फिल्म जब सिनेमा ने बोलना सीखा के निर्देशक कौन थे? - philm jab sinema ne bolana seekha ke nirdeshak kaun the?

These NCERT Solutions for Class 8 Hindi Vasant Chapter 11 जब सिनेमा ने बोलना सीखा Questions and Answers are prepared by our highly skilled subject experts.

Class 8 Hindi Chapter 11 जब सिनेमा ने बोलना सीखा Textbook Questions and Answers

पाठ से

प्रश्न 1.
जब पहली बोलती फिल्म प्रदर्शित हुई तो उसके पोस्टरों पर कौन-से वाक्य छापे गए? उस फिल्म में कितने चेहरे थे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पहली बोलती फिल्म के पोस्टरों पर ये वाक्य छापे गए थे-‘सभी सजीव हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा इंसान ज़िदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’ उस फ़िल्म में 78 चेहरे थे।

प्रश्न 2.
पहला बोलता सिनेमा बनाने के लिए फिल्मकार अर्देशिर एम. ईरानी को प्रेरणा कहाँ से मिली? उन्होंने आलम आरा फिल्म के लिए आधार कहाँ से लिया? विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
पहला बोलता सिनेमा बनाने के लिए फ़िल्मकार अर्देशिर एम. ईरानी को 1929 में हालीवुड की एक बोलती फ़िल्म ‘शो बोट’ से मिली। उन्होंने आलम आरा फ़िल्म बनाने के लिए पारसी रंगमच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाया। गानों के लिए अर्देशिर ने स्वयं की धुनें चुनीं। पटकथा भी नाटक के आधार पर तय की गई।

प्रश्न 3.
विठ्ठल का चयन आलम आरा फिल्म के नायक के रूप में हुआ लेकिन उन्हें हटाया क्यों गया? विट्ठल ने पुनः नायक होने के लिए क्या किया? विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं, इसी कमी के कारण उन्हें हटाया गया। विट्ठल ने अपना हक पाने के लिए मुकदमा किया। उनका मुकदमा उस समय के मशहूर वकील मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा। विट्ठल जीत गए और भारत की पहली सवाक् फ़िल्म के नायक बने।

प्रश्न 4.
पहली सवाक् फ़िल्म के निर्माता-निदेशक अर्देशिर को जब सम्मानित किया गया तब सम्मानकर्ताओं ने उनके लिए क्या कहा था? अर्देशिर ने क्या कहा ? और इस प्रसंग में लेखक ने क्या टिप्पणी की हैं? लिखिए।
उत्तर:
‘आलम आरा’ के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर जब अर्देशिर को सम्मानित किया था तो सम्मानकर्ताओं ने उनको ‘भारतीय फिल्मों का पिता’ कहा था। अर्देशिर ने उस मौके पर कहा था-‘मुझे इतना बड़ा खिताब देने की ज़रूरत नहीं है’ मैंने तो देश के लिए अपने हिस्से का ज़रूरी योगदान दिया है।” लेकर ने इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए अर्देशिर को विनम्र बताया है।

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पाठ से आगे

प्रश्न 1.
मूक सिनेमा में संवाद नहीं होते, उसमें दैहिक अभिनय की प्रधानता होती है। पर, जब सिनेमा बोलने लगा उसमें अनेक परिवर्तन हुए। उन परिवर्तनों को अभिनेता, दर्शक और कुछ तकनीकी दृष्टि से पाठ का आधार लेकर खोजें, साथ ही अपनी कल्पना का भी सहयोग लें।
उत्तर:
जब सिनेमा बोलने लगा तो उसमें संवादों को महत्त्व मिला। इसी कारण से पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों को महत्त्व मिलने लगा। विट्ठल उर्दू ठीक से नहीं बोल पाते थे इसीलिए उन्हें हटाकर मेहबूब को नायक बनाने का प्रयास किया गया था।

कई सामाजिक विषयों वाली फिल्में भी बनीं। एक फिल्म ‘खुदा की शान’ बनी जिसमें एक किरदार महात्मा गाँधी जैसा था। फिल्मों का जन-जीवन पर भी प्रभाव पड़ने लगा।

तकनीकी दृष्टि से काफी परिवर्तन हुए। फिल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत हुई। रात में शूटिंग के लिए कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती थी। यही बाद में चलकर फिल्म-निर्माण का ज़रूरी हिस्सा बनी।

