व्यापार की शर्तों का क्या महत्व है? - vyaapaar kee sharton ka kya mahatv hai?

साधारण शब्दों में जिस दर पर एक देश की वस्तुओं का लेन–देन दूसरे देश की वस्तुओं से होता है, उसे व्यापार की शर्त कहा जाता है। किसी देश के निर्यात और आयात के बीच का लेन–देन अनुपात ही व्यापार की शर्त है। लेकिन आगे जब हम व्यापार की शर्त के कई प्रकार का अध्ययन करेंगे तब हमें पता चलेगा कि व्यापार की शर्त का मतलब इससे कहीं अधिक है। इसको निर्धारित करने में न सिर्फ लेन–देन होने वाले वस्तुओं की भौतिक मात्रा का महत्व है बल्कि उनके मूल्यों का भी उतना ही अधिक महत्व है। साथ ही लेन–देन होनेवाले वस्तुओं के उत्पादन में लगे साधनों व उनके पारिश्रमिक की दर का भी महत्व है।

व्यापार की शर्त के प्रकार

व्यापार की शर्त को निर्धारित करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने कई सूत्र दिए हैं। इन्हें तीन श्रेणी में रखा गया है.

  1. वस्तु-विनिमय अनुपात से सम्बंधित व्यापार की शर्त
  2. संसाधनों के हस्तांतरण से सम्बंधित व्यापार की शर्त
  3. उपयोगिता से सम्बंधित व्यापार की शर्त

व्यापार शर्त पर प्रभाव डालने वाले घटक | व्यापार-शर्तों का व्यावहारिक महत्त्व | व्यापार शर्तों की गणना के दोष

  • व्यापार शर्त पर प्रभाव डालने वाले घटक
    • व्यापार-शर्तों का व्यावहारिक महत्त्व
    • व्यापार शर्तों की गणना के दोष
      • अर्थशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक

व्यापार शर्त पर प्रभाव डालने वाले घटक

(Factors Affecting Terms of Trade)-

व्यापार शर्त पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख घटक इस प्रकार है-

(1) विदेशी मांग की लोच (Elasticity of foreign demand)-  व्यापार, शर्त का अनुकूल या प्रतिकूल होना उस देश के निर्यात की विदेशों में माँग की लोच पर निर्भर करता है। व्यापार की शर्ते विभिन्न देशों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की माँग और पूर्ति की शक्तियों की अन्त: क्रियाओं के परिणाम हैं जिसे जे०एस० मिल ने सामूहिक रूप से पारस्परिक माँग कहा है। उदाहरण के लिये हम भारत को लेंगे। यदि भारत की विदेशी वस्तुओं की मांग विदेशों द्वारा भारतीय वस्तुओं की माँग से अधिक है तो व्यापार की पूर्ति भारत के प्रतिकूल और विदेशों के अनुकूल होगी किन्तु यदि भारतीय वस्तुओं और सेवाओं के लिये विदेशों को माँग, विदेशों की वस्तुओं और सेवाओं के लिये भारत की माँग की तुलना में अधिक है तो व्यापार की शर्ते भारत के अनुकूल और विदेशों के प्रतिकूल होंगी।

(2) स्वदेश में पूर्ति की लोच (Elasticity of home Supply)- किसी देश में पूर्ति की लोच भी व्यापार शर्त की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता को प्रभावित करती है। यदि स्वदेश में पूर्ति की लोच अधिक है तो अन्य बातें समान रहने पर उस देश के लिये व्यापार की शर्ते अनुकूल होंगी क्योंकि वह विदेशी माँग में हुए परिवर्तनों के अनुसार अपनी वस्तु की पूर्ति को सरलता एवं शीघ्रता से समायोजित कर लेगा। विपरीत परिस्थितियों में व्यापार की शर्ते कम अनुकूल या प्रतिकूल भी हो सकती है।

