राजस्थान में रेत की क्या विशेषताएं हैं? - raajasthaan mein ret kee kya visheshataen hain?

 सारांश 

“राजस्थान की रजत बूंदें” के लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जी हैं। यह पाठ उनकी ही प्रसिद्ध किताब “राजस्थान की रजत बूंदें” का एक छोटा सा अंश हैं जिसमें उन्होंने राजस्थान की मरूभूमि में अमृत समान मीठे पानी के स्रोत “कुंई” व उनको बनाने वाले “चेलवांजी” के बारे में विस्तार से वर्णन किया है।

राजस्थान में “कुंई” का निर्माण रेत में समाए वर्षा के पानी को इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। “कुंई” की खुदाई और चिनाई करने वाले दक्ष लोगों को “चेलवांजी” या “चेजारो” कहा जाता है। “कुंई” की खुदाई के काम को “चेजा” कहा जाता है।

कुआँ और कुंई में अंतर

कुआँ एक पुलिंग शब्द हैं। कुँए में भूजल (भूमि के अंदर का पानी) इकठ्ठा होता हैं जो राजस्थान में खारा होता हैं। यह पीने योग्य नही होता हैं। कुँए का व्यास व गहराई काफी होती हैं।

जबकि “कुंई” एक स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसमें वर्षा का मीठा व पीने योग्य जल इकठ्ठा होता हैं। जब वर्षा नहीं भी होती हैं तब भी उसका जल बड़े विचित्र ढंग से इसमें इकठ्ठा होता हैं। कुंई में जमा पानी न तो भूमि की सतह पर बहने वाला पानी (नदी या तालाब का पानी) हैं और न ही भूजल (कुँए का पानी)। यह तो रेत के अंदर नमी के रूप में इकठ्ठा वर्षा का जल हैं जो धीरे-धीरे बूँद बनकर कुंई में इकठ्ठा होता रहता हैं।

कुंई का व्यास कुएँ से कम होता हैं लेकिन गहराई लगभग कुएँ के बराबर ही होती हैं। लेकिन राजस्थान के अलग -अलग क्षेत्रों में कुंईयों की गहराई अलग–अलग हो सकती हैं।

लेखक कहते हैं कि चेलवांजी पूरी तरह से पसीने से तरबतर होकर एक कुंई की खुदाई कर रहे हैं अभी तक वो तीस-पैतीस हाथ तक की गहरी खुदाई कर चुके हैं। कुंई का व्यास बहुत ही कम होता है जिसके कारण खुदाई का काम कुल्हाड़ी या फावड़े से करने के बजाय बसौली (फावड़े जैसा ही एक छोटा सा औजार जिसका फल लोहे का और हत्था लकड़ी का होता हैं) से किया जाता है।

कुंई की गहराई में लगातार बढ़ती गर्मी को कम करने के लिए ऊपर जमीन में खड़े लोगों द्वारा बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर से नीचे फेंकी जाती हैं जिससे ताजी हवा नीचे जाती है और नीचे की गर्म हवा ऊपर लौट आती है। ऊपर से फेंकी गयी रेत से बचने के लिए चेलवांजी अपने सिर पर धातु का एक बर्तन, टोप (टोपी) की तरह पहन लेते हैं।

लेखक कहते हैं कि राजस्थान की मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है। अगर यहां अधिक मात्रा में वर्षा होती हैं तो, वो भी तुरंत भूमि में समा जाती है यानि वर्षा का पानी जमीन के ऊपर ज्यादा देर नही रुकता हैं। वो तुरंत रेत में समा जाता हैं।

पर इसी मरुभूमि में कहीं-कहीं रेत की सतह के नीचे खड़िया पत्थर की एक लम्बी-चौड़ी पट्टी चलती है। यह पट्टी रेत की सतह से दस -पंद्रह हाथ नीचे से लेकर पचास – साठ हाथ नीचे तक हो सकती हैं। रेत के नीचे दबे होने के कारण यह खड़िया पट्टी ऊपर से नही दिखाई देती हैं। ऐसे क्षेत्रों में कुँई खोदते समय मिट्टी में हो रहे परिवर्तन से खड़िया पट्टी का पता चलता हैं।

यही खड़िया पट्टी ही वर्षा के जल को गहरे खारे भूजल में मिलने से रोकती है। वर्षा होने पर, उस बड़े क्षेत्र में वर्षा का पानी, भूमि की रेतीली सतह के नीचे और नीचे चल रही खड़िया पत्थर की पट्टी के ऊपर यानि इन दोनों बीच में अटक कर नमी की तरफ फैल जाता है।

रेत के कण बहुत बारीक होते हैं और मरुभूमि में ये समान रूप से बिखरे रहते हैं। पानी गिरने पर ये कण थोड़े भारी जरूर हो जाते हैं मगर न ही ये कण आपस में चिपकते हैं और न ही अपनी जगह छोड़ते हैं जिस कारण मिट्टी में दरार नहीं पड़ती हैं और भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही बना रहता है , गर्मी से भाप बनकर उड़ता नही हैं।

इस क्षेत्र में बरसी पानी की एक -एक बूँद रेत में समा कर नमी में बदल जाती है। कुँई बनने पर रेत में समाई यही नमी, फिर से पानी की बूंदों में बदल कर कुँई में इकठ्ठा होने लगती हैं और यही पानी खारे पानी के सागर में अमृत जैसा मीठा होता है।

