Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Hindi Antra Chapter 14 संध्या के बाद Textbook Exercise Questions and Answers. Show
RBSE Class 11 Hindi Solutions Antra Chapter 14 संध्या के बादRBSE Class 11 Hindi संध्या के बाद Textbook Questions and Answersप्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. भाषा - संस्कृतनिष्ठ सामान्य बोलचाल की खड़ी बोली का प्रयोग उपयुक्त ही किया गया है। समस्त पद व्यंजना शब्द शक्ति से युक्त है। प्रश्न 8. योग्यता विस्तार - प्रश्न 1. प्रश्न 2. RBSE Class 11 Hindi संध्या के बाद Important Questions and Answersबहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न .5 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. लयूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. निबंधात्मक प्रश्नोत्तर - प्रश्न 1. ग्रामीणों की दयनीय स्थिति का यथार्थ वर्णन कवि का उद्देश्य है। छोटे दुकानदार कम आमदनी के कारण अपने परिवार का भलीभाँति भरण-पोषण नहीं कर पाते हैं। उनके पास रहने को पक्के मकान नहीं हैं। प्रकाश की व्यवस्था नहीं है। टिन की ढिबरी के मंद प्रकाश में काम करते हैं। झोंपड़ी से इतना घना काला धुआँ उठता है जिससे आकाश के नीचे एक काला आकाश और दिखाई देता है। गरीबी के कारण वह पाप करता है। वस्त्रों के अभाव में फटे कपड़ों की गुदड़ी से अपना तन ढक लेता है। वृद्धाओं और विधवाओं का निराशापूर्ण जीवन है। इसका चित्रण करना ही कवि का उद्देश्य है। प्रश्न 2. सूर्य की किरणों से प्रकाशित गंगाजल चितकबरे अजगर की तरह धीरे-धीरे बह रहा है। बालू धूप-छौंह के रंग की सी दिखती है। गगनचारी पक्षी पंक्तिबद्ध अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। मन्दिरों के कलश सूर्य की किरणों से प्रकाशित हो रहे हैं। गायों के खरों से धूल उड़ रही है जो स्वर्ण चूर्ण सी दिखती है। सारा वातावरण शान्त है और अंधकार धीरे-धीरे सबको निगल रहा है। झोंपड़ी से उठता काला धुआँ संध्या की कालिमा को और गहरा कर रहा है। प्रश्न 3. कलापक्ष - कविता का आत्मपक्ष जितना सबल है उतना ही अभिव्यक्ति पक्ष भी सफल है। भाषा में माधुर्यगुण है, सरसता है। भाषा भावानुकूल है। अलंकारों का सहज रूप में प्रयोग हुआ है। दीप शिखा-सा, बगुलों-सी, तमस रेखाओं-सी, स्वर्ण चूर्ण-सी में उपमा अलंकार है, शब्द चयन सार्थक है। लक्षण और व्यंजना शब्द शक्ति के साथ ध्वनि, शब्द और बिम्बों का अच्छा प्रयोग किया है। परिनिष्ठित खड़ी बोली का प्रयोग है। प्रश्न 4. कवि ने मंथर गति से प्रवाहित लहरों के लिए 'चितकबरे अजगर' की कल्पना की है। श्वेत वस्त्र धारी विधवाओं के लिए रंग साम्य के कारण 'बगुलों-सी' की कल्पना की है। गगनचारी पक्षियों की पंक्ति को देखकर 'समय रेखाओं-सी' की कल्पना कर ली। परचून की छोटी-सी दुकान के लिए 'सकुची-सी' का प्रयोग किया है। चिन्ताग्रस्त व्यापारी जो शान्त अपनी दुकान पर बैठा है, उसके लिए बिल्कुल नई कल्पना की जड़ अनाज के ढेर सदृश।' ऐसे बहुत से उदाहरण कविता से दिये जा सकते हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि पंतजी कल्पना के बेजोड़ कवि हैं। संध्या के बाद Summary in Hindiकवि परिचय : सुमित्रानन्दन पंत का जन्म उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में सन् 1900 ई. में हुआ था। इनका बचपन का नाम गोसाईं दत्त था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा और उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। गाँधी जी के भाषण से प्रभावित होकर आपने 1919 में कॉलेज छोड़ दिया। सन् 1978 में आपका स्वर्गवास हो गया। पंत जी प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। आप बचपन में ही काव्य-रचना करने लगे थे किन्तु वास्तविक कवि कार्य बाद में आरम्भ हुआ। सन् 1938 में आपने 'रूपाभ' नामक पत्रिका निकाली। छायावादी कवियों में आप सबसे अधिक कल्पनाशील एवं भावुक कवि माने जाते हैं। उनकी कविताओं का मूलाधार मानवतावाद है। 