शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत क्या है? - shaareerik shiksha ke siddhaant kya hai?

शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत क्या है? - shaareerik shiksha ke siddhaant kya hai?

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शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत एवं शिक्षा मनोविज्ञान

शारीरिक शिक्षा में दर्शन के उद्देश्य

शारीरिक शिक्षा, दर्शन की सहायता से अपने उद्देश्यों का निर्धारण एवं प्राप्ति करती है I शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों की कसौटी ‘सामाजिक प्रभाव है, क्योंकि जब इन कार्यक्रमों का सामाजिक, नैतिक प्रभावों सौन्दर्य सिद्धांतो तथा उन मूल्यों द्वारा मूल्यांकन किया जायेगा जिन्हें शारीरिक शिक्षा बच्चों में विकसित करना चाहती है, तब इससे शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य सरलता एवं सहजता से प्राप्त हो सकेंगे I

जीवन में शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत तथा व्यावहारिकता एक दुसरे को प्रभावित तथा रूपान्तरित करते चले जाते है तथा कई बार सिद्धांत व्यावहारिकता तथा व्यावहारिकता सिद्धांतो की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, इसलिए दोनों में परिवर्तन लाना अनिवार्य हो जाता है अतः शारीरिक शिक्षा में दर्शनशास्त्र के अंतर्गत व्यवहार तथा सिद्धांतो को अधिक सरलता से समझा जा सकता है I शारीरिक शिक्षा में दार्शनिक सिद्धांत तथा व्यावहारिकताओं का जन्म यूनान में हुआ I

प्लेटो एवं अरस्तू ने शारीरिक शिक्षा के दार्शनिक सिद्धान्तों की नीव रखी और आज भी ये सिद्धांत उतना ही महत्त्व रखते है, जितना उस समय रखते थेI

शारीरिक शिक्षा में दर्शन का महत्त्व

दर्शन को महत्व देने के कारण ही विभिन्न शैक्षिक संस्थाएं, व्यवसाय तथा विभिन्न संस्थान अपने लक्ष्य, उद्देश्य, मूल्यों को प्राप्त कर सकती है I शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में भी तत्वज्ञान या दर्शन विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करता है;  जैसे –

  • दर्शन या तत्वज्ञान के द्वारा ही शारीरिक शिक्षा का शिक्षक मानकों एवं मानदंडो का विकास करता है I
  • तत्त्वज्ञान द्वारा ही जन-साधारण को समझाया जा सकता है, कि शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों का मानव व्यव्क्तित्व के विकास तथा शिक्षा के उद्देश्य एवं उपलक्ष्यों की उपलब्धि में क्या सम्बन्ध है I
  • तत्वज्ञान के द्वारा ही यथार्थ सत्य तथा मूल्यों की खोज संभव है I
  • तत्वज्ञान ही शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों में यह निर्धारित करता है की किन क्षेत्रों में अधिक बल देना चाहिए I

 शारीरिक शिक्षा के प्रमुख सिद्धांत

आदर्शवाद

शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों का निर्माण कुछ शीर्ष कार्यों को आदर्श मानकर एवं समक्ष रखकर किया जाता है निरोग एवं स्वस्थ शरीर शिक्षा का एक उद्देश्य था I शारीरिक शिक्षा ऊँचे आदर्शों को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाती है क्योंकि आत्म अनुशासन के लिए ओजस्वी क्रीडाओं का होना आवश्यक है I

आदर्श शिक्षाशास्त्री शारीरिक शिक्षा को केवल एक शरीर तक ही सिमित नहीं रखते, बल्कि यह भी मानते है कि इससे नैतिक मानसिक, बौद्धिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की भी प्राप्ति होनी चाहिए I उनके अनुसार शारीरिक शिक्षा सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए है I  प्लेटो के आदर्शवाद के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है आदर्शवाद द्वारा ही मनुष्य अपने व्यवहार आचरण, नैतिकता आदि के मानकों का निर्माण करता है I

प्लेटो के अनुसार, मनुष्य के विचारों को दो भागों विभक्त किया जा सकता है

  1. वह विचार, जो व्यक्ति के अन्दर होते है और
  2. वे विचार, जो व्यक्ति के मन के बाहर स्पष्ट रूप से होते है I

