गूगल कॉकरोच को हिंदी में क्या कहते हैं? - googal kokaroch ko hindee mein kya kahate hain?

संयुक्त या संधित उपांगों (jointed appendages) की उपस्थिति आर्थ्रोपोडा का विशिष्ट लक्षण होता है। आदर्श रूप से तो प्रत्येक खण्ड पर एक जोड़ी उपांग होने चाहिएँ, परन्तु वयस्क कॉकरोच में इनकी संख्या कम–केवल सिर में चार तथा वक्ष में तीन जोड़ियाँ होती हैं।


सिर के उपांग (Cephalic Appendages)
कॉकरोच के सिर में चार जोड़ी उपांग होते हैं—ऐन्टिनी, मैन्डीबल्स, प्रथम मैक्सिली तथा द्वितीय मैक्सिली

ऐन्टिनी या शृंगिकाएँ (Antennae) : ये शरीर से भी लम्बी एवं पतली, धागेनुमा गतिशील उपांग होती हैं जो स्पर्श (tactile), गंध (olfactory) एवं ताप (thermal) उद्दीपनों को ग्रहण करने का कार्य करती हैं। इन्हें स्पर्श-सूत्र भी कहते हैं। प्रत्येक antennae अपनी ओर के संयुक्त नेत्र के निकट एक पृष्ठतलीय एन्टिनल गड्ढे (antennal socket) से निकलती है। यह बहुत से छोटे-छोटे खण्डों, अर्थात् पोडोमीयर्स (podomeres) की बनी होती है। सबसे पहला, आधार (basal) पोडोमीयर बड़ा होता है। इसे स्केप (scape) कहते हैं। दूसरा बेलनाकार होता है। इसे पेडिसल (pedicel) कहते हैं। शेष लम्बे भाग को कशाभ (flagellum) कहते हैं। इस पर स्पर्श संवेदना के लिए अनेक संवेदी सीटी (sensory setae) होती हैं।

मुख उपांग (Mouth Parts) : सिर के शेष तीन जोड़ी उपांग छोटे और मुखद्वार के चारों ओर स्थित होते हैं। सिर कोष की लैब्रम (labrum) तथा हाइपोफैरिक्स (hypopharynx) नाम की एक अन्य काइटिनयुक्त रचना भी मुखद्वार से सम्बन्धित होती हैं। इन सब उपांगों का सम्बन्ध भोजन ग्रहण से होता है। अतः इन्हें मुख उपांग या मुखांग कहते हैं। ये भोजन को कुतर-कुतरकर खाने के लिए उपयोजित (biting and chewing type), अर्थात् मैन्डीबुलेट (mandibulate) होते हैं। मुखद्वार के चारों ओर ये नीचे चित्र में दिखाए गए क्रम में स्थित रहते हैं।


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लैब्रम (Labrum) : यह मुखद्वार पर, सामने ढकी, सिर कोष की सबसे निचली, चपटी एवं गतिशील, प्लेटनुमा स्कलीराइट होती है। अतः इसे ऊपरी होंठ (upper lip) भी कहते हैं। यह लचीली पेशियों द्वारा क्लाइपियस से जुड़ी होती है। इसका स्वतन्त्र किनारा बीच से कटा होता है। कटाव के दोनों ओर स्वाद-ज्ञान (gustatory sense) की संवेदी सीटी (setae) होती हैं।
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मैन्डीबल्स (Mandibles) : ये लैब्रम के नीचे, मुखद्वार के पार्श्वों में एक-एक होते हैं। कुछ मजबूत पेशियाँ इन्हें सिर-कोष से जोड़ती हैं। प्रत्येक मैन्डीबल कठोर काइटिन की त्रिकोणाकार-सी रचना होती है। इसके मुख की ओर वाले किनारे पर तीन बड़े और कई छोटे-छोटे मजबूत दाँतों जैसे नुकीले उभार (denticles) होते हैं। इसी किनारे के आधार कोण पर प्रोस्थीका (prostheca) नामक छोटा सा कोमल भाग होता है जिस पर संवेदी सीटी होती हैं। पेशियों की सहायता से मैन्डीबल्स अनुप्रस्थ दिशा में गतिशील होकर दाँतों के बीच आए भोजन को चबाते हैं।