'पल्लव' और उसकी भूमिका का हिन्दी कविता के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। आप में सूक्ष्म से सूक्ष्म हृदय के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करने की क्षमता है। आपकी कविताओं में पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति के सजीव चित्र मिलते हैं। आपके सम्पूर्ण साहित्य में आधुनिक चेतना के दर्शन होते हैं। आपकी भाषा कहीं सरल और कहीं संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट भाषा बन गई है। उसमें सब प्रकार के भावों को प्रकट करने की क्षमता है। आपको सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले हैं। वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि आदि प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। आपने 'लोकायतन' महाकाव्य की रचना की है। 'चिदम्बरा' पर आपको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ है। पाठ-परिचय : 'संध्या के बाद' का सार - संध्या मानो अपनी किरणों को समेट कर वृक्षों की चोटियों पर चढ़कर बैठ गई है। सूर्यास्त के समय सरिता के जल में सूर्य-बिम्ब एक लम्बे स्तम्भ-सा दीखता है। सूर्य क्षितिज में छिप गया है। गंगाजल चितकबरे अजगर की भाँति मंदगति से आगे बढ़ रहा है। वायु के चलने से गंगातट की रेत धूप-छाँह के रंग की होकर लहराते सर्प जैसी लगती है। गंगाजल में बादलों के प्रतिबिम्ब और सूर्य की किरणों के पड़ने से इन्द्रधनुष का सा रंग दिखाई देता है। गंगातट पर पूजा के घंटे बज रहे हैं। तट पर वृद्धाएँ और विधवाएँ पूजा-अर्चना करती दिखाई देती हैं। व्यापारी नाव में बैठकर घर लौट रहे हैं। अँधेरे में सब कुछ डूबता जा रहा है। माली की कुटिया से धुंआ उठ रहा है। छोटे कस्बे में व्यापारी दुकान सजाए बैठे हैं। गरीबी के कारण लोग दुखी हैं। बात-बात पर झूठ बोलते हैं। कवि सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की कामना करता है। समाज शोषण विहीन बने । सम्पूर्ण बस्ती को अंधकार ग्रस लेता है। धीरे-धीरे सारी बस्ती सो जाती है। काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ - 1. सिमटा पंख साँझ की लाली, जा बैठी अब तरु शिखरों पर। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक कृति से हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' शीर्षक कविता से लिया गया है। प्रसंग - सूर्यास्त और उसके पश्चात् प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों को कवि ने मानवीकरण के माध्यम से सजीव कर चित्रात्मक शैली में वर्णित किया है। संध्या काल में गंगा-तट के दृश्यों का यथार्थ चित्रण करते हुए कवि पंत कह रहे हैं कि - व्याख्या - संध्यारूपी पक्षिणी अपने पंखों को समेट अपनी लालिमा के साथ वृक्षों की ऊँची फुनगियों पर जाकर बैठ गई है। भाव है कि संध्या हो गई है और उसकी लालिमा केवल वृक्षों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है अर्थात् धरती पर श्यामता व्याप्त हो गई है, थोड़ी-सी लालिमा वृक्षों पर