छात्रों में सृजनात्मकता के विकास हेतु कौन से उपाय करने चाहिए? - chhaatron mein srjanaatmakata ke vikaas hetu kaun se upaay karane chaahie?

सृजनात्मकता सर्जनात्मकता अथवा रचनात्मकता किसी वस्तु, विचार, कला, साहित्य से संबद्ध किसी समस्या का समाधान निकालने आदि के क्षेत्र में कुछ नया रचने, आविष्कृत करने या पुनर्सृजित करने की प्रक्रिया है। यह एक मानसिक संक्रिया है जो भौतिक परिवर्तनों को जन्म देती है। सृजनात्मकता के संदर्भ में वैयक्तिक क्षमता और प्रशिक्षण का आनुपातिक संबन्ध है। काव्यशास्त्र में सृजनात्मकता प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सहसंबंधों की परिणति के रूप में व्यवहृत किया जाता है।

मार्क्सवाद में सृजनात्मकता[संपादित करें]

सृजनात्मकता मानवीय क्रियाकलाप की वह प्रक्रिया है जिसमे गुणगत रूप से नूतन भौतिक तथा आत्मिक मूल्यों का निर्माण किया जाता है। प्रकृति प्रदत्त भौतिक सामग्री में से तथा वस्तुगत जगत की नियमसंगतियों के संज्ञान के आधार पर समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले नये यथार्थ का निर्माण करने की मानव क्षमता ही सृजनात्मकता है, जिसकी उत्पत्ति श्रम की प्रक्रिया में हुई हो। सृजनात्मकता निर्माणशील क्रियाकलाप के स्वरूप से निर्धारित होते हैं। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुसार सृजन की प्रक्रिया में कल्पना समेत मनुष्य की समस्त आत्मिक शक्तियां और साथ ही वह दक्षता भाग लेती है जो प्रशिक्षण तथा अभ्यास से हासिल होती है तथा सृजनशील चिंतन को मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक होती है। सृजनात्मकता की संभावनाएं सामाजिक संबंधों पर निर्भर करती हैं। साम्यवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित समाज के लिए अभिलाक्षणिक श्रम तथा मानव-क्षमताओं के परकीयकरण को दूर करता है। वह सभी किस्मों और प्रत्येक व्यक्ति की सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाओं का निर्माण करता है।[1]

प्रत्ययवाद में सृजनात्मकता[संपादित करें]

प्रत्ययवादी सृजनात्मकता को दैवीय धुन (प्लेटो), चेतन तथा अचेतन का संश्लेषण (शेलिंग), रहस्यवादी अंतःप्रज्ञा (बर्गसाँ) तथा सहजवृत्तियों की अभिव्यक्ति (फ्रायड) मानते हैं।[2]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • सामाजिक संदर्भ में सृजनात्मकता (देशबन्धु)

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. दर्शनकोश, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८0, पृष्ठ-७३२, ISBN:५-0१000९0७-२
  2. दर्शनकोश, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८0, पृष्ठ-७३२, ISBN:५-0१000९0७-२

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Definition of Creativity
  • ENTREPRENEURIAL CREATIVITY AND INNOVATION
  • सृजनात्मकता एक तरह की बेचैनी होती है - देवानंद

Que : 43. सृजनात्मकता की प्रकृति, प्रक्रिया, विकास एवं मापन का वर्णन कीजिए।

Answer: सृजनात्मकता मानव के क्रियाकलापों तथा निष्पत्ति हेतु जरूरी है। सृजनात्मकता का अर्थ वैज्ञानिक के कायाकल्प से नहीं है। यह किसी भी क्रिया में पायी जाती है। किसी भी कार्य या व्यवसाय में सृजनात्मकता के दर्शन होते हैं।

बिने के अनुसार, “एक व्यक्ति लकड़ी से मनचाही कलात्मक वस्तु बना सकता है। चित्रकार मनचाहे रंगों से चित्र की सजीवता प्रकट कर सकता है। इसी मूर्तिकार एवं वास्तुविद् भी अपनी कलाओं की छाप छोड़ते हैं। यही तो सृजनात्मकता है।'


