Show See other formatsपरिचय हिंदी साहित्य की लगभग एक सहख्न वर्षों की दीधघेकालीन परंपरा का पंभाजन करते हुए पत्िरानिर्मों ने उसे प्रायः तीन बृहत् खंडों में विभाजित किया है--अआदि, मध्य झोौर आाधुनिक। झादिकाल की ऐसी साहित्यिक सामग्री जिसे निर्श्नात रूप से हिंदी साहित्य के आ्राभोग में ग्रद्दीत किया जा सके एक तो प्रभृुत परिमाण में उपलब्ध नहीं, दूसरे जो उपलब्ध भी है उसकी प्रामाशिक छानबीन करने पर इस्तो निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि उसमें से बहुत कुछ परवर्तों रचना है, उपसें का खांवृद्ध अंश अ्रधिकतर मध्यकाल में निर्मित हुआ्ना । तात्पर्य यह कि यदि राजनीतिक साहित्यलेवियों के बहकावे मेन श्राकर जैनों को सांप्रदायिक और अ्पश्रृंश की रचनाओं का मोह छोड़ दिया जाए तो श्रादिकाल मेँ हिंदी साहित्य की उपलब्ध सामग्री बहुत थोड़ी है और साहित्य के निविकृत आभोग के भीतर झ्ाने- वाले कर्ताओ्रों के नाम भो इने गिने ही हैं। जितने कर्ताश्नों की गणना को जाएगी उनमें विद्यापति को छोड़कर शेष में साहित्य का उत्कर्ष उत्तम-कोटि का नहीँ मिलेगा। मानदंड चाहे शिथिल भी कर दिया जाए तो भो तीन चार से श्रधिक उच्चक्रोटि के कर्ता उस युग में नहीँ दिखाए जा सकते । आ्राधुनिक काल में हिर्दी“ल्वमादुप्य का विस्तार बहुत अधिक हो गया। केवल पद्यवद्ध रचनाएं ही उसमें नहीँ रहीँ, गद्य भें भी बहुत कुछ लिखा जाने लगा । नाटक लिखे श्रौर खेले भी जाने लगे। पद्चवद्ध रचता श्रर्वात् कविता के ज्षेत्र में ही इतने प्रकार की श्रौर इतने परिमाणा में रचनाएँ होने लगी कि भारत की किसी भी भाषा का साहित्य हिंदी से हुईं रचना के परिमाण में झाधुनिक युग में भी उसकी तुलना नहीँ कर सकता | नाटक, उपन्यास, कहानी, तिबंध, आलोचता आदि को जितवा वाहुमय आधुनिक युग में प्रस्तुत हुआ उसमें तथा कविता में भो जिपतनो कृतियाँ लिखी गई उनमें भी अधिकांश झ्धिकतर नहीँ तो भी पर्याप्त परिमाण में ऐसी रचनाएँ हुई हैं जिनके कर्ता शुद्ध साहित्य की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अपना कतुंट्व दिखाने नहीं बैठे है, श्रतेक प्रकार की राजनोतिक, सामाजिक या श्राथिक ( २ ) विचारधाराश्रों से प्रेरित होकर उन्हाँने उस प्रकार की रचनाएँ की झाज शुद्ध साहित्य की रचना को पृथक करने का कोई मानदंड तक वालो के पास नहीँ रह गया है। फल यह है कि साहित्य के नाम पर रचनाएं भी गृहीत हो रही हैं जो निविकारात्मक चित्त से उपसें कथ् संग्रहीत नहीं की जा सकती। श्रालोचना के शास्त्रीय या पारंपरिव साहित्यिक मानदंडों को त्यागकर बहुत से राजनीतिक साहित्यसेबी ध प्रातिभ मानदंड लेकर साहित्य में साहित्य के श्रतिरिक्त कन्ना यहाँ तक विज्ञान को भी समेट लेने की उदारता दिखलाकर श्रपने प्रचार के हृथ निकाल रहें है और रस की सात्विक सरणि का उद्रोष छोड़ मानवता चाकचिक्य सामने कर सबसे बड़े पंडित बनने की लिप्सा से उछल मचा रहे हैं| इतना होने पर भी यदि उत्तमोत्तम कर्ताश्रों की सूची ब जाए तो ऐसों की संख्या १५-२० से किसी प्रकार भ्रधिक न होगी । अरब मध्यकाल में भ्राइए । उसके दो टुकड़े किए गए है--पुर्व मध्यक झोर उत्तरमध्यकाल। पूर्वमध्यवज का नाम भक्तिकाल रखा गया उसमे भ्रधिक परिमाण में भक्ति की रचनाएँ हुई हैं, इसी से उपको नाम दिया गया है। पर भक्तिकाल की वे रचनाएं जो इड़ा-विंग ना-सुपु के गोरुख़धवे में ही सामाजिक को फंपाएं रखनेवाली हों शुद्ध साहित्य गृह्दीत नहीं हो सकती। साहित्य के भीतर संनिविष्ट होने के लिये कि रचना में सर्बसामान्य भावसत्ता का श्राधार श्रनिवाय॑ है। फिर भी य ऐतिहासिक के रांमान की दृष्टि से इन््हूँ भी साहित्य के श्राभोग में माना जाए तो भी इन्हें मिलाकर भक्तिकाल में यदि उत्तमोत्तम कर्ताश्रों की गया की जाएगी तो २५-३० से श्रधिक साख्या फिर भी नहीं हो सकती ; श्रव उत्तरमध्यकाल को लीजिए। इसे रीतिकाल या शव गारकाल न' दिया गया है। सच पूछा जाए तो शुद्ध साहित्य की दृष्टि से निर्माण कर वाले कर्ता इस युग में जितने श्रधिक हुए #दवी-गा६.व4 के सहस्त वर्षो" दीघकालीन जीवन में उतने अ्रधिक्र कर्ता शुद्ध साहित्य की दृष्टि से निर्मा करनेवाले कभी नहीं हुए। आधुनिक काल में मी नहीं। इन कर्ताग्रों मेँ यदि उत्तमोत्तम कर्ताओं को छाँदा जाए श्रौर बहुत श्रनुदार होकर छाँ जाए तो भी उनकी संख्या ७५-५० से किसी प्रकार कम न होगी, कह का तात्पर्य यह कि हिंदी साहित्य के इतिहास में श्रन्य कालों में शुद्ध साहिर की दृष्टि से काव्य का निर्माण करनेवालों की संख्या में रीटहिकाल में इसी हा (३ ) से निर्माण करनेवालों की संख्या की भ्रपेज्ञा निश्चय ही न्यूव-न्यूवेतर है । शुरू ही यग में एक से एक उत्तम कर्ता संख्या में सबसे अधिक इसो उत्तरमध्यकाल या श्ूृंगारकाल या रीतिकाल में हुए। हिंदी का सच्चा साहित्ययुग यदि कोई था तो वह्तुत: यही था। मेरे गुदरेव लावा भावाज- दोन जो कद्ठा करते थे कि जिते इप युग के रोविकाञय का ज्ञान नहाँ वह हिंदी का साहित्यज्ञ नहीं। जिपते इसका ज्ञान है उसे श्रन्य का ज्ञान अल्प- अवास से ही हो जा सझता है। रोतिस्नाहित्य का ज्ञाव प्राप्त करते के लिग्रे हृत्ययास को श्रोज्ञा होती है। कहते को झावरपक्रता नहीं हि लाला जी को कसौटी पर यदि कसा जाए तो संत्रति हिरी साहित्य को गहेगां पर बैठे कई महंत श्रपने दरबारियों सहित उस्तके अनधिकारी ही सिद्ध होंगे। हिंदी साहित्य के मध्यकाल में सभी इतिहासकारों ने रिख्तो न किसी रूप बकरे मेँ भक्ति और रीति का नामोल्जेख तो किया है पर उतर यु। में प्रवाहित होनेवाली एक साहित्यथारा को एकदम थूर ही गए हैं । मब्यहाल में सत्वतः तीन प्रकार को क्यधाराएँ प्रशहितर थी--रक थो भक्ति की, दूसरी थी रोति की और तीस री था स्त्रल्छर बृत्त की | भक्ति को घारा का हिंदी- साहित्य में हितवा हो मइ॒त्व क्यों न हो यह तो माता हो पड़ेगा कि भक्त ही उसका साध्य थी, कविता उप्तके लिये साधन मात्र थो। पर रीति को आारावालों का साध्य काठउए ही था, साथत भी काव्य ही था। काव्य को साधना में भी साध्य और साधव दोनों पर सम्यक्र दृष्टि रखे होती है। रीतिधारा के कतोप्रों ने साधन पतक्षु पर जितना अधि र ध्यान दिया उतना अधिक उप्रके साथ्य पक्ष पर नहाँ। रीतिबारा का गअ्र्थ ही है काव्परोति को धारा शप्र्थाव् काव्यसाधत की धारा। ये लोग काव्य को रोवि श्रथात् उपके साधन पर विशेश ध्यान रखनेतवाले थे। काञ्य का साव्य उसका अंत रंग-पतक्तु होता है, साधव उम्रका बहिरंग पक्ष होता है। इप प्रकार ये जितना अधिक पान काव्य के बहिरंग पर रखते थे उतता अधिक उप्तके अंररंग पर नहीँ। काठ्य फा बहिरंग पक्ष ताता प्रज्ञार के तियमों के ग्राधार पर चजञ्ञता है। उन नियमों और विधियों में कियो प्रकार की चरुटे हुई तो रोति के कर्ता सारा खेल बिगड़ा समझते हैं।इत नतिग्रममों श्रौ विधियों को ध्यान में रखता आऔर उनके अनुसार सारा संभार करता पुष्षार्थ का कार्य होता है। उपमें रचना करनेवाले को प्रपनी बुद्धि चारों ओर से समेटठकर लगना पड़ता है। लात्पय यह कि काव्यशत्ति के श्रतिरिक्त उप्के उत्पाद्य पक्ष पर, निवुणता और (४) प्रभ्यास पर, इनकी सबसे श्रधिक हृष्टि रहती है। यहाँ तक कि यदि किस में काव्यशक्ति न््यून भी हो तो वह निपुणुता औ्रौर श्रभ्यास के बल ५ कविराज बन जा सकता है। या ठोंक पीटकर वेद्यराज (अपर पर्याय 'कवि- राज” ) बनाया जा सकता है। ये लोग कभी कभी कुछ बातें सीखक कविता करते में लग जाया करते थे। ठाकुर कवि ऐसों के ही लिये क गए है- सीखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नेन, सीखि लीनो जस औौ प्रताप को कहानो है । सीखि लीनो कल्पव॒क्ष कामधेत्तु चितामनि, सीख लीनो मेर औ कुबेर गिरि आनो है। ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात, याको नहीं भूलि कहेँ बाँधियत बानो है। डेल सो बनाय झ्राय मेलता सभा के बीच, लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो है ॥ स्वच्छेद धारा का साध्य काव्य था और साधन भी काव्य ही था | ५ इस धारा के कवियों ने साधन कौ अपेक्षु साथ्य पर अ्रधिक ध्यान दिया साधन पर ये ध्यान न देते हों सो नहीं, उसपर भी ध्यान रहता था। १ स्थिति यह है कि जो साध्य पर ध्यान रखकर साधन पर ध्यान रखता उसका साध्य साधन का समन्वय बना रहुता है, कितु जो साधन पर ४४! प्रधिक रखता है धीरे धीरे साध्य उसकी दृष्टि से श्रोकल हो जाता है। सा: चुपचाप खिसक जाता है, हाथ में केवल साधन बच रहता है । इसे समभे कि एक का अंगी साध्य और श्रंग साधन, दूसरे का अ्ंगी साधन श्रौर अं साध्य | पहले को इसी से साधन के लिये पृथक प्रयत्न करने की श्पेक्षा न! रहती, साध्य ठीक है वो दंडाप्पिकान्याय से साधन भी उसके साथ गब्राप आप भा जायगा । बहुत आ्राधुनिक ढंग से सोंचें तो कहेंगे कि इनके ये साध्य साधन में परमार्थतया भेद नहीं है; प्रत्युत श्रभेद है। रीतिधाराबा जिस साज सजा मे लगते हैं उसमे बुद्धि का योग अधिक करना पड़ता उनकी रचना बुद्धिबोधित होती है, इसी से काव्य का साध्य भाव उससे धी घोरे हटने लगता है। रीतिकाव्य की रानी ब॒द्धि है, भाव उसका किकर पर स्वच्छंद काव्य की रानी है भ्रनभूति, उसकी दासी है बुद्धि--- ( ४ ) “रीफि सुजान सची पटरानी बची बुधि बावरी हल करि दासी ।” स्वच्छंद काव्य भावभावित होता है, बुद्धिरोधित नहीं; इसलिये श्रांत- रिकता उसरा सर्वोपरि गुण है। श्रांतरिकता की इस प्रवृत्ति के कारण स्वच्छंद काव्य की सारी साधनसंपत्ति शासित रहती है ब्नौर यही वह दृष्टि है जिसके द्वारा इत कर्ताओ्रों की रचता के मूल उत्स तक पहुँचा जा सकता है। बहुत भ्राधुनिक ढंग से कहेँ तो कहूँगे कि स्वच्छेंद वृत्ति के कवियों की अनुभूति ही उनका मुख्य आधार है, उसी के सहारे उतकी सारी कृति की छान बीन की जा सकती है। रीतिकाव्य के कर्ताश्रों का मूल श्राधारजूत तत्व है भंगिमा । स्वछंद कर्ता में भंगिमा कहीँ कदाचित् व भी हो, पर श्नुभूति- शून्य उसकी रचना नहीं हो सकती । रीतिकर्ता में अनुभूति चाहे तन भी हो, पर भंगिमा अवश्य रहेगो। बिहारी ऐसे कवियों मेँ भंगिमा चाहे अ्रनुभ्ूृति- पुर्णा हो चाहे शुद्ध भंगिम। ही हो, पर उससेँ साहित्यिक चारुत्व भ्रपने चरम उत्कर्ष पर ही दिखाई देता है, इसी से छत्तकी रचना सर्वत्र श्राकर्षक है | पर बहुत से ऐसे भी हैं जिनकी भंगेमा केवल वर्शासौंदर्य॑ तक ही रुक गई, वह ऐसी पेशलता न ला सकी जिससे उसमें सहृदयों के लिये वांछित श्राकर्षण होता । भ्रनुभृति में बाहरी झाकषंश ने भो हो तो भी वह हृदय खींच लेती है। श्रनुभृति हृदय से उठती है, हृदय को श्राकृष्ट करती है उसके लिए किसी अन्य माध्यम की श्रपेज्ञा नहीं। भंगिमा हृदय से ईरित भी हो सकती है श्रोर बुद्धि से प्रेरित भी | हृदय से ईरित भंगिमा झ्लाकपक होती हैं, पर वह सीधे हृदय में नहीं पहुँचती उश्के लिये माध्यम की श्रपेद्दा होती है । वह बुद्धि के, नियम-विधि के, शात्त्र के माध्यम से द्ृदय में पहुँदती है। उधके लिये ज॑से कर्ता को शास््रविधिनिष्णात होगा चाहिए वेसे ही ग्राहक को भी शासत्रचितनदीष्ण होना चाहिए। अनुभूति के लिए न फर्ता वो उसकी (शारू-विधि की) विशेष आवश्यकता है और न ब्राहक को । तो कण शास्राभ्यासशूत्य होता चाहिए संवेदनशील स्वच्छुद कवि को ? नहीं, शास्त्र का अ्रस्यास ठो समुचित मात्रा मेँ सभो-को करना चाहिए। स्वच्छ॑द कर्ता को भो और उसके ग्राहक को भी । पर शास्त्र के सहारे अपना कतृत्व दिखाने में लगना परनुमृति या संवेदना का लक्ष्य नहीं होता । संवेइना संवेदना को स्थिति के संपादन में लगती है, शास्त्र की स्थिति के संपादन में नहीं। दोष शात्ल स्थिति का संपादन है, शास्त्राभ्यास या शाप्नज्ञन नहीं ॥ ( ६ ) रीतिकाव्य के लिये जिस दोष की संभावना रहती है वह यही है। इपी प्रायः रीतिकर्ता इस दोष से जकड़ जाते हैं । स्वच्छ॑दवृत्तिवालों की संवेदना श्रनेक प्रकार की हो सकती है।' मध्यकाल के इन स्वच्छंद कर्ताप्रों की संवेदना केवल प्रेम की संवेदना * ये प्रेम की पीर के पक्तनो थे। हिंदी साहित्य में श्रादिकाल में विद्यापति 'प्रे संवेदना' के कवि दिखाई देते है। पर प्रेम की यह संवेदना पारंपरिक रूप मध्यकाल के स्बच्छंर गायक्ों को नहों मिली है। प्रेष की यह संवेद फारसी साहित्य श्ौर सूफो-प्राधना के प्रवाह से सांबद्ध है। भारत॑ प्रेम-संवेददा और फारपी प्रणय-संवेदना का श्र चाहे जो पार्थक्य ; पर यह पार्थक्य बहुत स्पष्ट है कि फारसी प्रणय-संवेदना रहस्पात्म वृत्ति को भी लेकर चलतो है। भारतीय साहित्य मेँ प्रेम की संंवेद चाहे जितनी तीतन्र हो वह रहस्पात्मकः स्वरूप नहीं धारण करत॑ पर फारसी-प्राहित्व और सूफी-प्राधना के संपर्क में श्राने के श्रन॑ भारतीय साहित्य पर और भारतीय भक्तिप्रवाह पर भी इसका प्रभ पड़ा। हमारे मुसलमान बंधुओं के आ्रागमन के श्रनंतर भी जब तक ह प्रेम की पीर! के सांगर्क में हमारा साहित्य और हमारी भक्ति न भ्राई थो तब तक उसका अ्तता नैत्रगिक रूप बना हुआ था ताथ-पिद्ध भक्ति की सहज धारा को प्रभावित करते करते भी बहुत प्रल्पा में प्रभावित कर सके और साहित्य को तो उन्होंने कुछ भी प्रभावित न किया | इसी से जयदेव श्र विद्यापति की रचता रहस्यात्मक रूप नहीं पृ सको। जो लोग इनमें अध्यात्म श्र्वात् रहस्प की खोज करते हैं वे सत्यय में कलियुग हृंढ़ निशालता चाहते हैं। भक्ति के ज्षेत्र में रहस्यात्मक प्रवृ। का मेल जितना अधिक निमुश-साधता से बैठता है उतना अधिक सगुर साधता से नहीं | भक्ति के कुछ साण साप्रदायों या प्रवाहों में जो रहस्थात्म सावना ने घर कर लिया है वह प/वर्तों प्रभाव है और भक्ति-संत्दायों ४ भाव-पावता में बह अपना आरोपित रूप सहच्र ही स्पष्ट कर देती है। सुर भक्ति को साधना में अधिक गुहा साधना चल नहीं पाती और यदि उस कुछ थोड़ी बहुत चन्नती भी हो तो भारतीय साहित्य की व्यक्त शब्दपाधः इसका बॉ बहुत श्रधिक और बहुत दिनों तक नहीं संभाल सम्ती इपी से मव्यकाल के स्वछंद प्रवाह में रहस्य की भत्क भर मिलती है श्राधुनिक युग में भी छायावाद के साथ जो रहस्परात्मक प्रवृत्ति प्रबल हु ( ७ ) चह बहुत दिनों तक टिक न सकी । केवल महादेवी वर्मा शभ्रमी तक उसे ढोए जल रही हैं। पर वहाँ भी परिमाण भ्रत्यंत क्षीणा हो गया है । स्वच्छंद प्रवाह के प्रमुख कर्ताप्रों में रसखानि, आलम, ठाकुर, घन- आनंद, बोधा ओर ह्विजदेव का नाम लिया जा सकता है। छानबीन करने पर इस प्रवाह के छुटभेये भी कई मिल सकते हैं। इत सबरमेँ श्रेष्ठ घनश्रानंद ही प्रतीत होते हैं। इसका कारण यह है कि उनकी संवेदना सर्वाधिक साहित्यिक है। रसखानि में साहित्यिक निखार न होकर खंवेदता की सहज अभिव्यक्ति मात्र है। श्रेष्ठता का वार्स्ताविक कारण। धनश्नानंद को साहित्य- श्रतता है | उक्त छहो कर्ताप्रों में सबधे प्रधिक्त साहित्यश्रुत घवग्रानंद ही प्रतीत होते हैं। इस साहित्यश्रुति का प्रभाव उनकी रचना के प्रत्येक भ्व॒यतर प्र पडा है। पर उनकी रचना के दो प्रकार है--एक प्रेम संवेदना की अभिव्यक्ति, दूसरी भक्ति सवेदता की व्यक्ति । इनकी सक्ति संबेदना को व्यक्ति रसखानि के बहुत निकट है। प्रेम संवेदना की अभिव्यक्ति साहित्यिक भंगमा आंवलित है और भक्ति-संवेदता को व्यक्ति में उस भंगिमा की कप्ती या श्रभाव लक्ष्यभेद के कारण है । एक की रचना सहृदपरों के लिये है दूसरी की कोरे भक्तों के लिये। एक सभ्यक् श्रनुभूति के लिये है दूसरी संकोर्तन के ईलिये। घनश्रानंद की कृति में केवल रसखानि की सी ही रचना नहीं मिलती, उसमें श्रालम. ठाकुर, बोधा, द्विंजदेव सत्रकी उत्कृष्ट विशेषताग्रों का सम वेश हो गया है। पर घनम्रानंद को विशेषत्रा ऐसी है जोन रसखानि में है, त श्रालम में,न ठाकुर में, व बोबा में, न डिंजदेव मैं । बह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो उक्त स्वच्छेद गायकों से अपनी विशेषताश्रों के कारण पृथक और अश्रंष्ट है वह रीतिकाव्य के कर्ताप्रों से अपनी विशेषताओं और प्रवृत्तियों के कारण निश्चय ही पृथकंतर श्रौर श्रेश्ठततर है। इसका अनुभव स्वयम् घनआनंद ते भी किया था जिसे उन्होंने अपनी इस पंक्ति में व्यक्त कर रखा है-- लोग हैं लाग कबित्त बनावत मोहि तो मेरे कबित्त बनावत। उतकी रचता अ्रर्यात् उनका प्रेम-संवेददा के कवित्तों के समप्रहकता श्री जजनाथ ने भी उनकी पृथऋूता को लक्षित किया था--- जग की कविताई के धोखे रहै हवा प्रबीनन की मति जाति जकी । कविता में लगकर उसका निर्माण करनेवाले रीतिवेंतसा ही थे और जग ( ६ ) रीतिकाव्य के लिये जिस दोष की संभावना रहती है वह यही है। इसी : ग्रायः रीतिकर्ता इस दोष से जकड़ जाते हैं। स्वच्छंदवुत्तिवालों की संवेदना श्रनेक प्रकार की हो सकती है। प मध्यकाल के इन स्त्रच्छंद कर्ताश्रों की संदेदना केवल प्रेम की संवेदना रथ ये प्रेम की पीर के पक्तो थे। हिंदी साहित्य में श्रादिकाल में विद्यापति 'प्रेम संवेदना” के कवि दिखाई देते हैं। पर प्रेम की यह संवेदता पारंपरिक रूप. मध्यकाल के स्वच्छंद गायकों को नहों मिली है। प्रेम की यह सांवेदर फारसी साहित्य श्ौर सूफो-पाधना के प्रवाह से सांबद्ध है। भारती प्रेम-रंवेदता और फारसी ५--:,-- ८ ' का श्रौर चाहे जो पार्थक्य हें पर यह पार्थक्य बहुत स्पष्ट है कि फारसी प्रणय-संवेदना रहस्गत्म' वृत्ति को भी लेकर चलती है। भारतीय साहित्य मेँ प्रेम की संवेदः चाहे जितनी तीज हो वह रहस्पात्मक स्वरूप नहीं धारण करती पर फ़ारसी-पाहित्य और सूफी-पाधना के संपर्क में श्राने के श्रन॑ः भारतीय साहित्य पर श्र भारतीय भक्तिप्रवाह पर भी इसका प्रभा पड़ा । हमारे मुसलमान बंधुग्रों के श्रागमन के अ्रनंतर भी जब तक इ प्रेम की पीर! के सांगर्क में हमारा साहित्य और हमारी भक्ति न! आई थी तब तक उसका अ्रयता नेसर्गिक रूप बता हुझा था / नाथ-पिद्ध भक्ति की सहज घारा को प्रभावित करते करते भी बहुत ग्रल्पां में प्रभावित कर सके और साहित्य को तो उन्होंने कुछ भी प्रभावित न किया । इसी के जयदेव और विद्य/पति की रचना रहस्यात्मक रूप नहीं प+ सको। जो लोग इनमें अध्यात्म प्र्वात् रहस्प को खोज करते हैँ वे सम्यर में कलियुग हूढ़ निधालता चाहते हैं। भक्ति के क्षेत्र में रहस्थात्मक प्रवू। का मेल जितना अधिक निमगुश-साधना से बैठता है उतना अधिक सु साधना से नहीं | भक्ति के कुछ सवुण सांप्रदायों या प्रवाहों में जो रह्स्पात्त साथना ने घर कर लिया है वह परवर्तों प्रभाव है और भक्ति-संददायों भाव-प्राधता में बह अझपता आरोपित रूप सहज हीं स्पष्ट कर देती है। सु: भक्ति को साथना में अ्रधिक गुह्य साधना चल नहीं पाती और यदि उः कुछ थोड़ी बहुत चलती भी हो तो भारतीय साहित्य की व्यक्त शब्दणा८ इसका बोक बहुत श्रधिक और बहुत दिनों तक नहीं संभाल सर्श्त इसी से मव्यकाल के स्वछंद प्रवाह में रहस्य की ऋनक भर मिलती ; श्राधुनिक युग में भी छायावाद के साथ जो रहस्पात्मक प्रवृत्ति प्रबल ( ७ ) चह बहुत दिनों तक टिक न सकी । केवल महादेवों वर्मा श्रमी तक उसे ढोए चल रही हैं। पर वहाँ भी परिमाणा भश्रत्यंत क्षीजा हो गया है । स्वच्छंद प्रवाह के प्रमुख कर्ताग्रों में रसखानि, आलम; ठाकुर, घन- आनंद; बोधा ओर द्विजदेव का नाम लिया जा सकता है। छासबीन करने पर इस प्रवाह के छुटभेये भी कई मिल सकते हैं| इत सबमें श्रेष्ठ घनग्मानंद ही प्रतीत होते है। इसका कारण यह है कि उनकी संवेदना सर्वाधिक साहित्यिक है। रसखानि में साहित्यिक निखार न होकर संवेदना की सहज अभिव्यक्ति मात्र है। श्रेष्ठता का वार्स्तावक कारण धतश्नानंद को साहित्य- अतता है। उक्त छहो कर्ताग्रों में सबधे अ्रधिक्त साहित्यश्रुत घनग्रानंद ही प्रतीत होते है । इस साहित्यश्रुति का प्रभाव उनकी रचना के प्रत्येक भ्रत्रयत 'प्र पडा है। पर उनकी रचना के दो प्रकार है--एक प्रेम संवेदना की अभिव्यक्ति, दूसरी भक्ति संवेदना की व्यक्ति । इनकी भक्ति संबेइना को व्यक्ति रसखा न के बहुत निकट है। प्रेम संवेदना की अभिव्यक्ति साहित्यिक भंगेमा आंवलित है और भक्ति-संवेदता को व्यक्ति में उस भंगिमा की कप्ती या अ्रभाव लक्ष्यभेद के कारण है। एक की रचता सहृदपरों के लिये है दूसरी की कोरे भक्तों के लिये। एक सम्यक् श्रनुभूति के लिये है दूसरी संकोर्तन के उलेये । घनआ्रानंद की कृति में केवल रसखानि की सी ही रचता नहीं मिलती, उसपें श्रालम. ठाकुर, बोधा, द्विजदेव सत्रकी उत्कृष्ट विशेषताप्रों का सम वेश हो गया है। पर घत्रभ्नानंद को विशेषता ऐसी है जोन रसखाति में है,न आलम में, न ठाकुर में, त बोबा में,न डिजदेव में । बह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो उक्त स्वच्छुंद गायकों से अपनी वद्चेपताओं के कारण पृथक श्रोर श्रष्ट है वह रीतिक्राब्य के कर्ताप्रों से अपनी 'विशेषताओ्रों और प्रवृत्तियों के कारण निश्चप्र ही पृथकृतर और श्रेट्ठतर है । इसका अनुभव स्वयम् घनआानंद ने भी किया था जिसे उन्होंने श्रपती इस पंक्ति में व्यक्त कर रखा है-- लोग हैं" लागे कबित्त बनावत मोहिँ तौ मेरे कबित्त बनावत। उतकी रचना श्रर्वात् उनका प्रेम-संवेदत! के कवित्तों के सम्रहकर्ता श्री ख़जबताथ ने भी उनकी पृथरूता को लक्षित किया था-- जग की कविताई के घोखे रहे हा प्रबीनन की मति जाति जकी । कविता में लगकर उसका निर्माण करनेवाले रीतिवेता ही थे और 'जग ( ८ ) की कविता” साहित्य-संसार में बहुप्रचलित रचना उस समय रीतिकविता हूँ। थी। पर घनग्राठंद की रचना में कुछ ऐसी विशेषता थी कि उसकी सुक्ष्मत! सबके लिए सुलभ नहीं थी, काव्यमार्ग के प्रवीण पिरथिक भी उसे देखकर चकफपकाते थे । यहु कठिनाई न रसखाति की कविता में थी, न आलम क॑ कविता में, व ठाकुर को कविता में, न बोधा की कविता में और न द्विअदेद की कविता में | उनकी प्रेम संवेदता चाहे जितनी गहरी, चाहे जितनी मार्मिव हो, पर उसके संबंध में यह कठिनाई थी ही नहीं । घनशभ्रानंद की कबिताई! मेँ प्रतीणों की मति को जकानेवाली के विशेषताएं हैं। सबसे पहली विशेषता तो यह है कि उनकी रचना में बहुत सी स्थितियाँ मौन है भ्र्थात् उनकी रचना शभ्रभिधा के वाच्यरू में कम लक्षण के लक्ष्य भौर व्यंजना के व्यंग्य रूप में अभ्रधिक्त है। जो लक्षणा-ज्येजना के इः लक्ष्य- व्यंग्य श्रथों तक पहुंचने की ज्ञुगमता रखनेवाला न होगा उसके लिये इनक रचना नीरस नहों तो सरस भी ने होगी। अपनी क्ृति के भावक का रू स्वयम् घनग्रानंद ने इस सवये में व्यक्त कर दिया है--- उर-मोौन में मौन को घ् घट के दुरि बेठी बिराजति बात बनी । मृदु मंजु पदारथ भूषन सो सू लसे हुलरो रसरूप मनी। रसना-अली कान गली मधि ह्वू पधरावति ले चित-सेज ठती । घनआतनंद बूझनि-प्रक बसे बिलसे रिक्वार सुजान धनी ॥ हनकी कविता हृदय के भवन में मौन का घघट डाले अ्रपने को छिप्राए बठी है। रही संभार को बात | सो सारे शाद्धीय संभार इनमें है---पदार्थ है प्र कोमल; चुने हुए मंजुन । उल्में पद श्रर्थात् शब्द ही नहीं हैं श्रर्थ भी हैं वाक्य, लक्ष्य, व्यग्य एक से एक मृदू, एक से एक मंजु । कोई छहें कि इपरे अ्रवर श्रंश वाच्यार्थ-मात्रविश्ष्टि श्रलंकार न हों, सो बात भी नहीं है। इसः अलंकार भी हैं, गहने भी हैं, पर वे आझामूषण, वे अलंकार, रत्तजटित हैं चमचमानेवाले है, दाप्त करनेवाले हैं। रत्न या मणि है क्या ?--'रस' अलंकार को सारी योजना रस की दीघप्नि के लिये है, केवल शरीर पर जदा६ के लिए नहीं । यह वाणी, यह कविता, यह बनी या दुल्हुन रसवा सख्ती बे साथ साथ जाती है । रसना-सखी के संग, जीभ के संग नहीं--रस को झोर हे जानेवाली रसता--रसाश्रय छुदय की शय्या पर, सुसज्ज शब्पा पर, सह दयता की सजी सेज प्र उसे पहुँचाती है। इस कविता-दल्हन का रसि१ (६ ) (बना; धती-स्वामी) कोई साधारण व्यक्ति केसे हो सकता है। वह सुजान हैं; प्रवीण है, सहृदय है, साहित्य के विधि बिधानों से पअ्रभिनज्न है । वही इसपर रीमता है, इसकी सूक्ष्म भाव भंगिवा को समझता है। बूकनि--प्रतीति, रसप्रतीति--की गोद में, काव्यप्रतीति के श्रंक में, उसे लेकर विलसता है | घनभानंद की रचना का सौंदर्य आवत है, वह शब्दों द्वारा वाच्य नहीँ है । हृदय ही, सहृदय ही, उसके मार्ग को समझ सकता है। पर इस मौन को भ्रमौच ण बखान में परिशत कौत कर सकता है ? वाणी जिस प्रकार मौन में श्रमेक बखानों को समेटे सिमटी पड़ी रहती है उसी प्रकार वाःशी उस मौन मे छिपे तत्वों को प्रकाशित भी कर सकती है। जिसकी वाणी में मौन के भीतर श्रनेझ अ्मौन तत्वों को छिपा रखते की क्ञमता नहीं वह कर्ता, समर्थ कर्ता नहों और जिसकी वाणी में उनको प्रकाशित कर सकते की शक्ति नहीँ वह सुक्ष्म-ग्रहीता नहीं, सहृदय नहीं। घनआनंद को इस विषय में वैराश्य नहीं है। तैराश्य मारतीय परुंपरा में नहीँ; अंगरेजी की श्रनुकृति पर नैराश्य की नदी छायावादी बंधु भले ही प्रवाहित कर चुके हो भर अयती रचतत की गृढ़ता समभने के संबंध में भी चाहे उन्हें नैराश्य ही रहा हो, पर न भवभति को नैशाश्य था न घनश्रानंद को । वे वाणी की, सहृदय की वाणी की प्रशस्ति यों करते है -- आँखिन मृ दिज्नी बात दिखावत, सोवनि जाग।ने बात ही पेखि बात-सरूप अनूप अरूप है भूल्यों कहा तू अलेखहि लेखि बात की बात सुबात विचारिबों है छमता सब ठौर बिसेखि नतनि काननि बीच बसे घनआनंद मौन बखान सु देखि चले ले ले ले ले ॥ वाणी की गति श्रत्यंत स॒क्ष्प है जो अन्य विधि से असंभव या दुँःसंभव है उसे अपनी सूक्ष्मछ्षुका से वाणी संभव कर दे सकती है, और बात की बात में संभव कर दे सकती है । किसी झाँख के म्दने में कितने रहुस्य हैं. इसका उद्घाटन वाणी कर सकती है। एक साथ सोना झोर जागना वाणों ही से देखा जा सकता हैं। वाणी या काव्य स्वयम् एक दर्शन है, हष्ट है। उसको खझूपरेखा सूक्ष्म है, वह अ्रलख का, निराकार का, लेखा जोखा भी प्रस्तुत कर सकती है । ब्रह्म का, निगुंण ब्रह्म का, साक्चातक्ार वाणी ही से संभव है। वह निराकार श्रनुभति का विषय हो चाहे न हो, पर वाणी का विषय तो हो ही सकता है, हुआ ही है। जगत् भले ही श्रतनिव्चनीय हो, ( ८ ) की कविता” साहित्य-संस्तार में बहुप्रचलित रचना उस समय रीतिकविता ही! थी। पर घनआनंद की रचना में कुछ ऐसी विशेषता थी कि उसकी सुक्ष्मता सबके लिए सुलभ नहीं थी, काग्ग्मार्ग के प्रवीण पिथिक भी उसे देखकर चकपकाते थे | यहु कठिताई व रसखानि की कविता में थी, तन आलम की कविता में, न ठाकुर को कविता में, न बोधा की कविता में भ्रौर न द्विजदेव की कविता भें | उनकी प्रेम संवेदवा चाहे जितनी गहरी, चाहे जितनी मार्मिक हो, पर उसके संबंध में यह कठिनाई थी ही नहीं । घनआनंद की 'कबिताई! में प्रवीणों की मति को जकानेवाली कई विशेषताएं हैं। सबसे पहली विशेषता तो यह है कि उनकी रचना में बहुत सी स्थितियाँ मौन है श्रर्थात् उनकी रचना अ्रभिधा के वाच्यरू भें कम लक्बणा के लक्ष्य और व्यंजना के व्यंग्य रूप में अभ्रधिक्र है। जो लक्षणा-ज्येजना के इत लक्ष्य- व्यंग्य श्रर्थों तक पहुंचने की क्षमता रखनेवाला न होगा उसके लिये इनकी रचना नीरस नहों तो सरस भी ने होगो। अपनी कृति के भावक का रूप स्वयम् घनआानंद मे इस सव्वेये में ब्यक्त कर दिया है--- उर-मौन में मौन को घू घट के दुरि बेठी बिराजति बात बनी । मृदु मंजु पदारथ भूषत सो सू लसे हुलसे रसरूप मनी । रसना-अली कान गली मधि ह्वू पधरावति ले चित-सेज ठनी । घनआनंद बूकनि-अ्रक बसे बिलसे रिकवार सुजान धनी | इनकी कविता हृदय के भवत में मौन का घेघट डाले अपने को छियाए बठी है । रही संभार को बात | सो सारे शास्नीय संभार इनमें हँ---पदार्थ है, प्र कोमल, चुने हुए मंजुन । उर्में पद श्रर्थात् शब्द ही नहीं है भ्रर्थ भी हैं, वाच्य, लक्ष्य, व्यग्य एक से एक मुदु, एक से एक मंजु । कोई छहें कि इवमें अ्रवर श्रंश वाच्यार्थ-तात्रविशिष्ट श्रलंकार न हों, सो बात भी नहीं है। इसमें अलंकार भी हैं, गहने भी हैं, पर वे आझामूषण, वे श्रलंकार, रनजटित हैं; चमचमानेवाले हैं, दाप्त करनेवाले है। रत्न या मणि है क्या ?--'रत! | अलंकार की सारी योजना रस की दीप्ति के लिये है, केवल शरीर पर लदाव के लिए नहों । यह वाणी, यह कविता, यह बनी या दूल्हन रपवा सखी के साथ साथ जाती है। रसना-सखी के संग, जीभ के संग नदीं--रस को प्ोर लें जानेवाली रसना--रस।श्रय छुदय की शय्या पर, सुसज्ज शय्या पर, सहु« दयता की सजी सेज प्र उसे पहुँचाती है। इस फविता-दुल्हन का रसिक (६) (बना, धनी-स्वामी) कोई साधारणा व्यक्ति कैसे हो सकता है। वह सुजान है; प्रबीण है, सहृदय है, साहित्य के विधि बिधानों से अभिन्न है । वही इसपर रीमता है, इसकी सूक्ष्म भाव भेगिया को समझता है। बूकनि--प्रतीति, रसप्रतीति--की गोद में, काव्यप्रतीति के अ्रंक में, उसे लेकर विलसता है | घनआानंद की रचना का सौंदर्य आदत है, वह शब्दों द्वारा वाच्य नहीँहै । हृदय ही, सहृदय ही, उसके मार्ग को समझ सकता है। प्र इस मौन को श्रमौन ण बखान में परिणत कौन कर सकता है ? वाणी जिस प्रकार मौन में श्रमेक बखानों को समेटे सिमटी पड़ी रहती है उसी प्रकार वाशी उस मौन मे छिपे तत्वों को प्रकाशित भी कर सकती है। जिसकी वाणी में मौत के भीतर शअ्रनेक श्रमौन तत्वों को छिपा रखते की क्षमता नहीं वह कर्ता, समर्थ कर्ता नहों और जिसकी वाणी में उनको प्रकाशित कर सकते की शक्ति नहीँ वह रू:० ब्रटीता नहीं, सहृदय नबहीँ। घनआनंद को इस विपय में नैराश्य नहीँ है। नेराश्य भारतीय परुंपरा में नहीं: श्रेंग रेजी की श्नुकृति पर नैराश्य की नदी छायावादी बंधु भले ही प्रवाहित कर चुके हों श्र अपनी रचना की गढ़ता समभने के संबंध में भी चाहे उन्हें नैराश्य ही रहा हो, पर न भवभति को नैराश्य था न घनझानंद को । वे वाणी की, सहृदय की वाणी की प्रशस्ति यों करते ह-- आँखिन मू दिज्नो बात दिखावत, सोवनि जागनि बात ही पेखि ले। बात-सरूप अनृप अरूप है भूल्यों कहा तू अलेखहि लेखि ले । बात की बात सुबात विचारिबों है छमता सब ठौर ब्सिखि ले । नेननि काननि बीच बसे घनश्रानंद मौन बखान सू देखि ले ॥ वाणी की गति शत्यंत सूक्ष्ष है जो अन्य विधि से अ्रसंभव या दूँ:संभव है उसे अपनी सुक्ष्मेक्षुका से वाशी संभव कर दे सकती है, और बाव की बात में संभव कर दे सकती है। किसी क्राँख के म्दने में कितने रहस्य हैं इसका उद्घाटन वाणी कर सकती हैं। एक साथ सोना श्लोर जागना वाणी ही से देखा जा सकता है। वाणी या काव्य स्वयप्त एक दर्शन है, दृष्ट है। उसको खझूपरेखा युक्ष्य है, वहू भ्रलसख का, निराकार का, लेखा जोखा भी प्रस्तुत कर सकती है । ब्रह्म का, निगुंण ब्रह्म का, साह्षाकार वाणी ही से संभव है। वह निराकार श्रनुभति का विषय हो चाहें न हो, पर वाणी का विषय तो हो ही सकता है, हुआ ही है। जगत् भले ही श्रनिवंचबनीय हो,, ( १० ) पर वह (ब्रह्म) भ्रनिवंचनीय नहीं! हैं। वह शअज्ञय चाहे हो। पर श्रवाच् नही है। भ्रच्छी से भ्रच्छी, उँंची स्थिति को सर्वत्र वाणी ही बा की बात में बतला सकती है । कोई ऐया स्थान नहीं है जहाँ वाणी श्रपः विशेषता न दिखला दे | जो और प्रकार से इंगित नहीं किया जा सका वाणी उसे इंगत करती है । ध्य्पाणियगादों जबनो प्रढ्ीता! को, श्रजः अपरिमेय को, इन शब्दों से इगित करमेवाला कौन है, वाणी ही न | ६ मन का, चित्त का, बुद्धि का विषय न बन सके उसे भो वाणा का विष बनना ही पड़ता है। वह मन, चित्त, बुद्धि का विषय नहीं है इसे वार ही तो बतलाती है । वणो नेत्रों में कान लगा सकती है, और उन कानों ६ -मौन की पुकार वाणी ही सुना सकती है, मौव के बखान को वाणी दिखा सकती है। वाणी क्या नहीं कर सब्ती ? घनआानंद की आबृत श्रर्थसंपत्ति की; उनके मौत की, विशेष 'बताते हुए वाणी की विशेषता तक पहुँचता पड़ा। इसका कारण यह कि उनकी विरहसाधना और काव्यमाधना में समरसता हैं। “वबिर विचारन की मौन में पुकार है! यही तक उनको वाणों नहीं है, वह स्वय मौन की पुकार! मे' लीत है, 'उर भौन में मौत के घृबद में! श्रपने 'छिपाए हुए है। ठीक इसी प्रकार विरही विषम प्रेम की साधता में विष परिस्थितियों का सामना करता है तो कवि भो विषम प्रेष की श्रभिव्यक्ति विषम शब्दसाधना करता है। घनआानंद की रचना की यह वेषस्थमूलक या विरोध चृत्त केवल शब्दसाधता नहीं है | प्रेम की विषमता और ४ विशेध वृत्ति में साम्य है। हिंदी के अ्रन्य मध्यकालीव स्त्रच्छेद कवियों विरोध बृत्ति सावन्िक न होकर क्त्राचित्क है। घनप्रानं: की रचता यह सावंत्रिक है, यहाँ तक की उनके कीतंन के कोरे भक्तिभावितत पदों भी यह बहुधा मिल जाती है। इस विरोध-ब्ृत्ति के लिये उन्होंने लक्षण, सहारा लिया है श्रौर लक्षण के जेंसे चमत्कार उन्होंने दिखलाए हिंदी साहित्य के प्राचीन काल के किसो कवि में उतने लाक्षुणिक बैलक्ुर तो हैं ही नहीं, आ्राधुनिक काल के जिन छायाव,दी कवियों में इस विलकण के दर्शन प्रभूत परिमाण में होते हैं उनमें भी बह विशेषत्रा नहीं है जो घ श्रानंद के प्रयोगो में मिलती है । पहली ध्यान देने की बात यह है कि घनश्रानंद की कविता भले 'फारसी काव्य और सूफी साधना की प्रेरणा से हिंदी में निर्मित हुई हो, ' ( ११ ) उन्होंने ज्यों की ध्यों श्रनुकृति नहीं की। फारसी के मुहावरे उठाकर उन्होंने हिंदी में नहीं धर दिए। वे फारसी प्रवीण थे, उन्होंने: फारसी में एकः मसनवी भी लिखी है, पर वे ब्रजभाषाप्रवीण भी थे। ब्रजभाषा के प्रयोगों के श्राधार पर नृतन वाग्योग संघटित कर लेने के लिए भाषा प्रवीण भी थे। धनग्नंद के प्रयोग व्रजभाषा के प्रयोग तो हैं ही, नवीन प्रयोग भी एकदम नए नहीं हैं, ब्रज के प्रवाह के अ्रनुकुल गढ़े गए हैं। उनका श्रंत:-- करणा भारतीय था, वेश-भषा भी भ्वरतीय थी । ढंग-ढर्रा कुछ बाहरी रहा हो तो हो, पर वह भी कृष्ण-राधा के प्रेमतत्व में सर्वात्मिना भारतीय बन बैठा । इस भारतीयता के भाषागत सौंदर्य के लिये लाक्षुणिक प्रयोगों का भेद स्पष्ट कर लेता चाहिए। फारसी में और उसडी श्रनुक्ृति पर उद मैं जिस प्रकार की ४: «;» + दिखाई देती है वह भारतीय लाक्षणिकता से भिन्त है । फास्सो उद्ः में ज्स लाछणिकता का विकास हुआ वह मुहावरों को आधार बनाती है। घुह।वरों में प्रयोजनवती और रूढ़ दोनों प्रकार की लक्षणाएं हो सकती हैं, पर अधिकतर लक्षणाएं रुढ़ि के खाते में जाती ज्सि प्रकार का प्रयोग बहुत दिनों से होता चला श्रा रहा हो उसी को श्रनेक प्रकार के मिश्रण द्वार नवीन रूप में लाना फारसी-उर्दा की विद्येषता है मुहावरों के भ्रधिक प्रयोर्गोंसे यह स्पष्ट है कि फारसी उद' में रचना लक्षुणाप्रधान होती है। लक्षुणाप्रधाव होने पर भी परंपरा के आश्रय में रहने के कारण व्यंजना में श्रथांत् उन लाक्षुशिक्र प्रयोगों से निकलनेवाले व्यंग्यार्थ में संलक्ष्यक्रमता रुण्ट्र रहती है और एक साथ श्रनेक व्यंश्यार्थों के उपस्थित होने पर भी संदेह के लिये स्थान नहीं रहता। हिंदी भें आधुनिक युग में अ्रेगरेजी-साहित्य के संपक के कारण जिस प्रकार के लाज्षशिक प्रयाग किए जाने लगे उतमें रूंढ़ि के बदले प्रयोजनव्ती पर अ्रधिक ध्यान हे । प्रत्येक कवि भ्रपने नए नए प्रयोजन के लिए नई नई लक्षणाएँ करता है ।. परंपरा का साथ न होने से ऐसे स्थल प्राय: सामने श्रा जाते हैं कि उनके व्यंग्यार्थों में संदेह बना रहता है। श्रेंगरेजी भाषा लक्षणाप्रवान है, फारसो से श्रधिक। वह परंपरा के निर्गाह का शभाग्रह नहीं करती। फन्न यह है कि किसी आराधुनिक छायावादी कवि के प्रयोगो” के संबंध मेँ ऐसे स्थल प्राय: आरा जाया करते हैं जहाँ व्यंग्यार्थो' में से किसो एक का निश्वय करना ( १२ ) है। इसका श्रर्थ यह है कि उसके लाज्षशिक्त प्रथोगों का ब्यंग्ग बहुत कुछ नियत है | लक्षणा से एक व्यंग्य निकलते पर दूसरा ब्यंग्य, फिए तीसरा व्यंग्य इस प्रकार भ्रनेक व्यंग्य निकलते जाते हैं। एक साथ कई व्यंग्पार्थ सामने श्राकर प्राय: संदेह नही खड़ा करते | घनआनंद ने मुहावरो के प्रयोग की पद्धति निश्चय ही फारसी को प्ररणा से ग्रहण की है। पर फारसी के मुहावरों की योजना नहीं की, जैसा उर्दू वालो ने किया--फारसी के बहुत से मुहावरे चुपचाप देशी भाषा के रूप में उल्था करके रख दिए। उन्हीं की कृतियों"' को छावबीन करके उद्ू का कोश प्रस्तुत करनेवाले 'फरहंगे श्रासफिया' के संपादक इसी से उद्दू के मुहावरों को फारसी के मुहावरों का उल्था कहते हैं, यद्वप्रि उदू में भो सबके 'सब फारसी से उड़ाए हुए मुहावरे नहीं हैं। श्राजमगढ़ मेँ ही यह सब होते देख स्वर्गीय पं० अ्रयोध्यास्तिह उपाध्याय का हिंदो ज्ञान तिलमिला उठा और उन्होंने 'चोखे चौपदे”, 'चुमते चौपदे! से ही संतोष न कर बोलचाल” नाम की पुस्तक हो लिख डाली, जिसमें हिंदी के, मुहावरों का संग्रह ही नहीं उनके प्रयोग द्वारा मासिक रचना भो को गई है। बनश्रानंद ने हिंदी के मुहावरों का प्रयोग करके, उसके चलते मुहावरों का विनियोग करके, जो चमत्कार उत्पन्न किया है श्रौर साथ ही जिस भावना तक सहृक््य को पहुँताया है वह स्थान स्थान पर दर्शनीय है-- रावरे पेट को बूक्ि परे नहीं रीकि पचाय के डोलत भूखे । एक ही उदाहरण से उनके प्रयोग को विशेषता स्पष्ट हो जाएगी । पेट की न बूक पड़ना, पचाना और भूले डढोलना तीनों प्रयोग लाक्षरिक हैं। किसी के पेट की बात सम में नहीं भरा सकती जब उमप्के पेट में भश्रन्य पेटो से विलक्षणता हो । यदि कोई निरंतर खाता हो श्रौर खाए को पचाकर भूखा फिरता हो तो श्रचरज होने की बात ही है। निरंतर खानेवाला यदि भूखा फिरता है तो उसकी पाचनशक्ति या तो बहुत श्रधिक है या उसे कोई रोग है। रोग होने पर उसका प्रभाव बाहरी श्रंगों पर स्पष्ट दिखाई देता है। वे पीले पड़ जाते हैं, रक्त नहीँ बनता, मोटा होने के बदले वह दिन दिन दुबला होता जाता है, उसे भस्मक रोग से ग्रस्त समझता पड़ता है। प्रिय में ये लक्षण व्यक्त नहों' हैँ इपसे स्पष्ट है कि पाचन-शक्ति ही बढ़कर है। प्रिय रोक पचाता चला जा रहा है । एक रोक, वूसती रीफ, तीसरी, चौथी ( १३ ) परीकफों की प्रंपर उसके सामने आ्राती है, वह पचाता जा रहा है । फिर भी उसकी बुधुच्ना शांत नहीं, नए नए प्रेमियों को खोजता फिरता है, एक की रीके पचा गया, दूसरे की पचा गया, तीसरे की पा गया। रीक पचाने की कोई चीज नहीं है। कोई खाद्य नहीं है। प्रभिषेयाथ वठता नहीँ. इसलिये 'पचाने का श्रर्थ (रीक से) प्रभावित न होना” करना पड़ता है। एक प्रेमी के शीभने से प्रभावित नहीं, दूसरे के रीभने से प्रभावित नहीं। रीक उसके मत प्र कोई प्रभाव ही नहीं डालती। इसलिये पेट” का भ्रथ. “मन करना पड़ता है। भूखे डोलने का अर्थ 'नए नए प्रेमयों की रीफक की खोज में अवृत्त रहना” मानता पड़ता है। घतनश्मानंद ने चलते खमुहावरों से नित्य व्यवहार के प्रयोगों से, साधारण वाग्योगो से भ्रसाधारण कार्य साधन किया डै। यहाँ श्र्थपरपरा एक के अनंतर दूसरी आपसे आप निकलती है। आपके पेट श्रर्थात् मन की बात समझ में नहीं श्राती | क्यों नहीं समझ में आती ? इसी से कि इस प्रकार का प्रभावप्रहरापराह मुख कदाचित् ही कोई मिले। इससे झराप सहृदय नहीं हैं; अ्रसहृदय हैं, क्ररस्वभाव हैं, वज्ज- कठोर हैं। ऐसे निर्दय से प्रेम | श्रपता श्रभाग्य ! अपने पास रीक ही संपत्ति थी, उससे कुछ सिद्धि नहीं, श्रत: जीवन भर दुःख भोगना ही हाथ । इसी क्रम से अनेक श्रर्थ--एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा--निकलते रहते हैं। प्रिय की बुभुक्षा का तो यह हाल, प्रेमी की बुभुक्षा का इससे भी विकट हाल । पूरा भस्मक रोग ही हो गया है--'देखिये दसा शअ्रस्नाध श्रेंखियाँ निपेटनि की भसमी विथा पे नित लंबन करति हैं?। भस्प्क रोग वह है जिसमें रोगी सामान्य भोजन का कई गुना करने लगता है। पर उसझी भूख शांत नहीं होती । वह नित्य दुबला होता जाता है। उसके शरीर मेँ रक्त नहीं बनता । ऐसे रोगी से लंबन नहीं कराया जाता। भोजन देते हैं; प्रौषध करते हैं। क्रमशः उसका रोग शांत होता है। लंघम करने से तो रोग असाध्य हो जाता है। यदि ऐसे को यह रोग हो जो बड़ा चढोर हो, पेट हो 'तो रोग दुःसाथ्य रहता है | पेटू भी कई प्रकार के होते हँ--सावारण शौर असाधारण । शभसाधारण पेट के लिये तो भारी कठिनाई होती है। यहाँ आँखें केवल पेटनी, पेट नहीं हैं, निपेटनों हैं, “नितराम पेट हैं। फिर भी कभी कभी नहीं नित्य लंघन और रोग भस्मक | असाध्य स्थिति स्पष्ट हैं। अभसमी? शब्द से ही भस्मक रोग का संकेत कर दिया गया हैं। कई शब्दों के भ्रर्थ वाच्य से लक्ष्य-व्यंग्थ आपसे आप हो जाते हैं। श्र प्रियदर्शनेप्सु हैं, भ्रतिदर्शनेप्सा है उनमें, पर प्रिय के दर्शन कभी नहीं होते । विरह कीए दाहक स्थिति, भीषण जलन श्राँखों में। श्रिय के दर्शन के श्रंजन से कुछ, लाभ हो सकता है, पर वह श्रप्राप्य । इसलिये श्रव प्रांख रहें इसमें संदेह है। प्रियदर्शन ही से संतोष हो सकता है, पर वह भी दुर्लभ | प्रिय के रूप” पर रीका है प्रेमी, प्रेम का कारण रुपलिप्सा है। श्राँखों को हुए श्रधिक कष्ट से यह संकेत मिलता है। यहाँ 'भस्मी” शब्द से सहसा भस्मक रोग पर सबका ध्यान नहीं जा सकता, पर ध्यान न भी जाए तो पेट की भस्मी व्यथा,, बुभुक्षा, भीषण बुभुक्षा भ्र्थ पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं है । जहाँ तीखी बुभुच्चा पर ध्यान गया सारी योजना स्पष्ट है। केशवद'स में कोई शब्द पारि- भाषिक भ्रर्थ से संबद्ध हुआ तो उस शाज्त्र का ज्ञान बिना हुए श्रर्थ ही नहीं खुलेगा । घनप्रानंद में यह बात नहीँ है। घनश्रानंद में जहाँ कोई पारि- भाषिक शब्द भी भ्रा पड़ा है वहाँ भी प्रसंगप्राप्त श्र्थं बलात्कृत नहीं होता । वाणी का प्रयोग जैसा यह कवि कर गया, कोई क्या करेगा | श्रपनी विरहवेदना की शभ्रसीमता को न जाने कितने प्रकार से इन्होंने व्यक्त किया है । कहते है (--- जो दुख देखति हो घनआनंद रोनि-दिना बिन जान सुतंतर । जान वई दिन-राति बखाने ते जाय परे दिन-राति को अंतर ।॥। प्रिय के वियोग में जो कष्ट हो रहा है वद्द कष्ट, वह वेदना, कालावच्छिन्न है। जिस समय वह पीड़ा सही जा रही है उस समय जैंसी व्यथा हो रही है, उसके श्रनंतर फिर किसी दित या किसी रात में जब उसकी श्रनुभूति की जायगी तो वंसी श्रनुभृति नहीं हो सकेगी। थबिस समय श्रनुभृति हुई उसी समय श्रनुभृति का वह प्रकृत रूप अनुभत था। उसके अ्नंतर स्वयम्: अनु भव करनेवाला भी चाहे तो उसका वंसा ही श्रतुमव नहीं कर सकता । स्मृति के समय उस विरहानुभूति का प्रकृत रूप कथमपि श्रनुभृत नहीं हो सकता । जिसका श्रनु भव ही पुनः नहीँ किया जा सकता उसे बचनों* के द्वारा कहना तो श्रीर भी कठिन है। करनेवाले को ही कहना हो तो भी वह कुछ कह सके । भ्रनुभव हृदय में और कहता जीम को। भला जीभ उसे क्या कह सकेगी ? फलत: श्रनुभूत दशा भौर कथित रूप में दिन श्ौर रात का अंतर हो जाता है। जहाँ अनु भूति की यह स्थिति हो रस मनुष्य के संयोग और वियोग को पतंग झोर मीन से मिलाता घनश्रानंद को असहृदयता जान पड़ती है। मनुष्य ( १५ ) चेतन प्राणी ही नहींहै, वह चेतन सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी है। संष्टि के विकास में वह सबसे अंत में अपनी विकसित चेतना लेकर भ्वतीर्णा हुग्रा है। वह अपने लिये सुख के साधन एकत्र करने में ही श्रन्य प्राणियों से विशिष्ट नहीं है। दुःख के सहने भें भी वह श्रत्यों से बहुत बढ़ा चढ़ा है ॥ रोतिकाल के शास्त्रपरंपरानुयायी 'बिछुरति मीन की श्रौमित्ननि पतंग की? को आ्रादर्श मानते थे । घनप्रानंद ने इसो से इसका खंडन किया है-- मरिबो बिस॒राम गने वह तौ यह बापुरों मीत-तज्यौ तरसे | वह रूप-छुटा न सम्हारि सके यह तेज तवे चितवे बरसे । घनब्रानंद कौन अ्रनोखों दसा मति आवरी बावरी हे थरसे । बिछर-मिले मीन-पतंग-दसा कहा मो जिय की गति को परसे ॥ कहाँ तो “बिछुर मिले मीन पतंग-दसा' को कोई श्रादर्श दशा, सबसे ऊंची दशा, मान रहा है। शआ॥रादर्श वही होता है जहाँ तक सामान्यतया पहुँचा त जा सके । मीन और पतंग की साधना दूसरो को हृष्टे में चाहे जितनी ऊँची हो, पर घनश्नानंद की दृष्टि में वह इतनी नीची है कि मनुष्य की संधोग-वियोग-साधना का स्पर्श भी नहीं कर सकती, बराबर होना तो दूर, ऊंची होना अ्संभव। उसके लिये तर्क देते है कि मीन तो प्रिय से वियुक्त होते ही मरण में विश्वांति लेता है, पर मनुष्य प्रिय से वियुक्त होने पर उसके लिये बराबर तरसता रहता है। श्रन्यों ने अंतर यह समझ रखा है कि मीन प्रिय के वियोग में मर जाता है और मनुष्य मरता नहीं इसलिये उसका विरह घटकर है। स्थिति यह है कि विरही मरण से बढ़कर पीड़ा सहता रहता है श्रौर इस श्राशा में जीता है कि प्रिय से मेट होगी। पर मीन तो मरा झ्रौर सारे कष्टो से उसे छुट्टी मिली । उसमें पीड़ा के सहने की शक्ति नहीं, बह ग्रशक्त विरही है। उसकी एवम् मनुष्य की क्या बराबरी। रहा पतंग। वह प्रिय के रूप को देखकर उप्तकी छूटा से आक्षष्ट होकर अपने को सँमाल नहीं पता । इसलिये उसमें, दीपशिखा में, जाकर वह गिर पड़ता है। भीद विरह नहीं सेमाल पाता, पतंग रूपछटा नहीं सँभाल पाता। ऐसा उतावला मनुष्य नहीं होता । वह प्रिय के रूपतेज से तपता रहता है। फिर भी उम्रकी रूपछठा देखता रहता है श्रौर साथ ही श्राँसु बरसाता रहता है। उसके तेज से तपने और भांसू बरसाने से यह स्पष्ट है कि वह पीड़ा पा रहा है उसकी' बेदना पतंग की वेदना से, जो उप्ते दीपशिखा में जलने से होती है, कहीं बढ़कर है। फिर भी वह झूपज्वाला में भस्म होकर शरीर का परित्याग नहीं: हर ( १६ ) करता | मीन-जल की साधना भारतीय परंपरा का उदाहरणा है और पतंग- दीप का प्रणाय फारसी परंपरा का हृष्टांत है, शमा परवाना वहाँ प्रतीक है। दोनो को सामने रखकर घनग्रानंद ने मनुष्य की साथवा का महत्य दिखाया है। परंपरा न भारतीय स्वीकृत की न अभारतीय, श्रपती स्वच्छंदता के कारण । पर भारतीय आशावाद का परित्याग नहीं किया । मीन और पतंग 'की साथता में नराश्य की ऋलक है। पर घनश्रानंद ने इस नेराश्य का ग्रहण नहीँ किया । वे भ्रन्यत्न कहते है-- हीन भए जल मीन अधीन कहा कछ मो अकुलानि समान । नीर-पतनही को लाय कलंक निरास हछ्व कायर त्यागत प्रान । प्रीति की रीति स क्यों समझे जड मीत के पानि परे को प्रमान । या मन की जु दसा घनआानंद जीव की ज॑वनि जान ही जाने ॥ जल के श्रपर्याप्त होने पर मीन विवश हो जाता है। उसकी वह विवशता मनुष्य की श्राकुलता का क्या किविन्मात्र साम्प कर सक्रती है ? कभी नहीं | प्रेम की साधना में प्राण का परित्याग करना कायरता का चिह्न है। इससे जल (प्रिय ) को कलंक लगता है, मीन (प्रेम ) को कलंक लगता है आर उसके प्रेम को कलंक लगता है। मनुष्य विरहुसाधना में इस प्रकार का कलंक किसी को नहीं लगने देता चाहता। मीन का प्रिय सच पूछिए तो जड़ है। न प्रिय प्रीति की रीति समझता है ओर न प्रेमी । जड़ को उपासना करने से मीन भी जड़ हो जाता है। परिणाम यह है कि प्रिय के हाथ में ही वह अपने को समर्पित किए रहता हैं, उसकी चेतनता प्रिय के जड़त्व में ही विलीन हो जाती है। इसी से वह केवल प्रिय को पाने में छठपठाता हुआ मर जाता है। उसके छंटपटाने में क्या कष्ट है इसे जन न पहले समभाता था और न उसके छटपटाकर मर जाने पर ही समझता है। पर मनुष्य के विरहजन्य कष्ट का अनुभव उसका प्रिय करता है। प्रत्युत यह कहना चाहिए कि जंसी वेदना प्रेमी को हो रही है ठीक ठीक उसका अनुभव आर कोई नहीँ कर सकता, यदि उसकी ठीक श्रनुभृति किसी श्रौर को हो सकती है तो प्रिय को ही। प्रेम की अ्नुभुति करनेवाला, समान श्रनुभूति करनेवाला प्रिय यदि श्रा$ृष्ट न हो तो विरही के कष्ट का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। मीन-जल और पतंग-दीप में एक पक्कु जड़, दूसरा पक्ष चेतन होने पर भी चेतन पक्ष बसी चेतना का धारणुकर्ता नही है जंसी मनुष्य की होती है। इसलिये मनुष्य को प्रेमस।घत्रा को इनको प्रेमसाधता से मिलाना मनुष्य का अपमान करना है। घतआनंद को प्रेमताधता इपी लिये चरम साधना के झूय में प्रतिष्ठित है । उपको चरम साधना सामान्य प्रेम्प्रवाह से बहुत श्रागे है। विरह में मंजिल राग हो जाता है, प्रेम का पूरा परिपाक हो जाता है, या प्रेम का 'भोग न होने से वह राशीभूत हो जाता है--यह साहिस्य परंपरा कहती चली आ रही है, पर वहाँ प्रेम कीं यह चरम साथना नहीँ दिखाई देती जहाँ वियोग में ही नहीँ संयोग मेँ भी वियोग का अनुभव होता रहता है। यह कसो सेजोग न बुक्कि परे कि ब्ियोग त क्यौ हूँ जिछोहत है ।” प्रिय के वियोग में ही नहीं संयोग में भो भ्रशांति साथ नहीं छोड़तो। ब्रिय के वियोग की आशंका संयोग में भो बनी रहती है। संयोग में भी वियोग का अनुभव ! भक्ति संप्रदायों में प्रिय के क्षणभर के लिये कुंज में छिप जाने पर गोपिकाएँ जो श्रत्यंत व्याकुल दिखाई गई हैं वह इसी प्रेवप्नाधना या विरहसाधना के कारण । लौकिक दृष्टि से वह अनिवार्य है। घनप्रावंद इसी विरहसाधता की गाथा अपनी रचना में गाते रहे हैं। छायावादी रचता में जो पीड़ा का स'म्राज्य दिखता है वह क्रिवर का साम्राज्य है यह थोड़ा ध्यान देते ही स्पष्ट हो जाएगा । पर उस साम्राज्य को जैस। स्वकीय रूप घतग्रानंद ने दिया वसा उसे छायावादी रचना में नहीँ मिलसका। इसका कारण स्पष्ट हैं। 'भक्तिकाल के श्रनंतर रीतिकाल में सुफियो' की निगुंण मक्ति भारतीय समुण- भक्ति में सवा गई । जागतिक प्रेत को चरम सोम पर पहुँवकर साधक निर्गुण 'को और न जाकर सगुण को ओर लौट पड़ा। पर छायावाद फिर से निर्गुण श्रोर भ्रज्ञात के चक्कर में पड़ा। श्रपने लौकिक्न प्रेम के चरमोत्कर्ष को वह निगुश के प्रेम में वंसे ही छिपाने का प्रयास करते लगा जैसा सूफियों या 'फारसी उद् के शायरों में था। इसी से श्रालोचक विवश होकर कहते हैं कि “इनकी रहस्पवादी रचनाग्रों को देख चाहे तो यह कहें कि इनफी मधथु- चर्या के मानस प्रसार के लिये रहस्पवाद का परद| मिल गया अ्रथवा यो कहे कि इतकी सारी प्रशयार॒ट्त सत्तीम पर से कुदकर अ्रततीम पर जा रही ।? घनभ्ानंद की रचना में दुराव छिपाव का प्रश्न ही नहीं है। बेतो जगत के प्रम के संबंध में राधा-कृष्ण के प्रेम की, प्रेम के महोदि की चर्चा यो करते हे. प्रेम को महोदधि अ्रपार हेरिके बिचार बापुरो हहरि वार ही ते' फिरि आयो है। ताही एकरस छ्वूबिबस श्रवगाहँ दोऊ नेही हरि-राधा जिन्हें देखे सरसायौ है। ताकी कोऊ तरल तरंग संग छुट्यौ कन पूरि लोकलोकनि उम्रगि उफनायौ है। सोई घनआन द सुजान लागि हेत होत ऐसे मथि मन पे स्वरूप ठहरायौ है।। प्रेम का महोदथि ऐमा अपार है कि उसका पार पाना तौ दर विच ( ज्ञान ) इसी तट से, वारसे ही, लौट श्राता है। ज्ञान या बुद्धि द्वा प्रम के महासागर का पार पाना कठिन है। उस प्रेमसागर भें प्रेम विवश होकर एकरस राधा और कृष्ण श्रवगाहुन करते हैं। प्रेम का २ समुद्र उन्हे देखकर उसी प्रकार सरसाता है. बढ़ाता है, जिस प्रकार चंद्र देखकर सागर में तरंगे' ज्ठतो हैं, ज्वार श्राता है। उस प्रेमसागर की तर का एक एक बणा इतना विशाल है कि श्रमेक लौको में जो प्रम छा हुआ है वह भी उसके क्ण॒ मात्र से कम है। वह करा स्वय्म् ऐसा विश समुद्र है कि सारे लोकों | अम को परित करने पर भी वह उफनाता रह है। उन लोको की सीमा भेंन समा सकने के कारण वह उबरता है भूलोक में उसी करा का एक श्रृंश है। जगत् के जितने प्रोम है उसी अ्रंग है। घनपानंद ओर सुजान का प्रेम भी उसी कण के स्पर्श से हुआ है प्र मं के इस स्वरूप की कल्पना मन को मथकर की गई है। यहाँ जिस पर भाव या महाभाव के रूप में प्रेम की चर्चा की गई है वह भक्ति संप्रदार की प्रमसाधना का स्वरूप है। उस परम भाव के अंतर्गत सब प्रकार : सत्ताए भरा जाती हैं। भक्त भावात्मक या प्रेमात्मक सत्ता को ही परम भ नते हैं । इसी से ज्ञान उसकी सीमा मेँ प्रवेश नहीं कर पाता | यह् प्रेम इस प्रेम की साधना साधारण नही --. चंदह चकोर करे सोऊ ससि-देह घरे मनसाहू रर एक देखिबे को" रहै हे । ज्ञानहूं ते आाठो जाकी पदवी परम ऊँची रस उपजाबव तामेँ भोगी भोग जात रवे। ६ 2३.0) जान धनआनंद अनोखो यह प्र मपंथ भूले ते चलत, रहें सुधि के थकित हू । बुरो जिन मानो जौ न जानो कहूँ सीखि लेहु, रसना के छाले परे प्यारे नेह-ताव छवे ॥ ब्रह्म स्त्रयम् द्विवा होकर इस प्रोमसाधना में प्रवतीर्ण होता है। वह रुवयम् साधक बन जाता है, प्रेमी बन जाता है और प्रिय की ओर वेसे ही आइष्ट होता है जैसे चंद्र को ओर चक्तोर। प्रेममाथता इतनी ऊँची साधना है कि इसके लिये स्वयम् ब्रह्म को जीव का रूपए घरकर उतमे लगता पड़ता है, लीला करनी पड़ती है। साध्य रहने में वह छुख या आनंद नहीं जो साधक बतते में है। यह परम भाव ज्ञान से श्रागे है, उत्की सीमा समाप्त हो जाने पर इसका श्रारंभ होता है। यह रसात्मकू साथता है। इस साधता की विशेषता है कि जो सांवारिक विषय भोग मेँ पड़े हुए हैं यदि कहाँ इसकी ओर श्राकृष्ट हुए तो उत भोगियोँ का भोग इस महासागर सें इब् जाता है। विषयी अपने विषयभोंग का परित्याग इस में सहज ही कर देते है । यह राग की वह दिव्य भूमि है जहाँ पहुँच कर परम राग को उदय होता है और जगत् के साधारण राग उसके सामते तगणय श्र तुच्छ दिखाई देते हैं। इसी से इस प्रेमभार्ग की साधता विज्द्धश बताई जाती हैँ । जो इसमें अपने को सर्वात्मता लोन कर देते हैं वे ही इस मार्ग में चतते हैं। जिन्हें अयतों सुवनबुध बतो हो वे इतमें नहीं चल सकते। सुब-बुध ज्ञान से संबद्ध है । इस मार्ग पर ज्ञान का दखत है हों नहीं। इम् प्रंमपार्ग का नित्य लक्षण है परम संताप की साधता । इस प्रेम का नाम लेने पर ही जीभ में छाले पड़ जाते है। इमलिये कि विरह को वंदना का। परम ज्वाला- मयी बेदना का जीभ ने श्रतुभव किया कि वह संतत्त हुईं। जहाँ प्रम की चर्चा में ही यह स्थिति है वहाँ उत्तो साथता करना, उप्तके मार्ग पर चलता क्रितना कठित है केवन कलयना से हो जाना जा सकता है। इसी से इस श्रेमसाधना का तित्य लक्ष प़ है विशह। कुज में जो गोपियां श्र कण के छितते पर व्याकुल होती हैं उपमें छिने में कासे कम प्रांख से श्रोकत हो जाना तो स्पष्ट है । यदि यह बताया जाय कि राधा श्रौर कृशा के प्रेम को चरम सीमा भक्ति संप्रदाय को साववा इप रूप में! मानतों है कि अ्ियाजु के निकट रहते हुए भो संध्रांग में वे यह अनुभव करते लगते हैं हि ब्रिप्रा ३० वहाँ नहीँ हैं भ्रौर व्याकुज हो जाते हैं। स्व्रयप् प्रियाजु उन है बारंबार समा: ६.) चलेगा। किसी ने जान लिथा कि श्रधुक विरही है इतने से हो तो विर्ही का कष्ट दूर नहीं हो सकता । जब जानकार में समानुभूति हो तो कदाचित ऐसा कुछ हो सके | पर विरही की सी वेदता का श्रनुभव कनेवराला शीध्र जगत् में मिलता नहीं । यदि ऐसा भी मिल जाए तो भो कठिनाई है। इसलिये कि यदि कोई सहस्तुभूति करनेवाला मिला तो वह समानुभूति करके रह जाएगा । पहले तो बिरही कुछ कहता नहीं। “इस वेदना में पड़े हम कष्ट भेल रहे है इससे हमे' उबारों' यह भला कोई विरही क्यों कहने लगा, जब कि उसकी साधना सौन साधना है। अपनी श्रोर से उसके कष्टनिवारण का कोई प्रयास करे तो भी क्या ? उस कष्ट के निवारणा का सामसर्थ्य उसमें कहाँ से श्ाएगा। पर हरि के नेत्नो में” 'क्रपा' के कान लगे होते हैँ। वे पुकार मुनते ही नहीं, कष्ट दूर करने के लिए कृपा भी करते हैं । कृपा किसी आ्रापन्न के प्रति की जानेवाली वह श्रनुकुलता है जो भ्रयाचित हो । याचित अनु- कुलता का नाम '“अनुग्रह” है। भरत राम से दोनो प्रकार की अनुकृतता पाने का उद्घोष तुनसीदास के मानस में यो” करते हैं-- कृपा अनुग्रह अंबु अधाई । राम ने याचित भ्रनुकूलता ही नहीं दिखाई, जिसकी अश्रपेक्षा थी उमे स्वयम् अयाचित भी कर दिया। कृपा की वारिधारा और श्रनग्रह के वारिप्रवाह दोनो से भरत तृप्त हो गए। परिपूर्ण अनग्रह भशौर कृपा दोनो की प्राप्ति उन्हें हुई । 'ग्रह-ग्रहणा- याचना! तब अनग्रहण-प्रनकूलता -प्रदर्शन! । बनआानंद की कृति में” रहस्थात्मक प्रवुत्ति की कन्क सूफी-भावना और फारफ-एाहिन्य की प्रेरण से प्रस्तुत होने का प्रमाण उपस्ियत करती है। पर रहस्य किस प्रकार समुण-पाधना में विलीन हे' गया है इसका पता भी उनकी रचना स्थान स्थान पर देतो है--- अंतर हो किधौ अंत रहौ हग फारि फ़िसें कि अभागनि भीरौ । आगि जरौं भ्रकि पानि परौ अरब कैंसो करों हिय का विधि धंरौ' । जो घनश्रानद ऐसी रुचो तौ कहा बप है अहो प्राननि पोरौ । पाऊं कहाँ हरि हाय तुम्हें घरनी मेँ घौौ कि अका पहि चं।रो'॥ पनश्रानंद की रचना की सारी विज्लेषताएँ भूमिका के छोटे श्राकार में नही बताई जा सकती", उनके लिये ग्रथ की ही प्रावश्यकता है । प्रस्तुत ग्रंथ में ( रह ) उनकी सारी विशेषतराप्नों का सुक्ष और श्रनुसंचानवरिष्ठ उद्घाटन किया वाण्ग है | घनभ्रानंद की विशेषताश्रों के उदघाटन के कुछ लघृप्रयास इसके पहले भी हो चुक्रे हैं। पर वे लघुप्रयास मात्र हैं। जितने ललितविस्तर से ओर जितती श्रधिक विशेषताझ्ों' का उद्घाटन गौड़जी ने फ्िया है वह हिंदी में घनप्रानंद की श्रालोचना का सर्वप्रथम महाप्रयास है। इस ग्रथ श्रौर इस अनुसंधान के संबंध में भी कुछ (वार्ता! है। मैं स्वयम् काशी विश्वविद्यालय में! कभी अनुसंधाता था और मेरे निरीक्षक थे स्वर्गोष श्राचार्य रामचंद्र शुक्ल मेरे अनुसंधान का विषय था--थ्रलंकारशानल्न के परिवेश में! भावों का मनोवेज्ञानिक अ्रध्ययत (साइकोलाजिकल स्टडी शआव इमोशंस इन दि ज्लाइट आव श्रलंकारशातछ) | श्रभी प्रतुसंघत की श्रवधि सप्राप्त भी नहीं हो पाई थो कि मुझे वही प्राध्यापक पद पर काय करते का अवसर मिल गया। जब तक में श्रपने श्रनुसंधान की परिसमाप्ति करूँ तब तक गुरुदेव दिवंगत हो गए । किसी कोने से टीका-टिप्पनी हुई कि यह विषय हिंदी साहित्य से कम, संस्क्ृत साहित्य से अधिक और मनोविज्ञान से विशेष सबद्ध है । इससे समीक्षा के परितोषार्थ मैं ने विषय का परिवर्तत कर दिया । इस बार मेरे अनुसंधान का विषय हुम्ना ध्मध्यकालीन स्वच्छंद काव्यधारा? (रोमांटिक स्कूल झाव् मिडोवल एज) । यह विषय और इसकी संक्षित विषयसूची भी विश्वविद्य।लय की भ्रनुसंधान समिति से स्त्रीकृत हो गईं। इस सिलसिले में सस््वच्छद काव्यधारा' के कवियों के ग्र'थो का आलोड़व करते करते उनके संपादन की श्रावश्यकता का श्रनुभव हुआ । उसमे लग जाने से श्रतिकाल हो गया श्रौर गुरुकल्प सभी मतीषी दिवंगत हो गए । गौड़त्ी जब श्रनु- संघान में प्रवृत्त हुए तो मैंने 'घनआनंद! पर प्रस्वेषण करने का सुमृप्व दिया | जब उनके परामश्शदाताग्रों की मुखपुद्रा इतते मात्र से सुधुखता को नही हुई तो उसके साथ 'प्रध्यफ्ालीन स्वच्छंद काव्यधारा! श्रौर जोड़ लेते का प्रस्ताव किया गया । मेरा विपय डी० लिट॒० के लिये स्वीकृत था। पर गौडजी को नियम के परिपालन से प्रस्तुत प्रबव के महाप्रयास पर भो पी- एच्० डी० की ही उपाधि मिली | 'उपाधि! की अधिक चर्चा बेकार है । में घनआ्मानंद पर अलोचना लिखने के लिये प्रतिश्रृत था, 'धतआ्नानंद-- ग्रथावली' को भूमिका में स्पष्ट लिख चुहा हूँ। गौड़जो ने यह भी कर दिया--मनोहर, गवेषणा की गरिमा से गुह। यही यह बतला देता भो आवश्पक है कि यह ग्रथ मुद्रित होकर भी मेरे आमरे समयातिक्रांति करता (५ २४ ) बा रहा | एतदर्थ क्षमार्थी हूँ । श्रंत में इतना ही कहना है कि यदि श्रब में घनआतंद की पृथक समीक्षा न भी प्रस्तुत करूँ तो भी दोष का भागी न रहूँगा । गौड़जी को धन्यव।[द श्रौर बधाई । वाणीवितान, भवन, ब्रह्मनाल, वाराणसी । विश्वनाथप्रसाद मिश्र स्वच्छंदता दिवस,१६ ५५ विषयानुक्रमणी पृष्ठ हला परेच्छेर : जीवनवृत्त, समय और सुजात १-५० जीवनवृत्त १ स्थान ब्र् स्वभाव १७ चित्रपरीक्षा श्द समय १६९ नाम २६ घतभानंद या झ्रानंदधन २६ आनंद और आनंदघ त ३२ जैन धर्मी आनंदधन ३३ नंद गाँव के आनंदघन ३६ तानक के टीकाक(र आनंदघन शे६ आनंदवन और ब्रजनाथ ३े७ सुजान श्८ दूसरा परिच्छेर : रचनाओं का विवरण २१-६५ इतिहास तथा रचनाओं का विवरण ५१ घतअआानंद और झानंदघन' श्प् घनआनंद ग्रंथावली ६१ कवित्त स्वंयों का संख्यानुसारी विषय विभाजन द्रे पदों का संख्यानुसारी विषय विभाजन द््ड निबंध रचनाओं का विवरण ६४ कत् त्व तथा शीर्षक परीक्षा ७६ रचनाओं के परस्पर साम्य छ्डे परिच्छेर : भाषा, लक्षया, मुहावरे तया व्याकरण ६६-१४३ भाषा ९६ लक्षणा १०७ मुहावरे १३७ (२) व्याकरण चौथा परिच्छेद : शेली, छंद, अलंकार और दोष भाषाशली भावप्रधानता भावों की अतिरंजना रहस्यवाद उक्ति की वक्रता ग्रचेतन में चेल्नत्वारोप नाम का प्रयोग ग्रात्मनिवेदन छंदों का विधान--छंद और कविता छंद और रस उत्पत्ति सर्वेयों का स्वरूप चनाक्षरी सुमेरु ग्ररल्ल ताटंक निसानी शोभन तिभंगी अलंकार योजना दोष चर्वाँ परिच्छेद 4 स्वच्छुद काव्यधारा काव्यप्रवृत्ति अगरेजी साहित्य में शास्त्रीय एवं स्वच्छंद वृव्यधाराएँ-- निरकति और लक्षण परिस्थितियाँ क्लासिकल' श्रथवा शास्त्रीय मार्ग दृष्टिकोण (के) हक स्वच्छंद काव्यधारा--लक्षण २०६ भारतीय साहित्य में स्वच्छंद धारा---व दिक साहित्य २१० संस्कृत साहित्य २११ जनपद भाषाओ्रों का साहित्य २१३ हिन्दी साहित्य--बीरगाथाकाल २१५ भक्तिकाल २१५ ६.रॉतिकाल--कवियों का श्रेणीभेद २१७ भावधाराएँ २१८ रीतिकाल में शूंगार के विविध प्रयोग श्र वख्शी हंसराज और स्वच्छंद धारा २२६ द्विजदेव और स्वच्छंद धारा २२७ आ्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और स्वच्छंद धारा' श्र्८ समाहार | २३० स्वच्छंदधारा की विशेषताएँ २३१ घनग्रानंद की काव्य प्रवृत्ति--काव्यादर्श २३६ ब्रजनाथ के काव्यादर्श शेर विदेशी स्वच्छंदधारा तथा आानंदघन २४४ अआनंदधन को स्वच्छंद प्रवृत्ति के अन्य गुण २४६ स्वच्छंद मार्ग का प्रेरकहेतु २५१ रसखान के काव्य में स्वच्छंद मार्ग २५४ आलम के प्रेम का स्वरूप तथा स्वच्छंद काव्यधारा २५६ बोधा कवि की स्वच्छद काव्य प्रवृत्ति २६४ कवि ठाक्र की काव्य शली और मार्ग २६७ छुठा परिच्छेद ; रस, भाव तथा अंतर्देशाए' २७८-३१७ आगार रस की परंपरा श्छ्८ शंगार और भक्ति २८७ घतानंद के काव्य में संयोग का स्वरूप श्ष्ष वियोग का स्वरूप ३०१ परंपरा ३०३ मवोव॑ज्ञानिक हेतु ०४ भेद ०६ ग्रंतदंशाएँ १० पृष्ठ सातवाँ परिच्छेद ; प्रेमतत्त्व ३१८-३५४ प्रेम शब्द की निरुक्ति ३१८ लक्षण ३१८ प्रेम के आठ गण ३२३ प्रेम और भक्ति २३२७ साधना ३२६ प्रेम की विषमता ३३१ घनानंद के प्रेम का स्वरूप ३३४ रीतिकालीन प्रेम पश्रौर आनंदधन का प्रेम ३४५ भौतिक प्रेम का आध्यात्मिक प्रेम में विकास ३४६ भोतिक प्रेम के आध्यात्मिक रूप में विकसित होने की प्रेरणा ३५१ आउवाँ परिच्छेद : भक्तिरस ३५६-४१७ ग्रावश्यकृता २५५६ स्वरूप ३५७ लक्षण ३५७ भक्ति की प्रेरक भावनाएँ ३६० भक्ति के भेद ३६३ मधुर रस का वर्णन ३८० भगवत्कपा ४८ जीवन्मुक्त भक्त की अनुभूतियाँ ४११ घतानंद का भक्ति दर्शन ४१४ नवाँ परिच्छेर : दर्शन और संप्रदाय ४१८-४४४ पृष्ठभूमि ४१८ ग्रानंदधन का संप्रदाय ४२६ आनंदघन के दा्शनिक विचार ४३५ दसवाँ परिच्छे दर : ४४५-४५५४५ क्रान-प्रसुन ४४ प् तानंद का हिंदी साहित्य में स्थान ४५३ घनानंद और रोति-काव्य को स्वच्छंद काव्य-धारा' पहला परिच्छेद ( जीवनबृत्त, समय ओर सुजान ) १-जीवनवृत्त कविवर झानंदवन जी का जीवनवृत्त उनकी कविता की भाँति गुूढ़ एवं रहस्पमय सा है। निश्चित और श्यृंखलाबद्ध जीवनी कहीं भी प्राप्त नहीं होती है। इधर उधर बिखरी किवदंतियों तथा प्रमाणों को संकलित कर कवि के जीवनवृत्त का निर्णय करना पड़ता है । सब से पहले गदादंतासी के “इस्ट्वार दल लितरेत्यूर एँ एदुस्तानी' में जिसका हिंदी-साहित्य-संबंबित श्रंश डा० लक्ष्पीसागर वाष्णोय द्वारा 'हिंदुई साहित्य का इतिहास” नाम से श्रनुदित हुआ है, आनंद! नाम के एक कवि का उल्लेख मिलता है। इसके विषय में इतिहासकार का कथन है कि यह लोकप्रिय गीतों का रचयिता था और उसके कुछ पद्म डब॒ल्यू० प्राइस द्वारा (हिंदी ऐंड हिंदुस्तानी सेलेक्शंस” नामक पुस्तक में संगुहीत हुए थे। इस उल्लेख से निश्चयपुरवंक नहीं कहा जा सकता कि प्रानंद नाम का व्यक्ति झ्रानदघन ही है या अन्य कोई। लोकप्रिय गोतों की रचना आझानंदधन की पदावली हो सकती है । पर यह सब अनुमान मात्र है। इसके अनंतर महादेवप्रमाद ने अपने साहित्यभषण में झ्रानंदधन का संतोषजनक मात्र! में विवरण दिया था। पर वह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है ॥ उसको आधार मात कर सर जार्ज ग्रियर्सन ते अपने “मार्डन वर्नाक्यूलर लिस्रेचर श्राफ हिंदुस्ताव” में इनका विवरण दिया है। उन्होंने भपने पूर्ववर्ती ठा० शिवसिह सेंगर कृत 'शिवर्सिह सरोज” का भी उपयोग किया था। दोनों के प्रमाण पर आनंदघत का विवरण देते हुए ग्रियर्सन ने इन्हें जाति का कायस्थ तथा बादशाह बहादुरशाह का झुंशी बताया है। मृत्यु से पूर्व ये कार्यमुक्त होकर वृदावन चले गए थे श्नौर वहीं वादिरशाह के मथरा आक्रमण में मारे गए। ग्रियर्सत ने कोकसार के लेखक झानंदधन को, जिसका समय सरोज के भनुसार सत् १६५७ है, इनसे प्रभिन्न माना है | साथ ही यह भी लिखा है कि ये ही कभी कभी अपना नाम धनश्नानंद लिखते थे ।* १---हिंदुई साहित्य का इतिहास) पृ० ६ २--ए मार्डर्त वर्नाक्यूलर लिटरेचर आफ हिंदस्तात, पृ० ५०६ रे ( २ ) शिवतिह सरोज ने घनानंद और श्रानंदबत दो कवि दिए हैं। श्रानंदधन के ताम से दो स्वये उद्धत किए हैं। एक तो “आपुहि ते तव हेरि हँसे तिरछे करि नैनन नेह के चाउ में,” से झारंभ होता है। यह सबंधा 'घन- श्रानंद ग्रथावली, के प्रकीर्णक भाग में २६ वां पद्म है । दूसरा सवेया यह है--- जैहे सबे सृधि भूलि तुम्हें फिरि भूलनि मो तन भूलि चिते है । एक को आँक बनावत मेटतः पोधिय काँख लिए दिन जे है। साँची हौ भाषति मोहि कका की सो प्रीतम की गति तेरी ह ह्वै है। मोतो' कहा इठलात अजासुत केहौँ ककाजी सो तोहं सिखेंहै ॥ २५ ५ ५ है यह पद्म श्रानंदघबन की श्रब तक की प्राप्त रचताश्रों में नहीं मिला, और नाहीं इसमें कवि का कहीं ताम है। साथ ही आानदघन की सी भाषाशली या भावशलो भी इसमें नहीं है। झ्राचार्य विश्वनाथप्रसाद मित्र का इस विषय में विश्वास है कि यह प्रसिद्ध कवि केशत्र की पुत्र-वधू की रचना है। उन्होंने जब विज्ञानगीता श्रौर प्रबोधचंद्रोदय का भाषानुवाद किया तो उनके सुपुत्र यौरनावस्था में ही वेदांत-विरक्त हो गए। इसपर उनकी युत्रतोीं भार्या ने बकरे को संबोधित कर श्पने पति की विरक्त'बस्था का परिचय श्वसुर महोदय को कराया था । सरोज ने श्ानंदवव को दिल्लीवाले लिखा है । घनआनंद को पृथक कवि मानते हुए उन्तके नाम से यह सवेया उद्धृत किया है-- गाइहों देवी गनेस महेस दिनेसहि पूजत ही फल पाइहौ । पाइहों पावन तीरथ नीर सु नेकु जहीं हरि कों चित लाइहो। लाइहों आछे द्विजातिन को अरु गोधन दान करों चरचाइटहों । चाइ अनेकत सों सजनी घनआानंद मीतहि कठ लगाइहों ॥ »< >< >< इसमें घतआनंद का नाम है पर स्वेया की शैत्री श्रानंदघत कवि की शैली से नहीं मिलती । भ्तः श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र का तो यही विश्वास है कि यह पद्म भी किसी रीति कवि का है, जो क्रिपाविदःधा नायिका की उक्ति में लिखा गया है। पर ऐसी कोई विशेष बात भी इस पद्च में नहीं दीखती जिसके कारण यह घनश्रानंद का न हो सके । सवैया प्लंकार शैली से लिखा गया है। घनभानंद भी भ्रपनी प्रारंभिक श्रवस्था में रीतिपरंपरा ( है ) के अनुयायी थे। उनके इस शली के अनेकों पद्च संग्रह में विद्यमान हैं! अस्तु इस पद्य के उनके होने यान होने से विशेष गअ्रंतर नहीं पड़ता । सरोजकार ले इनका समय संवत् ११७१५ माना है। साथ हो लिखा है कि कालिशास- हुजारा में इनके पद्म देखने को नहीं मिलते । कालिदासहजारा संवत् १७४६ में पुर्णा हो गया था। ह महाराजा श्री रघुराजसतिह जू् देव ने अपने भक्तपाल' में (संवत् १६००० १६३६) घनमभ्रानंद के जीवन वृत्त का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण दिया है और अपने कथन का श्राधार मथुरा को जनश्रुति बताई है । घनानंद की कथा भनेका + ब्रज में विदित अहै सविवेका || घनआानंद के विपुल कवित्ता | भ्रबनों हरत कवित के चित्ता || विवरण इस प्रकार है। दिल्डी का कोई शाहजादा मथुरा में श्राया था | पर मथरियों ने जुतों की माला पहना कर उसका सत्कार किया। इस पर वह अत्यधिक कुृपित हुआ और दिहली से उससे श्रपत्री सेना बुना ली। सेना ने मथुरावासियों को मारा काटा । जब यह मार काट हो रहो थी तो घनानंद वशीवट में बेंठे भगवान की भावना सखों भात्र से कर रहे थे। उनके हाथ में पान का बीड़' था। खाने हो वाले थे कि भगवातव के राप़- विलास का ध्यान श्रा गया शौर उसी में लीन हो गए। बीड़ा हाथ में ही लगा रहा। भावना में ही लीन रहते उन्हें दिव श्ौर रात बीत गए। गिरधारी श्रीकृष्ण ने भावता के बीच में हो स्वयं श्राकर अपना हाथ फेला कर वह बीड़ा घनानंद के सुख में लगा दिया। इस बीड़ा से जो मुख राग हुआ था वह सब ने देखा था । सोइ बीरी मुख मेलिगों लगे मुराबत सोइ । सोइ बीरी की रागमुख प्रगट लख्यों सब कोइ ॥* ऐसे साक्षाद्धर्मा महात्मा को भी यवनों ने तलवार से काठ डाला पर बनानेद जी के प्राण नहीं निकले | इस सम्रय उन्होंने स्वयं भगवान से प्रार्थता की कि हें तंदकुमार और किस लिये मुझे संसार में जीवित रखते हो , क्यों नद्ीं बुलाते हो । 'कौन हेतु राखे संसारा | क्यों न बुलाव नंदकुमारा ॥।' प्रार्थता के बाद यवनों से कहा कि इस वार फिर तलवार मारो । अब की बार मेरा सिर भ्रवश्य कट जावेगा। यवनों ने ऐसा ही किया । घनानंद १. सिर्वासह सरोज, सप्तम संस्करण, पृ० ३े८० ( २ ) शिवतिह सरोज ने घनानंद और श्रानंदघत दो कवि दिए हैं। प्रानंदबन के नाम से दो स्वेये उद्धत किए हैं। एक तो “आ्रापुष्ि ते तन हेरि हँसे तिरछे करि नैतन नेह के चाउ में,/ से आरंभ होता है। यह स्वधा “घन- आनंद प्र थावलो, के प्रकीणंक भाग में २६ वां पद्म है । दूसरा सबेया यह है--- जेहे सबे सुधि भूलि तुम्हें फिरि भूलनि मो तन भूलि चिते हे । एक को आँक बनावत मेठत पोथिय काँख लिए दिन जै है। साँची हौ भाषति मोहि कका की सो प्रीतम की गति तेरी ह ह्वे है। मोतो कहा इठलात अ्रजासुत कहो ककाजी सो तोह सिखेंहै ॥ 2५ >> ५ ५ यह पद्म श्रानंदघन की अब तक की प्राप्त रचताश्रों में नहीं पिला, और नाहीं इसमें कवि का कहीं ताम है। साथ ही श्रानंदधत की सी भाषाशलों या भावशली भी इसमें नहीं है। शआ्राचाय विश्वनाथप्रसाद मिश्र का इस विषय में विश्वास हैं कि यह प्रसिद्ध कवि केशव की पुत्र-चधू की रचना है। उन्होंने जब॒ विज्ञानगीता और प्रवोधचंद्रोदय का भाषानुवाद किया तो उनके सुपुत्र यौबनावस्था में ही वेदांत-विरक्त हो गए। इसपर उनकी युत्रतों भार्या ने बकरे को संबोधित कर अपने पति की विरक्त'वस्था का परिचय श्वसुर महोदय को कराया था। सरोज ने धानंदवव को दिल्लीवाले लिखा है। घनअआ्रानंद को प्रथक कवि मानते हुए उनके नाम से यह सववय्रा उद्धृत किया है-- गाइहों देवी गनेस महेस दिनेसहि पूजत ही फल पाइहौ । पाइहों पावन तीरथ तीर सू नकु जहीं हरि कों चित लाइहो। लाइहों झाछे द्विजातिन को अरु गोधतन दान करों चरचाइहों । चाइ अ्रनकत सों सजनी घनआनंद मीतहि क'ठ लगाइहों |। 2५ 2५ 4५ इसमें घाआानंद का नाम है पर सर्वेया की शैत्री श्रानंदघन कवि की शैली से नहीं मिलती । प्ृतः श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र का तो यही विश्वास है कि यह पद्म भी किसो रीति कवि का है, जो क्रियाविद्धा नाथिका की उक्ति में लिखा गया है। पर ऐसी कोई विशेष बात भी इस पद्च में नहीं दीखती जिसके कारण यह घनश्नानंद का न हो सके। सवैया घलंकार शैली से लिखा गया है। घनभ्ानंद भी श्रपनी प्रारंभिक अ्रवस्था में रीतिपरंपरा ( है ) के श्रनुयायी थे । उनके इस शैली के श्रनेकों पदञ्य संग्रह में विद्यमान हैं ! अस्तु । इस पद्य के उनके होने यात्र होने से विशेष अ्रेंतर नहीं पड़ता । सरोजकार ले इनका समय संवत् ११७१५ माना है ।* साथ हो लिखा है कि कालिशस- हजारा में इनके पद्य देखने को नहीं मिलते । कालिदासहजारा संवत् १७४९६ में धुर्ण हो गया था । महाराजा श्री रघुरारजावह जू देव ने अपने 'भक्तपाल! में (संवत् १६००० १६३६) घनमानंद के जीवन दुत्त का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण दिया है बोर शअ्पने कथन का आ्राधार मथुरा की जनश्रुति बताई है। घनानंद की कथा श्रनेका + ब्रज में विदित अ्रहै सविवेक्रा ॥ घनभ्रानंद के विपुल कवित्ता | भ्रबजों हुरत कविन के चित्ता [| विवरण इस प्रकार हैं। दिल्डी का कोई शाहजादा मथुरा में श्राया था | पर मथुरियों ने जुतों की माला पहचा कर उसका सत्कार किया। इस पर वह श्रत्यधिक कुपित हुआ और दिल्ली से उसने अपती सेना बुना ली | सेता ने मथुरावासियों को मारा काटा । जब यह मार काठ हो रहो थी तो अनानंद वशीवट में बेंठे भगवाव की भावना सखों भात्र से कर रहे थे। उनके हाथ में पान का बीड़' था। खाने हो वाले थे कि भगवात के रा प्- विलास का ध्यात भ्रा गया और उसी में लीन हो गए। बीड़ा हाथ में ही लगा रहा। भावना में ही लीन रहते उन्हें दिव और रात बीत गए। गिरधारी श्रोकृष्ण ने भावता के बीच में हो स्वयं श्राकर अपना हाथ फला कर वहु बीड़ा घनानंद के मुख में लगा दिया। इस बोीड़ा से जो मुखराग हुआ था वह सब ने देखा था। सोइ बीरी मुख मेलिगौं लगे मुराबत सोइ | सोइ बीरी की रागमुख प्रगट लख्यों सब कोइ ।* ऐसे साक्षाद्धर्मा महात्मा को भी यवनों ने तलवार से काठ डाला पर शआनानंद जी के प्राण नहीं निकले | इस समय उन्होंने स्वयं भगवान से प्रार्थना की कि हें नंदकुमार और किस लिये मुझे संसार में जीवित रखते हो , क्यों नहीं बुलाते हो । 'कौन हेतु राखे॑ संसारा । क्यों न बुलाव नंदकुमारा ॥॥* प्रार्थना के बाद यवनों से कहा कि इस वार फिर तलवार मारो । शभ्रव की बार मेरा सिर भ्रवश्य कट जावेगा। यवनों ने ऐसा ही किया। घनानंद १-- सिर्वास॒ह सरोज, सप्तम संस्करण, पृ० ३८० ( ४) जी का सिर धड़ से पृथक हो गया। मरते समय उनके शरीर से रक्त नहीं निकला । वनप्रानंद तर क्यों व लोह, सो चरित्र लखि प्रयौन कोऊ,” इस विवरण से दो बातों का पता लगता हैं। एक तो आनंद सखों भावना के. भक्त थे, दूसरे इनकी मृत्यु यवनों के हाथ से हुई। श्री शंभरुप्रसाद बहुगुना नेः भक्तमाल के इस किवदंती मुलक विवरण के अश्रधार पर॒ कवि के समय का निर्धारण करने का प्रयत्न किया है। उनके श्रनुसार शाहजादे का मथुरा में अपमान होने की घटना औरंगजेब के समय की है श्रौर उसका सबंध या तो भ्रोरंगजेब से या फिर उसके मथुरास्थित फौजदार मुशिवकुलीखाँ तुर्कम, न अथवा अवुलनवीलाँ के साथ घट सकती थीं। मुर्निदकुलीखाँ बड़ा अत्याचारी शासक था। उसके विषय में मसीरल उमरा नामक पुस्तक में लिखा है कि-- कृष्ण के जन्य समय पर सथुरा से जघुना के दूसरे पार गोबर्धत पर हिंदू पुरुषों और [स्त्रयो का भारी जमाव होता है। खान धोती पहन कर और माथे पर तिलक लगा कर हिंदू की सरत में वहाँ घूमा करता । जहा उसने. किसो चांद को लजानेवाली खूबसूरत श्रोरत को देखा कि वह ब्राघ की तरह. लपका श्रौर पहले से हो जमना मे खड़ी नौका पर बैठ कर आगरे की ओर भाग गया । श्रोरत के रिश्तेदार शर्म के मारे प्रकट नहीं करते थे कि उनके. साथ क्या हुआ ।' ऐस शासकों के साथ प्रजा का दुर्व्यवहार होना संभव है। फलत: यह घटना सन् १६६० के झ्रास पास घट सकती है श्रादि। इसी समय घन- आनंद को मृत्धु हुई होगी, ऐसा अनुमान श्री शुमरुप्रसाद बहुगुना का है। उन्होने ना० प्र० सभा की सत् १६९१७, १० को “रीतिपावत्त! की खोज रिपोर्ट को श्रपनी बात के पोषणा में उपस्थित किया है, जिसमें “प्रीनिवावन का समय रूनू १६५८ अनुमान किया गया है। बहुगुना जी ने यह सब. क्लष्ट कल्पना व्यर्थ हो को है। शभ्रानंदघत की मृत्यु का समय तो निश्चित . रूप में प्रमाणांतरों से प्राप्त होता है जो इसके श्रन॑ंतर का है। इसे हम" आगे देखेंगे । जीवन के संबंध में ही इससे और श्रघिक विक्लतरूप में श्रानंद्घन जी' के विषय में गोस्वामी श्री राधाचरण जी ने अपने एक छुप्पय में लिखा है | छप्पय इस प्रकार है--- ( ५४ ) दिल्लीश्वर नृप निमित एक धुरपद नहिं गायौ। पे निज प्यारी कहे सभा को रीक्ति रिक्लायौ | कृपित होय नृप दिए निकास वुदाबन आाए। पर सुजान सुजान छाप पद कंबित बनाए।। नतादिरशाही ब्रज रज मिले क्ियन नेहु उच्चार मन । हरि भक्ति बेलि धिचन करो घनआनंद आनंदघन || कवि के साथ सुजान का संबंध था। उसके प्रेम के कारण दिल्ली से उसके निर्वासन की बात स्पष्टरूप से गोस्वामों राधाचरण जी ते ही सब से पुृव् लिखी है । श्रोरों ने इस विषय में जो कुछ लिखा है वह उन्हों के अनुकरण पर। राधाचरणा जी के अनसार दिल्लीश्वर नुपति के लिये जो ब्रगद नहीं गाया वह नुपति कौन था--यह स्पष्ट नहीं होता। दूसरे सुजाब छाप से पद और कबित्त दोनों बनाने की बात इयमें कहीं गई है। वास्तव में जो पदावली इतकी उपलब्ध हुई है, उसमें सुजान छाप नहीं है। वह केवल कवित्तों में ही है,। तीसरी विशेष बात यह सस्पष्ट होती है कि कवित्त और पदों का रचथिता एक हो है, दो नहीं। इस्तीके प्रसंग में छप्पयय के आधार पर यह भो कहा जा सकता है किजो प्रमी बनग्रानंद आनंदघन था उसी ने हरिभ क्त बेच का गिचत क्रिया, अश्रर्यात् प्रभो कवि ही बाद हैं भक्त बन गया था। आनंदघन ने अपने नाम के रूपकर श्रानंद के घन को लेकर जैसे समस्त कवेता की रचना की है उपरो को ओर छप्यय को अंतिम पंकित संक्रेत करती है। 'हरि सक्ति वेल सिचत करी घनप्रातंद झानंदधर्ता इस प्रकार गोस्त्रामी जी के पद में भने ही सत्र संवत का उल्लेख नहीं है पर कवि के जीवन की प्रग्नुत्न घटना का स्पष्ट उल्लेब है श्रौर चार निश्चित संकेत इनके विषय में प्राप्त होते हैं। श्री वियोगोहरि ने आने कवि कीत॑व में ( संवत् १६८० ) इपी विषय में एक पद्म लिखा था जिसका अ्राधार गोस्वामी राधाच रण जो का ही छप्पय था ।* पद्म इस प्रकार है घनआतनंद स॒जान जान को रूप दिवानों वाहौ के रंग राग्यो प्रेम फंदनि अरुफानो #+ ०५. १--वियोगीहरि ते बज शधघुरीसार में स्पष्ट लिखा है कि श्रानंदघबत जी की जीवनी के संबंध में किमी पुस्तक में कोई संतोषजनक वृत्त नहीं मिला । थोड़ा चृत्तांत जो ऊपर लिखा गया है वह हमें पं० राधाचरश गोस्वामी द्वारा प्राप्त हुआ है | ( ६ ) बादशाह के हुक्म पाय नहिं गायों इक पद छप्पे सुजान थे कहे चाव सों गाए प्रुपद >८ >< >< बादशाह ने कोपि राज्यतें याहि निकारचोौं बृंदाबन में आय बेष वेष्णव को धारचौ >< »< >< प्यारे मीत सुजान जान सों नेह लगायौ' लगन बात तें बिध्यों विरह रस मंत्र जगायो' 4 ५ ५ इसके साथ ही नीचे फूटनोट दिया है। सुजान एक वेश्या थी, विरक्त वेष्णाव होने पर धनानंद जी ने सुजान के नाम को श्रीकृष्ण पर घटाया श्ौर अपने प्रत्येक छंद में सुजान के नाम जोड़ कर श्रपनी प्रेमपरता का पुर्णा परिचय दिया। 'वेष वेष्णव को धारधौ” पर नोट दिया है “निबार्क संप्रदाय के वेष्णाव” | विशेष बात जानने के लिये व्रृजमाधुरीसार का संकेत किया है जिसमें विशेष वृत्तांत इतना ही श्रधिक हैं कि यहाँ कवि का जन्म संवत् १७७६ वि० माना है । इस तरह आनंदधन जी के जीवन के विषय में निश्चित वृत्तांतों का ज्ोत रघुराजसिंह जु की भक्तमाल भ्रौर राधाचरण गोस्वामी का छप्पय है । दोनों स्लोत किवदंती पर ही आ्राधारित है, किसी ऐतिहासिक प्रमाण पर नहीं | भक्तमाल में तो किवदंती का स्पष्ट उल्लेख किया भी है। श्री शंभुप्रसाद बहुगुना ने श्रपनी पुस्तक घनश्रानंद! में एक श्रौर किवदंती का उल्लेख किया है कि महाराज सूरजमल के दरबार में देव तथा घनशभ्रानंद का वादविवाद इस बात पर कभी हुआ कि दोनों में से किस को कविता श्रं६ हैं |! घनान'द जी ने देव को उत्तर दिया कि श्राप जग बीती कहते हैं मैं श्राप बीती कहता हुँ ।' घतभ्रानद श्र देव की भेंट तो संदिग्ध ही है। इस प्रकार की बातें श्रन्य कवियों के विषय में भी सुनी जाती हैं। न् १--#वि कीर्तन--प्र थम संस्करण, प्रृ० ३३ -३४, २- बहुगुना जी ने इस किवदंती को माधुरी कार्तिक विक्रमी सं० १९८१ सद् १६२४ में भवानीशंकर यादिक लखनऊ के लेख पर पै० मदनलाल जी मिश्र की टिप्पणी पृ० ५३४ से लिया है । ( ७ ) जैसे पद्याकर और ठाकुर कवि का अपनी श्रपनी कविता पर वाद विवाद हिम्मतबहादुर के यहाँ सुता जाता है। पतद्चाकर ने ठाकुर कवि को कहा कि तुम्हारी कविता हल्की है तो ठाकुर ने उत्तर दिया कि इसलिये यह उड़ी उड़ी फिरती है । ऐसी किवदं तेयां में साहित्यिक आलोचना को सजीवता प्रदात करते के लिये घटना की कन्पना कर ली जाती है । यर्थार्थतः घटना सत्य नहीं होती । ऐसी ही बात इस किवदंती के विषय में प्रतीत होती है; भ्रस्तु । भ्रानंदधत डी के जीवन से संबंधित यह किवरदंती ही! एक मात्र प्रमाण है | पर ध्नामूनातु जनश्न ति के झनुसार किंवदंतियों में थोड़ा बहुत सार सभी में रहता है। इसे तो दो प्रमाणों ने, जिसमें से एक इसकी रचनाञ्रों के अंतः- साक्ष्य से प्रप्त हुआ है और दूसरा भदडौवा छंद है, और अधिक विश्वसनीय बना दिया है। झानंदवन जी को किंददंती में निद्रार्क संप्रदाय में दीक्षित बताया जाता है। यही उनकी रचनाओ्नों से पूर्णतया प्रमाणित्र हो गया है कि वे न्वार्क सप्रदाय के अ्रंतर्गत सखीभमाव के उपासह थे सुजान नाम की कोई वेश्या थी और उससे आनंदघन का प्रेम हुआ इसका साक्ष्य 'जस कवित्त' नामक ग्रथ से प्राप्त हुए आनंदधन संबंधी चार भद्नीवा छंद करते हैं। जम कवित्त ग्रंथ सवत् १५१२ वि० का लिखा हुआ है , इसलिये उनके छुंदों को कवि के समकालीन होते से प्रामाणिक मानना चाहिए । भडौवा छंद मान्यवर पं० श्री मघानीणकर याज्ञिक लखनऊ से लेखक को प्रात हुए हैं । छंदों के पूर्व में लिखा है । करायथ शभानंदवतन महा हरामजाद हो। सु ब्रज की कटा में श्रायो ४ परंतु श्रपजस वाकी थिर है | ताको वर्णन । (१) कतरहुँरु खुजावत में छुतुती तिहि आ्रानंद कों तब हों भरतो | तब रेंगतो कोहुक अगन पै नित्र देह तिही रस सों भरतो। कहूँ चौकि के मागित जो गहती तब हों उत्त हाथन सों मरतौ | वह ईस कहूँ घनग्रानेंद कों जु सुजान-इजार की जु करतो ॥। १--विशेष विवरण संप्रदाय के प्रसंग में देशखए। ( ८ ) (२) करे गुह निंदा वह हुरकिनी की बंदा महा; निरधिनी गंदा खात पानीर श्रौ नान है। बेन को चुराव॑ वाकों मजमून लावै कूर, कविता बनावे गाव रिजौली सी तान है। पुरा-धट-सोखी देह मांस ही सों पोखी, विप्र गेयन को दोषी रूप धरे श्रभिमान है । पाप को भवन, करे अ्रगम गमन ऐसो, मुडिया अआ्ानिंद्घन जानत जहान है। ( ३ ) डफरी बजावे डोम ढाढ़ो सम गाव, काहू तुरक रिभावे तब पावे भूठे ताम है। हरकिनी सुजान तुरक्िेनी को सेवक है तजि राम नाम वाक़ों पू्ज कप्म धाम है । >< >< 'ह हा ज्यों लगाम जैसे चलनी को चाम है। पांव भंग-कुंडा संग राख ८ २ »« > [(ग्रश्लील शब्द) मसुंडा आनंदधन मुंड सरनाम है। (9) मुदित श्रान॑इघन कहते बिधातासों यों, खाल को श्रासन दी जो गारी मोहि गावैगी । मो मुख की पीक-दान करियौ सुजान प्यारी, हरकिनी तुरफ्षिनी थूक सुखियाबेगी | धोती को इजार दुपटो को पेशवाज और, देहुगे रुमाल ताकौ पूछता बनावंगी। पिया पॉयदाज. कांजियो गरीबनिवाज भरि गऐ मो मन पलिग पर श्रावेगी ।! (आनंदघन जी ने अपने काव्य में ऐसे भाव दिए हैं जिनमें पुजान के व्यवहार की वस्तुप्रों के भाग्य से उन्होंने ईर्ष्या व्यक्त की है, भड़ौता को इन व्यंग्योक्तियों का उन्ही को ओर से संकेत है। सकता है यया आरती के भाग पर ईर्ष्या... ( ६५ ) इन छंदों के रचयिता का नामादि ग्रज्ञात है। जंगवासा ग्रंथ के रवयिता श्रौधर उपनाम मुरलीधर भड़ोवा लिखा करते थे। वें घनग्मानंद के सम- कालीन थे ओर मुदम्पर्शाह रंगोले के दरबार में बताए जत्ते हैं। संमव्रतः इनके रचयिता वे ही हैं। यदि यही सन्य हो तो भड़ौवाक्रार को उक्ति भड़ोवा होते हुए भो किसो प्रमाणिक तथ्य का ओर संक्रेत करतो है। अतः: ये प्रामाणिक माने जाते चाहिए। इससे तिस्त लिखित निष्कृष निकलता है--- १--कंवि का असली नष्म आानंदबन था छंरशोेतुरोब से उप्तीको घनग्रानेंद” लिखा जाता था | २--बह जाति का कायस्य था प्रोर शअ्रपते प्रारंभ के जीवन में मदिरा मांसादि का सेवन करता था । उप्का यवतों से संत्क था । ३--सु जात नाम की किसी यवती से उसका प्रम था । ४-वह बाद में साधु हो गया था, संमवतः निबार्क संप्रदाय में दीक्षित था । ५--वह गान विद्या में निपुण था । ६--मुहम्पदशाह के मोरघुंगी या किसी श्रन्य उच्च पद के श्रधद्यारी होने को बात प्रामाणिक नहीं लगती । यदि वह सत्य होती तो भड़ौवाकार के ईलये वह उपयुक्त सामग्री थी, छगें में उसका प्रकारांतर से उल्लेख होता । रघुराजसिंह जू तथा राबाचरण गोस्त्रामों ने जता करिवदंतों के आधार प्र इनका वृत्तांत लिखा है उप में ग्लानंदबन सुठम्गवस्शाहु के मोरमु शी नहीं है। उनका संबंध यवनों से राधावरणा जी ने गान विद्या द्वारा दिख।या है। भक्तताल में उनके उत्तर जोवन को कया है। उसो कित्रदंती से भड़ीतवा छंदों का वृत्त मिलता है। दूपरे प्रकार को जवश्नुति लाला भावानदीन जी को प्राप्त हुई थी। राधाचरणु जी की जनश्रनति का विवेचना उन्होंने सब से पुत्र की थो। वे हिंरी साहित्य के समस्त कायस्य कवियों को जीवनी तथा शधरासव पात के छाक छक्के कर चांधि कपोन सवाद पे घनअआानद भोजिरहें रिफिवार खगे सब अंग शअ्रनंग दबे करि खंडन गंडन दे निरखे तें अखंडित लोभ लगे सुखदान सुजात समासच महा सु कहा कहो झ रसी भाग जगे १--छंदों के प्रारंध के वाक्य तथा शअ्रंत के तीनों छांरों में कार का ताम ऋस ढंग से दिया है कि वह श्रानंदघन ही लगता हैं। 8 क्तियों की खोज करना चाहते थे। उसी प्रसंग से श्रानंदबतन जी उनके अनुसंधान के विपय बने । अध्ययन तथा पूछताछु से जो उन्हें पता चला उसका विवरण उन्होंने लक्ष्मीपत्रिका में प्रकाशित किया था जिसका सार यह है :-- आनंदत्रन जी का जन्म लगभग पंवत् १७१४ में हुआ था और मृत्यु संवत् १७९६ में हुई। ये दिल्ली के रहने वाले भटतागर कायस्थ थे। फारसी भलीभांति जानते थे । जनश्वति इन्हे श्रवुलफजल का शिष्य बताती है । किसी छोटे भ्रौहदे से बढ़ते बढ़ते ये बादशाह मुहम्मदशाह के खासकलम ([ प्राइवेट सेक्रेटरी ) हो गए। इन्हें बचपन ही से रासलीला देखने का बड़ा शौक: था। महीनों तक व्यय का भार शअ्रपने ऊपर लेकर दिल्ली में ये रामलीला करवाते थें। स्वयं भी किसी किसी लीला में भाग लेते थे | इससे इन्हें हिंदी भाषा सीखने तथा साधुप्रों की संगति करने का शौक लग गया । उससे कविता करने लगे । करते करते वह निपुणता का करली जो हिंदी कवियों के समक्ष है। भ्रभी तक इनके पद रासधारियों की मंडली में गाए जाते हैं । रास को भावना का इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि ये श्रीक्षष्णु की लीलाशों में हो लीन रहने के लिये दरबार तथा गृहस्थी से नाता तोड़कर बृंदाबन चले आए श्र वहाँ पर व्यासवंश के किसी साधु से दीक्षा लेकर वहीं उपासना में मस्त हो गए। प्राय: कहीं न कहीं वंशीबट के श्रास पास रहा करते थे। श्रौर वहीं किसी वृक्ष फे तले श्रासन जमाएं ध्प्रानमग्त हो कभी कभी तो कई कई दित समाधि में ही बिता देते थे । 'सुजान सागर” ब्रजबास में ही रचा गया । लालाजी के वितरण में विशेष उल्लेखनीय बात एक तो यह है. कि यहाँ सुजान के प्रेम का कोई प्रसंग नहीं है। दुसरे श्रानंदबन जी का व्यक्तित् इस जनश्न॒ति में गोरवपूर्ण माना गया है। वे श्ुहम्मदशाह के मीर. मुशी हैं। फारसी के इतने विद्वान हुँ कि भ्बुलफजल के शिष्य माने जाते -थे | तीसरे विराग का कारण रासमंडली द्वारा भक्ति का उदय है। भक्ति का उद्बंक ही कवि को काव्यप्र रणा देता है । जार्ज प्रिय्तत ने जो विवरण दिया है उसमे भी सुजान वेश्या का प्रसंग नहीं है, नाहीं उनके मीरमुंशी होने को बात है। इस तरह जनश्नुतियाँ तो दो प्रकार की मिलत, हैं। एक में वे वेश्या प्रमी से भक्त बनते हैं दूसरे में प्रारंम से ही उनमें भक्ति का विक्नास होता है। पर प्रतीत होता है लाल भगवानदीन को कोई म्रांतिपूर्ण जनश्नुति प्राप्त हुई है। काव्य रचना के श्रंत:- ( ११ ) साक्ष्य तथा भड़ीवा छुंदों से इबका सुजात वेश्या से प्रेम स्पष्ट है। मीरमुंशी होना श्रवश्य संदिग्ध है | मुहम्मदशाह रंगीले से संबंधित किसी इतिवृत्त में इनका ताम नहीं श्राता। मुहम्मदशाह की तो देनिक डायरी भी कुछ दिनों की है। उसमें भी इनका कोई समाचा[र नहीं प्राप्त होता। यदि ये मीर- मुंशी जैसे उच्च कर्मचारी होते और राजदर्बार से संबंधित कोई घटता इनसे होती तो उसका उल्लेख इतिहास में होता संभव था| इस से यही कह सकते कि ये देहली के कोई साधारण नागरिक थे। सिश्रबंधुओं ने अपने इतिहास मिश्नबंधु विनोद में इन्हें वेश्याप्रमी बताया है। वे लिखते है :-- “लोग घनानंद को बेसिक समझते हैं। यह विचार इनको स्फुट रचता देखने से उठता है। परंतु जान पड़ता है कि उमर ढलने पर उनके चित्त में सलानि हो कर निर्वेद उत्पन््त हुआ, जिससे वे श्रीवृदाबनधाम जाकर निबार्फ संप्रदाय में दीक्षित होकर ब्रजवास करने लगे। यह भाव इनकी इस रचना से हढ़ होता है।” आचाय रामचेंद्र शुक्ल ने इतके जीवनबूत्त के विषय में मिश्रवधुविनोंद तथा राधाचरणागोस्वामी का छप्वय प्रमाण माना है। लाला भगवादीन की खोज को विश्वसनीय नहीं समझा । उनकी मीरपुंशी वाली बात सत्य मान कर यही जीवन वृत्त लिखा है कि झानंदधन बादशाह मुहम्मदशाह के मीरम्तुशी थे। दर्बार के कुचक्रियों ने इन्हें शहंशाह छारा गाना गाने के लिए वाधित किणा । इन्होंने नहीं गाया और अपनी प्रमिका सुजान नर्तकी के कहने से गा दिया। इस पर शहंशाह ने कुपित होकर इन्हें दिल्ली से बाहुर निकाल दिया। सुजान ने इनका साथ नहीं दिया । ये वृ दाबन जाकर निबार्क संप्रदाय में दीक्षित हो गए श्ौर कवित्त सर्वयों वाली रसात्मक कविता में सुजान और गप्रानदघन के व्यक्तिगत प्रेम को प्रतीक बना कर कविता करते हुए प्रेममक्ति में मत रहने लगे । शुक्लजी ने इनकी मृत्यु नादिरशाही मारकाट मे ही लिखों है कि जब नादिरश ह की सेना के सिपाही मथुरा तक श्रा पहुँचे तब कुछ लोगों ने उनसे कहा कि द्वृदावन में बादशाह का मीसमुशी रहता है। उसके पास बहुत कुछ माल होगा। सिप हियों ने इन्हें भ्रा बेर और 'जर जर जर! श्र्थात् धन लाभ्रो? चिल्लाने लगे। घतानंद जी ने शब्द को उल्द कर “रज रज रजः कह कर ती< छुट्टी व दावन की धूलि उन पर फेंक दी। उनके पास सिवा इसके श्लौर था ही क््या। कहते हैं, सैनिकों ने क्रोध में आकर इनका हाथ काट डाला | मरते समय इ्दोंने अ्रपनेः रक्त से यहु कवित्त लिखा था । ( ९१२) बहुत दिना की अजधि आस पास परे, खरे अग्रखरनि भरे है उठि जान को। कहि कहि. आवन छंबीले मन भावन को, गहि गहि राखति हों दे द॑ सनमान को। भूठि बतियान को पतियान तें उदात्त ह्व॑ के, ग्रब॒ ना फिरत घनआनंद निदान को। अधर लगे हैं प्रान, करि के पयान जान, चाहत चलन ये संदेसों लो सूज़ान को। --हिं० सा० इतिहास पृ० ३३५, ३६ इस में जर वाली कित्रदंती, प्रत!त होती है, कवि के ब्रज रज में अ्रत्य- घिक भक्तिभाव प्रदर्शन के कारण चल पड़ी है । आनंदबतन जी ने श्रवती भक्ति भावना में ब्रजवास, ब्र॒जरज, श्रादि का बड़ा महुत्वपुर्णा वर्णोत क्रिया है। इसी प्रर्मर मरते समय कवित्ता लिखते की बात भी प्रामाणिक नहीं लगती । आनंदधन जी का पंत जीवन प्रत्यंव विरक्त अवस्था का बोता है । यह उनकी निम्ंधात्मक रचनाओ्रों से व्यक्त होता है। उन में सुबान का नाम वे भू गए थे। प्रतीत होता है कि निबंध उनके उत्तर-जीवन की तथा ऊवित्त सये पूर्व जीवन की रचनाएं हैं ऐसी स्थित में यह छंद उनकी अंतिम रचना नहीं कहा जा सकता । श्रत: बहु फारसी शैली से लिखा हुप्ना जान पड़ता है, जिन में जीवित कवि अपने को मृतक मान कर ककन्न में से बोलता है । इनके जन्म स्थान आदि का कुछ पता नहीं चलता । जगलायदास रत्तकर ने इन्हें बुलंदशहर जिले का बताया है। श्री शंभुप्रसाद बहुगुता को 'कोकसार! के लेखक श्रातंद कवि की इनके साथ अभिन्नता का संदेह हो गया था। “कोकसार' के लेखक आनंद कवि का जन्म स्थान कोट हिसार था । कायथ कुल आनंद कवि बासी कोट हित्तार। कोक कला सब चूरि के जिन यह कियो बिचार ॥ भ्रत: बहुगुना जी ने यह संभ वता प्रकट की है कि यदि घतानुद ने कभी कोक़ की रचना आनंद नाम से की हो और वह यही 'कोकृमंजरी” निऋले तो घनानंद के जन्म-स्थान का भी पता उनके समय के साथ साथ चल जाता है। बहुगुना जी का तात्पर्य यही है कि घनानंद कीट हिसार के निव'सी हो सकते ( है३े ) हैं। पर यह कोरी कल्पना ही है । कोकप्तार का लेखक झआरानंद हैं, भ्रानंदघन नहीं । उसका समय इनके समय से भिन्न है। श्रत: यह प्रश्व ही नहीं उठता | श्र नंदघन जी ने श्रपने भक्तिश्ाल में ब्रज बृदावन में रहने का उल्लेख स्पष्ट किया हैं पर श्रपने जन्मस्थान का कहीं संक्रेत नही किया है। उन्होंने श्रपती रचनाओं में जो देशी शब्दों का व्यवहार किया है उस से अवश्य बुलंदशहर के पूर्वी भाग के निवासी वे लगते हैं। ये शब्द श्राजकल भी इस क्ेत्र में बोले जाते है। शब्दावलो यह है। स'बर--(प्रशुतिका गृह), टेहुले--(विवाह, जन्मगाँठ श्रादि पर किए जानेवाले आचार), गरेठी--(पुर्ण से कुछ ही कम भरा हुश्रा पात्र ), बरहे-- (जंगल), सल--- (पता या ज्ञान) संजोबे -[संध्या तथा रात्रि के मध्य का काल), गोहन-- (साथ) , नाज-- [ ग्रस्त ), न्यार-- (चार), पंछर-- (पैर का शब्द), भझरां-- (सब के सब, समस्त) श्रदि। इन्होंने जो मुहावरे व्यवहृत किए है उनसे उनका नाग।रक होना हा अ्रनुधित क्रिया जा सकता है। मुहावरे प्राय: ऐसे ही हैं जा ब्रजभाषा के वागरिक द्वारा व्यवहार में लाए जाते है। इनका विस्तृत विवेचन भाषा के प्रसंग में किया जावेगा। इसी प्रकार इनके श्रप्रग्तुतों का स्वरूप भो ग्रामीण नहीं है। उदाहरण के लिए फानू१ का दीपक, किले पर शत्र_ का अ्रमियात, राजा की दुद्ाई फिरना, बेड़ियाँ, लखक, फेटा, भावां,च्रु बकपत्थर, पतग, द्यतक्राडा, ताला, जाल, पाश,, भस्मक रोग श्रादि । सुजान का सौंदर्य, उसके प्रसाधत का प्रकार तथा साधन, उसकी चेष्टाएँ, नृत्य, गान, सुरापान भ्रादि सब तागरिक हैं। राघा के वर्णन में भो नागर भाव कवि के हृदय में विद्यमान रहा है। इससे यही अनुमान होता हैं कि इनका जन्म तथा निवास नगर में हा हुआ था। बुलंदशहर के ब्रज भाषा भाषी भाग के कसी करबे में जन्मे हों और बाद में देहली चले गए हों-- यद बहुत संभव लगता है । उपथु क्त प्रमाणों से इनके जीवनबृत्त का यह स्वरूप लेखक को प्रतीत होता है। श्रानंदधन जी बुलंदशहर जिले के किसी ब्रजभाषा क्षेत्र से मिले हुए कस्बे में जन्मे थे। बाद में देहली चले गए। जाति के कायस्थ थे । गायन-कला में अच्छे निपुण थे । सुज्ञान नाम की किसी यवत्ती वेश्या से इनका प्रम हो गया। किसी दिन दिल्ली के शहंशाह मुहम्भदशाह ने इन्हें दरबार में गाता गाने के लिये कहा । पर ये इतने स्वाभिमानी तथा मनमौजी व्यक्ति ड्ः ( १४ ) थे कि शहंशाह के कहने पर भी इन्होंने गाना नहीं गाया। सुत्ान प्रेमिका ने कहा तो इतनी तन्मयता से गाया कि दर्बार उसमें श्रानंदविभोर हो गया । शहंशाह ने कुपित होकर इन्हें दिल्ली से बाहर निकाल दिया। ये बुंदावत में निबाक संतदाय में दोक्षित होकर सखी भाव को उपरान्नना में लग गए । भक्ततर नागरीदास जी किशनगढ़ के महाराज सादं॑र्तावह जो से इनकी बड़ी मित्रता थी। उनके साथ ये जययुर श्रादि स्वरातों में गए थे। नागरीदास जी ते अ्रपती 'मनोरथ मंत्री” इल्हीं की प्र रणा से लिखों थी । इन्होंने रचना के अश्रंत में लिखा है कि--- “गुगल रूप आसव छक् परे रीक के पानि । ऐसे संतन की क्वपा मौपे कुदंपति जाति। परम मित्र आज्ञा दई मेरेह हित बास । नवल मनोरथ मंजरी करी नागरीदास ॥! कीत॑न करने में इनकी विशेष रुचि थी। इनकी कोत॑त की मंइली थो जिसमें हरिदास, बद्रीदास, मुरलीदास प्रादि महात्मा संमिलित थे । नागरीदाम जी इनको बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। इन्होंने इनके सतसंग की प्रशंसा तथा कामना दोनों व्यक्त की है । इपके लिये वे तन, मन को भी न्यौछावर करने के इच्छुक थे । १--आनंदधत को संग करन तत सन को बारयौ। नागर सम्तुच्चय, पृ २५, पं०४ २-आनंदघन हरिदास आदि सों संत सभा मधि | वही; १० ३३, पत्म ४२ ३०आानंदधन हरिदास श्रादि संतन बच सुनि स नि | वही, पृ० १०४५ ४--एक बार नागरीदास जो भक्त मंइली के साथ गोवर्घर गए थे | थ्रानंदधन उनके साथ थे १--सु धासार संग्रह! में श्रपो लिखित सव्था सजान के नाम से प्राप्त होता है इसमें किसी प्रवीण की हिम्मत बंधाने का भाव व्यक्त किप्रा गया है। बेदहू चारि की बात को बाँबि पुरान भ्रठारह अ्रंग मैं धारो। चित्रहू श्राप लिखे समर्भ कवितान को रोति में बारतें पारो। राय को श्रादि चिती चतुराई सुजान कहै सब याहो के लारौ । हीनता होय जो हिम्मत की तो प्रवीनता ले कहा कृप मैं डारो। सुधासार, पन्ता २३४ बहुत संभव है यह सर्वया उसी समय से संबंधित हो जब भानंदबत से दरबार में गाना गाया था। ( १५ ) आये चलि तिहि ठां रसिक म्ुंड | जहाँ राधा कुंड अर कृष्णा कुंड ॥ उततें सुनि उमगे रमिक बूंद। उठि चले सामुह्ठैं बढ़ि अनंद | (अनंद > झ्रानदघन ) तहाँ रुपे सूर संमृख सम्हारि। बहि चले परस्पर प्रम वारि ॥ तहाँ बद्रीदास अरु मुरलिदास। मनु महारथी ये प्रेम रास ॥ नागरीदास जी के जीवन चरित्र में बा० राधाकृष्णदास जी ने लिखा है “कि हमारे यहाँ एक श्रत्यंत प्राचीन चित्र है जिसमें नागरीदाप और घनानंद जी एक साथ साथ विराजते हैं। ध्थात ऊपर बताया जा चुका है कि इनके जन्मरस्थान का कोई पता नहीं चलता । बृंदावन में रहने का इन्होंने स्त्रयं भ्रतेकत्र वर्गात किया है। वुंदावत में जमुुता के कितारे गोकुलघाट पर और रमण रेती में ये रहा करते थे | ब्रज॑- वास की इन्होंने भूरि भूरि प्रशंसा बार बार की है। निबंध रचनाएँ सब मिलाकर ब्रज महिमा का वर्णाव करती हैं। ब्रज रज के ये विशेष भक्त ये। इनका मत है कि श्रीकृष्ण श्रौर राधा के दर्शाव ब्रज॒रस से अंब्री आँखों को ही हो सकते हैं । ब्रह्मस तथा परमार्थ ब्रजरज में ही समोया हुमा है। ये नंद गाँव में भी कुछ समय रहे थे । नंद गांव बरसाने ब्तौं। सोभा निरखों हरसों लसों |। ब्रज गलियों में मौत धारण किए प्रेम समाधि में ये घमा करते थे ब्रज वीथिन बन बागनि फिरों । छुकौ थकों ब्रज हेरौ हिरों॥ नीचे कवि की उन उक्तियों का उद्धण दिया जाता है जिनमें उसने अपने निवास तथा ब्रजप्रेम को प्रकट किया है । तरनितनूजा तोहि तकौ। चंचलता तजि भ्जि नंदलालहि मन करि तेरे तीर थकों || आ० घ० पदा० १४ यह ब्रृदावन यह जमुना तीर, यह सारंग राग। यह भाग भरी भूमि, यह तरुलता भूमि, ये विहंग बड़ माग ॥ श्रा० घ० पदा० १४४७ जो तुम दियोौ है ब्रजवास तौ पूरन करोौ' यह आस । रसिक संग अभंग निरखत रहों रासविलास ॥ ७ आ० २६० ( १६ ) लीला अंकुर उपजे मन मैं। यातें मचलि परथो ब्रज बन में || अनु० चें० ३८ ब्रज बन बसिब कौ यह फल है। जिन मिलि दरसतु रूप अ्रमन है ॥ वही ४८ गौर श्याममय ब्रजवन देखौ । ठौर ठौर लीला अवरेखों। प्र० प० १७ दर कृष्णचंद्र की यह ब्रज देखों। मेरे नेन भाग अबलेखों। धा० च० ७२ मोकों यह त्रज लागतु प्यारों । दीसत दीखे ध्यम उजारौ॥ या जमुना में नितही नहाऊ। या जमना तजि कहें न जाऊँ। जमुना के तट फूल्योौ फिसे। हेरिः तरंगनि रंगनि हरों॥ गोकुल घाट पियों जिन पानी । जमुना रस महिमा तिन जानी || जमुना जमूना जमुना: कहो। धीर समीर तीर बसे रहो ॥ जमुना मौकों सब कुछे दियो । दरसि परसि सरसान्यों हियो | यमुता यश २२, २७, ३७, ५३, ५७ आनंद धन बृंदावन बसे। महा मधुर रस धारा रमे॥ नंदगांव. बरसाने बलतौ। सोभा निरखों हरसों लसौ ॥ दूहँ घरति की चारों ओर । गावत फिरों साँक अर भोर ॥ ब्र० प्र० १, २ ब्रज्बसि कजवानिनि की आस । सृफल भयौ मेरो ब्रज वास ॥ ह: ९७) हों या त्रज श्ररू यह ब्रज मेरौ सुबस लद्यों ब्रजवास बसेरौ॥ हे त्रज' स्वरूप ११२, ११३ मौकों यह ब्रज सदा सुहाई। मन हग वांछित लियौ दुहाई ॥ राति द्यौस एके ब्रज दीसे। ब्रज रस परसि नवाऊँ सीसे॥ बही श ०२, १०३ इनक घरनि श सदा त्यौहार । नित' नित ब्रज में हित व्यौहार || यह सुख्र देख हिये हँसि खेलि। बरनो बज मंडन कर केलि।। या ब्रज को सुख हों ही जानों। या ब्रज बस जस रसहि बखानों।। वही ७ ब्र्ज् के 0 38 बन बागनि घिरों। छुकों थकों ब्रज हेरों हिरों। अहो भाग्य या ब्रज कीं लखों। ब्रज की सींव न कबहूँ नखों। यह् ब्रज वास न कबहूँ छूटे । ब्रज. रस बसु देंदें मन लूटे। बही ९, ३९, ५४, १३१ ३--स्वमाव श्ानंद्घत जी के ग्रंथों में उनके उत्तर जीवन के स्वभाव तथा मनोदशा के दर्शन होते हैं। उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये साधना की उच्च कोट को प्राप्त कर चुक्रे थे। नागरीदास जी जंसे श्रेष्ठ महात्मा इनका बड़ा संमान करते थे; वे इनके सत्संग के लिये लालायित रहते थे। ब्रजवीथियों में यमुना के तट पर घूमते घूमते ये कभी हँस पड़ते थे कभी रो पड़ते थे। श्री कृष्ण के संयोग भर वियोग का अनुभव इनके हृदय में सदा होता रहता था । नेत्रों से जल बरसता श्रौर हृदय नवनीत सा[' कोमल हो जाता था ॥* श्--को जाने यह भेद जो गाव मेरो वेरागी जियरा । ब्रज मोहन के वियोग सेजोग भरचौ है हियरा । प्रेंतुवनि जलसों श्रधिफ जगति ज्ञोति प्रेखनि होत मनौ घियरा | ४ ( १६ ) लीला अंकुर उपजे मन मैं। यातें मचलि परथो ब्रज्ञ बन में ॥। अ्रनु० चं ० ३८ ब्रज बन बसिबे कौ यह फल है। जिन मिलि दरसतु रूप श्रमन है ।। वही '४८ गौर श्याममय ब्रजवन देखौ । ठोौर ठौर लोला अ्रवरेखों॥ प्र० पृ० १०५६९ कृष्णचंद्र की यह त्रज देखों । मेरे नेन भाग अवलेखौ। घा० च० ७२ मोकों यह ब्रज लागतु प्यारो । दीसत दीखें श्यम उजारौ॥। या जमुना में नितही न्हाऊं। या जमना तजि कहेँ न जाऊं |। जमुना के तट फूल्यौ फिरो। हेरिः तरंगनि रंगनि हरों॥ गोकुन घाट पियौ जिन पानी । जमुना रस महिमा तिन जानी ॥| जमुता जमुना जमूना: कहो। धीर समीर तीर बसे रहो |। जमृना मोकों सब कुछ दियो । दरसि परसि सरसान्यों हियो ।। यमुना यश २२, २७, ३७, ५३, २४०७ आनंद धन बुूंदावन बसे। महा मधुर रस धारा रसे। नंदगांव. बरसाने हे बसो । सोभा निरखों हरसों लसो ॥ दूं धरनि की चारों ओर । गावत फिरो साँछ अरु भोर ॥ बढ प्र० १, २ अजबसि ब्रजवासिनि की आस । सुफल भयौ मेरों ब्रज वास ॥ ५ १७ ) हों या त्रज पभ्रर यह ब्रज मेरो सृबस॒ लह्यौं ब्रजवास बसेरौ ॥ ब्रज स्वरूप ११२, ११३ मौकों यह ब्रज सदा सुहाई। मन हग वांछित लियौ दुहाई ॥ राति द्ौस एके ब्रज दीसे। ब्रज रस परसि नवाऊँ सीसे॥ हे वही १०२, १०३ इनक घरनि सदा त्यौहार। नित नित ब्रज में हित व्यौहार | यह सुख देख हिये हँसि खेलि। बरनौ ब्रज मंडन कर केलि॥ या ब्रज कौ सुख हों ही जातों। या अज बसि जस 'रसेहि बखानों | वही ७ त्रज. बीथिन बत बागनि घिरों। छुकोँ थकों ब्रज हेरों हिरों॥ अहो भाग्य या त्रज को लखों। ब्रज की सींव न कबहूँ नखों।॥ यह ब्रजें वास न कबहूँ छूटे। ब्रजः रस बसु देंदें मन लूटो॥ बही €, २६, *४, १३९१ ३--स्वभाव आनंदधन जी के ग्रंथों में उतके उत्तर जीवन के स्वभाव तथा मनोदशा के दर्शन होते हैं। उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये साधना की उच्च कोट को प्राप्त कर छुक्रे थे। नागरीदास जी जंसे श्रेष्ठ महात्मा इनका बड़ा संमान करते थे; वे इनके सत्संग के लिये लालायित रहते थे । ब्रजवीथियों में यमुना के तट पर घृप्तते घूमते ये कभी हँस पड़ते थे कभी रो पड़ते ये। श्री कृष्ण के संयोग ओर वियोग का श्रनुभव इनके हृदय में सदा होता रहता था । नेत्रों से जल बरसता श्रौर हृदय नवनीत सा कोमल हो जाता था ।* १--को ज्ञाने यह भेद जो गाव मेरो वेरागी जियरा। ब्रज मोहन के वियोग सेजोग भरथौ है हियरा । प्रेंदुवनि जलसों श्रधिक जगति जोति परेखनि होत मनौ घियरा ६ ४ (६. ३ ) ये यमुता के किनारे आनंदमग्न घूमते रहते थे। उप्तकी तरंगों को देख देख कर उललसित और ध्यगनमग्न हो जाते थे।' रमणशारेती में रज को श्राँखों से लगा लगा कर उन्मत्त की तरह घारों श्रोर देखा करते ये । हृदय में भाव की तरगें उठती थीं श्रौर बेसुबथ होकर भगवत्प्रेम में मग्न हो जाते थे । इनके विषय में यह किवदंती है कि यवनों ने जब इन्हें काटा तो ज्यों ज्यों शरीर पर तलवार के घाव होते थे त्यों त्यों ये ब्रज्मान्ञ में लेट्ते जाते थे। स्वाभाविक दशा में श्रपती इस स्थिति का वर्ण इन्होंने स्वयं किया है। भावना प्रकाश! में उन्होंने लिखा है कि--- बूफे कछु बीलो न आाइ है। रोम रोम अभिलाष छाइ है॥ त्जरर्ज लोटि विकल ह्वे जे हां। बड़ी बेर तक की सृधि पे हों।* घनआनंद ग्रंथावली के आ्रारंभ में इनका एक चित्र भी दिया गया है। यह चित्र वृ'दाबन निवासी ब्रह्मचारी ब्रजवल्लभशरणा जी वेदांतावार्य के द्वारा कृष्णगढ़ से प्राप्त हुआ है । चित्र के नीचे यह छप्पय अंकित है--.. सकलगुए सुजान स्वामी जी श्री आनंदघ्न जी। वृंदावन में अलट हो वास कियोौ आनंदघन रचें कटोली काव्य- स्तुति कछ परति न गाई। अत्ुपम अक्षर जटित चोज चेटक सरसाई। अवन परत हिय द्रवे छेकनि भूले सब भाले। मानो मोहन मंत्र महा सुधि की सूधि भूले। गान कला में अति कुशल सुनत बढ़े आह लाद मन । वृंदावत में अटल है वास कियोौ आनंदघन ॥ इसमें भी उपयु क्त स्वभाव का ही उल्लेख किया गया है। ४--चित्र परीक्षा चित्र में इनकी लंबी भुको हुई नासिका, बड़े नेत्र, ऊर्ष्व मस्तक और मृछेमुड़ी हुई हैं। सर पर साधुओं की सी टोपी पहने हैं। हाथ में सितार न १---यमुना यश २७ २--भावना प्रकाश---२ ०९, २१२ ( १६ ) लेकर ध्यानमस्त हो गायन करने को मुद्रा में बैठे हैं। श्राँखें मुदी हुई हैं। सौमभ्य स्वभाव, प्रमाद्र हृदय तथा मनमौजी; प्रकृति का आ्राभास चित्र से लगता है । चित्र के नीचे का छप्पय यह भी सिद्ध करता है कि चित्र हमारे विवेच्य कवि का ही है। साथ ही यह भी इससे प्रमाणित होता है कि पदावली न्था कवित्त सवये के रचयिता एक ही व्यक्ति थे और उतका नाम श्रानंदबन था। ये ही कटीली काव्य रचना करते थे जिसके सुनने से हृदय द्रवीभुत होता था। शभ्रौर यही गाव कला में अ्रति कुशल थे। सुजान का संबंध इन्हीं से था तभी तो ये धपकल गुन सुजान' थे | अऔ-“समय अब आनंदधन जी के समय पर विचार किया जाए। सब से पुर्ब यह देखें कि आ्रानंदघत की कविताग्रों का उद्धरण किस समय तक प्राप्त होता है। मिश्रवंधु विनोद में संकेत किया गया है कि सरदार कवि ने ( समय संवत् १६०२ से संबत् १६९४० तक) शअ्रपने “्ंगा[र संग्रह” में धनानंद के लग भूग १५० छंद संग्रहीत किए हूँ ।' ब्जनिधि ने ( संवत् १८६२१ से संवत् १८८० तक) शभ्रपने संपादित ग्रंथ ब्रजनिधि ग्रयावली में इनके तीन पद संग्रहोत किए हैं। 'सुधासर” को संग्रहीत करने वाले मथुरावासी नवीन ने आनंदघन के लगभग ३० कवित्त सर्वेये उद्धत किए हैं। 'संगीत राग कल्प॒द्रुम' के संग्रहीता कृष्णानंद व्यास ने तथा 'रागरत्नाकर! के संकलयिता श्री भक्तराम ने इनके अनेकों पद अपने सम्रहों में लिखे हैं। इनसे विक्रम को १६ वीं शताब्दी के द्वितीय दशक तक आनंदधन जी की क्ृतियाँ उद्ध त होती थीं यह भलीभाति कहा जा सकता है। नागरीद[सजी, कृष्णगढ़ के महा राज सावंत सिहजी ने अपने ग्रथों में प्रान दघत की कविताएँ उद्धुत की है। इनकी “पदमुक्तावली! में ४६३: १० पर ४ पद हैं, ५१४ १० के पृष्ट १४२ तथा ७७ पर २ कवित्त है। उन्तमें पहला है--'प्रीतम सुजाबव मेरे हित के निधान! झ्रादि तथा दूसरा है 5तब तो छवि पीवत जीवत हैं! इत्यादि । वराग्य सागर ५१: १० पृ० १६६ सथा १७० पर दो पद हैं इसी प्रकार २६४: ४२ पर इनके ६ पद हैं। नागरी दासजी का काव्यकाल सं० १७८०-१८१६ तक माना जाता! हैं। आनंधनजी के जीवनवृूत्त में यह प्रतिपांदित कर चुरे हैं कि नागरोदासबी ने अयतो 'मवोरय १--मिश्रबंधु विनोद पृ० ११५३ । २--ये दोनों कवि घनशआानंद ग्रंथावलो के सुजान॒हित सं० २४ तभा ३६ पर है । ( २० ) मंजरी' इन्हीं की प्रेरणा से लिखी थी श्रौर वह सं० १७८० में पूरी हो गई थी'| इससे सं० १७८० में आनंदघनजी की विद्यमानता तथा सं* १७६० तक उनकी प्रसिद्धि का अनुमान होता है। घनानद विषयक भदौव।छंद स० १८१२ में बने 'जस कवित्त' नामक ग्रंथ में उद्धृत हैं। श्रत: इनका काल सं० १८१२ तक तो उद्धरणों के प्रमाण से ही पहुंचता है । लखनऊ के श्री भवानीशंकरजी याज्ञिक के पास एक पत्र लेखक ने देखा है जो दो इंच चौड़ा तथा ७ इच्त लंबा है। उसपर घनानंद जी के २१ स्वंये लिखे हुए हैं। २० पंक्तियाँ एक: शोर तथा १६ दूसरी भोर हैं । लिपिकार का समय ता ज्ञात नहीं है पर इससे कवि की प्रसिद्धि का श्रनुमान भलीभाँति लग सकता है। सं० १८८० में रीवां, नरेश महाराज रघुराज सिह ने ब्रज में इनकी श्रनेक कथाप्रों को प्रसिद्ध होते सुना था। इनके कवित्त भी उस समय लोगों को बहुत याद थे । ड 'घनभ्रानंद की कथा श्रनेका । ब्रज मे विदित श्रहै सविवेका | कब्ज में विदित कथा यह सारी। संक्षेपहि इत लिक्यौ विचारी ॥ घनश्रानंद के विपुल कवित्ता | भ्रबलौं हरत कविन के चिन्ता ॥ भक्तमाल । इतिहासकारों में लाला भगवानदीनजी ने इनका जन्म सं० १७१५ तथा मृत्यु नादिर शाही हमले के समय सं० १७६६ में मानी है। उसका श्राधार शिवसिह सेंगर का सरोज है जिसमें श्रानंदघत दिल्लीवाले का समय सं० १७१५ माना है। साथ ही सरोजकार ने यह भी लिखा है कि सं० १७४६ में बने 'कालिदास हजारा ग्रथ! में उन्होंने श्रानंदघन की कविताएं नहीं देखीं ॥ याद क,ब का जन््मकाल सं० १७१५ माना जाए तो 'कालिदास हजारा? के, निर्माणकाल में ये लगभग ३०, ३२ वर्ष के हो गए थे । फिर इनकी सी उच्च काव्यकला के व्यक्ति का हजारा में स्मरण न हो यह युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता आचार्य विश्नाथप्रसाद मिश्र तो शिवर्तिह सरोज के सन् संवतों के श्रागे लिछे 3० का अर्थ उत्कर्ष करते हैं ।* याद यह मान लिया जाय तो सं० १७४६ तक शभ्रानंद्घतजी ३० वर्ष कविता कर चुके थे। इस दशा में तो उनका नाम अवश्य हजारा में आना चाहिए था। दूसरे भ्रभी हम देखेंगे कि भ्रानंदघन जी मल अली शक अलिन कमल कह आ० रा० च० शुक्ल, हि० सा० इतिहास, प्र० संस्क०, पृ० २४८ | देखिए जीवनवृत्त प्रकरण । २--शिवसिह सरोज सप्तम संस्क० पृ० ४८० | .._ र--हिंदुस्ताती भाग १३, श्रंक २, श्रप्नल सन् १६९४३, शिवसिह सरोक के सन् सं० शीर्षकबाला लेख । ( २१ ) की मृत्यु सं० १७६६ में न होकर सं० १८७७ में हुई थी। इनका जन्म फ़िर सं० १७१५ मान लेंने पर श्रायु १०२ वर्ष की बैठी है जो असाधारण हैं। थे मरे भी प्रक्ाल मृत्यु सेथे। श्रतः इनका जन्मकाल १७१४ संवत् नहीं हो सकता । 'शिवर्सिह सरोज” के द्वारा संकेत किए गए कालिदास हजारा' में आनंदबत के कवित्तों के न होने के श्राधार को ही लेकर बाद के इतिहासकारों ने इनका जन्म सं० १७४६ के लगभग माना है। 'मिश्रबंधु विनोद! में सं० १७७१ से इनका काव्यक्ाल माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सं० १७४६ के लगभग जन्म होने का अनुमान किया है। पं० विश्वताथप्रधाद मिश्र की इसपर एक आपत्ति हुई है। श्रानंदघत जी ने निब्ार्क संप्रदाय के श्री दुंद्ावतदेवजी से दीज्ञा ली थी यह उनकी परमहंत वंशावली से स्पष्ट है। इसमें निबार्क संप्रदाय की गुर परंपरा का प्रारंभ से बूंदावतदेवजी तक ही वर्णात है । सूंदावनदेवजी पर आकर कवि ने लिखा है कि वे मेरे लिए वृन्दावन में प्रकट हुए हैं, 'जगबोहित मोहित प्रगट हरिविनोद निजधाम” । इसका (ूदा- वनदेवजी) समय सांप्रदायिक इतिहास में ० १७५६ से १८०० तक है। श्री विश्वताथप्रसाद मिश्र का कहता है कि उनसे (श्री ह्ृदावनदेवजी से) दीक्षा लेने का समय अ्रधिक से अधिक सं० १७५९ ही तक संभव हो सक्रता है। यदि पूर्वोक्त श्रतुमित जन्मकाल (सं० १७४६) ठीक माता जाय तो यह भी मानता पड़ेगा कि इनकी वय दीक्षा के समय १३ वर्ष को थी, जो इनके जीवनवृत्त को देखकर अ्रसंभव है। ब्चंदावन पहुँचने के समय इनको वय २५-३० की अ्रवश्य माननी चाहिए। भ्रत: इनका जन्म सं० १७३० के भ्रास पास संभाव्य है ।* मिश्वजी का तात्पर्य यह प्रतीत होता हैं कि सं* १७३६ था १७१६ में बृदावनदेवजी सलेमाबाद चले गए थे दृदावन में नहीं रहें थे | उनके द्वारा बृन्दावन में दीक्षा इससे पूर्व हो सकती थी । इस तरह सं० १७३० में इनका जन्म मान लेने पर दीक्षा के समय २६ या २६९ वर्ष के ये होते हैं जो इनके जीवनबृत्त को देखकर ठीक शप्रतीत होता है | सुजान के प्रेम का प्रसंग यौवनकाल में ही सँमव है। इस मान्यता में प्रमहंसवंशावली में वर्णित शेबजी के साथ आ्रानंदघतजी का संपर्क भी ठोक १--परम हंसावली ४४ ॥। २--घ० आ०» ग्रं० भूमिका पृ० ७५। ( २२ ) हो जाता है । शेषजी के विषय में परमर्ईनरवं शावली में श्रानंघनजी लिखते हैं कि वे काशी के निवासी हैं श्रौर निगम तथा भ्रागमों में प्रवीण हैं। उन्हें निबार्क संप्रदाय का पूरा श्रवगम है। बड़े पवित्र श्रौर कुलीन हैं । काशी वासी सेघगत निगमागमन प्रवीन। निबादित्य अत्तुगम सबे' परम पुनीत कुलीन || ये शेष जयरामजी वेष हैं जो दवुदावनदेवाचार्यजी के शिष्य थे श्रौर सं० १८०० से १८६० तक निबाक संप्रदाय के मंदिरों का प्रबंध करते थे | इसः प्रकार श्रानंदधनजी का जन्म समय सं० १७३० के आसपास श्रनुमित होता है। मृत्यु उनकी नादिरशाह के हमले में बताई जाती है | ग्रियसेन, राघाचरणाजी! तथा शुक्लजी के इतिहास ग्रथों में यही लिखा हुआ मिलता है। यह कल्लेग्राम ११ मार्च सन् १७३६ को प्रारंभ हुआ था । पर इतिहास प्रंथों में मथुरा पर नादिरशाह के हमले की बात कहीं नहीं लिखी गईं है। वह दिल्ली तक हीं सीमित रहा था। श्री राघाक्ृष्णादासजी ने नागरदासजी के जीवनचरियत्र में यह बताया है कि मथुरा पर हमला दुर्रानी का था। श्रीमती ज्ञानवती चिवेदी' ने इतिहास का प्रमाण देते हुए स्पष्ट लिखा है कि हमें मानना पड़ता है कि नादिग्शाह के कत्लेश्राम में नहीं बल्कि भऋहमदशाह श्रब्दाली के मथुरा श्रौर चृदावन वाले कत्लेग्राम में घनानंद का बध हुआ | श्रपतती स्थापना में झापने श्री एस० आर० शर्मा का .इतिहास प्रमाण रूप में उपस्थित किया है जिसमें यह स्पष्ट लिखा है कि भगवान को कृपा से यह विनाशक्रांड राजधानी के ऊपर लिखे मार्गों के श्रतिरिक्त श्रन्य त्िसी स्थान तक नहीं बढ़ा । ऊपर लिखे भाग हैं, चाँदनी चौक, सब्जीमंडी, दरीबा बाजार श्रौर जामामप्जिद के आसपास के मकान जलाकर भस्म कर दिए थे। हससे नादिरशाह के आक्रमण में इनको मृत्यु की बात सुनी सुनाई सिद्ध होती है। नादिरशाह भ्पने नृशस शभ्रत्याचारों के लिये इतिहासप्रसिद्ध है। ध्सल्यि ऐसे कृत्यों का उससे संबंध जुड़ जात है। वादिरशाह ने कल्लेप्राम की श्राज्ञा ११ मार्च सत् १७३६ को दी थी। आझ्ाान॑दधनजी ने अ्रपनी पुस्तक मुरलिकामोद में सं० १७६८७ (सत् १७४१ ई०) का संकेत किया है । -सापमादानहाआकक अर: उप पलाक्रर २": पद अभधाकपककट, १--ज्ञानवती त्रवेदी--घ० श्रू० पृ० ६३॥। ( रहे ) गोप मास श्रीकृष्ण पक्ष सुचि। संवत्यर अठानवे अति रुचि। इससे स्पष्ट है कि वे सं० १७९६ में नहीं मरे । यह अठानवे सं० १७९८५ हाँ हो सकता है १६६९८ नहीं । श्री वृन्दावनदेवजी से झानंदधनजी को दीक्षा लेता तथा नागरीदासजी से उनकी मँत्री श्रादि तभी संगत होती है। नागरीदासजी के साथ इनकी मंत्री के अनेकत्र उल्लेख हैं, उन्होंने अश्रपती “मनोरथ मंजरी' इन्ही की प्रेरणा से लिखी थी तथा उनके पदथ्च प्नपनी कृतियों में उन्होंने उद्धृत किए हैं यह पहले बताया जा चुका है। राधाक्ृष्णादास जी ने नागरीदासजी के जीवनचरित्र के प्रसंग में यह लिखा है कि हमारे यहाँ एक श्रत्यंत प्राचीन चित्र है जिसमें नागरीदासज। और श्रानदघतजो एक साथ विराजते हैं। वह चित्र तो श्रभी त्क उपलब्ध नहीं हा लेकिन जो चित्र इनका प्राप्त है वह भी कृष्णागढ़ से ही मिला है। भारतेंदु बाब हरिश्चंद ने सुजानशतक के झारंभ में चित्र चिपकाने के लिये चौकोर खाना बनाकर उसके ऊप्र नीचे छापा है--यह चित्र श्री आनंदधतजी का है जिसे श्री महाराज कुमार श्रीकृष्णदेवशरणसिंह ने अपने हस्त कमल से उनके लिखे हुए चित्र से छाया का चित्र बनाया है कृष्णागढ़ के राजकवि जयलाल ने नागर्रदासजी का ही सम--सामयिक आ्रानंदघधतजी को माना है। यह उनके उद्धरणों से स्पष्ट किया जा चुका है। जयलाल ने श्रपन॑ एक पत्र द्वारा राधघाकृष्णदातचजी को यह लिखा था कि जब नागरीदासजी वृदावन से कृष्णगढ़ गए थे तो श्र नंदघनजी उनके साथ थे। यद्यपि श्रानंदघन कृष्णगढ़ तक न जाकर जयपुर से ही वापित श्रा गए थे | नागरीदासजी की यह यात्रा चन्र कृष्ण १२ सं० १८५१३ की हुई थी यह नागर समुच्चय' में जयलाल ने ही लिखा है। ग्रठारह से ऊपर सबत् तेरह जान। चेत्र क्षण तिथि द्.दती ब्रजते कियो पयान ॥ इससे सं० १८१३ में नागरीदातजी के साथ राजस्थान को प्रस्थान करने वाले आनंदघनजी सं० १७६६ में नहीं मरे यह स्पष्ट हो जाता है। भ्रहमदशाह झब्दाली का प्राक्रमण दो बार मथुरा वृदवन पर हुआ था। एक सं० (८१३ १--राधाकृप्ण ग्रथावली पृ० १७२ | (. ) में और दसरा सं० १५१७ में । श्ानंदबनजी दुसरे श्राक्रमणा में ही मारे गए | दाली का पहला श्राक्रमण १ मार्च सन् १७५७ से ६ माच सत् १७४७ तक रहा था । यह समय फाल्गुत्त शुवल १० से चेत्र कृष्ण प्रति सं० १८१३ तक पड़ता है। जयलालबी के अनुसार श्राक्रमण के समाप्त होने के १२ दित वाद श्र्थात् चैत्र कृष्ण ११ को नागरीदानजी तथा आनंदवतजी वृदातन से कृष्णगढ़ को जाते हैं, इपसे स्पष्ट है कि वे पहले श्रक्रपण में वीं मारे गए | इस मान्यता में एक श्रापत्ति उपस्थित होती है। चचा हित बूदावन- दासजी की 'हरिकलावेलि' में सं+ १८१३ के सर्वेविध्वंस का >र्णान किया गया है भौर उसी प्रसंग में श्रानंधनजी की मृत्यु का भो उल्लेख हैं। उन्होंने लिखा है सं० १८१३ में यवनों ते देश का नाश किया । लोगों पर बड़ी भारी विपत्ति श्रा हूढठी । ऐगा प्रतीत होता था मानो हरि ही सूथ्दि संहार के लिये उतर पड़े हों । ग्रठारह सो तेरहों वरष हरि यह करी | जमन विगोयौं देश विंपति गाढ़ी परी॥ तब मन चिता बाढ़ी साधु पतन करे। हरि ही मनहु श्ृष्टि सेंघार काल आयुध धरे || >< >< >< ञ< प् हृयविदारक घटना का और अ्रधिक वर्णा। करते के बाद उन्होंने अपनी एक व्यक्तिगत घटना का वर्णान किया है। चैत्र सुदी एकादशी सं० १८१४ को वे फरुखबाद गंगा के किनारे गए ' वहाँ रात्रि को रास हुआ | रात के तीन पहर बीतने पर रासकर्ताग्रों ने प्रानदत्नजी का एक ख्याल गाया। उसे सुनकर चचाज्ञी का मत बड़ा विकह्लल हो गया और वे सोचने लगे कि ऐसे संतज्ननों को भी यवतनों ने प्राकर मार डाला । इपसे उनका हृदय सोच से दब गया । शहर फरु्खाबाद जहाँ गए सुरधुनी पास। चेत्र सदा एकादशी तहाँ भयौ इक रास ॥ तीन पहर रजनी गई वे कवि कीयो गान । तहाँ एक कौतुक भयौ जाकौ करो बखान | श्रात दधत को ख्याल इक गायोौ खुलि गए नन। सुनत महा विह्न॒ल भूयों मन नहिं पायो चेन || ( २५ ) ऐसे हूं हरि संत जन मारे जमननि थाई । यह अ्रति देख हियो भयो लीनौ सोच दबाइ॥”! यदि यह स्वीकार किया जाय कि वृ दावनदासजी का शोक से व्याकुल होना सं० १८१४ का है तो फाल[न शुक्त १०मी से लेकर चंत्र कृष्ण प्रतिपदा सं० १८१३ तक के उपद्रव में मारे जानेवाले आनंदघनजी के विषय में चैत्र सुदो एकादशी सं० १६१४ को भ्रर्थात् १६ दिन बाद चचा हितवृ दष्वनदास का यह शोक स्वाभाविक हो जाता है। ऊपर सं० १८५१३ की विपत्ति कां वर्शात कर उसके एकदम बाद इस घटना का उल्लेख करने से यही विश्वास होता है. कि श्रानंदधनजी को मृत्यु को घटना उसी समय हुई थी। पर जयलाल की उक्ति का विरोध पड़ता है। इसलिये यह अनुमान करना पड़ता हैं कि यह शोशे- जुभूति सं० १८५१८ की है जब उन्होंने 'हरिकलावेलि' समाप्त की थी । समाप्ति का समय कवि ने स्वयं दिया | अ्रठारह सौं सत्रहों वर्षगत जानिये। साढ वदी हरि वासर बेलि बखानिये |। इस पुस्तक में झ्रानंदघतजी की मृत्यु पर चचा हितवृदावनदासजी वर्तमानकालिक भाषा में शोक प्रकट करते है, उनका ऋवितत यह है--- विरह सतायौ तन निबाह्यौ जब साँचो पन | धन्य आनंदधन मुख गाई सोई करो है ॥ एहो ब्रजराज' कुँवर धन्य धन्य तुमहूँ को । कहानी की प्रभु यह जग में विस्तरी है ॥ गाढौ ब्रजउपासी जिन देह अंत पूरी पारी । रज' की अभिलाषा सों तहाँ ही देह धरी है ॥ बृदावन हितरुप तुमहु हरि उड़ाई घूरि। एपे साथी निष्ठा जन ही की लखि परी है ॥ 2५ & 8 ८ इस कबित की संगति बिठाने के लिये वृ दावनदासर्जी के पहले वचन का उपर्युक्त श्रभिप्राय ही लगाना पड़ेगा । विनिगमर प्रमाणों के अभाव में इसी पर संतोष करना पड़ता है। श्रतः निश्चत यही है कि प्रानंदधततो को मृत्यु अब्दाली के दूसरे श्राक्रमण में सं० १८१७ में हईं। ( २६ ) नाम ६-- घतआनंद या आनंदधन आनंदघन कवि की कविता ही नहीं उनका ताम भी दुरवबोध है। इसका कारण कवि द्वारा अ्रपने न/|म के विविधकृपों का प्रयोग करना है। लाक्षणिक होने के कारण शब्द के व्युत्पत्य५ का कवि को ध्यात श्रधिक रहता है। बहुत से स्थलों पर तो कवि ने विरोधादि चमत्कार इसी प्रकार दिखाए हैं, जैसे “जीव सुख्यो जाय ज्यों ज्यों भीजत सरवरी” मे रात भीजने के वाच्यार्थ या व्युत्पत्यर्थ को लेकर ज॑ व के सूखने का विरोध है। पर उसी का लक्ष्यार्थ रात बीतना के साथ कोई विरोध नहीं । इस तरह शब्दों के वाच्याथ के प्रति सजगः रह कर उतका प्रयोग करना इनको शेली का एक प्ंग है। इसके कारण कवि ने भश्रपने नाम का कविता में प्रयोग सद्दा सार्थक श्रौर वाध्यार्थ के उपस्थापक के रूप में किया है। व्यक्तिवाचऋ संज्ञाएँ व्याक्ररण की दृष्टि से सार्थक नहीं होता । इन्हें इमीलिये 'यहच्छा” शब्द कहा जाता है। जिस प्रकार किसान श्रपते बछड़े का नाम 'डित्/ं रख लेता है और उप्त शब्द का न कोई अश्रर्थ होती है और न उसकी श्रमिधेय में संगति होता है। इसी प्रकार के प्राय: संज्ञा शब्द माने जाते हैं। हिसी व्यक्ति का लक्ष्पीपति! नाम हो तो नाम के वाच्यगुगों की संगति तामी में नहीं होती | कुछ ऐसे भी नाम होते है जो' किसी प्रकार का समंजस श्रर्थ उपस्थित नहीं करते जेंसे लक्ष्मीशंकर ) इसलिये संज्ञा शब्दों के संबंध में संस्कृत वैयाकरणों का यही नियम है कि उनकी भ्रानुपूर्वी न बदलनी चाहिए और न उनके खंडों के पर्यायों का प्रयोग करना चाहिए |! ऐवा करने से भ्रांति हो सक्रतों है। पर फिर भी अ्रंकुशहीत कवि व्यक्तिवाचक नामों की श्रानुपूर्वी भी बदलते *हे हैं। उनके पर्याय भी देते रहे हैं और नामांश का प्रयोग समस्त के लिये करते रहे हैं। 