ही दिखाई दे रही है। संध्याकालीन सूर्य की सुनहली किरणें पीपल के हिलते हुए पत्तों पर पड़ रही हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो सुनहले रंग वाले सैकड़ों झरने झर रहे हों। क्षितिज पर अस्ताचलगामी सूर्य का प्रतिबिम्ब सरिता के जल पर पड़ रहा है. ऐसा लगता है मानो प्रकाश का स्तंभ सरिता के जल में धंसता जा रहा हो। अर्थात धीरे-धीरे वह छिपता जा रहा है। संध्याकाल में गंगाजल की स्थिति एक अजगर के समान लग रही है जो अपनी चितकबरी केंचुली को उतारकर थका हुआ सा लग रहा है। अर्थात् गंगा की धारा पर संध्याकालीन सूर्य की किरणें पड़ रही हैं और वह मंथरगति से प्रवाहित हो रही है। विशेष :
2. धूपछाँह के रंग की रेती, अनिल ऊर्मियों से सांकित। शब्दार्थ :
संदर्भ - कवि सुमित्रानन्दन पंत के प्रसिद्ध काव्य संग्रह 'ग्राम्या' से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' शीर्षक कविता से प्रस्तुत काव्यांश को उद्धृत किया गया है। व्याख्या - कवि गंगातट की बालू का वर्णन करते हुए कहता है कि धूप-छाँह जैसे रंग में रंगी गंगा-तट की बालू वायु की लहरों से सौ का आकार ग्रहण कर लेती है। बालू का रंग मटमैला है, उस पर सूर्य की संध्याकालीन किरणें पड़ रही हैं। अतः बालू की श्यामता और सूर्य की किरणों के सुनहले रंग के कारण धूप-छाँह की कल्पना की है। वायु के कारण तट की बालू पर लहरें पड़ गई हैं जो सौ जैसी प्रतीत हो रही हैं। संध्या काल के सूर्य की सुनहली आभा के कारण गंगाजल पीतवर्ण का हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है मानो वह नीली लहरों से मथा जा रहा हो। सूर्य किरणों से पीली लहराते जल पर चाँदी जैसे सफेद बादलों की छाया पड़ रही है जो एक अदभुत छटा बिखेर रही है। बाल, रेत और वायु तीनों ही जैसे सदा से आपस में प्रेम-बन्धन में बंधे हुए हैं। इस दृश्य को देखकर ऐसा लगता है मानो वायु पिघलकर जल बन गया है और जल अपनी गति खोकर बर्फ के टुकड़ों में परिवर्तित हो गया हो। श्वेत बादलों का प्रतिबिम्ब बालू और जल पर पड़ रहा है। अतः किनारे का पानी श्वेत बादलों की परछाईं के कारण हिमखण्ड जैसा प्रतीत होता है। विशेष :
3. शंख घंट बजते मन्दिर में, लहरों में होता लय कंपन। शब्दार्थ :
संदर्भ - हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित उपर्युक्त पंक्तियाँ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ कविवर सुमित्रानन्दन पंत के 'ग्राम्या' नामक प्रसिद्ध काव्य-संग्रह से उद्धृत की गयी हैं। प्रसंग - संध्या-काल के पश्चात गंगातट के अति आकर्षक दृश्यों के साथ ही ग्राम-जीवन में जो घटनाएँ घटित होती हैं, कवि ने उनका यथार्थ चित्रण किया है। कवि तट की हलचल को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि - व्याख्या - सूर्यास्त के समय जीवन का परिदृश्य भी बदल जाता है। लोग सूर्य को अस्ताचल-गामी समझकर विदाई देने को सन्नद्ध हो जाते हैं। मंदिर में शंख और घंटे बज रहे हैं। उमसे वायु में हो रहा कंपन जैसे गंगा के जल में विलीन हो रहा है। मंदिर के शिखर पर स्थित कलश मानो आकाश में उठकर दीपशिखा से सूर्य की आरती कर रहा है। तट पर अनेक श्वेत वस्त्रधारिणी वृद्धाएँ और विधवाएँ तट पर जप-ध्यान में मग्न हैं। ऐसा लगता है कि सूर्य की विदाई-वेला से अभिभूत होकर वे भी अपने जीवन-साथी के वियोग की पीड़ा को धारा-प्रवाह के साथ ही अदृश्य रूप से विसर्जित कर रही हैं। सूर्य की विदाई-वेला ने जनजीवन के भक्ति-भाव को उद्दीप्त कर दिया है। विशेष :
