास सच्चे अर्थों में क्रांतिस्रष्टा एवं दूरद्रष्टा थे। उन्होंने मध्यकाल की दहलीज पर खड़े होकर समाज के समक्ष ऐसे आदर्शों व मूल्यों की प्रस्तावना प्रस्तुत की, जो न केवल अपने स्वरूप में आधुनिक है, अपितु मानव व समाज कल्याण हेतु अनिवार्य रूप से आवश्यक भी है। वह कबीर दास ही हैं, जिन्होंने अपने काव्य के माध्यम से समाज के समक्ष समतावादी भावना का मूल्य रखा। वे सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि जड़ताओं का न केवल खुलासा करते हैं, अपितु इनसे प्रतिवाद भी स्थापित करते हैं। कबीर के दर्शन में चिंतन एवं साधना के आधार पर ब्रह्म, जीव, माया, जगत एवं सहज साधना जैसे विचार व्यक्त किये गए हैं।
कबीरदास का भक्ति पक्षकबीरदास निराकारवादी हैं। कबीर के अनुसार निराकार की प्राप्ति ज्ञान द्वारा संभव है, यह ज्ञान सत गुरु द्वारा प्रदान किया जाता है। उन के अनुसार ईश्वर मानव के भीतर है उसे बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, काबा, काशी में ढूँढता फिरता है जबकि ईश्वर स्वयं व्यक्ति के भीतर है। कबीर ने राम नाम का मंत्र अपने गुरु रामानंद से लिया है। परंतु कबीर के राम वह नहीं है, जो तुलसी के राम हैं बल्कि उनके 'राम' मात्र प्रतीक हैं। कबीर के राम जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। उनके 'राम', इस्लाम के सत्तावादी एक एकेश्वरवादी खुदा भी नहीं हैं। कबीर के अनुसार 'राम' समस्त जीव और जगत से भिन्न नहीं है। कबीर राम की अवधारणा को व्यापक रूप प्रदान करना चाहते थे। कबीर नाम में विश्वास रखते हैं रूप में नहीं। कबीर ने राम नाम के साथ लोक मानस में शताब्दियों से रचे बसे संश्लिष्ट भावों को व्यापक एवं उदात्त स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बंधने से रोकने की भरपूर कोशिश की है। कबीर ने निर्गुण राम शब्द का प्रयोग किया है- “निर्गुण राम जपुहौं रे भाई" कभी वह राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी मानते हैं, तो कभी दास्य भाव या स्वामी, तो कभी-कभी वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और स्वंय को उनका पुत्र। निर्गुण निराकार के साथ भी इस तरह का सहज, सरस मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणत है। कबीर की साधना मानने से नहीं जानने से शुरू होती है। कबीरदास के काव्य में सामाजिक चेतनाकबीरदास भक्त एवं आध्यात्मिक होते हुए भी समाज के प्रति संवेदनशील एवं चिंताशील हैं। वे हमेशा सामाजिक समरसता की बात करते हैं। वे जातिवाद, सांप्रदायिकता आदि जड़ताओं पर न केवल प्रहार करते हैं। अपितु इनके प्रतिवाद भी स्थापित करते हैं। जातिवाद को उन्होंने समाज की प्रगति में मुख्य अवरोध माना है इसलिये वह इस पर चोट करते हुए “जाति-पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजो सौ हरि को होई" की भावाभिव्यक्ति करते हैं। हिंदू-मुस्लिम जिस राम-रहीम के भ्रामक भेद के आधार पर साम्प्रदायिकता का प्रसार कर रहे थे, उसके प्रति कबीर दास ने प्रतिवाद करते हुए तीखा प्रहार किया। उनकी मूल मान्यता मानव मात्र की एकता के आधार पर समाज की समानत की संकल्पना प्रस्तुत करना है। वे हिंदू-मुस्लिम दोनों की एक रस होने की बात करते हैं। इसलिये उन्होंने दोनों के लिये कह है- "हिंदू कहत हैं राम हमारा, मुसलमान रहिमाना।" इस प्रकार कबीरदास ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों व धार्मिक आडंबरों पर प्रहार किया है। वे सच्चे अर्थों में प्रगतिशील समाज की संकल्पना लेकर आते हैं। उनकी मूल चिंता मानव व उसके कल्याण की है। अतः उनकी दृष्टि में मानव का विकास उसकी आधारभूत आवश्यकताएँ महत्त्व रखती हैं। कबीर कहते हैं- “पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजौं पहार। वाते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।" कबीर आडंबरों से इतर चकिया को वरीयता देते