प्रश्न 2.
डब फिल्में किन्हें कहते हैं? कभी-कभी डब फिल्मों में अभिनेता के मुँह खोलने और आवाज़ में अंतर आ जाता है। इसका कारण क्या हो सकता है ?
उत्तर:
डब फिल्मों में अभिनय अलग पात्रों का होता है और आवाज का संयोजन बाद में अलग पात्रों से कराया जाता है। अहिन्दी भाषा से डब की गई फिल्में इसी प्रकार की होती हैं। अभिनेता के हाव-भाव और आवाज देने वाले कलाकार की आवाज का ठीक से संयोजन नहीं हो पाता इसलिए अभिनेता के मुँह खोलने और आवाज़ में अंतर आ जाता है। डब कराने का कारण किसी दूसरी भाषा से अलग भाषा में संवाद होना या किसी अभिनेता से अभिनय कराकर दूसरे अभिनेता से उसके संवाद बुलवाना है।

अनुमान और कल्पना

प्रश्न 1.
किसी मूक सिनेमा में बिना आवाज के ठहाकेदार हँसी कैसी दिखेगी? अभिनय करके अनुभव कीजिए।
उत्तर:
ठहाका लगाने पर मुँह ज्यादा खुलता है और चेहरे तथा शरीर में सक्रियता दिखाई देती है। विद्यार्थी अभिनय करके इसका अनुभव कर सकते हैं।

प्रश्न 2.
मूक फिल्म देखने का एक उपाय यह है कि आप टेलीविजन की आवाज़ बंद करके फिल्म देखें। उसकी ‘कहानी को समझने का प्रयास करें और अनुमान लगाएँ कि फिल्म में संवाद और दृश्य की हिस्सेदारी कितनी है ?
उत्तर:
टी.वी. की आवाज़ बन्द करके मूक फ़िल्मों के अभिनय को समझा जा सकता है। केवल हाव-भाव की बारीकी से कथा को समझा जा सकता है। वाचिक (संवाद) अभिनय के स्थान पर कायिक (हाव-भाव) अभिनय देखकर इस महत्त्वपूर्ण दशा को समझा जा सकता है।

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भाषा की बात

प्रश्न 1.
सवाक शब्द वाक् के पहले ‘स’ लगाने से बना है। स उपसर्ग से कई शब्द बनते हैं। निम्नलिखित शब्दों के साथ ‘स’ का उपसर्ग की भाँति प्रयोग करके शब्द बनाएँ और शब्दार्थ में होने वाले परिवर्तन बताएँ। हित, परिवार, विनय, चित्र, बल, सम्मान।
उत्तर:

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प्रश्न 2.
उपसर्ग और प्रत्यय दोनों शब्दांश होते हैं। वाक्य में इनका अकेला प्रयोग नहीं होता। इन दोनों में अंतर केवल इतना होता है कि उपसर्ग किसी भी शब्द में पहले लगता है और प्रत्यय बाद में। हिन्दी के सामान्य उपसर्ग इस प्रकार हैं-अ/अन, नि, दु, क/कु, स/सु, अध, बिन, औ आदि।
पाठ में आए उपसर्ग और प्रत्यय युक्त शब्दों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं-

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इस प्रकार के 15-15 उदाहरण लिखिए और अपने सहपाठियों को दिखाइए।
उत्तर:
(i) उपसर्ग युक्त शब्दों के 15 उदाहरण
फिल्म जब सिनेमा ने बोलना सीखा के निर्देशक कौन थे? - philm jab sinema ne bolana seekha ke nirdeshak kaun the?

(ii) प्रत्यय युक्त शब्दों के 15 उदाहरण

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वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘जब सिनेमा ने बोलना सीखा’ लेख किसके द्वारा लिखा गया है ?
(क) सुभास गाताड़े
(ख) प्रदीप तिवारी
(ग) अरविंद कुमार सिंह
(घ) रामदरश मिश्र
उत्तर:
(ख) प्रदीप तिवारी

प्रश्न 2.
देश की पहली सवाक् (बोलती) फिल्म कौन सी थी ?
(क) आलम आरा
(ख) देवदास
(ग) आग
(घ) मदर इंडिया
उत्तर:
(क) आलम आरा

