स्वराज पर गांधी के विचारों का वर्णन - svaraaj par gaandhee ke vichaaron ka varnan

गांधी के स्वराज पर विचारः महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के दौरान ‘स्वराज’ की अवधारणा की शुरुआत की। उनकी ‘स्वराज’ की विचारधारा लोगों को सशक्त बनाना और उन्हें स्वशासन का वास्तविक अर्थ देना था। ‘स्वराज’ एक बड़ा शब्द है।

राजनीतिक दृष्टि से यह लोकतंत्र को उसके वास्तविक रूप में जमीनी स्तर से लागू करने की बात करता है जहाँ हर स्तर पर एक जन प्रतिनिधि होता है, इसके अलावा, यह राष्ट्र के समग्र विकास के बारे में भी है जहाँ समाज का हर वर्ग चाहे कुछ भी हो धर्म, जाति, नस्ल और आर्थिक स्थिति के साथ समान व्यवहार किया जाता है

औपनिवेशिक काल में गांधी का ‘स्वराज’ का विचार प्रमुख रूप से लोगों को सशक्त बनाने और मुक्त करने और उन्हें खुद पर शासन करने और आत्म-नियंत्रण, आत्म-सम्मान और आत्म-साक्षात्कार की क्षमता स्थापित करने के लिए सिखाना था।

लोगों को मुक्ति के बारे में सिखाकर, गांधी का इरादा भारत में ब्रिटिश शासन को खारिज करने और पूरी तरह से उखाड़ फेंकने का था।

लेकिन, समय के साथ, स्वतंत्रता के बाद, ‘स्वराज’ का अर्थ एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना में बेहतर शासन को लागू करने और समानता और समग्र विकास को बढ़ावा देने के लिए संशोधित किया गया।

जमीनी स्तर पर भारत को एक सच्चा लोकतंत्र बनाने के लिए इस विचारधारा को लागू करने के लिए 73वां और 74वां संविधान संशोधन पारित किया गया।

नतीजतन, ग्राम पंचायत से लेकर केंद्र सरकार तक शासन के हर स्तर पर हमेशा एक जन प्रतिनिधि होता है। 1992 में संसद द्वारा पारित 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों ने भारत में स्थानीय शासन प्रणाली की नींव रखी। 

संशोधनों के अस्तित्व में आने के बाद भारतीय राजनीतिक संरचना में एक बड़ा परिवर्तन देखा गया।

संशोधनों ने न केवल स्थानीय शासी निकायों को लोकतंत्र की बुनियादी इकाइयों के रूप में वर्णित किया, बल्कि एक प्रावधान भी रखा कि सभी सीटें प्रत्यक्ष मतदान से भरी जानी चाहिए और कुल सीटों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए और एक तिहाई अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होनी चाहिए

इसलिए, समाज के हर वर्ग को समान अवसर प्रदान करना और गांधीवादी विचारधारा के समानता कारक को भी बढ़ावा देना।

गाँधी को ना ही दार्शनिक कहा जा सकता और न ही राजनीतिक चिंतक। फिर भी वह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष में उन्होंने व्यक्ति, समाज, अर्थव्यवस्था, राज्य, नैतिकता तथा कार्यपद्धति के रूप में अहिंसा पर आधारित अपने विशिष्ट विचारों का निर्माण किया। उसने राजनीति में आदर्शवाद को महत्व दिया तथा यह सिद्ध किया कि नैतिकता ही राजनीति का सच्चा और एक मात्र आधार है। उसके चिंतन के अधिकतर प्रेरणास्त्रोत स्वदेशी ने परन्तु उसने परिचमी दार्शनिक चिंतन के मानवतावादी और उग्रवादी विचारों को भी आत्मसात किया।

इस मिश्रण से उसने विचार और व्यवहार का एक ऐसा कार्यक्रम तैयार किया। इस कार्यक्रम तैयार किया जो शुद्ध रूप से उसका अपना था।

