प्राकृतिक संसाधन में क्या क्या आता है? - praakrtik sansaadhan mein kya kya aata hai?

प्रश्न 30 : प्राकृतिक संसाधन क्या हैं ? इनके संरक्षण के बारे में विस्तार से लिखिए।

उत्तर- प्राकृतिक संसाधन- प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों को मानव एवं समस्त जीवधारी अपने जीवन के लिए उपयोग करते हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं।

वातावरण के विवेकपूर्ण सदुपयोग से मानवीय रहन-सहन के लिए उच्चकोटि की सुविधाएँ जुटाने की प्रक्रिया को प्राकृतिक संसाधन संरक्षण कहते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण परिषद के वैज्ञानिक रेयमण्ड़ के अनुसार, प्रबन्धीकरण का आधार है मानव कल्याण के लिए पारिस्थितिकी नियमों के आधार पर सभी प्राकृतिक संसाधनों की निरन्तरता बनाये रखने के लिए इनका विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए, संरक्षण प्रदान करना और विकास कार्यों में इन नियमों को प्राथमिकता देना।

प्राकृतिक संसाधनों को दो समूहों में विभाजित किया गया है-

(I) पुनर्विकास योग्य संसाधन (Renewable Resources)

(II) अपुनर्विकासी संसाधन (Non-renewable Resources)

(i). नवीकरणीय या पुनर्विकास योग्य संसाधन– इस समूह के अन्तर्गत सभी जैविक घटक सम्मिलित हैं, जिनका व्यापक उपयोग किया जाता है। इन संसाधनों को उचित वातावरण प्रदान करने तथा उपयोग उपरान्त फिर से पुनर्विकसित किया जा सकता है। इन संसाधनों के संरक्षणपूर्ण उपयोग से अनेक लाभ उठाये जाते हैं। विभिन्न पुनर्विकास योग्य संसाधन निम्न प्रकार से है

(i) वन और वन प्रबन्धीकरण–वनों का हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है। अनेक आर्थिक समस्याओं का समाधान इन्हीं से होता है। ईंधन, कोयला, औषधियुक्त तेल व जड़ी-बूटी, लाख, गोंद, रबड़, चन्दन, इमारती सामान और अनेक लाभदायक पशु-पक्षी और कीट आदि वनों से प्राप्त होते हैं। परन्तु विगत पाँच-छः दशकों में वनों का अविवेकपूर्ण दोहन किया गया है। वनों के अभाव में जल, वायु और वर्षा के प्राकृतिक चक्र का अनियन्त्रित होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

अतः वन संरक्षण और विकास के लिए वर्षा ऋतु में प्रत्येक वर्ष वन महोत्सव मनाया जाता है और सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएँ उचित स्थानों पर पौधे लगाकर वन विकास में भाग लेती हैं।

वन संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिये-

(i) वनों की अन्धाधुन्ध कटाई और आर्थिक दोहन को प्रभावी कानून से रोका जाए और उल्लंघन करने वालों को कड़ी सजा दी जाए।

(ii) वन विकास कार्यक्रमों को प्राथमिकता और संरक्षण दिया जाये।

(iii) वन संरक्षण और विकास को अनिवार्य पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जाये।

(iv) प्राकृतिक वन प्रदेशों में आधुनिक उद्योगों को लगाने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागू किया जाये।

(v) वन प्रदेशों में निर्माण योजनाएँ पूर्णत: प्रतिबन्धित की जाएँ।

(vi) वन चेतना, संरक्षण और विकास के लिए उत्तर प्रदेश की भाँति सभी जिला मुख्यालयों पर 'वन चेतना' केन्द्रों की स्थापना पूरे देश में की जाए।

(vii) 'वन महोत्सव' को राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में मनाया जाये, जिसमें सभी विभागीय कर्मचारियों, शिक्षकों और विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाए।

