जीवन के अंतिम क्षणों में जब स्कंदगुप्त देवसेना से प्रणय निवेदन करता है तो देवसेना क्या करती है? - jeevan ke antim kshanon mein jab skandagupt devasena se pranay nivedan karata hai to devasena kya karatee hai?

देवसेना का गीत जयशंकर प्रसाद।आह वेदना मिली विदाई।jayshankar prsad

देवसेना का गीत

आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण,
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु छाया में,
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई?

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कब की,
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई।

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ,
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई।

लौटा लो यह अपनी थाती,
मेरी करुणा हा-हा खाती,
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई।

देवसेना का गीत प्रसाद जी के नाटक स्कंदगुप्त का अंश है। हूणों के हमले में अपने भाई और मालवा के राजा बंधु वर्मा तथा परिवार के सभी लोगों के वीरगति पाने और अपने प्रेम स्कंदगुप्त द्वारा ठुकराए जाने से दुखी देवसेना , जीवन के आखिरी मोड़ पर आकर अपने अनुभव में अर्जित दर्द भरे क्षणों को स्मरण करके गीत गा रही है। इसी दर्द को कवि देवसेना के मुख से व्यक्त कर रहा है।

व्याख्या –

कवि देवसेना के मुख से उसके बीते हुए दिनों को अर्थात देवसेना के योवन काल पर प्रकाश डाल रहे हैं। देवसेना कह रही है कि जिसे मैंने भ्रमवश संभाल के रखा था , वह आज मेरे किसी काम नहीं आई। अर्थात कहने का मतलब यह है कि देवसेना अपने जीवनकाल में काफी सुंदर थी और उसकी सुंदरता देवसेना के लिए भ्रम था। यौवन काल में राजा – राजकुमार उसके रूप पर मोहित रहते थे , किंतु वह स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी और वह सोचती थी के स्कंदगुप्त भी उस से प्रेम करता है यह उसका भ्रम था। मैंने भ्रमवश जीवन संचित मधुकरियो की भीख लुटाई। यानी कि जो आशाएं उन्होंने पाल रखी थी वह सब लुटा दी मेरी दर्द भरी शाममें आंसुओं से भरी थी और मेरा पूरा जीवन गहरे जंगल में रहा।

देवसेना अपने बीते हुए जीवन पर दृष्टि डालते हुए अपने अनुभवों में जमा पीड़ा के पलों को याद कर रही है। अपने जिंदगी के इस मोड़ पर अर्थात जीवन के आखिरी क्षणों में वह अपने  जवानी पर किए गए कार्यों को याद करते हुए अपने दुख को प्रकट कर रही है और जीवन काल में किए गए कार्यों और अनुभवों को बांट कर अश्रु बहा रही है।

जीवन की संध्या बेला अर्थात जीवन के अंतिम पड़ाव में देवसेना गीत गाकर भिक्षा मांगती हुई अपना जीवन यापन करती है

व्याख्या –

देवसेना कहती है कि परिश्रम से थके हुए सपनों  के मधुर सम्मोहन में घने वन के बीच पेड़ की छाया में विश्राम करते हुए यात्री की नींद से भरी हुई सुनने की अलसाई क्रिया में यह किसने राज बिहार की स्वर लहरी छोड़ दी है।

भाव यह है कि जीवन भर संघर्षरत रहती हुई देवसेना सुख की आकांक्षा लिए मीठे सपने देखती रही जब उसके सपने पूरे ना हो सके तो वह थक कर निराश होकर की आकांक्षाओं से विदाई लेती हुई उस से मुक्त हो जाना चाहती है। ऐसी स्थिति में भी करुणा भरे गीत की तरह वियोग का दुख उसके हृदय को कचोट रहा है। देवसेना कहती है कि युवावस्था में तो सबकी तृष्णा भरी दृष्टि अर्थात प्यासी नजरें मेरे ऊपर फिरती रहती थी , परंतु यह मेरी आशा बावली तूने मेरी सारी कमाई हुई पूंजी नहीं खो दी।

देवसेना के कहने का तात्पर्य यह है कि जब अपने आसपास उसे सब की प्यासी नजरें दिखाई देती थी तब वह स्कंदगुप्त के प्रेम में पड़ी हुई स्वयं को उनसे बचाने की कोशिश करती रही परंतु अपनी पागल आशा के कारण वह अपने जीवन की पूंजी अपनी सारी कमाई को बचा न सकी अर्थात अपने प्रेम के बदले प्रेम और सुख उसे नहीं मिला।