हैं जो समाज नीति व अर्थव्यवस्था के विकास की धुरी है। चकिया यहाँ उन सभी साधनों, तत्त्वों का प्रतीक है, जिनसे व्यक्ति का जीविकोपार्जन होता है तथा जिनसे सभ्यता व भौतिकता का विकास होता है और समाज नित ऊँचाइयों को छूता है। कबीर दास मात्र हिंदू समाज की रूढ़ियों का ही खंडन नहीं करते, उनकी दृष्टि मुस्लिम समाज के आडंबरों पर भी जाती है। वे इसके प्रति मात्र मूकदर्शक न होकर सच्चे क्रांतिवीर नज़र आते हैं। वे समाज के पथप्रदर्शक हैं। वे कहते हैं- 'कंकड़ पाथर जोरि के, मस्जिद लयी बनाय'। इस अभिव्यंजना द्वारा मुस्लिमों के आडंबरों का खंडन करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट हे कि कबीर के काव्य में सामाजिक चेतना सकल समाज के व्यापक कल्याण की है जिसमें क्या मुस्लिम, क्या हिंदू, क्या नाथ क्या सिद्ध, किसी भी संप्रदाय, किसी भी जाति व किसी भी क्षेत्र की भेदमूलक व्यवस्था उनके प्रतिवाद के दायरे के बाहर नहीं रह पाई है। कबीर प्राणिमात्र के प्रति प्रेम पर बल देते हैं। वे न केवल सामाजिक समरसता की बात करते हैं बल्कि सभी प्राणी यानि मानव, पशु, जीव-जंतु के कल्याण की बात करते हैं। कबीरदास मात्र मूकदर्शक न होकर सच्चे क्रांतिवीर नजर आते हैं। कबीर मात्र आलोचक या खंडनकर्ता नहीं अपितु क्रांति व वीरता के सच्चे उपासक भी हैं। उनकी कविता की मूल भावना ने समतावाद की स्थापना की है। तर्कवादिता
यह जानना रोचक हो सकता है कि 16वीं और 17वीं शताब्दियों के इन तीनों विचारकों से लगभग 2-3 शताब्दी पहले कबीरदास अपने तरीके से उसी वैज्ञानिक चिंतन पद्धति का खाका खींच चुके थे। उनका कहना था कि सिर्फ उसी बात को सच मानो जिसे तुमने अपनी आँख से देखा हो। उनका कथन है "तु कहता कागद की लेखी, में मैं कहता आँखिन की देखी"।
जातिवाद का विरोध
एक अर्थ में कबीर ने पहली बार जातीय वर्चस्व को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी रास्ता सुझाया। अपने कुछ
कथनों में तो वे जातीय श्रेष्ठता का दम भरने वाले ब्राह्मणों को धिक्कारते हुए यहाँ तक कहते हैं कि अगर तुम ब्राह्मण और ब्राह्मणी की संतान हो और जन्म से श्रेष्ठता का दावा करते हो तो तुम बाकी मनुष्यों की तरह ही क्यो पैदा हुए, किसी विशेष तरीके (या किसी और रास्ते) से तुम्हारा जन्म क्यों नहीं हुआ? कबीरदास जाति व्यवस्था का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं कर रहे थे कि वे खुद एक ऐसी जाति से थे जो भेद-भाव का दंश झेल रही थी। उनके विरोध में तर्को की पैनी धार भी थी। उनका सामान्य सा प्रश्न था कि अगर व्यक्तियों मे ऊँच-नीच करनी ही है तो उसका आधार उनके व्यक्तित्व तथा ज्ञान में होना चाहिए, न कि इस संयोग में कि उनका जन्म किस परिवार में हुआ है, जन्म के संयोग के आधार पर किसी व्यक्ति को जीवनभर के लिए अपमान और किसी निकृष्ट व्यवसाय के लिए बाध्य कर देना कैसे तार्किक हो सकता है? उन्होंने इसी तर्क को अपने एक और प्रसिद्ध कथन में इस प्रकार प्रस्तुत किया "जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान॥"
साम्प्रदायिकता का विरोध
वे इस बात से अचंभित रहते थे कि हिंदू मुसलमान के नाम पर लोग रात-दिन झगड़ा करने की फिराक मे क्यों रहते है? उन्होंने अपने बारे में स्पष्ट घोषणा की कि मैं 'न हिन्दू न मुसलमान' हूँ। उन्होने अपने समय के अन्य लोगों को भी फटकारते हुए यह समझाने का प्रयास किया। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि- “हिंदु कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना। आपस मे दोऊ लड़ते है, मरम कोऊ नहीं जाना॥"
आडंबरों का विरोध