'हिरण्याक्षः के लिये “'हाटक लोचन' तथा सत्यमामा के लिये 'सत्या? या “भागा! का प्रयोग संस्कृत के कवियों ने बहुत किया है। आरानंदधन ने अपने ताम के प्रयोग में भी इसी स्वतंत्रता का प्रयोग किया है। उन्होंने इसके पर्याय भी दिए हैं, श्र/नुपूर्वी भी बदली है श्रौर भ्रश का प्रयोग समस्त के भ्र्थ में भी किया है। इनझ्ले नाम के लिये प्राय: विस्तलिखिता शब्दरूप व्यवहृत हुए हैं । १ - नागेशभट्ट--वंयाक रण मंजुबा, शक्ति विचार प्रकरण | जल ( २७ ) ग्रानदवबत, अ्नंदधत, आनंद के घत, आजनंदप्योद” आनंद के: घन, आनंदनिधान; परयोदपोद, अनंद, आनंदकंद, आनंद सदन, श्रानंदमेघ, झ्रानंदमेह, झानंदमुदोर, आनंदप्रभीबरस,*, मोदपरमप्योद सच्विदानंरघत *, आानंदमेदू, घनप्रानेद, आनंद के अ्रंबुद”, मोदमेह', आनंद अ्रमुतकंद * । इस प्रकार अयउते नाम के लगभग २१ प्रकार के रूप कवि ने प्रयुक्त किए है। इनमें कई बातें विशेष उल्लेखनीय हैं । १-कवित्त सवयों में घरञ्नानंद शब्द की प्रधानता है। यहाँ ६०० बार से ऊपर इस शब्द का प्रयोग हुश्ला हैं। पदावली और निबंध रचनाश्रों में झ्रानंदवन शब्द का व्यवहार प्रधाव रूप से हुआ हैं। कहने को पदावली में भी दो स्थान पर घनप्रानंद का प्रयोग हुआ है। कबत्त स्वयों में तो घनग्मानंद अपने विक्ृत रूपों के सथ सौ से अपर बार प्रयुक्त हुआ है, फिर कवित्त सर्वयों में श्रानरघत तथा उसके विक्षत रूपों का जितना प्रयोग है उतना घनभ्र।नंद का पदावली निबंधों में नहीं । २--श्रा नंदघन यह विशुद्ध रूप केवल तीन छप्पय छंंदों में व्यवहृत हुआ है। श्रन्यत्र इसके विक्षत्त रूप श्रार्नेदधन अनंदधन आ्राद श्राए हैं । ३-घन नंद अपने शुद्ध रूप में रहीं व्यवहृत नहीं हुआ । उसका सानु- सवार रूप घनश्रानेंद ही सवंत्र आ्राय! है । ४--शब्दों की श्रानुपूर्वी दो प्रकार की है। झानंदपुवक तथा धन वेंक $ इनमें से घनपूर्वक आनुपूर्वी के श्रधक विकार जैसे मेघ आनंद! पयोद आनंद श्रादि श्रादि देखने में नहीं आते | केवल एक स्थान पर पयोदमाद' का व्यवहार हुआ है । आनंदघन के ही सब [वक्त रूप मिलते है। ५--विकार का कारण डंदानु रोध प्रतीत होता है। आानंदघन या घनभ्रानंद अपने विशुद्धरूप में छंदानुरूप नहीं है। इर्सलिये कहीं शा को हस्व बनाकर 'अ्रनंदघतः किया गया है कहीं “न! को हस्व बनाकर ते! किया गया है । यही हेतु पर्बायों के प्रयोग करने तथा श्र नपुर्गों बदलने में १---घुहि० २५५, २ सुद्तिण १८७, ३, वहीं २४, ४. सुहि० ८२, ४. वही ६१, ६. वहीं २५९, ७, ३५२, 5. १६२, ६, आ० ह० ३२४, १०. वहीं २६६, ११. ३२१, १२, ५१०, १३, वही ५१७, १७. वही ६७७, १५, वही ६७६९ | १--देखिए श्रा० प० ५४० तथा १०४८॥। ( २८ ) प्रतीत होता है । श्रानंदघन शब्द तगणात्मक होने से कवित्त सबयों के श्रनुकूल नहीं । इसलिये उसकी श्रानुपर्वों बदलकर समगात्मक बनाया गया है। आगे भी सगण बन सके इसलिये आ्रानंद” के “नं को कूस्त्र कर दिया गया है । “सालत बान समान हिये सलहे घनभ्रानंदजी सुख साधन” में भगशा से स्वेया प्रारंभ होता है। इस पंक्ति में पाँचवाँ भगगा है घनाँ का बनता है। इसहे श्रनंतर फिर भगण की ही आवश्यकता है। यदि नं! कौ द॑ध ही रखा जाय तो भगण की उपलब्धि नहीं हो सकती । इसी प्रकार 'घन प्रा्नेंद अपने चातिक को गुर बांव ले मोहन छोगिये जू” रस प्याय के ज्याय बढ़ाय के आ्रास विसास में यौं विष घोरिये जु”? में सगणा सबैया है। “्घनझ्रा? का एक सगण हो गया, दूधरा सगएा नं? को ब्रिना हस्त्र किए नहीं बन सकता | इस अकार कवित्त सवैयों की छन्दोंनुकुलता आनंदधन” या “घन आनंद! किसी शब्द में नहीं है। फल्नत, कवि ने हस्त्र दीर्घ का स्व्रावकुन परिवर्तन कर लिया है । शब्दों के विविधहूपों के जान लेने के बाद यद्र जिज्ञासा होती है कि कवि को अपने ताम शब्द से श्रपिप्रेत अर्थ एक ही है या अनेक है। यदि श्रनेक हों तो अर्थानुरोध भी शब्द परिवर्तन का कारण हो सकता है। यदि एक्र ही श्र्थ अ्रभिप्रेत है तो परिवर्तन का कारण छंदोनु रोध हो मानता पड़ेगा | उपयुक्त प्रयोगों को परीक्षा करने पर दो प्रश्वर के प्र्थ कवि के भ्रभिप्रत प्रतीत होते हैं। एक तो “श्रानंद क॑ बरसानेवाले बादल? तथ्ण दूसरा 'घनीभत आनंदस्वरूप' या 'घनीभूत आनंदवाला? । दोनों श्रर्श प्रानंदघन तथा घन- आरंद आतुपूर्तियों में भ्राए हैं। जैसे-. आनंद के वर्षयिता के अर्थ में आनंदघन बिरह नसाय दया हिये में बाय आय | हाय कब आनंद को घन बरसाय हो ।। उसी श्र में घनश्रानंद दुख घूम धूंधरि में घिरें घुठें प्रात खग । श्रबली बचे हैं जो सुजान तनकौ ढ़रँ ॥ बरसि बरसि घनप्रानेंद अ्ररस छांडि । सरस॒ परस दे दहदनि सब ही हर ॥ आनंदरवरूप या आनंदवान के ग्रथ॑ में घन आनंद घनअ्रानंद है दुख तापत पावत। क्यों करि नाँवहि नाँव घर्सो | ( २६ ) यह भ्रथ बहुत थोड़े स्थलों में आया है। पहला श्र्थ ही प्राय: व्यवहृतः हुमा है । इन दोनों शब्दों की अर्थपरंपरा पर विचार किया ह्ाए तो घनग्रानंद ग्रौर आनंदबन दोनों ही शब्द उपनिषद् श्रादि वेदांतग्र'थों में ब्रह्म के स्वरूप- बोधन के ल्ये प्रयुक्त होते हैं । सच्चिदानंदधत का खड आनंदघन है। उसी के. ( ब्रह्म के ) लिये कभी चिद्घनानंद विशेषणा प्रयुक्त होता है। उसका अंश घनानद! या श्रानंदवन' हो सकता है। दोतों नाम साधुप्रों में श्रव॒ भी प्रचलित हैं। ब्रह्म के चार गुण सत्ता, चैतन्य, घवत्व, तथा आनंदस्वरूपता माने जाते हैं। उनमें से आनंद आानंदस्त्ररूपता का, “घन' घनस्वरूपता का बोधक होता है। इस प्रसंग मे घन का श्रर्थ धनाभूत तथा अविचाली दोर्ना ही होते हैं। लुहार जिसपर रखकर लोहे को पं:टता है पहले वह घन! या कुट कहलाता था। ग्राजकल तो उसे “निहाई! ( संस्कृत निःस्थायी ) या ऐन ( सस्कृत भ्रयन ) कहते है श्रौर घन का भश्र्थ है बड़ा हथौड़ा । घन विशेषण द्वारा हो ब्रह्म को बेढतियों ने कुटस्थ श्रविचाली बताया है। कवि ने भी देशन प्रसिद्ध प्र्थ में उस्ती आनृपुओं के साथ चारों विशेषणों का एक पद में अयोग किया है । ज॑से-..- जे जै श्र वामन विशाल । कृपाप्तील महाप्तील' नरोत्तम नितहीं नित दीन दयाल। सत्यंगदद सत्वस्वरूप सत्यप्रतिज्ञ प्रत क्ृपाल ॥ सच्चिदानंदन अनर्धान्रविक्रम पद नख' जल जग सुजस जाल' उपर्युक्त श्र्थपरंपरा में घनानद में कर्मधारय तत्पुरुष समा माता जाता है। दोनों शब्द स्वतत्र रूप से अपना श्रर्थ समपंणा करते हैं । कोई किसी का विशेषण नहीं बनता । साथ हो घनाग्रानंद यह भ्रसहितरूप कभी प्रयुक्त नहीं होता। सस््क्त व्याकरण का यह प्रबल नियम है कि समस्त पद बिना संधि के नहीं रहता ।* कवि ने 'घन'! शब्द को घनीभत श्रर्थ में बहुत कम स्थलोंपर व्यवहृत किया है। प्रायः उसका बादल के श्रर्थ में प्रयोग किया है। शभ्रानुपुर्वी घनपुर्वक हो या भ्रानंदपूर्वक इन्होंने आनंद के बादल! इसी श्रर्थ में प्रायः इसका व्यवहार ।3० हसन हनन नस न नतानानिननविना पाटिल कल न- नाना १--आ० प० ७३३ २---सिद्धांत कौमुदी समासाश्रय प्रकरण---“संहितेक पदे नित्या समासे ।7 ( 30७ ) किया है। 'ओ्रानंदधन'ं नंद के अंबुद! आनंद अमीबरसः आदि प्रयोग भेदों से भी यही मान्यता पुष्ट होती है। आनंदघन शब्द में तत्पुरषः समातत माना है। घलनपूर्वक आनुपूर्वी में भी श्रानंद के घन श्रर्थ को ही प्राय: भागा है। इस श्रर्थ में फारसी शेली से शब्द में तत्युरष समास माना जा सकता है जिसमें उत्तर पद पूर्ध पद बन जाता है जंसे दर्देंदिल । प्रानंदधनजी आँसु प्रवाह के लिए “्रवाह आँसू” का प्रयोग करते हैं ! इस प्रकार देखने में यही आता है कि भ्र्थ का प्रतुरोध शब्द परिवृत्ति का कारण नहीं है| 'प्रानंदधना का भी उन्होंने श्रानंदस्वरूप श्रर्थ कहीं कहीं किया है जैसे-...'जानप्यरे प्राननि बसत पे श्रनंदघन विरह विसम दसा मूक ला कहनि है! इसे आनंदधन! ओर “घन आनंद! दोनों के ही श्र्थ 'आनंदस्वरूप! तथा आनंद के भेघः अर्थ कवि ने दिखाए हैं । इनमें मेथ् वाला श्रर्थ प्रधान रूप से आ्राया है । ऐसो स्थिति में यह निर्णय कठिन हो जाता है कि कवि का वास्तविक नाम क्या था। प्राचीन ऐतिहासिकों ने दोनों ही प्रकार से इसे समझा हे । राधाचरण गंस्व्रामीजी ने भक्त वेलि सिचन करी घनशआा नंद आानदघनः में दोनों का ही प्रयोग किया है। वास्तविक नाम कौनसा है यह नहीं कहा जा 'सकता। शित्रात्चह, मिश्रबंधु तथा ग्रियर्तन ने आनंद्घन ही नाम माना है। श्राचार्य रामचंद्र शुक्त्न ने सबपे पहले इन्हें घन आनंद लिखा है । इसके बाद बहुगुना जी ने अपनी पुस्तक का नाम घन भानंद” रक्खा। कवि के नाम के विषय में बहुगुनाजी की यह संभावना है क्रि इनका वास्तविक्र नाम आनंद था। इसी का विकसितरूप कबि ने झानंदधन? तथा 'घनआनंद? कर लिया है। इस संभावना में बहुगुनाजी ने युक्तियाँ देते हुए कहा है कि केवल आनंद' छाप से इनके कबित्त स्वेये मिलते हैं। कवि राधा श्रौर कृष्ण दोनों का उपासक है। सुजान शब्द दोनों का ही विशेषण इन्होंने बनाया है। राधा के लिये आनंद की निधि! तथा श्रीकृष्ण के लिये “ग्रानंद को घन शब्द का 'अयोग उसने किया है। बहुगुनाजी की श्राध्था है कि दोनों की भावना को प्रकट करने के लिये रसआ्रानंद स्वरूप राधा का बोधक” आनंद झौर कल्याणकारी वृष्टि करनेवाले कृष्णा श्रथवा घनश्याम का 'घतन्? शब्द लेकर अपना नाम श्रानंदधन अथवा धनआनंद कवि ने रख ;लिया। इम नाम में मूलनाम तो आ हो गया १--स॒हि० १६६। २--घ० क० ३६९। ( ३१ ) साथ ही उसकी राधा और कृष्ण को भक्ति का संकेत भो हो गया । इस तरह युगल छत्रि की उपासतरा के क्रारण कवि ले अपना नाप आनंद से विकसित कर आ्र।नद्घन और घनमश्रानद दोनों रूपों में रखा हैं । बहुगुनाजी ने इतका संबंध रीति के प्रसिद्ध कवे सोमवाथ शशनाथ से किया है। शशितनाथ ने अपने वशवर्णान में आनंदनिधि तामक किसी अपने पूर्वज का उल्लेख किया है। बहुगुताजी का यह भी अनुमान है किये आनंदनिधि आनंदघत ही थे। शशिनाथ का वंश वर्णाव इस प्रकार है । ः 'सिद्धता में विमल वाशिष्ठ मनिवर से, ओर ज्यौतिष में नीलक ठ मित्र दिनकर से तिनक पुत्र आनंदनिधि बड़े उजागर जानि' तिनकौ ज सुद्िगंत ला महाउजागर श्रानि प्राचार्य श्री विश्वताथप्रसाद मिश्र ने भो इतके संग्रह ग्रथ को “घतप्रानंद ग्रथावली नाम रखा हैं। प्यतग्रानंद नाम! खोज में 'घनग्रानंद कवतत! के भ्रकट होने के बाद व्यवह्ृत हुप्रा प्रतोत होता हैं। वहा इंस नाम व्यवहार का आुल प्रमाण है | रघुराजसिंह जु ने रामरसिकावली में 'धनग्रानंद ही नाम माना है | 'घनआनंद है नाम जिन सुनत हरत भव त्रास” चचा हितबू दावनदास ने श्रानंद्घत नाम लिया है। आन'दघत कौ ख्याल इक गायो खुलि गऐं न न! हरिकलावेलि भडौवाकार ने जो इनका समप्तामयिक था आानंदधन तथा घनआानंद दोनों ही नाम दिए हैं । 'वह ईस' कह घनआन द कौं जौं सुजान इजार को जू करतो' 'मुडिया आन दंधन जानत जहान हे! सुधासार” संग्रह के संग्रहीता म थुराबासी नवीन ने “आनंदधघन जू के कवित्तः लिखा हैं, यद्यपि कवित्तों में इनका नाम घनप्रानंद ही श्रधिक आया है। “निबार्क माधुरी” में यही नाम दिया हैं। खोज में जितनी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं. उत्तमें घन श्रानंद कवित्त! को छोड़कर सबमें आनंदघत ही ताम माता गया है। बजनाथ ने अपनो प्रशघ्ति में धनप्रान॑द नकल महक कील, प कल १---घनग्रानंद भूमिका १० 5७ ॥। ( ह२ ) या श्रान॑ंद्धनजी नाम दिया है। श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल तो घनश्रानंद वास्तविक नाम तथा झानंदधत उपनाम मानते थे | वियोग बेलि को भूमिका में उन्होंने ऐसा ही लिखा है। इस दशा में कोई दो टूक निर्णाय करना बड़ा कठिन है। फिर भी कुछ हेतु ऐसे हैं जिससे एक श्रोर विचारों का भुकाव श्रधिक होता है। कवि ने झ्रानंद बरसानेवाला बादल श्रर्थ ही प्राधान्येन लिया है। यह बताया जा चुका है। यह अ्र्थ रूपक योजना का भी मूल समस्त कविता में बना है--यह शंली के विवेचन में स्पष्ट क्या जाएगा। ऐसा श्रर्थ श्रानंदवन श्रतपुर्व में ही अधिक सामंजस होता है। दूसरे जितने रूप आ्रानद पूर्वक श्रानुपूर्वी के मिलते हैं उतने घनपूर्वक के नहीं मिलते । धन पूर्वक के दो ही भेद प्रयुक्त हुए हैं। घवश्रानद तथा 'पयोदमोद” । पर दूसरी श्रानुधूर्वी के १६ भेद मिलते हैं। श्रत; कवि का भ्ााग्रह श्रानद्घन नाम पर अ्रधिक प्रतीत होता है । यह श्राग्रह दो कारणों से ही हो सकता है। यातो यह कवि करा वास्तविक नाम हो या व्वव्यनाम । फारसी साहित्य से प्रभावित श्रानंदघन काव्य नाम का उपयोग करते *हे हों यह संभावत है। कवि वास्तविक वाम से भी पभ्रधिक शआराग्रही श्रपने काब्य नाम प्र होता है। श्रत्: जायसबाल जो का [विचार कि श्रानंदबत कवि का काब्यनाम है ठंक प्रतीत होता है। फिर घनभअ्नमंद भी काव्यनाम का विक्षत रूप है थ्य कवि का वास्तविक न|म इसपर रघुराजसिहदेव के प्रमाण से उसे वास्तविक ताम ही मानना चाहिए। घनानंद कवित्त पुस्तक का नामकररणा भी उसी भ्रोर संकेत करता है। ब्यक्तिवाचक संज्ञा होने से घन आनंद में संधि भ्रवश्य होनी चाहिए पर छुंदोव्यवस्था के कारण श्रसंहित रूप का व्यवहार हुआ प्रतीत होता है । ७-- आनंद ओर आनंदधन शिवसिह सरोज में ही श्रानंदबत और श्रानंद दो कवि प्राप्त होते है ॥ डाक्टर जाज ग्रियर्सन ने सबसे पहले दोनों की एकता स्वीकार की थी। इसी प्रकार राग कल्पद् मे में अनंद श्र श्रानंदघत का अ्रभेद माना है। मिश्रबंधु विनोद में श्रानंदकवि की दो पुस्तकें ल्खी है 'कोब सार! और 'सामुद्रिक' $ हमारे विवेच्य कवि ने श्रपना नाम प्रावंदघन के भ्रतिरिक्त केवल आनंद भी रखा है-- ज्यौं ज्याँ उत श्रानत पै झानंद सु श्रोप औरै। श्रत: श्राशंक का होना स्व]भाविक है कि दोनों कवि एक हैं या भिन्न भिन्न। ( रै३े ) खोज रिपोर्ट में आनंद कवि की 'कोकरमंजरी” रचना उपलब्ध हुई है। यह कामशास्त्र पर लिखी पुस्तक हैं। इसके अंत में कवि ने अपना समय दिया है संचत् १६६० की बसंत ऋतु । ऋतु वसंत संवत् सरसा सोरह सौ अरु साठ । कोक मंजरी यह करी धमं कर्म करि पाठ।॥ कथि ने शण्ता माम भी बताया है। कायथ कुल बआआनंद कवि बासी कोट हिसार कोक कला इह्ठि रुचि दःरन जिन यह कियो विचार ।! इयर 'झुजानहित' श्रादि के लेखक झानंदबत कवि को किवदंती प्रसिद्ध शायर एबुजनफलल का शिणप्त ब्लाती है। इतका समय संदत १६०८ से १६५६ तक है। फिर यह संजब हो जाता है कि हमारे कवि ही कोकमंजरी के लेखक हो । उजानहित में एक दवैया में कोकृविद्या का अग्नस्तुतझय में उललेज भी हुमा हैं । “तुझनाई पे कोक पढ़े सघराई सिखावति है रसिकाई रसे ।” श्र शभप्रसाद बहुगुन। ने इस आधार तथा श्रन्य इसी प्रकार के हेखा- भास एकत्र कर प्रस्तुत कवि आानंदघत को सत्रहवीं शताब्दी विक्रमी का माना था। पर ये भुलभुलैया तभी तक विचारणीय थीं जब तक इनकी समस्त रचनाएं उपलब्ध नहीं हो सकती थीं। श्रव तो 'म्ुरलिकामोद में कवि का समय स्पष्ट हो गया है इसलिये ये सब विवेचन कवि के समभने को सीढ़ियाँ मात्र हैं। ८-जनधर्मी आनंदघन आनंदघन नाम वाले एक दूसरे कवि और हैं जो जैनधर्मानुयायी हैं ॥ पहले यद्द संदेह किया जाता था कि वैष्णव धर्मानुयायी सजान प्रेमी आ्रानेद- घन और ज॑नधर्मी आ्रानंदधत एक ही हैं। श्राचार्य ज्षितिमोहन सेन ने इस विषय में सन् १६९३८ में वीणा पत्रिका में एक लेख “जनधर्मी श्रानंदधन! शीर्षक से प्रकाशित किया था| उसमें दोनों को एक तथा रहस्यवादी माना था। इस संदेह की हष्टि से ही विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने वष्णाव कवि आनंद धन की रचनाश्रों के साथ जैनी श्रानंदघन की रचनाएँ भी 'घत आनंद श्र झान दघन! नाम से प्रकाशित की थीं शोर भूमिका में इसका उल्लेख किया-- कि दोनों कवि पृथक् पृथक है । शं, ( ३४ ) एक स्वच्छुंद प्रेम के कवि हैं दूसरे जैनधर्म के अनुयायी उदारभावना के कवि | वास्तव में जैनधर्मी आर्नद्धत का वेष्णव आनंदघन से कोई स बंध नहीं है। दोनों के समयों में लगभग सौ वर्ष का अंतर है। काव्यरचना में 'ती कोई साम्य है ही नहीं । जैतधर्मों झ्र/मंदबन का दूसरा नाम लाभान्द भी था। जेंत धर्म के प्रसिद्ध दिद्वातु ज्ञान विमल सूरि! ने इतके बाईप ह्वबनों का जो “प्रानंदधन चौद्दीसी ' कहलाते है बालकपन से शअ्रभ्यास किया था। उन्होंवे इन स्तबनों फो लाभानंदकृत बताया है | दुसरे विद्वान देवचेंद्र ने अपनी “विचार रत्नसार' पुस्तक में इनका एक पदच्च उद्धत कर उसे लाभानंदकृत बताया है । २ वें पद म॑ स्प्रयं भी 7हा है--- नाम आनंदधन लानआनंदघन' लाभानंद जी के माता, पिता, स्थान थ्रादि का टॉक ठीक पता नहीं चलता | रखनाओ्ओं का संवत् भी अ्रज्ञात है। कवि का समय लंग्रतू १६५० से १७१० तक प्रतोत होता है। शाजार्य ज्िविमोहद उस इस ४ श्मय संबत् १६१५ से १६७५४ त्क मानते हैं । ज॑तन पंडित श्री थशोविजन से इनकी प्रभंसा में ग्ष्ठपदो लिखी थी । यशोविजय दी से मेठता बगर में इसके साथ कुछ समय बिताया था । इससे दोनों रामकालीच सिद्ध होते हैँं। यशोविजय जी का समय निश्चित है| बड़ौदा के दमाई नगर में उनकी समाधि पर मृत्यु समय मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी संवत १७७५ लिखा है | यशोंविजय द्वारा लिखी गई इतकी प्रशसा से पता चलता है कि ये आझ्रायु में उनसे बड़े थे। भ्रत: विक्रम की सचहवीं शताब्दी का श्रंतिम भाग या १० वीं शताब्दी के आरंभ में इनका मत्युकाल माना जा सकता है। जन साधुग्रों की परपरा में यह भी सुना जाग हैं कि इनकी भेंठ दादू के शिष्य मस्कीन से हुई थी । दादू का जन्म समय १६०३ है तथा मृत्यु सं० १६६० है। इसके बाद मस्कीन का समय श्राता है। इस हिसाब से ये मस्कोीन से श्रायु में छोटे थे । इनके विषय में दो झ्राख्यान प्रसिद्ध हैं :-- ६--लाभानंद जी कृत स्तवन एतला २२ दिसे छी यद्यपि वीजा हसें तोद्दी आपको हाथे मे थी। श्राव्य यशोविजय श्र भ्र|नंदधते लेख से उद्ध त । ( ३५ ) १--कोई सेठ श्रानंदधन को वस्त्र भोजन दिया करते थे। एक बार आनंदधन के धर्मव्याख्यान के समय सेठ के श्ाने में देर हो गई। लोगों के अनुरोध करने पर भी ये सेठ की प्रतीक्षा में बैठे नहीं। अपना कार्यक्रम समय पर प्रारंभ कर दिया। इसपर सेठ ने कुछ बुरा माता तो आनंदधन जी ने उनके बच्लादि उतारकर फेंक दिए | २--एक बार किसी रानी ने अपने पति के वशीकरण के लिये इनसे मंत्र माँगा | इन्होंने उत्तर में लिख भेजा कि मैं तुम्हारे पति विषय में कुछ नहीं हर सकता | रानी ते इस लेख को हो मंत्र समझ लिया और ताबीज में बाँधकर गले में लटका लिया। अ्रवसरवश उसका पति भी वशवर्ती हो गया। यशोविजय सुर ने जो पद्य इनकी प्रशंसा में लिखे हैँ उनमें से एक यह है :-- आनंदप्रन को आनंद सुजसः ही गाबत रहत ग्ानंद समति संग सुमति सखि के संग नित नित दोरत कबहूँ न होत दूर। जप विजय कहे सुनो हो ओआनंदधन हम तुम या मिले हज्र-यशोविजयक्ृत आा० ध०, प* १ . इनकी दो रचनाएं आनंदघत बहलरी तथा न्लानंदबत चौबीसी उपलब्ध हैं। दोनों मुकक गीतों के संग्रह हैं। चौवीसी में २२ ही पद्च हैं। श्रौर जब से इनका संग्रह उपलब्ध है तभी से, इनकी संख्या २२ ही ज्ञात है। लोगों का तो यह विश्वास हैं, इन्होंने “बीबीसी”: नाम २७ तीर्थंकरों के कारण रखा होगा वास्तव में पद्म २२ही लिखे हैं। इनमें से २९ तीर्थक्रों को सतुतियाँ हैं। प्रत्येक के प्रारंभ में तंथंकर का ताम दिया है । 'रुषम जिनश्वर माहरोरे और न चाह कंत। रीकयो साहब संग न परिहरे मांगे सादि अनंत ।॥ आ० चौबीसी, पद १ परंतु इनके भावों में सांप्रदायिकता का संकोच नहीं है। कविता में. त्तीर्थंकरों के प्रति प्रेमभक्ति प्रदर्श किया गया है। दाशंनिक भाव भी ( ३६ ) यत्र तत्र व्यक्त किए हैं। रहस्यव(द की शैली का कहीं कहीं प्रयोग किया गया है | उदबोधन के एक पद में कवि कहता है;--- , “हे दुलहिन तू बड़ी बावली है। तेरा पत्ति ,जागता है और तू सोती है | हमारे पिया तो चतुर हैं श्रौर “हम बिलकुरू श्रज्ञानी। न जाने क्या होगा । चाहिए तो यही कि हम अक्रानंदवर्षी प्रियतम के दर्शनों को प्यासी होकर अपना घुंघट खोल उसे देखें” | यहाँ दुरहिन सुमति हैं पति प्रमस्त्ता। भाष! राजस्थानी है। संस्कृत तथा अप्श्र श॒ की सी शब्दावली का! प्रयोग है । ६- नंदर्गाँव के आनंदघन । नंदगांव के भो श्रानंद्ध/ एक कवि थे। इएाजत इतिहास इस शंश में हमारे कवि से मिछटा है कि दोनों दष्णुंव ६॥ नंद गांव का उल्लेख हमारे कृवि ने भी किया है। “नंदगाव बरसाने बसों, सोभा निरखौं हरतों लसों” एर नंदगोँब के शआ्रानंदधन बाह्य कं थे, ये कायशओ | उनके वंशज श्री तक नंदर्गांव में |वचद्यमान हैं। उनका इ।तटास मिश्चित झप से ज्ञात है। धंवत १५४५३ में जब श्री चंत्न््य महृप्रभु नंदगाँव पथारे थे तो उन्होंने जिस मंदिर में भगवहर्शन किए थे उसके विग्नहों की स्थापना नंदगाँव के श्रानंदधन जी तकी थी। वे श्री चंतन््य महाप्रश्नुसे मिले थे। अतः उनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का उत्ताराब ठहरता है। ये छुजान प्रेमी श्रानंदघत से १०० वर्ष से भी भ्रधिक पहले के हैं । १०-- नानक के टीकाकार श्रानंदघन डाक्टर श्री केशरीनारायण जी ने 'संपूर्णानंद अभिनंदन ग्रथ' में घन« झानंद की रचताओओं पर लिखे एक विस्तृत लेख में संकेत किया है कि एक और भी गप्रानंदधन हैं जो न ज॑नी हैं न प्रेमी और न बेष्णव भक्त । वे नानक जी के “जप जी' के ,टीकाकार हैं। यह टीका गुरुमुखी लिपि मे ल्खि प्राप्त है। डाक्टर साहब लंदन संग्रहालय से उसकी माइको फिल्म' ले झाएं है। इस टीका के भारंभ शौर अ्रंत में कुछ पद्य हैं जिनमें लेखक ने झपने गुरु का नामोत्लेख क्या है। ये सिक्खों के दसवें गुरु की शिष्य« परंपराओं में रामदयाल के शिष्य थे । १--श्रानंघन बहुत्तरी, पद संख्या १६ ( ३७ ) श्री गुद राम दमाल चिदानंद करुणा रण | ना चरनन उच्यार आनंदवन बरनन करे॥ डीका का विब रण तथा ग्बता काल संगत १८४४ हैं ! “गुरूतानक जपजी कियौ निजमत कौ निरधार आनंदध्त टीका करे ताकौ अ्थ विचार संभित पुराण सति अरढंवत युगम अ्रधिक है जासू, मानु मास संकुपुरी कीन्हयो लिखन विलासु” टीका की भाषा पछाई हैं। श्रो डाक्टर केशरीनारागण जी का विचार है कि आनंदधत पदाबली में जो पंजाबी के पद मित्तते हैं तथा 'इश्कलता में भी पंजाबी का जो व्यवहार है वह संभवत: इन्हीं पंजाबी आनंदरघन को रचनाएँ हों ! केवल नाम साम्य के कारण विभिन्न कवियों की रचताग्रों का एकन्न संग्रह हो गया हो। पर पंजाबी भाषा की रचनाश्रों का ब्रज की रचनाओ्रों के साथ भावसाम्य वसा ही है जंसा कवित्त सर्वर्यों का पदावली से । अत: आरानंदधन पंजाबी के पदों के इनके पदों के साथ मिलते की अधिक संभावना नहीं लगती । वृदावन में 'जपजी' के दटीकाझार का प्रप्तंग दुष्कल्प ही है! इस तरह शआआानंदघधन तीन हो जाते हैं; जैनी, नंद्गाँव के, भोर यू'दावनवासी सुजान प्रेमी । “कालो ह्ाय॑ निरवधिविपुला च पृथ्वी” आन दघन और अजनाथ अ्रानंदघन की रचनाओं के संग्रह करनेवाले तथा उनके प्रशंसक एक ब्रजनाथ नामक्े व्यक्ति हैं। 'धनश्रानंद कवित्त! इन्हीं का! संग्रह किया हुआ्ना प्रथ है। इन्होंने श्रानंदबन की प्रशंसा कवि की ही शब्दाली में बड़े मभिक ढंग से की है। प्रशस्ति में घुख्यतया दो भावों का उल्लेख है। एक तो प्रानंदबन जी की कविता अपने समय के अन्य कजेयों से विलक्षुण सिद्ध की है। दूसरे प्रेमहीन व्यक्तियों की समभ में झानेवाली यह रचना नहीं है यह बताया गया है । शिवसिह सरोज में एक ब्रजनाथ का उल्लेख हैं जो रागमाला के कर्ता बताए गए हैं। इनका कवेताकाल संत्रत १७८०९ है। वाम चधत्कार! में आनंदघन जी ने स्वयं यह कहा है कि उन्होंने जज भौर बुंदावन के माहात्प का वर्गन त्रजनाथ की प्रेरणा से किया है । ( रे८ ) ब्रजः सरूप कछ मनमें आयो सो हुठ के बजनाथ कहायो' धामचमत्कार इससे ये श्रानंदवबन जी के समसामग्रिक ही प्रतीत होते है । 'घनभ्रानद कवित्त' में जो समस्त र्चचाज्ञों का संग्रह नहों है इसका कारण भी यही प्रतीत होता है कि इस संग्रह के बाद भी श्रशमंदवन जी कविता करते रहे हंगि । प्रथम परिच्छेद (ख) स॒जान यह बताया जा चुका है कि घनआानंद जी की फोई प्रेयणी थी जिसके श्रनुरोध से उन्होंने मुहम्भद शाह की सभा में धुर्प” गाया था और शहंशाह के कहने से नहीं गाया था। इस प्रेयतवीं का नाम (सुजाना था यह भी किवदंती है। निश्चित प्रणण कोई नहीं। इन एकाहः की व्यक्तिगत प्रेम की किसी न किसी प्रकार की किवदंती प्रेममार्गों सभी ऋषियों के साथ लगी है। बोचा, श्रालम, रसखान, ठाकुर सभी किसी न कि स्त्री या पुरुष विशेष के प्रम में श्रास्क्त कहे जाते है। इस प्रकार का ग्राभास इनकी कविताश्रों में भी मिलता है। घनश्रानंद ने भ्रयने कवित्त और सदबयों में प्राय: 'युजान! या उसके पर्याय का प्रयोग किया है। फलत: यह आशा होती है कि इस शब्द के प्रयोगों का परीक्षण किसी निश्चित लक्ष्य पर पहुंचाएग। | पर नीचे दिए गए प्रयोग विवरणा से किसी प्रकार के नि एय पर पहुँचने की भ्रपेज्ञा श्रौर अ्रधिकर संदेह में पड़ जाते हैं। यह निर्णय नहीं कर सकते कि सूजान कौव थी। १०४५ के लगभग पद घनमानंद जी के उपलब्ध हो छके हैं। उनमें 'लजान! के दर्शन नहीं होदे | ३५ उनकी निबंध रचनाएँ हैं उनमें से 'इश्कलता! में सुजान तथा उसके टिभिन्न पर्यायों का प्रयोग किया गया है। कवित्त सबौयों में भी ऋतुवर्णन, दर्शन श्रौर भक्ति के पद इससे रहित हैं। सब मिला कर २५० बार 'सुजान! शब्द का प्रयोग हुआ है। विवरण निस्न प्रकार से है। सुजान १८२ बार” जान १७८ बार' ( रेथ ) जातराय १० बार जानी ८ बार* जानमतनि शबार! ज्यानी १्बार श्र्थ भी एक नहीं है। ११ प्रकार के श्रर्थों में यह प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है । इसका आभास नीचे के उदाहरणों से स्पढ्ठ होगा। >श्रीक्षष्ण के प्रर्थ में (क) “हे को रे जिथरा परी तोहि कटा विधि वातन की है है धनआ्ानंद “वाम सजान सम्हारिहु चातक ज्यों सख जी है” कण कू० १५ (ख) “साधन पुज पर अनलेखें पे हो झपने मत एको न लेख्यौ तात सत्र ताज स्थाम सजान सो साहस औरें द्विये झचरेख्यौ! ही १४ २-राधा के ब्रर्थ में (क) 'हादा हैं सुजात शआजु दींजे प्राव दान नेकु वबत गुपाल देखि लोजे बनते बचने सृहि ४०७ (ख) “गोकुल नरेस्त नंद बंप को प्रश्॑स चंद सोभा सुख कंद प्रभ अ्मिय निवास हे सोहित चकोर चोंप तोश्ति मरथौ हो रहे सुनिय स॒जान सौन माधुर! बिसास है 2५ ८ 2९ ५ “जगत में जोति एक की रति की होति है पे तो ते राधे कीरति के कुल को प्रकास है” सुहि० १३० ३-राघा श्रौर कृष्ण दोनों के ग्र्थ॑ में “दोऊ गअ्रद्भुत देखो रसिक 'सुजान' क्यों न लेहि देहि स्वाद सुख आनंद अदोह को सुहि० ४२२३ ४--प्रिय पुरुष के श्र्थ में काह कंजमुखी के मधुप हैं लुभाने फूलें रसभूले घनआनंद अनत ही ८ +- »< सुंदर 'धुजान! बिन दिन इन तम सम बीते तभी तारनिनों तारनि गनत ही सुहि० २७ ५--प्रेयसी स्त्री के ग्र्थ में (क) तिरी सो ऐसी 'धुजान' तो श्रौंखिन दे खए अ्रंखि न आावति मोपे । सुहि० १८४५ (ख) अलबेली झुजान' के पायनि प्रानि परगौ ने टरयो मन मेरो वा! सुहि० १३ ६-ऐसे विशेषण रूप में जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिये प्रयोक्तत्य हो (क) 'राबर' रूप की रोति अ्नप नयी नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिय त्यों इन ग्राँखिन बानि अनोखी अ्घानि कहँ नहिं आन निश्टारिये एक ही जीव हुतो सूतो वारयौ 'ठुजान” सकोच औ सोच सहारिये रोकी रहे न दहे घनआनंद बावरी रीक के हाथति हारिये सहि० ४१ (ख) घनआ्मानंद मीत 'धुजान! लखे अभिलाखनि लाखनि भाँते रई। सुह्रि० १४५ ७ - ज्ञानी या चतुर के श्रर्थ में (क) एजू जान! जनाऊ कहा बिन आरति हो अ्रति या विधि आरत सुहि ० ४३१ (ख। हिय. की गति जानन जोग 'सुजान' हो कौन सी बात जो आहि दुरी सुहि०? ३८४ ८“-घन आनंद या आनंद घन विशेषण रूप में आन द के घन के 'जान' राय हौज् मिलेह तिहारे अनमिले की कुसल है सु० ६१ ( ४१ ) (ख) 'नयौई रसिक घनश्रानंद 'सुजान! यह किधौं प्यारी तेरे नेत खैन की निकाई है सुहि० ६४ १--जान' अर्थात् जीवन के दाता के अर्थ में (क) जीवहि जिवाय नीके जानत सुजान' प्यारे सुहि० ३५५ (ख) सब ही विधि जान करो सुख दान जियादत प्रान क्ृपातव हो! वही ३५१ १०-प्रेमी के श्रथ॑ में नित लाज भरे हित ढार ढरे निखरे सुखरे सुखदायक्र है >< >< >< घिरि घूंघट पैठत “जान हियो निपटे नित्रदे नठनायक हैं सुहि० ३७३ ११-व्यक्ति वाचक संज्ञा के रुप में (क) दुख घूम घ॒ धरि में घिरे घुटे प्रान खग अ्रब लौ बचे हैं 'छुजान' तन कौ ढ़रे सुहि० ५४ (ख) 'अधर लगे श्रानि करिके पयान प्रान चाहत चलन ये संदेसों ले 'सुजान' को! वही ५४ शब्द का स्वरूप भी एक नहीं है। सुजान के अतिरिक्त पाँच पर्थाव अयुक्त हुए हैं| जात, जानराय, जात, जाती तथा जानमनि । इनकी प्रयोग संब्या पहले बताई जा चुरी है ! जहाँ यह शब्द प्रयुक्त हुआा है वहाँ घनआनंद शब्द भी किसी न किसी हूप में मिलता है। ऐपे पद्म तो हैं जिनमें 'घनग्रानंद' है सुजान नहीं। इसके विपरीत देखने में नहीं श्राया। जहाँ दोनों है वहां विशेष्य विशेष ण भाव के ताप्पर्थ से प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं । ( ४२ ) 'गीत सुजाच श्रनीति करी जिन हाहा न ह॒जिय॑ मोहि श्रमोही ॥ >< ५८ >< हो घनभ्रानंद जीवन मूल दई कित प्यासिन मारत मोही ।॥' सृहि० हि यहाँ पर धन शभ्रान॑ंद! कोरा कवि नाम ही नहीं है। वाक्य में वह साभिप्राय प्रयुक्त है। अ्रन्यथा प्यासनि मारत मोही” बाक्यांश निरर्थक हो बयां । फहत: 'धन'नंद' को सुजान का विशेषण मानना पड़ेगा | इसके विपरीत आग तिहारियों हो घनआनेंद कैशें उदार भए रहनो है । जान है होत इते पै श्रजान जी तो बिन प।+क हो दहनों है? सूहि० धूः में घन श्रानंद विशेष्य लगता है जाब उपक्रा विशेषण । इस विशेष्य विशेष भाव से यह धारणा संदिग्ध हो जाती है कि घन आनंद! प्रेपो है 'सुजान'! प्रेयमी । ऐसी स्थिति में कृषि के शब्द प्रश्शेग की सहायता से किसी प्रकार ऐतिह्ा का निर्माण करना उचित लहों हो सकता | रचनाश्रों के परीक्षण से इतना निश्चित अ्र-श्य हो जाता है कि सुजान नाम को कोई ल्लरीथी जिसपर घन प्रानंद भुग्ध थे। उसके रूप सौंदर्य, विलास चेष्टाश्रों, वेश झता, नृत्य गाव आदि का वर्णा जो कवि ने किया हे वह स्तानुभ्त, अत्यक्षुदृष्ट है। स् जान के नाम से सब लिखा गया है जो पूर्वोक्त तत्व को प्रमाणित करता है। सुप्तोत्थ सुजान का रूप वर्णन करते हुए कवि कहता है कि (रत क्र आलस्य में मोई हुई सुजान सोकर उठी है। पीक पग्ों पलकों अ्रभी पूरी खुली नहीं हैं। मुख पर कुछ झ्लौर ही चमक है। बाल मुख पर फेले हुए हैं। शअंंगड़ाती, ज॑ंभाई लेतो, लज्जा अनुभव करती हुई वह दिखाई पड़ती है। अंग श्रेग में कामदेव की दीप्ति भुलक रही है। श्रोठों में श्रर्ध- स्फृटत बातें है। इसपर लड़िकाई को भ्र'नि छलकती' सी है | 5 बिल की लीक + मम कवर कक ए (रस आरस मोय उठी कछु सोय लगी लसीं पीक पी पलकी । वनपआानेंद श्रोप बड़ी मुख और सु फँलि फबीं सुथरी प्रलकीं | श्रेंगराति जम्हाति लजाति लखें प्रेंग श्रंग प्रनंग दिप भलके । अधरानि में आधिये बात घर लड़कानि की आ्रनि परे छलके । ६ ४३ ) सुजान मदिरा पीती थी । उसके मद-हुबे सौंदर्य पर कवि मुग्ध हुआ है। वह हँसती है; कुक क्रुककर भूगती है और चौंककर देखती है । पलक कुछ खुल जाते हैं श्रौर फिर ढक जाते हैं। जक सी लग जाती है। अपने को जब संभाल नहीं सकती तो नशे में भड़क कर बकने लगती है। ऐसे में लज्जा भी मानों रीभकर एक ओर खड़ी हो जाती है।' वह वाचती थी तो अ्रयने घघरे कटाज्षों से धूम मचा देती थी । श्रंगों का मटकना, नाव का चटकना और उसकी विश्लेष प्रकार की भावमुद्रा के प॑छे पीछे नेत्र लग जाते थे। नाच की श्रच्छाई पर तो बुद्धिमानी बिक जाती। घनानंद के प्राण उसके लाल तलुग्रों के नीचे नीचे लगे से डोलते थे उसकी बाणी का सहज रूप इतना अच्छा था कि वीणा के बोन भी भ्रच्छे नहीं लगते थे। हँस देती तो दाँतों की आ्ाभा से चंदन को भी फीका कर देती । इसे देखकर घन'नंद जो का मन कामरस में डूब जाता था। स्वर मदिरा के समान भादक था। इसके लिये सुजान का कंठ मदों सुराही थी; झ्रोठ प्याले तथा पीनेवालों के कान कंठ थे , वह वीणा बजाती दो पनानंदजी लट्टू हो जाते थे । वीसा उसके हाथ में रहती शोर गू जता था इनका मन । वह वीणा बजाती कि इनका मन स्वर भरने लगता था। सुजान सीड़ बढ़ाती श्र घनानद चौशुने रम से गरजने लगते । प्यार से तार खीचतो ता सुघड़ाई भा भागों लज्जित हो जाता थी ।* सुजान गाती थी तो लोग लोट पोट हो जाते थे। मानों उसके स्वर वाण थे जो बिनः कमान से छूटे ही लोगों को घायल कर देते थे |" स्वर इसका महीन था मोटा नहीं और जोश के साथ गाती थी मानों ताराज हो गई हो | इसका कारणा था रूप का गये ।* १--दँंग छाकत है छवि ताकत ही गुगनेंनी जब मधचुपात छके । घन आनंद भीजि हूँसे हुलस भ्रुकि कूलति घृमति चौकि चर्ग । पल खोलि ढकें लगि ज्ञत जक॑ तन सम्हारि सके बलके रुवको | श्रलबेली स॒जान के कौतुक पै शभ्रति रीकि इकौसी है लाज थक | २--सुहि० १२७ ३--वही १३३, १८६ ४--बही १३४ ५--वही १११ ६--रूप लाड़ जोबन गरहूर चोप चटक सौ, अ्रमखि अभ्रनोखी तान गावे ल॑ मिहीं सर | ( ४४ ) इसके भूषा सौंदर्य का अनेकत्र सामूहिक रूप से तथा एकैकश: वर्शान किया है जैसे उसकी साड़ी का; चूड़ियों का, छत्ले का भ्रादि आ्रादि । किसी दिन सजधज कर श्रपने मनभ[ावत मीत धनानंद जी को रिफ्'ने के लिये चली । मंजन किया । श्रंजन लगाया। भणषण वस्त्र पहिते। जुड़वा भोहें टेढ़ी तनकर शोभित हो गई । श्रंग श्रंग पर सौदर्य की चमक छा गई। मानो शोभा की नदी उफनाकर चली हो । उसका देखने का ढंग दुलार भरा था। वाणी श्रमुत मी मधुर थी भ्ौर ग्वासों से सुगंध निकलती थी ।* गौर वर्ण सुजान काली साड़ी पहनती तो ऐसी लगती मानों काली घटा में बिजली स्थिर हो गई है। श्रथवा चाँदनी को गोद में श्रमावस श्रा गई है । प्रथवा धृमपूंज में श्रगिनी ज्वाला है जो श्राँखों को शीतल लगती है या फिर शुगर ही छवि पर छा गया है ।* उसके गोरे द्वाथों पर पन्नी की पहुँचियाँ नौलमशि! की बनी पछेलिया और सु'दर चुड़ियों को देखकर तो कवि का मन सुजान के हाथों में हो जाता था ।* उसकी क्षीण कटि, कोमल पैर 'तन! इदर तथा मदघुणित नेंत्र, सहज कटाक्ष श्रादि का वर्णात भी आलंकारिक ढंग से किया गया मिलता है। उसके हास्य तथा लज्जा से जो सौंदर्यवृद्ध होती थी बवानंद के भावुक हृदय ने उसे भी अंकित कर दिया हैं । चंद्रमा से भी भ्रधिक सु दर उसका मुख सहज प्रिय था पर घनानंद के साथ हँसकर तो ऐसी लगती थी मानो चमेली की चौलरी माला वच्च पर फैला दी गई द्वो । लज्जा के लिये घूषद निकालती तो लज्जा ही लज्जित हो जाती | श्राँखों में बातें हो द्टी जाती थीं वल्लावरण : व्यर्थ रहते । शील की सूर्ति सुज'न पर लज्जा का यह सौंदर्य इतवा बरसता कि वह देखने से भी दिखाई न पड़ती थी उसके आालिगन, सुरत, सुरतांत श्राजस्थ, सुप्र सौदर्थ श्रादि के जो वर्णन किये हैं वे यथार्थ और प्रनुभत लगते हैं। इन वर्णवों को पढ़कर यही पगुभाव पं सड-अकरमंध जप १--वही १६७ २--वही २३८ ३--वहड़ी ११५ ४--देखिए सुदि० २०, १६, १०२, तथा १०६, १८5, ४०२ ५-सुहि० १७३; १७४ | ( ४४ ) ता है कि कवि ने अ्रपत्री प्र यस्ती का वशुन किया है, किसी कल्पित नागिका का नहीं | ऐसे पद्य भी मिलते हैं जितमें आनदघंव जी के व्यक्तिगत जीवन की कहानी कही गई मिलता है प्लौर उनमें सुजाद के विरहु का सताप व्यक्त है । तोचे लिखा छप्वव देखा जाय । कवि अउता दशा पर खेद अवुभव करता है के उप्चक्त हुदव में जती बात रहा है वह किसे बंचाएु। हृदय जला ता है। दुःखबाल बेरे हुए है! घुजान का दुअह खबोग और छ्गन में उसी का संयाग शदा बना रहुता है; सवंध बयय! नहीं जाता। मं इधर उबर भंठकता हे | दँ आरा है के घुभ ज॑से को: |] पं बनान से न्थ्पे चुप ज्न्न्नो ८ हि ५ // | पट १८)] च््ा /भ न । किक 8 | //2)| क। ्म्म्ध्यु +-49 उनका ४7 सः ! व्ल्व्प्यु पके अं £4| अफिकर-. 5 र्क् न न्श हा] श्र 5 कद ह।& ्' (| ््प / ५ हे ०, मि २64 हि | नजर हर >< >< इस पद्च में अध्यात्म दृष्टि चाहे कुछ भी अश्रथ देखे पर यह भक्तिभाव की श्रमिव्यक्ति नहों लगती । न'ही परपरागत विरह का वर्शान है। 'सुजान शब्द ऐसे ढंग से प्रयुक्त हुआ्ना है कि वह पद्च के भाव को श्रपने ऊपर केँद्रित करता है। कवि ने श्रपना दुःख इसमें गाया है । कुछ बाह्य प्रमाण नी ऐमे मिलते हैं जिनसे प्रानंदघत जी का सुजान से प्रेम प्रमाणित होता है। ब्रज भारती, आषाढ़, संवत १६९५-पृष्ट ५ में निम्न लिखित पद्म 'स॒जान' संबंधी प्रकाशित हुआझ्ला है इसमें ऐसे व्यशक्तयों का जो, बाद में बढ़े प्रसद्ध संत बने हैं--बारांगनाग्रों से प्रेम दिखाया गया है-- चितामरणि होकरियाँ उस विल्व मंगल छो सुरकाया | रूपमंजरो रूपचर॒ुषा तब नंददास उरकाया | फिर सुत्रान मह॒बूब खूब से झानंद्घत मन माया श्री हरिदेव सुजान सखी श्रव श्रीघरन् श्रपताया >< >< >< १-वही २८६ ( ४६ ) पुजान महबूब से श्रानंदधत का प्रम इसी प्रकार था जिस प्रकार रूप- मंजरी से नंददामस का, चिताप्णि से विल्वमंगल का तथा सुजान सखी से श्रोवर का | पद्च के लेखक श्री हरदेव हैं। पद्य का “मह॒वृत्र! (प्रिय) शब्द विशेष विचारणोय है। इश्कलता में श्रनेकों ब्रार इस शब्द का व्यवहार हुआ है । “जिगर जान मह॒बूब श्रमाने को बेदर्दी दैंदा है” में सहवुत्र 'जाव! प्रथवा सुजाता का विशेषण हैं। ऊपर के पद्च में साहवर्थ नियम स यह भी ध्वनित होता है कि घखुजान काई वेश्या थो। विल्वमंगल को अपने प्रेमवराश में वॉवनेवाली वेश्या ही थी । ह लखनऊ के श्री भवानोशंकर जी याज्ञिक से श्रानंदधव के विपय में चार भड़ीवा छद प्राप्त हुए हैं जिलसे सुजान के व्यक्तित्व भौर अ्रानंदधन के साथ उसके संबंध पर प्रक।श पड़ता है । पहल सवया में भगवान से श्र/वंद्धत ने यह प्रार्थना व्यक्त की है कि वह उन्हे सुजात के इजारबंब की जू बना देता जिस से कभी मुजान खुजाते में उन्हें छू लेती या कभो वहीं रंगता हुआ उसके शअ्रयों का स्पर्श पा लेता । उसका रस पान (रक्त) भी कर लेता तथा कभा पकड़ा जानते पर उप्के हाथ से मरने का सोभाग्य मो पा जाता । कपहुँऊ खुजावद में छुबती तिहि आनंद को तब हो भरती। तब रेगतों केहुक अंगन मैं निज भाग तिही रस सा गरतो । कहूँ चौंके के भाग न मो गह॒ती तब हो उबर हाथन सा मरता। वह ईस कहूँ धनआानंद को जो सुबान इजार की जूँ करता ॥ हर है 2५ इस पद्म में घवान द के ऐसे कवित्त सर्वोयों की आर कठाक्षु है जिवमें वह सुजात के पैरों का मताँ श्रपते मन को बताते हैं। अपने सिर को उप्के पैरों पर घिते हैं । दूसरे कवित्त में झ्रान॑ंद धन को “हुरकिनी को बंदा कहा है । तीसरे में कहा गया है “हुरकिनी सुजान तुरकनी को सेवक है, तजि रामनाम वाकों पुजे काम धाम है! । चौथे पद्य में इसी प्रकार के जुगुप्सित अनेक संबंध धतानंद और सुजान के व्यक्त किए हैं। सारा पद्य ही उद्धृत करना ठीक रहेगा । 'मुदित भ्रान दघत कहते विधाता सों यों, खाल को अ्रसन दोजोौ गारी मोहि गावेगो | -मो मुख को पीकदान करियौ सुजान प्यारी, हुरकिनो तुरकिनो शुक्क सुख पावेगो | ( ४७ ) शोती को इजार दुपटी को पेशबाज भौर, देहुने रुमाल ताको पूछना बनावेगी | पगिया पायंदाज कीजियो गरीबनिवाज, मरे गए मों मन पलंग पर आवेगी।॥ र्य ५ हर इसमें भड़ीवा कार की निदा के भाड़ भंकार में कुछ ऐतिहांसक तथ्य प्रत्त हीता हैं। यह तो सिद्ध होता हो है कि आनदबन का सुजातन से प्रेम था। साथ ही बह दुर्रठनी श्र्थात् यवनी वेश्या थी, यह भी प्रभारित ही जाता है। घतानंद जी ने सुजान को ही भक्तिबीवत में भी पृज्य बयाया था, इसका! भी संकेत-.- ताज राप नाम बाको पूजे काम धाम है! में मिलता है। निष्कर्ष में कहा ज्ञा सकता है कि 'आनंदवता और “सुजान! के प्रेम की कहानी सत्य है | राग कल्प मे में दो ऐसे राग मिलते हैं जो किलो सुजार के लिखे प्रतीत होते हैं। इनमे मृहम्मदशाह से भी उम्चका एंएंत्र व्यक्त होता है। पहला पद्य इस प्रकार है-- कि: पा करो रे सो मन सइयाँ तत मत धर न्योछ्चावर करहूँ परहँ पहयाँ । मुहस्मदशाहु सुजान अब कहि भाग हमारे जागे लेहु बलेया सुरअन सइयाँ दूसरा यह है सिपत मणि अल्ला नवीयमणि सुहम्भद दोउ जगमरि चत्र दिश मासूम पीरनमणि सुरतज्ञा अली कीन: वासर मणि दिनकर रजनीमणि चंद्र तारनमशिस्र॒त्र मलकनमरणि जबंरइल यह सब जगत में लीनो वीन: पातालमणि शेष शेषबमरशि अवनी अ्रवनिमणि नाम नाममणि श्ररस भ्ररससमणि कुरस लौहमणि कलमा तुरंगमरि बुराक गजनमशि एरावत राजनमरणि इंद्र गिरनमणि सुमेर च॑ंचलमणि मोन किताबमणशि कुरान दीनमणि कलमा भ्रवदनमरि आादम कामनमणणि हवा रागनमरि भैरों भाषामरणि ( डेप ) ब्रज. को जोतिमणशि दीपक दीपकमरि नार दोजक शीतल भन््े मिहिस्त एती मात 'सुलानः अ्रस्तुति कीनी' पहले पद्म में 'सुदान! मुहम्मदशाह से विनय करती प्रतीत्त होती है । उपान का सुहस्मदशाह' का विशेषण मानें तो 'परहु पह्याँ” वाली पंथ» का श्र समंजस नहीं होता। यह राग का पद है। सुजानस्थात यह& कभी सुहम्भ्दशाह के राथने गाया होगा। दूपरे पद्च में तो केवल 'घुजान! का यवनी होना प्रमा।गत्त होता है। धन! तंद के कुछ पश्च ऐसे भी हैं जिनमें कवल सुजान का व्यवहार है घनानंद का ल्हीं। संग्रहणरों ने उन्हें सुजान का सम लिया है पर रचना शली इन्हीं की है । नवीनक्ृत 'सुधातार संग्रह में पज।न नाम से कुछ पत्च मिलते हैं जिनमें निम्वलिखित स्वेश्ध शिक्षित रूप से शानंदवन जी का है ॥ ध्यु गार संग्रह में उन््हों के जम से दिया भी है । आपु ही तें तन हरि इसे तिरछे क|र नैतन नेह के चाउमैं। हाय दई सु बिसारि दई सुधि कसों जरी सु कहौ कित जाउ मैं | मीत स जान श्रमीत कहा यह ऐसी न चाहिए श्रीति के भाउ मैं । मोहनी म्रत देखिबे कों तरसावत हो बसि एकही गाउ मैं' >< >८ >< >< दो पद्म श्रौर हैं जिनमें एक सबेया है दूसरा कवित्त | वेदहु चारि की बात को वाँचि पुरान श्रठारहु श्रंग में धारे । : चित्र हुँ श्राप लिखें समभैकवितान की रीति मैं वार तैं पार ॥ राग कों श्रादि जिती चतुराई 'सुजान! कहै सब याही के लारे । दीनता होय जौ हिस्प्तत की तौ प्रवीनता ले कहा कृप मैं डार ॥ >< »< >< >< पहले तौ नैनव सों नैनन मिलाय फिर, सौनत चलाय हरिलीनौ चित्त चाय बाय | श्रब क्यों कहत गुरु लोगन की संक मीहि, मारत निसंक काम कासों कहाँ जाय जाय । 2 2 नल लल ४ नकल 27 कमल मम किक के हक (--धनानद ग्रथावली, भूमिका, पृष्ठ ६५४ से उद्धुतत २--देखिए घनानंद प्र थावली, प्रकीर्णा २६ । . ( ४६ ) एरे निर्दयी कान्ह कहत सुजान तोसों, तेरे बिन देखे झाँखें लहै कर लाय लाय | दूर जो बसाय तो परेखो हूँ न श्राय अरे निकट बसाय मीत मिलत न हाथ हाथ ॥| यह दोनों पद्म घनानंद की प्रेयसी द्वारा रचे माने जाते हैं । राग कल्प- द्रम के प्राप्त हुए पथ्चों की रचनाशली इन पद्मों की शली से भिन्न है। पहली रचना श्रत्यंत साधारण है। ये पद्च भ्रपेक्नाकृत परिष्कृत शली में हैं । सुत्रात वेश्या के विषय में कवयित्री होने की कोई किवदंती तो प्राप्त नहीं होती है जैसी कि आलम के 'मेख”'ं की है। इनके साथ ही पं० विश्वनाथप्रसाद सिश्र ने घतानंद ग्रथावलों की भूमिका में सुजान कृत ११ पद्यों का उल्लेख किया है। उनमें से एक तो यही है जो 'सुधासाराः में प्रात है। 'पहले तो नैनन सों तैनन मिलाए! श्रादि और शेय दस आपने उद्ध त किए हैं, इन में से दुसरा पद्म निम्त प्रकार हैं-- हेत पगी रस भीनी चितौन दिते हम त्यों अखियान में आवत। रूप सलूँनी दिखाय महा हिय में श्रति आनंद को घन छावत॥ सुजान ए प्रात लगे तुम ही सों सु क्यों निरमोही कहां तन तावत॥ माहनी डारि के मोहन जू वह मोहती मूरत क्यों न दिखावत ॥ 3 ५ 2५ ५ यह पद्म घनानंद का हैं। दूवरी पंक्ति में आनेंद को घन! नाम भी दिया हुआ है। पहली पंक्ति में उनकी श्रभ्यस्त शब्दावली दिखाई देतों है । भूल से सुजान के ताम कुछ पद्य संग्रहीत हो गए हैं । शेष नौ कवित्तों की शैली वही है जो सुधासार के पतद्मयों को है। कवि का नाम “सुजाव कहैं! या 'कहत सुजान' श्रादि शब्दों में श्राया है। यही शब्द उन दोनों प्यों में है। भतः यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये सभी पद्म एक सुजान! के लिखे हुए हैं। यह 'सुजान' मुहम्मदशाह को नर्तकी घतानंद की प्रेयसी ही है यह निश्चित प्रमाणों के भ्रमाव में कहा नहीं जा सकता । इन्हीं में से एक पद्य में 'सुजान- राय! नाम आया है। इसे देखकर अनुमाव किया जा सकता है कि 'सुजात ६४६४८ १---संंधासार, पन्ता २३४, तागरी प्रचारिणी सभा, काशी खोज विभाग । २--देखिए घनानंद ग्र थावली, भूमिका, पृष्ठ ६२ | ३--घनानंद प्र थावली, भूमिका, ० ६२ । द् ( ५० ) ताम से रचना करतेवाले का नाम 'सुजानराइ” है। यह स॒जानराइ '“पातुरराइ! की तरह वेश्या भी हो सकती है और दूसरा कोई पुरुष कवि भी | 'घनप्ानंद ने भी सुजान के लिये 'जानशाइ! पर्याव का प्रयोग किया है यह दिखाया जा चुका है। इसलिये यह भी संभव है कि इन्होंने ही कुछ रचनाएँ सुजान! या 'सुजानराय' नाम से की हों पर यह श्रनुमान ही है। निश्चित आधार के बिना यह निष्कर्ष निकालता कि घनग्रानंद की प्रेयसी सूजान थी, उसी ने पद्य बनाए, उसका पूरा नाम सुजानराइ था आदि संदिग्ध है। स'भव यही लगता है कि 'कहत सुजान! श्रादि शेली से अ्रपना नाम रखनेवाला कोई दूसरा कवि है। राग कल्पद्ुम के दो राग भले हो नर्तको सुजानकत हों। समस्त विमर्श का निष्कर्ष यही निकलता है कि घनानंद जी को प्रेमिका सुजान नर्तकी थी। इसलिये उसके नाच, गान, वेष भषा, सुरत, मदपान श्रादि का वर्णन इन्होंने किया है। यह मुहम्मदणाह के दरबार में भी गायिका थी जेसा कि राग कव्पद्रम के शागों से व्यक्त होता है। उसका कवथित्री होना प्रमाणपुष्ट नहीं। घनप्रानंद ने जो अपनी रचनाश्रों में सुजानव के श्रनेकों पर्याय विविध श्रर्थों के साथ प्रयोग किए हैं उसका कारण कवि की प्रेमपरक रहस्य दृष्टि है। भौतिक प्रेम को व्यापक आध्यात्मिक रूप देने की दृष्टि से व्यक्ति वाचक शब्द व्युत्पत्यर्थ के सहारे गुगावाचक विशेषण मान लिए हैं । सुजान का श्रर्थ सुजान (चतुर, ज्ञानी) भ्रथवा सुजान जीवन देनेवाला मात कर स्त्री, पुरुष, ईश्वर, मतुष्य, सभी के लिये उसका यथावसर प्रयोग किया है । यही नियम उनके अ्रपतने नाम के विषय में लागू हैं । पद्म और निबंध रचनाश्रों में जो 'सुजान? का परित्याग हुआ है उत्तका कारण भक्ति जीवन का अ्रपवाद प्रतीत होता है जो उन्हें सुजान की रट लगने से मिला होगा । इसका आ्राभास हमें भडौग्ना की यह पंक्ति देती है 'तजि राम नाम वाको पुर काम धाम है ।! श्रतः सुजान शब्द के विविध तथा अश्ावंत्रिक प्रयोग से प्रेयसी की सत्ता में श्राशंका करने की आवश्यकता नहीं । १--तुम्हरे बिरह ते विकल दिन रात गोपी रहीं मुरभाय कबहुँ न देखी हँसती | फोलाहल केलि जहाँ जहाँ कीन््हीं तहाँ रची चीन्हीं वा कालिदी कुल कुंजडार खजती। रावरे रहते ते लहत सब ठोर दिल अरब उन्हें द्वारिका है सोममई लसती। मेरे लेखे यह ब्रज ऊजर सुजानराइ जिहीं श्रोर बरसे कान्ह तिहीं भ्रोर बसती । रचनाएँ १. इतिहास तथा रचनाओं का विवरण, आनंदधन जी की कुछ रचताओ्नों का प्रथम प्रकाशन भारतेंदु श्री दरिश्चंद्र ने छुदरी तिलक? में कराया था। इसके बाद सच् १८७० में उन्होंने हो 'सुजान सतक' नाम से इनके ११६ कवित्त प्रकाशित किए। सन् १5५६७ में श्री जगन्नाथदास रत्नाकर ने 'सुजान सागर! का प्रथम संस्करण काशी के हरिप्रकाश यंत्रालय द्वारा प्रकाशित किया। इन्होंने आनदघन के शब्दों की एक श्रनुक्रमणी भी तैयार की थी। वह काशी नागरीश्चारिणी सभा के “रत्नाकर संग्रह” में श्रद्यावधे सुरक्षित है। सच १६०७ में काशी- प्रसाद जायसवाल ने वियोग बेलि', विरह लीला” नाम से नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित कराई थी । 'सजान सागर” में ही कुछु पद और मिला कर रसखान की कविताश्रों के साथ श्री श्रमीरसिह के सपादरन में 'रसखान आर घनानंद' पुस्तक काशी नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा सन् १६२६ में अकाशित हुई। इसी का संक्षिप्त संस्करण “घनान द रत्तावली' नाम से भारत वासी प्रेस प्रयाग, ने भी प्रकाशित किया था । ग्रब॒ तक के इन प्रकाशनों में कवि की समस्त उपलब्ध रचताग्रों के संग्रह करने का तथा उनका वंज्ञानिक परीक्षण करने का प्रयत्न नहीं किया गया था। सच् १६४२३ में लखनऊ के श्री शंभुप्रसाद बहुगुता! ने घन आन द! तामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें २०५ कवित्त, स्ये दोहे आदि, आर ५४८ गेय पद है। पतद्यों का विषयक्रम से विभाजन किया है। उनके अपनी ओर से शीषंक भी दिए हैं॥ कवि की जीवनी, काव्यानुशीलन, श्रादि पर ८५ पृष्ठ की विशद भूमिका भो भावकतापूर्ण भाषा में आपने लिखों है। इसके भ्रतिरिक्त वियोग बेलि! के ८१ पद्म ओर प्रेमपत्रिका' के २६ पथ भी इसमें प्रकाशित हैं | ( ४२ ) बहुगुना जी ने श्रपने समय की उपलब्ध समस्त सामग्री का उपयोग किया था जिसका उत्लेख उन्होंने भूमिका में निम्त प्रकार से किया है-- १, नागरीप्रचारिणी सभा की प्रकाशित खोज रिपोर्ट । २. श्री भवानीशंकर जी याज्ञिक के संग्राहालय की हस्तलिखित पुस्तकें $ ३. श्री नवीनचंद्र जी की 'वियोग बेलि” की प्रति । ४. कष्णान द व्यास का राग सागरोदभव । ५, ब्रजनिधि ग्र थावली । ६. नागर समुच्चय । ७. रसखान और घवानंद | ८, हिंदी साहित्य का इतिहास तथा शिवर्सिह सरोज । ९, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, हिंदुस्तानी, सरस्वती, माधुरी, ब्रज भारतीः . आदि। १०. व्रजमाधुरी सार | ११, कवि कीतंन | बहुगुना जी ने भूमिका में लिखा है कि छतरपुर दरबार में कहे जाने- वाले बड़े पोथे के विषय में दरबार से पूछ ताछु की गई तो लायब्नेरियद साहब ने उत्तर के पत्र में लिख भेजा 'धनानंद की कोई रचना श्रथवा ऐसा कोई ग्रंथ हमारे पुस्तकालय में नहीं हैं ।! ... इनकी रचनाश्रों को एकन्न करने का तथा उसका व॑ज्ञानिक संपादन, करने का एक मात्र श्रेय पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र को ही दिया जावेगा । इनके परिश्रम से पूर्व कवि को रचनाओ्रों का दशशांश भी प्रकाशित नहीं था। भ्रापने तीन पुस्तकें इनकी रचनाश्रों के संग्रह की प्रकाशित की हैं । पहला धनानंद कवित्त है जिसमें ५०५ पतद्मयों का संग्रह है। इनमें” ३ दोहे तथा दो सोरठे हैं। शेष पाँच सौ कवित्त सबंये हैं। इनमें भी स्वेये रृष८ हैं कवित्त २१४७। यह कवि का सबसे प्राचीन सग्रह है। उन्हीं के समकालीन उनके प्रशंसक ब्रजनाथ ने इसे संपन्न किया है। संपादक ने दो सब्ये प्रारंभ में श्रौर २ कवित्त तथा ६ सब्वये श्रंत में कवि तथ उसकी क्षति- प्रशंसा में लिखे हैं। संग्रह उन्हीं का है इसका स्पष्ट उल्लेव उन्होंने किया है ॥ न जाने क्या कारण श्रा उपस्थित हुआ था कि ब्रजनाथ को इन पत्यों की रघ्बा या सग्रह करने में बड़ा कष्ट हुआ। उन्हें अग्रपनी लज्जा बड़ाई तथा स्वभाक ( *रे ) लक इनके लिये खोदा पड़ा । इस कष्ट के अनेक हेतुप्रों की कल्पना को जा सकती है | एक तो आनंइधत को पृत्यु ग्रहस्मात हुई थो। संभव है उनकी रचनाएँ एकत्र न रही हों । आतंदवत जेपे प्रमोन्तनल कि ले अउतनी रच- नाओों की सुरक्षा की उपेक्षा रखी हो श्ौर उनके जीवत के उररांत संग्रह का कार्य हो गया हो । ब्रजगथ को यह उक्ति कि 'कहै ब्रजनाथ बहु जतननि आए हाथ, ऐसे ही किपती कष्ट को और संकेत करती हैं । दृप्तरा कष्ट यह भी हो सकता है कि कवित्तों में सुजान की छाप होने से वे वेश्वा को प्रशंसा के समके जाते हों श्रोर कविसमाज में इस लिए उनका आदर न होता हो। इय स्थिति में भी संपादक को संग्रह करने में कष्ट हो सकता है | ब्रजवाथ की नीचे लिखों कऋष्टो क्त में ऐसी ही किसी बात को ओर संरत है । वे कहते हैं-- कैं ग्रति कष्ट सों लीने कवित्त ये लाज बड़ाई सुभाव को खोयको, सो दुख मेरो न जाने कोऊ ले बखाते लिखाइये मोहुकों गोयकों । >< >< 4 लज्जा, बड़ाई तथा स्वभाव त्यागने में तथा छिपकर लिखने में तो ऋाव्यकृति की किप्री प्रकार की निंदा ही कारण हो सकतो है। ब्रजवाय तो यह सब इसलिये कर गए कि उनकी काव्यशैली वथा प्रेमानूभूति को सचाई श॒व॑ मािकता पर अत्यंत मुग्घ ये | वे स्पष्ट कहते हैं कि मैंते अनेकों दिन तथा रातें काव्य रस में माय” कर बिताई है । इन कवित्तों का रस तो वही ले सकेगा जिसकी श्राँखों में प्रेम की चोट लगी होगो। पंद्चित होने से य हाँ कार्य न चलेगा । “कैसी करों भ्रब जाहु कितें मैं बिताएँ है रैन [दिना सब मोय के । 'प्रम की चोट लगी जिन भ्राखित सोई बहै कहा पंडित होय के ॥ >< >< >< यह भी कल्पना को जा सकुृती है कि लौकिकरानुभूति के प्रेम के पद्मों को कवि ने आरंभ में लिखा हो और संत होते के बाद सोचो सरल वाशो में गेयपद तथा लीलानिबंधों को ही रचना करना ठोक समभरकर पहली कविता की उपेक्षा कर दी हो । कुछ भो हो इतना स्पष्ट है कि बन नंद कवित्त' का संग्रह बड़े कष्ट के साथ ब्रजनाथ ने ही किया है। विश्वनाथ जी ने अपने संपादन का आधार श्री नवनीत जी चतुर्वेदी की भ्रति को माना है। संपादक का विश्वास है कि प्रति श्रपेज्ञाइृत ग्रधिक प्रावोन ( ५9 ) है, शुद्ध स्पष्ट तथा व्याकरणसंमत तो है ही, जैसा कि पुस्तक के नाम से भी स्पष्ट होता है। उसमें कवि के गेय पदों का संग्रह नहीं है । कृपाकंद निबंध के: भी कुछ ही पतद्च संग्रहीत हो चुके हैं सब नहीं | दानलीला तो मध्य में छेद संख्या ७०३ से ४१२ तक भा गई है। लीलानिबंधों का इसमें संग्रह नहीं है । संग्रह का नाम 'धनआनंद कवित्त' संग्रहकार का ही है या बाद में किसी का लिखा हुआ यह निःचनयरर्वक तो नहीं कहा जा सकता। अनुमान यही होता है कि ब्रजनाथ जी ने ही यह नामकरण दिया था। उन्होंने इसी प्रकार के नाम की श्रोर श्रपने एक प्रशस्ति कवित्त में संकेत किया है। चोर चित वित्त के कि पैठि बरजोर हिये, कंधों विलसत ये कवित्त घन जी के हैं। ब्रजनाथ प्रशस्ति ३ घन जी के कविच स्यथात् घनश्रानंद कवित्त का ही सूचक है। इसी पुस्तक (धनभ्रानंद कवित्त) से हस्तलेख के श्राधार पर रत्नाकर जी ने सुजान सागर' प्रकाशित किया था। इसी के भ्राधार पर बाबू भ्रमीरचंद जी द्वारा संपादित धसुजान रसखान” नामक पुस्तक का प्रकाशन नागरीप्रचारिणी से हुआ था । इन दोनों प्रकाशबों में संग्रह की खंंडित प्रति का उपयोग हुआ है, वास्तव में नागरोप्रचारिणी सभा के तथा रत्नाकर जी के प्रकाशन के श्राधारभूत जो हस्तलेख हैं वह रत्नाकर संग्रह में भी विद्यमान है। वहाँ दो पुस्तकें है, एक मध्य में खंडित है दूसरी अंत में । इन दोनों को मिला लिया जाय तो संग्रह पूर्णा हो जाता है। पर उन दोनों संपादकों ने यह नहीं किया | श्रंत की खंडित प्रति के श्राधार पर संपादन किया। मध्य में खंडित हस्तलेख श्री नवनीत' चतुर्वेदी को है। इसका उल्लेख तो रत्नाकर जी ने किया है पर प्रयोग उन्होंने नहों क्या ऐसे प्रतीत होता है। संभवत: उन्हें यह प्रति बाद में मिली है | पन्झानंद कवित्त में जो छंद क्रम है उसी क्रम के हस्तलेख दो प्रकार के प्राप्त हुए हैं। एक तो ४५४ पद्यों के भर दूसरे ५५५ पद्यों के | अंतिम संग्रह प्रामाणिक तथा एग् है। घनश्रानंद कवित्त के सम्रह में ऊपरी दृष्टि से कवित्त सबेयों का साधारणा' संग्रह जान पड़ता है। पर ध्यानपूर्वक देखने से उनमें कुछ व्यवस्था की गई है, ऐसा भान होता है। संग्रह करनेवालों ने विपयक्रम से ही उन्हें रबखा है। यद्यपि बीच बीच में प्रायः उसके नियम भंग हो जाते हैं पर फिर भी एक ( ४४५ ) भावधारा का क्रम बना रहता है। इसके प्रारंध के दो पदों में आलंबन के रूप का वर्णन है | इसके प्रवतर छंद संख्या ६८ तक विरह वेदता की विवृति है । फिर कवित्त संख्या २२३ तक प्राय: प्रेमोपालंभ के पद है। इसके बाद पद्म संख्या ३२७ तक संयोग वर्णन है जिसमें सुजान के रूप, स्वभाव विलास, चेष्ठाएँ, नांच, आसवपान, शयन ग्रादि प्रसंग तथा संमिलन कालीन अभिलाष का वर्रात हुआ है। पद्य संख्या ३२८ से ३६० तक कृपा संबंधी पद्च हैं जो कृपा कंद निवंध' के है। इनके अ्व तर श्रा कृष्ण, राधा और गोपियों की विविध मधुर लीलाप्ों का पद्म संख्या ४७२१ तक वर्णत हुमा है। कवि को प्रसिद्ध दानलीला भी इन्ही में प्रागई है। इस प्रसंग को “मचुरा भक्ति! कह सकते है। ब।द क॑ ५७ पद्यों में फिए लौकिक झाुंगार को झ्रावृत्ति हुई है जिसने मिलन, वियोग, उपालंम रूप्प्रभाव अ्रभिनाष भ्रादि सभो विषय प्रकीर्ण रूप से आए हैं। इप भाग में किस प्रकार की व्यवस्था के दर्शा नहीं होते । संभवत; सग्रहकारते इस भाग को बाद में जोड़ दिया हो। जिप ब्यवस्पा का ऊपर उल्लेख किया गया है वह अविच्छिन्न नहीं है। मध्य मध्य में कुछ पद्म दूसरे प्रकार के श्रा जाते हैं पर विच्छेर ऐस। नहीं कि संग्रह में कोई व्यवस्था ही न प्रतीत हो । घनआानंद और आनंदधन इन दूसरा संग्रह प॑० विश्वताथ प्रसाद परिश्न ने हो संव्रत् २०१२ में प्रकाशित किया । इसमें कवि की अन्य रचताग्रों के संग्रह का प्रथम श्रय/स है | यहाँ कवित्त सबेयों के अतिरिक्त कवि के ५०० पद 'वियोगवेलि, इश्कलता, यपुनायश, प्रीतिपारस तथा प्रेमपत्रिका प्रकाशित हैं। अभानंबर जी जगो की रचनाएं भी साथ में तुलना को दृष्टि से प्रकाशित हैं। कुछ कवित्त सबैयों की आ्रावृत्ति हो गई है इभलिए छद॒ संख्या बढ़कर ७०१ हो गई हे कवित्त सवैयों का इसमें मुख्य संग्रह 'सुजानहित प्रबंध! है। इस संग्रह के विषय में संगादक महोदव का ध्यात है कि हितहरिवंगी संरदाय के किपी भक्त ते यह किया है। इसलिये इसके नाम में हिंता शब्द जुश हुप्ा हैं। प्रबंध शब्द इस सम्नह में प्रतीत होता है. कवि के अ्रन््य प्रयोगों के श्रतु- करणा में हुआ है । कवि ने वर्शावात्मक प्रबंध जे प्रियाप्रसद या इुष्ण कौमदी को प्रबंध. कहा हैं यद्यपि ये सब वर्शनात्मक रचनाएँ. हैं। 'सुजानहितप्रबंध', बह पूरा नाम यदि कविकृत होता तो इमको व्याख्या में कोई दोहा ग्रादि अभ्रवश्य होता ( ४६ ) जैसे प्रिय।प्रसाद' झ्रादि में है!। पर जैसी भावक्र्म फी व्यवस्था वर्शानात्मक निबंधों में रहती है वेत्ती सुजानहित में नहीं है, संग्रहकार ने कवि की समस्त रचनाओं में या उसकी चितनप्रवृुत्ति में भलेही प्रबंधन देखा हो। इसके एक हस्तलेख में प्रबंध वाम हैं भो नहीं। केवल '“सुजानहित” ही शीप॑क है। पंं० विश्वनाथ जी ने अपनी “घन आनंद ग्र थावली” में 'सुजानहित' ही नाम रख रकखा है | इसमें छदों का क्रम धनश्रानंद कवित्त के क्रम से भिन्न है। इसक्रे हस्तलेख दो प्रकार के मिलते हैं। एक प्रकार के हस्टलेखों में ४४८ छंद हैं । दोहों सोषठों की गणना नहीं की गई है। उन्हें भी गिनने से ४५४ छंद होते हैं। दुसरे प्रकार के हस्तलेखों में लगभग ५०० छेद संख्या मिलती है। झौर दोहो की गिनती करने से ५०५ छंद होते है। इससे यही भ्रनुमान किया जा सकता है कि पहले प्रकार के हस्तलेखों की परंपरा किसी श्रधुरी प्रति के श्राधार पर चल पड़ी है। 'धनानंद कवित्त' से इसमें बड़ा भेद है । 'दान लीला! और 'कृपाकंद निबंध! इसमें पृथक कर दिए है। घनानंद कवित्त में वे मध्य में ही अंतभर्त है। छंदों का क्रम भिन्न है। इसके आधार के विषय में श्रो विश्वनाथ जी का विश्वास है कि 'घनानंद कवित्त” की कोई अस्तव्यस्त प्रति ही सामने रखकर सुजानहित संकलित हुश्रा है। इसलिये यह बाद का किया हुआ जान पड़ता है। पर छदों के क्रम को देखकर तो प्रनुमान यह होता है कि 'घनआनंद कबिचा! इसका श्राधार नहीं है। यदि ऐसा होता तो संग्रह में कसी न क्रिसी प्रकार को व्यवस्था श्रवश्य होती । उसके अनुसार होती था उससे भिन्त। व्यत्रस्था के श्रभाव में इसके पश्चात्संकलन के अनुमान का हेतु भी सत्प्रतिपक्ष ही है । कवित्त स्वेयों के दूसरे सम्रह “कबित्त संग्रह' तथा 'सुजान विनोद के ताम से भी मिलते हैं जो परकालीन हैं। क्योकि इनमें कुछ छंद नए भी मिलते हैं | जो छंद पनआ्ानंद कविच? में नहीं है इनमें सम्रहीत हैं । कवित्त सर्वयों का तीसरा संग्रह खंड 'कृपाकंद निबंध है। वह भी प्रतीत होता है कि 'सुजानहित प्रबंध' के संग्रहीता का ही संग्रह है। निबंध शब्द उसी श्रोर संकेत करता है । मुक्तकों के संग्रह के लिये निर्बंध श्रादि शब्दां का व्यवहार उन्हीं क किया हुमा प्रतीत होता हैं। वह इसमें पृथक से दिया "हुआ है। १--या प्रबंध को नामह पायो प्रियाप्रसाद, प्रि० प्र० ८८ । ( ५७ ) क॒त्रि की दूपरे प्रकार की रचताएँ चौपाई दोहे श्रादि छुंरें की वर्णवा- इक निबंध शेली है। इतमें 'वियोग वेलि! का 'विरह लोलए नाम से प्रकाशन सबसे पहले सन् १६९०७ में श्री काशी प्रत्नाद जी जायमवाल द्वारा काशी नागरीप्रचारिणी सभा से हुप्रा था। श्री झुंभ्रुप्रताद बहुगुना ते भो फिर अपने घनानेद' में इसे संसिलित कर लिया । प्रेम पत्रिका? भी इन्होंने ही सवंप्रथम अपने संग्रह में प्रकाशित की थी। इसके अतिरिक्त अन्य कोई निबंध कृति संवत् २००८ तक प्रकाश में नहीं आई। पं७ श्री विश्वनाथ प्रसाद जी ने आनंदवन घनप्रानंद' में 'इश्कनता?, यपम्ुतायश', प्रीतिपावस' और वियोंग- शबैेलि! प्रवाशित की । इसके प्रकाशन तक मिश्र जी को काशी नागरो प्रचारिणी की खोजों द्व!रा जो प्तामग्री उपनब्ध हुई थी उपक्रा उपयोग वे ऋर सकछ्के थे। इम संग्रह के प्रकाशन में जिन श्राधारों का आपने प्रयोग कित्रा हैं उसरा विवरण इस प्रकार है -- १, 'सुत्रान हित प्रबंध! चार स्थानों से मिला, राजपुस्तकालय बनारस से, जूनिययलस्यूजियम इलाहाबाद से, भदावरराज नवगांव आगरा से और : विद्याविभाग कांकरौली से । २. 'कृप्राक॑द निबंध” की केवन एक ही प्रति सरस्वती भंडार बतारस से मिली । ३. वियोगवेलि! भरतपुर गौर भदावर से प्राप्त हुई । ७, 'इश्कलता” आगरा से । ५, यम्मुतायश' श्यूनिसपल स्थुजियम, इलाहाबाद से । ६, प्रीति पावस” भदावर राज्य नवगांव आगरा से । ७, 'पदावली” मानससंघ रामवन सतना से । ८, रत्वाकर सप्रह” नागरीप्रचारिणी सभा काशी तथा 'सुधासार संग्रह लो ना० प्र० सभा के ही खोज विभाग का हस्तलेख है । इसके अतिरिक्त इसके पूवं काल की जितनी सामग्री मुद्वित हो चुको थी उसका आपने उपयोग किया । परंतु कबि की समस्त रचताग्रों का इस समय त्तक परिचय प्रकट नहीं हुआ था । इसलिए प्रकाशन श्रपूर्ण ही रहा । आ्रानंद- घन जी की अ्रधिक से भ्रधिक कृतियों का पता भिश्रबंधु विनोद से लगता हैं जिसमें इतिहासकार ने छुतरपुर के राज्य पुस्तकालय द्ले विशाल ग्रंथ का <ललेख किया है । ( #८ ) “इनका ५७२ बड़े पृष्ठों का एक भारी ग्रथ संवत् १८८५२ का लिखा हुआ दरबार छतरपुर के पुस्तकालय में देखने को मिला, जिसमें १८११ निबंध विविध छंदों में तथा १०४४ पदों द्वारा निम्नलिखित विषय वर्णितहैं |--- प्रिया प्रसाद', 'ब्रजव्यौद्दर!, 'वियोगवेलि?, क्ृपाकंद निबंध”, 'गिरिगाथा', “भावना प्रकाश”, गोकुलविनोद!, ब्रजप्रसाद', 'धामचमत्कार?, “7दातीश - 'नाममाधुरी', वृन्दावन मुद्रा, 'प्रेमपत्रिका', त्रजवर्णाना, “रसबसंत', अनुभव चन्द्रिका, रंग बधाई”, 'परमहंस वंशावली, श्र पद, प्रस्तुत प्रकाशन में प्रानंदधन की निबंध क्ृनियाँ 'केवल ३ हीं श्राई थीं”, वियौग वेलि', 'कृपाकृंद निबंध” झ्ौर *प्रेमपत्रिका' । 'इश्कलता” ऐसी रचना झा गई थी जिसका उल्लेख विनोद में नहीं था। इर्सात्ये मिश्र जी को 'घनानंद औंर श्रानंदघन” की भूमिका में लिखना पड़ा कि “यदि उक्त ग्रन्थ : छतरपुर के राजपुस्तकालय का ग्रंथ: पष्ट न हो गया होगा तो श्रभी मुझे उसके मिलते की पूरी झ्राशा प्रौर विश्वास है” । पद इसमें ५०० थे जब कि विनोद में १०४४ पदों का उल्लेख था । इसके बाद संभवतः सन् १९४९ में विद्यार्क माधुरी के संपादक श्री बिहारी शरगशा जी के द्वारा श्रानंदघत जी के एक विशाल हस्तलेख का श्रतर्कितोपनद लाभ श्री मिश्र जी को हुश्ना । इसमें कवि की कवित्त सबंयों के श्रतिरिक्त ३४ कृतियाँ संगहीत थीं। इन में से : १ : कृपाकंद निबन्ध : २ : यमुना यश ॥ ३ : प्रीतिपावस : ४ : दानघटा : ५ : इश्कलता : ६: वियोगबेलि और : ७ : प्रेमपत्रिका सात रचनायें तो 'घनछानंद और ग्रानंदधन' में संगुहोत हो चक्की थों। शेष २७ रचनायें नवीन थीं | इनमें से प्रियाप्रसाद, वियोगवेलि, कृपाकद निबंध, गोकुलबिनोद, ब्रजप्रताद, धामचमत्कार, कृष्णकौमुदी, नाममाधुरो,, वृन्दावन मुद्रा, प्रेमपत्रिका, ब्रजवर्णोन, रसबसंत या सरस वसंत, अनुभव चन्द्रिका, रंग बधाई, तथा पद ये १५ रचनायें 'मिश्रवन्धु विनोद! में उल्लिखित थीं, ब्रजव्यौहार, गिरिगाथा, भावनाप्रकाश, तथा परमहंस बंशावली चार रचनाएँ ग्रभी तक ऐसी शेष थीं जो संग्रह में भी नहीं श्रा सकी थीं। यद्यवि १९ रचनाएँ ऐसी नवीन भी थीं जिनका उल्लेख विनोद में तहीं था, इसके श्रन॑ं- तर डा० श्री केशरी नारायण जी शुक्ल लखनऊ विश्वविद्यालय को लंदन १--मिश्र बंधु विनोद २ ये सस्करण प्रू० ५७४ । २--घनआ्रावंद श्रौर श्रानंदघत भमिका पृ० २२। ( ४६ ) संग्रहालय के हस्तलेख विभाग में दूसरा हस्तलेख इन का प्राप्त हुआ | इसमें छतरपुर वाले लेख को १७ रचनायें भ्रा गई हैं। यह हस्तलेख साढ़े पंद्रह इंच ऊचा तथा बारह इच चौड़ा था। इसमें छोटे बड़े ३६ ग्राथ संकलित थे। इनमें आनंदघत की २३ रचनाएं हैं। यह ग्रन्थ भरतपुर के राजा दुजंन- साल के संग्रहालय से लार्ड क्रोम्बर सियर ने प्राप्त क्या था। उसने इसे डबलू विलियस्सविन! को भेंट कर दिया | इसका पूर्णा परिचय डाक्टर साहब ने अपने एक विस्तृत लेख द्वारा 'सम्पुणानिंद अभिनंद ग्रथः ? में दिया है । इस संग्रह की पुस्तकों का लिपि काल प्रायः नहों दिया हुआ है। कंबल तीन ग्रथों का लिपिकाल संवत १८३९ से लेकर १८४३ तक है। एक भागवत कें तृतीय स्क्ंध का हिंदी पद्यानुवाद है। जिसका लिपिकार भास्क्र पंडित है । वह श्रंत में लिखता है :--- लिपि कृचः काश्सीरी पंडित भाष्करेण, श्रीमतं श्रीमहाराजाबिराजं श्री व्रजेंद्र श्री रणाजीत सिंह पठन,थे । संवत् १८३९ पौष कृष्णाष्टम्यां लिखित इसी प्रकार का हस्तलेख संग्रामस|र' नाम की दूसरी पुस्तक का है । लिपि- कर्ता भाष्कर पंडित हो है। काल सवत १८३६ फागुन वदी ११ गुरुवार है । सोमताथ के भागवत प्रदात!ं का जो दशप्रस्कंध उत्तरार्ध है लिपिकर्ता भी: वही काश्मोरी पंडित है। इसका लिपिकाल १८४१ संवत् है। तुलसी के: रामचरित मानस का लिपि काल संवत् १८४३ श्रावण शुक्ला ४ शतिवार है भानंदवन की कृतियों में केवल ब्रजस्वरूप का अंतलेख मिलता है । उसमें लिपिकाल तो कुछ दिया नहीं . है पर आानंदकृत बताया हैँ । “इति श्री श्रानंद कृत ब्र॒जस्वरूप संपूर्णम ।” जिन कृतियों का श्रंत लेख प्राप्त हैं उसके ग्राघार पर कहा जा सकता है कि ग्रानद्धघन की कृतियों का लिपिकाल भी इन्हीं के आसपास होगा । पर यह अनुमान ही है । लंदन सम्रहालय वाले संग्रह में आनंदघत जी को १७ रचनाएं ऐसी शभ्रा गई हैं जिसका उल्लेख छतरपुर वाले हस्तलेख में किया गया है। केवल एक “ब्रजवर्राना नहीं श्राया है और इस हस्तलेख में रचनाओं क्रा जो पूर्वापर क्रम है वही विबोद में दिया हुआ है | विनोद का क्रम ऊपर दिया जा छुका है । लंदन संग्रहालय के हस्तलेख का क्रम इस पकार है;--- १--संपुण निंद अ्रभिनंदन ग्रंथ --प्रकाशक का० ना» प्र० सभा काशी | २-- डा० श्रोकेशरी नारायण शुक्ल--घतानंद की रचनाएँ विषयक्र लेख, संपुर्रानंद अभिनंदत ग्रंथ । ( ६० ) ०६ प्रिया प्रसाद प्रबंध २, ब्रजध्यौहार ३. वियोगवेलि ७, कृपा7ंद निबंध ५, गिरिगाथा ६. भावना प्रकाश ७, गोकुलविनोद ८. ब्रजप्रसाद ९. धामचमत्कार १०, कृष्णकौम्ुदो ११. नाम माधुरो १२, वृन्दावन पूुद्रा १३, पदावली १४, कवित्त संग्रह १५, प्रेमपत्रिका १६९, रस वसंत १७. भ्रनुभव बंद्विका १८. रंगबधाई १६. परमहंसवंशावली २०, मुरलिका मोद २१, गोकुलगोत २२. ब्रजविलास प्रबंध २३, ब्रजस्वरूप इस संत्रद्व में चार पुस्तकें 'ब्रज व्यौद्ार!, 'गिरिगाथा', गोकुल-विनोद!ः तथा परमहंस वंशावली? तो ऐसी हैं जो शव दावनवाले संग्रह में नहीं हैं। जा: रचनाएं 'मुरलिकामोद!, “गोकुलगो्त! '्रजविलास” तथा ध्वजस्वरूप” 'ऐसी हैं जो छतरपुर संग्रह में भी उल्लिखित नहीं है। छतरपुर संग्रह को एक ता जैंज वर्शाता किसी संग्रह में भी श्रभी नहीं,आया। इसके विषय में क् दो कल्पनाएँ हो सकतो हैं। था तो यह व्रजस्वरूप” ही है जो ग्रंथावली में आ गया है दूसरी कोई पृथक रचना नहीं या फिर श्रभी तक अश्रप्राप्य पुस्तक हूं। छतरपुर संग्रह को पुस्तक सूची के क्रप तथा लंदन संग्रहालय के हृस्त- लेख का पुस्तक क्रम देख कर तो यही अनुमान होता है कि भा उस हस्तलेख से कुछ संबंध है जिसको पिश्र बंधुप्रों ने देखा था । क्रम उभयत्र समान है । “छतरपुर के संग्रह में पदों के अ्रतिरिक्त छंदों की संख्या १८११ दी है। जिन रचनाग्रों का उस में उल्लेख है उनके छंद जोड़ कर कवित्त सव॑ये के श्रतिरिक्त कुल संख्या १४२० होती है। इसे १६११ तक पहुँचने के लिए ३९१ छंद भ्रौर अधिक श्रपेक्षित होते हैं। कवित्त सबैयों के संग्रह का कोई ग्रंथ इस सूची में उल्लिखित न होने से उतकी संरुपा इस में सम्पिलित नहीं की जा सकती । फलत: ब्रज व्शात पुस्तक की छंद संख्या ३६ १ होनी चाहिएया उसके कुछ प्रासपास। ब्रजस्वृरूप में १२२ छंद हैं। अत: इस अ्रनुमान में ६५ 2. 8] अ्रधिक बल दिखाई नहीं देता कि छतरपुर संग्रह का “ब्रजवर्शाना! ब्रजस्वरूफ ही है। उक्त पुस्तक को बड़ा होना चाहिए ज॑ंसा कि उसका नाम बताया है । घन आनंद ग्रंथावलौ श्री विश्वताथप्रसृद मिश्र ने वृ दाग्नवाले तथा लंदन संग्रहालयवाले दोनों हस्तलेखों का उपयोग बर तथा श्रन्य ग्किश[ सामग्री को भी एकत्र कर घनशआआरानंद ग्र थावली, का प्रकाशन गत दर्ष सं+त् २००६ में किया है। लेखक ने तो वृदाबनवाली प्रति का हस्तलेख के रूप में ही उपयोग क्या था | ग्रथावली तत्र तक प्रकाशित नहीं हा पाई थी । इस प्रन्थावली में ३८ पुस्तकें श्रानंन््धन की प्रकाशित हैं जिनका विवरण हरूचे दिया जाता है। श्रभी तक 'प्रमसरोबर” तथा तथा '्रेमपहेली' की अपुर्णता तथा 'ब्रजवर्शना' का अ्रभाव कवि के व्यक्तित्व को पुर्ण प्रकाश में आने से रोके हुए है। क्या पता इन क्ृतियों में कवि के इतिहास का ही कोई सूत्र निकल श्राए और कुछ संदेहों की निदृत्ति हो जाए। ग्रथावली में दिखाए गए 'सुजानहित' का संस्करण बड़ा है। 'घन आनंद शभ्रानंद घन! पुस्तक में दिए “सुजान- हित में ४४४ छंद है। इसमे ५०७ है। ग्रथावली के क्रपाकंद निबंध में छुद्द संख्या ६२ है। पहली पुस्तक में ८५९। लेकिन इसमें छंद संख्या ५४ से श्रागे प्रेमरद्धति' संग्रहीत हो गई थी। ग्रथावली में ८ पद और बढ़ा दिए हैं । प्रतीत यही होता है कि यह #क्षपाकंद निबंध” संग्रह केवल कवित्त सवयों का ही है। कुछ दोहे स'रठे भले ही इससें श्रागण हों पद इसका भाग नहीं। है घन अतंद आानंदधन! में पदों की संख्या ५१० थी। ग्रथावलो में ये १०६८ है। वाकी निबंध रचनाएं सर्वाधिक संख्या में हैं। संग़ादक महोदय ने भविष्य के शभ्रनुसंधान की सुविधा के लिये हस्तेलेख के स्वरूप को संवादन में विकृत नहीं किया है। प्रेम पत्रिका? के अंतर्गत ६९ तथा ब्रदवन मुद्रा में ५कवित्त श्रा गए ह। वे निश्चय इस रचना का भाग नहीं है। पर इससे यह अ्रवश्य प्रमाणित होता है कि कवित्त सर्वयाकार तथा निबंध रचनाकार कवि एक ही है। फलस्वरूप ध्सुजञानहित' के अ्रतिरिक्त 'प्रंम पत्रिका, 'वृदावन मुद्रा! तथा धप्रद्ीर्श ₹” में ७३ कवित्त सबंयों का संग्रह हुआ है। इस तरह भ्रव॒ तक श्रानदेधन जी की समस्त रचनाओ्रों का विस्तार इस प्रकार है ।-- ( ईरे ) कवित्त सवये ६८९ गेयपद १०६८ 'दोहे चौगाई तथ। ग्रन््य छंर जो दो पंक्तियों के हैं २३५४ कुल योग ४१०८ काव्य के गुर्शों की कथा पृथक रही, रचताविस्तार को दृष्टि से भी आनंदवन हिंदी के महाकवियों में श्राते है । कोकतार, शभ्रथवा 'कोक मंजरी की गणाता भी ग्रानंदवन को 'कृतियों में की जाती रही है। खोज में आनंदधन या घन आनंद नाम के किसी कवि को कोकसार रचना प्राप्त हुई है । इसको प्रति- लिपि संवत १७९१ में हुई थी । कवि का नाम आनंद है। जिसे डा० हीरालाल तो काल्तिक ताम मानते है श्रौर बा० श्यामसु दरदास घनानंद से श्रलग मानत हैं। इसकी शेली, भाषा आझ्ादि के विषय में श्री शंभ्रुप्रसाद बहुगुता लिखते है कि कोकसार अ्रथत्रा कोममंजरी को देख कर यह निश्वय के साथ नहीं कहा जा सकता कि यह रचता कहाँ की गई भ्रोर प्रानंद कवि आनंद घत या घनानद हो सकते हैं। भ्रपत्ती बात का विज्ञास दिलाने के लिए सौगंव खाने को प्रवृति कोकृसार के कवि सें इतनों अ्रधिक है कि हमें विश्वास सा होने लगता है कि आनंद अलग व्यक्ति हैं 'कोकसार! या कोकमंजरी का आनंदधनकृत होने में विश्वास का कारण यह और हो जाता है कि उन्होंने सुजात सौंदर्य की प्रशंसा में 'कोकविद्याँ का उल्लेख किया है। सुनाई पे कोक प्ढ सुधराई सिखावति है रसिकाई! प्र इस विश्वास में बल श्रधिक नहीं है। कोकसार का रचताकाल संबत् १६६० है जैंसा कि उसके अ्रंतलेख से प्रतीत द्ोता है । कायथ कुल श्रानंद कवि वासी कोट हिसार कोक कला इहि रुचि करन जिन यह किंप्रों विचार, रितु बसंत संवत सरस सोरह से श्र साठ | कोक मंजरी यह करी घर्भम कर्म करि पाठ, १--खोज रिपोर्ट का० ना० प्र० स० १६२६ १० एक तथा १९६२३ १०बो २--घनश्रानंद भूमिका पृ० २३, ३--उपयुंक्त खीज रिपोर्ट से उन्धूत । ६ आओ | यह समय झानंदधत के समय से बहुत पहले है । अतः यह हमारे कत्रि आनंप्रत की रचना नहीं कही जा सकती । आतनंदघन की रचनाएं दो प्रकार को हैं मुक्तक तथा निबंब। मुकक्तक के ईफर दो भेद हैं-कविच सर्वेये श्रौर गेयपद। इनमें सुक्तक रचनाओं का परिचय उनके विषयविभाजन द्वारा तथा निद्ंधों का उतके वरशर्य॑ विषय के संक्चित वर्रान द्वारा दिया जाता है। १-कवित्त सतयों का संख्यानुसारी विषयविभाजन विषय पद्य संख्या १--संयोग कालीन मनोदशाएँ तथा चेष्टाएँ ३७० २--प्रिय का निर्मोह या छली रूप ३० ३--सुजान का रूप सौंदर्य पद ४--साधा रण नायिका स॑दर्य २८ ५--विरह व्यथा १७ ६--विरह संदेश २६ ७--विरही का प्रकृति वर्णन २१ ८४5--खंडिता वचन ११ ६--मान ४ १०--विरहोपालंभ २६, ११--फाग कूला श्रादि पर्व ३० १२--प्रेमाभिलाष २७ १३--ब्नज महिमा १३ १७--प्र म की दशा .. श६ १यू--प्रेम का स्वरूप ३२ १६--श्री कृष्ण जन्म बधाई २ १७--वेणु वादन ११ १८-राधा श्र १९--भक्ति श्र २०--यमुनायश डर _यानुरिननननननननननननन-मम-ंम-मन--न 44५3 बन कनननंतपतत+ीदय ियनिनाननन++ 3५9५3“ नमन» मं» न मनन _-त-++4+++3 33 -+ नमन न न+नत+++3+>नननननननननन_न-++.क्::+4 4 १--देखिए भ्रानंदघत का समय विवेचन, प्रथम परिच्छेर | धो २१--श्री कृष्ण २२--राधाक्ृष्ण विहार २३--दाश निक विचार २४--उद्बोधन २५--सखीरूप का गयव॑ २६--मेंहृदी २७--साघुल क्षण २- पदावली का संख्यानुसारी विषयविभाजन विषय १०- भक्ति : सात्विक २--स्तुतियाँ गंगा, सूर्य, चैतन्य, नारद, वामन, बलदेव, शंकर, गोवर्धन श्रादि ३--ब्रज वृ दावन प्रेम ४--बधाई वर्षगाँठ (राम कृष्ण राधा) ५--पमुनायण ६--मुरली माधुरी ७--प्र म, पूव राग, अ्रनन्यता श्रभिलाष स्वरूप भ्रादि छ--वि रह वेदना ६--प्र मोपालभ १०--खंडिता वचन ११--राधा (रूप, महिमा, सौभाग्य, मान, क्रोड़ा वेशभूषा भ्रादि १२--राधा (सुरतांतरूप) १३-- शंगार (संयोग केलि) १४--दूती वाक्य १५--लीलाएँ (छाँक, पनण्ट, गोचारण, दान; गोदोहन, गोवर्धन, रास भ्रादि) १६--राधा के पर्व १७- ऋतु वर्णन बसंत फाग १५. १७ रद पद १६० श्द २७० ५१ रश ९४, श्शर द्फ ब्रश ४२७० श्प १० ७४ ११ ५७ २१४ श्र ११८ ( ६१ ) वर्षा शरत >< ग्रीष्म ५८ 9 १८. संत महिमा »< र् ३ क्ृपाक॑द श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा संपादित बन आनंद और प्रानंदधन! पुस्तक में इसका नाम क्ृपाकंद निबंध दिया है। ग्रथावली में निबंध शब्द हट गया है। झ्राचारय॑ रामचंद्र शुक्ल को इसी के नाम के विषय में कृपाकांड का अ्रम हुम्ना था | यह संभवतः पंग्रं जी अ्रछ्रों में लिखे रहने के कारण था। रचना में २१ कवित्त, २६ सवया, ६ पद, ४ दोहे, १ सारंग और १ छप्पय है। कुल ६२ पद हैं | इनमें से ६ पद्म ३७ से ४४ संख्या तक 'सुजानहित? में भी श्रागए हैं| भगवत्कृपा का महत्व इन सब कविताग्नरों का विषय है। प्रतीत होता है कृवि ने स्वयं रचता का ताम कृताकद या कृयाकंदतिबंध ही किया है । कैपाकद शब्द कृपा के घन के अ्थ में अनेकत्र व्ववहृत हुप्रा है । ४. वियोग बेलि इसमें ५१ पत्र हैं। श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का भावावेशपुर्णों विधोग इसमें वर्णित हुआ है। भाषा बज है, पर भार्वों को शैली फारसी की है। भाव- बक्रता तथा वचनवक्रता कवित्त सर्वये की सीं व्यवह्ुत हुई है। रास के मध्य से श्री कृष्ण के श्रंतर्ष्यान हो जाने पर जो गोपियों का वियोगवर्णान भागवत में हुआ है वही यहाँ है। रचता भावों की मामिकता के लिये विशेष उल्लेखनीय है । प्र, इश्कलता इसमें १४ दोहे, १२ भरिल्ल, ६ माझ तथा १९ निसानी छंद के पद्म हैं । प्रिय के रूप का मादक प्रभाव, उसके विरह की पीड़ा तथा प्रेमभावना बकलिलीणन--““777ए दा 0//708॥क8क8कऊझ383 १, 'कवित्त में : पचऊची दीठि नीठि नीचियो न होत कहूँ ऐसे मच चाठक भए जे कृपाकद कें? हू० प० ५९ । झानंद आरतकंद वंदनीय प्रानन को | वही १८५ पदों में कृपा कंद आनंदर्कद हो, पतित पपीहा द्वार परचौ। वही ५१ क्रपाकंद आनंदकंद है पतित पपीहा तपति हरो।॥ वहीं ९२ ५9 | ६६ ) का फारसी शैली से वर्णन किया गया है। इसमें कुछ पद्म उद' और पजाबी भाषा के हैं। कुछ ब्रज के दोहे शुद्ध ब्रज भाषा में लिखे गए हैं। प्रिय को अरे बे” 'तु” भ्रादि शब्दों से संबोधित किया गया है जिसके स्नेह की निकटता की व्यजंचा होती है । रचना का परिचय देते हुए कवि ने लिखा है कि हृदय के चमन में इश्कलता हरी भरी होती है। विरह के काँटों से उसकी बाढ़ की जाती है और झ्ानंद का घन इसे सींचता है'। भक्ति के प्रेमाधिका में मस्त होकर रचना लिखी गई प्रतीत होती है । स्थाम सुजान के विरह की पीड़ा जब सताती थी तो इश्कलता से ही आनंद का लाभ हो ॥ था| “स्यथाम सुजान बिना लखे लगे विरह के सूल। तामें इश्कलता भई घन आरनेंद को मल ॥” फारसी भ्रौर पंजाबी के पद्म नागरीदास की रचनाझ्रों में भी मिलते हैं| उन्होंने (इश्क चमन” लिखा भी है। रसखान ने भी 'प्रेमवाटिका” लिखी है। प्रेमी कवियों में प्रम का बाग लगाने की रीति सी है। उस्ती परंपरा का इसमें अनुसरण है । उदू फारसी की शैली तथा शब्दप्रयोग से आशिकाना शली की रचना लगती है | चमन, बुलबुल श्रादि वशर्य विषय फारसी के ही हें। कवि ने अंत में उसे भक्तिपरक बताया है। “इएकलता ब्रजचंद की जो बाँचे द॑ चित्त । वृ दाबन सुखबाम सो लहै नित्त ही नित्त ॥४ ६. यमुनायश यह भक्ति भाव की रचना है। इसमें ९० श्र्धालियों के अंत में एक दोहा है। भक्ति भाव से यम्रुवा का महत्व वर्शित हुमा है। रचना कोर्त॑न के ढंग की है। प्र्धालियाँ तथा दोहों का प्रारंभ जमुना! शब्द से हुआ है। आरानंद- धन जी गोकुलघाट पर यमुना के किनारे रहा करते थे । इसका प्रमाण इस रचना में मिलता है। इसमें उन्होंने लिखा है कि मैं यमुना के किनारे पर फूला फूला फिरता हूँ। जिन्होंने गोकुलघाट पर यमुना का पानी पिया है वही यपुनारस की महिमा जानते हैं । धा यमुना मेंनित ही नहा! ५८ ५८ यपुनायश २२ ( ६७ ) “जमुना के तट फुल्याौं फिरौ!! न र्नः यम्ुनायश २७ “गोकुलघाट पियौ. जिन पानी जमुनारस महिमा विन जानो” र्नः न यमुनायश ३७ (9, प्रीतिपावस इसमें १०६ श्र्धालियाँ हैं। पावत्त ऋतु में श्री कृष्ण के गोप गोपियों के साथ वनविहार का इसमें बर्णात किया गया है। ऋतु के प्रतिरिक्त प्र मवर्षा का भी वर्णात किया गया है, श्री कृष्ण आनंद के घन हैं। ये आनंद को वृष्ठि करते हैं। ब्रज में यह प्रीति का पावस प्रत्येक ऋतु में बना रहता है। श्रीकृष्ण को आ्रनंदवन मात कर कल्पना करने की प्रद्यक्त कवित्त सवेयाकार आनंदवन की है। वही कल्पना निबंध रचता '्रीतिपावस” में मिलती है। इससे सिद्ध है कि निबंधों तथा कवित्त स्वेयों का रचयिता एक हो है । इसके अतिरिक्त सरल भाषा में कविच् सबेयों की सी भाववक्रता यहाँ प्राप्त होती है । जेसे -- “अचरज भर लाग्यौई दरसे, घन तर, चातक रुचि बरसे ।” १ प्रीति पावस ५२। >< >< ५4 “्यासनि बरसत श्रति रस भरे, अ्रचरज घन दामिन संचर |”? वही ५४ >< >< >< द, प्रेमपत्रिका श्री विश्वताथप्रसाद मिश्र द्वारा संपादित 'घन झानंद' ग्रंथावली में इस रचना के ६४ पद्च दिए हुए हैं, जिसमें प्रारंभ में २६ पद्च प्लवंग छंद के हैं। इनके बाद कवित्त सगे संग्रहीत हैं। उनमें २८ सबैये, १ छप्पय, १ सोरठा तथा ३६ कवित्त हैं। कवित्त सबेये प्रारंभ होने से पूर्व कवि का नाम आा गया है श्रीर रचना का प्रयोजन भो कवि ने बता दिया है। इससे सिद्ध होता है कि '्प्रेमपत्रिका' वहीं समाप्त हो जाती है। दुसरे कवित्त सबौयों में ओम की पत्रिका के भाव नहीं है। विरह का वर्णाव है। कवित्त संझ्या ३ ०, २१, ( दप ) ३२, ३३ ब्ंदाबन मुद्रा के क्रमशः: पद्म संख्या ५४, ५५, ५६, ५७ हैं। परत; कह सकते हैं कि प्रेमपत्रिका? तो २६वें पद्म पर ही समाप्त हो जाती है। बाद में किसी ने उनके मुक्तक पद्म संग्रहीत कर दिए हैं। इससे यह भली« भाँति प्रमाणित होता है कि निबंधकार तथा मुक्तकक्ार एक ही शआ्ानंदघन हैं । विरहिणी गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेमपनत्र का संदेश इसका वरशण्य है । भाव श्रोर भाषा की वक्रता कवित्त सर्वेयों की सी है, भाव भी वे ही हैं जो, कवित्त सबयों में हैं । १२, अन्तभव चंद्रिका इसमें ३ दोहे तथा ५२ अर्धालियाँ हैं। ब्रजभूमि के महत्व के विषय में कवि ने अ्रपने अनुभवों को व्यक्त किया है। ब्रज श्रीकृष्ण के आनंद का मूतिमान स्वरूप है। यह रसमयरूप श्रमल, श्रखंड, प्रगम्य तथा अनूप है,, परमधाम का भी धाम है। भगवसत्पेम का पुराँ प्रण लेने पर ही इसका महत्व समभ में आता है। कवि ने श्रपता प्रसंग भी दिया है कि यहाँ के सर सरिताश्रों का जल पीने से जले हृदयों को भी शांति मिलती है। वह चाहता है कि ब्रज में रह कर श्री कृष्णा का कीति गायन करता रहे। राधा के चरणों में सर भुकाता रहे। इस प्रकार मनमें भ्रानंद की लहर उठती है। उन्होंने न्ज रसिकों के सत्संग से ब्रजमहिमा सुन बृक कर लिखी है। “ब्रज बन सर सरिता जल पौएँ। उपज सान्ति जरिगए हिंएँ॥ ब्रज. बन बस ब्रजनाथ हि गाऊँ। श्री गोपी पद रज सिर नाऊँ॥ ब्रज बन रसिक संग अभिल खाौँ। तिन तें सुनि बुक कछु माखों ॥”? अनुभ० च० ३७, ४२, ४७ ! ५८ >< >< >< . १३. रंग बधाई नाम से जैसा स्पष्ट है, रचना श्रीकृष्ण जन्म की बधाई के वर्रान में है। गोप गोपयों, नंद यशोदा आदि के इस अवसर के आनंदोल्लासों का मक्ति भाव से वर्णुन है। इसमें तीन दोहे श्लौर ५० श्रर्घालियाँ हैं । ( ६६ ) निबरार संप्रदाय वाले नियमत: जन्म बबाई का वर्णा करते हैं। मुक्तक यदयों में भी बधाई के बहुत से पद्य इनके विद्यमात हैं। इसते कवि का विबाके संप्रदाय में दीक्षित होना प्रमाणित होता है | १४, प्रमपद्धति यव १४३ पद्यों की रचना है। इसमें ३५ दोहे १०८० प्र्धालियाँ हैं। वर्ण विषप्र है प्रेम-लक्ष॒ ग़ा-भ क्त । प्रेम का महत्व एवं दुरवगाहता बताते हुए गोपी- कृपा को उसका प्राप्तिताघन बताया है। गोपियों ने ही प्रेथ को यवार्थता को पहचाना था। उन्हीं का अ्रनुम्तरण करने से प्रेप को सच्ची अनुभूति हो सकती है। कवे ते अपने संत्दाय को स्पष्ट व्यंजता को है, कि दुष्प्राप्य? प्रेम भी गोपी-पाद-प्रसाद से उसे सुलप हो गया है। उसो गोपियों के श्रनुसार अपना प्रण पुरा किया है ।' १५, वृषभानपुर सुषमा वर्शात इसके प्रारंभ में एक दोहा और बाद में ४० श्रर्वालियाँ हैं। वृष धावपुर का थोड़ा वर्णांत करने के बाद कवि श्रपने को राधा की "सखी के रूप में वणित करता है। वह राधा को चेरी है। सद्य उप्ती के पास रहतों है। राधा ने उसका नोम बहुगुरी रखा है। वह शंगार के सब्र सामाव सजाना, भूया बनाना, रसमवी उत्तिसे राधा का हर्ष बढ़ाना, छंएश, कवित आदि का चटक से गाता जानती है। ललिता, विसाखा आदि सल्वियाँ उत्क्रा आदर करती हैं । इसपे स्पष्ट है कि आ्रानंरवत सवीभाव के उपात्तक-थे | १६. गोकुल गीत इस छीटी सी रचता में २१ श्रर्वालियाँ और प्रेत में दो दोहे हैं, भक्त- १--प्रेम पद्धति ७, १०२ | २--राधा की हौ चौकुस चेरी। सद, रहति घर बाहिर नेरी ॥। नीकौ नाम बहुगुरी मेरो | बरसाते ही सुंदर खेरो॥ रस सिगार सौज सजिजानों | कबरी सोधी उहुविधि बानौ | राधा नाँव बहुमुती राख्यों। सोई प्ररथहि मैं श्रभिनाख्यों ॥ उकति जुकति रस भरी उठाऊँ । भाग मेरी कौ हरख बढाऊँ। ” यबूष० सुषमा व० ८, ६, १७, १५, १५, १६ ( ७० ) भाव से श्रैक्ृष्ण के कारण गोकुल के महत्व का वर्शान है। कवि ने गोकुल् देखने की श्रभिलाष प्रकट की है। “यह ग्रोकुल नित नैननि दरसी प्राननि पी श्रार्नेंदधन बरसौं” १७. नाम माधुरी इसमें ४२ श्रर्घालियाँ हैं। राधा के नाम संकीतंस की रचना है। “गोपाल सहस्त नाम! श्रादि की शली से राधा के श्रनेक नामों का कीर्तन की पद्धति पर स्मरण किया गया है । (८. गरिरि पूजन इसमें केवल ३४ श्रर्धालियां हैं। गोवर्धनपूजा का सजीव तथा भावपुर्स वर्णन किया गया है। जन के समय का वर्शान भी है श्रौर कृष्ण की कुछ बाल चेष्टाश्रों को भी दिखाया हैं जो बड़ी सजीव हैं।। रचना भ्राकार में: छोटी है। पर स्वाभाविक सजीवता के लिये विशेष उल्लेखनीय है । १९, विचार सार बंदाबनवाली हस्तलिपि में इसका शीर्षक विचार सार निबंध दिया है 9 कवि ने स्वयं इसे निबंध बताया है | “सब विचार कौ सार है या निबंध कौ ज्ञान! रचना में कृष्ण नाम का कीर्तन है। ८६ श्र्धालियाँ हैं। श्रंत में २ दोहे हैं। कवि के अनुत्तार श्रीकृष्ण का नामस्मरण समस्त विचारों का सारहै । २०, दान घटा इसमें १३ स्वये और श्रंत में तन दोहे हैं। गोपसहित श्रीकृष्ण का राघा सहित ग्रोपियों के साथ दान ली ला का वर्णान किया गया है। श्रीकृष्ण को श्रानंदघन समझकर रचना को दान घटा कहा है। सरल भाषा में बड़े सजीव सवये लिखे गए हैं। उन्हें पढ़कर नरोतामदास का स्मरण होता है | 3 अमन मिली मलिकिल लि १--विचार सार ८७ ५ ७१ ) २१-भावनागअकाश यह २२० अर्धालियों की रचना है। विषय की दृष्टि से इसके दो भाग हो सकते हैं। पहले में राधा और कृष्ण का विलन है। दूसरे में व्ज्मराज की महिमा कीर्तन की शैली से वरणित है। रचता इस हृष्टि से महत्वपूर्ण है कि यहाँ स्पष्ट शब्दों में कवि ने भ्रपती भावदशा का वर्णात किया है जिसकी व्यंजना कवित्त सबैये में होती है । 'प्रानंधदन रस में भींगे रहते हैं। व्जवन की लीला में भ्रवगाहन करते हैं। छरण छएणा में भावों की तरंगें उठती हैं। छबि देख देख कर उनके निमेष थक्ु जाते हैं। मन मधुर रस के पान से तृप्त होता है । विवश दशा में शरीर रोमांचित हो जाता है। '्रूप क्ुपकर बन वीथियों में डोलते हैं । मौव घारण किए मत ही मत बोलते हैं |?! २२--ब्रज स्वरूप इसमें १२२ शर्वानियां हैं। श्रीकृष्ण के कारण ब्रज को महत्ता, श्रोक्ृष्ण का गोपियों के साथ क्रीड़ाविहार, भ्रानंदोल्लास प्रादि का वर्णोंद है। बजस्व्ररूप निगपों को भी श्रगम है पर व्ज॒रज की उपासना से सुगप्र हो जाता है। कवि यहाँ रह कर गोवारण , गोदोहन, बजमोहन की नव नव रंगरलियां तथा त्वों« हारों की चहल पहल देखता है। कवि की स्पष्ट उक्ति है कि-- “सुबस लह्या ब्रजवास बसेरो” वृ दावन मुद्रा ५३ कु यु ८ २३. प्रम पहेली ११ श्र्धालियों की इस छोटी सी रचना में किमी गोपी या राधा के प्रेष प्रसंग को प्रारंभ किया है पर इसकी समाप्ति नहीं की गई हैं। रचवा श्रध्वुरी है । कवि का ताम नहीं है जैसा कि भोर रचनाग्रों में मिलता है। >< >< झ८< शा ्--जज++ल्जलनदक+नना-क्:3 का +ध एप » तक ाकशकननननन-+-नमनननमन-न---म- *नलकनननान++++-. १--प्रानंदघन रस भीज्यौ रहे | ब्रज लीला निधि रस अ्रवगहै। छिन छिन भाव तरंग विसंष । देखि देखि छवि थक्ते निरमपे ॥ महा मधुर रसपान छके मद । विवस दशा भ्रति रोमांचित तन ॥| ( ७२ ) २४-रसत्तायग २८ ग्रर्धालियों की इस छोटी सी रचता में रसना ( जिह्ठा ) की प्रशंसा इसलिए को गई है कि वह भगवज्नामसंकीर्तन करती है। प्रत्येक श्रर्घाली *रसना” शब्द से प्रारंभ होती है । २५. गोकुल विनोद इसमें एक ही छंद के ६४ पद्म हैं। रचना श्ौरों की श्रपेन्षा प्रौढ़तर है । भाषा समासात्मक सुसंगठित संस्कृतब॒हुल है। कृष्णा वलराम के राजस विह्यर का वर्णन है | गोकुल के घर, स्नान, तड़ाग, प्रियतमाएँ, जलकेलि, आदि वरण्य है । जलकेलि का श्ृंगारात्मक सजीव चित्रण किया गया है। २६. कृष्ण कौमदी इसमें ७५ दोहे (और € श्रर्घालियाँ हैं। प्रारंभ में श्रीकृष्ण की नामावली विष्णु सहस्न नाम की शैलो पर संग्रहीत हैँ । बाद में श्री कृष्ण का नखशिख वर्रान महापुरुषों की तरह मुकट से प्रारंभ कर चरण पर समाप्त किया है । मोहन के योवन सौंदर्य फा भी वर्णन हैं। रचना उत्कृष्ट है। कवि ने इसको प्रबंध संज्ञा दी है। “कृष्ण कौमुरी नाम यह मोहन मधुर प्रबंध। सरस भाव कुम॒दावली प्रफुलित परम सुगंध |”? सरल, सरस और स्वच्छंद भाषा में भाव व्यक्त किए गए हैं। चौवाइयों की अपेक्षा दोहे श्रधिक कवित्व पूर्ण और सरस हैं । २७ धाम चमत्कार ७० भर्धालियों की इस रचना में वृंदावन के महत्व का भक्ति-भाव-पूर्णा वर्णन है। धाम महत्व श्रीकृष्ण के कारण है। इसे भक्त ही देख सकते हैं। विचारों को हृष्टि से रचता महत्वपूर्ण है। इसमें श्रानंदधन जी ने - ठृ दावन के विषय में वेष्णव दर्शन की भावनाएं दिखाई है । दूंदावत झ्राश्चर्य- धाम है जिसे देखते को श्राखें श्रौर ही होती हैं। इप अ्रगाघ रससागर में झानंदबन नित्य ही बरसते हैं। ब्जबन परमानंदमय है जहाँ मन का प्रवेश भी नहीं होता । प'मतत्व का सार इसकी धूलि में समाया हुझा है । यहां ( ७३ ) सर्वदा एकता आनंदोदय रहता है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रपता स्वरूय देखते के लिये इसे दर्गण बताया है। 'रसकदंब स्थाम' यहाँ घसुग्ध बने रहते हैं। इपकी महिमा निगमागम के लिये भी अ्रगम है। इपझे आराश्च पमय रूप को विरले ही कह सकते हैं। श्रानंदधन से तो ब्रबनाथ ने हुठ पूरक यह कहला लिया था। न्रज स्वरूप कछु मन में आयो, सो हठ के ब्रजनाथ कहायो! । ये आअजनाथ 'बनातेदइ कवित्त' के संग्रहीता ही प्रतीत होते हैं । >< > श्८, प्रियाप्रसाद इसमें ६५ श्रर्चालियाँ और ६५ दोहे हैं। प्रारंभ में राधा का नाम- संकोर्तत है । बाद में कवि ने प्रपनी स्वरामिती और स्त्रय॑ं को उनकी चे री बताया है। सखोभाव की उपासना के भावावेश में वह राधाकृष्ण की श्यंगारसेवा करता है, वह राधा की चठक्ीली, चितवरद़ी 'चेरी है जो सदा उनके पास रहती है। उन्हें गीत सनाती है, पैर दब्ातो है, दोनों को पंखा करती है । राधा की जूडन खाने की भी वह इच्छुक है। उनके शरीर से उतरा वस्त्र पाकर वह अन्य हो जायगी | राधा और मोहन दोनों एक हैं। राण श्याम बिना नहीं रहती श्रत; कवि राबा का ही भक्त हैं। रचता कवि के सांप्रदायिक भावों की हष्ट से महत्वपूर्ण है। उन्होंने स्वयं इसका नाम 'प्रियाप्रसाद! रबखा है। २६. वृ दावन मुद्रा “प्रियाप्रसाद प्रबंध कौ पाय सवादहि लेव” ५८ 2 >< घन श्ानंद ग्रंथावली” के अनुसार इसमें ५८ पच्य है। ५ कवित्त, १ दोहा और ५२ अर्धालियाँ हैं। वरशर्य विषय है द्ृ दावत की महिमा। कवित्त रचना का भाग नहीं प्रतीत होते हैं। वुदावत विषयक होने से इसमें संगीत हो गए हैं। वसे ये ही पद्च पग्रथावली 'प्रकीर्णक के ६१, ६३, ६४, €४५ शोर ६६ वे हैं। ५३ वीं श्रर्धाली में कवि का नाम श्रागया है जिससे रचना के वहीं पर पूर्ण होने का अनुमान होता है, भ्रस्तु-- संग्रह से कवित्तक्तार तथा प्रबंवक्वार के एक होने का प्रमाण अवश्य सत्र जाता है। कवि ने अभ्ने निवास स्थाव का भी इस में परिचय दिया है । - है. रह 0: 3 “आानंदधन वृदावन बसे! ८ | >९ यह वू दावत राधा और कृष्ण दोनों का निवास स्थान है। वे इसे बुत: लियों की तरह नेच्रों में रखते हैं। यहां दंपत्ति का प्रेम लहलहाता है। श्रानंद घन नित्य यहाँ बरसते हैं । यह नोवपु के सभान है। उसकी प्रार्थना यही है कि वृदावन सदा उनकी आँखों के श्रागे विद्यमान रहे और उसकी अ्रपृर् ज्योति उसके लिपे सदा जगती २ हि ५८ >< >< २०. ब्रज प्रसाद इसमें १०८ भ्र्वालियाँ हैं, ब्रज की महिमा तथा शोभा इसके वर्ण्य विषय हैं। इमके महत्व का कारण भगवान श्रोकृष्ण हैं । मोहन ब्रज हैं, ब्रज मोहन है । अंत में कवि की धारणा है कि ब्रज के सूख को तो कोई भी नहीं कह सकता | मैं तो मौन धारण किए देखता रहता हूँ। >< >८ >< ३१. गोकुल चरित्र यह ४० श्र्धालियों को छोटी सी रचना है जिप में कृष्ण के चरित्रों का वर्णन है ; गोकुल के मार्गों में श्रीकृष्ण क्रीड़ा करते है। उनका सरस गोचारण, पनधट आदि श्रौर बालचेष्टित आ्रादि विशेष रूप से वशणित है। +५ 2५ २५ ३२. मुरलिका मोद ३१ अर्धालियों की इस छे'टी सी रचना में श्रीकृषण के मुरलीवादन ओर गोपियों के उसपर धग्ध होकर घर बार की लज्जा त्याग स्वच्छंद प्रेम वि झाश्ररण करने का वर्णान हुआ है । रचना के। महत्व इमलिये बढ़ गया है कि कवि ने इसमें समय का संकेत किया है । “गोपमास श्रीकृष्ण पक्ष सुचि संवत्सर अ्ठानवे श्रतिरुचि /” मुर॒लिका मोद ५० 9 9८ | ( ७५ ) ३३. मनोरथ मंजरी-- ३० पद्यों की यह सांप्रदायिक रचता है। कवि श्रपने को राधा की ग्रंतरंग सखी मान कर उनकी रहुसकेलि की सेवाश्नों का वर्णान करता है। वह उनकी शबय्या तैयार करता है । रहसकेलि में पान पात्र भरता है, रसभेद की बातें सुनाता है। सूरतकाल में बाहर झ्राकर उनके रसालापों को सुबता है, राधाकृष्णा के समोग सुख से स्वयं सखी रहती है । सलीसंप्रदाय का आदर्श है कि सखियाँ राधाक्ृष्णा की गुह्मतम केलियों की साज्षिणी होकर भी मादन भाव का अनुभव वहीं करतों । कृष्ण में पतिभाव बी कामना नहीं करतीं। साथ ही साधना का उत्कर्ष राधा की अंतरगता प्राप्त करने से होता है। यहाँ पर कवि श्रत्यंत श्रंतरंग भाव की भावना मादन- भाव रहित होकर प्रकट करता है। इस रचता से स्पष्ट है कि आ्रानंदधन जी सखी भाव की सांप्रदायिक प्रेमसाधना में पारंगत थे । ५ 2५ 7५ ५ ३४. ब्रज ब्यौहार यह श्रपेज्ञा कृत बड़ी रचना है । कुल २३७ पद्च हैं जिनमें २६ दोहे हैं शेष भ्र्धालियाँ हैं। गोचारण, छाकलीला, दानलीला, ब्रजमहिमा, गोपी-प्रेम- महिमा तथा ब्रजव्यवहार का महत्व शभ्रादि इसके वरशय विषय हैं। रचना साधारण है। इसमें ८ दोहे प्रेमसरोवर के भी श्रा गए हैं । >< >< >< >< ३५, गिरि गाथा इसमें ७ दोहे भर ५० श्रर्धालियाँ है ५ गोवर्धन का महत्व वर्रान रचना का विषय है। गोबर्धन ब्रजवासियों की गौग्नों का पालच करता है। कृष्णा के केलिविलासों के लिये कंदराष्रों में स्थान देता है। गोपिकाश्ों को मार्ग प्रदान करता है । भगवान की लोीलाशों का साद्धी है । ३६. छुंदाष्टक ८ छंदों की इस लघु रचना में रास के श्रनंतर अंतहित हुए श्रीकृष्ण के वियोग में व्याकुल गोपियों की विरह भावनाएं श्रोर भनच्वेषण के प्रयत्त दिखाए है । स्वे्यों कौ सी सरस संगठित शैली है। >< >< 2८ ५८ ( ७६ ) ३७ त्रिभंगी यह ५ बिभंगी छंद के पद्मों का संग्रह है। जीव को भगवद्नाक्त का उपदेश रचना का विषय है। संस्कृतत्रहुल समस्त भाषा शैली का आशा ण इसमें हुआ है। >< ५८ ५८ ३८, परमहंतावली यह रचना ५३ दोहों की “गुरुमुद्बी? है। निब्राऋसंप्रदाय के गुरुग्रों की हंस सनक से प्रारंभ कर बवृदावनरेव जों तक को तामाव॒ली का यत्र तन्न गुरा वर्णव के साथ उल्लेख हुआ है। कवि का संप्रदाव निश्चित करने में रचता महत्वपूर्ण है। जित गुझग्रों के नाम इयमें श्राएं हैं वे यवाक्र संप्रदाय के प्रसंग में दिखा दिए गए हैं। ये सभी निद्रार्क संप्रदाय के गुह हैं। ५८ >< >८ ३९. कतृत्व तथा शीर्षक परीक्षा इन रचनाओं के आदि, अंत या मध्य में कवि ते अना सलाम कप से कम एक बार श्रवृश्य दिया है। नाप ओआनंदबत' ही निबतर झझ से आया है। रचताप्नरों का नामकरण निम्पलिखित रबताग्रों में कवि ने स्वयं क्षिया है! इश्कलता <- ४विरह सुन सों वारि करि घर अ्ान॑द सो सींच। . इश्कलता भालर रहो हिये चम्रन के बीच ॥” यमुताय ग-- “जपुना जस वरतन्यों विसद विरवधि रस को मूल । जुगल केलि अनुकूल है बससिबो जमुता कुत ५? प्रीति पावस-- “सरस प्रीति पावस ज्यों बरसे। त्यों ही सब रितु को सुख सरसे ॥” हम पत्रिका-- “या पाती को देखि प्रथिक प्रारने लहँ” २६ “झकथ कथा की पाती छारो है भई ६” ( ७७ ) प्रेमसरोव२-- “प्र म सरोवर भ्रमल वर ढिग कदंब तरुपाँति। १” ब्रजविलास-- “ब्रज विलास दरसे सदा ब्रज मंडन को साथ । ६५” सरस वसत--- “सरस वसंत प्रीति की गोभा | प्रमटित होत विराजत शोभा । २०१ अजनुभव चंद्रिका -- “प्रकटी अनु भव चंद्रिका भ्रमतम गयौो बिलाय | प्र? रंग बधाई-- “रंग बधाई को सुख जैसी । मन लोचन नदि जातत तैसो ।(” प्र मपद्धति-- “प्रगट प्र म पद्धति कही लही कपा अ्तुसार । १०६? गोकुल गीत-- “नंदराय को गोकुल ग।ऊ । आप वरनि आप ही सनाऊ ।7 गिरिपृजन -- (/गिरि गोधन पुजन ढिग अधयौ। ब्रजवासित को अति मन भायो ।!” विचार सार-- “पब विचार को सार हैं या निबंध को मान | ८७? दानभदा < “दान घटा मिलि छवि छटा रस घारनि सरसाय । १४” कृष्णुको मुदी-- / कृष्ण कौबुदी नाम यह मोहन मधुर प्रबंध | ८४? प्रिया प्रसाद-- “या प्रबंध को नाम हु पायौ प्रिया प्रसाद । ८८ “प्रिया प्रसाद प्रबंध को पाय सवादहि लेत | ८६ जज रवरूप -- “ब्रजस्वरूप बरने ब्रजबाती। और कोन की बुद्धि श्रमानी । १०४१ गोकुल विनोद - “तंद गोकुन बरति बानी विसद जोदि निवास । १” “बन बिनोद प्रसाद सों पात्रन अखिल ब्रह्मंइ ।! ६४ अजप्रसाद -- “ब्र॒ज्ञ प्रसाद ॥जरस उदगा[र | रतिक सजीवत प्रात अधार । १४२” ब्नतव्यौहा र-- “मोहन ब्रज त्योहार बखानौ | हिये बैठि रसना पे आानी। १३८” बिके, लाचना -- है ९: ४ पदावली और निबंध रचनाएँ पदावली तथा निबंध रचनाएँ आनंदघर जो के भक्ति काल को हैं ज॑सा कि उनकी जीवतसंबंधी किंवदंतियों से प्रतीत होता है। कवित्त सवयों में शनुभूत्यात्मक्ष लौकिक प्रेत के भाव हैं। वे उतके झांगारी जीवन की कृति कही जाती हैं । कवित्त सवेयों से दूपरे प्रकार को रवनाप्नों में अनेक श्रकार का अंतर स्पष्ठ प्रतीत होता है | एक तो फवित्त सबेयों में जो वक्रतापूर्ण शैली का झ्राश्रथशु है वह इन रचनाओं में कहीं कहीं भ्रत्यंत श्रल्त॒मात्रा में मिलता है। शब्दावली तो नि:संशय वही है जो कवित्त स्वेयों में है पर वाक्य रचना प्रपेन्नाइत सरल तथा सोधी है। कवित्त सर्वथों के कवि से उसके उत्तरकाल में जिस प्रौढ़ि तथा परिमार्जत को घाशा की जा सकती थो उसका भो यहाँ झभाव है। वितनशली में अंतर है। इत रचताओ्रों का विषय भक्ति है। कवित्त सवेयों में भो भक्त भाव के कुछ पद्म श्राए है। कृपाकंद निबंध, दान घटा तथा वृंदावन «संबंधी पद्म सभी भक्तिमाव पूर्ण हैं। पर उन में शैली जैसी चमत्कार पूर्ण, प्रभविष्णु एवं गंभीर है उसका यहाँ अश्रभाव है । यही नहीं मावों की उन्मुक्तता के दर्शन जैसे कवित्त सबेयों में होते है वंसे पदावली में तथा निबंधों में नहीं है| वहाँ परमेश्वर का स्वरूप दाशंनिक अधिक है भ्रवतार स्वरूप कम । केवल लीलावर्णात में कृष्ण का रूप अवतारी है। भक्ति के भाव भी भक्ति शासत्र को परंपरा से बद्ध नहीं है। भक्तिभावना में किसी संप्रदाय विशेष का अनुसरण वहाँ नहीं किया गया प्रतीत होता हैं । प्रमश्यृंगार के भाव भी इसी प्रकार शूंगार शास्र या साहित्य शास्त्र की परंपरा से मुक्त हैं। दो शब्दों में कवि का स्वरूप वहाँ रीतिमुक्त है। पर साथ ( ७६ ) पदों एवं निबंधों में राधा कृष्णु के नाम पर जो मारक्तिभाव व्यक्त किए है वे सांप्रदायिक हैं। निबंबों में राधा कृष्ण के बत बिहार (ब्रजव्यौहार) जल बिहार (गोकुलविनोद) तथा सुरतादि (मनोरथ मंजरी में) के वर्णन आए हैं वे पर्याप्त खुने हुए हैं। शिष्ठता और भावात्मकता जैयो कवित्त सवंषों में हैं उसके यहाँ दर्शन नहीं होते । पदावली में भी सुरत, सुरतांत, परकोया, रति प्रच्छुन्न रति आदि भाव के पद मिलते हैं। सुरतवर्णात यथा:-- “भुत्र भुरि भरि गाढ़े लगाई री सुन् छतियां प्यारे, श्रानन पियराई, घरक हियराई बहुत बतियां प्यार पीक कपोल सुहाय, छाग्र जगी लगी श्रावनि झआखे मदमतियां प्यार ॥ अंग भ्रंग ऊठ भ्रनूठी भई आनंद घन घुरि घुरि ढुरि दुरि भिनज्नई रिकाई सब रतियां प्यार! प्रभिसार के लिये नायिक्रा को उद्यत करातो हुई दूती के वचत्:--- ४ कहा तू प्रंजन दे करि है है । “पिय की हियतें हस्थों सहज ही ग्रव्धों कहा हरिहे है । ५ हि 5 “आनंद घन सौ दामिन है मिलि चंद चत्यौ ढरिहै है । नायिका को नायिक्र के हाथ सौपती हुई दूवी के बचत ये हैं:-- “ल्याइहौ मनाइ करि करि मनु हारि. अरब तुम लेहु निहोरि रसिकवर समु्ि संभारि | जाके श्रंग श्रंग सुख चहिए ताक़ी सहिये रारि गारि । श्रानंद घन तुम सुघरराय रस राखिये विचार । सुरतांत सौदर्प का वर्णन भी मिलता हैं ।-- “चितवन और भ्ररसीली बोलनि सुरसीली डोलनि ढीली ढोली । पिय समीप निसि सुख की झलक मुख विशुरी अलक । अ्रह लगी ललित कपोलनि पीक लोक छुत्वीली । १--श्रा० प० ६९७६ २--वही ४७७ ३-वही ५१२ | ८० ) श्रंग प्रंगरानि जंभानि जानि भुकि मरगजी सारी भ्रति सुबसीली । मुकुर देखि भ्रवरेखि मनहिं मन श्रानंद घन कछु भोहति होतिहि सीली ।४* प्रच्छेन्न परकीया रति 'लई कन्हैयां ने हों घेरि, “खोरि साँकरी माँफ सँकोखे प्राइ गयौ कितहूँ ते हेरि । कोरी भरी ऊपरी औचका श्रकली काहि सुनाऊल्टेरि | आनंद घन घुरे सराबोर करि पठई घरलीौ निपद घेरि ।”? रा ४8 हय पदावली में प्रेम का स्वरूप परिवारिक भी कहीं कहीं हो गया है॥$ कवित्त सवयों में इस तत्व के कहीं भी चिह्न नहीं मिलते। यहां श्री कृष्ण के साथ गोपेका प्रम को “ननदिवा' दूर से पहचान लेती है |-- “अब तो जानि हैं ज् जाती बजमोहन सुखदानी । मेंगी तिहारी लाग नवदिया दूरि कितहु पहचानी । चौकस भई रहति है बरिनि जो5उब निकत्ियँ पानों। वाकंडर सूख ते श्रानंदघन इतके कर नकबानी॥। आ० घ० पदा० २३३ इस तरह से कवित्त सवैयों से पदावली तथा निबंधों में शैली और भावों का भेद प्रतीत होता है। इस भेद के कारण श्रापाततः यही अनुमान होता है कि स्पा श्रानंदवत श्र घन श्रानंद दो पृथक पृथक कवि हैं। कवित्त सर्वयों का कवि प्रमी घन शआरानंद है, जो श्रावश्यकता वश अ्रपनें को श्रानंदवन भी लिखता है और निबंध तथा पदावली का रचयिता भक्त श्रानंद घन हीं है। कवित्त सवेयों में जिस प्रकार प्रानंदघन और घन आनंद दोनों प्रयोग मिलते हैं उस प्रकार इन रचनाओं में नहीं । यहाँ केवल श्रानंदघन ही नाम श्राता है केवल एक बार 'घन आनंद! शब्द पदावली में प्रयुक्त हश्ना है। घन आनंद झौर आनंद घन” पुस्तक का संपादत करते समय श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र को भी ऐसी धारणा हो गई थी । आनंदधन जो नंदगाँव के ब्राह्मण थे इन भक्ति प्रधान ऋृतियों के रचयिता मान लिए गए थे । फलत; मिश्र जी ने १--११ १ २--बही १६७ ( ८5१ ) घनभानंद से पृथक् ही श्रानंदवन भक्त को इस संग्रह में रखा है। उनका विश्वास था कि जबतक पवरा प्रमाण न मिल जाय तबतक आनंदघन को - भी एक मानने को जी नहीं चाहता । इस संदेह का कारण यह भी है कि इन रचनाश्रों में 'सुनान! छाप नहीं है । पर यह संशय तबतक ही पुष्ठ प्रतीत होता या जबतक कवि की पूर"ँ रचनाएं उपलब्ध नहीं हुई थीं। 'घुरलिका मोद! से उनके समयका निर्धारण हो गया और कालभेद के कारण नंदगांव के श्रानंदघबत तथा निबंधकार भ्रानंदघत दो पृथक् पृथक् ही व्यक्ति मानते पड़े। इसके अभ्रतिरिक्त भौर भी श्रतेकों प्रमाण निबंध तथा पदावली के कर्त्ता को कवित्त सर्वयाकार कवि से अभिन्न सिद्ध करते हैं । १--कपाकंद निबंध तथा दानघठा का रचयिता कवि कवित्त सर्वयाकार से भ्रभिन्त है इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं होता | भाव झ्लौर भाषा, दोनों की शेली, नाम आदि उभयत्र एक से हैं। छतरपुरवाले ग्रथ में पदावली तथा निबंधों के साथ ही कृपाकंद निबंध की भी गाना की गई है। 'सुजावहित' तथा घन आनंद” कवित्त के हस्तलेखों में मो दानघटा और कृपाकंद निबंध संमिलित है । श्रत: कृपाकंद निबंध एक ओर तो कवित्त स्वयाकार से संवद्ध दै दुसरी श्रोर पदकार से । २--प्रेमपत्रिका निबंध होने से भक्त श्रानंदघन की रचना है पर उसी के हस्तलेख में ६७ कवित्त सब्बंये तथा एक सोरठा श्ौर एक छप्पप भी जो धघन श्रानंद” कवित्त के हैं सम्मिलित हैं। इस तरह दृदावन मुद्रा में पाँच कवित्त घन आतंद कविच के संग्रहीत हैं। इस प्रकार € गाने के पद कृपाकंद निबंध में संग्रहीत हैं। इसपे प्रतीत होता है कि संग्रहकार ने दोनों रचनाग्रों का कर्ता एक ही समझा है। हस्तलेखों के संग्रह भी इसी झोर रुंकेत करते हैं। ३--बू दावत से जो हस्तलेख की प्रति प्राप्त हुई है उसमें निबंध शोर पदों का ही संग्रह प्राधान्येत है। पर “झपाकंद निबंध” और दानघटा' उन्हीं रचनाश्रों के साथ साथ संगहीत हैं। लंदन संग्रहालय वाली प्रति में तो कृपाकंद निवंध के श्रतिरिक्त 'कवित्त संग्रह” भी साथ ही संग्रहीत है। धसुजान हित! के साथ हस्तलेखों की एक ही जिल्द में “वियोगवेलि! यमुनायश” झौर प्रीतिपावस!” मिलते हैं। श्रतः प्रतीत ऐसा होता है कि पु ( ८१ ) ग्रानंदवनजी की शुंगारपरक रचनाएं भवितपरक रचनाओं से पृथरक् बहुत पहले ही संग्रहीत कर ली गई थीं । कहीं साथ ही साथ श्रौर कहीं पृथक पृथक सुरक्षित की गई थी | रचनाएँ एड ही कवि की समर्क जाती थीं। ७--आनंदघनजी की जीवनी संबंधी प्रमाणों में प्रायः उनके गानप्रवीण होने के साथ साथ सुजानप्रेम की चर्चा की जाती हैं। इससे सुजान प्रेमी व्यक्ति को ही गेय पदों का कर्ता होना चाहिए । ५--शब्दा वली तथा मूल चिंतन प्रवृत्ति कवित् सवेयों तथा पदों में एक सी ही हैं। प्रिय को प्रातंद का वर्षयिता घन मानता, संयोग वियोग दोनों में श्रभिलाषातिरेक का बना रहना, प्रेम मांग में बुद्धि को तगएय मानना, प्रिय को घन श्रथवा चंद्र, तथा प्रमी को पपरीहा या चकोर बताकर शभ्रनन्य प्रेम की साधना करना, प्रिय को बहु प्रमासक्त तथा प्रेमी को भ्रनन्य प्रम का साधक दिखाना श्रादि भाव उमयत्र समान हैं। प्रीति पावस कवि की साधा- रण रचना है। इसमें किसी प्रकार की वक्रता के दर्शन नहीं होते पर शंपुुप्रसाद बहुगुना उसकी तुलना कवित्त सबेयों से करते हुए लिखते हैं कि “रखना की शैली में शिथिलता है, इसमें कोई संदेह नहीं कितु उससें विद्यमान भावधारा वही है जो घनानंद की श्रन्य रचनाश्रों के मूल में है। ड्देंग भ्रवश्य तीव्रता पर नहीं है। कितु शभ्राकांक्षा के मूल में चातक की प्यास निहित है। बिंदु के समान वह पावस की बूढदों में व्याप्त है। बरसकर फैलकर सागर वह श्रभी नहीं हुई। कुररी का रुदन श्रभी शेष था। विरह ने प्रेम के सागर को लहराया है जिसकी झलक वियोग की वेलि से दिखलाई देने लगती है। ६--पदावली में एक बार श्रानंदघन : पद संख्या ४७०६: तथा चार पाँच बार 'सुजान! शब्द का भी व्यवहार हुआ है। ७--वियोग बेलि! प्रीतियावस! धाम चमत्कार!', गोकुलविनोद झ्रादि निबंध रचताओ्रों में तथा कतिपय गेयपदों में शली की हल्की वक्रता भी मिलती है। ८--कुछ ऐसे बाह्य कारण है जिनसे शेली का भेद हो सकता है। क--शैली विवेचन में लेखक ने पभ्रानंद घन का एक पद उद्ध त किया है जिसमें उनकी लौकिक छलछंदपूर्ण वाणी से घृणा तथा भत्तिपूर्ण रचनाओं ( 5 ह ) से स्नेह प्रकट होता है। दूसरी ओर भड़ीवा छांदों में कचि की सुजान छाप से लिखी रचना की निदा की गई हैं। इससे प्रनुभाव होता है कि कवे ने जान बूक कर वक्रतापुर्ण शेली का उत्तर काल में त्याग कर दिया था। भक्ति भाव की तमन्मयता में साहित्यिक चमत्कार और भाषा को साजसब्जा स्थाग दी थी । ख--पदावली के पद गेय हैं। उनका प्राकार छोटा है । प्रायः सबके साथ राग ताल का विवरण दिया हुग्ना है। वूंदवन के मंदिरों के श्रधि- कारियों की बहियों में इनके पद तत्तद श्रवसरों पर गाने के तिमित्त॒ पहले से ही संग्रहीत चले भ्रा रहे हैं। राधावलल्लम संप्रदाय के श्रीरपलाल गोस्वामी से लेखक ने सैकड़ों पद उतार कर लिए हैं पर वे नवीन नहीं हैं। दूसरे राग संग्रहों में भी इनके पद संग्रहीत हैं। ऐसे यथार्थत३ गेयपदों की भाषा सरल सीधी होना अपेक्षित है । ग--निबंधों में बहुतसी तो कीर्तन की रचनाएँ हैं। उनमें काव्यविच्छित्ति का प्रश्न ही नहीं उठता । शेषमें से कुछ में चमत्कारांश हैं भी । कुछ में चौपाई छंद का प्राश्नयण करने से नहीं रहा । यह छंद ब्रज भाषाके अ्रनुकूल नहीं पड़ता । घ--भावपरिवतन के तत्व जो दिखाई पड़ते हैं उनका भी हेतु है। कवि सूलत: रसवादी है। इसलिये सुजानप्रेमी श्रानंदबन 'बहुगुनी सली बन गया था। इसलिये उसने परमेश्वर को प्रमरमण महारस की मूर्ति आनंद धन! रसिक रसिया माना था। रसवाद या आ॥आनंदवाद का बुढ्धिवाद से विरोध है। इसलिये भ्रानंदघन ने प्रेमप्राप्ति में बुद्धि को श्रधिक्वारिणों नहीं माना । फलत; इन्होंने साहित्यिक क्षेत्र में रसमग्न होकर भावोदुगाक्र व्यक्त किए जो प्रचलित रीतिमार्ग के विरुद्ध सिद्ध हुए। इसलिये कवि अपने लौकिक काव्य में तो रीति मार्ग की तुलना में स्वच्छंद हो गया । पर भक्ति- भव पूर्ण रचनाप्रों में बुद्धिवाद था ही नहीं। उत्तकी भावना का किसों से विरोध नहीं हुप्ना। वह भक्ति मार्ग में परपरानुयायो ही रहा । भक्ति विह्नल हृदय की सहज्ञ प्रवृत्ति में इतनी कठोरता रहतो भो नहीं कि वह साहित्य के मार्गादि का चितन करे। अ्रतः भक्ति के ज्ञुत्र में ये परंपरा के अनुयायी फिर हो गए। उत्तरकाल में चपत्कार का त्याग सभी कवि कर देते हैं। १, घनानंद प१ृ० १६ ( 5५४ ) ६--कवित्त सवेये तथा निबंध एवं गेयपदों की एककतृ कता में सबसे प्रबल प्रमाण तो नीचे दिए गए साम्य हैं जिनमें पद्म के पद्म, कहीं कहीं तो ज्यों के व्यों भाषांतरित कर दिए गए हैं। नीचे लिखे उदाहरण स्थाली- पुलाक न्याय से कुछ ही दिए हैं। भ्रापस में मिलनेवाले पदों की: संख्या और भी प्रचुर मात्रा में है। रुचनाश्रों के परस्पर साम्य-- १--अंजन यहै सूक हु यहै । त्रज रज सरन गहे रज रहै। ह ब्रजस ० ८ “रमन भूमि रज प्ंजन परसे । तब लीला सरूप कों परसे । भा० ६€€ 'ोहन दरस हियौ भ्रभिलाखे । रजकों परस हग निरज राखे। भावना प्र० ११२ 'लखि ले सुख संपति दंपति मैं | ब्रज की रज भ्राँखिन भ्रजन को । सु० हि० (८०७० जै क्षज बन निज दरपन है कियौ | निरखत स्याम सिरावत हियो + धाम चमत्कार ४१ बुदावन सोभा नई नई रसमई गौभा, कहत बने ना स्थाम नैन पहचान हों । राधिका दरस को सुदेस आादरस याहि , च्'ह्योई करत जब जब जैसे जानही । प्रे० पत्रिका ३० २०-१ मांच्ति श्र व लो रहे। युगल अंग जे रंग बिराजें ते बन दल फल फूलनि प्राँज । वृ० मुद्रा० २६ वृदावन माधुरी भ्रच॑भे सों भरी है देखों। स्याम को झनूप रूप त्योंही याहि देखिये॥ प्रे० पत्रिका ३२ फूल ( एप ) ३--रजही सेऊेँ रजहि प्रराधौ । या रजतें रजही अभिलाखो ॥ या रज में रस पुंज समोयों | या रज में परमारथ मोयी ॥| भावना प्रका० १३६, १२६ सीसहि चढाइ घनश्रानंद कृपा ते पाऊं। प्रेमसार धरयौ है समोय बज धूरि में ॥ प्रम पत्रिका ५८ ४--राधिका चरन बंदन करि बखानो | पाय जित बल नंद नंदत हि हाथ करि ॥ चेन भरि नन मधि देहु थिर थानौ । पदावली ८६ स्याम के सखूप को कछुक निरधार होय। ज्यौं कछु कह्यौ पर श्रगाध प्रेम राधा को ॥ प्रे० पत्रिका ३२ ५---हरि चरतन की रज श्राँखित श्रॉजों मोहि यहै अ्रभिलाष रहै नित। पवन वीर तेरे पाय परति हौ श्रानंदधन, पिय तन न ढरकि जाहु हवा हा कर हित । पदा० एरें एरे वीर पवन तेरौ सबें श्रोर गौत वारी | तोसो और कौन मने ढरकौही बानि दे ॥ विरदहदी विथाहि मूरि भ्राँखिन मैं राखौ पुरी । धूरि तिन पायनि को हा हा नैकु आनिदे | सु०हि? २५६ ६--प्रपार गुन ग्राम हो कहा गाऊं। तीरहि गए थकित मति गति होति, है तुमलौ' कहो धो हो क्यों करि श्राऊं । झ्रमित चरित की तरल तरंगनि बिसमय बूडि न ठिक ठहराऊ । हैं उपाय ग्रानंदबत मो हित वो हित सुहड़ कृपा जौ पाऊ ॥ पंदा० ३ मेरी मति बावरी हैं जाय जानराय प्यारे। रावरे सुभाय के रसीले गुत गाय गाय ॥ सु०हि० १२२ ( ८६ ) प्रेम को महोदधि भ्रपार हेरि के विचार । बाबरो हृहरि बार ही तें फिरि आझायोौ है॥ सु०हि० ११६ ७--कसे धीरज रहै हाथ मैं मुरलीधुनि बौराव हो । बैरित मारि जिवाव हो | पदा० १३ उतऊतर पाय लगी मह॒दी सुकहा लगि धीरज हाथ रहै। | सु०हि ०१४० ज्याय के मारत मारि जिवावत | सु०हि० २६५ ८--पहिरी चुनि चोंपनि सों सीधे सवारी सारी सूही । पदा० १६ कैसी फबो घनभ्रानंद चौपनि सों पहरी चुनि साँवरी सारी । सु०हिं० २१८ ६--भांँखिन गही श्रति भ्रनखानि । पीठि दे मो तन तरकि तोरी तिनक लौ कानि॥ पदा० ३२ रूप निधान सुजान लखें बिन श्राखिन मो तन पीठि दई है । सु०हिं० ३ १०--निपट निठ्ुर तिहारी बानि दया तुम यौ' ही करी पहचान । पदा० ४३ भए श्रति निठर मिटाय पहचान डारी याही दुख हमें जक लागी हाय हाय है। प्रको० ६ ११--ब्रजमो हन प॑ मोहे कहूँ न कहा जानौ श्रकूलानि हम भोरी तुम चतुर सनेहीं कौत शची बिधता यह भ्रानि । आनंदघन है प्यासनि मारत प्रान पपीहनि जानि। पंदा० ४३ ( ८७ ) हो मन मोहन मोहे कहूँ तल बिथा बिमनैव की सानों कहा तुम । बौरे वियोगिन श्राप सुजान हाँ हाय कछू उर झ्ानौ कहा तुम । प्रारतिवंत पपीहन को घन भानेंद जू पहचानी कहा तुम | सु०हिं० ४०४ १२--ऐसी भाँति भरियत मरियत नित एक गाँव बसि भए प्रवासी। पदा० ७२ जियौ तुम ही ते बिना तुम्हें मरि मरि जावे एक गांव बसि. बरी ऐसी राखिय मरक | कृपाकंद निबंध ३६ १३--मेघ श्रानंद घन छाय छाय उपषरे हैं । पृदा० १४२ यों उघरे घन श्रानंद छाय के हाय परी यह पहचान पुरानी सु०हि० ३२१२ अंतर में बँठे कहा दुख देत निकसि क्यों न भ्ावत भ्खियन आागे। पदा० २५१ श्रंतर मैं. बेठे पै प्रवासी कौसों अंतर है मेरी न सुनत देया आपनी यो ना कहो । मूरतिं मया की हा हा सूरति दिखेंये लेक ' हमैं खोय या विधि हो कौन धौ लहा लहो। सु०हिं० २७१ १४- कैसे मिलें क्यों हब भ्रनमिलें तुस्हैं जो किये विरह छत छतियाँ । पृदा० ८३७८ महा अ्रनमिलन मिलई जब मिलो | सु०द्नि० ३७० १५--काहि कौ मन मोहि लियौ तब कह कहि को हित बतिया । आनंद घन कितहु बरसौं पै इतहू लगी झौलतियाँ। पदू० ८७८ | 5 ) क्यों हँसि हेरि हन््यौ हियरा श्ररु क्यों हितके चित चाह बढाई । काह को बोलि सुधासने बेनति बनति सैतति सैन चढ़ाई। सो सुधि मोहियमें घन आ्रानंद सालति क्यो हु कढ़े त कढ़ाई | सु०हि० २१ १६- विरहा होली खेलन भ्रायौ । कहा कहों ब्रज मोहन जू जेसो इन सीस उठायौ । रंग लियौ अबलानि श्रंग ते धीर भ्रबीर उडायौ। प्रान भ्ररगर्ज राखि रही हैं तुम हित वास वसायो । नकवानी करि नाक नचावत चौंचंद महा मचायौ। चोवा चेन न रहन देत है जतन चाइ चरचायौ । पदा० ४६९० रंग लियां अबलानि के श्रंगतें च्वाय कियौ चित चैन को चोवा । श्रौर स्ब॑ सुख सोधे सकेलि मचाय दियौ घन श्रानंद ढ़ोवा । प्रान प्रबीरहि फेट भरे भ्रति छाक्यो फिरे मति गति खोबा। स्याम सुजान बिना सजनी ब्रज यौं विरहा भयौ फाग विगोहा । सु०हि० ४७ १७-मोहन म्रति मेरी प्रांखिन भ्रागेई रहे ज्यों खोलों म्दौ त्यों त्यों ही त्यौ ही दृष्टि गहै न बात कहै । पद[० ३४५ दीठि प्रागे डोलें श्लॉन बोले कहा बस लागे सु०हि० ६४ १८--तुमहि बहुत तुम एक हमारे गति चकोर ससि लौ है । पदा० २१६ मुझ जेसी उसन् बहुतेरी बंदी दा भ्रकेलरा । पृदा० ७७४ मोहि तुम एक तुम्हें मोसम भ्रनेक भ्राँहि कहा कल चंदर्हि चकोरन की क॒तोी है। सु०हि० श८७ ( 5६ ) १९--आसा तुम्हें जौ लागि रहे । क्रपापियूष पोष सों तोषित श्रति लहलहनि नहै। हो जिंहि तुम अश्रबलंव कलप्तरु सौभग बेलि बहै। चढ़ि गुत निठपनि लवढि बढ़े नित कितहु सिथिल न है। मन थांवरे विराजां थिर है तिहे रस रासि यहै। पद[० ३१ जहाँ राधा केलि बेलि कुछु की छवनि छायो लसत सदाई कूल कालिदी सुदेस थरे। महाघन शभ्रानंद फुहार सुखसार सींचे हित उत सवनि लगांय रंग भयी भद। प्रेम रस मूल फूल मूरति विराजों भेरे मन प्राल बाल कृस्त कृपा को कलपतद । कृपाकंद निबंध १३ २०--पुकारौ मौन मैं कदिबो न श्रावे । वियोग बेलि० १६ विह्ारी विचारनि की मौन में पुकार है । सु०हि० ३९८ २१-भचंभे की भ्रगनि प्रंतर जरोौ हो। - परी सियरी भरी नाहीं मरौ होौ। वियोग बेलि० १७ सीरी परि सोचनि अ्र॒च॑ भें सों जरो भरों सु० हि २०६ २२--कहीं तब प्यार सौ सूख देन बातें। करो श्रव दूर ते दुख दैन धाते।। वियोग बेलि० हए् पहलें घत भानंद सींचि सुजान कहाँ बतियाँ श्रति प्यार पगी । भ्रव लाय वियोग की लाय बलाय बढाय बिसास दगानि दगी। सु०हि०८ ( ६० ) २३--हिये मैं लै दिए दिए विरहा अ्रभून । वि० बे० है, बारि दियौ हिये में वियोग की श्रभूनौ है । सु० हि० ७६० २४---उसारौ जौ हमें काकों बसे हो वि० बे० १७ रावरी बसाय तो बसाय न उजारिये सु० हि० २१८ २५--हीन भये जल मीन छीन बुधि मैंडी पीरन पावे है। लाय कलक यार श्रपने कू तें ही छिन मरि जावे है। भानंदघन इस दिल दी वेदन लहै सुजान बिहारी है। इश्कलता ४१ हीन भए जल मीन श्रधीन कहा कछु मो श्रकुलानि समानै। नीर सनेही को लाय कलंक निरास हुँ कायर त्यागत प्राने। या मन की जु दसा घन श्रानंद जीव की जीवनि जान ही जाने। सु० हि ० २६--सुखी रहौ सुख देन हमारी हम भरौ। बाको वार न होउ अ्रसीस सदा करे | प्रेम पत्रिका २५७ नित नीक॑ रहौ तुम्हे चाउ कहा पै श्रसोस हमारियौ लीजियैजु । सु०हि० २५७ २७--लाज लपेत्यौ चाव भ्र० विला० २१ लाजनि लपेटी चितवनि भेद भाव भरी प्रको० १ २८--संग लगें डोले सदा बोले नाहिन बात रे ब्र० विला३० हे जी)? दीठि श्रागे डोले जो न बोले कहा बहा बस लाग सु०हि० ६४ २६--एक बात बूभी सु क्यों श्रनमिल की कुसरात व्र७ विलास ३० मिलेह तिहारे भ्रनमिले फी कुशल है सु०हि० ६१ चाय बाबरो गाँव सब भूलन माँक संम्हार ब्रू० वि० रे३े उहि भूलनि संग लागी सुधि है सु०हिं० ६६ ३०--ब्रज मोहन में है रह्यौं देखत विरही लोग | याते कछु कहत त बने भ्रचिरज विरह सजोग । ब्रृ० वि० द्र्ष दुसह सुजान वियोग बसों ताही संजोगनित । बहुहि पर॑ नाहिं सम गमे॑ जियरा जित को तित । सु०हि० श्द्व९् ३१--कब मिले बिछुरे कब॑ बिसम विसासी स्याम । मिले प्रमिल श्रामिल मिले ये कपटित के काम । सु०हि० ४५ मिलहू न मिलाप मिले तन को उर की गति क्यों करि व्यौरि पर सु०णहि० ७२ ३२--महापरम ब्रज प्रेम को कना बरनिय ताहि। मोहन गुन गहि बूड़ियों कौन सके अ्रवगाहि ॥ द्ब्छ वि० ४८ घन प्रानंद एक भ्रच॑भौ बड़ी गुन हाथ हू बूडत कासों काहों सु०हि० १३ ( ६२ ) तरिवौ सुन्यो हो गुन गहैँ घन प्रानंद पै, जान प्यारे गुतनि तिहारे गहि बोरी हों । सु०हि० १३ ३३--क#सन राधिका रूप तें जगमग जगमग होति। सरस वसंत २ प्रानंद की निधि जगमगति छबीली लाल प्रकी० १ ३४---मोहन चंदहिं कियों चकोर प्रेम पद्धति २५, २६ तेरो पपीहा जुहै घन भानंद, है ब्रज चंद पे तेरों चकोर है। सु०हिं० ३७२ ३४--आनंद घन विनोद मकर बरसे । गोकुलगीत १८ सरसो घन शभ्रानंद बारसकों जु रसा रस सों बरसाप हौ जू। सु०हिं० ३४६ ३६--रीफि भ्रपुनपौं वारि विहार भावना प्रकाश० ७२ रीम हू रीकति विवश है लखि रसिक रिफवार | गों० वि? ५६ रीकौ रीभि भीजे घन भानंद सुजान महा । सु०हि० १४४ ३७--लह लहानि जरे बन उर्द बज मोहन श्रंग श्रंग । महारूप सागर उभरि उठत अमोघध तरंग || कृष्ण कौमुदी १५७ झंग भंग तरंग उठ दुति की परिहे मनोरूप भ्रबें धर च्वे | प्र०२ प्रंग भ्रंग स्यामरंग रस की तरंग उठे सु०षद्टि० ३२ . ( ६३ ) ३९--वृ् दावत मौन पुकारति ब० रव० ७५ त्यौ' पुकार मधि मौन सु०हि० ४५१ ४०--उर भौन मैं मौन की घ्घट क॑ दुरि बेठी विशजति बात बनी | सु०हि० १५२ भावता नव वध मुखतें देति घघट खोलि गो० वि० ३० ४१--राधा वदत विकास रस मोहन मधुप सुजान । सरस बसंत सहज तन सोभा । तैसिय बन प्रगठटत गुन सोभा | सरस वसंत वैस की निकाई सोई रितु सुखदाई तामें, तरुनाई उलह मदन मयमंत है। ध्रंग अंग रंग भरे दल फल फूल राजें सौरभ सुरस मधुराई कौ न प्रंत है। मोहन मधुप क्यों न लट्ट है लुभाय भट्ट प्रीति को तिलक भाल धरे भागवंत है । सोभित सुजान घन झानंद सुहाग सींची तेरे तन बन सदा बसत बसंत है। सु०हि० ६ ४२--प्रानंद घन कहूँ कौंच कहु फर ब्रज मोहन सब भांतिन है सब ही कौ। पदा ० २३५६ कहूँ घन झानंद घमद्ि उबरत कहुँ स्०हि० ११३ ४३--नंद सुन् पद लालन लोसे। रमा रसिकिनी पावति छोपे ( ६४ ) कमला तप साधि श्रराधति है श्रभिलाष महोदधि भंजन के | हित संपति हेरि हिराय रही जित रीक बसी मन रंजन के। सु०हिं० ४६७ ४४--यह ब्जरज मंजन को मंजन | यह रज परमांजन कों भ्रंजन | भा० प्र० १३७५ ब्रज रस स्पाम सरूपहि सूके बिन रज लहू न कोऊ बूमे ब्र० सर्व० ७१ घन प्रानंद रूप निहारन कौ ब्रज की रज श्राँखिन अंजत के | सु०हि० ४६५७ ४५--घुप्तति फिरति भरति भाँवरी । नित संगम रंगनि साँवरी | य० य० १४ ऐसे रसामृत पुरित है भरिबोई कर अभिलाषनि भाँवरी । है श्रमुता जमुना घन आनंद सांवरे संगम संगनि साँवरी । सु०हि० ४७३१ ४६--रीकनि ले भिजई प्रान॑ंदधन मतिभई भोरी है । पदावली ५२२ घन पभ्रानंद लाज तो रीभनि भीजे मोह में श्रावरी है ब॒धि बावरी | हे सु०हिं० ३७ ४७-प्रचरज भर लाग्यौई दरसे । घन तरस चातक रुचि बरसे | प्री० पा० ५२ ज्यौं ज्यौँ उत भ्रानत पे श्लानंद सश्रोप श्रोर त्यौ' इत चाहनि में चाह बरसति है प्र० १३ ७८--मति भ्रति रीभि विचार बिकाई य० य० ५ ( ६५ ) रोकि बिकाई निकाई पे रीक्ति थकी गति हेरत हेरत की गति । जीवन घूमरे नैन लखें मति बौरी भई गति वारि कै मोमति || सु०हि० ३४ ४६--प्राँखिन कहा दिखावों मन बैठे रहो। निकसि गए तजि नेह प्रात पैठे रहो ॥ प्रेमपत्रिका १६ ऐसें कहाँ कैसे घन आनंद बताइ दूरि मन सिधासन बैठे सुरत महीप हौ | सृ०हि० 8४ तीसरा परिच्छेद भाषा ते ही महा बअजभाषा प्रवीन ।! भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहे ।' ( ब्रजनाथ ) प्रानंदघतजी के भाषा संबंधी विचारों से प्रतीत होता है कि वे काव्य के इस श्रंग के विषय में विशेष सचेष्ट थे। भाषा संबंधी उनके श्रपने निजी कुछ भादर्श है जिनका उन्होंने भ्रपनी रचनाओ्रों में पालन किया है। झादर्श ये हैं । १--कला की भाषा में एक प्रकार का श्रावरण रहता है। वह खुली नहीं होती । झ्ानंदधनजी ने भाषा को वनिता जैसी लजीली बताया है, जो मौन का घृघट डाले रहती है,--'उर भोन में मौन को घ्घट के दूरि बंठि विराजत बात बनी ।! २--इसी लिये इसे बुद्धिमत्ता के साथ सृजान रुमझ सकते हैं। वह सर्व साधारण की समभ की वस्तु नहीं है । धन श्रानंद बूकति अंक बसे बिलसे रिफवार सुजान धनी ।' ३--कजा की भाषा का यदि स्वानुभूति से जन्म होगा तो उसका रूप दूसरे भाषा स्वरूपों से भिन्न होगा-- अचिरज यहै शौर होते सुर लाग मैं |! 9--श्रेष्ठ भाषा वही है जिसका उत्थान श्रनुभूति के कारणा हुआ हो | शब्द वक्ता के श्वास के धागों-का बुना हुआ वच्ञ है जिसपर उसी के झनुराग का रंग चढ़ा रहता है-- सूछम उसास गुन बुन्याँ ताहि लखे कौन॥ पौत पट रंग्यौं पेखियत रंग राग मैं। सु०हि० ४४२ ( ६७ ) प-वाणी मनुष्यों में भ्रांति भी पैदा करती है और सत्य का श्रवगम भी कराती है। यद्यपि सत्य वाणी से परे है फिर भी उसकी शोर संकेत वाणी द्वारा किया जाता है। श्रत: वाणी के यथार्थ रूप को जाने बिता उसका उचित उपयोग नहीं किया जा सकता । यथार्थ रूप का परिचय जीवन के तत्व का बोध कर लेने तथा उसमें मस्त हो जाने से मिलता है। कोरा वाचनिक ज्ञान भी भाषा पर श्रधिक्षार करते के लिये पर्याप् नहीं |--- प्रच्छर मन को छरे बहुरि अ्रच्छर ही भाव | रूप अ्रच्छरातीत ताहि अ्रच्छरे बताबे॥ तत्व बोध बौरानि मैं भ्रच्छर गति अच्छर लहै। प्रकीर्णक ७१ इन आद्शों से यह निष्कर्ष सरलता से निकल श्राता है कि आनंदघन जी की ह ट में काव्य की भाषा का सर्प साहित्यिक है श्रौर वे मर्मज्ञों के लिये वाक्यरचना करते थे, सर्वसाधारण के लिए नहीं। दूसरे श्रनुभ्ृति का भाषा के साथ नित्य संबंध मानते थे। भाषा के गुण उनको दृष्टि में अ्रनुभूति से ही ग्राते हैं। - इन आादर्शों की छाया में श्रानंदबतजी की भाषा का परीक्षण किया जाए तो प्रतीत होता हैं कि कवि ने भ्रपनी काव्य भाषा के गुणों को श्रादर्श का रूप दे दिया है। उनकी रचता भक्त संबंधी हो चाहे लौकिक प्रेम संबंधी उसकी भाषा सत्र साहित्यिक है। इनके शब्द चुने हुए हैं। व्याकरण व्यवस्था का संघटन पूर्णछूष से वर्तमान है। रसानुकुल कोमलता तथा सरसता उत्तम कोटि की उसमें विद्यमान है। लक्षणाओं का योग उसे और ्रधिक प्रतिभावेद्य बनाता है। श्रतः वह साहित्यिक ही है पर क्न्रिम और निर्जोव नहीं है। मुहावरों के प्रच्च॒ुर प्रयोग द्वारा वह सजीव है साथ ही व्यावहारिक भी | मुहावरों के प्रकारों की परीक्षा करने पर भी वे नागरिक सिद्ध होते दं ग्रामीण मुहावरे नहीं हैं। वेसे मुहावरों तथा लोकोक्तियों का जितना प्रयोग अशिक्षित जन समाज में होता है उतना शिक्षित में नहीं । जायसी ने जो मुद्ावरे भ्रपती भाषा में व्यवहृत किए हैं वे जनपदीय हैं। पर सुर भौर श्रानंदघन के मुहावरे नागर हैं। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि ब्रजभाषा के नागर तथा ग्रामीण रूपों में श्रधिक श्रंतर नहीं होत/ था। प्रशिक्षित जन समाज की भाषा संपत्ति ही नगरों में व्यवहृत होती है । दूसरे ९ ( ६८ ) श्रानंदवनजी को मुहावरों के प्रयोग की प्रेरणा फारसी साहित्य से मिली है। फलत: नागरता का इसके साथ यंग होना स्वाभाविक था। इस तरह व्यवहारिकता, सजीवता श्रोर साहित्यिक उच्चता तीनों गुण इनकी भाषा में संयुक्त हुए हैं । जनपदीय शब्दाली का भी इन्होंने पर्णाप्त प्रयोग किया है। उन्हें साहित्यिक भाषा में मिला कर परिष्कृत कर लिया है श्रौर व्यावहारिक होने से उनकी जो विशेष श्र्थद्योतत क्षमता है उसका सदुपयोग किया है। सोवर ( प्रसुतिका गृह ), ठेहुले ( शुभ अवसरों के श्रनुष्ठान ), गरेठी ( पूरे भरे पात्र से कुछ कम ), बरहे ( जंगल ), सल ( पता या ज्ञान ), संँजोखे € संध्या का अ्रतिम भाग ), लथेरि ( लपेटकर ), उजैना ( उद्यापन करना ), नाज ( अत ), न््यार ( चारा ), पैछर ( पैर की आवाज ), भर (सब के सब ), श्रौटपाय ( उपद्रव ), बेड़ी ( रोक ), इत्यादि शब्द जनपदीय हैं जिनब् वा प्रयोग उन्होंने किया । इस तरह श्रानंदघनजी की भाषा में नागरिक साहित्यिकता, मुहावरों की व्यावहारिक सजीवता तथा व्याकरणा व्यवस्था का ऐसा श्रपूर्व संयोग हुआ है कि इनके सिवाय उस समय के श्रन्य कवि की भाषा में वह नहीं दृष्टि- गोचर होता । बिहारी को भाषा भी साहित्यिक तथा व्यवस्थित तो है पर सजीव और लाक्षुणाक वह नहीं है, जैसा कि भानंदघनजी की भाषा है। उपयुक्त विशेषताएं इनको भाषाविज्ञता 4 परिचय देती हैं। इसी से संबंध्रित गुण लाक्षशिकता का है। हिंदी तथा संस्कृत के लक्षण ग्रथों में लक्षणा और व्यंजना की स्थापना, उसके गुण श्रादि की प्रशंसा तो बहुत की गई है। उसके भेद उपभेद भो हजारों की संख्या तक पहुँच गए थे। पर हरुक्बषुणा का उपयोग प्रा०; नहों हुआ। भाषण अ्रभिधाप्रधान ही बनी रही थी। जितने लाछ,णक प्रयोग भ्रलंकारों की परिधि में श्रा गए थे उतने ही कवियों ने व्यवहार में लिए। आ्रानंदधनजी ने हिंदों साहित्य में लक्षणा शक्ति का प्रथमावतार किया है और वह उच्चकोदि का है। इनके से व्यक्तिगत सूक्ष्म भाव भेद और अ्ंतर्देशाएं श्रभिधाप्रधान भाषा द्वारा व्यक्त ही नहीं की जा सकती थीं। इन्होंने भाषा की इंस नवीन पक्षुय शक्ति का इसके लिये उपयोग किया । यह इनका नवीन दिशान्वेषण है । लक्षुणा भाषा का बहुत बड़ा बल है। इसके सहारे थोड़े शाब्दकोष को भाषा भी गहरी औझौर सुक्षत श्र।भव्यंजता ( ६६ ) कर सकती है। आजकल हिंदी की अर्थद्योतन द्वमता बढ़ाने की समस्या जँती विद्यमान है उस संबंध में ग्रानंदघनजी दिशानिदेंसक हं। यह सूक मी भाषा के साधारण सिद्धांतों को मर्मज्ञता का परिचय देती है ।* इनकी भाषा विशुद्ध है । ब्रजभाषा के ये कवि हैं। इनके समय में ज् ज- भाषा का ज॑सा स्वरूप विद्यमान था, उसका समस्त श्रच्छाइयों के साथ उपयोग इन्होंने किया है| दूपरी भाषा के शब्दों का मिश्रण उसमें नहीं किया | आश्चर्य की बात यह है कि पद पद पर फारसी से प्रेरणा लेनेवाले श्रानंदधत ने अपने भाषा क्षेत्र में फारसी उदू की खजूर बेरिया नहीं उयने दी। इनके मित्र नागरीदासजी ने अपनो भाषा को फारसी की शब्दावली से पर्याप्त प्रभावित किया था | पर आन॑ंदघन इससे सर्वथा अछूते रहे। केवल इश्कलता में फारसी के शब्द व्यवहृत हुए हैं। वह छाया रचना सी प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त सभी अन्य रचना शुद्ध ब्रजभाषा में ही को है। बिहारी जैसे भाषामर्मज्ञ भी क्षआ फारसी के प्रभाव से न बच सके तब उसकी अश्रनेकों अच्छाइयों को पाकर हजम करनेवाले आनंदधत ने उसका बाहरी प्रभाव अपने काव्य में नहीं आने दिया । यह कमर मह॒त्व को बात नहीं । फारसी ही नहीं संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी इनके काव्य में नहीं के बराबर है । जो शब्द हजारों वर्षों के प्रयोग के श्रनंतर मी अ्रपने तत्सम रूप में ही रहे हैं जैसे तप, योग, प्रात, मीन, कंज, खंजन, विष श्रादि, वे ही उन्होंने अच्तुतरूप में लिखे हैं। शेष सब का तदभव्र रूप हो व्यवहृत किया है। उच्चारण घ्वनि विकार श्रादि से वे ब्रजभाषा के बन गए हैं। अगिलाई, उदेग, अ्रथिर, निहकाम (तिष्काम), सुतंतर, दुखहाई, त्रसरेनि (त्रसरेणु), अकह, वेदनि, सौनि ( सुवर्ण ) आदि शब्द इसी प्रवृत्ति के परिचायक हैं। व्याकरण व्यवस्या बिहारी की सी इनको भाषा में है। शुक्लजी का यह कथन कि बिहारी और घतानंद को मिलाकर ब्रजभाषा का समूचा व्याकरण तेयार किया जा सकता है सत्य है। क्रिया श्रौर कारकों का रूप विकास, कुदंत तद्धित विकास, वचन और लिंग के अनुसार शब्दों के परिवर्तत श्रादि सब ब्रज्माषा के नियमों के श्रनुसार किए गए हैं। श्रठारहवीं शताब्दी में उदृू फारसी के अंत:पात होने से ब्रजभाषा का जो रूप विकृत हुआ था, उसका परिचय रीतिझाल के श्रर्वाचीन कवियों की भाषा में मिलता है। उस समय १--लक्षुणा का विवरण साहित विमर्श भ्रागे किया जाएगा। (् १७०० ) झानंदघनजी ने विशुद्ध तथा संयत ब्रजभाष में श्रेष्ट साहित्य की सृष्टिकर भाषा का गौरव भी बढ़ाया और उसकी विक्षति की श्रनवस्था को रोकने का प्रयत्न किया । यह इनके ब्रजभाषप्रवीन होने की देन है | इन्होने अपनी स्वतंत्र प्रतिभा से कुछ नए शब्द भी बनाए हैं ज॑से भकभूर, मलोलेमई, भूतागति, दिनदानी श्रादि | भ्रपने ढंग से शब्दों के रूप विकास भी व्यवस्थित किए हैं--जेसे तत्पुरष समास नामरूपों के समान क्रियारूपों में भी किया है, श्रनचाहनि के समान 'अ्विलोकिवं तथा “ननिहारनि' आदि रूप बनाए हैं । इसी प्रकार ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग की बात है। ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग कवि की भावुकता के परिचायक्र होते हैं। इनमें वाचक शक्ति कुछ की होती है कुछ की नहीं होती । पर अपनी ध्वनि द्वारा श्रर्थ का द्योतत सब करते हैं। इस तरह अभिधा के संकेत और ध्वनि की व्यंजना से कहीं कहीं भाव की दविगुण प्रतीति भी हो जाती है। इतका सर्जन भावुक प्रतिभा द्वारा होता है। शभ्रानंदघनजी ने श्रनेकों ध्वन्यात्तक शब्दों का प्रयोग किया है । बादलों के श्राकाश में घिर झ्राने का वर्णान महाप्राण श्रक्धरों के शब्दों द्वारा तथा वायु के सरसराते हुए स्वरूप का उसी के समान ध्वनिवाले शब्दों हारा निम्नलिखित सबेया में किया है। शब्दों की ध्वनि से ही बादल फिरते हुए और वायु सरसरासता हुआ सा लगता है। घ॒टे घटा चहुंधा घिरि ज्यों गहि काढ करेजों कलापिन कछूके। सीरी समीर शरीर दह चहक॑ चपला चख ले करि ऊके॥ स् ०हि० प्ऐे रास में रूटतार तथा मठवने को ध्वनि के शब्दों का प्रयोग निम्नलिखित पद में मिलता है। चटक वंटतारनि की श्रति नीगी लटक सों नाच मटक भरथौ मौंहन | कर चरन न्यास, अभिनय प्रकाश,मुख सुख विलास, मन उरमे घुधरारी भौहन । ग्रा० घ० पदा० ६९ वियोगारिन से तचे प्राणी का चित्र यह है-- “श्रृंत्र श्रांच उसास तचे श्रति भ्रंग उसीजे उदंग की आवस ( १०१ ) ज्यों कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हु कहूं सुधरे नहिं थ्यावस”? सु०हि० १७७ हहरि, घंघोई, धुंपरि, घौले, भकभूर, लहाछेह, चोंप, रसमते, उफित्त झुलनि, मोमति, चहकि, चोज, चुइल, सुरझ, गुरफते, आदि श्रनेक्नों शब्द इसी प्रकार के हैं जो कवि ते अपने काव्य में प्रयुक्त किए हैं। इस तरह मुद्गावरे, लक्षुणा, नवीन शब्दों तथा रूपों का निर्माण, घ्वत्थात्मक शब्दों का रसानुकूत भ्रयोग, आदि गुणों से प्रानंदबनजी को “भाषा प्रवीन, एवं ब्रज॒माषा के शुद्ध संगत, सरस कोमल रूप के प्रयोक्ता होते के कारण व्रज्मभाषा प्रवोन! कहना सवंथा उचित है | इनके विषय में न्रजवाय की ये दोतों उक्तिपाँ मार्मिक और सत्य हैं । इनके भाषा पर पूर्ण अधिकार होते के प्रमायक्न अन्य भो प्रयोग हैं। शली के परिच्छेद में यह बताया गया है कि इन्होंने चार प्रकार को भाषा का प्रयोग किया है। वक्र समस्त तथा वक्र अ्सपस्त, ऋजचु समस्त तथा ऋजच्ञ अ्रसमस्त । शब्दावलो सर्वत्र एक सी हो रहतो है। उतके द्वारा वाक्यरचता प्रतिपाद्य विषय के भेद के करण भिन्नर प्रक्नार को हो गई है। कवित्त, सबेपा तथा पदावलो में कुछ रचनाएं वक्र भाषा में हैं कुछ ऋच्ु में। कवि को चमत्कार की ग्रभिश्यक्ति जहाँ श्रमीष्ठ होतो है वहाँ लक्षणा द्वारा वक्र वाक्यों की रचना करता है । जहाँ वह अनुभूति के मारमिक रूप व्यक्त करना चाहता हैं, बहाँ ऋज्जञु वाक्यों का व्यवहार करता है। भाव जहाँ घने और गंभीर हैं वहाँ समस्त वाक्य आराए हैं। श्रन्यत्र असमस्त । इनका सोदाहरण विस्तृत विवेचन शैली के प्रधंग में किया गया है। वाक्यरचता के चार भेददों में कवर का : भाषा पर पूर्ण भ्रधिकार व्यक्त होता है। वक्र ढंग को वाक्य रचता के विषय में इतना विशेष विचारणोय होता है कि उनमें दुरहता नहीं है। कवि की प्रतिपादत शलों से एक बार परिचित हो जाने पर भाव को गाँठें सरलता से खुन जाती हैं। इपका कारण यह है कि घनानंदजी का चिंतन बड़ा रुपष्ट और स्वानुभृतिमय है। जो बात वह कहना चाहते हैं उप्तकां कषु ऋण उनके हृदय का देखा हुप्रा है। परत: प्राप्त वस्तु उनमें कुछ नहीं है । विलिष्ठता जितनी होती है वह भावों की सूक्ष्मता की या गंभीरता की होतो है। श्रभि- द (० व्यक्ति पूर्ण एवं स्पष्ट है। अतः भाषा का जहाँ तक संजंब है कवि ( १०२ ) कहा जा सकता । नीचे एक सर्वया ऊपर के प्रमाण के रूप में उपस्थित किया जाता है-- हाय विसासी समेह सों रूखे रुखाई सो हूँ चिकने श्रति सोहौ। श्रापुनपी भ्रर. श्राप हु तें करि हाते हतो घन श्रानंद को हो। कौन घरी बिछुरे हो सुजान जु एक घरी मन तें न विछोहो। मोह की बात तिहारी अ्रसुर पे मो हिय को तौं श्रमोहियो मोहों। इसमें वाक्य सरल नहीं है पर वक्रता या सरलता भावकृत है। इसकी शब्दावली और वाक्यरचना विलक्बण है। बहुत से कवित्त स्वेये घनानंद का नाम न होने पर भी इनको रचनासंग्रह में संमिलित हैं। इनमें इनकी शब्दावली तथा वाक्यरचना स्पष्ट प्रतीत हो जाती है। विहारी के दोहों पर उनके ब्यक्तितव्व की छाप की जो बात कही जाती है वह व्यभिचरित भी हो सकती है । घनझ्रानंद के कवित्त सवयों में किसी कवि का पद्य नहीं मिलाया जा सकता । भाषा में इतनी वेयक्तिकता इन्होंने रखी है । ऊपर जो चार प्रकार की भाषा के व्यवहार की बात कही गई है उस पर पहले संदेह प्रकट किया जाता था; कि स्थात् श्रानंदवधत नाम के दो कवि हैं। पर रचना के प्रसंग में श्रनेक समानताएं दिखा कर स्पष्ट प्रमाणित किया गया है कि कवि एक ही है; वह अपनी मनोवृत्ति के प्रनुसार भाषाशैली का परिवर्तन कर लेता है। इतना ही नहीं वह ब्रजभाषा के भ्रतिरिक्त पंजाबी, राजस्थानी तथा श्रवधी भाषा का भी व्यवहूर्ता है। इच विभिन्न भाषाश्रों के पद्मों में कवित्त सवेये या पदों के भावों का ही रूपांतरण है। इतना साम्य दो कवियों की रचनाश्रों में नहीं हो सकता। डा० केशरी नारायण शुक्ल ने अपने घनभ्रानंद विषय के लेख में! यह संभावना प्रकट की है कि पंजाबी भाषा का व्यवहर्ता श्रानंदघन नानकजी का शिष्य श्रानंदघन है जिसने जपजी की टीका लिखी है। पर इस तरह शझूवधी और राजस्थानी भाषाश्रों के कारणु उनका भी कोई प्ृथक् कवि कल्पित करना पड़ेगा। श्रत: जिस प्रकार भावसाम्य के श्राधार पर इन भाषाओ्रों की रचनाश्रों को प्रस्तुत श्रानंदघनजी की ही माना जाता है उसी प्रकार पंजाबी की रचनाझों को भी इन्हीं को मानना चाहिए । नागरीदासजी ते भी इस प्रकार विविध भाषाश्रों जिन जनन कनममका--- "रथ आन>+ नम १--श्री संपूर्णान॑द भ्रभितंदन ग्रंथ, ना० प्र० सभा, काशी । ( १०३ ) के प्रयोग का कौतुक दिखाया हैं। वही कौतुक आनंदघनजी की विविध भाषाओं के प्रयोग में लक्षित होता है। ब्रजनाथ ने स्थात् इसलिये भी इन्हें भाषाप्रवीव कहा हो । पंजाबी श्रादि भाषा के प्रयोग में कोई साहित्यिक सृक्ष्म्ता तो लक्षित नहीं होती। इससे यही अनुमातर करना पड़ेगा कि ये भाषाएं किसी कौतुकी ने उतका विशेषज्ञ न होने पर भी काव्य में प्रयुक्त की है। भाषा के परिवर्तन में नाम से संज्ञा तथा संज्ञा से नाम का विकास बड़े महत्व का होता है। इसके द्वारा वस्तुवाचक शब्द भाववाचक और भाव- वाचक शब्द पस्तुशचक बन जाते हैं । जिनका भाषा पर पूर्ण अ्रधिकार होता है, वे इस प्रकार के परिवर्तन द्वारा श्रपती श्रावश्वकता पूरी करते हैं। आ्रानंदघनजी ने बातुग्रों से विशेषण तथा संज्ञारँ ब्रज॒भाषा को स्वभाव सोमा में जिस प्रकार बन'ई है उसी प्रकार संज्ञा या विशेषरणों से क्रियाएं भी बताकर प्रयुक्त की हैं | संस्कृत व्याकरण में इस परिवर्तत को नामधातु कहा जाता है। इनकी रचनाओ्रों में अधिक से अधिकाति', ५सामुहें' से 'समुहाति! लज्जा से ८लजाति', प्पीर' से 'पीरों! भ्रादि क्रियावाचक शब्द प्रयुक किए है । इसी प्रकार इच्छार्थक प्रक्रिया में “देवता से 'दिखास”, श्रादि शब्द एवं वीप्पार्थ में चितना से 'वितार' भ्रर्थात् बार बार देखता श्रांदि शब्द व्यत्रह्नत किए हैं । ऐसे शब्द संस्कृत ज॑सी समस्त भाषाप्रों में अधिक मात्रा में व्यवहृत होते ये । पर हिंदी में भी इस प्रकार के कुछ शब्द यत्र तन्न बोलवान्न में विकीर्ण पड़े हैं। भाष। तत्ववेत्ता उनका मूल्यांकन कर साहित्य में व्यवहार करते हैं । साधारण शब्दों की अपेक्षा प्रक्रिया शब्द द्वितुण अर्थ देते हैं। 'दिखास' का श्र्थ देखे की इच्छा होता है। स्वाभाविक्त है कि श्र्थच्वीतत की दृष्टि से ये शब्द औरों से अच्छे है । वाक्य रचना में निपातों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। इनके प्रयोग द्वारा बड़े सूक्ष्म भाव व्यक्त किए जा सकते है। आनंदधतजी ने ई (ही) ऐ इहे (एवं) श्रादि ब्रजभाषा के निषातों का श्रर्थव्यंजता के लिये प्रयंग किया है। नीचे लिखे काकु वावय् के सवैये में 'ई” की श्र्थव्यंजना इसी श्रेणी की है-- रूप सुधारस प्यास भरी नित ही असुत्राँ ढरिबोई करेंगी। पावन साथ असाध मई इंहि जीवति यों मरिबोई करेगी। ( १०४ ) हाय महादख है सुखदत विचारोी हियें भरिबोई करेंगी। क्यो श्रानद्धत मीत सुजान कहा श्रखियां बहिबोई करेंगी । सु०हि० ४५५ यहाँ 'ढरिबोई! श्ादि में “” भविष्य के संयोग सुखकी निराशा के आक्ेप से प्रिय की कठोरता को व्यंजना करता है। इस प्रकार 'प्रान पपीह! पमैई पढें! तथा 'चोरेई लेति लुनाइये की लदिमी” श्रादि वाकपयों में “ई” निपात विशेष श्रभिप्राय से प्रयुक्त हुआ है । आरतिवंत पपीहन को घनभ्रानंद जु पहचानौ कहा तुम! | तथा-- 'इत बाँट परी सुधि रावरे भूलनि कैसे डराहनो दीजिय॑ जृ! । श्रादि वाक्यों में 'जु! पद श्रपराधी प्रिय के प्रति सत्कार का वाचक होकर मधुर आाज्लेप की व्यंजना करना है। इस प्रकार की एक पदद्योत्य व्यंजनाप्रों की सिद्धि के लिये निपातों का घनानंद ने प्रच्चुर प्रयोग किया है। इनका काव्य में बड़ा महत्व माना जाता है। । इसी प्रकार कर्तृवाच्य तथा कर्मवाच्य वाकक््यों के भेद का भी श्र्थ- व्यंजना में उपयोग किया जा सकता है। कर्तुंवाच्य वाकोों में कर्ता, कर्म वाच्य में कर्म तथा भाववाच्य वाक्यों में व्यापार प्रधान रूप से प्रतीत होते हैं। इन प्रधानताश्रों द्वारा भाव की सुक्ष्मताएँ व्यक्त की जाती हैं। भाव के कुछ कण इतने कोमल द्वोते हैं कि इनको वाचक शह्दों द्वारा कहने का प्रयत्त किया जाए तो भोस करों के समान बिखर जाते हैं। इनकी प्रभि- व्यक्ति श्रभिधा द्वारा न होकर व्यंजना द्वारा ही हो सकती हैं। ऊपर बताई गईं निपात व्यंजनाएँ ऐसे कोमल कार्य का साधन ठीक करती हैं । आनंदधनजी की वाच्यछपों द्वारा श्र्थव्यंजना नीचे लिखे वाकपरों में देखी जा सकती है-- १--याँ घन श्रानंद रनिदिता नहि बीतत जानिये कैसे बिताऊँ । सु०हि० ३३३ इस वाक्य में कर्म वाच्य की अपेक्षा में कर्तृवाच्य वाक्य द्वारा दिन बिताने को क्रिया का बरबस करना व्यंजित होता है | २--भ्राखि विसासिनि श्रासग ही न तजे इतने पर बाट चितेवो | वही ४६१ ( १०५ ) में चितेबो व्यापार की प्रधानता व्यंजित है जो सब्र कुछ तज देने पर भी नहीं तजी जाती । ३--जीवन मरन जीव मीच बिना वन्यों श्राय, हाथ कौन विधि रची नेही की रहनि है। वही १६६ में जीवत, मरन तथा रहनि क्रिप्रार्थक संजाश्नों के प्रयोग से व्यापार को प्रमुखता दी गई है। इस प्रकार भाषा के प्रत्येक संभव उपाय द्वारा कवि ने श्र्थव्यंजना का प्रयत्न किया है। इससे उतको भाषाप्रवोणता का परिचय मिलता है। इनकी भाषा रसानुकूल भी अधिक से श्रधिक है। कवि का रस श्ूंगार ही है। उसके लिये जिस प्रकार को कोमलकांत भाषा का व्यवहार होना चाहिए वैसा ही इच्होंते किया है। पद्म के पद्म पढ़ जाने पर भी कठोर रसप्रतिकुन शब्द कर्णागोचर नहीं होता । ब्रज॒भाषा को जो शझाुंगार और भक्ति की भाषा बताया जाता है उसका स्वरूप और साक्ष्य श्रानंदबतजी की भाषा में सबसे अच्छा मिलता है। छूंगार और भक्ति का एक एक पद्म इसके उदाहरण में दिया जाता है-- श्ुंगार-- रस आरस मोय उठी कछु सोय लगी लें पीक पग्मी पलकें । घन भ्ानंद श्रोप बढ़ी कछु और सुफेलि फद्दी सुथरी अलकें | भ्रंगराति जम्हाति लजाति लखों श्रंग भ्रंग भ्रनंग दिप॑ भलकें । प्रधरानि में श्राधियं बात धरे लड़कानि फो श्रानि परें छलकें || भक्ति -- हारे उपाय कहा करों हाय भरों क्रिहे भाय मसोस यौं मार । रोवनि भ्रासूँ न नैनि देखेश मौन में व्याकुल प्रात पुकार ॥ ऐसी दसा जग छायो अंधेर बिना हित मुरति कौन सम्हार । है तिन ही की कृपा घनगआ्रानंद हाथ गहै पिय पायतनि डारे ॥ शब्दमनत्री का व्यवहार भो आनंदघनजी का अनुकरणोय है। वह पद्मों में न तो भाषाप्रवाह का अ्रवरोध उत्पन्न करता है न श्रर्थ की स्पष्टता को भमेले में डालता है, साथ ही ऐसे स्थलों पर रसानुकुल कोमलता श्रश्षुरण बनी रहती है। शब्दमैत्री का व्यवहार रीतिकाल के कवियों में इतना बढ़ गया था कि उप्रको ( १०६ ) सिद्धि के लिये श्रर्थ की स्पष्टता, भाषा को स्वच्छंदता तथा रसानुकुलता श्रादि गुण लुप्त हो जाते थे। प्रन॒प्रास ही अ्नुषास रह जाता शा। वह बात इनकी भाषा में नहीं है । यथा -- सोए हैं अंगनि अंग समोए सुभोर श्रनंग के अंग निस््यों करि। केलि कला रस भ्रारस आासव्र पतन छर्ठे घतप्रान॑र यों करें। पे मनसा मधि रागत पागत लागत अ्रंझनि जागत ज्यों करि। ऐसे सुजान विलास निधान हौ सोएं जग कहि व्यौरियै क्यों करि । इस पद्म में सोए! और “ोए! प्थंग” धनंग! और “रंग” "केलि! श्रौर कला” (रस! आरस और आपव” 'मतसा? और 'मबि! धागत! लागत” श्ौर जागत' 'सुजान! तथा “निधान! शहरों में अ्रत॒प्,स का योग है । पर पद्म में प्रेमी झोर प्रेमिका की सुप्त दशा का चित्र जैसा कवि देना चाहता था वह ज्याँ का त्यों सजीव उतरा है। शब्दमैत्रा के लिये प्रवावश्यक्ष कोई शब्द नहों श्राया श्रौर नहीं कुछ श्रनुक्त छुटा है। अनुप्रास पर श्रत्यधिक श्राग्रह भी कवि को नहीं है। ऐसे पद्मों की संख्या कम नहीं है, जिनमें श्रनुप्रासादिशब-द- सज्जा का तनिक भी ध्यान इन्होंने वहीं क्रिया। इतका ध्येय भावनिवेदत है । उसकी क्षति कहीं नहीं होने दो । श्रनुप्रासहीन जाषा में भावनिवेदत नीचे लिखे स्वया में देखने को मिलता है-- जौरि के कोरिक प्राननि भावते संगलियें श्र खयानि में श्रात्रत | भोज कटाछन सों घतश्रानंद छा महारस कों बरसावत | श्रोट भएँ किर या जिपकी गति जानते जावनिहै जु जगावत । मीत सुजान अनूठिये रीति जिवाय के मारत मारि जिदावत । भाषा श्रादि श्र्थगरमित होती है तो उप्तको प्रवाहशीलत', सरलता, कोमलता भ्रादि न्यूब हो जाती है। सार्थक शहद चुप हुए ही हो सकते हैं। उनकी वाकगगरचना भो मुशब्॒थुख था ध्वनिसाम्य की दृष्टि से नहों को जा सकती, भ्रथ को दृष्टि से को जाती है। फवर्व॒ढूप पाषा को प्रवाहशोल बनाने में भ्रथंगमितता कम हो जातो है। श्रर्थगितता को सिद्धि करने में प्रवा र् लुप्त हो जाता है। श्रानंदवतती इस निय्रम के भ्रतवाद हैं। उन्होंने इन दोनों गुणों का संयोग अपनी भाषा में क्रिया है। सबैया तथा दोहे चौपाइयों में ( १०७ ) प्रथैगाभितता के साथ सरस प्रवाह के सर्वत्र दर्शन होते हैं. यद्यपि कवित्तों तथा गौतों में इसकी स्फ़ूजवा उतनी नहीं है। पर सर्वयों में सरल और कोमल भाषाप्रवाह स्पष्ट लक्षित होता है। प्रबंध रचताओं में वियोग बेलि और दान घटा इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं। उनकी भाषा में जितना अर्थ- गांभीर्य है उतना ही प्रवाह भी है। उदाहरण के लिये नीचे लिखा सर्वया उद्धुत किया जाता है--- सूने परे हग मौत सुजान जे ते बहुरधो कब श्राय बसायहों | सोचनि ही मुरभयाँ पिय जो हिय सो सुख सींचि उदेग नसाण्हो। हाय दई घतभ्आानंद है करि कौ लौं वियोग के ताप नसायहों। एहो हँसी जिन जातौ ह॒हप हमें रवाय कहौ श्रत्॒ काहि हँसायहो ॥ न +- दिखाई दीजिये हाहा प्रमोही, सह है रुखाई क्यों बसोही। तुम्हे विन सांवरे ये नेन सन, हिये मैं ले दिये बिरहा अ्ूर्न । उजारी जो हमें काको वसेहां, हमैं यों रवाय के औरे हँसेहो। लक्षगा १-कारण लक्षणा का जन्म भाषा के इतिहास में क्यों हुआ इस विषय में महा[कबि शेली” के विचार मह॒त्तपू रे हैं। उतका कहना है कि यह कल्पना का वाह़न है | कल्पना जाति की क़िसो विशेष श्रायु में नही उत्पन्न होती, वरन् वह जन्म की सहचरी है। मानव को जबसे बुद्धि मिलती है तभी से उसकी क्रिया कल्पना भी उसे मिलती है। पर संसार के शब्द कल्पना को व्यक्त करने के लिये नहीं बनते | कल्पना व्यक्तिगत संपत्ति है। वह व्यक्ति के हिसाब से न्यूनाघिक किंवा विभिन्न रूप की होती है । शब्दों का सर्जत झोर भाषा का निर्माण सामूहिक प्रयत्तों के लिये होता है। इसीलिये हमारे शब्द अधिकतर प्रमेय वस्तुप्रों जेसे वृक्ष, नदी, पर्वत, गाय श्रादि के सकेत पर हैँ। भाववाचक शब्द जाति के विचारों के समृद्धिकाल में, जब कि व्याकरणा के द्वाया भाषा के बालों की खाल निशाली जाने लगती है, प्रत्ययादि के परिवधन द्वारा बनाए जते है। वे भी संख्या में बहुत कम होते है और भावों की एक सामान्य दशा के रूप के परिचायक्र होते है। उदाहरणा के लिये बेदना शब्द वो एक है पर व्यक्तिगत रूप से वेदना के अंत भेद होते है। इन बारीकियों, व्यक्तिगत प्रनुभतियों के लिये शब्दों की सदा से कप्ती रही है। जिस ( १०५ ) अनुणात से नूतन भावों की उत्पत्ति होती गई उस अ्रनुपात से उसके प्रत्यायक शब्दों की सृष्टि न हो सकी और उन्हीं पुराने शब्दों की संगति बैठाकर रूपक के रूप में उबका व्यवहारकर उससे नए श्रर्थ के उश्य को सिद्धि की गई। भावों की अ्रभिव्यंजना के समय कवि गअ्रनुसत्र करता है कि भाव का ठीक ठीक द्योतन करनेवाला शब्द तो नहों है पर ऐसे शब्द श्रतृश्य विद्यमान हैं जो हैं तो वस्तु विशेष में संकेतित ही पर जिनमें श्रभिद्योत्य भाव के गुण वर्तमान हैं। वह उसी वस्तु विशेष के वाचकर शब्द को लेकर उसे भाव का वाचक या लक्षक बना लेता है ।! प्रिय के रूप पर रोभ जाने से प्रमीके द्ृदय में जो एक विशेष प्रकार की भ्रशांति उत्पन्न हुई वह वही जानता था। उसके लिये नियत संक्रेतवाला जब कोई शब्द उसे नहीं मिला तो उसपने “विलोना” क्रिया का उसके लिये प्रयोग किया यद्यपि विलोना दहो का होता है। 'रीक वि्ोएई डारति है हिय । इसी प्रकार हल्के वनों में से बाढ़ दिखाई देनेवाली अ्रः/परर,रिणी सुजाव की श्रंगदोप्ति का कवि 'बरसति श्रेंग रंग माघुरी बसन छनिः वाक्य द्वारा अ्रभिव्यंबद करता है। 'श्रंग श्रंग आ्राली छबि छलक्यौ करति हैं,' 'लाजनि लपेटी चितवरनि भेद भाग भरी! श्रादि वाक्य उपयुक्त आवश्यकता की ही सृष्टि हैं। इस प्रकार शब्दों की परस्पर में कलम लग जाने से बड़े मघुर और श्रपूर्व फल भ्ाते हैं। इसी को संस्कृत के बझ्राचारयों ने आरोप ताम से कहा है जो लक्षणा का स्वरूप- लक्षण है ।* इसलिये शेली उन लोगों से सहमत नहीं है जो कहते हैं कि भाषा की आदठ्य दशा में ही काव्य की सृष्टि हो सकती है। उनका कहना है कि समाज की शंशवावस्था में भाषा स्वयं ही काव्य है। भ्रत वे लोग भ्रम में है जो काव्य की स्थिति एक विशेष युग में हो समझते हैं ।' समाज की शशवावस्था काव्यमय भाषा के होने का सबसे उत्तम निदर्शन ऋग्वेद की भाषा है। स्वर्गलोक का वर्णान करता हुआ ऋग्वेद का ऋषि कहता है कि 'हम उन स्थानों पर जाने की कामना करते हैं जहाँ ऊचे श्रौर बड़ी सीगों वाली गाए” जाती १ रोमांटिक साहित्य शासत्र-महाकवि शेली प्रकरण । २ सु०हि० १७५ ३ लक्ष॒णारोपिता क्रिया | काव्यप्रकाश ४ डा० देवराज उपाध्याय, रोमांटिक साहित्य शात्म पृ० ८८, ८६ ( १०६ ) हैं।” यहाँ गाएँ ऊध्व गामिनी सूर्यकिररणों हैं जो ऊपर को सींग कर भागती हुई गायों जंसी ऋषि को प्रतीत हुई। इसी प्रकार उषा का वर्णान किया गया है । । “जिसका बछड़ा चमकीला है। वह स्वयं भी चमकीली है। उसके लिये कृष्ण रात्रि ने स्थान खाली कर दिए हैं। वे दोनों समाव रूप की बहन हैं । अमृत हैं। एक दूसरे के अनुगत हैं, श्रौर स्वर्ग से आक्राश में घूमती हैं, यहाँ चमकीला बछड़ा सूर्य है। रात्रि और उषा को बहन कहा गया है; उन्हें अ्रमृुत तथा एक दूसरे की अ्रनुवरतिनी भी बताया गया है। यह सब लक्षणा के श्रेष्ठ रूप हैं। इस तरह लक्षणा भाषा की वह अ्रद्चयय शक्ति निधि है जो उत्तकी आद्य दशा में कम हो जाती है और प्रारंभ की दीन हीन अवस्था में भ्रधिक से अधिक बढ़ती है। इसके रहते भाषा में किसी प्रकार का सामार्थ्यामाव नहीं भासित होता । २--शास्थोय विवेचन ऊपर बताया गया है कि जब एक शब्द से कोई भाव या स्थिति का पूर्ण भ्रभिव्यंजन नहीं हो सकता तो कवि दूसरे शब्दों का प्रयोग करता है । वह प्रयुक्त शब्द प्रकृंत में संगत नहीं होता। “'विकानि की बानि पै आनि बखेरी” में बखेरना व्यापार का श्रान के साथ संबंध अ्रतंगत है। इसे शास्त्रों में श्रनुपपत्ति कहा है| वह कभी अन्वय की होती है जंसे इसी वाक्य में ओर कभी तात्पयं की होती है | दूसरे प्रकार के स्थलों में भ्रन्वय तो ठीक हो जाता है पर तात्पर्य ठीक नहीं बैठता। किसी निर्दय साहुकार से ऋणी की यह उक्ति कि आपने बड़ा श्रच्छा किया । मेरी जमीन तो लेद्दीली थी मकान भी ले लिया ४ दूसरे प्रकार की है। इसमें तात्पर्य की अनुपपत्ति १-- ऋग्वेद १, १४४ : ६ तां वां वास्तृन्युरमसि गसध्य यत्र गावो भूरिश्यंगा झयास: । २--ऋग्वेद १, ११३ : २ रुक्ष दत्सा रुकछ्ृतीश्वेत्यागादार॑गु कृष्णा सदवान्यस्या: समान वच्धू अ्रमृते श्रनपी धावा वर्ण चरत आझाभिनाने । ३--मिलाइए 'भूठकी सचाई छाकपों त्यो हित कचाई पाक्यों । तामे गुत गन घन आनंद कहा गने।! ( ११० ) है। तात्पर्य ही वाक्यों में मुख्य होता है। श्रतः मुख्यार्थथाधादि जो तीन हेतु लक्षणा के लिये श्रावश्यक माने जाते हैं वे सार्वत्रिक नहीं हैं। तात्पर्य पर विशेष दृष्टि रखनेवाले वेयाकरण इसलिये लक्षणा नहीं मानते । उनका कहना है कि मुख्यार्थथाधादि के बिना भी विपरीत लक्षणा के स्थल में तात्पर्य बदलना पड़ता है। श्रत: यह मानना चाहिए कि शब्दों की श्रर्थद्योततन शक्ति सीमित तथा अपरिवर्तनीय नहीं होती । प्र॒वंग के श्रनुसार वह बढ़ या परि वर्तित हो जाती है। जिसे लक्षणा माननेवाले लक्ष्यार्थ कहते हैं वह वाच्यार्थ के ही क्रोड में श्रा जाता है। लक्षणा की श्रावश्यकता नैयायिक अधिक समभते है। उसका हेतु उनका श्रतिता किक स्वभाव है ! शब्दों की श्रमिवाशक्ति में किस प्रकार शनैः शर्न: परिवर्तन आा जाते हैं इसका इतिहास स्वयं लक्षुणाविवरण ही उपस्थित करता है। प्राचार्य मस्मट ते यह व्यक्ति अपने कार्य में कुशल है!--इस वाक़य में लक्षणा मानो है। विश्ववाथ ने यह कहकर इसका खंडन किया है कि कुशल शब्द का चतुर वाच्यार्थ ही है। यहाँ लक्षुणा मानने की झ्रावश्यक्ता नहीं | मम्मट कुशल शब्द का वाच्यार्थ कुशों का लानेवाला ( कुश-ल ) समभते थे | विश्वनाथ ने भ्रपती मान्यता में यह उक्ति दी है कि शब्दों का प्रवृत्ति- निर्मित कुछ श्ौर होता है तथा व्युत्तिनिमित्त कुछ और ,* प्र वास्तव में व्युत्पत्तिनिमित्त ( योगार्थ ) ही पहले पहल शब्द का वाच्यार्थ या प्रवृत्ति- निमित्त होता है। यदि ऐसा न होता तो वह श्रर्थ ही न कहलाता। जिस शब्दार्थ संबंध का व्यवहार नहीं है वह संबंध भी नहीं माता जा सकता। जब कोई शब्द अपने पहले भ्रथ से संबंधित दूसरे क्रिस श्रर्थ में प्रयुक्त होने लगता है तो सवारण लोग उसी को लक्षणा कहते हैं। पहले वह लक्षणा प्रयोजनवती होती है। समयांतर में व्यवहाराभ्यास के कारण वह प्रसिद्ध हो जाती है। प्रयोजन का मान मंद पड़ जाता है। यह “रूढ लक्षणा! है | तीसरे विकासक्रम में लक्षणा की भी श्रनुभूति नहीं होती। वह शब्द लक्ष्यार्थ का रुढ़िवाचक बन जाता है। पशु, कुशल, मृग, महाशय, गुर आदि शब्द इसी भ्रर्थपरिवर्ततन के इतिहास को बताते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में वारदेवतावतार मम्मठ का कुशल” शब्द में लक्षणा मानना तथा १४वीं १- भन्यद्धि शब्दानां प्रवत्तिनिमित्तम् भ्रन्यच्च व्युत्पन्तिनिमिर मू--सा हित्य- दर्पणद्वितीय परिच्छेद | ( १११) शताब्दी के अंत में साहित्यिक विश्दताथ का उसके चतुर अर्थ को वाच्यार्थ कहना दोनों ही ठीक हैं। शब्दार्थसंबंध के दिकास क्रम के द्योतक दोनों पक्ष हैं। विदाद केवल शब्दशक्ति के परिवर्तत सिद्धांत को न मानने से खड़ा हुआा था। समय का अंतर इसका कारण था। झंढ़िमुल तथा प्रयोजनवर्ती लक्षुणाओं के भेद भी, इस प्रकार, शब्द के विकाप्त क्रम के ही भेद हैँ । लक्षणा के मूल स्वभाव में कोई श्रंतर नहीं होता । दोनों एक ही प्रकार की लक्षणाएँ होती है। रुढ़ियुला में प्रयोजच का मान व्यवहारा्यास से घिसकर मंद हो जाता हैं। सर्वया लोप फिर भी नहीं होता कलिंग साहसी देश है ।/ इसमें भी समसस््तता को प्रतीति प्रयोजन है जो कलिंग- वासी कहने से नहीं सिद्ध होती । झरुढ़िमला लक्षणात्रों में हो नहीं मुद्गावरों में भी, जो रुढ़े लक्षणात्रों के भी घिसे रूप हैं, प्रयोजत को प्रतीति होती है। रात बीतती है न कहकर “रात भीजती है! कहते से रात के चौथे पहर में श्रोस की सजलता तथा आदर ता की धीमा प्रतीति होती है । तभी आ्ञनंदघन 'जीव सृक््योँ जाय ज्यों ज्यों भीजति सरवरी! में विरोध की व्यंजना करते हैँ । शाछ्नकारों ने लक्षणा को जघन्यवुत्ति माना है। इसके समभाने श्ौर संगति बिठाने में बुद्धि को परिश्रम करना पड़ता है। यदि उसके प्रयोग में कोई विशेष फलन हो तो यह कष्ट प्रयास करणीय ही न रहे। इसलिये अ्रनुभवभ यही बताता है कि प्रत्येक ला चछणिक प्रयोग में चाहें वह रुढ़ हो या सप्रयोजन, प्रयोजन अ्रवश्य रहता है। फत्तः रुढ़ा भ्रोर प्रयोजनवती भेद ब्यंग्या्थ को मंदता तथा स्पष्ट प्रतीति के कारण होते हैं। उसकी विद्यमानता तथा अप्रविद्यमानता के कारण नहीं। वंयाकरणरों ने शब्दार्थ संबंध के इस प्रिवर्तमान स्वहूप को पहचानकर लक्षुणा दृत्ति को नहीं माना वे लोग केवल अभिधा और व्यंजना दो वृत्तियाँ मानते हैं। ग्रश्नवा का वाच्यार्थ दो प्रकार का होता है प्रसिद्ध तथा अप्रसिद्ध । दुसरे लोग जिसे लक्ष्यार्थ कहते हैं वह वेयाकरणों के ब्हाँ अप्रसिद्ध वाच्य भ्रथ है व्यंजना वृत्ति को स्वीकार करने का कारण यह है कि उसके द्वारा ऐसे भ्रर्थ की प्रतीति होतो है जिसका शब्द से संबंध नहीं रहता । वाक्यगत प्रसंग के बल से उत्षका भाग होता है। अभिधा वृत्ति संबंधित मात्र शर्थ का प्रत्यायन करा सकती है श्रसंबंधित श्रर्थ का नहीं । लक्षणा के द्वारा ( ११२ ) जिस भ्रर्थ की उपस्थिति होती है वह संबंधित ही होता है!'। श्रत: श्रभिधा लक्ष्यार्थ की प्रतीति तो करा सकती है व्यंग्यार्थ नहीं। व्यंजक वाक््यों में लक्ष्यार्थ केवल तर्क की संगत्ति करने के लिये श्राता है। श्रन्यथा प्रयोजन तो व्यंग्यार्थ होता है। इसलिये उसे मानने या न मानने से कोई श्रंतर नही पड़ता । ब्यंयाथ की सिंद्धि भी लक्षणा में किसी प्रकार होती है इसपर विचार होना चाहिए । क्या व्यंग्यार्थ ऐसी कोई वस्तु है जिसकी पहले कोई सा न थी | व्यंजक वाक्ष्य में एक विशेष प्रकार के प्रसंग से घटित हो जाने से उसकी श्रकस्मात् उत्पत्ति हो गई या उसका कोई रूप या रुपवीज पहले से वाक्य में वर्तमान रहता है ? इसके उत्तर में यही कहा जायगा कि व्यंग्यार्थ की जिस रूप में व्यंजक वाक्य द्वारा प्रतीति होती है वह उस हूप में पूर्व रिद्ध नहीं हैं। नहीं तो वाच्यार्थ हो जाता | सर्वथा श्रमल प्रत्तीति भी उसकी नहीं होती | उसके कुछ बीज वाक्य के शक्यार्थ में निहित रहते हैं | लक्षुक वाक्यों में वाच्य अर्थ का भी सर्वथा विनाश नहीं होता । उसकी प्रतीति लक्ष्यार्थ के साथ साथ होती रहती है । यद्यपि वह स्फुट नहीं होती । उपादान लक्षणाओ में तो वाच्यार्थ का भान सब मानते ही है। लक्षण लक्षणाश्रों में भी यह लुप्त नहीं होती। ध५गंगा में मोंपड़ी है, वाक्य को प्रयोजनवती लक्बण लक्ष्णा का भेद माना जाता है। श्रर्थात् यहां वाच्यार्थ का भान नहीं होता यह इसका घारांश सिद्ध होता है। पर शीतलता तथा पावनता की प्रतीति जो इस लक्षणा का प्रयोजन है वह गंगा के वाच्यार्थ प्रवाह का हो गुण है । इसलिये तो “गंगा के किनारे भोपड़ी हैं न कह कर गंगा में भोपड़ी है--कहा जाता है! वास्तव में सभी प्रकार की लक्षणाश्ों में वाच्यार्थ की गंध बनी रहती है। उससे मिलकर ही लक्यार्थ ब्यंग्यार्थ की उपस्थिति करता है। 'मने ढरकोंही बानि दे, 'लाजन लपेटी चित, लिड़- कानि की ब्रानपरी छलके,” नेन्तनि बोरति रुप के भौंरि,” मानस को बन है जग,” 'प्रान घरे मुरझ, श्रादि आनंदधनजी लक्ष्यक वाक्यों में 'ढरकौहीं लपेटी', 'छलक, 'बोहत?, मुरभ्टे! श्रादि लक्षुक शब्दों द्वारा जो श्रनृभृूति की एक दशा की शोर सकेत करते हैं वह वाच्यार्थ के श्राधार पर १--नैयायिकों ने संबंध की ही लकह्णा माना है। शक्य संबंधी लक्षण” उनका सिद्धांत है। देखिए विश्वनाथ पंचानन की न्याय क्तमर॒वली--शब्द प्रकरण । ( ११३ ) माना शब्द मुरकाई कलियों की सी प्राणों की स्थिति का घोतन वाच्याथें द्वारा हो करता है। इस प्रकार व्यंग्यार्थ में वाच्या्थ का बड़ा योग रहता हैं। महाकवि देव ने जो अभिधा को सत्र वृत्तियों में श्रेष्ठ माता है वह ऐसे ही व्यापक गुणों के कारण माना है। विरोधादि चमत्कार जहाँ लक्षक वाक़्पों में आते हैं वे सब भी वाज्यार्य पर ही आाश्वित होते हैं। उदाहरण के लिये गति ले चलनि लखि मति गति पंगरु होति,' 'जतव बुझे हैं सब जाकी भर आगे, “इत मौन में ब्याकुल प्रात पुकारें बूकत बुकता बौरई लीबो, 'मरिबों पश्रनमीच बिना जिय जीबौ,” आदि वाक्यों में विरोध वाच्यार्थ ही में है। लक्ष्याथ तो उसकी उलटी संगति मिलाता है। अत: निष्कर्ष में यही आता है कि लक्षणा वाक्यों में वाच्यार्थ की उपस्थिति अप्रकटहूप से होती ही है। विपरीत लक्षणाश्रों के विषय में शंक्रा हो सकती है कि वहाँ शक्यार्थ का तनिक भी भान नहीं होता | पर नहीं। वहाँ भी लक्ष्यार्थ यदि विध्यात्मक है तो वह वाच्प्रार्थ निषेवात्मकु पर आाधारित है उसी प्रकार लक्ष्यार्थ तिषेधात्मक है तो वह वाच्यार्थ के विव्यात्मक रूप का सहारा लेता है। जैसे--'भूठ को सचाई छाक्योौ त्यौ हित कचाई पाक्यौ ताके गुनगन घनमभ्रानंद कहा गनौ! में गुनगत का शअ्रर्थ श्रवगुण गण है। इस प्रकार बिना वाच्यार्थ के वहाँ भी लक्ष्यार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती । श्रतः यह एक व्यवस्था सिद्ध होती है कि लक्षक वाक्यों में प्रस्फुटरूप में वाच्यार्थ का अ्रवश्य भान होता है और लक्ष्यार्थ के साथ उसी के योग से व्यंग्यार्थ की सिद्धि होती है । उपादान लक्षणा तथा लक्षण लक्षणा का भेद भी फिर वाच्यार्थ की प्रकट तथा श्रप्रकट प्रतीति के कारण बनता है उसके सर्वथा उपस्थित होने यान होने के कारण नहीं बनता। इस प्रकार लक्षणा के चार भेद रूढा, प्रयोजनवती, उपादान लक्षणा, तथा लक्षण लक्षणा, बहुत अधिक तात्विक नहीं है । दो भेद शेष रह जाते हैं गौणी तथा शुद्धा । ये लक्षणाश्रों के मौलिक अंतर पर आधारित हैं। शक्यार्थ का लक्ष्यार्थ के साथ साहश्य तथा साहश्येतर दो प्रकार का संबंध हो सकता है। पहले संबंध में पहली श्रौर दुसरे में दूसरी लक्षणा होती हैं। ३-लक्षक वाकयों में कवित्व का स्थान प्रश्त उठ सकता है कि कवित्व का अधिवास किस श्रर्थ में है? वाच्यार्थ किवा व्यंग्यार्थ ? प्राचार्थ रामचंद्र शुक्ल ने वाच्यार्थ में रमणीयता मानती १०७ ( ११४ ) है वह चाहे उपपन्न हो चाहे अ्रनुपपस्त । उन्होंने साकेत के दो उदाहरण हस विषय में दिए हैं पहला--'जीकर हाथ पतंग मरे क््या!। इसमें अरे क्या! क्रियार्थ 'जीकर! के साथ श्राने से अनुपपतत होकर लक्षुक बनता है। इसका लक्षयार्थ है “कष्ट भोगना। ब्यंग्यार्थ है. कष्ट का अति- शय' । इतना श्रतिशय जितना मरने में होता है। शुक्ल प्रीने स्पष्ट किया है कि यदि 'भेरे क्या! के स्थान पर 'कष्ट भोगे! या “अत्यंत कष्ट भोगे! कहा जाय तो काव्य की वह चारुता नष्ट हो जाएगी जो यहाँ विरोध से उत्पन्न हुई है। इसके स्थान पर यदि इसका यह लक्ष्यार्थ कहा जाप कि जीकर पतंग क्यों कष्ट भोंगे तो कोई वैचित्र्य या चमत्कार नहीं रह जाएगा । इसी प्रकार दूसरा उदाहरण उ्मिला के कथन से दिया है । प्राप भ्रवधि बन सकूँ कहीं तो क्या कछु देर लगाऊँ मैं अपने को श्राप मिटा कर जाकर उन को लाऊँ इस में भी वाच्यार्थ अनुपपन््न है। वह स्वयं मिद जाएगी तो फिर लाएगी कैसे ? फलत: उसके श्रत्यंत श्रौत्युवव का व्यंजन द्वारा मान होता है। पर यदि उपपस्न अर्थ ही का कथन हो तो उसमें किसी प्रकार का चम- त्कार भासित न होगा | इससे स्पष्ट है कि वाच्यार्थ ही काव्य होता है। व्यंग्याथ वा लक्ष्यार्थ नहीं ।! इस मत के विरुद्ध पं० रामदहिन मिश्र ने व्यंग्य में ही काव्य माना है। इसमें उन्होंने भनेकों तर्कसंगत प्रमाण भी उपस्थित किए हैं।* डा० नरेंद्र भी दूसरे मत के पक्ुपाती हैं।' विस्तार के साथ विवेचन करते हुए डा० नगगेंद्र ने बताया हैं कि कव्त्वि का भ्रर्थ चमत्कार नहीं शभनुभुति है। रमणीयता का श्रर्थ है हृदय के रमाने की योग्यता, और हृदय का संबंध भाव से है। वह भाव में ही रम सकता है क्योंकि उसके समस्त व्यापार भावों के द्वारा ही होते हैं। भ्रतएब वही उक्ति वास्तव में रमणीय हो सकती है जो हृदय में कोई रम्यभाव उद्ब॒ुद्ध करे और यह तभी हो सकता है जब वह स्वयं इसी प्रकार के भाव की वाहिका हो। यदि उसमें यह शक्ति नहीं है तो वह बद्धि ०4 नम डक १.0.इंदौर के हि. सा० संमेलन के सभापति पद से दिया गया बअ्रा० शुक्ल का भाषण २--काव्यालोक--लक्षणा प्रकरण । ३--सा हित्य संदेश वर्ष १४ अ्रक १--कवि का अ्रभिवास वाच्यार्थ में या व्यंग्याथं में ।! शीर्षक का लेख । | ( ११४ ) को चमत्कृत कर सकती है चित्त को नहीं और इसलिए रमणीक नहीं कही जा सकती । ऐसे स्थलों पर दो दृष्टि से विचार हो सकता है । एक तो यह कि लक्षणा और व्यंजना अ्रमिधा में श्रानेवाली अनुपपन््तता को दूर करने के साधन मात्र हैं। चमत्कार अभिवषा में ही होता है और काव्य की चारुता या काव्यत्व चमत्कारनिष्ठ है। इस पक्ष में तो अवश्य काव्यत्व का श्रवि- वास अभिवारा या वाच्यार्थ में होगा । लक्षणा-व्यंजना अथवा लक्ष्यार्थ- व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ के सहायक मात्र होंगे । पर यह अलंकारवाद का ही दूसरा रूप है । काव्य के बाह्य पक्ष का इस में अत्यधिक आदर किया गया है । अनुपपन्नता में चमत्कार साननेवले झ्रौर विरोधमूलक वक्तियों में श्रलंकार का दर्शन करनेवाले एक तरह से एक ही माने जाएँगे । दूसरा पक्ष यह भी है कि कवि का प्रंषणीयतत्व जिसे वह अपने भावुक पाठक के हृदय में भेजना चाहता है वह काव्य है । यह प्रेषणीयतत्व वस्तु और भाव दो होते हैं । वस्तु के दो रूप हैं। चमत्कार सहित वस्तु और चमर्कार- हीन वस्तु । प्राचीत्र श्राचार्यों ने पहले का नाम अलंकार और दूसरे का नाम वस्तु दिया है। भाव एक ही प्रकार का होता है। इन दोनों तत्वों का प्रेषण प्रत्यक्ष और श्रप्रत्यक्षु दोनों प्रकार से होता है। व्यंजनावादी मम्पठादि का मत है कि श्रप्रत्यज्पद्धति से भ्रर्थात् व्यंजना द्वारा जहाँ वस्तु और भाव व्यक्त किए जाते हैं वह उत्तम काव्य है! | दसरे मन्श्म या धधम काव्य होते हुं। यह ध्वनिवाद है। पर रसवादियों का भ्राग्र यह है कि काव्यभाव है । वह प्रत्यक्ष अ्प्रयत्द किसी भी प्रकार से व्यक्त किया जाय सदा काव्य ही रहेगा । इसलिये श्रमिधा से व्यक्त होनेवाला रस उत्तम काव्य का उदाहरण इन लोगों ने माना है। यह रस अ्थव्रा भाव अ्रभिधोयमान तो न रस वादियों के मत से है न ध्वनित्रादियों के मत से । दोनों के मत से व्यंग हो है। अ्रंतर केवल वस्तु और भाव का हैं। ध्वनिवादी वस्तु में भी काव्यत्व मानता है यदि वह व्यंजना द्वारा श्राएणा तो रसवादी उसे निक्ृष्ट काव्य सानेगा | वह चाहे व्यंग्य हो चाहे वाच्य | इसका आग्रह रस पर है ! अनुभूति को काव्य का स्वस्व मानकर रसवादी चलता है। १--इदमुत्तममतिशयिनी ब्पंग्ये वाच्याद् ध्वनिबुधे: कर्थित:। मम्पठ- काव्पप्रकाश, प्रथम उल्लास | ( ११६ ) प्रब देखता यह है कि इस प्रनुभृति को प्रकट करने का काम अभिधा का है या लक्षणा का, #थवा व्यंजना का । स्पष्ट हैं कि यह कार्य व्यंजना का ही है । इसका कारण है उसकी सूक्ष्मता । श्रमिधा स्थूलावगाहिनी है। दूसरे रस सिद्ध नहीं होता साध्य होता है। भावुक स्वयं भ्रपत्ती मानसिक क्रियाप्रों द्वारा उनका अ्रनुभव करता है। उसके अनुभव से पहले वह वतंमान नहीं | ग्रभिधा की पहुँच सिद्ध पदार्थों तक ही होती है। अ्रभिधा श्रथवा वाच्यार्थ तो स्वयं ही भ्रपनते चमत्कारों के साथ व्यंग्य ( रस ) का साधन या माध्यम है| भ्रत: निष्कर्ष यही निकलता है कि काव्य का अ्रधिवास व्यंग्यार्थ में है वाच्यार्थ में नही। चमत्कार वाच्यार्थ में ही रहता है। इतना कह सकते हैं कि काव्य का स्वरूप कहीं तो चमत्कार श्नौर कही श्रनुभूति दोनों ही होते हैं। भले ही दूसरा उत्तम और पहला मध्यम हो । दसरे का श्रधिवास निःसंदेह व्यंजना में श्रौर पहले का श्रभिधा में होता है । ३- लाभ एक प्रयोगों के भैद ऊपर बताया जा चुका है कि भावानुभूति व्यक्ति व्यक्ति की पृथक होती है $ साधारण रूप में वह श्रौरों के समान होकर भी श्रपने सूक्ष्म व्यक्तिगत रूप में उनसे भिन्न ही होती है। उसकी श्रभिव्यंजना लोकप्रचलित साधारण शब्दों द्वारा नहीं हो सकती । इसलिये लक्षण का आ्राश्नयण किया जाता है | नीचे श्रानंदघन के कुछ ऐसे लाक्षणिक प्रयोग दिए जायेंगे जिनमें इनकी भावानुभूतियों के सूक्ष्म भेद प्रकट हैं। साधारण रूप से इनके लाक्षणिक प्रयोग तीन प्रकार के हैं। कुछ चमत्कार को प्रकट करते के लिये शौर कृच्दु अनुभूतियों को प्रकट करने के लिये। तीसरे प्रयोग ऐसे हैं जो न चमत्कार को सिद्धि करते हैं त॒ श्रनुभूति की श्रभिव्यक्ति। केवल श्रर्थ का साधारण बोधन करते हैं। वे निष्प्रयोजन हैं। चमत्कार कहीं भावसहजात है कहीं भावश्ननुजात । भाव का स्वरूप ही जहाँ चमत्कृतियुक्त है वह पहला भेद है | जहाँ भाव के स्वरूप की सिद्धि हो जाने के श्रनंतर उसकी थुक्ति को चमत्कारिणी बनाने का कवि ने बुद्धिपुर्वक प्रयत्न किया है वह दूसरा भेद है यह चमत्कार श्रधिकतर विरोध का है। कहीं कहीं विलक्षण दक्तियों का है. जिनका संबंध भ्रनुभुतियों से भी है। भावसह॒जात चमत्कारों को सिद्धि के लिये लाक्षणिक प्रयोग--- ( ११७ ) १--मो गति वृष परे तब ही जब होहु घरीक हू आपततें च्यारे -“3*हि० १७७ २--दूरि आापुन पै हु इकौसे मिले। “वही २६६ ३-मरिबौ अभ्रनमीच बिना जिव जीवो । --वही १४८ ४---जा ने वेई दिनराति बखाने तें जाय परे दिनराति को अंतर । “-वेंही २०७ इन स्थलों पर अनुपपन्न उक्तियों का चमत्कार हैं। ज॑से पहले वाक्य में व्यक्ति का अपने से पृथक होना संभव नहीं है इसलिये इसे भावसहजात चमत्कार फी साधक लक्षणाएँ कहा जायया। भावश्ननुजात चमत्कार की सिद्धि के लिये लाक्षरिक प्रयोग--- १--दीपति समीप की बिछोह माँहि पोहियत । २--जतन बुफे हैं सब जाकी भर शभ्रा्गें । ३--जिन ही बरुनीत सों बेध्यौं हिथौं तत ही हग हाथ सिवावत हो । ४--जान प्यारे गुनति तिहारे गहि बोरी हों । ५ --उर गाँठि त्यों अंतर खोलति है । ६--भूठ को सचाई छाक्यौ त्यौं हिंत कचाई पाक्यों । ७--हाय बिसासी सनेह सों रूखे रुखाई सों हू चिकने भ्रति सोहो। ८-भ्रौसर सम्हारौ न तौ भरत भायबे के संग दूरि देस जायबे को प्यारी नियराति है । इन प्रयोगों में प्रनुपपत्तिमुलक लक्षणाएँ हैं। पर लाहछरिफक प्रयोगों के स्थान पर लक्ष्यार्थ का वाचक यदि वाक्यांतर प्रयुक्त किया जाय तो अर्थे- प्रतीति में कोई श्रंतर नहीं पड़ेगा केवल चमत्कार का लाभ त होगा । उदाहरण के लिये पहले वाक्य के स्थान पर ५८वियोग में श्राप सपीपस्थ से लगते हैं वाक्य कह जाय तथा दूसरे वाक्य की जगह (जिसकी तीब्ता के सामने सब प्रयत्त निष्फून्न हो जाते है? वाक्य का प्रयोग हो तो भर्थ में कोई श्रंतर नहीं होता । भर्थात् लक्षणा किसी किशेत्र श्रर्थं की सिद्धि यहाँ नहीं करती । केवल विछोह भश्रौर समीप, कर और बुझे, वेष्यों और सिवावत हो, भ्रादि लक्षुक शब्द विरोध के चमत्कार की प्रतीति कराते हैं । इन लक्षुणोक्तियों में चमत्कार पअ्रभिधाजन्य है। चमत्कार काव्य का बिशेष महत्वपूर्ण तत्व नहीं माना जाता | इसलिये लक्षणाएं भी यहाँ बहुत ( ११८ ) बड़े श्र्थ की सिद्धि नहीं करतीं । फिर भी इतनी विशेषता वहाँ है कि श्रन्य कवियों ने जिन चमत्कारों को लाने के लिये श्रप्रसिद्ध शब्दों के प्रयोग किए हैं, उनके रूप को विक्ृत किया है श्रौर वाक्य श्रजीब बनाए हैं उन्हीं की सिद्धि यहाँ परिचित शब्द तथा वाक्यों में सरलता के साथ हुई है। चमत्कार की मात्रा उनकी श्रपेज्षा श्रधिक बढ़ी हुई है । दूसरे प्रकार की लक्षणाएँ श्रनुभूति का परिचय कराती हैं । वास्तव में लक्षुणा ज॑सी क्लेशकारिणी बृत्ति की सफलता इन्हीं रूपों में होती है | इनका स्थान श्रभिधा नहीं ले सक्रती। भावों के सूक्ष्म भेद तथा उनका तीव्रता के विभिन्न स्तरों का प्रत्यायन जेसा इनके द्वारा होता है वैसा उपायांवरों से नहीं हो सकता | इन स्थलों में श्रनुभधृति के व्यक्तिगत रूपों की प्रतीति के झतिरिक्त कभी भ्ररूप वस्तु रूपवान बनकर तथा कभी रूववान श्ररूप बनकर विशेष प्र पणीय हो जाती है। श्रचेतन वस्तु चेतन एवं सूक्ष्म स्थून जैसी हो जाती है । इससे भाव की रमणीयता कहीं श्रधिक बढ़ जाती है । जैसे-- लड़कानि की श्रानि परी छलकें। बरसति अंग रंग माधुरी बसनछनि बिकानि की बानि में कानि बखेरौ। श्रंग श्रंग स्पाम रस रंग की तरंग उठे ! प्रलबेली सुजान के कौतुक प॑ इत रीकि इकौसी हा लाज थक | डीठि हित तिन तोरति है । भीजनि पे रंग रीफनि मोहै । मोहि नीको लागत री राधे तेरे लोने इन श्रंग श्रंग अररात रंग मेह नेह को; ६ ज्याँ ज्यां इत प्रानन पै श्रानंद सु ओप श्रौरै, त्यौँ त्यों इत चाहनि मैं चाह बरसति है। १० प्रंग भ्रंग श्रालि छबि छुलक्यौ करति है। इसी प्रकार कभी भाव को प्रधानता देने के लिये जातिवाचक संज्ञाश्रों के स्थान पर भाववाचक संज्ञाश्रों का प्रयोग होता है। '्तेत्र उजड गए हैं! कहने से उज्जड़ की उतनी प्रमुखता तथा अधिकता नही' प्रतीत होती जितनी डउजरनि बसी है हमारी श्र।खयानि देखौ/ में उजरनमि को कर्ता बनाकर प्रमुख्ता देने से होती है। इसी प्रकार 'प्राण व्याकुल हो गए हैं? न कह हर ी &छ री >< छुढ ७ ९ ७ ( ११६ ) कर 'अकुलानि के पानि परयौ दिन राति सुज्यों छिनकौं त कहूँ बहर? कहने से भ्राकुलता की तीव्रता श्र अधिक व्यंजिव हो जाती है। ऐसे स्थल विधेषणा व्यत्यय के हैं और इनमें अनुभूति की तोब्नता व्यंग्य हैं। निम्नलिखित प्रयोग इसी प्रकार हैं--- १ पियराई छाई तन | २ पश्ररसानि गही उहि बानि कछ । ३ जोई रात प्यारे संग बातन न जानी जाति सोई झब कहा ते बढ़नि लिए प्राई है । ४७ कानन््ह परे बहुतायत में भ्रकलैनि की वेदनि जानों कहां तुम । ५ वेदनि की बढ़वारि कहाँ लौ' दुराइय । >< >< >< इनसे भी श्रेष्ठ लाक्षुणिक प्रयोग वे हैं जिनमें भावों की सूक्ष्मातिसूक्षम झ्ंतर्दशाओं का अभिव्यंजन ही लक्ष्य होता है। महाक्ृवि शेली को पूर्वोद्ठ त उक्ति है कि 'वेदवा कहने को एक ही है पर भिन्न भिन्न अवप्तरों पर भिन्न भिन्न हुइयों में उसकी प्नुभुति भिन्त भिन्न प्रकार को होती है और उन सूक्ष्मता भेदों के स्व्रछर का दूपरे हुदयों में लक्षणा द्वारा ही हो सकता है /--ऐसे प्रयोगों की ही प्रशंसा में है। झानंदवत अपने भावना भेदों को इनमें व्यक्त करने की क्षमता पा सके थे। इनमें यह अ्रभातित होता हैं कि कवि की अनुभूति अपनी अभिव्यंजता प्राप्त करने के लिये प्रचलित भाषा में साधन न पाकर उपायांवरों को खोचर कर रही है । प्राणों की विरह व्यथा की अंतर वशाएँ व्यक्त करता हुआ कवि कहता है कि 'निसदित लालसा लपेठेई रहत लोभी”: कभो 'देखन के चाय प्रान श्राँखित में भकि झ्रायः से श्रपना भाव व्यक्त करते का प्रयत्न करता है। कभो मुरमाने के व्यापार का उनमें प्लारोप करता है--'प्रात धरे मुरके उरफें/ कश्नो वे पुकारने लगते हैं--मौन में व्याकुतर प्रात पुकारें ! ऋकन्नी प्राणों का घोथ्ना हो जाता है ५्प्रान घट घोटिबो” से तथा कमी उन्हें कष्ठों में पियता हुआ बताया जाता है “प्राव पिमे चपि चपिरे। अनुभूति को तीव्रता से बाधित होकर कंवे ने ऐसे प्रयोग किए हैं और इनमें अनुभूति के व्यक्तिगत सूक्ष्म भेदों को व्यक्त करने के लिये नत्रीन दवीन आप ढूंढे गए है । नेत्रों की विभिन्न वेदनास्वतेबों का आभास देने के लिये विम्त ले|खप़ लाक्षरिक् प्रयोग द्रष्टब्य है | ( १२० ) दीठि थकी श्रनुराग छुकी । दीठिहि पीढि दई है । जितहीं बरुनीन सों बेध्यौ हियौ तिनही हथ हाथ सित्ावत हो । देखन के चाय प्रान आ्रांखिन मैं फार्के आय । जप अनूप को पुरदूरि सुवावरे नैवन के मग बैंडे । अंखियाँ दुखियाँ कित भोरी भई' | कोन वियोग भरे अ्रँंछुवा जो संयोग में आगे ई देखन धावत | उजरनि बसी है हमारी श्रेंखियानि मैं । ६ जिन आँखिन रूप चिन्हारि भई तिनकी नित नीदहि जागनि है । १० दीठि लालसा के लोयननि लै लें भँजि हों । ११--नेननि बोरति रूप के मार में | १२--डीठि हितू तिन तोरति है । १३--गति हंस प्रशंसित सौं कबधों सुख तैं श्रेंखियानि में आ्रय हो ज्। १४--बाजनि लपेटी चितवनि भेदभाव भरी । इन में नेत्रों के प्रेमव्यापारों पर विभिन्न धर्मों का जैसे छुकना, पीठ देना, उजड़ना, डबता, भाँकना आदि के आरोप किए गए हैं। जितने श्रारोप हैं उतनी अ्रंतर्दशाएं श्रभिव्यक्त की गई हैं । कुछ लाक्षशिक्र प्रयोग भावों की तीव्रता श्रौर व्यापकता को प्रतीति के लिये किए गए हैं। कुछ में अनुभूति का यथार्थरूप व्यक्त होता है। इन लक्षणाओं में भाषा की अंतर्हित ऐसी शक्ति का पता चलता है जो भावाभि* व्यक्ति के लिये नए नए मार्ग निकाल देती है। संसार की प्रत्येक वस्तु में प्रिय के रूप के दर्शन हो जाने की : भ्रभिव्यक्ति के लिये--'जग जोहनि अ्रंतर जोहतु है”; मामिक पीड़ाग्रों को दबाने में चुप्पी साधने के लिये-- त्याँ पुकार मधि मौत; प्रिय श्र प्रेमो की भ्रनुभूति दशाओों में भेद दिखाने के लिये-- 'मोगति बूकि पर तबही जब होहु धरी कहू श्रापुते न््यारे'; विरह व्यथा में उठन का जीवन बिताने के लिये--..'भमरिब्रो अ्रतमीच बिना जियजीबी/; श्रनुभूति दशा में श्रात्मविस्मृत हो जाने के लिये-- 'मोहितो मेरे कवित्त बनावत*; स्वत: क्ृपाशील स्वभाव की श्रप्मिव्यक्ति के लिये--.'मने ढरकाँ ही ब्रानि दे; पीड़ित व्यक्ति की पीड़ाश्रों को अ्नुमात्र समभने के श्रथं में-. 'कछू मेरियों पीर हिये परसौ” एवं परमेश्वर की आमक श्रथच व्यापक सत्ता गि आभास कराने के लिये--उघरि छए हैं पै पस्ारि श्रापनो पसारि!- गी &छ ## एड ७८ >ए २ ,७ ( १२१ ) आदि वाकयों के प्रयोग अ्रभिव्यक्ति के नवीन मार्गों को खोज के परिवायक्र हैं। इनमें अ्रनुभति के सुदनातिटृक्ष्म रूपों का ययार्थ रूप अभिव्यंजित होता है । इसी प्रकार भाव जहाँ श्रपाधारण रूप से तीव्र होता है तब भी लक्षणा- वृत्ति का आझ्राश्यणु होता है। इनके प्रयोगों में श्रनेक इस श्रेणी के वाक्य हैं। प्रिय के रूप को देखने में जो तृष्णातिरेक होता है उसके लिये रूप का पान करना! कहां है,--भादिकरूप रसीले सुजान को पान किए छित कोड छुके को ।” प्रतुराग के कारण विचलित हुए हृदय की स्थिति बिलोडन व्यापार द्वारा व्यक्त की है, 'रोफ बिलोएई डारति है हिय,” शआरासक्ति के अश्रतिरेक के कारण 'मरति शंगार की उजारी छबि श्राछ्ली भाँति दीठि लालवा के लोयननि ले ले आंजहा' कहा जाता है। नीचे भाव की तीब्रता के द्योततक कुछ ओर प्रयोग उद्धृत किए जाते हैं । १-ञापौ न मिलत महा विपरीत छाई है। व्यंग्य-अपनी व्यथा पर श्राश्चयं की तीत्रता | २--कूक भरी मृकता बुलाय श्राप बोलि है । व्यंग्य-मौन साधन की तीतब् शक्ति | ३-ाढ़े भुज दंडनि के बीच उर मंडव को घरि घन आनंद याँ सुखनि समेंटि हों । व्यंग्य-सुखों के भोग में भ्रतृप्ति की तीद्रता । इ--चाहनि अंक में चापति है। व्यंग्य-चाह का श्रतिरेक । ५--बात के देसते दूरि परे व्यंग्ग-बातों की श्रमभिज्ञता का अतिरेक । ६--होनि सों मक्यों है श्रनहोनि जाके बीच भरी जा मैं चलिजाइबे बताई रहठानिहै ग्गंग्य-संसार आभासमान्र रूप में अ्नित्यता का श्राधिक्य । ७--बेदनि की बढ़वारि कहां लौं दुराइय । व्यंग्य-्वेदनाओ्ं की अत्यधिक वृद्धि । ८घ--अंग अंग तरंग उठे दुृति की । व्यंग्य-सौंदय का अत्यधिक प्रस्फुरित रूप । ६--रसनिच्रुरत मीठी मृद मुसिकानि मैं ( १२२ ) व्यंग्य-पुसकानि की मधुरता का अतिरेक | १०--ज्थों ज्यों उत आवन पे आनंद सुश्लोप भरौ, त्यों त्यों इत चाहनि मैं चाह बरसति है। व्यंगय-प्रभिलाषतिरेक । इनके लाज्षरणिक प्रयोगों में एक विशेषता यह और है कि कवि की हृष्टि लक्ष्यार्थ के श्रतिरिक्त वाच्यार्थ पर सदा बनो रहती है। विरोध या विरोध- मूलक श्रसंगति आदि, श्लेष तथा विधि शआ्रादि श्रलंकार प्राय: वाच्यार्थ के आ्राधार पर ही कवि ने दिल्लाए हैं। 'मेरो मनोरथ हू बहिये भ्ररु छल मो मनोरथ पुरनकारी! में योगार्थ मनोरथ को लेकर श्लेब बाँधा है। 'उत ऊतर पाँय लगी मेंहदी सु कहा लगि धीरज हाथ रहे ।! वाक्य में पैरों में मेंहदी लगने को संगति हाथों में धय॑ के न रहने से की गई है ।! यह विरोध का उल्द विधि अलंकार वाच्यार्थ पर आधारित है। इसी प्रकार “भरी विरह रिप्तौत की! | खोयबो लहा लहौ' । “्मौंवहि सों कछु बोलति है” | “उर गाँठित्यों अंतर खोलति है! श्रादि वाक््यों में विरोध भ्रलंकार का चमत्कार वाच्यार्थ पर ही भ्राधारित है। ऊपर जितने श्योग दिखाए गए हैं वे सप्रयोजन हैं। कहीं चमत्कार प्रयोजन है तो कही श्रनुभूति की तीव्रता, यथार्थता रिया व्यापकता पर कुछ प्रयोग ऐसे भी मिलते हैं जिनमें केवल वचनवक्रवा प्रयोजन ही है गब्रन्यः कोई प्रयोजन नहीं। ऊपर बताया जा चुका है कि ऐसे प्रयोग लक्षणा के निक्ृष्ठ रूप हैं। लक्षणाओ्रों में वाक्यार्थ को समभने में जो बुद्धिप्रयास होता है उसका फल किसी भाव या चमत्कार का आ्रास्वाद अ्रवश्य होना चाहिए। काव्य में निष्प्रयोजन लक्षणा को वाक्य का नेयार्थ दोष माना है ।* प्रयोजन की सत्ता पहचानने का उपाय यही है लक्ष्यार्थ का वाचक वाक्य प्रयुक्त करने मा आम लक अमल लक शक १--सु ०हिं० १५५ २--२४२ पद्च सुजान हित | ३--वही २४७७ ४- नैयार्थत्वं रूढ़ि प्रयोजनाभावाद् प्रशक्ति कृतम् लक्ष्यार्थ प्रकाशननम् । “साहित्यदपंण, सप्तम परिच्छेंद : ( १२३ ) प्र यदि कोई श्रथ हानि का अनुभव नहीं होता तो सम्भता चाहिए कि लक्षुणा निष्प्रयोजन है । ॥ नीचे लिखे वाक्यों में लक्षुणा्रों का कोई प्रयोजन लेखक का अ्रनुभूत नहीं होता । १ सूभत बककि की दीठि सु तानौ सु० हिं० २० २ भूल को सौंपि सब जु सबब सूचि सु० हि० १३४ ३ जौ लाँ जगें न मल तौ लो सोवे सुरति सुख सु० हि० ३६६ पर ऐसे प्रयोगों की संख्या श्रत्यल्प है। मुहावरे रढ़िमूल लक्षुणाप्रों के घिप्ते रूप हैं। लक्षणाप्रों में लक्ष्य थंके साथ साथ वाच्यार्थ का भान श्रप्रकटरूप से सर्वत्र विद्यमान रहता है। पुहा- वरों में चिरप्रयोग के कारण इसका लोप सा हो जाता है। लक्ष्यार्थ ही लक्ष्याथ' रह जाता है। यह नियतरूप से संबंद्ध होकर वाच्यार्थ जेसा वन जाता है। जैसे हाथ में पड़ता या हाथ पड़ना वाक्य मुलरूप से हाथ में किसी वस्तु के गिर पड़ने के व्यापार का बोधक है। पर लक्षणा द्वारा मुहावरों में यह अ्रवीन होने के अर्थ का द्योतक बनता है। “प्रात ले साथ परी पर हाथ', 'मीत के पति परे को प्रम'ने--आ-द वाक्यों में उसी अर्थ की प्रतीति होती है। कुछ प्रयोग ऐसे भी मिलते है जिनमें वाच्यार्थ की अप्रकट प्रतोति रुढ़िमल लक्षणाग्रों की तरह होती है। और वे लक्ष्यार्थ के अतिरिक्त प्रयोजन के रूप में व्यंग्याथं की भी उपस्थिति करते हैं। जैसे भ्र्थ का उन मुहावरों द्वारा ज्ञान होता है वंसा वाचक शैली के वाक्य से नहीं हो सच्ता था। “बिक जाता मुहावरा मुग्ध होकर अ्रत्यधिक अधीन दो जाने का श्रर्थ देता है पर अत्यधिक अधान हो जाना! वाक्य से अधीनता की उस मात्रा की प्रतीति नहीं होती जो बिक जाना वाक्य से होती है। श्रर्थात् यह वाक्य झन्य लक्षक वाक््यों की तरह व्यंयार्थ प्रयोजन का प्रत्यायक होता है। ( १२४ ) मुहावरों को लक्षणाएँ प्राय: साहश्यमूला ही होती हैं। साहश्येतर संबंधमूला नहीं होती । दूसरे इनका स्वरूप वाक्य का होता है । उनमें मुख्य क्रिया के रहने से अपने पूर्व श्र्थ की उपस्थिति होती है | इस तर हू कह सकते हैं कि मुठावरों में लक्षुऊ श्र्थ परिवर्तन को प्रगति में होते हैं । कुछ तो वाज्प्रार्थ को सर्वथा छोड़कर श्रपने लक्ष्यार्थ को ही वाच्य के रूप में श्रंगीकार कर लेते हैँ ओर कुछ में वाच्यार्थ का भान लक्षुक वाक्यों के श्रर्थ की भ्रपेन्षा मंदतर होता है । महावरे जीवित भाषा के प्राण होते हैं। इनके द्वार उसकी सजीवता की वृद्धि होती है। लक्ष॒क वाकयों का श्रथ॑ तीक्ष्ण ब॒द्धिगस्य होता है, क्योंकि लक्ष्या्थ प्रसिद्ध नहीं होता । वाचक वाक्यों में किसी प्रकार की चमत्कृति या अ्रभिव्यंजन की व्यापकता नहीं होती । मुहावरेदार वाक्यों में वाचक वाक़्यों की श्रपेज्ञा चमत्कार और श्रर्थयोतन की विस्तृत भूमि तो श्रविक होती है पर लक्षणाओं की सी दुरूहता इनमें नहीं होती । इसलिये इसका सर्वसाधारण के लिये प्रयोग किया जा सकता है। भानदधनजी ने मुहावरों के प्रयोग द्वारा काव्य चमत्कृति का लाभ किया है। विरोधादि चमत्कारों के लिये केशव तथा उनके मार्गानुयायी लोग जो द्वच्र्थक शब्दों के प्रयोग करते हैं उनमें सरलता भी नहीं रहती श्रौर चमत्कार भी बहुत श्रतात्विक हो जाता है। 'विषमय यह गोदावरी अ्मधन को फल देति” में विष शब्द का जल श्रथ प्रप्रसिद्ध है और जहर श्रर्थ का गोदावरी से कोई संबंध नहीं । इस तरह चमत्कार लँगड़ा है । लेकिन “हाथ चढ़ें जिहि स्थाम सुजान कहु तिहि पायन रे पररे लें” “पाँय डारि कित 5 वढ़ीतवत सदन को में विरोध चमत्कार में उपयुत्त दोनों दोष नहीं हैं।* इसी प्रकार हिंदी जैसी व्यावहारिक सजीव भाषा की इस श्रम्िनव संपत्ति का काव्य चमत्कार की सिद्धि -के लिये प्रयोगकर श्रानंदबनजी ने अपती भाषप्रवीनता का परिचय दिया हैं। इसके श्रतिरिक्त भावों की श्रभिव्यक्ति के लिये भी मुहावरों का प्रयोग इन्होंने किया है। ऐसे स्थलों १--केशव रामचंद्रिका पंचवटी वर्गान २--कृपाकंद निबंध १० ३--प्रेम पत्रिका ४--इसी प्रकार “'जीवसख्यौं जात ज्यों ज्यौं भीजत सरबरी ४बनान्द॑ ( १२५ ) प्र वे बड़े व्यंजक प्रतीत होते हैं । उदाहण के लिये नीचे लिखे वाक्यों में मुहावरों से विशेष श्रथ की अभिव्यक्ति की गई है। १ मति दौरि थकी न लहे ठिकठौर श्रमोही के मोह मिठास ठगी २ रस प्यास के प्यास बढ़ाय के आस विसास में यो विष घोरिये जू ३ सुरति सुृजान चैन-बीचिनि सों सींची जान, वही जमुना प॑ श्राली वह पानी बहियी इनमें प्रति चंचल हो गई ४ कहने से उस श्र्थ की प्रतीति नहीं होती ज्ञो न लहे ठिक ठौर; कहने से होती है । इसी प्रकार “विश्वासधात करना” कहने की श्रपेक्षा विसास में यौ विष घोरिय जू' कहने से श्रधिक तोब्रतापूर्शो अनुभूति का भान होता है। यह विशेष विचारणीय है कि आनंदधन को तरह रसखान ने भी हिंदी मुहावरों का प्रयोग किया है। यद्यपि उनकी संख्या इनकी श्रपेक्ता न्यून है । कुछ मुहावरे तो मिलते भी हैं। इससे यह अ्रनुमाव करना अ्रनुचित नहीं होगा कि श्रानंदघधतजी या तो रप्तब्बान की इस प्रवित्ति से परिचित हैं या दोनो को किसी समान स्रोत से प्रेरणा मिली थी। फारसी साहित्य की भाव-भाषा प्रवत्तियों की जानकारी तथा विशुद्ध हिंदी में काव्य रचना करने की शैली ये दोनों गुण इन दोनों भक्त प्रेमियों में विद्यमान है । इसलिये फारसी की सी चमत्कृतिप्रधान रचना की सिद्धि दोनों ने मुहावरों के प्रयोग द्वारा की है। उदू फारसी की कविताश्रों में काव्य चमत्कार के लिये मुहावरों का प्रयोग बड़ी प्रचुरता से किया जाता है । तीचे कुछ उदाहरणों में वह बात स्पष्ट भलकती है | १ श्रय बरहमन हमारा तेरा है एक आलम | हम ख्वाब देखते हैं तू देखता है सपना ॥ २ बोला चपरासी जो में पहुँचा बउम्पोदे सलाम । फाॉँकिये खाक आप भी साहब हवाखाने गए ॥ ३ आँखें बिछाएँ हम तो उद् की भी राह में । पर क्या करें कि तुम हो हमारी निगाह में ॥ फलतः प्रतीत होता है कि झ्रानंदघन श्रौर रसखान को यहीं से इसकी रप्रेणा मिली थी । रसखान तथा आनंदधघन में इतना श्रंतर हैं कि पहले ( १२६ ) ने मुहावरों द्वारा काव्य के क्रिसी विशेष चप्तत्कार को सृष्टि नहीं को। दूसरे ने की है। लोकीक्तियाँ मुहावरों से भिल्न हैं। लोकोक्तिपों में जोबत के किये साधा- रण व्यापार का कथन होता है जो साम्प्र का समर्पक बनता है| इसके प्रयोगों में प्राय: वाक्यार्थ उयमाव बनता है| कभी कभी साम्य के श्राधार पर ही उसका प्रतीकवत् प्रयोग होता है। मुहावरों को श्रपेत्षा इनमें श्रर्थव्य जगा सीमित होती है। साम्य की सिद्धि हो जाने से लोकोक्ति प्रयोग स्वयं एक प्रकार का चमत्कार हो जाता है। इसलिये हिंदी के कवियों ने इसे एक पृथक अलंकार मान लिया है। ठाकुर ने लोकोक्तियों का प्रयोग अ्रधिक् किया है । जेसे--- हमें को गनें कासों परोजन.है सुनिबे में न बीन बजाइबे में । ठा० 5० १६२ भ्रधितयत भई हरि श्राए नहों हमें ऊमर की सहिया करिगे। वही १६४ ठाकुर जी पें यही करने तौ कहा मन मोहनी क्रोध करेहै । है है नहीं मूरगा जेहि गाँव भट्ट तिहि गाँव का भोर ना हैहै।॥ वही १६७ जग एकन को भट वाइरे वोर सो एकन को पथ दी जंतु है । | वही १६६ चलु दूर भट्ट हों इथा भटकी लगें दूर के डोल सुहावने री । वही १७३ नीचे आ्रातंदवनजी द्वारा प्रयुक्त मुहावरों का विवरण दिया जाता है । जद्ुणा भाषा का श्रक्षय बल होता है श्र मुठावरे प्रचलित श्रथच प्रसिद्ध लक्षणाएं होती हैं। प्रत: लेखक के विचार से हिंदी भाषा की क्षप्ता बढ़ाने का यह भी एक प्रयत्त होगा यदि श्रेष्ठ कवियों के मुहावरेदार वाकपों को संग्रहीत किया जाए श्रौर उनके से प्रयोग व्यावद्वारिक भाषा में किए जाएँ ( १२७ ) मुहावरे १--आँखों में बंसना-ध्यान बने रहना । कब तें स॒जान प्रान प्यारे पुतरीन तारे। प्रांखिन बसे हो सब सूनों जग जोहिए ॥ २--आँखों में आना--दिखाई पड़ना । सुख ले अभखियान में आय हो जु। ३--आखों में छाना--सदा दिखाई पड़ना । प्यारों घनभ्रानंद सुजान छायो आ्राँखिन में । ४--श्राँख तले लाना--एूल्यांकत करना । ल्यायोी न काहु व॑ श्राँखि वबरे। प-- भा बतना--सेंयोग बन जाना । हमें श्रानि बनी इत लोगन सों इन । ६--आह स|ना|--रुच जाना । श्राड़ न मानति चाड़ भरी उघरी ही रहें भ्रति लाग लपेटी । ७-आड़े होना--बीच में बाधक होता | कहाँ ते दुन्यो सो बरी आड़े श्रानि है भयौ । ८5--आसपास न होना--बहुत दूर पड़ जाना । सपने रस भ्र/सह पास नहीं । ६--ओऔसर सम्हारता -अभ्रवसर के योग्य कार्य करना | ओआसर सम्हारो न तो भ्रमआइयवे के संग । दूर देस जाइबोकों प्यारी नियराति है। १०--उचघड़ कर नाचना-स्पष्ट रूप से किसी कार्य को करना । उधरि न हैं लोक लाजतें बचे हैं । ११--उच्रड़ पड़ना --रहस्य खुलना, निरलेज्ज होना | छाय तऊ उघरेई परौ। १२--उघरी रहुना--निर्लज्ज होन उदाहरण उपयुक्त ही । ( शर८ ) १३-- उसर जानता--छिन्न भिन्न होता । श्राएँ द्यौस अवसर उसासहि उसरि जैंहै। १४--उसास छकना--निरास जीवन बिताना ॥ निस बांस उदास उप्तास छत्रों। १४--कलपरना--चैन श्राना । घर कल कौ श्रकुलानि थई है । १६०--कान खोलना--श्रवणोस्मुख करना । कबहूँ तो मेरिये पुकार कान खोलि है । १७-कान में रुई देता--न सुनने का प्रयत्न करना । रुई दिए रहोगे कहाँ लौ बहाराइबे की । १८--कातन करना--सुनना | घनआनेद कानत आन करे | ६६- गुहार लगाना--सहायता करना । जान प्यारे लागो न गुहार तो जुदार करि, बवृभिदे निकसि टेक गहें पन धारे की | २०--- गोहन लगना--पीछे पड़ना । लाग्गो हैं गौहन ही प्रात प्रान घात को । २१--गौ गहना--पनुकूल होना, लाभ देना । घनश्रानंद मौत सुजान सुनौ, तब गो गहि क्यों श्रब यौं श्ररसौं | र९२- घर उजाड़ता--भ्रपनी हानि श्राप करना | करों कित दौर और रहौं तो लहों न ठौर, घर को उजारि के बसन बन जाय है । २३--गेंल' रहना--साथ रहना । उर भ्रावति यों छवि छांइ ज्यौं हीं ब्रज छैल की गैल सदाई रहीं धरबसे---उपपति । एहो घरवसे राति कौन घर बसे ही। ( १२६ ) २५-- घर बसाना--उपपति बनना । भोर भए आए भाँति भाँति मेरे मन भाए, एहो घरवसे भ्राज कौन घर बसे हो । २६- घाव का नमक होना--कष्ट पर कष्ट देता । भ्राता काती दैबों दया घाव कैसों लोन है। २७--ध्र करना--नष्ट करना । उड़ाय हों सरीर घन्प्रानँंद या घूरि के । २८--चवाई जोड़ना--निंदा करता । कोऊ मुह मोरौ जोरों कोरिक चवाई क्यों व । २९--चित्त पर चढ़ता--प्रिय लगना । चितचढ़ी मूरति सुजान क्यों उतारिये । ३०--चित्त छोलना --कष्ट देता । घनआनेंद जान महाकपटी चित काहें परेखनि छोलि परो। ३१--चित्त में धरना--यबाद करता । है धनप्रानेंद जीवनमूल घरों चित में कित चातिक चूकें। ३२--छाप देता--प्रभाव डालना । चित प॑ हित हेरनि छाप दई । ३३--छाती पर चढ़े रहना--सामने ही कष्ट पहुँचाना । पैसे नेन तेरे से न हेरे मैं अनेरे कहूँ, घाती बड़े काती लिए छाती प रहें चढ़े । ३४७--जक लगता--स्वभाव बन जाना । जक लागियै मोहि कराहनि की । ३५०- ठिक ठौर लेना--शांति या स्थिरता प्राप्त करता । मति दौरि थकी न लहै ठिक ठौर अमोही के मोह मिठास पगी ३६--ठौर रहना--किसी के घर बैठ जाना, किसी की पत्नी बन जाना हाय दई न बसाय बिसासी सों ठौर रहेन को ठौर कहाँ हैं । ३७-- ठौर रहे--किसी के अ्रनन्य प्रेम में डुबता । ठौर रहे न कौ ठोर कहाँ है। ११ ( १३० ) ३८--ढर जाना--श्रनुकू न होना, कृपा करना; पक्ष में होना । दई गयौ तुहँ निरदई श्रोर ढरि रे । ३६-ढही देता-पड़े रहना । निहारिय पौरि पे देहु ढही । ४०--तलुओं से लगना -सिर से पैर तक जलना । पायनि तेरे रची महदी लखि सौतिन के तरवानि तें लागति | ४१--तन बढ़ना--सुख मिलना । वेई कुंज पुज जिन तरे तन बाढ़त हो । ४२--तारे गिनना--रात में प्रतीक्षा करना | बीते तभी तारनि की तवारनि गनत ही | ४३-तुण तोड़ना -प्रेम व्यक्त करना । डरि डीढि हितु तिन तोरति है । ४४-दिन पारनता--विपत्ति डालना । दिन पारि इते उत रातें पढ़ । ४५--दिन फिरना--परिस्थति बदल जाना | दिनन को फेर मोहि तुम मन फेरि डास्यो । ४६- दूरि देश जाना -मरना | श्रौसर सम्हा रौ न तो श्रनअ्रायबे के संग, दूरि देष जायबो क्यों प्यारी नियराति है। ४७-टद्वार पड़ना--शरणा में झ्राना । आ्रास मर्यों गहि द्वार परियों जिय । डंट-ह'छ छिपाना--दिखाई न देना । प्रीतिपगी श्रेंखियानि दिखायके हाय शभ्रनीति सु दीठि छिपैय । हितू जेऊ भरा रते ये लेखन दुराव ही | रसरखान मु० र० २० ०; ४६--नांक चढ़ोना -श्रनिच्छा अथवा हल्का रोष प्रकट करना | पैठत प्रान खरी भ्रमखीली, सु ताक चढ़ाएई डोलत टेंढ़ी । ५०--नाँव रहना--यश का बना रहना । सन मोहन नाँव रहे सु करो | ( १३१ ) २१-पट्टी पढ़ता--शिक्षा लेना । यह कौनसी पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पै देहु छर्गैक नहीं | ५४२-ताबड़ी पड़ना --क्रोध करना । श्रावरी है बावरी तू तावरी परवि काहे | ५२३--नाँव सहना--प्रपयश सहना | नाँव धर जग में घतपआ्ानेंद नाँव सम्हारौ तौ नाँव सहौ क्यों | ५४--नाँव सम्हारनता--नाम को साथेक करना | नाँव धरे जग में घनग्रानंद नाँव सम्हारौ तौ नाँव सहो क्यों । ५५-पाँव रखना--ड॒ट जाना | हेतखेत धूरि चूरि चूरि साँस पाँव राखि। विष समुदेग वान श्रागे उर श्रोटिबो । ५६-पानी बहजाना--परिस्थिति बदल जाना | वही जमुना पै हेनो वह पानी बहिगो। ५७ -परस परोप्त--स्पर्श । गंल संग डोले पे व परसपरोस है। #*प्य>पायन लगना --प्रणाम करना | तुव पायनि लागि न हाथ लगे । ५९--पैरों में मेंहदी लगना --चलने से रुकना | उत ऊतर पाँय लगीं मिहदी सु कहा लगि घीरज हाथ रहै । ६०--पीठ देना--विम्रुख होना, उदासीन होना । श्राँखिन दोठहि पीठि दई है । ६१-पैडे रहना--पीछे लगना । मुराई हमारेई पैडे परे--ग्रा० ध० यह हेरनि तेरेई पैडे प्रेगी---रसखान <२-पाँय पंसारना--श्राग्रह करना | इते पर हाथ को पाँय पसारे । ( १३२ ) ६३--पाले पडना--श्रधीन होना । प्रेम के पाले १९ जिय जाको ६४- प्राण आँखों में श्राना--देखने के लिये व्याकुल होना, श्रत्यधिक लालायित होना ॥ ६५--प्राण जुड़ाना--धैर्य श्रथवा सान्त्वता मिलना । जोरि के कोरिक प्राननि भावत्ते संग लिए श्रांखियानि में श्रावत । ६६--प्रान सुखना--कष्ट का अ्रनुभव करना । मेरे प्रान सोचन ही सूखत सदा रहेँ। ६७- प्राणों का होठों लगना--मर णासन््त होना । अ्रधर लग हैं श्रानि करिके पयान प्रान | ६८- भरा जाना--सबके सब जाना । धीर कैसे धरा मन सो धन भाराँ गयौ। ६९-- बनी का मोल-- करनी का फल । आगे न विचारदों भ्रब पाछे पछताएँ कहा जान मेरे जियरा बनी कों कैंसोौ मोल है। ७०-- बादल घिरना--उमड़ना, अनुकूल होना । श्रब देखिये कौ लौ' घिरे घन आनंद । ७१- बाँट आना या बाँठ करना-- भाग में भ्राना । तेरे बाँट श्रायौ है श्रंगारनि प॑ लोटिबो । इत बाँट परी सुधि रावरे भूलनि कैसे उलाहनौ दीजिए जु । ७२--बाँह पकड॒ना--श्रवलंब या सहायता देना । दई गहि बाँह न बोरिय जू । ७३-- बात की बात--शीघ्र ही । बात की बात सु बात विचारयौ | ७४-- बाट नापना--प्रतीक्षा करना | तेरी बाट हेरत हिराने श्रौ पिराने पल थाके ये विकल नव ताहि नपि नपि रे | ( १३३ ) ७५--बिक जाता--दास बन जाना, अत्यधिक मुस्ध होता । रोम बिकाई निक्राई पे रीक। झा० घ० सिगरौ बज वीर जिकाइ गगो है। रसखान । ७६--बो रना--विपत्ति में डालना | दई कित बोरत हो बित पाती । ७७--भाग जगना--परिस्थिति श्रतुकूल होता । भाग जागें जो कहे विलोक घनप्रानेंद तौ। ७८--भरतना--कष्ट उठावा | हो ही मरो इकली कहो कौन सों। ७६ --म् ह मोड़ना--विमुख हो जाना | कोऊ मै हु मोरो जोरों कोरिक चबाई क्यों व । ८०-मुह लगता -बड़प्पत पाना, आत्मीय बनता । ग्रौ्ली बड़ी इतरानि लगी मुँह नेकौ अप्राति न प्रांनि निपेटी | ८१--समूड चढ़ाना --श्रत्यधिक महत्व देना | पाय डारि कित मंड चढ़ावत मदन कौ । ८२--रंग उड़ना--फीका पड़ना, हतप्रभ होता । उड़ि चलयौ रंग कंसे राखिये कलंकों मख । परर--रात भीजना--रात बीवना । जीव सूक्यौ जात ज्यों ज्यों भीजत सरवरी | ८४-- रोम बुक करता--ध्यान देना । रीभ न बूक तऊ मन रीफत | भ्रा० घ० रीभ की कोऊ न बुक करेगौ । रसखान ८५--रोमफ में भीजना--स्नेहाद होना । बावरे लोगन सों घन आनंद रीभनि भीजि के खींजि बक को । ८६--रुख लेना|--किप्ती की श्रोर होना । एक ही ठेक न दूसरी जातति जीवन प्रान सुजान लियें रुख। ( १३४ ) ८७-विश्वास में विष घोलना- छल करना | रस प्याय के ज्याय बढ़ाय के आस विसास में यौ विष घोरिय जू ॥ ८८--साँस भरना--कठिनता से जीवित रहना । रोम रोम रही भीय रोय परौं साँस भरों । ८६-सातों सुधि भूलना--बुद्धि का निष्क्रिय हो जाना । भूले सुधि सातीं दसा बिवस गिरत गाती। ६०-सिर घृमना--चक्र श्राना, आ्रांति में पड़ जाना । घमत सीस लगे कब पायनि। ९१--सीधे पेर न पड़ना--इतराना । घनशानेंद रूप गरूर भरी धरनी पर सूध न पाय परे । ६२-सीरा पड़ना- जीवनहीन हो जाना । सीरी परि सोचनि श्रचमेसों जरों भरों | ९३-सीस घिसना--प्रनुनय विनय करना | हित चायनि ज्वे चित चायनि के नित पायनि ऊपर सीस घिसों। €४- सीस घुतना--पश्चाताप करना । दुखिया जिय सोचनि सोस घुन। ्ि | ६+-- हटतार लगना या फिरना--निष्क्रिय . हो जाना, निरर्थंक बन जाना । वह रूप की रासि लखी जब तें सखि श्रांखिन की हटतार भई। €६६- हाथ पड़ना, या हाथ में पड़ना या हाथ लगना, हाथ रहना, हाथ चढ़ना-श्रघिकार में होना, वशवर्ती होना । ६७-- हाथ पड़ना-- प्रान ले साथ परो पर हाथ । मीत के पानि पर को प्रमाने। घनानंद रसखाति परी मुसकानि के पानि। रसखान €८--हाथ चढ़ना--मिल जाना । क् द हाथ चढ़ जिहि स्थाम सुजान कहूँ तिहि पायन रे परसे तें । ( १३४ ) १६--हाथ मीड़ना-पछताना । मीडिबे के लेखकर मीडिबोई हाथ लग्यौ । हाथ रहना--अ्रधिकार में रहना । सु कहा लगि धीरज हाथ रहै। हाथ लगता --वश में रहना । तुव पायनि लागि न हाथ लगे। १००- हाथ पकडना--सहायता देना । हाथ गहै पिय पायनि डार । १०१-हाथ सीना[|--निरर्थक बना देना । जिन ही बरुतीन सों बेध्यौं हियौँ तिन ही हग-हाथ सिवावत है । रसखान के मुह।|वरे १०२-गाँठि पड़ना - मिलना, प्राप्त होता । सौगुत श्रौगुन गाँठि परेगी । १०३-अ्रंग हलन[--किसी के रंग में रंगजाना । सहसाढरि राँग सो श्राँग ढरयौ है । १०४--छुटाँक न देता--कुछ न देना । मन लेह पे देहु छटांक नहीं , आपंदधन | सु ०हिं० २६७ मन लीनौ प्यारे चितें प छटाँक नहि देत । रसखान १०८-- धर करता--बैठना, निवास करना। रसखानि करयौ घर मो हिय में । १०६- बांट परना-विध्न पड़ना | तेरो न जात कछू दिन रात विचारे बटोही को बाट परेरी। १०७-नगाड़ा ठोककर--खुल्लमखुल्ला । तो सबनी फिरि फेरि कहाँ पिय मेरो वही जग ठोकि नगारो। १०८- अंग ठा दिखाना---उपहास करता । नेत नचाइ चितें मुसकाय सु ओट है जाइ श्रंगूठा दिखायो। १८०९-- मन मारना-मन को वश में करना, इच्छा को दबाना | मन मारि के भ्रापु बनी हों अ्रहेरी । ( १३६ ) ११० --पहाड़ हो जाना--दुर्गभ बनवा । पग पावत पौरि पहाड़ भई | १११--नाच नचाना--श्राज्ञा का श्रनुवर्तन करना | नचिय सोई जो नाच नचावी । ११२-काले का विष राख से उत्तारना--कठिन समस्या को साधारण उपाय से सुलभपनता | कारे विसारे को चाहै उतारयौ भरे विष वांवरे राख लगाइके | ११३--दाम सवारना - देखभाल करना । वारि के दाम सँवार करो | ११४-ताक में रखना--द्र करना | इहि पाख पतित्रत ताक घरौ जु । ११५--नेह मीजना--स्नेह मुग्ध होना । नेह भीज्यो जीव तऊ गुड़ालौं उढ़चौ चहै । ११६--रंग में हलना--पश्रनुवर्ती होना । मानि हे काहू की कानि नहीं जब रूप ठगी हरिरंग ढलँगो | ११७- गांठ खोना--शिथिल करना । लाजगांठन खोल है । ( १३७ ) व्याकरण आ्रानंदघतन जी के समस्त वाडइमय में निश्चित व्याकरणा व्यवस्था विद्यमान हैं। वह व्यवस्था ब्रजभाषा की है। क्रिया, कारकों का रूपविधान, ध्वनियों का उच्चारण, तदभव रूपों का प्रयोग, कृदत-तद्धित की व्यवस्था श्रादि सब भाषाविकास ब्रजभाषा के स्वभाव के अनुसार हैं। साथ ही समास; नवीत रूप आर शब्दों का निर्माण कवि के भाषा संबंधी साधारण विकास के सिद्धांतों का प्रिचय देते हैं। व्याकरण व्यवस्था नीचे दी जाती है । त्ताम रूप कारक कर्ता कारक प्रकारांत एक वचन बहुवचन राग, रागोौ राग, रागहि; रागन झ्ारत आरतें प्राकारांत लता लतानि इकारांत प्राँखि श्रँखियाँ प्रेखियानि पाँखें उकारांत ग्राँघु प्रँसुवा कर्म कारक विभक्ति चिह्न नि, ऐ, ऐं, न, हि, हि, भो; कों, । नि, यानि एक बचन बहुवचन अ्रकारांत स्त्री० चख चखतनि, चखन झकारांत पु० पुज पुंजनि आकारांत स्त्री ० भावना भावनाति इका रांत स्त्री ० भ्राँरिख ग्राँखिन भ्रेखियानि उकाराच्त स्त्री ० हिति् हितूृनि ऐंयाएऐ विषे दोषे प्राने मरते हि" चंदहि, भ्रबी रहि झ''' श्रापुनपों, करेजौ कं ** देखिवेकों, गुननिकों, पपीहाकों ( १३८ ) करण कारक विभक्ति चिह्न सों, ऐं, सों'** एक ब० ब० ब७ अचंभे सं अपराधनिसों, नैननिसों १ परखें मरोरें निविभक्तिक'** सोच सोचनि, सोचन संप्रदान कारक विभक्ति चिह्न को, को, हि एक व ७ बहू ब० मोकों परकाजहि निर्विभक्तिक प्राननि ग्रपादान कारक विभक्ति चिह्न ते, तें, सों, हि। एक वचन बहु वचन सुधाते हमतें जबतें दिनानित)ें ब्रजसों ब्रजहि | संबंध कारक विभक्ति चिह्न का, के, की, को | एक वचन बहु वचन प्रानके प्ररननके पौनको भ्रमोहिन को चाहिनकी नननिकी भ्रधिकरण कारक विमक्ति जिक्न ऐँ, मधि, मैं, मां, पै, बोच, एक वचन बहु वचन हियेँ पाती मधि ( १३६ ) हिये मैं करेजे बीच नेननिमधि नैननि में श्रंग[रनि पे विशेषण ब्रजभाषा में विशेषण अ्रपने विशेष्य के लिंग वचन के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। पुलिग एक वचन में भ्रेकारंंत, बहुवचन में एकारांत, स्त्री लिंग के एक वचन तथा बहु वचन में ईकारांत, विशेषण आते हैं। अनेक स्थलों पर रूप परिवर्तन नहीं भी होता । उदाहरण के लिये नियमित रूप-- एक वचन बहु वचन भ्रकेलो जीव वियोग भरे शअसुवा मति झ्रावरी बावरी | प्यासभरी श्रेंखिया प्रपवाद'''मूरतिवंत महालक्ष्मी । अभ्रथिर उदेगगति । : समास ग्रव्ययीसाव समास नैत ड नैनउ--नेत्र भी झापा उ ध्रापां -भाप जी मीच उ मीचो--मृत्यु भी लागी इ लागिय---लगी ही मेरी. इ मेरिये--मेरी भो एक ए एक--एक ही पंख नि नि्पाँस--पंख रहित तत्पुरुषः समास संबंध' * 'प्रतन +- जतन > भ्रतनजतन ।-- कामदेव का प्रयत्न | पीर -- मीर ८ पीरमी र--प्रनेक पी ड्राए' श्रामू + प्रवाह ८ प्रवाह्रांसू-प्रासुओ्रों का प्रवाह रुसनि +- रस ८ रसस्सति--अ्र प्रसन्न होने का रम ( १४० ) देखी +- न > भ्रवदेखी--न॒देखी हुई निहारनि + न ननिहारनि--न देखने को दंदय समास रेनि + दिना दिनरौनि या रैनिदिना - दिन और रात। समासोत्तरतद्धित अ्रनकान + भ्रानाकानी >- ते सुनना । क्रिया अ्भिधानभाव ( [0त८४४५४९ 77000 ) प्रथम पुरुष स्त्रीलिंग पुलिग मध्यमपुरुष पुलिग स्त्रीलिग उत्तमपुरुष स्त्रीलिंग पुं । स्री० पुं० पूं 0 स्त्री० पुं० वर्तमान काल एक वचन परति, परति है बरसे, बरसे है। लसत तरसे मरहि जानत जाने जानत हौ जानति हैं जाने प्रसीसति देखति हौ' धावत जरों बिताउँ बिताबें पणंवतंमान लाग्यो है छाई है अपूर्णवर्तमान भचाय रह्यौ उमगिय रहति है बहु वचन परति, परति हैं. बरसे, बरसे हैं। तरसे जानत जानें जानही' जानति हों जानें भ्रसीसत रोवति हैं धावत रमें बुके हैं गई हैं पुं० स्त्री० पुं० अथम पुरुष पु० स्त्री ० मध्यम पुरुष स्त्री० पु० ( १४१ ) भूतकाल ए०७ व७ उचरो देख्यौ ढरिगौ म्रभ्ानी छाई हिरानी करी कीनी की कियो करयौ भविष्यकाल दहंगौ चलेगी बोलिहै पालिहों ब>० च० हेरे ढरिगे म्रभाने छाई हिरानी करीं को कीनीं किये कीने करे लेहिगे चलेंगी बोलिहें जगौगे बसाय हो पालिहै ज हैं ( ्ग767७(.४९ 7700व ) आज्ञाभाव चाहो प्राथंनाभाव परेखिय * विधिभाव पृहचानों जताइये पहचाना देहु .._?--बातिक विचारे साँ चूकनि परेखिये २---इस रूप में 'जि! विकरण पहले से श्रधिक बढ़ गया है। प्ररसाहु कीजीयिजु* हज पहचानें घ० क्० १६ ( १४२ ) लहें' हेतु हेतु मदभाव पावतौ* स्वभावभाव निहोग्त है, घरस्यौ करो कर्म वाच्य तथा भाव वाच्य बख।निये, ले, वारे* हस्पौ वितैय, हूकियों पूत्रकालिक क्रिया के ५/बढ़ा-बढ़ाय; $/आरा-प्रानि के; ५/बो-बे, बोग; ९/दो-है; (/बो- य। विभिन्न कतूंक पूर्व कालिक क्रिया ४/हेर हेरें; ५/त्रा. श्राएँ), क्रियाथैक क्रिया. 77#7707ए७ ४7००० (/ देख देखनकौं, अ्रविलोकिकेकों क्रियार्थंक संज्ञा ४००७७) 7र०घ० प्रयय-नि ९५/उरभ उरभति; *९/ प्रतरा-जअतरानि; (/बोट-धोटिबो भाववाचक संज्ञा ई प्रत्थथ ५/बौर-बौरई, $/निठुर-निठु राई, ,/ताई प्रत्यय, भ्रसिल- ताई, रि प्रत्यय बढ़वारि | १- रोम रोम रसना है लहै जौं गिरा के गुत तऊ जान प्यारी निबरे न मैं त श्ारतें । घ० क० ३२ २--जोौ जिय रावरी प्यार न पावतों *“तौ रुखे भये को परेखी न आवनतौ। ३--भरंग अंग रूप रस श्रंग बरस्यो करे; घ० क० ७४५ ४--वारे ये बिचारे प्रान घ० क० ५--पुर्वका लिक क्रिया का कर्ता ब्याकरणा नियणानुत।र वही होना चाहिए जो उत्तरकालिक क्रिया का होता है। पर ऐसे वाक्यों में जहाँ भिन्न क्तूँक पूर्व काल क्रिया हो तो उपयुंक्त रूप बनते हैं। वे धातु से भाववाचक संज्ञा बना कर उसके भ्रधिकरण रूप्र प्रतीत होते हैं ज॑त्ते संस्क्षत में भ्रस्तंगते सबितरि . मुनि रातिगतवान । ( (१४३ ) प्रकियाएँ नाम धातु अपन अ्पनाय हो जु॥ अभअरस-- श्रसाहु॥ श्रधिक्र--अ्धिकाति | प्रमान--प्रमानें । प्ररणार्थक ५/बढ़--बढ़ाय हौ इच्छार्थंक ९/देख--दिखास वीप्साथंक चितार५/चित चतुथ परिच्द्ेद शेली १- भाषा शैली श्रानंदधत की शैली के दो भाग किए जा सकते हैं, वक्र तथा ऋणु। भक्ति संबंधी रचनाश्रों में ऋज्ु तथा रसात्मक रचनाओं में वक्त शंली का प्रयोग किया गया है। इन दोनों के भी दो उपभेद किए जा सकते हैं । १--संश्लिष्ट तथा २--विश्लिष्ट श्रथवा साधारण | ऋजु शैली में वर्णानात्मक निबंध तथा गेय पदों की रचना हुई है। ये रचनाएँ भक्ति भाव की सरल मस्ती में या कीर्तन की धुन में लिखी गई हैं। इसलिये भावों को गहुराईं शौर वक्रता का चमत्कार दोनों को ही कवि ने छोड़ दिया है। रसात्मक रचनाशों का स्वरूप लौकिक तथा रहस्यात्मक होने से, प्रतीत होता है, वृंदावन कै संतो में उनका विशेष आदर नहीं हुआ | कवि को स्वयं इससे संतोष नहीं हुआ यद्यपि भक्ति भाव के मामिक भाव उनमें भी पर्याप्त संख्या में व्यक्त हुए है। इसके फलस्वरूप कवियों की चमत्कारप्रधान शैली का त्याग कर संत शली में भक्ति के भाव उन्होंने पदों तथा निबंधों में व्यक्त किए हैं। यह परिवर्तन सहेतुक था इसका संकेत भड़ीत्रा छंदों में तथा कवि के एक गीत में मिलता है। भड़ीवाकार ने उनके विषय में ' हुरकिनी सुजान तुरकिनी को सेवक है, तजि राम नाम वाकों पूजै काम धाम है। तथा “बैन कों चुरावे वाको मजमून लावे / श्रादि लिखा है। प्रतीत होता है कि भड़ौवाकार को सुजान छाप के वक्रतापुर्णा छंदों में फारसी के भावों की चोरी तथा वेश्याप्रेम की गंध आती थी। एक पद में कवि स्वयं भक्ति भाव की रचना करने पर संतोष प्रकट करता हुश्रा कहता है। रसना गुपाल के गुत उरभो । बहुत भाँति छल छंद बंद बकवाद फंदतें सुरभी॥! आज आशा जनिलविल टिक १०--आ्रानंदधत पदावली ६८७। ( १४५ ) यहाँ 'छल छंद बंद तें सुरक्ी? में वक्र शैली के त्याग की व्यंजना प्रतीत होती है | कारण कुछ भी हो शैली के दो भेद स्पष्ट हैं । ऋजु शैली के संश्लिष्ट रूप में संसक्षत की तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया गया है जो वक्र शैली में नहीं मिलता। नृर्सिह भगवान की स्तुति का निम्नलिखित पद्य इसका निदर्शन है । 'जयति जयति नरसिह-प्रहलाद-आारति-हरन वत्सल-विपुल-बल विनोदकारी । पुरन-प्रताप, श्ररितम-विहँडन, खंड-खेंडनि-प्रचंड-जसतु ड-चारी | सत्य-संकल्प-संदोह-संसर्ग- संग्राम-जु भा -असुर-संघहा री ।।४ इत्यादि इसका दूसरा रूप सीधी सरल भाषा का मिलता है जो पदों में तथा वर्णनात्मक निदंधों में व्यवहुत हुई। निबंधों में परलता अपेक्षाकृत अधिक है। केवल 'गोकुलविनोदः संश्लिष्ट शैली में लिखा गया हैं। इस सरल शैली की विशेषता यह है कि जिन भावों को कवि ने लक्षणा श्रादि के ब्लेश के साथ व्यक्त किया हैं उन्हें ही यहाँ सीधी सरल भाषा में प्रकट किया हे । चमत्कार और. प्रभाव श्रवश्य कम है। “'प्रेमपहेली/ में गोपिकाबचन देखिए । मोहन इत है निकसे आय, हों ठाडी अपने हु सुभाय। डीठि डीठि मिलि भयौ मिलाप, ढुरि ढुरि मिली आप ही श्राप । फूलि भूलि वेहू श्ररु हौंहूँ, रहे लोभ लगि डरु अ्रद गौंहेँ । उनकी वे जानें क्यों कहिए, पैं भ्रपत्ती मन कहूँ न लहिये । बहुत पची अभ्रपतों सो एँचि, हँसि चितवनि लैगई सुखेंचि ४ गेय पदों में भी प्रयः ऐसी ही शैली का प्रयोग किया गया हैं। जेसे--- बनवारी रे तें तो बावरी करी । बिसवासिति विषमरी बाँसरिया तनिक बजाइ सब सुरति हरी। मन की बिथा कौनसों कहिये बीतत जैसे घरी घरी। श्रानैदधत सनेह कर भुकनि घर बाहिर अब उधरि परी; * १--वही १९६। २--वही ५०५ ॥। १२ ( १४६ ) सरल शैली में भी कहीं कहीं कवित्त सबंयों को सी लाज्षुणिक्त वक्ता मिलती है। तिकसत लसत साँवरों छैल। रोकत मन नेनन की गैल। झ्रटक मटठक की सेंट भ्रट्पटी । हित कनौड़चित चाह चटपटी | ब्रजर्स उफनि बढ़ हिय सोत । रसना है है प्रगटित होत ।' ब्रज॒स्वरुप, भावत रंगनि करि बढवारि। वे-सम्हार ह्वे रहे सम्हा।र ।” भा० प्रकाश पर ऐसे उदाहरण अश्रत्यत्प हैं। उन्हें भ्रपवाद माना जा सकता है। जहाँ कीत॑नादि के उद्देश्य से रचना की गई है वहाँ काव्य के गुण, चमत्कार, मार्िकता भ्रादि नहीं हैं। आराराध्य के नाम गुण भ्रादि का स्मरण भात्र॑ किया गया है। “ब्रियाप्रसाद” की प्रत्येक पंक्ति 'राधा? नाम से तथा “रसनायश? की 'रसना' शब्द से प्रारंभ होती है। इस प्रकार ऋजु शली के संश्जिष्ट तथा विश्लिष्ट दोनों स्वरूप इनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं । दूसरी शली वक्रतापुर्णा है। कवित्त सर्वयों को रसात्मक रचना इसी शेली में की गई है। इसमें संस्कृत की तत्सम शब्दावली का प्रयोग नहीं किया गया है। भावों की मार्मिकता तथा गंभीर प्रभावशीलता इसके गुण हैं । वक्रता का श्राधार लक्षक भाषा है। मुहावरे भी जिन्हें रूढ़ि मूल लक्षणा का घिसा हुआ रूप कह सकते हैं इस प्रयोजन के लिये प्रयुक्त हुए हैं । लाक्षशिक प्रयोग जेसे--- जतन बुफे हैं सब जाकी भर शभागे, अ्रब कबहूँ न द्ब भरी भभक उमाह की ।/ रोकि विलोएई डारति है हिय ४ देखिय दसा असाध अंखियाँ निपेटिनि की / भसमी विथा प॑ नित लंघन करति हैं ।४ जान प्यारी सुधि हू श्रपुतपो बिसरि जाय |” इनमें जो लक्षुणाएँ की गई हैं वे पुर्ब॑सिद्ध नहीं हैं। इसलिये इल्हें प्रयोजनवती कहा जाएगा। इनका यह रूप कवि ने ही प्रयुक्त किया है। दूसरे रूप मुहावरों को लक्ष॒णाग्रों के भी हैं। ज॑से- १--खुहि० ६१ २--जहीं १७८ ३--वही २०० सुहि० ११८ ( १४७ ) घधनग्ानेंद ज्ञान न कान करें इनके हित को कित कोऊ कहै।! 'उत ऊतर पाँय लगी मेंहदी सु कहा लगि घीरज हाथ रहै।! इसमें कान करना, परों में मेंहदी लगावा तथा हाथ रहना” मुहावरों का प्रयोग है। हाथ; पर, कान तीन इंद्रियों का एकत्र नाम शा जाने से मुद्रालंकार भी हो गया है। इसे विश्लिषप्ट वक्रशली कह सकते हैं । वक्र शंली में भी संश्लिप्ठ भश्ौर विश्लिष्ट दो भेद हैंँ। जहाँ विचारों की अच्चुरता है, वहाँ कवि कम से कम शब्दों में उन्हें व्यक्त करता चाहता है। इन स्थलों में शंली संश्लिप्ठ हो गई है। संश्लिष्ठता भाषा की उतनी नहीं है जितनी विचारों की है। ऐसी रचनाएं शअ्रपेक्षाकत कठिन भी हैँ। शभनुप्रासादि आब्दालंकारों का लोभ भाषा को श्रौर क्लिष्ट तथा संश्लिल््ठ कर देता है । जैंसे-- सोभा-लोभ-लागि श्रंग-रंग-रंग प्रीति पाग, ह जागि जागि नेंको न निमेष ठेक तेँ टरी । बोलनि, चितौनि, चारु ढोलनि, कपोलनि सों, चाहि चाहि रंक लों सु संपत्ति हिये धारी।? सु ०"हि० ११८ “विष को दवा है, के उदेग को शभ्रवा है, कल पलकौ न चाहेँ अ्रथवा है चक बात को। बीजुरो को बंधु, किधों दुख ही को सिधु है कि, हा मोह अंध दंड श्रततन झलात को। देह को दिनेस के उजार निज देस किधों, प्रावम कलेस है, कि जंन्र सुख घात को |! सु० हि० २४५ बरी मन मेरो घनश्रानंद सुजान प्यारे, कैसे हित सीख्योँ जू तिहारे पच्छपात को |! सु०हि० २४४ हाँ इस प्रकार का कोई कारण क्लिष्टता का नहीं है वहाँ सरल भाषा में मामिक भावों की अ्रभिर्वक्त हुई है। शैली की मामिकता जितनी इस सरल साधारण छप में व्यक्त हुई है उतनी संश्लिष्ट रूप में नहीं । संश्लिष्ठ ( १४८५ ) शैली रीति परपरा फा श्रवशेष ज॑सी लगती है। वह बुद्धि को जगा कर विचारों की गहराई में पाठक को व्यस्त करती है। पर साधारण शैली हृदय का सीधा स्पर्श करती है भ्रोर उसे ऐसे भावों में डबा देती है जो परिचित से हैं। जसे-- लैही रहे हो सदा मन श्रौर को दैबो न जानत जान दुलारे। देख्यो न है सपने हूँ कहूँ दुख त्यागे संकोच भ्रौर सोच सुखारे। कैसो संजोग वियोग थौं आ्राहि फिरो घनप्रानेंद हो मतवारे | मो गति बृ के पर तब ही जब होहु धरीक हू आप तें न्यारे ।! सु० हि० १७७ इस प्रकार शेली के चार रूप इनकी रचनाओं में प्रात्त होते हैं। इनमें भ्रेष्ठ रूप सरल सीधी प्रसादगुणयुक्त शेली का है। १- भाव वधानता--- शेली का श्रांतरिक रूप भावप्रधान है, विभावप्रधान या वस्तुप्रधान नहीं , हिंदी साहित्य को परंपरा को देखें तो यह विशेषता बड़ी श्रसाधारण सिद्ध होती है। रससिद्धांत के प्रभाव के कारण हिंदी श्रोर सस्क्ृत के साहित्य में प्रबंध तथा मुक्तक दोनों प्रकार की रचनाओं के लिये विभाव- प्रधान शैली का ही अवलंबन किया जाता रहा है। भाव चेष्टाग्नों तथह घटनाश्रों द्वारा व्यक्त किए जाते है साज्षात् नाम लेकर नहीं। उन्तका सीधा वर्णन तो 'स्वशब्द वाच्यत्व” दोष माना गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी वर्तुप्रधान शैली की :ही रसमीमांसा में सराहना की है ।* साहित्य- दपंणुकार विश्वनाथ ने भावों के साक्षात् वर्णन को भी कहीं ठाक ठीक बताया' है। ब्भी कभी एक ही चेष्टा श्रनेक भावों के कारण उत्पन्न होती है श्रतः अनेक भावों को व्यंजिका भी हो सकती है। जैसे, कंप, भय, शीत, शुंगार झादि बहुत से कारणों से हो सकता है। विश्वताथ का यह दिशादर्शन मात्र है। अ्रनेक स्थल ऐसे हो सकते हैं जहाँ भावों का साक्षुत् वर्णन ही उचित ठहरता है। वस्तुप्रधान प्रबंध काच्यों के लिये विभावप्रधान शैली तथा भावप्रध्यन मुक्तकों के लिये भावप्रधान शेली को पाश्चात्य श्रालोचक ठीक सम्भते हैं। मुक्तककार कवि यदि अ्रंतमु ख वृत्ति का है तो उसके भाव बड़े १--रसमीमांसा विभावप्रकरण | ( १४६ ) सूक्ष्म तथा गंभीर होते हैं। वे कवि हुदय में अल्प छुणों के लिये ही श्राते है। उनकी अभिव्यक्ति के लिये यदि बह अ्रतुरूप चेष्टाओ्रों तथा वस्तुप्रों की बौद्धिक खोज करेगा तो वे लुप्त भी हो सहते हैं। उपे तो शीघ्र से शीघ्र उन्हें भाषा में बाँधता चाहिए ।* आआानंदवत के नीचे लिबे सत्रये में छोटे छोटे भाव इततो शीघ्रता से परिवर्तित होते प्रतोत होते हैं कि उतके लिये वस्तुविधान किए जाएँ तो काव्यत्व ही नष्ठ हो जाए--- 'खोय गई बुधि, सोय गई सुधि, रोय हँते, उन्माद जर्पौ है । मौन गहैँँ, चकि चाकि रहै, चलि वात कहैँ तेंच दाह दग्यौ है |! इत्यादि वस्तुपधात शैली विवेष्प्रभुख साहित्य के लिये, जो शास्त्रोय मार्ग का होता है, उपयुक्त है। स्वच्छंद मार्ग के भावष्रधान कवे के लिये तो भावों का सीधा वर्णन उचित होता है। श्रानंधधन की शैली में भावों तया हृदय की अंतर्दशाप्रों का प्रत्यक्ष वर्ण है। वस्तु द्वारा परंपरा से नहों। इनमें रमशोयता तया अनुभूति- योग्यता लक्षण द्वारा उत्पन्न होती है। लक्षणा की वक्रता कहों साम्धादि द्वारा अरूप भावों को झतवत्ता प्रदान करती है, कहीं उक्त के चमत्कार से विच्छित्ति का योग बढ़ा देती है। अलिमाष का वर्ण करता हुप्रा कवि कहता है । रस तागर तागर स्थाम लखाौं अभिलाख।न धार मेँकप्र बहौँ। सुन सुझत धीर को तीर कहूँ पचिहार के लाज सिवार ग हौं ।! सु० हि १३, >< ल्< >< यहाँ भ्रभिलाष भाव धार” उपमाव का, 'धौर! भाव 'ोर! का तया लज्जा भाव 'पिवार' का रूप धारण कर प्रत्यक्ष योग्य हो जाते हैं। फतता . १--साहित्यमीमांसा--ड० सूर्यक्रंत--वे (मत्ोवेष) क्षुणप#ंगुर हैं। हृदय में इगको चितगारियाँ सो उठती हैं प्रोर क्षणुम८ चमकुऋर बहों विजीद हो जाती है । पृ० ८ । ५ १४० ) नीचे लिखे स्व॑ये में लाक्षणिक वक्न्ता के सहारे भाववर्शान में चमत्कार का पुट लगाया गया है। रीकि निकाई निकाई पै रोभि, थकी गति हेरत हेरन की गति । जीवन-घूमरे नेन लखें मति बौरी भई गति वारि के मो मति । बानी बिलानी सूबोलनि पै, श्रन चाहनि चाह जिवावति है हति। जान के जीकी न जानि पर॑ घनश्रानँद या हु तें होति कहा श्रति |? सु"हि० ३४ इसी प्रकार-.- पाहस सयान ज्ञान ताकत तुम्हें सुजान, तब ही सबनि तजी श्रब हौ' कहा तजौ' । रावरेई राखे प्रान रहे, पै दहे निदान, यों ही इन काज लाज विन हूँ खरी लजों | सु०हि० ६३ । उपर्युक्त दोनों पद्चों में रीक, ममता, चाह, मति, हेरनि, वाणी, साहस, सयात, ज्ञान, लज्जा श्रादि का साक्षात् वर्णन है । उन्हें लक्षणा द्वारा चमत्कारी तथा रसनीय बनाया गया है। इस तरह बुद्धि तथा हृदय दोनों की तृप्ति का पदार्थ आनंदधन के काव्य में निहित रहता है। भावप्रधान शेली का ऐसा सरस एवं चमत्कारपूर्ण रूप उपस्थित कर कवि ने हिदी साहित्य में एक नवीन मार्ग प्रदरित किया है और पुरानी बातों को हो नए ढंग से कहने वाले रीति मार्गी कवियों की रचना से श्रतृप्त बौद्धिक वृत्ति के रसिकों के रसास्वादन के लिये नया क्षुत्र निमित किया है। भावों की अ्रतिरंजना वेदना की विवृति, प्रेम की एकपक्षीयता, विरह की प्रधानता, भाव- प्रधान शली का श्राश्रयणा, श्रादि तत्व इनकी रचनाओं में फारसी प्रभाव से आए हैं। भाषा की लाक्षरिकता तथा भावों की श्रतिर॑जना की प्रवृत्ति भी उसी स्रोत से श्राए हैं। उनमें भावों की भ्रतिर॑ंजना की मात्रा तो बहुत कम है | जितनी है, वह एक सीमा के श्रंतर्गत है। लाक्षणिकता के गुणा को इन्होंने बहुत भ्रपनाया है पर वह उद्द-फारसी का अनुकरण नहीं है | श्रपनी भाषा के गुणों का ही उसमें उपयोग क्या है। फारसी से केवल प्ररणा ( १५१ ) ली है। उसका विशद विवेचन भाषा के प्रसंग में किया जाएगा । भावों की प्रतिरंजना की परीक्षा की जाय । फारसी साहित्य में विरह के कष्ट तथा वेदनाओं का चित्रण इतना प्रतिरंजित होता है कि विरह॒ या तो करण रस में परिवर्तित हो जाता है या फिर बीभत्स में । भारतीय मतनीषियों ने श्यृगार को उज्ज्वल और शुभ्र' माना है श्रत: कोई अ्रशोभनत्व इसमें नहीं आता । श्रानंद्घन ने इस विषय में हिंदी की रसपरंपरा की रक्षा की है। विरहऋृष्टों का प्रच्ुरता से वर्णाव करते पर भी उसे बीभत्स रूप नहीं दिया । रक्त मांसादि का प्रदर्शन न कर प्राणादि की तड़पन तथा भावों में हनचल दिखाते रहे हैं । फिर भी कुछ मात्रा में अतिरंजना विद्यमान है। “प्राण कष्ठों के कारण होठ, श्राँखों श्रादि में भ्रा बतते हैं। वे पखेह होकर रूप का चुगा लेकर विरह के फंदे में. पड़ गए है। उन्हें विरहव्याध ने निपाँख कर दिया है। शरीर में विरह की दावाग्नि भड़कती है तो हृदय फट जाता है, साँस बाँस की तरह चटक जाते हैं | सुजान की पीठ, श्रनखौंहा स्रभाव, उसका न देखना श्रादि पर कवि अपने प्राण न््यौछावर करता है । स॒जान अ्रपने कंठ को सूराही में वचनों को शराब लेकर अधर के प्याले में भरती है और कानों के द्वारा प्रेमियों के प्राणों को पिला देती है पर उनकी चेतना को स्वयं पी लेती है।' इन भार्वों में फारमी प्रभावित चितन भलकता है । दो एक स्थानों पर यह प्रवृत्ति कुछ ग्रागे बढ़ गई है। प्रेमी अपने पत्र में प्रिय को हृदय के घाव लिखता है । नेत्र-वाणों से विधे प्राण सिसकते हैं, उठ नहीं सकते। प्रीति के बोफ से दब कर कुबड़े हो गये हैं। चितन में तो सभी रीतिकाल के कवि थोड़ी बहुत मात्रा में फारसी साहित्य से प्रभावित थे। रसलीन; कुंदनशाह आदि तो उसका अनुकरण ही करने लगे थे। आनंदधन ने उसे पचाकर श्रपते साहित्य के अनुकूल रूप में भावों को खा है, कहीं कहीं सीमा का उल्लंघन भी है । ४, रहस्यवाद इनकी शत्री में रहस्य भावना की भी भतक कहीं कहीं प्राप्त होती है ।॥ कहीं संपूर्ण पद्च में, कहीं उसकी एक पंक्ति या वाक््प में ऐसे संकेत मिलते हैं जितसे प्रेम भाव के प्रतिरिक्त पराध्यात्मिक भावों की भी व्यंजना होती है। प्रस्तुत के भाव या व्यापारों के वर्णन में परमेश्वर की व्यापकता, श्रंतर्योमिता, एकता ( १५२ ) श्रादि गुणों के संकेत किए गए हैं। प्रिय आरानंदधन के दर्शन के समय प्रेमी उनके तेज से हतप्रभ होकर उन्हें रा नहीं देख पाता । 'घन श्राए तो साथ ही बिजली की कौंध भी श्राई जिसने प्रिय को देखने ही नहीं दिया | बाद में बुद्धि को संदेह होने लगा कि वे भ्ानंदधन सचमुच हैं भी या नहीं । चेटक रूप रसीले सजान दई बहते दिन नेकु दिखाई। कोध में चौंध भरे चल हाय कहा कही हेरनि ऐसे हिराईं। बातें बिलाय गई रसना पै, हियो उमग्यो, कहि एकौ न श्राई। साँच कि संभ्रम हौ घनश्रानेंद सोचनि ही मति जाति समाई |! सु० हि० ३४३ यहाँ प्रस्तुत वरण्यभाव प्रियामिलन है पर व ह घन के श्रप्रस्तुत व्यापारों द्वारा व्यक्त किया गया है। अंतिम पैक्ति में परमेश्वर की सत्ता के श्रस्ति- नास्ति के संदेहों की श्रोर भी संकेत किया गया जान पड़ता है। इसकी छाया में ऊपर की तीनों पंक्तियों का श्रर्थ परमेश्वर को प्रिय मान कर तत्परक किया जा सकता है। इसी प्रकार प्रेमी प्रिय आानंदधन को लक्ष्य कर कहता है । 'उधरी जग छाय रहे घनआानँद चातिक त्यों तक्यि अ्रबतो । यहाँ संसार के श्ाँखों से हट जाने तथा श्रानंदघन के ही छा जाने से विरक्तों की उस स्थिति की व्यंजना प्रतीत होती है जब कि संसार की श्रासक्ति छुट जाने पर केवल परमेश्वर का ही ध्यान शेष रह जाता है । हृश्यस्थ प्रिय को प्रेमी उपालंभ देता है कि तुम हो तो हृदय के निवासी पर हम तुममें प्रवासी कसा अंतर बना हुआ है। इसी तरह इसका यह भी उपालंभ है किन जाने कब से थ्रिय और प्रेमी साथ साथ रहते श्राए हैं पर भ्रापस में एक दूसरे की धचिन्हारि! नहीं हो सकी। ऐसी यक्तियों में कोरे भौतिक प्रेम का वर्णन नहीं क्या गया प्रतीत होता, भ्रध्यात्म सत्ता की श्लोर भी संकेत किया गया प्रतीत होता है। कुछ पद्यों में तो दार्शनिक भाव ही प्रस्तुत रूप से व्यक्त किए गए हैं। पर वे भी वशित हुए हैं श्रानंद के घन के व्यापारों द्वारा ही। जैसे-- 'थिरता श्रथिर सोई थिर देखियत देखी, सब ही के जिय नैकौ मीच सों न है चिन्हारि। होनि सो सही है श्रनहोनि हूँ वही है, ऐसी, होनि-प्रनहोनि को न सोच कोउवै विचारि। ( १४३ ) उघरनि छावति सुजान घलनप्मानंद मैं, उघरि छ6 हैं प॑ पसारो आपनो पसारि ।! सु० हिं० ४२६ यहाँ संसार की नश्वरता तथा अ्रस्थिरता का वर्णन कर उसे श्ानंद के घन परमेश्वर का ही प्रसार बताया है जिससें स्वर्य परमेश्वर भी छिप गया है। तत् सट्ठा तदेव श्रनुप्राविशत् ।! इस प्रकार की उ्क्तियों को समासोक्ति या भ्रग्रस्तुत श्रलंकार कह कर झालंकारिक शभ्रभिव्यक्ति नहीं कही जा सकती। इनमें तो बादल शऔर चातक, प्रेमी और प्रियतम, तथा ज्ञात्ती भक्त और भगवान् इन सभो का योग रहता है। भ्रतः इसे रहस्य भावना ही मानना चाहिए। इसकी मुल प्रेरणा का विचार किया जाय तो इनसे पूर्व चार पर॑पराएँ रहस्य भावना की प्राप्त होती हैं। ज्ञानमार्गी कबीर श्रादि की, सूर्फियों की, वेष्णवों की तथा फारसी साहित्य की। इनमें ज्ञानमार्गी निशुण संतों की रहस्य भावनाओ्रों में अध्यात्म भावों की प्रमुखता रहती है । वे काव्य में प्रस्तुत होते हैं। उनकी श्रभिव्यक्ति के लिये विविध प्रकार के श्रप्रस्तुतों का उपयोग किया जाता है। इसे श्रप्रस्तुत प्रशंसापद्धति का रहस्यवाद कहना चाहिए। झानंदबन ते सब कुछ घन के व्यपारों द्वारा ही कहा हैं। वह घन भी घनश्याम है, वही प्रस्तुत है। प्रत: कबीर झ्ादि ज्ञानमार्गो संतों की रहस्य- शैली से इनकी शली भिन्नत है। उन्होंने तो प्रस्तुत श्रानंदघन श्रीकृष्ण प्रिय का ही वर्णन प्रमुखतया किया है। भ्ररूप, व्यापक, परमेश्वर की प्रतीति तो यत्र तत्र हल्की सुगंध सी भासित हो जाती है। इस रूप में वे सूफिपों की परंपरा से मिलते हैं पर सूफियों का श्रध्यात्म साम्प्रदायिक होता है और उसकी व्यजना समस्त कथा द्वारा की जाती है। आ्ञानंदधन का श्रध्यात्म सवसाधारण दार्शनिक भावना है--जंसे परमेश्वर की व्यापकता, एकता, अ्ंतर्यामिता आदि | इस तरह दार्शनिक सिद्धांतों की दृष्टि से आनंदवन सूफियों से सिल्नत हैं। दूसरे इनकी श्रध्यात्म भावना कथा द्वारा व्यंग्य नहीं है। परमेश्वर का जझ्णिक तथा श्रध-प्राभास होना, उनका मुप्त-प्रकट बने रहना, प्रकृति में छिपे रहना भ्रादि परमेश्वर विषयक धारणाएं सूफियों के प्रभाव से बनी तो प्रतीत होती हैं पर ये भारतीय दर्शनों में भी विद्यमान हैं। निबार्क संप्रदाय में भी परमेश्वर के साथ भेदाभेद संबंध माना जाता है। अतः इतना ही कहा जा सकता है - कि चिंतन पक्ष में ईनपर सूफियों का प्रभाव हो सकता है, श्रभिव्यक्ति पक्ष में ( १५७ ) नहीं । प्रानंदधन स्वयं सखी संप्रदाय के उपासक थे। जिसमें गुह्मय, रहस्य की भावना तियतरूप से वर्तमान रहती है । दूसरी श्रोर फारसी साहिस्य का पमिस्टीसिज्प! भौतिक प्रेम में श्रध्यात्म प्रेम की भावना का ही नाम है। यह सिद्धांत सौंदर्य धर्म का है जिसके श्रनुसार स्वर्गीय पुणंता जगत के श्रपुर्णु सौंदर्य के श्राधीन समझी जाती है। आनंदधन द्वारा फारसी साहित्य से श्रनेक प्रेरणाएं स्पष्टतया ली गई प्रतीत होती हैं तो रहस्यभावना में भी उसका प्रभाव प्रवश्य होना चाहिए | इनके प्रंम को अ्रतृभृति का स्वरूप भी फारसोी की तरह लौकिक ही है। राधा श्रौर कृष्ण तो तत्कालीन काव्यपरंपरा के कारण काव्य में गृहीत हुए हैं। भरत: सखी संप्रदाय, फारसी साहित्य तथा सुफी कवि, इन तीन की रहस्यभावना से कवि ने प्र रणा ली प्रतीत होती है। इसके शअ्रतिरिक्त इनकी व्यक्तिगत भावना भी इसमें हेतु है। उन्होंने श्रपने समस्त काव्य की शभ्राधार वस्तु धग्रानंद के घन! को बनाया है। प्रेम, भक्ति, ज्ञान श्रादि के सब भाव घत के द्वारा ही व्यक्त करते की एक शेलो कवि ने बता ली है। इसीलिये प्रानंदव व के व्यापार प्रतीकवत व्यवहृत हैं। उपमानों का प्रतीकवत श्राश्यण रहर्प- भावना फा तत्व हैं। कवि अपने नामार्थ को समस्त काव्य में व्याप्त करना चाहता है। यह बात घतव के व्यापारों को प्रतोक बना कर ही किया जा सकता था। वही इन्होंने किया! है। परमात्मा के सदा ध्यात में बने रहने को, घन का छा जानता” तथा संसार की हृष्ठि से हुट जाने को “उघडना” कत्रि ने कहा है। इस त्तरह श्रानंदवत के प्रस्तुत वस्तु के व्यापारों को हा जहाँ जहाँ प्रतीकृतत् वणित किया है वहीं वहीं रहस्यतावना का भरत भ्रा गया है। प्रतीक पद्धति के आ्राश्नवण के कारण हो इतकी रहस्प शैली भार तीय रहस्य शैलियों के निकट कम है फारपी रहस्यवाद के निकट श्रधिक्त है । फारसी काव्य में प्रणय व्यापार प्रतीक बव कर हो दार्शनिक, सामाजिक आदि भाव समर्पित करते हैं। महाकबि हाफ़िज कहते हैं--चाहे जितना ही पवित्र मनुष्य क्यों न हो लेकिन तब तक वह स्वर्ग में नहीं जा सकता जब तक मेरे समान अपने वस्त्रों को शराबखाते में रहत नहीं कर देता। यहाँ शराब भ्रात्मविस्मृति प्रेम का प्रतीक ही कहा जायगा । १--अयोध्या प्रसाद गोयलीय, शर श्रो शायरी, पु० ६४ पर उद्ध त । ( १५५ ) इन्होंने श्रपने दार्शनिक विचार भी ऐसे व्यक्त किए हैं कि परमेश्वर विषयक मान्यता में रहस्यभावना का प्रंश प्रतीत होता है। परमेश्वर में “उधरनि” और छावनि' श्रर्थात् प्रकट होता तथा गुप्त रहना दोनों ग्रुण वर्तमान हैं| कवि प्रिय परमेश्वर को उपालंभ देता हुआ्ना कहता है कि-- आप रसीले हो । मेरे कहे का बुरा न मानना । मेरा मन तो तुम्हारे गुणा गा गा कर उनमें और उलभ गया है। अभिलाष यही है कि जिस प्रकार कानों से सुना है उस प्रकार श्राँखों से देखें भी। पर तुम दिखाई नहीं देते हो । वेसे सर्वत्र छाए हुए हो । है घनम्रानंद, तुम ऐसे प्राश्वर्यवूर्ण हो कि तुम्हें पाकर भी हम खोए खोए से रहते हैं। हम तुम एक वास में रहे हैं पर कभी श्रापस में परिचय नहीं हो सका ॥! भले हो रसीले श्ररसीले सुनि हुजिये न, गुतननि तिहारे उरस्यों है मन गाय गाय। काननि सुनी हैं तेंसें श्राँखित ह देखें जातें, दीखत नहीं श्रौं सर ठाँव रहे छाय छाय । ऐसें धनपआ्रानेंद भ्रचंभे सों भरे हो भारो, खोए से रहत जित तिन तुम्हें पाय पाय । एक वास बसे सदा बालम बिसासी, प॑ न, भई वयों चिन्हारि कहूँ हमैं तुम्हें हाय हाय ।' सु०हिं० ४६८ इसी प्रकार पदावली के पद में कवि ते कहा है>हैं प्रभु मन मोहन, तम्हारे अ्गणित गुण जितने हैं उनका वर्णन नहीं हो सकता | वे कुछ उघड़े हैं कुछ ढके हुए । कुछ पता नहीं चलता कि तुम निकट हो या दूर ही । 'इते ढके अरु उषरे वेते। कैसे कौ कहि सकौ रावरे मनमोहन अ्रगनित शुन जेते निकट दूरि लहि परत नहीं क्छु झ्रानंद्धत रसमगन सचेते | हाइ हाइ बिसवासी बालम कंबहूँ तो श्राँखिन सुख देते । पद[० ७८ इसकी रहस्यभावना की यह विशेषता है कि उसक्षा प्रभाव प्रक्ृ ते वर्गात पर विशेष नहीं पड़ता | प्रेम व्यापार का स्वरूप ज्यों का त्यों बता रहता है । काव्य की सरसता दर्शन की रूक्षुता से विकृत नहीं होती । ( १४५६ ) . उक्ति की वक्ता -- वक्रता इनकी शैली की प्रभ्ुख विशेषता है। वक्रता का श्र्थ है ठेढ़ी या असाधारण उक्ति। भारतीय श्रलंकार शाल्ल में इसे वक्रोक्ति कहा गया है। भ्राचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को अलंकार मार्ग, रीतिमार्ग श्रादि की तरह काव्य का एक पृथक मार्ग हो प्रतिपादित किय्रा है। उसका स्व॒रूप यह है-- काव्य का प्राण रस है । कवि का वही लक्ष्य है । कवि को प्रतनी रचना द्वारा श्रोताओश्रों तथा सामाजिक़ों में काव्यरस का उद्रेक करना चाहिए | काव्यरस भ्रलोकिक एवं अ्रसाधारण वस्तु है। भ्रत: कवि का प्रयत्न अ्रसा- धारण होगा तभी उसकी सिद्धि हो सक्रेगो | श्रर्यात् शब्द और श्रर्य का निबंधन परस्परोत्कर्ष का हेतु होता चाहिए । कवि के प्रथत्न का हो श्रथ है अभिव्यक्ति । फन्नत: सरांश यही हुआ कि काव्य को प्रभावशील बनाने के लिये कविप्रतिभा को श्रसाधारण श्रभिव्यक्ति करनी चाहिए । श्राचार्य कु तक ने इसो असाधारण भश्रभिव्यक्ति को वक्रोक्ति कहा है। उन्होंने स्वभा- वोक्ति से इसका भेद पता कर इपके छ भेद बताए हैं। पदवक्रोक्ति, पदपराध्ध॑- वक्रोक्ति, पदपूर्ा घंवक्रोक्ति, वाक्थबक्रोक्ति, प्रक'णातरक्रोकति, और प्रबंध- वक्रोक्ति । वक्रोक्ति की सब से छोटो इकाई पदार्थ भाग और सबसे बड़ी इकाई प्रबंध हैं। ये सभी श्रभिव्यक्ति के स्रहप हैं। वाक्य पर्यत्त शब्द के भेद हैं शेष दो श्रथं के हैं। इपते वक्रोक्ति शब्दगत तथा श्रर्थगत दो प्रकार की हो जाती है। आ्राचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति के प्रसंग से ही रस का विवेवन भो किया है। इससे वक्रोक्ति की रसानुकूलता सिद्ध होतो है। कुंतक अलंकार मार्गी थे । उनकी वक्रोक्ति अश्रलंक्ार का सामान्यवाचक शब्द है। झलकार भी रसानुकूल ही काव्य में ग्राह्मय होता है। वक्रोक्ति भी रप्तोपकारक होनी चाहिए | शास्त्रीय एवं व्यावहारिक विचारों तथा भावों की अ्रभिव्यक्ति के लिये मनुष्य जिस प्रतिद्ध, सरल मार्ग का श्राश्यण करता है उप्तका त्याग कर काव्यगतरस को बढाने के लिये जो विन्न्षण पदवपदार्थयोजना, वस्तुयोजना करता है वह वक्रोक्ति है | श्रंप्रेजी में जो भ्राक्षंप सूचक वाक्य ( ॥703709] 99०6०॥ ) या वक्र॒ कथन ( (700६6०| 59 छए78 ) है वह इससे भिन्न है । बाद में जो वक्रोक्ति नाम का एक शब्दालंधार माना जाने लगा था यह उससे भी भिन्न है। इसका एक श्रोर रस से संबंध है दूसरी भ्रोर अ्रसाधारणता से या चमस्कार से | कुतक का विश्वास हैँ ( १५७ ) कि साधारण भण्िति से किसी प्रकार के रस की उत्पत्ति नहीं हो सकती डिससे यह संभव है वह वक्रोकित है । झग्रलंकारों की तरह यह भी भावसहजात और भावान्तरजात दोनों प्रकार होती है। कवि के हंदय में भाव साधारण रूप से उत्पन्न हों प्रौर बौद्धिक प्रयास से बाद में वह श्रसाधारण शब्दप्रयोग या वाव्यरदता दारा उनके साथ चमत्कार का योग कर दे तो वह भावान्तरजात वक्रोबित होगी | मानव तजो गहि सुमति वर पुनि पुति होत न देह । मानत जीगी जोग को हम नहिं करत सनेह । यहाँ पहले वाक्य 'माव तजो गहि' का “मानत जो गहि' श्रर्थ बौद्धिक प्रयास से किया गया है। कवि के हृदय में किसी श्रसाधारण भाव क्री उत्पत्ति नहीं हुई। यह भावान्तरजात निद्ष्ट प्रकार की वक्रोक्ति है। आानंद- घन की विरोधचमत्कार को उत्पन्त करने वाली उक्तियाँ इसी कोर्टि में प्राएंगी । जेसे--- जान घनआानंद पै खोइबो लहालहो”? >< >< >८ >< जतन बुझे हैं सब जाकी मर श्रार्गं भ्रब कबहु न दबे भरी भभक उसाह को ॥' >< >८ >< >< (ढीली दसाही सों मेरी मति लीनी करसि है । >< >< »< न अतर्खि चढ़े भ्रनौखी चितचढ़ि उतरेत मन मग म् दे जाकौ बेह सब श्रोर ते ।' भ्रादि वक्र उक्तियाँ भाव जनित नहीं हैं, वे केवल चमत्कार की जननी हैं, ऐसी बक्रतायें भावांतर जात हैं । प्र. इसके भअ्रतिरिक्त आनंदघधन ने जो भावव्यंजक लक्षणाएँ की हैं वे भावसहजात वक्रोक्तियाँ कही जाएंगी। उनका जन्म भावाडुल हंस स् हुआ है । जब किसी आसाधा रखा प्रकार के भाव की अनुभूति हृदय में होती है तो वह श्रपने भ्रनुकुल ही भाषानिर्माण स्वयं कर लेती है। संसार के वाह्मय का संबंध प्रचलित भाव या विचारों से होता है। उन्हीं को वह व्यक्त कर सकता है । पर कवि की यह श्रनृभूति सर्वंथा नवीन होती है। उनकी भ्रभिव्यक्ति के लिये तों नवीन ही शब्द या वाक्य चाहिए। श्रेष्ठ ( १४८ ) कवयों की रचनाओं में जो नए शब्द मिलते हैं उसका कारण यही है । तुलसोदास जी का घृप् ध्रुतरए! श्रानंदवत के 'मुत्रागति! “घूम की घ॒मरि 'मलीले मई! 'चितार! 'दिखास” श्रादि शब्द भाव की ऊष्मासे ही सृष्ठ हुए हैं। इसी प्रकार पूर्वंसिद्ध शब्दों का विलज्गञुण योग कर विलक्षण वाक्य बना दिए जाते हैं। एक वस्तु के धर्म का योग वस्त्वंतरर से कर दिया जाता है । जेसे--- १०-लड़कानि की श्रान पर छलके । २--लाजन लपेदी चितवन । ३--रसनि चुरत मीठी मृद् सुसकक््यानि मैं । ४-अश्रंग श्रंग तरंग उठे दुति को परि है मनौहूप श्रब धर च्वे । इन्हें लक्षुक या लक्षणायुक्त वाक्य कहा जाएगा। वास्तव में यह भी बक्रोक्ति है। श्राचार्य कुंतक का वक्रोक्ति से ऐसा ही जात्पर्य था। पहले वाक्य से इनमें इतना अभ्रंतर है कि ये भाव सहजात हैं। इसलिये इनसे भाव की व्यंजना होती है। पहले वाक्य कवि की चमत्कारप्रवण बुद्धि ने रखे थे उनसे चमत्कार का ही जन्म होता था । वक्रोक्ति मार्ग के भ्रतुषायी श्राचार्यों का तो यह भी मत है कि चमत्कार का रस के साथ अ्रविनाभाव संबंध हैं । रस बिना चमत्कार के सिद्ध हो नहीं हो सकता | चमत्कार का काव्य में कोई हेग या तगशय स्थान नहीं है । चित्त की तीन भ्रूमिकाएँ होती हैं-द्वुति, दीप्ति, और विस्फार | #ंगार, करण श्ौर शांतरस में दुति का जन्म होता है। वह श्रृंगार से अश्रधिक कद्ण में भ्ौर उससे भी भ्रधिक शांतरस में उत्पन्न होती है। वीर, वीभत्स तथा रौद्र रस में दीप्ति का जन्म होता है। वह हुृंदय को ज्वलनशीलता की स्थिति है। वह भी वीर से अधिक वंभत्स में श्रौर उससे भी श्रधिक रौद्र में होती है। हास्य, भ्रदूभुत श्रोर भयानक में उत्तरोत्तर क्रम से चित्त विकसित या विस्फारित होता है । विस्फार दशा को ही विस्मय शआ्राश्चर्थ या चभपत्कार श्रादि शब्दों से कहा जाता है , भ्राचार्यों का मंतव्य है कि वित्तविस्फार विशेषरूप से हास्य भ्रदुभुत श्रादि रसों में उत्पन्त होता है । पर सामान्यरूय से सब्र रसों में उसकी विद्य« मानता है। श्रलौकिक रस बिना किसो न किंस्ती प्रकार की लोकोत्तरता के निष्पन्त नहीं हो सकता । यह लोकोत्तरता ही चित्तविस्फार की जननी है भौर चक्रोक्ति लोकोत्तरता का शब्दार्थभय शरीर है। वक्रोक्ति संप्रदाय के मुल में ( १५६ ) चमत्कार की सर्वरसव्यापिनी सत्ता की अनभूति ही रहती है। रसानुभूत्ति में प्रत्य आचारयों ने भी चभत्कार के योग को स्वीकार किया है। आनंदवर्धघता- चार्य ने रसास्वाद को 'चेतश्मत्कृति विधायी” मात्रा है। श्रभितवगुप्त ने भी उन्हीं के श्रनुगमन से इसको “चमत्कारात्मा? कहा है। पडितराज जगन्नाथ ने चमत्कार को आह्वादात्मा' बताया है जो इसका ही संकेतक प्रतीत होता है। साहित्यदर्षणकार विश्वनाथ ने चित्तविस्तार या विस्फार को सत्वगुण का पर्याय माना है | चित्त में सत्व के उद्ंग से जो परिमित॒ प्रमातृ भाव आता है वह विस्तार ही है, यह विश्ववाथ का तात्पय है । इम सबसे यही स्पष्ट होता है कि प्रत्येक रसातुमति में चमत्कार का प्रयोग नियतरूप से रहता है | इसलिये कुतक ने रसपूर्ण वाणी को कथामात्र पर पश्राश्चित वाणी से भिन्न बताया है । इस तरह वक्रोक्तिमार्गियों की वक्रोक्ति रस पर्यत जाती है। उन्होंने प्रबंधवक्रता प्रकरणवक्रता श्रादि में विविध प्रकारों से रसजन्य चमत्कार का अेनर्भाव दिखाया है। फन्नतः आचार्य कुंतक की वक्रोक्ति श्रभिव्यक्ति को अ्रसाधारणता का समानांतर एक व्यापक तत्व है जो कवि के लोक विलछरण शब्दों से लेकर उसको लोक विलक्चण श्रतुभूति तक फैला हुआ है। बाद में रसमार्ग के स्थापित होने के अनंत्र इसका महत्व क्षीण हो गया । रसमार्ग में अनुभूति की मामिकता और सहजता पर श्रधिक बल दिया गया । इसके फलस्वरूप वक्रोक्ति एक साधारण शभ्रलंकारम।त्र माना गया । आानंदधन की वक्रता का स्वरूप भी शब्दों की बाह्य बक्रतगा मात्र नहीं है। उप्तके दोनों रूप मिलते हैं। कुछ तो केबल बाह्य चमत्कार की सृष्टि करती हैं और कुछ श्रनुभति की अ्साधारणता का द्योतत करती हैं। दूधरी श्रेणी हे वक्रताएँ ववीन प्रयोजनवती तथा रुढिपूला लक्षणाप्रों में व्यक्त हुई हैं । विरोध तथा निरोधमलक असंगति श्रादि अलंकारों के चमत्कार वाली पहली है | इनकी कुछ उक्तियाँ हिंदी के अलंकारों की सीमा में समा जाती हैं। पर कुछ ऐसी हईं जो केवल लक्षणा कही जा सकती हैं | किस! अलंकार विशेष के लक्षण से वे ब्याप्त नहीं होती हैं ।है सब वक्रताएँ ही । श्राचार्थ कु तक का भी कुछ ऐसा ही अ्रभिप्राय था। वे अलंकार सार्ग को सीमित समझते लि-+-++-.._ कर यु बा छः व ३ हज रिक४ नर न] गिर; कवीनां जीवन्ति न कथामात्रमात्रिता: वक्रोक्ति जीवित प्र० २-२४ ( १६० ) थे। वे अ्लंकारमार्ग की मूल भावना उक्ति की श्रसाधारणता की उपादेयता तो झनु भव करते थे पर उसे गिने गिनाए अ्रलंकारों में बांधता अ्रनुचित समभते थे | इसलिये उन्होंने वक्रोक्ति को प्रकरण तथा प्रबंध तक व्याप्त बनाया और बक्रता को मुख्य माना जो कवि की प्रतिभा के समान श्रज्ञेयरूप है। प्रानंद घन कुंतक के सिद्धांत से परिचित थे,--यह तो नहीं कहा जा सकता। ऐसी कोई सभाव्ना नहों है । पर इनके चितन में दो प्रंपराश्मा का मेल हुशा है। फारसी तथा हिंदी-संस्कृत की पर॑पराश्नरों का। फारसी साहित्य में उक्ति की वक्रता का श्रत्यंत प्राधान्य रहता है। उनमें अधिक संख्या तो बाह्य चमत्कार- जनक वक्रताश्रों की ही होती है। कुछ श्रांतरिक श्रनुभूतियों से भो संबद्ध रहती है । ए श्रांसुओं न श्रावे कुछ दिल की बात लब पर लड़के हो तुम कहीं मत अफशाए राज करना | ( श्रशफाए राजु ७ रहस्य का उद्घाटन ) यहाँ कवि कोरा चमत्कारवादी ही प्रतीत होता है श्रन्यथा करुणा रस में श्रांसुश्लों को लड़के कहकर भाव को हल्का न करता । श्रानंदघन ने प्रेरणा तो फारसी साहितए से ही लो थी। क्योंकि प्रयोग में उनके सप्रय में दसरी कोई पद्धति ऐसी न थी जिसमे उक्त वक्ता का आदर हो। कुंतफ का मार्ग तो रस मार्ग के प्रभाव से व्ब गया था दसरी ओर लक्कणा के प्रयोग को श्रलं- कारमार्ग ने सीमत कर दिया था। वेयाकरणों ने लक्षुणा को जघन्य वृत्ति कह कर उसके मुक्त प्रसार को श्रवरुद्ध कर दिया था। श्रत; कवियों की वाणी में लाक्षृणिक प्रयोग नहों के बराबर होते ये। श्रभिधामार्ग ही समाश्रित था। विहारी, देव, पदुमाकर ज॑से गंभीर चितनशील कवियों की वाणी का प्रसार भी श्रभिधामार्ग से ही हुआ है। देव ने श्रभिधामार्ग को सर्वश्रेष्ठ माना है। छक्षुणा प्रचलित श्रलंकारों तक ही सीमित है। रीतिकारों ने तो इसका विवेचन भी छोड़ दिया था। दास, देव ज॑से कुछ ही शाचार्य कवियों ने इसको विवेचन में लिया है। उन लोगों ने भी पुराने उदाहरणों पर ही पूव॑ प्रचलित विमर्श किय्य है। न नया विचार किया न नए उदाहरण ही दिए। क्योंकि लक्षणा का व्यवहार काव्य के क्षेत्र में रक गया था | श्रत: झानंदघन के लिये हिंदी साहित्य में वक्रता की प्रेरणा का कोई श्रवकाश नहीं था। फारसी इस तत्व से भरी पड़ी थी। इसलिए इन्होंने वहीं से प्रेरणा ( १६१ ) प्राप्त की। पर भ्रौर क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी उन्होंने इसको भारतीय ध्वरूप प्रदान किया । लोकोक्तियाँ, मुहावरे श्रादि जो हिंदी में प्रचलित थे उनके द्वारा वक्रोवितयाँ कहीं हैं। कुछ प्रचलित श्रलंकारों के द्वारा त्यक्त की झीर कुछ स्वतंत्ररूप से स्वकल्पित लक्षणाओ्रों के रूप में उपस्थित की । जैसे-- अलंकार रूप--- 'बदरा बरसे रितु मैं घिरिके नित हो अखियाँ उघरी बरसे (' नीर भीज्यौ जीव रऊ गुडी लॉ उडयौ चहै।' 'सोचनि ही पचिये घनआानंद हेत लग्यों किधों प्रेत लग्यों है ।* धघनग्रानंद जान अश्रजौ नहि जानत कसे श्र्नसे हैं हाय दई।' यहां क्रमशः व्यक्तिरेक, विरोध, संदेह, तथा विरोध अलंकार कहे जा सकते हैं । मुहावरों के रुप में 'उधरौ जग छाय रहे घव आनँद चातिक त्यौं तकिये श्रव तो ।' 'जीव सूरुषों जाय ज्यौ ज्यौं भीजत सरवरी।॥' अकुलानि के पानि परधौ दिन राति सु ज्यों छित को न कहूँ बहरे ४ “उत इतर पाँय लगी मँहदी सु कहा लगि घीरज हाथ लगे ।' इनमें कुछु न कुछ प्रलंहार है ही पर प्रावान्य मुहावरों के प्रयोग का' है। मुहावरे हिंदी के ही हैं। भरत: फा रसी को प्रेरणा से प्राप्त वक्ता का यह भारतीयकरण है । $ | तीसरी वक्रवाएँ ऐसी हैँ जो कवि को अनूभूति से हो जन्मी हैं। इन प्राय: प्रयोजनवती लक्षणाम्रों का प्रयोग हुम्ना है ।- इनमें मभिक अनुभूति की व्यर्जना होती है । इन्हें देखकर पाठक यही कहेंगा कि यदि यहाँ वक्रोक्ति न होती तो भाव रुफुट न हो पाता । वे भाव की सभानकार सो लगतो हैं । जे से--- लाजनि लपेटी चितवर्नि' 'मँग भ्रंग तरंग उठे दुति की परि है मनोरूप ग्रबे धर उवे ।* 'जगमगति छंबीली बाल । 'मोहन-सोहन-जोहन की लगिय रहैं आँखिन के उर आारति जीव की जीवनि जान ही जाने।* १दे ( १६२ ) “रोकी रहे न दहै घनग्रानंद बावरी रीक के हाथनि हारिये ।! जो दुख देखति हो घनभ्रानेंद रेनि दिना बिन जान सूतंतर ।! जाने बेई दिन रात बखानें ते जाय परे दिन राति कौ अंतर |! इत्य।दि इनमें से दो एक को ठोक पीटकर शअलंकारों के साँचे में फिट भो किया जा सकता है पर वह ऐसा ही होगा जेैपे प्रानंघन की रसभीजी जउक्तियों को नाथिका भेद के बेरे में घेरना । वास्तव में इनकी इस प्रकार को उक्तियाँ स्वतंत्र हैं। कवि की श्नुभूति ने श्रपने आप अपनी श्रभिव्यक्ति कवि को समय्रित की है । इनमें से किसी एक वाक्ध पर विचार किया जाए तो वह भावसहजात श्ौर सप्रयोजन लक्षरणा- युक्त मिलेगा । लजायुक्त न कह कर लाजनि लपेटी” कहने में तथा लज्ञा को बहुबचन से व्यक्त करने में कवि ने एक विशेष प्रकार की व्यंजना की है जो लजायुक्त या लजीली श्रादि किसी शब्द से व्यक्त न हो सकती थी । इसी प्रकार अंग अंग तरंग उठे दुति को? में दुति की तरंगें उठा कर उसे तरल बताता सौंदर्य को शरीर में लबालब भरा हुप्रा बताना, तथा सु दरी के हाव भाव का मूर्त चित्रण करना श्रादि न जाने कितने प्रयोजन सिद्ध किए हैं । अ्रनुभूति के साथ चमत्कार का यह योग आनंदधन की शैली की सर्वोपरि विशेषता है। फारसी में कोरा चमत्कार था। हिंदी में जहाँ अनुभूति थी वहाँ चमत्कार न था, चमत्कार था तो श्रनुभूति नहीं थी । .