4. दूर तमस रेखाओं-सी, उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित। शब्दार्थ
संदर्भ - प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से लिया गया है। इसके रचयिता कवि सुमित्रानन्दन पंत हैं। प्रसंग - ग्रामीण-क्षेत्र में संध्याकाल में गंगा-तट की हलचलों के साथ ही गायें जंगल से लौटती हैं और गोधूलि से दिशाएँ रँग जाती हैं। पक्षी अपने-अपने घोंसलों को लौटते हैं। अत: कुछ क्षण चारों ओर कोलाहल-सा मच जाता है। कवि ने इस वातावरण को चित्रित करते हुए कहा है कि - व्याख्या सूर्यास्त के समय पक्षी समूहों में अपने-अपने घोंसलों की ओर उड़े जा रहे हैं। इनमें सुनहले पक्षी भी हैं जो पंक्ति बनाकर उड़े जा रहे हैं। ये पंक्तियाँ दूर से अंधकार की रेखाओं जैसी लग रही हैं। ऐसा भी लगता है कि यह पंखों की गति का कोई चित्र हो। ये पक्षी अपनी सरस ध्वनियों से शांत आकाश को गुंजित कर रहे हैं। गाएँ घरों को लौट रही हैं। उनके चलने से धूल उड़ रही है। यह धूल अस्त होते सूर्य के सुनहले प्रकाश से सोने के चूर्ण जैसी प्रतीत हो रही है। आकाश में उठ रही यह धूल, किरणों के बादल की भाँति प्रतीत हो रही हैं। आकाश में तीव्र गति से जा रहे पक्षियों के चमकते पंखों की सरसराहट और उनके स्वर ऐसे लग रहे हैं, जैसे सनसनाते हए तीर जा रहे हों। विशेष :
5. लौटे खग, गायें घर लौटीं, लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - संध्याकाल में सभी चराचर अपने घर लौटते हैं। कवि ने पक्षी, गाय, पैंठ से लौटते व्यापारियों का मनोहारी चित्रण किया है, वे कहते हैं कि - व्याख्या - पक्षी अपने शावकों के पास घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। उधर गायें भी जंगलों से चरकर अपने बछड़ों के पास घर लौट रही हैं। हारे-थके शिथिल अंगों वाले किसान अपने खेतों से घरों की ओर लौट रहे हैं। सभी जीव हार-थककर घरों में आकर छिप गये हैं। धीरे-धीरे संध्या के बाद की अंधेरी वेला सभी को अपनी गोद में छिपा लेती है। परिणामस्वरूप अब उनकी परछाई भी अदृश्य हो गयी है। दिनभर लगने वाले बाजार अर्थात् हाट या पैंठ भी खत्म हो गयी। अतः व्यापारी अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठे हुक्के गुड़-गुड़ाते हुए नावों द्वारा नदी पार घरों को जा रहे हैं। संध्या अपने साथ विश्राम की बेला लेकर आती है। सभी थके-हारे जीव रात्रि विश्राम के लिए घर लौट रहे हैं। विशेष :
6. जाड़ों की सूनी द्वाभा में, झूल रही निशि छाया गहरी।। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य-कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - संध्या के बाद' कविता में कविवर सुमित्रानन्दन पंत ने सर्दी की रात्रि में होने वाले प्राकृतिक एवं सामाजिक परिदृश्यों का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया है। व्याख्या - रात्रि की गहरी काली छाया धीरे-धीरे सम्पूर्ण वातावरण पर छा रही है। परिणामस्वरूप खेत, बाग, घर, वृक्ष, नदियों के किनारे और उसकी लघु-चंचल लहरें भी अंधकार में विलीन होने लगी हैं। लगता है कि दिवस के छिप जाने के दुःख का प्रभाव उन पर हो गया है और वे अपना दुःखपूर्ण चेहरा अँधेरे में छिपा रहे हैं। उधर संध्या होते ही काम पर गये गाड़ीवान घर लौट रहे हैं। उनके कंठ से अचानक विरहा लोकगीत फूट पड़ा है। गाड़ीवान विरहिणी के भावों को अपने गीत के माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं। संध्या काल में कुत्तों के लड़ने और भौंकने के स्वर सुनाई दे रहे हैं। जंगल में एक साथ मिलकर सियारों के कंठ से निकलते हुआँ-हुआँ के स्वर सुनाई दे रहे हैं। इस प्रकार ये सभी उस दुःखपूर्ण रात्रि को अपने स्वर देकर मानो समर्थन प्रदान कर रहे हों अथवा उसके दुःख में अपना दुःख भी मिलाकर रात्रि के दुःखी मन से सहानुभूति प्रदान कर रहे हों। विशेष :