2. वन्य जन्तु प्रबन्धीकरण- वन्य जन्तुओं का प्रबन्ध (management) जीव विज्ञान की वह प्रावस्था है, जो कि वन्य जन्तुओं का सर्वश्रेष्ठ संभवतः विकास, उपयोग एवं संरक्षण से संबंधित है। सभी जातियों के प्रबन्ध का आशय है कि कोई जाति अधिक शोषण, बीमारी या अन्य प्राकृतिक कारणों से विलुप्त (extinct) नहीं हो जाए।

वन्य जन्तु संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा रहे हैं-

(i) अभयारण्य (Sanctuaries)—

सामूहिक संरक्षण (assemblage protection) के अन्तर्गत एक ही आवास में पौधों एवं जन्तुओं की कई जातियों का साथ-साथ परिरक्षण एवं संरक्षण किया जाता है। इस कार्य हेतु आवासों का चयन किया जाता है कि उनकी पर्यावरणीय दशायें इस प्रकार रखी जाती हैं कि उनमें बाहर से भारी संख्या में प्राणी खासकर प्रवासी पक्षी भी आ सकें।

उदाहरण के लिए भारत के दिल्ली चिड़ियाघर एवं भरतपुर पक्षी विहार में दूरस्थ स्थानों (साइबेरिया) से आने वाले प्रवासी पक्षियों के लिए स्थान तथा खाद्य पदार्थों की आपूर्ति की भरपूर व्यवस्था की जाती है तथा आखेट या किसी भी प्रकार के मानवीय कार्यों से उनकी पूर्णतया सुरक्षा की जाती है।

(ii) राष्ट्रीय उद्यान (National Park)—

आवास परिरक्षण (Habitat preservation) के अन्तर्गत प्राकृतिक पारिस्थितिकी तन्त्रों एवं पारिस्थितिकीय संसाधनों की बहुमुखी रक्षा के लिए विविध प्रकार के पारिस्थितिकीय संसाधनों वाले विस्तृत क्षेत्रों को आरक्षित कर दिया जाता है। इस तरह के प्रकृति प्रारक्षण (nature reserve) को राष्ट्रीय उद्यान (national park) कहा जाता है। ऐसे राष्ट्रीय उद्यानों की बाहरी प्राणियों एवं मनुष्यों के प्रभावों से पूर्ण रक्षा की जाती है।

(iii) जैवमण्डल प्रारक्षण (Biosphere Reserve)- जीव मण्डल प्रारक्षण की संकल्पना का सामान्य तात्पर्य है प्राकृतिक आवासों में रहने वाले तथा उसमें पाये जाने वाले पौधे और जन्तुओं की रक्षा एवं संरक्षण करना।

जैवमण्डल प्रारक्षण की संकल्पना का उद्भव सन् 1971 में हुआ तथा प्रथम जीवमण्डल प्रारक्षण का अभिनिर्धारण 1976 में किया गया। 1976 के बाद से MAB द्वारा अभिनिर्धारित (identified) जैवमण्डल प्रारक्षणों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती गयी तथा 1986 के अन्त तक 70 देशों में 1986 जीवमण्डल प्रारक्षणों की स्थापना की गयी।

सन् 1974 में UNESCO तथा UNEP (United Nations Environmental Programme) के सहयोग से विशेष टास्क फोर्स का गठन किया गया जिसने जैवमण्डल प्रारक्षण की विशेषताओं का निर्धारण किया तथा उसके विभिन्न उद्देश्यों को निर्धारित किया गया।

3. जल (Water)- जल को जब सामान्य जल-चक्र से प्राप्त किया जाता है तो वह एक नवीकरणीय संसाधन है। पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जलमग्न है। सम्पूर्ण जल का 97 प्रतिशत महासागरों में है जो खारा होने के कारण हमारे काम का नहीं है। शेष 2 प्रतिशत हिमानियों और पर्वत शिखरों को आच्छादित करने वाली बर्फ के रूप में है। एक प्रतिशत जल ही हमारे पीने योग्य है जो नदियों, झीलों, तालाबों से प्राप्त होता है। अतः जल का संरक्षण एवं प्रबन्धीकरण अति आवश्यक है।