प्रथम मैक्सिली (First Maxillae) : ये मुखद्वार के पार्श्वों में, मैन्डीबल्स के आगे एक एक होती हैं। प्रत्येक मैक्सिला कई पोडोमीयर्स (podomeres) की बनी होती है। इसके आधार भाग, अर्थात् प्रोटोपोडाइट (proto podite) में कार्डो (cardo) एवं स्टाइप्स (stipes) नामक दो पोडोमीयर्स होते हैं। कार्डो पेशियों द्वारा सिर-कोष से तथा स्टाइप्स 90° के कोण पर कार्डो से जुड़ा होता है। स्टाइप्स के दूरस्थ छोर के बाहरी भाग से एक पतला five-jointed बाह्य पादांग (exopodite) जुड़ा होता है। इसे मैक्सिलरी स्पर्शक (maxillary palp) कहते हैं। इसके छोटे आधार पोडोमीयर को पैल्पीफर (palpifer) कहते हैं। स्टाइप्स के छोर से ही जुड़ा एक अन्तःपादांग (endopodite) होता है। इसमें परस्पर सटी दो पोडोमीयर्स होती हैं—बाहरी गैलिया (galea) तथा भीतरी लैसीनिया (lacinia)। गैलिया कोमल तथा आगे से चौड़ी, hood जैसी होती है। लैसीनिया कठोर तथा आगे से नुकीली, पंजेनुमा होती है। इसके सिरे पर दो कण्टिकाएँ तथा भीतरी किनारों पर अनेक नन्हें शूक (bristles) होते हैं। इनके द्वारा प्रथम मैक्सिली भोजन को उस समय पकड़े रहती हैं जब मैन्डीबल्स भोजन को चबाते हैं। लैसीनिया के शूकों द्वारा मैक्सिली, ब्रुश की भाँति, अन्य मुख उपांगों की सफाई भी करती रहती हैं।

द्वितीय मैक्सिली (Second Maxillae) : ये समेकित होकर एक सहरचना बनाती हैं जिसे लेबियम (labium) या निचला होंठ (lower lip) कहते हैं, क्योंकि यह मुखद्वार के अधरतल पर ढका होता है। इसका आधार भाग बड़ा-सा चपटा सबमेन्टम (submentum) होता है जो इसे सिर कोष से जोड़ता है। सबमेन्टम के आगे छोटा मेन्टम (mentum) इससे जुड़ा होता है।
लेबियम का शेष, शिखर भाग, प्रथम मैक्सिली की ही तरह की एक जोड़ी रचनाओं का बना होता है जिनके आधार भाग मिलकर प्रीमेन्टम (prementum) बनाते हैं। सबमेन्टम, मेन्टम और प्रीमेन्टम मिलकर लेबियम का प्रोटोपोडाइट बनाते हैं।
प्रीमेन्टम के प्रत्येक पार्श्व में एक पैल्पीजर (palpiger) नामक स्कलीराइट होती है। इससे एक त्रिखण्डीय (three jointed) बाह्यपादांग (exopodite) जुड़ा होता है जिसे लेबियल स्पर्शक (labial palp) कहते हैं। प्रीमेन्टम के छोर पर, मध्य भाग से लगे, दो छोटे ग्लोसी (glossae) तथा बाहरी भागों से लगे एक-एक बड़े पैराग्लोसी (paraglossae) नामक पोडोमीयर्स होते हैं। ये मिलकर इन मैक्सिली के अन्त:पादांग (endopodites) बनाते हैं। इन्हें मिलाकर लिगूला (ligula) कहते हैं। पैल्प्स के अन्तिम खण्डों तथा पैराग्लोसी पर स्पर्श एवं स्वाद-ज्ञान की संवेदी सीटी होती हैं।