आदर्शवादी तत्वज्ञानी सत्य की खोज के लिए वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते है I प्लेटो के अनुसार, “स्वस्थ शरीर ही आत्मा का संरक्षण भली प्रकार कर सकता है I उसने आत्मा को स्वामी तथा शरीर को सेवक की संज्ञा दी है I यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो वह आत्मा की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता I”

अतः आदर्शवादी दर्शन के अनुसार शारीरिक शिक्षा मात्र शारीरिक आवश्यकता न होकर एक अध्यात्मिक आवश्यकता है अतः व्यक्ति की मौलिक प्रकृति को परिमार्जित कर उसे नैतिक और अध्यात्मिक आवरण पहनाना ही आदर्शवादी शिक्षा अक मूल मन्त्र है I

वास्तविकतावाद

सत्य हमेशा परिवर्तनशील होता है तथा समस्याएँ सत्य की प्रेरक एवं मार्गदर्शक होती है वास्तविकता का क्रमशः निर्माण तथा भविष्य में पूर्णता धी सम्भावना प्रकट करता है I मानवीय शक्तियों पर विशेष बल देता है तथा क्रिया के महत्त्व पर जोर देता है I वर्तमान तथा भविष्य में विश्वास करता है विलियम जेम्स के अनुसार, विचार का निरीक्षण उसके क्रियात्मक रूप या व्यवस्था से होता है I प्रयोजनवाद के अनुसार सभी विचार परिकल्पना से है I अतः वैचारिक चिन्तन नीति एवं आदर्श उसकी दृष्टि में निरर्थक है I प्रयोजनवादी दर्शन मानव की नैतिक एवं अध्यात्मिक शक्तियों पर भी विश्वास नहीं करता I वह परिवर्तन में विश्वास करता है तथा परिवर्तन को ही सत्य रूप में स्वीकार करते हुए मानता है कि जीवन सतत गतिशील है I

जेम्स वी प्रेट के अनुसार, प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धांत, सत्य का सिद्धांत तथा ज्ञान का सिद्धांत देता है I

प्राकृतिकवाद

प्राकृतिक सबसे प्राचीन एवं भौतिकवादी सिद्धांत है, जिसकी चर्चा का केन्द्रीय विषय संसार के भौतिक तत्व हैं I  भौतिक अस्तित्व से परे की वस्तुएँ एवं तत्व सब कपोल कल्पनाएँ हैं I दैहिक रूप में न प्रकट होने वाले का कोई अस्तित्व नहीं कहा जा सकता I सत्य, प्रकृति के भौतिक अस्तित्व में ही निहित है I प्रकृतवादी केवल भौतिक संसार को ही सत्य मानता है, क्योंकि प्रकृति जीवन मूल्यों का स्रोत है और वह स्वयं प्रत्येक व्यक्ति के निर्माण की शिक्षा का निर्धारण करती है और उसके आंगिक विकास की पृष्ठभूमि पर आधारित तथ्यों पर बल देती है प्रकृति ही प्रथम शिक्षक है जो हमें बताती है की खेल क्रीड़ा एक मूल प्रवृत्ति होने के अतिरिक्त बौद्धिक दृष्टिकोण, आत्म शिक्षण तथा आत्म अध्यापन की विद्या है I

शारीरिक शिक्षा जो जीवन के प्रथम चरण से आरंभ हो जाती है तथा जिसमे प्रकृति हमें मूल-प्रवृत्तियों एवं सहज क्रियाओं के रूप में एक विशिष्ट दिशा में कार्य करने की प्रेरणा देती है ताकि जीवन का सरंक्षण एवं संवर्धन हो सके I शिक्षा आन्तरिक आवेगों एवं आवश्यकताओं की अनुक्रिया तथा प्रक्रियाओं की एक गतिशील विद्या है I शारीरिक शिक्षा के दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि सब साधारण बच्चे नैसर्गिक तौर पर साधारणतया शरीर में सक्रिय, नये अनुभव आकांक्षी, क्रीड़ाशील तथा समाज स्वभावी होते है I दौड़ना, कूदना, भागना आदि प्रक्रियाओं से न केवल व्यक्ति का बल्कि जाति का भी कल्याण होता है I