मालवा की राजकुमारी  देवसेना   , राजा स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी। परंतु स्कंदगुप्त धनकुबेर की कन्या विजया को चाहता था। हुणो  के आक्रमण में देवसेना का सारा परिवार वीरगति को प्राप्त होता है। देवसेना गाना गाकर भीख मांगने लग गई है उसके जीवन की संध्या बेला आ गई है वह अपने बीते हुए समय को याद करती हुई अपनी वेदना को प्रकट करती है।

व्याख्या –

देवसेना कहती है कि मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर पहले अपने रास्ते पर चला जा रहा है मैंने अपने दुर्बल पैरों के बल पर उस प्रलय से ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रही हूं जिसमें मेरी हार सुनिश्चित है।

देवसेना कहती है कि यह संसार तुम यह अपनी धरोहर वापस लेलो मेरी करुणा हाहाकार कर रही है। यह मुझसे संभल नहीं पाएगी इसी के कारण मैंने अपने जीवन की लज्जा  को गवांया है।

भाव यह है कि देवसेना जीवन के संघर्ष से निराश हो चुकी है पहले स्वयं देवसेना के जीवन रथ पर सवार है। अब तो वह अपनी दुर्बलताओं को हारने की निश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेती रही है। उसका पूरा जीवन ही दुख में रहा है। वह करुणापूर्ण स्वर में कहती है कि अंतिम समय में हृदय की वेदना अब उससे संभल नहीं पाएगी इसी कारण उसे मन की लाज  गवानी पड़ी है।

devsena ka geet jayshankar prsad  

प्रश्न उत्तर कक्षा 12 के अनुसार

प्रश्न 1    ” मैंने भ्रमवश जीवन संचित मधुकरियो की भीख लुटाई ” – पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – देवसेना अपने विगत जीवन पर विचार करते हुए वेदना भरे अश्रु कणों को बहाते हुए याद कर रही है। मैंने किस कारण अपनी योवन अवस्था को बर्बाद कर दिया। देवसेना अपने जवानी में यह सोच कर भ्रम में थी के स्कंदगुप्त से वह जिस प्रकार प्रेम करती है स्कंदगुप्त भी उससे उतना ही प्रेम करता है। किंतु यह केवल भ्रम ही साबित हुआ। इस भ्रम के कारण उसने न जाने कितने ही प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया था। आज जब उसका भ्रम टूटा है तो वह अपने यौवन अवस्था को खो चुकी हुई होती है , अर्थात उसका सर्वस्व लुट चुका होता है।उसके पास उसका परिवार होता है और ना ही जीवन की जमा पूंजी।

प्रश्न 2 –  कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है?

उत्तर  –  कवि ने आशा को बावली इसलिए कहा है क्योंकि आशा बलवती होती है। इसमें पड़े हुआ व्यक्ति को कुछ और दिखाई नहीं देता। वह केवल भ्रम में रहता है और अपना सहारा समय भ्रम में पड़कर गवा देता है। यहां कवि ने देवसेना के प्रसंग में , आशा को बावली कहा है क्योंकि देवसेना भी भ्रम में पड़कर अपना सारा समय गवा देती है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर आकर उसे अपने जीवन में किए हुए गलतियों पर पश्चाताप होता है जिसकी क्षतिपूर्ति करना अब संभव नहीं है।

प्रश्न 3  मैंने निज दुर्बल ………………. होड लगाई।  इन पंक्तियों में  ” दुर्बल पद बल ”  और ” हारी होड़ ”  में चिन्हित व्यंजना स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर – ( व्यंजना व्याकरण के शब्द शक्ति का एक अंग है। जिसमें खीझ , टिस ,दर्द आदि की प्रतीति होती है )

कवि ने उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से देवसेना के विगत जीवन पर प्रकाश डाला है।  उसके द्वारा किस प्रकार भ्रम मैं पडकर उसने अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया। अंततोगत्वा उसे केवल हार और धोखा ही मिला। इसपर देवसेना अपने विगत जीवन पर प्रकाश डालते हुए अपने दर्द भरे क्षणों को याद करती है और एक टीस उसके हृदय में उठती है।