(3) आयातक देश की माँग का आधार (Size of demand of importing countries)- आयातक देश की मांग का आकार भी व्यापार की शर्तों को प्रभावित करता है। एक वृहत् आकार वाले देश जैसे भारत या अमेरिका की माँग प्रायः विशाल होती है। एक बड़ा ग्राहक होने के कारण, वह अपने लिये लाभप्रद रूप में सौदेबाजी कर सकता है। क्योंकि उस छोटे राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में दूसरा क्रेता ढूँढ़ना पड़ेगा, जो सरल नहीं है, ऐसी दशा में आयातक देश को माँग का आकार बढ़ा देने से व्यापार शर्त अधिक अनुकूल हो जाती है।

(4) प्रतिस्थापन वस्तुओं की उपलब्धता (Availability of Substitutes)- व्यापार की शर्तों की अनुकूल या प्रतिकूल होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि क्या अन्य देशों द्वारा कुछ ऐसी वस्तुएँ उत्पादित की जाती हैं जो कि स्वदेशी निर्यात वस्तुओं की उपर्युक्त स्थानापन्न हैं। यदि ऐसी स्थानापन्न वस्तुएँ नहीं हैं तो व्यापार की शर्ते देश के अनुकूल होंगी।

(5) विनिमय दर (Exchange rate)-  व्यापार शर्त के निर्धारण में यह एक महत्वूपर्ण घटक माना जाता है जिसमें अवमूल्यन एवं अधिमूल्यन इस प्रणाली के प्रमुख यंत्र माने जाते हैं। व्यापार शर्त को अधिक अनुकूल बनाने के लिए वह देश अपनी चलन मुद्रा के बाह्य मूल्य को बढ़ा देता है।

(6) राजनीतिक गुटबन्दी (Political group)-  राजनीतिक गुटबन्दी के कारण भी वस्तुओं की उपलब्धि सरल या कठिन हो जाती है। यदि विदेशी व्यापार में भाग लेने वाले देश आपस में मित्र राष्ट्र है तो व्यापार शर्ते सरल और अनुकूल होगी और मित्र राष्ट्र नहीं तो व्यापार की शर्ते कड़ी एवं प्रतिकूल हो सकती हैं।

व्यापार-शर्तों का व्यावहारिक महत्त्व

(Practical Importance of Trade Terms)

व्यापार शर्त सम्बन्धी धारणा (concepts) बहुत ही व्यावहारिक महत्व रखती है। इसे निम्न क्रम से प्रस्तुत किया जा सकता है।

(1) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ में से मिलने वाले हिस्से का निर्धारण- व्यापार की शर्तों को अनुकूलता के क्रम में ही देश का अधिक लाभ निश्चित होगा। व्यापार शर्ते ‘कुल-लाभ (Total gain) में केवल देश के हिस्से को ही निर्धारित करती है, किन्तु ‘कुल-लाभ स्वयं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से उदय होता है। जैसे ऐसे देशों में जिनको भारत जूट निर्यात करता है वे एकाएक पर्याप्त जूट अथवा उनके स्थनानापन्न अपने यहाँ पैदा करने लगते हैं जिससे उन देशों में हमारे देश के जूट की माँग कम हो जायेगी जिससे पहले की तुलना में व्यापार की शर्ते प्रतिकूल हो जायेगी और जो व्यक्ति जूट के उत्पादन व उनके निर्यात के कार्य में लगे हुए हैं उनका आय कम हो जायेगा।

(2) साधनों के पुरस्कार एवं रोजगार का अभाव- व्यापर की शर्त के द्वारा साधनों का पुरस्कार एवं रोजगार भी प्रभावित होता है। जैसे यदि किसी देश की अनुकूल व्यापार की शर्ते हैं, जो निर्यात उद्योगों का उत्पादन बढ़ाया जाता है। इससे साधनों का पुरस्कार एवं माँग दोनों बढ़ती हैं। इसलिये अधिकाधिक साधनों का प्रयोग होने लगता है। इससे अन्य उद्योग भी प्रभावित होते हैं। अन्य उद्योगों में भी रोजगार एवं पुरस्कार में वृद्धि होती है। व्यापार की शर्त प्रतिकूल होने पर इसके विपरीत स्थिति उत्पन्न होती है।

