जातिप्रथा मनुष्य को जीवनभर के लिए एक ही पेशे में बांध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया तथा तकनीक में निरंतर विकास और अकस्मात् परिवर्तन होने के कारण मनुष्य को पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है। किन्तु, भारतीय हिन्दू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को पारंगत होने के बावजूद ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है। Show Solution : जाति-प्रथा के कारण लोग अरुचि से काम करने के लिए विवश होते हैं । अरुचि से किये गए कार्य में कुशलता आ नहीं पाती । इसलिए परवरिश के लायक आमदनी भी नहीं हो पाती । जाति आधारित रोजगार के कारण रुचि रहने पर भी लोग दूसरे-तीसरं धंधे को अपना नहीं पाते । फलतः बेरोजगारी के शिकार नवयुवक जीवन-जगत में भटकने के लिए मजबूर होते हैं। इस प्रकार जाति-प्रथा भारत के लिए बेरोजगारी का प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है १९वीं शताब्दी में भारत में जाति का स्वरूप
हरिजनों के सामाजिक उत्थान के लिए महात्मा गांधी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। यह चित्र १९३३ का है जब वे मद्रास में थे। गांधीजी अपने लेखों में और अपनी भाषणों में दलित लोगों के पक्ष में बोलते थे। जाति-प्रथा प्राचीन हिन्दू समाज की एक प्रमुख विशेषता है। किन्तु यह कब और कैसे शुरू हुई, इस पर अत्यन्त मतभेद है। आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां कैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विकसित की गई थी। इसका विकास उस समय किया गया था जब सूचना दुर्लभ थी और इस पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा था। यह 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुस्मृति और ऋगवेद जैसे धर्मग्रंथों की मदद से किया गया था। 19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई।[1] जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत मे नही बल्कि मिस्र , यूरोप आदि मे भी अपेक्षाकृत क्षीण रूप मे विदयमान थी। 'जाति' शब्द का उदभव पुर्तगाली भाषा से हुआ है। पी ए सोरोकिन ने अपनी पुस्तक 'सोशल मोबिलिटी' मे लिख है, " मानव जाति के इतिहास मे बिना किसी स्तर विभाजन के, उसने रह्ने वाले सदस्यो की समानता एक कल्पना मात्र है।" तथा सी एच फूले का कथन है "वर्ग - विभेद वशानुगत होता है, तो उसे जाति कह्ते है "। इस विष्य मे अनेक मत स्वीकार किए गए है।मत के अनुसार यह पारिवारीक व्यवसाय से उत्त्पन हुई है। साम्प्रादायिक मत के अनुसार जब विभिन्न सम्प्रदाय संगठित होकर अपनी अलग जाति का निर्माण करते हैं, तो इसे जाति प्रथा की उत्पत्ति कहते हैं। परम्परागत मत के अनुसार यह प्रथा भगवान द्वारा विभिन्न कार्यों की दृष्टि से निर्मेत की गए है।[1] कुछ लोग यह सोचते है कि मनु ने "मनु स्मृति" में मानव समाज को चार श्रेणियों में विभाजित किया है, ब्राहमण , क्षत्रिय , वेश्य और शुद्र। विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लंबे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे कुछ दोष भी आते गए। इसका सबसे बङा दोष छुआछुत की भावना है। परन्तु शिक्षा के प्रसार से यह सामाजिक बुराई दूर होती जा रही है। जाति प्रथा की कुछ विशेषताएँ भी हैं। श्रम विभाजन पर आधारित होने के कारण इससे श्रमिक वर्ग अपने कार्य मे निपुण होता गया क्योकि श्रम विभाजन का यह कम पीढियो तक चलता रहा था। इससे भविष्य - चुनाव की समस्या और बेरोजगारी की समस्या भी दूर हो गए। तथापि जाति प्रथा मुख्यत: एक बुराई ही है। इसके कारण संकीर्णना की भावना का प्रसार होता है और सामाजिक , राष्ट्रिय एकता मे बाधा आती है जो कि राष्ट्रिय और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। बङे पेमाने के उद्योग श्रमिको के अभाव मे लाभ प्राप्त नही कर सकते। जाति प्रथा में बेटा पिता के व्यवसाय को अपनाता है , इस व्यवस्था मे पेशे के परिवर्तन की सन्भावना बहुत कम हो जाती है। जाति प्रथा से उच्च श्रेणी के मनुष्यों में शारीरिक श्रम को निम्न समझने की भावना आ गई है। विशिष्टता की भावना उत्पन्न होने के कारण प्रगति कार्य धीमी गति से होता है। यह खुशी की बात है कि इस व्यवस्था की जङे अब ढीली होती जा रही है। वर्षो से शोषित अनुसूचित जाति के लोगो के उत्थान के लिए सरकार उच्च स्तर पर कार्य कर रही है। संविधान द्वारा उनको विशेष अधिकार दिए जा रहे है। उन्हे सरकारी पदो और शैक्षणिक संस्थानो में प्रवेश प्राप्ति में प्राथमिकता और छूट दी जाती है। आज की पीढी का प्रमुख कर्त्तव्य जाति - व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता , एकाधिकार , विद्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते है। वर्गहीन एवं गतिहीन समाज की रचना के लिए अन्तर्जातीय भोज और विवाह होने चाहिए। इससे भारत की उन्नति होगी और भारत ही समतावादी राष्ट्र के रूप मे उभर सकेगा। सन्दर्भ[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
भारत में जाति प्रथा का मुख्य कारण क्या है ?`?भारत में जाति प्रथा का सबसे मुख्य कारण यहाँ की सामाजिक वर्ण व्यवस्था थी, जो किसी अच्छे उद्देश्य के लिए स्थापित की गई थी, लेकिन उसने विकृत रूप धारण कर लिया और भारत में जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई। भारत में वर्ण व्यवस्था के तहत समाज को चार वर्गों में बांटा गया था, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये चार वर्ग थे।
जाति प्रथा भारत के बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है?उतर:- जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है क्योंकि भारतीय समाज में श्रम विभाजन का आधार जाति है चाहे श्रमिक कार्य कुशल हो या नहीं उस कार्य में रुचि रखता हो या नहीं इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब श्रमिकों कार्य करने में न दिल लगे ना दिमाग तो कोई कार्य कुशलता पूर्वक कैसे प्राप्त कर सकता है यही ...
भारत में जातियों का निर्माण कैसे हुआ?भारत में जाति की उत्पत्ति आर्यों के आगमन के बाद हुई. प्रत्येक कार्य और व्यवस्था के पीछे एक कारण और सम्बन्ध होता है. ऐसा ही सम्बन्ध जाति और उसकी व्यवस्था के पीछे है. जाति व्यवस्था को आर्यों ने बनाया.
भारत में जाति प्रथा की शुरुआत कब हुई?भारत में कठोर जाति प्रथा का सूत्रपात कोई 1,575 साल पहले हुआ. गुप्त साम्राज्य ने लोगों पर कठोर सामाजिक प्रतिबंध लगाए थे. उससे पहले लोग निरंकुश तरीके से आपस में घुलते-मिलते और शादी-ब्याह करते थे.
|