सृजनात्मकता का अर्थ

सृजनात्मकता का अर्थ है-"सृजनात्मकता अंग्रेजी भाषा शब्द "Creativity" “क्रिएटिविटी" का हिन्दी अनुवाद है। भार्गव इलस्ट्रेटेड डिक्शनरी के अनुसार “Creativity" शब्द का अर्थ है By way of Creation जिसका हिन्दी शब्दानुसार होता है-"उत्पादन से"। इस तरह क्रिएटिविर्टी शब्द का हिन्दी पर्याय हुआ उत्पादन से संबंधित। इसके समानार्थी अन्य शब्द भी हैं जैसे-विधायका। भारत सरकार के तकनीकी शब्द कोष में क्रियेटिविटी का हिन्दी अनुवाद सृजनशीलता अंकित किया हुआ है। प्रायः मनोविज्ञान की पुस्तकों और प्रयोग में सृजनशीलता के स्थान पर सृजनात्मकता शब्द का ही प्रयोग किया जाता है। अत: यहाँ पर भी सृजनात्मकता का ही प्रयोग किया है।


सृजनात्मकता की परिभाषायें
:

1. रॉबर्ट फ्रास्ट के मतानुसार :- मौलिकता क्या है? यह मुक्त साहचर्य है ? जब कविता की पंक्तियाँ या उसके विचार आपको उद्वेलित करते हैं। साधारणीकरण के लिए बाध्य करते हैं। यह दो वस्तुओं का संबंध होता है, परंतु साहचर्य को देखने की कामना आप नहीं करते, आप तो उसका आनंद उठाते हैं।

2. स्टेन के अनुसार, जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो जो किसी समय में समूह द्वारा उपयोगी मान्य हो, वह कार्य सृजनात्मकता कहलाता है।"

3. जेम्स ड्रेवर के अनुसार,अनिवार्य रूप से किसी नयी वस्तु का सृजन करना है। रचना, विस्तृत अर्थ में जहाँ पर नये विचारों का संग्रह हो वहाँ पर प्रतिभा का सृजन (वह अनुकृत न होकर स्वयं प्रेरित हो) जहाँ पर मानसिक सृजन का आह्वान न हो।"

4. सी.वी. गुड के अनुसार,सृजनात्मकता वह विचार है जो किसी समूह में विस्तृत सातत्य का निर्माण करता है। सर्जनात्मकता के कारक हैं-साहचर्य आदर्शात्मक, मौलिकता, अनुकूलता, सातत्य लोच एवं तार्किक विकास की योग्यता।"


इन परिभाषाओं के आधार पर सर्जनात्मकता की निम्न विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं
:-

(1) सृजनात्मकता मौलिक या नवीन न हो।

(2) सृजनात्मकता कार्य उपयोगी।

(3) सृजनात्मकता को समान मान्यता मिलनी चाहिए।

(4) सृजनात्मकता कार्य में दो या अधिक वस्तुओं, तथ्यों आदि के संयोग से नवीनता का सृजन होना चाहिए।  

(5) सृजनात्मकता कार्य द्वारा व्यक्ति की प्रतिभा का विकास होना जरूरी है।

सृजनात्मकता तथा बुद्धि-अक्सर देखा गया है कि कुछ व्यक्तियों में उच्च सृजनात्मकता होती है लेकिन उनका बौद्धिक स्तर निम्न होता है। इसी तरह से यह भी जरूरी नहीं है कि जिनका बौद्धिक स्तर उच्च हो, उनमें सृजनात्मकता भी उच्च स्तर की हो। उच्च बौद्धिक स्तर 'तथा उच्च सृजनात्मकता का साथ-साथ चलना बाह्य कारकों पर निर्भर करता है। बैरोन ने अपने अध्ययनों के आधार पर सिद्ध किया कि बुद्धि एवं सृजनात्मकता में घटनात्मक सहसंबंध है लेकिन यह सहसंबंध निम्न स्तर का होता है। सृजनात्मकता के लिए बुद्धि के अलावा अन्य तत्वों की भी आवश्यकता होती है । बहुधा लेखकों, गणितज्ञों, इंजीनियरों आदि में सृजनात्मकता अधिक मात्रा में होती है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि इनमें सृजनात्मकता अधिक मात्रा में हो ही। सृजनात्मकता शून्य में क्रियाशील नहीं हो सकती है। इसमें पूर्व अर्जित ज्ञान का उपयोग होता हैं, यह ज्ञान का उपयोग होता है, यह ज्ञान का उपयोग बौद्धिक क्षमताओं से संबंधित है अतः सृजनात्मकता तथा बुद्धि का समन्वय स्वाभाविक है।