रूसो जैसे प्रकृतिवादियों ने शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ प्रक्रति की नैतिकता का भी साधन स्वीकार किया है I उनके अनुसार खेल-क्रीडाओं से व्यक्ति न केवल बल, गति संतुलन आदि कौशल सीखता है, बल्कि नैतिकता भी प्राप्त करता है I उसे अपने संवेगों को नियंत्रित करने तथा उन्हें वांछनीय धाराओं में प्रवाह करने का अवसर प्राप्त होता है I इसलिए शारीरिक शिक्षा सर्वव्यापी तथा सामान्य होनी चाहिए जिससे प्रत्येक व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो I

प्रकृतिवाद का दृष्टिकोण जैविक है और वह इस बात पर जोर देता है कि अच्छे वातावरण से ही बच्चे के जन्मजात गुणों का विकास हो सकता है तथा प्रक्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने से ही अभिवृद्धि तथा विकास सम्भव होता है I ‘प्रकृतिवादी’ शारीरिक शिक्षण में अधिक स्पर्धाओं के पक्ष में नहीं है, बल्कि उच्च स्तर की उपलब्धियों को प्राप्त करने के पक्षधर है I

हर्बर्ट स्पेन्सर का मत

प्रसिद्ध प्रकृतिवादी तत्वज्ञानी हर्बर्ट स्पेन्सर के अनुसार

  • प्रकृति ही मूल्यों का स्रोत है, जिनका अस्तित्व इससे अलग नहीं है
  • व्यक्ति प्रकृति का विकास करता है, इसलिए व्यक्ति समाज से अधिक महत्वपूर्ण है I
  • यथार्थ चाहे जैसा भी हो उसका अस्तित्व भौतिक संसार में विद्यमान होता है

क्षणभंगुर वाद/अस्तित्ववाद

क्षणभंगुर वाद/अस्तित्ववाद के अनुसार, व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र है I वह अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं कर सकता है एवं अपने जीवन की उन्नति या अवनति का स्वयं का निर्धारण कर सकता है I अस्तित्ववादी ‘कारण’ पर जोर नहीं देते बल्कि मनः स्थिति पर जोर देते है I ‘सार्त्र’, नीत्से, कीरक, तथा जैरलैंड प्रमुख अस्तित्ववादी समर्थक है I सार्त्र ईश्वरवादी अस्तित्ववादी थे जबकि नीत्शे अनिश्वरवादी अस्तित्ववादी समर्थक थे I नीत्से ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं I

‘अस्तित्ववादी’ इस बात से इनकार करते है कि मानव का निश्चित स्वाभाव है I जैसा कि जॉन पॉल सार्त्र ने कहा है, “हमारा अस्तित्व हमारे सारे हक़ में आता है I हम एक प्रकार से अपने स्वाभाव का सृजन स्वयं करते है तथा विभिन्न चुनावों द्वारा जो हम चुनते है और उसी प्रकार हम क्रियाएँ भी करते है I” सामान्यतः अस्तित्ववादी यह सोचते है कि यदि कोई भी बात है, जो मनुष्य के बारे में तय है तो वह यह कि हम स्वतंत्र है जैसा कि दोस्तेविश्की ने कहा ‘मनुष्य ही आजादी है’ अस्तित्ववादी प्रकृतिवादी, आदर्शवादी एवं प्रयोगवादियों को अस्वीकार करते है क्योंकि उनका विश्वास है कि ‘युवा’ वह तथ्य/वस्तु है जिनका स्वरूपीकरण पहले से तय अवधारणा के अनुसार करना है, क्योंकि वे वो बन सकें जो वो बन सकते हैं I