यहां पानी को तीन भागों में बांटा गया है।

  • पालरपानी यानी सीधे वर्षा से मिलने वाला पानी। यह धरातल पर बहता है और इससे नदी या तालाब आदि में रोका जाता है।
  • पातालपानी यानि भूजल। यह वही भूजल है जो कुओं से निकाला जाता है मगर यह खारा होता है।
  • रेजाणीपानी यानि धरती की सतह के नीचे लेकिन पाताल में न मिल पाये पानी को रेजाणीपानी कहते है। रेजाणीपानी ही खड़िया पत्थर की पट्टी के कारण पातालपानी में नहीं मिल पाता है। इसी रेजाणीपानी को इकठ्ठा करने के लिए कुँई का निर्माण किया जाता है। राजस्थान में वर्षा की मात्रा को इंच या सेंटीमीटर में नापने के बजाय “रेजा” में नापा जाता हैं।

इस अमृत समान रेजाणीपानी को समेटने वाली कुँई को बनाना भी एक विशिष्ट कला हैं। चार -पांच हाथ व्यास की कुँई की तीस से साठ -पैंसठ हाथ की खुदाई और चिनाई के काम में जरा सी भी चूक चेजोरो (खुदाई और चिनाई करने वाला) की जान ले सकती हैं।

बीस -पच्चीस हाथ की खुदाई होने पर ही कुँई के अंदर की गर्मी बढ़ने लगती है और हवा कम होने लगती है। तब ऊपर से मुठ्ठी भर -भर कर रेत नीचे तेजी से फेंकी जाती हैं जिससे नीचे काम कर रहे चेलवांजी को राहत मिल जाती है।

किसी-किसी जगह कुँई बनाते समय ईट की चिनाई से मिट्टी को रोकना संभव नहीं हो पाता है। तब कुँई को खींप (एक प्रकार की घास जिससे रस्सी बनाई जाती हैं) की रस्सी से बांधा जाता हैं। और कही-कही कुँई की चिनाई अरणी, बण (कैर), आक, बावल या कुंबट के पेड़ों की टहनियों से बने लट्ठों से की जाती हैं।

ये लठ्ठे नीचे से ऊपर की ओर एक दूसरे में फंसा कर सीधे खड़े किए जाते हैं। फिर इन्हें खींप या चग की रस्सी से बांधा जाता है। यह बँधाई भी कुंडली का आकार लेती है। इसीलिए इसे साँपणी भी कहते हैं।

कुँई के भीतर खुदाई और चिनाई का काम कर रहे चेलवांजी को मिट्टी की खूब परख होती है। खड़िया पत्थर की पट्टी आते ही वह अपना काम रोक कर ऊपर आ जाते हैं।

पहले कुँई की सफल खुदाई के बाद उत्सव मनाया जाता था व विशेष भोज का आयोजन किया जाता था। चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। आच प्रथा के तहत उन्हें वर्ष भर के तीज त्यौहारों, विवाह जैसे मंगलिक अवसरों पर भेंट दी जाती थी।

फसल कटने पर खेत – खलिहानों में उनके नाम से अनाज का अलग ढेर भी लगाया जाता था।लेकिन अब सिर्फ मजदूरी देकर भी काम करवाने का रिवाज आ गया है।

कुँई का मुँह  छोटा रखने के तीन बड़े कारण हैं-

  • कुँई में पानी बूँद-बूँद कर धीरे-धीरे इकठ्ठा होता हैं। दिन भर में मुश्किल से दो -तीन घड़े पानी ही जमा हो पाता हैं। ऐसे में कुँई का व्यास ज्यादा होगा तो पानी तले में ही फ़ैल जायेगा जिसे निकलना सम्भव नही हैं। कम व्यास में यह पानी दो -चार हाथ ऊपर आ जाता हैं जिसे बाल्टी या चड़स से आसानी से निकाल लिया जाता हैं। 
  • कुँई का मुंह छोटा होने से पानी भाप बनकर उड़ नही पाता है।
  • कुँई का पानी साफ रखने के लिए उसका मुंह छोटा होना जरूरी हैं । कुँई के मुंह को लकड़ी से बने ढक्क्न या कहीं-कहीं खस की टट्टी की तरह घास -फूस या छोटी-छोटी टहनियों से बने ढक्कनों से ढक दिया जाता है। 

गहरी कुँई से पानी खींचने की सुविधा के लिए उसके ऊपर धीरनी या चकरी लगाई जाती है। यह गरेड़ी, चरखी या फरेड़ी भी कहलाती हैं।

यहां खड़िया पत्थर की पट्टी एक बड़े भाग से गुजरती हैं। इसीलिए उस पूरे हिस्से में बहुत सारी कुँईयों एक साथ बनाई जाती हैं। गांव में हरेक की अपनी-अपनी अलग कुँई होती है तथा उसे बनाने या उससे पानी लेने का हक भी उसका अपना होता है लेकिन कुँई का निर्माण समाज गांव की सार्वजनिक जमीन पर किया जाता है। इसीलिए निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में बनी कुँई के ऊपर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है।

राजस्थान में रेत के नीचे सब जगह खड़िया पट्टी ना होने के कारण कुँई हर जगह नहीं मिलेती हैं। चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में यह पट्टी चलती है। इसी कारण वहां गांव – गांव में कुँईयों है।

अलग -अलग जगह पर खड़िया पट्टी के नाम भी अलग -अलग हैं जैसे चारोली, धाधड़ों, धड़धड़ों, बिट्टू रो बल्लियों व खड़ी हैं। इसी खड़ियापट्टी के बल पर राजस्थान की कुँईयों खारे पानी के बीच मीठा पानी देती हैं ।

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  • चेलवांजी -  कुईं की खुदाई और चिनाई करने वाले लोग।
  • गोचर -  चारागाह।
  • तरबतर - अधिक भीगा हुआ 
  • विचित्र -  अजीब
  • उखरूं-घुटने मोड़ कर बैठना 
  • मरुभूमि -  मरुस्थल
  • डगालों  -  मोटी टहनियों 
  • विभाजन -  बटँवारा 
  • संकरा -  थोड़ी जगह
  • आंच प्रथा -  राजस्थानी प्रथा 
  • पेचीदा -  उलझा हुआ
  • खिम्प -  एक प्रकार की घास जिसके रेसों से रस्सी बनती है।  
  • आवक -  जावक -  आने जाने की क्रिया

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प्रश्न 1. राजस्थान में कुंई किसे कहते हैं? इसकी गहराई और व्यास तथा सामान्य कुंओं की गहराई और व्यास में क्या अंतर होता है?