सृजनात्मकता तथा व्यक्तित्व- इस दिशा में हुए अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि सृजनात्मक व्यक्तियों के व्यक्तित्व में कोई एक लक्षण न होकर लक्षणों का समूह होता है, जिसे Creativity Syndrome कहते हैं। इन लक्षणों में कुछ प्रमुख हैं-साहसी कार्य की प्रवृत्ति, जिज्ञासा, आत्मविश्वास, बौद्धिक स्थिरता, विनोदी भाव, स्पष्ट विचारधारा, आत्म अनुशासन, उच्च आकांक्षाएं, स्वतंत्रता की आवश्यकता, लचीलापन, विचारों का प्रहस्थन करने की पसंद, कार्यों में स्वतंत्रता, सौंदर्यात्मक आदर्श आदि । प्रत्येक सृजनात्मक बालक में यह व्यक्तित्व लक्षण समान मात्रा तथा संख्या में नहीं होते हैं। सृजनात्मक बालकों का समायोजन बहुत कुछ वैसा ही होता है जैसा कि प्रतिभाशाली बालकों का समायोजन होता है। इस बात के प्रमाण नहीं हैं कि उच्च सृजनात्मकता वाले बालक का कुसमायोजन होता है । सृजनात्मक बालकों में व्यक्तियों के उपरोक्त लक्षणों के साथ यदि बुद्धि की प्रधानता है तो ऐसे बालकों का वैयक्तिक तथा सामाजिक समायोजन अच्छा होगा तथा उपलब्धि में भी सफलता प्राप्त होगी। व्यक्तित्व लक्षणों की एक अवस्था यह भी हो सकती है कि उपरोक्त व्यक्तित्व लक्षणों के साथ बुद्धि कम मात्रा में हो, इस अवस्था में बालकों का समायोजन दूषित हो सकता है, वह विद्रोही, विरोधी हो सकता है। अत: ऐसी अवस्था में वह सामाजिक मूल्यों के साथ अनुरूपता करने वाला हो सकता है।


सृजनात्मकता के तत्व
:

सृजनात्मकता का विकास करने वाले निम्न तत्व हैं-

1. सृजनात्मकता स्तर :- यह चिंतन सरल तथा यांत्रिक होता है । जिस चिंतन में प्रत्यक्षता रहती है उसे अभिसारी चिंतन कहते हैं। अभिसारी चिंतन मूल्यांकन के साथ-साथ सृजनात्मक शक्तियों का तीसरा पक्ष है । व्यक्ति में परिस्थिति की पुनर्व्यवस्था होना जरूरी है। इसे कार्यात्मक स्थिरता भी कहते हैं। सृजनात्मकता के अध्ययन के लिए दोनों ही तरह के चिंतनों का परीक्षण किया जाता है।

2. बौद्धिक स्तर :- सृजनात्मक शक्ति के लिए उच्च बुद्धि लब्धि (I.O.) आवश्यक है नवीन मौलिक एवं परंपरागत ढंग से हर कार्य करने का साहस सिर्फ उच्च लब्धि के छात्रों में ही. होता है लेकिन इसके अतिरिक्त निम्न बुद्धि लब्धि के व्यक्ति भी सृजनशील हो सकते हैं।

3. मापन योग्य व्यवहार- सृजनात्मकता का यह महत्वपूर्ण तत्व है। इसका पता मापन के उन व्यवहारों से चलता है जो वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय एवं वैध विधि से मापे जा सकें। जिन व्यवहारों को उक्त विधियों से नहीं मापा जा सकता उनका अध्ययन असंभव है।