मानवतावाद

मानवतावाद शब्द की व्यत्त्पति अंग्रेजी शब्द ह्युमेनिज्म शब्द के पर्यायवाची  ह्युमनियोश शब्द से हुई है जिसका अर्थ है मानव शरीर और और आस पास की प्रकृति का अध्ययन I प्रसिद्ध मानवतावादी लेमन के अनुसार, ‘मानवतावाद’ इस प्राकृतिक संसार में पूरी मानवता के उच्चतम कल्याण के लिए तर्क एवं लोकतंत्र की विधियों के अनुसार, आनन्दपूर्ण सेवा के लिए एक दर्शन है I मानवतावादियों का विचार है कि कठिननाईयों को दूर करने के लिए शारीरिक शिक्षा के शिक्षकों द्वारा छात्रों को निर्देशन देना चाहिए I मानवतीवादी विवेक और पुनरुत्पादन की विधि को प्रोत्साहित करते हैं वे रटने और बिना समझे याद करने को निरुत्साहित करते है ये विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर विशेष बल देने की बात करते है जिससे बच्चो को दी गई अभ्यास वस्तुओं को बेहतर रूप से समझने में सहायक होगी इसके अतिरिक्त खेल विधि के द्वारा छात्रों में समूह भावना का विकास करने पर बल दिया I इसके साथ-साथ सामुदायिक कार्यक्रम से सामुदायिक जीवन को सरल बनाया जाए I

इस प्रकार शारीरिक शिक्षा के तत्वज्ञान के अंतर्गत मानवतावाद एक महत्वपूर्ण दर्शन है I शारीरिक शिक्षा और मानवतावाद एक-दूसरे के पूरक हैं क्यूंकि अच्छा मानव तभी बन सकता है, जब तन एवं मन अर्थात शरीर एवं चेतन दोनों पूर्ण रूप से स्वस्थ हों अतः शारीरिक शिक्षा में मानवतावाद का जोर सृजनात्मक एवं स्वतंत्र होने पर होता है I

शारीरिक शिक्षा के जैविक आधार

मानव के द्वारा अपना विकास सदियों से किया जा रहा है I यह विकास क्रम अत्यंत प्राचीन माना जाता है I प्रकृति के साथ मनुष्य का जितना अच्छा सामंजस्य स्थापित होगा उतना ही अधिक वह अपने व्यवहार को विकसित कर पायेगा I इसलिए यह अतिआवश्यक है कि प्रकृति के महत्त्व को मानव के द्वारा समझा जाए तथा उसके साथ संतुलन स्थापित किया जाए I आज भी वातावरण से व्यक्ति अत्यधिक प्रभावित माना जाता है I

वातावरण का प्रभाव उसके जीवन पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है I पृथ्वी पर अनेकों जीव अपना जीवन व्यतीत कर रहे है यह जीवधारी जो आज है इससे पहले इस रूप में नहीं थे समय के साथ -साथ और अवस्थानुसार इन जीव प्राणियों में परिवर्तन आते रहें हैं I इनमें से सबसे विकसित जीवधारी है मनुष्य इसने समय और वातावरण के अनुसार स्वयं को ढाल लिया है I

शारीरिक प्रक्रिया का विकास

प्राचीन समय में मनुष्य अपने भोजन, सुरक्षा और रहन-सहन के लिए शारीरिक क्रियाओं में लगा रहता था I इस प्रकार वह अनजाने में ही शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों में भाग लेता था परन्तु आज का व्यक्ति पहले से अधिक शिक्षित है और वह अपने सम्पूर्ण विकास के लिए जानबूझकर शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों को अपना रहा है I उछलना, कूदना, चलना, फेकना इत्यादि क्रियाएँ करके वह अपने विकास के कार्य को करता हुआ ठीक दिशा की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता है यदि हम व्यक्ति के विकास का आरम्भ से अध्ययन करें तो हमारे सामने बहुत से महत्वपूर्ण प्रश्न आ जाते हैं I

मानव विकास सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है I विकास के इस क्रम में मनुष्यों के पूर्वजों ने अपनी कुछ विशेष विशेषताओं को पुर्णतः आंशिक रूप से त्याग दिया है और कुछ नई वस्तुओं को अपनाया है; जैसे- मनुष्य को तेज सूँघने की शक्ति, बालों से ढका हुआ शरीर, त्वचा के नीचे की मांसपेशियों की अधिक संख्या, चलने योग्य पैर इत्यादि I