प्रश्न 3.
पहली बोलती फिल्म कब सिनेमा पर प्रदर्शित हुई ?
(क) 14 मई, सन् 1947 को
(ख) 14 मई, सन् 1931 को
(ग) 14 जनवरी, सन् 1930 को
(घ) 14 मार्च, सन् 1931 को
उत्तर:
(घ) 14 मार्च, सन् 1931 को

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प्रश्न 4.
पहली बोलती फिल्म किसने बनाई ?
(क) मधुर भण्डारकर
(ख) बी. आर. चोपडा
(ग) अर्देशिर एम. ईरानी
(घ) इस्मत चुगताई
उत्तर:
(ग) अर्देशिर एम. ईरानी

प्रश्न 5.
‘आलम आरा’ फिल्म में पार्श्व गायक कौन थे ?
(क) कुंदन लाल सहगल
(ख) डब्लू. एम. खान
(ग) कमल बारोट
(घ) सुरेन्द्र
उत्तर:
(ख) डब्लू. एम. खान

प्रश्न 6.
‘आलम आरा’ फिल्म के नायक और नायिका कौन थे ?
(क) नायक के. एल. सहगल नायिका सुरैया
(ख) नायक सुरेन्द्र नायिका मधु
(ग) नायक विट्ठल नायिक जुबैदा
(घ) के. एल. सहगल
उत्तर:
(ग) नायक विट्ठल नायिक जुबैदा

प्रश्न 7.
इनमें से कौन-सा कलाकार ‘आलम आरा में नहीं था ?
(क) सोहराब मोदी
(ख) पृथ्वीराज कपूर
(ग) जगदीश सेठी
(घ) के. एल. सहगल
उत्तर:
(घ) के. एल. सहगल

प्रश्न 8.
‘आलम आरा’ फिल्म मुम्बई के किस सिनेमा हाल में प्रदर्शित हुई ?
(क) मैजेस्टिक
(ख) कुमार
(ग) लिबर्टी
(घ) अरविन्द
उत्तर:
(क) मैजेस्टिक

प्रश्न 9.
‘आलम आरा’ फिल्म की लम्बाई कितनी थी ?
(क) पाँच हजार फुट
(ख) दस हजार फुट
(ग) पन्द्रह हजार फुट
(घ) बीस हजार फुट
उत्तर:
(ख) दस हजार फुट

प्रश्न 10.
‘माधुरी’ फिल्म की नायिका कौन थी ?
(क) जुबैदा
(ख) सुलोचना
(ग) सुरैया
(घ) मधुबाला
उत्तर:
(ख) सुलोचना

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बोध-प्रश्न

(क) पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी और उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी। पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने अपनी फिल्म की पटकथा बनाई। इस नाटक के कई गाने ज्यों के त्यों फिल्म में ले लिए गए। एक इंटरव्यू में अर्देशिर ने उस वक्त कहा था-‘हमारे पास कोई संवाद लेखक नहीं था, गीतकार नहीं था, संगीतकार नहीं था।’ इन सबकी शुरुआत होनी थी। अर्देशिर ने फिल्म के गानों के लिए स्वयं की धुनें चुनीं। फिल्म के संगीत में महज तीन बाय-तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया। आलम आरा में संगीतकार या गीतकार में स्वतंत्र रूप से किसी का नाम नहीं डाला गया। इस फिल्म में पहले पार्श्वगायक बने डब्लू. एम. खान। पहला गाना था-‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।’

उपर्युक्त अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

प्रश्न 1.
पहली बोलती फिल्म बनाने वाले फिल्मकार कौन थे ?
उत्तर:
पहली बोलती फ़िल्म के निर्देशक थे–’अर्देशिर एम. इरानी’ ।

प्रश्न 2.
पहली बोलती फ़िल्म का नाम क्या था ? फिल्मकार के मन में किस फ़िल्म से सवाक् फ़िल्म बनाने की प्रेरणा जगी ?
उत्तर:
पहली सवाक् फ़िल्म थी ‘आलम आरा’। 1929 में हालीवुड की बोलती फ़िल्म ‘शो बोट’ देखकर अर्देशिर के मन में सवाक् फ़िल्म बनाने की प्रेरणा जगी।

प्रश्न 3.
इस सवाक् फ़िल्म के लिए किस प्रकार की पटकथा चुनी गई ?
उत्तर:
इस सवाक् फ़िल्म के लिए पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर पटकथा चुनी गई।