आ्ानंदधन वे दोनों का योग किया है। उसका कारण इनकी कोमल और गंभीर अनुभूति थी । इनकी रचनाओ्रों में ऐसे पद्यों की ही संख्या भ्रधक है जिनमें श्रनुभति- मुलक वक्रताएं विद्यमान हैं | नाचे लिखा सर्वया भी ऐसा ही है। जीव की बात जनाइयो क्यो करि जान कहांय अ्रजाननि श्रागौ । तीरनि मारिक पीर न पावत एक सौ मानत रोइबों रागोौ । ऐसी बनी घनभ्रानंद आनि जु आन ने सुभव सो किन त्यागों । प्रात मरेंगे भरेंगे विथा पै भ्रपोही सों काहु को मोह न लागौ । यहाँ “जान कहाय अजानवनि ओआगौ” ध्ञमोही सों काह को मोह न लागौ” में विरोब, 'तीर, पोर' आने, आतनि! तथा मरेंगे, भरेगे! के श्रनुप्रात चमत्कार विच्छित्ति के जवक हैं। प्रेमी न कहकर जीव कहने ( १६३ ) तथा प्राणी न कह कर प्राण कहने को लक्षणा में जो अ्तृभूति को उत्कदटता व्यक्त की है उसका चमत्कार से संबंध नहीं भावों से है। इन्हें इस विषय की प्रेरणः फारसी से ही मिली थी इसलिये इसहा श्रभाव भी कहीं कहीं विद्यमान है । भाव तक मिन्न गए हैं | कहते के ढंग तो समानरूप हैं ही । जैसे -- आली धत्रश्नानद सुज्ञान सों बिछुरि परे अभ्रपों न मिलत महा विपरीति छाई है ।' झानंदघत होश ही मुझको न था जब पहलुप्रों में लूट थो। मुकफी क्या मालूम क्या जाता रहा क्या रह गया ।” साकिब तिरो श्रंग संग लहे लाडी लड़कात है ।* अलबेली सुजात के कौतुक पै श्रति रीकि इकौसो है लाज लजै ।! झ्रानंदवव दिल में तुम श्राँखों में तुप छिपते फिरे किस वास्ते। तुमको शर्म आ्राती नहीं श्राशिक से शर्माते हुए ।” श्राजाद इनमें वक्रोक्ति का प्रकार एक सा ही है। केत्र॒ल शब्दों का अ्रंतर विद्यपान है । उदू फारपी में जो वस्तृवक्रता है वह उन्होंने कहीं नहीं अपनाई । वह उनके गंभोर अ्रतुभूति के अनुकूल नहीं पड़ती थी। इन्होंने भावों का तथा हृदय को अ्रंतर्दशान्रों का सीधा वर्णन किया है। आँसुप्रों को लड़का बताकर रोने के वर्णात का पद्म पहले उद्धत किया जा चुरा है उसकी तुलना में इनके नेत्रों को श्र तदंशा यह है । 'जिनकों नि नीके निहारति हों तिनकों श्रश्चियाँ श्रब रोवति हैं। पल पाँवडे पायति चायनि सों अ्रेंसुवान की धारनि धोवति हैं। घनग्रानंद जान सद्बीवति कों सपने बिन पाएई सोवति हैं। न खुली म॒दी जाति पर कछु ये दुखहाई जगे पर सोवति हैं ।॥ अंतर स्पष्ट है। पहले में चमत्कार की वस्तुवक्रता है श्रौर दसरे में भाव- व्यंजक मनोदशा का वर्णान । अचेतन में चेतनत्वारोप फारसी के प्रभाव के कारण ही शरीर के अवयव नाक, कान, श्राँख, प्राण पलक अआ्रादि में मानवीय व्यप[रों को योजना भी प्रचुरता से इन्होंने को है । ( १६४ ) प्राए मर श्रादि को रुबोधन कर बातें कहने की प्रथा तो हिंदी साहित्य में भी है पर उनमें मानवीय व्यापार भ्रधिक नहीं दिखाए जाते। इन्होंने इसको श्रनेक बार श्रावृत्ति के साथ प्रदर्शित किया है। श्राँखें बाट जोहती है, कान प्रिय के वचनामृत के लिये लालयित हैं, नाक चढ़ी चढ़ी डोलती है, प्राण प्रियदर्शन के लिये कभी आँखों में कभी कानों मे श्राते है कि प्रिय के दर्शन प्राप्त कर सके; उनके वचन सुन सकें। जो व्यापार प्रेमी के दिखाने चाहिएँ वे उसके श्रवयवों में दिखाए जाते है। नेत्र तड़पते है, प्राण ६:ख धरम को धृघार में घुटते है श्रादि। यह लक्षणाका ही परिणाम व्शेषणाव्यप्रत्यय है। पर वाव्य में पर्याप्त मात्रा में प्रयुक्त हुआ है। वह शंली का एक प्रमुख गुण सा लगता है। ७, नाम का प्रयोग कवि ते भ्रपते नाम का प्रयोग भी एक विशेष प्रकार के सौंदर्य के साथ क्या है। अभ्रपनी प्रेयली सुजान तथा श्रपता नाम कवित्त सबये में प्रायः सवत्र प्रयुक्त किया है। पर रीतिकाल के कवियों की तरह 'भूषत भनत” या कहे पद्याकर” श्रादि की शली का भाश्चयण नहीं किया । दोनों शब्दों के वाच्याथ्थ आनंद के बादल” तथा चतुरः के श्रथ में श्रीकृष्ण और राधा का वबाचक दोनों शब्दों को बताया है। जैसी उस समय की शंली थी प्रेम . अआुगार का वर्णान उन्हीं के व्याज से किया है। कुछ स्थलों पर यथार्थतः राधा आर कृष्ण का ही वर्णन है। इन दो शब्दों में भी प्रधान श्रानंदधन शब्द है। समस्त रसात्मक तथा भक्तिभावपुर्ण रचनाओं का वही श्रावार है | प्रिय की आनंद की वृष्टि करनेवाला बादल माना है और ह्ष, शोक, पीड़ा, व्यथा, उपालभ तथा विरहु फी विविध अ्रंतवशाश्रों का माभिक चित्रण करते हुए भी घन हो भावों का श्रालंब्न बना है। प्रिय चातक है वही श्रपता विरह निवेदन करता हुआ सवंत् मिलता है। ज्ञान वराग्य तथा भक्ति के भाव भी इसी श्राधार पर बहे गए हैं। उस [स्थति में आ्रानंदघन” ( बादल ) एक प्रकार का प्रतीक बन गया है। साथ ही कवि की दाशंनिक मान्यता का भी आभास मिलता है। ये प्रिय परमेश्वर को श्रानंददाता मानते हैं। इससे दा वा सच्चिदानंद स्वरूप जो कृप्णाद्तार में उनकी विविव लीलाश्ों तथा रास विहारो में साकार हुआ था, इनको मान्य है। धन के रूप को कवि ने और भी श्रधिक बढ़ाया है। श्राधक संख्या मे ऐसे उपमानों का प्रयोग ( १६५ ) किया है जितका बादल से संजंत है। भक्त था कवे के हुदय में विविय अभिलाबाग्रों के उदय को “चहों का बरतता प्रेतावक्त को भोज, प्रित परमेश्वर की व्यापकृता को 'बदवों का बिरतार मा; डे बता, उत्तहे हट जाने को उबड़ना, प्रित्र के ग्रमात्र में मिलेवाले कष्टों को धुत घुतर में दप घुटना, धुत या अगख्त से संतार पाता, बियर हो कया थ। दर्शाते को संता मिटानेवाली वृष्ठेटः आदि कहा है। ताप यहों है कि इतकी रवताप्रों का बहुत सा भाग बादन के उपवात पर रचा गया सांग राह कहां जा सह है। समस्त भावों को घतव्यायारों वर केंद्रित करते के चोब से पुतराह्मत दोष भी यत्र तत्र आ गया है। सुत्राव तय! आतंदत्ता दोगों युगवाचक विशेषणु मात लिए गए हैं, फवतः विशेत् प-विज्येग्मन्भाव भा दोवां का होता रहता है। कम्ती सुनाव का विशेव्॒श झानंरवत को झनंरबत का विशेषण सुजान बना है। ऐये स्थज्ञ कुछ ही भिलेंगे जहाँ आनंदवत या घाश्मानंर कवि के श्र्य में हो प्रयुक्त हुप्रा हो, प्रप्न॑गार्थ में प्रन्वित ते हो । अपने तथा अरतों के नाम का सोंझय के साथ कांठ्य में प्रयोग झान॑रवत की एक विशेयता मानती जायेगी। ८-शआ्रात्म,नवेदन हिद्दा संश्कृत के प्रेष व्याख्याता कबत्रियों को शत्रों में ग्रात्मनित्रेश्त को परंतदटा का अनाव रहा है। प्रमीया ओ्रिव के सतोगत भावों को, उतकी मनोदशा प्रों को ये लोग कियी न किसी माध्पम द्वारा व्यक्त करते थे । वह माध्यम सश्ली दूती आदि होता है। जित कवियों के जोवद में हो भम को घटनाएँ घटी हैं उन्होंने आत्मविवेदव द्वारा भाव वाकता किए हैं जेते विल्हण ने अपतो चौर पंदराशिका! में उत्तमयुछ्य द्वारा हो सब भाव निवेदन किया है। भतृंहरि ने भी कुछ पद्च उत्ततयुरष द्वारा व्यक्त हिए हैं। राज- महलों में जाने से ग्लानि का भाव प्रकट करते हुए वे कह्दते हैं कि हम न नट है न विठ है; नाहीं विदृषक हैं। व हम सभा में व्यय को बहव करने वाले पंडेत हैं। स्तनों के भार से फ्ुको युवती भी हम नहीं है फिरराज- सहलों से हमारा क्या प्रयोगत! । हूंगार के भो उन्होंने अनेकों पर उत्तर पुरुष द्वारा कहे हैं। उनका प्रतिद्ध श्नोक जिसमें उनके वराग्य का कारण कह गया है उत्तम पुरुष में ही लिखा गया है। उत्रका भाव हैं कि “मैं जिम्त- की निरंतर बिता करता हूँ वह घुझर विरक हैं। वह भी जिपसे प्रेप करतो है वह दसरी कियो सुंदरी में आसक्त हैं। हमारे लिये तो कोई ओर हो ( १६६ ) परितोष प्रदान करती हैं। उसे, मुझे, उत्त पुरुष को तथा इस मदन को घिकार है। संस्कृत के उपयुक्त दोनों कवियों ( विल्हण और भतृ हरि ) ने अपनी जीवनकथा उत्तम पुरुष प्रधान पत्षों में कटी है। उन्होंने इसे भात्मानुभूति के रूप में व्यक्त किया प्रतीत होता है काव्य शैली के रूप में नहीं | निरकत शास्त्र के श्राचाय॑ यास्क ने वैदिक ऋचाश्रों में भ्रात्म- निवेदन की एक शैली बताई है जिसमें वेद का थोड़ा सा भाग लिखा गया है। उन्होंने श्राकार की दृष्टि से ऋचाओं के तीन भेद किए हैं-... अत्यक्षदत, परोक्षझत तथा श्राध्यात्मिक | श्राध्यात्मिक ऋचाओं में उत्तम पुरुष को क्रिया तथा उत्तम पुरुष का ही कर्ता श्राता है ।' उन्होंने इसके लिये ऋग्ेद के समूचे तीन सुक्तों का उदाहरण दिया है। उस समय यह रचना की शॉली प्रतीत होती है । संस्कृत प्राकृत के काव्यों में इसे शैली के रूप में भ्रपनाने के उदाहरण नहीं मिलते । फारसी साहित्य में यह एक शैली के रूप में ही व्यवहृत होता है । कवि श्रपने को प्रिय श्रथवा प्रेमी मान कर भाव निवेदन करता है। स्वच्छंद घारा के कवियों में श्रालम भर श्रानंदघन ने इस शैली को श्रपनाया है। प्रतीत होता है, स्वयं प्रेमी होने के नाते प्रेमकथा को श्रपने श्राप ही कहना इन्हें श्रच्छा लगा। श्रपने प्रम में सामाजिक स्वच्छंदता होने के कारण इन्हें भारतीय समाज की उप्त मान मर्यादा की श्रावश्यकता नहीं थो जो रोतिकाल के श्रन्य कवियों ने अपने प्र म॑ वर्रान में सुरक्षित की है। इनकी शेली की एक विशेषता यह भी हैं कि पद्मों की सभी पंक्ति समान बल को होती हैं | किसी एक में काव्य का प्राण निहित हो और दोष पंक्तियां उसकी मूमिका या उत्थानिका का कार्य करती हों ऐसी बात इनकी रचनाओं में देखने को नहीं मिलती। उदाहरण के लिये नीचे लिखा पत्च देखा जा सकता है:--- रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयी लागत ज्यों ज्याौं निहारिये। त्यों इन आँखन बानि भ्रनोखी अ्रधनि कहूँ नहिं आानि तिहारिय । एक हो जीव हुतौ सृतौ वारदों सुजात सकोच झो सोच सहारिये। रोकी रहैन दहै घनभ्रानंद्र बावरी रीऋ के हाथनि हारिए। इसके अ्रातरिक्त श्रनुभूतिप्रधानता, विरोध की प्रवृत्ति, चितन की सृक्षमता तथा गंभीरता विरोध वी स्वशेष प्रवृत्ति श्रादि गुणों का भी इनकी शरली में प्राचुर्य है। इनका विवेचन श्रन्यत्र किया गया है। कप 2 यम १-निरुक्त ७२। ( १६७ ) छंदों का विधान छंद और कविता कविता का छंद से नित्य संबंध है । जब से भाषा का जन्म हुथ्ना है संभवत: तभी से प्रत्येक देश और काल में कविता और छंद का मूलगत आंतरिक संबंध रहा है। डा० नगेगेंद्र का इस विषय में विचार है कि साधारणत: हमारे रक्त को धारा एक विशेष समगति से बहती रहती है । यह समगति जो हृदय की धड़कन श्रौर श्वास प्रश्वास से नियमित आरोह अ्वरोह में मर्त होतो रहती हैं, स्रभावत: लययुक्त हैं; क्योंकि नियमित आरोह अ्रवरोह ही तो लय है। भाबोच्छवास की अवस्था में रक्त की गति तीव्र हो जाती है। हृदयकंपन तथा श्वास के आरोह अ्रवरोह में भी उसी के अनुसार शअ्रंतर पड़ जाता है शौर इस प्रकार उस मलगत सम लय में विशिष्टता था जाती है। यह लघ॒ स्थिर और मंद न रह कर ग्रस्थिर और तीतज बन जाती है। यह विशिष्ट लय इतनी सशक्त होती है कि इतका हम स्पष्ट अनु भव करते है। यही श्रपने आप शारीरिक क्रियाग्रों में जैसे हाथ पर उलछना भ्रादि में व्यवत हो जाती है। आरंभ में नृत्य का जन्म इसी प्रकार हुआ श्रौर इसी प्रकार कुछ दिनों के बाद इसी श्रांतरिक लय की भाषा पर आरोप कर मनुष्य ने सहज रूप से छंद का भी अविष्कार कर लिया | सभी वास्तविक कविता का जन्म हुआ्ना और तभी छंद का। पल्लव की भूमिका में श्रो सुमित्रानंदन पत ने भी इस विषय में छंद का कविता पे श्रांतरेक संबंध श्रनुभव करते हुए लिखा है कि “कविता तथा छंद के बीच बड़ा घनेष्ठ संबंध है। कविता हमारे प्राणों का संगीत हैं, छंद हृइयकंपन॥ कविता का स्वभात्र ही छंद में लबपान द्ोता है। जिम्त प्रकार नदी के तट अपने बंबत से धारा गति को सुरक्षित रखते हैं जिसके बिना वह अनी ही बंबनहोनता में अपना प्रवाह खो बेठता है उप्ती प्रकार छंद भी अपने नियंत्रण से राग को स्पंदन, कपन, तथा वेग प्रदान कर निर्जोव शब्दों के रोड़ो में एक कोमल सजल कलरव भर उन्हें सजीव बना देते हैं। वाणी की अ्रतियंत्रित सांसें निर्यो+त हो जातीं, तालयुक्त हो जातीं, उसके स्वर में प्राणायाम, रोम्ों में स्फूति आ जाती, राग की श्रसंबद्ध मंकारे एक वृत्त में बंब जातीं, उनमें १०-रीतिकाल की भमिका तथा देव और उनकी कविता, पृ० २३४ ६ 3९४६) परिपूर्णता श्रा जाती है। छंदबद्ध' शब्द छबक के पाश्व॑वर्ती लोहचूर्ण की तरह अपने चारों शोर एक श्राकर्षण क्षेत्र ( १४७४7० 7८१ ) तैयार कर लेते हैं। उनमें एक प्रकार का सामंजस्य, एकरूप, एक विन्यास श्रा जाता, उसमें राग की विद्युत धारा बहने लगती, उनके स्पर्श में एक प्रभाव तथा शक्ति पैदा हो जाती है।” भारतीय छंदविधान स्वर श्रौर व्यंजन के वाणी विभाग पर आश्चित है। इनमें व्यंजन की श्रपेक्षा स्वर कोमल होता है। इसलिये भाषा विकास में कठोर व्यंजन कोमल में श्रौर कोमल व्यंजन स्वर में परिवर्तित होता है। जो भाषाएं संश्लेषणत्मक होती हैं उनमें समास बहुलता के कारण वर्णोंकी एक शुंखला सी बन जाती है। ऐसी भाषा के लिग्रे वरशिक छंद अनुकूल पड़ते हैं। इसीलिये संस्क्ृत में व्णिक छुंदों की बहुलता है। यद्यपि आगारादि कोमल भावों की कविताएं वहाँ भी श्रार्या श्रादि मात्रिक छंदों में ही की जाती थीं। लोकभाषाश्रों का स्वरूप व्याकरण श्रादि के बंधन से मुक्त होकर अश्रपने सहज रूप से बहता है वह प्रायः विश्लेषणात्मक होता है। श्रत: मात्रिक छंदो का ही प्रयोग उनमें प्राय: देखा जाता है। प्राकृत, श्रपश्रंश आदि भाषाओं में उप समय भी मात्रिक छंदों का प्रयोग अ्रधिक हुआ था। जब कि संस्कृत में वर्क छंदों का व्यवहार प्रचुरता से होता था। हाल की सप्तशती मात्रिक छंदों में ही लिखी गई है जो लोक बविकीर्ण कविताश्रों का संग्रह तथा कवि की रचना दोनों का संभिलित रूप बताया जाता है। हिंदी की प्रकृति विश्लेषणात्मक है। श्रत: मात्रिक छंद उप्तकी प्रक्ृति के अनुकूल पड़ते हैं । वीर गाथा काल में कुछ वर्शिक छंदों का प्रयोग हुम्ना है पर प्रवावता दोहा, छप्पय आ्रादि मान्निक छंदों की ही रही । भक्तिकाल के संत भक्तों की सरस्वती तो गेय पदों के रूप में ही मखरित हुई जो मात्रिक छंदों का कोमलतम रूप कहा जा सकता है। छंंदों की हृष्ठटि से महात्मा तुलसीदास की वाणी भक्ति काल में सर्ववोष्खी रही है।पर सर्वत्र वे सफल भी नहीं हुए । गेय पदों में जो कोमल सहजरूपता कबीर, सूर और मीरा के पदों में प्राप्त होती है वह तुलसी के पदों में नहीं है । भक्तिकाल के उपरांत रीतिशाुल में गेयपर्दों की पन्ंपरा केवल भक्त संतों ने ही सुरक्षित रखी है । पर इन भक्तों की संख्या अ्रत्यल्प है। आ्रानंदघन रीतिकाल के ऐसे ही संत हैं। उनके पद श्राकृति में ही नहीं स्वभाव में भी ( १६६९ ) वस्तुत: गेय हैं। ऐसे गेयपदक्ार संतों का वृदावत्र में जमबट था। संतों के भ्रतिरिक््र कवि लोगों ने दो वरणिक छंद, सवेये और घनःक्षुरी का इतता प्रचुर प्रयोग किया कि वही एक सात्र छंद इस काल का बन गया । छंद श्रौर रस छंद और रस का बड़ा धनिष्ठ संबंव है। भावाभिव्यक्ति के जिते सावंत हैं, ज॑से मृतिकला, संगोत, नाट्य तथा छंद श्रादि इन सब में छंद श्रेष्ठ है। म॒7िकला चित्रकला आदि में केवल एक भाव का ग्रहण होता है। शअ्रतएवं वे छद की भ्रपेज्ञा स्थल हैं । संगीत के स्तर की सीमित परिधि में भी मानव वृत्तियों के समस्त व्यापारों का समाव नहीं हो पाता । केवल छंद ही ऐसा है जो सूक्ष्म से सक्ष्म और गंभीर से गंभीर भावों को व्यंजना करता है। साहित्यिक अ्राचार्यों ने पहले से छंद श्र रस का श्रभेद्य संबंध माना है [किस रस के भ्रतुकुल कौन छंद है, इसका नियमन बहुत पहले से ही होता गाया है । वंदिक ऋषियों ने माव के अनुपार विभिन्न छंदों का प्रयोग किया है। आचार्य भरत ने अपने नाव्यग्रास्त्र में कात्यायत के मत का उल्लेख किया है कि वीरों के भुजदंडों के वर्णन में स्नग्धत तथा नायिका वर्शान में वसंततिलका छंद उपयुक्त होता है! | श्रपनते मत से शागारस में श्रार्या, वीररस, में जगती, करुण में शत्वरी श्रादि का प्रयोग उचित माना है। क्ोेरंद्र ने सुबृत्त- तिलक' के तृतीय परिच्छेद में रस के भ्रनुगत प्रतेक छंदों का विधान किया है--जसे आ्राक्षेप, क्रोध, धिषकार में पृथ्वी छंद ओर वर्षा या प्रवास के वर्खान में मंदाक्रांता का प्रयोग होना चाहिए । श्राचार्य मम्मठ ने शअ्रप्ने काव्य- प्रकाश में करुणरस में मंदाक्रांता और पुष्पिताग्रा, झाुंगार में पथ्वी, वीर में स्रबरा, शिख रि णी, जादू द.5०.574 और हास्य में दीपक का प्रयोग बताया है। भ्रग्तिपुराण के अनुसार प्रबंध काव्य के लिये ११ से १३ मावावाले छंदों का प्रयोग करना चाहिए । प्रबंध काव्य में रस का संतान बनाने के लिये ही एक सर्ग में ऐक ही छंद का प्रयोग होता है। सर्ग के अश्रत में भाव- प्रिवर्तत होने पर छंद भी परिवर्तित हो जाता है। यदि एक ही सर्म में विविध प्रकार के नाव विद्यमान हों तो मध्य में भी छंद परिवर्तित कर दिया जाता है। श्रंगरेजी तथा फारसी साहित्य में भा रसानुगुग्रछ॑द प्रयोग की १--नाव्ययास््र १४, १२, वही अव्याय १६। २--देखिए लेखक का आाचाय॑ क्षेमेंद्र'' पृ० १०९। (६0: .] प्रवृत्ति पाई जाती है। बैलड' प्रेम श्रौर युद्ध के वर्णन के लिये, 'इलैजी! करुण रस के लिये, धश्रोड” आराराध्य के प्रति गरिमा श्रम्यर्थना श्रादि प्रकट करने के लिये, और ब्लेंकवर्स श्रोजप्रवान भावों को व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त होते हैं। फारसी का भी गजल करुण तथा श्यृंगार में, मसनवो प्रबंध काव्य को अखंड थारा में तथा कसीदा स्तुति आदि में प्रयुक्त होता रहा है । पुराने कवि कालिदास श्रादि ने श्रपने काव्यों में रस के अनुसार हो छंदों का प्रयोग किया है। करुण में बेतालीय तथा वियोग में मंदाक्रांता छंद उनका प्रसद्ध है । रसानृकूल छंरों का जैसा विधान हमारे संस्कृत साहित्य में पहले था वसा हिंदी साहित्य में नहीं रहा। वंसे छुंदां के प्रसंग से रसानुकू- लता तथा रस प्रतिकूलता श्रादि का हिंदी के कला मर्मज्ञ भी विचार करते हैं। घनाक्षुरी तया सवेया छंदों को शंगार, वीर, हास्य, ( वीभत्स में केवल सवंया ) ओर शांत रस के लिये उपयुक्त मानते हैं। श्राचार्यों की तरह हिंदी के कवियों ने भी छदों की विपयानुकुलता तथा प्रतिकुतता का वर्खान किया है। सुमित्रानंदन पंत ने पल्लव के प्रवेशक में सवैया के विषय में लिखा है कि “सर्वया श्रौर कव्त्ति छंद भी मुके हिंदी को कविता के लिए अ्रधिक उपयुक्त नहीं जान पड़ते । सर्वया में एक ही सगण की आठ बार पुनरावृत्ति होने से उसमें एक प्रकार की जड़ता शौर एकस््ररता आ जाती है। कवित्त के विषय में वे लिखते हैं, कवित्त छंद मुके ऐसा जान पड़ता है कि यह हिंदी का श्रोरसजात नहीं, पोष्य पुत्र है। न जाने यह हिंदी में कैसे और कहाँ से भ्रागया है। श्रक्षर मात्रिक छंद बेंगला में मिलते हैं, हिंदी के उच्चारण को वे रक्षा नहीं कर सकते । कवित्त को हम संलापोचित छंद कह सकते हैं ।” प्लवंगस छंद के विषय में पंतजी का विचार है कि वह करुण रस के लिये विशेष उपयुक्त है। अ्ररिलल उन्हें निर्करिणी की तरह कल कल छल छल करता हुआ बहता प्रतीत होता है। पंद्रह मात्रा का चौयई छंद अनमोल मोतियों का हार है। इसका उपयोग बाल साहित्य के लिये होता चाहिए, इसकी ध्वनि में बच्चों की सासें, बच्चों का कलरव मिलता है। बच्चों की तरह इधर उधर देखता हुआ अपने को भूल जाता है। भ्ररित्ल भी बालकल्पना के पंखों में खूब उड़ता है । १, पल्लव की भूमिका | ( १७१ ) उर्त्पत्ति स्रवंया तथा घनक्षुरी छुंदों की उत्पत्ति के विषय में छंदोविद विद्वानों के विभिन्न मत हैं। डा० नगेंद्र का विचार है कि 'स्वया” शब्द सपाद का अपम्रंशरूप है। इस में छंद के अंतिम चरण को सब से पूर्व तथा अंत में पढ़ा जाता था। चारपंक्तियां पांच बार पढ़ी जाती थीं। वह पाठ में 'सवाया? होने से छुंद सवेया कहलाण । संस्कृत के क्िसो छेद से भी इसका मेल नहीं है। श्रत: यह जनपद-साहित्यका ही छंद बाद के कवियों से अपनाया होगा--- ऐसा अनुमान किया जाता है।! यदि यह अनुमान सत्य हो तो प्राइृत, अपश्रश भ्रादि के साहित्य में उस छंद का स्वरूप प्रवश्य मिलना चाहिए, जो हिंदी में रूपांतरित किया गया है, पर ऐसा कोई छंद नहीं प्राप्त होता | लेखक को तो ऐसा प्रतीत होता है कि तेईस वर्णोवाले संस्कृत के उपजाति छंद के १४ भेदों में से किसी एक का विकृृत रूप स्थेया बन गया है। ध्वत्तियों के उच्चारण से भी कठित लय का उच्चारण होतः है। श्रत: उसके श्रधिक बिकृत होने की संभावना रहती है। सर्वेया २८ पक्षरों से लेकर २६ तक का होता है। उपजाति २२ भ्रक्षरों का छंद है। श्रक्षरों का लघु गुरु भाव सवेया में भी पर्याप्त परिवर्तन ग्रहण करता है। वैदिक छंदों का भी लौकिक संस्कृत छंदों तक श्राते शभ्राते बड़ा परिवर्तन हो गया है। इसी प्रकार उपजाति का परिवर्तित रूप सवया हो जो सवाया बोलने से सवैया कहलाया यह संभव लगता है। इसका स्वरूप 'प्राकृत पेंगलम” में मिलता है, यद्यपि वहाँ , इसे सवेया नाम नहीं दिया गया पर ८ मगर वाला किरीट और ८ सगयणा वाला दुर्धिलम ये दो छंद वहाँ श्राए हैं। 'प्राकृत पैंगलम” का रचना काल संवत् १३०० के श्राग्पास माता जाता है। श्रतः श्रनुमित होता है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में सबंया का प्रयोग भ्रवश्य होने लगा था | घताक्षरों के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में ही होते हैं। कुछ विशेषज्ञों को धारणा है कि श्ुपदराग में गाए जानेवाले पद इस से मिलते हैं। सूर सागर का एक पद इसके उदाहरण में रखा जाता है जो यह है-- सेज रच पचि साज्यां सघन कुंज, चित चरूनि लार-। छतिया धरकि रही । जता अऑनि०ण७लीण- १, रीतिकाल की भूमिका तथा देव और उतकी कविता, पृ० २३६ ( (७२ ) हा हा चलि प्यारी तेरो प्यारों चौंकि चौंकि परे पातकी खरक प्रिय हिय में खरक रही । बात न धरति कान तावति है भौंह बान, उत न चलति वाम श्रेखिया फरक रही ; सूरदास मदन दहुत पिय प्यारी सुनि ज्यौ' ज्याँ', कहो त्यौँ त्यी बह उतको रश्कि रही । रूप घनाक्षरी से यह पद्य मिलतः है। इनके प्रचलन का प्रारंभ कब्र से हिंदी में हुआ इगका निश्चित प्रमाण नहीं मिलता। शुक्ल॒जी ने श्रकत्री दर्बार के कवियों के प्रसंग में लिखा है कि फुटझूल कविताएं अधिकतर इन्हों विषयों को लेकर छप्पय, कवित्त, सबेयों और दोहों में हुआ करतो थीं | हिंदी के प्रारभकाल में इग्के प्रयोग का उन्होंने उल्लेव नहीं क्रिया । उत्त समय की जो काव्यसामग्री प्राप्त हुई है उसमें भी इस के स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती । चंद के पृथ्वीराज रातों में भी दोहा तथा छप्पय छंद की प्रचुरता है यद्यपि छंद और भो प्रयुक्त हुए हैं | पर सवैया घताक्षरी का वहाँ भी प्रग्रोग नही हुग्रा । “कवित्तः शब्द प्राचीनफाल से श्रनेक छंदों के लिये व्यवहृत होता था। रातो में छंप्पय को कवित्त कहा है | “बनानंद कवित्त संग्रह” में छप्पय भर सर्वया को भी कवित्त माना है। भक्तिश्ाल के श्राते श्राते छप्पय का अचलत रुक गया था | झआरभऊकाल का दहा दोहा के रूप में ज्यौ का त्यौ रहा । गेय पर्दों का व्यत्रहा र विशेषरूप से होने लगा ! सकियों ने दोहा चौपाई को अ्रपना छंद बना लिया था । इस तरह सूरदास के श्राविर्भाव तक दिविदो में सर्वया औ्रौर कवित्तों का प्रवलन नहीं हुआ था । जगनिक के आ्राल्हा खंड में कुछ सवंधा प्राप्त होते हैं पर इनकी भाषा से यहो श्रनुभान होता है कि वे बाद में किसो ने जोड़ दिए है । इस तरह भवत काल के भी प्रारंभ होते सम+4 इसका प्रतोग नहों होता था । प्रामाणिक रूप से इन छंदों का प्रयोग अकबर के काल से प्रारंभ होता है। उस समय अकबर, बीरबल, गंग, नरोत्तमदास, तथा तुलसीदास, आदि बड़े बड़े कवि इसके प्रयोक्ता थे। नरोच्तम दास तथा तुलसीदास के स्वयों के रूप विशेष परिमाजित हैं। नरोत्तमदास तुलसीदास से भी ( १७३ ) झ्रधिक व्यवस्थित श्रौर प्रांजल छंद के प्रयोक्ता सिद्ध होते हैं, वे हैं भी इन सब में अ्र्वाचीत । उस समय तक इसका स्वरूप पूर्णारूप से व्यवस्थित और परिमाजित हो चुका था । पर नरोत्तमदास और अ्रकबर आदि के काल से इतना बड़ा श्र तर नहीं है कि उसमें ही इन छंदों का स्वरूप उत्पन्न भी हो गया और उसी समय वह इतना परिष्कृत तथा परिमाजित भी हो गया ज॑से नरोत्तमदास के सवये हैं। भ्रवश्य भ्रकबर से पूर्व भी इनका व्यवहार काव्य में रहा होगा; भले ही वह मौ,खक हो या जनपद साहित्य में हो । स्ेयों का स्वरूप सर्वया बड़ा व्यवस्थित वर्णवृत्त है। गणों तथा अ्रंत के लघु गुरु भ्रक्तरों के भेद से इसके अनेक भेद होते हैं। छंदप्रभाकर में श्री जग्रग्ताथप्रसाद ने इसके बारह भेद माने हैं। इसके प्रमख भेद ठीतव हैं। भगराश्रित, सगणा- श्रित तथा जगणाश्रित । इनमें भगशणाश्रित छह हैं, जन्नत तीन और सगरणाद्रित तीन । प्रत्येक का पारिभाषिक स्वरूप इस प्रकार हूं । भगणाश्रित मदिरा भगर ७ + $ मोद भगरा ५ + मगरण -- सगण + $ मत्तगयंद भगरणु ७ + 5 चंकोर भगरण ७ -+- 5। अरसात भगरणु ७ + रगण किरीट भगरण ८ जगणा श्रित सुमुखी जगण ७ + 4 5 मक्तहरा जूगण ८ बाम ऊगण ७- यगरण सगणाश्रित दुर्मिल सगण ८ सुदरी सगरा ८ -+ $ भर्राविद सगण ८-- । ( १७४ ) इसके लय सौहव की समरी आाचार्यों ने प्रशंपा को है। कवित्त की श्रपेक्षा झधिक प्रिय होने का कारण इसकी लगवारुता हो है। एक ही प्रह्वार के ध्वनि समुद्र (गण) की सात सात आ्राठ आठ बार अआधजृति होने की संगोत की ताल का निर्माण होता हैं। ध्वनि का आ्रारोह अवरोह विषम को मधुर समता उत्पन्न करता है , इसकी प्रशंपा में डा० नगेंद्र के विचार हैं कि इस छंद की गति और लय एक द्ीी गशा श्रर्थात् ध्वनियोजवा को श्रनेक झ्रावृत्तियों पर आश्रित रहते हैं। इसलिये उसमें एक्र निश्वित स्व॒रविधान होता है। यह लय रागवृत्तियों की शंखला सी बनाती है। जिसमें एक निश्वित क्रप से भंकोरें सो उत्पन्त होती चलती है और श्रंतर में तुक पर जाकर एक और लपेट पड़ जाती है। नियमित रूप से राग का यह् स्वस्पात सर्वया में एक अनूठी संगति पैदा करता हे! । आ्रानंदधत ने सत्रेया छंद के प्रयोग में रुचि को विविवता का प्रदर्शन नहीं किया है। प्रप्तिद्ध भेर दुमित्र, भत्तगर्षंद, क्रिरोट, अरसात श्रादि का जो भगशणाकश्रित और सगशाश्रित हैं प्रयोग किया है । भगण को लप श्रवरोहु- मलक तथा सगण की भ्ारोह मलक है। दोनों का प्रयोग झ्यंगार में समलय के विधान के साथ गअ्रनुकूत है। जगणाश्रित्त लय में मध्य में गुरु श्रक्षर का उत्थान होने से लय में ग्रपेक्षाइत कम मसूगता होती है। उसका प्रयोग इन्होंने बहुत कम किया है। दुर्मिल सगएा ८ संगण सगशु सगण सगण सगण सगरण सगण सगण नी ७७ ७ नी 2 ना स्ल नी ्च्च ली 2 न्टिि् लीन अधिसिक पटटत तन, ॥।| 5 || $ | । $ | | $ | ७ ॥| $ ॥।॥ 5 ै|।) 5 भलके भ्रतिसु दरक्रा ननगोौ रछके हगरा जतका गनिछतवीं सगण संगण सगणश सगण साण स्राण सणण सगण अखयाण धरीीनओ. 4 न्टंोि् ला नीयघ घट लण नचिि्ल्टाश, -ीस, सी >, | ४७ * टच डक ह ए 58 जैजाए कंआा की कह कतड औजोओ, के जाके ऊ हँसबो लनि मैं छबि फु लनकी बरषा उरऊ परणजा तहैह्ने यहाँ उपावत्यवर्ण 'है? का उच्चारण लघु है। १, रीति काल की भूमिका तथा देव और उनकी कविता । १० २३६ ( १७५ ) मत्तगयंद भगण ७+ 55 भगरां सगरां भसगरा भगरा भसगया भंगरा भगरा शुरू आओ के आओओ जाओ, यक 9 “कँत॥ 5 हीनभ एजल मीनशभ्र थी नक हा कछु मोझ् कु लानिस माने भगण भगणु भगण भगण भगरण भगण भंग गुर के: कुकओ कक आओ आआक :8&.॥: ८5.॥ $ “डंग:56 नीरस नेही को लायक लंफनि रासह्नें कायर त्यागत प्रा ने इसमें द्वितोय पं'क्त के छ्ितीय भगरु का द्वितीय तृत्रेय ऋक्षुर ही' 'कों? लधु उच्चारित है | किरीट भगण ८ बस परत नी सं डिक ली ९, ४७० आक' ७ अआ"] ड्ो: ल्टा्ज ना | 5$|॥। 5]4। $4॥। 5]॥।॥ $।4। 544॥। 5]4 $5॥] मोहन सोहन जो हुन को लगि यै र है भ्रांखिव के उर आरति अ्रतात भगएण ७+ रगण भगण भगण भगश भगण भगण भगण भगण रु 5६।॥।॥ 5$।॥। 5॥।] 5$|। $4+। $]00॥। ६544 58 5 सेकीर हैनद हैधघन श्रा नेंद वाबरी रीकके हाथनि हारिये मुक्तह॒रा जगण ८ जगयणु-- बॉस सा ज सर पधम+-मम कि मा सपा. सर पा सज 2सभ रस 2. का अदा न नईसुू घिाअञ्न गभई मतिपं गनई कछुबात जतावतिहौन जगरणा-- ॥ 5। 45] |54। | 5। ॥5]| ॥।5। ॥5|]| ।5॥।॥ दुराव कियेक हाहोत स खीर गऔर भमयौढ॑ गऊत रकौन हाँ भावानृकुन छंद का प्रयोग है। सखी नायिका के मत की बात जान कर अपनी उपेक्षा प्रकट करती हुई उसे टकटोरती है बैंसा ही सारस- गति छंद दो लघु के बाद एक गुरु का थीरे धीरे विशेष श्रारोह से चलता है। पहली पंक्ति में मति श्रौर श्रंग हीं लय भी लंगड़ी है। ( १७६ ) सर्वेया छंद का शुंगार में जो विशेष रूप से प्रचलन हुआ है वह उसकी कोमल मसण लय के कारण है। सफल सर्वयाकार वे ही कवि कहलाए हैं जिनके छंद की पंक्तियों में ऐसे शब्दों की संख्या कम या बिलकुल न हो जो मध्य में रोड़े की तरह खटकें भ्ौर श्रपती कर्कशता के कारण शिन्न प्रकार का बैसुरा स्वर उत्पस्त करें। आ्रानंदघन के सवेये भ्रधिक संख्या में ऐसे ही हैं, जो अत्यंत कोमल शब्दावली में लिए गए हैं, और जिसमें संगीत की मधुर गूंज उत्पन्त होती है। समस्त छंद में एक भी प्रतिकूल या कठोर बर्णा नहीं आता | यति का श्रवसान भी प्राय: शब्द के मध्य में नहीं श्राता। नीचे ल्खि ८ संगण का दुमिल सत्रेया इस हृष्टि से देखने योग्य है। 'कंत रमैं उर अंतर में सु लहै नहिं क्यों सुख रासि निरंतर | दंत रहें गहैँ श्रांगुरी ते जु वियोग के तेह तचे परतंतर। जो दुख देखति हों घनश्रान॑द रैन दिना बिन ज्ञान सुतंतर । जानें वेई दिन राति बखानै तें जाय परे दिन राति को अंतर! | यहाँ परतंत्र का 'परतंतर! श्रानंद को 'झ्रानंद? स्वतंत्र को 'सुतंतर! कर देने से छद को लय में लेश का भी गति-श्रवरोध नहीं रहा । समतल वाहिनी सरिता को तरह छंद ब्ह रहा है। 'अ्रतर? का श्रनुप्रास संगीत में गुंजार भर रहा है। आनंद घन के छवों में शब्दयोज्ना वी एक बड़ी विशेषता यह है कि वे शब्दस॑त्री के रूप की रचना करते हुए भी कोमल प्रसिद्ध शब्दों का व्यवहार करते हैं। कवित्त में यह बात कम है, स्वे्यों में श्रधिक है। इसलिये स्वेये कवित्तों को अपेक्षा अधिक सफल है। नीचे लिखा सबैया इसका उदाहरण है । रावरे रूप की रीत श्रनंप नयो नयो लागत ज्यौं ज्यों निहारिये। त्याँ इन आंखन बानि श्रनोखी अ्घानि कहूँ नहिं श्रान तिहारिये । एक द्वो जब हृटो सुतो वस्चों सूजन स्काच श्रौ सोच सहास्ये | रोकी रहे न, दहै घनग्र।नेंद बावरी रीक के हाथनि हारिये। ग्रानदघन के सर्वेर्यों में नरोत्तमदास त्था मतिराम की सी सरसता धर कोमलता मिलती है । ( १७७ ) घनाक्षरी-- घनाक्षरी का इतिहास सवेयों के साथ ही साथ है। कुछ लोग इसे हिंदी का अपना छंद हो नहीं मानते । कहीं से श्राया हुआ विजातीय छंद समभते हैं। उनकी हृष्टि बंगाल के 'पयार” छंद पर पड़ती है, जो थोड़े परिवर्तन के साथ हिंदी में कविच का स्वरूप लेकर श्रावा है। इसे विजञातीय कहनेवालों में सुमित्रानंदन पंत प्रमुख हैं। उनका कहना है कि *कवित्त मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हिंदी का औरसजात नहीं, पोष्यपुत्र है। न जाने यह कहाँ से कैसे हिंदी में श्रा गया । दूसरे लोग इसे वैदिक छंद अ्नुष्ठट प का विकसित परिवर्तित रूप मानते हैं । इसको लग की झवस्याएं विकसित हुई हैं; अक्षरों को संख्या वही है। इन अक्चरोंवाले छंद में अंत का सतक वेदिक उष्शाक्र ( ७ श्रद्मर ) छंद का अवशेष प्रतीत होहा है। वैदिक युग का अनुष्ठप छंद आज ठक भारत की अनेक भाषाओं में अनेक रूप धारण कर व्यत्रहुत हुआ है। वैदिक काल से ही इसका व्यवहार श्रत्यधिक मात्रा में ही होगा था। श्रतः ऐसे छंद का परिवातित रूप मूल रूप से श्रधिक भिन्त हो जाए तो कोई प्राश्न्य नहीं।' उत्पत्ति की तरह इसकी लयमाधुरी में भी मतभेद है। पत के अनुसार कवित्त छद हिंदी के स्वर और लिपि के सामंजस्प को छीन लेता है। उसमें यति के नियमों के पालन पूवक चाहे आप इकतीस गुरु अद्वर रख दें चाहे लघु, एक ही बात है। छंद की रचना में अंतर नहीं आता । इसका कारण यह है कि कवित्त में प्रत्येक श्रक्षर को चाहे वह गुरु हो या लधु एक ही मात्रा काल मिलता है, जिससे छंदबद्ध शब्द एक दूसरे को भकमोरते हुए परस्पर टकराते हुए उच्चरित होते हैं। हिंदी का स्वाभाविक संगीत नष्ट हो जादा है। सारी शब्दावली मद्यपान कर लड़खड़ाती हुईं श्रड़ती खिजती एक उत्तेजित तथा विदेशी स्वरपात के साथ बोलती है । निराला इसके विपरोत धारणावाले हैं। उनके श्रनुसार «यदि हिंदी का कोई जातीय छंद चुना जाए तो वह यही होगा । कारण, यह छंद चिरकाल से इस जाति के कंठ का हार ही अम»-+]- परमार, १-- पललव प्रवेश, पृ० २६ २--श्री पी० एल० शुक्ल--आधुनिक हिंदी काव्य में छंद! थीसिस हस्तलेख, (० २१४ ३--पललव प्रवेश, १० २७ १४ ( १७८ ) रहा है। दूसरे इस छंद में विशेष गुण यह भी है कि इसे चौताल श्रादि बड़ी तालों में तथा टुमरी की तीन तालों में सफलतापुवंक गा सकते हैं। और नाटक आदि के समय इसे काफी प्रवाह के साथ पढ़ भी सकते है--छंद में ग्रार्ट आव रीडिंग का आनंद मिलता है ।' यह दो परस्पर विरुद्ध धारणाएं, प्रतीत होता हैं, कवियों की भावुरूता का परिणाम हैं। पंत को कोमल भावुकता पौरुषपूर्णा छंद की सबब॒लता को ह॒दयग्राही नहीं समझ सकी और निराला की उदात्त विशाल पौदषकना के लिये वह विशेष अनुकूल लगा। इस छंद में मधुर भावों की श्रमिव्यक्ति उतनी सफलता के साथ नहीं हो सकतों जितनी ओजपुर्ण रचनाप्रों की हो सकती है। वीर, भयानक, वीभत्स, आादि रसों के लिये यह श्रधिकर उपयुक्त छंद है। पहले जो इसका प्रयोग स्तुतियों और नराशंमाशञ्रों में कवियों ने किया था वह इसकी प्रकृति के श्रनुकूल है । शिखरिणी श्रादि को तरह दीघ॑- काय होने के कारण यह स्तुतियों का छंद है। रीति काल में इसकी प्रकृति का विचार नहीं किया गया । श्ुगार उस समय का सर्वप्रधान रस था। उसमें प्रचलित दोनों छंदों का प्रयोग किया गया, सवेधा का और इसका । तुलसी- दास, भूषण, पदमाकर, चंद्रशेबर, तथा वाजपेबी श्रादि ने इसका प्रयोग वीर रस में किया है तो उन्हें अपेक्षाकृत श्रविक सफलता मिल्नी है। कवित्त सवयों के रसानुकुल प्रयोग तुलसी की कवितावली में श्रधिक हैं। लंकाकांड के वर्शान में प्राय: कवित्तों का प्रयोग है। रीविकाल के कुछ छ्ुगारों कवियों ने ल्य श्रौर शब्दावली के श्रथार पर इसे शूंग:र के अदृुकल भी बता लिया था। जिससे इसकी श्रोजप्रबान प्रकृत कमल ऋरोर तरल बन गई | भेद कवित्त के भेद तो श्रनेक हैं पर मुख्य दो ही हैं, मनहर श्ौर घराद्वरो । पहले में ३१ तथा दुसरे में ३२ अक्षर हंतते हैं। शासत्रीव दृष्टि से ८, ८ श्रक्षरों पर यति होनी चाहिए । पर यह लय पर निर्भर है। १६ अ्रक्षर पर विराम देते हैं। कहीं कहीं पर ८ के स्थान पर ७ या € पर भी यति पड़ जाती है। इसके भ्रतिरिक्त इसके विषय में कुछ सूक्ष्म नियम भो हैं जो लय माधुरी की दृष्टि से मान्य हैँ | रत्तनाकर जी ने दो नियम विशेष बताए हैं। एक तो छंद के आ्रादि में तथा चार, श्राठ, बारह; सोलहु, चौबीस तथा श्रद्वाईस वर्णो के १--परिमल की भूमिका । ( १७६ -) पश्चात यदि कोई शब्द आरंभ हो तो इसके ग्रादि में जगणु तथा तगणु न पड़ते पाए । दूसरे तीन, सात; ग्यारह, पंद्रद, उन्नोस, तेईव श्रीर सचाइस अक्तरों के पश्चात् जो शब्द आए और एक अक्षर से अधकू का हो तो उन्तके आरंभ में लबु गुह (5 ) का हाना आवश्यक हैं। झानंदघ्त के कवित्त ओऔरों की भपेक्षा सरस कोमल तो हैं हीं छांदसंपुर्णता तथा छांदपप रि- मार्जदव भी इनके कवित्तों में उच्चकोटि का है। इनका मनहर छंद प्रखा जाए । लाजनि लपेटी चितवनि भेदभाय भरी, लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं। छवि को सदन गोरो बदन रुचिर भाल, रस निच्चुरत मीठी मृदु मुसक्यानि मैं। दसन दमक फीलि हियें मोती माल होति, पिय सों ललकि प्रेम पगी बतरानि मैं। श्रानेंद की निधि जगमगति छब्रोली बाल, अ्ंगनि अनंग रंग ढुरि मुरि ज्ञानि मैं। इसमें केवल पहली पंक्ति में ८ वें श्रक्षर की यति चितवनि शब्द के मध्य में आती है अच्यत्र सर्वत्र जहाँ यति है वहीं शब्द भी पूर्ण हो जाता है। बजगमगति”' शब्द तो जग” “मग! दो ध्वतियों के संयुक्त रूप का नामवातृ शब्द है। उसके जग” को एक ही शब्द माना जा सकता है। इस तरह यति का निर्वाह बड़ी सफलता के साथ हुआ हैं। लय की दृष्टि मे देखें तो झौर अधिक स्वच्छता दिखाई पड़ती है। लय का विधान समब्जनि ( दो ध्वने गुरु या लघु ) के बाद समध्वनि तथा विषम के बाद बेंसी ही विपम डरने के प्रयोग से बनता है। इस छंद में तीन ध्यनियों के श्रद्वर के बाद तीन तथा दो ध्वनियों के भ्रह्नर के बाद दो ध्वनियों के अछ्रों का प्रयोग हुम्रा है। लाजनि' के बाद लपेटी” 'लसति' के बाद ललित? दसन! के बाद द्मक! अंगति! के बाद अनंग” शब्द श्राए हैं। इसी तरह "भेद? के श्रनंतर धभाय', भरी', लोल' के बाद चख' और लि! के बाद चार श्रक्षुर दो व्वनियों के हैं। इसी प्रकार अंतिम पंक्ति में “रंग” के बाद तीन दो ध्वनियों के शब्द हैं । एक एक शब्द की लय का हो संयोजन नहीं श्रनेक शब्दों की लय को भी ( १८० ) संयोजित क्या है । 'छवबि को सदन! के बाद 'गोरों बदन” की लयाश्मक इकाई पर श्वनुप्रास योजना लयव्धिन के सौष्ठव को बढ़ाती है। छंदों की लय के द्वारा भावव्यंजना का उपयोग भी इस छंद में दिया हुआ आ्राभासित होता है । श्रंत की- पंक्ति में अंगनि? श्रौर श्रनंगःदो शब्द तीन ध्वनियों के कहकर फिर एक विशेष लहक के साथ जो दो ध्वर्नियों के अ्रक्षरों पर लय को मोड़ा है तो श्र्थ की तरह लय भी अनुप्रास को ताल के साथ मुड़ सी जाती है। रत्नाकर जी के पहले [नियम का पालन तो प्राय: इनके छंदों मे हो गया है पर दूसरे नियम का पालन कहीं नहीं हुआ । शैली ही कुछ ऐसी प्रतीत होती है। पहली पंक्ति मे शरवें अक्षर के बाद भाव! शब्द, दसरी परक्ति में ८ वें अच्र के बाद “'बदन', तीसरी पंक्ति में ८ वें 'फैलि? के बाद (हिये? झादि शब्द न जगणात्मक हैं न तगणात्मक |पर वीसरे शअ्रक्तर 'लाजनि! के बाद लपेटी', 'अंगनि के बाद अ्रनंग” शब्द तो लघु गुह है पर “दसन' के बाद दमक' बसा नहों है । इनको रूप घताक्षुरी यह है-- जहाँ जो संदेसो ताको बड़ोई अँदेसो श्राहि, 'हाने मन वारे की कहै&ब को सुने सु कौन। निधरक् जान .अलबेले निखचरक श्र, दुखिया कहै या कहा तहाँ की उचित हौन। पर दुख दल के दलन को प्रभंजन हाँ ढरकोंहं देखि के बिबस बकि परी मौन। इतकी.. भसम दसा ले दिखाय सकत जु, लालन सुबास सों मिलाय हु सकत पौन। इसमें प्रत्येश्न पंक्त १६, १६, श्रक्वरों की है। यहाँ प्रथम पंक्ति के 'ताको? दथा सातवी पंक्ति के 'दसा? शब्द पर तो श्रष्टमाक्षर की यति श्राती है, नहीं तो सर्वेत्र १६ वें अद्भर पर ही यति विधान है। पहली पंक्ति में लयविधान भी श्रच्छा नहीं है। ध्वत्तियों का परस्पर मे मेल नहों है। 'कहीं' दो ध्वनि का है, जो? एक का है, फिर 'सदेसो? तीन का है। इसके बाद 'ताको' फिर दो का शब्द है । . सुमेरु छुंद--'वियोग बेलि? सुमेरु छंद में लिखी गई है। यह छेद संस्कृत के वियोगिनी छंद की तरह करुण तथा विरह के भावों के लिये श्रत्यंत ( १८१ ) उपयुक्त है। यह बारह मात्रा का मात्रिक छंद है। इपमें १२+-७ श्रवतरा १०-- ६ पर यति होती है। इपके भ्रदि में लघ॒ रहता है अंब में यगण (55 )। भानु ने इसके विषय में विशेष नियप् लिया है कि इसके अंत में तगण ( 55। ) रगशा ( 55 ) जगणा ( ॥5. ) अबबा मगएा ( 555 ) नहीं होने चाहिए। आनंद ने वियोगवेल शींक् से विरह का वर्णव करने के लिये इस छंद का प्रयोग कर रसिहृता का परिचय दिया हैं। इपी को बंगाली “विलावल' भी कहते हैं । छंद क्रम निन्त प्रकार से है । १ २ २३ २ १ २२ ८०२ १५४२२ स् १ लो ने स्था म प्या रे क्योंन भा वौ। पन १8. ११२ २१२ १४५१५३४२०२१ १२२ द रस प्या सी म रे ति न कौंजि वावौ। -: १६ अ्ररल्ल जगन्ताथप्रसाद ने भ्पने छंंदप्रभाकर में इसका नाम प्लवंगप और अरल या अरिल्ज दिया है । यह २१ मात्राप्रों का छंर हैं। ८+ १३ शभ्रयवा ११+१० पर इमकी यति होती है। पहली यति वाले को प्लवंगम और दूसरी यति वाले को चांद्रायण कहते हैं। प्लवंगप तथा चांद्रायग मिला देने से श्र अंत में लघु गुद ( ।5 ) भ्रक्षर कर देने से त्रिनोको छंद होता है । भानु जी ते दोनों का भेद इस प्रकार दिया है । १-प्लवंगम के आदि में 5 होता है। अंत में जगण और एक गुरु ( ।55 ) अथवा लघु गुह ( ।5 ) अ्रवश्य होते हैं । - २--चांद्रायण में श्रादि में लघु या गुरु अ्रक्षर संमकलोत्मक रूपे से आते हैं। ११ मात्राएं जगणांत होती हैं । घनानंद ने त्रिनोकी छंद का ही प्रयोग क्रिय. है । दोनों का मेल कर दिया है । यथा;-- ११११२२ २१२१२ २०१२ सजनसलोनायार नं द दा सोहना न्7 २१ हा आज पक है जी र पिक बिहारी छेल सुमन म थमोहता।' “२१८ (/ औैकर .) लेकिन-- २११११५१५२२११२१५१४०२०१+२ हेहल धर देबीर च लेकितजात हों ++२१ १११५२११५१५०५१५०२१५०५१५१५१५०२०२१२ निठु रकान्हम हबू बनसु न देबातहों प्ल्श्द यहाँ पहली पंक्ति का आरंभ अक्ञर गुरु है दूसरी का लघु | पहला प्लवंग भर चांद्ायणा का मिश्रित रूप है । यति भी ११-- १० पर है । इस छंद की लय हलके भावों के भ्रधिक उपयुक्त लगती है। करुण या वियोग जैसे विषादात्मक भाव के श्रनुकुल नहीं। यह छंद बंदर की चाल से चलता है। इसलिये प्लवंगम कहलाता है। 'प्रेमपत्रिकाः में भी इसी छंद का प्रयोग कवि ने किया है। वहाँ भी प्लवंगम और चांद्रायण का मिश्रण है | ताटंक-- यह ३० मात्राग्रों का १६+१४ की यति का छंद है। इसके अंत में मगर होता है। इश्कलता में श्रानंदधन ते इसका भी प्रयोग किया है। यहाँ होली के गीतों में श्रीकृष्ण-गोपी के स्नेह का वर्णन है। छंद का लय होली जैसे उल्लासमय अवसर पर गाए बानेवाले गीतों के लिये उपयुक्त है। इसी को लावनो तथा मांझ भी कहते हैं। २२६४२२१६२१४२२०२२२२२२०२१ की को खु बी क है तु साडीहो हो हो हो हो री है। प्न्३े० 0 के 5 8 हरी | तु २ ते कह के कै के के. हक बुका बंद त भ्रग र कु मकु मा भर॑ गुलाल न मो री हैं। 5 ३० निसानी इसे भानु ने उपमान छंद बताया है। यह २३ मात्राओ्नों का १३+१० याति वाला छंद है। इसके अंत में दो गुरु श्रक्षर होते हैं। इश्कलता में इसका भी प्रयोग हुआ है | जैसे-- ११२२११११५०५१४०२११५१५४५०११२२ यननक्योंकर गहिसकौंघन आानेदपीया पःररे ( रैप३ ) २०३८२ १:१८ ११ २ कक है 8 8 मैं तेंदी लट क न फेंथा क्यातु ज नकीया न्२३ इश्कलता में प्ररलल, ताटंऋ, उपमान और दोहा चार छदों का प्रयोग हुआ है। भाषा भो पंजाबी और ब्रज है, तथा फारसी के कतिपय शब्दों का प्रयोग किया गया है। छंदों का लय, भाव, छंइ-परिवृत्ति तथा फारसी शैज्षी से प्रतीत होता है कि कवि भाव की मस्ती में रचना कर रहा है । शोभन गोकुल विनोद में शोभन छंद का प्रयोग हुआ है। यह २७ मात्रात्रों का १० + १४ को यदि वाला जगणांत छेद है जिसे सिहुका भी कहते हैं । ३ 7: 08 शक ४] 5 है आई नंद गो कुल ब र निबानीविस दजोतिनिवास न्ः्२७ ४ मी 80 8 आटे जम 8 जहांनित्यानं द ध नपभ्र द् भ्रुत ञ्रम खं डविलास। “२७ शोभन जैसे गंभीर श्रोजमय छंद में जो कवि ने संस्कृत बहुल समस्त वाकयों की सघन शेली अश्रपवाई है वह छंदोडनुकूज ही है । | त्रिभंगी प्रानंदघत जी के तेरह पद्म त्रिभ्ंगी छंद के हैं जिस में ३२ मात्राएँ १०--८+-५-- ६ की यति के साथ होती है, अंत में गुरु भ्रद्धर होता हैं। पर आनंदघन जी ने १६--१६ की यति ही रबखी है जेसे--- है आओ 8 के कल व 0 मा अत आय मी की पक के: 0 पल कक शो क् हाँजा हिभ्र रुक हैं कहा श्र बतु मतौपिय सब ग तिनि थक्ाई - ३२ इस के अतिरिक्त प्रबंधों में दोहे चौपाई का प्रयोग किया है। चौपाई में कवि को अधिक सफलता नहों मिली । इसका कारण एक तो उनकी भक्ति भावना की प्रधानता तथा कवित्व विच्छित्त की उपेक्षा है। दूसरे चौपाई छंद ब्रज भाषा के लिये अनुकुल नहीं पड़ता । यह ॒तो श्रवधी के लिये ही मानों निर्मित हुआ्ना है । पदावली में गेयपद हैं । वे आकार में छेटे होने के कारण वस्तुत: गेय हैं। इसलिये बहुत से पदों के साथ न जाने कब से उनके राग नाम श्ौर ताल का उल्लेख मिलता है। (' रैंपर ) लेकिन-- २११११५४२२११४०२१५०५१४१०२५०१५प.२ हेहुल धर दे बीर च लेकि तजात हों प्ः२१ ११ है १ १३ २३ आर 5 २ निठु रकानन्हम ह बू ब नसु न देबातहों न््न्र्ष यहाँ पहली पंक्ति का भ्रार॑म अक्षर गुरु है दूसरी का लघु] पहला प्लवंग झ्रौर चांद्रायश का भिश्चित रूप है। यति भी ११-- १० पर है। इस छंद की लय हलके भावों के अ्रधिक उपयुक्त लगती है। करुण या वियोग जेसे विषादात्मक भाव के श्रनुकुल नहीं । यह छंद बंदर की चाल से चलता है। इसलिये प्लवंगम कहलाता है। प्रेमपत्रिका! में भी इसी छुंद का प्रयोग कवि ने किया है। वहाँ भी प्लवंगम श्र चांद्रायणु का मिश्रण है। ताटक-- यह ३० मात्राप्रों का १६+१४ की यति का छंद है। इसके अंत में मगण होता है। इश्कलता में श्रानंदधन ते इसऋझा भी प्रयोग किया है। यहाँ होली के गीतों में श्रीकृष्ण-गोपी के स्नेह का वर्णन है। छंद का लय होली जैसे उल्लासमय अवसर पर गाए जानेवाले गीतों के लिये उपयुक्त हैं। इसी को लावनी तथा मांक भी कहते हैं । ० 5 8 0 की 0 की की खु बी क हैं तु साडी हो हो हो हो हो री है। प्न्३े० २२ का हे १ है पे आह शक के. 5 बूका बं द न भ्र ग र कु मकु मा भर गुला ल न भो री हैं। ८ ३० निसानी इसे भानु ने उपमान छंद बताया है। यह २३ मात्राओ्ों का १३ + १० यति वाला छद है। इसके अंत में दो गुरु अच्चर होते है। इश्कलता में इसका भी प्रयोग हुआ है । जेसे-- 0 ह है है है शहर तर यन नंक्योंकर ग हिस कौंघ न शआ्रा नें द पीया पलर्रे ( (८३ ) २३४० है १ १ 5 है हर में तेंदी लट क न फंद्या क्यातु ज नकीया न््त्रेरे इश्कलता में अरलल, ताटंऋ, उपमानत और दोहा चार छंदों का प्रयोग हुआ है। भाषा भो पंजाबी और ब्रज है, तथा फारसी के कतिपय शब्दों का प्रयोग किया गया है। छंदों का लय, भाव, छंदइ-परिवृत्ति तथा फारसी शैज्ली से प्रतीत होता है कि कवि भाव की मस्ती में रचना कर रहा है। शोभन गोकुल विनोद में शोभन छंद का प्रयोग हुझा है। यह २७४ मात्राग्रों का १० + १४ को यदि वाला जगणांत छंद है जिसे सिहुका मी कहते हैं । कर तय कप जप तह आई नंदगो कुलब र निबानीविस दजोतिनिवास रे ० मा। रो आय पे जहांनित्यानं द घ नश्र दू भु त ञत्र खं डविलास। <“-२४ शोभन ज॑से गंभीर झोजमय छंद में जो कवि ने संस्कृत बहुल समस्त वाक्यों की सघन शेत्ी भ्रपवाई है वह छ॑दोडनुकुल ही है । त्रिभंगी प्रानंदबत जी के तेरह पद्म त्रिभंगी छंद के हैं जिस में ३२ मात्राएँ १८--८--५+ ६ की यति के साथ होती है, अंत में गुरु अक्षर होता है। पर आ्रानंदघन जी ते १६--१६ की यति ही रबखी है जैसे--- गा आज 5 जो गत जी आग कक 7 कहाँजाहिझरुक हैं कहा श्र बतु मतौपिय स ब॒ ग॒तिनि थक्ताई ८ ३२ |] की 0०5 इस के अतिरिक्त प्रबंधों में दोहे चौपाई का प्रयोग किया है। चौपाई में कवि को अधिक सफलता नहीं मिली । इसका कारण एक तो उनकी भक्ति भावना की प्रवावता तथा कवित्व विच्छित्ति की उपेक्षा है। दूसरे चोपाई छंद ब्रज भाष[ के लिये अनुकुल नहीं पड़ता । यह तो शअ्रवधी के लिये ही मानों निर्मित हुझ्ना है । पदावली में गेयपद हैं। वे आकार में छेटे होने के कारण वस्तुत: गेय हैं। इसलिये बहुत से पदों के साथ न जाने कब से उनके राग नाम और ताल का उल्लेख मिलता है। ( १०४ ) अलंकार योजना शनि । मे अलंकारों ) १--आनंदबत की रचनाग्रों में अलंकारों का प्रयोग अत्यल्प है। सीधी सरल शली से मामिक भावों को व्यक्त करवेवाले पद्य संख्या में श्रधिक हैं। इत निरलंकार यद्ञों में भाव ऐसी सत्यता तथा मामिक्तता से प्रकट हुए हैं कि झलंकार यदि झात्रे तो उनको उज्वल निश्छन्नता को मलित ही करते ॥ “वियोगी विरहू व्यथा के कारण जीवन तत्रा इंद्रियों से ऊब गया है। उन्हें समाप्त करना चाहता है। पर प्रिय मिलन की श्राञ्वा से ऐमा नहीं करता। वह कहता है क् हग नीर सों दोठहिं देहु बहाय पै वमुख को अश्रभिलाषि रही रसना विष बोरि गिराहि ससों वह वाम सुधानिधि भाखि रही धनप्रानंद जान सुबेतनि त्यों रचि कान बचे रंचि साखि रही। निज जीवन पराय प्ले कबहूँ पिय कारत यों जिय राखि रही।' इसी प्रकार प्रिय के निकट बंठते पर भी प्रेमी के वियोग की ही श्रनुभूति होती है। उसका वर्खात देखें-- 'ढिग वेठे हु पेठि रहें उर मैं धरक खरके दुख दोहतु है । हग भ्रागे ते बरी कहूँ न टरे जग्र-जोहनि-अतर जौहतु है । घत श्रानंद मीत सुजान मिलें बसि बीचतऊ मति मोहतु है। यह कंसो सजोग न वू के पर जु वियोग न क्यो हूँ विछेहतु है। यहाँ कवे अपनी हृदय की अ्रंतर्दशाओं के कहने में भला हुआ्ा है। उसे श्रलंकारों की सुधि नहीं, वर्शनात्मक प्रब॑ंधों में श्रलंकार योजना का जे अभाव ही है। गेय पदों में भी कहीं कहीं इनके दर्शन होते हैं। कवित्त सवयों में इतका प्रयोग कित्रा गया है। इनमें भी जो श्रत्यंत समापिक पच्च हैं वे प्राय: निरलंकार सरल भाषा में लिखे गए हैं--.. २--वसे कवि का जो भाषा संबंधी आ्रादर्श है उसमें अलंकारों का स्थान है, पर वे प्रथोपका रक हों। हृदय के भवत में मौव का घट डाल कर जो बात बनिता बँठी रहती है वह रस की मणियों तथा पदारथों के मंजु भूषणों से शोभायमान होती उर भोत मैं मात को घूधट के दुरि बैठी विराजति बात बनीं । मृदु मंजु पदारथ भूषत सों सु लपे हुलसें रस रूप मनी।' सु०हि० १६२ ( (८४) भषण पदार्थों, प्रतिपाद्य अर्थोंके ही बने होने चाहिए। “अलंकार सर्वेस्व! में रुव्यक ने तथा अभिनव भारती! एवं “धब्न्यालोक में आनंद- वर्घनाचार्य ने जिस अलंकारप्रयोग को 'अभिधान प्रकार! और “रसाभिव्यक्ति का अ्रंतरंग साधन! माना है' उसके समान हीं भावना ग्रानंदवत की है । इनके अभनुयार पदार्थ ही प्रलंकार बनें, उसके पूर्ण होने पर बाद मेँ श्र॒लंकार की नक्काशी न की जाए! तीचे लिखा पद्म इसी प्रकार के अलंकार प्रयोग का निदर्शन है | हीन भए जल मीन अधीन कहा कछु भी अ्रकुलानि समानें। नीर सनेही कों लाय कलंक निरास हु कायर त्यागत प्रानें | प्रीति की रोति सू क्यों सधुझें जड़ मत के पानि परे को प्रमानें । या मत्त को जु दशा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जाने ।' सु०हि० ४ यहाँ कहने को व्यतिरेक श्रलंकार स्पष्ट है पर उससे अतिरिक्त अलंकार का कसा स्वरूप होगा यह विश्लेषण नहीं किया जा सकता। इन्होंने प्राय: इसी प्रकार के प्रयोग किए हैं । २३--सिद्धांततः श्रानंदवर्घत ने अपने ध्वन्यालोक में अलंकार के दो भेद किए हैं, पृथकयतननिवं्त्य॑ तथा अ्रपृथग्यस्तनिव॑त्य 4 पहला वह है जो कवि की अनुभूति का निष्पन्तरूप तो तिरलंकार ही हो पर उसे सजाने के लिए जानकर कवि पृथक रूप से अलंकारयोजना करता हो। रीतिमार्गी कवि प्रायः: ऐसा ही किया करते हैं। दूसरा वह है जिपका जन्म हृदय के उसी श्रनुभव प्रयत्न से हुआ हो जिससे भाव होता है, श्रर्थात् भ्रलंकार शभ्रौर भाव में कोई अंतर न हो। भाव का उदय जब हृदय में किसी असा- धारण रूप में होता है तो वह अपने अनुकूल अवाधारण भाषा का निर्माण श्राप ही कर लेता है। यह 'अपृथग्यत्तनिव॑त्य/ रूप है। दो शब्दों में भावसहजात और मावग्रनुब्ात दो प्रकार के प्रयोग अलंहारों के होते हैं | इनके विषय में जो हल्की घ।रणा बनती है वह भशवग्ननुजात श्रलंकारों के विषय में ही है। श्रानंदवन के प्रयोग प्राय: भाव सहजात है। उत्प्रेन्षा के दो उदाहरण भौर देकर अपनी बात स्पष्ट करते हैं। १-- प्रभमिधानप्रकार विज्येष्णा एव अलंकारा:--प्रलंकार सर्वस्त । न॒ तेषां बहिरंगत्व॑ रसाभिव्यक्ती -अभिनवभारती । २-- रसाज्िप्ततया यस्य बन्च: शक्यक्रियोभवेत् | अपृथग्यत्तनिर्वेत्य: सोलंकारोी ध्वनौमत:। ध्वन्यालोक उद्दोतृश्ककारि उद्योतकारिका १७ ( रैंप४ड ) अलंकार योजना 4 -* ग्रातंदबन की रचनाग्रों में अ्लंकारों का प्रयोग श्रत्यल्प है ॥ सीधी सरल शली से म/मिक भावों को व्यक्त करदेवाले पद्च संख्या में अ्रधिक हैं। इन निरलंकार पद्षों में भाव ऐसी सत्यता तथा मामिकता से प्रकट हुए हैं कि अलंकार यदि ब्ाते तो उतकोी उज्वल विश्छन्नता को मलित ही करते | “वियोगी विरह व्यथा के कारण जीवन तथा इंद्वियों से ऊब गया है। उत्हें समाप्त करता चाहता है। पर प्रिय मिलते की श्राश्वा से ऐसा नहीं करता | वह कहता है-- ( हग नीर सों दीठहि देहु बहाय पै वमुख को अश्रभलाषि रही। रसना विष बोरि गिराहि ससों वह ताम सुधानिधि भाखि रही। घनभ्रानंद जान सुबेतनि त्यों रचि कान बचे रुचि साखि रही। निज जीवन पाय प्ले कबहूँपिय कारत यों जिय राखि रहो।' इसी प्रकार प्रिय के निकट बठते पर भी प्रेमी के वियोग की ही श्रतुभूति होती है | उसका वर्राव देखें--- 'ढिग बेठे हु पैठि रहै उर मैं धरक खरकीे दुख दोहतु है । हग भागे तें बरी कहूँ न टरे जग-जोहनि-पंतर जौहतु है । घत आनंद मीत सुजान मिलें बसि बीचतऊ मति मोहतु है। यह कैंसो सेंजोग न व मे परे जु वियोग न क्यो हूँ विछोहतु है।' यहाँ कवे अपनी हृत्य की अंतर्दशाप्रों के कहने में भूला हुमा है। उसे अलंकारों की सुधि नहीं, वर्णवात्मक प्रबंधों में श्र॒लंकार योजना का भ्रभाव ही है। गेय पदों में भी कहीं कहीं इनके दर्शन होते हैं। कवित्त सर्वर्यों में इनका प्रयोग किप्रा गया है। इनमें भी जो श्रत्यंत मामिक पद्य हैं वे प्रायः निरलंकार सरल भाषा में लिखे गए हैं--.- २--वेसे कवि का जो भाषा संबंधी ग्रादर्श है उसमें श्रलंकारों का स्थान है, पर वे अ्रथॉपका रक हों । हृदय के भवत में मौव का घट डाल कर जो बात बनिता बठी रहती है वह रस को मरियों तथा पदाथों के मंजु भूषणों से शोभायमान होती है। 'उर भौत मैं माँतव को घृधट के दुरि बैठी विराजति बात बनी । मृदूं मंजु पदारंथ भूषन सों सु ले हुलसें रस रूप मती।! सु०्हि० १६२ ( (८४ ) भूषण पदार्थों, प्रतिपाद्य श्र्थों के ही बने होने चाहिए। अलंकार स्वस्व” में रुग्गक ने तथा अभिनव भारती! एवं “इ्रन्यालोक में आनंद- वर्घताचार्य ने जिस अलंकारप्रयोग को 'अ्रभ्नमिधान प्रकार! और 'रसाभिव्यक्ति का अंतरंग साधत! माना है' उसके समात ही भावना आानंदधन की है। इनके अनुमार पदार्थ ही श्रलंकार बनें, उसके पूर्ण होने पर बाद में अलंकार की नक्काशी न की जाए! तोचे लिखा पद्म इसी प्रकार के अलंकार प्रयोग का निदर्शन है | 'हीन भए जल मीन अधीन कहा कछु भी अकुलानि समानें । नीर सनेही को लाय कलंे निरास हु कायर त्यागत प्रानें । प्रीति की रोति सु क्यों सधुछें जड़ मत के पानि परे को प्रमानें । या मन को जु दशा घनग्रानंद जीब की जीवनि जान ही जाने ।' सु०हि० ४ यहाँ कहने को व्यतिरेक श्रलंकार स्पष्ट है पर उससे अतिरिक्त अलंकार का कसा स्वरूप होगा यह विश्लेषण नहीं किया जा सकता। इन्होंने प्राय: इसी प्रकार के प्रयोग किए हैं । र३--सिद्धांततः: श्रानंदवर्घन ने अपने ध्वन्यालोक में अलंकार के दो भेद किए हैं, पृथकयलनिव्॑त्य॑ तथा अपृथग्पल्तनिर्व॑त्य 4 पहला वह है जो कवि की अनुभूति का जिष्पत्तहूप तो विरलंकार ही हो पर उसे सजाने के लिए जानकर कवि पृथक्र रूप से अलंकारयोजना करता हो। रीतिमार्गी कवि प्रायः ऐसा ही किया करते हैं। दूसरा वह है जिसका जन्म हृदय के उसी श्रनुभव प्रयत्न से हुआ हो जिससे भाव होता है, श्रर्थात् प्रलंकार भ्ौर भाव में कोई अंतर न हो । भाव का उदय जब हृदय में किप्ती अ्रसा- धारण रूप में होता है तो वह झपने अनुकूल अवाधारण भाषा का निर्माण श्राप ही कर लेता है। यह अपृबशत्वनिर्व॑त्यं/' रूप है। दो शब्दों में भावसहजात और मावश्ननुत्रात दो प्रकार के प्रयोग अलंझारों के होते हैं । इनके विषय में जो हल्की चारणा बनती है वह भावश्रनुजात शअलंकारों के विषय में ही है। झ्रानंदवन के प्रयोग प्राय: भाव सहजात है। उत्प्रन्षा के दो उदाहरण और देकर अपनी बात स्पष्ट करते हैं। को आय १-- अ्रभिधानप्रकार विशेष्या एव ग्ललंकारा:--प्रलंकार सर्वस्त॒ । न॒ तेषां बहिरंगत्व॑ रसाभिव्यक्ती - अभितवभा रती । २--- रसाक्चिप्ततया यस्य बन्च: शक्यक्रियोभवेत् | अपृथगयत्तनिवेत्य: सोलंकारों ध्वनौमत:॥ ध्वन्यालोक उद्दोतश्ककारि उद्योतकारिका १७ ( १८६ ) 'सलके भ्रति सुदर श्रानन गौर छक्के हम राजत काननि छुंवे । हँसि बौलनि मैं छवि फूलतकी वरषा उर ऊपर जाति है छ्वू। लट लोल कपोल कलोल करें कल कंठ बनी जलजावलि ढू ॥ अंग अंग तरंग उठे दुति की परि है मवौ रूप शअ्रब॑ घर चवे ॥ प्रकीर्शक २, छवबि को सदन गोरो बदत रुचिर भाल रस निश्वुत्त मीठी मृदु मुसक्यान मैं।' प्रकी० १, यहां 'परिहें मनौ रूप अरब घर वे तथा “रस नचिचुरत” में उत्प्रेत्ञा है। हु भाव का ही अंग है । ४३--विरोध या तन्युलक्त अन्य श्रसंगति झ्रादि जो अलंकार प्रचुरता बारबार झाए हैं उनका कारण कवि की विषमता पूरों प्रेम भावना है। (नकी शेली जो वक्रतापर्ण कही जाती है वह विरोध प्रौर लक्षणा की प्रकृति फ कारण ही है घोर विरोध तथा लक्षणा दोनों का जन्म प्रमानभूति द्वारा झ्ाहै। जहाँ अनुभूति गभीर तथा श्रांतरिक होतो है वहाँ लक्षणा का प्रोर जहां प्रेम की विषमता एवं विलक्षणता की अ्रभिव्यक्ति होती है वहाँ वेरोध विच्छित्ति श्र" जाती है। है सवंत्र वाह्य विच्छिलि का जन्म प्रांतरिक अ्रनुभूति से ही। वियोगो की श्राँखों का एक वर्णान इसके लिये बखा जाए । “जल बूड़ी जरे, दीठि पाय हू न सभ करों श्रमी पियें मरें, मोहि श्रचिरज श्रति है। चीर सौ न ढकें, बानौं बिन बिथा कबकें, दोरि परे, न निमोडी थर्क, बड़ी भतागति है।' सु० हि० ५१ यहाँ नेत्रों की वास्तविक दशा ही ऐसी है कि वे परस्पर विरुद्ध धर्मों का प्राश्नय हो गई हैं। इसलिये इनका विरोध सत्य सा लगता है। विरोध जैसे चमत्कारप्राण अलंकारों में भी कवि' आत्मकथा सी कहता प्रतीत होता है, प्रन्य श्रलंकारों की तो बात ही दूसरी है । #--भावसहजात होने के कारण ही भ्रलंकारो में जो उपमान प्रयुक्त हुए हैं वे अनुभूति के व्यंजक, प्रभावसास्म के द्योतक तथा मनोवैज्ञानिक हैं। मनोवज्नानिक से तात्पयं यह है कि उनके देखने से साधारण ब्यक्तियो को ( रै८७ ) भी उन्हीं भावों की अनुभूति होती है जिनका साम्य देने के लिये कवि ने प्रयुक्त किए हैं। ये उपमान कविपरंपराप्राप्त प्राय: नहीं हैं, भनुश्नृतिप्रसृत हैं। जैसे योवन् के उच्छुल रूप को 'लहराता हुग्ला जल” श्रौर अंगदीघ्ति को उसकी तरंगें बताया है। इससे सौंदर्य का तरलस्वरूप, यौवनागम के कारण शरीर का लहराना, तथा सौंदर्य का शरीर में लबालब भरा रहना व्यंग्य होता है। साथ ही सौंदर्य को कवि “लहराते जल की तरह शांति- दायक सममता है--यह भी स्पष्ट हो जाता है। उपमान केवल सारूप्य या साधर्म्य का ही छ्योतततक नहीं है। वह प्रभावसाम्य का भी व्यंजक है। विरह की व्याकुलता की उपमा धुंए की शूवरि में घुटरेः से दी है । शब्लाशा को दूसरे लोग हरियाली या अंबकार में चमकनेवाला दीपक कहते हैं। झानंद- घन उसे कभी तो फाँती कहते हैं जो उनके गले में पड़ कर प्राण नहीं निकलने देती । कमी उसे प्राकाश बताते हैं, जो विस्तृत तो इतना है कि कोई सीमा ही नहीं पर है शून्य ही । वियोगी के लिये श्रसफन आशा का इससे भ्रच्छा श्रोर क्या चित्र हो सकता है। रीक या चाह के आगमन हो वर्षा समझा है। जिस प्रकार वर्षा में एक के बाद एक बूंद पड़ती है उद्ी प्रकार चाह में एक के बाद एक श्रभिलाषा हृदय से उत्पन्त नहीं होती, कवि कहता है, बरसती है। वर्षा में विदुस्संतान के अभ्रवरोध से जिस प्रकार निक्रटस्थ वस्तु भी दिखाई नहीं देती उसा प्रकार चाह के कारण भी प्रिय का रूप पुरा दिखाई नहीं देता । चाह की अनुभू ते की ग्रातरेक दाइ से समता देते हैं झौर प्रिय के रूप को जल से तथा प्रिय को ग्ञानंदघत से। इससे कवि को भावना भवभूति की प्रेम भावना से भिन्न सिद्ध होती है। भवभ्ूति ने स्तेहा- भिलाष को मधुर मोह बताया है जो इंद्वेयव्यापारों का आवरण कर चेंतन्य को निरमीलित करता है। वह एक आनंद है। पर ये उसको चेटक, दाह, मोह, मिठास की लाग, झाईि कह कर अपने शारीरिक श्रासक्तिप्रवान मांसल प्रेम का स्व्॒रूप प्रकट करते हैं, जिसकी उत्करता प्रिय के अश्रमाव तथा भाव में दुःख रूप हू बनी रहती है । वासनात्मक प्रम की अभिव्यक्ति इन उपमानों से ही हो सकती है। ये भी प्रभावसाम्य के उदाहरण है। प्रिय के बिना घर को प्रेमी 'भाकसी! समझता है जिसमें दम घुद घुट कर शधाणांत होता है । आनंदबघन के उपमानों में भी भावों की तरह व्यक्तिव की झलक है । छुख दुख की भ्नुभति के जो व्यक्तिगत रूप होते है उतका परिचय इनके सह .8-ममन+ अमन नम नमक भ+०+५+++++3+++५3हन 3७333... ५७ «न ५७०++3>फ+७भ++भाम ७4७५»... »क++००»० रकम» अमन ऊतक. १--उत्तर रामचरित, अंक १, श्लोक ३४५ ( १८८ ) प्रलंकारों में भी मिलता है। सस््तेह को इन्होंने फंदे की गाँठ कहा है और चाह को प्रवाह | फंदे की गाठ खोलने लगें तो स्वयं उसमें फेस जाते हैं । बाहर निकलता नहीं होता । इसी प्रकार प्रवाह में पड़े व्यक्ति का बाहर निकास नहीं होता उसो में बहा हुआ्ला चला जाता है । उदात्त हुदय की प्रेमभावता भी इसी प्रकार की होती है कि उससे छुटकारा किसी प्रकार नहीं मिलता। आनंद घन की प्रमभावना में संयोग में भी प्रेमी दुखी है और वियोग में भी वह चाह के प्रवाह में पड़ा हुआ है । किसी प्रकार निकास नहीं होता । धूर्क नहीं सुराक उरकि नेह गुरभति मुरमकि मुरझि तिसिदित डाँवाडोल है। श्राहु की न थाह देया कठित भयों निब।ह चाह के प्रवाह घेरयौ दारुन कलोल है ।* इस पद्म में अग्रस्तुत द्वारा जो भाव व्यक्त किए गए हैं उनकी अंवर्देशाएँ दूसरे पद्च में प्रस्तुत रूप से वशित हुई हूं । जे से--- अंतर उदेग दाह, श्राँखिन प्रवाह आँसू देखी श्रटपटी चाह भीजनि दहनि है। सोइबो न जागिबो हो, हंसिबो न रोइब्ो हु, खोय खोय आझाप ही, मैं चेटक लह॒नि है। जान प्यारे प्रानन बसत पें आआनंदधन विरद्य विषम दसा सक लोौं कहनि हैं। जीवन मरन जीव मीच बिना बन्यौं आय हाथ कोन बिध रची नेही की रहनि है।' तग्र० घ० कं०७ रे६ इसमें जो भाव व्यक्त हुए हैंवे ही ऊपर को 'मुरभिनि! तथा प्रवाह! उपमान से व्यक्त होते हैं। कवि को अ्रनुभतियों का स्पष्ट श्राभास उनके उपमानों द्वारा लग जाता है क्योंकि वे भावजन्मा हैं। ऊपर के उपमान तथा उसके अनुमार जो अंतर्दशाएँ कवि ने व्यक्त की हैं उसी के समानांतर भावना है कि 'यदि दुख के घुएँ की धूपर से घुट कर प्राण मर भी जाएँ तो सनभावन से नाता तनिक भी न छुटेगा” प्राणों के गले में जो आशा का पाश पड़ा हुआ है वह हूटेगा नहीं । दुख धूम को घूँधरि मैं घनआ्रार्नेंद जौ यह जीव घिर्यौ घुटि है। मनभावत मीत सुजाव सों नातो लग्यौँ तनकौ न तऊ ठुटि है। घुरि श्रास को पास उतास गरें जुपरी सु मरें हु कहा छुटि है। इस तरह कवि के श्रप्रस्तुत उसके व्यक्तित्व के प्रतिनिधि हैं॥ उसकी श्रनुभूतियों का पूर्णा परिचय उनसे मिलता है। कुछ उपमात वस्तुव्यंजक भी आए हैं जैसे वियोग में श्रपने मत को समझता हुआ प्रेमी कहा है | विष ले विसारधौ तन के बिसासी आप चारचो जानयो हुतो मत तें सरेह कछ खेल सो। अ्रब॒ ताकी ज्वाल मैं पृजरिबों रे भली भाँति, नीकें सहि शअश्रत्रह उदेग दुख सेल सों। गए उड़ि तुरत पखेरु लौं सकल सुख, परची श्राय औचक वियोग बैरी डेल सौ।' सु०हि० १६४ इनमें वियोग को डेल बताने से उसका श्राकर न जाना, तथा सुखी का पक्ती की तरह सर्वया शीघ लुप्त हो जाना, व्यंजित होता है। उपमानों के प्रयोग में कवि की यह भी विशेषता है कि फारसी साहित्य से प्रभावित होकर भी उन्होंने उपमानों का स्वरूप भारतीय रक्खा है। चातक, पपीहा, पंकज, चंद्रमा, श्रादि की ही संख्या श्रधिक है, बधिक पखेरू झ्रादि की कम | ६--ऊुंछ श्रलंकारों को योजना कत्पनाप्रसुत भी है जो रीतिकाल के प्रभाव का अवशेष ही कहा जाएगा। पर ऐसे पद्मयों की संख्या अ्रत्यल्प है वियोग में प्रिय के ध्यान का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैं कि 'मेरा शरीर फानूस की हांडी है। उसपर विध्तों के पढ लिपटे हुए हैं। पर तुम्हारा ध्यान दोपक की तरह मध्य में रक्खा हुआ है। नेत्र पतंगों के समान उसी के साथ रहते है! । चेरयों घट झाप अंतराय पर निपट पे ता मधि उज़ारे धारे फानुस के दीप हौ। लोचन पतंग संग तजे न तऊ सुजान ।' सु० हि ० हैंड ( १६० ) इसी प्रकार का विरह की दावाग्नि का वर्शान है 'विरह दवागिनि उठी है तन बत बीच जतन सलिल के सु कँसें नीचिये परे। प्रस्तर पुदाई फटे चटकऊत साँस बाँस ्रास लंबी लता हु उदेग भरसों जरे। दुख धूम धूंचरि मैं बिरे घुर्ट प्राव खग प्रव लौं बचे हैं जौ सुजान तनकी ढरे। बरसि दरस घनभ्रानेंद अ्ररस छांड़ि सरस परस दे दहनि सब ही हर।' सु ०हि० पी ७--जिन पलंकारों का इन्होंने प्रयोग किया है वे प्रसिद्ध ही हैं। इस प्रकार के भ्र॒लंकार सभी के काव्य में श्रा सकते हैं। इससे कवि की प्रवृत्ति अलंकार निरपेज्ञ प्रतोत होती हैं। इसके काव्य में लगभग नीचे लिखे अ्रलंकारों का प्रयोग हुआा है । १-- यमक ८टारें टरे नहीं तारे कहूँ सु लगे मन मोहन मोह के तारे ॥४ रु ०हि० थ् तारे श्राखों की पुतली तश ताले । 'काहू कलपाय है सु कैसे कल पाय है।' प्रकी्णक ६ कलपाय > दुखी करेगा तथा चेन पाएगा | २--श्लेष 'मिन्र अंक श्राएँ जोति जालनि जगत है ।' सु०हि० ३०० मित्र >सूर्य तथा सुहृत् । ३--अनुप्रास ध्यंक विसाल रंगीले रसाल छुब्वीले कटाछु कलानि मैं पंडित | सांवल सेठ निकाई निकेत हियौ हरिलेत है श्रारस मंडित । सु०हि० श्प साँसनि सुगंध सोंधे कोटक समोय धरे । अंग अंग रूप रंग रस बरस्पौं करे।' सु०हि० २११ ( १९१ ) ४-उपना “चित चंबक लोह लौ चायनि च्व्वे ऊदटे उहें नहि जेतों गहाँ ।॥' छुण्हि० १० 'मन पारद कूप लौ रूप चहै उमहेँ सुरहै नाहे जेतो गहों ।॥ सु०हि० ११ ५--सांगरूपक “रस सागर नागर स्थाम लखें नभिलाखनि बार मंकार बहौ सु न सूझत धीर को तीर कहूँ पचि हारि के लाज सिवार गद्ौ' घनआनंद एक ग्रचंनों बड़ो गुद हाथ हूँ बृड़ति कासो कही ; सु०हि० १३ 'रूप चमूप सज्यों दल देखि भज्यौं तजि देसहि धीर मवासी । नेत मिले उर के पुर पेठ्ते लाज लुटी व छुटी तिनका सी रीक सुजान सटी पटरानी बची वृधि बावरी है करि दासी ॥' सु०हि० डंप ६--व्यतिरेक “'हीव भए जल मीन श्रधीत कहा कहु मो अ्रकुलानि समानें | नार सनेही सों लाय कलंक निरास द्व॑ कायर त्यागत प्रानें। प्रीति की रोति सु क्यो समझे जड़ मीत के प्रान परे को प्रमानें । या मन की जु सदा घनप्रानेंद जान की जीवनि जान ही जानें ।' ७-“-अदन्वय धसब भाँति सुजाब समाद न ब्रान कहा कहों झापु ते आपु लसे ।' सु०हिं०७८ ८--संदेह सीमा सुमेर की संधितटी किधों मानव मवात्त गढ़ास की घादो। के रसराज ण्वाह को मारग बेनों बिहार सों यो हग दाठी। काम कलाधघर श्रोषि दई मनौ प्रीक्षम प्यार पढावन पाठी। जान को पीठि लखें धनआ्रानेंद अानन आन तें हंति उचाटो । स्ृ०हि० २१७३ ६--विनिमय दुख दे सुख पावत हौं तुम तो चित के अरपे हम चित लही। तुम कौन धों पादी पढ़े हो लला मन लेहु पे देहु छटांक नहीं ।' ( १९२ ) १०--अपह नुति जारति अंग अभ्रनंग की आचनि जोन्ह नहीं सु नई अगिलाई |! सु०हि० १६८५ ११--प्रतीप तेरे आगे चंद्रमा क्लंक सो लगत है। सु०हि० ३०० १२--उत्नक्षा अंग अंग आली छवि छलक्यो करति है।' प्रकी एक १४ अंग तरंग उठे दुति की परि है मनौरूप अबै धर च्वे।! प्र०२ १३-- दीपक 'नाद को सवाद जाने बापुरो बधिक कहा रूप के विधान को बखान कहा सूर सौं। सरस परस के विलास जड़ जाने कहा नीरस नियोड़ी दित भरे भखि ऊर सों। चाह की चटकतें भयो न हिये खौंप जाके प्रंम पीर कथा कहै कहा भककूर सों। सु०हि० ४०५६ १४--अर्थान्तरन्यास पीर भरयौ जिय धीर धरे नहि कैसे रहै जल जाल के बांधे ।' सु०हि० १६१ १५-अतिशयोक्ति रोम रोम रसना हु लहै जो गिरा के गुन । तऊ जान प्यारी निबरे न मैंने आरतें।' सु०हि० १८७४ १६--अत्तुमान जो उहि ओर घटा घन घोर सों चातक ओर उछाहनि फुलते | त्यों घनप्रानेंद श्रौसर साजि संजोगिन कुंड हिडोरनि भूलते । ग्रीषमर्तें हतई जु लता हुम अ्रंकनि लागति है रसमूल ते। तो रजनी जिय ज्यावन जान सु क्यौ इत के हित की सुधि भूलते | सु०हि० २३३ ( १९३ ) सही दूध रूम गते हंस वग भेद न जाने, कोकिल क्राक न ज्ञान काँच मति एक प्रनाने। चंदत ढाकह्त सामान राँग दंगों सन तोलै, बित विवेक गूत दोप मूढ् कवि व्यौरे न बोले। प्रेम तेम हित चतुरई जे न विदयारत नेकु मन, सपनेहूँ न विलंबिये छित्र तिन ढिग आनंदधन | ह सु० हि० २८१ श्ट--अपसंगति राय भएटी वित राजें ।' १६--विरोध-- का कही वन तन जप घ््ले ट्टाए £ ४ हरकाव्एममनक कि सनटननाए टपकक मेक पनता ऋष ज >> जे विक ब्कन व > कण 7 ०० कर भधरनजतरद का अधाध्ानायर शाहाकार दृदर आपननाों के इस ग्रनकार से >माध्यीओ अयक्षा ताथ- अछ उन ४ आम श्ब्ज्भल कक रू जे 2-अ कप 20 _ 4 न जीत अप कलश. भिन्न है। सावारणदवा इसी यबोददा शझब्दमूलक हुोतों है। दृदर्यक शब्दों के एक अथ को लेके विरोध का ऋाभास एरिव्ाए होता है। संपक्ृत साहित्य में इ का यही परंपरा है। इसके मल में एलेए प्राय: होता हैं। हिंदी के करत्ियों की पद्धति भी इस विषय में यही है। महाकवि केशव की रचनाओ्रों में विरोध का रही रूप मिलता है जैसे-- हि | क्लब 47 | |, हि सा “विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देति केशव जीवन हार को दुख अशेष हर लेति ।' रामचंद्रिका | यहाँ “विष” शब्द का जहर श्रर्थ लेकर क्रोध प्रतीत होता है पर जन श्रथ से उसका परिहार हो जाता है। इस प्रकार को योजना में क्लिए्ठत्व, श्रप्रतीटित्व श्रादि दोष नियमित रूप से बसे रहते हैं। पर इस अलंकार का सहज रूप वहीं पर होता है जहाँ वरर्य बच्तु का स्वभाव विरोधयुक्त हो । उस योजना में शब्दों की करामात ब्रादि की श्रावश्यकता नहीं होती जैसी तुलसीदास के निम्नलिखित दोहे में। उसमेंविर हजरूप उपलब्ध होता है। १० 9) मूक होय बाचाल पंगु चढ़े गिरवर गहन । जासु कृपा सो दयाल करहु कृपा कलिमल दहन ।' रामायण बालकांड आनंदधन ने प्राय: इसी प्रकार के विरोध श्रधिक प्रयुक्त किए हैं। इसे स्वन्नावगत विरोध कहना चाहिए। जैसे-- अंतर उदेग दाह आँखिन प्रवाह श्राँसू देखी श्रट्पटी चाह भीजनि दहनि है। सोयबो न जागिबों हो हँसिबों न रोयबो हू। खोय खोय आप ही में चेटक लहुनि है।' सु० हि० १६६ होमि सों म्यां पै श्रनहोनि जाके बीच भरी जाये चलि जायबै बनाई रहठानि है ।' सु०हि० ४१७ तेह मीजी बातें रसता पै उर आ्आाँच लागे जागे घनआनंद ज्यों पुजनि मसाल है। घ०क० ४१ सीरी परि सोचनि अंचने सों जरों मरों।॥' घ० क० ७६ जल बडी जरे दीठि पाय हु न सूझ करें श्रमी पियें मरें मोहि अचिरजल शभ्रति है। चीर सों न ढ्कें बानी बित बिथा बकें। दौरि परें न निगोडी थक बड़ी भतागति है।' सु० हिं० ५१ दूसरे प्रकार का विरोध शब्दगत है। इसमें लक्षुगावुत्ति तथा मुद्रावरों का कवि ने प्रयोग किया है। जहाँ कवि कृत लक्षणाएं हैं वहाँ कुछ क्लिष्टता भ्रवश्य आ गई है।मुद्रावरों के आश्वचित विरोध सरल और सबोध हैं। इन दोनों प्रकारों को शब्दगत कह सकते हैं। वस्तु के स्वभावगत भेद में चमत्कार लक्ष्य नहीं प्रतीत होता। दूसरे भेद में कवि की कौतुक चूत्ति चमत्कार का लक्षित बनाती है। ( रै६५ ) जक्षणाओत विरोध -- चलिबे मार बठि रहे हो कहा इंग दे मग धारि के रंग रलो' 'जतन बुक हैं सब जाकोी कर आगे; 'भूठ की सचाई छाक्यौ त्यों हित कचाई पाक्यों ( | घ०७ कृ० २० 'देखिए दा भ्रगाध अखियाँ. निपेटनि की भसमी विथा पै नित लंघन करति हैं।' घधृ० क० २६ थ्रौपर सम्हारों न तो शभ्रनआयबे के संग दूरि देस जायबे को प्यारी वियराति है ।' स्० हु० ४१७ कृपा कान मधि नैन ज्यों त्योँ पुकार मधि मौन ।' सु० हि० ४५४१ मुहावरों पर आशलित विरोध-- घनआनँद छावत भावत हो दिन पारि इते उत्त रातें पढ़ें स० हि० प्०१ दित पारता--आपत्ति डालना । राते पढ़ना--रातभर रहता । 'उधरि छए हैं पै पसारो आपनो पसारि उधरता-बा दलों का हटना तथा स्पष्टरूप से प्रतीत होता । बदरा बरसे रितू में घिरिके नित ही अँखियाँ उधरी बरसे ॥' जीव सूख्यां जाहि ज्यों ज्याँ भीजत सरवरी।' जीव सुखना--कष्ट पाना । भींजत सरवरी-रात बीतना । सु०ह० श्प झलंकार योजना के लिये लाचुणिक तया मुहावरेदार प्रयोगों का व्यवहार कर कवि ने श्रपनी भाषाप्रवीणता का परिचय दिया है। इनमें नतों क्लिष्टता या अप्रनीतत्व आदि दोष हैं श्रौर न विरोध के केवल शब्दाश्रित होने से अ्रतात्विकता है। श्रथंगत विरोध का प्रभाव चमत्कार नहीं है। गंमीर अनुभति है। लक्षुणाश्रित तथा मुहावरों के बिरोधों में बुद्धक्लिश नहीं। परिचित शब्दों में ही विरोध का आ्राभास होने से चमत्कार और श्रथिक्र हो गया है । . १६६ ) झ्रानंदधन ने कुछ नए प्रयोग भी किए हैं जिन्हें सुविधा के लिये अलंकार ही कह सकते हैं। इनमें पहला है अ्चेतन में चेतनत्व का प्रयोग । हिंदी की मध्यकालीन कविताश्रों में यह तत्व कहीं कहीं भले ही श्रा जाए पर प्राचुर्य॑ इसका नहीं मिल्ता। इन्होंने बड़ी बहुलता से इसका व्यवहार किया है| यह् फारसी के प्रभाव का फल है जैसे -- पैने तते तेरे से न हेरे मैं अनेरे कहूँ घाती बड़े काती लिए छाती पे रहे चढ़े ।' सु ० हि० ५२ त्रसि वरसि प्रान जान मनि दरस को उमहि उमहि झआानि शांखिनि बसत है। विषम विरह के विष्टिख हिय घायल हैं गह॒वर घम घ॒ाम सोचनि ससत है। निसिदिन लालसा लपेटे ही रहत लोबी मुरकि अनोद्ीी उरकतिे में गसत है। सुमिरि सुमिरि घतश्रानेंद मिलन सुख कटनि सों श्लासा पठ कटि लें कसत है ।' सु० हि० २६ यहाँ नेत्र भर प्राणों में चेतवत्व का आरोप है। दसरा प्रयोग एक शब्द के श्रनेक श्रर्थों में प्रयोग का है। इसमें अनेक श्रर्थ प्राय; लक्बणा और मुहावरों के श्राधार पर किए जाते हैं | यहाँ सर्वत्रक्लिष्टत्व दोष झा गया है । लछणा आदि निष्प्रयोजन होती हैं। इससे कवि की चमत्कार- प्रधान कीतुक्वृत्ति का ही सत्तोष होता है। संस्कृत के कवि माघ श्रौर भारवि ने ऐसे योग अधिक किए हैं । रोक बम शब्द को लेकर--- “रीक तिहारो न बूक्ि पर श्रहो बूकति है कहौ रीकत काहै। बभि के रीकत हो जु सुजान किधों बन बम की रीक सराहै। रोक न बच तऊ मन रोभकत बमकनरीके हु और निबाहै। सोचति बुकत मूजत ज्यों घनश्रानेंद रीक भ्रौ ब्हि चाहै।' दोष कति क्रितता हो लिवृश् तवा सायाजरोगड़ों थोड़े बहुत दोर सबझी की रचताप्रों में मिल जले हैं प्नमंदरतमत पं इसके अउवाद नहों हैं। उनके कंदित्त सबणों में निम्न ले खब दोप प्रात हंते हैं । १--न्यूनपदता 'हिय भी गते हाय कदर कदिये लित त्थाँ तबहों कवरहू की छल इसने--त5 दी से होता चादेए । दर बहते दिन नेकु दिलाई सु० हि० वेशह इसमें दित के झागे 'लैं! की कमी है | २-मरयात्िस्रती तिक्ृत् 'हा दिन विच्वारति ही जोजि जाल तमी है । घ्० क० रेई यहाँ (विच्यारति! बेबारनि के स्थात पर छंद जयुरोव से किया गया हैं। पर विचार शब्द के बहुबचत का श्र भो देता है । ३--अश्लीलता ह्व है सोऊ घरी भाग उघरो झानंदब॒त सुरस बरधि लाल देखिहौ हरी हमें ब्रज भाषा में 'हरी होगा या हुटी करता! आझादि शब्इ गांव नैंतोंके शर्भवती होने के भर्थ में प्रयुकत होता है । ४--लयभंग जात परी जात प्यारी निक्राई को दिखे है! सु०हि० १६२ यहाँ 'निकाई की हिघि है! में लय भंग है | पुनिवो देखिबो स्व्राद आदि दे धरम जेते' वही १६४ यहाँ स्वाद पर्यत लय का भंग है | २--समाप्त पुनरात्तत्ता चंद चकोर की चाह करे घनगआानंद स्वाति पीहा को धाव । त्यौं चसरौनि के ऐन बसे रवि सीन प॑ै दीन हू धागर भावे 4 ( १६८ ) मोसों तुम्हें सुनी जान कृपानिधि नेह निबाहिबों यौं छबि पावे | ज्यौ अपनी रुचि राचि कुबेर स् रंकहि ले निज अंक बसावे।' सु० हि० २०२ यहाँ पहली दो पंक्तियों में उपमान है। उनका उपभेय तीसरी पंक्ति में झा जाने से वाकयार्थ पूरा हो गया। चतुर्थ पंक्ति में फिर एक उपनान का प्रयोग क्या हैं। समाप्ति का पुनरादान होने से समाप्तपुनरात्तता दोष हो गया । ६-द्रान्वय एरी घनआानंद बरसि मेरी जान तेरी हियो सुख सीचे गति तिरछी चितौव की ।” सु० हि० १५४ यहाँ तेरी”? का संबंध 'चितौनि” से है जो बहुत दर पड़ा हुआ है। ७--हीनोपमा बलि नेकु मया करि हेरो हाहा अश्रबला किों फलि रहो तुरई ।' सु० हि० ३१६ इसमें श्रवला को तोरई बताना हीनतवा है। 'इसी प्रकार अलबेली सुजान के पायति पानि परचौ न टरज्ौ मन मेरो ऋवा।” इसमें मन को भवा बताने से उसकी होनता होती है। ८-+अभवन्मतसंबंध काहू कंजमुखी के मधुप ह॒व॑ लुभाने जानें।' स् ० हि ०२७ यहाँ मधुप का संबंध कंज से होना कवि की श्रमिम ते है पर वह इसलिये संभव नहीं कि वह कंजमुखी में गौरा हो गया है। प्रस्तुत वाक्यरचना में कंजमुखी से मधुप का अन्वय हो सकता है वह इष्ट नहीं है। श्रत: प्रमवन्मत संबंध दोष हो गया | काहू मुख कंज के' कहा जाए तो ठीक होगा । ६--क्लिष्ठ त्व लाक्षराक, वक्र तथा विचारपूर्ण शैली होने के कारण क्लिप्टत्व दोष बहुत से पदों में विद्यमान है। जैसे-- ( १६६ ) 'सुमैँ के सहप को जथारध है बोध जाहि झाए सो हरय भरी विषादह न॑ गत को। प्यारों घतभअानंद संजप्न छाथणो अँखित से गन छात्र ताक बाहि ठगशिया ठगत को। ध्रि ताहि रंग ढग गे सुमन ऐसी दला भाग जाइयी जागे न! "| डी नल ॥ थी 0७ बन ज्स्ल्च लय ४ (५८ सु० हिं० ३६४ १०- पुनरावृत्ति एक ही भाव की तथा उपमार्तों झ्ादि की झनेक छंदों में आादुत्त मिलती है | कवि का चिंतन बहुमुखी नहीं है! ११--च्युत संस्कृति 'कहूँ घनम्रा नेंद धुघडि उघरत कहूँ दे | |) (्् 750 | हद वी विपनता सुजान श्रतरक है।' यहाँ 'घमडि! पर्ब॑कालिक क्रिया है उद्दरत साधारण क्रिया। दोनों की समानबल्ता नहीं है। इसलिये दो बार कहूँ रा प्रयोग वप्राकरणु की दृष्टि से अशुद्ध है। घमड़ होता तो ठीक था । [६६ । जय 23|८ “सुछद सदा रहे” १--काव्यप्रवृत्ति हदी साहित्य में श्वच्छंद” श्रथवा “रीविबंदा ऋाष्यधारय्रों का चितन यूरोप की क्लासिकल तथा रोमांटिक प्रदुत्तियों को समदा से किया गया है, भले ही उसका प्रभाव यहाँ की प्रवृत्तियों पर न हो। भारतीय माहित्यशाद्त्र में काव्य के स्वरूप तथः प्रभाव का चिंतन एक विशेष रूप से हुआ है । स्वरूप की हप्टि से अलंकार, रीति, वक्रोक्ति श्रादि मार्ग ग्राते हैं। प्रभाव में ध्वनि, रस, श्रौचित्य श्रादि के सिद्धांतों का समावेश है। शाचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में आधुनिक गग की नई धारा के साहित्य को बार भागों में विभक्त किया है। उनमें से अंतिम विभाग को “रच्छंद बारां जिखा है। झुक्लजी का तत्पर इस शब्द से 'रोमांटिसिज्मः का ही है। इसलिये उन्होंने अंग्रेजी साहित्य की उन परिस्थितियों की जिनके कारण वहाँ सोमांटि/सेज्पा प्रवर्तित हुआ, श्राधुनक हिंदाी। साहित्य की परिस्थितियों से समता को है| रीतिबद्धता उन्तयत्र एअ सी ही है। अंग्रेजी साहित्य में रीतिवंधन विदेशी साहित्य लंटिन का था, हिंदी में स्वदेशी संस्कृत साहित्य का; संस्कृत साहित्य का; पर एक ही देश भोर एक ही जाति के बीच आविभ त होने के कारण दामों में कोई मौलिक पार्थक्य नहीं । शुक्लज्ी ने श्रीधर पाठक को इंध वारा का प्रदर्तक माना है तथा सर्वश्षी माखरतल चदुरबेदी, सिदार,मशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीद', _ हरिवंशराय बच्चन 3 रामबारों सिंह दिवकर, ठाकुर गुहनक्त सिह तथा उदय शंकर भट्ट आदि को इस वबारा में गिना है। श्रीधर पाठक तो सोतिकाल से १--हिं०सा ० का इतिहास, प्रवाचित संस्करण, पृ० ७२१॥७२२ । २-वही ६०३ । ह हा, ली आई ब्रजसापा काव्य की परपराप्रों से बुक होते के कारण तझा अन्य शेप कवि छायावाद के साहित्यिक संप्रदाय ते मुक्त होने के के रणा स्वाचछंद (रा में परिगशित किए गए प्रतत होते हैं। पालिशंप्रदायप टी रखता का तत्व घना नंद, दोदा आदि कडियों में देखा गया है; प्ाजत: उमा मा देल्प्िक संप्रदायों का बंधन अंग्रेज़ी साहित्य एश था लगभत चबेया हो परोधिकात के हिंदी साहिय पर विद्यनान था। इस लेये हुदी की इप्राछंदइ काब्यदारए? को भल्र भाँति समझते के लिग्रे यद आशइयक हे के अंपर्जीस डित्थ को स्वच्छंद प्रवृ त्त का भी सृढ्ष्म प् रेचय प्रात कर हूैया जाउ। ऋंग्रेजी सा डेत्य की श्वच्छेद धार का यहाँ की काव्यप्रवृ त्त पर कोई प्रभाव था, इसने यह अभिषग्रेत दहों है। दोदों धाराशरों वा इभावर हत्चा परे देदाते इच्यझ्नत: भिन्न हैं। करनी छुछध तमाव बष नो हे जिवल्त कारण देश, काल छा दे ब.ह्म वस्तु नहीं वरन हट द्वियाप्नों झा बहु स्वभाव है जो पर देर तक हसो अंगरेजी साहित्य में था त्रीय एवं स्वच्छंद काव्य धाराएँ २--निरुक््ति और लक्षण-- रोमांटिक! शब्द 'रोमव' या रोमांस' शब्द से बना विशेष है । 'रोदन! या रोमांस शब्द का शथ है अनुशाद | मध्ययुग में लेडित प्रपा का अ्रदश्च'श रूपों से जो अनुवाद किया जाता था वह “रोमांस या रोमना कहुकाता था । गोण लक्षण के झ्राधार पर यही वस्त्र प/कर विदेशों के अ्र् में प्रयुक्त होते लगा । आ्राशोब्क स्टोडर्ड के विचार से 'रोमांत' ऐस। दस्तु का नाम है जोद्र से आई पर वततमाच जीवन से अधिक बच्छी दु््॑पन्यत्तर दथा भद्गरतर हो। बह जीवन से पृथक हो, इसलिये उप्का ऋप्मझाय हो दो पर प्वाप्त्याशा न हो | अंग्रेजी में सत्रह्ववीं शताब्दी की कहानियों के लिये भी रोमांटिक विशेयण व्यवहुत होता था | उसमें मुख्य झद से दो तत्व विद्यमान होते थे। साहमिकताएएज वीरभाव धौर काल्पनिकता | फन्नत: रोमांटिक! शब्द का संकेलित अर्थ ऐसा साहित्य बन गया है जो एक शोर तो पात्रों के वोर चरितों ( २०१ ) का वर्णन करे और दूसरी श्रोर ऐतिहासिक सत्य ते होकर साहित्यकार की कल्पना मात्र हो | इसके बाद अगले डेढ़ सौ वर्षों में इप शब्द के साथ एक प्रकार की निदा और घृणा का भाव संबद्ध हो गया। 'रोमांठिक! वहीं कहा जाने लगा जो उपहातास्वद, असत्य शोर अ्रस्वाभाविक था | पोष ने अ्रयती कविता की इलाघा करते हुए कहा था कि-- यह कल्पना की कोरी मृगतृष्णा में नहीं बूपा, वह सत्य पर ठिका और झपने गीतों को नेतिक बनाता रहा! । यह रोमांटिक कविताओं के विरोध में ही कहा गया था | प्रठःरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में फिर रोमांटिक भावना का पुनरा- वर्तत हुआ । जो वस्तुकल्तता के लिप्रे श्राक्यंक हो; वह इस शब्द का गस््थार्थ बल गया । एडिठन ते मिलट्त को कविता की प्रशंसा में उसे उत्तम रोमांटिक बताया था। उल्तीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में इस शब्द की अभिधाशक्ति और विल्तृत हो गई। इसका पश्र्थ अनुभृतियों के एक विशेष प्रकार श्थवा श्रनुभृतियों को रूप देना हो गया। रस्कित के अतुसार शास्रीय मार्ग ( क्यासिकल प्रवृत्ति ) के कवियों के लिये यह सभत्र नहीं था कि ये उच फोटि की बुद्धि तथा अनुभूतियों के अधिकारा बन सकें। यह कार्य स्वच्छ॑द मार्गी कवियों का था । ३-परिस्थितियाँ इंगलैड में जिस समय रोमांटिक साहित्य का श्राविर्भाव हुम्मा तो यह भावक्रांति साहित्य शास्त्र के छेत्र में ही सीमित नहीं रदी थी, इसका अप्तार घर्म, नीति, राजीनिति, रसज्ञता आदि सब क्षेत्रों में हो गया था। बल्कि साहित्य में स्रच्छंदता की भावता सामाजिक स्वच्छेइता के फलितल््प में उत्पन हुई थी। उस समय मनुष्य ने प्राचत तथा वर्तमान जीवन पर संदेह की हप्टि से 5िहावलोकन किया था। केवल एक ही वस्तु संदेह से परे मानों जाती थी। वह था मनुष्य । मनुष्य ने प्रत्येक वस्तु पर संदेह प्रकट किया पर मनुष्य पर नहीं किया । उसने अपने प्रति विश्वास बनाए रखा शोर कला का ( २०३ ) देवता ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को बना दिया। वहाँ जीवन के व्यावसायिक, राजनीतिक, शआ्रादि ज्षेत्रों में वंबक्तिक स्वाधीरता की प्रतिद्ठा हो गई थी। इसके साथ ही लोगों ने विद्यार णरंभ कर दिया कि स्वाबीनता् का प्रपोग सदाचार के ज्लेत्र में किया जाए। गराइवेत ने निःसतय भाव से बोडदित फेड्या कि मनुष्प स््रयं सदाचारी प्रार्गी है। यदि सब कनूत झऔर निवन रहू कर दिए जाएँ तो मनुष्य की बुद्धि और चरित्र में अभूतपूर्व उन्त ते होगी । शेली ने इन्हीं भागों को काब्यवद्ध कर दिया था। इस प्रकार राजनीतिक, सामाजिक स्वतंत्रता के भावों ने बला तथा वीते के क्षेत्रों में जो खच्छुइता का प्रसार किया उससे 'रोमांथ्कि! साहित्य की सृष्टि हुई ;/ ४-- कला सिकल' अथवा शा य मार्ग पकतापिकल का प्रथ है स्वश्वेष्ठ, अद्विवोय, गंनीरतस, तथा अप्रतिम * जो साहित्य अपनी महत्ता, हह्चनता और गोरव के संशहारर के श्रन्य सा हेस्यों को पीछे छोड़ देता है और अपना एक पृथक श्रेणो--- क्लास! बनः लेना है वह 'क्लासिन्ल' है! मानव का स्वभाव है वर्तमान की कठुता से अतीत की प्रिय भूम को झोर घुड़का देखना, उसकी हराहुना करता। उसका कारण वर्तमान थ ऊब जाना होता है। प्रतीतदशों मनुण के किये ब्रतीत हो आदर्ण दन जाता है यहों कवासिकज! का मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि है। इगलेड के कवियों के मामते शएवी शोर १६वीं शलग्ब्दी हें कविता को हॉच का मानदंड प्री और लैटित का साहित्य था। श्रत: रोमन और ग्रीक की श्रेष्ठ रच्नाग्रों को 'क्लासिकः कहा जाता था। साथ ही उत्त ढाँचे पर बनी प्रन्य रचनाएँ भी 'क्लासिक्रः कहलाती थीं। सन् १६६० से लेकर सन् १७९८ तक इगलंड में जो साहित्यधारा प्रवाहित हुई उसझा संचालन करने- वाले होमर, विरीजल तथा होरेस थे। इन सब के भी तियंता थे आदार्य श्रस्त्ु॥ इनका अनुकरण करना हो साहित्य की श्रेष्ठता समझा जाती थी। इस प्रवृत्ति का नाम 'क्मझाथिकल! था। अ्रस्तू से पहले काव्ययमीकज्षा का कोई व्यवस्थित रूप नहीं था; निंदा या प्रशंशा की न॒ तो कोई सीमा थी न उसका कोई मानदंड था। वयक्तिक रच ही उसका आधार थी। भारतीय साहित्य की समीक्षा के इतिह'स में भी ८2 54 १--श्री हजारीप्रसाद द्वविदी--“रोमांटिक साहित्य शास्त्र”! की भूमिका । ( २०४ ) इस प्रकार की प्रवृत्ति रह चुक्नी है। सुर सुर ततसी मंसी” तत्व तत्व सरा ही' आदि हिंदी की सक्ति समीक्षाएं इसी ढंग से चन्नी आती हैं। अरस्तु ने अपने पूर्व के तज अपने समश के समस्त साहित्य का समृूद्वात्मक दृष्टि से ग्रध्ययत किया और पा चनाया कि साहित्य का कौत सा गुण सजसे ब्रविक प्रभावित करता है। उप्री से यह स्पम्ठ हो गया कि रसिक् लोग क्यों किसी कृति की निंदा अ्रबता उरशंसा किया करते हैं। उसने वियुल सादित्राशि में से कुछ ऐसे सत्र चुऐे जो आलोचकों के लिये तो भ्रालोचना के मानदंड बने आर कवियों के लिये साइल्यसुद्धन के भादश्श | श्ररस्तु से पहले झ्ालोचना वेसकेल का ऊँट था ओर कला मनमानी उच्छखलता थी। अरखस्तू ने छिद्धांशों का प्रतेपादद किया है वे ही क्लासिकल साहित्य को देशेजताएं हैं | वे शिद्धांत विम्तलेखित हैं । एरस्तु का पहला सिल्वाँत है अनेकत्व में एकल की स्थापना । संवार विवि:तान्रों झा भंशर है! एक जाति की ही एक वस्तु दपरे से भिन्न होती है । इसी प्रकार कलाइलियाँ भी विभिन्न होती हैं / पर इस विविषता में एकता भी हृष्टिगोचर होती है। मनुष्य की लंबो नाक, चपठा मुँह, गोल सिर, मटी जाँचें और पतली टॉँगे सब मिलकर जीवन धारण का काय कर्ती हैं। प्रयोजन सबका एक है। यह प्रयोजन ही एकता है जो विविधताञं को एक सूत्र में बाँध कर समान्वेत कर देती है। इसके अभाव में मानव शरीर ग्रसंबद्ध शोर विश्वुंखन हो जाए। इसी झ्राधार पर कविता की श्रेष्ठता पहचानने के लिप यह देखशा चाहिए कि रण्ना का कोई सुर्य उद्देश्य है या नहीं | यदि कोई प्रयोजन है हो फ़िर देखना होगा कि रचना के विविध भाग कहाँ तक इस उृश्य की विद्धि में सहुयक हैं। इसका सास 'अनुरूपतए है। इसी से परस्परिक संगठत, समत्वय श्रा द गुण अ्राते हैं। रचता का पढ़ लेने पर ऐसा संस्कार मन में जम जाता चाहिए कि उसके प्रंग प्रत्यंग विस्तारपुर्वक उन्हीं वादों की दिखला रहे हैं; जो जो उद्देश्य के अंतराल में अ्ंतरड्ित थीं | इस प्रदाजनप्रतश॒त' के द्वारा रबवा में एच ओर तो सार्यकता और सोदश्रता झाती है दूसरी शोर उसके भ्ंगों की निजरो विविधनाएँ समस्वित होकर रचता का शरीरसौष्टवब, संबंदन श्रोर श्रनुरूपता उत्पन्न कर देती है । उदाहरण के लिये तुन्नती की रामभ्ति उनकी रजनाप्रों को ऐवा ही प्रयोजनीय एकता है । ( २०५ ) इस अनेकत्व में एकत्व के सिद्धांत के भ्राधार पर ही अ्रंग्रेजी साहित्य तीन एकताओं का उपनियम बना है । इसका नाटकों में प्र्थ होता है-- १--कथावस्तु की श्रवधि अधिक लंबी न हो | २--घटनाएँ विभिन्न स्थानों पर घटित न हों । ३--वातावरण की एकता विद्यमाव हो। जैसे रचदा का वातावरण भ्रादि गंभीर है तो उसमें हल्कापन लाने के लिये मस्खरापद आदि के भाव व झाने चाहिए। इस तरह “उक्त्वः कलासिकल काज्य का प्राण है झिसकी रक्षः उपयु क्त संक््लनत्रय से होती है। इसके अ्रदिरिक्त नीचे दिए रए कुछ नियम ओर धाटवाय इनन जाते है । १--गचना हैं जो कहा लय बह घोड़ शब्दी है २--धुमा फिरा कर बात न कई जाए | ३--पुनरावृत्ति छे प्रदत्त वे हो : ४--अलंक्ारों का व्यर्थ व्यर न बढ़ावा जाए। ५--कथा वस्तु लीवची सादी हो ! वेसे ये नियम सभी को स्वीकार्य होंगे, पर इसका अत्यविक अंबानकरणए कवि की मौलिकता के लिये अवकाश नहों रहुऋ देह | कलाइटि निष्प्ररण हः जाती है। वबलासिकल' प्रवृत्ति के साहित्यिक भावपक्ष श्रोर वाह्याकार पक्ष को प्रथक- पृथक समभाते हैं। श्रोर वाह्याकार के सँवारने सजाने पर पर्याप्त बल देते हैं। अलंकार, छंद श्रादि का संयोजन बह्याकार के रूप में ही गब्रातः है| इंगलंड के १८ वीं शताब्दी के कवियों की यही प्रवृत्ति थी | ५-... हृष्टिकोश-- वास्तव में 'क्लासिकल” श्रोर रोमांटिक प्रवृत्तियाँ केवल समय विशेष के कारण ही नहीं उत्पन्न हो जातीं। मनुष्यों के मानसिक्त संघटन भी उस्नमें हेतु का कार्य करते हैं जो प्रत्येक समय प्रत्येक देश में संभव हैं। जीवन के प्रति दो प्रकार का दृष्टिकोण मनुष्यों का होता है--वजश्ञानिक और भावुरूता ( २०४ ) इस प्रकार की प्रवृत्ति रह चुक्नी है। सुर सुर तुतनसों मसी! तत्व तत्व सू रा ही ग्रादि हिंदी की सक्ति समीक्षाएँ इसी ढंग से चन्नी श्रात्री हैं। प्ररस्तु ते अपने पर्व के तथा अपने सनय के समस्त साहित्य का समूहात्मक दृष्टि से अध्ययत किया और पता चनाया कि साहित्य का कौन सा गुण सजसें श्रधिक प्रभावित करता है। उप्ती से यह स्पष्ट हो गया कि रसिक लोग क्यों कियी कृति की विदा अबना झशंसाः किया करते हैं। उसने वियुल सबह्रित्यराशि में से कुछ ऐसे सन्न चुएऐ जो आलोचकों के लिये तो झ्ालोचना के मानदंड जने और कवेयों के लिये साहित्यतटन के आादशश | श्ररस्तू से पहले आलोचना नकेल का ऊँट था और कला मनमानी उच्छखजता थी। अरस्तू ने जित थिद्धांतों का प्रतिपादद किया ह वे ही क्लासिकल साहित्य की उेशेजनाएं हैं | वे घिद्धांत निम्नालखित हैं । प्रस्तु का पहला डरिल्वांठ है अनेकत्व में एकल्व की स्थापना | संवार विविदताओं का भइहर है' एक जाति की ही एक वस्तु दसरे से भित्र होती है | इ प्रक्कार द् दया! भी विभिन्न होती हें ' पर इस विविधया में एकता भी हृष्टिगोबर होती है। मनुष्य को लंबों नाक, चपदा मुँह, गोल सिर, मोटी जाँचें और पतली ठाँगें सब मिलकर जीवन धारण का काय करती हैं। प्रयोजन सबका एक है। यह प्रयोजन हो एकता है जो विविधतानों को एक रु में बाँव कर समसल्वत कर देती है । इसके अपमाव में मातव शरीर ग्रसंबद्ध और विश्यृंखन हो जाए। इसी आधार पर कविता की श्रेष्ठता पहचानने के लिये यह देखदशा चाहिए कि राण्ना का कोई सुझ्य उद्देश्य है या नहीं । यदि कोई प्रयोजन है तो फिर देखना होगा क्लि रचना के विविध भाग कहाँ तक इस उद्देश्य की सिद्धि में सह|यक्र हैं। इसका ताम अनुरूपता है। इसी से पारस्परिक संगठत, समस्वय श्राद गुण श्रात्ते हैं। रचता का पढ़ लेने पर ऐसा संस्खर मन में जम जावा चाहिए कि उसके प्रंग प्रत्यंग विस्तवारपुृवक उन्हों वादों को दिखला रहे हैं; जो जो उद्देश्य के अंतराल में अंडरहित थीं | थे प्रयेजनप्रबशुता के द्वारा रबदा में एस ओर तो सार्यक्रत। और सोइेश्यता आती हैं दूपरी ओर उसके भ्ंगों की निजो विविधताएँ समन्वित होकर रचना का शरीरसौष्टब, संब्ंटन श्रोर श्रनुरूपता उत्पन्न कर देती है । उदाहरण के लिये तुन्नती को राममक्ति उनकी रबनाम्रों की ऐवा ही - प्रयोजनीय एकता है । ( २०५ ) इस अनेकत्व में एकत्व के सिद्धांत के शभ्राधार पर ही अ्रंग्रेजी साहित्य का तीन एकताश्नों का उपनियम बना है | इसका नाठकों में श्र्थ होता है-- १--कथावस्तु की अवधि श्रथिक लंबी न हो | २--चधटताएँ विभिन्न स्थानों पर घटित न हों । ३--वातावरण की एकता विद्यमाव हो। जेसे रचदा का वातावररा श्रादि गंभीर है वो उसमें हल्कापन लाने के लिये मस्खरापव आदि के भाव व थाने चाहिए। इस तरह 'एकत्व” क्लासिकल काज्य का प्राए है दिसकी रक्षा: उपयु क्त 4 पक बी संकलनन्रय से होती है है! र नशा पशु सराकाक ओलकीक शक ज्नादा जज, हिल, कल कथित 5 पा इसके अ्दिरिक्त नीचे दिए अए कुछ नियम ओर शाशित र सब जाते है । स्क १--रचना में जो कहा जय बह घोड़े शब्द हें लज॒ः जाए | २--घुमा किरा कर बात न कई जाए | ३--पनरावृत्ति जी प्रदृत्त न हो , ४--अलंकारों का व्यर्थ धार न बढ़ायः जाए। ५--कंथावस्तु सीबी सदी हो | वेसे ये नियम सभी को स्वीकार्य होंगे, पर इनका अत्यविक अंवासुकरर कवि की मौलिकता के लिये अवकाश नहों रह देहा | कलाकछृध्ि निष्प्रप्ण हे जाती है । बलासिकल प्रवृत्ति के साहित्यिक भावपक्ष ओर वाह्याकार पक्ष को पृथक्- पृथक समभाते हैं। श्रोर वाह्याकार के संवारने सजाने पर पर्याप्त बल देते हैं। अलंकार, छंद श्रादि का संयोजन बह्याकार के रूप में ही भ्ाता है । इंगलंड के १८ वीं शताब्दी के कवियों की यही प्रवृत्ति थी भू. टृष्टिकोश-- वास्तव में 'बलासिकल” शौर रोमांटिक प्रवृत्तियाँ केवल समय विशेष के कारण ही नहीं उत्पन्त हो जातीं। मनुष्यों के मानसिक संघटन भी उन्नमें हेतु का कार्य करते हैं जो प्रत्येक समय प्रत्येक देश में संभव हैं। जीवन के प्रति दो प्रकार का दृष्टिकोण मनुष्यों का होता है--वेज्ञानिक श्रौर भावुहता ( २०६ ) पूर्ण । वैज्ञानिक दृष्टि से हम वस्तु के वाद्य अ्रंग प्रत्यंगों को देखते हैं। उसका विश्लेषण करते हैं। इसी दृष्टि से जीवन के श्रन्य कार्यकनाप देखे जाते हैं । इसके फरस्वरूप कुछ साधारण सिद्धांत बना लिए जाते हैं। मनुष्य और प्रक्ृत के संबंध के विषय में भी यही नियम लागू होते हैं। इन नियमित धारणाशओ्ं का जब कविता में प्रयोग होता है तो वह 'कक््लासिकल' कहलाती है । इस स्थिति में प्रतिपाद्य नियपानुसार सबके लिये एक सा और साधारण होता है । इसलिये उसमें कोई चमत्कार विशेष नहीं रहता । फलत: कलाकार वस्तु के प्रतिपादन में चमत्कार का योग फरता है। उसका ध्यातव यह रहता है कि सर्वविदित सत्य को ही ऐसे ढंग से प्रकाशित किया जाए कि वह नवीन सा प्रत्तीत हो । यही वाह्याक्नार को सँवार-सज्जा है। इस दृष्टिकोण में हत्व श्रभिव्यंग्य का नहीं होता अ्रभिव्यक्ति का होता है। कविता कवि के पसीने का फल होती है, हृदय रक्त से लिखो हुई नहीं । दूसरी दृष्टि भावुकता की होती है । भावुक व्यक्ति जब प्रकृति के रूप व्यापारों को देखता हैं तो उसके हृदबपटल को तह को तह खुलने लगती है । नए वए सात्र जागते लगते हैं। वह उन भावों में ही विभोर हो जाता है। उतस्ते नियम उपनिभ्रमों का ध्यान नहीं रहता । भावों के उदगार श्रपने अनुकुल भाषा का निर्माण कर लेते हैं, इपलिये इन लोगों की भाषा भी कुछ नवोनतायुक्त होती है। यही स्वत:प्रसृत भावरों का प्रवाह बने अनुकुच शब्दजाल में अभिव्यक्त होकर “रोमांटिक! काव्य कहलाता है। ६-लक्षण ( रोमांटिक मार्ग | रोमांटिक काव्यप्रवृत्ति के अनेकों लक्षण ग्राचार्यों द्वारा दिए गए हैं। ऐसी' स्थिति में यह कहना कि कौन लक्षण वैज्ञानिक है, साधारण विद्यार्थों के लिये श्रत्यंत कठिन है । १--कुंछ विद्वाव इसका परित्रय निषेत्रात्मक लक्षणों से देते हैं। उनके अनुसार रोमांटिक भ्रसावारण का वाचक है।इस मार्ग के कवि का अमिलाष लोक साधारण विषयों से हटकर ऐसे विषयों पर जाता है जिसमें झावेगपूर्णा प्रयत्न हों ओर भ्रस्पष्ट इच्छाश्रों को उत्पन्त करने की क्षमता हो । [ २०७३ ) २--दूसरे विद्वन रोगमांटिक' शक्द का अ्रथ संसाव्य का विर असंभ व्य मानते हैं। इस मत में संभाव्य के विपरीत ब्राशास्य कल्पनाकलित विपयों का कला में अ्रगगोकार करना 'रोमांटिक! प्रवृत्ति हलाता है। ३-अभव्यक्ति के क्षेत्र में रोमांटिक” वाचक का वदिरोबी माना जाता है । इसमें सांकतिकता अधक होता है। प्रतीकों का प्रयोग होता है जिनका श्रथ केवल उन्हीं को स्ष्ट होता हैं जो अपने आध्या त्मक्त उच्चेस्त्व के कारण अंतहित तत्व को भी देख लेते हैं । इस प्रकार 'रोमांटिक' प्रवृत्ति में रहत्यवाद का भी कुछ अंश झा जाता है | ४--यहू रूपप्रधानता का भा पिरोर्बी हैं। क्लासिकल मार्ग का कलाकार रूप की सजादट प्र विशेष ध्यतत देता हैं। रोमांटिक माग का कलाकार व्यक्तिगत अनुभूतियों की ययार्थ श्रमिव्याक्त पर । ५--श्लेगल के अनुसार 'क्जा[सकला! और “रोमांटिक' प्रवृत्तयों में यह अंतर है कि पहले प्रकार की कृति अपने में एग होती है। उसका उतना ही तात्पर्य होता है कि जितना उन्चके शब्द स्पष्ट करते हैँं। पर रोमाटिक कविताओं में एक प्रकार का रहंस्थ |वेद्यदान रहता है। एक छाबा रहती हैं जो तात्पय को एणशतया प्रकट रे नहीं हादे देती श्रीर हसको उच्चता तथा विस्तार को अ्धिकाधिक बढ़ातो है , ६--क्लामिकल' प्रवत्ति के ऋलाकार को प्रशंसा इस बात में है कि वह ज्ञेव पदार्थों का अपनी अतिभा से याश्यथ्श ग्रहण 5रे और उसकी पग्रभविष्णु अनिव्य-क्त कर सके । पर रोपझां।टक प्रवत्ति के कलाकार की श्रष्व्ता यह है कि उप्तका आत्मा स्फुरित होकर अपना ऐसी अभिव्यक्ति दे कि यह जादू का सा कार्य करे। ७--क्लासिकल! काव्य का कवि दस्तु के पूर्ण सौदय में परिचय का प्रिवर्धत करता है। वस्तु की उपस्थापता ऐसे प्रकार से को जाती है कि वह हमें अत्यंत परिचित लगतो है । बार बार उसे सुनते या देखते इसलिये है कि वह बहुत अच्छे प्रकार से कही गई रोमांटिक काव्य में सौंदर्य के साथ श्रजनबीपन और बढ़ा दिया जाता है | ७--स्काँठ जेम्प्र ने अपनी पुस्तक 'सिकिंग आफ लिटरेचर में दोनों मार्गों का तुलनात्मक अध्ययन कर दोनों का अंतर ब्यक्त किया है। उनके ( २०५ ) विचार से वलासिकल प्रवृत्ति का पहला भेदक तत्व है वाह्यरूप की प्रमुखता । इसी के साथ साथ अ्वयवों की परस्पर संगति, संतुलन, क्रम, सामंजस्य श्रौर संगम आदि गुणु और बढ़ जाते हैं। रोमांथिक प्रवत्ति में रूप के पीछे छिपे आत्मा का विशेष चिंतन होता है| इससे कवि अश्ररूपवादी तो नहीं बनता पर ऐसी स्वतंत्रता का उपभोग अवश्य करता है जिससे वह झपने श्रंत:करण के भाव कभी किसी माध्यम से और कभी किसी से व्यक्त कर सके | पहले का प्रभाव प्रथा के अ्रनवायियों पर विशेष होता हैं । दसरे का न्रीननानद वियों पर । वबासिकल काव्य के गुणु-दोषों का विवेवत करते समय जिन गुणों पर विद्ेष ध्यान दिया जाता है वे योग्यता, ओऔचिती, परिमाण, संयम, परिवर्तत, प्रम/ण, अनुभव, और सुन्दरता हैं। दूसरे पक्ष के ग्रावश्यक गुण हैं भाषोें को उन्न-रदा; शक्ति, बेचैनी, ग्राध्यात्मिकता, चाव, विज्ञीम, स्वतंत्रता प्रयोगवाद और उत्तेजना आदि | महा मर्दार्ध: आर ऋण ने इस समस्या पर गहराई और स्व्॑त्नता से विचार क्रिया है। उसी घारणा है लि शोनॉटिक प्रव॒त्ति कला की कोई घारा विद्यय नहां धातु एक तथ्य है जो वस्त को चरित्रगत विशेषताओं से संबद् रहना है। क्यादिकल प्रवृत्ति में वस्तु की चरित्नगत विशेषताओं के साथ अन्य गुणों का भी समन्वय किया छाता है। केवल उसी का चित्रण नहीं होता । 'जस हांते को रोमांटिक कहा जाता है उसमें एक ही तद्त चरित्रगत विशेषता, प्रमुख बन जाता है।इस तरह इन दोनों प्रवृत्तियों का अंतर केपल एक तत्व से अन्य गुणों का मेल करते और न करने में है । उनके श्रनुसार दोनों धाराश्नों में यह कोई बड़ा मौलिक श्रंतर नहीं है । रोमांटिक प्रवृत्ति का वास्तविक विरोध तो यथाथ्थंवाद से होता है वास्तव में स्वच्छंइतावाद (रोमांटिक प्रदत्ति) कलाकार की एक विशेष प्रकार की भानसिक स्थिति है। इसका न काल से संबंध है न देश से । हों राजनीतिक प्रिवर्तनों का कलाकार प्र अवश्य प्रभाव पड़ता है। अपरिवर्तन की श्रति से ऊबे हुए कुछ उत्साही लोग क्रोति मचाते हैं। इसी का साहित्यिक नाम स्वच्छद धारा है। स्वच्छंदता की अ्रति उच्खचाखलता में परिणत गेती है तो उचप्चकी सीमाएँ बाँधता आ्रावश्यक हो जाता है। यही सीमा का धन श्रोर उनका अनुवतन शास्त्रीय ( वला|ंसकल ) मांग है। इस पर मनोदंशाश्वक दृष्टि से इस तरह भी विचार किया जाता है । कुछ व्यक्तियों की वृत्ति वहिम्रुखी होती है और कुछ की अश्रतमु खी। बहि- ( २०६ ) मुंखी वृत्तिवालों की मान्यता है कि सत्य का परिचय न तो केवल अंत:करण से होता है और न केवल इंद्रियों से | अंत:करण केवल अनुभव का ज्ञान कराता है । इंद्रियाँ विषय का | सत्य इन दोनों से पृथकु और दोनों का समन्वित हूप है | इसलिए सत्य का ज्ञान होने के लिए दोनों की ही आवश्यकता पड़ती है । यह समन्वय भावना शास्त्रीय मार्ग (क्लासिकल) का मूल है। चितन का दूमरा मार्ग यह है कि ईद्वियों की पहुँच स्थल तक ही है ॥ सत्य का स्वरूप श्रपेक्ञाकृत सूक्ष्म होता है| इमलिये अंत:क्रण को अनुमति इंद्वियजन्य ज्ञान से प्रबल होती है। साथ ही जीवन का आदर्शस्व॒रूप उसके यथार्थ स्वरूप से अ्रविक सत्य होता है, क्योंकि उसमें अंतकरणा जन्प अनुभूति का भाग अजित होएः है। इस प्रक्कर संसार का अनुभव करनेवाले व्यक्ति की शअपेक्षा अपना अनुभव करनेवाला व्यक्ति अभ्रत्ेक सच्चा औौर प्रामाणिक है। शकुंतला नाटक में शकुंतला की ग्राह्मता पर दुष्यत्त को यह उक्ति कि, “बह कन्या अवश्य श्चत्रियों के ग्रहण योग्य है क्योंकि मरा हृदय इस पर आसक्त हुआ्ना है। संदिग्ब स्थलों पर सत्पुष्षों के अंतःकरण ही प्रमाण होते हैं ।, हृदय को विश्वसनीयत्र का द्योतव करती है और इससे कालिदास की भी काव्यप्रवत्ति के स्वछंद होने का अनुमान कराती है । जीवन का सच्चा स्वछर आदर्श है ययार्थ नहीं। यह विचारमरणि स्वच्छेद घारा के कलाकारों को है । डा० हजारी प्रसाद हिवेदी ने डा> देवराज द्वारा लिखे गए रोमांटिक साहित्यशास्त्र को भूमिका में रोमांटिक प्रवृत्ति का परिचय देते हुए कहा है कि रोमाँटिक साहित्य के जन्म का कारण जीवन के आ्रावेगमय पहलू पर विशेष बल देना है| यह कल्पनाप्रव॒ण अंतहंद्टि द्वारा चालित किवा प्रेरित होता है और स्वयं भी इस प्रकार की अंतर्ष्टि को चालित और प्रेरित करता है। उनके शब्दों में “रोमांटिक साहित्य को वास्तविक उत्सभूमि वह मानसिक गठन है जिसमें कल्पना के अ्विरल प्रवाह से घनसंशिल्॒ठट निविड ग्रावेग की प्रधानता होती हैं। इस प्रकार कल्पना का श्रविरल प्रमाण और निविड आवेग ये दो निरंतर घनीभूत मानसिक वुृत्तियाँ ही इस व्यक्तित्व- प्रधान साहित्य की प्रधान जननी हैं । १--अ्रसंशय क्षृत्रपरिग्रहक्षणा यदार्यमस्याममिलाषि मे सन:। सतां हि पदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः करण प्रवृत्तव: । झ्र० शा० प्रंक १। १५ ( २१० ) भारतीय साहित्य में स्वच्छद धारा यह पहले कह! जा चुका है कि हिंदी या संस्कृत के साहित्य में थोड़ी बहुत स््रच्छंदता की जो प्रवृत्ति मिलनी है उसपर न तो श्रंगरेजी साहित्य की इस प्रवृत्ति का प्रभाव है और तन यह उससे बब गुणों में मिलती है। वंधन- मुक्तता का साम्य दोनों में समान हैं। बंधन दोनों के भिन्न भिवन्न प्रकार की अपनी परिस्थितियों के फलस्वरूप हैं। बधबनविभोक होने के कारण इधर भी ऋछ ऐसी साहित्यिक विशेषताप्रों का श्रवतार हो गया है जो उधर भी मिलतो है। अ्रत्र संस्क्ृतादि के प्राचीन साहित्य पर विहंग्म दृष्टि डालकर इस प्रबुत्ति का पता करने का प्रयत्न किया जाता है १-वदिक साहित्य प्रेम जीवन की सहज अनुभूति है और स्वच्छंदना प्रेम की सहज प्रकृति | उसका यह हरूप किसी भी वाइन्मब के प्रेमसाहित्य में मिल सकता है । भारतीय वाहमय में प्रारंभ से ही इस के दर्नन होते हैं। ऋषि पुत्र श्वावाश्व तथा रथवीतिकत्या की कथा और विमद तथः शुध्न्यु को कया स्वच्छंद प्रेम की है ,! यम यमी का तंबाद ऋग्वेद काल के उच्छेन मांस्तल प्रेम छो प्रसिद्ध कथा है। शतपथ ब्राह्मण में पुदरवः-उर्वगी को कथा भी स्वच्छद प्रेम की है। इसी को कालिदास ने अपने प्रतिद्ध ताठक विक्रमोबंशीय/ का कथानक्क बनाया है। पुराणों में बृहस्पति की पतली तारा का चंद्रवा के साथ प्रणव- व्यवहार स्त्रच्छंइ है। महाभारत में भीम और हिडम्बा को कथा एवं भ्रजुन भर सुभद्रा की कथा में स्वच्छंद प्रेम ही प्रतीत होता है। ऊषा और अनि- रुद्ध की कथा वेसी ही है। रुक्मिणी परिणय की कथा को आभालम ने 'स्यामसनेही' में स्वच्छंद शैली से वर्शित ही किया है । अर ३३३७७ ए्शनननानशनणणआआआआथआखआख ख ख ख ख आशा बम १-श्यावाश्व की कथा--श्यावाश्व निर्धव पुरोहितपुत्र था। उसका राजा रथवीति की कन्या से प्रेम हो गया । रथवीति झऔर उसकी पत्नी से विवाह के लिये उसने कन्या मांगी तो रानी ने यह कह कर निषेध कर दिया कि श्यावाश्व न कवि है न घनवान | उसे कन्या तहीं दी जा सकती । श्यावाश्य का भावुक हृदय इससे बड़ा श्राहत हुश्ना । वह रथवी तिकन्या की प्रणायगीतियाँ वना बताकर गाने लगा। कोई दूप्री राजकुुमारों शशीयसी पुरमिल्हृतनय से प्रेम करती थी । ( २११ ) २--संस्क्ृत साहिय लौकिक संस्कृत के काव्यकाल से पूर्व ही स्पृतियों का प्रभाव समाज पर बहुत बढ़ गया था। श्रतः काव्यों में स्वच्छंद प्रेम के यथार्थरूप के दर्शन तो नहीं होते । कालिदास जैसे स्वच्छंद प्रेमी कत्रि भो शकुतला को चक्वृत्र परिग्रहज्ञम! बतना आवश्यक समझते हैं। उनके झ्ादर्श राजा रघुके प्रजाजन मनु के मार्ग का रेखा मात्र सी उल्लंबन नहों करते थे. उनके नायक एवं नायिकाएँ वर्णाश्रप मर्यादा में झ्राबद्ध हैं। ऐवो स्थिति में स्व्रच्छंद प्रेम का दर्शन मयदिाग्रों के आ्रावरण में ही संभव था। वही उनके काव्य उसने श्पावाश्व को विरहपीड़ित जानकर अपने विरहप॑देश का द्त बताया ! इसने यह कार्य स्वीकार कर लिग्रा और स्वातुमत विरहयोड़ा के आधार प्र शशोीयसोी की विरह॒वेदना पुरुनिल्दततय को सुनाई तो वह विवा- हार्थ श्रतिश्रुत हो गया। विवाहोपरांत दसम्ततियों ने श्वाबाश्व को प्रदुर्यन दिया | श्रव वह यक्षु को भांति अपनी विरहकथा सबसे कहने लगा--'रात्रि मेरा संदेश दर्भतवया के समीप पहुंचा | देवि, तू मेरी गिरा का रथ बनकर जा। जम्र रथवीति श्रग्त में जाहुत डालता हो तत्र तू उससे मेरा संदेश क्ह कि तेरी सुताः के थति मेरा मोह कप नहीं हुआ, भ्राज भी जाग्रत है । रथवीति ने इस प्ररायपुकार का सुनकर अ्रपती कन्या के जिवाह को अनुमति दे दो। राजकन्या का उसके साथ विवाह हो गया । विमद और शुघ्त्यु की कथा शुध्त्यु पुरुमिल्ह् की दुहिता थी। विमद ब्राह्मण ऋषि था। दोनों एक दुसरे को प्रेम करते थे। पिता से विवाह की ग्नुमति नहीं मिली तो दोनों किसी अज्ञात स्थान को भाग गए और प्राय का निर्वाह किया | डा० भगवतशरण उपाध्याय : ऋखेद में ऋषियों को प्रणय गाथाएँ, साप्ताहिक हिंदुस्तान, वर्ष ४, अंक १६, १--रेखामात्रमपि क्षुरणादामनोव॑र्त्मन: सरम् । न व्यतीयुः प्रजास्तत्य नियन्तुन मिवृत्तय: ।। रघवंश श्यसर्ग, ( २१२ ) में मिलता है। इनके तीत नाटक “्रभिन्ञान शाकुस्तलम्, (“विक्रमोवशीयम तथा 'मालविकार्निमित्रम/ तथा 'कुमारसंभव' और मेघदूत' में कवि की अंत: प्रवृत्ति प्रेम के स्वच्छंद रूप की ही है। कालिदास के सब पात्र, चाहे वे देव हों, यक्ष हों, चाहे मानव, मानवीय प्रेमानृभतियों के श्राश्रय हैं, । प्रज इंदुमती ( रघुवंश ), शिवपावंती ( कमारसंभव ) यक्ष और यक्ष की पत्नी ( मेघदूत ) इसके निदर्शन हैं। पौराशिक काल के देबत्व पर मानवत्व की विजय इनकी काव्यशली की स्वच्छंद प्रवृति का ही द्योतक है। शकुतला नाठक में प्रेम को श्रात्माश्रों का जन्म-जन्मांतर का अ्रट्ूट बंधन बताकर सामाजिक मभर्यादाश्रों पर उसकी विजय दिखाई है। प्रशुय के प्रसार का द्त्र श्रंत:पुर का सीमित वातावरण न होकर जंगलों की खुली प्रकृति है । कालिदास की अभिव्यंजवाशली भी सहज, भावप्रधान है। कृत्रिम चमत्वारप्रधान नहीं। दासगुप्ता उन्हें स्वच्छंद प्रेम का विश्वासी मानते है । इसी प्रकार नाटककार भास अभिव्यक्ति और तन दोनो में रीतिमुक्त हैं। शुद्रक राज का मृच्छकटिक! नाटक स्वछंदधारा फी श्रेष्ठ रचना है । गणिका और ब्राह्मण का प्रशंसनीय प्रेम, समाज के निम्न वर्ग को गुणी दिखाना, शवेलिक की साहसिकता ग्रादि उसी के तत्व हैं। बाद में स्मृतिकारों के बंधव भी ढीले पड़ गए थे। उ्पुक्त प्रेभ को मार्गतरों से श्रौचिती मिल गईं थी। कामसूत्र के प्रनुसार कन्याओ्रों एबं गणिकाश्रों श्रादि के साथ उन्मरुक्त प्रेम करता न निषिद्ध हो था न प्राज्षप्त प्रसायव्यपार में इक्षचर्य व्रत भंग होने पर भी स्त्रियों की शुद्धि की साख २--भावस्थिराणि जनमान्तर सौहृदानि । अ्रभिज्ञ नशाकुन्तलम्, श्रंक ७ २--२६९०४ए४९ 38 6 928 व॥ इ८726 8४707 ० 7€6 0098, ॥08- 858प/७ बाद 76-20 सांड0ए एणी डिबाडंत वाधिशॉपाठ, 27286 ३१. ३--भ्रवरवर्गासु श्रनिव॑सितासु च वेश्यासु पुनभूषु च न शिष्ट: नप्रतिविद्ध: सुखार्थत्वात् काम सूत्र १, ५, २५ ( २१३ ) याज्ञवल्क्य ने दी है,' गांवव विवाह स्रच्छंद प्रेम को ही सामाजिक मान्यता है। इसके फनस्वरूप संस्कृत साहित में दो प्रकार से सच्छंद प्रेम का प्रयोग हुआ है। मर्यादाप्रों के आवरण में और स्पष्ट उप से अवाबत । उपर्युक्त वर्णत पहले प्रकार का है। दूमरे प्रकार में विल््शण की चौर पंचाशिर्! एवं दंडो का 'दशकुमारचरित'” श्रादि रचनाएँ श्राती हैं। विल्हण शशिकत्ना नामक राजकन्या के अ्रध्यापक थे। उसी से प्रेम करने लगे थे, प्रचछन्न प्रणाय प्रकट हुप्ना तो राजा ने प्राणदंड की प्रज्ञा विल्हण को दी | वे बध्यस्वान पर ले जाए गए । बधिकों ने अ्रंतिम समय सें उनसे अपने अभीष्ट का स्मरण करने को कहा तो वे अपनी प्रेयसी के यौवनोचछुलितहूप, उत्तके साथ किए गए आमोद- प्रमोद, विलास-परिहास और काम्रकेलियों का श्लोकबद्ध स्तरण करे लगे | बधिक इतने प्रभावित हुए कि बध करने का समय व्यतीत हो गया, बंध न कर सके । राजा स्वयं वहाँ झा पहुँचा । वह भी प्रेमी कवि के सच्चे प्रेम से इतना प्रभावित हुश्रा कि सृत्यु के बदले उसने श्रपतती कन्या का पाणिग्रहण उससे कर दिया। उसके स्वानुभति के वर्णाव के ५० पत्चों का नाम ही चोर पंचाशिका? है। संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों ने इसे शुद्ध स्व॒च्ठंद प्रेम का काव्य माना है। दशकुमारचरित उसी स्वन्नाव का गद्य गल्प है| ३--जनपद भाषाग्रों का साहित्य -- संस्क्षत के झत्तिरिक्त जनपद भापापों ( विशेषरूप से गुजराती ) का बहुत बड़ा कथासाहित्य उत्तर वंद्विक काल से चला आया है। पैशाचों भाषा में लिखी बृहत्कथा इसी का भंडार थी। इसक्ला कुछ श्रंश “कथा सरित्- सागर! में है जितकी कथाएं प्रायः प्रेम के स्वच्छंद सहुज रूप की हैं। इनमें से अनेकों कथाएं संस्कृत के कदियों की उपजीव्य बनी हैं, भात ने उदयनवास- १--सोम: शौचंदवावासाम् गंधर्वाश्व शुर्भारिम् | पावक: सर्व मेध्यत्वम मैध्यावयोषितों छत: ॥ याज्ञवल्कप- स्मृति १, ३, ७१ २--कामी युवास्म रकला कुशलाचबाला देवायोत्तर घटिेत॑ घटितं वभूव | घिल्हुणा काव्य २७, काव्य माला १३, गु० १४८ सा कामणास्त्रविधिना किल कामक्रेलिलीलाविलासनिलय चकमे कवीशम वही २८ (पर ) दत्ता की कथा यहीं से ली थी। इस धारा में जैनियों की श्रपश्नंश-कथाएं झाती हैं, वे भी स्वच्छुंद प्रेम कथाएँ हैं। उतका प्रयोग धर्मपरक डुश्ना है ६ हरिभद्र की 'समराइच्रकहा' सिद्धि की 'उपमितिभव प्रपंचकथा” तथा धनपाल की “मविसयत्तकहा? प्रसिद्ध हैं। 'भविसयत्तकहा” में श्रेष्ठि पुक्र भविसयत्त तथा भविषाणुरुवा की प्रेम कथा है। प्रेमी साहसी है, प्रेमिका स्थिर प्रेम की उपासिका। 'समराइचकहा' में श्रनेकों कथाएँ स्वच्छंद रूप की हैं, ज॑ंसे सनत्कृमार श्रौर विलासवती के प्रेम की कथा । हरिभद्र में कहीं-कहीं बड़े मामिक प्रेम चित्रण हैं।* 'भविसयत्तकहा' के संपादक श्री पी० वी० गुने ने इन कथाझ्रों के विषय में कहा है कि ये मूलतः: घामिक नहीं हैं। मध्यम वर्ग के लोगों के स्वच्छ॑द प्रेम के आख्यान हैं जेसे कादंबरी राजपरिवार का आख्यात है।' इस जनपद साहित्य की धारा में ही मुक्तकों की एक दूसरी परंपरा है, जिसमें रीति मुक्त पद्धति पर लिखें गये स्वच्छंद प्रेम के सहज चित्र मिलते हैं ॥ हाल कवि की गाथा “सप्तशती इस परंपरा का दवी संग्रह है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य का प्रारंभ होने से पहले स्वच्छंद घारा की प्रवृत्ति तीन प्रकार की रचनाग्रों में उपलब्ध होती है-- १--सनत्कुमार को देखकर कामासक्त विलासवती का घर जाते समय का चित्र । प्रहकंचुक्ष्य समेता गरेहनाशआारटजद-देदि। नयनेहि श्रपेक्षंत पेच्छेती बलियतारेहि ॥ मंथर गइए विलयंत ह॒त्थसंरुद्ध मृहल मणि रसणा | मयण सरधाम मीयत्व ववभाषी गयाभवशाम् ॥। व्वह कंचुकी के साथ स्नेहभार से दबे हुए चंचलतारक नेत्रों से प्रिय को देखती हुई, हाथ से दीप्यमान मणि मेखला को समेट कर कामदेवों के बाणों से आहत सी कंपित गात्र धीरे-धीरे भवन को चली गई। 2-7 7४6 आदा।, (#676076, 20 96 दिए शागाएु 4/ छए८ 5टा०ए८ फिवा (6 ठप] ४079 कै88 70 सटाड्री०0पड टर्णपांगडहु >ैषे छथड8 077ए & ए90४87 46867व 07 #0772766 ० 5 क्रांतत[ा& 2855 (7६0 ८-« 897072375 |76 [पश्चं; 88 ६9९ ६0०2%्रं५77 45 ०0 2077६ (४६. 707०4 ए८४०० ६० मविसयत्त कद्दा 9०९८ 6. ( २१५ ) १--संस्कृत के प्राचीन काव्यों में । यह धारा आगे चलकर शास्त्र और समाज की मर्यादा के मरुस्थल में सूख गई | २--जनपद साहित्य की कथा धारा । ३--जनपद साहित्य के मुक्तक । ४- हिंदी साहित्य (क) वीर-गाथा काल' इसके बाद हिंदी साहित्य प्रारंभ होता है । यहाँ प्रारंभ में ही स्वच्छंद धारा की दो श्रेष्ठ रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। पहली 'ढोला मारूरा दहा! है और दूसरी मुलतान के श्रब्दुल रहमाव का 'संनेह रासय' (संदेशरसिक) पहले में ढोला मारवणी के प्रेम की मम व्यथाओ्रों का सहज सरल अभिव्यंजन है श्रौर दसरे में किसी विरहिणी का विरह संदेश है। दोनों रचनाओं में प्रेम की मामिक् संवेदताओ्ों की निश्वल सहज अभिव्यक्ति हैं। कवि काव्यशास्त्र या समाज के नियमों के बंधे हुए नहीं प्रतीत होते । (ख) भवितकाल भक्तिकाल में वैसे तो प्रमुखता प्रेम की है पर वह परमेश्तरोन्मुख है। इसलिए स्वच्छंद प्रेम के दर्शन इप्त काल में पत्वल्प हैं। डा|० हजारो प्रसाद द्विवेदी ने इस काल में प्रेमाख्वानकों के तीत प्रकार के प्रयोग अपने इतिद्दास में बतलाए हैं |! १--आपध्यात्मिक सिद्धांतों के प्रचार के लिये। २--ऐतिहासिक या श्रर्घ ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन चरित के लिये । ३--लौकिक प्रेम के विश्लेषण-व्याख्यान के लिये । तीसरे में काव्य को स्वच्छंद धारा के दर्शन होते हैं। आलम झौर रसखाव इस धारा के प्रमुख कवि हैं। प्रालम प्रबंध और सुक्तककार दोनो हैं। रसखानत मुक्तककार ही हैं। पहले की प्रबंध रचनाएँ 'माधवानल कामर्कदला' तथा 'स्थामसनेही” हैं। उन्हीं का 'सुदामा चरित्र! स्वच्छंद धारा में नहीं हिंदी साहित्य पृ० २६३ | ( २१६ ) श्राता। उनके मुक्तकों का संग्रह भालमकेलि' में है। इनके प्रबंधों पर न तो सूफियों का प्रभाव है न भक्तिसंप्रदाय का | प्रेष के लोकिक और शआ्रात्मा- नभत रूप की श्रक्त्रिम शेली से अ्रभ्चिव्यवित हुई है। मुक्तक रचनाञ्रों में कुछ पद्म रीति के ढरें के प्रतीत होते है, कुछ रीपति-प्॒त्रः पड से लिखे हुए। पहलों को कवि की प्रारंभिक रचना मानकर इस धारा की रचना से पृथक् कर देना होगा । उन्होने प्रेमरस के व्यक्तिगत अनुभव को काव्यबरद्ध किया है। शास्नादि की परंपरा का श्रतुसरण नहीं। शाचार्य रामचंद्र शुल्क का इनके विषय में विचार है कि “आलम रीतिबद्ध रचना करनेवाले नहीं ये। प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के शअ्रनतुसार कविता करते थे! रसबान की रचनाओं में भी भक्ति के सांप्रदायिक रूप के दर्शन नहीं होते। प्रेम की देवाश्रवित लौकिक अनुभूतियों का चित्रण है उसी प्रकार जसे कालिदास ने 'कुमारसंभव” में शिवपाज्रती के लौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति की है। गेय पदों की रचना न कर कवित्त सबयों में भावो- दगार प्रकट करने का श्रर्थ यही प्रतीत होता है कि गेय पद संत भक्तों की श्राध्यात्मिक रचनाएँ थे और कवित्त सबंये लौकिक अ्रनभत्ति की श्रभिव्यक्ति के साधन | श्री परशुराम चतुर्वेदी इनके विषय सें लिखते हैं कि “इन्होंने प्रमलकछणा भक्ति का सुदर परिचय दिया है ओर अ्रधिकतर व्यक्तिगत उद्यारों ह्वारा हो प्रकट करने की चेष्ठा की है।' इनका प्रेमीरूप भकतरूप की भ्रपेज्षा अधिक उज्वल और मारिक है। इसलिये इन्हें भक्तिधारा से पृथक स्वच्छद काव्यधारा में रक्खा जाता है ।* (१) जयशंकर प्रसाद और भारतीय साहित्य -- कविवर जयशंकर प्रसाद ते अपने बध्प्रारंभिक पाख्य काव्य! निबंध में भारतीय साहित्य को एक विशेष प्रकार की हृष्टि से देखा है श्रौर उसके अनुसार वेदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य में दो धाराप्रों का घात-प्रधात उन्हें श्रननत हुआ है। एक धारा है बौद्धिक दुपरी है रस प्रधान | प्रबंधकाव्यों को वे बौद्धिक साहित्य कहते हैं। इनमें रामायण, महाभारत श्रादि सब ग्रथ बौद्धिक साहित्य की श्रेणी में भाते हैँ। नाठ्च में १--हि० सा० इतिहास, परिवर्धित संस्करण, पृ० ३३० । २--हिंदी काव्यधारा में प्रमप्रवाह, पु० ६६। ३--दोनों कवियों का विस्तृत विवेचन अन्यन्न किया गया है। ( २११७ ) आमभ्यंतर की प्रधानता होती है और श्रव्य काव्य में वाद्य वर्शन की । वह बुदिधवाद से भ्रथिक संपर्क रखतेवाली वस्तु बनती है क्योंकि बाह्य वर्णन में दु:खानुभूति की व्यापकता होती है। नाठकों की सी रसात्मक प्रनुभति अथवा आनंद का साधारणीकरण प्रबच्चों में नहीं होता । प्रसादजी ने बोद्धिक साहित्य को कक््लासिकल श्रथवा शात्वीय कहा है और रसप्रधान को स्वच्छंद या रोमांटिक | उन्हीं के शब्दों में 'लौकिक संस्कृत का यह पौराणिक या आारभिक काल पूर्ण रूप से पश्चिम के क्लासिक का समकृद्ध था। भारत में इसके बहुत दिनों बाद छोटे छोटे महाकाव्यों की सृष्टि हुई। इसे हम तुलना की हष्टि से भारतीय साहित्य का रोमांटिक क्रल कह सकते हैं, जिसमें गुप्त और शुंग काल के सम्नार्टो की छ॑ंत्रछाया में जब बाहरी ग्राक्रमणों से जाति हीनवीर्य हो रही थी, श्रतीत को देखने की लानसा[ और वल ग्रहणा करने की पिपासा जगने पर पूर्वकाल के अतीत से प्रेम, भारत को यथार्थवाद वाली धारा में रु्थामरित्यागर और दशकुमारचरित का विकास, विरह गीत, महायुद्थों के वर्शद, संवलित हुए । कालिदास, अश्वघोष दंडी, भवभूति, श्रौर भारवि का काव्यकाल इसी तरह का २८ >< ५८ >८ ( व् ) रीतिकाल-- १, कवियों का श्रेणीभेद-- श्राचार्य रामचंद्र छुक््ल ने रीतिकाल के कवियों का मुख्य प्रतिपाद विषय खाुंगार ही माना है। उन्होंने इस काल के कवियों के दो विभाग किए हं-'रीतिग्रंथहार कवि? तथा 'रतिकाल के अन्य कवर! । पहले रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं जिन्होंने लक्षुणाग्रंथ बताकर उनके उदाहरण में अपनी रचनाएं की हैं। दूसरे वे है जिन्होंने लक्षराग्ंथ # लिख कर दसरे प्रक के रचनाए लिखी हैं---जिनमें प्रबंधकाव्य, वर्णनवात्मक प्रबंध तथा फ़ठकल सभी प्रकार की रचनाएँ श्राती हैं। दसरी श्रेणी के कवियों को ह॒कक््लजी ने फिर दीन भागों में बाँटा है । १--प्रबंधकाव्य के लेखक कवि ॥ २--भत्तिज्ञान संबंधी पद्यों के लेखक कवि | ३--श्वंगार रस की फुटकल रचनाएं लिखतेवाले कवि १--जयशंकरप्रसाद, भारंभिक पाख्य काव्य निवंध । ( २१८ ) सरे विभाग के कवियों के विषय में श्रर्थाव् उनके विषय में जिन्होंने न लिखकर श्ूंगार रस की प्राय: फुटकझल कविताएँ लिखी हैं--- शुक्लजीं का विचार है कि ये पिछले वर्ग के कवि प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात॑ में भिन्न हैं कि इन्होंते क्रम से रसों, भावों, नायिकाग्ों और अ्रलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत श्रपने पद्मों को नहीं रक््खा है। श्रधिकांश में ये भो शृंगारी कवि हैं और इन्होंते भी श्वुगार रस के फुटकल पद्म कहे हैं |: इसका निष्कर्ष यही होता है कि रीतिग्रंयकार और रीतिसुक्त काव दोनों का ही मुल्य प्रतिपाद्य विषय श्यंगार है । केवल वे लोग छुट जाते हैं जिन्होंने या तो भक्ति ज्ञान संबंधी रचनाएँ की हैं या प्रबंध काव्य लिखे हैं। प्रबंध काव्यों में भी कुछ का व्यय भाव आंगार हैं जैसे हरताराथण की 'माधघवानल काम कंदला”, श्रालम की 'म।धवादल कामकंदला' तथा 'स्थाम स्नेहीं', बोबा का (विरहृवारीश; नेवाज का 'शकुंतला नाटक, सोमताथ का 'माधवविनोद! भ्रादि। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विक्रम की श्रठारहवों तथा उन््नीसवीं शताब्दों के हिंदी साहित्य में जो भावधारा प्रमुख रूप से बही वह प्रेम शुंगार की थी । २--भाव घाराएँ साधारणतया भावों की दृष्टि से पांच धारायें इस काल में स्पष्ट प्रतीत होती हैं । १--तत्व ज्ञान धारा २--भक्ति धारा ३--नीति धारा ४७--वीर धारा प--प्रेम धारा १--तलज्ञान धारा तत्व ज्ञान धारा का बीज भक्ति काल में ही मिलता है। तुलसीदासजी की 'वराग्य संदीपनी; नंददास को ज्ञान मंबरी' श्ौर केशव की विज्ञान गीता! इसी धारा के अंतर्गत श्राती है। रीतिकाल के तल्ज्नान संबंधों कुछ रचनाएँ निम्नलिखित हैं । १--हिंदी साहित्य का इतिहास--प्रवावित संस्करण पू० ३२२ । (२१६ ) कवि का नाम कवि की रचनाएँ १- महा राज जसवंत्त सिंह भअ्परोक्ष सिद्धांत झनुभव प्रकाश भ्रानंद विलास सिद्धांत बोध २-- मंडन जनक पचीसी ३--सुखदेव मिश्र ग्रध्यात्म प्रकाश ७--देव ब्रह्म दर्शन पचीसी तत्व दर्शन पीसी शात्म दर्शन पचीसी जगदर्शत पचीसी पर... महाराज विश्वनाथ सिह वेदांत पंचक शतिका ध्याव मंजरी परमतत्व ६--नाग री दास वेराग्यसार ७--जनकराजकिशो री शरण विवेकसार सिद्धांत चौंत॑सा श्रात्म संबंध दर्पण वेदांठसार श्रुतिदीपिका छ--नवल सिंह कायस्थ विज्ञान भास्कर अ्रध्यात्म रामायण २--भवित धारा यह धारा भक्ति काल की भावधारा का ही श्रवशेष है ॥ नीचे लिखे कवियों के भ्रतिरिक्त रीतिकाल के कवियों के भी अनेकों पद्म भक्ति भाव के मिलते हैं। “भागे के सुकवि रीभिहें तो कविताई न तु राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानौ है।” दास की इस उक्ति से भी भक्ति और रीति दोतों का समान भाव से पालन ही कवि को अ्रभिमत प्रतीत होता है। नायक नायिकाश्रों को राधाकृष्ण तो सभी कहते हैं। भले हो उससे भक्ति का सात्विक रूप न व्यक्त हो। वास्तव में रीति मार्ग के कवि अ्रपने व्यक्ति- ( २२० ) गत जीवन में भक्ति मार्ग के किसी न किसी संप्रदाय के अ्नुयायों होते थे। ये लोग राजदरबारों में गुहपद पाकर आसीन रहते थे। रीतिकाल का श्वुगारसाहित्य रावाकृ के नाम से चला है उसमें काव्य का फैशन! ही नहीं था, भवित् के मावों की एक दुबल रेखा भी कवियों के श्रंत:करणों में प्रवहमान थी। रीतिविवेचव के साथ शख़ूंगार का संबंध ही संस्कृत साहित्य की देन थी | उसी का अनुसरण रीतिकाल में हुग्ना। शुद्ध भक्तिभाव से प्रेरित होकर जो रचताएँ लिखों गई हैं उतमें कुद्ध स्तोच्र रूप की हैं, कुछ वरा[वात्मक निबंध हैं, कुछ फुडकल । इसमें से कुछ का वितरण नोचे दिया जाता है--- कवि कवि की रचनाएँ १--मंडन जानकी जू का विवाह २--सोमनाथ कृष्ण लीलावती ३-- ग्वाल कवि यमुना लहरी भकतमाल गोपी पचीसी राधाष्टक राधा-माधव-मिलन ४--रसिक गोविद रामायणसू चनिका कलयुग रासो युगलरस साधुर्य ५--गुरु गोविंद सिह चंडी चरित्र ६ « बरुशी हंसराज सनेह सागर ७-जानकराजकियशो रीशरण तुलसी चरित्र, कवितावली, सीताराम सिद्धांत मक्तावली, अनन्य तरंगिणी, समास तरंगिणी रघुवर करुणाभरण ८--अजवासी दास ब्रजविलास ६--आनंदधतन ३६ वर्णात्मक प्रबंध तथा १००० से ऊपर गेय पद १०-नागरोदास ७० के लगभग छोटी बड़ी रचनाएँ ( २२१ ) कवि कवि की रचनाएँ ११--मंचित कृष्णायन १२--#ष्णदास भाषा भागवत्त माधुयलहरी १३--नवल सिंह भाषा सप्तशती १४--ललकदास सत्योपाख्यान १५--खुमान लक्ष्मणाशतक, हनुमान नखशिख नृसिह पचीसी १६--गिरघरदास गर्गसं हिता, बाल्मीकि रामायण बाराहु कथ' मृत, नृतिह कथ' मृत बामः कथासृत, परशुराम कथामृत रामकथामृत, बलरामकथामुत बुद्धमथा मत १७--सरयूराम जैमिन पुरुण ३-नीति धारा नीति धारा का भी पूव॑ क्रम भक्ति काल में प्राप्त होता है। महापात्र नरहरि वंदीजन ने 'छप्पय नीति' में नीति के पद्य लिखे हैं। इसके बाद महाराज टोडरमल;, बीरबल, मनोहर कवि, जमाल तथा रहीम भक्ति काल के द्वी नीतिकार हैं। यही क्रम भ्रागे १८ वीं शताब्दी में भी यथावत चलता गया | बसे नीति की भावधारा भक्ति के समान ही व्यापक है । जो कवि रीतिकार हैं या शंगारी हैं उन्होंने भी थोड़े बहुत पद्म चीति के शभ्रवश्य लिखे हैं । रीतिकाल के नीतिकार शर उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं । ताम कवि कबि की रचनाएँ १--वृ द वृ'द सतसई २--$लपति मिश्र युक्तितरंगिणी ३--देव नीतिशतक ४--तोषनिधि विनयशतक ५--वेताल फुटकल पद्म ६--गुरु गोविद सिंह सुनीतिप्रकाश, बुद्धिसागर ७--महाराज विश्वनाथ प्रिह उत्तम नीतिचंद्विका ( २२२ ) नाम कवि कवि की रचनाएँ ८--गिरघधर कविराज फूटकल पृद्य ६--संमन ऊुदकल १०--वाव्र् फुटकल ११--खुमाव नीतिविधान १२--बाबा दीतदयाल गिरि दृष्टांत तरोंगनी ४-वी रधारा चौयो धारा वीर-रख-प्रधान काग्पों को है। केशव ने भक्तिराल में वीर धिह देव चरित! लिखकर वोरगाथा काव्य को वीररसप्रधान काव्यथारा का संतान बनाए रक्वा था! रातिकाल के कवयों ने भी इस दिशा में पर्याप्त प्रयत्त किए हैं| अनेकों प्रयंवक्ात्य, स्रतंत्र और अनुवाद, वीर चरितों प्र लिब्ले गए। यद्यपि इन हइतियों में प्रयंबकाव्यों के गुण कम मिलते हैं पर यह दोब रीतिपरंपरा के प्रभाव के कारण है। कवियों को चितनप्रवृत्ति वीरचरितों के वर्णन की श्रोर थी, इमप्तका परिचय इन रचनाओ्रों से अवश्य मिलत' है। सब के काठ्य सर्वथा तगश्य भो नहीं हैं। इनका विवरण यह है--- कवि कवि की रचनाएँ १७-भषण शिवाबावनी २--कुलप ति मिश्र द्रोणप्व, संग्रामसा[र ३--श्रीधर मुरलीधर जंगनामा ४--पदुमाकर रामरसायन ५--सबल सिंह चौहान महाभारत ६--छत्रसिह कायस्थ विजय मुक्तावली ७---गंवल सिह आल्हा रामायण, झाल्हा भारत मुलढोला ८--लालकवि छत्रप्रकाश ६--+जोधराज हमीररासी १०- गुमान मिश्र नंषधचरित ११--सुदन सुजान चरित ( २२३ ) कवि कवि की रचनाएँ १२--गोकुलनाथ गोपीवाय मशिरेव महाभारत १३--मधुसूदनदास रामाश्वमेघ १७--गरोेश प्रयुम्त विजय नाठक १५--चन्द्रशेख र हम्मीर हठ १६--गिरधरदात वाल्मीकि रामायण, जरासंबदध महाकाव्य नहुप नाठक हि षर्धू य़ाः कि न प्रमन्श गा र- धा राः रीतिनिस्पेक्षु प्रेम श्टंगार की कई रख्नाएँ भन्म्कार में भी पप्त होती हैं। राजस्थाती कवि छीडुल में पंचलह्वेदी! पुस्तक में पाँच वियो गरनियों हे विरहृव्यशा का वर्णाव किया है। पोकर का 'रसरतव, लालब्द का पश्मरी 2)! सयक चरित्र, राजा पृथ्वीराज की “ेलि कृष्ण रक्मिणीरी! हझयेइर कात्रे को जदमणा सेन पदुनावर्ते कया तथा कण्शीराम की सकतक नंजरी! भररक्िनिरपेक्ष खुंगार रस की रचताएं हैं जो भजेतकाल में लिखों गई थीं। इनझी जशैलो में स्वच्छदता के दर्शन भले ही कम हों पर चिततप्रवृत्ति मक्ति तथा दीति के मार्ग से हठकर है--इसमें संदेह नहीं , रीोतिकाल में रीडपेजिसपेन्न प्रेम- प्रधान रचनाएं जिन्होंने लिखी हैँ उनका विवरण निम्नलिखित है | कवि रचनाएं १--निवाज शकु तला नाटक २--सोमना थ् माधवविनोद ३--अआलम माघवानलकामकंदला, स्थामसनेही, सुदामाचरित्र, फुट कूल पद्च ४--घनानंद फुटबल पद्च, गेय पद तथा प्रबंध रचनाएं ५--बक््शी हंसराज फुटकल <६--भंगवतरपिक फुटकल ७--ठाकुर फुटकल ( २२४ ) कवि कवि की रचनाएँ ८--हरनारायरण माधवानलकामकंदला ६--बोधा हएकना मा, विरहवारीश १०-- द्विजदेव श्रृंगार लतिका ३--समाहार इत प्रकार जिपते रीतिकाल कहा जाता है उसमें पाँच भावधाराएं प्रवाहित हुई प्रतीत होती हैं । ग्राचार्य रामचंद्र शुक्ल का विश्वास है कि इप काल की समस्त रचनाओ्रों पर 'रीति का प्रभात्र हैं। जिन कवियों ने रीति का कोई ग्रंथ नहीं बनाया वे भी रीतिपरंपरा से प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने इसे “रीति काल' संज्ञा प्रदान की है। पर स्वयं शुक्लजी ने ही घंनानंद, बोधा, ठाकुर ग्रादि को रीतिप्रभाव से छुक्त माना है। हिजदेव, बख्गों हसराज श्रादि झौर भी कवि इस श्रेणी में आते हैं जिनका समाव “रोतिमार्ग में नहीं होता। श्रत: श्री विश्रनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे रीतिकाल न कह कर श्ूंगार काल! ही कहता उचित समझा है ।* स्त्र्य शुक््लनी ने भी इस काल में श्योगार रस की प्रधानता मानते हुए उसके आ्राधार पर काल के नामकरण की संमावता प्रकट की है। नीति विज्ञान तथा वीर रस की जो रचनाएँ इस काल में उपलब्ध होती है उनका प्रश्त अ्रवश्य शेष रह जाता है। उन्हें शूंगार के अंतगर्त कसी लिया जा सकेगा ? इनमें वीररस प्रधान प्रबंध काव्यों में तो धंगार का प्रर्याप्त प्रभाव विद्यमान है ५ केवल भषणा को श्रब तक प्राप्त रचनाएं ऐसी प्रवश्य हैं जिन्हें &गार-प्रधान या श्ुंगार-प्रभावित नहीं कह सकते | पर नीति और विज्ञान की रचनाश्रों को सूक्ति कह सकते हैं। कविता कोटि में वे नहीं श्रातीं । भ्रत: निरापद रूप से इस काल को “शूंगरर काल! भी कह सकते हैं। नाम कुछ भी हो विचारणीय इतना हो है कि इस काल में शूंगार रस की प्रधानता सर्वोगरि विद्यपान रहो । ऐप स्थिति में यह श्रत्यंत स्वाभाविक है कि इस समय में श्युंगार रस के श्रन्य भेद भी उपलब्ध होते हैं । केवल मर्यादाबद्ध रूप ही नहीं । दो सो वर्ष से ऊपर के समय में समस्त कवि १--“रसखान धनानंद आलम टाकुर झ्रादि जितने प्रेमोन्मत्त कवि है उनमें किसी ने लक्षुणबद्ध रचना नहीं की थीं! । हि० सा० इ०, पृ० ३१२ । २--घधनानंद ग्रंथावली, बाऊुग्रुख पु० १-१६ | ३--अधानता झाॉंगार की रही इससे इस काल को रस के विचार से कोई शुंगार काल कहे तो कह सकता है ।! हिं० सा० इ०, पृ० २४१। ( २२५ ) शूंगार रस का एक ही प्रकार का प्रयोग करते रहे--बह युक्तिसह नहीं प्रतीत होती ॥ ४--री ते काल में श्ृंगार के विःवध प्रयोग गहराई से देखने पर इस काल में श्ूगार रण का तीन प्रकार से प्रयोग किया गया प्रतीत होता है--रीतिबद, रीव्यनुदारी तथा रीतिम्रुक्त। पहले कवि वे हैं जो लक्षखश्ार भी हैं और कवि भी । इनका बरशर्य रस शगार है। श्वगार रस के झावार एर काव्यशात्ष का विवेचन करने की एक प्रार्चन परंपरा है। हदो के रीलिकान्र के प्रारंभ होने से लगभग सात ग्राठ सौ वर्ष पहले हे ही संस्छत दाचार्योंदें इदी पद्धति बर काब्यविवेचन किया था । हक्षणों के जो उदाहरण ज् प्रायः आऋगर रस के होते थे । इसका कारण उक्त रत्त की व्य|प्कढा तबः सदरड्रीणता थी। रीति के सभी विवेख विषयों के उदाहरए इस एक रस में हो एल जाने थे । इस के फलस्वरूप रीति के विवेचन में श्ंग!र रस के समाअपरण की एं ; सी बन गई। हिंदी के आचर्यों ने उठ्ो परंपरा को अगतायाः है। य रीति के क्षेत्र में दीर:दि झन्य रसों कः भी समान भाग था, पर उनका विवेचन विस्तारपुर्ण मनोयोग के साथ संच्छत के आचार्यों ने भी नहीं किया तो उनके पदचिह्नों पर चलने वाले ये लोग क्या करते! अतः लक्षणआार कवियों की रचनाएँ श्यृंगारप्रधान बनीं ! दूसरी श्रेणी में वे लोग हैं तो लक्ष॑णातुसारिशी प्रवृत्ति के होने पर भी नियमपुर्वक लक्कण बना कर लक्ष्यहप में रचना नहीं करते । काव्य का जो अंश या रूप उन्हें प्रिय लगता है उत्ी का वर्णन करते हैं। ये रीत्यदुसारी कवि हैं। आचार्य नहीं । ये रीति का बंधत कुछ ढीला करके चलते थे। यद्यपि ये उससे मुक्त नहीं हुए, थे। ये भी रीतिबद्ध ही है पर कछ स्वतत्रता के साथ | बिहारी रसनिधि श्रादि इस कोटि में आते हैं। पश्ाचाय रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकारों के अ्रतिरिक्त सब कवियों को इसी श्रेणी में स्थान दिया है । उन्हें 'सति काल के अन्य कवि? कहा है। बिहारी लक्षुणकार नहीं हैं। फिर भी उन्हें रीतिकारों में परिगणित किया है। पर वास्तव में रीतिकार उन्ही को कहना चाहिए जो प्रत्यक्ष रूप से रीति के प्रतिपादक तथा शनुसर्ता हैं। बिहारी पर तो रीतिपरंपरा का प्रभाव है। इसलिए उनकी तथा उनकी श्रेणी के रसनिधि आ्रादि कवियों की श्रेणी पृथक ही होती चाहिए। रस इनका भी झंगार ही है । तीसरा वर्ग उन कवियों का है जो रीतिपरंपरा से सर्वथा मुक्त होकर शृंगार रस की रचनाश्रों में लगे हैं। इस काल के तीन त्रघुख कवि बोधा, १७ | ५ जा नम ( २२६ ) ठाकुर और घनानंद इसी वर्ग के हैं। ये लोग प्रक्ृत्या प्रेमी हैं।किसी का किसी वेश्ग से प्रेम हो गया था तो किसी का विजातीय सरुत्री से। घनानंद और बोधा पहले वर्ग में श्राते हैं । ग्रालम और ठाकुर दूसरे में । समाजिक तथा श्रन्य प्रकार की बाधाओं के कारण इन लोगों को अपने प्रेमपात्रों से वियक्त होना पड़ा | प्रेम का माधुवयेँ बिरह को ठेप खाकर वाणी में मखरित 'हो उठा | काव्यरचना ये लोग पहले से ही करते थे, पर ॒ पहले वह कल्पना की क्रीड़ा थी, शव जीवन का करुशु संगीत बन गईं । कुछ ऐसे भावुक भी हैं जिनको रचनाप्रों में प्रकृति का मुक्त-प्रेम प्रय॒क्त हुआ है । द्विजदेव ऐपे ही हैं । यद्द तत्व थोड़ी थोड़ी मात्रा में दो सेनाउति आदि में भी मिलता है पर उनकी और हृष्टियों से परीक्षा करने पर रीतिबद्ध श्रेणी में गशाना करनी पड़ती है | कुछ लोग बखुशी हंसराज को भो रीतिमुक्त सममते हैं। ५--बख्शी हंसराज' ओर स्वच्छ॑दघ, रा बख्यी जी की रीतिमुक्तता का आधार उनका 'सनेह सागर' कहा जाता है । इसमें राधा[ कृष्ण का प्रेम वर्णन प्रबन्ध काव्य को शैली से क्रिया गया है । राधा को सखी ललिता कभी क्ृष्ण को नंदगाँव में देखकर उन्हें राधा के योग्य वर समभत' है। इसी प्रकार छुदामा बरसाने में राधा को देख ऊर कृष्ण के योग्य समभते है। दोनों ही अपने मित्रों से अउदी सम्परति प्रकट करते हैं। राधा श्रौर कृष्ण एक दुसरे का चित्र भी चोरी से बतवाकर मंगा लेते हैं। दोनों को कभी गोचरणा के प्रसंग से ही भेंट होती है तो परस्पर शा पकक्त हो जाते हैं। उनकी प्रेम सगाई होती है । अंत में कवि ने प्रेम-विवाह को शासत्र विवाह से सब प्रकार से श्रेष्ठ बताया है, कवि की उक्त है कि 'लोक वेद कुल धर्मनिते ये सब॒ आचरण न्यारे है। कवि के अतुसार प्रेम ग्यापार में बुद्धि की चतुरता का गोण स्थान है | सुधड़ता तथा चतुरता तो प्रेप-विवाह में दासी बनकर आती हैं। जी सुनियत सबरी सुधराई श्रीर जिती चतुराई। ह्व दासी ते प्रेम उमंग सों दुलहिन के संग आई। पुस्तक में राधाकृण के प्रेम को प्रेम प्रबंधों की प्रचलित परंपरा के अनुसार वरशित किया गया है इसलिये गुणकश्षव॒ण, चित्रदर्श तथा स्वप्त- दर्शन श्रादि की कल्पना की गई है। वास्तव में ब्रज के भुक्त वातावरण के लिए इस प्रकार की क्ृत्रिमताश्रों का प्रसंग अत्यंत अस्वाभाविक है। बरुशी ( २२७ ) जी ते स्वप्त में राधा और कृष्ण को सोने की अंगूठी भी बदलवाई है। मोर मुकट बनमाली श्री कृष्ण के लिए यह उपहासास्यद हो सिद्ध होती है। कृष्ण यहाँ स्वच्छंद प्रेमी न होकर राजक्ुुपार सहश हैं जो अपने सखापों द्वारा श्रेयपी को प्राम करते हैं। इसी लटक में श्री कृष्ण का राबाविरह में जो अ्भिनाष दिखाया है वह अशिकाना' स्वभाव का हो गया है। वे राधा के चैरों की महदी, बालों का कंधा आदि बनना चाहते हैं। यह श्रभिनाष उस कृष्ण को शोभा नहों देता; जो भागवत के दशम स्कंध्र में यह कहते हैं कि मैं प्रेम करने वाली गोपियों से भी प्रेम प्रकट नहीं करता । मैं निरतिलाष हूँ ।* बखूगी जी ने प्रेम की शराद का भी उल्लेख किया है। अ्रत: बर्शी जो कि वह क्रृति स्व॒च्छंद मार्ग की रचना नहीं कही जा सकती । रीति का अ्रत्यधिक झौर भटद्दा बंधन इसमें प्राप्त होता है । वश्य॑ विषय के आधार पर काव्यमार्ग का निर्णय नहीं क्रिया जाता | वर्णत शेत्नी के आधार पर किया जाता ह्टै। शैली के अनुसार बख्शी जी शास्त्रीय मार्गी हैं, स्वच्छंद मार्गी चहीं । <६. द्विजदेव और स्वच्छंद धारा द्विजदेव के मुक्तक पद्चों में प्रकृति-प्रेम स्वच्छंद रूप से चित्नित हुम्रा है। प्रकृति भावों का आलंबन प्रतीत होती है, उद्दीपन नहीं है। शख्ूंगार लतिका सौरभ' में इनको समस्त रचनाएँ उपलब्ध हं। इसके ऋतुवर्णों के पद्य इस हष्टि से विशेष विचारणोय हैं। वृद्धावलियाँ वर्संत का स्वागत करती हैं । 'डोलि रहे विक्रसे तह एके, सुट्क रहे हैं नवाइक सीसहि । पत्यौ द्विजदेव मरंद के व्याज सों एक श्रनंद के आँसू बरीसहि ।! तेसेई के श्रनुराग भरे कर पल्लव जोरिक एक श्रर्स'सहिं ॥* इसी प्रकार 'मालती आदि लतारूपी बालिकाएँ अपने पुष्पों के व्याज से बसंत पर खील बरसाती है। लताएँ नाचकर उसका मन हरण करती हैं । भौंरे चारणों की तरह उसका स्तुतिगान करते हैं। सारा बन फुनों का भर लगाकर 'चिरजीवो बसंत”! की ध्वनि लगाते हैं। कोई युवक चिंतित है। वह मालती के नीचे श्रगूठे से जमीन कुरेद रहा है । दिशा प्रों १--शछ्ुूंगार लतिका सौरभ २७ २--वही २८ ( २२८ ) को देखकर भी नहीं देखता। जंघा पर कुहनी श्रौर हाँथ पर म॒ह रकक््खे चिताश्रों में मग्त है ॥* इस प्रकार द्विजदेव ने लगभग ३३ पद्म वसंतवर्णान में लिखे हैं। इससे प्रकृतिप्रेम की प्रमुखता भ्रतएव प्रकृति को स्वच्छंदता का आभास स्पष्ट मिलता है। पर इतना ही स्वच्छंदमार्गी सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं है। ऋतुवर्शन था बारहमासा लिखने की प्रथा तो रीतिबद्ध कवियों में भी प्राप्त होती है। कियी में कुछ क्रम और किसों में कुछ अधिक अपने अ्रभिनिवेश के कारण हो झकती है। दिजदेव रीतिपरंपरा से सवधा मुक्त नहीं प्रतीत होते | प्रकृति की नागरिक शोभा ही इनका काव्य विपय बनी है, जो प्राचोत परपर। के प्ंतर्गत कही जायगी। गुलाब, चमेली, सेवती आदि के समान ही बबुल, तीम श्रादि का भी वर्णन होता तो वह स्वच्छंद प्रक्नह्प्रेम कह जा सकता था। बन में केवल ढाक आया हे जिसझी प्रार्चॉनन परंपरा है। वह भी मानिनी बालामप़ों को मनानेवाला है ।* 'किसुक जातन को कल्पद्ू म मानिनी बालन हु कौ मतायक! जंगल में कोयल, भौरे, पिक, चातक आदि पूराते पाक्षियों ने ही शोर मचाया है । उल्लू, लोमड़ी, भेड़ियिे श्रादि ने नहीं। प्रकृतिवर्णान की प्रचुरता वो सेनापति में भी पर्याप्त है। पर केवल इसी आधार पर स्वच्छंदमार्गी वे नहीं कहे जा सकते। प्रयोक्तव्य और प्रयोग का प्रकार दोनों का ही काव्य» मार्ग के निर्धारण में उपयोग किया जाता है | इस तरह द्विजदेव में स्वच्छंद प्रकृति का कुछ ही प्ंश प्राप्त होता है। आधुनिक काल में श्रीधर पाठक की सी प्रकृति-प्रम-प्रवृत्ति इनमें होती तो ये स्पष्टतः स्वच्छंदमार्गी कहे जा सकते थे | ७-आचाय हजारी प्रसाद द्विवेदी और रवच्छुंद धारा आचाय हजारीप्रस[द द्विवेदी ने इस धारा को 'रीतिमक्त' कहा है भ्रौर उसमें उन्सुक्त प्रेम के कवियों के अ्रतिरिक्त नीतिविज्ञान की रचनाएँ करने- वालों तथा प्रबंधकारों की भी गणना को है। उन्म्क्त प्रेम के कवियों में बैनी कवि को भी लिया है। द्विवेदीजी के श्रनुसार “उनकी कविताओ्रों में १--वही ३३१ २--वही ७ बतआ्रावंद और बोधा के समाव स्वरच्छेद प्रेयघरा का आामाव मित्रता हैं।' ।आ तन रन के [ट के के अाखक ५५ के ह 4 का ० जांबबंबेक इनके विषय में विद्वानों का अहुवाद हु लि इन्होंते कोई रात ग्रव जहूर लिखा होगा, इनको ऐसी कोई रचना बनी तक प्राप्त सही हुई इसजिये द्विदी जी उन्हें स्वच्छंद धारा के अंतर्गर हो मानते हैं। व/स्तव में वि न- गमक प्रमाण न होने से इस विधय में किसी प्रकार का निरांय करना क.ठन है। जितनी रचताएँ उनकी उपलब्ध हैं उनमें ही द्विवेदी जी ने प्रम की स्वच्छंदता के दर्शन किए हैं। जो सर्वेबा उन्होंने उद्वत किया हैं वह यह है 85 कह “कबि बेनी नई उनई है घटा मोरवा बन बोलत कूकन री। छहरें बिजुनी छिते मंडल पे लद॒र मन मैत्र ममुकन री। पहरौ चुनरी चुनि के दुलही संग लाल के भूलए कूरन री | रितु पावस यों हो बितावती हो मरिहौँ फिर बावरी हुकन री | पर इस पद्च में तो स्पष्ट ख्य से प्रक्नतवर्णा झ्ुंगार रस का उद्दीयन विभाव है | कोई ऐसी विश्येयता यहाँ नहीं प्रतीत होती जितके आवजार पर कवि को रीतिपरुक्त कहा जा सके। नीतिविज्ञान को रचनाग्नों तथा प्रबंध काग्यों को रीतिपुक्त घारा के अंतर्गत उनके केवज वाह्यह्ार के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'रीतित्रद्धता' या रीजिमक्तता प्रतिपादन् शैली के भेद हैं। प्रतिपाथ विषय या काञ्यभेदों के भेद नहीं। प्रबंध काव्य दोनों प्रकार मे लिखा जा सकता है। उदाहरण के लिये सुद्तन के 'सुजान चरित्र! को रीतिमुक्त प्रबंधकाव्य नहीं कर सकते। इदी प्रकार रस्ततिति के मक्तकों में फारसी के अनुकरण के अ्रतिरिक्त आत्म;नुनृति नहों के बराबर है। देखना तो यही होता है कि कवि ने रचता करते समय काव्यादर्शों के नियव उपतनियमों को परंपरा का अतुसरण किया हैया आत्मानुभुति की अ्रभिव्यत्त के जिये उसकी उपेक्षा को है। रीतिकाल के जो प्रबंधकार कवि हूँ उनमें पर्याप्त मात्रा में कावथ्यशास्त्र के नियम उपनियर्ों के अनुवर्तत को प्रवृत्ति वर्तमान है | इसलिये उन्हें रीतिमक्त इस अर्थ में तो कहा जा सकता है कि उन्होंने अलंकार, नायिक्रामेद, नखशिख श्रदि के नियमों की न तो रचना की और न उनके अनुसार बिहारी की तरह फुटडकल पद्म बनाएं। पर चितव इनका रीतिमुक्त था यह नहीं कहा जा सकृता। इन लोगों को प्रद्॑ध के क्षेत्र जो सफनता नहीं मिलो उसक्रा कारण यह है कि इनका वितत रोति से १-हिंदी साहित्य, १० ३४१ । ( २३० ) स्वतंत्र नहीं था। नीतिविज्ञान की रचनाश्रों को यदि काव्यकोटि में लिया भी जाए तो रीतिमुक्तता में जो कल्पना की उच्चता और भावावेग का भाव अंतर्तिहिंत रहता है वह उनमें नहीं प्राप्त होता। श्रतः उन्हें रीतिम्रुग्त कहना युक्तिसंगत नहीं। हाँ इस श्रर्थ में इन्हें भी रीतिमुक्त कह सकते हैं कि इन्होंने नायिकाभेद, नखशिख झादि की रचनाएँ नहीं कीं। द्विवेदी जी ने धनभ्रानंद को स्वच्छंद प्रेम का कवि बताया है ठथा आलम, बोधा आदि के विषय में स्वच्छंद प्रेम-प्रवाह”॑ का उल्लेख किया है ।! इस तरह उत्की रीतिम्ुक्त काव्यधारा विषयक धारणा कुछ स्पष्ट प्रतीत नहीं होतो । उनकी यह उक्ति कि 'रीतिमुक्त साहित्य की भी कई थधाराएं हैं । कुछ तो रीतिमुक्त शंगारी कविताएँ हैं, कुछ पौरा/शक और लौकिक प्रव॑ ध- काव्य हैं कछ नीति श्रौर उपदेश विषयक कविताएँ हैं और भक्ति और ज्ञान विषयक उपदेश के काव्य हैं--गंमीर विवेचन की श्रपेक्षा रखती है। 'रीतिमुक्त का तात्पय यदि रीतिग्रंथों की रचना से मुक्त होना माना जाए तो प्रव॒श्य ये सब रीतिमुक्त हैं पर फिर तो 'रीतिकाल के श्रन्य कवि? सभी इसमें भरा जाएँगे और बिहारी जैसे भी उसी में परिगणित' होंगे। इसका श्रर्थ यदि रीति के प्रभाव से मुक्त किया जाए तो ये इस श्रेणी में नहीं झा सकते । प्ू-समाहवा र इस तरह रीतिकाल में निरापदभाद से उडिन्हें स्वच्छंदधारा के कवि कहा जा सकता है वे तो घनानंद, बोधा श्रौर ठाकुर ही हैं। भ्रालम दो माने जाएं तो एक आलम भी इस काल में श्र जाते हैं उन्हें मिलाकर चार होते हैं। अन्यथा तीन ही कवि इस धारा के ठहरते हैं। इसमें भक्ति- काल के रसखान तथा आलम और रीतिकाल के बोधा तथा ठाकुर के काव्य मार्ग आदि का विवेचन श्रन्यत्र क्या है। यहाँ आ्रानंदघतन की काव्य प्रवृत्ति का विमश किया जाता है। 3343 मकर न नननन+नन+ “नमी नमन न तन “न पनननननननननीन न मनन न न न नमन न -नननननननननन न ननमन+-ननम+--ान+-+ ा++>न+«»»«»«-_» «जम १--आरालम के विषय में वे लिखते हैं “इस प्रकार शेख भालम की कविता में स्चच्छंद प्रेमघारा के भाव प्रच्चुर मात्रा में मिलते हैं । हिंदी साहित्य, 2० ३४१; बोधा के विषय सें “इनकी रचनाओं में रीतिकवियों से भिन्न एक प्रकार के स्वच्छंद प्रेममाव का उल्लास मिलता है । वही ३४७६ ( रहे ) प्रस्तुत निबंध का विवेच्य विषय स्वच्छंद प्रेम की काव्यधारा है। उसका ताम चाहे कुछ भी रख लिया जाए। कछ लोगों ने स्वच्छंदघारा शब्द का व्यवहार श्रंग्रेजी साहित्य की रोमांटिक काव्यवारा के श्र्थ में क्रिया है जेसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रपने इतिहास में। पर लेखक का ताले स्वच्छंद प्रेम को काव्यथारा से है। रोमांटिक काव्यप्रवुत्ति से नहीं है। वह प्रवृत्ति तो अंग्रेजी साहित्य की अपनी हैं। यहाँ तो उन कवियों की काव्यप्रवृत्ति का विवेचन श्रभीड्ट है जो हिंदी साहित्य के प्रेमी कवि हैं और जिनका प्रेम स्वच्छेद है। इसी घारा को रवच्छुंद प्रेम की काब्यधारा लेखक ने कहा है, घतानंद इप धारा के सर्वेश्चे्ठ कवि हैं। उनके काव्यादर्शों तथा काव्यप्रवृत्ति का विवेचन जया जाता है। स्वच्छुद घारा की विशेषताएं १--मनोवेग तथा प्रम की स्वच्छंदता इस धारा के कवियों में सब से पहली विशेषता तो यह है कि ये अपने सनोवेगों के प्रवाह में बहकर कविता लिखा करते थे। इनकी दृष्टि में काव्यशासत्र के तियम उपतनियम नहीं रहते थे। इसलिये इनके काव्य में प्रेम की ज्ीवनगत स्त्रच्छेदता तथा काब्यगंत स्वच्छंदता दोनों के दर्शन होते हैं। इनकी दृष्टि प्रेममाव की श्रनुभृति पर अभ्रधिक रहती थी। उम्ती का ये लोग काव्य में चित्रण करते थे। इसका फल यह हुआ कि इन लोगों क्री अंतर्दृष्टि प्रेमानुभूति को पहचानने में बड़ी व्यापक और सुक्ष्म हो गई। इनका प्रेम केवल नारो के स्वृूल शरीरसौंदर्य तक ही सीमित व् रहा । वहु ईशवर- पर्यत ऊँचा उठा और समस्त विश्व का प्रेम इस शरीरोत्य ईश्वरपर्यवसायी प्रेम में समाने लगा। यह दृष्टि की व्यापकता थी ।सुक्ष्मवा के कारण प्रेम के शरीर संधर्ग की हो रमशोयता ये लोग नहीं देखते थे। मानस संसतर्ग को रमणीयता इन्हें श्रध्विक रुचिकर थी। मानस संप्तर्ग की रमशीयता के कारण इनकी रचचाग्रों में अश्लील मुद्रएँ, अश्लील चेष्टाएँ या रूप सौंदर्य के खुने वर्णान नहीं मिलते। प्रिय के संयोग में मतोदशाओ्रों के विविध रुपों के प्रदर्शन में ये लोग लग जाते हँ। इसके अतिरिक्त प्रेम का बाह्य पक्ष इनका इतना प्रबल नहीं था जितना आंतरिक पक्तु क्योंकि दृष्टि ही श्रांतरिक थी । फलत: तीन तत्वों की प्रधानता इनकी काग्यप्रवृत्ति में मिलतों है। प्रेम ( २६२ ) के सःच्छंदहप ( जीवनगत स्वच्छंद एवं काव्यगत स्वच्छंद ) की अनुभूति तथा चिंतन में झंतह हि साथ ही मबोवेगों के आावेगों का काव्य में प्रदर्शन । तुलना के लिये रीतिमार्ग के कवियों को लें तो इस पद्धति से वे सर्वथा विपरीत पड़ते हैं । रीतिकारों ने प्रेम शुंगार का कितना ही वर्णाव किया हो पर वह उनके जीवन की अनुभूति नहीं थी। ये लोग एक चौथाई भक्त होते थे, एक चौथाई प्रेमी और दो चौथाई में कवि और आ्राचार्य | इसलिये स्वच्छंद प्रेम का एकांतिक रूप ये अपने काव्य में नहीं दे सके । प्रेम इनकी अनुभूति न थी। इसलिये न तो उसमें मनोवेगों का श्रावेग मिलता है, न जीवनगत स्वच्छंदता ही प्राप्त होती है। दृती, परिजन, सखी श्रभिसार श्रादि से घिरी नायिका के हृढ्य की अंतदंशाओ्ं का इन्हें परिचय नहीं। उनके सहेट-स्थल, सफ्त्तीदाह, लघु गुह मान आदि ही इनके काव्य में श्राते रहे हैं। दृष्टि की व्यापकता के श्भाव में प्रेम केवल नायिका तक सीमित रहता है उसमें किसी प्रकार की उदच्चता के दर्शन नहीं होते | रहस्थादि की भावना जेसी आनंदघन के कवित्त सबेयों में यत्र तत्र मिलती है वह यहां नहीं । उनका प्रेम तो राधाकृष्ण के लिकट पहुंचकर भी पब्रयत्री स्थुलता नहीं छोड़ सका । अंतह ष्टि के अश्रभाव का फल तो इनके सुरतांत, विपरीत रति आदि के असंस्कृत वर्णनों में स्पष्ट हो जाता है। संयोग काल में प्राकृत चेष्टाश्नों के श्रतिरिक्त इन्हें कुछ सूझा ही नहीं | २-क्रत्रिम व्यापारों का त्याग दूसरी विशेषता प्रंम व्यापारों के कृत्रिम रूपों के त्याग की है। स्वच्छंद धारा के कवियों की चेतता विरह् और मिलन दोनों में प्रेमियों के हृदयों के अंत स्तलों को उदबाटित करने में ही लगी रहती है। बाह्य क्ृत्रिमताग्रों को सोचना, उत्का वर्णन करना इन्हें न रुचता श्रौर व सुझता है। प्रेम को ये लोग जीवन की श्रांतरिक, ग्रोपनीय, वस्तु समभते हैं। उनके प्रदर्शन की अस्वाभाविक चेष्टाश्रों को निरथंक मानते हैं।बोधा श्रौर ठाकुर ने अनेक बार यह प्रतिपादन किया है कि किसी पर प्रेम प्रकट करने से श्रपने उपहास के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं। श्रानंदवन प्र महीनों को, भले ही वे घुद्धि के घती हों, प्रेम के ज्ञत्र में वैसे ही मानते हैं जैसे सु दरी के रूप लावशय वी परख के लिये अंध। घनप्रानंद का प्रेमी तो स्त्रयं ही श्रपती प्रेममावता को नहीं पहचान पाता । वह कहे किससे ? यहाँ तो 'बुफत बूकत बौरई सूे' है । ( २३३ ) इसके फलस्वरू सहेट की लता-छिपी, विदग्घा के विदर्धा नाप, झ्भिसारिका के भेद या सखी, दती आदि का प्रेमिका बनता इत्यादिदाातें इनके काव्य में नहीं आई। टरीतिमार्गी कवियों ते इन्हीं मार्गों का ऋधिकातार वात किया है। रीतिमार्गी कवियों को प्रेम-व्यापार-वक्रता के विरुद्ध थे लोग तो यह मानते थे कि--- “अझत्ति सधों सनेह को मारग है जहाँ नेक सयानप बांक नहीं ३-भावप्रध [नता--- स्वच्छंंद प्रेमघारा के कवियों ने प्रेम को हृदय की शुद्ध, निश्चल भाव- धारा माना है, बुद्धि का उसमें गौण स्थान है। रीतिमार्गी कवि बुद्धि के बल से ही साव का अनुमान करते थे और बुद्धि के बल से प्रेम के बाह्यहूप- विधान का वंधान करते थे | ये लोग हृदय को प्रमाण मानते है | बुद्धि को नहीं | अंगरेजी साहित्य के रोमांटिक कवि भी इसी मान्यता के है ।' ४-आ त्मनिवेदन प्रेमानुभूति कवि की जीवनगत है इसलिये उसे वह स्वयं ही प्रेमी बनकर प्रकट करता है। अतएवं आत्मनिवेद की शैलाों इन कवियों ने अपनाई है। रोतिमार्गों लोग सखी, दूती आदि द्वारा प्रेम निवेदन करते हैं। उसका कारण यही है कि उतका हृदय उसे अपना नहीं सका है। बुद्धि द्वारा कल्वित भाव हुदय के अपने नहीं बढ़े । काव्य शैली के रूप में यह पद्धति फारमी उदृ के शायरों की है। स्वच्छंद मामियों ने वहीं से यह प्रेरणा ली है। प्र ढंग इनका पअ्रपना है। रीतिमार्गों कवि प्रेम निवेदन को पारंपरिक बनाते में जिस सामाजिक शास्त्रीयत्ता को रक्षा करता है उप्तकी ये लोग स्वच्छंदता के कारण उपेच्श करते हैं| प्--प्रेम का लौकिक पक्ष इनमें रसखान, शभ्रानंदधन भ्ौर आलम प्रेम के अनुभतिपक्ष के गायक हैं। ठाकुर भर बोधा में उतका लौकिक पक्ष भी आया है। लोक में प्रेम के निर्वाह की कठिनता सर्वाधिक होती है। कष्ठों से पोड़ित प्रेमी स्वयं भी प्रेममार्ग से विरत हो सकता है और बाघ्राएँ भी बलात् उसे हा सकती १-देखिए-रोमांटिक प्रवृत्ति का मनोवेज्ञानिक दृष्टिकोण, इसी प्रध्याय में। हर) हैं। सच्चा प्रेमी इत बाधाप्नों से डरता नहीं है। वह अपने जीवन की साधना हर प्रकार से पुर्ण करता है। बोधा तथा ठाकुर ने प्रेम के निर्वाह पक्तु पर भ्रधिक्त बल दिया है। इसलिए उनका प्रेम तलवार की धार पूँ घावनो” है। यह भो स्वच्छंद मार्गों कवियों को एक विशेषता है। रीतिमोर्गी कृवियों का इस दशा में भी ध्यान कम क्या गया ही नहीं । ६-विरह विरहवर्शन भी इन कवियों का रीतिमागियों के विरहवर्सत से भिन्न है। ये लोग वेंसे तो संयोग में भी अ्रंतर्मुल रहते हैं पर विरह में वह अंतर्मुखता और अधिक बढ़ जाती है। उसके कारण प्रिय के विरह में जो इन्हें मामिक पीड़ा होती है उसे भिन्न भ्न्नि प्रकारों से वर्णन करते हैं। कभी तो वे उनन््मत्त की सी चेशओं द्वारा हृदय की व्यथा व्यक्त करते हैं| जसे-- पग्रंक भरों चकि चौकि परों कब्हूँऊ लरीं छित हो मैं मनाऊं। देखि रहौं प्रनदेखें दहाँ सुख सोच सहौं जु लहां सुनि पाऊं। जान तिहारी सौँ मेरी दसा यह को समझे श्ररु काहि सुताऊं। यौं घनआ्ानेंद रैनदिना नहिं. बीतत जानिये कसे बिताऊं। सुहिं० रेरेरे कभी हृदय की अंतर्दशाश्रों का ही सीधा विश्लेषण करने लगते हैं। जसे-- धूमत सीस, लगे कब पायनि, चायनि चित्त मैं चाह घनेरी। आंखिन प्रात रहे करि ध्यान सुजान सुम्रति मांगत तेरी। रोम ही गोम परी घन श्ानेंद काम की रोर न जाति निबेरी | भूलति जीतति भापुनपौ बलि भूलौ नहीं सुधि लेहु सबेरी । सुहि० ३४२ >< >< >< ये ऊहात्मक पद्धति से विरहब्यवा की नाप जोख नहीं करते। इनका वियोग बड़ा व्यापक है। वह संयोग में भी बना रहता है। पर- ये वियोग में प्रिय के शरीर सुख की कामना नहीं करते । न शरीर सुख का ( र३े५ ) स्मरण करते हैं। झ्पनी मर्मी॑ कथा का उदघाटव तथा प्रिय के सांनिध्य की कामना, इनका ध्येय रहता है । रीतिमार्गों कवि संयोग में बहिर्मुख्॒ तथा वियोग में ग्रंतमु ख हो जाते हैं ।' प्र उनकी वियोग व्यस्थाएँ बुद्धि द्वारा अनुमित होती हैं। स्वयं अनुभूत्र नहीं । इसलिए उपमानों की भ्रतिशयोक्तियों से उसकी मात्रा का ऊहुन करते हैं ॥ वियोगिनी को इतनी पीड़ा है कि गुलप्ब जल की शीशी झ्रौंधा देने पर सारा जल बीच में ही भाप बन कर उड़ जाता है। यह ऊद्दात्मक शली इसलिए है कि वे ये नहीं जानते कि उस समय छुद॒य, मन, श्राँख, कान, ताक, प्राण, श्रादि की क्या दशाएं होती हैं। स्वच्छंद मार्गी कवि उन अंतर्दशाशों में से एक एक के शनेकों स्वरूप जानते हैं, उसका वर्शान, विश्लेषण करते है। इससे इनका समस्त कात्य आंतरिक शली का और रोतिमार्गीयों का वाह्य शेली का बन जाता है। ७--श्रात्मानभूति रीतिमागियों के विपरीत इन्होंने आत्मानुम॒ति को काव्य का विषय बताया है। रीतिमार्गी, लोकानुभूति का वर्णन करते थे। उनका कार्य परिचित वस्तु पर ही कला की नकक्क्नाशी करना था। इनका कार्य अ्रपरिचित अनुभू- तियों की प्रेमियों के समझ्ष उपस्थित करता था। इसलिये इनके रिर्वार कम थे, क्योंकि “पहचान नहीं उहि खेत सो जु”। उधर इस भावरत्न का सर्वथा प्रभाव है। आनंदघतन का यह कवित्त इप तथ्य का उपयुक्त हृष्टांत बनता है |-- लाजनि लपेटी चितवनि भेद भागय भरी लसति ललित लोल चल तिरछानि में। छवि को सदव गोरो बदन रुचिर भाल रस निच्ुरत म॑ठो झमुृंदु मुसक्यानि में। दसन दमक फैलि हियै मोती माल होति पिय सौ लड़कि प्रेम पगी बतरानि में | आ्रानंद की निधि जगमगाति छबीली बाल ग्रंगनि श्रनंग रंग ढुरि मुरि जानि में । इस प्रक्नर के स्वानुभूृति वर्शान रीनिमार्गों कविताश्रों में नहीं के बराबर है। ( २३६ ) प८ू-प्रम का विषय एकांतक तय। आत्यंतिक स्वरूप स्वच्छंद मार्गियों का प्रेम ब्रात्यंतिक एकांतिक तथा विषम हैं। प्रमप्रसंग में बताया गया है कि प्रेम की उच्चता तथा उदाचता के लिये विषमता अत्यंत ए्रपेज्षित है | स्वच्छेद प्रम का चरम उत्कर्ष विषमता में ही निष्पन्न होता है। प्मम प्रम पारिवासर्कि होता है। रीतिमभागियों ने जो सम प्र म को अपनाया वह संस्कृत साहित्य के प्रभाव के कारण । संस्कृत साहित्य में पारिवानिकि प्रंम को ही श्रेष्ठ माना है। ६--प्रबंध निपुणता ु स्वच्छ॑दमायियों में प्रबंधरचना की निपुणाता भी मिलती है। आलम श्रीर बोधा ने तोत सफल प्रबंध काव्य लिखे हैं। रीतिमार्गियों में इसका सर्वथा श्रभाव है | १०--लोक जीवन का ग्रहण स्वच्छंदमार्गी कवियों ने लोक जीवन के मंगल-मोद-पत्षु को भी लिया है। प्रसिद्ध पर्व॑ त्यौहारों पर रीतिमुक्त शैली में उचम रचनाएँ की हैं । अखती, हरियाली तीज, भूत्ा, बटपुञजनन आ्रादि अनेक त्यौहार ठाकुर के काव्य में वणित हुए हैं । ११--भाषा भाषा का परिमार्जन तथा व्यवस्थापन भी इन लोगों के द्वारा हुआ है । ठाकुर ने लोक़ोक्तियों के प्रयोग द्वारा, रसखान ने मुहावरों द्वारा, तथा झातंदधन ने लक्षणा, महावरे, व्याकरणशुद्धि, झादि गुणों से भाषा के स्वरूप को झराइय तथा सुसंस्कृत बनाया है। भ्रानंदघत ने भाषा में भ्रभिव्यक्ति वेः अ्रनेकों ऐसे नवीन मार्ग खोले हैं जो इनसे पूर्व किमी की हृष्टि में नहीं आए थे । इस मार्ग के सर्वश्रेष्ठ कवि श्रानंदघन हैं, इसलिए उनकी काव्यादर्श की सान्यताएँ तथा काव्यशैली के आधार पर मार्गनिर्घारणु का प्रयत्न करते हैं । | ड- घनअनंद की काव्यप्रवुत्ति १--का व्य!|द शे घनश्र।नंद को काव्यप्रवृत्ति पहचानने के लिए यह प्रत्यंत सहायक होगा कि हम यह जान लें कि वे स्वयं काव्य का श्रादर्श क्या मानते हैं। इनके ( रे३े७ ) समय में रीतिमार्गों काव्यादर्श सर्वमान्य थे। सभी लोग उतका पालन करना आवश्यक समभते थे। वे आदर्श काव्य के वाह्य रूपों को सँवारने सजाने के ही थे। अ्रनुभति पक्ष पर किसों का ध्याव नहीं था। अनुप्रासमयी शब्दावली, छंदों में यतिलब का सुष्ठ्ु विधान, दोषों का परिहार आदि गुण श्रेष्ठ कविता के लिये ग्रनिवार्य माने जाते थे। रौतिमार्गी काव्यादर्श सेनापति के निम्न- लिखित दो कवित्तों में भलीमाँति समाहृद किए गए हैं-- दोष सो मलीन गनहीत कविताई कीने शअ्ररबीन परवीन को बिनु ही सिखाए सबु सीखिहेँ सुमति जो है सरस झनूर रत्ढरूप याने थुते दूपतव को करिवो कवित्त बिन अयत के, जी करें प्रासद्ध एऐसो कौद सुरद्ूमि हैं। राम अरचतु सेनापति चरचतु दंऊ, कृवित रचत याते पद हैँ ते रू - चुत कि ५ /07 पं || 4 है । तथा राखति न दोष पोषे पिगल के लच्छन कों, बुध कवि के जो उपकंठह बसत है। जो पे पद मत को हरष डउपजावत है, तज न रसे जो छंद वंद सरसत है। अ्रच्छः है बिसद करत ऊखें आपस में जाने जगती की जडताऊ बिन्सत है। मानें छविता की उदवति सबिता की सेनापति कविता की कविताई विल्सत है।! इन कवितों में काव्य के निम्नलिखित आ्रादर्श व्यक्त किए गए हैं । १--#विता दोषयुक्त तथा गुण रहित न हो । २--रस की सरस ध्वनि हो । ३--पअ्लंकारों का प्रयोग अवश्य हो । ४--कविता में भक्ति का पुट हो । १---सेना पति--क वित्त र॒त्ना कर ( रे३े८ ) प् --पिगल शास्त्र का विरोध न हो। ६--विद्वानों का मनोरंजन कर सके । ७-शब्दावली व्शिद् हो। - स्पष्ट है कि इनमें कलापक्ष की प्रधानता है हृदयपत्ष की नहीं । १--प्रानंदघत ने काव्य के आदर्श कुछ तो प्रत्यक्गुूूप से व्यक्त किए हैं कुछ अप्रत्यक्षरूप से | प्रेम के प्रसंग में यह दिखाश गया है कि उन्होंने प्रमहीदों की निदा की है। वहां प्रेमहीन से कवि ही अभिप्रेत हैंजो रीतिमार्गी थे। उनमें अनुभूति की शुन्पता दिव्वाकर कवि ने व्यक्त करना चाहा है कि अनुभू तहोत व्यक्ति कवि नहीं हो सकता । इनके सप्रकालीन कृवि प्रेम के ही वर्णंयिता थे। पर व्यक्तिगत प्रेभानुभुति उनको ने थी। कवि ने उसी का काव्य में महत्व बताकर अपने को उनसे पृथक सिद्ध किया है। वे ऐसे लोगों पर दया प्रकट करते हैं जो शास्त्र या बुद्ध के चक्षग्रों से प्रेम के हर्ष विधाद का अनुपात किया करते थे । बुद्धि के नेत्र हृदथ नेत्नों की तुलना में मोर पंख के समाव केवल शोभादायक हैं। भाव की गहराई तक वे नहीं पहुँच सकते | प्रेगानुभू ते की साज्षों तो उनकी ही श्राँखें हो सकती हैं जिनके हृदय में चाह की मीठी पीर उठतो हो । रीतिकाल के कवि भावों को बुद्विगम्य सभककर उसो से उन्हें काव्य- निबद्ध करते थे। भ्रानंदधत ने सच्ची अनुभति को बुद्धि से परे सिद्ध किया है। 'सुरति सुख भूल के ज'गते पर ही जागता है । प्रमानुभति में बद्धि दासी है और रीक पटरानी', तत्व का बोध बौरानि (तत्व बोध बोरानि में ) में ही होता है। बद्धिकवियों के प्रेमकथन को नीर- मंथव के समान निष्फत्न बताते हैं| उन्हें वाणी के रहस्य का अनभिन्ञ, ठंडे हृदय के तथा जड़ कहा है। वे लोग कठ प्रेम का निर्वाह करते हैं। उनसे कवि का मेल नहीं हो सकता । बात के देस तेंदूरि परे जडता नियरे सियरे हिय्र दाहैँ । चित्र कौ ग्राखित लीनें विचित्र महारस रूप सव्राद सराहें। १--सुहि० ३६९६, र् बा । ही ४८59 ( २३६ ) नेह कर्थ, सठ नीर म्थे,; हठ कौ कठप्रेम को नेम निबाहै। क्यों घनञ्न नंद भीज सुजाननि यौं अ्मिले मिलियो फिरि चाहें । ण न्प हे २--क व्य क्षेत्र में व्यौरेवार भावों का वर्णन कवि ने उत्तम माना हैं । जिनकी निजी अनुभुत कुछ नहीं होती वे बहुत से भी एक सा ही वर्सात किया करते है | वशर्य विषय वस्तु हो या भाव उसका व्यौरा नहीं दे सकते । कला में इस व्यौरे का ही महत्व है। वहीं व्यक्तित्व है। रीतिमार्गी कवयों में अलंकारों की योजना, गुणों का छमाश्रशण, दोपों का परिहार, शब्दों की बाजीगरी आदि तो इतनी थी कि कोई क्या समता करता । पर निजी अनुसूति द्वारा प्राप्त होने वाला “परे का वरना नहीं था। नायक नायिका आादद के भेद उपभेद बढ़ाता “ब्यौरा नहीं है। अपूरी निजी अचुन ते से वस्तु की व्यक्विगत विशेषताओं का पररेचवय देना 'घनप्मारंद का ब्यौरा' है। उसके बिना कच्व्य में स्थुलता अज ती है । सनी वर्णा एक से हो जते हैं। व्यौरे से हीत कवि सृढ़ है । मही दव सम गने हंस वग भेद न जाने | कोकिनल काक न ज्ञाद काँच मनति एक प्रमाने। चंदत ढक सम।|न राँग रूपौ संग तोलें। बित विवेक शुत दोप सुढ़ कवि व्यौरि न बोलें +* सुहु० २८५ ३--अश्र।नंदघर जी के अनुसार विषादों का वर्णान करने वाला काव्य हो उत्तम है। सच्चे कवि को विपादों का अनुभवित्रा होगा चाहिए । नहीं तो उसका हर्ष प्रधान काव्य भी रुद्व सा निरर्थक होजाता है। अनुभूति प्रधान काव्य करुण ही होता है। सच्ची श्रनुभूति तभी आती है जब कवि का अपना मर्म आहत हुग्रा हो। वाणी की उछल कूद से मर्म का पता नहीं लगता | प्रेमारित लगते पर ही शझ्ानंद का झड़ लगता है। यदि कवि को रोना नहीं प्राता हो तो ग।ना भी रोने के समान है। मरम भिदे न जौंलों, मरम न पावे तौ लौं | सरमहि भेदे कंते सुरति घँंघोइवी । १>वही ३८३ २--वही २८१५ ( २४० ) प्रम आगि जाने लागे कर घनग्रानंद कौ। रोइबो न ब्राव तो पै गाइबौ हु रोइबी।! ४--भाषा की बाहरी चप्रक दम का काव्य में विशेष महत्व नहीं | भाव की तनन््मयता ही प्रपेद्धित होती है । समक्ति समक्ति बातें छोलिबो न काम आाव । छाव॑ घनशभ्रानंद न जौ लौं नेह बौरई।४ ४--कांव्य कला में भाषा उपेक्षणीय तत्व वहीं । उसका बड़ा महत्व है। प्र वह हृदय के भावों की वाहितीमान्र होती चाहिए। उसका उद्गम भावमग्त हृदय से हो । श््धर का महत्व बताते हुए कंत्रि कहता है कि हृदय को छल्नने का साधन भी श्रक्षः ही है और उसे तृत करने का भी साधन वही है। यद्यपि सत्य श्रद्धर से दूर है, पर अज्षलर ही उसका परिचय कराता है। भावमग्न होकर अदछुर की गति जानने पर तत्व बोध हो जाता है। अच्छुर॑ मत को छुरे बहुरि श्रच्छर हो भावी रूप भ्रच्छरातीत ताहि श्रच्छरे बतावे* तत्व बोध बोरानि मे श्रच्छर गति श्रच्छर लहै! प्र वाणी मौन का घुधट डाल कर हृदय के भवन में दुलहिन की तरह बंठी रहती है। वह रसना की सखी के साथ कान की गली में होकर चित्त शंय्या पर पहुँचती है। सुजान घनी रिकरवार होकर उसे बूम के श्रंक में लेते हैं और उससे विलास विहार करते हैं' ।* “शब्द वक्ता के सूक्ष्म श्वास प्रश्वासों का ही पवन पट है जो अनुराभ के रंग में रेंगा रहता है। वह बुद्धि का खेल नहीं प्राणों का वाह्य रूप है। लगन में वाणी का स्वर भिन्न ही प्रकार का हो जाता है ।* 'सबद सरूप बहे जानन सुजान चहै, अचिरज यहै श्रौरे होत सुर लाग मैं। १--प्रकीर्णांक ३० २--वही ३१ ३--वही ७१ ४--सुहि० १६२ ( २४१ ) 'सुक्ष्य उसात गुन बुन्यो ताहि लखे कौत पौन पट रंग्यी पेखियत रंग राग में | ६--कंवि को सक्ष्मर्ओी होना चाहिए। सावारण प्रतीत होने वाले संसार के अनेक रूप व्यापारों में सृक्ष्मदर्शों के लिये बात! श्रर्थात् वरावीय पदार्थ विद्यमान रहते है । श्राँख मु दने में, सोने-जागने में, सबत्र बात” रहती है। यह अ्रनप॒ सहूप और झछ्य सभी प्रकार ही होती है। बात की बात में 'बात” देखने की सूक्ष्षता सबंत्र होनी चाहिए। ब्रष्टा के नेत्र और श्रोता के कानों के बीच में 'छौन बखान! विद्यमान रहता है ।* उ-प्रयल पुर्वक बनाई गई कविता उत्तम नहीं मानी जाती । किसी वस्तु की अंतःप्रेरणा से जब हृदय भावविभोर हो जाए तभी श्रेष्ठ कविता की रचना हो सकती है। काव्य भाजपूर्ा हृदय की स्वतःनेस्त्र वाणों होता है। बनआतंद ने अपने विषय में कह है कि जब सुजान के तीक्ष्ण कटाक्ष वाणखों से हृदय श्राहत हो जाता है और प्राण प्यासे होते हैं तो काव्य के भाव आनद के घतों के सामन उमड़ते हुए सुजान की हो और से आते हैं। लोग लगकर कवरित्त बनाते हैं। पर मुझे तो मेरे कवित ही बना लेते है ।* इस तरह घनआनंद के सात काव्यादर्शों का पता चलता है। १--काव्य में भावानुभूति ही सर्वेप्रमुख है २--व्यक्तिगत अ्रनुभूति के बल पर वशय भाव या वस्तु का व्यौरेवार ऐसा वर्णान हो जो उसी वस्तु के स्वभाव का परिचायक बने । ३--करुख काव्य ही श्रेष्ठ होता है पर करुणा की अनुभूति व्यक्तिगत रूप से मर्माहत हुए बिना नहीं होती । ४--भाषा की बाहरी सजावट या विष्प्रयोजनवक्रवा काव्य में नहीं होनी चाहिए । ५-- कवि की वाणी उसके हृदयगत भावों का ही वाह्य श्राकार होना चाहिए । १--5हि ४४२ २--सुृहि ७२७ ३-वही २२८ १८ (3) ६--कवि को सूक्ष्मदर्शी होना चाहिए । ७--बिता कियी श्रंत: प्रेरणा के प्रयत्न पुर्रक बनाया गया काव्य श्रेष्ठ नहीं होता । ब्रजनाथ के काव्यादग इसके श्रतिरिक्त इन्हीं के समकालीन तथा संग्रहकर्ता ब्रजनाथ ने इनकी कविता की प्रशंसा में उसके कतिपय गुणों का वर्ण किया है । इसी प्रसंग में उन्हें भी देख लें तो इनके काव्यमार्ग का निर्धारण किया जा सकता है। ब्रज- नाथ द्वारा निम्नलिखित गुण इनके काव्य में बताए गए हैं-- १--इतके काव्य को समभनेवाला व्यक्ति वही हो सकता है जिसने उच्च प्रेम का शअ्रतुमव किया द्वो।उत्तका हृत्य वाह के रंग में भोंगा हो | उसते हृदय की श्राँखों से नेह की पीर तको हो । २--सु दरताओ्ों के भेद जानता हो । ३--संयोगवियोग की रीति का कोविद हो | ४--भावनाभेदों के स्वरूप को पहचानता हो । ;--भाव की अ्रनुभति न कर अपने को विचक्षुण कहनेवाले इनका काव्य सम नहीं सकते । ६--बातों के गूढ़ भेद को जानता काव्य ज्ञान के लिए श्रावश्यक है। ७--कवि स्वच्छंद है ।' घनातंद जी द्वारा संक्रेत किए गये तथा ब्रजनाश द्वारा बताए गए काव्यादर्श प्राय: मिलते झुलते हैं। इनकी तुलना यदि सेवायति के काव्यदर्शों से, जो रीतिपरंपरा का प्रतिनिधित्व” करते हैं, को जाय तो यही निष्कर्ष विकाला जा सकता है कि रीतिकाल में काव्यकला का जो भावपक्ष दुर्बल हो गया था घनानंद ने उप्ती को काव्य का सर्वस्त्र मूनकर कविता का रूप दिया। रीजिकाल में कवियों की व्यक्तिगत अ्रतुभूति को वाणी प्रदाव करने को परंपरा जो नहीं थी घवानंद ने उसी को सश्रेष्ठ कव्य समझा और वैसा ही किया | भाषा की अतावश्यक साज सज्जा जो को जात़ो थी उस्ते 'शुरों का घपोइबो' तथा बातों का छीलवा! मात्र सम्रझा। यद्यपि भाषातत्व की उपेक्षा नहीं की। उसका संबंध हृदय के भावों से किया | रीतिकाल में जो काव्य का मार्ग अत्यंत स्थूल हो गया था। नायक नायिकाओं के शरीर सोंदर्य के बंधे बँबाए वर्णनों के श्रतिरिक्त उनके हृदयों की श्रोर देखा ही ४ िशआआशआआआशशआशएशशणशणणाणणण्णणण १. 'भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै'--ब्रजनाथ । ( २४७३ ) नहीं जाता था, उसके विपरीत घनानंद ने काव्य में सूक्ष्मावग[हिदी प्रद्वसति को अ्रपवाया । रीतिझार श्ूंगार का वर्णात करते थे; भ्र्यात् प्रेम के भोग पक्त को ही लेकर चले थे । नाथक नायिक्ााओ्नों के भेदविस्तार, उनके वर्ण तथा संयोगवियोग के अ्रश्लील चित्र दिए जाते थे। घतानंद ने उसके स्थान पर उदात्त प्रेम को अपनाश | जो तरल हृदय को निश्छल तथा जन्मजन्मांत्तर 'तक जाने वाली प्यास है और जो ओाक्नह्म स्तंव पर्यत' सभी में व्याप्त है। उन्होंने प्रेम का श्रर्थ व्यथा' ही समझा। उतके लिये प्रिव का मिलन या विरह एक सा ही हो गया । इस प्रकार रीतिकाल में जो काव्य का करण पक्ष विस्मुत हो गया था उसे इन्होंने अपने हृदयरक्त से सींचकर हिंदी संसार को समर्पित किया । काव्य इनके पश्तीती का फन नहीं था हृदय रक्त से सींचा पौधा था | यही स्वच्छु॑दई घारा का प्रमुख गुण होता है। रापतेकाल में प्रत्येक व्यक्ति कवि बन सक्रता था | ठाकुर ने इसका बड़े मा्मिक ढंग से खाका खींचा है । सीखि लीनों मीव सृग खेजन कमल नैत, सीख लीनों जस भओ्रो प्रताप को कहानों है। सीखि लीतों कल्पवृक्त, कामवेनु, चितामनि, सीखि लीतों मेंह ओझ कुबेर गिरि ब्रानों है। ठाकुर कहत या की बड़ी है कंठित बात या को नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है। डेल सो बनाय आय मेलत “सभा के बीच! लोगन कवित्त कीबो खेल कर जातो हैं। कविकर्म के लिये किसो जीवतगत या जन्मजात विशेषता का होता आवश्यक नहीं माना जाता था। कविशिक्वा ही इसका पर्यात सावत था । घ॒नानंद ने इसको भी कला का दोष प्रमारित किया है। उन्हीं के शब्दों में बुद्धि की श्ाँखों से सत्य झ्लोकन हो जाता है | रूप सदा रिफवार को ही अपना रहस्य खोलता है ।! जब्च तक कवि का मर्म स्वयं न भिदा हो तब तक वह दूसरे के मर्न को नहीं जान सकता” | कवि ते उसी कविता को उत्तम समझ! और १--प्रंग्रेजो साहित्य के रोमांटिक काव्यवाराशञ्रों के आचार्यो का यह कथन कि इंद्रियां तथा बद्धि वस्तु के सुक्ष्म तथा अन्तहित सत्य का पता नहीं कर सकती हृदय ही उसके लिये समर्थ साधन है, आनंदघव के विचारों से मिल जाता है । दे|खए इसी पअ्रध्याय का रोमांटिक मार्ग! प्रकरण । है. ५ आम क2. .) उसी का सृजन किया जो, भावविभोर श्रात्मविस्मृत हृदय से श्रपने आप निकलती थी। यानी काव्यनिर्माण में बुद्धि की चेतनावस्था के स्थान प्र उपचेतन था श्रवचेतन दशा का उपयोग किया। कवि झअपली इस विशेषतामश्रों का महत्व जानते भी थे। इसलिए रीतिमार्गी कवियों को श्रपने से 'अमिले? उन्होंने कहा है । (क्यों धनश्रानेंद भीजे सुजाननि यों श्रसिलि मिलिबो फिर चाहै' भर्थात् उस समय कवियों के दो वर्ग थे 'घनश्रानेंद भेजे सुजान' तथा 'कठ प्रेम को नेम निबाहने वाले सठ मूढ़ कवि? । पहले स्वच्छंद मार्गीथे दूसरे रीति प्रपरा की श्ूंखलाशों से जकड़ी प्रतिभावाले। ब्रजनाथ ने तो घनश्ानेद को स्पष्टतया स्वच्छ॑द कहा हैं। भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै'। इनके समय की: दूसरे प्रकार की कविता को “जग को कविता' बताया है। उसमें सर्वसाधारण प्रवृत्ति का ही श्राश्रयण था। पर इन्होंने अपनी कला में उस वस्तु का उपयोग किया था जो उस समय हिंदी जग को कविताई में नहीं था। इसलिये ब्रजनाथ ने जग की कविता के रचथिताओ्रों तथा श्रोताश्नों को स्पष्ट बताया है कि वे धनशभ्रानेंद की कविता न सुने? उन्हें इस काव्य के नवीन ज्षेत्र से परिचय नहीं है। कविता घन श्रानेंद की न सुनो पहचान नहीं उहि खेत सों जु!ः इससे यह. स्पष्ट है कि इनकी काव्यप्रवृत्ति रीति धारा से पृथक स्वच्छ॑द प्रवृत्ति की थी । भावों का विचार करते समय यह बताया गया है कि इनका चितन गम्भीर है। इसलिये प्रेम भावना का स्वरूप श्रांतरिक हो गया है। आ्रांत- रिकता के कारण ही रहस्यवाद की छाया भी शली में श्रा गई है । जब कवि कहता है कि सारा संसार श्राँखो से दूर हो गया केवल तुम्हीं सर्वत्र छाए हुए हो! तथा 'हे पिय, हम श्ौर तुम साथ साथ ही बहुत दिनों से रहते श्राए हैं पर श्रापस में पहचान नहीं हो पाई तो इससे कोरा भौतिक प्रेम का वर्शान ही अभिप्रेत नहीं प्रतीत होता | इन उत्रितियों में परमेश्वर की स्वेव्यापक्रता' तथा अंतर्यामिता श्रादि की श्लोर संकेत किया गया जात पड़ता है। रीतिकाल को काव्यजगती में प्र मभावना की यह व्यापकता भी स्वथा श्रपरिचित थी | सघ--विदेशी स्वच्छुद धारा तथा श्रानंदधन उपयु कत काव्य विशेषताशों को ध्यान में रखकर श्रंग्रेजी की स्वच्छंद काव्य- धारा को देखें तो उस धारा के बताए गए बहुत से गुण घनानंद के काब्य में: ( २४५ ) मिलते हैं। जते वेत्क्तिकता, काठय के झूप पन्च को प्रतुवता त देहर भर उच्च को महत्व देना, रहस्थववाद का पुट, अपने समय की काव्यररवराप्रों को अस्ची- कार कर व्यक्तिगत प्रवुभूतियों को काञ्य में स्थान देवा, सामाजिक बंधतों की उपेक्षा कर वेश्या तक्ष के प्रेम को अयनाना तथा उसका ईइवर प्रेम में पयंवसान करना, शअ्रतुमव के क्षेत्र में इंद्रिय तया वद्धि की अप्ेज्ञा हुदव को जे सावन समभता झादि | पर इस समता का कारण बनानद पर विदेशी साहित्य को प्रंपराश्नों का परिचय या प्रभाव नहीं है। वहाँ की पररस्थितियाँ परंउ्राएँ तथा भौगोलिक स्थितियाँ भी घतानंद के समय को परिस्थितियों श्रादि से सवंधा भिन्न थीं । पर विशेष प्रतिभाश्नों के बितन को उच्चतम भूमि सर्वत्र स्वंदा प्राय: एक सी होती है। उसपर देशक्नाल का कोई प्रमाव नहों «होता रोतिकाल तथा अंग्रेजी साहित्य के क्लाधिकल युग की परिस्थितियों में घोड़ा सामय भी था। वहाँ लैटिन और ग्रीक साहित्य के श्रादर्शों के बंबत अरस्तु द्वारा स्थापित किए गए थे। वे कविप्रतिभाग्रों के द्वार के ताले बन गए ये। कविता में व्यक्तिगत अनुमति नहों रही थो। काव्य का मार्ग भी स्वृच्न था। लगभग ऐसी ही स्थिति यहाँ भी थी। संस्कृत साहित्य के भादर्शों के बंधत केशव प्रादि प्राचीन रीतिकारों द्वारा हिंदों काव्यक्षेत्र में प्रवतरित किए गउ थे। यहाँ को काव्यप्रवृत्ति स्थल तथा व्यक्ति्वहीन हो गई थी। बुद्धि के बल से काव्य का कलापक्ष जेपे श्रंग्रेजो साहित्य में बढ़ गया या वसे ही हिंदी में भी । यहाँ का बंधन विदेशोय था । यहाँ का स्वरदेशीव । वंबन उमयत्र समान था | वैसे स्वच्छुंद काव्यथधारा किसो देशविशेष या कालविशेव को हो उपज नहीं मानी जानी चाहिए । इसका मूल परंपराप्रों का अनुपरण करते- वाली तथा उनका भंग करनेवाली दो मलोवृत्तियाँ होती हैं जो हर समय हर देश में हो सकती हैं। इसलिये एक श्रालोचक ने तो यह कहा है कि श्रत्येक समय की श्रेष्ठ रचना स्वच्छंद धारा को होती है। कल्पता को बहुलता प्रौर झावेगों की निब्िड़ता उसमें विद्यमान रहती है । अंग्रेजी साहित्य में 'रोमांटिक' प्रवृत्ति जो वहाँ की श्रौद्योगिक स्वतंत्रता के फलस्वरूप प्रवतरित हुई थी वह घवतानंद में नहीं हैं।पर रोति मुक्व॒ता वैसी ही है । इसी प्रथ में इन्हें 'स्वच्छंद कवि” कहा गया है। “रोमांटिसिज्म' के शास्त्रीय स्वरूप के भ्रभिष्राय से नहीं । हिंदी साहित्य में यह नया योग ऋारसो उर्दू के संयोग से उपस्थित हो गया था। ब्रतः कहता चाहिए कि ( २४६ ) इस रीतिकालीन स्वच्छंदघारा का स्रोत यहीं की भूमि में था। श्ौर उसके कारण यहीं की परिस्थितियां थीं | लेखक का तात्पर्य यह है कि घनानंद भ्रादि लेजो हिंदी साहित्य के संसार में एक विशेष प्रकार की सृष्टि की है वह उर्दू फारसी की कोरी नकल नहीं, उस प्रभाव के साथ भारतीय साहित्य की पद्धतियों तथा मान्यताञ्नों का योग हुग्ना है श्रौर उसके फलस्वरूप एक मार्ग की स्थापना हुई है। वह मार्ग विदेशी रूच्छंद धारा से कुछ अंश में मिलता है कुछ अंश में भिन्न है । छ- आ्रानंदघन की स्वच्छुद प्रवात्त के श्रत्य गुण भ्रब॒ हम इनकी ऐसी विशेषताओ्रों का उल्लेख करने का प्रयत्न करंगे जिनका परिचय काव्यादर्शो के प्रसंग में नहीं हो सका श्रौर जो रीतिपरंपरा से इन्हें पृथक करती हैं श्लौर इनकी रीतिमुक्तता स्थापित करती हैं । १--रीतिकाल का प्रेम श्ृंगार साहित्यिक परंपराश्रों से तो मुक्त था ही नहीं, सामाजिक परंपराश्रों से भी मुक्त नहीं था | इससे एक ओर तो नायिका भेंदों तथा रीति की विविध विधामश्रों के वर्णन होते थे झऔर दूसरी श्रोर प्रेम का स्वरूप गाहस्थिक रक्खा जाता था। बासस््तव में इसका कारणा संस्कृत साहित्य की प्रावीन परंपरा थी जिसमें श्ष गार रस की वृद्धि वर्णाश्रम मर्या- दाश्नो में हुई थी । उत्मुक्त प्रेम के लिये जिस मुक्त वातावरण की श्रावश्यकता होती है वह इसमें सम्भव नहीं था। सखी, दूती, वचनवंदस्ध्य श्राद वाह्म कृत्रिमताएँ इसी के कारण बढ़ी थीं। इस तरह रीतिकालीन प्रेम मे साहि- त्यिक बंधनों के साथ साथ जीवनगत बंधन भी था । घतानंद ले सामाजिक बंधनों की लेशमात्र भी अपेक्षा नहों की। उन्होंने वेश्या से प्रेम किया । उसके उच्छुल यौवत, आसवपान, नृत्य, शयन, सुप्तोत्क सौंद्य झ्रादि निःसंकोचभाव से वशित किए है। प्रेमप्रसार के बाधक तत्वों को प्र महीन जड़ कहकर उपेज्ित कर दिया है। यद्यपि उनका प्रेम मान- सिक है और बाधक तत्व शारीरिक व्यापारों में ही उपस्थित होते हैं इसलिए उनका अ्रधिक वर्णन नहीं हुझ्नमा पर जितना हुआ है वह प्रेम की ल्त्सुकता के: लिये ही है। घनानंद का प्रेम गाहईस्थिक नही है। उसमें समाज की मयददा: नहीं है, जीवन की स्वच्छंदता है । ( २४७ ) २--नायिकाभेद की प्रवृक्ति रीतिकाल की स्वोपरि विज्ञेपता थी। नायिकाभेदों की संख्या बढाने में ही कवि अपना ऋझृतिलल समभते थे। ये भेद क्रेवल संख्या तक ही सीमित थे। ताथिकाओओं के अंत:करण के भावों को झोर कवियों का ध्यान नहीं था। घनानंद ने वाविक्षन्ेदों में प्रपती काव्य- सरस्वती को नहीं फंसाया | कहीं कहीं खंडिताओं के बचन आ गए हैँ, ये केवल प्रिय को कठोर तथा प्रेमी को ग्रनन्य अनुरागी सिद्ध करने के लिये हैं । अ्रन्यथा तायिकामेदों में कवि की प्रवृत्ति नहीं है। प्र मी प्रेमिकाओं के सावों का विश्लेषण ही इनका विषय है । रूपसौंदर्य ,का वर्शान भी जहाँ हुआ हैं बहाँ उमके प्रभाव तथा भाव सथोग का अवश्य वर्णाव है । वास्तव में इनका रूपसादर्य प्र माप्लुत हृदय से देखा गया है। जैसे -- रूप की उभ्ित श्राछ्ले श्रानन प॑ नई नई, तेसी ठरुनई तेह ओपी ग्ररू नई है। उण्टि अनंग रंग को तरंग अंग अंग, भूषत बसन भरें आभा फंलि गई हैं। महारस भोर परे लोचन अ्रवीर॒ तरे, श्रो्ठी श्रोक धरे प्यास पीर सरसई है । कंसे धनप्रानंद सुआन प्यारी छबि कहां, दीठि तो चकित और थकित मति भई है। | बहछ सुहिर ६७, ३--रीति परंपरा में प्र म के गार्हस्थिक होने से प्र मी या प्रिय अपने हर्ष विषाद का आत्मनिवेदन नहीं करते | कुलीवता और शालीवता को रक्षा के लिये सखा या सखियों का इस कार्य के लिये वितियोग होता हैं। मिलर अ्भिसार, विरहनिवेदन झाध् सब उन्हीं के द्वारा होते हैं। पर घनानंद तथा भ्रन्य स्वच्छद प्रेम के कवियों ने प्रंमानुभति का आ्लात्मनिवेदत ही किया है| मध्यस्थ को इसलिये नहीं आवश्यक समका कि वें प्रेम को गंगोौर ग्नुभति को समझा नहीं सकते। घतानंद इसलिये मौत होकर विरह व्यथा सहते हैं। ठाकुर ने भी प्रमानुभति के हृदय में ही गुप्त रहने की बात बार बार कही है। सबका सारांश यही है कि ये लोग प्र मव्यापार में प्रंतमु ख थे, रीतिमार्गी कवि बहिमु ख। ( २४८ ) ४--रीतिकालीन बहिम्रु खता के कारणा ही काव्य के श्रभिव्यक्तित्ष में विशेष परिष्क'र या परिवर्तन नहीं हम्ना था। वहीं प्राचीन श्रौपमानिक पद्धति थी। भावों को विशेष बल के साथ कहना होता था तो श्रतिशयोक्ति श्रादि का समाश्रय क्रिया जाता था। प्राधान्य अ्रभिधावृत्ति का ही था। पर घना- नंद की भाषा उनके द्वदय में मौन का घंघट डालकर बैठो हुई दुलहिन थी। वह उनके श्वास-प्रश्वासों से बना हुआ्ना पट था जो प्रेम के रंग में रंगा हुआ था । इसलिये जितनी गंभीर श्रनुभूति थी उसकी श्रभिव्यक्ति के लिये उतनी ही सद्टम भाषा की योग्यता इन्होंने कर ली थी। ये भाषाप्रवीन थे "भावना भेद सरूप! को जानते थे। धनानंद की गंभीर श्रनुभति स्थल श्रमिथाप्रधान भाषा में व्यक्त नहीं हो सकती थी। इनके भावों की सुक्ष्ता और गंभोरता ने लाक्षशिक भाषा का नवीन मार्ग बन लिया। पहले सब आ्राचार्थ लक्षणा भ्रादि का विवेचन थोड़ा बहुत करते थे पर उसका प्रयोग न संस्कृत साहित्य में हुआ था न हिंदीं में | यहों कारण है कि रीतिविवेचन में लक्षण, व्यंजना श्रादि के भेदों के जो उदाहरण प्राप्त होते हैं वे न जाने कब से एक ही चले आरा रहे हैं। इस ज्षेत्र में घतानंदजी ने सर्वप्रथम प्रवेश किया झौर बड़ी प्रोढ़ता के साथ किया । इसका हेतु उनकी गंभीर सूक्ष्म चितना थी। भाव भाषा श्रपते साथ लाते हैं। वियोगिनी का संताप वर्णन करता हुए रीतिमार्गी कवि शंकर कहते हैं-- “शंकर नदी नंद नदीसन के नीरन की भाप बन अ्रंबरतें ऊँच्री चढ़ जायगी। भरिगे अंगारे वे तरनि तारे तारापति या विधि खमंडल में श्राग बढ़ जायगी ॥। >< >< काहु विधि विधि की बनावट बचेगी नाहि जो पै या वियोगिनी की शाह कढ़ जाथगी” ८ >< >< इधर घनानंद की विरहिणी की अ्भिलाषा को लाक्षृणिक भाषा में व्यक्त किया जाता है तो उसकी; प्रेरणा और प्रभाव कितना बढ़ता है, यह देखिए--- >< हु >< >८ लाखनि भाँति भरे अभिलाषनि के पल पाँवड़े पंथ निहारे । लाड़िली भ्रावनि लालपा लागि न लागत हैं मनमें पद धार । ( २४६ ) यों रस भीजे रहैँ घनप्रानेंद रीके सुजान दुरूप तिडारे । चायनि बावरे नैन कबे अंसुवान सेों रावरे पाय पखारें। सु०हि० ४६ यहाँ ब्यापारों का कर्त्ता प्रेमिका को न बना कर नेत्रों को बताने से प्रिय की '“श्रावनि' को “लाड़िली! कहने से, उन्हें रस भीजे तथा चाय बावरे बताने से काव्य की व्यंजता दूनी चौगुनी क्या असंझय गुनी बढ़ गई है। भाषा ऐसी लगती है कि कवि ने भावों का अनुभव ही इस भाषा में किया था। जहाँ आंतरिक अनुभूति के कारण भाषा का निर्माण होता है वहाँ इसी प्रकार की मारमिकता का श्रवतार होता है। हिंदी साहित्य में या तो कबीर आदि संतों के मुख से ऐसी हृदयोद्भूत वाणी निःसृत हुई है या घनप्रानंद के मुख से ॥ रीतिमार्ग से इन्हें पृथक करने में यह बड़ा प्रबल हेतु है । ५--- रसपरंप्रा पर सामाजिक मर्यादाग्रों का प्रभाव होने के कारण ज्यंगार रस में विषम रति का कोई स्थान नहीं रहा। यदि एकनिष्ठ रति हो अ्र्थाव नायक या नाथिक में से कोई एक ही प्रेम करता हो तो बह रस नहीं रसाभमास माना जाएगा। उसमें भी पहले र्री जाति के अनुराग को प्रकट करते की परंपरा है। यह सम प्रेम समस्त रोतिप्रधान काव्य में वशणित हुआ है । घनआनंद ने प्रेम को उदात्तता तया उच्चता व्यक्त करने के लिये विषम प्रेम को ही अपताया है। प्रेम की श्रनन्यता, स्थिरता, सहिष्णुता आदि बिना वैषम्य के भ्रा ही तहीं सकती । मोगपर्यवर्यायी प्रेम में समता अ्रपेक्षित होती है । पर भावात्मक तथा साधनात्मक प्रेम का प्रसार वेयम्य के वातावरण में जितना श्रच्छा हो सकता है उतना अन्यत्र नहीं । रीतिमार्गी कवियों में श्रृंगार रस के संयोग पक्चु ते श्रधिक्त विस्तार पाया है | इसके कारण चिंतन की आपेक्षिक स्थूलता तथा नायिकानेदादि रीति की परंपरा हो सकते हैं। संयोग या कहना चाहिए संभोग भी चेट्टाप्रधान थो, भावप्रधान नहीं । संचारों भाव, अनुभाव आदि का प्रदर्शत इसी समय किया जाता था | इसका कारण रसमर्यादा थी जिसमें भाव की ध्यंजना चेटष्टा द्वारा की जाने का सिद्धांत हैं। संयोग की प्रधानता का भी कारण यही है कि वहाँ चेष्ठाओं, हावभावों का वर्णन हो सकता है, वियोग में चेष्टाएँ विरत हो जाती र४० ) हैं। वियोग का इन्होंने थोड़ा बहुत वर्णान किया है तो वह भी मामिक नहा कवियों ने अपनी ऊहा से व्यथा का अनुमान किया है। आलसी अफसर को तरह बिना घटनास्थल प्र पहुँचे ही अनुमान से रिपोर्ट लिख दो है। पर आनंदधन वियोग के प्रधाव कवि हैं। संयोग का भी वर्णन किया है तो उसमें वियोग विद्यमान रहता है। वहाँ प्रेमी को अनुभूति के स्रोत खुले ही रहते हैं। कभी वह हर्ष से बावला होता है कभी आगे के वियोग की चिता से ब्यथित । कभो चाह की अंतर्ज्वाला संयोग से श्रौर अ्रधिक बढ़ती है। इस तरह संयोग में भी वियोग विद्यमान रहता है। जहाँ वियोग है वहाँ वो हृदयम्म के पुट के पुर खुलते जाते हैं। वियोगव्यथा के वर्णन में घनआानंद की समता हिंदी के कसी कवि से नहीं की जा सकती। इनका यह गुणा भी रीतिम्नार्ग से पृथक है। बियोग के प्राधान्य के कारणों की मीमांसा की जाए तो दो हेतु हिंदी साहित्य में संभव हो सकते हैं। एक तो सूफियों की प्रेम की पीर वर्शात करने की परंपरा जो भक्तिकाल के प्रारंभ से चलकर रीतिकाल तक किसी न किप्ती रूप में विद्यमान थी। दूसरी फारसो काव्य को वेदताबिवृति को शैली जो रोतिकाल की ही समकालीन थो। इन दोनों थाराप्नरों से इन्होंते प्रभाव ग्रहण किया हो यह संभावना होती है। पर विशेष प्रभाव उद फारसी का प्रतीत होता है। वियोग का प्रांचुर्व घनानंद और शभ्रालम दो में विशेष है। श्रालम मुसलमान थे, घतानंद काथर्य । घनानंद ने 'इश्कलता' के (वियोग बेलि! श्रादि उद् फारसी की शैलो से लिखी भी हैं । इसलिये इसका प्रभाव तो स्पष्ट है। सूफियीं का प्रभाव भी संभव है। उनका विरह मानव मात्र के चित्त में ही सीमित न रह कर समस्त प्रक्नति में व्याप्त हो जाता है । दूसरे उस विरह में रहस्य भावना का अंश भी रहता है। धनश्रावंद के विरह में वह व्याप्ति तो नहीं है पर रहस्य भावना की ऋनक कहों-कहीं थ्रा गई है जो सूफियों से मिलतो है। निष्कष में कहा जा सकता है कि धनप्रानंद का काव्यमार्ग रीतिमार्ग से पृथक था। कुछ रचनाएँ इनको ऐसी मिलती हैं जिनमें झआालंकारिक श्रभिव्यंजण शैली तथा रीतिमार्गी चितव स्पष्ट. प्रतीव होता है, पर वे प्रारंग काल की कृति समझती चाहिएँ। अभिव्यक्ति के विकसित हो जाने ( २५१ ) पर इन्हेंने भ्रपना मर्म ही उद्घाटित क्या है। प्राचीन परंपरा का साहस प्र्वंक त्याग कर दिया है । साहित्य की यह धारा श्रकस्मात रीतिकाल में हो नहींझा गई थी।॥ पहले से ही इसका प्रवाह चला झा रहा था, यह प्रतिपादित किया जा चुका है। हिंदी साद्रित्य के मध्यकाल में ही पाँच उत्तम कवि इस धारा के प्रंधधत श्राते है। रसखान, श्रालम, घनझ्ाानंद, बोधा श॥्रौर ठाकुर । इस प्रकार मध्यकाल सें स्वच्छद धारा वा एक व्यवस्थित अनुक्रम इन प्रेमी कवियों द्वारा स्थापित किया गया है। रसखान ने भक्ति के बाह्यावरणा में व्यक्तिगत प्रेमानभूत की श्रक्रत्रम भाषा में अ्रभिव्यक्ति की है। राश और कृष्ण के हृदयों में तथा भक्त के हृदय में मानवीय भावों का स्पंदत दिखाया है। आलम ने लौकिक प्रेम का स्वतंत्र रूव मे व्यक्तिगत प्रनुभुत के झ्राधार १२ वर्शणा किया है। उसका अवसादयुर्श प्रेम दसरों से भिन्न है। बोधा प्रेम के मांसस तथा साहसिकतापुर्णा रूप के उपस्थापक हैं । उन्होंने स्पष्ट रूप से लौकिक प्रेम को श्रेष्ठ माना हैं। मह॒बूब में ब्रजराज के दर्शन उन्होंने .किये हैं। ब्रजराज में मह॒बुब के नहीं! ठाकुर प्रेम के लोक व्यवहार-पक्ष के पारखों हैं। प्रम के निर्वाह की कठिनता बोधा झ्रौर ठाकुर की सम;न है। इस तरह स्त्रच्छंदघारा के समस्त कवियों का व्यक्तित्व उनकी प्रेमानुभति में स्पष्ट आभासित है । साथ ही ये लोग न तो भक्तिपरंपरा से आर न रीति की ही परंपरा से प्रभावित हुए इसलिये स्वच्छंद है। स्वच्छुंद मार्ग का प्र रक हेतु यद्यपि स्वच्छंद मार्ग का श्रविकसित रूप सभी कालो में दिखाई देता है पर रीतिकाल में श्रपेद्धाकृत श्रधिक विकास हुम्ना । * इसका कारण उद्' फारसी के साहित्य का हिंदी के साथ संगशन है। अकबर के समय से ही हिंदी संस्कृत तथा फारसी के और वाद में उर्द' के कवि दरबार में साथ-साथ रहते-सहते और काव्य बनाते-युनाते आए हैं। भक्तिकाल में ही निर्गुणा संतो तथा कृष्ण शाखा के भक्तों पर यह स्पष्ठ हो गया था। कृष्णभक्ति में प्रेण की लौकेकता के समावेश का कारण फारसी का प्रभाव भी था। रीतिकाल में प्रमभाववा ( २५२ ) की यही लौकिकता बढ़ती गईं प्र कवियों में अ्रपनी काव्यमर्यादा को प्रशषएण बनाए रखने का मोह बढ़ता गया £ रोति काल के कवि के व्यक्तित्व में यही मनोग्रं थ मूलनिहित प्रतीत होती है। ऊरर से वह भारतीय साहित्य की परंपरा का ग्रनुषायी है पर अश्रतर से उसमें फारसो काव्य धारा को लौकिक प्रेम की विकृृति प्रकट होती है। फलस्वरूप क्रृष्णभक्ति का प्रावरण भ्रभिव्येत्न शैली में स्त्रीचीर कर वह मत्रोग्नंथिग्रतित भ्रतणव अविकसित प्रम की शब्रर्धस्फुटित अभिव्यक्ति करता है। स्वच्छंद धारा के कवियों के मातस में काम्ग्रंथि नहीं थो। ये स्पष्ट हा से प्रम को व्यक्तिगत अनुभूति को प्रकट करते थे । उनका साहित्य दम्मग्रवित नहीं है ।बोधा ते 'विरह वारीश”? में माधवानल तथा कामकंदला के संघोग का जो खुला वर्शान किया हैं उसका कारण इनके मानस की स्वच्छ॑ंइता और निध्रुक्तता हो है। घतआवनंद ने भी सुजान के मादक सोन्दर्म का इसी भाव से वर्गान किया है। उन्होंने सामाजिक तथा साहित्यिक मर्यादाओं को अपने जीवन से मित्रता न देख कर उन्हें साहपपुर्वक त्याग दिया था | फारसी साहित्य का जो तवीत पादव इस देश की मनोवू्ति पर आरोपित हुआ था उसके मीठे फलों का उन्होंने नि:संझोच आाध्वादत किया । उद फारसी का प्रभाव तो रोतिकाल के समस्त कवियों पर था। पर स््रच्छंद धारा के कवियों ने उसका कुछ अधिक उपयोग किया और रीति मार्ग के वाद्यावरण को उत्तार फेंका । इनकी जीवनगत परिस्थिति ने इसमें सहायता दी । स्वच्छुंद धारा का मध्यकान में प्रारंभ ही फारसी के योग मे हुग्ना है । रसखान पठान होने के नाते फारतो के जानकार श्रवश्य रहे होंगे। उनके चितन में जो प्रम का लौकिक रूप आया है उसका यही कारए था । ठाक्षर, बोधा, घनभ्रानंद तीनों कायस्य थे। कायस्थ लोगों में फारसी के पठ्रन पाठन की परंपरा पहले से ही विद्यमान थी। बोधा ने फारसी की शब्दावली का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। घनआनंद का फारसो-परिचय उनको वियोग वेलि, इश्कलता अादि रचनाओं से और प्रेम के व्यथाप्रधाव तथा विषमरूप का वर्णाव करते भ्रादि सें प्रतुमानित होता है । इनके मित्र नागरीदास जी का “इश्क चमत! फारसी की लटक में ही लिखा जान पड़ता है। उन्ही के अनुकरण प्र घनभ्रानंद ने भी भ्रपतों 'इश्कनता! लिखों हो तो क्या प्राश्चर्य । 'मनोरथ्- मंजरी तो वागरीदात जी ने प्रानंदबन को प्रेरणा से हो लिखी थी । इन्होंने ( २५३ ) भी 'मनोरथ मंजरी' लिखो है। ठाकुर अवश्य ऐसे हैं जिनके प्रेम का स्वरूप तथा अभिव्यक्ति भारतीय हैं। भाषा प्र भी फारसी आदि का प्रभाव नही है । संभवत: उनका ज्ञान फारसी भाषा का कम हो या बिलकुल न हो पर इससे प्रभाव को सम्भावना दूर नहीं होती । उदू फारसों साहित्य ने तो उस समय अपता एक साहित्यिक वातावरण बताया था। इससे ज्ञात और अज्ञात रूप से हिंदी के कवि प्रभावित हो रहे थे| ठाकुर दसरी कोटि में झाते हैं। घनभ्रानद के भडौव्राकार ने तो इन्हें फारसी के भावों का चोर बताया है। घनम्रानंद की भाषा को लाइणिकता भी फारसी के प्रभाव के फरस्वरूप ही है। अन्यवा हिंदी या संस्कृत में तो यह परंपरा थी हो नहीं | स्वच्छुंद घारा के कवि इस गुण के लिए प्रशंसामाजन है कि इन्होंने दो साहित्य प्रवाह! के संगम से नवीन प्रेरणा और स्फूर्ति प्रात की। साथ ही बोघा को छोड्कर शेप चारों की ता पाचन शक्ति भी कम प्रशंपनीय नहीं है। रीक्षि प्ाय के डोलत भले । विदेशी भावधारा तथा अ्र्िव्यंजया! शली झादि का इतती मात्रा में तथा ऐसे प्रकार से उपयोग किया है कि उसका आभास तक काव्य के बाह्मकार में नहीं होता । प्रभाव केवल प्रेरणा तक हो सीमित रहा। भाषा की लाक्षरिकता के लिए घनुआ्नानंद ने द्विदी भाषा की ही उपेक्षित सामग्री मुहावरे तथा रूढ लक्षणाप्रों का सुन्दर विनियोग किया है। वास्तव में स्वच्छंदमार्गी कवियों ने बाहर को सामग्री का साहित्य में किस प्रकार उपयोग करना चाहिए इसका आदर्श दूसरों के समक्ष उपस्थित किया है। फारसी के प्रेम के लौकिक कितु स्थूल भड़कीले रूप के साथ भारतीय प्रेमधारा के गांमीय का मिश्रण कर भ्रपुर्व सृष्टि इन लोगों ने की है। साहित्यिक परंपराश्नरों में परिवर्तत सदा कुछ विशेष कारणों से होता है । वे वाह्य भी होते हैं श्रौर प्रान्तरिक भी । श्राधुनिक युग की स्वच्छंदधारा का जन्म भी विदेशी साहित्य के योग से हुआ है। हरिबंशराय बच्चव फारसो से प्रभावित होकर तथा श्रीघर पाठक श्रादि अंग्रंजी साहित्य से प्रभावित होकर उम्पुक्त प्रकृति की कविता कर सके हैं। सुमित्रानंदन पन््त श्रादि स्वच्छंद धारा के कवियों पर अंग्र जी साहित्य का प्रभाव तथा प्रेरणा स्पष्ट है । रीतिकाल में विदेशी वस्तु को अपनाया तो रसलीन, कुंदनशाह श्रादि ने भी था पर स्वयं उसमें रंग गए । उसे भारतीय श्राकार प्रकार न दे सके | इन लोगों ने उसे हिंदी की प्रकृति के साथ मिलाकर पृथक ही एक मार्ग बता लिया था। ( २५४ ) ऊपर जैसा बगाया गया है कि ब्यक्तिगत जीवन की विशेष परिस्थितियों एवं फारसो प्रादि के साहित्य के प्रभाव के कारण भक्ति काल और रीति काल में पाँच छ; कवियों की काव्यप्रवृत्ति प्राचीन परंपरागत मार्ग से भिन्न स्वभाव की हो गयी थी । इस प्रकार यह विशेषता कोई असंबद्ध, श्रनियमित था कदावित्क नहीं थी | इसकी एक पुरो घारा भक्तिकान से लेकर रीतिकाल के श्रंत तक दिखाई पड़ती है । घतानंद के भ्रतिरिक्त रसखान, आलम, बोधा भश्रौर ठाकुर भी इसी स्व्रच्छंद प्रवु च के अंतर्गत शभ्राते हैं। उनकी काव्य प्रवृत्तियों का सुक्ष्मछप से परिचय इस प्रकार है। रतखान के काव्य में स्वच्छेंद मार्ग रसखान औझौर तुलसी समकालीन हैं। तुलसीदास के भक्त हृदय ने राम में भगवत्व के दर्शन कर उनके समस्त कार्यो को लीला बना दिया यद्यपि उसका वचद्यहप मानवीय व्यापार का सा रहा। मानवत्व का स्थान गौणा, प्रच्छन्न रहा । इसके पूर्व महात्मा सुरदाप ने भागवत के सहारे प्रतेकों प्रेम व्यापार जितमें वात्सल्य, दाँयत्य, श्रादि के भाव थे, प्रकट किए, पर वे सब भगवत्त की छाय। में हो बढ़े | झ्राजका पाठक च.है कितवों हो माववीयता उनमें देखे पर सूरदास जो ने भ.कतविद्वाल होकर भावल्जोला हो गाई। तुलसोदास जो की वितयवत्रिका और सुरदात जो के विनयपद राम और कृष्ण के भगवत्व के प्रति बिनोत भक्त के श्रात्म।नवेदन हैं। भगवान सानव से दूर बता रहता है । लीला सबवो सूर के पदो में भी कृष्ण अंगठ! खुख में मेलते है तो प्रनय को आाशंक्रा से सिधु उछलतने लगता है, मंदराच व काँपने लगता है, कप्ठ भी ग्रकुल। जाता है | शेबताग के सहछ्न फण डोलने लगते हैं | वटवृक्ष बढ़ने लगा, देवता व्याकुल हो गये, आकाश में भी उत्पात होने लगा। महाप्रतनय के मेत्र भा आ्राकाश में उठकर जहाँ तहाँ उत्पात करने लगे। तुलपीदास के काव्यों मे भगवत्व का प्राधान्य सर से भी अधिक है। राम को प्राय: प्रत्येक बालचेष्शा पुर देवता लाग प्रपन्त् 2 ७७ए"ए"शश/शशरशशशशणणशशशणणणणाणणआआनाआआआआआ४ााा॥ छाल १--उछलत सिंधु, घराधर कंप्यौ, कप्रठ पोठ भ्रकुलाय । सेस सहस फन डोलन लाग्यौ, हरि पीवन जब पाय ॥। बढयो वृक्षुवर, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात | महा प्रलय के मेष उठे करि जहाँ तहाँ श्राघात ॥--सूर । ( २५५ ) होकर पृष्प बरसाते हैं। भण्िमादि सिद्धियाँ उनको खिलाती हैं। फल- स्वरूप इन भक्तों फो रचवागं में भगवान की लीलाओं को मानव व्यापार का स्वरूप नहीं मिल सक्ा!। उत्तकाः कारण था भक्तिपरंपरा का शात्लीय रूप जिसका दोनों ने अनुसरण किया है। दोनों पर अपने श्रपने संप्रदायों का पूर्ण प्रभाव रहा | ये भगवान को मावव की भूमि पर लाते की धृष्टता नहीं कर सकते थे । 'रसंन जाति के मुपलमान थे। फारसी के स्वच्छंद सांसारिक प्रेम, जिशत्नक एक छोर नाम मात्र के लिये पर सच्चा से हिलगा दिया जाता है, इनके परिचय में था। इसलिये लेली के प्रेम को इन्होंने श्रेऩ्् बताया है'। सूकहो प्रेव, जिसकी अभिव्यक्ति लौकिक थी पर श्रत में तात्यय अध्यात्मसाथवा का कर दिया जाता था--सखाद की हष्टि में था। फत्स्वहूप कृष्णभक्ति का शास्र॒ वक्ष इनको स्त्रच्छंद प्रतिभा को सी।मत न कर सक्रा। इन्होंने उम्के 'रागानुगा' रूप में खच्छद प्रेम के दर्श किए । भक्त होकर भी प्रेमी बने, प्रेत भक्त । इस प्रेम का श्रादर्श जिस प्रकार लैली थी उसी प्रश्तर गोतिकायें थीं। रसबान की दृष्ट में लंबी का प्रेप और गोविकाश्ना का प्रेत एक सा ही थ!; उनप्का अतन््यता में कोई अ्रन्तर नहीं मात्रा । कृष्ण आराब्य न रहे, ञिय बन गये । कृवित्त सबबों में भगवत्व को सवा भुला नहीं दया है। जिसे शेष, महेश, गरेग, दिनेश और सुरेश तिरंवर गाते हैं वहों अहीर को छोकररयों के सामने छछिया भरि छाछ के लिए नाचता है। जिपे ब्रह्मा दिवरात स्मरण करते हैं, वे बशोदा के सामते खुरचन के लिए खड़े ठितक रहें हैं.” पर जिस तत्व का शेष महेश स्मरण करते है वह अ्रध्वात्म ज्गति हैं, पुराणों का अधिदेव परमेश्वर नहीं जो सूर तुलपी का अ्रभेप्रत हैं। इस पत्न में रस: खान कबीर से अधिक समता रखते हैं, सूर तुलपी से कम। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं का जो वर्णान किया है, वह माचत्र व्यातरार हैं। उतपें अलो- कया, १--भपति भाग बली सुरतर नाग सराहि पिहांहि । अगनिमादे सारद सैल नादिनि बाल लार्लाह पालहों ।--गोतावली । २--प्र मबादिका ३३ । ३-यदप्प जसोदा नंद अर ग्वाल बाल सब धन्य | पै या जग मैं प्रेम की गोती भई अनन्य | ४--रसखा[न, १३, ०११ .( २५६ ) किकता नहीं । परम ज्योति श्रब परमेश्वर कृष्ण बतकर जो थ्रा गई उसकी अनुभति और व्यापार मानवीय हैं। यद्यपि ऐसी ही प्रेम की चेष्टायें, व्यापार, कृष्ण भक्ति के सब कवियों ने वरशित किए हैं, पर रसखान की सी भावना उनमें नहीं । मानवीयता की महक उसमें ऐसी नहीं है। भावों की सरल श्रभिव्यक्ति का एक यह भी कारण है कि यहाँ श्राराधष्य भक्त की सम- तल भूमि पर उतर कर समानुभूति का श्रालंबत बन गया है। फलत: रस- खान भगवान् कृष्ण को भ्रेम की श्रनुभृति के लिए मानव की समतल भूमि पर उत्तार लाए हैं। यहाँ भक्ति का भेद जो भक्त और भगवान में बना रहता है; नहीं रहता । कवि ने प्रेम की पूर्णाता के लिये मानसिक अथच शारीरिक एकता दोनों को शझ्रावश्यक माना है। यह भी स्वच्छंद प्रेम का ही आश्रयण है। प्रेमी श्रोर प्रिय में न तो मनसा श्रौर न कायेन भेद होता चाहिए। इनमें आरोह क्रम से पहले मानसिक एकता श्रौर बाद में शारीरिक एकता प्राप्त होती है। यद्यपि श्रापातत: यह विपरीत लगता है क्योंकि शरीर मन की अपेक्षा स्थ्लतर है। पर सत्य यही है। मानसिक ऐक्य का #र्थ बौद्धिक अनुगामिता है। प्रिय जेसा करे प्रमी वेसा ही विचारे। पर बुद्धि के साथ शरीर की समस्त वृत्तियाँ संकलित नहीं होतीं। बुद्धि द्वारा निर्णीत श्रथच स्वीकृत तत्व स्थल इन्द्रियों को श्रग्राह्मय हो सकता है। 'मनस्यन्यत् वचस्यन्यव॒, कर्मणयन्यत् दुरात्मनाम्' की उक्ति इस्ती ओर संकेत करती है, दूसरे केवल बद्धि द्वारा स्वीकृत प्रम स्थिर भी नहीं रहता। चंचल बुद्धि स्वयं परिवर्तित होकर अपने निर्णायों को भी परिवर्तित कर लेती है। इसलिए निष्ठा तभी बनती है; जब शरीर श्र मन दोनों से प्रिय की एकता हो। इस एकता के लिये सामस्त्येन श्रात्मसमर्पण करना पड़ता है। शरीर की समस्त इन्द्रियाँ जब प्रिय की श्रतुगामिता करती हैं--अर्थात् अ्राखें प्रिय को? ही देखें, कान प्रिय को ही सुनें, त्वचा प्रिय का ही स्पश करें श्रादि श्रादि, तब प्लम पूर्ण हो जाता है। यह स्थिति बौद्धिक अ्नुगामिता के बहुत बाद में प्राप्त होती है । रसखान पूर्ण प्र म की परिभाषा करते समय इस उभय विध एकता के पत्ष- पाती हैं। अन्य भक्तों की तरह शारीरिक श्रभेद में उन्हें वासना की दुर्गन्ध नहीं आती | भात्मसभर्पण की पराकाष्ठा दिखाई देती है। वे प्रेम के मांसल रूप को गतानुगा[तक होकर श्रधम नहों बताते | 'दो श्रन््त:करणों को एक होते तो सुना है पर वह प्रेम नहीं है। जब दो शरीर भी एक हो जायें तब ( २५७ ) प्रेम कहलाता है।! इस तरह भक्ति को शास्त्रीय पद्धति से बौद्धिक शुद्धता से देकर उमे ग्रनुभव बल ने सांसारिक बवाज॑ता देकर स्वच्छंंद प्रवृत्ति का परिचय दिया है अभिव्यक्ति पशञ्न में स्वच्छंद मार्गो कबत्रियाँ की प्रवृत्ति स्वाभाविक साव- प्रवणा भाषा को होती है। वे भाषा को अलंकारादि से सजाने के पक्षपाती नहीं होते । अपने भाव व्यक्त करता ही मुल्य-व्येबः रहता है। रमखात में यह प्रवृत्ति पर्यात्न मात्रा में देखों जाती सरल भाषा में मामिक भावों को व्एक्त करने के कारण इनके कवित्त सदंयों का नाम हो रसखान ( रस की सानि ) पड़ गया है | रमखान के समय में भक्त कवियों में गीत-रचना की ही प्रणाली थी। पृण रसखातन ने उस्रे नहीं झयताया । प्रबंध परपरा का झ्रनुसरणु भी नहीं क्रिया । यद्यपि सूर के बाद तुलनो ते प्रत्धरचना को अवधिक्त ख्याति दी थी, सूरदास ने भी भागवत के सहारे चूरन गर हे फुटकए गीठों की रचना कर कथाप्रद॑ध को अपना आश्रय बता जया था ! संजान ने अपने भावों को पअ्नुकुल छंद सर्वेरों में व्यक्त किया। भागवत की कथा परंररा के अतयार कृष्ण को लोलाग्रों का वर्णन अझ्ाउक्री रचनओों में नहीं मेजता। स्वच्छंदमार्गी कवि भाववहुल अच्तमु ख हाल के नाते मुक्तक पतद्मों की रचता की ओर ही अधिक भ्रुकता है। प्रबघ में हृदय तथा ब॒द्धि पक्ष को सनता, जीवन को विभिन्न व्षिमताओों का सामंजस्व अपेक्षित होता है। स्वच्छद प्रवृत्ति में भावातिरेक स्वेप्रधान होता है। फलत: फुटडकल रचना इबर अधिक उपयुक्त ठहरती है । छंद भावानकूल होते हैं क््य/के भाव का अतिरेक अपने लिए अनुकूल छंद ग्राय तिश्चय करा लेता है। सत्रया में एक पाद में एकब्रर यति १६ वो मात्रा के बाद झ्ाती है। अन्यया छंद का प्रवाह यवावत् बना रहता है। पाद में भी प्राय: दीध श्रक्षर से हृस्वोन्मख प्रारंभ होकर एक प्रकार की ढलान का निर्माण हो जाता है। स्थभाविक्त ढंग से भाव उड़ेलने वाले कवि के लिये यह छुंद अनुकुल ही होगा । इस प्रकार छंदोविधान में भी भावप्रधानता भलकती है, बाह्य सज्जा नहीं जिसको भ्रनुभूति से संगति न हो। यह सब कवि के अन्तम् ख होने की ओर संकेत करता है जो कि स्वच्छ॑द मार्ग का एक बड़ा व्यापक ल्छ्षण है । १--प्रेम बाटिका, ३४। १६९ ( रश८ ) स्त्रच्छंद मार्ग का एक चिह्न भावों की वेयक्तिकता भी है । इस मार्ग का कवि अपने भाव आप ही उत्तम पुरुष द्वारा व्यक्त करता है। उनमें शास्त्रीय मर्यादा की रोक नहीं ग्राने देता । सीधी श्रभ्रिव्यक्ति होने देवा है। रसखान में ऐसे पद्म भ्रमेक मिलते है जिनमें कवि ने अ्रयता प्रेमासिजाष स्वयं व्यक्त किया है। श्री परशुराप चतुर्वेदी का कहना है कि 'रतखान ने जो अपनी प्रेमनक्षणा भक्ति का परिचय दिया है उसे अ्रविकतर व्यक्तिगत उद्गारों द्वारा ही प्रकट करने की चेष्टा की है ।! इनके काव्य में अधिक मात्रा ऐसे प्मों की है जिनमें गोषियों के कृष्ण के प्र ते अमिलाब, प्रेत कलह, माधुरी, मोहन, आदि की वर्णना हुई है। उनमें कवि ने अश्रपना ही हृदय खोलकर रखा हैं। पारंपरिक भक्ति भाव नही है । फारसी की काव्यपद्धति का अतिवाद और विषाद व्यू आपने कहीं भी श्रनुसरण नहीं किया। उद्ची प्रकार सूझी संतों का कथा- प्रबंधों द्वारा सांप्रदायिक दर्श श्रापकी रचताओों में प्राप्त नहीं हाता । मोहन-माधुर्य रसखान की श्रनुभति का बीज है। इसलिये प्रेम- बाटिका में कवि का विचार है कि जो लोग प्रेम को फाँसी, या तलवार समझते हैं उसी प्रकार नेजा, भाला या तीर भी इसे बनाते हैं, वह सब युक्ति- सह नहीं है। प्रम की मार में पिठास हो मुख्य रहता है । इस प्रकार रसखान में झपने समय की काय्यब्रव तेथों कथा अनुभूति- विधानों का परिवय तो दिखाई पड़ता है पर अनुसरण नहीं । उन्होंने श्रपता ही स्वानूकून सार्ग बवाया। उस मार्म में विश्युद्ध श्रश्नतिहुत प्रेम की शअनुमूति का प्राचुय था और उतकी शअ्रताबृत्त अ्रभ्रिव्यक्त थो जो स्वच्छंद मार्ग की शोर संकेत करती है, शास्त्रीय परंपरा की शोर नहीं। इसका तात्यर्य यह तो कदापि तहों कि रसखान ने जात ब॒झरर शास्त्रीय मार्गों का खंडन किया है। या वे काव्य के स्वच्छुद मार्ग से यथात्रिधि परिचित थे । उनके जोबन का संयोग मुसलमान प्रेमी भक्त होने के नाते विविध पद्धतियों के सं मश्रणा का कारण बन गया था। वंसा ही संमिश्रण कबीर में भी हुआ था। पर कबोर शातमार्गो होकर कठोर भी हो गए श्लौर खंडनपरायणु भी । हृदय की अनुभूतियों को अपने ढंग से व्यक्त करने की सरस प्रवृत्ति उनमें नहीं भ्राई जा रसखान में भरा गई । १-परशुराम चतुर्वेदी, हिंदी काव्यधारा में प्रेम प्रवाह, पृ० ६६। २--प्रेमवाटिका २९ । ( २१४५६ ) ( ग ) आलम के प्रेम का स्वरूप तथा स्वच्छेद काव्यवारा पारिवारिक श्ौर उन्मृक्त दोनों प्रकार का प्रेम आलम के काउ्पों में मित्रता है। मुक्तकों में कुछ पद्म तो रीति के ढरें के हैं जिनमें सपत्नी दाह, खंडिता, श्रनुशयना ब्रादि के विपाद श्रादि का वर्णात हुआ है। कुछ पद्चों में प्रमम्ाव का स्वतंत्र और उन्धुक्त रूप से वर्णन है। ऐपे स्थलों पर कवि प्राय: भावात्मक है। जहाँ उसकी काव्यप्रवृत्ति अ्रंत्मुं वी होकर विभाव, अनु भाव आदि के वर्णा से हट गई है, वहाँ प्रेमभावना के मादक प्रभाव आदि का स््रच्छंद वर्ण हुमा है। इनक्के प्रबंवों को कथा बंबनपुक्त प्रेम से संबंधित है। यद्यपि इसमें प्रेम का अ्रवसान प्रेमियों में विवाह के रूप में होता है जिसे सामाजिक रूढ़ि का प्रनुकरण कह सकते हैं, पर कवि ने विवष्ह से पूर्व की दशाओं का हो वर्ण अभिनिवेश से किया है। कया के पात्र किसी सामा- जिक बंधव से बढ़ नहीं हैं, प्रेमबंबन से हो बढ्ध हैं। प्रेप के प्रदिपादत की शैली स्वच्छंद अधिऊ है, रढ़िग्रर्त कम । प्रेण को को अनुभूति व्यक्तिगत है व्यक्तिगत है। अतएव वह मामिक और सत्य प्रतीत होती है। आलम का प्रम अभिनापप्रधन है। इसके कारण प्रिय के प्राप्त कर लेने पर भो तू मे वहीं होती | प्रेमी भ्रभिनाघु दर हो बचा रहता है। फत्रस्वरूव उसका प्रत्येक क्षए प्रंतद्ृद्र ते अभिभत रइता है। प्रिय के देखते झौर न देखे रहने पर वह दुखी है। इस उभयविध मनोव्यथधा का चित्रण बार बार कवि ने किया है । [प्रिय । के सामने रहने पर नेत्र टकटकी लगाकर उप्ने देखते हैं, इसलिये पलक नहीं मारते। वियोग में फटे के फटे रह जाते हैं इसलिये तिर्तिमिष बने रहते हैं। सुखी तो प्रिय ही है जिसे दूसरों की कोई चिता नहीं । गोपिकायें श्री कृष्णा से यही आ्रात्मनिवेदन करती हैं कि--- हे कृष्ण हम दोनों प्रर्मर से थक्र गईं। तुम्हारे न देखने से तो दुःख होता ही है, देखने पर भो घंय नहीं रहता ।* )अभिलाषा का ही यह प्रभाव १- देखे टकलाग अनदेखे पलकौन लागे देखे भ्रनदेखे नेता निमिष रहद हैं। सुखी तुम कान्ह हो छु श्रान की न चिता हम देखे हु दुखित श्रनदेखे हु दुखित हैं ॥ “-+अआालमकेलि, छंद १८५ | २--वही, छंद संख्या १८७॥ ( २६० ) है कि प्रिय की छोटी छोटी ग्रेम चेष्टायें प्रेमी के भ्रंतरतम को मधित कर डालती हैं। वह विह्बल हो जाता है। क्या घर क्या बाहर मित्र के प्रेमिका देखती ही फिरती है। देखते देखते मन तृप्त नहीं होता । कृष्ण ने थोड़ा हँसते हुए फिर कर देखा तो उसका गमन रुक्त गया । श्राएचर्य चकित सी एक ही स्थान पर खड़ी रह गई। हृदय में धमक मे लगी श्र पीड़ा उत्पन्न हो गई,” ऐसी भनेकों व्यक्तिगत ब्रनुशरिएँ + हिरदों है अ्म सादा -की परंपरा में नहीं मिलती, श्रालम ने व्यक्त की : में नहीं मिलती, श्रालम ने व्यक्त को हैं । . संयोग भर वियोग जब दोनों ही विलकता के उत्पादक हैं तो प्र का स्वरूप कठोर ही रहेगा, श्राहुलादकारी कोमल नहीं। इस कठोरता का कारण प्रेम की एक पह्कीयता नहीं है जैसा कि फारसी के कवियों की होती है, अ्रपितु अभिलाषातिरेक है। प्रेमी ने प्रिय के प्रेमसिक्त कोमल रूप क्षे भी कठोर समझा है क्योंकि वह नए नए श्रभिलाषों को जगाता है श्रतए पीड़ा देता है। कृष्ण निकट रहते हैं फिर भी निष्ठुर हैं। इसतिे वे निश्चय “निपट निठुर हैं।” ऐसी मनोदशा के प्रेमी के लिये प्रे गले की फाँसी बन जाता है। उसमें आनंदोल्लास का तनिक भी श्रवता नहीं रहता । भोतिक प्रेम भ्रौर श्राधिदैविक प्रेम श्र्थात् भवित में यह पा्यवथानिक भेद है कि भक्ति में विरह श्रपार वेदनायें देता है तो मिलन तृप्तिब्ध उलल!स की हिलोरे उठाता है। भगवत्सानिध्य में श्रानंद की चरमानुभति रासलीला इसी अंतर को ओर संकेत करती है। समझ्त गोप गोपी कृष्णा के साथ नाचते गाते है श्रौर उनके मुखचंद के चकोर होकर तृप्ति लाभ करे हैं। पर लोकिफ प्रेम का मूल वासना होती है जिसका पुरुष अंग अभिलात है। अभिलाष प्राप्ति से श्रौर श्रधिक बढ़ता जाता है। इसीलिये उसझश पर्यंवसान दुख में होता है। भक्ति विषयापेक्ष है, प्रेम निरपेक्ष । इतीतविये पहला ससीम है दूसरा असीम । आरालम का प्रेम संयोग द्वारा सफल हो या वियोग द्वारा विफल, है दुख पर्यवस्तायी ही। बेदना के सातत्य से उसका. उत्साह भी भंग हो गया है । वह विजित और बिके हुए व्यक्ति की मनोदृत्ति प्रदशित करता है।. जान पड़ता है कि वह अपनी स्फति का बल सदा के लिए (-वही, १४० । २--वही, १७० । च. खो बेठा है? । इसी लिये वह अव्तों बेंइना में संबुट् और संयोग सुख ते उदासीन है। प्रिय कृष्ण जिसने रस हो उसके स्व केलें . उनके देखने से हृरय की तपनि दर होतो है बही बड़ा भारी घस है. कृष्ण बहुतों के 'प्रय हूँ पर वे कैसी की पीर नहीं पूछते, यह परेद्रास हैं। यदि उनके मवमे काई भरा बसी है तो इसमें उपका क्या बस । प्रेत्वी के प्रागु अंदर ही अंदर घुटने रहते हैं पर वह किसी से अपनी पीड़ा व्यक्त करना नहीं चाहता । एक तो प्रेम व्यथा आँतरिक हे । प्रकट में जितती दिखाई पड़तों हैं उपते कहीं श्रबिर वह अंतर में रहती है। लोग ऊपर-ऊपरर में उसे क्या समझ सक्रेंगे। जिने शूतरो की गाँस जग चुकों हो उसे हंसी तहीं आ सकती । प्रेमी बेचारा फाँवा में पड़ा है फिर भी उसकी सचाई में संशय किया जाता है। मन के चले जाते से हृदय तो मरोड़े से लेता रहता है पर ऊपर लोगों को थोड़ी उदाती दिय्याई पड़ती है' । दूसरे प्रेमानुभूति सार्वजनीक नहीं होती । दूपरे के हृदय की कौन जात सक्रता है ? यदि कोई व्यथा की कया सुत भी लेता है तो उपसे पीड़ा बट नहीं जाती । व्यथा भार ज्यों का त्यों रहता है। इसलिये प्रेमों को मौन रहना ही भ्रच्छा लगता है“ । प्रेम की अंतसुंबी प्रवृत्ति का यही परिणाम संभव है। प्रेम के रोगी को रोग जितना अ्रच्छा लगता है उतनी चिकित्सा नहीं । भ्ौषध हितावब॑ ताहि बेदना न भाव जाहि, मीर छांडि बीर बेद पीर मोहि प्यारी है । आराधना में रूपवान प्रतीक का पर्यंवलान भवित के भाव में हुआ करता है अंत में शेष भाव ही रहता है, भगवन्मृति का सहारा छुठ जाता है । इसी प्रकार भौतिक प्रेम में आगे चल कर श्लालंबन नीचे रह जाता है, भाव ऊपर उठ कर समस्त आ्ालंबन को अ्रवुत कर लेता है। इस दशा में प्रेप-प्रम के लिये होता है वस्तु विशेष के लिये नहीं। इसको दो स्थितियाँ हो सकती हूं। एक तो झालंबन के परिवर्तित रहने प्र भी ब्रम को वन्मयता श्रौर मारमिकता यथा पूर्व विद्यमान रहे । इसमें आलंबन का महत्व कम हा जाता हूँ, भाव अरीनननननानातरीना++>«नममननंमतनक मनन. 2 १--परशुराम चतुर्वेदी : हिंदी काव्य-धारा में प्र मे प्रवाह, पृ० ४४। २--आलमकेलि, १५१ | ३--वही, २०६ | 9--वही, १७६ । ( २६२ ) का भ्रधिक । यह प्रायः युरोपीय प्रेमकवियों की क्ृतियों में उपलब्ध होताः है । दूसरी स्थिति प्रालंबन के प्रेव भ्रथवा हेय होने पर प्रम का तदवस्थ वने रहना है। प्रिय दमरों को सुंदर लगे चाहे श्रयुंदर प्र मी को बह प्रिय ही है। आलम का प्रम॑ अपनी तत्मयता में इसी स्थिति का है। पहली स्थिति में आालंबन का परिवर्तत प्रम को श्रस्थिरता की भ्राशुका उत्पन्त कर स् परिवर्तत प्रम को भ्रस्थिरता की आशंका उत्प पर दसरी में अनन्यता की सुगंधि प्रम को दिव्यता प्रदान करती रहती- है ॥ जो कृष्ण को काला कहती हैं वह गंवार सी लगती हें। मुझे तो उनकी श्यामता ही उचली लगती है। जहां मन का लगाव है, वहाँ रूप का कोई विचार नहीं होदा ! रीक की बूक कुछ विलक्षण होती है प्रमाभिलाष श्ौर लज्जा के संघर्ष के कारण जो मानसिक उलझन उत्पन््त होती है उसकी अनुभति भी कवि को हुई है। नए नए अ्रभिलाब श्हमह- मिकया उठते रहते हैं, पर अपनी पूति बाहुर न पाकर भीतर ही घुमड़ने लगते हैं। प्रम का वेदवापक्ष यही है। “प्रिय कृष्ण सामने खडे हैं। मुंह नोचा करने से उनका पूरा दशन नहीं होता । जब वे बाहर बंशी बजाते हैं तो मन घर से ब।हर चलते को करता है पर शरीर कॉपने लगता है। लब्जा की भीड़ में नेत्रों को भी भाग नहीं मिलता । संकोच से धीरे धीरे विचार करना पड़ता है । से प्रकार एक वास में भी दोध श्वासों के साथ ज्ञीवित रहना पड़ता है । दो श्वासों के साथ ज्ञीवित रहना पड़ता है ॥ अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण झालम ने मनोभाव को साहित्यिक श्रोचिती की रक्षा करने के लिये संवरण नहीं किया । स्पष्ठ रूप से उसे वर्रात् किया है। कहीं कहीं श्रश्लीलता भी श्रा गई है। प्राय: भावावेश के स्थलों पर ऐसा हु्ना है । मुक्तक रचनाओं में प्रम का मन्मथ तथा प्रबंधों में लोकोपकारी सर्ज रचनाग्रों में प्र मनन््मथ तथा प्रबंधों में लोकोपकारी सर्जक अदच उना्प्रगर पर आए १। कामकंदला का तायक माथवानल प्रेम के कारण उत्पन्न हुई आपत्तियों को साहसपुबंक भेलता है, उसके प्रतीकार के उपायों का सकलन करतठा है। अंत में सफल होता है। 'स्थामसवही' में भी वही सर्जक रूप आया है। श्रध्यवसाय यहाँ पुरुषगत न होकर स्त्रीगत है। रुकक््मणी अनेक विरोधों की विद्यमानता में अपने प्रम की टेक का सफला १--वही, १४८ ! २-- वही, १६० || ( २६३ ) निर्वाह करती है। प्रेम का कारुणाद्र रूप वहाँ वहत स्पष्ट होता है, जब कि रुक्मिणी की अरूणर्थता से रकम की जीवनरद्दा होती तो है। द्वंप का प्रतीक रुक््प संहार के लिये उतारू था पर प्रेम की मात रुजिमणी सं॑रछरणा ही करता रह /5 /ज॥/ दोनों कयाञ्रों में बाघाओ्ों की उमदम्रग दिखाकर प्रेम की स्थिरता को भये भूयः पु किया गया है । खसुदामाचरित्र में सौहाई का चित्रण है। सोहाद का पद प्रेम से नोचा है, क्योंकि इसके इर्द गिर्द उपकार भावता रहुती है। उपकार से हो इसका जन्म होदा है, उपकार में दी परयंवशन । पुवोषकार का स्मरण तथा कृतश्नाव, इसकी अनत्यता है । पर सत्य सौहाद उपकृार की सीमा का अतिक्रलणण करवा हुआ व्यायक्र भाव लेता है। उपकार की प्रत्रत्रि केवल योगद्वेम संबंधितों बौद्धिक स्थिरता तक ही रहती है। हृदय की मारिक ममता का भाव उसमें हो भी और न भी हो। कृष्ण सुदामा का सौहर्द ऐता ही जीवनावधि स्थायों, हृदय के अंतरतम में लब्यमल, गदगदकारी अह्वाद का जन्मदाता प्रेम है। आलम इसके यथार्थ रूप का चित्र नहीं कर सक्रे । इनको दृष्टि वस्तुगामिती होने से घटनाओं का इतिद्रनात्पद्ः वर्णव करती रही हैं। उसका भावात्मक रूप इनको ते में वेवा वहीं आया जैसा नरोत्तमद्ास की अनुभूति में। किर भी कथा को काव्य विषय बनाकर ब्रेन की विविषता से अपता परिचय प्रकट किया है। चुदामा की दोदता और द्वारिका का आश्चर्यजतक बेसव वर्णगातव कर सौहार्द की भेद!तिगामिता भी व्यंजित की है । इस प्रकार प्रबंदों में लोकोसकारी तथा सुक्तकों में अतुभूतिमय दांतों प्रकार के प्रेम के कवि झालम प्रेमभाव की व्यापक पुर्खता के साथ हम रे समच्च उपस्थित होते हूं । प्रेम के जीवयोपकारी रूप के चित्रण के साथ बठतागं का श्र वताभाद संबंध है। घटनाग्रों के लिये विस्तृत भमि, प्रजंशों में ही घुलभ हो सकती हैं । इस लिये प्रेम का यह रूप वहीं संभव है, मुक्तक्नों में नहीं। मुक्त में भावों की गंभीरता अपेक्षित होता है जो समाहार के बल पर सिद्ध होता है। केंदे की प्रतृत्ति मी अंतर्मुखी होने से अधिक से श्रघिक भावात्मक हो जाती हैं। ऐसी दशा में वहाँ अ्रनुभुतिमय प्रेम का ही चित्रण हो सकता हैं, जीवनी पकारो का नहीं। श्रालम ने इसी मार्ग का झ्लाश्यण कर अ्रपता रससिद्धा सवडत प्रमाणित कर दिया है । ( २६४ ) (5) बोचा कवि की स्वच्छ॑द कांव्यअवृत्ति माधवावल काझ्कंदला की कथा को प्पनता काव्यविषय बनाकर बोधा ने अपने स्वच्छंदमार्यी होने का प्रमाण दिया है। भौतिक और बंधनहीन प्रेम जँंसा उनके जीवन में था उसी प्रकार की कथा को उन्होंने श्रग्नाया। कला- निष्णात ८; .राए॒5,८ बाय नतंकी के ज्ाय स्थप्यी प्रेम होता सामाजिक स्वच्छु- दता का प्रतीक है। ऐसा ही प्रयोग कवि ने श्रयने जीन में स्वयं किया था | नायक नायिका तथा उपनायिका के शापग्रस्त होने का उल्लेबव करने से कथा की स्वच्छेस्ता को मर्यादित दिखाना अ्रवश्य हो जाता है पर बोधा की वह निजी कल्पना नहीं प्रतीत होती । उन्होंने जैयी कथा सुनी थी वंसी ही कह दी है। उस अंशपर कवि का विशज्ञेष प्रमिनिवेश भी नहीं दिखाई देता। इस कथा पर काव्य रचना करने छी प्ररणा कवि कौ कंसे मिली इसका उल्लेख उन्होंने प्रारंभ में किया है। सुभान ने सच्चे प्रेम का लक्षण भौर परिणाम पुृछा था। उसके उदाहरण स्वरूप यह कथा कही गई है। मध्य मध्य में दोनों के संवाद भी चलते रहते हैं ।* कवि--सुन सुभान यारौ दिल दायक। भ्रब यह कथा न कथिबे लायक |। सुभान--भ्रहो मीत ऐसी जनि भाखौ। कथि के कथा वन श्राधी राखौ ॥ --विरह॒वारीश । अत: स्पष्ट है कि कवि के स्वच्छंद प्रम ने इस कथा की प्रेरणा दी थी। उनके जीवन में जो वस्तु रम गई थी वह काव्य द्वारः प्रकट हुई है । विषयनिर्वाचन ही नहीं भावसाम्ग्री भी बोधा को रीतिमुक्त स्वच्छुर मार्गी होनी का संकेत देती है। रीतिमार्ग के कवियों की रचनाओं में जिस प्रकार शलंकार, तायकनायिकरा भेद श्रादि पर कवि की हष्टि रहती है वह बोबा की रचनाश्रों में नहीं। उन्होंने मुक्तक पद्यों में प्रायः प्रेम की पीड़ा, निर्वाह, श्रनन्यता प्ादि का प्रतिपादन तथा प्रबंधकाब्य में ( २६५ ) निरलंकार शैलों से (वस्तु प्रतिपादत किया है। प्रहस्तुत अंश भी रीति परिपाटी में जैसा चला थ्रा रहा या दैसा नहों है : वैसे ली निःलंकार होते से अप्रस्तुर्ताण की मात्रा कम ही है। इश्कवावः हे चतुत्र अठ्याय में अत्य क्तियाँ लिखी हैं। उममें प्राय: भींग ज्लौए मब्यकालीव इलेक दुप्प जैसे, मालती, चमेली, सोनजुही, चंपा आदि अप्रस्तुत रूप में आए हू । «' तुकाल के कत्रियों ने संस्कृतपरंपरा के उरमान अधिक लिए थे। बोबा इस इप्ट मे भी रीति को रेखा से हटते ही दिखाई देते हैं। 68] बोचा मनोवेगो के कत्रि हैं परिप्कद भावों के नहीं । री तिबद्ध भाज ना हेत्यिक ओर सामाजिक बंकुण से दबे हुए रहते है। बच्चा कुछ रतलिक | विपरीन रति आदि का वर्णान कर तथा अनूढ़ा का प्रे मर्यादा का भंग किया हैं पर वहु सब नापिकाभेद की आड़ अण्लोल दोष वहाँ भी नहीं आने दिया । हुश्य के असंबत भाव साहित्यपरंपरा द्वारा संयत कर दिए गए है। बोजा ने विरहवारीश्' में पात्रों के संयोग वियोग में भ्रनवरुद्ध मनोवेगों को चित्रित किया है। कुछ वर्णन तो साधारण लोक- रुचि के उद्वंजक हो जाते हैं। पर इसका मूल कारण यही है कि कवि अपने हृदय पर नियंत्रण नहीं करता चाहता । प्रारंभिक रचनाओं में अवश्य रीति की लटक श्रौर फारती का अनुकरण दिखाई देता है पर बाद में वह नहीं रहा । “विरहवारीश” में पच्चिनो, हस्तिनी श्रादि नायिका भेद तथा नायक भेद के पद्य मिलते हैं पर वे काव्यकला के शशव के हैं। “इश्कनामा”? के फुटकल पद्मों की भाषा भी परिष्कृत और चुस्त हो गई है। फारती का रुम कम दिखाई देता है। इस अनियंत्रित भावराशिमें बोधा की स्वच्छंद प्रकृति का आभास प्रवश्य मिलता है। इससे उन्हें अधम कवि मात लेना श्रत्याय होग। | फारसी प्रभाव अवश्य इसमें कारण है। अ्रतः यह ठीक है कि बोचा में कुछ बाजारू रंग-ढंग कहीं-कहीं मित्रता हैं। यह उनपर फारतपी की रचना का आरंभिक प्रभ्नाव है। 'रीतिबद्ध लक्ष्यकारों में जो स्थिति रसरिधि की है, भक्तों में जो रूप कु दनशाह का है, वसा ही स्वच्छंद कवियों में बोधा का समभना चाहिए |** कुशल हुई कि बाघा ते अपनी सारों रचना इसो प्रकार की नहीं रक्खी? | 54707 %॥ कि है , /्भ कर 2] जय “| - 6&॥ खब्ड ही 4८] !| 8 2 शी 5 नि 50 -ड ह+ ६ | /्भे कप 694 | | ६) |४ हि ॥ ।॒ | डक नी || जिया १--श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र ; घनानंद ग्रथावली-भूमिका, ९० ४८५ | ( २६६ ) इस संबंध में तीसरी विशेषता बोधा के व्यक्तिगत भावों की है। उन्होंने जिस प्रकार सोचा है, सीधा उसी प्रकार कह दिया है। उसे कृत्रिम नहीं बनाया। श्रपदों समस्त रचना में सुभान का किसो न किसी प्रकार से प्रसंग रखा है। श्रपने हृदय को, श्रपने व्यक्तित्व को इस प्रकार स्पष्ट रूप से प्रकट करना बिना स्वच्छंद भावतवा के नहीं हो सकता । रीतिमार्ग में तो 'शोभ- नता', सहजता? को श्रावृत कर लेती है। बोधा स्पष्ट कहते हैं--- एक सुभान के आनन पे कुरबाव जहाँ लगि रूप जहाँ को। ५ रे मे जान मिले ताँ जहान मिले नह जान मिले तौ जहाँत कहाँ कौ | तथा, “बोधा सुभान हितू साँ कही या दिलेबर की को सही करि जानत । वा मृगतेनी की चाह चितौनि च्ुभी चितमैं चितसों पहिचावत ॥॥ तासों वियोग दई ने दयौ तौ कट्ठौं अ्त्र कैमरे मैं धीरज आवत । जानत हैं सब ही समझाइ ये भावती के गुत को नहिं जानत || अपने व्यक्तित्व का निश्छल प्रकाशन कर बोधा, घनानंद जैसे स्वच्छद- सार्गी कवियों ने हिंदी-काव्य-भागी रथों में ऐसी सरस्वती का संगम किया जो इनसे पूर्व कभो हुआं ही चथा। यह गुण तो हिंदी साहित्य या भारतीय साहित्य के लिये महत्वपूर्ण वस्तु है। बिल्हएा की “चौरपंचाशिका” के बाद रीतिकाल में कवि का रत्मप्रकाशन! कहीं भो सुनने को नहीं मिलता बोधा ने अपनी कला में इसका प्रयोग किया है। यह गुण बोधा में घतानंद से भी भ्रधिक है। उसका कारण भो स्पष्ट है। यह बात फारसी से आई है । फारसी के गुणों को ठाकुर झ्ौर घनानंद तो इतना पचा गए कि वह हिंद के अंग में एकमेक हो गई। पर बोधा उतता पचा नहीं सके। इसलिये झात्ना निर्व्यक्ति! को अवृध्य इनमें सबधे अ्रथिक रहो है। इसीलिये इनके आवचितन में मस्ती भी फलकती है। शराब को जगह पर प्रपतो अवतभा _से भाँग पीने का उपक्रम किया गया है। भाषा की स्वाभाविकता स्वच्छ॑दमार्गों सभी कवियों की अपेक्षा बोधा में भ्रधिक विद्यमान है। ठाकुर ने लोकोक्तियों द्वारा, घनानंद ने लक्ष॒णाप्रों के बल से तथा झ्लालम ने श्रलंकारों के प्रयोग से चमत्कार का आश्चवरणा किया है । कैवल बोधा ही ऐसे हैं जो भाषा के स्वाभाविक रूप को लेकर चले हैं बोधा ही ऐसे हैं जो भाषा के स्वाभाविक रूप को लेकर | उर्द्' का को शब्दावली अव्रश्य कहीं कहीं प्रयुक्त हुई है पर उससे अभि- व्यक्ति की कृत्रिमता का कोई संबंध नहीं । वहु सरल सहज ही है--- भसनमोहन ऐसो मिल्लावत हैं जो फदेतो कुरंग फर्दती करे। तब लो छल जानो न जात कछू जडलों ग्रधपी वह मारि घरे ॥ कवि बोधा छुटे सब स्वाद सबे बिन काजहू नाहक जीव जरे। विषखाइ मरे कि गिरे गिरि ते दगादार ते यारी कभी न करे || कवि ठाकुर की काव्यशली और मर्ज ठाकुर ने अभ्रपने काव्यादर्श पर निम्तलिखित घनाक्षरी लिखी है। सीख लीनो मीन घमृप खजन कमल नैन, सीख लीनौ यज्ञ श्रौ प्रताप को कहानी है। सीख लीनों कल्पवृक्ष कामधेनु चितामरणि, सीख लीनो मे झौ कुब्रेर गिरि आनौ है ॥ ठाकुर कहत याक्री बड़ों है कठिन बात, याकों नहिं भूलि कहूँ बाॉच्रदत बादौ है। डेल सौ बनाय गाय मेलत सप्रा के बीच, लोगन कवित्त कीबा खेल करे जानो है ॥। पच्च का तात्यर्य॑ यही है कि बँधी बँबाई परंपरा की कुछ बातें, जिनमें कवि की व्यक्तिगत अनुभूति न हो, कविता नहीं कही छा सकती। ऐथी कृविता स्वाभात्रिक नदों होती ब्रतएव जीवन के ल[थ उसका मंत्र नहीं होता रोतिकाल की कविता का रूप प्राय: ऐवा हो हो गय्रा था । कविशिक्षा द्वारा अ्रकवि कवि बनते | अस्वामाविक्तत्तश्नों का वर्णत करव में ते तो कर्ियों को कुछ प्रनहोना लगता था न रासकों को वेरत्थ अनुभव होता था। शाकुर की शली की प्रथम विशेषता यह है कि उन्होंत उपर्युक्त भत्र को हपटी रचनाप्रों में नहीं दुहााया। इनके काव्यों में प्रम तथा अन्य भावों की बह साधारण अनुभूति है जो व्यक्तिगत होकर भी सार्वजनीन है जिसका हृदय हृदय में जज १--इश्कनामा, २, ३५ । २--< वही, छऐ। ३--वही, ६ । |. रईक प्पंदन होता है जो कवि परंपरा की क्ृतन्रिमताग्रों से उन्मुक्त है। स्वाभा- विक है हि वह कवि की श्राप बीती सी लगती है वा निरमोहिनि रूप को रासि जोऊ उर हेंत न ठानवि हरे बार हू बार विलोकि घरी घरो सूरत तो पहचानति हें है॥ ठाकुर या मत को परतीति हैं जो पे सनेह न मानति हृव है। आवत हैं नित मेरे लिए इतनों तो विशेष के जानति ह वे है।॥ जिस प्रकार अनुभति का सीधा साधा सरल स्वरूप है उसी प्रकार श्रकृत्रिम उसकी अभिव्यक्ति है। इसीलिए सरलता श्रौर ज्िप्रसंवेद्यता इनके पद्यों का सर्वोत्कृष्ठ गुण है । सूखे ईंवन में जिस प्रकार अ्रर्ति शीघ्र प्रविष्ट हो जाती है उसी प्रकार कवि के भाव श्रोता को शीत्र प्रभावित करते हैं। शब्दों का बाह्य सजा या श्रर्थ संबंधी चमत्कारजनक वक्रता लाने को ओर कवि का ध्यान नहीं गया। “जमे भावों को जिस ढंग से मनुष्य मात्र अनुभव करते हैं वसे भात्रों की उसी ढंग से यह कवि अ्रपनी भाषा में उतार देता है। बोल चाल की चलती भाषा में भाव को ज्यों का त्यां रख देना कवि का लक्ष्य रहा है! ।* निष्कर्ष यही है कि इनकी सहज निश्छल श्रतु भति और शअ्रक्षत्रिम श्रभिव्यक्ति इन्हें रीतिमार्ग से पृथक कर देती है। बसे ठाकुर के काव्य का बाह्य रूप तया परिधि वही है जो रीतिम्गी भ्रन््य कवियों की, पर प्रयोग का प्रकार भिन्न है। प्रेमश्चृंगार, भकितरि और नीति रीतिकाल में स्वंप्रिय विषय रहे हैं। कुछ लोगों ने तराशंपी पद्म भी लिखे हैं। इनमें से पहले तीव को ठाकुर ने भी लिया है। अंतिम को नहीं स्त्रीकारा । राज दर्बार में जीवन बिताते हुए भी बढ़ा चढ़ा कर जो आश्रयदाताश्रों की प्रशंसा नहीं लिखी इससे कवि का स्वाभिमानी व्यक्तित्व अआऋलकता है। श्रस्तु पहले तोत विषय, प्रेम शुगर, भक्ति और नीति को परखा जाय | प्रेम-झूंगार सावंजनिक अनुभूति है। इसके चित्रण में कवि के व्यक्तिगत अनुभवों की सबसे अधिक आशा की जादी है। पर रोति प्रपरा में अनुभू ते का यह व्यापक क्षेत्र नाथिक्ता भेद, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि की शात्रीय इपत्ता से घिर गण था। उसमें स्वाभाविकता नहीं थी। भक्ति की रचनाग्रों में दो अ्रत॒गुण झा गए थे, श्ृंगर श्ौर १--ठाकुर ठसक, ४५ | २--हामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ० ३८३ । ( २६६९ ) चमत्कार को लालसा। शखूंगार की अ्मरवेलि ने तो इसकी साल्विकता को सुखा दिया और चमत्कार ने स्वाभाविकता को । भक्ति के पद्यों में यह निर्यय करना कठिन हो जाता है कि कवि श्ाूंगार भावना से प्रेरित होकर रचना कर रहा है या भक्ति भावना से । दूतरों ओर वह कहाँ पर भी चमत्कार जनक वक्रता का मोह नहीं छोड़ना चाहुता। कवि दो घोड़ो प्र सवार रहता है--- आजु के छुकवि रीफि हैं तो क्विताई, न तु राधिका कन््हाई सुधुरत को बहानोी है ।” बिहारी का यह दोहा इसका निदर्शन है लीकी दई अनाकनों, फीकी परी खुदारि। तज्यौ मनो तारन “बरदु बारक बारत तारि।॥ --बिहरी रत्वाकर ॥॥ नीति के उपदेशों में श्रालंकारिक चत्मकार उनकी स्वाभाविक्ता ओर प्रभविष्णुता का नाश कर देता है। प्रभाव नीति के सत्य का दही पड़ता काव्य के चमत्कार का का पड़ता है। थभ्रजों तच्यौता ही रह्यो स्ति सेवव इक रंग । नाक बास बेसरि लह्यौँ बसि मुक्रुतने के संग -+--बिहारी रत्ताकर ॥२०॥| ठाकुर इस पप्रस्थानन्र्यी” के दोष-ब्यह से मुक्त हैं । नायिका भेद के चक्कर में वे नहीं पड़े । दो एक पद्म ऐसे अवश्य मिलते है जिन्हे नायिका भेद की प्रेरणा से लिखा कहा जा सकता है। जैसे नीचे लिखा प्च--- प्यार ही जात लखों कुवना तब धोरज नेक नहीं धरतो है। आ्रापनी देखि घिनौची भरी मिस ठानि परायो कही करती है ॥। ठाकुर मानती नाहीं कही घर जात पराये नहीं डरती है । रीति की रौसन आापनी हौंसन पानी परौसिनि को भरती है ॥ पर इनकी संख्या श्रत्यत्प है। प्रेम शंगार में अनुराग और वियोग दो का वर्णन अधिक किया है। इनका अनुराग हृदय की वह स्थिर दशा है जो श्रनेक विषमतायें श्राने पर भी परिवर्तित नहीं होती । 250 न न टन १. भिखारोदास | २. दठाकर ठसक, ४०७० ( २७७ ) का करिये तुम्हरे मत को ज्ञितकों श्रव लौ न मिटौ दगा दीबौ । प॑ हम दूपरो रूप न देखि हैं श्रानन भ्रान को ताम न लौबो ।। ठाकुर एक सो भाव है जौ लगि तौजगि देह बरे जग जीबौ | प्यारे सनेह्र निबाहिबे को हम तो अपनी सो कियो प्र कीबो' | वियोग वर्णन में भी भाव की स्थिरता छा ही प्रायः: वर्णान है। सहन- शीलता का विशेष वणन किया है। दोनों जगह बद्ध परंपरा का आग्रय नहीं किया । अपनी व्यक्तिगत भ्रनुभुति, जिसका झ्राभाव साधारण हृदय में होता है--कवि ने कही है | भक्त के क्षेत्र में ठाकुर ने भगगात की मधुर लीलाओों का या उनके रूप- सौंदर्य का किसी वक्रता के सहारे वर्शात नहीं किया। प्रेमानुभृति में अवश्य राधा और कृष्ण का नाम प्राया है पर वह भक्ति विषथ्रक रचना नहीं कही जा सकती। विशुद्ध मानव्राय प्रेम है। राबाकृष्ण का नाम तो रीति परं- प्रा के कारण आश्रा गया है। भक्ति संबंधी पद्म अत्यल्प हैं। उनमें विशेषता एक तो भाव की सात्विकश की है दूसरी यह है कि भगवात की रूप सेबंधी आस्था ऐसी सर्व साधारण ली है जिसमेंन तो समुण भिर्यगुण का विशेष आग्रह है ओर न किसी संवदाय का। साधारणुतया ईश्वर को जो एक शक्ति रूप में अनुभव क्रिया जग्ता है वह ठाकुर ने श्रतचाया है। उस शक्ति के राम, गणेश, राधा, श्रोकृष्ण आदि अनेक रूप हैं। वह साण भी है और ब्यापक तत्व नियुंण भी। प'मेश्वर के रूप, सगुण निगुंर का भेद आर राम कृष्ण श्रादि का श्राग्रहु तो सांजदायिक है। सर्व साधारण में जो विश्वास रहता है वह वो ईश्वर की विलक्षुण महिमा का होता है | ठाकुर ने उसी का श्रनुभव किया है। 'यह उप्त नटखट के श्रजब अटठयदे कार्य हैं कि छुण भर में कोई साहिबा का पद पाता है तो कोई लटपट होता हैं। कोई समस्त आरायु जीवित रहते हैं तो कोई उत्पन्न होते ही मर जाते हैं ।* उसी परमात्मा ने संत्तार भर में जेंसे को तैसा लगा रक््खा। छोटे को छोटा, बड़े को बड़ा, दुर्बल की दुर्बल, शुद्ध का शुद्ध, प्रशुद्ध को प्शुद्ध'। फायर १--ठाकुर ठसक, ५० + २--वही, ४६९ । ३--ठाकुर ठसक, ५-६ | ( २७१ ) उसका कोई व्यवहार निश्चित नहीं। जंने और ठकर सदा के दोरंगी हैं ऐसे हो वह भी । वे नीच का तो साथ देते हैं, अपनी जाति का नहीं ।॥ 'छिपिया का दूध, करमा को खिचड़ी, चमार रंदापत के चक्कर, जिदर की बथुप्रा की रोटी और शाक तथा: ि अपने जात के सुव्यंदन त्याग | दुरावी के डिलरा उन्हांन खाए [ झोर ये)। ओऔरों की क्या अपने प्रत भा उनका अटपटा हैं व्यव्रह्व'र है । ते देश ब्रज में करल बोये और काइल में मेवा, रा धका सी युदरी छं'ड़ कर कुत्ता से स्नेह किया, दर्योचत को सेवा छोड़ झऋर बिदुरइन के छिलके खाये । बहू सब ईश्वर की अतकर्प विल- छणाता है उनका प्राणानात्र अ्नुनत् करता हैं; भक्ति परररा के प्र.त विदुखता भी नही है -- 'कंज हू तें क्ीरो जिन्हें बंदत महेश अज लागे तब पया या सु बद गसुवारे की !! इप प्रकार भक्ति के क्षंत्र मे ठाकुर ने अन्य रातकाच के कवप्रों की तरह न तो मानवीय ख्ूगार लीलाग्री का राणटगप्पा एर लाइा ह श्रौर न राम या कण्णु के रूप बशुत मे विभाव अनव'ब आद का चित्रत् कक्रपा है | सथे सरल ढग नें उसको विलक्षुण नहिमा का अनुवव क्रिया है जो सब साधारण की अनुभल है ! तीसरा वियय आब्ाता है चह5' इसमें ठाकुर का झत्व'घह चफतता मिली है। नंति के उपदेशों के लगे दो बातों के; धगवश्यकृता होता है। एक तो उसका रूत्य साधारण स्वासाव का हूं, सा्ंजर्नन । दनरे बड़ सरल ढंग से कहा जाय। बूंद, धाघ, गिरघर आदि ने इसी हार्ग को शपताया है। जिन तथ्यों को उन्होंने प्रतिपांदित शिया है मणु, नगगरिक, शिक्षित सभी को विदित है। भाषा भी उनको सरल स्व॒भाविक्त है। ठाकुर ने सर्वत्र गिरधर आदि की तरह देनिक ब्यवहार की बातें को तो नहों लिया, प्रेम के संबंध में ही नीति की बातें कही हैं। पर शली सरल स्वाभा- विक है अ्रतएव उसको ग्राह्मता बहुत है। काव्य चमत्कार को ओर पहले तो श्राकर्षण नहीं के बराबर है। है भी तो वह प्रतिपाद्य सत्य का ही चमत्कार दिय्रा है । 62. /६ १--बहा, ७-४८ । २०जही, ३ । ( २७२ ) हिलमिल लीजिए प्रवीन यों श्राठो जाम, कीजे वह काम जासो जिय को आझ्राराम है । दीजिये दरस जाको देखिबे की साध होइ, कीजिए न नीच साथ नाम बदताम है॥ ठाकुर कहत कछु चित्र में विचारि देखो, गरब गरहूर को रखया एक राम है। रूप सो रतन पाइ जोबन सो धन पाई, नाहक गबाइबी गवारत को काम है।॥! तीतिकारों की श्रपेद्ञा सरवता ठाकुर में अधिक है। उसका कारण यह है कि इन्होंने प्रेम के संबंध में नीति के पद्य लिखे है। दूसरा लाभ ठप्फुर की अपने शलीगत गुण झाभाणक तथा लाक्षुरिक प्रयोगों से हुआ है। साधारण जन समाज में लोकोकियाँ बात चोत में व्यवहत् होती हैं। वक्ता को उक्त में ये प्रमाण का कार्य करती हैँ। ठाकर की शेली का ये अंग हैं। इनका उपयोग उप्देशात्मक उञ्चों में होने से थवोने में सुगंधि श्रा गई है। इस प्रकार प्रेम खुंगार, भक्त और नीति के जुत्र में ठाकुर की पृथक पद्धति है। उससे ये अ्रपने समय के ढरें से पृथक हो जाते हैं । नीतिकरों को काव्य शली पर शौर भो विचार श्रपेक्षुत है। ठाकुर का व्यक्तित्व नीतिकार और सुक्तिकार का संमिश्चि रूप है। इसीलिये भाषा की सरलता, अनुभूति की साधारणता, लोकोक्ति तथा मुहावरों के साथ वस्तु निवेदत आदि गुण काव्य शलों में श्रा गए हैं। प्रेम में भी एक रूपता झोर स्थिरता का जो बार बार वर्णन किया है वहु भी इपी प्रबृत्ति का फल है। इससे साधारणता तो श्रा गई है पर भावां को गहराई नही रही । इस विषय के कविवर पद्माकर की बझ्रालोचना कि ठाकुर जी की कावता तो श्रच्छा होती है परंतु पद कुछ हल्फे से जंचते है! प्रसिद्ध है। सुद्रावरे रूप लाक्षणिक प्रयोग है। लोका।कक्तयों में किसो परिस्थिति विशेष का निर्देश रहता है। वह अपने साम्य के बल पर वण्य पारेस्थिति का श्रंग बत जातो है। मुहावरा जेसे:--- था जग में अब जीबो कहा जब श्रांगुरो लोग उठावव लागे” लोकोबिंत जे से-- १-- ०ाकुर ठसक, २२ | ( २७३ ) मूढ़ सुने कब राम कथा, कब दे घन पूजत विप्र विरायी। सूमन को धत मृसतत चोर कि लूदत भूष कि लागत आगी।। ठाकुर धर्म के हेत सो तो दुख पुंच कथ हरि के हित लागी। ग्रानन ऊँच उठाय ज्यों रोबत संख सुने शठ स्वान अभागी ॥॥ उंगली उठाना दोष दिखाने के अर्थ में रूढ हो गया है। शंख बजते समय ऊपर को मुह उठाकर रोता एक कहावत बन गईं है। यह घढना ऊपर के वरशर्य का उपमान बनकर प्रयुक्त हुई है। 'दूध की माखी उजागर वीर यसहाई में आंखिन देख खाई में गोगी का अ्रपता कर्म दूध की माँखी को जान कर खा जाने के समान है, यह अथ संपन्न होता है । इस तरह लोकोशड्ति और महावरे साधारण लक्षणाप्रों से भिन्न हैं। पहले प्रसिद्ध हैं दूसरे अप्रसिद्ध । पहले प्रचलित होते हैं, दूसरे कवि के स्वोपज्ञ, जिनका जन्म कछि की भावशऊर्मा से ही होता है। अलंकार की सजा में प्रापाद« मस्तक मग्न काव्य प्रतिभा के लिये लोकोक्तियों के चमत्कार का नया मार्य॑ ठाकुर ते निकाला है। लोकोक्तियाँ बात बात पर बोलने का स्वभाव स्त्रियों का भ्रधिक होता है। ठाकुर ने प्राय: ऐसे ही स्थलों यर इनका प्रयोग कर मानव प्रकृति का अपना परिचय व्यक्त किया है। समझाने पर भी बात ने मानने वाली पर खीऋक कर सखी या दठी कहती है। बुरो मानती जो सिख देती भट्ट दुख पावती जो समभाइदे मैं । कही जायगी देखि कुरीति कछू समुझोगी न बात बुझादइदे मैं॥ कहा पाओगी हाथ पराये बिक्के कछ्ढें ठाकर लोग हंसाइबे मैं । हमें को गने कासों परोजन है बनिबे में नवीन बजाइबे मैं ॥ इसी तरह मानिनी को समझा कर हारी हुई का क्रीध कंसे फटकर के साथ व्यक्त हुआ है :-- हुँ है नहीं मुरगा जिहि गाँव भट्ट तिहि गाँव का भोर ना ह्टि हैं।' निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि लोकोक्तियों के प्रयोग द्वारा ठाकुर ने काव्य विच्छित्ति के लिये नई दिशा ही नहीं खोली प्रभिव्यक्ति को सजीवता श्र स्वाभाविकता भी प्रदान की | कहीं-कहीं आलंकारिकों की तरह ठाकुर १--ठाकुर ठपक, १४६, १६१ । २--वहीं, १७० । ३--ठाकुर सठक, १६२। ४--वहीं १६७ । बता भी आाग्रही हो गए पेक्ा कर लोकोक्ति को पद्मच में भरता कवि | का लक्ष्य बंद मं हि एय दिखात न शाँखित ; भाषा में झच्दबयन और वादयरवदा दोनों ही सरल और प्रचलित हैँ । धिक संस्कृत की छब्दावह्ी है नं उद की। साधःरण व्यापार के तद्भधव शब्दों का प्रयोग हुआ है बदनाम, मरजी, दगा। पंखान, हवाले, हकनाहक, जमा, सलुक, कमनेत, तबीब; जवाहिर, कंदीम, दरवान, नेजा, मनसुवा, वजन, तजवीज, श्रासमाच, मेजबानी, गरजी, श्रालाहदी, गा फिली, सहूर, हरामजादे, श्रजतब, जहान, जबर ज्यादि उद् के शब्दों का प्रयोग किया है। संस्कृत के तत्सम श्रत्यत्प हैं। तद्धव श्री प्रश्िद्ध हैं। कवि ने अपनी श्रोर से संस्कृत तत्समों को तद्धव नहों बनाया। व्यवह्यर के शब्द ग्रहण किए हैं। प्र वाक्यरचता सजीव और प्ररोचना पूर्ण है। यह गुण रूढ़ लक्षणाश्रों से थ्राया है | एक हो सों जित चाहिए और लो बीच दगा को परे नहिं डाँको । मानिक सो मन बेंचि के मोहन फेर कहां परखाइब्रो ताको॥ ठाकुर काम न या सबको अ्रद लाखन मैं परवान है जाको। प्रीति करे मैं लगे है कहा करिक्के इक श्रोर निबाहिबों बाँकों॥* इनमें श्रौर लॉ डंक पड़ना शलाखन में! और निबाहना' श्रादि प्रयोग मुहावरेदार हैं। कवि ने अपनी ओर से वाक्यरचना नहीं की | इथ प्रकार के ही वाक्य लोग बोलते भी है। जिश्न तरह परिचित हृश्यावली से भावों का उद्भावन शीघ्र होता है उसी प्रकार परिचित भाषा से भी । भाव और भाषा दोनों ही परिचित होंगे तो काव्य स्वभावत: विशेष श्राकर्षश् होगा | ठाकुर ने यही जिया है। लोकोक्तियों ओर सुद्भावरों का प्रयोग भी इसी दिशा की और की प्रगति है । ठाकुर की कला का वातावरशा श्रन्य रीतिमार्गी कवियों की भाँति नाग्र- रिक उच्च वर्ग का ( एरिस्टोक्रेटिक ) नहीं है। इसका यह भी तात्पर्य नहीं कि प्रकृति के स्वथा मुक्त वातावरणा का सृजन कवि कर सका है | पर वह किसी १--वही 5८४५ २--व ही, ४० ॥। । २७५ ) चग विशेष का नहीं है। ग्रामीणता की ही रनके अपेश्नाकत अधिक है। किसी ब्र'म युवती के निश्छल भाव कितते स्पष्ठ हैं :-- ऐसे कब्रौं कहा कारज होत है जो मग मम करब्बों दरसाने | ये दिन ऐसे ही बतत हैं ह्महँ तरसी तुमहों तरसाने ॥ ठाकुर और विचार कछू नहिं ये अभिलाख हिये सरसाने । के हमहीं बसिये नंदगांव कि आपही आय बसौ बरसाने ॥* त्यौहारों का वन भी ठाकुर को अपनी विद्येज्ता है। त्यौहार हमारे जीवन में परंपरया आ्राकर भी अ्रभनव उल्लास भरते हैं। आ्रावालवृद्ध सभी के हृदयों में भावुकता का उदय हो जाता है। ऐसा अवसर, उस समय के भाव आदि काव्य के लिये शब्रत्यंत उपयुक्त बशर्य है। संस्छत के प्ररंध कवियों ने भी कौमुदोमहोत्सव, मदनमहोत्नव आदि का वर्शसान बड़ी तनन््मयता से किया है। ठाकुर ने भी होली, शअ्रखती, हिडोरा, सलना, दशहरा आदि का वशन कर लोक्रुचि का परिचय दिखाया है। ये वर्शान प्राय: स्वतंत्र हें) रीतिप्रंपरा का नायक-ताथिका-व्यवहार इनकी स्वामा- विकता नहों ग्रसता । 'जानि भूकामु॒की भेख छिपाय के गागरि ले घर से निकरीती। जानों नहीं मैं कब केहि श्रोर ते आय जुरे जहाँ होरी घरी ती ॥ ठाकुर दोरि परे भोहि देखत भागी बची जू कछ सुधरीती | बीर जो द्वारन देहुँ केवार तो मैं होरिहारन हाथ परी ती ॥ इस तरह ठाकुर ने सरल स्वाभाविक भावशली और भापषाशंली से, झुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग से, परमेश्वर विषयक भावना से; नीतिपरक चितनप्रवृत्ति से और त्यौहारों के सरस स्वतंत्र वर्णन से लोकरुचि का अपनी कल। द्वारा स्पर्श किया है । हिदीस।हित्य के विकास में लोकरुचि का विशेष उल्लेखनीय स्थान है। भआदिकाल के सिद्धों और नाथपंथियों का साहित्य धारमिक होते हुए भी लोककाव्य है। उसके श्रप्रस्तुत, वातावरण आदि साधारण जनता के हैं। कबीर ने उसी मार्ग प्र स्वतंत्रतापर्वक चल कर साहित्यिक परंपरा को चुनौती दी है। जायसी ने लोकभाषा, लोकवार्ता १--वही, १०१ । २--आलोचना, अंक ६, संपादकीय, पू० ५।॥ (है: ै को अपनाया है। तुलसी झौर सूर ने संस्कृत के स्थाव पर हिंदी को लोक- रुचि के लिये बिठाया था। मध्ययुग से पहले या मध्ययुग में भी, संस्कृत भाषा ही साहित्यरचना का माध्यम थी, परंतु संत कवियों ने इस शास्त्रीय प्रंपरा को त्याग कर जनभाषाश्रों का श्राश्नय लिया और लोककला और लोकसाहित्य की परंपराओ्नों से प्रेरित ऐसे रूपविधानों की सृष्टि की जिसमें जनता के जीवत और उसकी समस्याञ्रों का पूरा चित्र उदघादित हो जाय। कबीर झ्रौर सुर के पदों, ओर जायसी तथा तुलसी के महाकाव्यों में उस समय के जनजीवन का पूरा चित्र मिलता है। चूंकि उनकी कला का ग्राधार लोकप्ताहित्य श्रौर लोकवार्ता की परंपराएं हैं, इसलिये वेन केवल सामान्य पाठकों के लिये प्रेद्शणीय हो सकी और जातीय भावना जगाने: में समर्थ हुई बल्कि इस कारण ही वे सावदेशिक महत्व भी पा सकीं । प्र रीतिकाल में परिस्थिति बदल गईं। उत्तर मध्यकाल के कवि रीति- ग्रेथों के निर्माण में लोक्पक्षु से दूर हटते गए। बिहारी, देव शभौर मतिराम झदि शुंगारिक कवियों ने जहाँ वायिक का नखसिख सँबारा वहाँ व्यक्तिगत प्रवृत्तियों पर इतना जोर दिया कि उनकी दृष्टि में गेवई गाहक'! एक दम बुद्ध बनकर रह गए ।”““इंस युग का दरबारी कवि जनता से इतना दूर जा पड़ा कि उसके लिये यह सोचता भी कठिन हो गया कि साहित्य का श्रादि स्रोत जनता का निरंतर संधर्षमय जीवन है। ठाकुर इस नियम के प्रपवाद प्रतीत होते हैं। उन्होंने यद्यपि विषय वे ही लिए हैं जो रीतिमाभियों: ने पर प्रतिपादन का प्रकार भिन्न है। कविता का प्राण लोकरुचि की श्रोर विशेष उन्मुख है। इससे वे रीतिमार्ग से पृथक हैं । उन्होंने अपनों मतमौज से कविता की है। किसी शात्लीय परंपरा का प्रनुसरण उसमें प्राभासित नहीं होता है। जिसमें न तो केवल परंपराश्रों का पालनप्ात्र ही किया जाय, ऐसी कविता की ठाकुर ने निंदा की है:--- गीख लीन्हों मोन मृग खंजन कमल नैन, सीखे लीन््हों यश ओ प्रताप को कहानो है। १--कर ले सूंधि सराहि के सब॑ रहैँ गहि मौन | गंधी गंध गुलाब को गंवई गाहुक कौन ॥--बिहारी । २--श्रालोचना अंक ६, डा० देवेंद्र सत्यार्थी, हिंदीसाहित्य प्र लो क साहित्य का प्रभाव, पृ० ५३. ५७ | ( २७७ ) सीख लीन््हों कल्पवृक्ष कामबेनु चितामरि, सीख लीन््हों मेर थौ कुबेर गिरि झानो है । ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात, याको नहीं भूलि कहूँ बांधियत बाहों है । डेल सो बनाय श्राय मेलत सभा के बीच, लोगन कबित कीबौ खेल करि जानो है ॥