7. माली की मैंडई से उठ, नभ के नीचे नभ-सी धूमाली। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्यकृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - सर्दी की रात से कुछ पहले माली की झोंपड़ी से उठते हुए धुएँ और दुकानों में बत्ती जलाकर बैठे व्यापारियों का कवि वर्णन कर रहा है। व्याख्या - गाँव के बाहरी छोर पर रहने वाले मालियों की फूस की झोंपड़ियों में भोजन की तैयारी के लिए जलाए गये चूल्हों से निकलने वाले धुएँ की परत ऐसी लग रही है जैसे आकाश के नीचे दूसरा आकाश हो। मंद-मंद चलती पवन से हिलती हुई यह धुएँ की परत नीली हलकी रेशमी जाली जैसी प्रतीत हो रही है। उधर कस्बे के सभी व्यापारी अपनी छोटी दुकानों पर तेल से जलने वाली बत्ती अथवा टीन की ढिबरी जलाकर बैठे हैं, क्योंकि दिनभर मजदूरी करके लौटे गरीब मजदूर और किसान भोजन पकाने की जुगाड़ में सौदा खरीदकर ले जायेंगे। बत्तियों के मंद प्रकाश में जाड़ों की लम्बी रात ऊँघती सी प्रतीत हो रही हैं। लगता है आलस्य में डूबा अँधेरा इस बर्फीली रात्रि में ऊँघ रहा हो। विशेष :
8. धुआँ अधिक देती है, टिन की ढबरी, कम करती उजियाला। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - सर्दी की रात्रि में ग्रामीण-समाज में लेन-देन करते व्यापारियों की घोर गरीबी और निराशा का चित्रण करते हुए कवि कह रहा है व्याख्या - ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकाश का कोई साधन नहीं होता, अत: व्यापारी दुकानदार अधिक धुआँ उगलने वाली टिन मंद-मंद प्रकाश में बैठे आने वाले खरीददारों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके मन में निराशा और दुख है, क्योंकि उस छोटी-सी दुकान से उनके परिवार का पालन नहीं हो पाता। ढिबरी से निकलते हुए धुएँ के साथ उनके मन का दुःख भी प्रकट हो रहा है। ऐसा आभास हो रहा है कि उस छोटी-सी बस्ती में उनके द्वारा देखे जा रहे धनवान बनने के स्वप्न खोखले ही सिद्ध हो रहे हैं। उन दीपकों के प्रकाशमंडल में उनको सदा से चले आ रहे सुख-दुख याद आ रहे हैं। विशेष :
9. कैंप-कैंप उठते लौ के संग, कातर उर क्रंदन, मूक निराशा। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - रात्रि में ग्रामीण-क्षेत्र के व्यापारी गरीबी के कारण मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाकर बैठते हैं। उनके हाव-भावों से उनके मन की व्यथा झलक रही है। कवि कहता है कि - व्याख्या - ज्यों-ज्यों ढिबरी के दीपक की लौ हवा से काँपती है, उनके मन में छिपे मौन रोदन और पीड़ा बाहर आ जाते हैं। वह मंद-मंद प्रकाश मानो उसके मन में छिपी हुई निराशापूर्वक भावना को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहा हो। कुछ समय पश्चात मिट्टी के खपरों से छायी हुई वह बस्ती रात्रि के अन्धकार में विलीन हो जाती है। उनके घर-आँगन उस अंधेरे द्वारा निगल लिये जाते हैं। बढ़ते अँधेरे के साथ बिक्री न होने से व्यापारियों की निराशा बढ़ती जा रही है। उन्हें अपनी ही सुध-बुध नहीं रही। ब्याज से कमाई करने के सपने बिखर गए हैं। विशेष :