उत्तर-वर्षा जल का संग्रहण के लिए राजस्थान में कुंई का निर्माण किया जाता है। राजस्थान में रेत अति गहरा होने के कारण वर्षा का पानी मरुस्थल  में समा जाता है धीरे – धीरे इसमें कुंई में समा जाता है। कुईं यानी एक छोटा सा कुआँ। कुआँ पुल्लिंग है और कुईं स्त्रिलंग है।  कुईं की गहराई सामान्य कुँए जैसी ही होती है मगर इसके व्यास में अंतर होता है। कुओं का व्यास तकरीबन पंद्रह या बीस हाथ का होता है जबकि कुईं का व्यास लगभग पाँच या छह हाथ  का होता है। 

अथवा 

उत्तर: राजस्थान में रेत अथाह है। वर्षा का पानी रेत में समा जाता है, जिससे नीचे की सतह पर नमी फैल जाती है। यह नमी खड़िया मिट्टी की परत के ऊपर तक रहती है। इस नमी को पानी के रूप में बदलने के लिए चार-पाँच हाथ के व्यास की जगह को तीस से साठ हाथ की गहराई तक खोदा जाता है। खुदाई के साथ-साथ चिनाई भी की जाती है। इस चिनाई के बाद खड़िया की पट्टी पर रिस-रिस कर पानी एकत्र हो जाता है। इसी तंग गहरी जगह को कुंई कहा जाता है। यह कुएँ का स्त्रीलिंग रूप है। यह कुएँ से केवल व्यास में छोटी होती है, परंतु गहराई में लगभग समान होती है। आम कुएँ का व्यास पंद्रह से बीस हाथ का होता है, परंतु कुंई का व्यास चार या पाँच हाथ होता है।

प्रश्न 2.“दिनोदिन बढ़ती पानी की समस्या से निपटने में यह पाठ आपकी कैसे मदद कर सकता है तथा देश के अन्य राज्यों में इसके लिए क्या उपाय हो रहे हैं? जानें और लिखें?

उत्तर- दिनोंदिन पानी की समस्या भयानक रूप ले रही है। जैसा हम सब जानते है की जल ही जीवन है लेकिन लगातर बढ़ रही जनसख्या और घखखट रहे जल स्तोत्र है प्रकृति के अत्यधिक प्रयोग के कारण पानी की समस्या भयंकर होती जा रही है। हर  जगहों पर लोग पानी की कमी से जूझ रहें हैं। ऐसे माहौल में राजस्थान की रजत बूंदें पाठ से हमें जल प्राप्ति के अन्य स्तोत्र और पानी के उचित उपयोग पर विचार करने में मदद करता है।

पानी की समस्या से निपटने के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संगठन अभियान चला रहें हैं। लोगों कोअलग अलग माध्यम और कार्यक्रमों से हस्तियों द्वारा पानी के विषय मेंअवगत कराया जा रहा है। गाँवों में तालाबों का पुननिर्माण किया जा रहा है। छोटे कुएँ, बावडियों और जलाशयों का निर्माण कर पानी के भूमिगत जल-स्तर को बढ़ाया जा रहा है।

अथवा

उत्तर: मनुष्य ने प्रकृति का जैसा दोहन किया है, उसी का अंजाम आज मनुष्य भुगत रहा है। जंगलों की कटाई भूमि का जल स्तर घट गया है और वर्षा, सरदी, गरमी आदि सभी अनिश्चित हो गए हैं। इसी प्राकृतिक परिवर्तन से मनुष्य में अब कुछ चेतना आई है। अब वह जल संरक्षण के उपाय खोजने लगा है। इस उपाय खोजने की प्रक्रिया में राजस्थान सबसे आगे है, क्योंकि वहाँ जल का पहले से ही अभाव था। इस पाठ से हमें जल की एक-एक बूंद का महत्त्व समझने में मदद मिलती है। पेय जल आपूर्ति के कठिन, पारंपरिक, समझदारीपूर्ण तरीकों का पता चलता है।

अब हमारे देश में वर्षा के पानी को एकत्र करके उसे साफ़ करके प्रयोग में लाने के उपाय और व्यवस्था सभी जगह चल रही है। पेय जल आपूर्ति के लिए नदियों की सफ़ाई के अभियान चलाए जा रहे हैं। पुराने जल संसाधनों को फिर से प्रयोग में लाने पर बल दिया जा रहा है। राजस्थान के तिलोनिया गाँव में पक्के तालाबों में वर्षा का जल एकत्र करके जल आपूर्ति के साथ-साथ बिजली तक पैदा की जा रही है जो एक मार्गदर्शक कदम है। कुंईनुमा तकनीक से पानी सुरक्षित रहता है।

प्रश्न 3.चेजारों के साथ गाँव-समाज के व्यवहार में पहले की तुलना में आज क्या फ़र्क आया है? पाठ के आधार पर बताइए|

