सरसों रबी की प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका भारत की अर्थ व्यवस्था में एक विशेष स्थान है। सरसों (लाहा) कृषकों के लिए बहुत लोक प्रिय होती जा रही है क्यों कि इससे कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित रूप में और बहु फसलीय फसल चक्र में आसानी से की जा सकती है। भारत वर्ष में क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी खेती प्रमुखता से राजस्थान, मध्यप्रदेश, यूपी, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, आसाम, झारखंड़, बिहार एवं पंजाब में की जाती है। जबकि उत्पादकता (1721 किलो प्रति हे.) की दृष्टि से हरियाणा प्रथम स्थान पर है। मध्यप्रदेश की उत्पादकता (1325 किलो प्रति हे.) वर्ष 2012-13 में थी। मध्यप्रदेश में इसकी खेती सफलता पूर्वक मुरैना, श्योपुर, भिंड़, ग्वालियर, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, दतिया, जबलपुर, कटनी, बालाघाट, छिंदवाडा़, सिवनी, मण्डला, डिण्डोरी, नरसिंहपुर, सागर, दमोह, पन्ना, टीकमगढ, छतरपुर, रीवा, सीधी, सिंगरोली, सतना, शहडोल, उमरिया, इन्दौर, धार, झाबुआ, खरगोन, बडवानी, खण्डवा, बुरहानपुर, अलीराजपुर, उज्जैन, मंदसौर, नीमच, रतलाम, देवास, शाजापुर, भोपाल, सीहौर, रायसेन, विदिशा, राजगढ, होशंगाबाद, हरदा, बैतूल जिलों में होती है एवं इन जिलो में राई-सरसों के उत्पादन की एवं प्रचार प्रसार की असीम संभावनायें है। उत्पादन की दृष्टि से मुरैना जिला की मुख्य भूमिका है। यहाँ औसतन उत्पादकता वर्ष 2012-13 में 1815 किलो ग्राम प्रति हे. थी। अतः वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर उन्नतशील प्रजातियाँ एवं उन्नत तकनीक अपनाकर किसान भाई 25 से 30 क्विंटल प्रति हे. सरसों की पैदावार ले सकते है। Show दोमट या बलुई भूमि जिसमें जल का निकास अच्छा हो अधिक उपयुक्त होती है। अगर पानी के निकास का समुचित प्रबंध न हो तो प्रत्येक वर्ष लाहा लेने से पूर्व ढेचा को हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच.मान. 7.0 होना चाहिए। अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं होती है। यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है। जहां जमीन क्षारीय है वहाँ प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम/पायराइट 5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी.एच. मान के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम/पायराइट को मई-जून में जमीन में मिला देना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ तवेदार हल से करनी चाहिए। सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बने। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े मकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। अगर वोनी से पूर्व भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बोने से पूर्व खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के बाद तवेदार हल से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में नमी बनी रहे। अंतिम जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलादें, ताकि भूमिगत कीड़ों की रोकथाम की जा सके। उन्नत किस्मों का चुनावःमध्यप्रदेश में अधिक उपज एवं तेल की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने हेतु सरसों की निम्न जातियों को बुबाई हेतु अनुशंसा की जाती है। किस्मेंपकने की अवधि (दिन)उपज(कि.ग्रा./है.)तेल की मात्रा (%)मुख्य विशेषताएं तोरियाः जवाहर तोरिया-1 भवानी टाईप-985-9075-80 90-951500-18001000-1200 1200-15004344 40श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी जवाहर सरसों-2 जवाहर सरसों-3 राज विजय सरसों-2 135-138130-132 120-140 1500-30001500-2500 1800-2000 (पिछेती बोनी) (समय पर बोनी) 4040 37-41 मृदुरोमिल आसिता रोग व पाला के प्रति सहनशील है।