4. मौलिकता एवं नवीनता :- सृजनात्मकता के लिए मौलिकता एवं नवीन ढंग से कार्य करने की योग्यता नितांत आवश्यक है। अगर परंपरागत ढंग से हटकर नवीन कार्य करने का साहस बालक में विद्यमान है तो वह सृजनात्मकता की सीमा में आयेगा।

5. माध्यम :- सृजनात्मकता का कोई न कोई माध्यम अवश्य होना चाहिए। चिंतन, लेखन, वाचन, तर्क, कल्पना, अध्यापन एवं अन्य किसी क्रिया के माध्यम से अगर कोई बालक अपनी सृजनात्मक शक्ति का प्रदर्शन करता है तो वह सृजनात्मकता होगी।

6. साहस :- साहस भी सृजनात्मकता का महत्वपूर्ण तत्व है। अगर किसी बालक में नये ढंग से कार्य करने का ढंग, असफलताओं में न घबराने का साहस एवं समाज की रूढ़ियों व परंपराओं को परिवर्तित करने का साहस नहीं है तो मौलिकता" की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

7. सामाजिक स्वीकृति :- सृजनशीलता या सृजनात्मकता वह स्थिति है जिसके अंतर्गत किसी बालक के विचारों या कार्यों को समाज मान्यता दे दे। जैसे एक जेबकट अपनी नवीन शैली से जेब काट सकता है पर उसे समाज क्षमा नहीं करता। अतः उसे समाज द्वारा मान्यता मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए समाज द्वारा प्रतिष्ठित एवं मान्य कार्य ही सृजनात्मक कहलाते हैं।

8. प्रवीणता :- कोई बालक अथवा व्यक्ति उस समय तक सृजनात्मक कार्य नहीं कर सकता जब तक कि उसे अपने विषय में प्रवीणता प्राप्त न हो। प्रवीणता का अर्थ है "दक्षता"। दक्षता की स्थिति में वह मौलिक या नवीन कार्य पूर्ण नहीं कर पायेगा। अपूर्ण स्थिति में हम उसे सृजनात्मक नहीं कहेंगे। 


सृजनात्मकता के सिद्धांत
:

मनोविश्लेषणवाद, साहचर्यवाद, व्यवहारवाद एवं मनोविज्ञान के अन्य संप्रदायों ने सृजनात्मकता के बारे में अपने-अपने सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं जिनकी व्याख्या निम्न तरह की गयी है-

1. मनोविश्लेषण :- इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक फ्राइड ने यह कहा है कि हर प्राणी में कुछ मूल प्रवृत्ति जन्म व्यवहारों में समानता होती है। परंतु इन मूल प्रवृत्तिजन्य कार्यों से हटकर अगर मनुष्य चेतन रहते हुए कोई कार्य करता है तो उसे सृजनात्मकता कहेंगे।

2. साहचर्यवाद :- साहचर्यवाद के अंतर्गत हम परस्पर तत्वों में संबंध स्थापित करते हैं। यह संबंध पदार्थों में साहचर्य द्वारा प्राप्त होते हैं, जिनमें कि संयोग एवं प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इन संयोगों तथा प्रणालियों का पुनर्गठन करना ही सृजनात्मक है । इसके द्वारा नवीनता अथवा मौलिकता पैदा करके सृजनात्मक का गुण विकसित किया जा सकता है।

3. समग्रवाद :- समग्रवाद या व्यवहारवाद के अनुसार समस्त समस्या प्रधान कार्यों का हल अंतर्दृष्टि अथवा सूझ का प्रतिफल होता है । इन विचारकों ने सृजनात्मक का आधार अंतर्दृष्टि बताया है। अंतर्दृष्टि द्वारा अगर मस्तिष्क में कोई नई बात आ जाती है जिसके कारण मौलिक कार्य हो जाता है तो उसे सृजनात्मक कहा जायेगा।


उपरोक्त मनोवैज्ञानिकों के विचारों के आधार पर सृजनात्मक के निम्न सिद्धांत प्रचलित हैं
:-