उत्तर – चेलवांजी यानी चेजरों, कुईं की खुदाई और एक विशेष तरह की चिनाई करने वाले दक्षतम लोग। चेजरों को राजस्थान में विशेष दर्जा प्राप्त था। चेजरों की विदाई के समाये उन्हें अलग – अलग तरह की बेट दी जाती थी । कुईं के बाद भी उनका रिश्ता बना रहता था , तीज , त्योहारों और विवाह जैसे मांगलिक कार्यो में भी बेट दी जाती थी। फसल आने पर खलिहान का एक हिस्सा उनके लिए रखा जाता था।  लेकिन आज के समय में उन्हें वो सम्मान नही दिया जाता है उनसे बस एक मजदूर की तरह काम करते है।

अथवा 

उत्तर: ‘चेजारो’  अर्थात् चिनाई करने वाले। कुंई के निर्माण में ये लोग दक्ष होते हैं। राजस्थान में पहले इन लोगों का विशेष सम्मान था। काम के समय उनका विशेष ध्यान रखा जाता था। कुंई खुदने पर चेलवांजी को विदाई के समय तरह-तरह की भेंट दी जाती थी। इसके बाद भी उनका संबंध गाँव से जुड़ा रहता था। प्रथा के अनुसार कुंई खोदने वालों को वर्ष भर सम्मानित किया जाता था। उन्हें तीज-त्योहारों में, विवाह जैसे मंगल अवसरों पर नेग, भेंट दी जाती थी। फसल आने पर उनके लिए अलग से अनाज निकाला जाता था। अब स्थिति बदल गई है, आज उनका सम्मान कम हो गया है। अब सिर्फ मजदूरी देकर काम करवाया जाता है।

प्र्श्न: 4 निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्रों  में कुईयों पर ग्राम समाज का अंकुश लगा रहता है ।लेखक ऐसा क्यों कहा है।

उत्तर – राजस्थान के लोग जानते है कि भूमि के अन्दर मौजूद नमी को ही की कुईं के द्वारा पानी के रूप में प्राप्त किया जाता है।जितनी कुईं का निर्माण होगा उतना पानी का बटवारा होगा इससे कुईं की पानी एकत्र करने में असर पड़ेगा। इसी कारण ग्राम समाज नीजी होते हुए भी सार्वजनिक छेत्रो में कुईयों पर अंकुश लगा रहा है ।

अथवा

उत्तर: जल और विशेष रूप में पेय जल सभी के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। कुंई का जल और रेगिस्तान की गरमी की तुलना करें तो जल अमृत से बढ़कर है। ऐसे में अपनी-अपनी व्यक्तिगत कुंई बना लेना और मनमाने ढंग से उसका प्रयोग करना समाज के अंकुश से परे हो जाएगा। अतः सार्वजनिक स्थान पर बनी व्यक्तिगत कुंई पर और उसके प्रयोग पर समाज का अंकुश रहता है। यह भी एक तथ्य है कि खड़िया की पट्टी वाले स्थान पर ही कुंई बनाई जाती हैं और इसीलिए एक ही स्थान पर अनेक कुंई बनाई जाती हैं। यदि वहाँ हरेक अपनी कुंई बनाएगा तो क्षेत्र की नमी बँट जाएगी जिससे कुंई की पानी एकत्र करने की क्षमता पर फर्क पड़ेगा।

प्रश्न:5 कुईं निर्माण में निम्न शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त करें- 

  • पालरपानी,
  • पातालपानी,   ,
  • रेजाणपाणी ।

उत्तर – राजस्थान में पानी के तीन रूप हैं -

पालरपानी  – इसका मतलब है बरसात के रूप में मिलने वाला पानी, बारिश का वो जल जो बहकर नदी , तालाबों आदि में एकत्रित होता है।  

पातालपानी – बारिश का पानी ज़मीन मे धसकर भूजल बन जाता है ,वह हमें कुओं,ट्यूबवेल द्वारा प्राप्त होता है ।

रेजाणपाणी – वह बारिश का पानी जो रेत के नीचे जाता तो है, लेकिन खड़िया मिट्टी के कारण भूजल नहीं मिल पाता  व नमी के रूप में समा जाता है।

अथवा 

उत्तर: पालरपानी-यह पानी का वह रूप है जो सीधे बरसात से मिलता है। यह धरातल पर बहता है और इसे नदी, तालाब आदि में रोका जाता है। इस पानी का वाष्पीकरण जल्दी होता है। काफी पानी जमीन के अंदर चला जाता है। 

पातालपानी-जो पानी भूमि में जाकर भूजल में मिल जाता है, उसे पाताल पानी कहते हैं। इसे कुओं, पंपों, ट्यूबबेलों आदि के द्वारा निकाला जाता है। 

रेजाणीपानी-यह पानी धरातल से नीचे उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिलता है। यह पालरपानी और पातालपानी के बीच का है। वर्षा की मात्रा नापने में इंच या सेंटीमीटर नहीं, बल्कि ‘रेजा’ शब्द का उपयोग होता है। रेज का माप धरातल में समाई वर्षा को नापता है। रेजाणी पानी खड़िया पट्टी के कारण पाताली पानी से अलग बना रहता है तथा इसे कुंइयों के माध्यम से इकट्ठा किया जाता है।

प्रश्न: 6 कुंई की खुदाई किससे की जाती है?

उत्तर – कुंई का व्यास बहुत कम होता है। इसलिए इसकी खुदाई फावड़े या कुल्हाड़ी से नहीं की जा सकती। बसौली से इसकी खुदाई की जाती है। यह छोटी डंडी का छोटे फावड़े जैसा औजार होता है जिस पर लोहे का नुकीला फल तथा लकड़ी का हत्था लगा होता है।

प्रश्न: 7 कुंई की खुदाई के समय ऊपर जमीन पर खड़े लोग क्या करते हैं?