‘ दुर्बल पद बल से ‘
अर्थात देवसेना विषम परिस्थितियों में निराश नहीं होती और महिला होने के बावजूद भी वह परिस्थितियों से लोहा ले रही है। अपने विपत्ति के समय में भी दुर्बल शक्तियों के सहारे वह निरंतर आगे बढ़ती जा रही है और प्रलय को भी चुनौती प्रस्तुत कर रही है।

‘ हारी होड ‘ 

इस पंक्ति में भी व्यंजना परिलक्षित होता प्रतीत हो रहा है , जहां देवसेना अपने जीवन में आई हुई परिस्थितियों जो उसके जीवन रथ पर सवार होकर उसके समक्ष प्रस्तुत है , उस प्रलय से भी वह हार नहीं मान रही है और एक योद्धा की भांति उससे होड लगाई हुई है। स्वयं प्रत्यक्ष परिस्थिति से प्रतिस्पर्धा कर रही है। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी वह प्रलय से लोहा लेते हुए आगे बढ़ रही है।

प्रश्न 4  काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए। 

‘ श्रमित स्वप्न की मधुमाया ……………………………………… तान उठाई ।’ 

काव्य सौंदर्य – देवसेना का गीत ( जयशंकर प्रसाद )

भाव सौंदर्य –

कवि ने कविता के माध्यम से देवसेना के विगत जीवन पर प्रकाश डाला है। जब वह श्रम करते करते थक जाती है और अपने विगत जीवन कोई याद करती है और उसके मधुर क्षणों को याद करती है। तब उसे केवल निराशा और धोखा ही मिलता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक व्यक्ति कठिन श्रम करके घने जंगल में गहरे स्वप्न में सो रहा हो और किसी ने उसकी उस मधुर अर्ध निंद्रा को झकझोर ने का प्रयास किया हो।

अर्थात कवि देवसेना के संघर्ष भरे जीवन पर प्रकाश डालता है , और उसकी मीठी आशा , आकांक्षा और उसके स्वप्न को प्रकाशित करता है। जिसको वह प्राप्त नहीं कर पाई ऐसे समय में जब उसे जानने वाले और प्रेमी द्वारा प्रणय निवेदन स्वीकार न करने पर उसे निराशा मिलती है। इस स्थिति में वह करुणा भरे गीत गाती है जिसके कारण उसका हृदय का झकझोरता है।

शिल्प सौंदर्य –

  • माधुर्य गुण
  • लक्षणा शब्द शक्ति
  • अनुप्रास अलंकार
  • स्वप्न का मानवीकरण
  • चित्रात्मक भाषा शैली
  • सरल और स्पष्ट शब्दों का प्रयोग

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जीवन के अंतिम क्षणों में जब स्कंद गुप्त देव सेना से प्रणय निवेदन करता है देव सेना क्या करती है *?

( चर का आना, कुछ संकेत करना, दोनों का प्रस्थान, देवसेना और विजया का प्रवेश । ) विजया--यह क्या राजकुमारी! युवराज तो उदासीन हैं। देवसेना--हाँ विजया, युवराज की मानसिक अवस्था कुछ बदली हुई है।

देवसेना जीवन के अंतिम क्षण कहाँ बिताती है?

उत्तर – देवसेना अपने जीवन के अंतिम क्षणों में बहुत निराशा और दु:खी है। वह अपने जीवन की विफलता के विषय में कहती है कि उसने भ्रम में फंस कर परिश्रम से संचित अपने अनुभवों के अनाज की भीख को व्यर्थ में लुटा दिया।

देवसेना का अंतिम समय कहां और कैसे व्यक्तित्व?

प्रस्तुत पंक्ति में देवसेना की वेदना का परिचय मिलता है। वह स्कंदगुप्त से प्रेम कर बैठती है परन्तु स्कंदगुप्त के हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। जब देवसेना को इस सत्य का पता चलता है, तो उसे बहुत दुख होता है। वह स्कंदगुप्त को छोड़कर चली जाती है।

देवसेना को जीवन भर संघर्ष के बदले क्या मिला?

देवसेना निराश और दुखी होकर जीवन के उस समय को याद करती है जब उसने स्कन्दगुप्त से प्रेम किया था। उन्हीं क्षणों को याद करते हुए वह कहती है कि मैंने स्कन्दगुप्त से प्रेम किया और उन्हें पाने की चाह मन में पाली, किन्तु यह मेरा भ्रम ही था। मैंने आज जीवन की आकांक्षारूपी पूँजी को भीख की तरह लुटा दिया है।