7 ठाकुर भावों के क्षेत्र में स्वतंत्रता के पक्षताती थे। अ्रतः कविताशली में भी शात्र या परंपरा को परतंत्रता को उन्होंने नहीं स्वीकारा। स्वच्छंद डोकर काव्यरचना की है । ठाकुर कहत संत आपनो संगत राखो, प्रेम निरसंक रसरंग विहरन देव । विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ, खेलत फिल्त तिन्हें खेलन फिरन देव ॥' १--ठ'कुर ठसक, १२ । २--ठाकुर ठसक, २४ । रस ओर भाव घनानंद का दश्य रस एक झुंगार हो है। वही भगवदाध्ित होकर भक्ति में परिणत हो गया है। भारतीय साहित्य में श्यूंगार को ही एक मात्र रस मानते तथा उसी को कांव्यरचना का विषय बनाने की प्राचीन परंपरा है। श्रत: हम उस परंपरा का ऐलिह्य देते हुए संयोग वियोग दो विभागों में कढ़ि के प्यृंगार रस का विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे । क--शुंगार रस की परंपरा साहित्य में रपरंपरा का अन्वेषण किया जाय तो पता चलता है कि पहले काव्य में एक ही रस माना जाता था श्रौर वह शाूंगार था। शब्राठया नो रस मानने की परपरा नाठकों से प्रारंभ हुई। उसी के श्रनुकरण पर प्रबंध तथा मुक्तक काव्यों में नौ रस माने जाने लगे। कुछ लोग फिर भी प्रधानता शंगार की ही म'नते चले ब्राए। संस्कृत साहित्य के श्रवसान काल में यही स्थिति थी। हिंदी के रीतिकाल में भी ऐसी ही श्रवस्था हो गई । प्रारंभ में 'रस' का श्रथ छगार रस ही माना जाता था और रस के प्रवर्तक श्राचार्य कामशासत्र के भी आचार्य माने जाते थे। उदाहरण के लिये राजशेखर ने अ्रपत्ती काव्यमीमांसा” में विद्या के भ्रठारह #ंग माने दें। उनमें से रसाधिकारिक १४ वाँ है। इसके आचाय नंदिकेश्वर हैं। नंदिकेश्घर के विषय में कामसूत्र में लिखा है कि प्रजापति वे सृष्ठ की स्थिति के लिये घर्म, श्रथं, और काम की साधता के निर्मित्त एक लाख श्रध्यायों का एक प्रथ बताया | इसके एक एक वर्ग को पृथक कर मनु, बृहस्पति और नंदिवेश्वर को दे दिया । जिन्होंने उसका उपयोगी संपादन किया । नंदिवेश्वर ने काम- ग्रंथ का संपादत किया। यह कामग्रंथ हजार अ्रध्यायों का था, जिछे श्रोह्दालक ने पाँच सों और बाद में वश्रव्य पांचाल ने डेढ़ सौ श्रध्याय में संद्धिप्त क्या । इसके सांत अध्याय थे-«« १--साधारण २--झांप्रयोगिक ३--न््या संप्रयुक्तक 8--मर्यदिधिका रिक पू--परदारिक ६---वे शिक्र ७-यौप विप दिक्ल 22 के प हि. हे नंदिक्षेएशद्र के नाम से दी चई क्राप्य की यह साथी सपष्ठ करती है कि बी ्ज वे घ्का ग्ाट्टाएर पता हा ४ ज उं ७८ आब*& शक स्का डा से धककनन-+ हा हम रा (/थ हक) ञ्न द्र्प रथ शानए च्क हा है कूल 3 तक जमकर यम अन्य समन्ह*का भन््क.. ड्राना “कब अन््तककित है कह जे भरलन ।रनभवा+ मनन्यकओ सशस्त्र क्ष हा छझालसाए धुत रकाइनाइदाण आणदाफएं भए शाम प्ररभनय अ हु श्र धं ४ सह ज्क्क हक पलक फल पक अध्कता भ.. पफकथ कमर ल. कनीयीके -+ नमन पी अक अननननक, 22 कक, वंशतों ग्रंथ भी पोते शा हैं दल एल हे किक कप कला गेष में ही पा प् ई- कक /"अन्कत बकरे क लत ख ला च् ही कार डा ॥ अर तक क क्र | हा हक ट। न है या (पडता खाक सा लि जतक आए; अत कम कीच *ः ४५ अक दे टला कक... कट उल्सके नादकर॒वर सललख दू * रुएरइर:ा इश्ाइा हा 53 जझआाओआा वक्त हु इस श कर ००. |] 73 हक क ० ० #००« 34 पता धरमभामद कारक पा. धयमबीड, ५ (+>मआ' पक “का व्ममम;.... अमन पर अरन्खता- अच्ण-फ ह हा करके मय उ्रकाप्रा... भरना जि, रण न] सब स यहूः पता चलादा हूं छू से इपश्चन क ्ट्क् झा शाम परौर काए रे क्र ।+र हक अ्याकक बी कातममा अकम शा अयहलाओऋ, ०5 अन्फमपी कक "गन ०9 पर था। नाक्षगान भा कामशासन के इग मात्र हूँ दात: ए्रबानतल: मे कान 0 कप की, न्न 5 3 का को 2 के 2 १० कद न स्ल्क 5 शास्त्र के झालाय उहरते हैं. थे हो वदेतेशदर बरद गादगेखर के “दपाबिकारिक' के ग्राचार्य हैं-- जैसा कि सेंड काया है-तो स्साडिणार क्षा कामशास्त्र से घनिष्ठ सबंध ठदरता है। उसका हाईश 76 विउल्टा है कि रस शब्द का अर्थ पहले खुशार ही समका जाहा २। आबाय भन्त के सास्यगास्त्र बनने तक ०ही बात थी। रस एक ही माता जादा था वह भी ख़गार। इस प्रसंग में भरत की उक्ति 'अ्रष्ठी नाव्यो रमा: ह्युता: जा ततये यह ठीक बेठता है कि नाटक में श्राठ नस होते हैं अन््यत्र चाहे एक हो। अन्यत्र नौका तात्पर्य तो भन्त के अनुकसर्ण पर रचे गए रसग्रथों की छाया में किया जाता है। इससे यह संगते भी बैठ जाती है कि भरत द्वारा रसवाद की स्थापना करने प्र भी आलोचकों ने काव्य में अलकार, रीति, बक्रोन्कि आ्रादि को ही सर्दस्व माना, रस को तो बहुत बाद में अन्तमुंक्त किया | यदि काव्यों में भी नाटकों की तरह नौ रस की परंपरा होती तो उसका स्वरूप दंडी, भाभह आदि श्राचार्यो द्वारा प्राप्त होता। भले ही वे उसका खंडन करते । वे रस से परिचित हैं, प्र उसे वक्रोक्ति गा अलंकार में अंतभु त्त करते हैं। भरत से पृत्र कोई काव्यणाल्व का आाचार्द था इसका प्रा नहीं चलता | फिर यह कन्पहा करता कि भच्त ने 'अष्टी दाटये रसा: स्मृता “-- काव्यरप्तों की तुलना से छिखा था पझजुझ है। श्राचायं हजारीप्रस'द द्विवेदी जी की मम्यता है कि तिश्चय ही किसी और शास्त्र के रस से नाट्य रखों को प्रृथक् करने के लिये उन्होंने उपयुक्त बत लिखों थी। पंडितवर विश्वनाथ ने शुंगार रस को श्ादि रत कहा है ४ बाणभद ने रस” शब्द का प्रयोग ५ बार जि नननन 2 वीननगग न ( स्८द० ) श्रुगार रस के श्र में ही किया है! । भरत के अनुकरणा पर संस्कृत के कुछ प्रालोचकों ते काव्य में नो या दस रस मान लिए थे। पर प्राधास्य उन्होंने भी श्ुगार का ही माता । सॉंगोपांग विवेबत सभी ने श्र गार का ही किया है। नायिका भेद, ग्रादि श्र्गार रस की हष्टि से ही सूष्ट हुए हैं। यह सब मानवीय भ्रनुभृति में श्रृगार की प्रधानता होने के ही कारण नहीं हैं शास्त्रोय परंपरा के कारण भी हैं। बाद में ऐसे श्रनेक श्राचाय हुए हैं जिन्होंने श्रृंगार रस को हो रस समझा । रुद्र भट्ट का श्रगारतिलक' ऐसा ही ग्रंथ है। भोजराज का “सरस्वती कठाभरण'तथा “श्र गारप्रकाश' इसी मान्यता का है। श्र्गारप्रकाश का इस विषय में सर्वोपरि महत्व है। इसका विशेष परिचय अश्रभी बाद में मिलेगा । विद्याधर की 'एकावली शारदाततनय का '“भावप्रकाश' शिग भूपाल का 'रसार्खणव' शोर भानुदस की ८रसमंजरी' तथा “रसतरंगिणो? अश्रुगार रस को ही रस समान कर लिखे गए ग्रथ हैं। रूप गोस्वामी ने “उज्वलनीलमणि? में प्रकारांतर से श्रुगार रस को ही क्षष्णा से संबद्ध कर भक्ति के रूप में भक्ति रस नाम से उपस्थित क्रिया है। रूप गोस्वामों एक ही 'उज्वल रस' मानते हैं जो कि श्यु गार का अ्रधिदेव रूप है। हिंदी के काव्य शास्त्र की तो परंपरा ही श्रुगार की प्रधानता से प्रारंभ होती है। केशवदास जी ने श्रूगार रस को घुरूष तथा वीरादि को उसी का भंगभूत रस माना है। तोष का 'सुधानिधि' चितामणि का 'कविकुलकल्यतरू सतिराम का “रसराज” रसलीन का 'रसप्रबोध' और «अंगरदर्पण” देव की “्रेंसचंद्रिका! श्रौर 'रसविलास” “मभिखारीदास का 'रस श्रृगार! श्रौर अ्रुगार निर्शया तथा पदु्माकर का “जगदुविवोद! श्रादि ग्रथ श्ु गार की ही प्रधानता एवं महिमा प्रतिष्टित करते है । सारत: कह सकते हैं कि पूव्वेवर्ती काल में रस शब्द का अर्थ शत गार रस ही समझा जाता था। परवर्ती श्राचायों ते यद्यपि इसका दसरे श्र्थ में प्रथोग क्षिया पर पहली श्रथपरंपरा भी लुघ नहीं हुई। कवियों तथा भाचायों का १--रसेत शर्ट्यां स्वयमस्थुतागता कवाजनस्थामितवा वधूरिव। वाण कादम्बरी । ( २८१ ) एक समूह बराबर इस रस को ही एक मात्र या प्रधान रस मानता रहा हैं | हजारों वर्षों की सुद्दीर्घ परंपरा में इस समृह के आचारयों की कभी भी कमों नहीं हुई | ( ख ) भोज की छूंगारभावना श्रुगार की एक मात्र रसता स्थापित करने का एक पृथक ही प्रथत्त भोज ने अपने सरस्वती कंठाभरण' तथा “्र॒गारप्रकाश' में किया है । दसरी पुस्तक विशेष रूप से इपी लक्ष्य से लिखी गई है। रस शब्द अनुनति के चरम उत्कर्ष जैसा प्राजकल द्योतक माना जाता है उस पश्रर्थ में भोज ने इसका प्रयोग नहीं किया है। उसके अनुसार रस गुण झौर घलंकार के समकक्ष काव्य का शोभाषायक प्रमुख तत्व है। काव्य के तीव शोमाकर सुणा होते हैं। वक्रीोक्ति, स्वभावोक्ति तथा रसोक्ति । रप्त तीसरा है। श्रर्वांचीन झाचायी ने रस की गौण दशा जेपे 'रसवत' श्रलंक्ार से व्यक्त की है उसी से मिलता जुनता यह है | श्रलकार और गुण की अपेद्धा वेसे यह मुख्य है । स्त्री के हृदय में पतिप्रेम का जो स्थान है काव्य में वही रस का है। भूषणों से भषित लज्जादि गुणों से युक्त स्त्री में यदि पृतिप्रेम नहीं तो कुछ भी नहीं। इयी प्रकार रसरहित अश्रलंकारादि काव्य में निरथंक हैं। वास्तव में मोज को रस विषयक्त अनुभूति तो बदुत ऊंची है। श्रर्वाचीन रसाचार्यो से भी भ्रध्चिक गहरी। उसका काव्य में स्थान निर्धारित करते समय वे भ्लंकर मार्ग से प्रभावित हों नए हैं। उस समय काव्य की आत्मा शब्द और अर्थ के भ्रतिरिक्त अन्य वहीं मानी जाती थी । भोज के अनुसार रस एक है वह भी श्र गार है। पर श्रर्वाचीन भाचारयों के जआुंगार से यह भिन्न है। सांख्य दर्शन में जिस प्रकार महत्तत्व का विक्रास अ्रहंकार सृष्टि का मूल कारण माना जाता है, उसो से मिलता जुलता अ्रहंकार इधर मूल रस है | यह काव्य का आत्म धर्म है। समस्त अनभतियों का एक मात्र कारण है। इपके द्वारा प्रनुभति अपनी उच्चतमावस्था (ज्यूंग) को प्राप्त होतो है। इसलिए इसका नाम ज्यूंगार है । इसे मूल रात्रि! (&9530- ]7:6 4,0०७) कहु सकते हैं। इसके दो भेद हैं। एक निविषय शअ्रहुंकार १--डा ० हजारीप्साद द्विवेदी---& गार रस की परंपरा---विश्रभारती संवत् १६९४२, खंड १ अंक १ ( रबर ) दूसरा सविषय अहंकार । भोज ने पहले को अहंकार श्रौर दूसरे को अभिमान' मानः है। किसी दिषय का अनुभव कोरे इंद्वेय संप्क से नहीं होता, श्रात्मरति की उसमें >पेक्षा होती है ! श्राँखों के सामने वस्तु रहते हुए भी हम जो उसे कभी कभी देखते नहीं वह आत्मरति के न होने के ही कारण ॥ यही आात्मरत्ति अभिमान श्रौर अहंकार है। भोज की मान्यता है कि पत्येक अनुभूति अपनी चरमावस्था में भाविषय, शरखंज, चिन्मय हो जातो है। उस समय श्रात्मा में जो रूपठसका होता है बह सभी का एक सा रहुता है । गौर, हास्य, करुण आदि भेद तो विषयापेक्ष हैं। झ्लोर जब तक विपयर्स॑युक्त श्रनुभुत्ति है तब तक वह अपने चर्म उत्कर्ष को नहीं पहुँचती। अ्रतः भेद और रस की श्राठ नौ आदि संख्या भोज के श्रदुसार अ्तात्विक है | श्रहंकार ग्रात्मप्रेम या निदिषय प्रेम है। अभिमान सविषय प्रेम । विविध अनुभूतियों के मूल में सर्वत्र 'रति” रहती है, यह अन्य श्राचार्यों की मान्यता है। जैसे वीर रस में वीर रति, हास्य में हास्य रति भ्रादि विद्यमान हैं। रति का भ्र्थ है हृदय की सात्विक दशा जिसके बिना कोई विषय अपनी छाया हृदय पर डाल ही नहीं पाते । रसाचार्यों ने इसे वासना कहा है ।* यही विषयनिरपेक्षू होकर झात्मधर्म शेष रह जाती है। भोज ने आत्मरति को अनुभूतियों का मृल मानने में अनेक प्रमाण दिए हैं। उपनिषद् में ऐसे वचन मिलते हैं जिनमें आात्मप्रेम की श्रतुभति का उल्लेख है । आत्म प्रेम के लिये ही सब प्रिय होते है! । अपना आप ही सब से श्रधिक प्रिय और श्रेष्ठ है ? एक अन्य उदाहरण भी भोज ते इस विषय में दिया है। कोई पुरुष सुंदर स्त्री द्वारा ससस््तेह देखा जाने पर अपनी सराहना करता है “आहा मुझे प्रयाम है। डरे हुए पर्गों के समान चंचल नेत्नोंवाली उस मुग्धा नें सस्तेह मुझे देखा है ॥ भागवत में भी एक श्लोक इस भाव का है कि संसार की समस्त वस्तु अ्रयन्े कारण ही प्रिय लगती हैं। अयता आप! सबसे अ्रधिक्र १--निर्वासनास्तु रज्जान्त: काहए्ठकुब्याश्मसंनिभा:,--सा हित्यदर्पणा २--बृहदारएयक उपनिषद्--प्रात्मनस्तु काम्राय सर्व प्रिय भवति। ३--अ्रहो भ्रहो नमोमझं यदय वीज्ितोडनया मुग्धया तसत सारंग तरलायत नेन्नया ।,....प्यृंगारप्रकाश हे ( र८रे ) प्रिय है ।! विश्यसापेक्ष अभिमान भी व्यापक तत्व है। यह प्रचलित अभिमाव से भिन्न हृदय की वह वृत है जो विषय को अपने रंग में रेंग कर हमारे समक्ष उपस्थिन करती है। रस में जो दुःख भी सुख रूप प्रतीत होता है वह इसी कारण से । अनुकूत होते पर दुखादिकों पर रुख का अभिरान, अर्थात ग्रंत:करण वृत्ति की छावा, उसी प्रशार छा जातो है जिस प्रकार नाली का! पानी कयारियों पर । इपी कारण ने थिरका को नखक्ष॒रादिने प् होती है। ८त: सिद्ध हुआ डझि अहंकार झौर अ्रभिनाव समस्त के मूल हैं , इसकी तीन विकास कोटियाँ है। सबसे पहली तो अहंझार तथा अभिमान की है। पूर्व जन्म के संस्कारों से इसकर" विक्षास अतःकर्ण में होता हैं। इसे परा कोटे कहते हैं । इसी से हम 7निक कट्लाते हैं। दुसरी ख्ुगारादि भावों को है। झयउत ग्रटुकुत विभाव, अनुभाव, “चाय भागों की सहायता से भाव ग्रग्ता उत्कर्ष लाभ करते हैं। यह विक्नास की मध्य वस्दा है। इवी को साधारण॒ुतया रस जहा जाता है। भोज का मत है कि रसाचार्यों ने जो ७६ भाव मात्र कर कुछ को स्थायी कुछ को व्यभिचारी हथा कुछ को सात्विक बताकर भेद क्रिया है वह सब पअतात्विक है। सब भाव 'रसावध्था! तक पहुँचने की ज्ञमता रखते है। सभी मूल श्रहुंकार के विव्मम्त हैं। निर्वेद संचारी भाव को तो शांत रस का स्थाया भाव औरों ने माता भी है। ये अपनी अनुभूति की चरमदशा में भी व्षियपरि च्छिन्न रहते हैं। निविषय नहों हो सकते | शत: भोज ने सभी को भाव कहा है । इस प्रकार भोज के अनुसार रस से भावों की उर्तात्त होती है जब कि रतसर््धात के आचार्य स्थायी मात से रस को उत्तत्ति मानते हैं | श्रनुभति का नत्तर्ष यहीं पर नहीं रुक जाता। इससे श्रागे बह विपय- संसर्ग को छोड़ता हुप्नमा शावलोक में ऊँचा उठता जाता है : एक स्थित ऐसी आती है कि विषय नोचे रह जाते है और अनुरुति मात्र जो झात्मा छा अ्रण छा वही शेष रह जता है ! यह विश्वास की उत्तरा कोटि है , इसे भोज ने प्रेननु कहा है ! डिएयों के संसर्ग से धबद्ध अनुभूति की अपेक्षा बहु भ्रर्भूति हविकत १--वेपामपि भूठानां तूप्र स्व'त्मेच बल्लभ: इतरे पत्यवित्तादा तद् वल्लभतयेबहि-- भागवत १०, १४: ५७० २-- मनो 5न कुलेपु दुःखादिपु सुखाणिमान: रस:--भोज । ( रेझ४ ) बतीभत और ग्रनुरंजित होती है। इसलिये विषय निरपेक्ष॒ता में भ्रहंकार के समान होते हुए भी स्वरूप में उमसे भिन्न हो जाती है, चू कि भेदक तत्व विषय संसर्ग ही है | श्रतः यहाँ श्राकर फिर यह अनुमति एक ही रह जाती है। मुलावस्था में एक, मध्य में श्रनेक और विकासोत्कर्ष की चरमदशा में फिर एक हो जाती है । मध्यावस्था में श्रृंगार हास्य श्रादि को जो रस कहा जाता है वह प्रौप- चारिक है। अ्रहंकार का तन्तु उस दशा में भी श्रन्त:स्यृत होकर श्रनुभव होता है। उसी के कारण इन्हें रस कह सकते हैं। वास्तव में रस तो भ्रहंकार श्रौर प्रेम नहीं है। वह एक है, वही श्रृंगार है, रति स्वरूप, केवल रति हो । ( [,07७ ॥96 20980 पा० [0ए8 ) इस प्रकार भोज के मत से शुंगार ही एक रस है। भोज की यह परंपरा श्रपनी ही है। श्राचाय भरत की परंपरा से यह भिन्नत है। इसमें जितती दाशनिकता है उतनी व्यावह्ारिकता नहीं। फलतः इस मार्म का अनुसरण भो श्रागे के साहित्याचार्यों ने नहीं किया | भक्ति मार्गी श्राचार्य रूप गोस्वामी ने भ्रपसे भक्ति रस की एकमात्र रसता कुछ इसी प्रकार स्थापित की है। उन्होंने भी मूल तत्व रति को ही समस्त भ्रनभूतियों का आदि कारण माना है और वह रति श्ात्मधर्म है, परमेश्वर फा भ्रंश, उप्तको आह्वादिती शक्ति। हास्यादि रसों कौ गौण मानते हुए उन सब रसों का पर्यवसान भी रतिमुलक भक्ति में किया है। झत: पर्यवसान में ही एक ही रस ठहरता है। अंतर इतना है कि पभ्रहंकार को मध्य में कारण नहीं माना 'गया। भक्तिमार्भियों की रसपरिपाटी बहुत अंशों में भोज से मिल जाती है । रस के प्रसंग में श्रात्मनभूति को पहचानने की जिस प्रकार मान्यता भोज ने स्व्रीकार को है उसी प्रकार कला के प्रसिद्ध श्रालोचक क्रोम्बी ने भी की है। उनके मत से कला का संबंध उस ग्राध्यात्म सत्ता से है जो मनोवेगों का मूल कारण है और प्रत्येक चेंतन्य श्रात्मतत्व के निक्रद है। वही कला से प्रभावित होता है। वही कला को जन्म देता है। यह अध्यात्म सत्ता भोज के अहंकार से भिन्न नहीं है जो हास्पादि भाव और श्रात्मा के मध्य में स्थित है। उनके वाम रूपधारी भावावेश भोज के रतिश्रकर्ष, हास प्रकर्ष, शूंगार हास्यादि भारों के समकक्ष हैं! | २-49 ४80७ ६४९ संापटाप्र705६ 78807ए, ६३९ 076 एां।7 ७7३6४ 76 48. 705६ त6877ए ८०7्रट्श्य्ग्र्पे, 38 जीना (5. ठक्राणक्णए ठबाा[वत ( रप्४ ) निविषय प्रेम या खूंगार को रस का मल कारणा मानने से भोज फ्राइड कल की विचार परंपरा के निकट प्रतीत होते हैं। फ्राइड के अनुसार समस्त कला श्रौर विज्ञान का भूल कारण काम है। उसी प्रकार भोज के मत में भी । फ्राइड का काम ( 9700० ) दो भागों में विभक्त होता है--निर्विषय काम अभ्रथवा झ्ात्म काम ( #8० 7/59700 ) तथा सविपय काम (०४८८६ 79700) भोज ते भी इसी प्रकार प्रहंकार को आत्म काम तथा अभिमान को विषय काम स्वींकारा हैं और उन्हीं को समस्त रसास्व/दन (8997० ८2700 ) के मूल में माना है। परंतु फ्राइड का काम यौनवासना मात्र है। भोज का काम या प्रहंकार इससे भिन्न एक सात्विक श्रष्यात्म सत्ता है जो प्रमसत्ता की इच्छा कही जा सकती है | ग--श्युद्भा रस की व्यापकता भाव की व्यापकता की दृष्टि से देखें तो ख्यूंगार का विस्तार सबसे ग्रधिक है। प्राणी मात्र हो नहीं वे वनस्पृत्ति वर्ग भी इसके आक्रीड में आरा जाते हैं जिन्हें हम जड़ समभते हैं। व्यापकता के कारण ही इसके अनेक भेद हो जाते हैं | प्रेम, स्नेह, वात्सल्य श्रद्धा, भक्ति; सख्य, आ;दे सभी उसके भेद मात्र हैं। इतना ही नहीं अपने प्रभाव से हृदय से संकीर्ाता को उदारता में परिणत करने की शक्ति इसों में सबसे अधिक है। एक को बहुरूप में परिणति श्वंगार से ही होती है। इसी परिणाम को उपनिषदों में “भूमासुख!” कहा है। फलत: विशुद्ध सुखत्वरूप भाव जितना खझ़्यंगार है उतना अन्य नहीं । हृदय का विस्तार शांत रस में भी होता है। पर एक तो शांत रस लौकिक नहीं है। रसों की भित्ति लौकिकता के आधार पर ही खड़ी है। दूसरे शांत रस का मूलस्थायी भाव निरवेद है जो उपेक्का, श्रलगाव, उत्पन्न करता है। फलस्वरूप हृदय विस्तार होने पर भी ममता का, श्रासक्ति का हुणपंप्प्रद 7... # ग्यह 2८वीं 7६ 96 ९7700078 7€०१४६ए 0७४७ शांतता ३4 00 70६४ प्ाल्डण 6 एॉ६76 ण॑ इपठ शब्यटते 2क्ते ६2००३ - गांडव9]6 €्ाछ075 45 क्072, 80867, गिद्वा6 छिपा ए&767 ६6 26९7८7०७३ 5प70807280079 40 खो 8जींड६70९, €77200707 787364658 870 पघा8« एएगंगाल्त, 7फ्रड प6 498ए७४ 04 गी4घा6 ए्ाट2 38 496 ८४055: ७2 बा 8९६ 40 96 ८680४ 978, 0 +96 छा) ६0 4ए2 07 छ्मे&६ ९एटा' 70०प ॥4&£6 (0 ८४३) १(५ 7,, 087670770१6--+#७7०7८058 ० ?0807फ ३7 72277 , ५ १8६) विस्तार कोरा बौद्धिक हो जाता है जिसमें घनीभाव नहीं रहता । घनीभूत रूप में हृदय का विस्तार श्रृंगार में ही होता है | हिंदी के रीति काल को श्थगार प्रधान होने का एक मात्र कारण कुछ लोग मुमलमानों का प्रभाव मानते हैं। प्रतरव साहित्य के #गारिक रूप को हेय भी समभते हैं। पर गंभीर विचार करने से धारणा बदलनी पड़ती है। हिंदी ही नहीं, संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि का साहित्य श्यूगारप्रधान है । भारतीय वाइमय या तो धामिक है या फिर प्रेमप्रधान। यह सब वासना भूलक हो नहीं । इसके पीछे गंभीर दर्शन है । सृष्टि का मुल एक प्रम तत्व का द्विल्र में बिखर कर एक होते में है । 'एको हूं बहुस्यां प्रजायेयः में वही भावना विद्यमान है। द्वित्व की दोनों प्रसुतियों में पारस्परिक आकर्षण रहता है जिसका फल होता है 'एकरसत्व” की प्राप्ति। इस द्वित्व का नाम ही जीव और प्रकृति, मैटर श्रौर स्पिरिट श्रादि है। सारी सृष्टि विविध द्वित्वों में विभक्त है। स्त्री पुरुष इनमें से एक है एक रसत्व की प्राप्ति के प्रयत्ों के भ्रनेक स्तर हैं। स्त्री-पुरुष के प्रेण, संयोगवि- योग उनमें से एक है। उसी प्रह्नार का दुधरा है जीत्र और प्रकृति का परंपरा का संयोग-वियोग । दोनों स्तरों में द्वत को भूल जाने तथा एकरसत्व या श्रनन्यता प्राप्त करने की उत्कट प्रेरणा भ्ौर भझ्भिलाषा विद्यपतान है । यद्यपि इन दोनों स्तरों में पहान अंतर है फिर भी तत्ववेताप्रों का भ्रनुभव यही है कि ये एक्र ही दत्व के दो पाएवं हैं। इसलिये इस द्वेधात्मकू व्यापार को कुछ लोगों ने श्रानंदमय श्रतिवंबनोय नाटक माना है कुछ ने कोरी विडंबता । पहले श्रनरागी भक्त हैं दूसरे विरागी ज्ञानी । जहाँ तक आ्रार्यो की चिततरा का इतिहास है स्त्री पुरुष की हत कल्पना श्रादि कान से ही है। देवताग्रों के युगल रूप जैछे, शित्र पार्वती श्रादि को कल्पना इसी घारणा की पोषक है। श्रार्य विचार-धारा के भ्रनुसार दंगति की कल्पना और संयोग के बिना झुष्टि के अ्रस्तित्व को पूर्णता श्रसंभव प्रतीत होती है । मनोवेज्ञानिक्रों ने इस मान्यता को भ्रौर मी श्रधिक श्राग्रह से स्वीकार किया है। उनके श्रनुत्तार हमारे समस्त विचारव्यापारों के प्रेरक तत्व दो हैं श्रह॑त्व और वासता ( 8०5 ) | वे अहंत्व को भी पीछे छोड़कर केवल वासना को ही सब का मूल मानते हैं। वासना के प्रवाह, उपराम और ( २८७ ) प्रतिबंध से ताना प्रकार के श्रातार, डिचार, आमनर्श, विमर्श कर्तव्य अकर्तव्य, यम, नियम, ओर संघ आदि के विवान बनते ऋर डिगड़ते हैं । उनकी बारणा है कि वलाजाल मे लेकर मरणश॒पर्भ्त उबर वाहन में नियुक्त एव संच'लित रहता है: शारीरिक विज्ञानवेत्ताश्नों की व्याख्या कुछ भन््र है। परके झनुयार भाव झनुभतियों की उत्पत्ति हमारी स्वायविक्त रचमांद्रों दर निरर है। वे इपके पीछे किसी ग्रहए्य सत्ता को तहीं मानने । पर दमसरे अ्रस्तिक विचारों का कथन है कि स्वायु चक्र भावों कः उप.दान कारण बत सकता है; निमित्त कारण वासना या पअहंत्व को हो मानना पड़ेगा । स्वायु जान तो जिजली के तारों का सा पेचीदा समह है जिय पर चेतना या उत्तेजना प्रद” हुल होठी है । गत: भावसूष्टि सबंधा स्वायु जाब की क्रिया प्रति क्रताग्रों के करण हो नहीं। अ्रतः मल का 'ण वसना को ही मातना पड़ता है ।' इप प्रकार की दांम्पत्य शछुगार की घारणा रोमव कॉयोलिक संत्रदाय के लोगों में भी चालू है। इसका उदाहरण पेंट हरीजा और जान आफ दी क्राते! की अनुभ तियाँ है। उन्होंने जीव और प्रकृति का वेता ही मथुर सबंध माना है जस्त स्त्रीपुए्ष का । यहीं नहीं उससे पु भी बूतान, रोम, मिश्र तथा पश्चमी एशिया में किसी दे क्षिसों रूप में इस प्रकर के विचार प्रचलित थे । अत: भारतीय साहित्य में छूंगार पूर्व से हो विद्ययान है। घुरलमानी प्रभाव से उस में कुछ अंतर अवश्य पड़ गया था । घ-थंगार और भक्ति संस्कृत के प्राचीन साहित्य में श्यगार को लौकक भव तथा भक्त को श्लौ-केक तात्विक भाव माना गया है। दोतों का क्षेत्र भिन्न भिन्न है । भक्ति में दास्य भाव, देन्य, शरणागति आदि तथा तत्व विचार का समावेश था। ध्यूगार में लौकेक मधुर अनुभूतियाँ श्रातो थीं। भास, कालदास, सवश्नृत्रि भ्रादि ने राम कृष्ण को जहाँ नाटक काव्यादि का नायक बनाया है उसमें भक्तिमाववा नहीं है। कालिदास ने शिवभक्त होकर भी कृमारसंमत्र में शिव्पवंती के प्रति भक्तिमावना उतनी नहीं दिखाई जितवी रस- >__.. .........---+5+++ १-डा० रामप्रसादत्िपाठी--प्रभुग्याव मोतलहुत ना यहा भेद! पुस्तक की भमिका। त् टी आय, भावना दिखाई है। कवि का हृदय रसप्रवण है । भक्ति प्रवण नहों। इस प्रकार प्रारंभ में भक्ति और शुंगार दो प्रथक पृथक भावनाएँ मानी जाती थीं । विक्रम की दसवीं शताब्दी में भक्तिभावना बढ़ी। उससे साहित्य- धारा भी प्रभावित हुईैं। इसीके फलस्वरूप जयदेव ने भक्ति और श्यगार का संमिलित रूप गीतगोविद भें उपस्थित किया । भगवान का प्रसाद प्राप्त करने के लिए काव्यरचना की विलासपुर्ण शली इन्हीं से प्रारंभ हुई। हु ११वीं शतों की घटता है। इसके बाद चंतन्य महाप्रभ्नु ने गीत गोविद को अपना संप्रदाय ग्रथ बना लिया। फिर तो इस शली का प्रचार बहुत बढ़ गया। जयदेव के बाद बंगाल के चंडीदास तथा मिथिला के विद्यापति इस धारा में प्रसिद्ध हुए। ये दोवों संस्कृत मिश्चित प्रांतीय भाषाश्रों को लेकर चले थे । लोग विद्यापति के पदों को प्रायः साहित्यिक मानते हैं भक्ति संबंधी नहीं | फिर भी चैतन्य संप्रदाय में वे भी भक्ति रूप से गुहीत हैं । श्रद्धासहित वे भक्तों द्वारा गाये जाने लगे। चैतन्य महाप्रभ्चु (संबत १५४२-१६०० ) का इस घारा पर श्रत्याधिक प्रभाव है। इसी संप्रदाय के शिष्य सनातन रूपयोस्वामी तथा जीवगोस्वामी ने इस मार्ग का शास्त्री- करण शिया | रूप गोस्वामी का “उज्वलतीलमरण' ग्रंथ श्ंगार रस की शली से भत्रित रस पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न हें। भक्ति संवलित श्ंंगार का वही प्रमाण प्रथ' माना जाता है। तब से यह मार्ग प्रशस्त और परि- माजित हो गया है। इसके उपजीव्य ग्रथ, भागवत तथा तत्संबंधी श्रन्य सरस भक्ति की रचनायें हूँ ॥ डः--संयोग का' स्वरूप प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है--संभोग सहित तथा संभोग रहित । पहले का नाम संभोग है दूसरे का नाम संयोग हो सकता है । यद्यपि इस प्रकार का विभाग आचार्यो ने नहीं किया पर भाव- नाभ्रों के आधार पर यह आवश्यक है। जो प्रम वासना मूलक है उसका पर्यवसान भोग में होता है। पर जो विशद्ध श्रात्मानुश्ूति के रूप में है उसका १--श्रीपरशुराम चतुर्वेदी--हिंदी काव्य धारा में प्रेमप्रवाह! तथा 'मध्य- कालीन प्रेमप्ताधना । श्राचार्य हजारी प्रसाद टद्विवेदी--'मध्यकालीन धर्म साधना ।* २--काब्यदपंण पृष्ठ २१२८ । ( र८३ ) पर्यवसान भी प्रेम ही होता है। ऐसा प्रेव किरी वस्त का, जह्ञैते भोगादि, साधन नहीं बतता | इस साथ्यभव प्रेव का मिचन संगोग कहा जाता चाहिए। घना- नंद जी ने अनुभुत्यात्मक प्रेम के प्रसय से स्थोग5र्रन किया है और साधता- त्मक प्रेम में राघा और कृष्ण के मिजन में संघोग का वन पदों में किया है | रसावायों की हृष्ट संभोग में ग्रेमी और प्रिय के भोग पक्ष पर ही विशेष रूप से पड़ी है। विश्वनाथ ने अपने साहिहरदर्णण में इसका लक्चणा करते हुए प्रिय और प्री के एक दूधरे के द्शव स्पर्शन शझ्रादि के भोग को इसका; परिचाधिह चिह्न मात्रा हैं। उसके भेद भी झुंबन आन््गिन शादि विज्ञास चेशाग्रों के आधार पर अरते की हैं। इस सबसे संरोग में भोग पक्कु की प्रश्ानता व्यक्त होती है । इसी मार्ग का अनकरणा रीति काल के सपस्त कवियों ने किया है! विज्ञासरेष्टाएं भी उनकी निजी अनुभति के अ धार पर शाधारित नहीं पर प्रश्व यह उठता है कि क्या संयोग में प्रमानभति सवंथा अवसूद्ध हो जाती है ? कया हु॒दए इतना कुंठेव हो जाता हैं कि उसमें भावों का उदय नहीं होता, जिय से स्थूल विलास चेंष्टाएँ ही बरामन के लिये शेष रह जाती हैं? क्या इपलिये हुद्यानभवत्रों को विवृत्ति वियोय में ही कवे करते आये हैं संयोग में नहीं? धनातंद का अ्रध्येता इन प्रश्नों का उत्तर निषेध में देगा । कारण घवनानंद जी से वियोग की तरह संयोग में भी हृदय की मार्मिक अतुमृतियों को व्यक्त किया है। श्जील श्रश्लील विलास चेट्टाम्रों को नहीं | इप रूप में इनका झ्यंगार वियोंग और संथोग दोनों जितना वौद्धिक है उतना शारीरिक नहीं ' प्रेम को इन्होंने सर्वो्तरि प्रधानता दो है। वह जिस प्रकार वियोग में तीक्ष्ण से तीक्ष्शुतर होता जाघा है उसी प्रकार संयोग में भी मंद नहीं पड़ता | संयोग का सुब्र और वियोग का दुख हृदयानुभति को अभ्रभिमुत नहीं कर सकता। भ्रम अ्रभित्ञापावशेव श्रत्िक्र है जो प्रिय प्रेमी के प्रति झोर प्रेमी प्रिय के प्रति श्रपने हृदय में अ्रनुभव करता है। परत: अभिलाषा की विद्यमानता श्यंगार को समस्त दशात्ं में यदि प्राप्त हो तो वह प्रेम को प्रधानता ही है। इनके संयोग से अ्रभिलाप को सत्ता सबत्र मिलती है। इस विषय में रोतिपरंपरा को देखा जाय तो झमिलाष का क्षेत्र वहाँ संकाचतद 532 ( २६० ) और व्यवस्थित मिलता है। विरह् की दश दशाझ्रों में से यह सर्वप्रथम है! । पर यहाँ वह बंधन नहीं। यह अभिलाथ प्रियविषयक श्रनुराग है जिसे रीति की शब्दावली में बॉँचना हों तो 'रति! कहना चाहिए। रति स्थायीमाव होते से प्रत्येक दशा में विद्यमान रहती है। उसी प्रकार यहाँ प्रभिलाष है। यह वियोग की तरह संयोग में भी प्रेमी को सदा श्रन्त:- पीड़ा से पीड़ित श्ियि रहती है। इसी कारण संयोग वियोग सा लगता है। विरह कभी पीछा नही छोड़ता । प्रिय के रूपसौंदर्य को देखकर हृदय में हर्ष की उमंगें इस प्रकार उठती हैं जिस प्रकार सपुद्र में तरंगें श्रथवा राग में ध्वनि उठती है। नेत्र रूपराशि का अनुभव करते है फिर भी वे तृषित ही बने रहते हैं। उधर मुख प्र ग्रधिकाधिर ओप बढ़ती जाती है इधर हृदय में अभिलाषाशों की वर्षा सी होने लगती है । आँखें रूपरस का आस्वादन करती हैं पर हृदय में अ्रभिलाषाओों को संचित कर देती हैं जो कभी समाप्त नहीं होतीं । प्रिय का वर्णान करने को मन चाहता है पर वाणी गुणों में ग्रसत हो जाती है। मति की गति भी थक जाती है। सुधि अपनापन भूल जाती है। इस तरह लालसाशों के कारण संयोग का सुख किसी प्रकार भी नहीं मिलता । बवियोग के अनंतर भ्राने वाले संयोग में प्रेमातिशय दिखाने की परंपरा है। अतः यहाँ संयोग में श्रमिलाष वर्णानीय हो सकता था। पर धनानंद जी का प्रेमी यदि कभी बियुक्त नहीं रहा फिर भी संयोग काल में प्रेमातिरेक के कारण प्रिय का मुख देखते देखते पलक नहीं मारता। श्रा्खें जागती ही रहती हैं। हृदय तृरा के समान काँपता है। रोम रोम आनंद में भीग जाता है। यदि वह वियुक्त होकर प्रिय से मिले तो न जाने कैसा अ्मिलाष हो। प्रेमी और प्रिय के मिलजाने पर दोनों के हृदय एक हो जाते हैं और शुद्ध घनप्रानंद के लोभ में जो सुख मिलता है वही प्रेमी को मिलता है। फिर भी हृदय चाह के प्रवाह में पड़ा रहता है" । उनके मुख की ओर देखने १-देखिए साहित्य दर्पण तृतीय परिच्छेंद श्यूंगार रस प्रकरण, २--घना नंद ग्रंथ० प्रकीर्णाक १३ ३--सुद्वि ० २०० ४--वही ० ४६१५ २३३, ३--वही ७२ की इच्छाओ्रों का फरमा लगा रहता है, अर्थाद् एक के बाद एक इच्छा उत्पन्त होती रहतो है। कभी देवयोग से वे सिलते हैं तो मतोरयों की ऐसी भीड हुश्य में भर जाती है कि मिल कर भा निन्नाप नहीं होता । हृदय की गति का ब्यौरा किस प्रक्नार दिया जाए। इस अभिलाष के कारण प्रेमी बौद्धक प्रवसादका भी अनुभव करने लगता है। यद्यपि संयोग ख्यूंगार में अवसाद का वर्णान आचार्यों ने निपिद्ध माता है! । प्रिय के संयोग का सुख एक ओर से तथा अभिलापाग्रों का दुख दूसरी ओर से द्वदय को आ्राक्रांत कर लेता है। इस परंतरा विरुद्ध लाभ से बद्धि का अवसाद स्वाभाविक है। फलत: प्रिय के लिये जो प्रिय आचरण होना चाहिए वह नहीं हो पाता । इसलिए प्रेमिका दुखी होती है । “सुजान प्रिय को देखकर लाखों प्राणों का मानों लाभ होता है पर उनके ऊपर प्रारा न््यौछावर करने की अभिलाषा से बहु मरी मिटती है। इस अनोखी पीर को किस प्रकार कहे | अथीर होकर नेत्रों में आंसू मर आते हैं। क्या विचार किया जाए। रंक की तरह सोच और संकोच में खिन्न ही होना पड़ता है । चिच की चाह के चौचंद में थक थक कर प्रेमी अ्रवरु न हो जाता है।* भावों की सूक्षमता का अवुभव करने में झ्रनंदवन अकेले ही हैं । यह गुण संग्रोग के वर्णन में भी विद्यमान है। किसी क्रिया या अनुभूति के निरंतर दोर्घ काल तक बने रहने से मत उसका इतना अश्यस्त हो जाता है कि उस दशा के परिवर्तित हो जाने पर भी वेया ही अनुभव बना रहता है। देर तक रेल- गाड़ी में यात्रा करने के बाद उतरने पर भी श्ांति यात्रा की सी ही होती है। वियोग के श्रनंवर आने वाले संयोग में वियोग की अ्रांति उसी प्रकार बनी रहती है। “प्रिय बहुत दिनों के विरह के बाद मिला है। वह विरह का ही अ्रभ्यस्त हो गया है। वह संयोग में भी वियोग का अनुभव करता है। प्रिय को देखते भी यह विश्वास नहीं होता कि वह झा गया है। विरही को निश्चित नहीं होता कि यह संयोग हैं या छल । इस प्रकार मिलने पर भी कुशल अनमिले' की ही है ।? १--संयोग आलस्स्योग्रयो जुगुप्सा: वर्ज्या:, रसतरंगिणों २--सुहि ७६ ३--वही ६१ ( २६२ ) संयोग में दु:ख के और भी शनेकों कारण हैं। प्रेमी की लघुता तथा श्रिय की महिछता उनमें से एक है। यह पहले बताया जा चुका है कि प्रेमी प्रपनी श्रपेक्षा प्रिय को बहुत बड़ा समझता है। इस श्रन्तर के परिणाम स्वरूप संयोग में प्रेमी की तृप्ति के स्थान पर श्राश्चर्य को श्नुभूति होती है । फल वहीं दुःख होता है। “जब सुजाबव का संयोग होता है तो बुद्धि श्राश्च्यं में डूब जाती है। फलत: प्रिय का पुर्णा दर्शन नहीं हो पाता | संयोगकाल स्वप्न-पा ठल जाता: हैं। उसके बाद बिरह श्राता है जो सौ गुता चेटक बढ़ा कर हृदय को पीड़ित करता रहता है ।' इस श्राश्चय नुभूति का परिणाम बुद्ध का मोह होता है। इससे प्रेमी: प्रियविषषक अनुकूल आचरण न करने से दुःख का श्रनुभव करता है. अपने हृदय की दशा बताने के लिये लाख लाख भाँति से संयोग की . झभिलाबा की जा रही थी । चुन चुन कर अनेकों रिस भीनी तथा रस भीनी” बातें संगृहीत कर ली थीं कि प्रिय आएंगे, सब कहीं जाएँगी। भाग्य से जब थे मिले तो समस्त चेतना लुप्त हो गई। रोक बावरे होकर कुछ श्रौर ही और कह गएऐ “उरगति ब्यौरिवें कौं सुंदर सुजान जु को, लाख लाख विधि सौ मिलन अ्रभिलाखिये | बातें रिस रस भीनों कत्ति गसि गास भीनी, वीनि वीनि आ्राछ्धी भाँति पाँति रचि राखिये । भाग जागे जौ कहूँ बिलौई घनश्रानद तौ ता छत की छाकति के लोचन ही साखिय॑ । भूले सुधि सातो दसा विवश गिरत गातौ रीमि बावरे ह्व तब भ्रौर कछू भाखिये ।* प्रिय की महत्ता पर झ्राश्वय सूफ़ो कवियों ने भी खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाण है! पद्मावती के प्रथम दर्शन में रतनसेन का बेहोश हो जाना ' श्र बाद में विलाप करना इसी का रूपक है। महात्मा तुलसींदास जीने १--वही २६६ २०--रही ६७ ( २६३ ) मिलन की परिस्थिति कओ प्रमाव के हूय में यह अतुसत पारिवारिक प्रेत के असेंग से किया है) बन में भरत जब राम से प्रथम बार सिने दे तो दोनों की हृदयदशा ऐसी हो जातो है कि कोई किसी से ते कुछ कहूदा है श्ौर न पूछता है । हृदय स्तंभित होकर ज॒न्य हो जाता है । कोउ कछु कहइ न कोइ कछु पूछा, प्रेम भरा मत तिज गति छूछा ।! कवि की अंतद्व त्तिप्रवानता भी इस बात का कारण है कि उस्ते संयोग में भी सदा वियोग का अनुभव बना रहता है । अनोखी हिलग देया चिछुरे ती मिलयौ चाहै, मिलेहू मैं मारे जारै खरक बिछोह की। वियोग का भत्र हो बढ़ी नहीं, प्रेमी प्रिय का निरंतर ब्यान करने से बौद्धिक वियोग का अम्यस्त हो गया है। वियोग में हृद्यस्थित प्रिय से भ्रालाए संभाषणादि नहों हो सकता। यह अवस्या संयोग में भी बनी रहती हैं| सयोग वियोग तुल्य हो जाता है ' प्रिय पास में बंठा है। फेर भो हृदय में उपकी अठस्थिति वेसों हो है। प्रिप सुजान मिल गये पर वे बुद्धस्थ होकर उसे व्याघुस्ध अब भी करते है । यह फंसा संयोग हैं कि विधोग बिछुड़ता ही नहों ।* कवि की चितन की यह अंतवृत्ति रीतिमार्ग की उस स्थल प्रवृत्ति से भिन्न है जिसमें संयोग के समय वुद्धिव्यायार संंधा अवरुद्ध हो जाते हैं । वेते आचार्यों ने उसी संबोष को साहित्य में उत्तम माता है थो वियोग से किसी न किसी प्रकार संबद्ध हो। जिस अक्ार कपले वस्त्र पर रंग अधिक चढ़ता है उसो प्रकार विप्रलंभ से कोमल बने हृदय नें पंग्रोग की पुष्टि अधिक होती है ।* पर घतानंद जो ने संयोग में विश्रोग के बआंग्य का हो चहीँ समकालीनता का भी अनुभत्र किया है। अतः वियोन प्रत्तेह्ष ब्ररस्था में बना रहता है , १-अयोध्याकांड (सोपान २) दो०» ३४३, चों> ६ ४ २--सुहि ० १०४ ३-+न बिना विप्रलस्भेत संयोग: पुष्ठिपश्नुते कापायित्रे हि वस्त्ादों सूतात _ शागो विवर्धते, साहित्यदर्पण परिच्छेद ३ | ( २६४ ) इस तरह अभिलाष, अ्रंतर्षपयान, वियोग का अनंतर्य तथा प्रिय कीं उदासीनता श्रादि कारणों से घत्ानंद का संयोग सर्वत्र वियोगसंयुक्त है। वास्तव में कवि मूलतः: वियोग और दुःख का कवि है। गाना तथा रोना दोनों में से रोने को ही अच्छा समझता है। जिसपर रोना नहीं पश्राता उसका गाना भी रोना है नहीं तो श्रानंद तो प्रम की संतापाग्नि में बेचैन रहने से ही मिल सकता है | प्रेम श्रागि जागे लागे फर घनआनंद को रोइबो न प्रा्वें तो प॑ गाइबोह रोइबौ' अ्रश्लीलता का अभाव तथा रसानुभृति का बौद्धिक रूप घनानंद की देन मानती चाहिए। इनका श्ूगार भावात्मक से बौद्धक रूप में विकसित होता गया है। प्रेरणा कहीं से लो हो पर श्रनुभृतियों का स्वरूप अ्रभारतीय नहीं है। वह चिंतन में अ्रपने वर्णानों की परंपरा में संगत प्रतीत होता है। परमेश्वर की व्यापक सत्ता का आभास सत्र होता है। यह प्रिय का बौद्धिक संयोग है। पर प्रेमी भक्त उसकेः साक्षात्कार, स्पर्शन आदि के लिये लालायित है। इसलिये वियोग भी साथ ही लगा रहता है | परमेश्वर का भक्त के प्रति उदासीन भाव भी काररणांतर होकर उपस्थित रहता है। इस प्रकार वह मिलकर बिछुड़ता श्र बिछुड़कर मिलता रहता है। श्ानंद के घन सत्र छाए रहते हैं पर चातक प्रेम का प्यासा ही बना रहता है । शलहाछेंह कहा धों मचाय रहे ब्रजमोहन हौ उख नींद भरे होौ। मिलि होति न भेंठ दुरे उघरो ठहरे ठहरानि के लाल परेहौ॥ बिछुरें मिलि जात सिलें बिछुरे यह कौत मिलाप के ढार ढरेहो। घनभआनेंद छाय रहो नित ही हित प्यासनि चातक जात मरे हौ।।” २५ ५ 2५ संयोग में हर्ष उल्लासादि का जैसा वर्णन हिंदी साहित्य की परंपरा में चलता शआराया है वह भी कहीं कहीं मिलता है। «प्रिय के श्रागमन पर हुृदय- रूपी श्रालबाल से उमंग की बेल झ्रानंद के घन द्वारा सिक्त होकर इतनी बढ़ी है कि नायिका के रोम रोम पर चढ़ गई। उछाह का रंग इतना बढ़ा है कि ' ५७ »-+--नक>कन-आ.>न»»+»% «न» १---प्रकोर्णक ७० | वह दुकुल के बाहर निकज्ा पढ़ता है नेत्र दौहकर बधाई सी बोलते हैं, आदि आ्रादि | पर थे दान कद्षित्त सबधे में के ऋंगार छोर दि कवित्त सतयों को तौकिक भवों की: प्रत्ित्य क्त का उचित सावन सम- सते हैं और पदों तथा दोहे चो भक्तिभाव की अभिव्यक्ति का। भक्त में पगार स्थल हंथ क्षिटाईऋा प्रएाह हाक्र भी वेरस्थेत्पादक नहीं बतवा पत्र लौक्िक्त उन्ृगार तने रझना प् अधक बौद्धक बवाने का प्रधान कि ने कब: 2, 2 ० किला मा] 556 जब 5 छककुए ताप. 0वाकका + हु न जम पक न्त्ट्म अकल-न-% हम बन जा व्यापार के विश्ल॒य्ग का घतदालंद डा का परर्षद, पद रुचि काल स॒ हू दा चअअम्सांक “कक: सडा.. आभ्मां्ाओ चुके ४ “नहर: (॥ अल 3 उनके, लीक _अलरहतमर.. व के बल में अयता लो गई होतो तो हिंदी! काव्यघारा का मान कुछ ऋर हो होता । नायक और नादिका दोनों का विद्यमानता में रीततमाग के कॉविद या तो दृती या सख्यों को वह ले खसका नाथिका के स्तवादि अंगों पर डालकर विलास को उवबारने के लिये नए नए उपाय ढुढ़ते रहे हैं या फिर वायिका के हावों का वर्शान करते लगते हैं। बसे ही भ्रवसर पर घन झानंद जी का प्रेमी इससे बिलकुल भिन्न रूप में दिखाई पड़ता है। 'सुजान के संघुख घनानंद बंठे हैं। उतकी आ्रांखें सब ओर से परिचय छोड़कर उप्ी को ओर ताकती है, पलक नहीं टारतीं। इकटक देखने की जक सदा जागी रहती है। देख देखकर सुख में भीगी हुई वे कभी रोती हैं कभी हँउ पड़ती हैँ। चौंक कर देखतो है पर चिता बनी रहती है। वे लज्जा को श्ुंखला तो तोड़ देती हैं, पर उप्तकी शोभा की श्यूंखला में बँध जाती हैं जिससे किसी प्रकार का निकष्स ही तहीं हो सकता | इस चाह बाबरे नेज्रो की कुछ ऐसी बानि पड़ो है । इस प्रकार के अनेकों वर्णन कवि ने किए हैं। यह भावोदगारी संयोग रीति काल के लिये हो क्यों हिंदी साहित्य के लिए नवीन हैं | (87 2॥7 | ॥260: शी मिड । की । हद शो पे है ( छः ) रूपपौदय -- वुजनाथ ने अपनी प्रशरित्र में इसक्रे विषय में 'सुंदरताति के भेद को जाने! कहा है। भेद शब्द का तात्वर्य या तो विविश्न प्रकार का हो सकता हैया फिर रहस्य। पहले अर्थ के अवतुसार आनंदबन सौंदये के वितरित प्रकारों के वर्शयिता सिद्ध होते है पर इस प्रक्नार की कोई विशेषता इनके १--सु० हि० ७७ । ( २९६ ) काव्य में लक्चित नहीं होती। दूसरे श्रर्थ को संगति श्रवश्य होती है। सौंदर्य की ऐपती विशेषताएँ इनकी रचनाझ्नों में मिलती हैं जो दूसरे कवियों के लिये ग्रज्ञात रहस्य हैं ! इनके कुछ वर्णन तो रीतिमार्गी कवियों के से साम्य द्वारा वस्तुप्र ख्या- पन मात्र के हैं। नाक, कान, उदर, कटे, पीठ, पैर आदि के वर्शान में अलंकारों को भरमार को है। जैसे रोतिकाल की रचनाओं में होती है वैसे यहाँ भी ताक, कान आदि का यथार्थ रूप हम नहों जान सकते । उपमानों की भीड़ ही देखने को मिलती है। उनके द्वारा कवि-समय-प्रसिद्ध किए एकाधी विशेषता का परिचय हो जाता है जैसे तलाक का उन्तत होना, कटि की छोणाता, पैरों की लालिमा आदि | पीठ के वर्शान में कवि कहठा है- काम कलाधर ने प्रियतम के प्यार की शिक्षा देने के लिमे मानों यह पट्टी दी है। इसपर पढ़ी वेणी शोभासुमेह की संधितटी है, या मानमवास के गढ़ को घाटी है, या रसराज के प्रवाह का मार्ग है ।* इसी प्रकार कि की सूक्ष्मता बताते हुए उसे साहित्यशात्र की ध्वनि से साम्य देता हुआ कवि कहता है कटि का रूप ध्वनि के समाव है, जो बक की दृष्टि तान कर देखने से ही दिखती है। अपने साथ लोचनों को लगा लेती है जैसे ब्वत्यालोक की टीका लोचन है। वह लगी हुई भी श्रलग सी लगती है। संशय होता है कि वह है भी ण नहों | यहा बात ध्वनि के विषय में भी होती है । उपयु क्त दोनों वर्णानों में स्पष्ट रूप से अलंकारचमस्कार का प्राधान्य है। वस्तु के यथार्थ रूप के वर्णन नहीं हो सकते | इस प्रकार के वर्णात प्राचीनर्शली के हैं। रीतिकाल में यही पद्धति सर्ववाधारण थी। इसमें एक दोष यह भी है कि सौंदर्य के. सामहिक रूप की श्रभव्यक्ति न होने से रमणीबता का श्रभाव रहता है। सौंदय, लाब्ण्य, छवि आदि के जितने लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें रूप की समूहालंबनात्यक स्वीकृति है खंडशः नहीं। बनानंद जी के वर्णन दो प्रकार के मिलते हैं। एक तो जिनका श्रभी उल्लेख किया गया है | दूसरे प्रकार के वर्णनों में सौदर्य के समूहात्मक यथार्थ रूप के दर्शन होते हैं। साथ ही उन गुणों का वर्शान बहुत है जिन्हें छवि श-सु० हिल ०३... २--बही २० (: २६७ ) 0. 'सुदरतानि! का भेद हे । सावारण अ्ांखों को पकड़ आंखें देखें भी तो इसके वर्णन के लिए पुराती वाणी ने झाम नहों चन्त सकता हैं। घनशनंद को सौंदर्य क्षा भेद देखते को प्रेम को प्राडों मिल आर इसका वर्णन करने के लिये वे 'भाषाप्रत्रीरा थे । पहले रूय का बबारथ चित्रण देखें:--- सुजान सोकर कुछ कुछ उठी हैं। रस के आलस्प मे पीक पगी पलकें लगो हो हुई हैं। बाल दुघड़ झुत् पर और ही आभा बन गई हैं। वह अंगडाती है अ्रंग अंग में प्रनंग की दीप्ति हो रहीं है लड़कपत छुलका पड़ता है। “हुलान चमकती है। वारीक कोमल बाल छुडे अनुभूति दर्शन की होती हैं उपका बन उन्होंने किया है) सचदुन यह | कि हे । । ॥॥ 28 नह कन्च ल्क डी ब्लू | 3] हि! | “४, नन्नर $ 2 |, ७0५ हिल । /० ० । बम ज्ड शा | /॥ॉ] | कि 24 हर जज हक मल रन्ँ अपनी लज्जाशगील चितवत से हृदय को रस में लिप्त कर देती है । मावे पर सुहाग की बिन्दी चमकती है दोनों रूपचित्रशों में रूप का स्वानलमत यथाथ चित्रण है। उपमान तो एक भी नहीं आया। चाहे तो चित्रकार स्या पढुक्र चित्र तेयार कर झक्त्ता हैं। यह वह ब्योरेवार वरान हैं जिसका रीतिकाल में कमी इसलिये रह गई थी कवि कवि स्वानुभूत नहीं कहते थे स्वप्रित या स्वश्षुत् कहते थे । समदात्मक रूप के दर्णान में प्रनुभूति और अभिवयल्दि जोरों हो गवीन हैं, भषणभ्पित सुंदरी के घर से बाहर दिकलने का बणंव उक्दाहर बलतो हुई नदी द्वारा, जिसने सार! भदत भर दिया हो, किया है ।* यौवन के विकशित सौंदर्य व इस करता हुग्मा कवि कहता है-- १ हि० १७ २--वही २६२ ३-- रंग श्रंग नुतन निकाई उभिलन फाई भौत भरि चलो सोभा नदी लौ उफनि है। सु० हि० १६७ ( २६८ ) अत्यंत सदर गोरा घुख भलकता है। तृत लोबत कानों का स्पर्श करते हैं। हँस कर बोलती है तो मानों छवि के फुलों की बरसा छाती पर हो जाती है। चचल बाल कपोलों पर खेल रहे हैं। गले में पृष्पमाला है। अ्रंग अंग से सौंदर्य की तरंग उठती है। मानों रूप चू कर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा', सौंदर्य के उफान को तरंग बताकर तथा 'परिहुँ धरच्व से उसके विकास को दिखाता घवानं३ के नये प्रयोग हैं । प्रच्छे मुख पर रूप को बई नई भल्क है। उसी प्रकार यौवन की लाली चमकती हैं। अनंग रंग की तरंग श्रंग अंग से उठती है। भूषण वस्त्रों की थामा भर कर फेली है| छुबि की रसभीर में नेत्र अधीर होकर गिरते हैं, पर ऊपर ऊपर हो तैरते रहते हैं। उनकी छोटी सी श्रोक है। इसलिये प्यास की पीर बढ़ती ही रहती है।” इन सब में सौंदर्थ क! बाह्य स्वरूप नहीं अंतर्दीप्ति व्यक्त की गई है । इस | अतिरिक्त इतका सौंदर्य प्राय: पूर्णा विकसित यौवन का है तथा मादक है। नायिकाभेद की खाना पूरी कहीं नहीं की है। ऐसा बर्णंव एक भी स्यात् न मिले जिपमें कवि का हृदय ने लिपटा हो । यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आसक्त लालसा के साथ रूप देखा गया है इसलिये उदांसीन बुद्धि की कांव्यचातुरी इन वर्णानों में कम मिलती है। रूप का जहाँ वर्णाव है वहीं उसके प्रभाव का भी है। जैसे 'सुजञान के रूप की अनुपप झत्रक का कहाँ तक विचार किया जाए। इसके मसाधुर्य की गहराई सें लावशय क्री लहरें उठती हैं। यदि इसकी समता आरसी से की जाए तो वह भी बूझ की श्रबझ ही होंगी। इसके श्रच्छे अंगों को देखकर तो अ्रपना आपा भी दिखलाईं नहीं देत।। श्रारती में मुँह दीखता है। इसका स्वाभाविक हँसना मोहिनी की खानि है। इसपर रीभ भी रीछ कर भीज जाती है । क्या न््यौद्धावर किया जाए। इसके संकोच में हम तो हार गए ४ श्राचार्य रामचेद्र शुक्ल ने ज्ञातृप्रवान वर्णात के दो भेद किए हैं, भाव- मय तथा अपरवस्तुमव । अपरवस्तुपय में साम्यादि के लिये उपमाचों का प्रथोग १--घ० श्र ० प्रकीर्णाक २ २--बुहि १५४ 5 अल ७आओ ( २६६ ) होता है | भावमय में कवि वर्शर्यवस्तु श्र तज्जनित रूच्दृदयानुन ते दोनों का उल्लेख करता है! । पहली श्रेणी में घवानंद के नाक, कान आदि अ्वयवों के वर्णत आते हैं दूसरे समूहात्मक वर्णात | ये दोनों प्रकार के ज्ञतृत्रवात हू विपयप्रधान नहीं-अर्थात् देखदेवाले का हुंदव अरउनोी अनु विरंडित ऋाख से रूप को देखता है। उदासीन दृष्टि से नहीं। प्रेमी का 'चच प्रिय के के श्र॒गों की ग्राभा के साथ स्वयं द्रवीभूव होकर उसके हंसते. बोलते *य' 40 | छ खा हम पं <॥/ हित हु न्प्य हर च बज जक 44? ५७ | रच कि $ पु नव | ५5। 9 40 उत! त | 5॥ #ण्पन््ईु #4॥| 4] ञञु /' प्र प्र्थात प्रेमपात्र का जो चित्र खिचा है उसमें प्रेमी के चित्त का भी चित्र हैं; अंग अंग आाभा संगद्रवित खद्जित बछ्ली के रचि सचि लीतों सौज रंगनि घनेरे की। हंसनि लसनि झ्राछो बोलनि डजितोति चारु मरति रसाल रोम रोम छंत्रि हैरे की । लिखि राख्यौ चित्र यों प्रवाहरूपी नेतत मैं लही न परति गति उलट शझनेरे की। रूप कौ चरित्र है आनँदघन जान प्यारी प्रक धौं विचित्रताई मो चित चितेरे की। सु० हिं० २ ११ ज्ञातृप्र धान होने के कारण ही रूप का प्रभाव बार बार वर्शित किया गया है। प्रिय की निकाई पर रीफ बिक जाती है । उनके यौवनधू मरे नेत्न देख कर बुद्धि ममता को न्योछावर कर बावली हो ज'ती है। उनके बोलने पर प्रेमी के बोल बंद हो जाते हैं । उनके न देखने को भी देखते ही रह जाते है । बुद्धिव्यापार का छूप के संम्रुख पराजित हो जाता बार बार कहा गया है| रूप की सेना सजी देख कर घरर्य का गरढ़पति भाग जाता है। हृदप्नगर में वह प्रवेश कर लेगा है तो नेत्न उसी से जा मिलते हैं। फलस्वरूप लज्जा की लूट हो जाती है। रीकि पटरा नी हो जाती है, बुद्धि दासी' । सारांश में इस विषय में निम्नलिखित तथ्य निकलते हे-- १---घतानंद का रूपवर्णान कुछ रीतिकाल की शैली का चमत्कारप्रधान है जिसे उनकी प्रारम्भिक रचना मानना चाहिए शेष उनकी व्यक्तिगत अनुभूति है । 0 न कप न कप १-- देखिए रसमीमांसा, १० ११२ २--वही ३४, ४५ (३०० ) २-- खूयवरणान में द्रष्टा की श्रासक्ति कलकती है। जाह के रंग भीजे हुदय तथा रीक बारे नेत्नों ने देख कर रूप का वर्राव किया है। ३--रूप मादक तथा पूर्ण विकसित विलासी है जिससे वेश्याप्रेम का अनुमान होता है | ४--शारीरिक सौंदर्य के संश्लिप्ट चित्रण भी किए हैं, ५ -सौंदर्य की अंतरदोष्ति जिल्नों श्रधिक वरणित हुई है उतना वाह्य इथूल रूप नहीं । ६--प्रतुभति सत्य होने से उसकी अ्रभिव्यक्ति के लिये नये प्रतीक कव ने प्रयुक्त किए हैं | (ज) प्रकृति वर्गान स्वछंदमार्गी कवियों का स्वतंत्र चितन जैसा भावज्षेत्र में मिलता है वसा प्रकृतिवर्णन में नहीं। प्रकृति का खुना क्षत्र न तो इनके प्रेम- व्यापारों का क्रीडास्थल बना है न प्रेम का विषय ही। अ्रयोध्या नरेश हाराज मानसिह उपनासश हिजदेव को रचताग्रों में इसका कुछ आ्राभास अवश्य मित्रता है। पर दूसरे स्वछंदमार्गों लोग ग्रंतवृत्ति प्रधान थे। उतका प्रेम भावात्मक था, घटनात्मक नहीं । श्रतः यह स्वाभाविक था कि इनकी प्रतिभा हृदय के विश्लेषण में रव हुईं, वाह्य के वर्णन में नहीं ; घनानंद सबसे श्रधिक अंतृंख हैं। फलत; इनका प्रकृतिवर्णा संयोगी या वियोगी प्रेमी की हृदयदशा की व्यंजनवा है, प्रकृतिसौदर्य की नहीं । प्रकृति उद्ोपव है स्वतंत्र आलंबन नहीं । यहाँ ये रीतिमार्ग से हटते हुए नहीं प्रतीत होते । प्रभात, संध्या, रात्रि, दिवालो, होली, वर्षा, बतंत, चातक, मलयानिल, भूषा, आदि का वर्ण वित्त सबयों में तथा ब्रज, यघुना, वसंत, वर्षो, गोवारण, छाकभोजन, श्रादि का निबंधों में हुआझा है । वियोगितो को प्रभात की शअ्रपेक्षा संध्या प्रिय लगती है। क्योंकि उस समय प्रियमिलन होता है। रात प्रिय के संयोग में तो अ्रम सी बीत जाती है। पत्ता भी नहीं लगता! यह प्रिय के श्यामरूप सो, भानंद की सीढ़ी सी, गोपियों की आखों के प्रंजव सी; पश्रथवा रसराज सी रमणीय लगती है। पर वही विशद्योग में काली सपिणो होकर डसते श्राती है 3 अिनमगनीययय अपन सीनननननन ले 5 १--वही २६८ ५ कक) प्रेम का मुख्यतया वर्शांत है, वियोग ही मुख्य है। वियोग की यह प्रमुखता प्रासंगिक रूप से हो नहीं हुई है, कवि को भास्था भी ऐसी है। प्रेमक्षेत्र में दुःख, वेदना भ्रादि के बिना न तो वे काव्य की उत्तमता मानते हैं श्रौर न क्रवि की । उनके अनुसार रुसिकता बेदना द्वारा परिलक्षित होती है। व्यथित हृदय की पुकार ही श्रेष्ठ कविता है--यह उनका मत है । इस विषय मैं वे संम्कृत के प्रसिद्ध नाटककार भवभूति तथा अंगरेजी के महाकवि शेली के समान है! । इनका मत है कि “जबतक मर्मस्थल व्यथित नहीं होता तब तक किसी बात का मामिक रहत्य नहीं जावना जा सकता | वाणी की खिलवाड़ मर्म॑ पर आझ्राधात नहीं कर सकती । राग ( गीत ) का स्वरूप तो राग ( श्रनुराग ) से ही जाना जा सकता है। नहीं तो बिना श्रांखों के कान व्यर्थ शब्दों को टकटोरते रहेंगे। प्रेम की कथा भ्रकथ है। इस की तान श्रथाह है। यदि रोना नहीं आता तो गाना भी रोने के समान है। “गोपियों की सिसक ग्रौर उनकी कसक जब तक हृदय में नहीं श्राई तब तक रसिक कहलाना व्यर्थ है । रसिकता कुछ और ही चीज है।” 'मरम भिदे न जौ लौं मरम न पाबे तौ लौं, मरमहि भेद कंसे सुरति घंघोइबों राग ही तें राग के सरझूप सौं चिन्हारि होति नने हीत काननि प्रसुझ टकटोइबो प्रेम आगि जागें लागें कर बन आानेंद को रोइबो न आवबे तो गाइबो हु रोइवो न पु -+- गोपित की पिसक कंसके जौ न झ्राई मन रसिक कहाए कहा रस कछू श्रीरई' इस वियोगपरक हृष्टे के कारण ही कवि ने संयोग में भी वियोग के दर्शन किए हैं जिसका विस्तृत उल्लेख संयोग के प्रसंग में हो चुका है । १--भवभूति--एको रस: करुणएवं, उत्तर रामचरित । शैली-0०एए इज़टटांका इ0प्र85 दाल (7086 88॥ [2८]] 6 $840650 ॥॥0पढष्टी305, २--प्रकीणंक---३ ०; ३१ । इसी प्रकार इश्कलता में भी श्रपनी इस मान्यता को प्रकट किया है--- संयोगीहृद्श्क तें इश्क वियोगी खूब । आनंदघन चस्मों सदा लग्या रहै महिबूब | इश्कलता-- ४ २- परंपरा शुगार का वियोगप्रधान वि की परंपरा पर विचार किया हुए ता पता लगता है कि बह जेश्द्ध झा मे सतत को कृत्य बाग की ने है । संस्कृत काव्य घारा ज॑ ढ़ हुई श्रोर तुलसी सूर ग्रादि हृ संयोग और वियोग दनों ही समान रूप से काव्य के विपय बने हें संस्कृत के प्रेम कब कालिदास ने वियोग को मामिक पीड़ा और संयोग का उच्छुन उल्लास दोनों का वर्णन किया है। कहीं सयोग के बाद वियोग जसे शकुतला नाटक तथा रघुवंश के इंदुमती विरह में, क्हीं वियोग के बाद सयोग जेसे कुमार संभव में, दिन रात के पर्याव क्रम से ग्राते रहते हैं। मेघदत जैसी बिरही की संदेशकथा के काव्य में भी प्रकृतिवर्शान में भरपुर संयोग आया है। विल्हरा की चौरपंचाशिका विरह का प्रेम- काव्य है। पर उसमें भी प्रधानतया पूर्व संयोग का हो स्मरण है। हिंदी का सर्व प्रथम प्रेमाख्यान 'ढोला मारूरा दहा! है। इसमें भी संयोग का उल्लास और वियोग की वेदना समान भाव से वशणित है। कबीर, दादू श्रादि ने श्रपनी आ्राध्यात्मिक प्रनुभ्ृतियों की अ्रभिव्यक्ति में अप्रस्तुत रूप से जो शूंगार का आश्वयणु किया है उसमें सौ संयोग और वियोग दोनों समान हैं। वे जिस प्रकार दुलहा दुललहिन का परस्पर मिलन दिखाते हैं उसी प्रकार विरह में भंपूर्ण शरीर रबाब बन कर प्रिय का राग प्रलापते लगता है जिसे या तो प्रेमी सुन सकता है या प्रियः ।! राम और कृष्णु की भक्ति धारा में भो इसी प्रह्दार संयोगवियोंग समान हपते आते हैं। मीरा की रचताप्नों में वियोग की प्रवानता श्रवश्य है। उसका कारण सफ़ी झोर फारसी के कवियों का प्रभाव है | रोतिमार्गी कवि तो शास््रपरंपरा के अनुयायी हैं। शास्त्रों की रस मोमांसा में संयोग और वियोग दोनों पर तुल्य बल दिया जाता है। अवुभाव, संचारी भाव आदि का विवेचन प्राय: संयोग के प्रसंग से ही क्रिया जाता है। श्रतः: कह सकते हैं कि संस्कृत की काव्यधारा में श्रंव तक संयोग भौर वियोग समान रूप से चलते रहे हैं । पु कर च्छत +> फनछा७ कक तल! मंजर... मना ही ७, +, < / / | ब्य है धर जे हर डे /ि 6 ८॥ न्धि उ््व्जतुँ कि धन | -0॥ /+ मे । ल््ल्द /भूं | मज्ड भू ४ ःपि है -.| रे १--सब रग तंत रबाब तन विरह बजावे नित्त । श्रोरत कोई सुन सके के साई के मित्त ॥ ना० प्र० सभा, क० ग्र ०, पृ० १२ ( ३०८ ) निकलना चाहते हैं पर श्रशा का पाश उतडके गले में फेंसा हुआ्ना है, इसलिए वे श्रास पास फिरते ही रहते हैं। न निकलते हैं न सुख से रहते हैं । “हे प्रिय सुजान, तुम्हारे गुणों ने हृदय को बाँध लिया है। फ़िर भी तुमने मेरी सुधि छोड़ दी यह बड़े प्रश्चर्य की बात है। श्रपने प्रेम में रेंग कर तथा प्रकट रूप से अनुराग दिखाकर श्रव हृष्टि बचाते हो ?' पहले संदेशा मिल जाता था। इससे मेल सा मान लेते थे पर श्रद्द उसका भी अंदेशा रह गया । शभ्रत॒ किस आशा से जीवित रहा जाए। हृदय में उद्दंय की श्रर्ति भड़क उठी है। रोम-रोम में पीड़ा है। तुमने हृदय श्रत्यन्त कठोर कर लिया। मोह मिटा डाला। है जान प्यारे | निकटवर्ती होकर भी दर की चोट मारते हो' । अतुभूति कवि के वियोग वर्णान की विशेषता उसकी श्रनुभूति में है! इस विषय में यह हिंदी के रीतिमार्गों कवि तथा उद फारसो के शायर दोनों से भिन्न सिद्ध होते हैं। रीतिमार्गी लोग बुद्धि के बल से शास्त्रीय लक्षणों के श्रनुवार विरह का वर्णान करते हैं, व्यक्तिगत अनुभूति का नहीं। उन्होंने 'हिय भाखिन नेह को पीर! नहीं तकी थी। कवि की वेयक्तिकता केवल उसके उक्त वंचित््य मे रहती है। इसलिए यह वेचित्रप इतना बढ़ा कि श्रति- शर्योक्ति का झ्राश्रवण करना स्वभ्ञाव सा बत गया। बिह्वारी, पद्माकर, देव जेसे 3चच कोटि के कवि भी इसी आवतं में पड़े हुए दिखाई देते है। परिणाम स्वरूप कविता में न कोई मामिकता रही ने सत्यता। शेकर का निम्त- लिखित पद्च इसका निदर्शन है । शंकर नदी नंद तदीसन के नीरन की भाष बच अ्रंवर ते ऊची चढ़ि जायगी। भारेगे श्रंगारे, वे तरनि तारे तारापति या विधि खमंडल में श्राग मढ़ि जायगी | दोनों श्रोर छोरन लौं पलमें पिघरलकर घुम घूम धरती घुरी सी बढ़ जायगी। 2०० १ जय! ही की दर ९ 7 ० । उद् फारसी के कवियों में भी यहीं तल विद्यनात है। सत्यासुरात के अभाव की पति उक्तिवेचित््य श्लौर आप किसी के आँस एकत्र होकर सतुद्र अन गए हैं । 7 अमुन्दर कर दिया नाम उसका नाहक सबते कड कर । हुये थे जमा कुछ अ्रासू मेरी आँखों से बह वह कर +#४' 5] स्न्न्न्प जज ं २ श्री ब्| #च्न्म्कू 4 ४ । ह +/| 4) *््जु६ || नन्न्न न्ञ ल््ल्यं £, हि किसी का हृदय बत्तो की तरह वियोग की श्रग्नि नें जल जल कर नष्ट होता रहता है। यहाँ तक आतिशे फुरकत ने तेरी मुझ हो फूक्ता है £_ रगें जो जलती रहती ई चिरागे दिल में बत्तीसी” घतानंद की विरहानभूति अपनी मार्मिक्ृतन, सत्यता तवा निश्छुलना के कारण वक्त दोनों प्रकारों से भिन्न है। इसका कारण कवि का ब्यक्त- गत विरह है। बद्धि बल से वर्रात करने के विपरीत झपती मसत्ति, गति, खोकर लिखते वाले वे हैं । उन्होंने विरह से अपने शरीर को संतप्तकर बव में रह कर प्रेम के प्रण का निर्वाह किया था | प्रिरह् सौं तायो तन निबाह्यौ बन साचोपत धच्य घन,आनेद मुख गाई सोई करी है? ।' फलत: विरहु का एक एक शब्द कवि के हृदव की मर्म कया कहता प्रतीत होता है। इन स्थलों पर कवि अ्रभ्धावृत्ति द्वारा भावराभिव्यक्ति में ही व्यस्त रहता है। उक्ति के चमत्कार की झोर उसका ध्याव हंं नहीं जाता । यही वह सबसे बड़ा गृण है जिसके कारण ये स्वच्छंद प्रवृत्ति के कवि कहे जाते है। जहाँ विरह बौद्धिक है वहाँ प्रदर्शन की प्रचुरता हैं। पर 'कक3++म+«५न++म++-+-++ममकन«- मम मननन+++++++»«+++++++++++++ 3५३५3 3333५» म3+मननन+भत अल मानना न मकान मनन पते पिन निनि भय न ननन-+> 3 पमननन- न नान-+नननननननान-न-न-न-- आम. १--घन'नंद ग्रंथावली भ्रूमिका पृ० ३३ पर उद्धत | २--सौदा--भ्र ० प० गोयलीय को शेर झ्रो शायरी में उद्धत । ३--हित वृन्दाबनदास क्ृत्त 'हरि कलावंति। ४--देखिए सुधहि १७८ तथा घनानंद ग्र॒ ० प्रकीर्ण ११। मिलन में झतमिडन की कुशल वर्तमान रहती है। फचत: संयोग हो या वियोग चटपटी चाह में पड़े हुए मत की दशा बडी झटपटी हो जाती है ।* कारण कुछ की हो: घ्नानंद के चितन में विरह की स्वो्परि प्रधावता है। जिन शुणः के लिये वे प्रश्िद्ध हैं श्रौर जिनके द्वारा रीतिमाई से वे पृथक होते बिरह में ही अभिव्यक्त हुए हैं। भावों को सूक्ष्पता, सहजता, मार्मिकहा; अऋावेग, आंतरकता श्रादे विशेषताएँ विरह में ही प्र्त होती है ! भेद रसाचार्यों दे विएन के बार भेद किए हैं। पुवराग, मान, प्रवास श्ौर करण । गानिएायी एपोए जब ४ हि तलृरूत के लिसेद्ाय, चारों प्रसार जक सराअम>»भ«>«,. अर को राजरमक+ 2० अर. ९ बम अ+क ऋराकम-न्म »« मन ० कतन ] किम कक 3 बक भ्प अि दिखाए हैँ। स्वाभापिक है हे उन सन्नी की अ्रश्निब्यक्ति रीतियालन के लिये भले ही हो, के 5 अयलेदेश जब । बहों है! सकता। अनुभति भी स्व नहीं हो सकरत। वलालंद * हाप्ट इन भेदों पर नहीं गई है। वे उसपर वारा५ा० 0७४ ०१8५० १... ररकनआ्ममाकनलन५+3५)४३७ 3५ भाा ३ कतथ+उ+ककामपवध८न ५५७ ५3»५»0०५३५./५००ा+०+ना भार कलम. थ१५५०५2०। 5६७७७ अल रअ>मकरक मत ब्राकार के सनारकवाले तो ६। गाणों कर तिःशवाल प्रश्वाप प्रकट करते हैं। इस भ्र्थ में भी थे रसूच्छादम:रगां ,उद्ध होते है आय परंपरा का कवि काव्य के वाह्य भेद, रूपए, झाकाए, अक के 7 द् पृ्वंक सजाता है भझोर स्वच्छ॑श्वागों भावों की सोधी सादी अ्रणिव्य॑जना करता है ।_ भावना भेद सरूप को जाने. ।' वर्णन इनकी शुद्धि की उपचेतनावस्था का परिणाम है यह उन्होंने स्वय॑ कहा है । सम, समझ बातें छोलियो न कास श्रावे छाव॑। घनआनेंद सु जोलों नेह बौराई! इन सबके कास्ण इनके वाव्य में विरह के समस्त भेद नहीं मिलते। पूत्ररागजन्य ओर फ़िर की क्कटोरता से _४पन्न विन्ह अण्कि दशित है । ग्त्र तत्र प्रवासजन्य के दर्शान होते है। निर्मोहुजन्य_व्रिह का सबसे अधिक प्राचुर्थ है। यह भेद रीति की परंपरा में साव के अंतर्गत विद्यमान २. सुहि० ७११ ३, देखिए स्वच्छंद मार्ग प्रकरण था पर उसका स्दरूप इससे कुछ मिल होता है। मानती नायिकाएँ हो होतो थी। इधर ऐपी बात नहीं हैं। इनका स्वहूप सिन््त प्रकार का है । पुत्रराग (प्रिय के दर्शन के दाद झाँखें उप्मी की चेरी हो गई भी लौटतो चहीं। रूप से तृ्त होहर वहीं संलग्न हो गई साथ लेकर परदश बत गई है। इल्होंने प्रेम की वेड़ो ४ डाल दी । । सौटाने से | प्रार्णों को हा +. आ+छ बर्थ ही पएँटोंमे लटकते रहते हैं। ठहरने के लिये कोई स्थाव नहीं। नहदें होती है। यह तई अपवाब ठप! वे भगवान ने दे दो है । नेत्र ग्रब किसी को देखते ही नहीं। वे दुतलियां में ऊखन हो तरह दे प प्रिय के देख कर मन, मति, गति, नेत्र प्रादे प्रयते दर हें नहों रहे | प्रिय ही नेह लगा कर रूखा हो जाए तो इसे काम जले । चक्कोर ने चंद्रगा के प्रेन में ही चिदगारियाँ चुगता है | सअवसा्स सब दो ये साथ थे। अब उन्हें यडू के अच्छा लगा कि सब नुखों को साथ लेकर घुझे विधोग देकर चले गए । गृ से सींचे इन अ्रंगों को अ्नंग के हाथों सौंप कर हृदय में वियम विपाद की बेल बोकर चले गए। ये निगोड़े प्राण उनके पोछे क्यों न लगे। अब मैं बड़ी अधीर हूँ । पीड़ा की भीड़ ने भ्कैलो मुझे घेर लिया है । भा | 2॥! 2 भाग्यवश प्रिय परदेश में हैं। जीव इसलिये जीवित है कि बहु कोई नई बात नहीं है । जो पड़ती है सो पहते हैं। किसे कहें । सारा संवार शन्य हो गया है । घनग्रानंद कहीं नहीं मिलते। मन तो वियोग में चेतना खोकर बैठा है श्रौर मित्र ने भूल कर भो सुधि नहीं ली ।* निर्मोहजन्य 'पहले उन्होंने मीठी मीठी बातें कहकर स्तेह प्रदाशत किया। स्वयं ही फिर वियोग की प्रर्ति लगाकर विश्वासघात किया। अ्रत्न प्राण तो १--सु ० हि् २, ७ २--वही १५३, ४६२ । निकलना चाहते हैं पर प्र/शा का पाश उपके गले में फेंसा हुआ है, इसलिए वे श्रास पास फिरते ही रहते हैं। न निकलते हैं न सुख से रहते हैं । 'हे प्रिय सुजान, तुम्हारे गुणों ने हृदय को बांध लिया है। फिर भी तुमने मेरी सुधि छोड़ दी यह बड़े अ्रश्र्य की बात है। भ्रपने प्रेम में रंग कर तथा प्रकट रूप से अनुराग दिखाकर श्रव हृष्टि बचाते हो ?' पहले संदेशा मिल जाता था। इससे मेत्न सा मान लेते थे पर भ्रव उसका भी प्ंदेशा रह गया । भ्रत किस आशा से जीवित रहा जाए। हृदय में उद्वेग की अ्रिनि भड़क उठीं है। रोम-रोम में पीड़ा है। तुमने हृदय प्रत्यन्त कठोर कर लिया। मोह मिटा डाला। हे जान प्यारे] निकट्वर्ती होकर भी दर की चोट मारते हो । झतुभूति कवि के वियोग वर्णन की विशेषता उसकी शअ्रनुभूति में हैं! इस विषय में यह हिंदी के रीतिमार्गी कवि तथा उर्दू फारसी के शायर दोतों से भिन्न सिद्ध होते हैं। रीतिमार्गों लोग बुद्धि के बल से शास्त्रीय लक्षणों के श्रनुवार विरह का वर्णान करते हैं, व्यक्तिगत श्रनुभूति का नहीं। उन्होंने 'हिय उक्त वचित््य मे रहती है। इसलिए यह वंचित््य इतना बढ़ा कि श्रति शयोक्ति का श्राश्रयणशु करता स्वभाव सा बन गया। बिद्दारी; पद्माकर, दे जैसे उच्च कोट के कवि भी इसी आवर्त में पड़े हुर दिखाई देते है। परिणाः स्वरूप कविता में न कोई मामिकता रही ने सत्यता। शेकर का विस्त लिखित पतद्चध इसका निदर्शन है । शुकर नदी नंद नदीसन के नीरतन की भाप बच भ्रबर ते ऊंची चढ़ि जायगी | भारंगे श्रंगारे, वे तरनि तारे तारापति या विधि खमंडल में श्राग मढ़ि जायगी । दोनों श्रोर छोरत लौं पलमें पिघ्रलकर घम घूम धरती घुरी सी बढ़ जायगी। पूटडरणएओ १--वही--६६, ८५७। ऋरणा अनुभू तेयों से निञ्रत्व का अभाव है । उद् फारसी के कवियों में भी यही तत्र विद्यनार है। सत्यानुराब के अनाव की पति उतक्तिवेचित््य और अ्रतिशवोक्तियों से वहाँ की जाती है । किसी के आँसू एकत्र होकर सतुद्र बन गए हैं । अमुन्दर कर दिया नाम उसका नाहक सबते कह कर । हुये थे जमा कुछ आंसू मेरों आँखों से बहु बह कर ॥/ आप्प /0॥5 किसी का हृदय बत्ती की तरह वियोग की श्रग्न में जन जल कर नष्ट होता रहता है। यहाँ तक आतिशे फुरकत ने तेरी मु को फृूक्रा है . रगें जो जलती रहती हैं चिरागे दिल में बत्तीसी"' घतातंद की विरहानुभृति अपनी मर्णमक्रता, सत्वता तलबा निश्झुलता के कारण बक्त दोनों प्रकारों से भिन्न है। इसका कारण कवि का व्यक्त- गत विरह है। बद्धि बल से वररुति करने के विपरीत अपनी सत्ति, गति, खोकर लिखने वाले वे हैं' । उन्होंने विरह से अपने शरीर को संतप्तकर बप में रह कर प्रेम के प्रण का निर्वाह जिया था | व्रिरह॒ सों तायो तन निब्ाह्मयौँ बन साचोपन धन्य घनआतनंँद मुख गाई सोई करी है? ।' फलत: विरह का एक एक शब्द कवि के हृदव को मर्म कबा कहता अतीत होता है । इन स्थलों पर कवि अभिवावृत्ति द्वारा भात्रानिव्यक्ति में ही व्यस्त रहता है। उक्ति के चमत्कार की ओर उसका ध्यान हो नहीं जाता । यही वह सबसे बड़ा गुण है जिसके कारण ये स्व्॒च्छंद प्रवृत्ति के कवि कहे जाते हैं। जहाँ विरह बौद्धिक है वहाँ प्रदर्शन की प्रच्ुरता है। पर १--घननंद ग्रंथावली भूमिका १० ३३ पर उद्धत | २--सौदा--भ्र ० प० गोयलीय की शेर श्रो शायरी में उद्धृत । ३--हिंत वृन्दाबनदास कृत्त 'हरि कलावंति। ४--देखिए सुहि १७८ तथा घनानंद ग्र ० प्रकीर्ण ११। ( ३१० ) ानंदधन को वियोग कथा श्रांतरिक है। वह प्रगट होना नहीं चाहही , प्राण पीड़ा का चीत्कार भी करते हैं तो मौन में करते हैं । विरही का जीव अंदर ही भ्रदर घुटता रहता है। शरण श्रांतरिक श्रग्नि में तचते रहते हैं। श्रंग उसीजत् है। जीव मसोसों को उम्स से व्याकुच्न है! प्रिय की स्पृति भाते को नोक की तरह करूकती है। इस मन्मथ पीड़ा से घर भी भात्सी ता लगता है ॥ करण रस के प्रसद्ध कवि भवभूति ने भी सच्ची व्यथा का ऐसा ही स्वरूप बताण। हैं। वह गंभीर होने के कारण बाहर प्रगट नहीं होती मप्रंदर ही अदर पुटपाक को तरह पक पक कर घनीभूत होती रहती हैं ।* ८--आशा निराशा इसी प्रकार कभी निराशा हृदय पर छा जातो है तो कभी श्राशा का संचार होने लगता है। निराज्ञा में वियोगी कहने लगता है, कि “प्रिय तुम कब झाश्रोगे, इधर तो बहीर के समान समस्त आयु लद चुकी है, जो प्रागु पखेरू प्रियहप के चुगे को देखकर उसके गुणों के फंदे में फेस गए थे श्रब वे तड़प रहे है, हे सुजञान ! प्रेम से इन्हें पाल कर वियोग के हाथों में निर्दयता से इन्हें क्यों मारते हो ? श्रब तो श्रवधि का सूर्य भी अ्रस्त होने वाला है, अपने मुखचंद्र को दिखाश्रों"' कभी विरही उस दिन कौ श्राशा में प्रसन्न होता है जब प्रिय की श्यूंगार मूर्ति नेच्नों का अंजन बनेगी । कपोलों से उनके पर माजे जाएंगे । प्रिय के श्रंग अ्रंग की शोभा में अपने अंग डबा कर श्रनंग- पीड़ा दूर की जाएगी । हृदय जो दलक गया है वह उनकी ढरकौही बान से रज आएगा, वह उस दिन की श्राशा लगाये है जब्र उसके नेन्रों के श्राँस् प्रिय के पैर पखारेंगे ४? ९६--उन्माद और चेतना मनोवेग प्रधान काव्य में भावावेग का श्राना स्वाभाविक है। विषाद की चरमावस्था उन्माद में होती है, जब ब॒द्धि श्रपनी चेतना खोकर विच्चिप्त ; १- देखिए सुहि० १७० तथा घ० गर० प्रकीर्ण ११ २-शभ्रनिर्भिन्नो गरभीर त्वादन्तगृंढ घनव्यथ:, पुट पाक प्रत्तीकाशों रामस्य करुणोरस: | उत्तर रामचरित श्रंक्र ३, पद्य १ ३-- वही ४६। ४--वही १२८५, ५६। ( रे१२ ) शाण पीड़ा को झमहाता के कारण शरीर से बाहर निकलना चाहते हैँ पर आशा का पाश उतके गले में पड़ा है; फर्क: बह आप पास घिरते रहते हैं। सुजान के दर्शनों के लिये तमस तरशइ कर कभी वे झ्ाँख| में आ बसते हैं। दमधुटे होकर दिच रात लालसा में ही लपेटे रहते है। मिलन के सुख की स्मरण कर कमर से झाशापट कसते रहते है। प्रिय के छप को चुगा समझ कर पक्तियों की तरह उत्पर जा बैठे थे पर वियोग व्याध ने उन्हें मार डाला। वे कभी इस आशा से आँखों में आते हैं कि प्रिय के दर्शन होंगे, कानों में इस लालसा से भरा बसते हैं कि उनकी वचनसुधा पीएगे। इस तरह स्थान स्थान की सम्हाल करदे हैं कि किसो तरह उनकी सम्हाल हो जाए। कमी इस बात से बेठे बंठे मुरमाते हैं कि हम न्यौछावर क्यों न हो सके ।! ११-नेत्र ध्ेत्रों की दशा भी इसी के समान बड़ी दयनीय है। वे पीर की भीर में अ्रधीर हो गए हैं। फरनों की तरह बहते हैं । इसी बहाव में सारी मर्यादा बहु चुकी है। आँसू घी की धार बनकर वियोगारित को श्रधिका।धक् प्रज्वलित करते हैं। हृदय जला जाता है। नेत्र प्रिय को देखते की एक टेक पृकड़ कर सारा विवेक खो चुके हैं। व जाने किस प्यास की पीड़ा से भरे हूँ “कि जल रिताते रहते हैं। कहने को तो ये मेरे हैं पर मुझम्ते रंच मात्र भी इन्हें मोह नहीं । जब से उन्होंने सुजान की देखा है तवसे अ्रन्य किसी को पहचानते ही नहीं | आँखें यदि प्रिय को न देखें वो फिर देखें भी क्या ? प्रिय के दर्शन के अतिरिक्त इनका श्रन्य कोई मृल्य नहीं; दर्शन की भूख तो भस्मक रोग सी उग्र है पर आँखें सदा लंघन से रहती हैं। जिन्हें वे नित्य देखा करती थीं उन्तके लिये भ्रब रोती हैं। उनके पैरों के पाँवड़े श्रपते श्राँसुओं से घोती हैं । प्रिय को बिना पाए स्वष्व में उन्हें खो देती हैं। जान नहीं पड़ता कि ये खुली हैं या पुँदी। ये जागने पर भी सोती हें | उन्होंने जब से श्राने की भ्रवधि बदी है, आ्रार्खें प्रतीक्षा में रास्ता नाप रही हैं। लाखों अ्भिलाषाश़ों में भरी वे विरुनियों के रोमांच से काँपती हैं। पलकों के पावड़े बनाकर टकटकी लगाए हुए हैं । १-वही ३२१, ३४८, ४४८ । ( ३१३ ) 'इस नरतर पौड़ा से निराय होकर प्रेमी हझ्या भाषा में प्रिय ने वूछता है। क्या ये ग्रांखें आपके छपरसधारस को प्यास से बरी सदा ७, हे (९, लि 282 चर अमदी _ 22, दर कि आंसू हो ढाला करेंगी ? झिलने को नाथ अब ग्रताउए हो गई रो क्या न् सी ल्ज्यु ् इसी प्रकार अपना जीवन एरेगो ? क्या ये इसी प्रकार मरा करेंगी? हैं आनंद के घत नित्र नुवात, क्या ये मो ही जला करेंगी” | १२- ध्यान प्रिय का डगन वियोग की बहुत बड़ी सांखना है। प्रिव्र दूर रहे फिर भा ध्यान के बल से वह निकट हो निकट दिखाई देता है। प्रेमी मे वियोग के रख लिया है। नेत्र पृतगों के समान इसके आसपास मँडराते है। इस प्रकार सन के पिहासन पर विराजमान रहते प्रिय दूर नहीं कहा जा सकता । दुःख यही है कि वह दृष्टि के ब्रागे श्रागे डोलता है पर बोलता नहीं । “प्रिय हुदय में रहता है पर सु्र नहों मिलता। वियोग में जो दित रात दुःख अनुभन हो रहे है, उन्हे यद्दि कहा जाय तो अनुमात और कथन चने दिन रात का प्रतर पड़ जाए | प्रिय के मु ह फेरते ही व्याव संमरुख हो जाता है। प्रेम पृथक हो जाता है पर यह भूलकर भा पृथक् नहीं होता । प्रिय दुखदाई है और बह सुख- दाई | श्रिय अमोही है तो यह मोहबान । यदि ध्यान न हो तो बिरह बहुत कुछ सह्य हो जाए। ध्यान के कारश समस्त जगत् प्रियमय दिखाई देता है। ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ प्रिय के दर्शन न होते हों ।* १३-- अध्यात्म ध्यान के करण हो विरह के वर्शान में प्राष्यात्मिक भात्रों का रहुस्यवाद की शैली से यत्रतत्र ग्राभास मिलता है। ध्यानप्रवणु वियोगी अगने हृतयदेश में जब प्रिय के दर्शन करता हैं तो पूछा बुढ्षि के सहारे प्रिध्र में परमेश्वर को अतर्यामिता तथा व्यपकता का वर्णन समासोक्तिपद्धत से हो जाता है। प्रिय का ध्यात प्रस्तुत है, परमेश्वर को भावना अवरस्तुत । वस्तु १--वहीं, ३२२१, ३४८, ४५८ । २--वही, ६४, २०७, ३१०, ४७८५। ( ३१४ ) मद भी बिरडी भावता के लोक में इल्ता ऊंचा चढ़ जाता है कि उछे प्रिय हथा परमेश्वर | अभेद प्रतोत होने लगता है । कदि का हल्तृल्ंव भी कुछ इत स्ववाह का है कि उसमें अश्रप्रस्तुत अ्रध्य/त्म का आरो३ वर्डा तरलता से हुं। गया है। यहां प्रिय झानंदबत है जो झाकाश में छाद्ा *हता है। इपसे परमेश्वर की व्यापकता की व्यं जनता हो अपदो है। उत्का प्रिय सुजात है इससे ग्रप्रस्तुत की सर्वज्ञता की अभिव्यक्ति होती है। प्रिय हवा हृदय में निवास परमेश्वर को अ्रंतर्यामता का व्यंजकू बन जाता है। “विरही श्रत्मनिवेदत करते हुए कहता है कि मन तुम्हें जिस प्रकार चाहता है वह ढतप्या कैसे जाय। तुपसुजान हो। प्राणों की तुम्हीं एक मात्र गति हो, बुद्धि, स्मृति, नेत्र और वाणी सबमें तुम्हारा निरंतर वास वर्तमान हैं। भ्रब तो संसार मी दृष्टि से हुट गया है। प्रिय घन, तुम्हीं छ'ए हुए हो । मन चातक की तरह तुम्हारी शोर देव रहा है।? अंतर में रहते हो पर प्रवाप्ती का सा अंतर श्रर्थात् भेद वर्तमान रहता हैं। न मेरी सुनते हो न अपनी कहते हो | नेत्रों के तारे वन कर सुभते हो प्र सूझता कुछ नहीं , हो तो जानराय पर जाने नहीं जाते इसलिए अजान हो। है भ्रानंद के घन, छा छा कर उधड़ जाते हो | श्रपनी कृपा की सूर्ति दिखाग्रों । हमें खो कर क्या लाभ उठाग्रोंगे ?* १४ विरही की रहति (विरह के कष्टों में विरही किस प्रकार अपना जीवव यापत करता है इस का सामूहिक चित्र भी आनंदधन जो ते दिया है। इस चित्र में इतनी सत्यता प्रतोत होती है कि वद्र कवि के भ्ात्रात्मक जीवन का ऐतिह्य सा लगता है। उनका प्रेमकाल तथा भक्तिकाल आारसक्ति, लगन और पअनुभूति की दृष्टि से समान ही बीता था। जैसा एकनिष्ठ प्रेम सुजान से था वैसा ही कालांतर में श्री कृष्ण से हो गया। फनत: रचना चाहे किसी काल की हो कवि के वह आत्मकथा ही है। इस संकेत से लिखे गए पद्यों का महत्व इस दृष्टि से बहुत बढ़ जाता है। प्रेमी की रहनि इस प्रकार है :-- लाल. १, सु० हि. २६५, २७१। ( र११६ ) मृत्यु के लक्ष्यों का वर्णन भो मिलता है, जेते :--बहुत दियों से प्रवधि की ध्रात्ता ते टी है पे बजे ये लिकलतें के लिये व्याक्रुन थे | मनभावत के प्रा्र्ती हे संदेश दे दे कर उन्हें अत्र तक रख गया था | पर उन मठ विगत पर मे वेद नदी िह 0 5 जल अर आग जम पं तर चा ते ह् | कि मरते समय ही झआनंदबन जी ने यह पद्म कहा था। गमांसा से इतना अवश्य कहा किबदंती हैं हे यह ऐतिह्ा तो 73४ है है पर रसर्म | 2 बरँव भी रीतिपरंपरा के अनुसरण से बुद्धिपृर्वक किया जा सकता है कि “है ;ं हि गया नहीं है| भाव्विगेर देरेंत की निश्छल सहज अमृत है । १५--उपालंभ यह बताया जीं और निरमोह है । ब्रुका है कि विरह का प्र8ुव कारण प्रिय की उदासीनता बिरही अपने प्रेम की प्रढिंग एकनिष्ठता तया प्रिय की प्रेम उदामीनता दीतों को समान अनुभव करता है हे इसी वैषस्प को जो प्रिय के संबोधन से #ट किया गया है वह उपर्लि9गे है ६ बिरही के कष्टों का जो वर्णन है वह तं विरहसंदेश है। विषम प्रेम में कर का भ्रवकाश प्रधिक रहता है। कि प्रानंदषत जी को विरहे वरीर्मी में उपालंभ के पद्चों की संख्या अ्रविर्क हैं | उतें बिरही अरने को हींते, दुखी, विनोत और श्रवस्य प्रेमी तथा ये को महान सुखो, छुतीं, चंचलचित्त एवं प्रेमहोन प्रमुभव करता हैं | पर प्रिय की इस अप्रेव दशा से विरही का देक् में कोई अंतर नहीं श्राता | अपने प्रेप का निर्वाह अंर्तिग शास तक ज्यों का त्यों करता रहता हैं । प्रिय और प्रेमी की स्थिति में कुछ मौलिक अंतर है। इसके कारण सुख दुःख का वैषम्य स्वाभाविक है। विरही कभी इसे ध्यान में रख कर विरहपीड़ा को अपतों भी समभ लेता है । वह कंहगी ह-० तुम्हें कैसे उला देती देँ। हमारे बांट में सुधि ओ्रीर तुम्हारे बांट में भूल है । जीवन प्राण सुजान ? हम तो तुम्हारी बातीं से हो जावत रहते हैं । किस। बात की चाह नहीं हैं। पर हमारा भो तुम सदा सुखी हीं * जी हड क्या १---बही ५४४ । ( है१७ ) थक ग्रार्शवाद लीजिए । हैं कृष्ण ? तुम बहतों में पन्ने हो। अकरेलेप्त की वेदता क्या समझो । तुप मनमोहन हा स्त्रय॑ं कहीं पर सुग्ध वही होते फिर मनोव्यथा का तुम्हें क्या पता । हैं ग्रातंद के घन, तुम्हें ग्रात पर्रीड़ों की क्या पहचान ?'* विरही का उपालंभ यहाँ तक है कि प्रिय बघरू से भी अधिक निर्दग और निर्मम है। बधिक मार कर झपने वध्य की सुत्रि लेता ई पर प्रिय बिलकुन हो भूल जाता है। ५३ निकट सातवां परिच्छेद प्रेम तत्व “हिय आखिन नेह को पीर तकी प्रानंनधन जी द्वारा अ्नुभूत प्रेपतत्व का विचार करने से पुर्व यह प्रासंगिक प्रतीत होता है कि इसके लक्षण तथा साहित्य में किए गए प्रयोग पर सूक्ष्तया विचार कर लिया जाए। इस पृष्टभूमि पर कवि के कृतित्व डग भली भाँति परिचय प्राप्त किया जा सकता है। १--शब्द निरुक्ति - प्रेम भप्रिय/ शब्द का भाववाचक रूप है। “प्रिय” शब्द का प्रर्थ है तृप्तिकारक। (प्रीणातीति प्रिय/ |) उसके भाववाचक रूप का अश्रथ हुप्रा तृप्ति!। प्रेम शब्द से हुदय के उत्त तृप्तिख्प आनंद का संकेत होता है जो किसी विषय के दशनादि से मिलता है । २-लक्षण सबसे पूर्व प्रम के लक्षण पर विचार किया जाता है। वैष्णव विद्वानों ने प्रम-लक्षणा-भक्ति के प्रसंग से लौकिक एवं अ्रलौकिक दोनों प्रकार के प्रेम - तत्गों का विचार किया है। भक्ति-तिरपेक्ष शारीरिक प्रेम का कियी विद्वान ने शास्जाय पद्धति से विमर्श नहीं क्रिया। काम शात्लादि ग्रंथों में श्र गार का विवेचन अ्रवश्य किया गया है। श्रतः नीचे कृतिपय वेष्णाव आाचारयों द्वारा निश्चित किए गए प्रेम के लक्षण दिए जाते हैं । प्रेमरसयन ग्रंथ के रचयिता श्री विश्वनाथ ने बड़े विस्तार तथा गांभी्य के साथ इसका विश्लेषण किया है। उनके श्रनुसार चित्तरूपी समुद्र में जब सत्व गुणा का जल भर जाता है तो उसमें दृष्टि, परिचय, हाद॑, तथा प्रेम नाम की चार प्रकार की तरंग उठा करती है। प्रेम का मलो पादान आत्मा का सत्व गुग है। विषय तो केवल निमिच कारण है। वह उद्दोपप है और भाव की जिस स्थिति को प्रेम कहते हैं वह अनुभति की चरम कोटि है। उससे पूर्व तीन विकास क्रम हृष्टि, परिचय और हार्द ( ३१९ ) समाप्त हो लेते हैं; इनमें दृष्टि चित्त की वह वृत्ति है जिसमें चंचल चित्त विषय की और हठगत् प्रवृत होता है। परिचय से विषय के विविध संस्कार मन में उत्पन्न होते हैं। दोषों एश ध्यान न देना हाई है जीव » शझात्मा का ही रूप लो रस है वह जिस उपाधि का ग्राश्नय लेकर शचगार बनदा है बह उपाधि प्रेम है; भ्रर्थात् प्रेम रसमय धात्मा के बढद्िविकास का साधन है; उसी का श्रंगभूत तत्व है! अपने सिद्धांत को स्थापना से पृ्व॑ इसी ग्रथ में विश्वनाथ ने शांडिल्य, भारत, अभिनव ग॒ृप्त तथा ग्रुणाकर के प्रेम लक्षणों का विवेबन किया है। उसके श्राधार पर निम्नलिखित मतसंग्रह किया जाता है। शॉंडिल्य के झलतुसार अ्ंत:करण की वह़ वृत्ति, जिससे वस्तु के संयोग काल में भी वियोग सा बना रहता है प्रेम है।' इसके टीकारारों से यह भी इसका शअ्र्थ किया है कि योग में वियोग श्लौट डियोग सें योग दोनों प्रकार की भावनाएँ प्रेमजनित होती हैं। श्रानंद्बन की रचनाप्रों में यह अ्रनुधृति स्थान स्थान पर मिलती है + वियोग के शण, प्रभिलाषतिरेक, झाइच- यनुभूति भ्रादि के कारण संयोग में वियोग तथा ध्यश्त के सातत्य से छियोग में संयोग इनके प्रेमी के हृदय में बने रहते हैं । कुछ लोगों ने भोग पर्यवसायी सौहार्द को ही प्रेष बताया है। पर विश्वनाथ ने .(कदेउ। ८ के भियरहित प्र म का निदर्शन दे कर इसका खंडन कर दिया है : आचार्य भरत ने चित्त की द्रवावस्था' को प्रेष बताया है। द्रवीभूत चित्त से संयुक्त इंद्रियाँ विषय का ज्ञान नहीं कर सकतीं।* क्योंकि इसके लिये कठिन चित्त के संयोग की श्रपैज्षा होती है। द्रवीभूत द्वृदय का अ्रासक्तिपु्वंक विषयसंसर्ग भावना कहलाती हैं । स्नेहजन्य द्वव से उद्भूत भावना को प्र मभावना कहते हैं । १--प्रेम रसायन, लक्षण खंड । २-- योगेवियोग वृत्ति: प्रेम |---शांडिल्य । ३--मिला इये श्रानंदधन- अग अंग अभा संग खवित द्रवित हल के? सु०णहि० २११ ॥ ४--मिलाइए आनंदधन--भू ले सुधि सातौदसा विवस गिरत गातो' ॥ श्राचायं अभिव्वगुप्त इच्छाविशेष को प्रेम्त कहते' हैं। यह इच्छा विषयलाभ से संतुष्ट नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती है। यह मत एक प्रकार से शांडिल्प के लक्षण के समनुगत ही है। संथधोग में भी वियोग की सी व्याकुलता इच्चातिरेक से ही हो सकती है। यह इच्छा दोषदर्शन से भी समाप्त नहीं होती । विषयलाभ से धमाप्त होनेवाली इच्छा को ५हार्द! और दोपदर्शन से लुप्त होनेवाली इच्छा को सौहार्द कहा जा सकता है। “भाव चन्द्रिक! के लेखक गुणाकर ने दोषदर्शन से हटनेवाले स्नेह को हार्द तथा श्रक्षण्ण बने स्नेह को सौहाद बताया है। गुणाकर सौहार्द को ही प्रेध पदवी देते हैं। विश्ग्नाथ प्रेम को हार्द! तथा सौहार्द दोनों से लिक्षणा मानते हैं। प्रेम में दोषाभाव की श्रोर भो आग्रह नहीं होता और लाभ से उसमें कृतार्थता नहीं आाती। प्रेम का कोई विषय भी नियत नहीं । किसी भी विषय के प्रति हृदय का प्रेममाव हो सकता है। लौकिक शअ्लौकिक भेद तात्विक नहीं है। उभयत्र प्रेम बात्या एक ही है। भेद केवल विषय निबंधन से होता है। विश्वताय के श्रनुंसार प्रिय प्रेमी नहीं हो सकता ।' नारद-भक्ति-सृत्र में प्रेम को अ्नुभवेकगमस्य मात्रा है। वह वाणी का विषय नहीं है। मुकास्व्रादवत् अनिर्वचनीय है। यह पहले तो विषयजन्य होता है। ग्रुणीं के कारण उत्पत्त होता है। पर बाद में भावात्मक, विषयानपेक्षु बन जाता है ।* उज्वलनीलमशिकार जीव गोस्वामी ते प्रेम को ऐसा सांद्र भावत्र माना है जो हृदय को स्विग्ब करता हो और ममत्व के झतिशथ से संयुक्त हो । सभ्यड मसरितस्वांतों ममत्वातिशयांकित: भाव स॒ एवं सांद्वात्मा बुध: प्रेमा निगद्यते ।! ( उ० नी० म० दछ्चिणु लहरी श्लोक १२ ) १--देखिए भात्र प्रकरण में प्रभिलाष वर्णान । २--य: प्रेम विषयो लोके स प्रेमाघारतां ब्रजेत् । इति नेबाध्वि नियम विपरीतावलोकनातु । प्रेम रसायन लक्षण खंड ७३ । ३-अभनिव॑चन।य प्रेमस्वहूम मकास्वादतवत् । गुणरहित कामनारहित॑ प्रतिक्षणवर्धपानम, श्रविच्छिन्न सक्ष्मतरम् झनु भवरूपम् । नारद भक्ति सूत्र ५१, ५४२ ह ( ३२१ ) चंतन्य चरिताभुत में भी इसी से मिलता जूलता लक्षण है। उसके प्रनुसार साधनाभक्ति से रति का उदय होता है। वही रति प्रगाढ़ होकर प्रेम बन जाता है, साधनाभक्ति हते हय रतिर उदय | रति गाढ हुइ ले तारे प्रेम नामे कय ॥।! इन समस्त लक्षणों में प्रेम को सातिविक हृदय को भावना माना है। शारीरिक मनोविकार के रूप में किप्ती विद्वाव ने इधका विमर्श नहीं किया । इसके लिये मनोविश्लेषक फ्रायड का विद्धांत प्रसिद्ध है। उनके श्रनुसार प्रेम यौतवासना है। यही समस्त भावों के मूल में रहती हैं। वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति ग्रादि सब इसो के भेद हैं। इसकी पूर्ण भ्रभिव्यक्ति बुद्धि की उपचेतन दशा में होती दै। चेतनावस्था में तो सामाजिक मर्यादाएँ श्रश्िव्यक्ति पर आवरण डाले रहती हैं। आधुनिक मतीषी श्री परशुराम चतुर्वेदी ने “हिंदी काव्य में प्रेम प्रवाह” नामक अ्रपती पुस्तक में प्रेम की व्याख्या निस्न प्रकार से की है । “प्रेम शब्द का अश्निप्राय साधारणतः उस मनोवृत्ति से लिया जाता है जो किसी व्यक्ति को दुपरे के संबंत में उसके रूप, गुण, स्त्रभाव, सांतिध्य श्रादि के कारण उत्पन्न कोई सुखद श्रनभूति सूचित करती हो तथा जिसमें उस दूसरे के हित की कामना बनी रहती है (”---प्रीति को परम पुछषार्थ मानकर प्रीति संदर्भ! पुस्तक में उसका यह लक्षुण किया है कि “जैसी श्रविवेकी लोगों की विषयों में प्रतपायिनी श्राप्क्ति होती है उसी प्रकार की भगवान में प्रासक्ति हो तो उसे प्रीति कहते हैं ।* फ इसमें सांसारिक विषय और भगवान को प्रीति एक रूप ही मानों है ॥ पहली माया को वृत्ति है दूसरी साक्षात् परमेश्वर की शक्ति की बृत्ति। प्रीति झौर प्रियता दो पृथक प्रथक् भाव हैं । प्रीति सुख है इसके पर्याय हैं मुदु, प्रमुद, हर्ष, श्रानंद श्रादि । प्रियता अनुभूति है। इसके पर्याय हँ भाव, सौहार्द हाद श्रादि। प्रीति में उल्लापात्मक ज्ञान होता है। प्रियता में विषयों की १--हिदी काव्य में प्रेम प्रवाह, ए० १ । २--या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वतपायिनी | त्वामनुस्मरत: सामे हृदवा तापसबतु | (विष्णुत्रुराण) प्रीतिसंदर्भ ५०, ७१८ पर उद्भूतः | र३े ( ३२० ) ग्राचारयं अभिव्वगुप्त इच्छाविशेष को प्रेम कहते! हैं। यह इच्छा विषयलाभ से संतुष्ट नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती है। यह मत एक प्रकार से शांडिल्ण के लक्बणश के समनुगत ही है। संयोग में भी वियोग की सी व्याकुलता इच्चातिरेक से ही हो सकती है। यह इच्छा दोषदर्शन से भी समाप्त नहीं होती । विषयलाभ से पतमाप्त होनेवाली इच्छा को ५्हार्द! और दोपदश्शन से लुप्त होनेवाली इच्छा को सौहार्द कहा जा सकता है। “भाव चन्द्रिका' के लेखक ग्रुणाकर ने दोषदर्शन से हटनेवाले स्नेह को हार्द तथा भ्रक्षण्ण बने स्नेह कौ सौहाद बताया है। गुणाकर सौहार्द को ही प्रेध पदवी देते हैं। विश्ग्नाथ प्रेम को हार्दी तथा सौहार्द दोनों से लिक्षण मानते हैं। प्रेम में दोषाभाव की श्रोर भो शआ्राग्रह नहीं होता और लाभ से उसमें कृतार्थता नहीं झातो। प्रेम का कोई विषय भी नियत नहीं । किसी भी विषय के प्रति हृदय का प्रेममाव हो सकता है। लौकिक अलौकिक भेद तात्विक नहीं है। उभयत्र प्रेम जात्या एक ही है। भेद केवल विषय निबंधन से होता है। विश्वताय के श्रनुसार प्रिय प्रेमी नहीं हो सकता ।' नारद-मक्त-सूत्र में प्रेम को अ्नुभवेकगम्य माना है। वह वाणी का विषय नहीं है। म॒कास्वादवत् अ्रनिर्वचनीय है। यह पहले तो विषयजन्य होता है। गुणों के कारण उत्पल्त होता है। पर बाद में भावात्मक, विषयानपेक्षु बन जाता है।* उज्वलनीलमण्िकार जीव गोस्वामी ने प्रेम को ऐसा सांद्र भाव माना है जो हृदय को स्विग्व करता हो और ममत्व के श्रतिशय से संयुक्त हो । सम्पड मसणितस्वांतों ममत्वातिशयांकित: भव स एवं सांद्रात्मा बुध: प्रेमा निगद्यते ।!! ( उ० नी० म० दक्षिण लहरी श्लोक १२ ) न १--देखिए भात्र प्रकरण में श्रभिलाष वर्णन । २--य: प्रेम विषयों लोके स प्रेमाधारतां ब्रजेत् | इति नेवास्ति नियमों विपरीतावलोकतातु । प्रेम रसायन लक्षण खंड ७३ | ३-अभनिवंचनय प्रेमस्वरूमू मकास्वादनवत् । गुणरहितं कामनारहित॑ प्रतिक्षणवर्धपानम्, श्रविच्छिन्न सुक्ष्मतरप् झतुभवरूपम् । नारद भक्ति सूत्र ५१, ४२ ( ३२१ ) चंतन्य चरितागृत में भी इसी से मिलता जुलता लक्षण है। उसके प्रनुसार साधनाभक्ति से रति का उदय होता है। वही रति प्रगाढ़ होकर प्रेम बन जाता है, साधनाभक्ति हते हय रतिर उदव | रति गाढ हुइ ले तारे प्रेम नामे कय ॥! इन समस्त लक्षणों में प्रेम को सात्विक हृदय को भावना माना है। शारीरिक मनोविकार के रूप में किसी विद्वान ने इतका विमर्श नहीं किया। इसके लिये मतोविश्लेषक फ्रायड का पिद्धांत प्रसिद्ध है। उनके श्रनुसार प्रेम यौतवासना है। यही समस्त भावों के मूल में रहती हैं। वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति ग्रादि सब इसो के भेद हैं। इप्तकी पूर्ण प्रभिव्यक्ति बुद्धि की उपचेतन दशा में होती है। चेतनावस्वा में तो सामाजिक मर्यादाएँ श्रभिव्यक्ति पर आवरण डाले रहती हैं। आधुनिक मतीषी श्री परशुराम चतुर्वेदी नें महदी काव्य में प्रेम प्रवाह” नामक श्रपती पुस्तक में प्रेम की व्याख्या निम्न प्रकार से की है । “प्रेम शब्द का श्रभिप्राय साधारणत: उस मनोवृत्ति से लिया जाता दे जो किसी व्यक्ति को दुपरे के संबंत में उसके रूपए, गुण, स्रभाव, सांनिध्य श्रादि के कारण उत्पन्न कोई सुखद शअ्रनभूति सूचित करती हो तथा जिसमें उस दूपरे के हिंत की कामना बनी रहती है ।--प्रीति को परम पुछ्षार्थ मावकर प्रीति संदर्भ” पुस्तक में उसका यह लक्षण किया है कि जैसी अ्रविवेकी लोगों की विषयों में प्रतपायिनी श्राप्तक्ति होती है उसी प्रकार की भगवान में ग्रासक्ति हो तो उसे प्रीति कहते हैं । इसमें सांसारिक विषय और भगवान को प्रीति एक रूप ही मानों है ॥ पहली माया को वृत्ति है दूसरी साक्षात् परमेश्वर की शक्ति की बृत्ति। प्रीति भ्रौर प्रियता दो पृथक प्रथक् भाव हैं। प्रीति सुख है इसके पर्याय हैं मुंदु, प्रसुदु, हुए, प्रानंद भ्रादि। प्रियता पअनुभूति है। इसके पर्याय हैं भाव, सौहार्द हाई श्रादि। प्रीति में उल्लाप्ात्मक ज्ञान होता है। प्रियता में विषयों को १---हिंदी काव्य में प्रेम प्रवाह, १० १। २--या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वतपायिनों । त्वामनुस्मरत: सामे हृदबा नापसयतु रे (विष्णुयुराण) प्रीतिसंदर्भ ५०, ७१८ पर उद्भृतः | र्३े ( ३२२ ) अनुकूलता तथा ददुनूसार विषयों की स्पृद्दा होती है। प्रियता में सुख का संनिवेश भी है पर इसके अतिरिक्त अंश भी इसमें वर्तमान हैं , प्रीति करब्न- पेक्ष होती है। प्रियता विबयापेक्ध । प्रीति का विपरीतार्थ दु:ख है। प्रियता कादय। सुख और दुःख का आश्रय पत्त ही होता हैं विषय पक्ष नहीं। अ्रियता का ब्राश्रय पक्ष भी होता है और व्षिय पक्ष भी। सुख और दुःख के आश्रय क्रमश: शोभनकर्मा तथा अशोभनकर्मा प्राणी होते हैं। प्रियता और दवप के क्रमश: प्रेमी और दूंषी | इनके विषय है क्रमश; प्रिय एवं द्वेष्य । प्रीति भगवदा लंबनक होने से भक्ति कहलातो है। इस विषयभेद से भाव में भी भेद हो जाता है। एक ही प्रकार के तिल जैसे गुलाब चमेली श्रादि के पप्पों के सरर्ग से भिन्न भिन्न गैंधवाले हो जाते है उसी प्रकार एक ही प्रनुभव माया अथच परमेश्वर दो विषयों वे संसर्गभेद के कारण भिन्न स््र्नाववाला हो जाता है। ये भेद हैं सात्विक, राजस तथा तामस । भगवद् विषयक प्रेम सात्वक होता है। यहो भक्ति है। सत्व भ्रर्थात् विष्णु या उसके आाविर्भाव के किसो रूप में एक्मस होकर स्वाभाविक और ग्रन्ि।मत्तक जो प्रेम किया जाता है वह भक्तिः है । प्रेम के तीन श्रेण भेद हैं--उत्तम, मध्यम तथा निक्ृष्र । इनमे निकट प्रेम वह है जब कि दो मित्र एक दूसरे को किसी स्त्रार्थ के कारणा प्रेम करते हैं। उनमें सौहाद॑ ग्र्थात् हृदश्की उदात्तता नहीं होतो; स्थ्रार्थ होता है | मध्यम प्रेम कतव्यपालन का रूप है जिसयें किपी भाजरांतर से प्रेरित हाकर व्यक्ति दूसरों से प्रेम करता है-जैसे करुणाप्रेरित माता पिता संतान से प्र म॑ करते हैं। श्रेष्ठ प्रेम में न स्वार्थ होता है न भाशवतर की प्रेरणा । वह प्र मपात्र की अ्रदुकुलता की भी अपेक्षा नहीं करता। उशप्तको ला + अअचच + कचान- आ पा १- सत्वएवेंक मतसो वृत्ति: स्वाभाविक्ी तु या अनिभित्ता भागवती भक्ति: प्रीति संदर्भ, पृ० ७२५ २--मिथोभजंति ये सख्य स्वार्थ कांतोद्यमाहिते ने तत्र सॉंहृदं धर्म स्वात्मानं तद्विनान्यथा क् वही १० ७२४ ३--भ्जत्य भजतो ये वैकरुणा: पितरोयथा धर्मों निरपवादो$त्र सौहदं च सुमध्यमा: वही ( हरे२३ ) अतिकुलता में भी--प्रर्थात् प्रेमपात्र के प्रेम न करने पर भी--प्र मं करता रहता है | यही भक्ति हैं। यही श्रेष्ठ है। प्रमम में आठ ऐपे गुण होते हैं जिनसे प्रेमी के चित्त का संस्कार होता है। वे ये हैं-- ( १ ) उल्लास ( २ ) ममता ( ३ ) विख्रे भ ( ४ ) प्रिय के गुणों का अभिमान ( ५ ) चित्त का द्रवीभाव (६) भ्रतिशय अ्रभिलाष (७) प्रिय के विषय में प्रतिक्षण नवनवत्व की अनुभूति तथा (८) प्रिय संत्ंवी क्िसों विलक्षुण गुण के कारण उन्माद | ( १ ) उल्लास उल्लास मात्र को व्यंजक प्रीति 'रति? कहलाती है। इसके उत्पन्न होने से केवल प्रिय में ही प्रेम होता है। अन्य में तुच्छत्व बुद्धि हो जाती है । (२) ममता प्रमता उत्पन्न करनेवाली प्रीति 'प्रेमा' है। इसके उत्पन्त होने पर प्रीति भंग करने के हेतु न तो प्रेम के उद्यम को ही कम कर सकते हैं ओर न उसके स्वरूप को। मार्कडेय पुराण में ममतातिशय को हो प्रेम- समृद्धि का कारण माना है। जिस प्रकार का दुःख घर में मुर्गे को बिल्ली के खा लेने पर होता है बना गौरैया के चूहें को खा लेने पर नहीं होता। कारण कि दूसरे में हमारो ममता नहों होतो ।* इमलिये प्रम-लक्ष गा -भक्ति में ममता को मुख्य हेतु पंचरात्र में भी माना है। अनन्य ममता विष्णों ममता प्रेम संयुता भक्तिरित्युच्यते भीष्म प्रह्मादोद्ध वनारदे: ( २३) विस्र भ प्राय में विस्न भ का अतिशय होता है। इत्के उत्पत्त हो जप्ने पर संभ्रम के स्थल में भी संभ्रम (शक्र) नहीं होता । , १--नाहूं तु सख्यो भजतोपि जंतून । भजाम्यमीषामनुवृत्तिसिद्धये! ॥ वही २- मार्जारभक्षिते दुःख॑ याहर् ग्रहकुबंकठे । न ताहझ ममताशन्ये कलविड्धेंण मृषिके ॥ ( ३२२ ) श्रनुकूलता तथा तदनुसार विषयों की स्पृद्दा होती है| प्रियता में सूख का सनिवेश भी है पर इसके अतिरिक्त अंश भी इसमें वर्तमान हैं , प्रीति कर्न- पेन्ष होती है। प्रियता विषयापेक्ष । प्रीति का विपरीतार्थ दुःख है । प्रियता काद्ष। सुख औ्रोर दुःख का श्राश्नय पक्ष ही होता हैं विषय पक्ष नहीं। ग्रियता का श्राश्षय पच्त भी होता है और व्षिय पक्ष भी । सुख और दुःख के आश्रय क्रमश: शोभनकर्मा तथा अशोभनकर्मा प्राणी होते है। प्रियता श्रौर द्वप के क्रमशः प्रेमी और द्वेषी | इनके विषय हैं क्रमश: प्रिय एवं द्वेष्य । प्रीति भगवदा लंबनक होने से भक्ति कहलाती है। इस विषयभेद से भाव में मी भेद हो जाता है । एक ही प्रकार के तिल जैसे गुलाब चमेली श्रादि के पप्पों के ससर्ग से भिन्न भिन्न गंधवाले हो जाते है उसी प्रकार एक ही प्रनुभव माया अ्रथच परमेश्वर दो विषयों दे संसर्गभेद के कारण भिन्न स्॒भाववाला हो जाता है। ये भेद है सात्विक, राजसत तथा तामस । भगवद् विषयक प्रेम सातत्वक होता है। यही भक्ति है। सत्व श्रर्थात् विष्णु या उसके भ्राविर्भाव के किसो रूप में एक्मन होकर स्वाभाविक और पग्रमि/मत्तक जो प्रेम किया जाता है वह भक्तिः है । भ्रम की तान क्षण भेद हँ--उत्तम, मध्यम तथा निक्ृष्ठ। इनमे निकट प्रेम वह है जब कि दो मित्र एक्र दूसरे को किसी स्त्रार्थ के कारण प्रम करते हैं। उनमें सोहाद भर्थात् हुदय की उदात्तता नहीं होतो; स्प्रार्थ होता है। मध्यम प्रेम क्तव्यपालन का रूप है जिसमें किपी भाजांतर से प्रेरित हाकर व्यक्ति दूसरों से प्रेम करता है--जैसे करुणा, प्रेरित माता पिता सतान से प्र म करते हूँ। श्रेष्ठ प्रम में न स्वार्थ होता है न भागतर की अरणा। वह श्र मपात्र को अदुकुलता की भी श्रपेज्ञा नहीं करता। उप्को न्जजजलि आओ अजओ-+ १- सत्वएवेक मनसो वृत्ति: स्वाभाविकी तु या अनिमित्ता भागवती भक्ति: प्रीति संदर्भ, पृ० ७२५ २--मिथोनजंति ये सख्य: स्वार्थ कांतोच्यमाहिते न तत्र सौहृदं धर्म स्वात्मानं तद्धिनान्यथा वही पृ० ७२५ ३--भज त्यभजतो ये वैकरुणा: पितरोयथा धर्मा निरपवादो$त्र सौहदं च सुमध्यमा: वही ( रेर३े ) अतिकुलता में भी--दप्रर्थात् प्रेमपात्र के प्रेम न करने पर भी--प्र म करता रहता है । यही भक्ति हैं। यही श्रेष्ठ है । प्रम में श्राठ ऐपे गुणु होते हैं जिनसे प्रेमी के चित्त का संस्कार होता है । वे ये हैं-- ( १ ) उल्लास ( २) ममता ( ३ ) विश्नभ ( ४ ) प्रिय के गुरों का अभिमान ( ५ ) चित्त का द्रवीभाव (६) भ्रतिशय अझभिलाष (७) प्रिय के विषय में प्रतिक्षण नवनवत्व की श्रनुभृति तथा (८) प्रिय संबंधी किसी विलक्चुण गुण के कारण उन्माद | (१) उल्लास उल्लास मात्र की व्यंजक प्रीति 'रति” कहलातो है। इसके उत्पन्न होने से केवल प्रिव में ही प्रेम होता है। श्रव्प में तुच्छत्व बुद्धि हो जाती है । (२) ममता प्रमता उत्पन्न करनेवाली प्रीति प्रेमा' है। इसके उत्पन्त होते पर प्रीति भंग करने के हेतु न तो प्रेम के उद्यम को ही कम कर सकते हैं झौर न उसके स्वरूप को। माकंडेय पुराण में ममतातिशय को हो प्रेम- समृद्धि का कारण माना है। जिस प्रकार का दुःख घर में मुर्गे को बिल्ली के खा लेने पर होता है वसा गौरैया के चूहे को खा लेने पर नहीं होता। . कारण कि दूसरे में हमारी ममता नहीं होतों।* इपलिये प्र॑म-लक्ष रण -भक्ति में ममता को मुख्य हेतु पंचरात्र में भो माना है। 'अनन्य ममता विष्णों ममता प्रेम संयुता भक्तिरित्युच्यते भीष्म प्रह्मादोद्ध वनारदे:! (३) विस्र भ प्रणाय में विस्न भ का अ्रतिशय होता है। इपके उत्पत्त हो जाते पर संभ्रप के स्थल में भी संश्रम (शक्र) नहीं होता । १--नाहूं तु सख्यो भजतोपषि जंतून । भजाम्यमीषामनुवृत्ति सिद्धये ।। वही २- मार्जारभज्ञिते दुःख॑ याहरं ग्रहकुक्कटे । न ताहडझ ममताशन्ये कलविड्धेरा मूृषिके ॥ ( ३२४ ) (४ ) अ्रभिमान प्रिय को श्रधिक प्रिय समझ कर उसके विषय में ऐसा प्रणय दिखान| जो कुटिल्दा के श्राभास से कुछ विचित्र हो जाए--प्रभिमान या मान कहलाता है। (५) द्रवीभाव स्नेह में चित्त का द्रवीभाव श्रधिक होता है। इसके उत्पन्न होने से! प्रिय के संबंध के श्राभास से ही सत्वोद्रेक हो जाता है। प्रिय के दर्शनादि: सेतृप्ति नहीं होती। उसके सम्थ होने पर भी उसके श्रनिष्ट की श्राशंका रहती है । (६) अतिशय अभिलाष स्नेह में श्रभिलाष का अ्रतिशय हो तो वह राग में विकसित हो जाता है। इसके उत्पन्न होने पर [प्रय का क्षृशिक वियोग भी श्रत्यंत श्रसह्य हो जाता है; उसके संयोग का सुख भी दुःख बन जाता है । ( ७) नवनवत्व को भवाना राग अनुराग में विकसित होकर प्रिय के विषय में प्रतिक्षण नवनवत्व की भावना कराता है। वह स्वयं भी नया नया होता रहता है। (८ ) उन््माद अनुराग दशा में उनन््माद के उदय होने पर महाभाव दशा झा जाती है जिसमें संयोग के कल्प भी निमेष के समान बीत जाते हैं और वियोग का निमेष भी कल्प ज॑ंसा लगता इस प्रकार रति ही क्रमशः प्रेमा, प्रणय, मान, स्नेह, राग अनुराग तथा महाभाव में परिवर्तित होती रहती है। इस विकसित परिवर्तन के काररा उपर्युक्त भ्राठ गुण रति में उत्पन्न होते हैं । श्रानंदधन जी को ऐसी कोई रचना नहीं मिलती जिसमें प्रेम का शास्त्रीय पद्धति से लक्षण (कया गया हो। कविहृदय से दो एक मुक्तक पच्चों सें त्था प्रमपद्धत में उसके स्वरूप का निर्देश किया गया है, जिसमें प्रेम का तटस्थ लक्षण माना जा सकता है। इनके श्रनुसार प्रेम की उत्पत्ति दिव्य है ४ उसवा स्पदन देव-मानव साधारण हदयों में होता है। मानवीय प्रेक ( ३२५ ) हउब्र रीय प्रेम का ही लघुग्म प्रैश है। जिम प्रेमउत्रुद में राधा और कृष्णा विवश होकर स्त्रानऊेलि करते हैं उसो की तरल तरंग में कोई बिंदु छुट कर लोक में आ। गया है। वहो प्रेम है। उप्र प्रेमसपधुद्र को देखकर बेवारा विचार तो इस पार से हो लौट श्राता है। उम्रमें प्रवेश करने का साहर 'नहीं करता । इसको चरम परिणाति प्रेमी और प्रिय का श्रभेद है। प्रेम में चकरोर चंद्रग हो जाता है चंद्रमा चक्रोर। देखो में ही वे दो हैं। वास्तविक रूप से वे एक ही हैं। इसको पदत्रो ज्ञान से भी ऊँची है। विषयों भो इसपमें डूब जाता है। भूलने से इस पंथ पर चलते हैं, सुधि से थक्र जाते हैं। इसका मार्ग श्रत्यंत सरल सोधा है । सयानप का बांके यहाँ नहीं होता । सीधे सरल व्यक्ति इसका पार पा जाते हैं, कपटो भिफरते रहते हैं। भहंता और प्रेम साथ साथ नहीं चलते। इसका निर्वाह कठिन होता है। धृप्र से लव्नीत की तरह थोड़ी श्रसावधानी से भी यह म्लान हो जाता* है । 'प्रेमपद्धति* में भी इसका स्वरूपपरिचय कवि ने दिया है। इसके अनुमाह ओम का सर्वोत्तम अधिष्ठान गोपिकाएँ हैं। उनके अनुराग में सब विधि- नियम भूल जाते हैं। प्रेम का पंय बसे श्रत्यंत वक्र है पर इन्होंवे सीचे अ्रकार से उसका भ्रवगाहुन किया है। जो प्रेम मन, बुद्धि और वाणों का अगम्य है उसे इन्होंने प्राप्त किया है। इन्होंने श्रयने प्रबन श्रेम का ओोज इपसे प्रकट कर दिया है कि भगवान श्री कृष्ण भी उनके श्रागे नाचते हैं। श्रेमताधना का सर्वोत्तम स्थान ब्॒ज है। ब्रजरज के स्पशे से प्रेमतत्व का लाभ अगायाप ही हो जाता है। पर ब्रजरज का लाभ भगवत्काा के बिता नहीं होता । गोषियों का चरणारज के स्पर्श से तथा उनके मार्ग के ग्राश्रवण करने से प्रेम का लाभ होता है । १--प्रेष को मद्रोरधि ग्रयार हेरि के विचार वापुरों हहरि वार ही तें आ्रायौ है । ताको कोऊ तरल तरंग संग छुग्बो कन पु.र लोक लोकति उफतायी है। साई घतपरानद सुजान लागि हैत होते ऐसे सथि मन में हरायो है । ताहि एक रस है विवस अत्रगाहै दोऊ नेही हरि राधा हैरि सरसायों है । सुहि० ११६ | २--वही २६६ । ३--बवढदी २६७, ३१४ । ( ३२६ ) प्रेमरस के वशीभूत होकर व्यक्ति एकरस हो जाता है। उसे श्रमोक्ष सुर की प्राप्ति होती है। ब्रजबधुश्रों के साथ श्री कृष्ण की केलि में जो श्रपूर्क सागर उमड़ता है उसको एक तरंग प्र म कहलाती है। उसे प्राप्त करना तथा कहना भ्रसंभव है। वाणी वहाँ मौव हो जाती है। शिव, शुक, उद्धव जैसे इसकी याचना करते हैं पर उन्हें भी प्राप्त नहीं होता । भगवत्कृपा से यह हृदय में स्फुरित हो जाता है। दिव्यज्ञान के उदय होने पर भी यह छिप जाता है। इसकी गति परम श्रगम्थ है तथा हसका रूप भ्रमल भ्रौर श्रपूर्व होता है। इसकी थाह लेते में मन, बुद्धि तथा विचार थक जाते हैं। इसके वशीभूत होकर मोहन भी “भपनपौ' हार जाते'* हैं । प्र मपद्धति तथा फुटकल प्यों में आानंदघन जी ने प्रेम के जो लक्षण तथा स्वरूप का जो निर्देश किया है वह भक्तों की परंपरा का है। लोकिकः प्रेम की अनुभूति ज॑ंसी उनकी थी उसका कोई श्राभास इनमें नहीं मिलता + प्रतीत होता है यहु रचता उनके भक्तिक्नाल की है। वासना ओर प्रेम वासना शारीरिक श्राकर्षण का भाव है। यह भोगपर्यवपरायी होती है । भोग भी इंद्वियतृप्ति श्र्थाव् शरीरसंबंध मात्र होता है। इसलिये वह क्षरिक होता है। विषयलाभ छे वासना संतुष्ट हो जाती है पर प्रेम हादिक तथा एक- रस हो जाता है। यह विषयलाभ से शांत नहीं होता । लेकिन फ्रायड जै ऐ विद्वान वासना को ही प्रम कहते हैं। काम और प्रेम हिंदी भाषा में काम शब्द इंद्रियासक्ति या वासना के लिये ही व्यवहृत दाता है। पर पहले सस्क्ृत के ग्रथों में इसका अर्थ श्रभिनाषा था, जिसमें प्रम भी श्रंतभूत हो जाता है। वेदों में इसका प्रयोग स्रष्ठा फी इच्छा के अर्थ में हुआ है जो समस्त सृष्टि का मूल कारणा' है। इश्क और प्रम फारसी का इश्क शब्द भी वेसे प्रेमार्थंक ही है पर उसके साथ ऐसे भावरों का संबंध हो गया है जो उथले हैं। फलत: वह भी उथला हो गया है # बोधा ने इश्क शब्द का ही व्यवहार उच्च प्रेम के श्र्थ में किया है । 223 कक 40 टिक लक १--प्र मपद्धति । २--कामस्तदग्न समवतंदाधि मनसोरेत: प्रथमं यदासीत् । इमे काम मन्दया गो।मरश्वंश्चन्द्राववा रावसा पश्रप्यश्य भ्र० वे० ३, ३०, १२० | । ( ३२७ ) 'इश्क मजाजी में जहाँ इश्क हकीकी खूब । सो साँचो ब्रजराज है जो मेरा सहब॒ब ॥|! >< »< ५८ ५८ प्रम और भक्ति साधारण व्यवहार में भक्ति परमेश्वराश्रित्र प्रेम को कहते हैं। सा भक्ति या परानुरक्तिरीक्षरे!। भागवत्र के प्रशयत से पहले भक्ति में पूज्य शुद्धि तया भक्त का देन्य, दास्य, श्रादि भाव श्रधिक रहते थे । पर बाद में मधु गा भक्ति का संतिवेश होते से प्रमन्नक्षणा भक्ति भी माती गई। वह अन्य भक्ति भेरों से उत्कृष्ट विद्ध हुई क्योंकि उममें मानत्र को रागमिका वृत्तिशांत होती थी। इस में परमेश्वर के साथ भक्त का सख्य भाव रहता है। समतन भूमि पर प्रधत होता है। पुज्य भाव दास्य भक्ति में आता है। अ्रतः दस्य भक्ति और प्रेम में तो कुछ अंतर है भी; क्योंकि प्रेष को प्रध/रभूमि सम्तल होती है भक्ति के विषम । पर सख्य या मधुरा भक्ति तथा प्रेम में आलंबन के श्रतिरिक्त भ्रन्य कोई भेद नहीं है। स्वरूपतः दोनों प्रकार के प्रेम लौकिक भी हैं और श्रलौकिक भी । तत्वतः वे एक हैं। लौकिक अलौकिक केवल आलंबन होते हैं, भाव नहीं। इस लिये भक्त श्राचार्यों ने जहाँ भक्ति के अंगभूत प्रेम का विवेवत किया है वहाँ लोकिक अलौकिक व साधारण प्रेम का हो किया है। भक्तों के भगवद् विषयक प्रेम को प्रनुभुत्ति लाक साध रण है। मोरा के ग्रालंब र्र॒ अलौकिक श्रदृष्ण थे । पर भावातृभूति उवक्री लौक़िक है। वे प्रेयत्री हैं। श्री ऋष्ण प्रिवतम ॥ जैसे लोक में होते हैं बंप ही दानों दंपतियों का स्नेंहर्सिचित व्यापार हृदय के गंभीर पर्तों को सरल सीधी मानवीय अ्रनुभूतियों को खोलता जाता है। इनका 'ओआौलगिया' घर गाता है। शरीर का सारा संताप मिट जाता हैं। मीरा अपने मत में प्रसन्न होतो हैं कि उन्हें एक कप में पिया मिल गए £न्होंने श्रपना दोदार दिद्वाया कबीर ने तो निर्भुण राम के प्रति भो लौकिक प्रेम ही व्यक्त किया है। जीव प्रेयसी है ब्रह्म प्रियतम । उनका विवाह होता है । कभी वे प्र म की भकूला पर भूलते हैं, जिसके खंभे प्रिय फी बाहें होती हैं भ्रौर रस्से भ्रम के होते हूं २ कामना पनअंकन«»«++भ भा. नामक. न्मरम३-+4आ.. फिननकना कम ननकपनननननननन-ीननननन- चना. शगानणं. १--ना रद भक्ति सूत्र । २--मीरा फी पदावली पृ० ५१ । ( इरे८ ) कोई प्रेम की पँग ऊुलावे रे' भुज के खंभ श्रौर प्रेम के रस्से तन संत श्राज अ्ुलाव रे।! दूसरी झ्ोर विशुद्ध प्रेम को लेकर चलनेवाले स्वच्छंदमार्गी बोधा हैं। इनके द्वारा व्यक्त किए गए प्रेम का स्वरूप झामूलचुल लौकिक है। पर वे भी इश्क मजाजी को इश्क हकीकी कहते हैं। उनका जो प्रिय है वहो श्री कृष्ण है । सहजिया पंथ के वेष्णावों का तो यह मत है कि मानवीय लौकिक प्रम ही श्रपने पूर्णा विकास में आध्यात्मिक हो जाता है। इस लिये वे अपने से बाहर अ्रपने इष्टदेव को खोजने नहीं जाते। फन््त: प्रेम का लौकिक भ्रलौकिक भेद स्थूल शोर श्रतात्विक है। उसी प्रक्र भक्ति भर प्रेम का भी । ३- प्रयोग प्रंम मानव चितना का इतना प्रमुख विषय है कि वह प्रत्येक सौंदर्य- विभति में प्रकट या प्रच्छन्त रूप से विद्यमान रहता है। साहित्य तो इसकी मुख्यनिधि है। साहित्य में इसका प्रयोग तीन प्रकार से मिलता है। श्रनतु- भति, साधना तथा श्रप्रस्तुत योजना के रूप में । अनुभूति वेदों से लेकर भागवत» तक के भारतीय साहित्य में प्रेम का व्यवहार प्रायः मानवीय श्रनुभूति के रूप में हुआ है। परमेश्वर के साथ इसका संबंध न था। उधर दास्य भाव का ही प्रदर्शा किया जाता था। वेदों में सहज वासनात्मक तथा श्रादर्शभावनात्मक दोनों ही प्रकार के प्रेम मिलते हैं। यमयमी संवाद में पहला है झौर पुरुरवा-उर्वशी संवाद में तथा श्यावाश्व की कथा में दूसरे प्रकार का। पुराणों में अ्रनेकत्र दोनों रूप मिलते हैं। रामायण महाभारत में भी यहु आदर्श भावना के रूप में मिलते हैं । हिंदी साहित्य के वीरगाथाकाल से लेकर रीतिकाल के अंत तक लोकानुभूति के रूप में इसका प्रयोग प्राप्त होता है। 'ढोला माहरा दूहा! “-- देखिए इश्क और प्रम का प्रकरण २--हिंदी काव्य में प्रेमप्रवाह--श्री परशुराम चतुवंदी । ( ३२६ ) अब्दुल रहमात का सनेह रासय” श्रालम की माधवानल कामकंदला? बोधा के 'विरहवारीश्ञ ठाकुर तथा श्रानंदधन के कतिपय पद्यों मे लोकानुभति स्वरूप प्रेम के दर्शन होते हैं । साधवा... भागवत के प्रणयन के बाद यह ईश्वर की प्राप्ति का साधन भी माना जाने लगा। श्री कृष्ण का जिन जिन लोगों से संपर्क हुश्ा था उन्हें भागवत में भक्त माना गया। जैसे नंद, गोप, गोपियाँ, यशोदा आदि । उनके संबंध को भक्ति स्वीकार किया गया । इस लिये दास्य, सख्यवात्सल्य श्रादि पाँच प्रकार की भक्ति स्थिर हुईं। इनमें सर्वश्रेष्ठ प्रणाय माना गया। यहो 'मधुरा- भक्ति? श्रभिद्िित हुईं । इसका शासत्रीय विधि से विवेचत और व्यवस्थापन श्री ऋहूप गोस्वामी ने श्रपने हरिभक्ति रसामृतरसिधु' तथा “उज्बल नीलमरणिए भ्रैंयों में किया है। इस समय तथा इसके बाद १७वीं शताब्दी तक भक्तिप्रधान साहित्य का प्रणयन प्रारंभ हुआ । उसमें कृष्ण-भक्ति-धारा के कवियों ने दांपत्य अ्रम का ही साधनात्मक रूप में प्रयोग किया है। सबसे पहले दक्षिण के अडवारों की रचनाश्रों में इप के दर्शन होते हैं। तिशमंगई, नम्म, अंदाल आदि की बहुत सी भावनाएँ यौनप्रेम के माधुर्य से पूर्णां हैं। नम्म तो मीरा की तरह समस्त विश्व को भगवान के समक्ष स्त्रीवत् मानते थे। स्वयं कभी कभी स्त्री का वेश तक घारण कर लेते थे। अ्रंदाल गोपी भाव से रहती थी |" इमके बाद सहजिया वष्णावों को रचनाएँ श्राती हैं, इन्होंने मानवीय प्रेम के सहज रूप की साधना की है। प्रत्येक व्यक्ति में दो तत्व रहते हैं । स्वरूप तथा रूप | पहला उत्कृष्ट है दूसरा निकृष्ट | ये क्रमश: ईश्वरीय एवँ लौकिक हैं। रूप को जिस्मृत कर स्वरूप की भावना करने से स्त्री राधा बन सकती है, पुरुष श्रोकृष्ण । राधा परकीया थी। इसलिये परकोीया सेवन ही साधना का सर्वोत्तम प्रकार है। उन लोगों की मान्यता है कि श्रीकृष्ण रूप में भगवान ने भी जब मानत्र सहज प्रेम का अनुभव क्रिया तो वह प्रेम संमारी मानवों को भी ईश्वरप्राप्ति का साधन हो सकता है ।* इसी के श्रासपास बाउलों की प्रेम साधना का समय आता है। इनके अनुसार मानव शरीर मंदिर है। इसका देवता है 'मनेर मानु्ष १- परशुराम चतुवंदी मध्यकालीन प्रेमसाधवा, पृ० २० २--वही--वंष्णावों का सहजिया संप्रदाय शीर्षक लेख, प० २७--२७ है: बाउल इस हृदय स्थित देतता को ही परमेश्वर माव कर उसे विविध प्रकार के प्रेम द्वारा प्राप्त करता चाहता है। दांपत्य प्रेम को ये लोग सवश्रेष्ठ मानते हैं। प्रम परमात्मा के सार का भी सार है। इस मत में श्रात्मरति झोर मानब-प्र म प्रकारांतर से साधना कोटि में ग्रद्टीतः हुए हैं ! अडवार, सहजियावेष्णव तथा वाउलों की साधना हिंदी साहित्य से पृथक बनी रही है। इसकी भक्ति साहित्य की धारा तो जयदेब से प्रारंभ होती है, जिस में सरस दांपत्य-प्र मं का परमेश्वर से संबंध स्थापित कर उसे परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बनाया गया है। इसी धारा में कृष्णधारा का वेष्णव साहित्य है। यहाँ संयोग में हर्ष तथा वियोग में पीड़ा की अनुभति है! दूसरे निगु शी भक्त कबीर, दाद, जायसो भ्रादि प्रम के ही साधक हैं । इन भक्त कवियों में कुछ लोग प्राधान्येन प्रमी हैं। उत पर भक्ति की शात्रीय मर्यादां का प्रभाव नहीं है, जंसे नामदेव तथा रसखान | रीति काल में भी प्र मछाधना चलती रही है। श्रानंद्बन, नागरीदास, बख्शी हंसराज, भगवतरसिक, ललितकिशो"ी आदि प्रेम के साधक हैं | रीति तथा भक्ति दोनों के बंधनों से ये श्राबद्ध वहीं हैं। पर आ्रानंद्धन को छोड़ कर शेष को स्वच्छैद मार्गी इसलिये नहीं कह सकते कि इनका प्रेम साधना ही है भ्रनुभूति नहीं है। इस प्रकार प्रम का साधना रूप में प्रयोग १७ वीं शताब्दी तक निरंतर मिलता है। आआानंदबत जी के मुक्तकों में श्रनुभत्यात्पक तथा कृपाकंद एवं िवधों में साधतात्मक प्रेम का प्रयोग हुआ है। श्रप्रस्तुत तीसरा रूप अप्रस्तुत रूप से प्रयुक्त हुए प्रेम का भी है। श्रप्रस्तुत प्रेम वह कहलाता है जो किसी रचना का मुख्य रूप से वर्श्य॑ विषय न हो + उसके द्वारा किसी दूसरी वस्तु की सिद्धि अ्रभिप्रेत हो। भक्ति और श्रनुभृत्या- त्मक प्र॑म॒ सें प्रेम ही म्ख्य रहता है, पर श्रप्रस्तुत प्रेम में वह गौण हो जाता है। इस में ज॑त धर्मियों तथा सिद्धों की रचनाएँ झ्राती हैं। जैन धर्मियों ने प्रमकथाएँ लिखों हैं, पर उनका पर्यवसान जैन धर्म की प्रशंसा या साधना में होता है । वहाँ जन धर्म ही प्रस्तुत है। सिद्धों का भी प्राप्य योगसिद्धि है, पर “कामिहि तारि पियारि जिमि!' की तरह उपमान झूप में प्रेम नल ननािलन अभिशिनानाविजननओ १--बाउलों की प्रंम साधना शीर्षक लेख पृ० ४१-५० । ( ह३१ ) व्यापारों का श्राश्रण वहाँ होता है। सिद्ध गंढरीपा योगिनी को संजोधत करते हुए कहते हैं कि है योगिनी, मैं तेरे बिना क्षुण भर भी जीवित नहीं रह सकता । तेरे ही चु बन द्वारा मैं कमलरस का श्रास्त्रादन करता हूँ |! जोइनि तहूँ बिनु रामहि न जीवमि | तो मुह चुबी कमल रस पीवमि! ४-प्रेम की विषमता प्राय और झालंबन के पारस्परिक संबंध की दृष्टि से प्रेम के दो भेद किये जा सकते हैं--सम श्रौर विषम | दोनों समान भाव से एक दूसरे को प्रम करते है तो सम और प्रेमी प्र॑मप्रवण हो, प्रिय नहीं, तो विषम्म प्रेम कहलाता है । श्रानंदबन का प्रेम विषम ही है। वह भारतीय साहित्य में एक नवीन भावना है। श्रत: यह परीक्षण श्रावश्यक है कि इस परंपरा का भ्रादि स्रोत कहाँ है। प्राचीन काव्यों मे सम प्रेम ही उपलब्ध हो” है। रस-रीति में एंक- निष्ठ प्रेम फो 'रसाभास' साना गया है । इसकी उत्पत्ति या आगमन कहाँ से हुआ यह प्रश्न उठता है। इमके उद्गम ख्रोत दो प्रतीत होते हैं। भागवत श्रौर फारसी साहित्य । भागवत मे प्रेमलनक्षणा भक्ति की परिपक्वता श्रनन््यता, हृढ़ता श्रादि दिखाने के लिये तथा परमेश्वर को श्र'त्रकाम, निष्काम सिद्ध करते के लिये एक पक्षीय प्रेम का विधान किया गया मिलता है। दशमस्कंघ में इसका विवेचन करते हुए तीन दशाए' मानी गई है, सख्य वात्सल्य और श्राप्ततामता । सख्य वह स्थिति है जब प्रेम फरने वाले के साथ प्रेम क्रिया जाता हैं। वात्सल्य का श्र्थ है प्रेम न करने वाले को भी प्रेम करनता। पर इसमें दूसरे भाव दया श्रादि प्रेरक होते हैं। झामकामता वह है जब कि प्रेम त करनेवाले को प्रेम किया जाए। इसमें प्रथम स्वार्थ दूसरा दया मिश्चि। तथा तीसरा विश्द्ध प्रेम है। प्रेम करनेवाले को प्रेम करने में प्रेमी का स्वार्थ निहित है । प्रेम न करने वाले पुत्रादि को माता १--हिंदी साहित्य में प्रमप्रवाह १० १६ पर चर्यापद से उद्घत । २--रतौ तथा&नुभयानिष्टायामु । साहित्य दर्पण ३,२५२ । ३--मिथो भजन्ति ये सख्य: स्वार्थकान्तोद्यपाहिते । नतत्र सौहृदं धर्म: स्वार्थार्थ तद्धिनानपरथा भजन्त्यभजतो येव करुणा: पितरो यथा । धर्मों नि पवादो5त्र सौहुद व सुमध्यमा: । ( रे३े४ ) को श्रेष्ठ माना है,जो प्रिय के गुणां को श्रपेज्ञान करता हो। काप्ना रहित हो, प्रति चरण बढ़ता हो, मध्य में विच्छिन्न न हु और अनुभव स्त्रूप हो । विषम प्रम में भाव के इसा उत्कर्ष के दर्शन होते है । स्वरूप अ्रब हमे देखना चाहिये कि कवि ने स्वयं प्रेम का क्या स्वरूप उपस्थित किया है । आतक्ति प्रधान इनकी प्रेमगावता रीतिकालीव कवियों की भावत्रा से भिन्न है। वासतात्मक प्रेम की तरह एक श्लोर तो इस में प्रगाढ़ श्रासक्ति है दूसरी ओर निर्धाह के लिये यह साधता ज॑सा है। गोस्वामी तुनमीदास जी ने कार्मिह नारि पियारि जिमि लोगिंह प्रिय जिमि दाम! में आआसक्ति की जिम प्रगाढ़ता की और संक्रेत किया है बंसी इनके प्रेम में मिलती है। ४हू पृनिधान सुजात कौ देखे बिना! दृष्टि सब और से पीठ फेर लेतो है। श्राँखे पुतलियों में उल्चिन की तरह खय्कता रहती हैं। मूँदने पर महा अ्रकुलानि होती हैं। जीव डूबने सा लगता है?। विरह व्यथा का जो ग्रत्यंत मार्मिक अनुभव हुपा है उपका कारण आसक्ति हो है। इपका परिचय वियोग में ही नहीं संयोग में भो मिलता है। प्रिय ग्राते हैं तो ऐवा लगता है कि करोड़ों प्राण आंखों में भरा गए, आनंद छा गया, महारस की वृष्टि हो गई। पर दी जब आखी से श्रोफन हो जात॑ है तो जो को ऐसा दुर्गति होता है कि वही जाठता हैं। जय मार कर जिलाता है। जिलाकर मारतार है । प्रतीज्ञा करते समय लालप्ा पन्नहों में भ्रा छतरती है। मिलन समय में इतना हर्ष होता है कि स'तों सुधि भूल जाती हैं। रीक बावरे होकर कुछ »ग कुंड कहने लगते हैं। इन भावों में श्रसाक्ति प्रधान प्रेमभाजता के दर्शन होते हैं।._ हे ४ १>यग्रुणरहित कामनारहुत॑ प्रतिन्षगारर्धमानम् श्रविच्छिल्तम् सुक्षमतरसू अनुभवरूपम् । नारद भक्ति--सूत्र ५२। २-सहि० ३ ३->-वही ५४ ४--वहो ६७ ; 0 8 2] साधना ब्रधान पर जितनी प्रगाढ़ श्रासक्ति है ज्तनी ही सदढ निर्वाह फी क्षमता है । वियोग व्यथ।एं पहुड़ बन कर श्राती हैं पर प्रेमी अपनो निर्वाह- साधना से विचलित नहीं होता । प्रिय की निःस्तेहता, कपट- रुक्तता, प्रेमी की टेक में श्रन्तर नहीं ला सकते। प्रंम की समस्त प्रतिकुलताएं उसका भाग्य है। यह “विसासी” सजान से भी प्रेम करेगा । आ्राण मृत्यु के समय भी प्रणव नहीं छोड़ते। स॒जान का संदेश लेकर ही शरीर से बाहर नि%लना चाहते हैं। आशा की रस्सी में भरोसे क्री शिला छाती से बाँध कर जणा के सिधु में डुबने तथा व्ययाञ्रों का आरा अ्रपने सिर पर चलवाने को प्रेमी तैयार है। पर कठोर प्रिय के हुदय में वह दया उपजा कर रहेगा । संयोग श्रीर वियोग दोनों के वर्णन पढ़ने पर यही घारणा पटक की बनती है कि प्रेम कवि की साधना है। भोग का विलास या मन का उद्वेग नहीं है | मावात्समक यह स्थुल और शारीरिक नहीं है। भावात्मक है । संयोग में कवि ने कहीं भी अश्नील चेटष्टाश्रों का तथा ऐद्रिक भोगविलासों का वर्णात नहीं किया । उल्टे संगोग में प्रेमाभिलाष वियोग की सी स्थिति की रचना कर देता है । इनके वियोग में शारीरिक भोगों का स्मरण नहीं है। हृदय की मे मिक्र पीड़ाओ्रौ का अ्रनभावाश्चित विश्लेषण हमा है, अ्रभिलापाशओो कृ भी विविध रूप उपस्थित क्ए गए है पर शरीर संगोगो का कहीं भी दश्शात नहीं होता | केवल प्रिण के सास्विष्य की अभिलाषा रहतो है । रूप के वर्णन भी वासनादष्ट नहीं हैं। अ्भिलापुछ दृष्टि से देखें गये प्रभविष्णु यौवन का सरल तथा यथार्थ चित्रण है । प्रिय हृदयस्थ रहता है। संयोग हो चाहे वियोग उसकी विद्यमानता हृदय में रहती है । वह पास बैठा हो फिर भी ह्ुदयस्थ प्रिय से वियोग हो बना रहता है | सतत ध्यान के कारण वह आँखों के श्रागे से ठलता नहीं । संसार को देखने में स्वयं प्रिय भाँकता है। प्रेममुरति प्रिय की प्रेमी ते जो श्रारती सजाई है उस में हृदय दीपक है, स्नेह तेल है वियोग व्यथा बत्ती है। यह सब भावना के थार में रक्खी जाती है । १--व्र ही १०४ ( बेडे२ ) पिता जो प्रेम करते हैं उसमें उसका दया-भाव भी कारण होता है | तीसरा भ्र्थाव आप्तकाम प्रेम या तो इृतद्रोही का हो सकता है या ग्राप्तकाम का | भागवतकार ने श्री कृष्ण के मुख मे यह कहलाया है कि "मैं प्रेम करने वाली को भी प्रम नहीं करता! | रासलीला के मध्य में श्री कृष्ण का थोड़ी देर के लिये तिरोहित ह जाना इसी तथ्य का व्यंत्रक हैं। भ्रमरगीत से भो इसकी व्यंजना होती हैं, जहाँ गोपियाँ श्रो कृष्ण को छली' “'निःसतेह' श्रादि कहती हैं। वेष्णव भक्तों की क्ृतियों में जो प्रेम को वैषम्थ प्राप्त होता है वह भागवत की पर परा के कारण ही है, जैठे सरदास की रचताश्रों में । तुलसी दासजी ने भो विषयप्र मं को श्रेष्ठ माना: है, पर यह दास्य भक्ति के कारण है जहाँ भक्त श्लौर भगवाव का लघु गुह भाव प्रनिवार्थी हा जाता है। सख्य भाव में भ्रम के वेषस्प भाव की विशेषता है, पर दास्प भाव में यह पात्रों को विशेषता है। स्रदास के प्रेम का वेषम्प भाव मूलक है, तुनप्तीदासजो का पात्रमूलक। श्रस्तु, विषम प्रेम की एक परंपरा भागवत भक्ति धारा में विद्यमान है। जिस आप्तकामत्व का भागत्रतकार ने उल्लेख किया है उसकी व्यंजता आनंदबनजो के निम्नलिखित सवबय्े से होती है, जिससे अनुम,न किया जा सकता है इनके प्रेमगत वैषम्य का कारण भागवतानुप्तारी भक्ति- भाष है , “किहे बरनि ठती हो सुज न, मनौगति जान सके सु भ्रजान करचौ ।? 2 >< > >< तुम तो निहकाम, सक्राम हमैं घत्ग्नानेंद, काम सौं काम परचो ॥* >< >< >< >< अ->ततहत+तम/+त-_.... भजतोपि न वे केवित् भजन्यप्जव: कुपः । आत्मारामा बात्तकामा अक्षतज्ञ गुह् हू: । भा० १०, ३२, १७, १६ । ९-नाहँतु सख्यो भ्रजनोपि जस्तूनू भजामस्यपोषापनुवृ त्तसिद्धये । वही १०, ३२ २० । २--क लघु के बड़ मौत भज्ञ सम सनेह दुख होय दोहावलो ; रे“भरतजी ने राम के प्रति अपना स्नेह चातक के साझ्य से व्यक्त किया है 'जलद जनम भरि सुरति बिसारड, जाचत जल पवि पाहन डारठ। चातक रटनि घटे घटि जाई, बढ़े प्रेम सब भांति भ लाईं। रामायणा प्र० का० २,२०६। ४--सुहि० ४७२५ । ( ३३३ ) दूसरी परंपरा फारसी की है वहाँ प्रेम की एकांतिकता, श्रनन्यता,,. उच्चता श्रादि दिखाने के लिये प्रिय को कठोर एवं स्नेहहीन दिखाया जाता है। भ्ानंदवनजी उद फारसी भाषा से परिचित थे। यह उनकी 'इश्कलता और “वियोगवेलि! से श्रनुमित होता है। श्रत: यह भी संभव है कि उन पर इसका भी प्रभाव पड़ा हो । उन्हीं के समकालीन मित्र न!गरीदासली ने 'इश्कचमन? उद् फारसी को प्रेरणा से ही लिखा जान पड़ता है। इसका कारण यही है कि भक्ति में सख्य प्रेम का प्रचार बढ़ा तो उसके समस्त श्रस्र देखे गए। उद् फारसी के कवयां का रचनाश्रों में विषम प्रेम प्रचलित था ही । हिंदी के भक्त प्रमियों ने भी उसे श्रपना लिया। आ्रानंदधतजी के साधनात्मक प्रेम में वैषस्थ के दर्शन नहों होते । वर्सा- नात्मक प्रबंधा में राघा श्रौर श्रीक्ृष्णु दोनों हो एक दूसरे को प्रेम करते प्रतीत होते हैं। इन रचनाभो में बशित प्रेम का स्वरूप साधनात्मक है, क्योंकि उसता भक्ति में विनयोग होता है। अरुभत्यात्मक प्रेम में ही श्र्थाद उस प्रेम में जा किसो साध्यांत्र का साधन नही है, श्रपने मे स्वतंत्र है. विषम भाव को बार बार आर्वोत्त हुई है। इसको श्रत्यविक आवृत्ति उर्द् फारसी के प्रभाव की व्यंजिका है। 'इश्कलता” में उर्द की शंली का प्रेस व्यक्तरर अ्रंत में कवि को भावना है कि जो क्रजचंद की 'इश्कलता” मन् लगा कर पढ़ेगा उसे व दावन के धाम का सुख प्राप्त होगा | इश्कलता ब्रजचंद की जो बाँचे दे चित्त | वृंदावेन सुखधाम सो लहै नित्तही नित्त' ॥ >< >< >< >< श्रंत में यही कहा जा सकता है कि इन पर उद् फारसी तथा भक्ति परंपरा दोनों के प्रेमगत वंषम्य का प्रभाव है। प्रंम की उत्पत्ति श्रालंबन को देख कर होती है। प्रारंभ में लाभ की भावना इस में विद्यमान रहती है, पर अगले विकासक्रम में कामता का श्रभाव ही जाता है। तीसरे क्रप में श्र।लंबन की धारणा भी लुप्त हो जाती है प्रेम श्रतुभव स्वरूप, निरविषय ही रह जाता है। इस स्थिति में आलंबन स््नेहयुक्त हो या स्नेहहीन, प्रेम तदवस्थ रहता है। पहली स्थिति स्थल, दूसरी सूक्ष्म तथा तीसरा सक्ष्मतर कही जा सकती है। नारद ने ऐसे प्रेम . १--इश्कलता ४&४।. अन्मक.. म-+ .+कमममानया ( रे३६ ) नेह सों मोय सजोय धरी हिय दोप दसा जु भरी श्रति आश्रारति। भावना थार हुनास के हाथनि यों हित मुरति हे।र उत्तारतिः ॥' प्रत: श्रातंदधन के प्रेम का रूप भावात्मक ही सिद्ध होता है। रीति- मार्गों प्रेम की तरह वह स्थल शारीरिक नहीं है । बरमिलाषा प्रधान संयोग तथा वियोग के प्रसग में यह विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है कि इनके. प्रेम में श्रभिलाषा का प्राधान्य है। प्रिय का मिलन हो या विरह चाह की अंतज्वाला हृदय में जलती रहती है। प्रिय के मुख को देखते की चाह का भड़ सा लग जाता है। कभी दैवगति से प्रिय मिलते भी- हैं तो लाखों मनोरथों की भीड़ लग जाती है। मिल कर भी मिलाप नहीं हो पाता। पिलन में प्रिय और प्रेमी के श्र भन्त हो जाने पर भी अभिलाषा का विनाश नहीं होता । वे दोनों मिलकर एक हो गए हैं। घनश्रानद का शुद्ध सामीप्य मिल गया है। फिर भी रूप को श्रनप तरगों को देख कर नित्त चाह के प्रत्राह में बहा जाता है' । अभिलाषा को इस प्रधानता में भक्ति के सिद्धांत की व्यंजना की गई प्रतोत होती है। भक्त लोग भगवत्सान्रिध्य पाकर भी प्रमलक्षणा भक्ति का सुख लिया करते हैं। वह इस रूप में संभव हो सकता है कि मिलन भी भ्रभिलाषा बना रहे। इसलिये कुछ वैष्णव श्राचार्यों ने तो श्रभिलाषा को् ही प्रम माता है। उस शअ्रभिलाषा स्वरूप प्रेम का संयोग हो चाहे वियोग कभी विनाश नहीं होना चाहिये। इसी मान्यता की अ्रभिव्यक्ति मिलन में अभिलाषा की विद्यमानता द्वारा की गई प्रतीत होती है। 