आंडबरों का विरोध करते समय कबीर ने दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों पर बराबर प्रहार किया है। उन्होने देखा था कि हिंदू लोग पत्थर की मूर्ति बनाकर पूजते हैं जो कबीर की नजर में हास्यास्पद् था। उनका दावा था कि अगर पत्थर की मूर्ति पूजने से भगवान मिलते हैं तो मैं पहाड़ की पूजा करूंगा क्योंकि उसमें ज्यादा बड़े भगवान होने चाहिए। फिर, इस व्यंग्य बाण के बाद वे खुद कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति पूजने से बेहतर है कि पत्थर की चक्की को पीसा जाए ताकि भूखे आदमी को पेट भरने के लिए अनाज तो मिल सके। उनका कथन है- “पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजू पहार। कि तातें तो चाकी भली, पिस खाये संसार॥" इस प्रकार, उन्होनें यह भी देखा कि हिंदुओं मे मुंडन कराने की प्रथा प्रचंड रूप में विद्यमान है। विशेष रूप से मंदिरों और मठो में ईश्वर के साधक इस लालच में गंजे हो जाते थे कि इस परंपरा पर चलकर स्वर्ग तथा ईश्वर की उपलब्धि कुछ आसान हो जाएगी। कबीरदास ने इस अतार्किक परंपरा पर जबरदस्त व्यंग्य करते हुए कहा कि अगर गंजा होने से स्वर्ग की प्राप्ति होने लगे तो सभी लोग गंजे हो जाएंगे। फिर वे मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि अगर गंजा होने से स्वर्ग मिलता तो सारी भेडे स्वर्ग चली जाती किंतु बार-बार मूड़े जाने के बावजूद उन्हें स्वर्ग नहीं मिलता। उनका कथन है- "मूंड मुडाए हरि मिले, सब कोई लेय मुडाय। बार-बार के मूंडते, भेड न बैकुंठ जाय॥" कबीर ने मुसलमानों को भी आडंबरों के लिए उतने ही क्रोध के साथ फटकारा है। जब उन्होने मस्जिद के ऊपर चढ़कर मौलवी को अजान करते देखा तो व्यंग्य करते हुए पूछा कि क्या तुम्हारा खुदा बहरा है जो नीचे से तुम्हारी आवाज नहीं सुन पाता। मौलवी पर व्यंग्य करते हुए कबीर ने निम्नलिखित प्रसिद्ध कथन कहा- “काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय। ताँ चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥"
धन लिप्सा से दूर
आज के उपभोक्तावादी समाज के लिए कबीर का यह संदेश बेहद उपयोगी है "साई उतना दीजिए. जामें कटम समाय। मैं भी भखा न रहँ साध न भखा जाय॥"
अहिंसा समर्थक
एक दूसरे कथन में तो उन्होंने माँसाहार करने वालों को जमकर फटकार लगाई है और चेतावनी दी है कि उनके द्वारा की गई पशु-हत्याओं का हिसाब ईश्वर अवश्य करेगा। वे मजेदार सा तर्क देते हुए कहते हैं कि बकरी तो सिर्फ पत्ते खाती है पर इतने ही पाप से उसकी खाल उतार ली जाती है। सोचकर देखिये कि जो इंसान बकरी खाते है, उनका क्या हाल होने वाला है। "बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल। जे नर बकरी खात है, तिनका कौन हवाल॥" विनम्रता
भाषा इतनी मीठी होनी चाहिए कि सुनने वाले तो ठंडक महसूस करें ही, खुद बोलने वाले के कलेजे में भी ठंडक पड़ जाए। उनका प्रसिद्ध दोहा है “ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करें, आपहु सीतल होय॥"
यह नैतिक जीवन की एक उच्च भूमि है जहाँ पहुँचना आसान नहीं होता, किंतु कबीर फिर भी यह सलाह जरूर देते हैं कि अपने दुश्मनों से भी प्यार करना सीखे। उनका एक कथन है- "जो तोकू काँटा बुवै, ताहि बोऊ तू फूल" अर्थात जो व्यक्ति तुम्हारी राह में काँटा बोता है, तुम उसकी राह में भी फूल बो दो। यह दृष्टिकोण ठीक वही है जो जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धांत 'क्षमा वीरस्य भूषय' में दिखाता है। ईसा मसीह के उस कथन में भी यही भाव मौजूद है जो उन्होनें सूली पर चढ़ाए जाते समय अपने विरोधियो के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा था कि- "हे ईश्वर! इन्हें माफ कर देना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।" आत्म आलोचना