(i) इच्छा शक्ति का सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति में किसी कार्य को करने की इच्छा शक्ति प्रबल होती है। यह प्रबल इच्छा शक्ति ही सृजनात्मक बनाने में मददगार होती है।

(ii) बौद्धिक जागरूकता का सिद्धांत :- कुछ व्यक्ति मानसिक (बौद्धिक) रूप से पूर्ण विकसित होते हैं। उनमें जागरुकता का गुण होता है । इसके कारण ही वे कुछ नया करने (नयी खोज करने के लिए) उद्यत होते हैं। (iii) स्वप्रेरणा का सिद्धांत-कुछ मनोवैज्ञानिकों का यह कथन है कि सृजनात्मक स्वप्रेरणा का परिणाम है। इस स्वप्रेरणा के कारण ही व्यक्ति में मौलिक अथवा नवीन कार्य करने की भावना जाग्रत होती है।

(iv) जन्मजात शक्ति का सिद्धांत :- सृजन-शक्ति हर व्यक्ति में जन्मजात होती है । अतः स्वतः ही उसमें सृजनात्मक के अंकुर फूट निकलते हैं। कभी-कभी हम इसे ईश्वरदत्त भी कहते हैं।

(v) प्रतिष्ठा का सिद्धांत :- कुछ व्यक्ति सृजनात्मक कार्यों को इसलिए हाथ में लेते हैं क्योंकि उनके ही माध्यम से उन्हें ख्याति मिलेगी एवं प्रतिष्ठा मिलेगी। प्रतिष्ठा की अंतर-आकांक्षा उसे सृजनात्मक कार्य की तर्फ प्रेरित करती है। कला, साहित्य, दर्शन एवं विज्ञान के क्षेत्र में बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं जो विशिष्ट संस्थाओं, अकादमियों एवं शोध संस्थाओं में अपने मौलिक कार्य पर पुरस्कार प्राप्त करते हैं।


बालकों में सृजनशीलता का विकास एवं पोषण
:

बालकों में सृजनशीलता की क्षमता व योग्यता का पता लगाने के बाद यह जरूरी है कि उसके उचित विकास एवं पोषण हेतु उचित अवसर व सुविधाएं प्रदान करने के लिए विद्यालय में इस प्रकार का वातावरण प्रस्तुत किया जाए जिसमें छात्रों की सृजनशीलता को आगे बढ़ने का मौका मिले। इस दिशा में निम्न प्रयत्न किए जा सकते हैं-

1. जिज्ञासा की प्रवृत्ति को बढ़ाना :- बालक स्वभाव से ही जिज्ञासु होता है अतः अध्यापक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों को अधिक से अधिक प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता तथा अवसर दे । साथ ही उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों या शंकाओं का उचित उत्तर तथा समाधान प्रस्तुत करे।

2. रचनात्मक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना :- बच्चों में रचनात्मक प्रवृत्ति जन्मजात होती है । वह कुछ न कुछ बनाते-बिगाड़ते रहते हैं। अतः विद्यालय में भी बच्चों को रचनात्मक कार्यों में लगाने हेतु उचित सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।

3. मौलिकता की भावना का विकास :- अध्यापक को बच्चों में सृजनशीलता का विकास करने के लिए जो भी ज्ञान दिया जाए, उसे वे नवीन रूप में पेश कर सकें यही मौलिकता है ।

4. मौलिकता को प्रोत्साहित करना :- बच्चों के कार्य में जो भी मौलिकता हो अध्यापक उसे स्वीकार करे तथा उसकी प्रशंसा करे जिससे बच्चों को अपने नवीन विचार पेश करने के लिए प्रोत्साहन मिले।

5. आत्मविश्वास में वृद्धि करना :- च्चों में सृजनशीलता का विकास करने हेतु उनमें आत्मविश्वास होना अत्यंत आवश्यक है। अत: किसी भी नए कार्य को करने के लिए उन्हें आशावादी बनाना चाहिए जिससे वे पूरे आत्मविश्वास के साथ उस नवीन कार्य में पूरी लगन से जुट सकें।

6. कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण :- सभी कार्य समान हैं। कोई भी कार्य अपने आप में छोटा या बड़ा नहीं होता है। अध्यापक को बच्चों में कार्य के प्रति इसी तरह का सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

7. सृजनात्मक अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करना :- कक्षा में चित्र, चार्ट आदि बनवाकर लगवाना, हस्तनिर्मित वस्तुओं की प्रदर्शनी का आयोजन, बुलेटिन बोर्ड या विद्यालय पत्रिका की व्यवस्था, संग्रहालय, विभिन्न पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन आदि कार्यक्रम छात्रों को अपनी-अपनी सृजनात्मक योग्यता को प्रदर्शित करने के अवसर प्रदान करते हैं। अत: अध्यापक को विद्यालय में इन क्रियाओं तथा कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए।

8. अभिप्रेरणा देना :- बच्चों को उनकी रुचि तथा योग्यता के अनुसार सृजनशील कार्यों में लगने हेतु अभिप्रेरणा देनी चाहिए।

9. पुरस्कार तथा प्रशंसा-बालकों के द्वारा प्रदर्शित किए गए नवीन विचार, नवीन पदार्थ तथा नवीन क्रियाएं यदि अध्यापकों एवं अभिभावकों द्वारा प्रशंसित किए जाते हैं तो इससे उन्हें और भी अच्छा कार्य करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

10. अनुकूलन व्यवहारजन्य आदतों को विकसित करना :- सृजनशीलता के विकास के लिए, बच्चों में कुछ स्वस्थ व्यवहारजन्य आदतों का होना भी आवश्यक है जैसे-परिश्रम, लगन, निर्भयता, विनोदप्रियता, सहनशीलता आदि। अध्यापक को बालकों में इस तरह की आदतों का विकास करना चाहिए।

11. विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था तथा कक्षा :- शिक्षण में आवश्यक सुधार-बच्चों में सृजनशीलता का विकास करने के लिए विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण भी उपयुक्त होना चाहिए। इसके लिए निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए।

(i) विद्यालय का भौतिक एवं भावात्मक वातावरण अनुकूल होना चाहिए।

(ii) पाठ्यक्रम में विषयों तथा क्रियाओं की इस तरह से व्यवस्था की जाए जिससे बच्चों की सृजनशीलता को विकसित होने का अवसर मिल सके।

(iii) कक्षा-शिक्षण में अध्यापक परंपरागत शिक्षण विधियों के स्थान पर ऐसी नवीन तकनीक को अपनाएं जिससे बच्चों को भी कुछ नया करने की प्रेरणा मिले।

(iv) विद्यालय में समय-समय पर पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन करके सृजनशील छात्रों को आगे आने का अवसर देना चाहिए।

(v) परीक्षा प्रणाली को भी इस तरह से परिवर्तित किया जाए जिससे रटे-रटाए ज्ञान के स्थान पर छात्रों को अपने मौलिक विचार प्रस्तुत करने का अवसर मिले। 

(vi) माता-पिता व अध्यापकों में सहज संबंध बच्चों की सृजनशीलता को उचित पोषण देते हैं।

प्रधानाध्यापकों, अध्यापकों एवं अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे सहयोगपूर्ण ढंग से बच्चों की सृजनात्मक योग्यताओं को विकसित करने के लिए पूरी-पूरी सुविधाएं तथा उचित अवसर प्रदान करने के प्रयास करें जिससे बच्चों को आगे बढ़ने के अवसर मिल सकें।


शिक्षा में सृजनात्मकता का विकास
:

1950 के लगभग औद्योगिक विकास के साथ तकनीकी विकास के समन्वय के लिए अधिक उच्चस्तरीय बौद्धिक योग्यता की आवश्यकता अनुभव की गयी। अतः सांस्कृतिक प्रगति के साथ शिक्षालयों में पढ़ने वाले छात्रों के मनोविकास की समस्या पर केन्द्रीय ध्यान दिया गया । सृजनात्मकता के विकास के लिए यह केन्द्रीयकरण मूल आधार था।