'प्रेम तृषा बाढति भली घटे घटेगी कानि' | यह बुद्धि व्यापार गम्य नहीं प्रेम बुद्धिव्यापारगम्य नहीं हैं। हृदय की सहज सरल श्रनुभूृति है। बुद्धि का सयानप व्यवहार में बॉकपन लाता है| प्रेम का मार्ग सूधी' है । इसलिये बुद्ध का विचार प्रेम के भ्रपार समुद्र को देखकर हरान हो जाता र--सुहि० ५०७ २->वही ७२ ३--बही २३६ ४--वही १ है ( ३३७ ) है भौर नर” से ही लौट श्राता है। हृदय पर रूप का आ्ाक्रमण होते ही प्रेम की दुहाई फिरने लगती है। बुद्धि दासी हो जाती है। रीफका पटठ- सनी । यहाँ देखते पर कुछ भी नहीं सूकता। बुभते बूकते तो बौराई मिलती है। कवि प्रेमानुभूति को बुद्धि की उपचेतना दशा को श्रनभूति समझता है। भूल को प्रेमानुभूति में सहायक माना गया है। प्रिय की स्मृति का सुख तभी तक सोया रहता है जब तक भूल नहीं जागती | श्रर्थात् प्रिय के स्मुतिसुख के लिये सांसारिक पदार्थों की भूल श्रावश्यक है। यदि स्मृति श्रनकुल हो जाए) ध्यान में प्रेमी आपादमस्तक प्रग्गन हो जाए, तो वह विषयभोगो की सारी सुखसुधि भूल जाता है । जौ लौं जगे न भूल, तौ लो सो सुरति सुख । वही होय प्ननकूल, तो भूल सुख सुधि सब ॥” हु रन न न प्रेमानभूति में बुद्धि का गौण स्थाद स्थिर करने से फ्राइड के उस मनोविज्ञान के सिद्धांत का स्मरण होता है जिसके अनुस'र हृदय के सहन सच्चे भाव बुद्धि की उपचेतन या शअ्रवचितन दशा में ही व्यक्त होते है। चेतनावस्था में तो सामाजिक, धार्मिक मर्यादाएँ ग्रथवा लजा, श्रभिमान प्रादि व्यक्तिगत कृत्रिमताएँ हृदय की सहज गति को राक लेती हैं, भावों को सरल सीधे रूप में व्यक्त नहीं होने देतों। इसके अ्रतिरिक्त भक्ति के एक सिद्धांत की भी व्यंजगा इससे होती है। भक्ति में ज्ञान, क्रियादाक्ष्य आदि लोकनिपुणताप्रों का आदर नहीं किया जाता। भागवत के दशम स्कंच के २३ वें श्रष्याय में जो 'यज्ञ-पत्नो उद्धरण का संबत्राद है उससे यद़ी व्यक्त किया गया है। कर्मकांडी विद्वान ब्राह्मण माँगने पर भी श्रीक्षष्ण को भोजन नहीं देते । उनकी पत्नियाँ श्रद्धापूबंक लेजाकर भेंट करती हैं। बाद में ब्राह्मण लोग अपने ज्ञान, क्रियादत्षुता श्रादि को घिक्कारते हैं, कि इसका उपयोग भगवद्भक्ति में नहों हो सका । “(मारे जन्म, तीनों वेदों के ज्ञान, ब्रत, बहुज्ञता! कुल, क्रियादक्षता श्रादि सबको घिकर है कि ये भगवान के विध्ुख हैं।* १--वही १४८ २--वही ३६६ । ३--विक जन्मनब्िवृद्धिय्यां धिप ब्रतं घिग बहुज्ञताम्। धिक् कुल घिक्// दाक्ष्यं विमुखा येत्वधोच्चजे | भाग ० १०२, २३, ४० । २४ | रेरे८ ) #- प्रथम दर्शनजन्य यह सहवासजन्य नहीं प्रथम दर्शन का प्रेम है। प्रमीने जब से रूप- निधान सुजान को 'नेकु! देखा है तभी से हृष्टि श्रनुरगमय होकर थक्र सी गई है| बद्धि ने सब प्रकार की लज्जा त्याग दी है। रसम्रति श्याम सुजान के देखने से हृदय की जो गति होती है वह किससे कही जाए। छुंच्रक लोहे की तरह चित्त प्रिय से चिमट गया है। छुटाने से श्यौर श्रधिक श्आसक्त' होता है। प्रिय का प्रथम दर्शन ही समस्त इंद्रियों पर री का जादू सा डाल देता है। वे चेतनाहीन हो जाती है। विकलता आदि हृदय पर छा जाती हैं। इस प्रकार यहाँ प्रेम में किसी प्रकार का क्रमिक विकास नहीं दिखाई देता । रूप का प्रभ/व सेना की तरह श्रकस्मात श्राक्रमणा करता है और समस्त इंद्रियों को श्रात्ममात् कर लेता है। मुतककार प्रेमी कवयों के लिये यही प्रेमप्रकार भ्रदृकूत्र ०ड़्ता है। क्रमिक विकास तो प्रबंधों में ही दिखाया जा सकता है । स्व्च्छ्र र॑ तिमार्गी कवियों की भाँति इनका प्रम शरीरसीमा में ही आबद्ध नहीं है । इसकी उत्पत्ति श्रवश्य शरीर से है पर इसकी भावना पूर्ण रूप से मानसिक है। साथ ही यह व्यापक भी है। प्रिय आनंद का घन है जो सबंत्र छाया हुआ है। वह उगत् के पदाथ जात में दृष्टिगत होता है। अनुशृत्यात्मक प्रेम का परम सत्ता के साथ जो संबंध स्थापित क्रिया गया है वह भी दार्शनिक पद्धति पर नहीं। भले ही वह सत्ता राधा क्ृप्णा ही हों। भ्राधिदेंविक और श्राधिभौतिक प्रेम का योग भक्तों की रचनाओ्रों में मिलता है। घनानंद की रचनाओं में आध्यात्मिक तथा आधिभौत्कि प्रेम ही का योग है। इसलिये 'रहस्यवादः का शअ्रश कहीं कहीं श्रा गया है। श्रनुभति को यह उच्चता तथा आदर्श भावना स्वच्छुंदता की व्यंजिका है। यह पारवारिक नहीं है। नायक का धुृष्टत्व दिखाने के लिये यदि कहीं प्रच्छन्नरति का प्रदर्शन किया गया है तो वह बेवल एकपक्काय श्रम को व्यंजना के लिये। प्रेमपात्र नतेंकी है जो श्रासव पान १--वही १ । २-वही २। ( ३३६९ ) 'करती हैं, नृत्य करती है श्रीर खुने श्रामोद प्रमोद करती है। उसके रूप सौंदर्य पर लाज भी इकौसी होकर रीकनी है। उसका यौवन सौंदर्य अधिकतर अ्रनावृत है। लज्जावृत नहीं। पर्णरिवरिक प्रेम की मर्यादा में तो वेश्या प्रेम का नहीं श्रपितु प्रेमाभास का पात्र मानी जाती है। यहाँ सामाजिक बंधन भी अ्रेम की श्रनुभूति में बाधा उपस्थित नहीं कर सकते। निदक प्रेपहीन हैं, दोषदर्शो हैं, श्रत: उपेक्ष्य हैं। कोई मुह मोड़ो, करोड़ों चत्राइयाँ करो। अपना संबंध तोड़ लो। पर इनको सुने कौन। वे लोग तो स्मेहहीन, नीरस हैं। उनका हृदय मलीन है। वे सदा दोषों में हो रहते हैँ । गुण वे कस 'गिनेंगे । निदक सीस धुवा करें प्रेमी श्रपती ठे नहीं छोड़ सकता! । रीतिमार्गी लोगों ने प्रेम व्यवहार की जो क्ृत्रिमताएँ चित्रित की हैं जसे दूती, सखी आ्ादि की मध्यस्थता, अ्भिसार, वचतविदग्धता, क्रियरा- विदग्धता भश्रादि छल, गब्रानंदबन ने वे वर्णित नहीं कीं। प्रेमानभूति का सीधा विश्लेषण किया है। उनके लिये तो “अ्रति सुधो सनेह को मारणग है जहाँ नेकु सयानक बाँक़ नहीं । तहाँ साचे चले तजि आशधुनपा भिमकें कपटी जे निर्साँक नहों | श्रत: इन ही प्रेमभावना स्वच्छुंद है। प्रमरंजित दृष्टि कवि की मान्यता है कि प्रेम जैसे सूक्ष्म तत्व के पहचास्ते में प्रेमरेंजित दृष्टि ही समर्थ हो सकती है। जो सूकवाले हैं वे भी इसका अनुभव करते समय श्रपत्री दशा भूल जाते हैं। उसे बिचारे साधारण जीव केसे पहचान लेंगे। वे लोग तो प्रिय के मिलने पर हर्ष और वियोग में विषाद का निरथ्थक श्रनुमान किया करते हैं। उन्हें इसका यथार्थ श्रनुभव नहीं होता है। प्रेम के साह्सी तो वे पअ्राँखें हैं जिन्हें चाह की मोटी पीर उठती" है । यह दृष्टि (प्रमरंजित) वस्तु का विलोडर कर सार का पत्ता लगा: - लेती है। रूप भो रिभवार को देख कर श्रपने गुप्त गुणां को उपके ममत्त प्रकट कर देता है । वेषे चंद्रमा सब के लिये प्रत्यक्ष है, पर देखता उसे चकोर ही है। प्रेमरंजित दृष्टि तो प्रिय के रूपको देख कर न थकती है न ऊबती है। उम्रके लिये प्रिय की €क्षुता में मिठस है, उसके न बोलने पर १-वही ८० । २--पुडि० २३० । ( रे४े० ) अपनी वाणी न््यौछावर की जाती है, उनके न देखने को देखते ही रहती है 8 फिर ऐसी हृष्टि का साधारण श्राँखों से कसे मेल हो ।॥ ७--प्रेम हीनों की निदां-- उपयु क्त दृष्टिकोण के भेद के कारण ही गआ्राभंदधन जी ने प्रेमहीनों' की घड़ी तीव्र श्रौर मामिक तिदा की है। इस निदा में एक श्रोर तो प्रेम को सृक्ष्मत! श्लौर स्घचछंदता वी व्यथजना है दूसरी श्रोर कबि श्रपने काल के सथा कथित प्र म कवियों की भी आलोचना करता है।रीति काल के प्रधान भाव प्र म शौर शूंगार हैं। एर प्रम का मामिक चित्रण वहाँ नहीं हो सकता है भ्रानंनघन की दृष्टि मे प्रभ का दिझू्पण करने पर भी वे सच्चे प्रमी कवि नहीं । उन्हें बातों की सूक्ष्मता का ज्ञान नहीं है। वे जड़ता के निकट हैँ. उनके हुदय ठंढे है। चित्र की सी #ँखो से #ंगार रस के स्प और स्वाद बे सराहना वे करते है। १२ उनका स्रेह कथन नीर मंथन के सामन हैं ४ वे लोग बढ प्रभा का निर्वाह करते वाले है। ऐसे श्रमिल प्रश्यो से आनंद्धन का मेल नहीं हो सकता; ये लोग प्रम को अनुभति नहीं करते संयीग-वियोग के हर्ष-विषाद काबुद्धि के सहारे श्रनुमान भर करते हैं। इस लिये इनकी रचनाश्रों में स्वाभाविव्ता नहीं रहती। श्रानंदघन ऐसे लोगों के पास भी न्हों टहरना चाहते, जिनकी हृष्टि में दही और महा, हंस और बगला कोयल और कौछा, कांच और मरणिण, चंदन धौर ढाक तथा राँग भ्रौर चांदी एक से है। वे मृढ़ कवि “्यौरि” कर नही बोलते। प्रेम का नियमः तथा हित की चतुराई नही विचारते । “मही दूज सम गने, हंस बग भेद न जानें | कोकिल काक न ज्ञान, काच मनि एक प्रमानैं || चंदन गा समान, राँग रूपौ संग तौलें। बिन विवेक गुर्दोष मृढ़ कवि व्यौरि न बोलें | १--वही १४३, २-बात के देस्ते दूरि परे जह़ता नियरे सियरे हित दाहैं । चित्र को भ्रांखिन लीने विचित्र महा रस रूप सवाद सराहै । नेह कर्थे, सठ नीर म्थ, हुठ के कठ प्रोम को वेस निबाहै। क्यों, घत आनंद, भीे पुजाननि यौं भ्रमिले मिलिबौ फिरि चाहै । ३- वही २३० । <हिं? रेव३े ( ३२४१ ) प्रेम नेम हित चतुरई जे न विचारत नेकु मन । सपनेहु न विल॑ बये छितर तिन ढिंग प्रानं दधन ।।! इसमें उन मूह कवियों के लिये फटकार है जिन्होंने आनंदवत जैसे आमिक कवे को फारतसो भाषों का चोर बताया है, जेपे भजौप्रा झंदों में । छ+व्यथापूर्ग आतंदवत ते अ्रपता प्रिय आनंद का धन सुजलत पाता हैं। वह सर्वत्र आनंद को वृष्ठि करता है। पर चातक जित प्रकार उपके विरह में विषाइ- युर्ण रहता है उद्ची प्रकार यहाँ प्रेमी वियोग व्यथ। का ही श्रतुभत्र करता है। यहां तक हि सथ्ोग में भी उसे सब का लाभ नहों होता। “यह कैपों संयोग न वृभि पर जो वियोग न क््योंह विल्लोहत है ॥! इस व्यथाप्रच्चुर प्रेमा- लुभूति में सूफी कवियों का प्रभाव अनुमित होता है। कवि को अपने प्रिय धन का कभी कभी बिजली की कोौंत्र के समान ऋ्षशिहु साक्षातकार होता है। उसमें भी मनोरथों को भीज श्रा पड़तो है। वर्षा काल में जल की धारा से भीगी हष्टि विजली का पूर्ण दर्शन नही कर पाती। इसी प्रकार आनंदवन का प्रेम। श्रपर्री रीकप्रीजा हृष्टेट से प्रिय का पूर्ण दर्शव नहीं कर पाता। सूफी लोग भी इसी प्रकार प्रिव परमेश्वर का क्षृशिक्त दर्शत करते हैं।' श्राश! की भी यरा करा अत नूति होती है । विरहों श्राखों को तद्ठ कर देता चाहता है पर उतसे प्रिय दर्श की अभिलाषा है। कानों को समाप्त कर देता चाहता है पर उनमे ब्रिय के वचतामृत्र पाल करते की अमिलाषा है। इसी प्रकार प्राण को प्रिय पर न््यौझावर करने की लालपा से उन्हें समाप्त नहीं करता । पर ऐवी भाशा यृत्यु से विरहो की रक्बा भर करतों है। उसके हृदय में श्रानंर का संच।र नही करती । इसका फन तो व्यथा का भझागे जीवित हना होता हैं । क वे को हृष्टेठ में मुय्यु कटों से छुटकारा देती है। इसलिये १--सु हि ० २८५ | २--दुपावती के दर्शन का वर्ण अलाउद्दीत ने बिलज़ी के साम्य से हो 'फिप्रा है 'बगता केवल सरग निसि जतहुँ लौकि भई बोज्ु। श्रोहि राहु भा आनुहि रावबब मतहिं वतोजु ।” पदूमावत चितौरगढ़ वर्णन, खंड । ( ३४२ ) वियोग में मरनेवाले मीन झौर पतंगों को वह हेय दृष्टि से देखता है। आशा गले की फाँसी है जो मरने भी नहीं देती प्रौर प्रेम का त्याग भी नहीं करने देती है। व्यथा का खारी सप्रृद्र इतना विशाल है कि इसमें आशा जैसा मधुर भाव भी गिर कर खारी हो गया है । यह व्यथा -वहुलता रीतिमार्ग की लकीर से हटती हुई हैं। वहाँ पर संयोग में हर्ष श्रौर वियोग में विधाद के बर्णान का ही विधान है। पर इनका प्रेम व्यथाबहुल है। कवि की समस्त कविता ही मानों व्यथित हृदय की पुकार हैं। कवि ने कहा भी है कि काव्य का सच्चा रूप व्यथा ही है। हर्ष का वर्रात हृदय के सत्य स्वरूप को प्रकट नहीं कर सक्वा । कवि की उक्ति है कि “जिन्हें रोवा नहीं श्रात। उनका गाना भी रोने के समान हो जाता है'। प्रकृति का सौदर्य भी कवि के व्यथित हृदय को व्यथापूर्ण ही लगता है । वर्षा को धार वियोगों की दशा पर शआ्आँस बरसाती है। पर्व त्मौहारों का श्रामोद-प्रयोद व्यथा को हल्का नहीं कर सकता । वास्तव में विषयिगत भाव के श्रनुभविता कवि के लिये समस्त बाह्य उपकरण उसके हृदयस्थ भाव को ही बढ़ाने का कार्य करते हैं। कवि विरही है जिसके शरीर रूपी बन में बिरह की दावाग्नि उठी हुई है । वह यतनों के जल से शीतल नहीं हो सकती । उससे हृदय की प्रौढ़ता फट जातो है। साँस बांस की तरह चटकते हैं । श्राशा की लबी लता भी उद्वेग की भर से मुरका जातो है। प्राण-खग दु:ख के धूम में: घुटे होकर घिर जाते हैं। यह ज्वाला प्रिय के दर्शनजल से ही शांत हो सकती है | ९- वेषम्य वेषभ्य इसको ( प्रमभावकी ) सवसे बड़ी विशेषता है। श्स वर्णन के प्रसंग में प्रेमो और प्रिय के स्वर्पों का परिचय विस्तार से दिया ज! चुरा है। सक्ष्मतः प्रेमी की प्रेमाशक्ति जितनी उत्कट है उतनी ही प्रिय की उपेक्षा वृत्ति प्रबल है | वह निःस्नेह है, छलो है। प्रेमी स्नेहसिक्त, सरल, सोधा है। प्रेमी का स्वभाव स्मरणा का है, प्रिय का भूजने का | प्रिय मोहन है, प्रेमी मोहित | वह “निहकाम” है, प्रेमी सकाम। इस प्रकार प्रेमी और प्रिय केः स्वभाव को विषमता भाव को भी विषम बना देती है। व्यवह्वर भी दोनों कए १--रोयबो न श्राव तो पें गायबोह रोयबो । प्रको० ३० । २--सु है? ५० | मर) का हैं ! प्रिय दु:ख देकर सुख प्राप्त करता है। प्रेमी हृदय देकर चिता ता है । प्रेम भावता का प्रभाव भी दोनों पर सम नहीं पड़ता । प्रेमी को प्रेस दुःखदोषों से दुखी करता है, प्रिय कौ सूखों से पोषित। बह प्रेमी को चिता तथा प्रिय को निर्श्चितता प्रदाव करता है। प्रेमी रोकर जागता है, प्रिय हँस कर सोता है। प्रिय में प्रमी भूले भश्ता है, प्रेमी में शल्य बन कर करकता रहतः है। प्रिय के लिये चेन की चाँदनी हर्ष की सुधा बरसाती है, प्रेमी मे ल्यि विषाद का सर्य तपता रहता हूँ। श्रानंद का घन कहीं उमड़ता हैँ कहीं उचरता हूँ । प्रेम की विषण्ता ग्रतक्य है । इस तरह पात्रों के स्वभाव, व्यच्हार तथा भावना के प्रभाव आदि के कारण प्रेमगत वेषस्यथ का जन्म होता है । वह विविधरूय से कवि द्वारा चित्रित क्या गया है, यह तत्व इतना बढा हुभ्ना है कि इसके द्वारा शैली में भी विरोध की प्रवृत्ति श्रा गई है। यह फारसा के प्रेमगत वैषम्य के रूप में भी प्राप्त है और भक्त तथा भगवान के भेद का विषमता के रूप में भी । १०-अन-+यता अनन्यता प्रेम का मूलतत्व है। यहो इसका सत्यापक प्रमाण होता है। आानदघन की रचनाओं में इसको उच्चतम कोथि प्राप्त होतो है। यहाँ प्रेमौ जातक हूं, प्रिय धन । चातक भारतीय साहित्य में अनंत काल से अनन्य प्रेम का प्रतीक माना गया है। कवि ने उसे श्रपना सुख्य प्रतीक बता कर अ्रनन्यता का पारचत्र दिया हूँ। प्रिय अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल, विद्यपान हो चाहे प्रविद्यमान पर प्रेमी उस। से प्रेम करता रहेगा। चातक का जीवन तो प्रेम को टेक के निर्वाह करने में है। वह दिन रात घन के रस बरसाने को देखने के लिये टकटकी लगाये रहता है।* बह तो पुझार करना जानता हैँ, बादलों के हट जाने १२ भी वह क्या श्रांखें और मुख मूद लेगा ?* प्रेमी अपनी अनन््यता का भी परिचय देता हुआ कहता है कि [प्रय, तुम्र जहाँ हो प्राण वहीं है। यह जीवन तो भ्रम सा है। मेरी तो गति मति, श्ौर सुरति' सब आप ही हैं। फिर कहीं ऐवे आश्रित को भी छोड़ा जाता है १" १--वहीं १३१ + २--वही ११३५ ३--वही १२३ । ४--वही १३८ ॥। ५--वद्दी १६५ । ( शैडंड ) ११--झरांतरिकता इसकी श्रनुभूति भांतरिक है। रीतिमार्गी प्रेम की तरह बाहर इसका प्रदर्शन नहीं होता । भीतर ही भीतर हर्ष विषाद की तरंगें उठती रहती हैं । प्रेमी का मौव उसके सनोवेगों को छिप्रा लेता है। ध्यान की प्रच्चु रता भी इस आंतरिकता के कारण ही है। विरह में श्वास श्राँतरिक अग्नि से तपते रहते हैं। उद्वेग की श्रग्त से श्रंग उसीजते हैं, मसरोसों की ऊमस खे जीव ब्याकूल रहता है। संयोग में श्रभिलाषाओों के श्रतिरेक से, भावी वियोग की श्राशंका से अथवा प्रिय के रूप के लोकोत्तर होने से जो विषाद उत्पन्न होता है वह भी प्रमभावना की श्रांतरिकता के ही कारण है। श्रन्यथा रीतिकाल के अंगारी कवियों ने तो संयोग में विलासों का स्थूल वर्शान किया है जिसमें अनुभूति पक्ष लुप्त ही हो जाता है । वियोग में वंसे सभी कवि ध्यानप्रवण हो जाते हैं। बृत्ति अंतर्मखी हो जाती है। पर घधवानंद में यह प्रवृत्ति चरम सीमा तक पहुँची हुई है । अ्रनेक अंतरायों के मध्य में झा जाने से प्रिय से शरीर संबंध नहीं हो सकता पर प्रिय उसी में (शरीर में) फानस के दीपक के समान उजाला क्रिये हुए हे। लोचन पतंग के समान हृदयगत प्रिय के श्राप पास ही मडराते रहते हैं। ध्यान की सीप में प्रिय मुक्ता के समान विद्यमान है इसलिये प्राणाहंस उड़ कर नहीं जाते। ऐसी स्थिति में प्रिय को द्र केसे बताया जाय, जब कि वह हृदय के सिशसन पर ही विराजमान है? वह दृष्टि के श्रागे घृमता है। बोलता नहीं तो इसमें उसका कया वश ? प्रधी को तो यह वियोग में भी समीप हो लगता है | इनकी प्रमानुभूति की यह सबसे बढ़ी विशेषता है। यहां मौत में पुकार रहती हैं। प्रेमनुभूति से ज्ञान की अंतरिद्वियाँ जैसे बुद्धि, जीव, मत भादि की ज॑ंसी दशा होती है उनका चित्रण कवि ने भ्रधिक किया है। भाव जैसे अभिलाष, रोक, मोह, शझ्राशा, निराशा, उल्लाह, हर्ष, श्रौत्सुक्पष, मति | एवं रति भ्रादि का ही चित्रण तथा विश्लेषण अ्रधिक किया गया है। यह सब अनुभूति की श्रां)रिकता के बिना नहीं हो सकता । १--वही १७०। २--सुहि० ६४। ( ३४५ ) ( ख ) रोतिकालीन प्रेम और आनंदघन का प्रेम शृंगारिकता रीतिकाव्य की प्रधान प्रवृत्ति है।इस समय के भावचार्य सथा कवियों का प्रमुख रस प्रेमश्युगार ही हैं। पर धनानंद का प्रेम उससे विलज्षण है | रीतिनागियों का प्रेम किसी प्रक्रर का श्रतरंग साधन नहीं हैं। वह वाह्य सध्य है। इसीलिये उसमें इंद्वियतुष्टि श्रौर विलासवासना का प्राधान््य विद्यमान है। रीतिकाव्य को श्रृंगारिक कढ़ सकते हैं, प्रेम प्रधान नहीं । प्रेम की जो एकनिन्नता होती है उसका वहाँ अ्रभाव है। नायक नाथिकाश्रों की बहुविषयक श्रासक्ति के कपटपूर्ण व्यापारों से उसका साहित्य भरा पडा है। विलास की रसिकता वहाँ मिलती है। इस रमिकता में भी किसी प्रकार का गास््क्षीय या आ्रांतरिकता हो, वह भी नहीं । स्थुल शारी रिकता की प्रधुव॒ता है। प्रिय की श्रासक्ति प्रेयसी के शरीर सौंदर्य में रहती है। इसलिये वह श्रंगों के वर्णन में अनेक उपमानों का प्रयोग करता है। उसकी शोभा में उसकी श्राँखें मघु मकक््खी बनकर संलग्न हों जाती हैं। उसका प्रय भी प्रेयमी का शरीरसंयोग ही रहता है। संबोगकाल में आलिगन, छेबत सुरत, उसके श्रवसाद आ्रादि इलील-प्रश्नील शारीरिक व्यापारों का ही कवियों ने वर्णन किया है। प्रेम, की भावता-प्रधानता का यहाँ अ्रभ्ाव मिलेगा। रीतिकाल की रणिकता में तरलती विद्यमान है, तीब्ता नहीं है | श्रतः रीति- काल के प्रतिनिधि कवि बिद्वारी, मतिरामप द्याकर रसिछ ही थे, प्रेमी नहीं । कहते की श्रावश्यकता नहीं कि इतकी रसिकता या सौंदर्य भाववा भी बहिरंग ही थी अंतरंग नहीं! थं।। वह जिषयणत ही थी तिषधिगत नहीं, जिसमें भावों के विविध रूप एक के बाद दुसरे अति जाते और बनते बिगडते रहते हैं। इमोलिये रीतिकारों को रचनाओ्रों में भावों के विश्लेषण क्री प्रदुत्ति नहीं दिखाई देती । “भावना भेद स्वरूप को जाने! की प्रशसा इन लोर्गों में से किसी की नहीं की गईं । गाहस्यिकता भी इस काल के श्यूंगगर की विशेषता है। कंच्या, परोढा, अैश्या भ्रदि के प्रेम की सर्वत्र निंदा की गई हैं। उसे रस के स्थान पर रपाभास ही माना है। “प्रेमहीत त्रिय वेश्या दे शुंगाराभास |” इसीलिये १-इा० नगेद्र-रोतिकल की भूमिका और देव तथए उत् की कविता, १५ १७४ २-देव-प्रम चद्विका ( र२े४६ ) प्रियामिलन के लिये दूती, सखी आदि का प्रचुर प्रयोग किया जाता है। इससे पारिवारिक मर्यादा ह्वा भंग नहीं होता | साथ, नतनद, गुहंजन शभ्रादि का भय तथा लज्ञा श्रादि भाव सव्वत्र बने रहते है। अ्रभिसार आदि में थोड़ी बहुत उच्छु खलता दिखाई देती है। वहाँ भी दतियाँ मार्गप्रदर्शन करती हैं, नायिज को चलने के लिये प्रोत्साहित करती है। उसकी सहज लज्ञा का अनेक प्रकारों से अपनयन करती हैं। इसलिये घटनात्मक साहर्विकता का इसमें प्रभाव रहता है। इसका कारण संस्क्ृत की प्रेम-श्युंग।र-परंपरा का प्रभाव है। सस्कृत का उत्तरकालीन साहित्य श्युगारप्रधान तो हो गया था पर वर्णात्रम मर्यादाग्रों का प्रभात्र उस पर बड़ा प्रवल्ल था। उसके फलस्वरूप श्रमर्याक्ति प्रेम के वर्णन संस्कृत साहित्य में बहुत कम हैं। समभिए नहीं ही हैं। हिंदी क रीतिकाल का प्रेम उरी का विकास है। यद्यपि इस समय तक विदेशी प्रेष फाःसः साहित्य के द्वार से आ्राकर प्रविष्ट हो गया था। पर वह भावानुभूति तथा अभिव्यजवा के छोटे मोटे प.रवर्तनों के श्रतिरिक्त मल ढींचे में कोई झदल बदल नहीं कर सक्रता था। यहाँ के प्रेम # गर का रूप शुद्ध भारतीय ही रहा था। यह बताया जा बरुका है कि रीतिकाल के कवि प्रकृध्या प्रमी नहीं थे। काव्यगत प्रंम उन्हें कविपरंपरा से मिला था। उनी का वे शाञ्रों के बल पर निर्वाह करते थे। उसी से इसकी महत्ता की धोषणा करते थे। इनकी व्यक्तिगत अनुभूति इस विषय की नहीं थी। प्रेमहीनों की निंदा में इन कवियों को ही घनानंद ने लिया है। साधारणा व्यक्तियों को नहीं। क्योंकि इनकी प्रेमानुभूति में वेयक्तिकता का प्रभाव मिलता है। भाषा शेलो की दृष्टि से रीतिकाल की एक की रचना दूभरे वी रचनाश्रो से पृथक की जा सकती है। पर भाव की दृष्टि से प्राय: सब एक ही प्रकार की हो जाती हैं। कभी ये लोग नारियों के हूपसौंदर्य को प्रशंधा मे संसार वी समस्त श्रेष्ठ वस्तुश्रों को तुच्छ प्रमाणित करते है, तो कभो उनकी दा भी करते है। उनके व्यक्तिगत भाव ऋुछ नहीं प्रतीत होते । प्रेम-धत्र भी इनके प्रेम में कोई स्त्री विशेष नहीं है, साधारणा नारी है जो उपभोग्य से अ्धिरु श्रौर कुछ नहीं । देव ते भ्रपने रसविलास में इसी भाव को स्पष्टरूप से स्वीकृत किया है । “क्रम अ्ंधकारी जगत, लखे न रूप कुरूप। हाथ लिए डोलत फ़िर, का्व्नि छरी अनुप ॥| ५ अर .) ताते कामिनि एक ही, कहते सुनन को भेद । रागे पार्ग प्रम रस मेंटे मन के खेद |” 5३ ४४ दि ु इससे स्पष्ट है कि प्रेम के श्र श्रव शौर श्रालबन दोनों में व्यक्तित्व का श्रभाव था । कृत्रिमता इसमें इसलिये श्रा गई थी क्रि अनुभूति की सत्यता नहों थी ।- कवियों को कुछ अपने हृदथ का श्रनुभव जब कहने को नहीं था तो गह्म उपचारों के वर्णन से काम चलाते थे। नाग्रिका भेद, दूरी, सखी आ्रादि का आश्रयता, पुव॑ तंग, मान झ्राढि की परिस्पातियाँ, भ्रभिसार आदि में वेष भषा आ्रादि का बखेड़ा फलाना सब कृत्रमतएं है, सच पूछा जाय तो रीतिकाल के प्रेम शुंगार में इत सबके अतिरिक्त कुछु और मिलता ही नहीं प्रेमनिरूपणा की शैली में ऊड्ात्मक पद्धति से हर्षविषदद की मात्रा का साम्यादि द्वारा श्रनुमान कराया जाता है। जाड़े के दितों में भी सखियाँ गोले वस्त्र लपेट कर बिहारी को विरहिणी के पास जाती है। इससे उसके विरहसताप का अनमान किया जासकता है। सतठाप के सवय विरडिणी के हृदय में कसे ओर कया क्या भात्र उठते हैं यह विहारी क अनुभव से बाहर की बात है । रीतिकारों का प्रेम सम था। संस्कृर साहित्य की परंपरा में ग्रनुभव नष्ठ प्रेम को रसाभाप का हेतु मात्रा है। इसी परपरा का श्रनुवरण रीतिकारों ने किया था। इस लेये नायक श्रौर नायिका दोनों ही समान रूप से एक दसरे को प्रम करते हैं। मानिनी नायिका का अनुत्य वितय करने के बद यदि प्रिय निराश होकर लौट जाता है तो नायिक्रा पीछे पश्चाताप करती है। प्रेम बी विषमता में जो भाव की उच्च भूमि तथा एकारतिकता रिद्ध होती है उससे ये लोग परिचित तो +हे होगे पर श्रपती शास्त्र््यादा के भंग-भय से उन्होने उमे अपनाया नहीं | डा० नर्गेद्र ने रीति मार्गीय प्रम आगार की मुख्य विशेषताएं चार बताई हैं । १--उसका मलाघार रमिकता है प्रेम नहों। वह रसिकृता शुद्ध ऐद्रिक १--श० नगगेंद्र रीतिकाल की भूमिका तथा देव श्रौर उनकी कविता १० १७७ पर उद्धत | ( देथ८ ) अतएव उपभोग प्रधान है । उसमें पाथित्र एवं ऐद्रेक सौन्दय के श्राकर्षण की स्पष्ट स्त्रीकृति है। किसी प्रकार के श्रपाथिव अथवा श्रतीन्द्रीय सौंदर्य के रहस्य संकेत नहीं । २--इसीलिए वासना को श्रपने प्राकृतिक रूप में ग्रहण करते हुए उसी की तुष्टि को निश्छन रीति से प्रेम रूप में स्वीकार किया गण है। उसको न ग्राध्यात्मिक रूप देने का प्रयलल किया गया ने उदात्त श्रौर परिष्कृत करने का | ३--पह छूंगार उपभोग प्रधान एवं गहईस्थिक है जो एक श्रोर बाजारी इश्क या दरबारो वेश्या विलास से भिन्त है दूसरी शोर रोमानों प्रेम की साहसिकता श्रथवा आ्रादर्शादी बलिदाव भावना भी प्राय: उसमें नहीं मिलतो | ४--इसीलिए इसमें तरलता और छुटा श्रधिक है आ्ात्मा की पुकार और तीक्ता कम! | आरनंदघनजी को प्रेमभावनाश्रों में अनेक ऐसी विशेषताएं हैं जो उपयुत्तिः रीतिमार्गी विशेषताओं से भिन्न है। इस लेये प्रस्तुत कवि का मार्ग रीतिमुक्त स्थिर होता है। यह बताया जा चुका है क्रि इनका प्रेम भावात्मक है . शारीरिक नहीं । संयोग में शरीरपहवास को चेड्ाप्रों का तथा ब्योग में उसके हाव भाव या हासविलास का वर्णन कवि ने नहीं किपा। उभप्रत्र हृदय के भावों का ही विश्नेषण किया है। प्रिय के बिछुड़ने पर तथा मिलने पर प्र मा शांति का अनुभव नहीं करता । बिछुर मिले प्रीतम सांति से माने श्रियदशव की अ्र्िलाषाओों का झ सा लगा रहता है। कभी देवगति से स्वप्व का भाँति उनका मिलन भी होता है तो मनोरथों की भीड़ भर जाती है। फत्रस्वरूप मित्कर भी मिलाप तहीं होता । _कबहूं जो दई गति सौं सपनो सो लखौं तो मनोरथ भीर भरौ। समिलिहू न मिलाप मिले तनकौ उर की गति क्यों करि ब्यौरि* परे ।! प्रिय के रूप का साक्षात्कार कर लेते ये पक्षी प्रेमी प्रसन््त नहीं होता । भगवान का छंटा देख कर ज॑तसे भक्त आश्चर्य चकित होता है उसी प्रकार ल््ा्आआऑइंणिकऑणए-ए आज ड3जउ3िििि _-_-_--_---त_>ततततन्ह8]।>-- १--वही प० १७८ २-नसुहि० ७२ ( ३४६ ) प्रेमी की बुद्धि श्राश्चर्य चकित हो जाती है। मति की गति थक जाती है, कहने का सामर्थ नहीं रहता । “क्यो करि श्रनंदघत लहिये संजोग सूख लालसा नि भीजि रीकि बाते न परे कहीं |! तेत्र रूप को देखते हैं पर वर्णन घाणी को करना पड़ता है। उसे वे कंसे करें। बिना देखे रूप का वर्णन वाणी कर दे तो उसका विश्वास क्या ? नेत्र रूष के स्वाद में भीने रहते हैं, पर वे भ्रबोल हो हैं । जो क्छू निहारं नेन कैसे सो बखाने बँन। बिना देख कह तौ कहा लिन्हे प्रतीति है। रूप के सवाद भीन॑ बपुर श्रबोल फछीने विधि बधि हीने की भश्रनैसा यह रोति* है रूपदर्शन के समय बाह्य इंद्रियाँ संतुष्ट होकर हर्ष लाभ करें, इससे पृ ही हृत्य विविध भावों का उद्गम, दुख की धुँवरि उठा देता है। प्राणा उसी में घुटने लगते हैं । संय!ग काल में घन.नंद्र की श्रनुभूति रीतिमार्गी कवियों की भाँति कुंठत नहीं होती। श्रौर तीक्ष्णतर हता जाती है। उसका कारण प्रेम- भावना की भात्ात्मकता है। वियोग में श्रौर लोग शरीर-संयोग के सुखों का स्मरण करते हें । घनानंद श्रांचरिक पीड़ा की विविध श्रभिव्यक्ति करते हैं। यहाँ मौन में श्राकुल प्राण पुकारते हैं । भौतिक प्रम का आराध्यात्मिक प्रम में विकास है इनके प्रेम में श्रतींद्रिव सौंदर्य के रहस्यमय संकेत विद्यमान हैं । प्रेम का प्रारंसिक रूप शारीरिक है। रुपसौंदर्य पर इंद्रियों की रमक, विस्मय आदि के भाव अनुभूत हुए हैं। पर इसका श्रागे भावना में विकास हुआ है । प्रिय भले ही नाम मे राधाकृष्ण हों पर वे स्वभाव में “अ्रानंद के घन! तथा धसुजान' हैं। थआ्रानंद के घन! से प्रिय की श्रानंदमयता तथा ५्सुजान! से उसकी सर्वजञता की व्यंजना की गई है। बादलों की तरह ही प्रिय सर्वत्र व्यापक हूँ । ध्यान के सीप में उसे हृदय के भ्रंदर बिठा लिया जाता है तो १--त्रही २०० २---वही २०१ ( ३४५२ ) वासना का मानसिक भावता में परिणाम भी परिष्कार के ही फलस्वरूप है $ प्रतः आानंदघनजी का प्रेम रीतिकारों के अम के विपरीत उदात्त श्रौर परिष्कृत प्रतीत होता हूँ । ग्रानंदवबन का प्रेम गाहंस्थिक भी नहीं कहा जा सकता। वेश्या के साथ उसझा प्रारंभ होता है। सुजान का सौंदर्य अनाबुत है। वेश भुूषा भड़कीली है। हावभाव प्रभ्वविष्णु श्रौर मादक हैं। घनानंद का प्रम भी सामाजिक शालीनता से किफकता नहीं है। उसकी श्रभिव्यक्ति निश्छल शौर स्पष्ट है। प्र मी सुजान के परों पर श्रपता सिर घिसना चाहता है। उसकी अनखौही मुद्रा के सामने विवोत भाव से खड़ा रहना चाहता है। ऐसा करते हुए उसे सामाजिक लज्जा का श्रनुभव नहीं होता । अतः यह पारिवारिक भ्रेम नहीं कहा जा सकता । थोड़े बहुत जो खंडिता के वचन लिखे गए हैं उनमें प्रिय की बठोरस्ता, निःस्तेहता श्रादि ही बहुविषयक प्रम द्वारा व्यक्त की गई हैं। पारिवारि- कता का ग्राभास उसमे नहीं लगता। यह बताया ही जा चुशा है कि सास नतद का भय, सपत्नीदाह, परिजनों से प्रेम का छिणव, दूती या सखियों द्वारा प्रिय का बलादा या उसके पास जाना, परिजनों में घिर कर भीतर ही भीतर घुटना श्रादि यहाँ कुछ नहीं है। प्रिय मिलन में यहाँ पर या तो प्रेमी की ही भावनाएँ बाधक हैं या प्रिय का निःस्तेह रूप। पारिवारिक तथा सामाजिक मर्यादाओं का यहाँ कोई स्थान नहीं | अपने भौतिक रूप में यह निर्भोक वैशिक प्रेम है। सामाजिक निदा गहंणा को तो प्र महीनों की भूल बताकर तिरस्कार कर दिया गया है । पर इसकी अनन्यता श्रौर एकातिकता की सिद्धि के लिये कवि ने स्थिरता उच्च कोटि की प्रदरशित की है। प्र॑म का वंषम्य इसकी स्थिरता और अ्रनन्यता को श्ौर अधिक उजवल रूप में प्रस्तुत करता है। ४प्राय सुजान को देखने के लिये झौरों से अ्रनदेखो कर दी है, उसका मार्ग देखते देखते पलक थक गए हैं, उनमें पीड़ा उत्पन्त हो गई है।*“नेत्न भी मार्ग को नाप नाप कर थक गए. हैँ । हृदय में दिन रात उद्दंग की अ्रग्ति लगी रहतो है। प्रिय की आराधना की योग साधन होती रहुती है। इस दुसह दुृहेली दशा के बीच में पड़कर प्राण थक गए हैं । यद्यपि प्रेमी श्रपने जीवन से उदास हो गया है फिर भी ( ३५३ ) वह प्रिय का नाम लेकर जीवित रहा रह है। केवल प्रिय की ही श्राशा श्रौर प्रिय का ही विश्वास प्राणों में बंठा हुआ है। वे चातक की तरह श्राओे याम उसी का नाम लेते रहते है । एक आस एके बिसवाप प्रान गहै वास, भ्रोर पहचानि इन्हें रही कह सौंन है। चातक लों चाहे घनम्रानेंद तिहारी और श्राठी जाम नाम है बिसारि दोनी मौत है । स्थिरता चरम कोटि की दिखाई गई है। प्राणांत तक प्रेमी प्रेम को नहीं छोड़ना चाहता | श्रिय की निःस्नेहता, रुक्षता श्रादि उसकी भावना को चलायमान नहीं कर सकने । मश्ते समय भी प्राण सुजान का संदेश लेकर ही बाहर जाता चाहते हैं । इस तरह आआ्रान॑दवत का श्रम कोरी शरीर की स्थूल वासना ही नहीं है)। उसमें प्रादश भातवा की प्रचुरता विद्यमान है। भावात्मक होते के कारण घटनात्मक वह नहीं है। अतः: रोशनी साहसिकता के दर्शन आतनंदवन के प्रेम में नहीं हो सकते। पर उसका साधनाढुप यहाँ श्रच्छी प्रकार स्पष्ट हुमा है। इस विशेषता से भी ये रीतिमार्गी प्रेम से भिन्न प्रल्र के प्रेम के भावुक ठहरते हैं । रोतिमार्गों प्रेम में जो तरनता श्रौर छटा है उसके स्थान पर यहाँ तीव्रता और श्रात्मा को पुकार मिलेगी . हीना के दर्शन आस/|क्त के स्वरूप वर्णन में प्राप्त होते हैं। वह इननो तीब्र है कि प्रिय के दर्शनों की लालसा में प्राण श्राखों में श्रा बतते हैं। जब प्रिया का मिलन होता है तो लाखों प्रागा न््योछावर करने की अभिजापा इतनी तीब्र हो जाती है कि वह संयोग १--तरी बाट हेरत हराने श्रौर पिराने पल थाके ये बिकल नेगा ताहि नपि नपि रे । हिये में उदेग श्रागि लागि रही राति द्यौप, तोहि को भ्रराधों जोंग साथों तपि तपि रे । जीन घनानंद यो दुसह दुहैली दसा, बीच परि परि प्रान पिपे चपि चपि रे | जीये ते भई उदास तऊ हैं मिलन आस, जीवहि जिवाऊं ताम तेरो जपि जपि रे। सुहि० २६४ २-- वही २६० २५ ( ह३४५० ) संसार को देखने में वही दिखाई देता है। शआ्ाणों की बढ़ गति है। बद्धि स्मृति, नेत्र श्लौर वाणी में उसका वास है। प्रेमी की मनस्ण्त ऐसी है कि सप्तार श्राँखों से श्रोफन हो चुका है। श्रानदघन सर्वत्र छाया हुआ है। इसलिये चातक की तरह प्राण उसी की ग्रोर ताकते रहतेः हैं। प्रिय के गुण गाते गाते ब॒द्धि उसी में उलभ जाती है। जिस प्र कार कानों से उन्हें सुना है उसी प्रकार प्राणों से देखने की साध बनी रहती है। पर प्रिय श्राँखों से नहीं दिखाई देते । यद्यपि सब जगह वह छाये हुए हैं। उन्हें पाकर प्रमी खोये से हो जाते हैं। प्रमी श्राशव्य चकित होकर कहता हैं (# «हे बिसासी बालम, हम तुप्त एक दूसरे से परिचित नहीं हो पाये । एक ही बास बसे हैं फिर भी दोनों को एक दूसरे का परिचय नहीं हो पाण । इन उक्तियों में ब्रह्म की व्यापकता तथा उत्े प्रेम हारा प्राप्त करने की जीव की श्रभिलाषा का रहस्य प्रतीत होता है। प्रिय और प्रेमी के एक साथ रहने का भ्रर्थ जीव श्रौर ब्रह्म का शरीर में होने वाला एक्राश्रय सद्वास प्रतीत होता है' | प्रीतिपावस? में कवि ने व्यक्त किया है कि आनंदधन के निक्रट सदा प्रमानंद का पाग्स ही बना रहता है। वहाँ चाहों की वर्षा होती है। वह ज्यौं ज्यों बढ़ती जाती है तृषा की श्रग्नि त्यौं त्यों प्रचंड होती जाती है । 'इश्कलता' में फ रसी ढंग से भ्रनेक प्रेमपालंभ प्रकट किए है। वियोग की तीक्ष्णता आशिकाना? ढंग से अभिव्यक्त करते हुए कवि 'शोहदा” सा लगता है--- जिगर जान महबूत् अमाने की बेदरदी दैंदा है। पाक दिशदेश्नदर धेंस «बर बेनिसाफ दिल लैंदा है ।। भ्रन घन हो प्रान पपीहा निसदिन पुध न बिसारी है। नहर लहर ब्रजचंद यारदी जिद असाड़ी जारी है* |? १--वही २६५ २- भले हो रसीले भ्रसील सुनिह॒जिए व, गुन्नि तिहारे उरभपौ है मन गाय ग ये ] काननि सुनो है तंसे भ्राोखिन हूँ देखे जाते, दंखत नहीं श्रौ सब ठाँव रहे छाय छाय । ऐसे घत आानेंद प्रचभे सो परे हो भार।, स्वोएसे रहत जित तित तुम्हें पाय पाय | एक ब स॒ बसे सदा बालम बित्तासी पै न, भई क्यो चिह्नारि कहें हमैं तुम्हें हाय हाय। सुहि० ४६८५ ३े--इश्कलता १५ । ( ३४१ ) पर रचता की समाप्ति पर कवि कहता है क्रि जो श्रानंद के घन छैन की छवि ध्यान धर देखेगा बढ़ी 'इश्मलता? के श्रर्थ को समझ सक्रेग। | इसे जो चित्त देकर बाँचेग! उसे बृन्दावत के धाम-सुख की उपलब्त्रि होगी- द प्रानद के घन छेत्रकी छंवि निरखे धरि ध्यान | इश्कलता के श्र्थ को समझे चतर सुजान॥ इश्कलता ब्रजबन्द को जो बांचे दे चित्त। व दावनत सुखबाम सो. लहेँ नित्त ही चित्त*॥ इससे स्पष्ट है कि कवि के प्रेम का विषय कोई संसारी प्राणी नहों परमेश्वर है । भौतिक प्रेम के आध्यात्मिक रूपमें विकसित होने की प्रेरणा -- उपर्युक्त रहस्यत्राद वेंप्णात्र दर्शव से तो इसलिए प्रभावित लगता है कि वहु राधा और कृष्ण पर आवारित है । इसका स्वरूप पदावलों तथा वर्णावात्मक प्रबंधों में प्रकट हुआ हैं। पर दूसरी श्रोर फारसी शैली से प्रभ'वित लगता है.। जहाँ अ्रधिभुत पाथित्र श्रेम का श्रध्यात्म श्रशरर सत्ता के साथ संवंध जोड जाता है वह श्रदृश्य सदा आानदरूप है। वेदांतियों के ब्रह्म के समान जो सर्वत्र व्यापक हैं। फलत: इनका श्रांतरिक प्रेभानभूति का रहस्य भावना में विकास ह'ना जंपा स्वाभाविक्र था बंस हां हुआ है , इस विशेषता में ये रीतिमार्ग से भिन्न रीतिमुक्त धारा में आते हैं । भावात्मक होने के कारण ही प्रेम का रूप उदात्त श्रौन मतस5 है। कहीं भी » गार के 'प्रश्लील वन नहों किये गए । 'ज्स प्रक्तर की घनी आ्रास क्ते सुजान वेश्या के प्रति प्रारम्भ मे थी वंस। हा सखी भव की उपासता में श्री कृष्ण और राधा केप्रति हो गई है। वासना साधन बन गई है । भोग की लालसा भौतिक प्रेम में भी नहीं दिखाई देती। केबल दर्शनों की ग्राकांक्षा बनी रहती है। इसी प्रकार सखी भाव में युगन मूर्ति की रहः- केलियों के साक्षात्कार कर लेने तथा उनमें सहायक होने पर भी कवि का सखी रूप श्रीकृष्ण में पति भात्र का कामुक नहीं होता' | वह केवल केलिस &ंप्र और सेव” के अवसर से संतुष्ट रहता है। प्रेम की भौतिक भाजना का ज्यों का त्यों भक्ति में यह विनियोग उसके परिष्कार का ही चिह्न है। शारीरिक 8 8 या ली १--वही ७२, ४४ । 5 २--देखिए संप्रदाय के प्रकरण में सखी भाव का स्वरूपविवेचन | सुहि० २७१। ( ३१४ ) के हर की जगह विषाद उत्पस्त करती है। यह सब आआ्रासक्ति को तीबना के कारण है। प्रमानुभूति की तीव्रता कवि ने प्रेयसी और प्रियतम के संयोग- काल में भी व्यक्त की है। नीचे लिखा पद्म उसी का व्यंजक है । पोढ़े घनभ्रानेंद छुजान प्यारी परजंक, घरे धन अंक तऊ मन रंक गति है। भषन उठारि अंग अंगहि सम्हारे हाना। रुचि के बिचार सों समोय सौंबी मति है । ठोरठोर ले ले राखीं झौर श्रौरै श्रभिलाखें, बन तन श्रांखें तेई जाने दशा श्रति है। मोद मद छाके छुमैं रीकि भीजि रस भूत, गहें चाहि रहें चूमें श्रह्या कहा रति है ।”' जिन चेष्टाओं का वर्णात किया गया है उनके पीछे श्रालक्ति को तीव्रता ही प्रतीत होती है। संबोग की तरह वियोग में भी तीब्रगा श्रौर अधिक मिलती है । वेदना की माशथ्विता शोर मौत सहिष्णुता उसकी त॑ ब्रता का ही परचायक है। एक पद्म का उदाहरण पर्थाप्र होगा । इंतर हो किधों अंतर हो, हम फारि फिरों के ग्रभागिन भीरों | श्रागि जरों, श्रक्ति पानी परों अरब कैसी करौं हिय का विधि धीरों |. जो घनआनेंद ऐसी रुची तौ कहा बस है ब्ड़ो प्राननि पसैं। पाऊ' कहाँ हरि हाथ तुम्हे धरती मैं धसों कि अ्क्राम है चीरो' || इनको कविता व्यथाप्रधाद है। व्यथा का स्वरूप आ्रातरिक है, यह भाव- प्रकरण में प्रतिगंदत किया गयः है। प्रेमी की ऐसी प रस्थि'ते प्रतीत होती है डिससे छहु निकल नहीं सक्ता। उपमें 'फ़िसी प्रकार का सुव भो नहीं पा सकता । एक प्रक'र क॑ बेवसो में बह फँसा हुआ हष्टिगा होता है।- इसी बेब्रसी में उसकी अंतश्चेतना व्यथित होक" जो आत्मा भव्यक्ति करती है वही आनंदघन का काव्य है। कवि ने स्त्रयं यह ल्थ्थ स्पष्ट किय है क्रि-- 'सुजान के तीक्ष्ण कटाक्षवराणों से प्राण जत्र श्राहत हते हैं श्रौर इसी आधात से उतकी प्यास बढ़ने लण्ती है तो काव्यानुभू ते बादलों की तरह हृदय पर छा जाती है। जिसते प्राणों को शांति मिलती है। यह भावत्रों को अ«-नतनान कामोकवानकम फेम... मन १ सुद्ठि ध् २--सु हि ४१ ( ३१५५ ) चनावली सुत्रान की श्रोर से ही श्राती है। इप तरह और लोग तो लग कर कवित्त बनाते हैं पर घवानंद को उनके कवित्त ही बनाते हैं! ।” श्राइत प्राणों की पुकार ही इसकी काव्यवाणी का रूप धारण करके आई है। इनझरे प्रेम में दिगंवव्यापी कुररी का ऋंदन है। इनका श्रनुराग कश्णोन्प्ुश्ची है। वह उस समर्थ श्रसमर्थ का ज्षोभ है जिएके श्रधिकार में न प्रेम है न प्रिय और से श्रयना शरीर । यह प्रेम मानव हृदय की वह व्यवा है जिपमें प्राण मोंदर्य की सत्यता की कभी न भ्रुताई जानेवाली एक भनक भर मिन जाती है। विरही का यह अनुराग ऐस। विलक्षण है कि विरह में तो प्रिय की प्रतीक्षा में रोम रोम सजग रहता है पर प्रिय्र के भ्रते ही उपके स्वर आ्राँवों की तरलता में काँपने लगते हैं; तन में पुत्रक-प्रस्वेद बन कर बहने लगते हैं । जो नेत्र पहले घन श्रानंद प्रिश्र के दर्शनों के रस से शोतल होते थे वे एक दिन दू:खज।ल में जलने लगे । जो प्रिय के साथ तुद्ठ पुष्ट होकर रहे थे वे प्रव 'एकाकी होकर मरते लगे । प्रिग्र की प्रीति जो थातो की तरह छाती पर विराजमान थी उसी का ध्यान कर कर विरही के नेन्न ब्राॉँमु बरसाने लगे। सत्र कवि की अंतश्चेतता से ऐसे स्त्रर निकलते लगे जो सचध्रुब व्यथित प्राणों की पुकार है । हारे उपाय कहा करों हाय भरों किहि भात मत्नोस यौं मारौ। रोवनि श्राँसु न नैनति देखें रु मौन मैं व्याकुल प्र पुकारौ ॥! उपर्युक्त विशेत्ताग्रो से युक्त प्रेम रीतिकारों या रीति के शअनुवायिर्यों द्वारा वणित प्रेम से भिन्न है। वह अत्ती श्रादर्श श्रतन्यगा, स्थिरता, भाव'- त्मकता, श्रनुभू तिमयता, स्तच्छंइता, श्रादि गुशों के कारण स्वच्छंद कहा जाने योन्प है, श स्त्र'य नहीं | निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि डा० नगगेंद्रने 'रीति कालीन प्रेम में जो विशेषताएँ बताई हैं बे इनके प्रेम में नहीं हैं। इनका मार्ग उनसे पृश्रक् अपना ही है। १--सुद्दधि २२५ । २-- वही ४३७ । है आठवाँ परिच्छेद भक्ति रस १--आश्रावश्यकता भगवत्याप्ति संसारिक प्राणियों के लिये श्रमिलषणीय इसलिये है कि वे 'संसार के दुखसंतापों से संतप्त होकर आनंदछाया में विश्वाम चाहते हैं। श्रानंद इंद्रय और बिषयों के संपर्क से संसार में भी मिलता है पर वह छरिक झौर दुखपर्यवस्तयी है ।! इसलिए मह॒षि पत॑जलि ने विवेकी के लिये संसार के समस्त भोगों को दुख बताया है।* पूर्णा सुख श्रर्थात् श्रान॑द परमेश्वर का रूप है। इसी को प्राप्तकर प्राशी यथार्थत: श्रानंदी हो सकता है। स्वंसारिक झ्रानंद उसी समुद्र की एक बिंदु है', जो धूलि में पड़कर मलिन भी हो गई है । फलत: सांसारिकों को परम काम्य, परमपदार्थ भगवत्सानिध्य ठहरता है । उसे प्राप्त करने के अ्रधिकारिभेद से दो मार्ग हैं ।- प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्त मार्ग | प्रवृत्ति मार्ग का श्र्थ है शरीर की स्वाभाविक प्रवृत्तियों द्वारा पर मेश्वर को प्राप्त करना । उनका नाश या अ्रभिभव न करता, उन्हीं को विषयों से हटाकर परमेश्वर में स्थानांतरण करना | इसमें कर्म श्ौर भक्ति मार्ग दो श्राते है। निवृत्ति मार्ग में ईश्वर प्र तकुल वृत्तियों की निवृत्ति कर विवेक द्वारा श्रनात्म को त्यागते हुए श्रात्मसाक्षात्कार किया जाता है। ध्स माग के ऋषि की प्रार्थना है :--“अरुतो मासद्गमय तमसमाज्योतिर्गमय भृत्योर्मा उतंगमय |! योग मार्ग और ज्ञान मार्ग इसके श्लेद हैं। योग में चित्त वृत्तियों- वा विषयों से विरोध कर ईशदर में संगमन किया जाता है भ्रौर ज्ञान में श्रात्म अनात्म वा भेद | कर्म का अ्रथ होता है ईश्वर साधक कर्म यागानृष्ठानाद । ये तारों मार्ग ( ज्ञान, कर्म तथा योग ) कंटित भी हैं श्रौर सफलता के. १--येहि रुस्पशंजाभोग दुःखयोनय एवते । आइन्त्वन्त: कन््तेय न तेषु रमते बुध: | गीता । २- प॒न्शिमतापसंस्का रदुखैगु एव त्तिविरोधाच्च सवंभेव दु:खं ववेकिनः । योगसूत्र ८ ३-- भा नंद ब्रह्मणो [वद्धा न् । तस्मैवानंदस्पमात्राप्ुपजी वंति । योगदर्शन १२ ॥ ( ३५७ ) ग्रभमेश्वित साधत भी। नियमों से निराश होकर कर्मत्राद की कठोरता से घबड़ा कर परोक्ष ज्ञान श्रौर परोक्षु शक्त मात्र मे पूरा पड़ता न देव कर ही तो मनुष्य परोक्ष हृदय की खोज में लगा और अंत में भक्ति मार्ग में जाकर इस परोक्ष हृदय को उसते पाया ।* २--स्वरूप॑ भक्ति प्रवृत्ति मार्ग का श्रेष्ठ साधा है। सत् और असत् सभी दृत्तियों का इस में सदुान््रोग होता है। ईश्वर के संपक्त से वे सब श्रेयस्त्र बत जाती हैं। भागवतकार का वचन है कि काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐव्य, सौहाद श्रादि कोई भी भाव भगवान में किय। जाय तो भक्त भगव्ानमय हो जाता है। इसलिए सब्लगाचार्य जी ते अपनी “चतु: शतोकी! में भक्तों का यही कम निश्चित किया है कि श्री कृष्णा को सर्वभावेतर भजगा चाहिए ।* यह सहजता ही भव्त मार्ग की बढ़ी जिशेषवां है। चूँक्ते भक्ति फा स्रोत प्रवृत्ति है इसलिए प्रवृुस्ि की प्रगाढ़ता भवित मार्ग का उत्कर्षाधायक्र गुणा माना जाता है। आम क्त से यव ले प्रमाढ़ बनती है। इसलिए जितनी भगवान में आगबित शधिक होगो उतनी ही भक्त श्रेष्ठ होगी। दास्य भाव से मधुर भाव की प्रगाढ़ता है। कार्मिह नारि पियारि जिमि लोषशििडि प्रिय जिम दाम । तुलसीदास जो के इस पद्म में आपकित या अनु रक्त ही व्यंग्य है। भक्ति के सब लहक्षुों में भ्रासक्त का सवरावेश है। जो ग्राप्त केत निवृत्ति मार्ग में दोष हे वी भक्ति मार्ग का एण है। विष शेब' जाते पर जंते जीवनद पिती अपम्ृतोतम श्रौयध बन जाया है उतनी प्रशर ज्ञोवन क्रे दोष भगवान के संयर्क से श्रमुत बन जाते हैं । ३ लक्षण १--भक्तराज शांहिल्य ने शअ्रयते पुत्रों ते ईश्वर में प्रगाढ़ मतु राकेत को १--रामचनद्र शुक्ल तिवेशी पृ० १३३ २--काम क्रोध भय॑ स्नेहमेक्य सौडदमेत्रच्त । नित्य हुरों विदधतों यान्ति तन््मप्रतां हि ते । भागवत १०:२९:५४५ ३--सर्वद[सवंभावेन भजनीयो ब्रत्ाधिप:। स्वस्यायमेत्र धर्मों हि नान््य: वत्रापि कदाचन । चतु:श्लोकी श्लोक १ ४--'सापरानुर क्ति री वरे 'शांडिल्य भक्त सूत्र, १ मसूत्र' । ( ३४८ ) भक्ति कहा है। २-- नारद ने 'परमेश्वर में परम प्रेम” को भक्ति माना है! ह नारद के मत से कोरा प्रम भक्ति नहीं। म/हात्म्य ज्ञान श्रपेन्षित है। कोरा/ प्रम जार प्रम सा है २--भागवतकार का भक्ति का लक्षण हैं कि 'सांसारिक विषयों का ज्ञान देनेवाली ईं द्रणें की सताभाविक प्रवृत्ति निष्कामरूप से भगवान में जब लगती है तो उमे भक्ति करते हैं ।* ४--बल्लभाचायजी का मत नारदात्स री है। भगवान् के माहात्म्य का ज्ञान रखते हुए प्वर्म सब से अधिक हढ़ से ह करना भक्त है +* #-- पंडित भक्त श्री रूप गोस्वामी ने अपने भक्तिस्सामृतसिधु में भक्त का यह ह छण कया है कि 'श्री कृष्ण का अध्कुलरूप मे प्रनुशीलत, जिसमें श्रन्य किसी प्रकार की अभिलाषा न हो और ज्ञान कर्मादे का उसपर श्रावण हो तो भक्ति कहलाती है । यह 5गाढ़ आनंद स्वरूप होती है। इसके बल से भगवान स्वयें भवत वी ओर आावृष्ठ होते है। यह क्लेशों को नष्ठ करनेवाली एवं सूख सृष्टि का हेतु है। इसके समक्ष मोक्ष भी लघु है। इसके श्रानंद का सहिमा का व्य.ख्याव करते हुए श्री रूप गोस्वामी लिखते हैं |क ब्रह्मानंद को या करोड़ोबार गुरित किया जाए तब भी वह भक्त के भ्र,नंदस्तागर को विद के समान नही होता ।४ १--स त्वस्मिनु परमप्रमरूपा' न/रद भक्ति सूत्र २ य सूत्र | २--तंत्रापि न माहात्म्यज्ञान बिस्मुत्यपवाद; हद्विईद नं जाराणामिव । तारद भक्त सुत्र २२, २३। ““देवारा गुण लिगानामानुश्नविक कम्म॑ णाम सत्व एबंक मतसो वृत्ति: स्वाभारिकी तुथा श्रनामत्ता भागव्ती भकि: निद्ध गरंयसी । भागवत ३, २५, ३२-३३ ४--माह त्म्य ज्ञानपुबस्तु सुहढ: सवताइधक स्तेहों भक्ति रिति प्रोक््तस्तयाम्ुक्तिन चान्यथा | तत्वर्द प् निबंध शाज्त्रार्थ प्रकरण, इलाक ७६ पू--अ्रन्य।भिलाषिता शन्यं ज्ञान कःद्िनावृत्तम | आारकृयेत वृष्णानशीलन भ क्त रुत्तमा । (हरि भक्ति रसानत सि,धु पूर्व विभाग लहरी १ श्लोक ११) ६--अह्यानंदो ४वेदेषचेत्पराधगुणी करत: | नेति भक्त तलाम्योदे: परम'शणुत्ुलामपि | वही पृर्वभाग लहरी १ श्लोक २० ( ३४६ ) सारांश में यह कहा जा सकता है कि भक्ति में अनुरविन को तो श्रत्य॑ंत्त ग्रावश्यक््ता है| परमेश्वर की प्रभ्ुवा की भावना इसमें होती भी है और नहीं भी होती ' यह श्रावश्यक तत्व नहीं । प्रतीत होता है कि प्रारंभ से ही भक्ति- भार्गी लोगों में दो प्रकार के विचार बिद्यग्रान थे। एक समाजमर्यादा को सुरक्षिन रखते हुए पर्मेश्वर को पूज्य बुद्ध से मजते थे । दसरे प्रेम को ही ईश्वरप्रोप्ति का एक मात्र साधन मानते हुए उसपर समाज, शास्त्र ग्रादि का बंधत न्णैौछ वर करते थे . दोरों विकसित स्वरूप में व्यवस्थित हो कर 'बंधी' झऔर हागानुगा! भक्ति बने । बत्लभाच ये यो मा ह्वाह् ज्ञान के पन्षञपातदी थे। पर उन्हीं के संप्रदाय के कुछ लोगों ने ब्सके झावश्यक नह, मादा . श्री हरिततय जी ने महात्म् ज्ञान की व्य,ख्या करते हुए कहा है-- सो ठाकुर जी भक्त के ल्वेत्वश होगे नज्त के पीछे पीछे बे लत हैं। सो जहाँ ताई ऐसो स्वेहू नहीं दोग तहाँ ताई गहास्म्य रखर।*'ताों महात्म्य विचारे और अपराध माँ ब्यें नो कृपा होय | जब सर्वोगरि स्नेह होगगो तब झापरी ते स्वेह ऐसी पदार्थ जा महार्मप कूँ छुझय देवगों। चंतन्य संपदाब के अ्नुवायियों में भो महातूय का आदर नही है [| केव ३. प्रेम की महत्ता मानी गई है। चंतन्य चरित.बृत्र में लिखा है कि संमार की तो यह रति है कि वह प्रज्चुता के ज्ञान के गथ मेरा भजन करता है । पर ऐश्वर्य के कारण प्रेम शिशथिल हो जाता है। इसजिये यह मेरा सच्चा प्रेम नहीं । जो मुझे ईशर ओर अपने को होते मात हैं, मैं उनके आबीन नहों होता | मुफ्ते पत्र, सा या पति मान कर जो भजते है वे ही शद्ध रति करते हैँ। जो माताएं मेर प्रति पुत्र भाव रख कर मुके छोटा माव कर लालन प लग॒ करती हैं; जो सच्चा सुख रखते हुए तुम हमसे क्या बड़े हु! ऐसा माचकर जो मरे कंबों पर चढ़ते हैं, तथा प्रिय भात रख कर जा मान समय में मेरी भत्सना करती हँ--वे मेरे परम भक्त हैं। बेदस्तु तेथों से भा श्रधक ने मुझे प्रिय लगती हैं ।* श्रनुरक्ति की हृष्ट से दास्य से सख्य, सख्य से वात्॒ल्य और १--श्रष्ट छाप वार्ता, कांकरोली पृ० १८ 'अष्टछाप आर बल्लभ संप्रराय पृु० ५१० से उदघूत । २--प्रभुश ज्ञान मिल्गे भर्ज सब जग की यह रीति, सिथिल प्रेम ऐक्य करे तासी नहीं मम प्रीति । महि को ईश्वर मात्र के आापुन मानत हीव, हल ( ३६० ) वात्सल्य से माधुय्य उत्तरोत्तर श्रेष्ठ भाव माने जाते हैं। राधा में महाभाव को भावना का रहस्य अनुररक्ति का प्रावल्य है | ४-भक्ति की प्ररक भावनाएँ पीछे बतलाया जा चुका है कि भाणवान के प्रति संत प्रकार के भाव रखे जा सकते हैं। उनप्रें निष्ठा श्ौर रति शअ्रावश्पक हैं। बसे भक्ति के सात्विक क्षेत्र ऐं तमोगुण की संभावता नहीं रहती फिर भी यदि कामादि इतने प्रबल हों कि वे वश में ने झा सके तो उन्हें भी भगवान की श्रीर केंद्रित करता चाहिवे ) फलस्वरूप सपस्तर भावों का आलबर जब भगवान बन जाता है तो उसकी अनुभ्ति होते लगती है “४ अंत मे कामादि दुर्भावों द। भगवत्सपर्क से परिष्णार हो जाता है और वे भक्ति भाव में परिणत हो जाते हैं ।.भागवत में श्री कृष्ण का वचन है कि मेरे ४ बृद्धि समपित करते बाहों की काम वास- नाएँ फिर कामाद्वीपन नहीं करतो जंसे श्रज या उदले घबान फिर बीज नहीं बतते । इस लिए श्राचायों हे भक्ति के क्रोड में दुर्नाबों का भ्रहणा कंस्ते हुए भो उन्हें मूल भावों में वहीं लिया है। मूल भाव पाँच हें, रति दास्थादि । यह पाँचों रति के श्रालवन और आश्रय के भेद से भिन्न हुए झप हैं। मूल में कबहूँ ताके प्रम वश होंगे होहु आधीन । कृष्ण तनय मम सखा सम मेरे पति है प्रात कर॑ सुद्धरति कोइ जो इह्ि विधि मोकों जान | आपुन को बड़ मानई मोकों सम श्ररुहीन, मन बच क्रम करि होते हूँ में ताके आधीन | पुत्र भाव कर मात मम बंधन करे प्रवीन, लालन पालन करति वित जानि मोहि अतिदीन। सुद्ध सख्य करि सखा मम कॉाँधे चढ़े सुजान, कोन बड़े तुप लोक हो हम तुम एक समान । सान सम जब प्रिया मन भर्त्सन करे निदान, वेद स्तुत ते अधिक हो सु मन श्ररु प्राह्। च० च्० व्रजभाषा---चतुर्थ परिच्छेंद १, अभ्यास योग युक्तेन चेतसानान्यगामिता । परम॑ पुरुष दिव्यं याति: पाधुन चितयन् । गीता ८, ८ २. नमय्यावेशितधियां काम: कामायइल्पते । भजिता कथिता धाना- प्रायो वीजाग्नेष्यते । भगवत १०, २२, २६ ( ३६१ ) श्ति ही एक मात्र भक्ति का प्रेरक भाव है। श्रयतरी अ्पती प्रकृति के अनुसार (निम्नलिखित पाँच प्रकार से परमेश्वर में प्रेम प्रकट किया जाता है। १ दास्य--परमेश्बर मेरा पिता है; माता है, स्वामी है झ्ौर मैं उसका आज्ञाकारी पुत्र अथवा दात हूं । इसका नाम दास्य प्रीति या दास्य भक्ति है । २ सख्य--परमेश्वर मेरे संख दुश्र, हप॑ शोक में मेशा साथी है, वह मेरा मित्र है, वन्धु है, उनके अ्रतिरिक्त और कोई मेरा हितू या सखा नहीं । इसे सख्य प्रीति या सख्य भक्ति कहते हैं । ३ वात्सल्य--परसेश्वर बालक है, पुत्र है और मैं उम्तका पालत करने वाली माता या धाय हूँ, मैं उपका यिता हूँ। यह भाव व त्ल्यप्रीत या बात्सल्य भक्ति है। ४ माधुय--परमेश्वर पति है। मैं उसको पएनों हैं । क्षयवा परमेश्वर प्रिय है और में उका प्रेमी हूँ या परमःत्मा प्रेमी है और मैं उसकी प्रिया । यह शुगार प्रेम अ्वता माप्तुप भाकि हे तक ५ शांति रति -परमेश्यर व्यापक है, सबंनियंतः है,शुद्ध है, सब्चिदान॑द- स््ररूप हे। वह शांवदांव और शुचि है, इम उसके अंश हैं। उससे प्रेम करने पर सात्विक आनंद मिलेगा | यह शांत रति अ्रथत्रा शांत भक्ति है । इत पाँच प्रकार के भावों से उतन्न हुई भक्ति घुझभष होंठी है क्योंकि प्रमेश्वर इन सभी भावों का साधा प्रालंब्रत रहता है और रति सभी में विद्यमान रहती है । उपयृ क्त ये भाव भक्ति के अनुकूल हैं। साहित्य के झ्राचार्यों ने जो शअनु- कूल प्रतिकुल दोनों प्रक्रार के भात्रों का विश्लेषण किय्रा है उन्हें भक्त आचायों ने भी बाद में भक्ति के क्रोद में समेटने का प्रयत्त किया है। साहित्य के नौ सरसों में से श्यृंगार तो दास्यादि चार भावों में तथा शांत शांता भक्ति में अंतर्भूत हो जाते है । झंगार का स्थायो भाव रति है। सख्य, वत्सल्य श्रादि में रति के ही विभिन्न रूप हैं, यह बताया जा चुरा है। शेष रह जाते हैं हास्यादि सात रस। इनके विषय में भक्ति सिद्धांत में निर्णात है कि हास्यादि के हासादि सातों स्थायी भाव भगवदुन्धु ख होंगे तो रति ही उत्पन््त करेंगे । बलि श्रौर रावण ने मरते समय भगवान राम में श्रद्धा ही प्रकट की ( ३६२ ) थी बेर नहीं | कुछ काल के लिये इनका आ्राधघार पृथक होता है। बाद में भगवद्दिषयक रति में ही इनका उपकारकत्वेत विलयन हो जाता है! । चूंकि यह परंपरा से भगवन प्रेम में परिणित होते हैं श्रत: इनसे उदयूत् भक्ति को भी गौण भक्त महा जाता है । घनानंद की दात छटा इसका उतठतय उदाहरण है। गोपों के साथ श्रीः कृष्ण एक ओर से और गोपियों के साथ राधा दूसरी श्रोर से आते हैं। दोनों दलों में परस्पर कलह होता है । 5 गोपी 'छेल नए नित रोकत गैल सु फैलत कापे श्ररैल भए हो । ले लुक्टो हँस नेंत नचातत चेतन रचावत मेंत लए हौ॥ लाज अ्ंच बिन कांज लगौ लिनही सों १पगौ जिन रंगे रए हो । ऐंढ रब निरुसेंगी अब घत श्र गेंद आन कहां उनए हो।॥ न. न हा श्री क्ृ-ण हैं उनए यु नए न कह्ठू उघर्ट कित ऐंड श्रमैंड अयाती । बेत बड़े बड़े नेतन के बल बोलति हैं क्यों इती इतरारी ॥ दान किए बिन जान न पाइहै भ्राइ है जो चलि खोरि बिराती | आागें अछूती गई सो गई घन श्रा्नेंद श्राज भई मनमानी ।।' श्प हज 2 इये प्र्मष का प्रवसान इस प्रकार हुआ । आवो सखी चलि कुंज मैं बठि लखें धन आनंद की सुषराई । पठन दहि न एक सब अकिले इन्हें छेकि करें मत भाई॥ भावती टैंक रही बहु भांधि किये न बने श्रति ही कठिताई । लेत हो राधे बलाय कह्यी करि श्राज मतौ इतनी हम पाई ।॥! ््ः न सु भ्रौर फिर 'रंग रह्यौ सुन जात कह्मौँ उम्द्यौ सुखसागर कुंत्र में श्राए । फेलि परदचो रस को भझागरोौ प्रति हूँ अगरो निबटे न चुकाए ।। ९. कचित्ालम् क्वचिद्मीके हासाथाः: स्थायिताममी । रत्वाचाइताबाति तललीलावनुमारत: | तस्मादनियता धारा सप्त सामयिका इस्ते । सहजा अपिली यन््ते वलिष्ठेत तिरस्कृता । ६० र० दक्षिण विश्ााग प्रेमलह्री श्जोक ३५-३६। ( शे६३ ) काहु संभार रही न भट्ट तन कौ तन मैं घनअानेंद छाए। प्रेम पगो श्फिग रव की तह रीक के रीक हो लेत बल ए॥ >< 2« रा यहाँ पहले दूमरे पद्मों में क्रोव और तीसरे चौथे पद्मों में स्नेहु प्रतीत होता है । फलत: क्रोव रति का उपक रह मात्र है स्वतंत्र नहीं । इस प्रकार मानवीय समस्त भावों का भक्ति में प्रंतर्भाव हो जाता है। वे चाड़े भक्ति के शनुकुल हों चाहे प्रतिकूल । प. भक्ति के भेद १. श्नेक प्रकार से भक्ति के भेद +एजा सकते है। साधना की हष्ले से भागवतकार ने नगधा भक्त का उउदेश दिया है। व व्थिएं शे हैं-- ( १) अ्वण ( २ ) 5 तन ( ३ ) स्मस्ण ( ४ ) शान सेवन्स (५ ) (६ ) बंदनत ( ७ ) दास्य (७ )रूझूर ओर ( € ) आत्म न्विदत । इस विभाजन में भडित का ही त वें उपये उपकारी अंशों का भो सं उवेश कर लिया गया है। जैने श्रव्ण, “तन झोर स्मग्ण भक्तियी साथका क्रियए हैं। भक्ति स्वयं एक भाव स्थति है जो प्रतिम त॑ त 6 रुए, रूस्य और श्रात्मनदेदन से व्यक्त की गई है। पादसेनन अचत अर बदत उपास्य के रूपस संबद्ध हैं। नंददास जी ने इस नो भेदों वो दो भागों में विभक्नत किया है। नाद मार्ग और रस मार्ग। श्रत॒णादि पहले तीव नद द्वारा भगवदुपासना के व्यापार है और पांद सेबनादि तीन रूप सेवन द्वारा । शेष तीन भाव हैं। इनके श्रतिरक््त वाह लय थ्रादि और भी भात्र हैँ जो पहले कहे ज। चुफ है .। २ क.धकारी की हृष्टेसे सात्विकी, राजसी, तामयी तथा निग्ुश चार प्रकार की भक्ति हॉतो हैं। जो भक्त पर्पो के नाश के लिये अ्रपने पंप पुरय सब भगवद पित कर देता है और ग्रनन्य भाव से ईशबर में श्रा"क्त रखता है वह सात्विक भक्त है। राजसी भक्ति लौश्कि विषए, यश ऐंश्वर्य श्रादि पर हृष्ट रव कर क्री जाती है। तामती मे हिसा दंभ, क्रोधाद के वशीभृत होकर इच्छापूरत्यर्थ भगवदुपासना होती है। निर्गुंग सत्से श्रेष्ठ है। इसमें परमेश्वर को सबमें सम भाव से व्याप्त जानते हुए अपने कर्म परमेश्वर को समर्पित किए जाते हैं श्रौर निष्काम श्रासक्ति रहती है ।' अनशशनाकबन यल >अफीनन-मकल, आ+-३०७० किरनकी-अकमननममका+ कम» ०3+ “+कतननक १->देखिए अ्रष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय पृ० ५९३ । २--भागवत ३॥।२६ ७।१४ 3) ३ प्रेसशाओं के भेद से गीता में चार प्रकार के भक्त बताए गए हैं। उनकी भक्ति भी चार प्रकार की होनी चाहिए | श्रा्तं, जिज्ञासु, श्र्थार्थी, और जानी |! वास्तव में ऊार बताएं चार भेदों के श्रधिकारियों के नाम इसमें लिए गए हैं। भेद का विनिगमक सत्व, रजस् , तमस् तथा विवेक ही है श्रार्त तामस भक्ति है। जिज्ञासु सात्विक, श्र्थार्थी राजस और ज्ञानी निर्गण । ४ ज्ञानों भक्त श्री रूपगोस्वामी ने साधना द्वारा होनेवाले विकास की दृष्ट से भाक्त के मंद भक्ति रसामृतसिधु'में विस्तार श्रौर शाक्ीय व्यवस्था के साथ जिए हैं| सुख्यत: इसके तीन भेद हैं--- ( १) स धन रूपा ( २ ) भावरूपा ( ३ ) प्रेमरूपा साधनरूपा साधनरूपा वह प्राथम्रिक भक्ति दशा है, जब भक्त का परसेश्वर में पूर्ण राग नहीं होता पर अ्रच॑नादि कर्मो से उसे प्र'प्त करते के लिग्रे प्रयत्न कए जाते हैं । इपका साध्य होती है भारत्पा भक्ति ।* इण्के दो भेद मात गए है कौर वँधी और रागानुगा । जब प:मेश्बर में स्शत: राग नहीं होता ब्रौर शाख्रों के जानने सेशजित किया जाता है बढ़ वंधीमतक्ति है।* जिस प्रकार महा र,ज परी ज्षित को शुकोपदेश से हुई थी । जीवगोस्वामी जी ने “हरिभक्ति स्मामृत िधु! की इस स्थन्न को टीका में लिखा है कि वंधी भक्ति में शा्ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान रहता है। वर्शाश्रम धर्म के आचा” व्यवहार, पूजा-विधानों की तत्परता, शा्लों की भ्रनुवर्तिता श्रांद गुण इससमें प्रमुख बने रहने हैं। शने: शने: ये बाह्याचार त्ञीगा हो जाते हैं, भ्रम प्रबल हो जाता है| एक स्थिति ऐसी श्राती है कि शास्त्रीय विधायों को परवेक्ष । नहीं रहती | प्रेध ही सर्वम्व हो जाता है ! वह रागा नुगा भक्त होती है। यह वँधों का विकास भो है और स्रतः उदभून भी | भगवत्कृपा हां तो बिना देधः के रागानुगा का उदय हो ज ता हैं | '(ककानता- १--चतुविय्ा भजन्ते मां जग: सुक्ृतिनोजु न आर्तों जिजासुरर्थार्वी ज्ञानी च भरतर्षभ | गीता० ७।१६। २--$तिसाध्या भवेत् साध्यभांवासाजनामिधा । है? र० पूर्व विभाग २ लहरी श्लोक ३--थत्र रागउवाप्तत्वात् प्रवृत्तिहप जायते, शासते नैव शाक्स्थ शत भक्त ठच्यते' । 3, रागानुर्गा भक्ति में भक्त के बिना कसी बाह्य प्रयत्न के स्वाभाविक रूप से भागवान के प्रति प्रेममयी, उत्कदः तथा तन्प्रय कर देने- वालो तृष्णा उत्पन्त' हो जाती है। यह तृष्णा कभी कामप्रेरित होती है कंभी दुसरे संबंधों से। फलत: रागानुगा के ,भी दो भेद हो जाते हैं-- कामरूपा श्रौर सबंधरूपा । पहली जैसे ब्रज वनिताग्नों की, दमरी जेसे शिशुपाल भ्रादि की [| इसमें शास्त्र, समाज, त्था परिवार की मर्यादापत्रों का सर्वथा परित्याग हवा है । भावरूपा उपर्युक्त द्विविध साधना भक्ति द्वारा भावधहपा भक्ति प्राप्त की जाती है। उसका रुक्षण इस प्रकार किया गया है। परमेश्वर की छ्ाहिनी, संधिनी झऔर सवित नाम को जो तीन शक्तियाँ है उनमें से पहुली का जाँवों में प्रमरूव से प्रबट होनेवाला श्रश 'शद्धसत्वा कहलाता है। वही भाव है। श्र्थात् वह ईश्वर का हू श्रश है। उससे हृदय में श्रनेक अ्रभित्षषों का उदय होते लगता है, तो वह श्रार्द्र और द्ररीभूत हो जाता है। भाव से श्रसि- लाषों की किरणों सूर्य से सुर्य कि णों के समान फूंटता हैं जो समस्त वृत्तियों को अपने रंग भें रग लेती है।* दार्शनिक विश्लेषण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि रति इच्छा है जो मलतः अ्रत्माया परमात्मा का ही अंश है। वह हैं तो स्वयं प्रकाश पर भक्तों को मनोवृ त्त में प्रकट होकर उसी का ( मनोंवृत्ति का ) रूप धारण कर लेती है। और ऐसा लगता है मातों साध [तरों से प्रकट हुआ हो । यह दो प्रक'र से उत्पन्न होती है। साधनों द्वारा जिसमें वैधी आदि पूर्वोक््त भेद श्राते हैं और श्र कृष्ण या उनके भक्तों की द्वपा द्वारा । साधनों का अ्र/भनिवेश भगवान में पहले रूचि फिर ग्राग्क्ति श्रौर तदततर रतिभाव को उत्पत्त कता है। रूप गोस्व'मीजी वी ए्थिर धारणा है कि रति भाव का ही मूल रूप है। श्रत: इससे भाव का ही प्रकाश हो सकता है, प्रेम का नो प्रेम भाव से श्रागे की विकाप्त १-- इष्टे स्ववरसिकी राग: पर माविष्ठताभवेत्, ट्न्मर्य याभवेद्ऋ क्ति: सातव- रागात्मिको दिता । (वह्ों पृव विभाग लहरी २ श्लोक ६२ ) २--शुद्ध सत्य विश्वेषात्मा प्रेम सुयाशु साम्यमाक रुचिभिश्चित्तमासूएण्कृदसी भाव उच्चते। वहां पूर्व बिभाव लहरी ३ श्लेक २ ३-० शभ्राविभूय मनोवृत्ती ब्रजन्ती तत्स्वरूपताम् स््रय, प्रकाशहूपाद भासमाना प्रराश्यवत् । वही पु० वि० लहरी ३ श्लोक २ ४--रत्यातु भव एवातन्र नतु प्रेमाभिधीयते । बही श्लोक ७ ( ३६६ ) ब्षा में भ्राता है। टीकाकार जीव गोस्वामी भी इस विद्धांत से पहमत नहीं । वे भाव शहर प्रेम को एक ही मानते हैं। उनके मत से भक्ति के भी साधन भोर साध्य दो ही भेद होते हैं तीन नहीं । भक्ति का स्थायी भाव रति है। जो रुच के अतूसार पाँव प्रकार की होती है--शारति, प्रीति, सख्य, वात्पल्य, और माधुर्थ । इनमे पाँच प्रकार को भक्ति निष्पन्न होती है । शांत, दास्य, सख्त वात्वल्य और मधुरा । इनके स्वह्पों का निर्देश पहले किया जा च्रुछा है । भव के उदय हो जाने पर भक्त की जो भाव दशा होती है बह निम्तांकित नी चित्नों से जानी जाती है, १. शांति-प्रर्थात् क्षो्र कारणों के उपस्थित होने पर भी चित न हीना । - २. वेराग्य--प्र्थात् इंद्रियों की अपने विषयों सें रुचि न रहना | ३, समय का व्यर्थ न खोना --भ्र्थात् अधिक से अधिक समय भक्त में ही लगाना । ४, मानशून्यता--बर्थात् स््रय॑ उत्कृष्ट होकर भी मान ते काना | ४, आशाबध--प्रर्थात् भगवत्प्रास्ति की टृढ़ संभावना | ९. “मुन्त्ठ'-पअ्र्थात् भगवत्पाप्ति के लिये अत्य थे ऊ लाडा उत्त रहना । 3 नाम गान में रुचि --प्र्यात् कीर्ततादि करता | 5, भगवदुगुणों में आ्रानक्ति--जिस लगाव से संप्तारिक कर्म करिए जाते हैं उसी से भगवदयुणों का श्रवणशाद<दे हो । ९, भगवान के वास स्थल में प्रेंम--प्रर्थात् ब्रज, श्रयोध्या भ्रादि तीर्थों से अनुराग । प्रेम स्पा इसके बाद प्रेम लक्षणा भक्ति का अवसर आता है। इसका लक्षण यह है हृदय जब भाव में पत्यंत्र द्रव!भूत और प्रगाड़ ममता से संयुक्त हो जाता है तो वही प्रगाढ़ अवस्था प्रेम कहलाती है |! प्रेम-भाव-रूपा भक्ति का त्रिकास भी है और भगवत्प्रसाद द्वारा स्वतंत्र रूप से उद्भूत भी [| इसके विकास का संपुर्रा क्रम इस प्रकार माना गया है। सत्॒ते पूव श्रद्धा उत्पर्त होती है। इसको प्रेरणा से साधु संग किया जाता है। संगति के प्रभ.व से भगवद् भजन होने लगता हैं। भजन से बाधाएँ निवृत्त होती हैं। जिस से हढ़ आस्था या निष्ठा होने लगती है। निष्ठा के बाद रुचि भादि और इसके बाद आ्रासक्ति होती है । श्रासक्ति का परिणाप भाव भ्ौर भाव का परिणाम प्रेम है । ( २६७ ) इस प्रकार प्रमरूपा भक्ति साधता की नत्रीं कच्चा पर शाप्त होती है । यह विकास क्रम साधारण माधकों के लियेहै। भगवद श्रत्रुयह से तो हर समय यह अ्रतिम विकास हो जात है। शांत, दास्य आ्रादि पाँच भक्ति भेदों में से प्रत्येक का स्व हा | शांत भक्ति साहित्य में शांत रस का स्थायोभाव निर्वेद माना गया है। शांत भक्ति का भी वही स्थायी है। पर निर्वदं निष्किय श्र निरासक्त भाव है! । भक्ति रस का परिपाक बिन श्र'्साक्ति के कंप्ते हो सकता है ? इस शाशंका का समाधान भक्ति के क्षेत्र में दो प्रकार से किया गया है। कुछ लोगों ने निर्वंद के स्थात पर घृति को स्थायी भाव म।ना है ।* धृति में त्याग का भाव नहीं रहता। पग्रतः बह रागतत्व के साथ विद्यपान रह सकती है। यह वीरादि रखो में व्यभिच!रों होती है शांत रस में स्थायी , इपी के झ्राधार पर यह भी ऋहा जा सत्ता है कि यदि धर्मवीर का ग्रहंभाव छुट जाय तो उसका अंतर्भाव शांत रख में हो सकता है। इप प्रकार निरयेद को स्थायों भाव व मानव कर शात भक्ति को रस- सिद्ध कर दिया जाता हैं, पर इस मत का अ्रधिक सम'दर इसलिये नहीं कियः गया कि शांत भाव! दाशनिकों के यहाँ एक विशेष भ्रर्थ में रूढ है । जिम अतुभति का इततसे संक्रेत द्वाता है वह नि्ेदमदक ही होतोहै। फलते: दृपरे लोग निर्वेद का ही इउथा स्थायी भाते ६&ै। इन लोगों के अनुतार निर्वेद अ्रनासक्त भगव नट्टों | इपमें भा स्जादल विद्यमार रहुत' है । तिवद का अर्थ बुद्ध का विवबा को छोड़ ऋर परनेशरनिष्ठ द्वो जानता हैं। परभेखर दो न माननेवालों के लिये उनका काई आदर्ग हा सत्ता हैं। तिड्ठा का लात्पयं रात हो है। इस लये भक्त शास्त्र में 'शात रंति! मानो गई हैं तक मे बल यह दिखाई देता है कि निवेंद में बरद्धि यदि विषयों से हृटती है तो उसका काई श्रालंबनातर चा।हुएं। वह पिराबार भावग्राहिणा नही रह सकता । आलंबनच १, नाध्ति यत्र सुखं दु:ख न देषो न च मत्सर: हु० र० पश्विस विभाग ल० १ एलो ० २६ | २. धुतिस्थायितमेकेतु बही ३१। ३. शान्ताख्याया या रतेरत्र स्वीकारानयविस्ध्यते | शर्मीमन्निष्ठताब॒द्वे रति श्री भगवद् वच:। तनिष्ठा दुर्घटा बुद्धेरेतां शान््त रति बितव। वही श्लोक २०, २६ । ४ ( ३६८ ) का झ्राश्षयश रति से ही हो सकता है। फलत; ज्ञानियों का भी भक्ति में भाग- मान लिया जाता है। भगवत्करुणा और प्रेम के कारण उनकी तक॑ ककंशता शिथिल हो जाती है श्रौर कोमल हृदय में तत्वज्ञान-जन्य श्रथच समाधि- जन्य आनंद से भी भ्रधिक रतिजन्य श्रानंद श्राता है। निवेंद दो प्रकार का होता है। एक तो श्रपनी प्रति कूलताश्रों से दूसरे तत्व ज्ञान से। पहला साम-. यिक होने से व्यभिचारी है दपरा स्थिर होते से स्थायी | इसमें आलबन सच्चिदानंद झात्माराम, परब्रह्मय, सम, दांत, शुचि, विश्रु भ्रादि रूपवाला परमेश्वर का स्वरूप है। उपनिषद् श्रादि श्रध्यात्म विद्या का श्रवण, एकांत स्थान में निवास, तल का विवेचन, विद्या की प्रच्नुरता, शानी भक्तों के साथ ससर्ग श्रादि इस के उद्दीपन हैं | धनानंदजी में ज्ञान और भक्ति का भ्रदूभुत संमिश्रणा था। प्रेम और वराग्य की वे मूति थे। बृदावन की गलियों तथा यमुना के धाटों। पर विरक्त वेश तथा विरक्त भाव में वे मौत धारण किये हुए घूम। करते थे। उन्होंने अनेक पद वराग्य पर्णा भक्ति रस के लिखे हैं। सत्संगत की मद्मा का बखान किया है। हृदय॒स््थ परमेश्वर के दर्शन के लिये लाल्यित होकर बे करते हैं “दे प्रभु श्राप अंदर मे विराजमान हो फिर आखों के आगे क्यों नहीं आते ? थे भ्र,पके लिए अश्रु बरसती हैं। श्राप तिकट भा हैं भर द्र भी पर दर्शन नहीं हो पाते (! मन को उदबोधन देते हैं कि “हरि भजन का फल विकारों का निर्मल हो जाना, शात शीतल सुख मिलना श्रादि है (/ परभे- शवर सकल श्रृति के सार आविकारबारी हैं । उन्हें हृदय में बसाया जाय श्रौर चातक सी लगन अंतर में रहे तो श्रानंदघन की वर्षा होती है।' श्राराध्य को व्यापक्ता का अनुभव उन्हें है। इसीलिये वे कहते है है प्रभु भब श्रौर तब सदा तुम हमारे साथ हो। मैं श्रौर तुम अभिन्त हैं। लेकिन यह बताश्रो कि १--अंठ मे बंठे कहा दुखदंत निकृसि क्यो न श्रावत श्रेंखियन श्रागे । ग्रे दुखदाई मुख देखन को जागि जागि शनुरागे | इनकी दशा बने रहि नित देखई गह पल पल जल त्यागैं द आअ० प० २५१ निकट दूुरि लहि परत नही वछु श्रानंद्धन रस मगन सचेते | वही ७८. २--देखिए वही श्रा० १० €!१ ३--दखिए बही ६२ ( ३६९ ). यह प्रकट हो हो कर छिप्र जाने की शिक्षा कहाँ से सीखो है। बीच में पड़कर दूसरे नाम रखकर अटपटी बातें करते हो । आप ही तो नेओं के बारे हो. पर दिखाई नही देते । बिषयासक्ति छोड़कर भगवादनुराग में मसन होने का उद्बोधन मत को देते हुए कहते हैं- 'तू सब विषयों से पृथक होकर हरि से भेंट कर । तू मद विकार से भरा हुआ है। इस मेंल को मिटाकर शुद्ध बन । प्रपने यथार्थ रूप को पहचान । माया के संग में तू चेतत से जड़ हो गया । फिर भी उसका संग नहीं छोड़ता । शरीर से निकलकर विदेह रूप धारण कर श्रानंद्घन के रूप में रंग जा? | सांप्रदायिक रूढ़ि से ऊपर उठकर मानसों श्रारती का सकल्प यह है 'ऐसी आरती करो । हंदय के थार में प्रेम का दीपक रक्खो | निर्मल श्राचार की बत्ती में सह का तेल डालो । विश्वास के पाथ भावों के पुष्प चढ़ाग्री |. मौहन के मूख के पानिप को देखकर प्रसन्त रहो। इस आरती से श्रीक्षष्ण वश में ही जाएंगे ।* शांत भक्ति के आराष्य का स्रह्व भी अनेफ॒त् वशित हुआ है। 'हरि- चरण आनंद कंद हैं। इनकी वंदना करो। ये परम सुख की सीमा और दुख को दूर करनेवाले हैं। शिव; ब्रह्मा, तारद श्रादि इतकी शरण में रहते हैं। रत निवास आनंद के घन हैं जो प्यास को दूर करते हैं ।' १--अ्रब तुम तब तुम जब तब तुम्रहीं तुप बिन कब हों हौ तुम हों । यह दुरि उघरन कहो कहाँ ते सीखे तुम्हे तुम्हारों सों। आपु बांच परि नाम और धरि करत श्रट्पटी घातनि कौं। श्रानंदधत सुजान हग तारे लखी न परति श्रनौखी गौं। वही ६६ २--सब तें न्यारे है हरि भोंटि । है मत मद विकार भरथौं तू निखरि मल को मैंटि। विज सरूप सों सम्हारि छूट लगि भूलनि भले भुलाव । चेतन ते जड़ भयौ संगवसि श्रजदु तजत न संग। तनते निकसि विदेह देह धरि रचि आनंदघन रग ॥। बही १६३ ३--ऐसी अ्रारति करो । सुधर थार हिय. विसद बीच चले प्रेम प्रदीप धरौ। उज्वल दा सनेह सजोई ज्योति जगाइ ढरौ। भाव पुहप प्रतीत सौं संयुक्त वार निश्रोर श्ररौ। मोहम मुख जगमगानि पौति प॑ निरखत हरष भरौ ॥। वही २४० ४--ये श्रानंद कंद वंदि ले हरि चरन। परम सुख की सीमा दुख समूह दरन २६ भक्ति रस में संतों की महिमा तथा संगित का भी बड़े अ्रतुराग के साथ चर्गात किया है। संत ही वेद पुराण हैं। वे ही महान हैं। इनकी महिमा आनंदघन के रस से सदा भीगी रहती है। ये गुरु की कृपा के कारण शआ्ानंद रस से भरे रहते हैं। सप्तार से विरक्त्त होकर ये विवेक के देश में निवास करते हैं। खानपान परिधान श्रादि व्यवहार में श्रनासक्त रहते हैं। शुभ झशस तथा साधारण का भेद भप्व इन्हें नहीं रहता । अ्रमल श्रनूपः विदेह रूप धारण कर अ्रपनी गति से विचरते हैं। इनके चरण रज में समस्त लोक- कल्याण निवास करते हैं। कष्णरसावव के नशे में भूमते रहते हैं। तत्व बोध की भलक से हृदय का श्रानंदरहस्य सदा प्रकट रहता है।' ऐसे संतों की संगति की महिमा यह है कि जिन्होंने साधु-जन-संगति साथ ली है उन्होंने सब कुछ साध लिया। मनरूपी बस्त्र की वासना को धोकर रागरूचि में रंग दिया है। आनंदधन के सरसप्पर्श का प्रसाद पा लिया है श्र अ्रपने प्रेम के प्रणा को पूरा नित्रा शांत भक्ति का थोड़ा बहुत स्वरूप समी भक्तों की रचनाश्रों में प्राप्त होता है पर भानंदघन के इस भाव की विशेषता यह है कि उन्हेंने ज्ञान सयुक्त वराग्य का प्रेम से अच्छा योग कया है। दूसरे भक्तों की रच- नात्रों में शांत भक्ति के भावों में क्षत और वरःग्य का भ्रंश ते बढ़ता जाता है । पर प्रेम का माधुर क्लीण होता है। शभ्रानंद घन मूलतः; प्रेमी थे। श्रतः प्रेमहीन वेराग्य तो ज्ञानमार्ग का अंग बन जाता है | दास्य भ क््त दास्य भाव में भगवान और भक्त का जो संबंध होता है यह दिखाया अकन््मअम»+क«क>-न--- + 54 क+ 3». स्अ«ननकनननीन-ीयीनाननननननन-भ-ाान जननी शिव विधि मुनि नारदादि रहत' सदा सरन मोद-पयोद-रस निवास प्यास हरत ।। वही ३४ १--जिनके मत सुविचार परे गुरु पद परम पुनीत प्रसादहि पाव प्रेम श्रानंद मरे, तत्व बोध का बलक भत्क बस ढकी गास व्यौरनि उबरे। इत्यादि वढ़ा। १२१ २--तिन सब कुछ साध्यौ हो जिन साथो साधु जवनि संगति पतित्र पावत पुरुषोत्तम पदवी पावन की परम गति धोई घोई मन बसन रच्यौं हैं रागरुचि रंगति आानदबन रस परस प्रासादहि पाइ पलयौों पत्र पंगति वही ५८५ भक्ति रस में संतों की महिमा तथा संगित का भी बड़े अ्रनुराग के साथ चर्गाव किया है। संत ही वेद पुराण हैं। वे ही महान हैं। इनको महिप्ा आनंदधन के रस से सदा भीगी रहती है। ये गुरु की कृपा के कारण श्रानंद रस से भरे रहते हैं। सप्तार से विरक्तर होकर ये विवेक के देश में निवास करते हैं। खानपान परिधान श्रादि व्यवहार में भ्रगासक्त रहते हैं। शुभ अशुभ तथा साधारण का भेद भप्व इन्हें नहीं रहता । श्रमल श्रनूष विदेह रूप धारण कर श्रपनी गति से विचरते हैं। इनके चरणु रज में समस्त लोक- कल्याण निवास करते हैं । कष्णरसासव के नशे में भूपते रहते हैं। तत्व बोध की भलक से हृदय का श्रानंदरहस्य सदा प्रकट रहता है।' ऐसे संतों की संगति की महिमा यह है कि जिन्होंने साधु-जन-संगति साध ली है उन्होंने सब कुछ साध लिया। मनरूपी बस्त्र की वासना को धोकर रागरुचि में रंग दिया है। आनंदवघन के रसश्पर्श का प्रसाद पा लिया है और अपने प्रेम के प्रणा को पूरा नित्राहा है शांत भक्ति का थोड़ा बहुत स्वहूप सम्ी भक्तों की रचनाओ्रों में प्राप्त होता है पर आनंदथन के इस भाव को विशेषता यह है क्रि उन्होंने ज्ञान सयुक्त वराग्य का प्रेम से अच्छा योग क्या हे। दूसरे भक्तों को रच- नात्रों मे शांत भक्ति के भावों में ज्षत श्ौर वर/ग्य का श्रंश तो बढ़ता जाता है। पर प्रेम का माधुग च्वीण होता है। श्रानंद घन मूलतः प्रेमी थे। श्रतः प्रेमहीन वराग्य तो ज्ञानमार्ग का अंग बन जाता है | दास्य भक्त दास्य भाव में भगवात और भक्त का जो संबंध होता है यह दिखाया बा... अननननन-शलन न -+भ मन नाग “न चनननाण-ी तभी शिव विधि मुन नारदादि रहत' सदा सरन मोद-पयोद-रस निवास प्यास हरन || वही ३४ १--जिनके मन सुविचार पर गुह पद परम पुनीत प्रसादहि पाव प्रेम श्रानंद मरे, तत्व बोध को बलक भत्रक बस ढकी गास व्यौरनि उपरे | इत्यादि हे। १२१ २>तित सब कुछ साध्यौ हो जिन साथी साधु जतति संगर्ति पतित्र पावन पुरुषोत्तम पदत्री पावत्त की परम गति धोई घोई मत बसन रच्यों है रागरुचि रंगति श्रानदवन रस॒परस प्रासादहि पाइ पलयौ पन पंगति वही ५८५ ( ३७१ ) ज्ञा चुका है । श्री रूप गोस्वामी ने हरि-भक्ति-रसामृत-सिधु” में इसके दो विभाग किए हैं | १--अ्रपने स्वमाविक तथा शुभ कर्मों को भगवद्पित करना । २--भगवान को स्वामी समझे कर उत्तको सेवकाई करना ! कर्मार्पण की व्याख्या वल्लभाचार्य जी के “अंत: करण प्रबोध” में मिलती है। उन्होंने लिखा है कि कर्म की फलप्राप्ति न होने पर दास भक्तों को पश्चाताप का भ्रवसर नहीं झाता । वह तो सेवक ही है श्रन्य कुछ नहीं । लौकिक स्व्रारमियों को तरह श्री ऋष्ण को नहीं देखता चाहिए। सेवक का तो यही धर्म है स्त्रामी श्रपता धर्म स्वयं निबाहेगा। मुख्यता इप में भक्त के देन्य और ग्राराध्य के महत्व की होती है। ये गुण भक्त के श्रपने दोषप्रस्यापन, विनय; याचता, देन््यनिवेदन, श्रात्मसमर्पण श्रादि तथा भगवान की शक्ति में विश्वास श्रादि के द्वारा प्रकट होते हैं। घतानंदजी ने संसार का पर्याप्त श्रतुभव किया था। विलासी जीवन का रहस्य पहचाना था। जिन के (लिये वह प्राण देने को तयार थे उसने उसको बात भी नहीं पूछी | ऐसे व्यक्ति को संसार से निर्वेद और परमेश्वर की दयालुता में श्रटल विश्वास संचा होता है। इस लिये इनको दास्य भक्ति में हुद॒य की सहज मार्मिकता आर सरल प्रेम स्पष्ट हुए हैं। वे कहते हैं “हे प्रभु मेरे मन को श्रपने चरणों में स्थान दो । यह संसार में भटक कर फिर झ्ाया है। यह भूला हुशा फिरता रहा। मुझे प्रापका बड़ा भरोसा है। मेरा मन बड़ा विजाति, मोह- अ्रस्त और चपल है। श्रब भी छल नहीं छोड़ता | श्रब इसे श्रपने प्रेम सिधु के तट पर स्थान देकर प्रपनी लीलीओं में निमग्न क्र दीजिए |* १--दासुप कर्पापणाम् तस्प कंकर्यमूपि सर्वया : ह० र० वि० पू० ल० २ श्लो० ३३ २--पश्चाताप: कथ॑ तत्र सेव्रको5३हईं ने चान्यथा । लौ किक प्रभ्नुव॒त्कृष्णे ने हृष्टन्य: कदाचन । सेवकस्य तु घर्मोयं स्वामी स्वस्थ करिष्यति प्रषछाप और वल्लभमम्प्रदाय पृ० ६०६ पर से उद्धृत ३--ली॑ राखों श्रपने पायनि तर, यह मन भटकि आभायोौ जग कुस्त कपल लोचन कझनाकर । ्ः रा -- मरम भरथौ मंडगत निरंतर निहचे रच न एक घरी घर । भूल्यों फिरत भरोसोी भारी तुम से नाथ न ऐसे खलबर ॥। महा विजाती विरल मोहमय थक्यो चपल छाँड़त नाहिन छर प्रेम सिधु के कूल वास दे लीलामग्न करो निसवासर ॥| श्रा० प० ४७८ ( ३२७२ ) इस प्रकार के निच्छल हुदय में स्वाभाविक रूप से सर्वात्मिना श्रात्म- समप्ण की भावना विद्यमान रहती है। श्रानंदघ्नजी कहते हं-.“हे हरि मैं: कुछ नहीं जानता । जो भली ब्री आपको रुचे श्राप ही करिए। मैंतो इन अभिलाषाशों पर टिका हूँ कि तुम श्रपना जान कर जीवित करोगे । आप भेरे हृदय की जानते हो। अपने शाप ही श्राप कृपा करो ।*” इस श्रनन्य विश्वास का कारण भक्त की निजी दीनता और भगवान की शक्तिमत्ता है। देन्यभाव की श्रमुभूति धनानंद जी की यह है--- अपने को दीन, बलह्दीन तथा छीणा सम कर आप की शर्ण में झाया हूँ। है श्लानंद के घन ? दीन पपीहों के श्राप द्वी प्राशाधार हो। आप शरणागत के स्वामी, सर्व दयालु तथा अ्रंतर्यामी भी हो + जहाँ जहाँ श्राप का स्मरण हुआ है वहीं वहीं आप शीघ्र दौड़ कर पहुँचे: 'हो। मेरे जंसा कपटो, कुटिल, प्रसिद्ध कामी फोई दूसरा कौव होगा ? हे. झानंदघत | बंद इसके साक्षी हैं कि श्राप अनेक पापो के बहाने बाले हो ।* भगवान की शक्तिमत्ता में इन्हें पूर्ण विश्वास है। उनकी आरास्था है कि हे भगवान ? तुम्हरे चरण सब फल देने बाले हैं। वे रस-विलास झौर समग्र सम्पत्तियों के स्वामी, झ्ानंद के घनरस की मृति तथा शरणागत के. भय को दूर करते वाले हैं।* हृदय ही तहों कवि फो बंद्धि भी भगवान के समक्ष श्रण्नी श्रकिचनता: झौर लघुता का अनुभव करती है। इसका कारण यह है कि भगवान के. गुण इतने श्रपरिमेय है कि उनको गा गा कर प्रभु को रिभाना फिसी के लिये संभव नहीं । भक्त थोड़ा बहुत जो कुछ कह पाते हैं वह सब परमेश्वर की ही कृपा से ।* गंधर्व गश, ब्रह्मा, गरोश तथा अन्य विद्वान भगवान के- गुणा गागा कर थक जाते हैं। शेष, महेश और भ्रशेष निगम भी बेचारे उनकी: १-वही, ४८३ ' २--दीन हीत बलहीन जानि के लागौ लालगुड़ार | दीन पपीहनि के भ्रानंदधन जीवन प्रान ग्रधार भ्रा० प० २५१. ३--वही, श्रा० प० ३७८ ४--चरन तुम्हारे सुफलदायक । रसन भूमि ब्रजमंडन सुनहु सावरे गोकुलनायक। रस विलास सप॒दा स्वामी सुखनिधान सुमिरिब सुलायक । आनंदधन भ्रमोौध्र रस मूरति सरनागत मबहरत सहायक | श्र ० १५ १२२ ५--वब ही, रे ६ 3, | ( रे७३े ) यथाथंता को नहीं जान पाते ।* भक्त के हृइय को लघुता का कारण प्रात्मतिरी- क्षण है। भगवान सच्नी रति से प्रसन्न होते हैं | पर सच्ची रति पहाड़ के बराबर है। श्रातंदवनजों कहते हैं कि मेरा हृदय तो स्त्य॑ झूठा है। भूठे स्थादों में प्रनु रक्त हो गया है। सच्चा रस-सार इसने छोड़ दिया है ।* प्रपने प्रति लघुता की अनुभूति का फल उद्वोधन भी होता है, जिसे कवि कभी अ्रयनी बंद्धि को शौर कभी अपने हृदय को देता है। यह भी दैन्य निवे- दत का एक अश्रंग है। इसे भक्तिद्धित्र में दास्य भात्रता के पंतर्गत ही गिता जाता है। घतनानंदजी ने भ्रनेक' स्थलों पर उदवोवन के पद लिखे हैं। एक पद में मर को समभग्ते हुए वे कहते हैं कि है मत तू हरिचरणों से परिचय प्राप्त कर । तू मेरा कहना मान । इस सुखपम्पत्ति से अपना घर भर ले। जो ब्रज॒भूमि के भूषण घोर ब्रजरमणियों के प्रिय हैं उन्हीं से प्रम॒ कर। उस आनंदधत का पपोहा तथा उसो श्रररावद का अ्रभ्र बन ।* इस उद्तोधन में दाशंतिक ज्ञान का पुट भी यत्र तत्र मिलता है। संसार की असारता को लेकर मन को चेतावनी दो गई है कि 'हे मत्र यह समध्त संसार धोखा है। सारभूत परमेश्वर का तू स्मरण कर। क्षण क्षण में श्रायु यों ही बीती जाती है, तू सावधान हो। संसार में कौन किसका बंधु श्रौर कसा परिवार ? भ्रानंदधत के रसामृत का पान कर शअ्रमर बन ।* वात्सल्य भक्ति वात्सल्य रति प्रेम के समान मानव प्रकृति का सहज तथा व्यावक भाव है। कशगोर से कठोर हृदय शशव के भोले चेष्टा-व्यापारों पर मुग्ध हो जाता १--गन गंधर्व गुनी गिरापति गुरु गनेस गुन गएए गावत तिद्ारे । गाइ गाइ छकि छकि जकि थक्ति जीतत है जनम कहि हारे । सेस महेस निगम असेस गति पावत नह किन्रारि विचारे। ब्रज मोहन श्रानंद घन हो चित चुतक पन रखवारे। श्रा० प० ३५३ २--तुम्हें को रिफ्'इ सके हो बड़े रिफत्रार । रती साँच सौ रीमि रहत हो सो मोहि भयो वे पहार । भठे स््राद हिल्पौ हिवर तजि सांचों रसभार । अब आरानदवन उमड़ि घुमड़ि के करो कृपा आसार | श्रा० प०, २४६ शैाग्री० प७, ४४६९। ४--बवही, ८१५६ । ( रे७२ ) इस प्रकार के निच्छल हुदय में स्वाभाविक रूप से सर्वात्मना झात्म>- समप्ण की भावना विद्यमान रहती है। श्रानंदधनजी कहते ईं--“है हरि मैं कुछ नहीं जानता । जो भली बुरी आपको रुचे श्राप ही करिए। मैं तो इन अभिलाषाओं पर टिका हूँ कि तुम श्रपना जान कर जीवित करोगे। श्राप मेरे हृदय की जानते हो। अपने आप ही आप कृपा करो ।” इस भ्रनन््य विश्वास का कारण भक्त की निजी दीनता और भगवान की शक्तिमत्ता है। देन्यभाव की श्रमुभूति धतनानंद जी की यह हैं-- अपने को रीन, बलहीन तथा दछीण समझ कर आप की शरण में झ्ाया हूँ। है ब्ानंद के घन ? दीत पपीहों के श्राप द्वी प्राणाधार हो।' श्राप शरणागत के स्वामी, सर्व दयालु तथा श्रंतर्यामी भी हो ॥ जहाँ जहाँ श्राप का स्मरण हुआ्ना है वहीं वहीं श्राप शीघ्र दौड़ कर पहुँचे: हो। मेरे जंसा कपटों, कुटिल, प्रसिद्ध कामी कोई दूसरा कौन होगा ? हे. झानंदघन ) वंद इसके साक्धी हैं कि श्राप अनेक पापों के बहाने बाले हो । भगवान की शक्तिमत्ता में इन्हें पूर्ण विश्वास है। उनकी आस्था है कि हे भगवान ? तुम्हरे चरण सब फल देने बाले हैं। वे रस-विलास श्नौर समग्र सम्पत्तियों के स्वामी, आनंद के घनरस की मूरति तथा शरणागत के. भय को दूर करते वाले हैं।* हृदय ही नहों कवि की बद्धि भी भगवान के समक्ष भ्रप्नी भ्रकिचनता भौर लघुता का अनुभव करती है। इसका कारण यह है कि भगवान के. गुण इतने भ्रपरिमेय है कि उतको गागा कर प्रभु को रिक्राता किसी के लिये संभव नहीं । भक्त थोड़ा बहुत जो कुछ कह पाते हैं वह सब परमेश्वर की ही कृपा से ।" गंधर्व गण, ब्रह्मा, गरोश तथा श्रन्य विद्वान भगवान के. गुरा गागा कर थक जाते हैं। शेष, महेश और भ्रशेष निगम भी बेचारे उनकी: च्लकल्ाआआयथयथथ न त+त5 १--बही, ४८३ « २--दीन हीत बलहीन जानि के लागौ लालगुड़ार | दीन पपीहनि के प्रानंदधन जीवन प्रान प्रधार आ्र० पृ० २५५ ३--वही, भ्रा० प० ३७८ ४०-चरन तुम्हारे सुफलदायक । रमन भूमि ब्रजमंडत सुनहु सावरे गोकुलतायक | रस विलास सपदा स्वामी सुखनिधान सुधिरिब सुलायक । आनंदघन भ्रमोध रस मूरति सरनागत भयहरन सहायक | भ्र० प० ३२२ ५--वही, ३६७, ( रेछ३ ) अथार्थता को नहीं जान पाते ।* भक्त के हृरय को लब॒ुता का कारण प्रात्मतिरी- क्वण है। भगवान सच्ची रति से प्रसन्न होते हैं। पर सच्ची रति पहाड़ के बराबर है। श्रानंदवनजों कहते हूँ कि मेरा हृदय तो स्त्र्य झूठ! है| भडे स्तादों में श्रतुरक्त हो गया है । सच्चा रस-सार इसने छोड़ दिया है प्रधने प्रति लघुता की अनुभूति का फल उद्रोषन भी होता है, जिसे कत्रि कभी श्रयनी बद्धि को शौर कभी अपने हृत्य को देता है। यह भी दैन्य निबे- दन का एक भ्रेग है। इसे भक्ति क्षेत्र में दात्प भातरा के पअ्रंतर्गत ही गिना जाता है। घनानंदजी ने अनेक स्थलों पर उदवोबन के पद लिखे हैं। एक थद में मन को समझते हुए वे कहते हैं कि 'हे मत तू इरिचरणों से परिचप प्राप्त कर। तू मेरा कहना मान । इस सुखयम्पत्ति से अभ्रपत्रा घर भर ले। जो ब्रजभूमि के भ्रूषण पधोर ब्रजसरमणियों के प्रिय हैं उन्हीं से प्रेम कर। उप आनंदधत का पपोहा तथा उसो शभ्ररविद का अ्रभर बन (* हम' उदबोधन में दाशनिक झ्ञान का पुठ भी यत्र तत्र मिलता है। संसार की असारता को लेकर मन को चेतावनी दो गई है कि 'है मंत्र यह समध्ल संसार धोखा है। सारमूत परमेश्वर का तू स्मरण कर। छण क्षण में श्रायु यों ही चीती जाती है, तू सावधान द्वो। संसार में कौव किसका बंधु और कैसा परिवार ? प्रानंदवन के रसामृत का पान कर श्रमर बन ।* वात्सल्य भक्ति वातल्सल्य रति प्रेम के समान मानत्र प्रकृति का सहज तथा व्यावक्र भाव है। कशेर से कठोर हृदय शैशव के भोले चेष्टा-व्यापारों पर मुंघ हो जाता १--गन गंधर्व गुती गिरापति गुरु गनेस गुन गहए गावत तिहारे। गाइ गाइ छकि छक्ति जकि थक्ति जीतत है जनम कहि हारे । सेस महेस निगम असेस गति पावत नह क्च्ारि विचारे। ब्रज मोहन झ्रानंद घन हो चित चातक पत्त रखबारे। श्रा० प० ३५३ २--तुम्हें को रिफा'इ सके हो बड़े रिकत्रार । रती साँच सों रीकि रहत हो सो मोहि भयौ वे पहार । भूठे स्वाद हिलल््पौ हिय तजि सांचौ रसभार । अ्रव भ्ानदवन उमड़ घुमड़ि के करो कृपा भासार | झ्रा० प०, ३८६ ३--भआा० १०, ४४९ | ४--वबही, ८५६ ॥। ( २७४ ) है। सृष्टि का यह सप्रयोजन भाव है । निर्बल निरुपक्नारी बालक के पालन --_ पोषरा को विशालता के लिये माता पिता के जिस त्याग तपस्था की पेत्ञा होती है उसकी प्रेरणा इसी भाव में निहित होती है। शिशुझ्नों का पालन करते समय माता अपने कष्टों को सौमाग्य समभती है। श्रपने कर्मों का फल लेने की भावना कभी उसके हृदय का स्पर्श नहीं करती । मानों परमेश्वर यही उससे कराना चाहता है। परमेश्वर प्राणियों के दृंदयदेश में बेठकर' उन्हें इक प्रकार प्रेरित करता है मानों वे यंत्रारूढ़ हों।! वात्सल्यरत्ति- इसका ज्वलंत उदाहरण है कि परमेश्वर हमोरे भावों श्रौर विचारों द्वारा सृष्टि का संचालन श्रपने भ्रनुस।र कराता है। बच्चे के लिये स्तनों में द्ध श्ाने से पूर्व माता के हृदय में वात्सल्यभाव का उदय होता है। शभ्रन्या प्रकार के भावों से इसकी यही विशेषता है कि यह निःस्वार्थ होता है । बदले की कामना वात्सल्य के श्राश्रय में नहीं होती | ख्ृंगार में श्रालंबनाश्रित प्रेम न हो तो थह पुष्ट नहीं होता । सख्य भी बिना विनिमय के तिरोहित हो जाता है। पर वात्तल्य में किसी प्रकार का विनिमय श्रपेन्षित नहीं होता । प्रत्येक प्रकार की रति को “कामज।” रति माननेवाले पाश्चात्य विचारक विशेष कर फ्राइड के श्रनुवर्ती भले ही वात्सल्य में भी कामवासना का प्रच्छत्त रूप देखें पर भारतीय विज्यरपद्भति से तो यह॒मानवीय प्रेम का ही कोमल रूप है । भ्रनुग्रह की भावना से मिश्रित विशुद्ध रति ात्सल्य' कहलाती है। इसीलिग्रे इमके झालंबन में प्रश्नविष्णुता को अनुभूति श्राश्नय को नहीं होनी चाहिए ।र श्रालंबन को प्रभावशाली समभनेवाला हृदय उसके प्रति वत्सलरति का झनुभव नहीं कर सकता । इसका उदय पितृ हृदय में उतना नहीं जितना मातृ हृदय में होता है। वंष्णव भक्तों में कृष्ण के प्रति वात्सल्य का प्रसार जितना यशोदा के हृदय में दिखाया है उतना नंद के हृदय में नहीं। इस सार्वजनीन श्रनुभक्त जल ओम अल कल कम १--ईश्वर: सर्वभूतानां ह॒ह्ेशेडजुन तिड्ठ॒त्ति | आमयनु सर्व भूतानि यस््त्रारूढानि मायया। गीता । २-- भप्नतीतो हरि रते: प्रीतस्थ स्थादपुष्ठता । प्रेयसस्तु तिरोभावों वत्सल्यस्थास्यथ न क्ञति:। ह० र० पश्चि वि० ल० ४, र८ ह ३- भ्रभावानास्पदं तथा वेद्यस्थात्र विभावता । वही श्जोक ४ |: ( ३७५ ) को संस्कृत के काव्याचार्यों ने झशुंगार के श्रंतर्गत माना है। पर कृष्ण के बालचरित्र वैचेत्यपूर्ण होने से अभ्रदूभुतरति तथा वात्सल्यर्ति के विशेष रूप से हेंतु बने। श्रौर उसके अनुसार साहित्य फी सृष्टि हुई। फलत; इस रस की रचनाएं इतनी श्रधिक हो गई कि साहित्य शास्रियों ते इसकों पृथक रस मात्त लिया । भक्तिसिद्धांत में तो पृथक रस पहले माना ही जा चुका था। भक्ति के ग्रंथों में वात्सस्थरति! रति के पाँच भेदों में से एक स्वतंत्र भेद है। कृष्ण के प्रति जिनकी वत्सल भावना थी वे तथा श्रीकृष्ण इसके छलंबन माने गए। ध्तारद भक्ति सूत्र) में भी प्रेस- रूण भक्ति की ग्यारह आमक्तियों में एक वात्मल्य नाम की श्रार्सक्त भी मानों गई है श्री रूप गोस्व्रामी जो ने ध्वात्सल्य भक्ति रस! का विस्तार से प्रतिपादद किया है। इसर्ये आालबन श्रीकृष्ण का यह स्वरूप मान्य है। स्थापांग, शिशु, रुचिर, सब्र शुभ लक्षणों से युक्त, कोमल, प्रियवाकू, सरल, लजाशील, विनय्री, बड़ों के आादरकर्ता आदि ।' संभ्रमरहित वात्सल्य इसका स्थायी है। श्री कृष्ण की यौवनारंभ काल की चेष्टाएँ भी भक्तों ने वात्मत्यथ रस में ली हैं। इसका कारण यही हैं कि वात्सल्यरति के प्रभाव से बाजक बड़ा होने पर भी माता पिता को हृष्ट में छोटा ही रहता है। सूरदास जी की यशोदा श्रीक्षष्ण के मथुरा चले जाने तथा वहीं राजा बन जाते पर भी जो उनकी माखत रोटो की चिता से व्याकुल रहती हैं उसकी मनोवेज्ञानिकर व्यास्या यही है । घनानंद जी मुख्य रूप से मधुरा भक्ति के भकक्त तथ्ग स्वच्छुद प्रेम के कवि हैं। इनकी रचनाओ्रों में वात्सल्यभग्व के दर्शन अल्पमात्रा में तथा श्रपरिपृष्ट रूप में होते हैं। वर्णन साधारण रूप का है। कृष्ण के बाल- चेष्टितों से ब्रज की सौभाग्यत॒ रहना करते हुए वे कहते हैं कि वह ब्रज का श्रॉगन धन्य है जहाँ बालक श्रो कृष्ण घुटनों डोलते हैं। यशोदा धन्य हैं जिन से कृष्ण तोतली बोली में बोलते हैं। यह आनंदवन प्रसन्न होकर उतकी गोद में सोते हैं।' श्री कृष्ण गोचारण के बाद घर लौटते हैं तो यशोदा उनकी आरती उतारती हैं। श्रपने आप को उनपर न्यौडावर करती _ हैं। बड़ी लालसा से उनका मुख देखती हैं। &नकी बर्लया लेती हैं। श्रंचल १--#ष्णं तस्य गुरुंश्वात्र प्राहुरालंबन न् बुबा:| हु० र० प० विभाग लहरा २९, २। २--हू० र० पृ० विभाग लहरी ४ श्लोक २३। ३--प्रानंदघन पदावलो ३३५ ( ३७६ ) मुँह पोंछरी हैं। पुच्र्गरों से उनपर प्रेम की वर्षा करती हैं।! श्रोकृष्ण तिसकते भी जाते हैं और दूध पीते जादे हैं। जिय के श्राधार उन्हें देख कर मोह की प्रबल तरंगों से माता के स्तनों के दूध की धार द्रवित हो जाती है। वे श्याम को अंचल से ढांप लेती हैं। निधड़क देख भी नहीं सकतीं ।* इसके साथ साथ बधाई के पद घनानंद जी ने बहुत लिखे हैं। यह प्रथा निबाकंसंप्रदाय के सभी भक्तों में है। उन पदों में भी वात्सल्य भाव की भलक मिलती है। उसी प्रकार के अख पद राधा की बधाई तथा सोहिलों पर लिखे गए हैं। राधा की माँफी पुजाने के भी कुछ पद हैं। जिनमें वात्सल्य भाव व्यक्त किया गया है। माता कीति राधा की लाड़ के साथ भांकी पुजाती हैं। चंदन रोली से ए_जा करती हैं। फुन्न माला पहनाती हैं। मधु भेवा का भोग लगाती हैं। राधा की सहेलियों को घर घर से बूला कर उन्हें श्रोली देती हैं ।* 'गिन्पूजन! में भी कृष्ण के शैशव का थोड़ा वर्णन मिलता है, स्थामराम की जोड़ी गिरिपुजन को जानेवाली ब्रजांगनाश्रों के साथ है। गाल बाल क्रीड़ा करते जाते हैं। रोहिणी तथा यशोदा जहाँ पर हैं कृष्ण दोड़ कर वहीं जाते हैं। अ्रपती गोद मिष्ठान्न से भरवा लेते हैं और साथियों में बाँट देते हैं। मधु मंगल ले लेकर भो बाँटता जाता है। श्री कृष्ण गोद से उतर कर पायनि पायनि चलते हैं ।* किनी-++.हननन६ह३हन्न्न््3.................... (- जसोमति भारती उतारँ उम्रगि श्रापनी ज्यौ बारे ) चित चढ़ि रही ललन की बन ते गोधन ले घर आवनि । अ्रति आरति सौं बदत निद्ढारे । ले बलाय श्राँचर मुख पोछत्ति प्रेम पुचकरनि बरसति प्यार | आ० घ० पदावली ८७३ २--सुमकत पियत जियत श्ररु ज्यावत जननी जिय श्राधार प्रबल भोह की उमंगतर गनि द्रवति दूध की धार | भांति लैत ग्राचर सौं स्पामें निधरक सकति न चाहि | वही बण्च - ३--आतंदबन पदावल्ी ६४६ | ४-स्थाम राम की जोट सुहाई | सब के मन सैननि सुखदाई । रंगन करत ग्वालगन संग | ब्रज मोहत सब को सब प्ंग | ( ३२७७ ) सख्य भक्ति भगवान श्री कृष्ण के जीवन में सखा भाव का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा था। शैशव में उन्होंने अपनी प्रभुता को भूल कर आ्राभीर बाल- बलिकाशों के साथ श्रकृत्रिम जीवन का स्वर्गीय सुख स्वयं लिया और दूमरों को बाँदा था। गोचारण, माखतचोरी, दानलीला तथा श्रत्य खेल कूदों में समान भाव से सबके साथ वे खेले थे। उनका समस्त शशव सख्य भाव के मधुर वातावरणा में ही समाप्त हुआ । प्रौढ़ावस्था में भी अजुर सदामा आदि के प्रति मँत्रों का उच्च आरादश निभाकर अपने को सच्चा सखा बनाया। भागवतकार ने इसी भाव को लेकर ब्रह्मा! के मुख से कृष्ण स्तुति में कहलाया है कि “नंद गोप तथा अन्य ब्रजवासियों को धन्य है कि जिनका मित्र परमानंद ूर्णा सनातन ब्रह्म है।! भक्तर लोगों ने भागवतकार की भावना को लेकर सख्य को भगवद् श्रतुराग का एक भेद सान लिया श्रौर अपने को कृष्णासखाशग्रों में रख कर धन्य माता ' अश्रष्ठ- छाप के प्रसिद्ध श्रा5 भक्त अपने को श्रीकृष्ण भगवान के श्राठ सखा मानते थे। सुरदास तथा परमानंददास ने भगवान की उन लीलाशओों का खड़े विस्तार तथा तन्मयंता के साथ बरणान किया है जो सख्य भक्ति रस की अनुभूति देती हैं ।' इसका स्थायी भाव ऐसा प्रगाढ़ विश्वास है जिसमें किसी प्रकार के दबाव की भावना न हो ॥ भगवान श्रौर उनके सखा समभाव से आपस में क्रीड़ाएँ करते हैं। श्री चैतन्य संप्रदाय वालों का मत है कि परमेश्वर ऐसे भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न नहीं होता जो उसके श्रलौकिक महंत्व को सदा स्मरण करते हुए श्रपने दैन्य का निवेदन करते रहते हैं, भ्र्थात् दास्य भाव को भक्ति करते हैं। दास्य भक्त्ति के प्रकरण में यह बताया जा चुका है कि भगवदानु राग में माहात्म्य ज्ञान जो श्री वललभ श्राचार्य जी को संमत है वह भी अंत रोहिनि जसूमति को समाज जहाँ । दोर जात हैं कान््ह कुंवर तहाँ | गोद भराय फिरत कुछ बाँटत । मधु मंगल ले ले फिर नाटठत ॥ गिरिधर पायति पायति पायन | उत।र चलत भरि गोबनभायन ॥ गिरि पृजा १--अ्रहों भाग्यमहोभाग्यं नन्दगोप ब्रजोकसाम | यन्समित्र परमानंदं पूर्णो ब्रह्म सनातवम् | भागवत १०, १४, ३२ २--देखिए श्रष्ट छाप णौर वल्लभ संप्रदाय, पृ० ६१२ ३--हु ० र० प० विभाग लहरी ३ श्लोक ६, ( रे७८ ) में छुट जाता है। सख्यु भव स्वभाव से ऐसा है कि इसमें भगवान का माहात्म्य विस्मृत हो जाता है। भक्तिसाधता में इसका फिर बढ़ा महत्व हो जाता है | भगवान के सखा चार प्रकार के माने गए हैं। १-- सुहृद । २--सखा । ३--प्रिय सखा | ४--प्रिय नर्मवयस्य । उनमें सुहृद वे हैं जो झ्रायु में श्रीकृष्णाजी से कुछ बड़े थे। इनकी मैत्री में वात्सल्य की भी गंध रहतो है। बलभद ऐसे ही थे। सखा शआ्रायु में छोटे होते हैं। इनकी मंत्री में प्रीति का योग होता है। जो आयु में समान तथा केवल मंत्री का भाव रखते हैं वे प्रिय सखा होते हैं जैपे श्रोदामा श्रादि। प्रियनमंवयस्थ वे है जो कृष्ण की रहस्य लीलाप्रों में उनके साथ रहते तथा उन्हें सहायता देते हैं। प्राय: शूंगार चेष्टाओं में जैसे दानलीला, रासलीला आदि में इनका सास्निध्य रहता है। श्री कृष्ण के समान राधा को भी साखयां होती हैं पर उनका श्राकलन सख्य प्रीति में नहीं होता। वे मधुरा भक्ति में आती हैं| सांप्रदायिक रूप से भी सखी संप्रदाय वालों में कृष्ण के सखा होने की भावना नहीं होती। वे अपने को केवल राधा की हो सखी मानते हैं | घनानंद जी सखी संप्रदाय के थे। श्रत: उनकी रचताश्रों में सख्य भाव के दर्शन नहों के बराबर हैं। सखी भाव प्राचुयेंण प्राप्त होता है। इसका विस्तार पूर्वक वर्णन पृथक किया जायगा।* यहाँ सुक्ष्मत: उनके सझ्य भाव की रचनाओं का विवेचन करते हैं । जितना कुछ वर्णन इस भाव का इनकी रचनाग्रों में मिलता है वह प्रियनमंवयस्य सखाग्रों का है। ब्रज व्यवहार/ में, दाननीला के प्रसंग में सखाशों का वर्णान किया गया है। गोपियां दध्ि लेकर जंगल से निकलती हैं । गायों को देखने के लिये श्रीकृष्ण पर्वत पर चढ़ते हैं। भन में दानलीला का चाव है | सुबल, सुबाहु, तोष, श्रौर मधुमंगल जो उज्वल प्रेम में चतुर हैं १-देखिए संप्रदाय का विवेचन । ( २७६ ) तथा श्रन्य सखा श्रीकृष्णा के साथ हैं। सब ब्रजमोहन के साथ साथ घूमते हैं। श्रापस में प्रीति कथाएँ कहते है। ब्रज देवियाँ देवीपुजन के लिये गिरि घाधियों से नित्य निकलती हैं। श्रीक्षप्ण के संकेतों को वे समझ जाते हैं और उससे प्रसन्न होते हैं। ब्र॒जांगनाग्नों की पादध्वनि को सुत्र कर गिरि घाट्यों में लकुटों की बेड़ी लगाकर बंठ जाते हैं। श्रीकृष्ण को प्राज्ञा से घाटियों को घेर लिया गया। रस भरी बातें करने, प्रसन्त होकर गाते तथा गाल बजाने लगे । एक श्रोर श्रीक्ृष्ण खड़े हो गए। वे ब्रज तब्णियों रो चपल नेत्रों से देखते हैं श्रौर दानकेलि के चाव से मन ही मन प्रसस्त होते हैं। गोरस के बहाने से मटठकते भरगड़ते हुए हँस हँस कर क्रोध के वचन बोलते हैं। श्रीकृष्ण गहन कुंजों तथा पर्वत कदगाओं में विहार करते हैं। दान केलि में कोलाहल मचता है श्ौर सब ग्वाल दधिि लूटते हुए मिलकर नाचते हैं ।' धनानंदजी ने जिन चार सखाग्रों का नाम दिया है उनमें से सुबल का नाम श्री रूपगोस्वामी ने हरि-भक्ति-रसामृत-सिधु में भी दिया है। यह प्रियनमंवयस्यों में श्रेष्ठ वयस्य है।' दान घटा! में ललिता मधु मंगल को संबोधित करती हुई कहती है कि द्वान माँगने से ऐंठ कर चलते से काम नहीं चल सकता। यदि राधा के गुन गागा कर रिका दो तो उनकी न््यौछावर करके दधि नुम्हें दिया जा सकता है। गिरि पूजन' में श्री कृष्ण गोद भर कर कुछ बाँठते फिरते हैं पर मधुमंगल लेकर भी नट जाता है ।* ये ही महाशय छाक खाते समय दिखाई पड़ते हैं। यशोदा ने श्री कृष्ण के लिये छाक भेजी है | मधुमंगल भख के मारे बड़े चाव से ताकू लगाये बैठा है । छकिहारो छाक लाई तो सब ग्वाल बाल ढाक के पत्तों पर हिल मिल कर खाते हैं ।" इतनी प्रधिक रचनाओं में रुख्य भाव का प्राप्त रोना तौ स्वाभाविहऊ ही है। पर कवि का अनुर ग॒ इस भाव के साथ नहों बव्खाई देता। वह तो मधुर भाव या शांत भाव के ही साथ हैं | राणा १-- व्रज व्यौहार ६५,११२ । २--हु० र० पश्चिम विभाग लहरी $ शलोक २१ । ३--दान घटा ६ । ७--गिरि पूजन २१। ५-- आानंदघत पदावली ६०५। ( रे८० ) मधुराभक्ति रस सवाद रसिया ही जाने बितु रस भये कौन अनुमान यह पहले बताया जा चुका है कि भक्ति प्रवृत्ति मार्ग का घाधन है। प्रवृत्ति का उत्तेजक तत्व राग होता है। श्रत: भक्ति मार्ग में राग का प्राधान्य रहता है| रागतत्व की जितनी प्रधानता श्रृंगार में रहती है उतनी अन्य किसी भाव में नहीं । श्ंगार विशुद्ध राग ही है। श्रन्य भावों में इसका कुछ कुछ अंश विद्यमात रहता है। फलत: रागमूलक श्ंगार का भक्ति में बड़ा महत्व माना जाता है। वहाँ इसे मधुर भाव कहते हैं। भक्ति के पाँच भेदों में मधुरा भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। भक्त लोगों ने इसे भक्ति रसराज' तथा रतनिर्यास! कहा है।! राम कृष्ण का श्याम वर्णा जो भक्ति संप्रदाय में माना गया है श्रौर उसके साथ श्रंगार का भी श्याम वर्गा साहित्य के भ्राचायों ने सिद्धांतित किया है, इस से श्वुगार का भक्ति में प्राधान्य ध्चनित होता है। लोक हृष्टि से श्रवश्य यह शंकनीय है । सामाजिर मर्थादाश्नों का भंग हो ते से यह दंभ जया प्रतीत होता है, इसलिये श्राचार्यों ते मधु रा भक्ति के पात्र उच्चकोट के भक्त माने हैं। उन्होंने इस भक्ति भेद को रहस्य श्रौर दुरूह बताया है । वास्तव में लोक में सबसे श्रधिक मादक श्रौर आध्यात्मिक ग्रभ्युदय का बाधक भाव शुगार होता है। इसका दमन मानसिक्र प्रंथियाँ उत्पन्न कर व्यक्तित्व को दांभिक बना देता है। यदि इसका स्थानांतरण विषयों से इटा कर भगवान में कर दिया जाय तो इसके समस्त दोष गुण बन जाते हैं। भक्त लोग उस आ्रासक्ति कौ कामना करते हैं जो कामी को श्पनी पली के प्रति होती है ।' इसकी मादकता भक्त में रन अकार समाप्त हो जाती है जिस अकार प्रसाद में प्राप्त की हुई माला की , भागवतकार ने बताया है. कि जिन भक्तों की बुद्धि भगवान में संलग्न होती है उनके लिये काम श्वृंगार, उसों सनक आज +: पक आल कटी १--प्रथगेव भक्ति रसराज स विस्तरेण उच्चते मधुर: । उज्वलगी लम णि १० ४ एलोक७० २। ऊष्णरसनिर्यापस्षादार्धभवता रिणि । वही श्लोक १८ २--कामिहि वारि पियारि जिमि लोभिंह प्रिय जिमि दाम | तस रघधुवीर निरंतर प्रिय लागहु माहि राम | तुलसी । ( ३८१ ) प्रकार मादक नही रहता जिस प्रकार भुने या उबले धान उगने योग्य नहीं: रहते ।* मधुर रस और घनश्ानंद घन आनंदजी ने मधुर रस या श्री कृष्ण के संबंध से गोपियों को मिलने” वाले आ्रातंद की भहृत्ता बड़े श्रमिनिवेश से प्रतिपादित की है। उनके भनुसार गोपयों का प्रेम मधुर रस है। यह परम श्रगम्य और दुबाँध है। भवत के हृव्य में भगवान की महिमा का जब तक ध्यान बना रहेगा तब तक इस रस का श्रास्वादन नहीं हो सक्रता। ब्रह्मा, शिव, शुक तथा उद्धव जैसे ज्ञानी भक्त मत्मि के वशीसृत होकर श्र श्चर्य रस में पड़ जाते हैं। वे मधुर रस में प्रव्गाहन नहीं कर सकते। रस परमेश्वर का नाम है। जब तक व्यक्त २सस्वरूप नहीं हूं' जाता तब तक इस रस का आस्वादन उसे नहीं मिलता और वह रस प्रमिल है। उस को तो श्रति भी नेति नेति कह कर पुकारती है । 'रएत सबाद रफसिया ही जाने बिन रस भये कौन श्रनुमाने थे रस अमिल सिले थो काहि निगम नेति करि बरनत जाहि' प्रेमपद्धति १७, १ 2, जिनको इस रस का थोड़ा बहुत श्रनुभव होता है वह श्री कृष्ण की ललित लीलाओों में प्रवग'!हुन करने लगता है। वह श्रत्यंत लघ॒ होकर व्रज॒ २ज की श्राराधना करता है श्रौर गौपी मार्ग सखीभाव पर चलने लगता है । ब्रजरज की कपा से यह रस प्राप्त हो सकता है। ब्रजरज का श्रधिफारी भकक्त तभी होगा जब भगवात स्वयं उस पर कृपा करे। 'रस ही रस अ्रपने रस ढरे तब ब्रज रज श्रषिकारो” १, न मथ्यावेशित धियां काम: कामाय कलपते क्जिता क्वथिता घाना प्रायो बीजाय नेष्यते । भागवत १०, २२,२६। २--प्रेम पद्धति २१ इप रस का आस्वादन करनेवाला एकरस हो जाता है। उसे श्रत्यंत अमोध सुख की प्राप्ति होती है। 'या रस विवस एक रस रहै श्रति भ्रमोघ सुख संपति लहै!' इस की समता करते के लिये कोई भाव नहीं है। यह सबसे ऊँचा आर सबसे पृथक है। उसको प्राप्ति का एक मात्र साधन गोपीमार्ग का श्राश्रयण है। घनानंद जी कहते हैं कि 'मैं इसलिये गोपियों के गुण गाता हूँ. श्रौर उनके श्रनुराग से श्रपना मन अनुरक्त करता हूँ कि इस रस की अनुभूति प्राप्त कर सकें |! तातें गोपित के गुन गाऊें, इनकी रचनि मने परचाँऊ४ “इसका यथार्थ पात्र गोपिकाएँ हैं। उन्होंने इसका श्रास्वादन किया है-- यह संवाद गोपिन ही ल्यौ, नेति नेति निगमन हु कह्यौँ! श्राचार्य श्री रूपगोस्वामी ने उज्वलनीलमणि ग्रंथ में इसका विस्तार के साथ प्र तपादन क्या है। जिस प्रकार साहित्य के रसों में विभाव, अनुभाव, संचारों भाव श्रादि श्रंगभूत होते हैं उसी प्रकार उन्होंने मधुर रस में सब कल्पित किए हैं। लौकिक रस की शंली से भक्ति के रस का प्रतिपादन सर्वप्रथम इन्होंने ही किया है। इसते मधुर भाव का रसत्व अवश्य सांगोपांग स्था.पत हो गया पर भक्तिम्तार्ग को इससे कृति ही पहुँच' । लौकिक रसों की विश्ले- षशणापद्धति के कारण भक्तिभाव भी लौकिकायमान हो गया । इसका फल यह् हुआ कि भक्तिभाव शंगार रस में परिणत हो गया। रीतिकाल मे जो राधाइष्णा नायक नायिका बन गए उसका दोष इस परंपरा को भी देना चाहिए। शअस्तु, लक्षण --- | लोक में स्त्री पुरुष की प्रीति के जिस विकसित रूप को शंगार कहते हैं वही परमेश्वर के आलंबन में जब भ्रपने चरम उत्कर्ष को प्राप्त करता है तो वह मधुर रस क्हलप्ता है। १--प्रेम पद्धति, ४५ २--वही, पृष्ठ ४८ ३--चबही, पृष्ठ ६६ ॥ 5 हे य स्थायी भाव-- इसका स्थायी भात्र मधुर रति है। कुछ भक्तों ने अपने को पुरुष तथा परमेश्वर को स्त्री या प्रिया रूप में म|न कर प्रेम किया है। दूसरों ने अपने को स्त्री तथा भगवान को पति या उपपति मान कर प्रेम किया है। वैष्णाव- संप्रदाय में गोपीभाव तथा सर्ख भाव ऐसा ही है। यह सब रति के प्रयोग- भेद हैं। रतिभाव सर्वत्र एक ही है । स्थायी भाव के भैंद-- मधुरा रति तीन प्रकार की मानी गई है। राधानगी, समंजसा और समर्था । स्वार्थ बुद्धि तथा स्थ!|पिता की दृष्टि से इनमें उत्तरोत्तर उत्कंष है । साधारण रति साधारण रति हरि के दर्शन से उत्पन्न होती है। यह अ्रविक सांद्र नहीं होती । संभोग की इच्छा इसका निदान होती है। भावुक भक्त की दृष्टि भगवान के शरीर संसर्ग पर रहती है इसलिये प्रम की श्रपेज्ञा संभोगकामना अधिक प्रबल होती है। रति का पर्यवपान संभोग में ही होता है ज॑से कुब्जा की रति का। श्रानंदधन के प्रेम का पर्यवसान शरीरसंयोग में नहीं होता इसलिये सांधारणी रति के हृष्टांत इनके काव्य में नहीं मिलते। समंजसा समंजसा रति में पत्नीत्व की भावना रहती है । यह लोकमर्यादा का भाव है। श्रीकृष्ण के गुणादि का श्रवण, चित्रदर्शन अ्रदि से इसका जन्म होता है। स्वमावत: यह सम होती है । इसमें कभी संभोग की इच्छा प्रत्॒ल हो जाती हैश्लार कभी प्रेम की भावना। इसके दर्शन स्वकीयाभाव की रचनाओं में मिलते हैं। श्रानदघत जी को पदावली में कहीं कहीं स्वकोयामाव दिखाई पड़ता है । कोई प्रेयसी श्री कृष्णा को संबोधन करके कहती है--- 'हें बालम हृदय बड़ा व्याकुल हो गया है शीघ्र मेरा स्मरण करिए। भ्रत्र विलंब न कोजिए | श्रनुकुल होकर दुखों को दूर कीजिए। नहीं तो ये मुझे दोड़ कर घेर लेंगे । यदि तुम नहीं समभते हो तो मैं क्या करू। भाप ( ३८७४ ) ने मुझे अपनी बना कर सुला दिया है। पहले श्रानंद की वृष्ठि की श्रौर अब वियोग की अ्रग्ति लगा दी! । समर्था रति' (वक्त दोनों भेदों से श्रेष्ठ यहु भेद माना गया है। इसमें प्रेमी भक्त फो भगवान से किसी प्रकार की तृप्ति का सुख नहीं मिलता । इसके विपरीत प्रिय भगवान की तृप्ति की ही कामना की जाती है। संभोग की इच्छा रति में ही लीन होकर तदात्म हो जाती हैं। इसका जन्म या तो स्वत: ही होता है या प्रिय के अचल संबंध से। इसका थोड़ा सा अंश भी भ्रन्य भावों को विस्मृत करा देता है। इच्छा में ही इत्ना चमत्कार श्रौर विलास रहता हैं कि संभोग की इच्छा का उदय ही नहीं होता | यही श्रपने पुर्णा विकास से महाभाव कहलाती है। जिसका आ्राश्यय. केवल राधा ही मानी गई हैं। ग्रोण्यों में भी यह विद्यमान रहती है । पनानंद ने श्रपनी रचनाम्रों में समर्था रत के ही चित्रण करिए हैं। कवित्त सवयों में पदों में और वर|नात्मक न्बिधों मे रति का रूप मानसिक भावन में ही मिलता है। यह शारारिक वासना से सर्वथ' भिन्न है । श्रीकृष्ण की प्रेमिकी कहती है--“उनका रूप देखकर मेरा मन पारे के कुप के समान उमड़ता है। जितना इसे स्थिर करती हूँ उतना ही चंचल होता है ! यह श्रीक्षष्णा के गुणों की गाड़ में जाकर गिर जाता है। म॑ काम« देव के शुल सहती हूँ। उनके चेटक के धुम्नाँ में मेरे प्राश घुटते हैं। में भ्रपनी दशा क्सिसे कहूँ। श्रब तो हृदय में यही है कि ब्रज के छैल की छाया के समान उन्हीं के साथ सदा रहूँ | कक ३2 बदन लीन जन जिस एज कट कर १--सुरति सवेरी लेहु विसासी बालम जियरा श्रति श्रकुलाण, भ्रबव न विरम करिये ढरिये हरिये दुंख हाहा मतरुआइ है धाय, कहा कहो जो तुम्हहि न समझौ अपनी करि ज्यौ दई भुलाय । आनंद घन रस बरसि सरसि तब तब श्रब लाईं यह लाय । आानंदधन पदावली ५५३ २--मान परद कूप लौ रूप चहै उमहै सुरहै नहिं जैतोँ गहों : गुत गाडनि जाय पर अ्रकुलाय मनोज के श्रोजनि सुल सहां : घनभानंद चेटक धूम में प्रात छुटें न घु्ें गति कासों कहाँ : उर झावत यों छवि छाँह ज्यों ही ब्रजछैल की गैल सदाई रहीं : आरानंदघत सुजानहित ११ जल ( शे८५ ) रस सागर तागर स्थाम को देख कर मैं अ्रभिलाषाशों की धार में बह जाती ँ ' थैये का तोर दिखाई न हीं पड़ता । हार कर लज्ञा की सिवार के ड़ती हैँ। यह बड़े प्राश्वर्य को बात है कि उनके गुण हाथ में लेकर भी डुबती हूँ । भ्रव तो यही मन में भ्राता है कि ब्रज के छौल् की छवि की छाँह के समन उन्हीं के साथ में सदा रहू ।* जिप्त प्रकार ईख का पर्व विकसित होकर पूरा गस्ता, रस, गुड़, खाँड, मिश्री तथा कंद उत्तरोच् बनती जाती है उसी प्रकार यह समर्था रति श्रपनी विकसित श्रवस्था में प्रेम, स्नेह, मात्त, प्रणाय, राग, श्रनुराग, भाव और श्रंत में महाभाव बनती है। इस प्रकार इसके विकास की श्राठ कच्षाएँ हैं। भक्ति- विद्वांत के अनुसार रति ( भ्रभिलाष ) जो परमेश्वर का ही चेतन्यांश जीव में विद्यमान रहती है, वही विकसित होकर महाभाव में परिणत होती है। महा- भाव राधा का स्वरूप है। राधा श्रौर कृष्ण परस्पर में प्रभिन्न हैं। इस तरह समर्था रतिया प्रेम अपने मूल रूप में परमेश्वर का अंश है| श्रौर विकप्तित होकर भी भगवत्स्वरूप हो जाती है। भगवान के चैतन्यांश का ही विकास होकर स्वरूप में पर्यवसान होता है । घनानंद ने इस भाव को इतनी प्रच्च॒ुरता के साथ वर्शान किया है छि उसमें सरलता से इसके समस्त भेद भ्रा गए हैं। इससे यह सिद्ध करता कि कवि भक्ति के उपयुक्त शास्त्रीय विवेचल से परिचित था, कठिन होगा । इस विषय में कोई ऐतिहा सक प्रमाण नहीं है। उसका काव्य साधारणतया प्रेम- परक है। शास्त्रीय भेदों का इसमें कोई संकेत नहीं। पर ये सखी भाव के उपासक होने के कारण मधुरा भक्ति के पिद्धांतों से परिचित रहे होंगे--बह प्रनुमान करने में कोई आपत्ति नहीं होती चाहिए ; श्रस्तु । पु उपयु कत भेदों के लक्षण स|हत उदाहरण डीचे दिए जाते हैं । प्रम प्रेम प्रेमी ओर प्रिय फा पारस्परिक भावबंधन है जो विरोधों कारणों से कभी नहीं टूटता ।* जैसे प्रेमी भक्त श्रनुभव करता है कि :-- देखने मात्र से ही घन आनंद ने मेरा हुदय गुणों से बाँध लिया। इसके: १--वही, १३ | २--सर्वथाध्वंसारहितं सत्यपिध्वंस कारणों । यदभाव बंधन यूनो: स प्रेमापरिकीतित: उ० ती० मणि, पृ० ४१८ २७ क् ६. व: ) अपना खेल किया । फलस्वरूप यह उलभ गया। श्रब यह प्रीति के फंदों में गेंस कर कस गया है। छलकपट से इसका सुलभाना नहीं हो सकता। 'सुजान श्रव भूल कर भी सुध नहीं लेते, उनके हृदय का छिपा रहस्य जाना नहीं जाता। अरब इसी परेखे से दु:खजाल में पड़ा हुआ मन मुरभाता है ध्वंसायोग्यता दुःख धूप की छूँवरि में गिर कर यदि मेरा प्राण घुट जाएगा तब भी मित्र सुजान से नाता नहीं टूट सकता ।” स्नेह प्रेम की विकसित दशा का नाम स्नेह है। सस््ने है श्रपने तेज से प्रेमी के हृदय को द्रवीभृत तथा श्रंतश्चेतता के दीपक को श्रौर अ्रधिकर प्रदीप्त कर देता है। भावों को लपटों में पड़ कर यह घृत का कार्य करता है। इसके उदय हो जाने से प्रिय के दर्शन-स्पर्शन से कभी तृप्ति नहीं होती है ।' इसमें हृब्य के द्रवीभाव श्रोर अतृप्ति के निम्नलिखित छदाहरण हैं । हृदय का द्रवीभाव तुम्हारी निकाई पर मेरी राक ही बिक चुकी है। देखते देखते देखना ही बंद हो गया है । यौवत--घुमरे नेत्रों को देख कर बुद्धि बौरा गई हैं। उसने श्रपनी ममता न््यौछावर कर दी है। तुम्धरी वाणी में मेरी वाणी विलीन हो गई है| तुम्हारे न देखने को देखने से जीवित रह रहा हूँ। इससे श्रधिक और क्या होगा ?” “रीभ बिकाई निकाई पें रीक्षि थकी गति हेरत हैरत की गति । जोबन घुंघरे नैन लखें मति बौरी भई गति वारि वौ मो मति । बानी बिलानी सुबालनि प अन-चाहनि चाह जिवावति है हृति | जान के जी की त जानि परे घन बआानेंद या ह ते होत कहा श्रति |” सुहि० ३४ अतृप्ति प्रिय के दर्शन-स्पर्शन होने पर भी तृप्ति का न होना दो कारणों से हो जाता है। एक तो संयोगकाल में हर्षविभोर होकर प्रेमी की चेतना लुप्त हो जाती है । दूसरे अभिलाषाओों की बाढ़ आने से संयोग का सुख श्रभिलाष के दुखों में दब जाता है ।.प्रत्येक के उदाहरण जैसे---...., १--सु हि० २२ :३: स॒हि ३ २--उज्वल नोलमणि पृ० ४२४-४२५, कारिका ७०-७१ ( ६८७ ) हुं विभोर को चेतना का लोप 'हे प्रिय तुम्हें चाहे कुछ भी भ्रच्छा लगे पर मेरा मन तो तुम्हारा वर्णन करना चाहता है । लेकिन बुद्धि की प्रगति थक जाती है। हे माधुरी निधान ! तुम्हारे थोड़े साक्षात्कार से ही सुधि अ्रपनापन भूत्र जाती है। अ्ंतः:करण लालसाशों से भींग जाता है। फिर आनंद घत ? संयोग का सुख कंसे प्राप्त हो । “तो हि जैसी भाँति लसे, बरनिवों मत बसै, बातो गुन गसे, मति गति बिथक तहीं। जान प्यारी स॒धि हूँ श्रपुतरता विप्तरि जाय, माधुरी निधान तेरी नेसिक मुँहाचही। क्पोंकरि भानंदधत लहिये संजोंग सुख, लालसानि भीजि रीमि बातें न परे कहीं |!” सहि० २०० अभिलाषाधिक्य हु है प्रिय तुम्हारे मुख की ओर देखने की इच्छात्रों से उमाह का भा लगा ही रहता है। और बिना संयोग बने वियोग का दुख टरे कैसे ? कभी यदि स्वप्न की तरह तुम्हें देख पाती हूँ तो मनोरयों की भीड़ लग जाती है। फलस्वरूप मिल कर भी मि शप नहीं मिलता । “मुख चाह'न चाह उमाहन को घन श्रानद लाग्यौ रहैई भरे। सनभावन मोत सुजान संजोग बने बिन कैसे बियोग टरे | कबहूँ जौ दई गति सौं सतनोसोी लखों तो मनौरथ भीर भरे । मिलिह न मिलाप मिले ततको उर की गति क्यों करि व्यौरि पर ।? सुहि० ७२ सा फ स््वेह में उत्कृष्चता आजाने से नवीन प्रकार का माधुये श्रनुभुव होते लगता है। श्रात्मीयता बढ़ने पर ऊपरी छदमकोटिल्य जो धारण किया जाता है वह मान है | जैँपे-- १--सु हि० २०० । २--स्नेहस्तूझष्टता वाप्त्या माधुर्यमावयत्तवम् । योधारयत्यदाक्षिएपं स मान इति कीतित; ॥॥ उ० नी० मणि, का० ८७, प० ४३२ ( रेठव ) 'हे राधे सुजान | इधर ध्यान दो। प्रेम में मान मरोड़ कहाँ की जाती है ? तुम्हारा तो मन मक्खन से भी अ्रधिक कोमल है। फिर यह कठोरता की! बात कहाँ से पड़ गई ? स्यथाम से मिल कर तुम कसी शोभायमान होती हो-... यह कहा नहीं जाता। वह आनंद का घन होकर भी तुम्हारा पपीहा है; ब्रजचंद होकर भी तुम्हारा चकोर है | “गधे सजान इते चित दे हित में कित कीजति मान मरोर है। साखन ते मन कोंवरों है यह बान न जानति कैसे कठोर है। सावरे सो मिलि सोहति जसी कहा कहिये कहिबो को न जोर है। तेरो पपीहा जु है घन शभ्ानँद है ब्रजचंद सो तेरों चकोर है ।(” प्रणय मात में पारस्परिक विश्वास की वृद्धि हो जाने से प्रशयकोटि श्रा जाती है। इसमें प्रेमी तथा प्रिय के प्राण, मन, बुद्धि तथा देह एकमेक हो जाते हैं ।* प्रत्येक का उदाहरण जसे--- हृदय को एकता ' मीत सूजाबव के मिलने का महासुख श्रंगों को बेसुध किए हुए है । रस रंग में पगे हुए सब स्वाद जाग गए हैं। इस सुख की प्रेमी ही जानते हैं ॥ इनके दो हृदय मिलकर एक हो गए हैं। घन आनंद का शुद्ध सामीष्य मिल गया है ।! “मीत सुजान मिले को महा सुख श्रंगनि भोय समोय रहो है। स्वाद जगे रस रंग पगे भ्रति जानत वेई न जात कटह्मो है | ढ़ उर एक भये घुरि के घनपशानेंद शुद्ध समीप लो है।रे” सर्वात्मि ऐव्य 'में' तुम्हें देख कर जीवित रहती हूँ। तम्हारे रूपामृत का पान करती हैं। पानी में रंग की भांति मैं तुश्में मिल जाऊँ। पर तुम मिलते नहीं हो # "3 20 कक+ 5 ताक +> ५० भमभ ५३४५ ५४०७५ ५७». ७.५>-थन«»»+भावनममव-३०७७४५५५०७५ ५ बह ००००० १- सुहि० ३७२ क् न २--३० नील मणि, कारिका ६८, पृ० ४३७ रे+-युहि० २२६ घ० ग्र॑ं०, पृष्ठ ७७ ( रे८९३ ) “तुम्हें देखि जियों पियों वूप श्रमी घनप्रानेंद प्यारे सदा सों कहीं । मिल जाहूुँ तम्हें रंग तीर नों पाय, पै हाथ मिलौ नि तासौं कहौ ।! प्रेम चंद्रमा को चकोर तथा चकोर को चंद्रपा बना देता है। इस सिलाप में कामनाएँ लुप्त हो जातो हैं। भले ही प्रेमी और प्रिय देखते में दो हों पर यथार्थ में वे एक ही होते हैं । “चंदहि चकोर करे सोऊ ससि देह धरौ मनसा हु रर एक देखिबे कौं रहें हैँ ।” शरीर की एकता मेरे अंग-अंग उन्हीं के साथ रंगरँगे हो गए हैं। मनर्सिहासत पर भी उन्हीं का ध्यान विराजमान है। ' भ्रंग श्रंग मेरे उनहीं के ध्ैंग रंग रंगे |” शग प्रणाय में उत्कर्प भ्रा जाने से वियोग का दुख भो जब्र सुख जैसा लगता हैं तो राग दशा कहलाती है। जिस प्रकार रंग वद्न को श्रपने स्वहूप में रँगकर उसके रूप का शअ्रपक्षत्र कर देता है उपी प्रकार प्रेमाधिक्य प्रेमी को प्रवृत्तियों को प्रियमय बना देता है * ज॑से---- क् हमारे भाग में स्पृति झ्राई है तुम्हारे में भूल। तुम्हें केप्ते उलाहना दिया जाय। अब तो हमने सब सिर चड़्ा लिया है। ग्रापको जो गअ्रच्छा लगे वहीं क्रोजिए | में नो तुम्हारी बातों से ही जोबित रहती हूँ। तुह्हें तेरे क्या उत्कंता होगी। पर सदा अपन्न रहो यहू हमारा श्राशीवाद लीजिए ।? “इत बांठ परी सुत्रि राबरे भूलनि केसे उराहनों दीजिए जु । प्रव तो सब्र सोस चढ़ाय लई जु कछू मत्र भाई सु कीजिए छू । घााप्रानंद जीवन प्रात सुजान तिदारिय बातनि जीजिए जु। नित नीके रहो तुम्दें चांड़ू कहा पे अ्रश्नास हमारियों लौजिए जू ।/ सुहि० २५७ 'तिकनानकननननानननन 6५ ह्रननोनन.... कक)... अन्क++.3. नो स्पनलन ३७3० आर मी अिक बयकमत अपन अमन» १--जही ४६५, पृ० १४० २--वही २६६, ४० ६५ ३--वही १०१, १० ३३ ४--उ39 नी० मणि, १० ४३८ , कारिका ६६, ( ३६० ) माधुर्य तेरे री मुख की ज्योति श्रागे कोटिक सरद चंद मंद लागे। लसत हसनि दसननि की मथूख॒नि दम|के नंदकिसोर चकोर नेता नव चैन पियूषति पागै' लज्जां “सकुचनि सोहे निहारि न सकिये । लालन सनमुख है बड़भागिनि गुरजन डॉट निकसिये | झोट भएँ मुरकानि होत सब अ्रंग सिथिल हु थकिये । श्रानंद्धत रसपान करन कौ प्रान पपीहनि लगिये टक जक्यी (४९ मर्यादा “ब्रज मोहन प्यारे की घ्लुरलिया बाजि रही । सोवन देति न सोवति बैरिनि ऐसी टेक गही । धर के घेर परी तरसति हों भ्रानि बनी सु सहीरे” ७ 0 घय “बरजत बरजत अँखियनि व्रजमोहन मुख चाह्यौ धीरज धन दे हाथ परायें बिरहा बिषहि बिसाह्यौ*?! विलाप “हँसि हँसि करे बातें रंगीले दोऊ मदमाते । मोर स्थाम अभिराम अंग शैँग हिय उगम बाढी गाढी श्रति सरस परस ललचाते | “नई तरुनई की ओप भई मुख सख समोह पुलकाते । रीकफि चौप भ्रार्नेदत बरसत मिलत हारक रि हाते”” 20 मनन मिकक अल कक न किक, '१--वही ६६७ । २० ग्रा० पृू० १७८ ३--वही २१९ ४--वही ३३० श- वही ३६८ ( ३९१ ) महाभाव “जावती बतियनि लगि लगि छतियनि लाग निपट रस बसे रसाल। जोवन रूप अ्रनंग रंग राते मदमाते करत रेगं,ले र्याल | छैल छबीले राधा मोहन प्रेम पगे जगमगे ल ल | आ्रानेंद घन रस भीजे रीके बिलसत हुलसत बाढति चौंत विसाल ।”? नववंय “जोवन मौरयों बसंत फुल्मों सरम गुराई गोभा निकसी । श्रंग भ्रंग नवरंग जगमगे मुख सुख सदन चंद्रिका बिकसी । रसिप्रा मधुप लू भयौ डोले बत बोले सो ले घुनि परिक सी |” उज्वलष्मित “ललित हसनि दक्षतनि कीं मयूखनि दप्रकि नंदकिसोर । चकोर नेता नव चंत पियूषनि सौं पागे।! सौभाग्य “देखो राधा को सूद्राग याके सरोबर पर अनुराग | कान्ह कत बसंत मूरति नित याके बस बड़ भाग । बिहारन कौों वृदाबन बाग । याकी रूप निकाई बिधना याहि बनाई याके गुन | मुरली में गावत पूरत विविध रागिती राग। याहि परसि सरसत आनेद घन पगे परम पा पाग । गंधाढ्यता भ्रति सुगंध मलयज घनसार। “मिल्नाइ कुसुम जल सौं छिरकाय उसोर सदन बंठे मदन । मोहन संग ले राधा प्राननि प्यारी रति रंगति। १--वही २०६ २--वही ३--वही ६६७ ४--वही ६७२ 7--वही ७६४ ( ३९२ )- प्रियमय वृत्ति है प्रिय तुम भेरी दृष्टि के श्रागे घूमते हो । पर बोलते नहीं । भेरा कप बस है। मुझे तो वियोग में भी निकट ही दिखाई देते हो । “दीढि आगे डोलौ जौ न बोलौ कहा बस लागे । मोहि तो बियोग हु में दीसत समीप हो |” सुहि० ६४; घ० ग्र०, पृ० ३१ अत्तराग जब राग ही तवीन-तवीन रूप धारण कर पूर्वानुभूत प्रिय वस्तु को नवीन रूप से दर्शाता है तब अनुराग दशा होती है । जैसे: -- आप के रूप की यह नई रीति है जितना देखें उतना ही नया नया लगता है । रावरे रूप की रीति घनूप ग्रनप नयौ तयौ लागत ज्यौं ज्यों निहारिये उधर ज॑से ज॑से मुखपर आभा बढ़ती है इधर वैसे ही चाह बढ़ता जाती हे । ज्यों ज्यों उत प्रानन प श्रानेंद सुशऔप औरे त्यों त्योँ इत चाहन मैं चाह बरसति है' प्रकी्णक १३, घ० ग्र०, पृ० ५८८ भात्र अनुराग को वह जत्कृष्टातस्था भाव कहनाती है जिसमें बुद्ध का ₹ गोण तथा हृदय या भाव का स्थान धान हो । प्रेम स्॒त्त्रेध हो, बुद्धि द्वारा पर सवेद्य न हो । धतानंद जी ने प्रेमी-हुदय की इस दशा का जिसमें मन ग्रवचेतन हो जाता है, अनेकत्र वर्णान किया है। इन्होंने काव्य रचना करते समय श्रपने हृदय की दशा भी ऐसी ही बताई है । “लोग पे लागि कवित्त बगावत मोहि तौ मेरे कवित्त बनावत” १-सदानुभूत मपि यः कुर्यान्नवनवं प्रियम । रागो मवस्तवनवः सोड नुराग इतोय॑ते 3७ नो» म०, कारिका १३ ४ १५४५४ ( ३९३ ) इस दशा में ज्ञान के सावन आँख, कान आदि ग्रपता कार्य करना बंद कर देते हैं । प्रम की मोहवी शक्ति जागरूक हो जातो है । विरक्त प्रेमित्रों की 'रह॒चि के वर्गान में कवि ने इस भाव को व्यक्त किय! है | जेसे-..