एक कथन में वे बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि जब वे एक बुरे व्यक्ति की खोज में निकले तो बहुत कोशिश करने पर भी उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला। अंत में जब उन्होने ईमानदारी से अपने भीतर झाँका तो पाया कि उनसे बुरा व्यक्ति तो कोई है ही नहीं - "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो दिल खोजो आपना, मुझसे बुरा ने कोय॥" कबीर नीति के नकारात्मक पहलूकिसी भी व्यक्ति के विचार इतने पूर्ण नहीं होते कि उन पर सवाल न उठाए जा सके। कबीर भी पूर्ण नहीं है। उनके विचारों में कुछ ऐसे पक्ष मौजूद हैं जिन्हें पढ़कर चिंता होती है। उनके समय में तो उन कमियों पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई, पर आधुनिक काल मे, जब हर विचारक कई विचारधाराओं की कसौटियो से परखा जाने लगा है तब कबीर के कमजोर पक्ष भी खुलकर सामने आने लगे। kabir ji ka jivan parichay कबीर नीति पर सबसे गंभीर प्रश्न चिहन नारीवादी विचारको द्वारा लगाया गया है। कबीर के कई ऐसे पद हैं जिनमें वे नारी की अनावश्यक निंदा करते हए नजर आते हैं। दरअसल, वे मध्यकाल की जिस परंपरा 'माया' समझा जाता था और उन पर आरोप था कि वे पुरूषो का ध्यान भटकाने में लगी रहती हैं। समझ नहीं आता कि कबीर जैसा महातार्किक आदमी ऐसे बेवकूफाना विचारों से कैसे प्रभावित हो गया? आज यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कबीरदास ने महिलाओं को कितना बुरा-भला कहा है। उदाहरण के लिए, वे एक दोहे मे कहते हैं कि जब नारी की परछाई मात्र पड़ने से साँप अंधा हो जाता है तो नारी की संगति में रहने वाले पुरूषो की स्थिति क्या होगी। "नारी की झाई पड़त, अंधा होत भुजंग। कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी के संग॥" एक दूसरे दोहे मे तो कबीर ने यहाँ तक कहा है कि नारी उन तीन सुखों का नाश कर देती है जो पुरूषो के पास होते हैं। ये तीन सुख भक्ति, मुक्ति और ज्ञान हैं किंतु नारी से प्रभावित पुरूष इन सुखों की उपलब्धि कर ही नहीं पाता “नारी नसावै तीनि सुख, जे नर पासै होई। भगति, मक्ति, निज जान में, पैसि न सकई कोई॥"
कबीर की तीसरी सीमा यह है कि वे इस जगत को झूठा घोषित करते हैं। दरअसल, वे शंकराचार्य से प्रभावित थे जिन्होनें संपूर्ण संसार को मिथ्या कहा था। कबीरदास भी कई स्थानों पर इहलोक को झूठा साबित करते हैं। उदाहरण के लिए उनका एक कथन है “यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुलि जाना है।"
कबीर के दार्शनिक सिद्धांतों का निरूपण कीजिए?कबीर मानते हैं कि भक्ति, उपासना तथा साधना से भक्त परमब्रह्म को प्राप्त कर उसमें विलीन होकर एकमेव हो जाता है। कबीर ने जीव और ब्रह्म के सम्बन्धों को पति-पत्नी के सम्बन्धों का रूपक लेकर व्यक्त किया है। कबीर ने ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सहज साधना को सर्वोपरि माना है।
कबीर का दार्शनिक सिद्धांत किस वाद पर आधारित है?Expert-Verified Answer. Answer: कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक, एक समाज सुधायक,एक भक्त कवि, तथा एक सच्चे मानवतावादी संत थें। ये एक सीधे-साधे और सच्चे साधक थें, अतः इन्होनें कोई दार्शनिक सम्प्रदाय नहीं खड़ा किया वरन तत्कालीन भारत में प्रचलित दर्शनों से जो कुछ भी उन्हें भला एवं अनुकूल प्रतीत इन्होनें उसे ग्रहण कर लिया।
कबीर दासजी का जीवन परिचय देते हुए उनकी दार्शनिक विचारधारा का वर्णन कीजिए?कबीर दास जी का जन्म विक्रम संवत 1455 अर्थात सन 1398 ईस्वी में हुआ था। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ था। यह भी माना जाता है कि इनको जन्म देने वाली, एक विधवा ब्राह्मणी थी। इस विधवा ब्राह्मणी को गुरु रामानंद स्वामी जी ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था।
कबीर का दार्शनिक चिंतन कौन है?" 1 इस प्रकार कबीर मूलत: भक्त हैं। अग्रवाल ने लिखा हैं कि "भक्ति' शब्द मूलत: अनुराग और भागीदारी का आशय लेकर ही आया था। इस मूल आशय में समर्पण सत्ता के भय से उत्पन्न नहीं, प्रेम और अनुराग का ही समर्पण है। भक्त पराजित सैनिक की तरह समर्पण करने वाले को नहीं, बराबरी के प्रेम में समर्पण करने वाले को कहा जाता था।
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