(3) जीवन स्तर का अनुमान- अनुकूल व्यापार की शर्ते लोगों के जीवन स्तर में वृद्धि करती हैं। यदि किसी देश के लिये व्यापार की शर्ते अधिक अनुकूल हैं तो वह निर्यात की एक निश्चित मात्रा से अपेक्षाकृत अधिक वस्तुओं का आयात कर सकती है जिससे वहाँ के लोगों का जीवन स्तर ऊँचा होगा। प्रतिकूल व्यापार की शर्तों में इसके विपरीत प्रभाव होता है।

प्रो० ए० जे० ब्राउन के शब्दों में-‘लोगों का कोई वर्ग कितनी अधिक या कितनी कम जीविका का स्तर प्राप्त करता है, इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना उत्पादन करता है तथा उनके द्वारा बेची गयी और खरीदी गई वस्तुओं के बीच व्यापार की शर्ते क्या हैं’।

(4) विदेशी व्यापार से शुद्ध लाभ और हानि का अनुमान लगाने में सहायतासमान्यतः हम देखते हैं कि व्यापार शर्तों के प्रतिकूल रहने से कृषक देशों की हानि होती है।

(5) विदेशी विनिमय सम्बन्धी आवश्यकताओं का अनुमान लगाने में सहायता- व्यापार-सम्बन्धी धारणा हमें मूल्य का ज्ञान कराती है जो आयातों के लिये चुकाये गये मूल्य की तुलना में, हमारे निर्यातों के बदले में प्राप्त होता है। इससे हम अपनी विदेशी मुद्रा सम्बन्धी स्थिति का और इसमें होने वाले सामयिक परिवर्तनों का अनुमान सुगमतापूर्वक लगा सकते हैं।

व्यापार शर्तों की गणना के दोष

(Defects in measuring Terms of Trade)

व्यापार शर्तों की गणना में कई दोष उत्पन्न हो जाते हैं जिनमें से निम्न मुख्य हैं-

(1) सूचकांकों की समस्या- प्रो० टासिग एवं अर्थशास्त्रियों ने व्यापार शर्तों को नापने हेतु सूचकांकों का सहारा लिया है। व्यापार शर्तों के सूचकांक तैयारी आसानी से उसी ही स्थिति में किये जा सकते हैं जब विदेशी व्यापार में केवल दो देश ही एक वस्तु का निर्यात तथा एक वस्तु का आयात करते हों। परन्तु वास्तविक जीवन में विदेशी व्यापार में कई देश असंख्य वस्तुओं तथा सेवाओं का निर्यात एवं आयात करते रहते हैं, इससे सूचकांक तैयार करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। कीमत सूचकांकों के निर्माण में आने वाली सभी समस्याएं इन सूचकांकों के तैयार करने में भी आती है।

(2) भारांकन की समस्या- व्यापार शर्तों के निर्देशांक तैयार करते समय विभिन्न वस्तुओं को उनके विदेशी व्यापार में महत्व के अनुसार भार भी प्रदान किये जाते हैं। विभिन्न वस्तुओं को भार किस आधार पर प्रदान किये जाएं बड़ी समस्या उत्पन्न होती है क्योंकि विभिन्न वस्तुओं का महत्व विभिन्न देशों के लिए भिन्न-भिन्न होता है। समय में परिवर्तन के साथ-साथ यह महत्व भी परिवर्तित होता रहता है। ऐसी स्थिति में सूचकांकों द्वारा वास्तविक स्थिति की जानकारी प्राप्त नहीं होती है।

(3) आयात-निर्यातों में समयान्तर की समस्या- व्यापार शर्तों की गणना प्रायः किसी वर्ष में आयात-निर्यात की तुलनात्मक कीमतों के आधार पर की जाती है। परन्तु वर्ष भर इन वस्तुओं की कीमतें स्थिर नहीं “हती हैं और कोई भी देश किस वर्ष विशेष में कीमतों में हुए परिवर्तन से लाभ उठा कर अपनी व्यापार शर्तों को अनुकूल बना सकता है। लेकिन कीमत सूचकांक उनका मार्ग- प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। उदाहरणार्थ वर्ष में औसत कीमत स्थिर रह सकती है तो कोई भी देश अपने आयातों का क्रय उस समय कर सकता है जबकि औसत कीमत स्तर न्यूनतम हो और निर्यातों की कीमत अधिकतम हो। इस प्रकार व्यापार शर्तों का सही अध्ययन उसी समय बिन्दु पर माना जायेगा जबकि देश आयात भी कर रहा है तथा निर्यात भी। आयात निर्यातों में समयान्तर होने पर व्यापार शर्तों की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का सही अध्ययन नहीं किया जा सकता।