झुलसन रोग एवं माहू का प्रकोप कम होता है। सिंचित एवं अंसिचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता के प्रति मध्यम प्रतिरोधिताकोरल-432113-1471831-258140-42 सिंचित अवस्था एवं बाजरा सरसों फसल चक्र हेतु उपयुक्त। सी.एस.-56113-1471170-142335-40पिछेती बानी हेतु उपयुक्त। नवगोल्ड (पीली सरसों)122-1341095-180334-41पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग एवं तना सड़न रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधी। समय पर एवं पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। पूसा सरसों-21127-1491428-219730-42सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता। पूसा सरसों-27108-1351437-163939-45अगेती बोनी हेतु उपयुक्त। आर.जी.एन.-73127-1361771-222639-42फलियों एवं पौधें के गिरने के प्रति प्रतिरोधिता। आशीर्वाद125-1301440-168539पिछेती बोनी के लिए उपयुक्त, श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी, पत्तियों एवं फली के झुलसन रोग के प्रति मध्य प्रतिरोधी। माया125-1361990-228040अगेती बोनी एवं उच्च तापमान के प्रति सहनशील, सफेद किट्ट के प्रति प्रतिरोधी। फसल चक्रःजिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन है, उन क्षेत्रों में सरसों की बोनी के पूर्व खरीफ में खेत खाली नही छोड़ना चाहिए। सस्य सघनता बढाने हेतु अन्य फसलों के क्रम में इसे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी खेती से भूमि एवं आने वाली फसल के उत्पादन पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नही पड़ता । सरसों पर आधारित उपयुक्त फसल चक्र निम्नानुसार लिए जा सकते है। सिंचित क्षेत्रों के लिएःमूँग/उड़द/सोयाबीन-सरसों-मूँग
भरपूर पैदावार हेतु फसल को बीज जनित बीमारियों से बचाने के लिये बीजोपचार आवश्यक है। श्वेत किट्ट एवं मृदुरोमिल आसिता से बचाव हेतु मेटालेक्जिल (एप्रन एस डी-35) 6 ग्राम एवं तना सड़न या तना गलन रोग से बचाव हेतु कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचार करें। बोने का समय व बीज दरःउचित समय पर बोनी करने से उत्पादन तो अधिक होता ही है साथ ही साथ फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप भी कम होता है। इसके कारण पौध संरक्षण पर आने वाली लागत से भी बचा जा सकता है। बुवाई का उपयुक्त समय एवं बीज दर निम्नानुसार है-फसल बुवाई का समयबीज दर प्रति हेक्टेयरतोरियासितम्बर का प्रथम पक्ष 4-5 कि.ग्रा.सरसोंबारानी क्षेत्र 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर 5-6 कि.ग्रा.सरसों सिंचित क्षेत्र10 अक्टूबर से 30 अक्टूबर 4.5-5 कि.ग्रा.बोने की विधिः बुवाई देशी हल या सरिता या सीड़ ड्रिल से कतारों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी., पौधें से पौधे की दूरी 10-12 सेमी. एवं बीज को 2-3 से.मी. से अधिक गहरा न बोयें, अधिक गहरा बोने पर बीज के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पडता है। खाद एवं उर्वरक की मात्राःभरपूर उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरको के साथ केचुंआ की खाद, गोबर या कम्पोस्ट खाद का भी उपयोग करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों के लिए अच्छी सडी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद 100 क्विंटल प्रति हैक्टर अथवा केचुंआ की खाद 25 क्विंटल/प्रति हेक्टर बुवाई के पूर्व खेत में डालकर जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें। बारानी क्षेत्रों में देशी खाद (गोबर या कम्पोस्ट) 