उत्तर – कुंई की खुदाई के समय गहराई बढ़ने के साथ-साथ गर्मी बढ़ती जाती है। उस गर्मी को कम करने के लिए ऊपर जमीन पर खड़े लोग बीच-बीच में मुट्ठी भर रेत बहुत जोर के साथ नीचे फेंकते हैं। इससे ऊपर की ताजी हवा नीचे की तरफ जाती है और गहराई में जमा दमघोंटू गर्म हवा ऊपर लौटती है। इससे चेलवांजी को गर्मी से राहत मिलती है।

प्रश्न: 8 खड़िया पत्थर की पट्टी कहाँ चलती है?

उत्तर – मरुभूमि में रेत का विस्तार व गहराई अथाह है। यहाँ अधिक वर्षा भी भूमि में जल्दी जमा हो जाती है। कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत की सतह के नीचे प्राय: दस-पंद्रह हाथ से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक पट्टी चलती है। यह पट्टी लंबी-चौड़ी होती है, परंतु रेत में दबी होने के कारण दिखाई नहीं देती।

प्रश्न9 खड़िया पत्थर की पट्टी का क्या फायदा है?

खड़िया पत्थर की पट्टी वर्षा के जल को गहरे खारे भूजल तक जाकर मिलने से रोकती है। ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र में बरसा पानी भूमि की रेतीली सतह और नीचे चल रही पथरीली पट्टी के बीच अटक कर नमी की तरह फैल जाता है।

प्रश्न:10 कुंई के लिए कितने रस्से की जरूरत पड़ती है?

लेखक बताता है कि लगभग पाँच हाथ के व्यास की कुंई में रस्से की एक ही कुंडल का सिर्फ एक घेरा बनाने के लिए लगभग पंद्रह हाथ लंबा रस्सा चाहिए। एक हाथ की गहराई में रस्से के आठ-दस लपेटे लग जाते हैं। इसमें रस्से की कुल लंबाई डेढ़ सौ हाथ हो जाती है। यदि तीस हाथ गहरी कुंई की मिट्टी को थामने के लिए रस्सा बाँधना पड़े तो रस्से की लंबाई चार हजार हाथ के आसपास बैठती है।

प्रश्न: 11 रेजाणीपानी की क्या विशेषता है? ‘रेजा’ शब्द का प्रयोग किसलिए किया जाता है?

रेजाणीपानी पालरपानी और पातालपानी के बीच पानी का तीसरा रूप है। यह धरातल से नीचे उतरता है, परंतु पाताल में नहीं मिलता। इस पानी को कुंई बनाकर ही प्राप्त किया जाता है। ‘रेजा’ शब्द का प्रयोग वर्षा की मात्रा नापने के लिए किया जाता है। यह माप धरातल में समाई वर्षा को नापता है। उदाहरण के लिए यदि मरुभूमि में वर्षा का पानी छह अंगुल रेत के भीतर समा जाए तो उस दिन की वर्षा को पाँच अंगुल रेजा कहेंगे।

प्रश्न:12 कुंई से पानी कैसे निकाला जाता है?

कुंई से पानी चड़स के द्वारा निकाला जाता है। यह मोटे कपड़े या चमड़े की बनी होती है। इसके मुँह पर लोहे का वजनी कड़ा बँधा होता है। आजकल ट्रकों की फटी ट्यूब से भी छोटी चड़सी बनने लगी है। चडस पानी से टकराता है तथा ऊपर का वजनी भाग नीचे के भाग पर गिरता है। इस तरह कम मात्रा के पानी में भी वह ठीक तरह से डूब जाती है। भर जाने के बाद ऊपर उठते ही चड़स अपना पूरा आकार ले लेता है।

प्रश्न: 13 गोधूलि के समय कुंइयों पर कैसा वातावरण होता है?

गोधूलि बेला में प्राय: पूरा गाँव कुंइयों पर आता है। उस समय-मेला सा लगता है। गाँव से सटे मैदान में तीस-चालीस कुंइयों पर एक साथ घूमती घिरनियों का स्वर गोचर से लौट रहे पशुओं की घंटियों और रंभाने की आवाज में समा जाता है। दो-तीन घड़े भर जाने पर डोल और रस्सियाँ समेट ली जाती हैं।

प्रश्न: 14 राजस्थान के रेत की विशेषता बताइए?

राजस्थान में रेत के कण बारीक होते हैं। वे एक-दूसरे से चिपकते नहीं है। आमतौर पर मिट्टी के कण एक-दूसरे से चिपक जाते हैं तथा मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं। इन दरारों से नमी गर्मी में वाष्प बन जाती है। रेत के कण बिखरे रहते हैं। अत: उनमें दरारें नहीं पड़तीं और अंदर की नमी अंदर ही रहती है। यह नमी ही कुंइयों के लिए पानी का स्रोत बनती है।

प्रश्न: 15 सजलता बनाए रखने के लिए आप लोगों को जागरूक करने के लिए क्या-क्या करेंगे?

सजलता बनाए रखने के लिए हम लोगों को पानी बर्बाद न करने, अत्यधिक वृक्ष लगाने, वृक्षों को कटने से बचाने तथा वर्षा का जल बचाने के लिए लोगों को जागरूक करेंगे।

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न. 1. कुंई का अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।

उत्तर: कुंई राजस्थान के रेगिस्तान में मीठे पानी से पोषण करनेवाली एक कलात्मक कृति है। इसे बनाने में वहाँ के लोगों का पीढ़ी दर पीढ़ी का अनोखा अनुभव लगा है और एक समूचा शास्त्र विकसित किया गया है। राजस्थान में जल की कमी तो सदा से ही है। इसे पूरा करने के लिए कुएँ, तालाब, बावड़ी आदि का प्रयोग होता है। कुंई मीठे पानी का संग्रह स्थल है। मरुभूमि में रेत का विस्तार और गहराई अथाह है। यहाँ वर्षा अधिक मात्रा में भी हो तो भी शीघ्रता से भूमि में समा जाती है। पर कहीं-कहीं मरुभूमि में रेत की सतह के नीचे प्रायः दस-पंद्रह से पचास-साठ हाथ नीचे खड़िया पत्थर की एक पट्टी चलती है। यह पट्टी जहाँ भी है वहाँ वर्षा का जल भू-तल के जल में नहीं मिल पाता, यह पट्टी उसे रोकती है।