वृद्धि एवं विकास के सिद्धांत

प्रसिद्ध  विद्वान मैरिसन के अनुसार, जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है, तब हम उसमे कुछ परिवर्तन देखते है I अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ये परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार होते है इन्हीं को विकास का सिद्धांत कहा जाता है I

बालक की वृद्धि एवं विकास निम्न सिद्धांतो के आधार पर होता है, जो इस प्रकार है

विशिष्ट विकास प्रतिमान का सिद्धांत खिलाड़ियों की शारीरक वृद्धि एवं विकास का एक विशेष प्रतिमान या तरीका होता है आरंभ में शिशु केवल उत्तेजना अनुभव करता है बाद में वह उनकी अभिव्यक्ति करना सीख जाता है I गर्भावस्था में विकास का यह स्वरुप दो सिद्धांतो पर आधारित होता है

निकट -दूर सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार विकास की इस क्रिया का आरंभ सिर से होता है I भ्रूणावस्था में में भी पहले सिर का ही विकास होता है इसके बाद धड़ एवं पैरों का विकास होता है I इस सिद्धांत के अनुसार विकास का केन्द्रबिंदु स्नायुमण्डल के निकट के भागों का विकास होता है जैसे ह्रदय छाती इत्यादि I शारीरिक शिक्षा के अंतर्गत भी विकास के इस सिद्धांत को स्वीकारते हुए माना गया है की व्यक्ति की वृद्धि एवं विकास सिर से पैर की ओर होता है और मानव के बौद्धिक विकास के लिए शरीर के भीतर सबसे पहले सुषुम्ना नाड़ी का विकास उसके बाद दुसरे अंगो का विकास होता है I

विकास में व्यक्तिगत भिन्नताओं की विद्यमानता का सिद्धांत –

विकास में व्यक्ति से व्यक्ति में व्यक्तिगत भिन्नताएं पाई जाती है विविध शारीरिक कौशलों की दृष्टि से जो बालक बाल्यकाल में विशिष्ट कौश्लात्मक प्रवीणता प्राप्त नहीं कर पाते है वे बालक आगे चलकर भी उस अनुपात में सफल नहीं हो पाते क्योंकि उनका विकास का स्वरूप उसी के अनुसार निर्धारित हो जाता है I अतः प्रत्येक खिलाड़ी में यह व्यक्तिगत भिन्नताएं उसी रूप में विद्यमान रहती है और बालक उसमे पूर्णरूपेण सफलता प्राप्त नहीं कर पाता है क्योंकि उनमें विकास उसी ढंग से हुआ है I

विकास की सततता का सिद्धांत

विकास की प्रक्रिया गर्भाधान से मृत्यु के बाद तक चलती रहती है यह एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है जिसमे से प्रत्येक प्राणी को गुजरना पड़ता है I व्यक्ति के विकास की प्रमुख चार अवस्थाएं है – शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं प्रौढ़ावस्था प्रत्येक विकासात्मक अवस्था की अपनी प्रमुख विशेषताएँ होती है विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्तित्व के सभी पहलू विकसित होते है यथा शारीरिक मानसिक सामाजिक और संवेगात्मक I लेकिन यह आवश्यक नहीं कि उन पहलुओं के विकास की डर सामान हो I

शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत एवं शिक्षा मनोविज्ञान

इसमें भी कोई संदेह नहीं कि विकास के ये विविध पहलु एक दुसरे के साथ अन्तःसम्बन्धित होने के साथ-साथ ही एक-दूसरे पर प्रभाव भी डालते है यद्यपि वृद्धि तो निर्धारित आयु तक ही विकास कर पाती है,  परन्तु जहाँ तक शारीरिक वृद्धि के अतिरिक्त अन्य व्यक्तित्व सम्बन्धी पहलुओं के विकास का प्रश्न है, वह सतत रूप से चलता रहता है I

वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक

वृद्धि तथा विकास  को विभिन्न कारकों के द्वारा प्रभावित किया जाता है in कारकों के द्वारा ही मनुष्य द्वारा भली भांति वृद्धि तथा विकास प्रक्रिया को चालित किया जाता है