40-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से वर्षा के पूर्व खेत में डालें और वर्षा के मौसम मे खेत की तैयारी के समय खेत में मिला दें। राई-सरसों से भरपूर पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग करने से उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उर्वरको का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना अधिक उपयोगी होगा। राई-सरसों को नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश जैसे प्राथमिक तत्वों के अलावा गंधव तत्व की आवश्यकता अन्य फसलों की तुलना में अधिक होती है। साधारणतः इन फसलों से निम्नांकित संतुलित उर्वरकों का प्रयोग कर अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है- फसलउर्वरक (कि.ग्रा./हेक्टेयर)नत्रजनस्फुरपोटाशगंधकतोरिया60302020सरसों असिंचित40201015सरसों सिंचित (बाजरा/सोयाबीन/सरसों)100502540मध्यप्रदेश के कई क्षेत्रों की मृदाओं में गंधक तत्व की कमी देखी गई है, जिसके कारण फसलोत्पादन में दिनों दिन कमी होती जा रही है तथा तेल की प्रतिशत भी कम हो रही है। इसके लिए 30-40 कि0ग्रा0 गंधक तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक है। जिसकी पूर्ति अमोनियम सल्फेट, सुपर फास्फेट, अमोनियम फास्फेट सल्फेट आदि उर्वरकों के उपयोग से की जा सकती है। किन्तु इन उर्वरकों के उपलब्ध न होने पर जिप्सम या पायराइटस के रूप में गंधक दिया जा सकता है। उर्वरकों के प्रयोग की विधियाँ:बारानी क्षेत्र (असिंचित): अनुशंसित नत्रजन, स्फुर, पोटाश तथा गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें। सिंचित क्षेत्र:अनुशंसित नत्रजन की आधी मात्रा एंव स्फुर पोटाश व गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा नत्रजन की शेष बची हुई आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद खेत में खडी फसल में छिटक कर दें। सावधानियाँ:उपयोग के लिए बनाये गये विभिन्न उर्वरकों के मिश्रण को तुरंत खेंत में डाल दे अन्यथा इन्हे रखे रहने से उर्वरको का ढेला बन जायेगा और पौधों को समान रूप से सही मात्रा नहीं मिलेगी। उर्वरको का छिडकाव शाम के समय करें। सरसों की खुटाई (टॉपिंग):जब सरसों करीब 30-35 दिन की व फूल आने की प्रारंभिक अवस्था पर हो तो सरसों के पौधों को पतली लकड़ी से मुख्य तने की ऊपर से तुड़ाई कर देना चाहिए। इस प्रक्रिया को करने से मुख्य तना की वृद्धि रूक जाती है तथा शाखाओं की संख्या में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप उपज में करीब 10 से 15 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है। सिंचाईःउचित समय पर सिंचाई करने से उत्पादन में 25-50 प्रतिशत तक वृद्धि पाई गई है। इस फसल में 1-2 सिंचाई करने से लाभ होता है। तोरियाःतोरिया की फसल में पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिन पर (फूल प्रारंभ होना) तथा दूसरी सिंचाई 50-55 दिन पर फली में दाना भरने की अवस्था पर करना लाभप्रद होगा। सरसों की बोनी बिना पलेवा दिये की गई हो तो पहली सिंचाई बुआई के 30-35 दिन पर करें। इसके बाद अगर मौसम शुष्क रहे अर्थात पानी नही बरसे तो बोनी के 60-70 दिन की अवस्था पर जिस समय फली का विकास या फली में दाना भर रहा हो सिंचाई अवश्य करें। द्विफसलीय क्षेत्र में जहाँ पर सिंचित अवस्था में सरसों की फसल पलेवा देकर बोनी की जाती है, वहाँ पर पहली सिंचाई फसल की बुवाई के 40-45 दिन पर व दूसरी सिंचाई मावठा न होने पर 75-80 दिन पर करना चाहिए। सिंचाई की विधि व सिंचाई जल की मात्राःराई-सरसों की फसल में सिंचाई पट्टी विधि द्वारा करनी चाहिए। खेत की ढाल व लंबाई के अनुसार 4-6 मीटर चैडी पट्टी बनाकर सिंचाई करने से सिंचाई जल का वितरण समान रूप से होता है तथा