इसके लिए निम्न क्रियाओं को अपनाया जा सकता है-

(i) बेहतर कृषि प्रक्रियाएँ-

कृषि में ही जल का सर्वाधिक उपयोग होता है। जहाँ पर्याप्त वर्षा नहीं होती वहाँ कृषि सिंचाई पर आधारित होती है। किन्तु सिंचाई पर आधारित कृषि में बहुत पानी व्यर्थ हो चला जाता है। प्रमुख नुकसान वाष्पीकरण और पौधों द्वारा वाष्पोत्सर्जन के कारण होता है। बेहतर कृषि प्रक्रियाओं को अपनाकर इन नुकसानों को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

(अ) छिड़के सिंचाई में जल को महीन फुहार के रूप में छोड़ा जाता है। इसमें मिट्टी धीरे-धीरे गीली होती है।

(ब) इन कृषि प्रक्रियाओं में सिंचाई का जल भूमि के उन स्तरों में दिया जाता है जिनमें पौधों की जड़े फैलती हैं और जल को भूमि में अधिक गहराई तक जाने से रोका जाता है। वाष्पीकरण के नुकसान को भी कम करने का प्रयत्न किया जाता है।

(स) इससे भी अधिक कारगर तरीका टपक सिंचाई है। इसमें जल को बूंद-बूंद करके पौधे की जड़ों में सीधे छोड़ा जाता है।

(द) कंटूर खेती (समोच्च रेखाओं पर खेती) में इन्हें उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयत्नं किया जाता है। इस पद्धति में ढलानों पर समोच्च रेखाओं पर समतल पट्टियों में फसल उगाई जाती है। इससे ढलानों पर से बढ़ते जल का वेग भी कम हो जाता है।

(ii) जल का पुनर्पयोग– मनुष्य जल का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग करता है। इनमें से प्रत्येक के फलस्वरूप कोई न कोई मलिन पदार्थ पानी में मिल जाता है— साबुन के अवशेष, भोजन के कण, चिनाई, औद्योगिक अपद्रव्य, उर्वरक और कीटनाशक, मनुष्यों और जानवरों के शरीरों में पनपने वाले अनेक सूक्ष्म जीव आदि। इस प्रकार प्रदूषित जल को साधारणतः जलाशयों में छोड़ा जाता है। बाद में इन्हीं जलाशयों से जल को विभिन्न उद्देश्यों के लिए निकाला जाता है।

उदाहरण के लिए रसोईघर से निकले जल से बगीचों के पौधों को सींचा जा सकता है। कपड़े धोने के बाद जो जल बचता है, उससे साबुन के अवशेषों को दूर करने के लिए रेत की गड्डी में उड़ेला जा सकता है। रेत से छनकर आये जल से पौधों को सींचा जा सकता है।

इस प्रकार उपयोग किये गये जल से अनावश्यक पदार्थों को निकालकर उसका पुनउँपयोग करके हम बहुमूल्य जल-संसाधनों को बचा सकते हैं।

(II) अनवीकरणीय संसाधन– इन संसाधनों का प्रकृति में पुनस्र्थापन संभव नहीं होता है। सामान्यतः ये अजीवित वस्तुएँ हैं; जैसे–खनिज, धातुयें, जीवाश्म, ईंधन आदि।

