These NCERT Solutions for Class 8 Hindi Vasant Chapter 11 जब सिनेमा ने बोलना सीखा Questions and Answers are prepared by our highly skilled subject experts. पाठ
से प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. पाठ से आगे प्रश्न 1. कई सामाजिक विषयों वाली फिल्में भी बनीं। एक फिल्म ‘खुदा की शान’ बनी जिसमें एक किरदार महात्मा गाँधी जैसा था। फिल्मों का जन-जीवन पर भी प्रभाव पड़ने लगा। तकनीकी दृष्टि से काफी परिवर्तन हुए। फिल्मों में पार्श्व गायन की शुरुआत हुई। रात में शूटिंग के लिए कृत्रिम प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती थी। यही बाद में चलकर फिल्म-निर्माण का ज़रूरी हिस्सा बनी। प्रश्न 2. अनुमान और कल्पना प्रश्न 1. प्रश्न 2. भाषा की बात प्रश्न 1. प्रश्न 2. इस प्रकार के 15-15 उदाहरण लिखिए और अपने सहपाठियों को दिखाइए। उत्तर: (i) उपसर्ग युक्त शब्दों के 15 उदाहरण (ii) प्रत्यय युक्त शब्दों के 15 उदाहरण वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. बोध-प्रश्न (क) पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी और उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी। पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने अपनी फिल्म की पटकथा बनाई। इस नाटक के कई गाने ज्यों के त्यों फिल्म में ले लिए गए। एक इंटरव्यू में अर्देशिर ने उस वक्त कहा था-‘हमारे पास कोई संवाद लेखक नहीं था, गीतकार नहीं था, संगीतकार नहीं था।’ इन सबकी शुरुआत होनी थी। अर्देशिर ने फिल्म के गानों के लिए स्वयं की धुनें चुनीं। फिल्म के संगीत में महज तीन बाय-तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया। आलम आरा में संगीतकार या गीतकार में स्वतंत्र रूप से किसी का नाम नहीं डाला गया। इस फिल्म में पहले पार्श्वगायक बने डब्लू. एम. खान। पहला गाना था-‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।’ उपर्युक्त अवतरण को ध्यानपूर्वक पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए- प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. (ख) यह फिल्म 14 मार्च, 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था। समीक्षकों ने इसे ‘भड़कीली फैंटेसी’ फिल्म करार दिया था मगर दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी। यह फिल्म 10 हजार फुट लंबी थी और इसे चार महीनों की कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. (ग) जब पहली बार सिनेमा ने बोलना सीख लिया, सिनेमा में काम करने के लिए पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों की जरूरत भी शुरू हुई क्योंकि अब संवाद भी बोलने थे, सिर्फ अभिनय से काम नहीं चलने वाला था। मूक फिल्मों के दौर में तो पहलवान जैसे शरीर वाले, स्टंट करने वाले और उछल-कूद करने वाले अभिनेताओं से काम चल जाया करता था। अब उन्हें संवाद बोलना था और गायन की प्रतिभा की कद्र भी होने लगी थी। इसलिए ‘आलम आरा’ के बाद आरंभिक ‘सवाक्’ दौर की फिल्मों में कई ‘गायक-अभिनेता’ बड़े पर्दे पर नजर आने लगे। हिंदी-उर्दू भाषाओं का महत्त्व बढ़ा। सिनेमा में देह और तकनीक की भाषा की जगह जन प्रचलित बोलचाल की भाषाओं का दाखिला हुआ। सिनेमा ज्यादा देसी हुआ। एक तरह की नयी आजादी थी जिससे आगे चलकर हमारे दैनिक और सार्वजनिक जीवन को प्रतिबिंब फिल्मों में बेहतर होकर उभरने लगा। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. कम्प्यूटर गाएगा गीत पाठ का सार सवाक फ़िल्म ‘आमल आरा’ से शुरू हुई। तब से फिल्मीगीत लोकप्रिय सिनेमा का अटूट हिस्सा बने हए हैं। पहले पात्रों को अपने गीत खुद गाने पड़ते थे। बाद में सोचा गया कि कोई अभिनेता या अभिनेत्री गायन कला में निपुण हो, जरूरी नहीं। तभी से पार्श्वगायन की शुरुआत हुई। इसी बीच रिकार्डिंग की तकनीक बदली, गायन की शैली में बदलाव आया। गीत की शब्दावली का महत्त्व बढ़ा। इन्हीं के माध्यम से धुन का भावनात्मक प्रभाव पैदा होता है। फिल्म संगीत में शास्त्रीय संगीत के अलावा भजन, कीर्तन, कव्वाली और लोकगीत भी जुड़े। थियेटर में गायक के लिए बुलन्द आवाज होना ज़रूरी था। यही गायक शुरू के दौर में फिल्मों से भी जुड़े, क्योंकि उस समय माइक्रोफोन और लाउडस्पीकर जैसे साधन नहीं थे। थियेटर में महिला पात्रों की भूमिकाएँ पुरुष ही निभाते थे। फ़िल्मों में इस तरह की भूमिकाओं में परिवर्तन हुआ। फ़िल्मों में गायिकाएँ भी अलग क्षेत्रों से आईं। ये गायिकाएँ शब्दों को चबाकर तथा नाक में बैठी आवाज़ में गाती