10. सकुची सी परचून किराने की ढेरी, लग रही ही तुच्छतर। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अंतरा' के काव्यखण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से अवतरित किया गया है। प्रसंग - रात्रि आगमन ने छोटे व्यापारी के मन को व्याकुल कर दिया है। कवि ने उसके मन की भावनाओं और निराशापूर्ण स्थिति को वाणी प्रदान की है। वह कहते हैं कि - व्याख्या - गाँवों के छोटे व्यापारियों की छोटी-सी किराना-परचून की दुकान पर सामान की बहुत छोटी-छोटी ढेरियाँ लगी हैं कुछ बड़ी भी हैं, लेकिन व्यापारी उन्हें तुच्छ से तुच्छ समझता है। इस रात्रि के शान्त वातावरण में वह ग्राह अभाव में सोचने को मजबूर हो रहा है कि इस छोटी-सी ढेरी से वह अपने परिवार का पालन भी नहीं कर पा रहा है। फिर वह बड़ा आदमी कैसे बनेगा? वह अपनी छोटी हैसियत का मूल्यांकन करके निराश-सा हो जाता है। कवि व्यापारी के मन में मानवता के भाव जाग्रत होते हुए देखता है। इस संकटमय स्थिति में लाला के मन में मानवीय भावनाएँ जाग रही हैं। आज उसे पता चल रहा है कि एक असफल व्यक्ति का जीवन कितना कष्टदायक होता है। अब तक उसने जो सपने देख थे, वे .. सब धन के अभाव में टूटने जा रहे थे। विशेष :
11. दैन्य दुःख अपमान ग्लानि, चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पंत की 'ग्राम्या' नामक काव्य कृति से 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत है। प्रसंग - गाँव के एक गरीब व्यापारी की मनोदशा का चित्रण है। गरीबी की मार के कारण वह टूट चुका है। व्याख्या - कवि पंत गाँव के लोगों की गरीबी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि छोटी-सी बस्ती का किराना और परचून का छोटा व्यापारी अपने जीवन की दीनता और गरीबी से दुखी है तथा अपने आपको अपमानित अनुभव कर रहा है। वह भूख और प्यास से दुखी है। उसके जीवन की सारी अभिलाषाएँ मर गई हैं। गरीबी ने उसकी आकांक्षाओं को कुचल दिया है। उसका जीवन दुख की परिभाषा बन गया है। गरीबी का दुख ही उसके जीवन का अर्थ बन गया है। वह सोचता है कि गरीबी के कारण उसे भरपेट भोजन भी प्राप्त नहीं होगा। वह तो दिनभर छोटी-सी दुकान की गद्दी पर अनाज की ढेरी के समान निर्जीव बनकर बैठा रहता है। अर्थात् जीवन में सक्रियता नहीं है। वह धन कमाने की होड़ के कारण गद्दी पर बैठकर छोटी-छोटी बात के लिए झूठ बोलता है। फिर भी अपनी निर्धनता दूर नहीं कर पाता है। विशेष :
12. फिर भी क्या कुटुंब पलता है? रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन। शब्दार्थ :
संदर्भ - सुमित्रानन्दन पंत की काव्य कृति 'ग्राम्या' से कविता 'संध्या के बाद' उद्धृत है जो 'अंतरा भाग-1' में संकलित है। यह काव्यांश उसी कविता का अंश है। प्रसंग - दरिद्रता की मार झेलने वाला गाँव का छोटा व्यापारी अपनी दयनीय स्थिति से चिन्तित है। उसकी मानसिक स्थिति एवं सोच का अच्छा चित्रण है। परिवार के भरण-पोषण की चिन्ता में डूबा दुकान पर बैठा है। व्याख्या - कवि पंत गरीब व्यापारी की व्यथा को अभिव्यक्ति देते हुए लिखते हैं कि वह व्यापारी छोटी दुकान पर बैठा सोच या इस छोटी-सी दुकान से वह अपने परिवार को पाल सकता है। क्या इस छोटी-सी आमदनी से उसका कुटुम्ब चल ? इस दुकान की आमदनी से उसके परिवारीजनों को सभी सुविधाएँ नहीं मिल सकी। भोजन के अभाव में परिवार के लोग स्वस्थ नहीं रह सकते। वह सोचता है कि क्या वह कभी अपने रहने के लिए पक्का मकान बना सकेगा ? क्या वह कभी सुखी रह पाएगा ? क्या वह इतना धन एकत्रित कर सकेगा, जिससे उसे सुख प्राप्त हो सके। उसके कंधों पर फटे कपड़ों की गुदड़ी पड़ी है। जिससे वह सर्दी से अपने तन की रक्षा करता है किन्तु चिन्ता में डूबा हुआ है, उसे अपने तन तथा गुदड़ी का ध्यान भी नहीं रहता। उसके कंधे से गुदड़ी खिसक जाती है और उसका शरीर ठंड से काँपने लगता है। घोर निराशा ने उसे संज्ञाशून्य-सा कर दिया है। वह गरीब व्यापारी अपनी गरीबी का कारण खोज रहा है। वह सोचता है कि उसकी इस दीनता, इस अपमान और इस लाचारी का कारण क्या है ? वह इस दीन-हीन स्थिति से कैसे छुटकारा पाए? विशेष :