1. खनिज सम्पदा और उसका प्रबन्धीकरण पृथ्वी की विभिन्न पर्ते अनेक प्रकार की चट्टानों से निर्मित हैं। मुख्य रूप में तीन प्रकार की चट्टानें पायी जाती हैं। पृथ्वी का आरम्भिक निर्माण सबसे प्राचीन आग्नेय चट्टानों से हुआ, तदुपरान्त तलछटीय चट्टानों की उत्पत्ति हुई थी। कालान्तर में पृथ्वी पर भौगोलिक परिवर्तन होने के कारण इन दोनों चट्टानों के उलटफेर होने से तीसरे प्रकार की रूपान्तरित चट्टानें बनी हैं। वास्तव में ये सभी चट्टानें अनेक प्रकार के खनिज मिश्रण से निर्मित हुई हैं। स्वर्ण, लौह, चांदी, तांबा, जिंक, एल्यूमीनियम, धातु, संगमरमर, कोयला, पत्थर, मिट्टी का तेल, पैट्रोलियम आदि खनिज सम्पदा चट्टानों से प्राप्त की जाती हैं।

खनिज चक्रों की मन्दिम गति के अनुपात में आधुनिक खनन प्रक्रिया अत्यधिक तेज गति से चल रही है। परिणामस्वरूप खनिज भण्डार प्रतिदिन घटते जा रहे हैं और निकट भविष्य में अनेक खनिज भण्डार बिल्कुल समाप्त हो जायेंगे।

संरक्षण एवं प्रबन्धन– (i) खनिज सम्पदा की घटती स्थिति से उत्पन्न संकट से बचने के लिए खनिज पदार्थों के अन्धाधुन्ध खनन को प्रतिबन्धित किया गया है।

(ii) सम्पूर्ण खनिज पदार्थों के भण्डारों और उनके चक्रों की जानकारी के अनुसार खनन उपयोग को योजनाबद्ध किया गया है।

2. ऊर्जा एवं उसका प्रबन्धीकरण- जीवन के संचार के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा प्राप्ति के अनेक स्रोत हैं जैसे-कोयला, पैट्रोलियम, सौर ऊर्जा, आण्विक ऊर्जा तथा प्राकृतिक गैसें हैं। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक मात्रा में सिंचाई के उपकरण तथा उर्वरकों (fertilizers) को विकसित करने के लिए शहरीकरण में वृद्धि तथा कच्ची सामग्री में कमी को देखते हुए ऊर्जा के संरक्षण की आवश्यकता प्रतीत हुई है।

प्राथमिक तौर पर कोई भी ऊर्जा स्रोत पुनर्विकास योग्य (renewable) अथवा अपुनर्विकास योग्य (non-renewable) हो सकता है। पुनर्विकास योग्य ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा, हवा, तापीय, जल ऊर्जा को शामिल किया गया है जबकि अपुनर्विकास योग्य संसाधनों में कोयला, तेल, गैस तथा आण्विक ऊर्जा-संसाधन आते हैं।

संरक्षण-

(i) पुनः विकास योग्य संसाधनों का अधिकतम उपयोग तथा अपुनर्विकास योग्य संसाधनों का संरक्षण किया जाए तथा मितव्ययिता से उपयोग किया जाये।

(ii) खेतों, मेड़ों तथा अन्य भूमि पर तेजी से बढ़ने वाले पेड़ों को लगाकर ऊर्जा के संकट को कम किया जा सकता है।

(iii) सौर ऊर्जा का उपयोग किया जाये।

(iv) गैसोलीन में 20 प्रतिशत तक एथेनॉल मिलाकर उसकी खपत में कमी लाई जा सकती है।

(v) ऊर्जा की खेती (cultivation of energy) द्वारा भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है।

(vi) पैट्रोल गवेषण (exploration) के कार्यों में तेजी लाई जाये।

3. मिट्टी (मृदा) एवं भू-संरक्षण का प्रबन्धीकरण- हमारे देश में मिट्टी एवं भू-संरक्षण की दिशा में सन्तोषजनक प्रगति हुई है और सभी राज्यों में भूमि संरक्षण और मृदा परीक्षण प्रयोगशालाएँ किसानों को आवश्यक वैज्ञानिक जानकारी दे रही हैं।