थी। शीघ्र ही बदलाव आया और सहज रूप से गाने वाली गायिकाओं का दौर शुरू हुआ। काननवाला का गाया गीत ‘दुनिया ये दुनिया तूफानमेल’ था। दूसरे दौर में ऐसी प्रतिभाएँ आईं, जिन्होंने माइक्रोफोन के अनुकूल अपनी आवाज़ को ढाल लिया। इनमें शमशाद बेगम, सुरैया, नूरजहाँ तथा कुन्दन लाल सहगल शामिल थे। इस दौर के बाद तीसरे दौर की नई आवाजें आईं। इनमें रफी, मुकेश, हेमन्त कुमार, मन्ना डे, किशोर कुमार, तलत महमूद, लता मंगेशकर प्रमुख थे। इन्होंने गायकी. के मापदण्ड ही बदल दिये। इनके अलावा आशा भोंसले, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुरी ने अपनी खास शैली विकसित की। बदलाव बहुत तेजी से हो रहा है। भविष्य में हो सकता है कम्प्यूटर ऐसी आवाज़ तैयार कर दे जो मानवीय आवाज़ से ज्यादा पूर्ण हो। जब सिनेमा ने बोलना सीखा Summaryपाठ का सार 14 मार्च, 1931 को ‘आलम आरा’ से देश की पहली सवाक् फ़िल्म की शुरुआत हुई। इस दौर में मूक सिनेमा लोकप्रियता के शिखर पर था। इसी वर्ष कई मूक फ़िल्में भी प्रदर्शित हुईं। ‘आलमआरा’ के फ़िल्मकार थे ‘अर्देशिर एम. इरानी’ । इन्होंने 1929 में हालीवुड की एक बोलती फ़िल्म ‘शो बोट’ देखी थी। पारसी रंगमच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर इन्होंने यह फ़िल्म बनाई। इस नाटक के कई गाने फ़िल्म में लिये गए। इनके पास कोई संवाद लेखक, गीतकार या संगीतकार नहीं था। स्वयं धुनें चुनीं। संगीत में सिर्फ तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया। इस फ़िल्म के पहले गायक बने डब्लू. एम. खान। गाना था-‘दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।’ इसका संगीत डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया जा सका। इसकी शूटिंग साउंड के कारण रात में करनी पड़ी। प्रकाश की व्यवस्था की गई। अर्देशिर की कंपनी ने डेढ़ सौ से अधिक मूक और लगभग सौ सवाक् फ़िल्में बनाईं। आलम आरा ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी फैंटेसी थी। इस फ़िल्म में हिन्दी-उर्दू के मिलजुले रूप की भाषा का प्रयोग किया गया। इस फ़िल्म की नायिका जुबैदा तथा नायक बिट्ठल थे। बिट्ठल की उर्दू अच्छी नहीं थी अतः उन्हें हटाकर मेहबूब को नायक बना दिया। बिट्ठल मुकदमा लड़े और जीत गए। फिर वही नायक बने ‘आलमआरा’ में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, याकूब और जगदीश सेठी जैसे अभिनेता भी थे जो बाद में फ़िल्म उद्योग के स्तम्भ बने। ‘आलमआरा’ 8 सप्ताह तक हाउसफुल चली। समीक्षकों ने इसे ‘भड़कीली फैंटेसी’ फ़िल्म करार दिया। यह 10 हजार फुट लम्बी फ़िल्म थी। सवाक् फिल्मों के लिए पौराणिक कथाएँ, पारसी नाटक और अरबी प्रेम कथाएँ आधार बनाई गईं। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘खुदा की शान’ इसमें एक पात्र महात्मा गांधी जैसा था। निर्माता-निर्देशक अर्देशिर को 1956 में ‘आलमआरा’ के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर सम्मानित किया गया। सवाक् फिल्मों में संवाद भी बोलने थे, केवल स्टंट करने या उछलकूद से काम चलने वाला नहीं था। गायन की भी कद्र होने लगी। कई गायक अभिनेता बड़े पर्दे पर नज़र आने लगे। हिन्दी-उर्दू भाषा को महत्त्व बढ़ने लगा। आने वाला सिनेमा हमारे जीवन को प्रतिबिम्बित करने लगा। अभिनेता-अभिनेत्रियों की लोकप्रियता का असर दर्शकों पर खूब पड़ा। ‘आलमआरा’ श्रीलंका, वर्मा और पश्चिम एशिया में भी पसंद की गई, भारतीय सिनेमा के जनक दादा फाल्के ने ‘सवाक्’ सिनेमा के ‘पिता’ अर्देशिर ईरानी की उपलब्धि को अपनाना ही था। सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया। शब्दार्थ : सवाक् फ़िल्म-मूक फ़िल्म के बाद वनी बोलती फ़िल्म; लोकप्रियता-प्रसिद्धि; शिखर-चोटी; विभिन्न-भिन्न-भिन्न, अलग-अलग; फ़िल्मकार-फ़िल्म बनाने वाले; पटकथा-फ़िल्म के लिए लिखी जाने वाली कथा; संवाद-बातचीत, फ़िल्म में की जाने वाली बातचीत; महज़-सिर्फ पार्श्वगायक-पर्दे के पीछे से गाने वाला; डिस्क फॉर्म-रिकार्डिंग का एक रूप; कृत्रिम-बनावटी; प्रणाली-विधि, तरीका; निर्माण-बनाना; संयोजन-मेल; सर्वाधिक-सबसे अधिक; पारिश्रमिक-मेहनताना, मानदेय; बतौर-तौर पर (‘व’ उपसर्ग + तौर); चयन-चुनाव; समीक्षक-समीक्षा करने वाले, गुण-दोप पर निष्पक्ष रूप से विचार करने वाले फैंटेसी-काल्पनिकता से पूर्ण अनोखी कथा; किरदार-भूमिका, चरित्र; खिताब-सम्मान, उपाधि; स्टंट-ध्यान आकर्षित करने की ट्रिक, कलावाजी, कमाल, पाखंड; उपलब्धि-प्राप्ति; प्रतिबिम्ब-झलक, परछाईं; केशसज्जा-सिर के बालों की सजावट। |