- हैं श्याम आप का रुचिर रूप देख कर मेरामन बावला हो गया है। वह कोई शिक्षा नहों सुनता । बुद्धि श्रत्यधिक तृप्त हो गई है। वह रति>णत में भींग गई है श्रत: उसकी गति थक गयी हैं। रीक को उड्ेलता हुप्रा प्रेम का अ्रनंदधत उमड़ रहा है + नेत्र, वाणी, चित्त मेरे बस में नहीं हैं। मैं श्राप के गुण की रस्सी पकड़ कर भा प्रंम रस में डूब रही हूँ ।! मनिरखि सूजान प्यारे रावरों रुचिर रूप, बावरों भयौ है मन मेरो न सिखे सुने। मति श्रति छाकी, गति वाकी रति रस भीजि, रीकि की उमिल घनप्रानेंद रह्यौ उने नेन, बन चित चेतन है न मेरे बस, भेरों दा भ्रचरज देखो बूढ़ति गहैँ गुने (सुदि० २५, घना» ग्र०, ४० १०) 'रूप के सेनाप।ते को सजा हुआ्ना देख कर धर्य रूपी दुर्ग रक्तुरु दुर्ग छोड़ कर भाग गया है। प्रेम के हृदय नगर में प्रवेश करतेही नेत्र उच्त से जा मिले । लज्जा लूद ली गई | उसका कुछ भी न बचा प्रेम की दुद्गाई सारे तगर में फिर गई । कुलनियम रूपी लड़ाकु बाँध लिए गए । चतुर रीक पटरानी बन गईओऔर बुद्धि बेच।री दासी बन कर बच सकी । 'रूप चमप सज्यो दल देखि भज्यों तजि देसहि घीौर मामी । नेन मिले उर के पुर पंठत लाज' लुटी न छुटी तिनकासी । प्रेम दुह्ाई फिरी घनग्मानेंदर बाँघि लिए कुल नेम गुढाती | रीमि सुजान सी पटराती बची बुधि बापुरी ह्वु करि दाती ॥! (सुहि० ४८, १० १६) महाभाव जो अपने श्रास्वाद में श्रयृत तुल्य हो तथा जो मन बुद्धि आदि शात साघनों को श्रपने स्व6प में विलीन कर ले वह प्रेमानुभति महाभाव कहलाता है। इसका अनुभव भक्ति परंपरा के अनुप्तार केवल ब्र॒जदेवियों को ही होता ( ३२६४ ) है!। लौकिक प्रेप की अ्नुभृति में यह दशा नहीं होती। श्रधिदेव प्रेम श्र्थात् भक्ति में ही इसके दर्शन होने हैं। आत्मविभोर होकर किए ग ए राम या कष्ण के विरहानुभव में प्रायः इस भावस्थिति का दर्शन होता है । यह अनिवंचनीय है । “ब्रज को विरह बरने कौन । टरत विचार विचारि हियतें गहति बानी मौन । स्पाम बिछुरे कहों कैसे क्लै रह्मौ सब स्याम | बिछु रे मिलि मिलि बिछुरि जीवत मौन टेरत नाम । यह सेंजोग वियोग व्यापनि बचत क्योंडब समाय । मन कहाँ था रस परसकों सुनत जड़ है जाय। ते लहैं हुढ़े तेई सोई सहैं यह धूम । हाय ब्रज ब्योहार गति श्रति मतिहि वितुनति धूम । लाल ब्रज मोहन छंबीनो रैनि दिन हग संग। धुमड़ि घुरि घुरि उधरि बरसत चोंप चेटक रंग | रमन ब्रज बन गिरि ज्मुन तट मचि रहो गह खेल । पत्र भावसर बढ़वार आनंदधत महारस रेल ।*” आअलंबन मधुराभत्ति के श्रालंबन श्री कृष्ण तथा उनकी बल्लभाए हैं, जो ब्रज सुंदरियाँ मानी गई हैं। श्री कृष्ण का “रसिक्र! रूप ही इस में ग्राह्म है | श्री क्ृष्णु को भक्तों ने भधुर-रस-सर्वस्व! तथा श्यृंगार रस के लिए श्रवतरित मात्रा है। गोपिकाओं को भी प्रेम का अ्रवतार माला है। भागवतकार के श्रनुसार भुक्तिदाता भगवान से जो सुख गोपियों ने लिया है वह ब्रह्म शिव तथा शरीर वासिनी लक्ष्मों भी न हीं ले सकती। वे आनंद रस से सदा प्रति- भावित रहती हैं तथा भगवान ही की कला हैं। सर्वात्मभूत बह आदि नल नम न वश १--अ्ज देव्येक संबंधी महाभावस्योच्यते वर मृ+ १ सुपश्री: स्व स्व रुप॑ मनोनयेत उ० नी० म०, करिका १४५५ पृ० ४६३ २-पअभ्रानंदघ्रन पदा ०, ६८९१ ( ३६५ ) पुरुष इनके साथ गोलोक में नित्य निवास करता है। धतनानंद जी ने गोपियों' तथा राधा की प्रशंसा में सेकड़ों पद लिखे हैं | ज॑से-- “प्रेम तो गोपिन ही को भाग । जिन के नंद सूनु सों साँचदौ रच्यौ राग अनुराग ॥ कहिय कहा निक्राई प्त्त की जो कछु लागी लाग। सर्वसू बिसरि बिप्तरि सृधि साधी महा मोह की जाग ॥ ब्रज मोहन की महा मोहनी अ्रनुपम अ्रचल सुहाग | ग्रानंद घन रस भेलि भालरी नव बूंदावन बाग ॥ >< >< »< »८ गोपिन की पदवी श्रगम लिगम निहारत जाहि पद रज विधि से जाँच दह्वी कौन लहै फिर ताहि।” राधा इस मणिमाला का श्रेष्ठ रत्त है। “प्रिय का स्पर्श तथा रस इन्हीं को मिला है। वह अनुराग की मंजरी राघा के नख शिख पर फैलती फूलती है। उनका मुख प्रिय रस के सुख का सदन है। वह श्रानंद का घन राधा केः प्रास पास घुमड़ता रहता है। “पिय को परस रसतें ही पायो। सुर राधे भ्रनुराग मंजरी उरजनि बीच दुरायौ | इनकी फल फैल परी नखसिख डहडहों मुख सुख सदन सुहायो । ब्रज मोहन श्रानंद घन रीफनि घमडि घमड़ि रमडि रमलि सरसायो मधुरस के प्रसंग में राधा के १९ गुण माने जाते हैं। माधुर्य, तववय,. उज्वलस्मित, सौभाग्य, गंधाव्यता, संगीतविज्ञता, रमशीय तथा नमहास्य में प्रवीणता, विनय, करुणा, वैदग्ध्य, पाटव, लजा, मर्यादा, धंय, गंभीरता, विलास, महाभाव, गोकुल प्रेम, सखी प्रणय, भ्रादि । शरद घन पदावली में प्राय: इन सभी के दर्शन होते हैं, जेसे-- जि र। १) १--भ्रा» घ० पदा०, १६२ २-प्रमपद्धति १७ । ३--श्रा० घ० पदा०, ५३४। ( ३६६ ) संगीत विज्ञता “सकल कला प्रडीन वृषभान नंदिती रस रास नाचै। मंडल मधि लटकि लटकि नाचत पिय प्यारी। चॉप चुहल सचि सचि सुकरि श्रलाप चारी। विरल राग रूप रचत खस्रवन मीदकारी।!” सखी' प्रणय “जेमन करिया कान देख मेईं करिबो प्रान सखी विसाखा बिनती मने धरिवाँ बंसी की धुनि सुनि सुनि श्राछ्े विकार मदन श्रतल जाला भ्रंतरभार स्थामे रम रम कथा बूभिते ना पारी आ्रान॑दधन त्रजमोहन बिहारी |” ( श्रा० प०, ६५० ) इस प्रकार श्रो कृष्ण श्रौर गोपिकाएँ, जिनमें विशेष रूप से राधा है, मधुर रस का आ्रालंबन हैं। ये ही श्रशश्नय भी हैं | ब्रजांगनाओरों को मधुर रस के प्रसंग से हरिबल्लभा भी कहा जाता है। इनके भेदों के स्वरूप भी ग्रानंद घन की रचनाझ्रों में मिलते हैं । हरिबल्लभाश्रों के भेद हरिब्रल्लभायें प्रथप्तः दो प्रकार की हैं। स्वकीया तथा प्रकीया | रक्मिणी सत्यभामा श्रादि द्वारिका की पारिए-गृहीत पत्नियाँ तथा श कृष्ण में पति भावनर रखने वाली कुछ ब्रजांगनायें स्वकोया हैं। लौकिक स्वीकीया- नायिकाओों की तरह इनमें प्रेम शैथिल्य नहीं रहता । परकीया की अपेक्षा न्यून भ्रवश्य होता है | शेष ब्र॒जांगवाएँ परकीया हैं । इनके भी तीन भेद हैं--- १-- साधनपरा २-- देवी ३--नित्य प्रिया सावन परा ब्रजागताशों में यौथिकों श्रयौथकी दो भेद हैं। जो कृष्ण को सामूहिक रूप से भज्नती हैं वे यौथिकी हैं | ' गोपीबल्लभी पद्म प्राण के अ्रनुसार मुनियों तथा उपानषदों के श्रव- तार हैं। ये मिल कर ही भगवान के मधुर रस का श्राध्वादन करती हैं। (--बही ६६५, ४०६, ( ३६७ ) झ्रत: यौधिकी हैं। श्रयोथिकी एकाकिनी होकर रसास्वाद लेती हैं। धनानंद जीते ब्रजबालाग्रों में ही योथिको अयौधिकी दोनों प्रकार की दिखाई हैं! रास, होरी, दानलीला श्रादि में ये यौथिकी हैं। श्रन्यत्र पतवट, गोदोहन श्रादि में भ्रपोथिकोी । यौथिकी' “मची चुठल चाँचरि की नंद महर के द्वारे। श्राई उमहि ब्जबधू चोंपति चतुर खिल!रे। सुमिल सुगीतनि गावें निपट रसीलो भासनि। मोहन मनहि घमावे प्रेम लपेटी गारनि । फ्रूमर फमक रमक सो भेत्ररि भरन लगा है। खुलनि भुलनि भश्रलकनि कौ मिलि मुख ज्योति जगी है ॥[” आनंदधन पदा०, ५३० ग्रयौथिकी “गोकुल गाँ के वार डगर बताई रे हाौं भूली। बिछुरि परी सहचरिन संग तें डोलत बन बिलकाय रे ॥ सांझ निकट घर दूरिसाँवरे हियरा सोच सताइरे। सुनत ही भ्रुमि श्राए श्रार्नेदधन देनी गेल बताई रे ॥ आरा० घ० पदा०, ८६४ 5“लई कन्हैया ने हों घे।र । खोरि साँकरी माँक सभोखें भ्राइ गयो स्तहूँ तें हेरि ।। कौरी भरि उर धरी श्रौचकाँ अभ्रकली काहि सुनाऊ टेरि। [नेंदघन घुरि सराबोर लरि पठई घर कौ निपट लथेरि ॥ ग्रा० घ० पदा०, १६७ नित्य प्रिया राधा, चंद्रावली श्रादि प्रमुख ब्रजांगनाएँ जिनमें कृष्ण के समान ही नित्य सौंदर्य, नित्य वेदग्ध्य आ्रादि गुण विद्यमान है, नित्य प्रिया कहलाती हैं | इन में राधा सर्वश्रेष्ठ हैं| राधा के प्रेम, सौंदर्य, सुहाग, विलास, रास, होली आझादि के सैक्ड्रों पद, कवित्त, स्वये, दोहे घनानंदजी ने लिखे हैं। वे राधा के ( शैध्प ) ही उपासक थे | सुजान का प्रयोग उन्होंने उत्तर काल में राधा के लिये ही किया है ! जेसे:-- “राधा पिय प्यासने भरी आनेदधन रसरासि। स्थाम रंगसयी सगमगी राधा , रही प्रकासि ||” प्रियाप्रसाद, ८७ राधा के प्रेमानंद को या तो श्रीकृष्ण जान सकते हैं या स्वयं राधा । “राधा के आनंद को मन मोहन मन साखि | राधा की अभिलाष जो राधा प्रिय श्रभिलाष |.” वही ७७ द्ेवियाँ भगवान के अंश, उसी की तुष्टि के लिये जो बृज में श्रवतरे वे देवियां बनती । येगोप कन्याएं बत कर अशिनी राघा की प्रिय संखियाँ बन गई | इनकी संख्या तो अ्रपरिमेय है पर मुख्य आठ ही मातवी जाती हैं। सखी संप्रदाय के भावुक भक्त इन देवियाँ की भावना श्रपने में रख कर भगवान के निकट पहुँचना चाहते हैं। सल्लियाँ राधा कृष्ण के युगल रूप से तथा पृथक् उृथक् रूप से काम जन्य रति हुदय में रखती हैं। पर अपने व्यक्तिगत सपोग की कामना नहीं करती ।॥* समझ समय रस भेद की बतियानि सुनाऊँ । भीतर की कंसे कहों उठि बाहिर आऊ' ॥” राधा के सुख में ही अपना सुख मानती हैं । “राधा रीम श्रटपटी श्रति है सोई मो मति की गति अ्रति है?” नह १--उ० वी० म०, पृ० २१७ । २--मतोरथ मंजरी १०७ | ३--वृषभानथुर सुषमा वर्णान १७ | ( ३६६ ) राधा को स॒ख मेरो सुख है ! इन में भी ललिता भ्रौर विशाखा श्रेष्ठ हैं। राधा की रहस्य केलि में इनकी सेवा रहती है । सखी संप्रदाय के भक्त राधा कृष्णा को प्राप्त करने के लिये इन स खयों की श्राराधना राधा के हो समान करते है। घवानंदजी ने बहुगुनी को भी ललिता श्रोर विशाखा को कृपापात्री माना है। बहुगूनी कवि का सखी भाव का नाम है । ललिता सखी मोहि श्रति माने । राधा को हित ले पहचाने । प्रीति बिसेल बिसाखा करे। बिहेस बोलि माथे कर घरे ॥ श्रव॒ इन सखियों के उन कार्यो का उल्लेख किया जाता है जो राघा कृष्ण के प्रीति मंबधन के लिये ये करता हैं । १ कृष्ण का राधा के तथा राबा का कृष्णा के गुण का वर्णन करना। कृःरःगुर प्रस्थापन राधा से “सॉँवरे छेल की झआाछी श्रेंगंट पं कप्म करोरिक वारिये जेहि के । नैसक हेरेये मेरिये सोहेंसुएरी सुजानयों चोरिये मोहिकी ॥” राधागुएप्रस्यापन कृष्ण से “देखि |जयो न छियों घनआनँद, कौबरे भंग सुजान बधृ के । चोली चुतवाव्रट चीन्हें चुमें, चपि होत उजागर दाग उत् के ।” सुहि० १४६ २--राधा कृष्ण का परस्पर आतक्ति कराना “लाल ब्िहारिनि को तहाँ रस रोतिनि ल्याऊ । सुखद भावती तलप को शअभिलाष पुजाऊँ »< >< »< समझि समय रस भेद को बसियानि “न,कऊ >< कप >< प्रम चतुर रस रीति मैं हों हितू कहांऊ मनोरथ मंजरी ८, १०, १६ १---प्रियाप्रसाद ४८, ४६ | २--वृषभानपुर सुषमा वर्णान २६, २७ । ( ४०० ) ३ अभिसार के लिये प्रेरित करना “अ्रंजन दें री राधे न करि गहर हे हा हा । निभतक बार टरी जाति मन भावन ब्रज मोहन मिलन उमाहा ॥? ( आ० घ० पद[०७ ४६२ । “चलि रात्रे वुंदावन बिहरन झ्लौसर बँधों है मनोरथ पुरवा । झानंदघत पिय बैन बजावत श्रति शआरारति सौं ताहि बुलाबत, ले रीभनि भीज॑ सुरवा ।” ( वही ६७१ ) ४ सखी का कृष्ण को समर्पण करना “ल्याइहों मताय करि करि मनुहारि। ग्रब॒ तुम लेहु निहोरि रसिकबर सपुझ सँभारि। जाके श्रंग सग सुख चहिये ताकी सहिये रारि गारि। आ्रानंदघत तुम सुधरराय रस राखिये बिचारि।” ( श्रा० घ० पृदा० ५१२ ) ५ मधुर परिहात / उक्ति जुकति रस भरी उठाऊँ। भाग भरी को हरष बढ़ाऊँ॥ चंद कवित्तनि रटो चटक सौं। कहीं प्रेम रस रंग श्रटक सौं ।” ( वृपभानपुर रुषमा वर्णन १८, १६ ) ६, वेष भूषा बनाना “पुहुप पुंज बीनत रंगभीनी | माला रचति गास गहि भीनी ॥। सुहृद सखी सिगारनि सर्ज। श्रण्कि प्रान से राघे भजे |” ( भावना प्रकाश ७०, ७१ ) ७, दोनों के हृदयरहरयों को चतुराई से प्रकट करना रीभनि बिवस होत जब जानौं , तब बहुगुनी कला उर श्रानौ॥ दुरी बात हु उघरि पर जब । सो सुख कह्यौ परत न कछु तब ॥” ( वृष० पु० वर्णन २१, २३ ) ( ४०१ ) ८ श्री कृष्ण अथवा राधा के रहस्यों पर पर्दा डालना विसाखा कृष्णा को गोपी वेष में भुलाने लाई है। इस गृप्त रहस्य की शोर व्यंग्य करती हुई सखी से राधा कहती हैं । “को है जु विसाखा यह पाहुनी तिहारी।” साँवरे बरत मन हरति लजोंही बानि ऐसी लगति कहूँ कबहूँ निहारी ।॥ मेरे मद भावति है भूले तो भुल्ाऊ याहि हों तो याकी ऊ56 की परख- पचिहारी ॥” ( भ्रा० घ० ७१६ ) ९ शिक्षण देना “राधे छुजान इतें चित दे हित मैं कित कीजति मात्र मरोर है। माखन ते मन कोंवरों है यह बानि न जानति कंसे कठोर है। साँवरे सोँ मिलि सोहत जेसी कहा कहिये कहिबे को न जोर है। तेरो पपीहा जु है घनग्रानंद है ब्रजचंद सु तेरो चकोर है ॥।” ( सुहि० ३७२ ) १० व्यजनादि की सेवा करना “राधा मदत गुपाल की हों सेज बनाऊँ। दूध फेव फीको कर बर बसन बिछाऊँ। बासती नव कुसुम रुचि रुचिहि रचाऊँ। नव पराग भरि भाव सो तिन पर बगराऊँ।” ( मतोरथमंजरी १, ३ ) राधा पिय प॑ विजना ढोरों। स्क्रमजल सुखऊँ मनरस बोरों | ( प्रि० प्रसाद १९ ) ११ प्रेम संदेशा पहुँचाना “कहिये कहा हरि हिय की आरति जु कछू बढ़ी राघे ठकि तोहि। रूप नवेली निहारि लेहि नेंक्र जिन श्रेंखियनि श्राई उनहिं जोहि॥ प्रानंद धत अभ्रभिलाएा सजल हग हा हा कहि पठई टोहि” ( आ० पदा० ६२० ) इस प्रकार मधुर रस में भगवान श्री कृष्णा, राधा, ब्रजांगनाएँ तथा सखियाँ आ्रालंब्रन श्रौर आ्राश्नय बनते हैं। चंतन्य संप्रदाय के श्रनुयायी श्८ ( ४०२ ) इस रस का सर्वोत्कृष्ट परिपाक उपपत्ति रति में ही मानते हैं। साहित्मिकों ने भी शुंगार रस की उत्क्ृष्टता उपपति भाव में ही मानी है। उद्दीपन विभाग इस रस के पाँच प्रकार के उ्द'पन विभाग होते हैं। १--बुण--म नस जसे शील | वाचिक जैसे मधुर सरस भाषण । कायिक् जसे वय, रूप, लावशय, सौंदर्य, माधुय, मार्दव श्रादि । २ चरित--रास, वेणुवादत, गोदोहर, पव॑तोद्धार आ्रादि। ३ मडन- वेष-भुषा, वस्ञालंकार आदि | ४ संनिहित--मोरपिच्छ, युंजा, लकुठ, वेणु, गोवर्धन, यमुना भ्रादि । ५ तटस्थ--चंद्रिका, मेष, शरद, व्ंत भ्रादि | घन'नंद जी ने सभी उद्दीपत विभाघों का भ्रवेक बार चित्रण किया है। रूप का आानंदबत पदावलो २०३ में, लावशय का वही २३६ में, भाधु्य का सुजानहित र८ में, मार्दद का श्रा० पदावली ८६८ में वर्रान है। वेष भूषा के लिये श्रा० पद'वली २०१, ५७५, ७५०, देखने चाहिएँ। संनिहित पदार्थ जैसे मयूर पिच्छ श्रा० पृदावली १२६ में, गौ--भ्रा० पदा० ७४०, ७४३, में, वेशु पदा० ५०६ आदि में, गोवर्धन कही ८५३ में, यमुना वही १३८, ८ २३, श्रादि में वरणितर है । तटस्थ में चद्रिका पावस, शरद, वसंत फाग, हिड ल, श्रादि पर अनेकों पद हैं जो विषय विभाजन के वर्शुव में दिखा दिए गए है। अनुभ व श्रोर व्यभिचारी भाव खझूंगार के ही इसमें मान्य हैं। व्यधि- चारियों में उमग्रता तशा झ्रालस्य का ग्रहण नहीं है। घनानंद जी तने आ्रालंइन तथा उदीपन विभाव ओर स्थायीभाव का ही विस्तार के साथ वर्णन किया है। उसमें भी स्थायी भाव के भनेकानेक भेद भ्रनुभूति के ँ्राधार पर दिखाना उनकी विद्योषता है । सधुर रस का संयोग-- आनंदघन जी ते भक्ति रस के प्रसंग से संयोग और वियोग दोनों का ही समान रूप से वर्शाव किया है। इतना श्रंतर कवि ने प्रवत्य रक्खा है कि कवित्त सबंयों में संयोग नहीं के बराबर है । वहाँ ब्रिरह ही श्रधिक है। ( ४०३ ) शीतों और निबंधों में दोनों का समान रूप से वर्णात किया है। वियोग का स्वरूप उभयन्र समान ही है श्रतः यहाँ केवल संयोग का परिचय देना उचित है। प्रियाश्रिय समागम, रति, बतबिहार, जनकेलि, फाग, गोदोहन, पनथट आदि लीलाग्रों में संयोगपत्ष का वर्णान हुमा है। सखी भाव की उपासना के कारण संग्रोग का खुलकर वर्णात किया गया है। प्यारी के घर प्रिय भ्राने वाले हैं। इस समय संयोगिनी अत्यधिक प्रसन््त है। सौद्य के रंग प्रंग में नहीं समाते। प्रिय के साथ श्रतेक प्रकार से रास किया है। श्रम में डूबे दोनों एक दूसरे को हित प्रदर्शन करते हैं। आ्रानंद के बादल घमड़े रहते हैं और प्रीति अधिक से अधिक सरस होती जाती है ।* राध माधव वन में बिहार करते हैं। दोनों मन में फूने फूने यथुता की हरी भरी कछारों में घुमते हैं। शरीर में नवीव तारुएय है श्रौर कामकेलि के रस में पगे है ,' राधा अपनी सखी से कहती हैं-- है सखि, प्रिय स्वयं जागता है श्रौर मुझे भी जगाए रखता है। इसके 'हुदय को बात जानी नहीं जाती । ठकठकों लग। कर देखता है। मैं लज्जित हो जाती हूँ। इस। प्रकार प्रभात हो जाता है। श्रानंद को यह श्रवस्था कहीं नहीं जाती । सुख के घनों का श्राना जाना बना ही रहता है।*' इनके संयोग की यह विद्येषता है कि उसमें भोग का परिणाम श्रवसाद नहीं नहीं दिखाया गया। आलस्य संचारी भाव मधुर रस में .स्वीकारा ही नहीं गया | प्रियमिलत में प्रेम की तृष्णा और श्रधिक उद्यीत्त होती रहती है। इसी लिये कभी सतोष नहीं होता। संयोग में वियोग की लालसा बी ही रहती है । घनम्रानेंद मीत सुजान मिलें बसि बीच तऊ मति मोहतु हैं। यह कैसे संजोग न सूक्ति पर जु वियोग न म्पों हूँ बिछोहतु है १० पद ०, १८ २--वही ३ -वही, ११० ४--सुहि०, १०४ ( ४०४ ) दूसरी ओर वियोग में भी राधा की दृष्टि श्री कृष्णमय हो जाने से तर्वकऋ संयोग रहता है । “ब्रज मोहन मैं हू रहयौ, देखत बिरहीं लोग । याते कछु कहत न बने, अ्रचिरज बिरदह् सँजोग । राधा को तो भावना के बल से ऐसा अनुभव होता है कि वह सदा" श्री कृष्ण के ही घर है। पर लोग बाहर ही समभते हैं। प्रेम की रीति विपरीत होती है। इस प्रकार घनानंद जी द्वारा वर्णत किए गए प्रेम में संयोग वियोग का संमिश्रण सदा बना रहता है। ब्रज में प्रेम के बादल सदा बिजली की लपठों के साथ ही वर्षा करते हैं | “मिलें चटपटी बिरह को विछुरे मिलन विनोद । लपट लपेट्यो बरसई ब्रज में प्रेम पयोद |” लीलाशों में फाग का वर्णन सबसे अ्र थक पदों में किया गया है। दान« लौल के लिये 'दान घटा” नाम का एक छोटा प्रबंध ही सवैयों में लिखा है । स्खी राधा को संमति देती है कि मन के समस्त संकोचों को निकाल कर बेधड़क श्री ऋष्ण से होली खेलो। आँखों में उनके अ्ंजन लगाश्नो, मुँह प्र रोली मलो, हँस कर गल-बाँही डालो । बिलंब करने का यह समय नहीं है। है राधे | श्री कृष्ण तमाल वृद्ध के समान हैं भ्रोर तू सहाग की वललरी है। प्रिय को रिफ्का कर भिजाओ्रो और रस लो ।* गोकुल विनोद! प्रबंध में जलविह्ार का चित्रण विस्तार और सरसता के साथ किया है। कमलखंडों में श्री कृष्ण नौका ले जाते हैं। जल में दोनों एक दूसरे पर जल बिड़फकते हैं। श्रांखों में पानी मारते हैं। राधा के भीग वस्त्र शरोर से लिपट जाते हैं। श्री कृष्ण कभी डुबकी लगा कर दूर तक निकल जाते हैं। किनारे आ्राकर खड़े होते हैं तो उनका निखरा रूप मन को; मोहित करता है ।* । आल नकल रेल १--ब्रज विलास ३८ २---व ही प० र२े--आ ० पद० ६७६९ ४--गोकुल विनोद ४२, ५० ( ४७४ ) स्वक्रीया रति यह दो टूक निर्णाय करना कि घनानंद जो ने राधाक्ृष्णु के प्रेम में स्वकीयारति का वर्णन किया है या परकीया का, कठिन है। फिर भी कुछ विशेषश राधा के या नायिका के ऐसे मिलते हू जिनके सहारे प्रस्तुत विषय पर कुड कहा जा सकता है। पहले स्वकीया भाव के पोषक विशेषश देखें | हैमंत ऋतु का सेवन करते हुए राधाकृष्ण को एक पद में दंतति ( जाया 'पति ) अर्थात् पति और पत्नी कहा है| पर उसी पद्च में रसक्रेलि का जिस ढंग से वर्णन किया है वह परभीया रति ही लगती है। हेमंत-विलास का वर्गात करते हुए कवि कहता है क्रि वे दंपति संकेत द्वारा निश्चित किए हुए स्थान _ पर पवत कंदराओं में मंदिर बनाते हैं जो कि पत्तों के कारण मखतून तथा रुई से भी भ्रधक कोमल हो गया है। रसफराय श्रोक्ृष्ण ने राधा के लिये शय्या बताई है। पीत वस्त्र बिछाकर उपपर प्राणप्रिया को बिठाया है इत्यादि ।! पति पत्ती का प्रेम पारिवारिक होता है, उसका ज्षेत्र गृह है। पर्वत कंदराप्रों में परकीय रति की ही अ्रनुकूलता हो सकती है । दूसरे एक पत्म में श्रीकृष्ण को 'दुलहा' भ्रौर बना? तथा राधा को बनी ( वरणी ) कहा है । “नवल बना री नवेली बनी राधा को । ब्रजमोहन॑ नीको नाँव रसीलो भागभरे दुलहा को ।” जपता तारे से अत 5 सर के केक 5 जो ५ 05 पर इसी पद में ञ्रगे कहा गया है कि वे जप्तुग के तोर पर पुष्पमंडित संडप में नित्य भाँवरे भरते हैं । “जमुना तीर सघन वृन्दान मंडित मंडप सुमन सदा को! आरनेदघन हित घमंडि भाँवरे करत रहत घनि धनि सुहाग याको” इससे स्पष्ट है कि 'दुलडा” बनी श्रादि विशेषण विवाह समय के परत्पर 7 के प्रेमातिशय तथा शोभातिशय की व्यंजना के लिये प्रयुक्त हैं। वे पति पत्नी भाव प्रदर्शन के लिए नहीं । १--हिम रितु दंप ते श्रति सुखदाई । गिरिकंदरनि रचावत मंदिर लखि नित्र संक्रेत छोर ठहराई। नवमखतू न तूल तें कोमल बल कल अनुकूल मदाई । रसिकराय रसनिधि राधा हित रचि पचि सुन्दर सेंज बनाईं॥। --प्रदावली ३७२ २--आ ० पृू० ५७७ अ्खतत ( ४०६ ) तीसरे एक और पतद्च में राधा कृष्ण के लिये कंत और कामिनी विशेषणों का प्रयोग हुआ है । 'कंत श्रौर कामित्री राधा कृष्ण के लिये नित्य वसंत बना रहता हैं।।! दूसरे एक पद में वियोगिती नायिका अभ्रपने पति को 'बालम” कह कर संबोधित करती है ।* 'सरस बसंत” निबंध में राघा माधव को 'कामि निकेत' कहा है ।* ये विशेषण साधारण व्यवहार में 'पति पत्नियों के लिए ही प्र युक्त होते है। अ्रत: अनुभित्सा होती है कि स्थात घनग्मानंद जी का तांत्पर्य भी स्वकीया रति का रहा होगा । पर दूसरे प्रमाणों से उपयुक्त अश्रनुमान ठीक नहीं बैठता । परकीया रति परकीया भाव के पोषक शनेकों प्रमाण मिलते है । 'प्रेम पद्धति! तिबंध की ए% पंक्ति में राधा को गोपी तट गुपाल की प्रिया” बत'या है। नाम माधुरी” में 'कमरीय कुमारी” कहा है | उसो की दस गी एक पंक्ति में अभिसार प्रपत्ता/ विशेषण श्राया है कृष्ण कौपुदी! पें श्रो कृष्ण को 'राधा सखा”” कहा गया है। इसके अ्रतिरिक्त राधा का अ्रभिसार, बन विहार, प्रच्छन्त 7ति आ्रादि झनेकत्र वरशशित हैं। इनसे उनके परकीयात्व का ही अनुमान होता है।॥ झभिसार, जै8--.- | अंजन दे री राधे न करि गहर हे हाहा । निभनक बार टरी जाति मन भावन ब्रज मोहन मिलन उमाहा ॥ चलि राधे वृदावन विहरन और ब्रस्थौं मनोग्थ पुरवा । श्रानंदधत पिय बैन बजावत अ्रति श्रारति सौ तोहि बुनावत लें रकवति भीजे सुरवा ॥ १--अझा० घ० पदा० १३१ २--सुरति सवेरी लेहु बिसासी बालम जियरा श्रति अकुनाय, श्रा ० प० श२३े २-०“राधा माधत्र कामिन कृत--सरस बसंत २१ ४..... प्र ७ पृ० २३ ५--फैमनीय कुण्णरी श्री राधा, नामक माधुरी ३६ ६--सभिरार प्रपन््ता श्री राधा, वही ४१ ७--राघा को विपुल धन राधासखा सरूप-....क ० कौ» २० ८--आनंदघन पदावली ६७१ क् ( ४०७ ) प्रकीया चित्रण बार बार पदों, और कवित्त सर्वर्यों में किया गया है| प्रेम की संयोग तथा वियोग काल की ोंप”', वियोग की व्याकुलता उपालंभ तथा प्रिय की अनेकों से स्नेह कर किसी को ले निभाने की कठोरता श्रादि भाव परफीया रति की शोर संकेत करते हैं। किसी गोपी का प्रशुयक्रोघ है कि मुझे श्रकेले में कृष्ण ने घेर लिया | वह मेरे घर में श्रा गया और मनमानी करके ही छोड़ा । दूसरी कोई दधि बेचती हुई कृष्ण का अ्रभिप्राय समभबर उन्हे लज्जित करना चाहती है। १ लई कन्हैया ने हीं घे/र खोरि सॉकरी माँक सँकोखे श्ाएर गयधौ कितहु तें हेरि । कौरी भरी उर घरी औरुकः अ्रकेली काहि सुताऊ देरि। श्र/नेंदघधत घुरि सराबोर करे पढई घर लो निपट लथेरि | (प्रा० एदा० १६७) »< »< >< तर २ गोरस जो चाहौ तो देजिए जो रस च!हैं सो व दियौ क्यों जाइ : देख विरानी धरोहरि प॑ मन ललचावे ऐसो दढीठ न काहू सकाय 2५ 2५ २५ वास्तव में हरिदासी संप्रदाय श्री चेतन्य मत से प्रभावित है। श्रानंदघन जी ने चैतन्य महाप्रभ्नु की स्तुति में भी एक पद लिखा है। ये उनके मत से प्रभावित हुए हों--यह बहुन संभव है। कीर्तन के पद तथा प्रबंध लिखना भी इसी श्रोर संकेत करता है। चंतन्य संपदाय में परकीया भाव की, ही उशसना होती है। श्रतः घनानंद जी का यही अभिप्रेत रहा होगा । पति पत्नी भाव के सूचक विशेषशा--प्रेमातिशय के व्यंजक मात्र ही समभने चाहिए। ये स्वकीया के श्रभिप्राय से प्रयुक्त नहीं प्रतीत होते । झत; भक्ति में घनानंद जी ने परकीया भाज मात्रा है-यहीं प्रमाणों के प्राधार पर कहा जा सकता है । ( ४०८ ) भगर त्ुपा भगवत्कृपा का भक्ति संप्रद-य में बड़ा महत्व है। ऐसा कोई संप्रदाय नहीं जिसमें इसके बिना भगवत्प्राप्ति संभव हो। वल्लभ संप्रदाय का तो यह मुख्य भ्ाधार है। वहाँ इसका नाम धुष्टि! है। मधुरा भक्ति के भक्तों के लिये भी यह तत्व उतना ही श्रावश्यक मान्य है जितना श्रन्य भक्तों का | सखी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हरिदास जी कहते है--'ह्रे विहारिणी जी ? किसी का वश नहीं चलता । तुम्हारी कृपा से कुछ बनता है ।! श्री ललित किशोरी जी की आस्था इससे भी बढ़ कर है। बे कहते हें 'हरि हमारे सदा सहायक रहते हैं। हमें जो जो श्रच्छा लगता है वही वही वे करते हैं। हर्ष श्रौर उत्साह बढ़ाकर जीवन सुखदाई बनाते है। घे हँस हँस कर क्रंठ लगाते हैं ।४ घनानंद जी ने कृपा विषय को लेकर पूरे एक निबंध कृपा कंद निबंध” की रचना की है । कवि की धारणा है कि भगवत्कृपा हो तो और सब साधन व्यर्थ हैं। धर्म कर्म सब दूर रहें । हने लाभ का भी कोई डर नहीं । लोक परलोक को हम छूना भी नहीं चाहते , ज्ञीर सिंधु में स्वान करनेवाले को तलैया क्या श्रच्छी लगेगी ? भक्त को तो कृपा वे श्णनंदघन ही सदा फिरते रहें। कार्याभि- मानी भले ही सोच में सूख जाय पर कृपा को ओर देखने वाला किसी दूसरी ओर नहीं देखता ।* इसके बिता भगवान का. श्रनुकूल होना अ्रसंभव है। उन मूर्खों का हठ व्यर्थ है। वेयों ही मन तरसाते हैं जो श्न््य साधनों की खोज में रहते हैं । //एएछएशरशशएश््णण अमल 2४-८र॥ल्र/७॥#॥शएनणा॥ ७ रा नन७७3७क.प५व कक... 3 2/१/७-७०+++ममतमक्ान्णकाकलं है >पाल्ममा नी. ेमकनकेकआन<कन पक... १० काहु को बस ना हे तुम्हारी कृपा ते सब होय बिहारिनि हरिशप्त--निम्तार्क माधुरी पृ० २०९ २--हणरे हरि है सदा सहाई, जोइ रूचे करें पुनि सोई पौपन मन भाई । हरप हरष अनुराग बढाबत जोीबति श्रति सुखदाई। श्री हरिदासी ललित किशोरी हँसि हँसि कंठ लगाई | ललित किशोरी--निम्बार्क मा० पृ० ३३४ ३--छपाकंद--पतद्च २ ( ४०६ ) खनके (अन्य साधनों के) पैर छूने से स्थाम सुजान वश में नहीं होते हैं। उस ग्रानंद की कृपा बरसी कि ऊर्र भी सर बन जाता है।' भगवत्कृग इतनी गुर्वी है कि प्राणी उसको सम्हाल भी नहीं पाता । घतानंद जी अनुभव करते हैं कि चित्त रूपी चातक की हाोंच में कृपा के झ्रानंदघत समा नहीं सकते । बुद्धि के कटे फटे वद्ध में यह रत्वाकर का दान कैसे समा सकता है। पर धारण करने की सामर्थ्य करा ही देगा यद विश्वास है। नदी का प्रवाह बढ़ता है तो वह श्रपने किनारे स्वयं बढ़ा लेता है।" कृपा में कृपालु परमेश्वर विराज॑मान रहते हैं । श्रत: कृपा की प्राप्ति का भ्र्थ भगवान की प्राप्ति है । कपा के श्रतिरिक्त भगवान के प्रन्य कोई गण भक्त के काम नहीं आते । केवल कृपा ही उसका हित करने को सदा उद्यत रहती है। भगवान् का दानीपन माँगने पर अ्रनुकुल होता है। दीनबंधुता दीन बनने से काम झ्राती है। पर कृपा सब्ंदा सबको प्राप्त रहती है। जल थल सब जगह वह मिलती है। उप्के भरोसे विषम भी सम दिखाई देता ह । गुणी हो चाहे निगगृंग वह सबके लिए समात है । भक्ति क्षेत्र में ही नहीं दंनतिक जीवन में भी भगवत्कृपा के बिना काम नहीं चल सकता। जो श्वास बाहर श्राता है वह फिर भीतर वापिस जायगा इसका विश्व्रास भागवत्कृपा के बल पर हो है। बरुती खुल कर फिर बंद हो उमदापेनकना>१/)१७ आिक पाककाअपी. गा -क+ ढक. अनबन नन-मम ०. अनमारगरीरिगाएितिणण 7 धन वा एणगा। १--क्पों हठ के सढ साधन सोधत होत कहा मत यौं तरसे ते । हाथ चढ़े जिहि स्थाम सुजात कहूँ तिहि पाइन रे परसे ते । नीरस मानस है रसरासि विराजत नैसिक जा सरसे ते। ऊसर हूसर होत लखे घनग्रानेंद रूप कृपा बरतें ते । क्ूछ कृ०७ १० हि ३4 ८ २--चातिक चित्त कृपा घनश्रानेंद चौच की खौंच सु कणें करि धारों। त्यों रतनाकर दान समे बुधि जीरन चीर कहा ले पसारों। पै गुव ताके श्रनेक लखौं निहचे अर श्रानि के एक विचारों। कून् बढ़ाय प्रवाह बढ़े यौ कृपा बल पाय क्रपाहि सम्हारों। आ[० क० कंद १७ ३--#पा चंद्विका में नंद नंदन मयंक है, वही १८। ४--वही १६ कृपा कंद । ५-वही २२ । | ४१० ) जायगी यह कौर जाने ? सारा जीवन एक प्रवस्तर मात्र है। प्रयत्त सब व्यर्थ हैं। सिद्धि भगवत्कृण के बिना नहीं होती | पाप्राप्ति के लिये भक्त में दो गुणों की श्रपेज्ञा होती है। दैन्प की. श्रनुभृति और कृपा पर भरोसा। घतानंद जी में दोनों गुण प्राप्त होते हैं । इन्होंने अपने जीवन में प्रयत्नों की धुर्दोड़ पर्याप्त की थी » जब क्रिपी से काम नहीं बरा नो भगवात के द्वार पर पहुँचे। प्रत: दैन्य का भाव कवि का स्वानुभृतत है, इगनिए बड़ा मारमिक और निश्छन है । व स्पष्ट कहते हैं । दौर दौरि थाक्यौ पे थके त जड़ दौरनि ते । गति भूले मन्न की न दूरी कछु तो तेरे |” ग्रत: भ्रेतिम उपाय यह किया- दढ्वारे नजाइ हीौंजू जन के जगदीश तिहारियि पौरि परयो हों । श्रास की पास ही काटि कृपा बल पुरन पेज भरोमे भरयौ हाँ |” कृपा की संरद्धकता में इनका विश्वात्त भो बड़ा श्रडिग है। वे करते हैं कि है भगवान् जहाँ तहाँ भाग भाग कर भक्तों का भला युगों से करते रहे हो, भक्तों को भपनाने के अपने प्रण को प्राणों के समान पालते रहे हो ।* भक्ति संप्रदाय में भगवत्कृपा का फल भंगवत्पम की प्राप्ति द्वारा भगवत्पाप्ति होता है। घनानंद जी ने पदों में कया का यह रूप स्पष्ट किया है। वह भगवान से ही भगवान को प्राप्त कर सऊते हैं। उनकी कृपा न होगी तो बुद्धि की लीला का पार नहीं मिल सकता। कृपा ही भक्त का हाथ पकड़ कर भगवान के चरणों में डालती है । आन श्रधार सदा के संगी तुमहीं ते तुमको पाइहों। जा धांभंभांभांधााआ अभी आज] मल नदलकरीन १-चलि जात उसास जो ऊरच को श्रध आव्न आ्रास विसास नहीं | गति औमर की श्रति दीसि परी बहुरी खुलि फेरि मिलें कि नहीं । इहि बीच बिचारिये जीवन सौं मश्य॑ तिद़ि साधन सोच महीं। घन श्रानंद बात कृपा बस है श्रत्र यौ सबही करतूत रही । कृपा कर २८ २-आा० कृपा कंद ५५ | (5 तंथा--- लीला कौ मम ते जान्पौ जाइ। कैसे के करिये उपासना सम्ुझत मति बौराइ ॥ एक कृपाई गुन उर ग्राएँ रंचक ठिक्र ठहराइ। वे ग्रानेंद्तत को सुधि भ्राव सहजें दःसे श्ाइ। जीवनमुक्त भक्त की अनुभ् तिया--- घनानेंद जी ते भक्ति की उप दशा का चित्र दिया है जब वह परमेश्वर की पुर्ण अनुभूति कर लेता है। भ्राने भावनालोक में विचरता हुआ्रा ही वह प्रपना श्रधिक समय व्यतीत करता हैं और संसार से स्वंथधा उदासीन बन जाता है | दाशनिकों ने इस स्थिति शो जीव्न्मुक्त! अवस्था माना हैं। ज्ञान मार्ग की चरम दशा का श्राभास गीता में दिया गया है ऊफि ब्रह्म के साक्षात्कार हो जाने पर हुदय की सब ग्रंथियाँ खुन जातो हैं। समस्त संशय: छिन्न भिन्न हो जाते हैं श्रौर कर्मों के संम्कार भी क्षण हो जाते हैं * भक्ति का भाग स्नेहाद होने से इण्से मिन्त होता है। उसयें प्रिय की अनुभूति का आ्रानंद हृदय को विभोर किए रहता है। संशयादि का उधर कोई प्रश्न नहीं उठता । घनानंद जी ने कहीं तो उस स्थिति तक पहुँचने का श्रभिलाष व्यक्त किया है श्रौर कहीं उसकी श्रनुभूति व्यक्त की हे। इस भेद कोया तो काल क्रम में माना जा सकता है, या मक्त के सौजन्य की भलक इसमें है कि वह उसका श्रनुभव करता हुम्रा भो उसको प्राशा करता है दोनों भाव दशाएँ कबि की स्वानुभूत हैं । धत्तानंद जी के विषय में किवदंती प्रसिद्ध हैं कि--वे वूृंदावल की गलियों तया यमुना के कितारों पर उन्मत्त की तरह धूमा करते थे । उनकी यह अ्रवस्था हो गई थी कि हृदय कृष्ण के वियोग-संग्रोग से भरा रहता था। नेत्रों से श्र'सुत्रों की धारा ज्यों ज्यों बहती थी त्यौं त्यों नद्ोन धाह्वाद ज्योति का उदय होता था। प्रेमोपालभों से १ ७०-आानंद घन पदावली ४६१-४८४ | २--भिक्मते हृदयग्र थिश्छिग्नन्ते सर्व संशया: । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनु दृष्टे परावरे । ६. हक) हृदय घी जैसा बत जाता था । जब उन्हें परमेश्वर का दर्शन हुआ तो प्रीर श्रौर हृदय में शोतलता बढ़ गई । जन्म जन्म के दुख मिट गए। जगमोहन ब्रजमोहन होकर मिले ।* ऐसो श्रवस्था में घवानंद जी किसी प्रकार को बाधा का अनुभव नहीं करते । सब सि द्वेथाँ उन्हें मित्र चुहो हैं। रोम रोम में गया है | इस संपत्ति का कैपे वर्रात किया जाये .ह शान श्रोर प्रे॥न की अंतिम दशा एक सी होती हैं। प्रमानुभूति से भा अज्ञानात्थधकार का विनाश हो जाता है। श्रानंदानु भू ते इधर विज्ञेष होतो हैं। घनानंद जी ने निम्नलिखित दोहे में इपी प्रवस्था का आभात्त दिया है-- री हैष छा _अकटी अनुभवचंद्रिका भ्रम तम गयौ बिलाय | ब्रजमंडत को कृपा से रह्यौ मोद घन छाय | अनुभव चंद्रिक' ५४ प्रेम के उद्गार, उन्माद और आत्मविस्मृति का स्थान स्थान पर संक्रेत मिलता है। 'यम्रुना यज! में कवि ने लिखा है कि-मैं थमुता के किनारे फुला फूला फिरता हुँ। उसही तरंगों को देख देख कर मुख्य होता हूँ ।* भावना प्रशा३/ में लिखा है कि जब गुरु के प्रसाद से हृदय में प्रेम का श्रावेश उमड़ता है तो यम्ुवारज का स्पर्श करते से लीला स्वरूप के साक्षात्कार होने हज रिलनकिलन ००००. न 33 ननरत>नम १--को पावे ये भेर जो गाव मेरो बैरागी जियरा ब्रजमोद्रन के वियोग सँयोग मरो है हियरा असुवनि जल सां श्रध्िक जगति जोति परेखनि होत भनौ परियरा। आा० घं० पदावली ३८१ २-मोहि मेरे झंतरजामी भेंटे तन मन सुख शीतलत' बाढ़ी जन्म जन्म दुःख मेटे | जग मोहन पे ब्रज मोहन ह्लौ कृपा कंद परि फेटे | पदावली ३७९ रे--अ्र कछु बाधा नाहि रही । मदन गुपाल मिले सुखदायक साधा सबै लड़ी ।। रोम रोम अ्रति हरष भयौ है जीवत सफल सही । अरनेंदवन या रस की सम्पति कैसे परत कही ॥॥ आ० घ० पदावली ८६, ४>+यमुना यश २७ ($ ४१३ ) लगते है। चारों श्रोर चकित होकर देखता हूँ और राधा कृष्ण का हृदय में ध्यान करता हूँ तो राधाक्ृष्णा प्रकट रूप में दिल्वाई देते है। सुधि भलकर उन््मत्त की भाँति घमता :फरता हु। मन श्रो कृष्ण के प्रेमावर्त में घमता रहता है। ऐसी दशा मेरी हो गई /” क्षण क्षण में उनके हुदय में भाव तरगें उठती हैं। महामधुर रस के पन से तृप्त रहते हैं। विह्वल दशा में शर्र।र रोमां चत हो जाता है। घूमते हुए बन बोधियों में डोलते हैं। मौन धारण किए मन ही मत कुछ बालते है। प्रेम के रंग से मुख पर एक विलक्षणा श्रामा चमकने लगती हैं। हृदय में हलका सी स्नेह फैडा कसकती रहती है। अन्य सब श्रोर से उद्ापीनता छा जाती है। प्रभात- संध्या का भी भान उन्हें नही २हता | 'हे कृष्ण” 'हे सावे' की पुकार लगाते रहते हैं । ब्रज बत के स्थान स्था” को देखकर हृदय मुग्ध होता है। तरु बैलों में राधा कृष्ण # दर्शन करते हैं। यप्तु+ के किनारे मुंद्र धोते हुए कभी हँसते है कभी रते है। इस प्रकार उनन््मतच से बन कर बनों में घूमते फिरते हैं। घनान॑द जी के विषय में किवदंती है कि यवनों ने जब उन्हें तलवार से काटा तो ज्यो ज्यों तलवार शरीर पर घाव करती थी त्यों ही त्यों यह॒यपुना रज में लोटते जाते थे । स्वाभाविक स्थिति में ब्रज रज में लेट लेट कर विद्ठ होने को अपनी इस दशा का स्वयं उन्होंने उल्लेख किया है। “मे मूख बोलो न श्राइहै। रोम रोम श्रभिलाष छाइ ब्रज रज लॉट विकल है जहां | बड़ी बेर तन की सुधि पइयौं |” इसी प्रकार को भावना, जगत की श्रनुभूति उन्होंने श्रपने बहुगुनी रूप से की है। वे अभ्रनुभव करने है कि श्री राधा स्त्रय उनसे महावर लगवाती हैं। पैर दबवाती हैं | जब्र वे सो जाती हैं तो बहुगुनी भ्रपण।ा सिर उनके पैर से स्पर्श कर लेती है | वह राधा के अन्तरंग परिग्रह में है। उनके केलि मंदिर में सब प्रकार के विस्न प्र कार्य वह करती है । १--भावना प्रकाश १८९६, २०७ २-- वही २०६, २१२ ३-- भावता प्रकाश ९०, १०४ ( ४१४ ) इस विवरण से घनानंद जी की मावुकत' की कक्षा का परिचय भलो भाँति हो जाता है। वे साधना की किस कोटि में थे यह भी स्पष्ट हो जाता है। २५ 2५ २५ धतानंद का भक्तिदर्शन (-भगवत्प्राप्ति बिगा भगवान की कृपा के नहीं होती कितना हो कोई नियम, धर्म, श्रत, उयब्रत का पालन करे , भग सकता भगवान का हो रूप है। इसकी प्राप्ति प्रेप द्वारा होती है। कृपा भक्त में पात्रता का निर्माण भो स्वयं कर लेनी है जैसे जलाशय बढ़ता हुआ अ्रपने किनारों का निर्माण कर लेता है | भगवान बड़े ऊपालु है। भक्तों पर सदा कृपा बनाए रहते हैं , १““भागवान श्री कृष्ण सदा कौतुक़ रूप हैं। ये आ्रानंद की मति और 'रसिकविहारी हैं ।* परमेश्वर सत्र व्यापक है। फूल, पत्ते, लता, कु ज, नदी नंद सब ही में उसका रूप फऋतकता है, प्र भक्त उपका दर्शन जिम छत में करना चाहता है ०ह नहीं होता | इण्लिए भक्त व्याकुल रहता हैं। २--परमेश्वर यूख स्वर ढप है श्रत: वह श्राणियों को सुख देता है पर उनके उख का अनुभव नहीं करता +३ ४--बूं दावन स्तेह का देश है, भगवान का विप्रह है। इसके प्रेम के बिता भगवत्प्रेम दुर्लभ है | वृदावन राधाकृष्ण के दर्शन के लिये आदर्श है। ४राधिका दर॒व को सुरेश आदरस बाहि--कहत बने ने स्थाम नैन पहच;न हीं * इसके यथार्थ प को श्रो कृष्ण ही जानते हैं । वृ दावन पाइबे की शैेल को गहे न जौलों, पाइहू गएतें रस पारस क्यों पाइये | >< >< २८ आन रिकरम कप का ९--आ ० ध० कृपानंद निबंध २--प्रीति पावस्त प्रेम्त पत्रिका--ढिग है यौ दुब देत दूरि ते दूरि से प्रेम पत्रिका ११० ई-सदा सूखी सुख देत रहौ दुख प/वत नाहीं; वही २१ ४--प्रेम पत्रिका ३० ( ४१५ ) निगम बिघूर थाके पदई परम दूरि आनंद के अंबुद कीं थक्ति थक धाइये |! »< >< »९ यह महो मंडल से पृथक है । यहाँ श्रानद के घतर सदा छाए रहते हैं-.. अदभुत श्रभूत मही मंडल, परे तें परे! जीवन को लाहौ हा हा क्यो न ता है लहिरे | श्रानंद को धन छायौ रहत निरंतर ही सरस सुदेस सो पपीहापन बहिरे / >< २८ »< ब्रज की धूलि में प्रेम का सार समोय कर रक्खा हुप्रा है। 'प्रेम सार धस्चों है समरोग्र ब्रज धरि मे >< »८ »< भगवान श्री कृष्ण स्वयं जब कृपा करते हैं तभी ब्रत्न की माधुरों का अनुभत्र होता है । कृपा करें ब्रज नाथ जौ, ब्रज दर्शन के नैन । या ब्रज वन की माधरी, तौ परसे उर ऐव ।* श्रज में भगवान का निवास है-- ब्रजमोहन ब्रज में बसे नित ब्रज मंगल रूप । घर बाहर व्यापक सदा मंगल चरित अनूप । परमेश्वर रसस्वरूप है इसका अनुभव साक्षात्कार या सामीप्यलाम प्रेमा- नुभूति के द्वारा ही हो सकता है। प्रेम ज्ञान का फल है श्रतः उपसे प्रशस्य- तर है। प्रेमोदय हो जाने से उसके प्रकाश से सारा अंघकार नष्ट हो जाता है। 4४०फमम नमक २ १--वही ३५४ २--वही ५१ ३--वही ५८ ७--ब्रजविलास ७ #--वही १५ ६ ४१6) भक्ति मार्ग में गुरु कृपा का महत्वपुर्णा स्थान है। हुदय में प्रेम का आावेश गुरु कृपा से ही उत्पन्त होता है । श्री गुरुवर प्रसाद के लेम, हिये बढ़ श्रावेश असेस (/ व् दावन महिमा-- परमानंद हूप ब्रज बन है जहाँ प्रवेश करत नहीं मन है । परमतत्व को धार समोय, ब्रज बन रज ले राखो मोय | ब्रज बन थिर चर को आभास, निरवधि रस निरजासविलास | (धामचमत्कार: ६, १०-११ ) ब्रज के प्रेम को घतानंद ने 'ब्रजरस” कहा है उसे भी श्रीकृष्ण प्रेम के समक्ष माना है। सब ते श्रगम श्रगोचर ब्रजरस, रसना कहि सकति न याको जस । (धाम च० १८) । भगवान ने इसे अपने दर्शन का दर्पणु बता रक््खा है, उनका साक्षात्कार यहीं पर होता है । ब्रज बन निज दरपन है कियौ | निरखत स्थाम सिरावत हियौ ॥ (धा० च० ४१) वृ दावन श्री राधा-कृष्ण के शरीर का ही रूप है। फूल पत्तों से वह रोमाचित है । उसकी पराग की गंध उनकी शरीर गंध है। राधा श्र कृष्ण के जो विविध रंग हैं वे ही इसके दल, फल फूलों के रंग हैं। इस प्रकार धाम धामी दोतों ग्रभिन्न हैं । रोमाचित श्री वपु लौं रहै| पवन गमन परिमल महमहै । जुगल अंग जे रग विराजे। ते बन दल फल फूलनि श्रॉजे । रस मय सुख मय धामी धाम (बुन्दावन मुद्रा २४, २६, २८) हृदय के श्रेदर परमेश्वर विराजमान है, ऐसा अनुभव भक्त करता है। उसे वह श्राँखों से देखना चाहता है। आनंद घन पादा ० २५१ | दस लक न जल १--भावता प्रकाश ६८ । ( ४१७ ) प्रमेश्वर सदा भक्त के साथ रहता है। भक्त परमेश्वर से भ्रभिन्न भी है। केवल माया के कारणा, जो इसी का रूप है, परमेश्वर का यथार्थ रूप आँखों से तिरोहित हो जाता है। भक्ति द्वारा उसी का साद्धात्कार किया जाता है। भ्रब॒ तुम तब तुम जब तुम तुम ही तुम बिन कब हों हाँ तुम हों । यह दुरि उघरनि कहो कहाँ ते सीखे तुम्हें तम्हारी सौं। झ्ाप बीच परि नाव श्रौर धघरि करत श्रट्पटी बातनि कौं। (भानंद घन पदावली ६५) ५३/ हे नवाँ परिच्देद दर्शन और संप्रदाय १. पृष्ठभूमि ग्रानंदधत जी का संप्रदाय तथा दार्शनिक विचार पहचानने के लिये पहले हमें उन बड़े बड़े चार वेष्णाव संप्रदायों का सृक्ष्म रूप जान लेना चाहिए जो वैष्णव भक्तों की विचारपद्धति को प्रभावित करते हैं। वेष्णव धर्म के विभिन्न संप्रदायों में श्रापस में अनेक रूपों में समानता होती है। श्रत: संत लोगों की वाणियों में थोड़ा बहुत सभी संप्रदायों का सत्य श्रा जाता है, क्योंकि ये लोग संप््द'य के श्राचायं न हो कर सात्बिक हुदय के उपासक होते है | किसी विशेष विचारधारा के श्रत्यंत श्राग्रही नहीं होते । श्रानंदघन जी भी इसके अपवाद नहीं हैं | श्रत: यहाँ निम्त्राकं, माध्व, चेतन्य, तथा बल्लमभ चार संप्रदायों का सूक्ष्म परिचय देकर आनंदधन जी के संप्रदाय तथा दाशतिक विचारों का स्वरूप उपस्थित किया ज्ञाएगा। क. तिम्बाक संप्रदाय प्रव्तंक इस संप्रदाय का नाम सनक संप्रदाय श्रथत्रा हंस संप्रदाय” है। इसके आदि प्रवतक ब्रह्मा के पुत्र सनक माने जाते हैं। श्रादि श्राचार्य निघ्लाक हैं जिनका पहला नाम नियमानंद था। इन्होंने भ्रपने चमत्कार से पेड़ पर भगवात्र विष्णु के चक्र का श्रावाहन कर उसे सूर्य की तरह दिखा दिया था। तब से ये 'निम्बांक! कहें जाने लगे। इनका समय सत्् १६६२ के भ्रास पास माना जाता है | इनके ब्नाए हुए दो ग्रथ हैं। श्ला “वेदांत- पारिजात सौरभ | यह ब्रह्म सूत्रों पर लिखा भाष्य है। भ्ौर २रा 'दशलोकी! इसमें भक्ति के सिद्धांत का सूक्ष्म रूप से परिचय कराया गया है। “एक दूसरी २५ श्लोकों की स्तोत्र पुस्तक भी इन्होंने लिखी है जिसका नाम 'सर्वविशेष श्रीकृष्णास्तवराज' है। ये पुस्तकों ही सम्प्रदाय का आदि स्रोत तथा शभ्राधार हैं। ( ४१६ ) मत इस मत में ब्रह्म तथा जगत् का संबंत्र भेदभिर का है। जिस प्रकार गुण और गुगी तथा भ्रवयव श्रौर श्रवयवी का परस्पर संबंध भेद का भी है श्ौर अभेद का भी । उसी प्रकार ब्रह्म से जगत भिन्न भी कहा जा सकता है झौर प्रभिन््न भी । मकड़ी का जाला तंत मकड़ी से बाहर भी श्रवस्थित है और मकड़ी के भीतर भी । जगत को स्थिति ब्रक्ष में है तथा ब्रह्म जगत से भिन्न भी है | इस संप्रदाय के श्रनुमार मुख्य तत्व तीन हैं--ब्रह्म जित् भर भ्रचित्। ब्रह्म सवंशक्तिमान सर्वज्ञ तथा श्रच्युत विभववान है। वह जगत का निमित्त तथा उपादान दोनों प्रकार का कारण श्राप ही हैं। जैसे मकड़ी श्रपने शरीर से आप जाला पूरती है इसी प्रक/र ब्रह्म श्रपती शक्ति का विज्ञेप कर जगत के रूप में भ्रपतती श्रात्मा को परिणत कर देता है। ब्रह्म की शक्ति तीन प्रकार की है, परा, जीवारुपा भ्रौर मायाण्या। जीवाख्य शक्ति से चित श्र्थात् जीव की सृष्टि तथा मायाख्या शक्ति से श्रचित् श्रर्थात जड़ जगत की सृष्टि होती है। श्रीकृष्ण ही परक्रक्ष हैं। उत्तकी पराशक्ति ऐश्वर्य तथा माधुये दोनों का श्रषष्ठान बनती है 'ऐश्वर्याधिष्ठित पराशक्ति 'रमा' श्रथवा लक्ष्मी हैं और माधुर्याधिष्ठित वही शक्ति गोपी तथा राधा है। भगवान मुक्त, गम्य, योगी, ध्येय, कृपालभ्य तथा स्वतंत्र है। ब्रज धाम में वे नित्य श्रवस्थित हैं। ब्रज के श्री कुष्ण ही प्रेम श्रोर माधर्य की अधिष्ठात्री शक्ति राधा तथा श्रन्य श्र'ह्नादिनी शक्ति स्वरूप गोषियों से परिवेष्टित होकर इस संप्रदाय के उपास्य बनते हैं । जीव चित् तत्व ही जीव है जो शभ्रचित् तत्व देहादि जड़ पदार्थों से भिन्न है। वह नित्य, ज्ञाता, श्रणु, परमाणु कर्त्ता तथा नाना है| इसका प्रेरक ईएवर है, जो भ्रनादि माया से युक्त हैं। जीव तींन प्रकार के होते हैँ | जड़, मुक्त तथा नित्यमुक्त। जिन जीवों का देह श्रथवा तत्संबंधी वस्तुग्रों में अ्रभिमान रहता है श्रौर जो भ्रनादि कर्मरूपिणी अ्रविधा से बद्ध हैं वे जड़ जीव है। म्क्ति दो प्रकार की हैं--क्रममुक्ति तथा सद्योमृक्ति | जो जीव विधिपूर्वक श्रर्चन तथा श्रौत स्मार्त कर्मानृष्ठावों द्वारा स्वर्गादि लोकों का अ्रनुभव कर प्रलय काल में ब्रह्म का सायुज्यलाभ करते हैं वे क्रममुक्ति को प्राप्त करने वाले मुक्त हैं । श्रवणादि साधनों से जिनका संसार बंधन टूट जाता है वे सच्चोगुक्ति के उपभोक्ता मक्तजीव हैं। संप्रदाय में यह दूसरे प्रकार की मक्ति ही कास्य ( ४२० ) है। क्रममुक्ति वाले जीवों को सत्यलोक में भगवान के ऐश्वर्यादि रूप का लाभ होता है। सद्योमुक्ति में सेवानंद प्रधान है। नित्यमक्त जीव नित्यसिद्ध भी कहलाते हैं। वे सदा संसार दुख से मृक्त श्रवणादि साधनों में तत्पर श्रौर सदा भगवदनुभावित रहते हैं । श्रचित-- श्रचित् तत्त्व के तीन भेद होते हैं । प्राकृत श्रप्राइत और काल। प्राकृतत तत्व सांख्य दर्शन की प्रकृति के समकतक्त हैं| यह सत्व, रज, तमस् तीन गुणों का आश्रय है, इसका कारणरूप नित्य तथा कार्यरूप श्रनित्य है । यही प्रकृति देह, मन, इन्द्रिय, बद्धि श्रादि रूप में परिशणात होकर जीव का बंधन बनती है । मोक्ष का यह श्रंतराय है। वेदांतियों की माया श्र श्रविद्या के समान इसी का दूसरा भेद श्रप्राकृत है। यह विश्द्ध सत्वप्रधान हैं। प्राकृत श्ौर काल से परे है। यही विष्णुपद परमपद ब्रह्मलोक श्रादि रूपों से भगवदाश्रित मुक्त जीवो के श्रानंदभोग के उपकस्ण तथा निवासादि के रूप में परिणत होती है | काल प्राइृत पदार्थों का नियामक हैँ । उसीके कारण समस्त परिवर्तन होते हैं। वह भगवदाधीन है, नित्य तथा विश्वु है। भक्तिसिद्धांत-- जिनकी शिव ब्रह्मादि बंदता करते हैं वे श्रीकृष्ण के दरण ही जीव के एक- मात्र शरण हैं| भक्त जिस भाव से भगवान को भजता है भगवान उसी भाव से मिलते है। भगवान दयालु तथा कृपालु है। इस संप्रदाय में उपास्य केवल राधायुक्त श्रीकृष्ण हैं। भक्ति की प्राप्ति में भगवत्कृपा से ही भक्त में दैन्यादि भाव आते है, इस कृपा का फ्ल प्रभुकी शरण का लाभ करना है। भक्ति- प्राप्ति श्रवण क॑ तंन भ्रादि के नौ उपाय हैं। शांत, दास्य, सख्य वात्पल्य तथा उज्वल पाँच प्रकार की भक्ति होती है। इस संप्रदाय में कृष्णा के समान ही राधा का महत्व माना गया है। निम्वार्काचार्य ने युगलरूप की उपासना के स'थ साथ प्रेम त्था माधुय को अ्रधिष्टात्री राधा की उपासना पर विशेष बल दिया है। क्योकि वे ही भक्त को [सद्धिलाभ करा सकती हैं, भगवान का सर्वोत्दिष्ट प्रेम उन्हीं को प्राप्त है। ख. माध्वसंप्रदाय भाध्वसंप्रदाय 'भेदवादी? संप्रदायः कहलाता है। इसके अ्रदिप्रवर्तक भाध्वाचाय है उन्हें ध्रानंव्तीर्थ तथ्य पुर्णप्रज्ञ भी कहते हैं। श्राचार्य शंकर ( ४२१ ) ने जीव तथा ब्रह्म का अभेद सिद्ध किया था। उसके खंडन में इन्होंने उनका भेद सिद्ध क्षिया है। इनकी मृत्यु १२७६ में हुई थी। यदार्थ संख्या माध्वाचाय ने दस पदार्थ माने हैं। नेयायिक सात मानते हैं। इसके दम हैं--हृश्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशो, शक्ति, साहश्य, तथा श्रभाव । नैयायिक्रों के सात पदार्थ हैं-द्रव्य, गुग, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय भौर श्रमाव । माध्वाचार्य का दृश्य पदार्थ नेयाभिकों का द्रव्य ही है। इन्होंने समवाय नहीं माना श्रौर विशिष्ट भ्रंशी, शक्ति तथा साहश्य ये चार पदार्थ प्रधिक माने है। शेष में नेयायिक्तों की सरशि का ही आ्राश्रयण है। प्रतिरिक्त माने गए चार पदार्थों में विशिष्ट तथा अभ्रंशों हश्ण ही हैं । शाक्त और साहश्य नैयायिक्रों के गुणों के श्रंतर्गत किए जा सकते हैं । पदाथ्थ भेद॑ इनमें से हश्य २० प्रकार के हैं--परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, भ्राकाश, प्रकृति, गुणात्रय, महत्तत्व, श्रहंकार, बुद्धि, मन; तस्मात्रा, पंत्र भूत, पांच ब्रह्माणए, अ्रविधा, वर्ण, अंधकार, वासना, काल, प्रतिबिब। कर्म तीन प्रकार के है--विहित, निषिद्ध तथा उदासीन | सामान्य दो प्रकार के हैं जाति तथा उपाधि । विशेष भेद के गुण का नाम है तथा विशिष्ट विशेष गुण युक्त का । शक्ति के चार भेद हैं। अ्रचित्य शक्ति, आधेय शक्ति, सहज शक्ति झौर पद शक्ति । पदार्थ विवरण परमात्मा एक है, भ्रनंत-गण-पु्ण है। श्रानंद झादि गुणों का आश्रय, स्वतंत्र, नित्य वा श्रद्वितोव है। सृष्टि, स्थिति, संहार। नियम, आवरणा, बोधन, बंधन श्रौर मोक्षु इन श्राठ कार्यों पर परमात्म। का-ही ग्राषिपत्य है । जीव परतंत्र है । उसके सुख, दुख, विद्या श्रविद्या, बंधन, मोक्ष सब परमात्मा की इच्छा के श्रधीन हैं । जीव--मुक्ति योग्य, नित्य संमारी तथा तमोमय तीन प्रकार के जीव होते हैं। उनकी सख्या अनंत है। देवता तथा उत्तम मनुष्य मुक्ति योग्य हैं । देत्य, राक्षस आदि तमोयोग्य है । शेष नित्य संसारी । ( ४२२ ) प्रकृति--प्रकृति जड़ है । वह सत्व, रज, त मस् तीन गुणों का भ्रधिष्ठात है। इसकी श्रघिष्ठात्री लक्ष्मी है। भगवान लक्ष्मी द्वारा ही सष्ठि करते हैं। परमात्मा के श्रतिरिक्त सब पदार्थ जड़ तथा चेतन दो प्रकार के हें + इनमें चेतन केवल जीव हैं। जड़, जीव तथा परमात्मा का भेद सदा बना रहता है। यह भेद पाँच प्रकार का है। १-परमात्मा शभ्रौर जीव क भेद र-्परमात्मा तथा जड़ का भेद ३-जीव तथा जड़ का भेद ७-जीव श्रौर जीव का भेद ५-जड़ और जड़ का भेद | यह भेर जीव के मुक्त हो जाने पर भी: बना रहता है । मोक्ष के भेद तथा उपाय-- मोक्ष चार प्रकार का है--कर्मक्षय, उत्क्रान्तिलय, श्रविरादिम!र्ग तथा भोग । संचित तथा प्रारब्ध कर्मो के क्षय के बाद कर्मच्चुय तथा मोत्न प्राप्त होता है। कर्मक्षय के उपरांत जीव सुषुम्ता द्वारा उत्क्रमण करता है। हृदयस्थ विष्णु ब्रह्म द्वार से बाहर श्राकर उसे विष्णु लोक में ले जाता है # यह उत्क्रमण मोक्ष है| ज्ञानी जीव का भगवरूमृति से सुषुम्ता की पाश्व॑वतिनी नाड़ी द्वारा जो अश्रचिरादि लोकों को ऊर्ध्वगमन होता है वह शतचिरादि भक्ति है। गुणोपासक ज्ञानी जीव प्रारब्ध कम के श्रवसान के बाद जो विविध भोग करते हैं वह भोग मुक्ति हैं । इसके भ्रतिरिक्त सालोक्य, सामीप्य, सारूय तथा सायुज्य चाश भेद मुक्ति के भोगों के हैं। भगवान के लोक में: पहुंच कर इच्छानुकुल भोग सालोक्य में होते हैं । भगवान का समीप्य लाभ सामीष्य में होता है। सारूप्य में मुक्त जीव भगवान के समान ही रूप श्रौर गुणा प्राप्त कर लेता है। सायुज्य में वह भगवान के देह में ही प्रवृष्ट हो जाता है। मोक्ष का उपाय भगवद् शभ्रनुग्रह ही है। प्रन॒ग्रह के उत्तम मध्यम तथा भ्रधम होने से जीव को उत्तम मध्यम और श्रधम लोकों के सुखभोझक प्राप्त होते हैं । ४ ग. चेतन्य संप्रदाय प्रवतेक और तत्त्व विवेचन--- इस संप्रदाय के प्र्व॑तक चैतन्य महाप्रभु हैं। ताल्विक सिद्धांत की हृष्टि छे इसे “श्रचित्य भेदाभेद वादी” संप्रदाय कहते है। इसके अ्नुपार परम तत्व एक ही है जो सच्चिदानंद स्वरूप, श्रनंत शक्तिसंपन्त तथा भ्रनादि है। यही तत्व उपाधि भेद से परमात्मा, ब्रह्म श्रौर भणवान कहा जाता है। परमतत्क श्रीकृष्ण हैं। इनकी श्रनंत शक्तियाँ प्रकट हों तो भगवान, श्रप्रकट हों तो ब्रह्म ( ४२३ ) तथा कुछ प्रकट और कुछ श्रप्रकट हों तो परमात्मा भेदों का जन्म होता है। ब्रह्म ज्ञानगम्य है, परमात्मा योगगम्प तथा भगवान भक्तिगम्य होता है । श्रीकृष्ण की तुलना में ब्रह्य की स्थिति ऐसी है जैसे सूर्य की तुलना में उसके प्रकाश की । परब्रह्म के तीन रूप हैं--स्वयं रूप, तदेकात्मरूप तथा श्रावेशरूप । परवह्य का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो श्रपने पूर्णारूप से द्वारिका में, पूर्णतर रूप से मथरा में और पुर्णतम रूप से दुंद्रावन में बिराजते थे। वही जब किसी लीला विशेष के लिये या श्रपने किसी अंश के लिये प्रकट होते हैं तो तदिकात्म रूप कहलाते हैं जेसे नारायण श्र मत्स्यादि श्रवतार | जब वह ज्ञान शक्ति झ्रादि की क्रियाग्रों से महान जीव में प्रकट होता है तो वह ग्रावेश रूप कहलाता है । भगवान के तीन प्रक्रार के श्रवतार होते हैं । पुरुषाव॒तार, लीलावनार, तथा गुणावतगार | वासुदेव पहले हैं, सनकादि दूपरे, तथा ब्रह्मा विष्णु महेश तोसरे श्रवतार हैं । भगवान की तीन प्रक्रार की शक्तियाँ होती हैं। श्रंतरंग; बहिरंग और तटस्थ । अंतरंग शक्ति ही उनके स्व्ररूय की शक्ति है। इपके सत् चितु और आनंद तीन भेद हैं। भगवाव सत से विद्यमान, चित से स्त्रयं प्रकाशवान्न तथा जगत के प्रकाशधिता होते हैं । श्रानंद से आानंदमग्न रहते हैं। इस को भ्राह्नादिनी शक्ति कहा जाता है। राबा इसी का स्वरष्य हैं। बहिरंगा शक्ति माया है जो जगत का उपादान का रण हैं। तटस्य शक्तिसंपन््न जीव है जो एक श्रोर अंतरंग से तथा दूसरी श्रोर बहिरंग से संबं घत रहता है । मोक्ष तथा उसके उपाय-- भक्ति प्राप्ति का एकमात्र साधन श्रीकष्ण की क॒पा हैं। भक्ति दो प्रकार की है। वैधी तथा रागानुरागा | इसका भेदादि वित्ररण भक्िंत प्रकरण में विवे- चित हुआ हैं | श्रन्य संप्रदायों की तरह इसमें भी सत्मंग, लीला कीर्तन, वुंदावनवास, कृष्ण|मृति की पूजा आदि को भक्ति का साधत मान कर उनको उपादेयता बताई गई है। इस संप्रदाय में वर्राश्षम की मर्यादा का पालन नहीं है। भगवद्धूक्ति में चांडाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी का समान श्र:घकार है| घ्. वललभ संप्रदाय इसके भ्ादि प्रवर्तक वल्लभाचार्य हैं । इसे पुष्टि मार्ग कहते हैं। पुष्टि का श्रर्थ भगवदनग्रह दै। भगवदनुप्रह वेसे तो सभी भर्क्ति संप्रदायों में मान्य हैं पर पुष्टि मार्ग में उत्त पर विशेष बल दिया गया है। इपलिये ( ४२२ ) प्रकृति--प्रकृति जड़ है । वह सत्व, रज, तमस् तीन गुणों का श्रधिष्ठात है। इसकी अ्रधिष्टात्री लक्ष्मी है । भगवान लक्ष्मी द्वारा ही सृष्टि करते हैं। परमात्मा के श्रतिरिक्त सब पदार्थ जड़ तथा चेतन दो प्रकार के हैं॥ इनमें चेतन केवल जीव हैं। जड़, जीव तथा परमात्मा का भेद सदा बना रहता है। यह भेद पाँच प्रकार का है। १-परमात्मा श्रौर जीव का भेद २-परमात्मा तथा जड़ का भेद ३-जीव तथा जड़ का भेद ७-जीव श्रौर जोवः का भेद ५-जड़ श्रौर जड़ का भेद । यह भेद जीव के मुक्त हो जाने पर भी बना रहता है | मोक्ष के भेद तथा उपाय-- मोक्ष चार प्रकार का है--कर्मक्ष य, उत्क्रान्तिलय, भ्रविरादिमार्ग तथा भोग | संचित तथा प्रारब्ध कर्मों के क्षय के बाद कर्मज्गलय तथा मोक्ष प्राप्त होता है। कर्मक्षय के उपरांत जीव सुषुम्ता द्वारा उत्क्रण करता है। हृदयस्थ विष्णु ब्रह्म द्वार से बाहर भ्राकर उसे विष्णु लोक में ले जाता है | यह उत्क्रमण मोक्ष है। शानी जोव का भगवत्मृति से सुघुम्ता की पाश्ववतिनी नाड़ी द्वारा जो श्रचिरादि लोकों को ऊध्वंगमन होता है वह »बविरादि भक्ति है। गृणोपासक ज्ञानी जीव प्रारब्ध कम के श्रवसान के बाद जो विविध भोग करते हैं वह भोग मूक्ति हैं। इसके श्रतिरिक्त सालोक्य, सामीप्य, सारूय तथा सायुज्य चाश भेद मुक्ति के भोगों के हैं। भगवान के लोक में: पहुंच कर इच्छानुकुल भोग सालोक्य में होते हैं । भगवान का समीप्य लाभ सामीष्य में होता है । सारूप्य में मुक्त जीव भगवान के समान ही रूप और गण प्रा्त कर लेता है। सायुज्य में वह भगवान के देह में ही प्रवृष्ट हो जाता है। मोक्ष का उपाय भगवद् श्रनुग्रह ही है। श्रनुग्रह के उत्तम मध्यम तथा श्रधम होने से जीव को उत्तम मध्यम श्रौर श्रधम लोकों के सुखभोण प्राप्त होते हैं । ह ग. चेतन्य संप्रदाय प्रवतेंक और तत्त्व विवेचन-- इस संप्रदाय के प्रव॑तक चैतन्य महाप्रभु हैं। तात्विक सिद्धांत की हष्ठ से इसे अचित्य भेदाभेद वादी” संप्रदाय कहते हैं। इसके श्रनुत्तार परम तत्व एक ही है जो सच्चिदानंद स्वरूप, श्रनंत शक्तिसंपन्त तथा श्रनादि है। यही तत्व उपाधि भेद से परमात्मा, ब्रह्म और भनवान कहा जाता है। परमतत्क श्रीकृष्ण हैं। इनकी भ्रनंत शक्तियाँ प्रकट हों तो भगवान, श्रप्रकट हों तो ब्रह्म ( ४२३ ) तथा कुछ प्रकट श्रौर कुछ अ्रप्रकट हों तो परमात्मा भेदों का जन्म होता है | ब्रह्म शानगम्य है, परमात्मा योगगम्पय तथा भगवान भक्तिगस्य होता है । श्रीकृष्ण को तुलना में ब्रह्म की स्थिति ऐसी है जैसे सूर्य की तुलना में उसके प्रकाश की । परब्रह्म के तीन रूप हैं--सुवयं रूप, तदेकात्मरूप तथा ग्राविशरूप । परवह्म का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो श्रपने पूर्णुरूप से द्वारिका में, पूर्णातर रूप से मथुरा में श्रौर पुर्णंतम रूप से दुंद्रावन भें बिराजते थे। वही जब किसी लीला विशेष के लिये या अ्रपने किसी अ्रंंश के लिये प्रकट होते हैं तो तदेकात्म रूप कहलाते हैं जैसे नारायण शऔ्ौर मत्स्यगदि श्रवतार | जब वह ज्ञान शक्ति श्रादि की क्रियाग्रों से महान जीव में प्रकत होता है तो बह ग्रावेश रूप कहलाता है । भगवान के तीन प्रकार के ग्रवतार होते हैं । पुरुषावतार, ' लीलावतार, तथा गुणावतार । वासुदेव पहले हैं, सनकादि दूपरे, तथा ब्रह्मा विष्णु महेश तोसरे अवतार हैं | भगवान की तीन प्रक्रार की शक्तियाँ होती हैं। अ्रंतरंग; बहिरंग और तटस्थ | श्रंतरंग शक्ति ही उनके स्वरूप की शक्ति है। इपके सत् बित् और आनंद तीन भेद हैं। मगवात सत से विद्यमान, चित से स्त्रयं प्रकाशवान तथा जगत के प्रकाशधिता होते हैं। श्रान॑ंद से आनंदमग्न रहते हैं। इस को भ्राह्नादिनी शक्ति कहा जाता है। राधा इसी का स्रह्प हैं। बहिरंगा शक्ति माया है जो जगत का उपादान कारण हैं। तटस्थ शक्तिसंपन््न जीव है जो एक भ्रोर भ्रंतरंग से तथा दूसरी श्रोर बहिरंग से संबंधित रहता है । मोक्ष तथा उसके उपाय-- भक्त प्राप्ति का एकमात्र साधन श्रीकष्ण की कृपा हैं। भक्ति दो प्रकार की है। वंधी तथा रागानुरागा | इसका भेदादि वितरण भक्त प्रकरण में विवे- चित हुआ हैं | श्रन्य संप्रदायों की तरह इसमें भी सत्मंग, लीला कीतैन, वृंदावनवास, कृष्णमूति की पूजा आदि को भक्ति का साधन मान कर उनकी उपादेयता बताई गई है। इस्त संप्रदाय में वरशशाश्षप की मर्यादा का पालन नहीं है। भगव-द्भगक्ति में चांडाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी का समान अ्रधिक्रार है। घ. वल्लभ संप्रदाय इसके प्रादि प्रवर्तक वल्लभाचार्य हैं । इसे पुष्टि मार्ग कहते हैं। पुष्टि का भ्रर्थ भगवदनग्रह दै। भगवदनुप्रदद वे तो सभी भक्ति संप्रदायों में मान्य हैं पर पुष्ठि मार्ग में उत्त पर विशेय बल दिया गया है। इप्रलिये ( ४२४ ) संप्रदाय का नामकरण ही इससे हुआ है। ईश्वर स्वरूप की मान्यता फो दृष्टि से यह झुद्धादतवादी संप्रदाय है भौर शंकराचार्य के श्रद्व॑तवाद का खंडन इपमें होता है। शंकर के सिद्धांत में ब्रह्म को एक भर श्रद्वितीय तो माना जाता है पर उप्तके दो भेद करने पड़ते हैं -निरुपाधिक ब्रह्म तथा सोपाधिक ब्रह्म । निरुपाधिक ब्रह्म नामरूप को उपाधियों से रहित, शुद्ध, बुद्ध मुक्त तथा कामवातीत होता है । यही ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप हैं। पर यह ब्रह्म कर्ता, मोक्ता तथा निविकार होने के कारण सृष्टि का कारण नही बन सकता । सृष्टि के लिये दो कारणों की श्रनिवार्य श्रपेज्ञा होती है--उपादान तथा निमित्त कारण की । उपादान कारण तो विकारी वस्तु ही हो सकती है और निमित्त कोई कर्त्ता हो सकता है। शंकर के अ्रनुसार विकार और कतृ त्व दोनों धर्मों का निरुपाधिक ब्रह्म में आभाव माना है। इसलिये वह सष्टि का कारण नहीं बन सकता । फलत; उसका दसरा भेद सोपाधिक ब्रह्म मानना पड़ता है । द उपाधि माया है जो श्रग्ति की दाह शक्ति के समान उसी की अ्रपृथनभूत शक्ति है। इसके दो कार्य होते हैं--भ्रावरण और विद्ञेत्। आ्रावरण शक्ति ब्रह्म के शुद्ध रूप को आवृत्त कर लेती है श्रौर विक्षेप शक्ति उसी में श्राकाश श्रादि प्रप्रंच की उत्पत्ति कर देती है। इस उपाधि से संयुक्त ब्रह्म जगत का निमित और उपादान दोनों कारण बन जाता है। उपासना तथा साधारण व्यवहार में इसी ब्रह्म का उपयोग होता है। जीव ब्रह्म से पृथक नहीं, श्र भन्त है । वह भी नित्य, चतन्य, स्व्रयंसिद्ध तथा ज्ञान- स््ररू्प है। भ्रंतर केवल माया के आवरण का है। इप तरह सष्टि की सिद्धि के लिये जो वेदांतियों ने ब्रह्म के म्यामनक्र दो भेद किए थे, वलल्लभ मत में उसका खंडन किया गया है। वहाँ माया नाम की कोई वस्तु नहीं माना गई भ्रोर ब्रह्म शुद्ध सर्वधर्पाविशिष्ट माना गया है। ब्रह्म में जो विरोधी धर्मों का भाव होता है ज॑से अणोरणीय/न् महतो मह्दीयान् वह इनके अनुसार मायोपाघिक न होकर उसका सहज धर्म ही है। इस मत में ब्रह्म के तीन भेद हैं--परज्रह्मय, भ्रक्षरत्रह्या और क्षर्रह्म क्षरब्रह्म वेदांतियों की माया है जिसमें सब प्रकार के विकार-परिणाम होते है। भ्रक्षर ब्रह्म क्र ब्रह्म से तो प्रशंस्यतर है क्योंकि इसमें चतन््य गुण रहता है, छर ब्रह्म में तो केवल सत्व रहता है चेतन्य नहीं । पर श्रक्चर ब्रह्म में आनंद तत्व का भ्राभाव रहता है । इसलिये यह परब्रह्म से निकृष्ट है। कर्ता भोक्ता या सृष्ट का निमित्त कारण यही ब्रह्म होता है। सबसे श्रेष्ठ इसका ( ४२५ ) परब्रह्म या पुरुषोत्तम रूप है जिसमें सत्व, चैतन्य श्रौर श्रानंद तीनों वृत्तियाँ विद्यमान रहती हैं | जीव, जगत, ब्रह्म के ही स्फुलिंग हैं भ्रतएवं वे नित्य है । जगत के विषय में वलल््लभाचार्यजी ने 'अविक्रृत परिशामवाद! माना है -- अर्थात् ब्रह्म बिना किसी विकार को प्राप्त हुए जगत रूप में परिवर्तित हो जाता है । जिस प्रकार कुडल, वलय आदि रूप में परिणत होने पर भी सुवर्ण में कोई अंतर नहीं आता, इसी प्रकार ब्रह्म जगत में रूप में परिणत होकर भी प्रविकृत ही रहता है। जगत के विषय में उत्पत्ति विनाश ये नहीं मानते | प्राविर्भाव तिरोभाव मानते हैं। इसका श्रर्थ यह हैं कि भ्रक्चर ब्रह्म में तीन शक्तियाँ होती हैं-संधिनी, संवित् भर प्राह्नलादिनी । उनमें से संधिनी भ्रक्ति द्वारा सत स्वरूप का, संवित शक्ति द्वारा चेतन्य का, तथा श्राक्नलादिनी शक्ति द्वारा अपने झ्रानंद स्वरूप का आविर्भाव तिरोभांव वह करता रहता है। जड़ प्रकृति श्रर्यात् क्षर ब्रह्म में केवल संधिनी शक्ति प्र्थात् सत्व प्राविभ त रहता है। अक्षर ब्रह्म में संधिती श्लौर संवित श्र्थात् सत्व भर चेतन्य श्रवावुत रहते है। नरब्रह्म में तीनों शक्तियों द्वारा सत्व चैतन्य तथा श्रानंद सदा श्राविभू त रहते है । इस तरह ब्रह्म के भेद जो शक्रर सिद्धांत में माया द्वारा होते है वे इस मत से उसके सहज धर्म बद गए। उनके केवन श्राविर्भाव तिरोभाव माने गए | इस व्यवस्वा के श्रनुसार न तो ब्रह्म को ग्रस्त करने वाली इससे ग्रन्य 'फोई दूसरी वस्तु माया है और न जीवात्मा को ही ग्रस्त करने वाली । यह अवस्था भी मायावृत्त नहीं, भगवान की इच्छा से की हुई है ।' ऋष्ण के स्वरूप में बिलास श्रौर लीला का प्राधान्य इसी धारणा के फल स्वरूप हुभ्रा है। अं कृष्ण परब्रह्म या पुरुषोत्तम के श्रवतार हैं। ब्रह्म के तीनों रूपों की उपासना भी भिन्न भिन्न मार्गों में होती है | ये यार्ग भी तीन हैं-- १--प्रवाह मार्ग या धर्म मार्ग २--मर्यादा सार्ग या ज्ञान मार्ग तथा ३--पुष्टि मार्ग या भक्ति मार्ग । सांसारिक सुश्रो की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना प्रवाह मार्ग है। वेद विहित मर्यादाओं का अ्रनुसरण करना मर्यादा मार्ग है श्रौर भगवान के श्रनुग्रह के वशीभत होकर उन्हें श्रात्मसमर्पण करना 'पुष्टि मार्ग हैं। पुष्टि मार्ग में लोक और वेद दोनों की मर्यादाओं का त्याग 'हो जाता है। यही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है। मर्यादा मार्ग में तो ज्ञानी को केवल श्रद्धर ब्रह्म की प्राप्ति होती हैं। पुष्टि मार्ग द्वारा भक्त परब्रह्म के श्रति रोहित सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। मर्यादा मार्ग भगवान की चाणी से निकला हैं | पुष्टि मार्ग उनके शरीर शअ्रथवा श्रानंद झाूंग से। ( ४७२६९ ) ज्ञान मार्ग का लक्ष्य सायुज्ग्मुक्ति है। पुष्टि का प्राप्य रसात्मिका प्रीति द्वारा भगवान के अ्रधरामृत का पान करना है । आनंदधन का संप्रदाय घनानंद जी के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन हुआ था कि उन्परुक्त मानवीय प्रेम के उपासक वे बाद में संत बन गए। संत भी नियमित रूप से दीक्षा लिए जान पड़ते हैं। ये निम्बाब संप्रदाय के अ्रंतर्गत सखी भाव के उपासक थे। इनके पूर्व के प्रेमी जीवन का मधुर भक्ति में परिणत होना स्वाभाषिक था | किशनगढ़ के महाराज सावंत सिंह जी जो भक्त बन कर नगरीदास कहलाए इनके परम मित्र थे। तागर समुच्चय में इनका शअ्रतेक स्थलों पर प्रसग श्राया है । १--अ्रानंदधन हरिदास श्रादि साँ संत सभामधि, ना० स०» प्र० २३ ०द संख्या ४७२। २--आनंदघन हरिदास भ्रादि संत्न बच सुनि सुनि, वही १० १५। ३--अानंदघन को संगकरन तन मन की बारबयो | वही पृ० २५ पर ५२ ४- एक बार नागरीदांस जी भक्त मंह्ली के साथ गोव धन गए । श्रानंदधन जी उनके साथ थे | आये चलि तिहिठां रप्तिक कुंड, जहाँ राघा कुड भ्ररु कृष्ण कुंड । उतते सुनि उमगे रसिक वृद, उठि चले सामुहे बढ़ि अ्रनद। (श्रनंद > श्रानंदघन ) तहाँ रुपे सुर सनमुख रुस््हारि, बहि चले परसपर प्रेम वारि | तहाँ बद्रदास श्ररू म्रलीदास, मनु महारथी ये प्रेम रास। ना० स० ब्रज वर्रान पृ० ८७, ८० पद्च ५, भ्रपती पुस्तक मनोरथ मंजरी में नागर दास जी ने भ्रपने। एक परम मित्र संत का उल्लेख शिया है--- युगलरूप आझासव छके परे रीभ के पानि ऐसे संतव की कृपा मोप॑ दंपति जान परम मित्र आग्या दई मेरे हूँ ।हेत वास तवल मनोरथ मंजरी करो नागरीदास यहाँ परममित्र झ्रानंद्धन ही प्रतीत्त होते हैं 'रीक के ण्नि! वाक्यांश उन्हीं का है। उन्हीं की शोर संकेत करता है । ( ४२७ ) नागरीदास जी स्वयं सखी भाव के उपासक थे जैसा कि नाम से प्रतीत होता है। भ्रत: आानंद्धन भी इसी संप्रदाय के रहे होंगे। सांप्रदायिक परंपर] में भी इनकी गणाता सखो संप्रदाय में ही होतो हैं | ब्रह्म चारी बिहारीशरण जी ने निम्बाक संप्रदाय के समस्त संत भक्तों का इतिहास उनकी रचनाओं के परिचय के साथ “श्री निबार्क माधुरी! में दिया है। उनमें घनभानंद जो कृए उल्लेख किया है। ओर यह भी लिखा है कि ये ही प्रानंदधन हैं ।! किस भाव के उपासक थे इसका निरय तो रक्त ग्रथ में नहीं मिलता पर निम्षार्क सप्रदाय के अंतर्गत सखी भाव के सभो उपासकों का उल्लेख उक्त ग्रथ में किया गया है। जैसे हरिदास जी, रसिक देव जी, भगवतरसिक, ललित किशोरी श्रादि । उसी प्रसंग में इनका उल्लेख है। निबार्क संप्रदाय की गुरु परंपरा का वर्शान इन्होंने श्रपनी 'परमहंस वंशावलीर रचना में किया है। इसमें नारायणदेव से लेकर बृन्दाबनदेव जी तक गुरुओं- का क्रमिक उन्लेख किण गया है--- गुरु परंपरा का स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है-- नारायण, सनकादि, निबार्क, श्रीनिवासाचार्य, विश्वाचार्य, पुरुषोत्तम. चाय, विलानाचार्य, स्वरूपाचार्य, माधवाचाय, बल्भद्र, चाय, पद्म।चार्य, श्यामाचार्य, गोपालाचाय, छपाच य॑, श्रीदेवाचर ये, सुदरभट्ट, पद्मनम भट्ट, उपेन्द्र भट्ट, रामचंद्र भट्ट, वामन भट्ट, कृष्ण भट्, पदुमाकर भट्ट, अवरश भ, भूरि भट्ट, माधव भट्ट, श्याप्र भट्ट, गोपाल भट्ट, बलभद्र ? टू, गोपीताथ भट्ठु केशव भट्ट, गंगल भट्ट श्री केशव काश्मीरी, श्री भट्ट, हरिव्यास, परमनिष्ि (परशुराम ), हरिवश, नारायण देव, वृन्द/वन देव | वृन्दावन देव जी से इन्होंने दीक्षा ली जान पड़ती है। एक तो उनसे आगे 'परमहंसावली” की गुरु परंपरा नहीं चलती दूसरे बृ दावन देव जी के विशेष रूप से इन्होंने प्रशंधा लिखी है। इनके विषय मे लिखते हैं कि इनको (श्री बृन्दावन देव जी की) तो महिमा बीस बिसे श्रर्थात् पूर्ण है भौर वुन्दावन की परिघ बस कोस की है | भश्रथ त् ये बुंदावन के रूप हैं। वे इपा क्षेः इईंश सदा मेरे सिर पर निवास करे । बिसे बीस मह्तिमा तिन््हें ताहि कोस है बीस सदा बसों नीके लसौं कृपा ईस मो सीस' १--घतनानंद श्ौर श्रानंदधन दोनों ही इनके ताम है” निबाक माधुरी ३१० ४६२ २--प रमहंस वंशावली पद्च संख्या--४४५ ( डरेंद ) इस प्रकार श्रपने प्रसंग से भ्रन्य किसी गुद की स्तुति इन्होने नहीं को। यह इनके दीक्षा गुरु होने का अनुमापक प्रमाण है । एक 'फुडकल रचना 'मोजनादिधुत' की भी आनंदघन के नाम से लिखी मिली है। जिसमें गुए परंपरा उसी प्रकार नारायण से प्रारंभ होफर गोविददेव जी तक हैं । इसमें गोविददेव जी बृत्दावन देव के श्रनंतर आए है। परपरा ज्यों की त्यों परमहंस वंशावली की हो है" इससे संशय हो सकता है कि श्रो गोविंद देव जी ही इनके दीक्षा गुह तो नहीं थे | पर इसी में बृन्दावन देव जी की प्रशंत्ता में एक अर्धाली लिखी है जिसमें उन्हे चातक रप्तिकों का आानंदधघन बताया है । श्री वृन्दावन देव सनातन । चातक रखिक न को श्रार्नेदघत” और श्री गोविददेव जी का केवन नाम स्मरण ही है । जो यह भोजनादि धुनि गावे श्री गोविद देव पद पावे हसी से वृन्दावन देव जी की शोर श्रद्धातिरिक भलकता है। दूपरे समय क्रमसे भी वृंदावत देव जी का ही दीक्षागुरुत्त संभव लगता है। इनका समय संबत् १८०० तक है| गोविददेव जी संवत १८१४ तक विद्यमान है। आनंदघत जी की सं० १८१७ में मृत्यु हुई। जन्म संवत १७३० के लगभग श्रनुसित किया जाता है। गोविददेव जी से दीक्षा लेने का श्रर्थ ७० वर्ष को आयु में दोक्षा लेना है। जो उचित नहीं जाव पड़ता । अपनी यु ॥वस्था में इन्होने दिल्लो छोड़ा था। ३० वर्ष की प्लायु भी उस समय पर रहो होगी तो १७६० में वृन्दावन देव जी हो गही पर विराजमान थे । इसी समय या उसके श्रास पास इन्हें वृन्दावन देव जी ही गद्दी पर विराजमान मिल सकते थे भ्रत: उन्हीं से इन्होंने दोक्ना ली होगी | सखी संप्रदाय श्री हरिदास जी द्वारा प्रवर्तित है। झ्रानंदधत जी ने इनका 'नाम कहीं भो युह परंपरा में नहीं लिया है । केवल गिरिगाथा में एक स्थान पर पर इनका नाम ग्राथा है । इहि प्रसाद हरिदासनिकर वर घनि धनि गिरिवर धनि गिरिवरधर गा] (--आचार्य विश्व० प्रसाद मिश्र--आ्रा० घ० ग्रंथा० भूमिका पृ० ७६ २--देखिए निम्ब'क मा पृ० १४३, ( ४२६ ) पर ये 'हरिदास” सखी संप्रदाय के प्रवर्तक भ्राचाय नहीं है। श्रानंदघन जी. के समयफालीन इन्हीं के साथ के कोई दूसरे महात्मा है। उनका उल्लेख तागरीदास जी ने भी किया है । इसका कारण यही जान पड़ता है कि सखी भाव या सखा भाव केवल उपासना के भेद हैं, मूलतः संप्रदाय तो निम्च्रार्क ही है। श्रत: भ्रानंदघन जी ने गुरु परंपरा में निम्बार्क संप्रदाय की गद्दी के गुदुभ्रों का नाम स्मरण किया है। हर इनकी सखी संप्रदाय की उपासना के अंतःसाक्ष्य तो भ्रनेकों मिलते हैं जूस--त> १, संप्रदाय के प्रवर्तेक श्रो हरिदास जी की रसिक छाप थी । (क) शभ्रासधीर उद्योतकर रसिक छाप हरिदास की* (ख) रसिक श्रनन्य हरिदास जु गायौ नित्य ग्हारर (ग) ऐसो रसिक भयौ नहिं है भुमंडल आाकास'* (घ) सो पथ श्री हरिदास लह्यों रस रीति की प्रीति चलाय निसाँको निशननति बाजत गाजत गोंविद रसिक अनन्य को पथ बांको" 2५ 2५ >५ ५ इस संप्रदाय के अनुयायी अन्य लोगों ने भी “रसिक? शब्द का अ्पती रसनाश्रों में प्राद्रुयेण प्रयोग किया है। भगवत रसिक जी ने श्रपने ताम में ही इसको जोड़ लिया था। ललित किशोरी जी रचताश्रों में कुछ ही ऐसी मिलेगी जिनमें 'रपसिक' या रस शब्द न श्राया हो। इस से पता चलता है कि सखीसंप्रदाय में रस रसिक या तत्समानार्थक शब्दों का प्रयोग सांप्रदायिक परंपरा में श्रा गया था। श्री कृष्ण ओर राधा का स्वरूप भी श्रृंगार रस का बिहार करने वाला है। इस दृष्टि से आ्रनदधन जी की समस्त रचनाओ्रों की परीक्षा की गई है। उनमें रस तथा रसविशेष्य एवं रस विशेषण समस्त शब्द ११८९ बार प्रयुक्त हुए हैं। इनमें ५६६ बार रस विशेष्य शब्द जेसे महारस रसराज और एक रस' आए हैं, भौर ३२० बार रस पड न तारक किकननन अमल आप वन स्अननजरजफननओी पकतिनानिनभाओ ») अभन्ीन्िनगगरन्अरनिनओ ++ १--आनंदघन हरिदास आदि संतन बच सुनि सुति । तागर समुच्चय १० २३ २--भक्त मात्र भक्तिनुधा स्वाद रझपकला० १० ६०७ ३--भक्तनामावली श्री प्रधदास कृत । ४--श्री हरिराम व्यास जी निबार्क माधुरी १० १६४ ५--श्री हरिगोविद स्वामी वही १० १६३ ( ४३० ) विशेषण समस्त शब्द जेसे रसिक 'रसिया? रसाल “रसलोभो” प्रादि। इसी अ्रकार रसिक शब्द १२२ बार प्रयुक्त हुआ है । श्री कृष्ण के लिए “र॒सिक 'रसीले 'रसान 'रसनायका 'रसमय” ग्रादि राधा के लिए 'रसिक्िनी' 'रसदायिनी' 'सलेनी' आदि ब्शिषतश्रों का उल्लेख स्थान-स्थान का कवि ने किया है । कवि का रस और रसिक भाव पर इतमा क्राग्रह उन्हें रसिक संप्रदाय का प्रमाणित करता है । २- इनकी रचनाओ्रों में या तो ब्रजप्रेम का वर्णन है या फिर श्री कृष्ण 'झौर राधा के मधुर रम का । थोड़े पर॒ ऐसे हैं जिनमें शिव, प्रह्नद, चेतन्य, नारद, गगा, राम, सूर्य श्रौर और वामन की स्तुति की गई । इससे सांप्रदायिक हष्टि की उदारता का पता तो चलता है पर रस-केलि का भूयोभ्य वर्णान उन्हें सख्जी संप्रदाय का ही प्रमाणित करता है। इनकी रति मादत भाव की है जो मधुरा भक्ति मे ही मान्य है। श्रीकृष्णा को 'अनेक कामदेवों को लज्जित करते वाले', विलासनिधान,' "केलिकला पंडित”, “रसमं डेत”, किलिरसिक”, मदन केलि सुखपगे”, “रसिक सिरोमनि, “रसलोभी! “रपिक 'छल'*, 'सुरति रस पे”, “रतिस्सप्रौंडेर, 'रसिकराधारमन?, “राधिका- नव उरग-राग-रंजित' | आ्रादि विशेषण से युक्त कहा है जो सखी संप्रदाय की 'रस-केलि' का द्योतक है| ३-गोपियों के प्रेम को स्थान स्थान पर सराहना की है। गोपियाँ श्री कृष्ण श्लौर राधा फी सखियाँ हैं। इससे सीख भाव की उपाप्तता का अ्रनु मात होता है। उन्होंने यह अनेकों स्वानों पर कहा है कि श्री कृष्ण की प्राप्ति गोपी प्रेम के द्वारा ही हो सकती है| एक उदाहरण-- की. पनल्वा- पनननननन)-कम.>पनरनम> कननननाना»»»«, हक १--व्यौरेवार विवरण रचनाश्रों के प्रकरण देखिए । २-- विचार सार। ३--भावना प्रकाश ७३ । ४--वही ५७ । १--पदावली १८८ । ६-- वही । ७--वही १२६ । ८--पदावली ११२। ६-+वही ६० ॥ 4 ०--वबही । ( ४३१ ) सरवोपरि गोपिन को प्रेम, जिनसों नंद सुनु को नेम । निरिनि रहत ब्रज नंदन जिनके, हरि हित सहित मदोरथ इनके || इतकों गुत मुरलीधर गावत, परम प्रेम रस पुंज बढ़ावत । इनकी प्रेम सगाई जैसी, देखी सुनी न कितहीं ऐसी।* प्रेम तो गोपिन हीं के भाग | जिनके नंद सूनु सों साँची रक्ष्यौी राग प्रनुराग । कहिये कहा निकाई मन की जो कछु लागी लाग | सवंसु बिसरि बिसरि सुधि साधी महामोह को जाग | ब्रज मोहन की महामोहनी अ्रनुपम अचल सुहाग । आनंद घन रस भेलि भालरी नव वृदावन बाग | श्रा० घ० पदा० १६२ । ४--बधाई के पद लिखने की प्रथा निबार्क संप्रदाय के अनुयायी संतों में होती है। आनंदपघन जी ने श्री कृष्ण राधा और श्रीरास की बधाई में लगरुग २५ पद लिखे हैं | इसके श्रतिरिक्त 'रंगब्रधाई” निबंध की स्वतंत्र रचना ही इसके लिये की है । आनंद को घन रस जस बरसौ, हित हरियारी नित ही सरत्ौ । त्रज जन चातिक रह रस पियौ, ब्रज जीवन रस पीवत जियौ || रंग बधाई ४७, ४८ | ५- दुषभातपुर सुबमावर्णत और “मनोरथ मंजरौ” में कवि ने श्रपने की सखी भावना में रखकर राधा कृष्ण की रह: केलि में सेवा करते दिखाया है। सल्ली भाव की साधना की यही चरमकोटि होती है कि वे. राधाक्ृष्ण की रहस्य केलियों को भी देखें श्र स्त्रयं उसकी श्रभिलाषा न करते हुए युगल- हित को ही अपना हित मानें। ललिता और विशाखा दो सखियाँ राधा के श्रंतरग परिसर में रहती हैं अन्य सखियों को उनकी कृपा लेनी पड़ती है तभी राधा का प्रसाद मिल पाता है । आनंद घनजी भी भ्रनुभव करते है कि ललिता सखी मुझे बहुत मानती हैं। राधा की हित की दृष्टि से मेरा भाव पहचान जाती है। विसाखा भी विशेष प्रेम करती है । हँसकर बोलती है भर माथे पर हाथ रखती है।* १--ब्रजब्योहार | २--वृषभानपु रसुषमावर्णान २६ | ( ४३२ ) साधना को इस कक्षा में पहुँचे हुए संत श्रपता साधनागत नाम भी बदल लेते हैं। ये नाम सखियों में से ही कोई एक होता है। निशार्क संप्रदाय” के सभी श्राचार्यों का कुछ न कुछ साधनागत नाम है। श्रानंदघनजी ने 'परम- हंस वंशावली, में परशुरामाचायंजी का परमा' नाम दिया है। बे तिनके पार विराज के परमानिधि श्री मान । पदवी की पदवी दई मुनिवर क्ृपानिधान । 'मोजनादि धुनि” के पद में इनका व्यावह्मरिक नाम श्राया है--- परसुराम सुखधाम महाप्रभु | श्री हरिवंस हंस इश्वर विभ | प्राचार्यों के साधना नाम इस प्रकार हैं | श्री हरिव्यास देव हरि प्रिया सखी श्री परसराम देव परम सहेली श्री हरिवंशदेव हित श्रलबेली श्री नारायण देव नित्यनवेली श्री बृदावन देव मनमंजरी' सखी भाव की सेवा का वितरणा श्रष्टजाप के कवियों में भी हुआ था २। पर उसकी साधता श्रघिक न होने से पूरा पूरा चित्रण नहीं मिलता । गौडीय . संप्रदाय में इसकी बहुत महत्व दिया जाता है। ब्रज की प्रसिद्ध श्राठ सखियों* में से तीत विशाखा ललिता और चंपकलता तथा पाँच श्रन्यः चित्रा, इंदुलेखा, रंगा देवी, तु गविद्या श्रौर सुदेवी को लेकर भ्रष्ट सखियाँ संप्रदाय में प्रयुक्त होती हैं। भ्राचार्यों का सेवा वितरण इस प्रकार से है:--- १--रूप गोस्वामी विसाखा २--रायरामानंद ललिता ३--बनमाली कविराज चित्रा ४--#ृष्णदास ब्रह्मचारी इंदुलेखा ५ -राधव गोस्वामी चंपकलता ६--गदाघर भट्ट रंगदेवी १- आचार श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र-- श्रा ० घ० ग्रंथावली भूमिका ७८ । २--अ्ज की प्रसिद्ध श्राठ सखियाँ ये हैं--विसाखा, चंपकलता, चंद्रभागा, ललिता, भाभा, पदुमा, विमला, सुभगा । ( ४३३ ) ७-प्रबोधानंद तुग विद्या ८--अश्रमंत श्राचाय गोस्वामी सुदेवी इस प्रकार मधुरभाव की भक्ति में भक्तों द्वारा साधना नाम ग्रहण करते की जो परंपरा संप्रदाय में है वह श्रानंदधन जी में भी पाई जाती है। इनका नाम बहुगुनी था । राधा की हाँ चौकस चेरी, सदा रहति धर बाहिर नेरी । नोको नाँव बहुगुनी मेरों, बरसघाने कौ सूदर खेरो। राधा नाँव बहुगुती राख्यो, सोई अ्धर हियें अभिलाख्यों । राधा धरयों बहुगूुनी नाऊ, ढरि लगि रहों बुलाए जाऊ । प्रिया प्र० २५ ॥ सखी भाव से जो सेवा श्रानंदधन जी ने इंध् मानी है उसका विवरण प्रियाप्रसाद में इस प्रकार है। मैं राधा को गीत सूनाती हूँ । भीनी बातों से उसे हँसाती हूँ। जब वे गृह या बन में बिहार करती हैं, तो मैं पीछे लगी रहती हूं। भरत्यंत रसीली कथा राघा से कहतो हूँ | उनके चरण दबाते हुए कुछ नीचे भ्रुफ जाती हूँ तो राधा के पर मेरे सिर से छू जाते हैं। जब उनके पैर हिलने पर जागती हूँ तो फिर ऊँधकर पैरों से लग जाती हूँ | जब राधा के पास श्यम को देखती हुँतो समयोचित सुख सेवा करती हूँ। उनके प्रिय पर पंखा ढुलाती हूँ, उनके श्रम के स्वेद को सुखा देती हूँ । राधा भी अपने मन की बात मुझसे कहती हैं। वह अपनी रुचि ही से अपने गुप्त गाँ। खोलने लगती हैं। उनके पैरों में भावाँ भौर महावर देती हूँ । अड़े दाव पर जब काम पड़ठ है तो बहुगुनी के बिना कौन सवार सकता है! वृषभानपुर सुषमावर्णा में भी यह प्रसंग विस्तार से दिया हुआ है ?' 'राधा ने मुझे सब प्रकार की शिक्षा दी है। भपने परों में कवाँ करा कर मेरा मान बढ़ा दिया है। उनके हऋंगार की सब सामग्री सजाना जानती हूँ। प्रनेक प्रकार से सिर गूथना जानती हूँ । उत्तम २ गानों से उन्हें प्रसन्न करती हूँ॥ चटक के साथ रसीले छंद श्र कवित्त पढ़ती हूँ तो प्रेम रस का रंग" १-- प्रिया प्रसाद-२५, २८७ ३०९, ४१०-- ४* | ३० ( ४३४७ ) बेंघ जाता है । जब वे रीक के वशीभूत होते हैं तो मैं अपनी बहुगुनी कला का प्रदर्शन करती हैँ । उनके स्वर में स्वर मिलाकर इस प्रकार प्रैम लपेटी गाँसें खोलती हुँ कि उनको गुप्त बातें भी प्रकढ हो जाती हैं। इस समय का सुख अकथनीय है।”! 'मनोरथ मंजरी? में मन्मथ केलि के समय ऐसी ही सेवा की भावना की गई है। मैं राधा के लिए दूध के फेत जँसा शुभ्र पलंग बिछाती हूँ, मणि की चौकी पर मधुपाव के भाजन भर देती हूँ। वहाँ पर रसरीति से लाल विहारिणी को लाती हूँ श्रौर उनमें सुरत का श्रभिलाष उत्पत्त कर अ्रवसर पर बाहर आ जाती हूँ। वे जो आपस में वार्तालाप करते हैं उसका कनसुआ लेकर प्रसन्त होती हैं । पर आपस का उनका रस-व्यपार किस प्रकार कहा जाय ? प्रिया मेरा श्राचल पकड़कर श्रपने पास बिठाना चाहती हैं। पर मैं भ्रप्रसन््न होकर बाहर श्रा जाती हूँ । बाहर बैठकर मृदुल बीणा बजाती हूँ। राघा को झपने संगीत से ही जगाती हूँ । ६--प्रेम पद्धति में स्पष्टरूप से वे अपने को गोपियों के मार्ग का श्रनुथायी बताते हैं:-- गोपी चरन रैन मेरे धन, गोपिन के पतसों पान्यों पन'* झआनंदधन जी ने जिस कोटि को भावना उक्त तीतों निबंधों में प्रकट की हैं उससे श्रपनी साधना में सिद्धिप्राप्त संत से प्रतीत होते हैं। राधा के श्रत्यंत तिकट के परिसर में पहुँचे हुए है। इस प्रकार की सेवा संप्रदाय के बहुत ऊचे संतों को ही मिली है। वंसे नागर सम्च्चय' में जो प्रसंग श्रानंद घन जी का आया है उससे भी इनकी सांप्रदायिक महिष्ठता का ही प्रनुमान होता है | श्रपनी सांग्रदायिक साधना में उच्च कोदि तक पहुँचकर भी झानंदवन जी की उदारता में कमी नहीं शधाई। शिव, गंगा, नारद, वामन, चंतन्य, राम, प्रह्लाद, सु, बलदेव श्रादि को स्तुति में घनेकानेक पद प्रापने लिखे हैं; राम की बधाई भी गाई है। उनकी स्तुत्ति में हर प्रह्वर की यावना की गई है। शंकर स्तुति में श्रानंदवन जी कहते हैं १--३० सृु० ६-२३॥। २--म्रनोरथ मंजरी २--प्रमपद्धति १०२ ५ ४७३५ ) कि झापकी कृपा से मैं श्री हरिगाथा गा सकूँ जैसे भ्रन््य संतों ने गाई है। इसी श्रंकार गंगा स्तुति में मधुतु दन प्रीति' का प्रार्थना करते हैं ।*' इस तरह अनेकों बाह्य तथा भाभ्यंतर प्रमाणों से सिद्ध है कि ये निबाके संप्रदाय के भ्रंतर्गत सख्थी भाव के उपासक थे । आनंदघन के दाशंनिक विचार आतनंदधनत की रखात्मक शुंगार भ्रनुभुतियों में जो रहस्य-भावना की महक भश्राती है वह इनके दाशंनिक दृष्टिकोण के कारण ही है । ये सरूप के उपासक होकर भी श्ररूप निगु ण ब्रह्मै२ को भावना से सर्वथा दूर नही रहे । संभव है यह भक्ति तथा दर्शन का योग इसलिये हो गया कि ये सखी संप्रदाय के भक्त थे पजिसमें रहस्य की भावना विद्यमान रहती है। इस विषय में श्रानंदघन दूसरे अक्तों से एक बात में बहुत अ्रधिक भिन्न हैं। इन्होंने भ्रपने दार्शनिक भाव भी प्रेमभावता में डबाकर इतने सरस बता दिए हैं कि उनमें दार्शनिक रूचछता नाम को भी नहीं। दूसरे भक्त जब सांप्रदायिक दर्शन को काव्य- बद्ध करते है तो उसमें काध्य की सरसता कम हो जाती है। इन्होंने सब कुछ प्रेम की भाषा में कहा है। दार्शनिक विचार देते समय ये फारसी काव्य शली से तो इसलिए भिन्न हो जाते हैं कि यहाँ दार्शनिक तथ्य स्पष्ट श्रौर प्रचुरता में होता है श्रौर भक्तों की शैली से इसलिये भिन्न हो जाते हैं कि डसमें प्रेमव्यास्यान की सरस शैली ज्यों की त्याँ बनी रहती है। यहाँ भी प्रिय प्रानंदघत ही है। उसी के रुपव्यापारों के श्राधार पर भाव निवेदन हुआ्ना है। भ्रतः दर्शत तथा भक्ति का सरस योग इनको काव्यशैज्ञी का बड़ा रमणीक गुण बन गया है। परमेश्वर परमेश्वर के दो रूप है--प्ररूप तथा सरूप। अरूप में वह निगुण निराकार निष्काम तथा व्यापक और श्ज्ञेय है। उसके निर्गुणा रूप की व्याख्या करते हुए श्रानंदघत कहते हैं कि सब तुमको गादे हैं। वेद तुम्हें एक बताते १--तुम्हारी कृपा से निसिदित गाऊँ श्री हरि गाया जेप्े गाइ आए संत प्दावली ६२५ | श्ररी गंगा हौं तेरों गुन गायक श्रब तू श्रपतोई गुनकरि री । मधुसूदन पद्धति बढ़ नित ऐसी भोंतित ढरि री--वही ७०६५ । ( जे३६ ) हैं।। भक्त जैसी भावना करते है - उसी. रूप में तुम्हें -प्राप्त करते है। तुम जल थल व्यापी, अंतर्यामी श्लौर उदार हो संसार में तुम्हारा जावराय” नाम पड़ा हुआ है। इतने गुणा पाकर श्लौर जगत् पर छा कर भी हे आनंद के घन* तुके तो नि. ण ही दिखाई दिए हो | | ह | श्री कृष्णरूप में वह सरूप है वह परम रपस्तिक है। परम शआ्रानंद स्वरूप है। संसार रूछ तथा नीरस पड़ा था । उसने श्री कृष्णा रूप में श्रवतार लेकर उसे सरस बना दिया। श्रपत्री श्रानंदमयता तथा रसिक्रता का आस्वादन करने के लिये ही परबह्म श्रीकृष्ण रूप में अ्रवतरित हुआ है जिसका कोई पार नहीं पा सकते। जिसकी प्राप्ति में ज्ञान का ओज थक जाता है तथा जिसे महिमामंडित सिद्ध और मुनि लोग खोजते हैं वही श्रानंद का घन श्रीकृष्ण राधा सुजान के रूप का पपीहा होता है । झ्रानंदघत जी के अनुसार परमेश्वर का स्वरूप नित्य चैतन्य तथा व्यापक है। उसकी सत्ता सब रंगों में है पर स्थिर रूप से कहीं न कहीं वह उचड़ता भी है, बरसता भी है। सरसता भी है श्रौर तरसता भी है। सर्वत्र विद्यमान है पर उसका घर कहीं नहीं।” उसकी श्रद्वतता का प्रतिपादन करते हुए झानंदघत जी जीव श्रौर परमेश्वर को श्रभिन््त बताते हैं। उनकी दृष्टि में परमे- श्वर त्रिकाल सत्तावान है : जीव से अ्रभ्िन्न है। स्थूल हष्ठटे से जो जीव श्रौर परमेश्वर का भेद प्रतीत होता है यह परमेश्धर को इच्छा से बने मायावरणा के कारण हैं। इस मायावरणा के ही अनेक नामरूप हो जाते हैं जो भेद का कारश! बनते हैं। तत्वतः जीव ब्रह्म का श्रद्गत है। हमें तुम्हें श्राजु लौ न भ्रंतर हो जान प्यारे कहा ते दुखी सो बैरी श्राड़े झानि है मनो।! झ्रानंदघन ने परमेश्वर को दुर्लक्ष्य भी बताया हैं। जिस प्रकार बादलों मे से कभी छुण भर के लिये बिजली की कौध चमकती है जो चमक के कारण: दिखाई भी नहीं देती इसी प्रकार उसका श्राभास कभी क्षण भर के लिये होता है और बुद्धि फिर भ्राश्चय में पड़ जाती है | प्राणी को इससे संशय होने: लगता है कि वह सत्य है या कोरा संभ्रम ही ।४ १--सुहि २५३८ २२३ २--श्रह० ४५७४ ३--सुहि ० ४२१ ड- आ० घ७ पदा० ६५ ५--आ० ध० सृहि ३५३ ( ४३७ ) परमेश्वर सगुगा हो या तिग ण वह झ्ानेदस्वहूप तथा प्रेम स्व्रह्य है । समत्त सृष्टि पर उप्ती को आनंद वर्षा होती है। भक्तों के हदयों में भो जा चाह बरसती है वह भी उसी घन के जलबिदु हैं। परमेश्वर का जीवों से संबंध व्यापक होने से वह जीबों के हृदय का अंतर्यामी है। वह जीवों के साथ ही रहता हैं पर जीव अल्पन्नता तथा प्रेमहीनता के कारण उत्तका दर्रत नहीं कर सकता । देखा जाए तो जीव हो परमेश्वर से दूर है । परमेश्वर तो उपक्के साथ ही साथ है । संसार की सब॒॒प्रकार की शक्ति प्राणो को परमेश्रर से प्राप्त होतो है पर उसे देखने की क्षमता प्राप्त करने के लिये प्राणी को प्रेम- साधना करनों पड़तों है। इथ विद्यव में परस्मेश्वर जीव को मसातों 'परीक्षा लेता है। वह नेत्रों का तारा बनइर जगती के पदार्थ जात को देखने का सामर्थ्य तो दे दंता है। पर राय दिखाई नहीं पड़ता । इस प्रकार वह रहस्परमय सिद्ध होता है। वह भ्रानद का घर छा छा कर भो उचड़ा हुआा ही रहता हैं। परमेश्वर को रहस्परूपता का कारण उसकी श्रन॑ंत शक्तियाँ तथा श्रनंत गुणा भी हैं। इन गुण तथा शक्तियों का पार पाते तथा इनका विश्लेषण करने का उद्योग वेद शास्त्रादि करते हैं। पर वे स्वयं श्रगाध शोर विभिन्न हैं । उनसे बद्धि को भ्रम ही होता है । साधारण जीव की तो बात ही क्या, शिव, ब्रह्मा, इंद्र श्रादि देवता उसे समभने में बावले हो जाते हैं। वाणी उसे गाती श्रौर सुनती हुई तथा उसकी झभिवाष करती हुई अ्रधिक से भ्रधिक भअ्रप में उलभनी जाती है' | भ्रानंदवर का विश्वास है कि सवंत्र छाए भगवान को जो भक्त देख नहीं पाता इसका कारण भगवान को हो कठोर अकूदण। है। जो मत परमेश्वर को . जान सकता था उसे परमेश्वर ने ही भ्रजान बनाया है' । एक झोर तो परमेश्वर का यह स्वरूप है। दूसरी श्रोर वह अैमलवन््कान्»कमकलकनन सका वन ५आ०>नमन«म-भनकानन- पका अननमनभनमनीमान मत १--बसि एकहि बास विकास करों बस नाहि बिसासी बनो सुहै | हम संग फिधो तुम न््यारे रहौ तुम संग बसो हम न्यारी रहै । सुहि० ४६३ २--आानंदधन प्रकीर्णाक ३३ ३--किंहि ठान ठत्तौ हौ सुजान मनौ गति जाति सके सुप्रजात करयौ ** ( ४डरे८ ) दीनदयालु, श्रार्तप्रतिपालक है। सभी को सुख तथा जीवन देता है भक्तों का पोषक तथा रंकों का तोषक है। वह णन-सोच-विमोचन फ्र पूर्णकाम तथा प्रण का निर्वाह करने वाला है। श्रमानियों का मानद, कृपालू तथा प्रीति का रसाल समुद्र हैं। उनकी क्ृपालुता तो इतनी है कि: भक्त के बिना कहे उसे देखकर ही वे कृपा करते हैं। उनके नेन्नों में कृपा के, कान लगे रहते हैं। भक्त का विश्वास है कि सुआन परमेश्वर प्राशियों को जीवित रखना भलीभाँति जानता है। वह भक्त का मनभाया कर उसे सुरक्ष देता है । अ्भिलाषा की बेलि को भक्त के हृदय के श्रालबाल में रस देकर सफल बनाता है। श्रपने स्नेह के कारण ह्दी वह तृपत्त और भ्रनुकुल होकर अपने श्राप ही भक्तों पर ढरता है। इस तरह भगवान के दो पृथक पृथक स्वभाव श्रानंदघन ने अनुभव किए हैं । कृपालु श्रोर कोमल तथा कठोर श्रौर रहस्यमय । पहले स्वभाव के साथ जिन गुणों का संबंध हैं वे हैं स्नेह, दीनपालकता, प्रण॑पुरण भ्रौर श्रवढर कपा । दूसरे स्वभाव के सहयोगी गुण हैं दुर्बोधता, विलक्षुणता, संभ्रभरूपता व्यापकता श्रोर श्रंतर्यामिता श्रादि। प्रतीत होता है ये दो परस्पर विरुद्ध गुणावलियाँ सगुण तथा निगुंगा रूप परमेश्वर के विषय में अ्नुभत हुई है ॥- झोर स्वभावत: कवि का श्राग्रह सगुणशरूप की ओर है । इस भाव की एक सवया में उन्होंने बड़ी स्पष्ट श्रभिव्यक्ति की है। गोपियाँ फहती हैं कि--है“ प्रिय, तुम सब ठौर मिलते हो पर दूर ही रहते हो । जिस रंग में भो रहते हो भरपुर रहते हो। तुम कहीं तो ऊखिल से हो जाते हो भ्रौर कहीं हितु से । हम तो केवल यही चाहती हैं कि क्षण भर तुम मनुष्य रूप में मिलो ।? इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है कि कवि भगवातनु के मानव रूप का ठप।सक है प्र्थात् सगुश रूप का। भगवत्शप्ति के साधन भगवत्माप्ति का एकप्रात्र साधन जीव के प्रति भगवान की कृपा और भग- वात के प्रति जीव की भक्ति है। भगवत्कृपा भगवान का ही रूप है। वह भक्तों: में सब प्रकार की क्षमता ला देती है। भ्रानंदधन ने स्पष्ट कहा है कि जब भग- वान निकट रहकर भी प्राणियों से दर रहते है तो उनकी कृपा ही मिलन का १--सुहि० ३५१, २--सुहि* ३७६, ( ४३६ ) एकमात्र उपाय हो सकती है!। भगवतक्ृपा श्रज्ञानी भक्त का हाथ पकड़कर भगवान के चरणों में डाल देती है। द भगवात का सहज रूप परमेश्वर का रूप सहज है। बोधवान प्राणी भगवान को सहज रूप में ही देखता है '। उसझी प्राप्तिका साधन भी सहज प्रेम है । जो स्वाभाविक रूप से परमेश्वर में श्रनुरक्त होता है वही सफल होता है। दूसरे लोग तो व्यर्थ पच मरते हैं। मिलाप झोर विरह तथा संसार के सब व्यवहार सहज हूं हैं । संप्तार संसार भ्रसार है। पृथ्वी से श्राकाशपर्यन्त इसका समस्त रूप 'गनबीता? है। इसकी कोई वस्तु स्थिर नहीं हैं।' यहाँ 'चलनि' सर्वत्र मढ़ाई रहती है।! जिस शरीर से स्नेह किया जाता है वह तो क्षणुभर में भस्म बन ज'ता है | यहाँ के समस्त नाते यहीं छुट जाते है ।* जिस प्रकार अद्वेतबादी माया को संद्सद् विलक्षण मानते हैं उसी प्रकार श्रानंदबतन ने भी ससार को विलक्षण माना है। संसार के तात्विक तथा प्रातिभासिक दो रूप एक दूसरे से विपरीत हैं। संसार ऊपर से सत्॒ प्रतीत होता है पर उसके अंदर असत्ता बैठी रहती है। इसमें चलने के लिये ही सब्र रहठानि बनती हैं। इसका भूठ सत्य सा लगता है। भगवान की जिन्पर पा होती है वे ही यहाँ नीर क्लीर का विवेक कर सकते है। यह संसार तो श्राश्चर्य को खानि है। इसका लाभ हानि है श्रौर उपत्र विनाश है ।” इस संवार की यात्रा ऐसी है कि यहाँ न गाँव का पता न ताम का, कौन कहाँ जाता है, यह भी ज्ञात नहीं ॥ १--क० क० नि० ४४५ २--सुहि ० ४४७ ३---वही ४४८ ४---वही ४४७ ५--वही ४३४५ ६--वही ४४५, ७--महा भ्रवरज धरम मोहि ऐसो दोसि परियो। दीसत न काहु बिन दीसे लाल प्यारियों॥ ._ बुं० मु० १४ ( ४४० ) यहाँ पर मिलन अर्थात सूख की श्राशा करता पवन के सहलों में निवास के तुल्य है।' इसलिए कर्तव्य यही है कि इधर से रुचि हटकर भगवान के चरणों को श्रोर उसे प्रेरित की जाए । संसार से परमेश्वर का संबंध यह संसार परमेश्वर का ही 'पसारा' है। वह जो भ्रव्यक्त होकर भी सकंत्र छाया हुआ है वह इसी पसार को 2 कर। परमेश्वर के संबंध के कारण संसार की सत्ता और असत्ता दोनों ही सत्य हैं| ब्रज ओर वुन्दावन जिस परमतत्व के निकट मन का भी प्रवेश नहीं हो सकता, ब्रज उप्ो का स्वरूप है। इसकी रज में परमतत्व का सार 'समोय” रक््खा है। यहाँ चर श्रचर सभी का प्राभास मिलता है। निरवधि रसनिर्यास श्र्थात् मधुर रस के विलास का परिचय भी यहाँ हीता है| स्वयं के आ्रानंदमय स्वरूप को देखते के लिये मोहन ने इसे श्रपना दर्पण बनाया है। श्री कृष्ण के दर्शन ब्रजरज से श्रेंजी हुई आँखों में ही होते हैं । कृष्ण ने समस्त संसप्र को पुग्ध बनाया। राधा ने श्री कृष्ण को मुग्ध जताया । पर दूंदावन ने राधा श्रौर कृष्ण दोरों को गुग्ध बनाथा है। यह राधा भोर कृष्ण का ही स्वरूप है। पवन प्रकंपित, धुलिकशा संयुक्त इसका शरीर श्रीकृष्ण के रोमांचित शरीर के हो प्रतिरूप है। उनके श्रंग श्रंग के साथ यह एकमेक हो रहा है । श्याम इसमें निवास करते हैं, यह श्याम में निवास करता हैं। यह आश्चर्य धाम है। राधा कृष्ण के दर्शन किये बिना इसके भी यथार्थरूप के दर्शन नहीं होते ।* इसके पहचान लेने पर श्याम भी पहचाने जाते हैं। यह श्यामस दर के स्वभाव की तरह परात्पर तथ्य रहस्यमय है ।' अनुर'क्त होने पर ईश्वर से भा इसो के रंज की याचना को जाती है ।* (>वही ५६ २--महा भ्रचरज धाम मोहि ऐसो दीपि परियौ | दीसतन काहू बिन दीसे लाल प्यारियौ ३-याहि दोस स्थाम दीसे स्याम दीसे यह् हे रा न >< परेते परे भयौ हरिमय है वृन्दावन राचे रजजायचैं ईस हु तें बकस्रीसई वही ४६, ( ४४१ ) अजरज ब्रज या व दावन की भाँति ब्रज रज को भी बड़े महत्व की दृष्टे से प्रान॑द- घन ने देखा है । ब्रजरज से अ्ँजी आँखों में ही श्रीकृष्ण के रूप के दर्गत होते हैं । इसी से दृष्टि ज्योति मिलती है। इप पर मोहन के चरण चिह्न दिखाई पड़ते हैं। ब्रह्मादिक भी इसको याचता करते हैं। रसपुज तथा परम 'इसीमें मिला हुमा है। इसके स्पर्श से कृष्णानुराग जागता है। रजकरा में बँधकर जगत के बंधन से प्राणी म॒क्त हो जाता है। कवि कइता है कि यह मेरे रोम रोम में रम रहा है। “रोम रोम रमि रही रज हूँ! । प्रानंद्रन जी को ब्रज से श्रनन्य प्रेम था। मरते समय कहा जाता है ये ब्जरज में लेटते रहे | यवनों ने जब इनसे धन माँगा था तो इच्होंने दो मुट्ठी ब्रज॒रज ही उच पर फेंकी थी | राधा और गोपिकाए' श्री कृष्ण के प्रेम के उच्चातिउच्च उत्कर्ष का अ्धिक्षान राधा है जो स््रय॑ आनंद का घन है। श्रीकृष्ण राधाव्रेम का पपीहा बन जाता है। वे इच्हीं के वश में हैं । इन्हीं के गोत वे श्पत्रों वंशी में गाते हैं। कवि का विश्वास है कि श्रीकृष्ण की भक्ति बिना राधा को कृपा के नहीं हो सकती | गोपियों को भी वे मधुरा भक्ति का सर्वोत्तम अ्रधिष्ठान मानते हैं । प्रेम इन्हीं के भाग्य में बदा है। इन्हीं का श्री कृष्ण से सच्चा शअ्रनुराग हुप्रा था । इनके मन की स्वच्छता का क्या वर्णात किया जावे जिसमें सर्वस्त विस्परुत होकर श्रीकृष्ण का मोह जागा था । वृ दावन के बाग में ये ही लताएँ श्रानंदब॒न के रस से कालरी होतो हैं। कवि प्रपता ताद/त्म्य इन्हीं से करते हैं झ्ौर श्रपनी भक्ति के साफल्य की भावन। करते हैं | प्रेम पद्धति' में राधा-कृष्ण और गोपिशाप्रों के प्रेम का दशा कवि ने उपस्थित किया है । राधा का स्वकीया प्रेम तथा गोवियों का सत्व भाव का प्रेम आनंदघतजी ने माना है। ब्रज बिलास! में राघा के मुख से स्पष्ट उन्होंने इसो भाव को व्यक्त किया है। राधा कहती है ह मेरा नाम राधा है उतका ब्रजमोहन श्याम । हमारे प्रेम के गीत सब ग्वालिन गायें । राघा भमेरो नाम है वे ब्रज मोहन श्याम | गीत ग्वालिन गाइये सुलश लाग के काम ॥| ब्रजविलास २३ ॥ ( ४४२ ) वे सखियों से कहती है कि मैं करोड़ों उपाय करती हैँ पर “हित बानि' छिपाए नहीं छिपती। ब्रज मोहन की पहचान रोम-रोम में सम गई है। मैं वसे तो मोहन के ही घर रहती हूँ पर बाहर मेरा नाम राधा है। मैं भ्रपने सब अंगों में इ६ष्ण प्रेम से तृत हूँ। घू“बट करने पर श्रटपटी त क और भी भ्रधिक उघड गई है । यह यदुत्ताथ का दुःसह वियोग न जाने कहाँ से श्रा' लगा | ग्ह॒ बिसासी बिछुड़ कर मिलता है। मिलकर बिछुड़ जाता है। यह सब अनमिल की ही कुशल है | श्रीकृष्ण की साँवली मूर्ति हृष्टि के श्रागेआगे डालती है, श्रासुझ्रों में श्यामघन दिखाई देते हैं पर जल में श्राग लगी हुईं है। प्रारानाथ ब्रजनाथ से बिछुड़कर कौव जीवित रह सकता है? प्रेम की इस अभ्रकथ कथा को केवल मौन हा कुछ बता सकता है।! '्रेम पद्धति! में कवि ने गोपियों की सराहना तथा दर्शन दिया है| इनके प्रेम में सब प्रकार के नियम बिसर जतते हैं। यद्यपि प्रेम का पंथ बाँका है पर उन्होंने उसमें सीधे ढंग से ही अवगाहन किया है | प्रेम को झगम मैल का श्रनुस रण प्राणी तभी कर सकता है जब इनके चरणों को सिर पर रखेगा। शिव; शुक, उद्धव ज॑से प्रेमी भक्त इनकी महिमा के वशीमृत होकर इन्हीं के प्रेम में श्रनृरक्त हो जाते हैं। वे ब्रजपरिवार की सराहना करते है। इनकी महिमा के विस्मय में डुब जाते हैं । इसके महामर्म को वे भी नहीं समझ पाते । इनके से प्रेण की गति यदि कुछ हृदय में स्फुरित हो जाती है तो दिव्य ज्ञान प्रकट हो जाता है। इन्हें किसी समय भी कोई और रुचि नही होती । केवल कृष्ण विषयक काम की 'रोर* हृदय में मची रइती है। इन्होंने कृष्ण रूपी चंद्रमा को भी अपना चकोर बना लिया है। मोहन गुणी ने वंशी में जो कुछ बजाया था उसे इन्होंने ही सुना था ! उसे सुनकर इन्होंने श्रौर सत्र कुछ श्रन सता कर दिया ॥ धर्म भौर धैय॑ श्राद सिर घुन कर इनसे द्र भाग गए । श्रपने प्रमका प्रबल श्रोज इन्होंने इश्नप्ते प्रकट कर दिया जब ब्रजमोंहन को भी पकड़कर नचा लिया । प्रेम की पद्धति इन हीं से प्रकट होती हैं। नहीं तो यह श्रत्यंत गुप्त है। वुद्धि तो इसे समभने में कुंठित हो जाती है। ऊर्ष्ब रस श्र्थात् प्रेसस की पदवी बड़ी उम्र है। वह ब्रजनाथ के अश्रतरिक्त श्रन्य से नहीं दबी है। उप्त रत को घश्वाम गोपियों के साथ मिलकर ब्रज में बरसाते हैं। जिस स्वाद को शास्त्र निति नेतिः कहते हैं उसे इन गोपियों ने ही प्राप्त किया हैं। वह प्रेम गोपीपद के प्रसाद बिता नही मिलता । समस्त १--ब्रजविलास | ४४७३१ ) पुणयों का यही सर्वोत्तम फल है कि ब्रज में रहकर कृष्ण गोपिकाश्रों के कौतुक देखें । यदि गोपियों का सा प्रबल भाव हृदय में उत्पन्न हो जाता है तो सत्र श्रानुकुल्य हो जाता हैं। गोपियाँ त्रिभ्रुन के संतों की शिरोमरिण हैं। इसलिए कवि श्रपने विषय में कहता है कि “मैं गोपी पद के प्रसाद से ही ब्रज रस पान करूगा | गोपी चरणों की रज मेरा धन हैं। मैंने श्रपना प्ररणः गोषियों के प्रण के सहारे पुर्ण किया हैं। मभे दंपति की कृपा का भरोसा है, इसलिए ब्रजरज को खोजकर सहारा लिया है। मैं तो व्रज वन को गौर स्याममय देखता हूँ | स्थान स्थान पर इन्हीं की लीला को देवता ह” | यह जोः प्रेम पद्धति कुछ कही हैं वह भी गोतपद के प्रसाद से प्राप्त की है ॥ प्रेम दर्शन प्रेम के स्वरूप परिचय के श्रतिरिक्त निबंधों में श्रानंद्धत ने उसके विषयों में कुछ दार्शनिक विचार मी व्यक्त किए हें । प्रेम को कवि ने 'महारस' तथा परमरस बताया हैं श्रौर यह बड़ा उत्तंग है केवल श्रीकृष्ण दी इसे दबा सके हैं। सच्चे 'रसिथा या रसेक' श्रीकृष्ण को ही कवि ते कहा हैं + शान द्वारा प्रेम की प्राप्ति तो नहीं हो सकती पर प्रम द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो- सकती है। भावों के वर्णन में तथा प्रेमनिरूपण में यह भली भाँति बताया गया है कि केवल बुद्धि का प्रेम जगत में कोई स्थान नहीं है । बिचार प्रेम- समुद्र के बाहर से ही लौट भ्राता है | उसमें अश्रवगाहत कण उसका स्पर्श तक नहीं कर पाता । पर कवि स्पष्ट कहता है कि हुदय में प्रेम की स्फुरणा होने पर दुरा हुआ भी दिव्यज्ञान प्रकट हो जाता है। रस का सत्य आत्वादन तो रसिया श्रीकृष्ण ही जानते हैं। बिना रस स्वरूप बने इसका श्रनुमान नहों किया जा सकता है। प्रेम रस भगवान का साज्षाव् स्ररूप है। इसे भी रक कहते हैं | ब्रह्म का नाम भी रस है। वह रस प्रर्थात् परमेश्वर ही जब अपनी: इच्छा से श्रनुकूल होता है तो व्यक्ति रस का श्रधिकारी बनता है। 'रस ही रस अपते रस ढरे तब ब्रजरस अधिकारों करे”! चैतन्य संप्रदाय के विपरीत आानंदघन राधा में स्वकीया भाव मानते है १ यद्यपि कुछ पद परकीया या प्रेम के भी दिए है पर उनका संबंध राधा से १---प्रेम पद्धति २--प्रेम पद्धति २१ ( ४४४ ) नहीं प्रतीत होता । चैतन्य संप्रदाय में जिय प्रकार परकीया भाव से शारीरिक वियोग उत्पल्तकर प्रेमातिरेक, चोप, चटक, श्रभेलाष, श्रादि दिखाए जाते हैं वे कवि ने छ्कीया में हो दिखार हैं। इनका इस विषय में विश्वात् है कि प्रेम भावना पर शारीरिक संबोग वियोग का कोई प्रभात नहीं रहता । संयोग में भी विशोग की “उदेग आग बनी रहती है। यदि प्रेम सत्य हो। इसलिए रतिकाल, रत्यवसान, आदि में भी अभिलापातिरेक का कस कवि ने नहीं किया | उद्देग ग्राग जैवी की तंसी? प्रदर्शित की है । ब्रह्म जिज्ञासा की भाँति प्रेमप्रेप्सा भी शित्र, ब्रह्म आदि देवताओं से लेकर साधारण जीवपर्यन्त समान है। केवल गोपियां और श्रीक्षष्ण इस के अ्विष्ठान हैं। उनमें भी श्रेक्रणा प्राप्तव्प हैं। गापिकाएँ प्राप्तिकरत्नी। ब्रज इल्दाबन रस स्वरूप भगवान के रसास््रादद के लिये “रस” खेत है। यहाँ प्रीति का पावत्त बारहों म।स बवा रहता है। श्रन्य वेण्णात्रों की भाँति ब्रज बूंदावत को प्रेमसाधता के लिये उत्तमोत्तप्र प्रेष्न-पोठ आानंदघन जी मानते हैं । दसवाँ परिच्देद क--आदान-प्रदान - १-भारतेन्दु बाबु हरिश्चंद और घनानंद भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्रतन पर घतानंद का बहुत गहरा प्रभाव पड़ाथा घनानंद की भाँति वे जो प्रधात रूप से प्रेम के कवि बने उसका भी कारण यही अभाव है। भारतेंदुजी ने प्रपनी रचनाओं में जिस प्रेम का चित्रण किया है उसमें घनानंद की सी तन््मयता, गंभीरता, त्याग, भाववात्मकता और श्रनुभूति प्रवणता श्रादि विशेषतायें मिलती हैं | उन्होंने 'सुजान शतक? नाम से घनानंद जी का एक लघु संग्रह भी प्रकाशित किया था | इसके अ्रतिरिक्त श्रपती रचनाश्रों के नामकरण और श्रादर्श वाक्य उन्होंने श्रनेकन्न घनानंद के रखे हैं । प्रेम सरोवर! “प्रेम फुलवारी” श्रादि श॑र्षक घनानंद के प्रेम सरोवर”! श्रौर “इश्क चमन?” के समानांतर हैं । “प्रेम सरोवर” की भूमिका में घतानंदजी की यह पेक्ति उन्होंने उद्धृत की है:-.- सब छांडि श्रहों हम पायौ तुम्हें हमें छांड़ कही तुम पायौ कहा” इसी प्रकार 'प्रेमाश्नु वर्षण” के मुखपृष्ठ पर उनका यह सर्वेयांश उद्धृत किया है :--- 'परकाजदि देह को घारे फिरोौ परजन्य जथारथ हुँ दरसौ। प्रेम सरोवर में प्रमी महात्माश्रों का परिगणंन करते समय घनानंद जी का नाम उन्होंने लिया है;--- तंददास, आ्ानंदघन, सुर, नागरी दास | कुष्णदास, हरिदास, चतन्य, गदाधर, व्यास ॥ उनके काव्य में भाषा और भावों फी जो समता विद्यमान है उसके कुछ उदाहरण ये हें:--- १. सब कौ जहाँ भोग मिलल्यौ तहाँ हाय विणोग हमारे ही बाँटे प्रयौ। भारतेन्दु ग्रंथावली, पृ० १४६ | प्रेममाधुरों पद्य संख्या १४ । ( ४४६ ) इत बाँट परी सुधि रावरे भूलनि कैसे उराहनौ दी जिएजू । घना० सुहि० २४७ तेरे बाँटे श्रायौ है अ्रंगारनि पैं लोटिबो सुहि० ७२४५ दीनता की हमरे तुम्हरे निरदेषपन हूं की चलैंगी कहानियाँ । हरिश्चन्द्र-प्रेममाधरी पृ० ३२ हेत खेत धरि चूर चूर है मिलेगो, तब चलेगी कहानी घनभ्रानंद तिहारे की । घना० सुहि २२१ जानौ न नेक बिथा परकी बलिहारी तऊ हौ सुजान कहावत । हरि० प्रममाधुरी ६८ भूलनि करी है सुधिजान हाँ श्रजान भए । घना० सहि० २३२ दुलही उलही सब अंगनतें दिन ह्व तें पियूष निचोरै लगी। हरि० प्रेममाधुरी ६० रस निश्वुरत मीठी भृदु मुसक्यानि में । घनानंद प्रकीर्णाक १ पूरन पियुष प्रेम श्रासव छकी हों रोम क् रोम रस भीन््यों संधि भूली गेह गतकी । हरि० प्रेममाधुरी ६७ रोम रोम रस भीजि व्याकुल सरीर महा घना० स॒ूहि २०४ ऐ रे धनश्याम तेरे रूप की हूँ चातकी | हुरि० प्रेममाधुरी ६७ चातक है रावरो भ्रगोखौ मोह श्ावरो हाय कब आनंद को घत बरसाय हौ । धना० सुहि० २४ थकी गति श्रंगन की मति परि गई मंद बावरी सी बुधि हांपी कहु छीन लई है। हरि० प्रेममाघुरी ६७ थकी गति हेरत हैरनि की गति मति बौरी भई गति वारि के मोमति घना० स॒हि ३४ सुख के समाज जिततित लागे दूरि जान हरि० प्रेममाधुरी १०५ घनश्रानंद प्यारे सजान बिना सब ही सुख साज समाज टरे । घना० सुहि० ३६ ( ४४७ ) & जिन प्रांखिन में तुब रूप बस्यौ उन प्रांखिन स्यां प्रब देखिये का हरिश्वन्द्र ग्रंयावली १० १५३ भ्रांखै जो न देखें तो कहा प॑ कछू देखिति ये धनानंद श्र श्रानंधघन पृ० १६७ ४० तेरे बिछरे ते प्रान कंद के हिमंत भ्रति तेरी प्रेम जोगिनी बसंत बनि भाई है। हरि० प्रथावली पृ० १५२ बित घन श्रानेंद सुजान श्रंग पीरे परि फूलत बसंत हमें होत पतभार है घ॒ना० सुहि० ६० २ जगन्नाथ दास 'रत्नाकर? श्रौर आनंदघन कविवर जगन्नाथदास 'रत्नाकर! को काव्य शैली में तीन बातें ऐथी हैं जो घनानंद के प्रभाव का फल प्रतीत होती हैं। वे हैं-जचितन में प्रेम को प्रधानता, शैली में विरोध की प्रवुत्ति और भावात्मकता। ब्रज भाषा के व्याकरणसंमत परिनिष्ठटित स्त्ररूप का प्रयोग उनमें बिहारी और घनानंद दोनों के संमिलित प्रभाव का प्ररिणाम है । बिहारी को भाँति घनानंद के काव्य का भी उन्होंने संपादत किया था शऔौर घनानंद के शब्दों की एक शब्द सूची भी तैयार की थो जो नागरो प्रचारिणी सभा के 'रत्ताकर सभ्रह' में हस्तलेख के रूप से सुरक्षित है । दोनों के काव्यों में प्रयुक्त कुछ समाता्थक वाक्य नोचे दिये जाते हैं :--- 5५ 4 शआ्रापु चितेरनि हाथ बिकानी । रतना० श्रृंगार लहरी ६ रीक बिकाई निक्राई प॑ रीभि । घ॒ना० सुहि० ३३ २ जबते बिलोके बाल लाल बन कुंजनि मैं तब ते अनंग उमंग उमगति हैं। रत्ना० शूंगार लहरी ७२ खूप निधान सुजान सखी जब्र ते इत सेततु नेक्ु निहारे च॒० सुहि० १ जब ते निहारे श्रानंदधन सुजान प्यारे तब ते प्रनौखों श्रागि लगि रही चाह की घ० सुहि० १६१ ३ कहें रत्वाकर न जागति न सोवति है | जगत और सोवत में सोवति जगति है । र्ा० शुण ल० ७२ सोयबों न जागिबो व हँसिबो न रोइबोह । | हि ९ । ( डेंडंद ) खोय खोय श्रापहू में चेटक लहनि है। घ० सुहि० ९६. सोये न सोयब्ो जागें न जाग अनेखिये लाग सश्राँखिन लागी वही २३५ पीरी परिजात है वियोग शभ्रागिह तो श्रब विकल बिहाल बाल सीरी परिजात है | रत्ता० शु० ल० १०७ सीरी परि सोचनि श्रच॑भे सों जरौं मररौं घ० सुहि० २०६ प्यार पगे पिय प्यार सो प्यारी कहा इमे कीजति मान मरोर है। है रत्नाकर प॑ निसि बासर तो छबि पानिपकों तरस्यौ करे । है मन मोहन भोहयो प॑ तो पर है घन्स्थाम प॑ तेरी तो मोर है । है ज्गनायक चेरो प॑ तेरो है है ब्रजचंद प॑ तेरो चकोर है । रत्ता० शूृंगार ल० १२७ राधे सुजान इत चित द॑ हित मैं कित वीजत मान मरोर है। साखन तें मन कोंवरों है यह बानिन जानति बैसें कठोर है। साँवरे सो मिल सोहत जैसी कहा कहिये कहिबे को न जोर है । ठेरो पपीहा डु है घनश्रानेंद है ब्रजचंद प॑ तेरी चकोर है ॥ ध० सुहि० ३७२ हांसी परि जायगी हमारे गरे फाँसी है।. रत्ता० घशूंगार लहरी १६७ फाँसी से सरस हाँसी फंद छंद सो दियौ | घ० सुहि० ३१२ डूबी दिन रन रहै कान ध्यान वारिध में । तो हु बिरहा,गनि की दाह सों दगति है। रत्ता० शंगार ल० ७२ जल बूड़ी जरे दीठि पायहु न सुझ करें घ० सुहि० ५१ रूस्बीही रूसिबो तिहारे बाँट श्र।वगो । रत्ना० शआं० ल० १३१ तेरे डाँट आयो है श्रंगारनि पै लोटिबो । घ० सुहि० २२५ इत बॉट परी सुधि रावरे भूलनि कंसे उलाहनो दीजिए जू । वही २५७ जाकी एक बूँद को विरंचि विबुधेस सेस | सारद महेस ह्व॑ पपीहा तरसत है। कहे र॒त्नाकर रुचिर रुचि ही मैं जाकी । ( ४४६ ) मुनि मन मोर मंजु मोह बरसत है। कामिनि सुदासिनि समेत घनस्याम सोई । सुरस समूह ब्रज बीच बरसत है .. रत्नाकर, हिडोला मन के मनोरथ महोदधि तरंगनि मैं। झति ही तरलगति प्रबल प्रचंड है। एक एक बीचि बीच सायर श्रसेष जहाँ, सूखों राखिबोरे तीर दीरघ भ्रखंड है। पारि परि कोऊ न सक्यौ है बिथक्यौ है श्रोज, खोजे सिद्ध चारन मुनीस महि मंड है। सोई घन प्रानंद सुजान हूप को पवपीहा, सोभा सींव जाके सीस मंडित सिखंड हैं । घ० सुहि० ४७४ १० रावरी सुधाई मैं भरी हैं कुटिलाई कूटि। बात को मिठाई लुनाई लाइ ल्याये हो भूठ की सचाई छाकयी त्यौं हितकचाई पाक््यौ, ताके गुतगन घन भानँद कहा गनो। ३-देव और गश्रानंदघन १ जाके मद मात्यों सो उम्ात्यौ ना कहू है कोऊ, बूढ़चो उछल्यों ना तरयों सोभा पिंधु सामुद्दै। पीवत ही जाहि कोई मार्यी सो श्रमर भयौ | बौरान्यो जगत जान्यौ मान्यौ सुख धाम है। चख के चषक भरि चाखत ही जाहि फिरि, चारुयों ना पिपृष कछु ऐसो श्रभिराम् है। दंपति सरूप ब्रज श्रो"र॒यौ श्रनूप सोई, देव कियो देखे प्रेम रस प्रेम नाम है। देव प्रेम को परयोदधि अश्रपार हेरि के विचार, वापुरों हहरि वार ही तें फिरि श्रायौ है। सुहि० ११ नेही हरि राधा जिन्हें हेरि सरसायौ है। ६ २ भ्रखियां मधु की मखियाँ भई मेरी। देव रुप रस चा्खे श्राँखें मधु माखी हाँ गई। सुहि०- १६६ ३१ रत्ना० उद्धव शतक घ० सुहि० २६६ ( ४५० ) ३ भरि के उधरि नाचे साँच राखी कर में। देव उघारि नचाय श्रापु चाय मैं रचाय हाय। . घ० सुहि० ६६ ४ रसखान और आनंदघन १ मन लीव्यौ प्यारे चित॑ पै छटाक नहि देत । यहै कहा पाटी पढ़ी दलकौ पीछौ लेत ॥ रतखान और घनानंद पृ० २५, पद्य ४४५ यह कौन धौ पाटी पढ़ें हे लला मन लेहु प॑ देहु छठांक नहीं । घ० सुहि० २६७ २ एरी चतुर सुजान भयौ ग्रजानहि जानि के । तजि दीनी पहचान जान झ्ापनी जान कौ। रसखान और घनानंद प० २१ श्राँखिन हूँ पहचान तजी कछ ऐपोई भागनि को लहनो है। जान है होत इते प॑ भ्रजान जौ तौ त्रिन पावक ही दहनों है || घ० सुहि० ५ ३ रसखानि परी मुसकानि के पाननि कौन गहै कुलकानि विचारी। रसखान श्र घनानंद पु० श्८ श्रकुलानि के पानि परचौ दिन राति सु ज्यौं छिनको न कहूँ बहर । घ्० सुहि ० २२० . भ्रू-बिद्वारो और आ्रानंदघन १ जगत जनायो्रें जिह सकल सो हरि जान्यौ नाहिं | ज्यौं श्राखिन सब देखिये भ्रांखि न देखी जाहि। बिहारी लोचननि तारे ह्न॑ं सुझावा सब सुझौ नाहि। सुहि प्र० २७० २ इन दुखिया अँखियान को सुख सिरज्यौ ही नाहि। देखत बने न देखतें अ्रन देखे श्रकुलाहि॥ बिहारी अ्रगोखी हिलग देया बिछुरे तो मिलयो चाहै। मिले हु मैं मार॑ जार॑ खरक बिछोह की। घ० सुहि० २७५ ६-चंद्रकुंवर वर्त्वाल और घनानंद ये दोनों ही कवि घनानंद और वर्त्वाल ऊँबी दशा के सौरन्दर्य प्रेमी रहे हैं। सब्र प्रकार की कठिनाइयों के विरोध में इन्होंने प्रपने प्रेम फो तदवस्थ ( ४४५१ ) बनाए रक््खा। विरहोन्मत्त धनानंद ने पपने प्रेमाश्रुओं को बिसासी सुजान के श्रांगन में बरसाने की प्रार्थना परजन्य से की है। वर्त्वाल निर्जन जंगल को देखते देखते झपने हृदय में हो बादलों की वृष्टि का श्रनुभव करते हैं । किसी के गीले हगों से उठ सजल मेथ मेरे हृदय तल पर छा रहा है। आनंदधन के प्राण निराश होकर सुजान के प्रेम का संदेश लेकर निकलता चाहते हैं। वर्त्वाल के प्राण भी ससार की कद्थनाओञ्रों से खिस्न होकर श्रस्त होते हैं । ये बनों के मुक्त पक्षी मानवों से हैं सुखो। ये प्रशाय करके सुखी हैं हम प्रणाय करके दुखी । तरु करा देते मि“न है इनका मनोहर पलल्लनों में, और हम होते तिरस्कृत इस जगत के मानवों में । पर जगत बलवान हो तुम छुद्र प्रेमी प्राण है, तुम सुखी हो रो रहे पर श्रस्त प्रेमी प्राण हैं । घनानंद का स्वच्छ प्रेम लोक लाज से श्रल्प मात्र भी संकुचित नहीं होता | वर्त्वाल का प्रेम उससे भयभीत होता है। पहला सबल है दूसरा निबंल। जिस प्रकार घतानंद प्रेम की लौकफिक भूमि पर रहस्य के दर्शन करते हैं उमी प्रकार वर्त्वाल प्रेममावबना से राष्ट्रभाववा का शअ्रनुभव करते हैं जो उनकी दुर्गा का माइर' दंवी' और 'वंद मातरम्' कविताओं में स्पष्ट हुआ है । चंद्रकुँवर की प्रेमभावना में संयमपूर्ण लोक सामंजस्य भी है जो धनानंद के काव्य में नहीं मिलता । “सौदये प्रेम और विरहोन्मुखी श्रानंद को सरस्वती घारा को मानव पृथ्वी पर बहानेवाले केवल दो कवि ६िंदी साहित्य ने पाये हैं। सत्रहतरीं शताब्दी में धनानंद श्रौर बीसवी शताब्दी में चंद्रकुवर वर्त्वाल |* १ श्री शंभ्रु प्रसाद बहुगुता के सरस्वती पत्रिका में निकले लेख के झ्ाधार पर | ( ४५२ ) श्री चंद्रकुवर वर्तवाल ने धनानंद की काव्य भारती से प्रभावित होकर उनके विषय में निम्नलिखित भाव व्यक्त किए हैं- बस कर भी ब्रज में प्रियवासना कब गई, यह पुकार बार बार माँग है क्या रही। वर्षा के मेघ देख गोवधन झूते तापस क्यों वाणी में तरलता यह नई || यह हृदय पुकार उठा कौन यह श्रप्परा, नयनों में कोन वह पिंघली छबि निष्ठुरा। कवि क्या ण्ह मघ ही विनय कान करेगा | सचमुच उस आँगन में श्राँस बरसेगा। खिड़की निकट बैठ सावन की संध्ण में। विरही का दुख वह सचमृच क्या रोएगा। विसासी सुजान उसे सुनेगी श्रकेली। भ्रानन के कुसुम भार से भूका हथेली । ब्रज में गूजा बसंत डोली मंजरियाँ। ब्रज्ञ में कुका वसंत भूली बललरियाँ। मोहनी मुरली में क्या उतना रस है। जितना प्रेयस सुजान के प्रिय सुर में है। कोकिल को वाणी में क्या वह श्रासव है। जितना कवि को सुजान के प्रिय सुर में है। यमुना के नील नयन क्या उतने मोहन। जितने प्रेयस सुजान के मादक लोचन। तुम क्यों तज कर सुजान मेरे कवि आए | बृद्रावन यहाँ कहाँ विरह व्यथा लाए। सिथ्या मिथ्या विराग न छिता पाश्रोगे। प्पनी विपुल वासना न छिपा पाश्रोगे | गे के रंग वस्त्र सब ये भूठे हैं। इन में भ्पनी सुजान न छिपा पाम्रोगे। मूँद नयन बैठे राघा कब घूम रही। बंठी सुजान हाय क्या नहीं रूप रही । प्रांखों से उमड़ उमड़ श्राँस को धारा। मोहन वियोग या सुजान को बता रही। ( ४शरे ) ख! घनानंद -का हिंदी साहित्य में स्थान यर्याप स्वच्छंद काव्य धारा के कुछ लंक्षण भक्ति काल में ही दृष्टिगीचर होते हैं पर उसका श्रधिक्र विकसित रूप हमें रीतिकाल में उपलब्ध होता है । हिंदी तथा उददू' फारसी के साहित्यों में संमिलन के प्रादान प्रदानों की जो लोग श्रात्मसात् कर भारतीय चितन धारा में संयोजित कर सके उन्होंने ऐसे साहित्य की सृष्टि की जो न यहाँ की साहित्य परंपराग्रों का गतानुगतिक था झौर न फारसी सार्त्य का ही अनुयायी था । जिन लोगों ने फारसी साहित्य की शोर से अ्रपनी श्राँखें बंद कर ली थीं उन्होंने हिंदी साहित्य का विशेष उपकार नहीं किया । इनके भावों में तो वह प्रभाव पड़े बिना न रहा। केवल झग्रभिव्यक्ति के बाहरी ढाँचे में परपरा का आवरण उन्होंने बबा लिया । इसलिये इनका चितन मनोग्र थि ग्रसित सा हो गया। यह दोष घनानंद जमे स्वच्छंद प्रवृत्ति के लोगों में नहीं रहा। मव्यकाल की यही स्वच्छंद काव्य धारा है। प्राधुनिक काल में श्रंग्र जी साहित्य के संयोग से जैसे श्रीधर पाठक, पँत, निराला, प्रसाद, बच्चन आदि में स्वछंदता की नवीन प्रवूत्त का जन्म हुश्ना उसी प्रकार रीतिकाल की काव्य भारती में उद्दू -फारसी के प्रभाव से यह नवीन प्रवृत्ति श्राई । इस प्रवृत्ति के कवियों को स्वच्छंद दृष्टि प्राप्त करते की प्रेरणा भरती व्यक्तिगत जीवन परिस्थिति से भी मिली थी। जिस प्रकार कबीर जुलाहे वंश में उत्पत्त होकर हिंदू मुसलमान दोनों की यथार्थता पहचानने की प्रेरणा ले सके थे उसी प्रकार आलम, बोधा झौर घनानंद अपने व्यक्तिगत प्रमी जीवन के कारण प्रेम की ययाथता स्वच्छंदता एवं महिछठता पहचान सके ये । इसी प्रकार बाह्य श्रौर आंतरिक दोनों परिस्थितियों के फल स्वरूप रीतिकाल की काव्यधारा में जो स्वछंदता को प्रवृत्ति का विकास हुप्रा डसके सर्वश्रेष्ठ प्रवर्तयिता, अ्रनुमविता व्यक्ति घनानंद हैं। इनके बिना इस धारा का स्वष्ठप ही नहीं बन सकता था। लगभग तीन सौ वर्ष की साहित्यिक परपराश्रों के बंधन की अवहेलना का साहस कर नवीन दिशा में साहित्यिक चितत को मोड़ने का जो महात कार्य इन्होंने किया है उमसे इतका हिंदों साहित्य में एक विशेष स्थान है। श्रात्मानुभूति को अभिव्यक्त करने की उस समय परंपरा ही नहीं थी । साहित्य में एक प्रकार का बौद्धिक दुराव विद्यपान था । किसी के व्यक्तित्व की मांकी उसकी क्ृतियों में नहीं हो सकती थी । बुद्धि-क्रीड़ा के भड़कीले ( ४श४ ) दर्शन मात्र होते थे। साहित्य जीवनोदभूत न था। घनानंद ने उसका संबंध जीवन से जोड़ा । भ्रपती इस विशेषता को बार बार स्पष्ट रूप से उन्होंने कहा भी । यह प्रवृत्ति हमें १६ वीं शताब्दी के संतों में मिलती है। इसके बाद सांप्रदायिक भक्त तथा सांप्रदायिक साहित्यिक दोनों ही इस तत्व कोः भूल गए थे। घनानंद जी ने उस शैली को अपना कर सच्चे साहित्य का प्रशयन किया | भाषा के क्षेत्र में धनान॑द सर्वातिशायी गौरव के भाजन हैं। रीतिकाल के भ्रंतिम भाग में ब्रजभाषा बहुत विकृत हो गई थी ! उसकी शब्दावली तोः उदू फारसी के शब्दों से खिचड़ी बन गई थी। उसकी वाक्यरचना तथा रूप विकास श्रव्यवस्थित था। साथ ही उसकी श्रप्तिप्यंजना को बढ़ाने का कोई प्रयत्त न था। घनानंद ने उसकी विशुद्धता तथा व्योकरण संमतता की रक्षा करते हुए लक्षण! द्वारा उपकी छमता का संबर्धन किया। लाज्ञणिकता तथा विशुद्धता के कारण इनकी भाषा विहारी की भाषा से भी प्रशस्थतर है । भावों के सूक्ष्मातिसुक्ष्म रूपों को व्यक्त करने के श्रनेकों मार्ग इन्होंने निकाले हैं। इस दिशा में देव, भूषण जंधे भाषा विशारदों तथा विहारी, नागरीदाप्त जैसे शाब्दिक प्रादान-्रदान के विश्वासियों की तुलना में घनानंद सर्वश्रेष् सिद्ध होते हैं। भावों की सक्ष्मातिसूक्ष्य अंतर्ददशाग्रों के चित्रण का गण भी घनानंद का अप्रतिम है। हिंदी संस्कृत की विभाव प्रधात शेली की परंपरा में इनकी सी सुक्ष्म प्रंतदेशाएँ अ्रभिव्यक्त ही नहीं होती थीं। घनानंद की शैली. भावप्रधान बनी। भावों की रमणायता तथा ग्राह्मता लक्षणा द्वारा ज्यवत्ता प्रदान करने से की गई। रौतिकाल के काव्य में यह गुण भी. नवीन था जिसके कारण घनानंद अपने समसासयिकों से प्रथक महत्व के भाजन बने । इनका उत्कर्ष रीतिकाल के श्रवसान में हुआ थ। । इसलिए इनके काव्य पर किसी श्राचार्य को अदुकुल था प्रतिकुल्ष झालोचना सृक्ति देखने को नहीं मिलती । फिर भी श्रध्िक श्रादर इनके काव्य का नहीं हुआ्ना | यह ब्रजनाथ की प्रश स्तयों के आधार पर कहा जा सकता है। इसका कारण इनके काव्य: सौष्टव को पूर्णतया न समझना है! बिहारी की सी टीकायें भी किसी ने इनके काव्य पर नही कीं यद्यपि इनका काव्य इसके भ्रधिक् उपयुक्त था । श्राधुनिक काल में जिन लोगों ने इनका अ्रध्ययत किप्रा है वे इनसे ह पर्याप्त प्रभावित हुए हैं। इनमें भा० बा० हरिश्चंद्र श्रौर रत्ताकर जी तथा अंद्रकुवर विशेष उल्लेखनौय हैं । उन्प्रुक्त प्रेम के व्याख्याता होते के कारण लोगों को ये बेमेल से लगते थे। इसलिए इनकी समस्त रचताश्रों का प्रकाशन भी ससय से नहीं हो पाया । श्रब समाज के प्रजातांत्रिक वातावरण में जब कला के अंदर कलाकार की व्यक्तिगत भावनाश्रों का मूल्य बढ़ा दें तब घनानंद का भी मूल्यांकन होने लगा है। श्रब भी रीतिकाल तथा श्ूंगार के नाम से भड़कनेवाला साहित्यिक पांडित्य इन जैसों की प्रशंसा हुदय से नहीं करता । पर कला को दृष्टि से कवि को देखा जाए तो हिंदी साहित्य की धारा में इनकी काव्य सरस्वती का रंग पृथक ही हैं। वह महत्वपूर्ण है, “नवीन है श्लौर विधायक है । इसलिये भादरणीय है। इतिशम् घनानंद के दोहे चौपाई की संख्या कितनी है?''घनानंद नाम के दो व्यक्ति थे, रीतिमुक्त कवि घनानंद और भक्त कवि आनंदघन थे।'' कवित्त-सवैयों की संख्या- 752 है। दोहे-चैपाईयों की संख्या-2354 है।
घनानंद के कविता समय ओं की संख्या कितनी है?घनानन्द के समय को लेकर भी विवाद है। शिव सिंह सरोज सेंगर के मत से घनानन्द का समय सम्वत् 1617 है। वे आनन्दघन नाम को मानकर यह समय निर्धारित करते हैं। जनश्रुति एवं विद्वानों के आधार पर यह कहा जाता है कि घनानंद जी का जन्म सम्वत् 1746 के आस पास हुआ था।
घनानंद कौन सी धारा के कवि थे?घनानंद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं जिन्हें रीतिमुक्त काव्य धारा के कवि के रूप में जाना जाता है। घनानंद का जन्म 1658 ईस्वी में हुआ था जबकि उनकी मृत्यु 1739 ईस्वी में हुई।
घनानंद के गुरु कौन है?अपने गुरु नारायण देव के सम्पर्क में आकर उन्होंने प्रेम का पंथ स्वीकार किया । ऐसा भी कहा जाता है कि वे मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार के मीर मुंशी थे ।
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