इसके अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार द्वारा अनेक भूमि संरक्षण और मिट्टी विकास और शोध योजनाएँ चलाई जा रही हैं। परिणामस्वरूप विगत 10 वर्षों में भूमि के उचित प्रबन्धीकरण (management) और उपयोग से कृषि (agriculture), बागवानी (horticulture) और वन-विकास (forestry) में आश्चर्यजनक प्रगति हो रही है।

मानव की अनेक अविवेकपूर्ण गतिविधियों; जैसे-अत्यधिक पशु चराई, वन कटाव और अन्य प्राकृतिक वनस्पतियों के विनाश आदि से यह सन्तुलन बिगड़ जाता है और हजारों वर्षों में निर्मित मृदा (Soil) मात्र कुछ वर्षों में नष्ट हो जाती है। केन्द्रीय अमेरिका, फारस, उत्तरी चीन और भारत सहित सिन्धु घाटी के देशों में अनेक प्राचीन और वैभवशाली हरे-भरे प्रदेश आज मात्र मरुस्थलों में परिवर्तित हो गये हैं।

संरक्षण उपाय-

मिट्टी और भूमि के विकास और संरक्षण के लिए मुख्य रूप में जल और वायु की मुख्य भूमिका है, जिनका उचित नियंत्रण और प्रबन्धीकरण अति आवश्यक है। यह बात भी उभर कर सामने आई है कि जल और वायु प्रवाह और वेग को नियन्त्रित करने का एक मात्र प्राकृतिक उपाय पर्याप्त वन पेड़-पौधों का विकास है। अन्य प्रभावकारी उपाय निम्न हैं

(i) यथासंभव वनों का विकास किया जाए, विशेषकर पहाड़ों और ढलानदार क्षेत्रों में स्थायी और विशाल वृक्ष लगाये जाएँ।

(ii) बाढ़-नियंत्रण का प्रबन्ध करके तटवर्ती कटाव रोका जाए।

(iii) पहाड़ी क्षेत्रों में चट्टानों को नष्ट न किया जाये।

(iv) मरुस्थलों में वर्षा जल को नहरों से सींचकर वृक्षों का विकास किया जाये।

(v) भूमि की मूल संरचना बनाये रखने के लिये चक्रीय खेती अर्थात् फसलों को उलट-पलट कर बोया जाये।

(vi) चारागाह पर अनियन्त्रित चराई नहीं कराई जाये।

(vii) वायु द्वारा मिट्टी का कटाव रोकने के लिए खेतों को पास-पास (निकट) बनाना चाहिये ।

(viii) समुद्र किनारे के मूल वृक्षों का विकास किया जाये।

(ix) समुद्री जल को रासायनिक पदार्थों और अन्य प्रदूषकों से मुक्त रखा जाये।

(x) तटवर्ती क्षेत्र को बचाने के लिए समुद्र के किनारे कठोर चट्टानों और पत्थरों के बाँध बाँधे जाएँ।

4. जल संसाधन एवं उनका प्रबन्धीकरण - भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में आज भी अनेक क्षेत्रों में मानव उपयोगी पीने योग्य जल की भारी कमी है। इसके अतिरिक्त 10 प्रतिशत से अधिक प्राकृतिक स्वच्छ जल संसाधन अत्यधिक प्रदूषित हो गये हैं और उनका जल भी मानव उपयोगी अथवा कृषि के लिए सुरक्षित नहीं है।

हमारे देश में पर्यावरण और पारिस्थितिकी मन्त्रालय ने जल संरक्षण के लिए प्रभावी कानून बनाये हैं। गंगा नदी को स्वच्छ रखने के लिए अभियान गंगा प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा संचालित किया जा रहा है। वर्तमान में नदी पुलिस का भी गठन किया गया है जो नदी को प्रदूषित करने वालों के विरुद्ध तुरन्त कार्यवाही करेगी। इसी प्रकार जल के उचित प्रबन्धीकरण के लिए जल निगम, सिंचाई और नहर विभाग भी कार्यरत हैं। बाढ़ नियंत्रण और जल विकास की योजनाएँ बनाई गई हैं।