यह रुका हुआ पानी संग्रह कर प्रयोग में लाने की विधि है-कुंई इसे छोटे व्यास में गहरी खुदाई करके बनाया जाता है। इसकी खुदाई एक छोटे उपकरण बसौली से की जाती है। खुदाई के साथ-साथ चिनाई का काम भी चलता रहता है। चिनाई ईंट-पत्थर, खींप की रस्सी और लकड़ी के लट्ठों से की जाती है। यह सब कार्य एक कुशल कारीगर चेलवांजी या चेजारो द्वारा किया जाता है। ये पीढ़ियों के अनुभव से अपने काम में माहिर होते हैं। समाज में इनका मान होता है। कुंई में खड़िया पट्टी पर रेत के नीचे इकट्ठा हुआ जल बूंद-बूंद करके रिस-रिसकर एकत्र होता जाता है। इसे प्रतिदिन दिन में एक बार निकाला जाता है। ऐसा लगता है प्रतिदिन सोने का एक अंडा देनेवाली मुरगी की कहानी कुंई पर भी लागू होती है। कुंई निजी होते हुए भी सार्वजनिक क्षेत्र में होती हैं। उन पर ग्राम-समाज का अंकुश लगा रहता है।

प्रश्न. 2. राजस्थान में कुंई क्यों बनाई जाती हैं? कुंई से जल लेने की प्रक्रिया बताइए।

उत्तर: राजस्थान में थार का रेगिस्तान है जहाँ जल का अभाव है। नदी-नहर आदि तो स्वप्न की बात है। तालाबों और बावड़ियों के जल से नहाना, धोना और पशुधन की रक्षा करने का काम किया जाता है। कुएँ बनाए भी जाते हैं तो एक तो उनका जल स्तर बहुत नीचे होता है और दूसरा उनसे प्राप्त जल खारा (नमकीन) होता है। अतः पेय जल आपूर्ति और भोजन बनाने के लिए कुंई के पानी का प्रयोग किया जाता है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए राजस्थान में कुंई बनाई जाती जब कुंई तैयार हो जाती है तो रेत में से रिस-रिसकर जल की बूंदें कुंई में टपकने लगती हैं और कुंई में जल इकट्ठा होने लगता है। इस जल को निकालने के लिए गुलेल की आकृति की लकड़ी लगाई जाती है। उसके बीच में फेरडी या घिरणी लगाकर रस्सी से चमड़े की थैली बाँधकर जल निकाला जाता है। आजकल ट्रक के टॉयर की भी चड़सी बना ली। जाती है। जल निकालने का काम केवल दिन में एक बार सुबह-सुबह किया जाता है। उसके बाद कुंई को ढक दिया जाता।

प्रश्न. 3. कुंई और कुएँ में क्या अंतर है?

उत्तर: कुंई का व्यास संकरा और गहराई कम होती है। इसकी तुलना में कुएँ का व्यास और गहराई कई गुना अधिक होती है। कुआँ भू-जल को पाने के लिए बनाया जाता है पर कुंई वर्षा के जल को बड़े ही विचित्र ढंग से समेटने का साधन है। कुंई बनाने के लिए खड़िया पट्टी का होना अति आवश्यक है जो केवल भू-गर्भ जानकारी वाले लोग ही बताते हैं, जबकि कुएँ के लिए यह जरूरी नहीं है। कुंई मीठे पानी का संग्रह स्थल है, जबकि कुआँ प्रायः खारे पानी का स्रोत होता है।

प्रश्न. 4. कुंई का मुँह छोटा रखने के क्या कारण हैं?

उत्तर:  कुंई का मुँह छोटा रखने के निम्नलिखित तीन बड़े कारण हैं

रेत में जमा पानी कुंई में बहुत धीरे-धीरे रिसता है। अतः मुँह छोटा हो तभी प्रतिदिन जल स्तर पानी भरने लायक बन पाता है।

बड़े व्यास से धूप और गरमी में पानी के भाप बनकर उड़ जाने का खतरा बना रहता है।

कुंई की स्वच्छता और सुरक्षा के लिए उसे ढककर रखना जरूरी है; मुँह छोटा होने से यह कार्य आसानी से किया जा सकता है।

प्रश्न. 5. खड़िया पट्टी का विस्तार से वर्णन कीजिए।

उत्तर: राजस्थान की मरुभूमि में रजकणों के नीचे खूब गहराई में खड़िया पत्थर की परत पाई जाती है। यह परत काफ़ी कठोर होती है। इसी परत के कारण रजकणों द्वारा सोख लिया गया जल नीचे भूल-तल के जल में नहीं मिलता और उससे ऊपर रह जाता है। रेत के नीचे सब जगह खड़िया की पट्टी नहीं है। इसलिए कुंई भी सारे राजस्थान में नहीं मिलतीं। चुरू, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर के कई क्षेत्रों में यह पट्टी चलती है और इसी कारण वहाँ गाँव-गाँव में कुंइयाँ हैं। जैसलमेर जिले के एक गाँव खडेरों की ढाणी में तो एक सौ बीस कुइयाँ थीं। लोग इस क्षेत्र को छह-बीसी (छह गुणा बीस) कहते हैं। इस पट्टी को पार भी कहा जाता है। जैसलमेर तथा बाड़मेर के कई गाँव पार के कारण ही आबाद हैं। अलग-अलग जगहों पर खड़िया पट्टी के अलग-अलग नाम हैं। कहीं चह चारोली है तो कहीं धाधड़ों, धड़धड़ो, कहीं पर बिटू से बल्लियों के नाम से भी जानी जाती है। कहीं इस पट्टी को ‘खड़ी’ भी कहते हैं। इसी खड़ी के बल पर खारे पानी के बीच मीठा पानी देता हुई कुंई खड़ी रहती है।