यदि मैन्डीवल्स, प्रथम मैक्सिली या द्वितीय मैक्सिली में से किसी भी मुख उपांग को काटकर हटा दें तो कॉकरोच की भोजन ग्रहण की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। यह न तो भोजन को ठीक से कुतर-कुतरकर खा पाएगा और न ही भोजन के स्पर्श, गन्ध आदि उद्दीपनों को ग्रहण कर पाएगा। इस प्रकार, उपयुक्त पोषण के अभाव में इसकी मृत्यु हो सकती है।

हाइपोफैरिंक्स या लिंग्वा (Hypopharynx or Lingua) : यह लेबियम के पृष्ठतल पर, लैब्रम से ढका, प्रथम मैक्सिली के बीच में, मुखद्वार के छोर से यह लेबियम लगा हुआ बेलनाकार-सा मुख उपांग होता है। इसके स्वतन्त्र छोर पर अनेक संवेदी सीटी होती हैं। आधार भाग पर सहलार नलिका (common salivary duct) का छिद्र होता है।



वक्ष उपांग (Thoracic Appendages)
वक्ष भाग के तीन खण्डों की प्ल्यूराइट्स से जुड़े तीन जोड़ी लम्बे, पार्श्व उपांग चलन-पाद (walking legs) होते हैं। इन्हीं के द्वारा कॉकरोच तेजी से दौड़ता है। रचना में छहों पाद समान होते हैं।
प्रत्येक में पाँच प्रमुख पोडोमीयर्स आधार से शिखर की ओर क्रमशः होते हैं—
  1. लम्बा व चौड़ा कॉक्सा (coxa) जो चल-सन्धि (movable joint) द्वारा अपनी ओर के प्ल्यूराइट (pleurite) से जुड़ा रहता है।
  2. कॉक्सा पर स्वतन्त्र हिलने-डुलने वाला छोटा-सा ट्रोकैन्टर (trochanter) होता है।
  3. लम्बी बेलनाकार एवं चल फीमर (femur)
  4. फीमर से लम्बी, परन्तु पतली टिबिया (tibia)
  5. लम्बा व पतला टारसस (tarsus) जो स्वयं पाँच खण्डों या टारसोमीयर्स (tarsomeres) का बना होता है।
  6. अन्तिम टारसोमीयर के शिखर पर प्रीटारसस (pretarsus) नामक रचना होती है। इसमें दोनों ओर एक-एक काँटेनुमा पंजा (claw) होता है तथा बीच में एक शूकयुक्त, ऐरोलियम (arolium) नामक, चौड़ी-सी चिपचिपी गद्दी। पूरे पाद पर नन्हीं, काँटेनुमा सीटी होती हैं।
टारसस के विभिन्न खण्डों के बीच प्लैन्टुली (plantulae) नामक छोटी-छोटी चिपचिपी गद्दियाँ (adhesive pads) होती हैं। इन गद्दियों और ऐरोलियम की सहायता से कॉकरोच चिकनी सतहों पर चल सकता है तथा दीवारों आदि पर चढ़-उतर सकता है।

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उदर उपांग (Abdominal Appendages)
उदर के खण्डों पर पार्श्व उपांग नहीं होते, लेकिन पश्च छोर पर, जनन छिद्र से सम्बन्धित, छोटी-छोटी रचनाएँ होती हैं। ये नर व मादा में भिन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त, नर व मादा दोनों में, 10वीं टरगाइट के पश्च छोर से लगी, एक जोड़ी, बहुखण्डीय गुद पुच्छकाएँ या लूम (anal cerci) होती हैं। लूमों पर महीन संवेदी रोम होते हैं जो ध्वनि उद्दीपनों को ग्रहण करते हैं। नर में 9वें उदरखण्ड की स्टरनाइट से लगी एक जोड़ी छोटी व नुकीली, काँटेनुमा गुद कण्टिकाएँ (anal styles) भी होती हैं। ये खण्डयुक्त नहीं होतीं है।