जल संरक्षण के लिए मुख्य उपाय निम्न हैं -

(i) जल के महत्त्व और संरक्षण की आवश्यकता को जल-चेतना के रूप में प्रत्येक स्तर पर प्रसारित किया जाना चाहिए।

(ii) नगर का गन्दा पानी, कचरा सीधे नदी या झील में न छोड़कर आधुनिक जल स्वच्छीकरण या जल शोधन उपकरणों (water treatment plants) के माध्यम से परिशोधन के बाद प्राकृतिक जल में छोड़ा जाना चाहिये। इस संदर्भ में हरिद्वार, बनारस और वाराणसी में अनेक जल शोधन उपकरण (संयंत्र) लगाये गये हैं, जिनमें नगर के गन्दे पानी की अशुद्धियाँ दूर करके स्वच्छ जल गंगा में डाल दिया जाता है और कूड़ा-कचरा पृथक्, कर दिया जाता है।

(iii) जल प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत भारी कारखाने हैं, जिनका अपशिष्ट (Effluent) जल का भयंकर प्रदूषण करता है। सरकारी स्तर पर अनेक कानून बनाये गये हैं, जिनको प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिये।

(iv) सूखे, रेगिस्तानी क्षेत्रों में पहाड़ी और ढलाव वाले क्षेत्रों के वर्षा जल को नहरों से भण्डारण करके शनैः-शनैः वन विकास किया जाना चाहिए। राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में इन्दिरा गांधी नहर इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।

(v) दलदल वाले क्षेत्रों, झीलों और पोखरों की सुरक्षा आवश्यक है और इनका भराव रोकना चाहिए। काश्मीर की प्रसिद्ध डल झील में गृह निर्माण, घरेलू कचरा और अन्य बहाव आदि कारणों से मूल क्षेत्रफल 19.6 वर्ग किमी. से घटकर मात्र 11.7 वर्ग किमी. रह गया है। यदि यह गति निर्बाध रही तो अगले 50-60 वर्षों में डल झील एक सूखा मैदान बन सकती है।

10 प्राकृतिक संसाधन कौन

तेल, कोयला, प्राकृतिक गैस, धातु, पत्थर और रेत प्राकृतिक संसाधन हैं। अन्य प्राकृतिक संसाधन हवा, धूप, मिट्टी और पानी हैं। पशु, पक्षी, मछली और पौधे भी प्राकृतिक संसाधन हैं। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग माल के उत्पादन के लिए भोजन, ईंधन और कच्चा माल बनाने के लिए किया जाता है।

प्राकृतिक संसाधन कितने प्रकार के होते हैं?

ऐसे संसाधन जो उपयोग करने के लिये परोक्ष रूप से प्रकृति से प्राप्त होते हों, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं, जिनमें वायु, पानी जो वर्षा, झीलों, नदियों और कुओं द्वारा मृदा, भूमि, वन, जैवविविधता, खनिज, जीवाश्मीय ईंधन इत्यादि शामिल हैं। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधन हमें पर्यावरण से प्राप्त होते हैं

प्राकृतिक संसाधन के 7 प्रकार क्या हैं?

प्राकृतिक संसाधनों में तेल, कोयला, प्राकृतिक गैस, धातु, पत्थर और रेत शामिल हैं। हवा, धूप, मिट्टी और पानी अन्य प्राकृतिक संसाधन हैं। इस प्रकार, प्राकृतिक संसाधन मूल्यवान हैं क्योंकि उनका उपयोग जीवन का समर्थन करने और लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है।

प्राकृतिक साधन क्या है उदाहरण सहित?

Solution : ये प्राकृतिक साधन जिनका उपयोग मनुष्य अपने भोजन और विकास के लिए करता है, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। वायु, जल, मिट्टी, खनिज, ऊजो, इंधन के स्रोत जैसे कोयला, पेट्रोलियम इत्यादि हमारे प्राकृतिक संसाधन हैं।