प्रश्न. 6. ‘जो रेत के कण मरुभूमि को सूखा बनाते हैं, वे ही रेजाणीपानी का संग्रह करवाते हैं’  पाठ के आधार पर वर्णन कीजिए।

उत्तर: रेत के कण बहुत ही बारीक होते हैं। वे अन्यत्र मिलनेवाले मिट्टी के कणों की तरह एक-दूसरे से चिपकते नहीं। जहाँ लगाव है, वहाँ अलगाव भी होता है। जिस मिट्टी के कण परस्पर चिपकते हैं, वे अपनी जगह भी छोड़ते हैं और इसीलिए वहाँ कुछ स्थान खाली छूट जाता है। जैसे दोमट या काली मिट्टी के क्षेत्र में गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार आदि में वर्षा बंद होने के बाद धूप निकलने पर मिट्टी के कण चिपकने लगते हैं और धरती, खेत, आँगन में दरारें पड़ जाती हैं। धरती की संचित नमी इन दरारों से होकर उड़ जाती है, पर यहाँ के रेतीले कणों में बिखरे रहने में ही संगठन है।

मरुभूमि में रेत के कण समान रूप से बिखरे रहते हैं। यहाँ लगाव नहीं, इसलिए अलगाव भी नहीं होता। पानी गिरने पर कण थोड़े भारी हो जाते हैं, पर अपनी जगह नहीं छोड़ते। भीतर समाया वर्षा का जल भीतर ही रहता है। एक तरफ थोड़े नीचे चल-रही खड़िया पट्टी इसकी रखवाली करती है तो ऊपर से रेत के असंख्य कण इस जल पर कड़ा पहरा रखते हैं। इस हिस्से में बरसी वर्षा की बूंदें रेत में समाकर नमी में बदल जाती हैं। यहीं अगर कुंई बन जाए तो ये रज कण पानी की बूंदों को एक-एक कर कुंई में पहुँचा देते हैं। इसी कारण इस जल को रेजाणी पानी अर्थात् रजकणों से रिसकर आया पानी कहा जाता है। ये रजत कण बूंदों के रक्षक हैं जो रेजाणी पानी का कारण बनते हैं।

प्रश्न. 7. चेलवांजी तथा उसके द्वारा किए जानेवाले कार्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उत्तर: चेलवांजी अर्थात् चेजारो वह व्यक्ति है जो रेगिस्तानी इलाकों में कुंई खोदने के कार्य में कुशल होता है। इन क्षेत्रों में कुंई खोदना एक विशेष प्रक्रिया है। इसमें छोटे से व्यास की तीस से साठ हाथ तक खुदाई और उसके साथ-साथ चिनाई करनी पड़ती है। खुदाई के समय ज़मीन की नमी और हवा के अभाव में दमघोंटू वातावरण रहता है। चिनाई के लिए ईंट-पत्थर या खींप की रस्सी गिराई जाती है। सिर को चोट से बचाने के लिए पीतल या तांबे का टोप पहना जाता है। यह प्रक्रिया काफ़ी कठिन है।

प्रश्न. 8. राजस्थान में कुंई केवल जल आपूर्ति ही नहीं करतीं, सामाजिक संबंध भी बनाती हैं, कैसे? ।

उत्तर: कुंई जनसंपर्क स्थापित करने का काम करती हैं। कुंई की खुदाई करनेवाला चेलवांजी (चेजारो) तो जिस परिवार के लिए कुंई बनाता है उसका माननीय सदस्य बन जाता है, क्योंकि रेतीले मरुस्थल में जल सबसे कीमती अमृत माना जाता है। अतः चेजारो जलदाता है। उसका मान अन्नदाता से भी ऊपर है। केवल कुंई बनाने तक ही नहीं, उसे सदा के लिए तीजत्योहार, शादी-ब्याह में बुलाया जाता है और आदर के साथ भेंट दी जाती है। फ़सल के समय खलिहानों में भी उनके नाम का ढेर अलग से लगाया जाता है। चेजारो के अतिरिक्त कुंई सामान्य जनों को भी एक समान धरातल पर लाती है। निजी होने पर भी कुंई एक सार्वजनिक स्थान पर बनाई जाती है।

वहाँ अनेक कुंई होती हैं और पानी लेने का समय एक ही होता है। उसी समय गाँव में मेला-सा लगता है। सभी घिरनियाँ एक साथ घूमती हैं। लोग एक-दूसरे से मिलते हैं। जल लेने के साथ-साथ सामाजिक जुड़ाव भी होता है। निजी होकर भी सार्वजनिक स्थान पर बनी कुइयाँ समाज को जल के नाम पर ही सही, समानता के धरातल पर ले आती हैं। अतः कुंई को सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, कलात्मक एवं पारंपरिक जल संसाधन कहा जा सकता है। ये सामाजिक संबंधों की सूत्रधारिणी हैं।