प्रश्न 4.
इस फ़िल्म के लिए किसकी धुनें चुनी गईं ?
उत्तर:
इस पटकथा के लिए अर्देशिर ने अपनी ही धुनें चुनीं।

प्रश्न 5.
इस फ़िल्म में संगीत के लिए कौन-कौन से वाद्ययंत्र प्रयुक्त किए गए ?
उत्तर:
इस फ़िल्म के संगीत के लिए तबला, हारमोनियम और वायलिन वाद्ययंत्र चुने गए।

प्रश्न 6.
पहले पार्श्वगायक कौन थे ?
उत्तर:
पहले पार्श्वगायक डब्लू. एम. खान थे।

प्रश्न 7.
इस गायक का पहला गाना क्या था ?
उत्तर:
इस नायक का पहला गाना था-‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।’

फिल्म जब सिनेमा ने बोलना सीखा के निर्देशक कौन थे? - philm jab sinema ne bolana seekha ke nirdeshak kaun the?

(ख) यह फिल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था। समीक्षकों ने इसे ‘भड़कीली फैंटेसी’ फिल्म करार दिया था मगर दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी। यह फिल्म 10 हजार फुट लंबी थी और इसे चार महीनों की कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था।

प्रश्न 1.
‘आलम आरा’ फिल्म कब और किस सिनेमा हॉल में प्रदर्शित की गई ?
उत्तर:
‘आलम आरा’ फ़िल्म 14 मार्च, 1931 को ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा हॉल में प्रदर्शित हुई।

प्रश्न 2.
यह फिल्म कितने सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली ?
उत्तर:
यह फ़िल्म 8 सप्ताह तक हाउसफुल चली।

प्रश्न 3.
‘हाउसफुल’ होने से क्या समस्या आई ?
उत्तर:
3. ‘हाउसफुल’ के कारण इतनी भीड़ उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना कठिन था।

प्रश्न 4.
समीक्षकों ने इस फ़िल्म को क्या बताया ?
उत्तर:
समीक्षकों ने इस फ़िल्म को भड़कीली फैन्टेसी करार दिया।

प्रश्न 5.
यह फ़िल्म कितने फुट लंबी थी ?
उत्तर:
यह फ़िल्म दस हज़ार फुट लंबी थी।

फिल्म जब सिनेमा ने बोलना सीखा के निर्देशक कौन थे? - philm jab sinema ne bolana seekha ke nirdeshak kaun the?

(ग) जब पहली बार सिनेमा ने बोलना सीख लिया, सिनेमा में काम करने के लिए पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों की जरूरत भी शुरू हुई क्योंकि अब संवाद भी बोलने थे, सिर्फ अभिनय से काम नहीं चलने वाला था। मूक फिल्मों के दौर में तो पहलवान जैसे शरीर वाले, स्टंट करने वाले और उछल-कूद करने वाले अभिनेताओं से काम चल जाया करता था। अब उन्हें संवाद बोलना था और गायन की प्रतिभा की कद्र भी होने लगी थी। इसलिए ‘आलम आरा’ के बाद आरंभिक ‘सवाक्’ दौर की फिल्मों में कई ‘गायक-अभिनेता’ बड़े पर्दे पर नजर आने लगे। हिंदी-उर्दू भाषाओं का महत्त्व बढ़ा। सिनेमा में देह और तकनीक की भाषा की जगह जन प्रचलित बोलचाल की भाषाओं का दाखिला हुआ। सिनेमा ज्यादा देसी हुआ। एक तरह की नयी आजादी थी जिससे आगे चलकर हमारे दैनिक और सार्वजनिक जीवन को प्रतिबिंब फिल्मों में बेहतर होकर उभरने लगा।

प्रश्न 1.
‘अब सिनेमा में किस प्रकार के अभिनेता-अभिनेत्रियों की ज़रूरत शुरू हुई? क्यों?
उत्तर:
अब सिनेमा में पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों की जरूरत शुरू हुई; क्योंकि अब संवाद भी बोलने थे, सिर्फ अभिनय करने से काम चलने वाला नहीं था।

प्रश्न 2.
मूक फ़िल्मों के दौर में कैसे कलाकारों से काम चल जाता था ?
उत्तर:
मूक फ़िल्म के दौर में पहलवान जैसे शरीर वाले, स्टंट करने वाले और उछल-कूद करने वाले कलाकारों से काम चल जाता था।