मनुष्य की वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है

बालक का मानसिक स्तर

बालक का मानसिक स्तर भी उसके द्वारा की जाने वाली वृद्धि तथा विकास को बहुत अधिक प्रभावित करता है यदि बालक के द्वारा पूर्ण रूप से मस्तिष्कीय विकास किया जाता है तो निश्चय ही वह इसके आधार पर पूर्ण रूप से शिक्षा प्राप्त करता है इसके अतिरिक्त यदि उसके द्वारा भलीभांति मानसिक स्तर का विकास किया जाता है तो निश्चय ही वह इसके आधार पर पूर्ण रूप से विकसित हो पाता है

पर्यावरणीय कारक

वातावरण का गहरा प्रभाव भी बच्चों की वृद्धि एवं विकास पर पड़ता है I यदि बालक को उपयुक्त वातावरण प्रदान किया जाता है तो निश्चित ही वह व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर पाता है I यह उसे वृद्धि तथा विकास की ओर अधिक प्रोत्साहित करने में सहायता प्रदान करती है यदि वातावरण अनुकूल नहीं है तो निश्चित ही बच्चों के विकास एवं वृद्धि को प्रभावित करता है

आनुवंशिकी कारक

आनुवंशिकी कारकों का सम्बन्ध बालक के माता पिता के द्वारा बालकों में कुछ ऐसी विशिस्ष्टताओं का विकास किया जाता है जिसके आधार पर भलीभांति वह अपनी पहचान कायम कर पाता है इस प्रकार बच्चों के वृद्धि एवं विकास पर आनुवंशिकी कारको का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है I इस प्रकार संक्षेप  में कहा जा सकता है कि बालकों के द्वारा कुछ विशिष्टताओं को अपने माता पिता से प्प्राप्त किया जाता है इन्ही आधारों पर बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है I

पोषक कारक

वृद्धि तथा विकास को पोषण के द्वारा भी प्रभावित किया जाता है I यदि किसी बालक को उपयुक्त रूप से तत्व प्रदान किये जाते है तो निश्चय ही उनके आधार पर उसके दद्वारा विशेष रूप से शारीरिक वृद्धि तथा विकास किया जा सकता है I पोषण कारक उसे पूर्ण रूप से विकसित होने की ओर विशेष रूप से प्रोत्साहित करता है इसलिए यह अति लाभदायक माना जाता है इसलिए बच्चों को उपयुक्त पोषण युक्त भोजन देना चाहिए I

शारीरिक शिक्षा का सिद्धांत क्या है?

शारीरिक शिक्षा का कार्य क्षेत्र व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करना है । जे. एफ. विलियम्स के अनुसार "शारीरिक शिक्षा व्यक्ति को उन परिस्थितियों में कुशल नेतृत्व प्रदान करता है जिसके द्वारा एक व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ, मानसिक रूप से सजग तथा सामाजिक जीवन में परिस्थितियों के अनुरूप कार्य कर सके ।

शारीरिक शिक्षा के सिद्धांत कितने प्रकार के है?

वर्तमान काल में शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम के अंतर्गत व्यायाम, खेलकूद, मनोरंजन आदि विषय आते हैं। साथ साथ वैयक्तिक स्वास्थ्य तथा जनस्वाथ्य का भी इसमें स्थान है। कार्यक्रमों को निर्धारित करने के लिए शरीररचना तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान, मनोविज्ञान तथा समाज विज्ञान के सिद्धान्तों से अधिकतम लाभ उठाया जाता है।

शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य क्या है?

शारीरिक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य शारीरिक शिक्षा का अभ्यास करने और उन्हें बढ़ावा देने का मुख्य लक्ष्य उन साक्षर व्यक्तियों का विकास करना है जिनके पास शारीरिक रूप से जीवन भर स्वस्थ गतिविधियों का आनंद लेने के लिए उचित कौशल और ज्ञान है ।

शारीरिक शिक्षा की विशेषता क्या है?

शारीरिक शिक्षा से आशय शरीर से संबंधित शिक्षा प्रदान करना हैं। यह शिक्षा सामान्यतः व्यायाम,योग,साफ-सफाई,जिमनास्टिक, सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों आदि के माध्यम से प्रदान की जाती हैं। शारीरिक शिक्षा प्रदान करने का उद्देश्य मात्र छात्रों को स्वस्थ रखना ही नही हैं।