गाँधी का राजनीतिक और नैतिक चिन्तन सरल आध्यात्मिकता पर आधारित है। उनके अनुसार यह ब्रह्माण्ड ‘ सर्वोच्च बौद्धिकता ( Supreme intelligence) अथवा ‘सत्य’ या ‘ईश्वर’ द्वारा संचालित है। यह बौद्धिकता सभी प्राणियों में निवास करती है, विशेष कर व्यक्ति में, जिसे ‘ आत्म चेतना ‘ अथवा ‘ ‘आत्मा’ का नाम दिया जाता है। यह आत्मा ही मानव जीवन का सार है। क्योंकि संपूर्ण मानव मात्र इस दैविक अंश से अनुप्राणित होते हैं अतः अंततोगत्वा सभी एक हैं। वे केवल समान ही नहीं बाल्कि एक समान हैं। इसी तरह क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में दैविक अंश विद्यमान हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही भला होता है तथा इस भलाई की खोज और उसका संवर्धन ही मानव जीवन का उद्देश्य हैै। गांधी ने इसे आत्म – अनुशासन और अहिंसा द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति भी कहा है। दूसरे शब्दों में, मानवीय परिपूर्णता केवल एक आर्दश ही नहीं है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति में इसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा भी होती है। व्यक्ति का सामाजिक और राजनीतिक जीवन इस ‘भलाई ‘ अथवा ‘ गुण ‘ के ज्ञान और प्रकाश से संचालित होना चाहिए। व्यक्ति का जीवन वास्तव में इस महान सत्य की खोज है, चाहे इस खोज के मार्ग में जितनी ही बाधाएँ आयें। गांधी व्यक्ति की परिपूर्णता के विचार से इतना अधिक प्रभावित थे कि उनका दृढ़ विश्वास था की अंत में केवल सत्य और भलाई की ही जीत होगी और असत्य पतझड़ के पत्तों की तरह गिर कर बिखर जाऐगा। सत्य और भलाई की इस खोज में बुराई ( बुराई वह जो व्यक्ति के दैविक अंश का नाश करती है। ) का ज्ञान, उसकी समझ तथा उसे ठीक करना व्यक्ति की रचनात्मक शक्ति के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस अच्छाई और बुराई के अंतर के संदर्भ में ही गांधी के भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था, धर्म, छुआछूत, संपत्ति, औद्यागीकरण, राजनीति और राज्य के प्रति विचारों को समझा जा सकता है।

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स्वराज पर गांधी के विचार ( Gandhi’s Views on Swaraj )

परंपरागत राजनीतिक सिद्धात का संबध व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा राज्य की सत्ता के अध्ययन से रहा है। परंतु भारतीय राजनीतिक चिंतन में यह स्वराज अथवा आत्म – शासन (self-rule) की धारणा रहा है जो राजव्यवस्था के अंतर्गत आत्म – निर्णय अथवा स्वाधीनता प्राप्त करने का तरीका है। आधुनिक युग में स्वराज शब्द का प्रयोग दादा भाई नौरोजी तथा तिलक ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संदर्भ में किया। यहाँ इसका अर्थ संपूर्ण राष्ट्र से था, किसी व्यक्ति विशेष से नहीं। इसी तरह उग्रवादियों ने ब्रिटिश वस्तुओँ के बहिष्कार को न्यायोचित ठहाराने के लिए एक अन्य शब्द ‘ स्वदेशी ’ का प्रयोग किया। तथापि स्वराज शब्द को मूल अर्थ में प्रयुक्त करने का श्रेय गांधी को की जाता है जहाँ इसे व्यक्तिगत आत्मशासन के रूप में प्रयुक्त करने का श्रेय गांधी को जाता है जहाँ इसे व्यक्तिगत आत्मशासन के रूप में प्रयोग करके राष्ट्रीय स्वशासन तथा आत्मनिर्भरता के साथ जोड़ा गया। गांघी ने स्वदेशी को स्वराज प्राप्त करने का माध्यम माना। उसने व्यक्तिगत स्वशासन अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा सामुदायिक स्वशासन्त अर्थात् राष्ट्रीय स्वतंत्रता में सामंजस्य लाने की कोशिश की।