प्रश्न. 9. “राजस्थान में जल-संग्रह के लिए बनी कुंई किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है।” तर्क सहित कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर: ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है।’ – यह कथन राजस्थान की कुंई पर पूरी तरह सत्य सिद्ध होता है। जहाँ जल की जितनी कमी है वहीं इसे खोजने और संग्रह करने के अनेक तरीके खोज निकाले गए हैं। इसी प्रक्रिया में कुंई एक वैज्ञानिक खोज है। मरुभूमि के भीतर खड़िया की पट्टी को खोजना और उसे सतह के पानी को ऊपर लाना बड़ा दुर्गम कार्य है। पट्टी खोजने में भी पीढ़ियों का अनुभव काम आता है। कभी तो गहरे कुएँ खोदते समय इसकी जानकारी मिल जाती है पर कभी वर्षा के बाद पानी का रेत में न बैठना’ भी इसकी जानकारी देता है। कुंई के जल को पाने के लिए मरुभूमि के समाज ने खूब मंथन किया है। अपने अनुभवों को व्यवहार में उतारने का पूरा शास्त्र विकसित किया है।

दूसरा बड़ा वैज्ञानिक प्रक्रियावाला उदाहरण है-कुंई को खोदना इसमें चेजारों के कुंई खोदते समय दमघोंटू गरमी से छुटकारा पाने के लिए ऊपर से रेत फेंकना अनुभव विज्ञान ही तो है। तीसरी बात है-कुंई की चिनाई जो पत्थर, ईंट, खींप की रस्सी अथवा अरणी के लट्ठों से की जाती है। राजस्थान के मूल निवासियों की इस वैज्ञानिक खोज ने अब आधुनिक समाज को चमत्कृत कर दिया है। आज पूरा देश जल की कमी को पूरा करने के लिए राजस्थान को मार्गदर्शक मान रहा है।

प्रश्न. 10. कुंई की खुदाई को विशेष प्रक्रिया क्यों कहा गया है? विस्तार से स्पष्ट कीजिए।

उत्तर: कुंई जितनी उपयोगी है उतनी ही वैज्ञानिक और कलात्मक भी है। इसे खोदना साधारण या सामान्य लोगों के बस की बात नहीं है। सर्वप्रथम तो यह जाँच की जाती है कि मरुभूमि की वह जमीन जहाँ कुंई बनानी है, कुंई बनाने योग्य है या नहीं अर्थात् उसके नीचे खड़िया की पट्टी है तभी रेजाणीपानी मिल सकता है। उसके बाद छोटा व्यास खींचकर विशिष्ट चेजारो खुदाई का काम ‘आरंभ करता है। खुदाई के लिए फावड़ा या कुदाली का प्रयोग नहीं होता वरन् ‘बसौली’ नामक एक छोटी डंडी में लगे नुकीले फालवाले औजार से की जाती है। चेजारो की छाती और पीठ से एक हाथ दूर ही व्यास रहता है। इस संकरी जगह में और कोई यंत्र काम नहीं करता। जैसे-जैसे कुंई की गहराई बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही भीतर घुटन बढ़ती है।

उसे दूर करने के लिए ऊपर जमीन पर खड़े लोग एक-एक मुट्ठी रेत फेंकते रहते हैं उसके साथ ताजी हवा कुंई में जाती। रहती है। छोटे से डोल (बाल्टीनुमा बरतन) में नीचे से रेत ऊपर भेजी जाती है। चिनाई का काम भी साथ-साथ चलता रहता है। अतः चेजारो सिर पर लोहे या पीतल/तांबे का टोप पहने रखता है। यह खुदाई की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक खडिया की पट्टी नहीं आ जाती। खड़िया की पट्टी आने पर सजलती का उत्सव मनाया जाता है। जलधार आ जाती है। चेजारो ऊपर आ जाता है। विशेष भोज का आयोजन किया जाता है। चेजारो को तरह-तरह की भेंट दी जाती है। और विदा कर दिया जाता है, पर हर तीज-त्योहार, ब्याह-शादी और फ़सल के समय उन्हें मान के साथ भेंट दी जाती है, क्योंकि कुंई निर्माण की दुरुह प्रक्रिया की कला कुशल, विशिष्ट और अनुभव सिद्ध लोगों में ही होती है।

rajasthan ki rajat bunde lekhak parichay

 लेखक परिचय 

अनुपम मिश्र

अनुपम मिश्र का  जन्म 1948 में वर्धा में हुआ था। शिक्षा की बात करें तो मिश्र ने स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। अनुपम मिश्र जाने माने गांधीवादी पर्यावरणविद् हैं। पर्यावरण के लिए वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण का कोई विभाग नहीं खुला था। बगैर बजट के बैठकर मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस बारीकी से खोज-खबर ली है। गांधी शांति प्रतिष्ठान में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। वे इस प्रतिष्ठान की पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक भी है। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया है।

Anupam Mishr

वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। उनकी पुस्तक आज भी खारे हैं तालाब ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई जिसकी 1 लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। उन्हें 2001 में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित सम्मेलन को संबोधित किया।

पुरस्कार

  • अनुपम मिश्र को 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 
  • वर्ष 2007-08 में मध्यप्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
  • 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

जय हिन्द : जय हिंदी 

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राजस्थान की RAIT की विशेषता क्या है?

राजस्थान के रेत की विशेषता क्या है? Answer: राजस्थान रेत के कण बहुत बारीक होते हैं। तथा ये आपस में चिपकते नहीं हैं । देखा गया है कि मिट्टी के कण एक-दूसरे से चिपक जाते हैं और चिपकने से मिट्टी में दरारें पड़ जाती हैं।

मरुभूमि के रेत की क्या विशेषता है?

मरुभूमि में रेत के कण समान रूप से बिखरे रहते हैं। यहाँ परस्पर लगाव नहीं, इसलिए अलगाव भी नहीं होता। पानी गिरने पर कण थोड़े भारी हो जाते हैं पर अपनी जगह नहीं छोड़ते। इसलिए मरुभूमि में धरती पर दरारें नहीं पड़ती।