(4) वस्तुओं की किस्म में परिवर्तन- व्यापार शर्तों के निर्धारण में समयान्तर का ही प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि समय के साथ-साथ वस्तुओं की किस्म में परिवर्तन की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। कई बार वस्तु की किस्म में परिवर्तन से भी कीमत में परिवर्तन हो जाता है और इससे व्यापार शर्तों में परिवर्तन होता है। उदाहरणार्थ सन् 1940 में बनाई गई एम्बेस्डर कार तथा 1979 में बनाई गई एम्बेस्डर कार का नाम एक होने पर भी एक ही वस्तु नहीं है। ऐसी स्थिति में केवल कीमतों में परिवर्तन व्यापार शर्तों के परिवर्तन का सही माप नहीं है। निर्माणकारी वस्तुओं में किस्म का प्रभाव अधिक पाया जाता है।

(5) परिवहन बीमा लागत– प्राय: यातायात व्यय, बीमा आदि पर किये गये व्यय को आयातों के मूल्य में सम्मिलित कर लिया जाता है परन्तु निर्यातों में इन मदों पर किये गये व्यय को सम्मिलित नहीं किया जाता है। विकसित देशों द्वारा ही इन सेवाओं की पूर्ति की जाती है जिससे उनको विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है जबकि विकासशील देशों के लिए इससे एक भुगतान की महत्त्वपूर्ण समस्या उत्पन्न हो जाती है क्योंकि इन देशों के पास विदेशी मुद्रा का अभाव पाया जाता है। विकसित देशों की व्यापार शर्तों से सही स्थिति ज्ञात नहीं होती है क्योंकि आयातित वस्तुओं में यातायात, बीमा आदि व्यय भी सम्मिलित होते हैं।

अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक
  • व्यापार की शर्तों से आशय | अनुकूल एवं प्रतिकूल व्यापार शर्ते | व्यापार शर्तों की अवधारणाएँ
  • हिक्स का व्यापार चक्र सिद्धान्त | हिक्स के व्यापार चक्र सिद्धान्त का मूल्यांकन
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व्यापार की शर्तें का क्या महत्व है?

व्यापार की शर्तों से अभिप्राय उस दर से है जिस पर एक देश की वस्तुओं का दूसरे देश की वस्तुओं के साथ विनिमय किया जाता है। यह एक देश के निर्यातों की आयातों के रूप में क्रय शक्ति का माप है तथा इसे वस्तुओं की निर्यात कीमतों तथा आयात कीमतों के संबंध के रूप में व्यक्त किया जाता है।

व्यापार की शर्तों को प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं?

श्रम वृद्धि, 2. पूँजी संचय एवं 3. तकनीकी प्रगति । तुलनात्मक स्थैतिक विश्लेषण के अन्तर्गत श्रम वृद्धि एवं पूंजी संचय के प्रभावों को एक तरफ रखते हुए तथा दूसरी ओर तकनीकी प्रगति के प्रभावों को वृद्धि कर रहे देश के उपभोग, उत्पादन, आयात माँग, निजी पूंजी, व्यापार शर्त, साधन कीमतों व सामाजिक कल्याण पर देखा जाता है

व्यापार का मुख्य उद्देश्य क्या है?

वास्तव में किसी भी व्यावसायिक इकाई के अस्तित्व में आने का उद्देश्य होता है- लाभ कमाना।

व्यापार की परिभाषा क्या है?

व्यापार (Trade) का अर्थ है क्रय और विक्रय। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति (या संस्था) से दूसरे व्यक्ति (या संस्था) को सामानों का स्वामित्व अन्तरण ही व्यापार कहलाता है। स्वामित्व का अन्तरण सामान, सेवा या मुद्रा के बदले किया जाता है। जिस नेटवर्क (संरचना) में व्यापार किया जाता है उसे 'बाजार' कहते हैं।