स्वराज की धारणा का विश्लेषण करते हुए गांधी ने व्यापक स्तर पर संपूर्ण नैतिक स्वतंत्रता तथा संकुचित अर्थ में व्यक्ति अथवा राष्ट्र की नकारात्मक स्वतंत्रता में विशेषकर आंतर किया। जैसा कि उसने लिखा ‘ मेरे पास इंगलिश ‘ में समझाने के लिये उपयुकत शब्द नहीं हैं। स्वराज का मूल अर्थ है आत्म – शासन। इसे अंतः करण का अनुशासित शासन भी कहा जा सकता है। अंग्रेजो के शब्द Independent अर्थात् स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं निकलता स्वतंत्रता का अर्थ है बिना रोक टोक अपनी मनमर्जी करने की छूट। इसके विपरीत स्वराज की धारणा सकारात्मक है। स्वतंत्रता नकारात्मक है….स्वराज एक पवित्र शब्द है, एक दैविक शब्द है जिसका अर्थ है आत्मशासन तथा आत्म नियंत्रण, न कि सभी के बंधनों से मुकित। आईये हम इस पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करें।

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स्वराज का अर्थ व्यक्ति अथवा राष्ट्र की ऐसी स्वतंत्रता से नहीं है जो दूसरों से कटी हुई अलग – थलग हो। यह ऐसी स्वंतत्रता भी नही है जिसमें दूसरों के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व की अभाव है जो ऐसी स्वतंत्रता के दावेदार है। एक स्वतंत्र व्यक्ति अथवा राष्ट्र न तो स्वार्थी हो सकता है और न ही इसरों से अलग थलग।

आत्मशासन का अर्थ आत्मीनर्भरता भी हैँ अर्थात् एक व्यक्ति अथवा राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता स्वयम् अनुभव करता है। स्वयम् को स्वतंत्र अनुभव करना और वास्तविक स्तर पर स्वतंत्र होना एक समान नहीं है। दूसरे शब्दों में, दूसरों के प्रत्यन से प्राप्त की गई स्वतंत्रता, चाहे वह कितनी ही हितैषी हो, उत्तनी देर तक संभव होगी जब तक दूसरे की दयादृष्टि रहेगी। स्वराज की धारणा से आभिप्राय है कि व्यक्ति आत्म – शासन के लिए सक्षम है अर्थात् वह इस बात की जांच करने योग्य हैं कि वह कब वास्तविक दृष्टिकोण से स्वतंत्र है तथा वह इसका परीक्षण दूसरों पर अपनी निर्भरता की सीमा से कर सकता है। गांधी के स्वशासन के इस अधिकार को जन्मजात मना। गांधी के अनुसार उसे आज तक यह समझ में नहीं आया कि उन लोगो को, जो स्वयम को योग्य एवम् अनुभवी कहते हैं, दूसरों को स्वराज के आधिकार से वंचित करने में क्या मजा आता है। वे लोग जो स्वतंत्रता का दम भरते हैं और दूसरों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित करते हैं, वास्तव में स्वतंत्रता की धारणा में विश्वास करने पर शक पैदा करते है।

  • गांधी ने व्यक्ति के स्वशासन अथवा स्वतंत्रता के अधिकार को व्यक्ति की स्वायत्त नैतिक प्रकृति का अंग माना।
  • उन्होने समाज का अस्तित्व भी व्यक्ति की इस वास्तिक स्वतंत्रता पर निर्भर मना।
  • उन्होने कहा यदि व्यक्ति को इस स्वतंत्रता से वंचित कर दिया जाये तो वह एक यंत्र मात्र बन कर रह जायेगा। इस प्रकार से समाज का ही नाश हो जायेगा।
  • उन्होने यह स्पष्ट कर दिया व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार को छीन-कर कोई भी समाज अपना निर्माण नहीं कर सकता।
  • नकारात्मक स्वतंत्रता के विपरीत गांधी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की नैतिक तथा समाजिक अनिवार्यता पर बल दिया।