प्रश्न 3.
अब किस कार्य की अनिवार्यता बढ़ गई थी ?
उत्तर:
अब संवाद बोलना था और गायन भी करना था अतः इस कार्य का महत्त्व बढ़ गया।

प्रश्न 4.
फ़िल्मों में किस प्रकार की भाषा का महत्त्व बढ़ा ?
उत्तर:
फ़िल्में में उर्दू-हिन्दी भाषाओं का महत्त्व बढ़ा। इस प्रकार जन-प्रचलित बोलचाल की भाषाओं का दाखिला हुआ।

प्रश्न 5.
फ़िल्मों में कौन-सी बात उभरने लगी ?
उत्तर:
हमारे दैनिक और सार्वजनिक जीवन का प्रतिबिम्ब फ़िल्मों में उभरने लगा।

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कम्प्यूटर गाएगा गीत

पाठ का सार

सवाक फ़िल्म ‘आमल आरा’ से शुरू हुई। तब से फिल्मीगीत लोकप्रिय सिनेमा का अटूट हिस्सा बने हए हैं। पहले पात्रों को अपने गीत खुद गाने पड़ते थे। बाद में सोचा गया कि कोई अभिनेता या अभिनेत्री गायन कला में निपुण हो, जरूरी नहीं। तभी से पार्श्वगायन की शुरुआत हुई। इसी बीच रिकार्डिंग की तकनीक बदली, गायन की शैली में बदलाव आया। गीत की शब्दावली का महत्त्व बढ़ा। इन्हीं के माध्यम से धुन का भावनात्मक प्रभाव पैदा होता है।

फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत के अलावा भजन, कीर्तन, कव्वाली और लोकगीत भी जुड़े। थियेटर में गायक के लिए बुलन्द आवाज होना ज़रूरी था। यही गायक शुरू के दौर में फिल्मों से भी जुड़े, क्योंकि उस समय माइक्रोफोन और लाउडस्पीकर जैसे साधन नहीं थे। थियेटर में महिला पात्रों की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते थे। फ़िल्मों में इस तरह की भूमिकाओं में परिवर्तन हुआ। फ़िल्मों में गायिकाएँ भी अलग क्षेत्रों से आईं। ये गायिकाएँ शब्दों को चबाकर तथा नाक में बैठी आवाज़ में गाती थी। शीघ्र ही बदलाव आया और सहज रूप से गाने वाली गायिकाओं का दौर शुरू हुआ। काननवाला का गाया गीत ‘दुनिया ये दुनिया तूफानमेल’ था।

दूसरे दौर में ऐसी प्रतिभाएँ आईं, जिन्होंने माइक्रोफोन के अनुकूल अपनी आवाज़ को ढाल लिया। इनमें शमशाद बेगम, सुरैया, नूरजहाँ तथा कुन्दन लाल सहगल शामिल थे। इस दौर के बाद तीसरे दौर की नई आवाजें आईं। इनमें रफी, मुकेश, हेमन्त कुमार, मन्ना डे, किशोर कुमार, तलत महमूद, लता मंगेशकर प्रमुख थे। इन्होंने गायकी. के मापदण्ड ही बदल दिये। इनके अलावा आशा भोंसले, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुरी ने अपनी खास शैली विकसित की।

बदलाव बहुत तेजी से हो रहा है। भविष्य में हो सकता है कम्प्यूटर ऐसी आवाज़ तैयार कर दे जो मानवीय आवाज़ से ज्यादा पूर्ण हो।

जब सिनेमा ने बोलना सीखा Summary

पाठ का सार

14 मार्च, 1931 को ‘आलम आरा’ से देश की पहली सवाक् फ़िल्म की शुरुआत हुई। इस दौर में मूक सिनेमा लोकप्रियता के शिखर पर था। इसी वर्ष कई मूक फ़िल्में भी प्रदर्शित हुईं। ‘आलमआरा’ के फ़िल्मकार थे ‘अर्देशिर एम. इरानी’ । इन्होंने 1929 में हालीवुड की एक बोलती फ़िल्म ‘शो बोट’ देखी थी। पारसी रंगमच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर इन्होंने यह फ़िल्म बनाई। इस नाटक के कई गाने फ़िल्म में लिये गए। इनके पास कोई संवाद लेखक, गीतकार या संगीतकार नहीं था। स्वयं धुनें चुनीं। संगीत में सिर्फ तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया। इस फ़िल्म के पहले गायक बने डब्लू. एम. खान। गाना था-‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।’ इसका संगीत डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया जा सका। इसकी शूटिंग साउंड के कारण रात में करनी पड़ी। प्रकाश की व्यवस्था की गई।