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कॉकरोच के पंख (Wings)

कॉकरोच में उड़ने के लिए दो जोड़ी पंख होते हैं। ये मादा में शरीर के पश्च छोर तक तथा नर में इसके और भी पीछे तक फैले होते हैं। पहली जोड़ी के पंख वक्ष के मीसोथोरैक्स तथा दूसरी के मेटाथोरैक्स की टरगाइट्स के अग्र भागों से जुड़े रहते हैं। पहली जोड़ी के पंख सँकरे, मोटे, कठोर एवं चिम्मड़ (leathery) तथा दूसरी के चौड़े, महीन, कोमल एवं झिल्लीनुमा होते हैं। विश्रामावस्था में दूसरी जोड़ी के पंख इस प्रकार तहे रहते हैं कि पहली जोड़ी के पंख इन्हें तथा पूरे उदर भाग को ढके रहते हैं। इसीलिए, पहली जोड़ी के पंखों को ढापन पंख या एलाइट्रा या टेगमाइना (wing covers or elytra or tegmina) कहते हैं। 

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पंख त्वचा के ही महीन भंज (fold) होते हैं, लेकिन इनमें एपिडर्मिस लगभग समाप्त हो जाती है और केवल उपचर्म (cuticle) की दोहरी परत रह जाती है। इन परतों के बीच में महीन शाखान्वित नलिकाओं का जाल होता है। इन्हें शिराएँ या नरव्यूर्स (veins or nervures) कहते हैं। ये देहगुहा (हीमोसील, haemo coel) से जुड़ी होती हैं। अतः इनमें देहगुहीय द्रव्य (हीमोलिम्फ, haemolymph) का परिसंचरण होता रहता है। प्रत्येक नलिका में एक वायुनाल (trachea) तथा तन्त्रिका भी होती है। 

कॉकरोच को हिंदी में क्या बोला जाता है?

गिने-चुने ही बता पाएंगे कि यह कीट हिंदी में "तिलचट्‌टा' कहलाता है और हाल के दौर में बोलचाल या लेखन में तिलचट्‌टा शब्द का प्रयोग करने वाले लोगों की संख्या नगण्य ही होगी। तिलचट्‌टा बना है "तेल+चाट+आ' से, यानी तेल चाटने वाला। रसोई में मंडराने के कारण इसका यह नाम पड़ा होगा।

कॉकरोच कैसे सांस लेता है?

दरअसल, कॉकरोच अपनी नाक से सांस नहीं लेते हैं. बल्कि उनके शरीर में कई सारे छोटे-छोटे छिद्र होते हैं. इन्हीं छिद्रों से वह सांस लेते हैं. इस वजह से वह सिर कटने के बाद भी जिंदा रहते हैं.

कॉकरोच के काटने से क्या होता है?

इसका कारण कॉकरोच में पाया जाने वाला सैलमोनेला नामक वायरस होता है। कॉकरोच के मुंह से एक तरह का लार निकलता है जिसके कारण आपको एलर्जी, रैशेज, आंखो से पानी आना, लागातर छींक आना जैसी कई समस्याएं हो सकती है।

कॉकरोच की आयु कितनी होती है?

कोकरोच की उम्र कितनी होती है? कॉकरोच (तिलचट्टे) इस ग्रह पर सबसे पुराने जीवित कीटों में से एक हैं। नर कॉकरोच का वयस्क जीवनकाल लगभग १६० दिनों का होता है जबकि मादा कॉकरोच का अनुमानित वयस्क जीवन काल १८० दिनों का होता है ।