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स्वराज की एक अन्य विशेषता है कि यदि स्वतंत्रता व्यक्ति की प्रकृति का एक अंग है तो यह उसे दिया जाने वाला उपहार नहीं हैं। इसे केवल आत्म – जागृति तथा आत्म – प्रयत्न द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जैसा गांधी ने कहा – हमारे द्वारा प्राप्त की गई बाहरी स्वतंत्रता वास्तव में हमारी आंतरीक स्वतंत्रता की स्थिति के अनुपात पर निर्भर करती है .. हमारी सारी ऊर्जा आंतरिक सुधार पर  केद्रित होनी चाहिए। ‘ दूसरे शब्दों में गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ती के संदर्भ मे सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति पर डाल दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्ती के संदर्भ में सारा उत्तरदायित्व व्यक्ति पर डाल दिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी बाहरी खतरा दूसरों की वजह से कम तथा हमारी आंतरिक कमजोरी के कारण अधिक है।

अतः गांधी की स्वराज की धारणा के साथ जुड़ी हुई एक अन्य धारणा आत्मशुद्धि (self-purifcation) की बात की जो समाज तथा राजनीति के संदर्भ में नैतिक स्तर पर व्यक्ति के स्वतत्रंता के दावे को प्रभावशाली बनाने के लिए शक्ति तथा क्षमता प्रदान करती है। स्वतंत्रता के अधिकार का दावा करने का अर्थ है स्वतंत्रता को सुरक्षित तथा संरक्षित रखाने की तत्परता को भी स्वीकार करना।

गांधी की स्वराज की धारणा व्यक्ति एवम्र राष्ट्र दोनों पर समान रूप से लागू होती है। उसने व्यक्तिगत तथा सामूहिक स्वशासन, विशेषत: व्यक्ति तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संबंध को बार- बार दोहराया। स्वराज के लिए पहला कदम व्यक्ति से आरंभ होता है। यह एक वास्तविक सच्चाई है कि जैसा व्यक्ति जैसा राज्य। वास्तव में गांधी ने एक आत्म – चेतन व्यक्ति को वरीयता दी तथा सामूहिक ईकाई को महत्त्व नहीं दिया। जैसा कि उसने घोषणा की – समुदाय के स्वराज का अर्थ सुदाय में रहने वाले व्यक्तियों का स्वराज। स्वयं पर शासन ही असली स्वराज है, इसे मोक्ष अथवा मुक्ति का नाम भी दिया जा सकता है।’  इसी लह एक अन्य स्थान पर गांधी ने समान विचार व्यक्त किये, ‘ राजनीतिक स्वशासन अर्थात् समाज के बहुसंख्यक पुरुषों एवम्र स्त्रियों के लिए स्वशासन व्यक्तिगत स्वशासन से बेहतर नहीं है और इसे भी एसे ही प्राप्त करने की आवश्यकता है जैसे व्यक्तिगत स्वशासन।

स्वराज का अर्थ क्या है?

स्वराज का शाब्दिक अर्थ है - 'स्वशासन' या "अपना राज्य" ("self-governance" or "home-rule")। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रचलित यह शब्द आत्म-निर्णय तथा स्वाधीनता की माँग पर बल देता था।

गांधी के स्वराज का क्या अर्थ है?

गांधी जी के सिद्धांत के अनुसार राष्ट्र के लिए स्वराज का अर्थ मात्र ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है। उनके लिए स्वराज इससे बढ़कर है, जिसमें व्यक्तियों की स्वतंत्रता शामिल है, जिससे कि वे एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए बगैर अपने जीवन को विनियमित कर सकें।

गांधी जी का मतलब स्वराज से क्यों था?

गांधी जी के लिये स्वराज का अर्थ व्यक्तियों के स्वराज (स्व-शासन) से था और इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके लिये स्वराज का मतलब अपने देशवासियों हेतु स्वतंत्रता है और अपने संपूर्ण अर्थों में स्वराज स्वतंत्रता से कहीं अधिक है।

गांधी जी द्वारा प्रतिपादित ग्राम स्वराज के बुनियादी सिद्धांत कौन कौन से हैं?

गांधी जी के अनुसार ग्राम स्वराज का वास्तविक अर्थ आत्मबल से परिपूर्ण होना है। स्वयं के उपयोग के लिए स्वयं का उत्पादन, शिक्षा और आर्थिक संपन्नता से है। गांधी जी ने स्वराज की कल्पना एक पवित्र अवधारणा के सन्दर्भ में की है जिसके मूलभूत तत्व हैं आत्म अनुशासन और आत्मसंयम।