योग दर्शन में ईश्वर की क्या अवधारणा है? - yog darshan mein eeshvar kee kya avadhaarana hai?

ईश्वर

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परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं।[1]

योग दर्शन में ईश्वर की क्या अवधारणा है? - yog darshan mein eeshvar kee kya avadhaarana hai?
नाम यहोवा इब्रानी में

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ईश्वर  को समर्पण मात्र से भी तुम चेतना की उस पूर्ण स्फुरित अवस्था को प्राप्त कर सकते हो।  अब ईश्वर क्या है, कौन है, कहाँ है? यह कहना आसान है की ईश्वर को समर्पित करो पर ईश्वर है कहाँ, किसी ने देखा तो नहीं। यह अगला प्रश्न है।  

ईश्वर कौन है? इस अस्तित्त्व का अधिपति कौन है? यह आधिपत्य क्या है? ऐसा क्या है जो इस संसार को चलाता है? तुम्हें पता लगेगा की प्रेम ही है जो इस संसार का संचालन करता है।  

प्रेम ही ईश्वर है।

प्रेम जो इस समूचे अस्तित्त्व का केंद्र है, मूल है, इसी का आधिपत्य भी है।  जैसे सूर्य सौरमंडल का केंद्र है एवं वही सभी ग्रहों का अधिपति है। इसी तरह तुम्हारे जीवन का मूल तत्त्व प्रेम है और उसी से तुम शासित हो।

तुम्हारे बदलते हुए शरीर के परे, बदलते हुए विचारों और भावनाओं के परे, जो तुम्हारा मूल है, कुछ बहुत सूक्ष्म और उत्कृष्ट है, जिसे तुम प्रेम या चैतन्य, कोई भी नाम दे सकते हो। वही चैतन्य इस संसार का मूल है और इसके होने का कारण भी है, उसी के पास सभी आधिपत्य है।

प्रेम के कारण ही एक पक्षी अपने नवंतुकों के लिए दाना जुटाता है, पुष्प भी प्रेम के होने से ही खिलते हैँ। प्रेम के होने से ही पक्षी अंडे देते हैं, गाय प्रेम से ही बछड़ो की देखभाल करती हैं। बिल्लियां अपने बच्चों को प्रेम करती हैं इसलिए उनका ख्याल रखती हैं, तुम बंदरों को भी देखोगे तो वह भी अपने बच्चों से प्रेम करते हैं।  प्रेम इस संसार में अन्तर्निहित है और उसी से यह संसार चलता है। जो अन्तर्निहित है वही इस चैतन्य का मूल भी है।  इसीलिए जीसस ने भी कहा कि प्रेम ही ईश्वर है। प्रेम और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय है।  

पतंजलि अगले सूत्र में बड़ा सुन्दर कहते हैं कि उस चैतन्य की अवस्था क्या है? वह कौन है जो चराचर का अधिपति है? वह चेतना दुःख और क्लेशों से मुक्त है, ये क्लेश कौन से हैं?

पांच तरह के क्लेश

सूत्र 24: कॣेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः 

पांच तरह के क्लेश बताये गए हैं जिनमें पहला है अविद्या, जब चेतना में अविद्या और अज्ञान प्रबल होता है तब बैचेनी, दुःख और अवसाद उभर आते हैं।  दुःख और संताप अविद्या का ही परिणाम है। अविद्या क्या है?

जो महत्त्वहीन है, महत्त्व देने के लायक नहीं है, उसे अधिक महत्त्व देना अविद्या है।  जो अस्थायी है, बदलता है, उसको स्थायी समझना अविद्या है। जो वास्तव में आनंददायक नहीं है परन्तु उसके आनंदपूर्ण होने की कल्पना अविद्या है। जो अशुद्ध है, उसे शुद्ध मानना अविद्या है। जो क्षणिक है उसे स्थायी मान लेना अविद्या है।

जैसे किसी ने तुमसे कुछ कहा और वो शब्द मात्र है जो किसी के मुख से निकला और समाप्त हो गया परन्तु उसे कुछ स्थायी मान कर मन में रखना अविद्या है। किसी की टिप्पणी एक क्षणिक विचार और तरंग मात्र  है बाद में उनका भी विचार ऐसा ही नहीं रहता, पर तुम उसे मन में रख लेते हो कि यह उस व्यक्ति की मेरे प्रति धारणा हमेशा के लिए है, यह सत्य तो नहीं है। यह अविद्या का एक उदहारण है।

अब ऐसी चेतना जो अविद्या से परे है वह दुःख से भी मुक्त होती है।  

दूसरा है अस्मिता, मैं-मैं अथवा मेरा मेरा, ऐसे भाव दुःख का दूसरा कारण है। इसीलिए हमारे मौन ध्यान शिविरों में लोग कई प्रक्रियाओं में भीतर के खालीपन का अनुभव करते हैं जिसमें उन्हें अपने होते हुए भी ना होने का एहसास होता है। इसमें तुम पुष्प के जैसे होते हो, एक बादल जैसे स्वछंद और शून्य आकाश की तरह खाली होते हो। इसके स्थान पर यदि कोई व्यक्ति बहुत मैं मैं और मेरा मेरा करें तो वह अस्मिता है।

लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, मैं उनसे क्या ले सकता हूँ, उनका क्या लाभ उठा सकता हूँ? क्या लोग मेरे बारे में अच्छा सोचते होंगे या बुरा? ऐसी सभी चीज़ें जिनमे बहुत मैं मैं और मेरा मेरा का भाव हैं, यही अस्मिता है। यही तुम्हें दुःख देती है, इसके अलावा और कुछ तुम्हें दुःख दे ही नहीं सकता।  तुम्हारे मन का यह मैं मैं का भाव ही अस्मिता है। अपने आप को अलग समझना, इस समूचे अस्तित्त्व के साथ एकत्त्व को महसूस न करना, अपने आप को अलग पहचानना, सभी को मूर्ख और स्वयं को ही बुद्धिमान समझना अस्मिता है।  

जो लोग अपने आप को बहुत चतुर और बाकी सबको मूर्ख समझते हैं वह अपने स्वयं के भीतर यह जानते हैं कि वही बड़े मूर्ख हैं। अपनी मूर्खता से ध्यान भटकाने के लिए वो बाकी सब को मूर्ख मान लेते हैं। यह अस्मिता तुम्हें निगल लेती है यही तुम्हारे दुःख का कारण है।  यह मैं मैं, मेरापन कहीं भी किसी भी विषय में अटक सकता है।

किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति के लिए भीतर प्रबल तृष्णा का होना राग है, घृणा का होना द्वेष हैं और भय को पांचवा क्लेश, अभिनिवेश कहा गया है।   

अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, यह पांच दुःख के कारण हैं।  

ईश्वर पांच क्लेशों से मुक्त है:

ईश्वर इन पांच क्लेशों से मुक्त है, तुम्हारे सबसे भीतर की चेतना भी इन पांच क्लेशों से परे है। यद्यपि तुम बाह्य संसार में दुखी हो सकते हो, राग द्वेष में फंस सकते हो पर जब तुम वास्तव में अपने अस्तित्त्व के गहरे मूल में जाओगे तब वहां तुम इनसे मुक्त हो। तुम किसी को परिधि में, बाहर से घृणा कर सकते हो पर तुम्हारे केंद्र में घृणा का भाव नहीं हो सकता है। भय और डर भी परिधि में ही होता है पर जब तुम अपने स्वयं के केंद्र में आओगे तब वहां कोई भय नहीं है, कोई अविद्या और अस्मिता नहीं है।  

जब ये पांच क्लेश परिधि से भी समाप्त हो जाते हैं तब वह जो केंद्र में है वह प्रखर हो उठता है, प्रत्यक्ष हो जाता है, तब तुम में ईश्वरीय तत्त्व का स्फुरण होता है, ईश्वर तुम में से प्रकट होते हैं।

ईश्वर वह पुरुष है अथवा चेतना है जो इन पांच क्लेशों और दुखों से मुक्त है, परे है।

 ईश्वर कर्मों से भी मुक्त है।  यह कर्म कौनसे हैं? जानने के लिए पढ़िए अगला ज्ञान पत्र।

<<पिछले पत्र में पढ़ें, प्रकृतिलय समाधि अगले पत्र में पढ़िए, समाधि के द्वार>>

(यह ज्ञान पत्र गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के पतंजलि योग सूत्र प्रवचन पर आधारित है। पतंजलि योग सूत्रों के परिचय के बारे में अधिक जानने के लिए यहां क्लिक करें। )

योग दर्शन में ईश्वर की अवधारणा क्या है?

योग सूत्र में पतंजलि लिखते हैं - 'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः। अर्थात- क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्‍ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है। कहने का आशय यह है कि जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है वह पुरुष ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।

योग सूत्र के अनुसार ईश्वर क्या है?

“ईश्वरः ईशनशील इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षम:। अर्थात जो सब कुछ अर्थात समस्त जगत को केवल इच्छा मात्र से ही उत्पन्न और नष्ट करने में सक्षम है, वह ईश्वर है।

योग का भगवान कौन है?

इस संस्कृति में शिव को आदि योगी माना जाता है। यह शिव ही थे, जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया।

योग ईश्वर को क्यों प्रकाश डालता है?

आध्यात्मिक क्षेत्र में प्राचीन काल से ही योग विद्या का प्रयोग आध्यात्मिक विकास के लिए किया जाता रहा है। योग का एकमात्र उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के मिलन द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करना है । इसी अर्थ को जानकर कई साधक योगसाधना द्वारा मोक्ष, मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करते है।