13. शहरी बनियों-सा वह भी उठ, क्यों बन जाता नहीं महाजन? शब्दार्थ :
संदर्भ - यह काव्यांश पंतजी की लम्बी कविता 'संध्या के बाद' से उद्धृत है। यह कविता 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित है। प्रसंग - स्वयं गरीबी भोग रहे कस्बे के छोटे से दुकानदार के मन में अब मानवतावादी विचार जाग रहे हैं। वह चाहता है । समाज के सभी वर्गों के बीच आय का समान बँटवारा होना चाहिए। व्याख्या - गाँव का छोटा गरीब व्यापारी अपनी दुकान पर बैठा अपनी गरीबी का कारण खोज रहा है। वह अपने आप से प्रश्न करता है कि क्या वह अपना विकास नहीं कर सकता ? क्या वह भी शहरी व्यापारियों की तरह बड़ा सेठ नहीं बन सकता ? क्या कारण है जो मैं इतना गरीब हूँ। उसे भी महाजन अर्थात् बड़ा सेठ बनने का अधिकार है पर वह महाजन क्यों नहीं बन पा रहा है। वह सोचता है कि मेरी उन्नति को किसने रोक रखा है। मेरी प्रगति में कौन बाधक है। क्या समाज की यह व्यवस्था, जो चल रही है, यह नहीं बदल सकती। इस व्यवस्था में परिवर्तन होना ही चाहिए। जब तक इस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होगा, हम गरीब ग्रामीण व्यापारियों की दशा में सुधार सम्भव नहीं है। हम भी सुखी जीवन जी सकते हैं। जब तक कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्च का वितरण नहीं होगा हमारा जीवन सुखी नहीं हो सकता। विशेष :
14. घुसे घरौंदों में मिट्टी के, अपनी-अपनी सोच रहे जन।। शब्दार्थ :
संदर्भ - मानवतावादी विचारधारा के कवि सुमित्रानन्दन पंत की कृति 'ग्राम्या' से 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में 'संध्या के बाद' शीर्षक से संकलित कविता से प्रस्तुत पंक्तियाँ उद्धृत हैं। प्रसंग - गाँव के व्यापारी के मन में जाग रही साम्यवादी सामाजिक व्यवस्था के द्वारा कवि एक संदेश देना चाह रहा है। सब समान हों, शोषण समाप्त हो, योग्यता के अनुसार वितरण हो, इसी प्रकार की विचारधारा की अभिव्यक्ति हुई है। व्याख्या - कवि पंत ग्रामीण परिवेश में जीवनयापन करने वाले लोगों के सम्बन्ध में लिखते हैं कि गाँव के सभी लोग मिट्टी के घरौंदों में घुस गए हैं। उन्होंने अपने आप को उन घरौंदों में कैद कर लिया है और केवल अपने सुख-दुख के बारे में ही सोच रहे हैं। वे इतने स्वार्थी हो गए हैं कि दूसरों के सम्बन्ध में सोचने का समय ही उनके पास नहीं है। समाज में व्याप्त शोषण के विषय में कोई नहीं सोच रहा है। पंत लिखते हैं कि क्या ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकती जिससे इनमें चेतना आए। कोई इनको ऐसी प्रेरणा दे जिससे ये आपस में मिलकर काम करें। एक नए समाज का निर्माण करें। सब मिलकर सामूहिक सामाजिक जीवन का भोग कर सकें। सब मिलकर समाज का उत्थान करें और समाज के उत्पादन का सामूहिक रूप में उपभोग करें। समाज में शोषण की व्यवस्था समाप्त हो जाय। समाज का धन एक व्यक्ति या वर्ग का न हो। समाज की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर समाज के सभी लोगों का अधिकार हो। धन का योग्यता, गुण और कर्म के अनुसार वितरण हो। तभी शोषण विहीन समाज का निर्माण हो सकेगा। विशेष :