अर्देशिर की कंपनी ने डेढ़ सौ से अधिक मूक और लगभग सौ सवाक् फ़िल्में बनाईं। आलम आरा ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी फैंटेसी थी। इस फ़िल्म में हिन्दी-उर्दू के मिलजुले रूप की भाषा का प्रयोग किया गया। इस फ़िल्म की नायिका जुबैदा तथा नायक बिट्ठल थे। बिट्ठल की उर्दू अच्छी नहीं थी अतः उन्हें हटाकर मेहबूब को नायक बना दिया। बिट्ठल मुकदमा लड़े और जीत गए। फिर वही नायक बने ‘आलमआरा’ में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, याकूब और जगदीश सेठी जैसे अभिनेता भी थे जो बाद में फ़िल्म उद्योग के स्तम्भ बने।

‘आलमआरा’ 8 सप्ताह तक हाउसफुल चली। समीक्षकों ने इसे ‘भड़कीली फैंटेसी’ फ़िल्म करार दिया। यह 10 हजार फुट लम्बी फ़िल्म थी। सवाक् फिल्मों के लिए पौराणिक कथाएँ, पारसी नाटक और अरबी प्रेम कथाएँ आधार बनाई गईं। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘खुदा की शान’ इसमें एक पात्र महात्मा गांधी जैसा था। निर्माता-निर्देशक अर्देशिर को 1956 में ‘आलमआरा’ के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर सम्मानित किया गया। सवाक् फिल्मों में संवाद भी बोलने थे, केवल स्टंट करने या उछलकूद से काम चलने वाला नहीं था। गायन की भी कद्र होने लगी। कई गायक अभिनेता बड़े पर्दे पर नज़र आने लगे। हिन्दी-उर्दू भाषा को महत्त्व बढ़ने लगा। आने वाला सिनेमा हमारे जीवन को प्रतिबिम्बित करने लगा।

अभिनेता-अभिनेत्रियों की लोकप्रियता का असर दर्शकों पर खूब पड़ा। ‘आलमआरा’ श्रीलंका, वर्मा और पश्चिम एशिया में भी पसंद की गई, भारतीय सिनेमा के जनक दादा फाल्के ने ‘सवाक्’ सिनेमा के ‘पिता’ अर्देशिर ईरानी की उपलब्धि को अपनाना ही था। सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया।

शब्दार्थ : सवाक् फ़िल्म-मूक फ़िल्म के बाद वनी बोलती फ़िल्म; लोकप्रियता-प्रसिद्धि; शिखर-चोटी; विभिन्न-भिन्न-भिन्न, अलग-अलग; फ़िल्मकार-फ़िल्म बनाने वाले; पटकथा-फ़िल्म के लिए लिखी जाने वाली कथा; संवाद-बातचीत, फ़िल्म में की जाने वाली बातचीत; महज़-सिर्फ पार्श्वगायक-पर्दे के पीछे से गाने वाला; डिस्क फॉर्म-रिकार्डिंग का एक रूप; कृत्रिम-बनावटी; प्रणाली-विधि, तरीका; निर्माण-बनाना; संयोजन-मेल; सर्वाधिक-सबसे अधिक; पारिश्रमिक-मेहनताना, मानदेय; बतौर-तौर पर (‘व’ उपसर्ग + तौर); चयन-चुनाव; समीक्षक-समीक्षा करने वाले, गुण-दोप पर निष्पक्ष रूप से विचार करने वाले फैंटेसी-काल्पनिकता से पूर्ण अनोखी कथा; किरदार-भूमिका, चरित्र; खिताब-सम्मान, उपाधि; स्टंट-ध्यान आकर्षित करने की ट्रिक, कलावाजी, कमाल, पाखंड; उपलब्धि-प्राप्ति; प्रतिबिम्ब-झलक, परछाईं; केशसज्जा-सिर के बालों की सजावट।