सिंचाई जल का पूर्ण उपयोग फसल द्वारा किया जाता है। यह बात अवश्य ध्यान रखें कि सिंचाई जल की गहराई 6-7 से0मी0 से ज्यादा न रखें। पौंध संरक्षणःसमन्वित नींदा प्रबंधनः निदाई-गुडाई (नींदा नियंत्रण): भरपूर उपज प्राप्त करने के लिए फसल को प्रांरंभिक अवस्था में ही नींदा रहित रखना लाभकारी रहता है। सफेद रतुआ रोग प्रायः सभी जगह पाया जाता है, जब तापमान 10-18° सेल्सियस के आसपास रहता है तब पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के फफोले बनते है। रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ ये आपस में मिलकर अनियमित आकार के दिखाई देते है। पत्ती को उपर से देखने पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है। रोग की अधिकता में कभी-कभी रोग फूल एवं फली पर केकडे़ के समान फूला हुआ भी दिखाई देता है। नियत्रंणः पत्तियों पर गोल भूरे धब्बे दिखाई पड़ते है। फिर ये धब्बे आपस में मिलकर पत्ती को झुलसा देते है एवं धब्बों में केन्द्रीय छल्ले दिखाई देते है। रोग के बढ़ने पर गहरे भूरे धब्बे तने, शाखाओं एवं फलियों पर फैल जाते है। फलियों पर ये धब्बे गोल तथा तने पर लम्बे होते है। रोगग्रसित फलियों के दाने सिकुड़े तथा बदरंग हो जाते है एवं तेल की मात्रा घट जाती है। नियंत्रणः तने के निचले भाग में मटमेले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है रोग फसल पर फूल आने के बाद ही पनपता है। प्रायः यह धब्बे रूई जैसे सफेद जाल से ढ़के होते है। रोग की अधिकता में पौधा मुरझाकर या टूटकर नीचे की ओर लटक जाता है। नियंत्रणः यह चितकबरा कीट प्रांरभिक अवस्था की फसल के छोटे-छोटे पौधों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते है, प्रौढ़ व षिषु दोनों ही पौधों से रस चूसते है जिससे पौधे मर जाते है। यह कीट बुवाई के समय अक्टूबर माह एवं कटाई के समय मार्च माह में ज्यादा हानि पहुँचाते है। नियंत्रणः यह राई सरसों का प्रमुख कीट है। यह कीट प्रायः दिसम्बर के अन्त में प्रकट होता है और जनवरी फरवरी में इसका प्रकोप अधिक होता है। इस कीट के शिशु व प्रौढ़ पौधों का रस चूसते है व फसल को अत्याधिक हानि पहुँचाते हैं।यह कीट मधुस्त्राव निकालते है जिससे काले कवक का आक्रमण होता है और उपज कम हो जाती है। यह कीट कम तापमान व 60-80 प्रतिशत आर्द्रता में अत्यधिक वृद्धि करते है। राई का पेड़ कैसे होता है?राई का पौधा सीधा, 1.5 मीटर तक ऊँचा, शाखा-प्रशाखायुक्त होता है। इसके फूल चमकीले पीले रंग के होते हैं। बीज (rai seeds) छोटे, लाल-भूरे रंग के, गोलाकार तथा झुर्रीदार होते हैं। इसमें फूल एवं फल खेती के तीन माह बाद होता है।
राई और सरसों में क्या अंतर होता है?सरसों के दाने पीले रंग के होते हैं व राई के काले। तेल दोनो का निकाला जाता है, राई के तेल मे सरसों के तेल से मामूली कम तीखापन होता है, अतः तेल अधिकांश सरसों का ही बनाया जाता है। तडके मे व अचार मे राई डाली जाती है, सरसों नही। कांजी मे सरसो की पाउडर पडती है, राई नही।
राई कैसे दिखता है?छोटी-छोटी गोल-गोल राई लाल और काले दानों में अक्सर मिलती है। विदेशों में सफेद रंग की राई भी मिलती हैं। राई के दाने सरसों के दानों से काफी मिलते हैं। बस राई सरसों से थोड़ी छोटी होती है।
राई क्या काम करती है?भूमिका राय आमतौर पर हमारे घरों में राई का इस्तेमाल अचार बनाने या फिर कुछ सब्जियों और सांभर में तड़का लगाने के लिए किया जाता है. हम राई का इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन उससे होने वाले फायदों के बारे में हमें बहुत कुछ पता नहीं होता है. राई देखने में भले ही छोटी होते हैं लेकिन इसके इस्तेमाल से कई बीमारियां दूर हो जाती हैं.
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