15. दरिद्रता पापों की जननी, मिटें जनों के पाप, ताप, भय। शब्दार्थ :
संदर्भ - प्रस्तुत काव्यांश सुमित्रानन्दन पंत की कविता 'संध्या के बाद' का अंश है। यह कविता 'अंतरा भाग-1' संकलित है। प्रसंग - कवि ने अपने प्रगतिशील एवं साम्यवादी विचारों को ग्रामीणों के दरिद्रता से त्रस्त जीवन के माध्यम से व्यक्त कर रहा है। एक शोषणविहीन समाज की परिकल्पना प्रस्तुत की गई है। व्याख्या - कवि ने अपने विचारों को ग्रामीण व्यापारी के माध्यम से व्यक्त किया है। पंत का कहना है कि समाज में धोखा, ठगी, चोरी, हत्या आदि जितने भी दुष्कर्म हो रहे हैं वे सब गरीबी के कारण ही हो रहे हैं। गरीबी ही व्यक्ति को अनुचित कार्य करने के लिए विवश करती है। इसलिए कवि का कहना है कि गरीबी सारे पापों की जननी है। 'भूखा मरता क्या न करता' कथन यथार्थ ही है । लोगों के पाप, कष्ट और भय दूर होने चाहिए। यह तभी सम्भव है जब गरीबी-मुक्त समाज होगा। लोगों को सुन्दर निवास, सुन्दर वस्त्र और स्वस्थ तन की प्राप्ति तभी हो सकती है, जब समाज से पाप और दुख दूर हों। तभी पशुता की बर्बरता समाप्त होगी और मानवता की विजय होगी और तभी समाज सुखी होगा। समाज की इस विकृत व्यवस्था का दोषी कोई एक व्यक्ति नहीं है अपितु समाज की परम्परा दोषी है। संसार के सभी देशों की जनता तभी सुखी और समृद्ध हो सकती है जब मनुष्य के श्रम का उचित बँटवारा हो जाय। यदि मनुष्य को उसके श्रम का फल मिल जाय तो सभी का जीवन सुखी हो जाएगा। विशेष :
16. टूट गया वह स्वप्न वणिक का, आई जब बुढ़िया बेचारी। शब्दार्थ :
संदर्भ - पंतजी की कविता 'संध्या के बाद' का यह काव्यांश है जो 'अंतरा भाग-1' के काव्य खण्ड में संकलित है। व्याख्या - पंतजी लिखते हैं कि छोटे कस्बे का व्यापारी अपनी परचून और किराने की दुकान पर बैठा गरीबी दूर करने के उपाय के सम्बन्ध में सोच रहा था। समाज की परिपाटी को बदलने की सुन्दर कल्पनाओं में डूबा हुआ था, उसी समय एक बुढ़िया ने आकर उससे आधा-पाव आटा माँगा। व्यापारी का सपना उसकी आवाज से टूट गया। समाज की परिपाटी को बदलने की कल्पना गायब हो गई। लाला शोषण विहीन समाज की कल्पना कर रहा था लेकिन उसकी मनोवृत्ति ने शोषण करना नहीं छोड़ा। उसने बुढ़िया को आधा-पाव आटा पूरा नहीं दिया। तोलते समय डंडी मार दी। वह जिस सुन्दर समाज की कल्पना कर रहा था। उस समाज को वह स्वयं विकृत कर रहा था। इसी समय पेड़ पर बैठा घूधू बोल पड़ा, मानो वह व्यापारी को अनैतिक कार्य के लिए सचेत कर रहा था। शायद वह अपनी भाषा में लाला से कह रहा था कि तुम नैतिकता की बात करते हो और स्वयं अनैतिक कार्य कर रहे हो। धीरे-धीरे गहरा अन्धकार बढ़ता जा रहा था और सबको निद्रा की गोद में पहुँचा रहा था। कवि कौन सा द्वार दिखाना चाहता है?Answer. Answer: कवि अनंत का द्वार दिखाना चाहता है ।
कवि पुष्पों को अनंत का द्वार देखना चाहता है क्यों?उत्तर: कवि पुष्पों को अनंत का द्वार इसलिए दिखाना चाहता है, जिससे खिले तथा महकते फूलों से प्रेरित होकर वह भी अपना जीवन महका सके।
कवि खिले फूलों को कहाँ का द्वार देखना चाहते हैं?Answer: कवि पुष्पों को अनंत का द्वार इसलिए दिखाना चाहता है क्योंकि फूल खिलकर अनंत काल तक अपनी महक एवं सौंदर्य बिखेरते रहें।
ध्वनि कविता में कवि वसंत के माध्यम से क्या दिखाना चाहता है?Answer: कवि वसंत रूपी जीवन में अपने स्वप्निल हाथों से निद्रा से भरी कलियों पर हाथ फेर कर एक नयी सुबह का आवाहन करना चाहता है। द्वार दिखा दूँगा फिर उनको। अभी न होगा मेरा अंत।
|