तत्कालीन शिक्षालयों से संबद्ध व्यक्तियों ने सृजनात्मकता शिक्षण के संदर्भ में दो मूल त्रुटियाँ की। छात्र जनसंख्या का वर्ग जिसमें सृजनात्मकता की क्षमता है एवं जिन क्षेत्रों में सृजनात्मकता का विकास किया जा सकता था, दोनों का अक्सीमन किया गया। वास्तव में आविष्कार पाठ्यक्रम के कुछ पक्षों तक सीमित नहीं है बल्कि यही सभी क्षेत्रों में संभव है।

इसके अतिरिक्त शोध-कार्यों से अन्य विचार को बल मिला कि सृजनात्मकता कुछ-न-कुछ टोरेन्श के अनुसार अधिगम कठिनाइयों को अनुभव करने की प्रक्रिया के मध्य विकसित होता है। पर आमतौर से शिक्षा सत्ता के माध्यम से ग्रहण की जाती है । इसलिए सत्ता के द्वारा जो सत्य बताया जाता है शिक्षार्थी स्कूली वातावरण में उसे ही सत्य स्वीकार करना सीखता है । यह अनुकूल नहीं है । अतः शिक्षालयों की शिक्षा के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए।

(i) शिक्षालय का वातावरण

(ii) शिक्षक की भूमिका

(iii) कक्षा का वातावरण तथा

(iv) पाठ्यक्रम की व्यवस्था

शिक्षा में सृजनात्मकता के लिए गोर्डन एवं ओसबर्न का मत है कि आधारभूत सुधार अथवा नवीन मौलिक विचारों की उत्पत्ति हेतु इन प्रयासों के मध्य शैक्षिक मूल्यांकन संबंधी कार्य स्थगित कर दिये जाने चाहिए अर्थात् यदि हमें सृजनात्मकता का विकास करना है तो शैक्षिक प्रक्रिया का सीधा संबंध, मूल्यांकन से नहीं होना चाहिए, अन्यथा छात्र मूल्यांकन में उच्च श्रेणी में के लिए, सृजनात्मकता के संबंध पक्ष का महत्व नहीं रहेगा।

टोरेन्श ने लिखा है कि, “सृजनात्मक फीडबैक मूल्यांकनात्मक रिपोर्टों से अधिक उत्तम है, क्योंकि वह शिक्षा का मूल उद्देश्य, व्यक्ति हेतु एक अच्छे भविष्य का निर्माण स्वीकार करता है।

सृजनात्मकता का विकास मनोविज्ञान से जुड़ा है। चूँकि इसका उपयोग अनेक परिस्थितियों में किया जाता है, अत: माता-पिता का दायित्व और भी बढ़ जाता है। इन पदों का अनुकरण सृजनात्मक चिंतन हेतु किया जा सकता है ।

1. जो भी कुछ बतलाया जाए उसमें समस्या के स्तरों को पहचानने का शिक्षण अवश्य हो । बालक यह अवश्य जान लें कि समस्या किस स्तर की है?

जे. स्टेनली ग्रे ने इस संबंध में कहा है, "समस्या समाधान की योग्यता दो पदों पर निर्भर है-एक व्यक्ति की सीखने की या अधिगम करने की बुद्धिवादी क्षमता या बुद्धि तथा दूसरा यह कि क्या उक्त व्यक्ति ने क्षमता के भीतर अधिगम कर लिया है।"

2. सृजनात्मक शिक्षण हेतु समस्या समाधान के संदर्भ में तथ्यों का अधिगम कराया जाए। इनमें क्या किया, क्या न किया जाना चाहिए आदि प्रश्नों के माध्यम से आगे बढ़ा जा सकता है ।

3. सृजनात्मकता के शिक्षण के लिए मौलिकता की उद्भावना विकसित करने हेतु शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। सृजन तथा मौलिकता से अभिप्राय ज्ञान के तथ्यों को नवीन रूप में ढालना है।

4. बालकों में सही मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति विकसित होनी चाहिए। यह सृजनशक्ति को अधिक विकसित करती है।


सृजनशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षा
:-

जिन बालकों में सृजनात्मकता पाई जाती है, वे किसी तथ्य अथवा वस्तु को मौलिक रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनमें यह क्षमता, होती है कि वे कालांतर में एक कुशल कलाकार, वैज्ञानिक, प्राध्यापक, अभियंता या चिकित्सक बन सकें। अतः अध्यापक को सुगमतापूर्वक यह प्रयास करना होगा कि बालकों में सृजनात्मकता का विकास हो।

टोरेन्स ने एक अध्ययन तीन से छ: ग्रेड तक के बालकों के साथ किया। उसने पाया कि इन ग्रेड के बालकों को बहुत कुछ सृजनात्मक कार्यों हेतु प्रोत्साहित किया जा सकता है। तीसरे ग्रेड के बालकों में सबसे ज्यादा सृजनशीलता पाई गयी तथा उन्होंने महत्वपूर्ण वृद्धि अपने सृजनशील लेखन में सृजनशीलता में प्रशिक्षण के बाद प्रदर्शित की। सृजनशीलता की माप उन मानदंडों पर की गई जो सृजनशीलता मापन के लिए टोरेन्स द्वारा बनाये गये थे। चौथे तथा छठे ग्रेड के बालकों ने भी सृजनशीलता के तीन मापदंडों में से दो में उन्नति प्रदर्शित की। किन्तु पाँचवें ग्रेड के बालकों ने पिछड़ जाने की प्रवृत्ति दिखाई। इस अध्ययन में इस प्रकार के भी प्रमाण मिले कि बालकों ने अपने स्वयं के विचारों को उच्च मूल्य देना सीख लिया। उन्होंने गंभीर प्रतिक्रिया उस समय प्रकट की जब कुछ भी काट छाँट उनके सृजनात्मक लेखन में की गई । इस अध्ययन के आधार पर टोरेन्स ने निम्नांकित नियमों का सुझाव शिक्षकों को बालकों ने सृजनशीलता के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दिया-

1. बालकों के प्रश्न की तरफ आदरपूर्ण भाव रखो।

2. कल्पनात्मक एवं असाधारण विचारों के प्रति आदर दिखाओ।

3. बालकों को दिखाओ कि उनके विचार उसकी निगाह में मूल्य रखते हैं।

4. बालकों को अनुसंधान या अभ्यास हेतु बिना मूल्यांकन के अवसर प्रदान करो।

5. स्वयं पहले किये हुए सीखने को प्रोत्साहित करो और उसका मूल्यांकन करो।

6. इस तरह के मूल्यांकन करो कि विद्यार्थी के अंदर अपने व्यवहार के कारण तथा परिणामों को देखने की योग्यता में वृद्धि हो जाए।

वह सब सिद्धांत जो समस्या हल एवं कल्पना के विकास के लिए शिक्षण देने में महत्व के हैं, वह सृजन की योग्यताओं के विकास हेतु भी महत्वपूर्ण हैं। अतएव जो पीछे हमने समस्या हल के लिए शिक्षा एवं कल्पना के लिए शिक्षा के संबंध में कहा है, वह सब सृजनशीलता के विकास हेतु शिक्षण में भी प्रयोग किया जाना चाहिए। उनमें अतिरिक्त तीन अन्य सिद्धांतों को भी ध्यान में रखना चाहिए। जो सृजनशीलता के लिए अनेक अध्ययनों में महत्वपूर्ण पाये गये क्लॉसमियर तथा रिपेल ने कहा-

(1) अपनी अभिव्यक्ति का प्रदर्शन, चित्रमय, मौखिक या शारीरिक रूप से करना नवीन आकारों अथवा विचारों के उत्पादन हेतु आवश्यक है।

(2) सृजनात्मक प्रयासों में सफलता उच्च स्तर की सृजनात्मक अभिव्यक्ति से संबंधित है। 

(3) अपसरण प्रकार से चिंतन एवं व्यवहार करना और उसके साथ वर्तमान स्तरों को मान्यता देना तथा अनुभव होना सृजनशीलता हेतु अनिवार्य है।


इन सिद्धांतों के आधार पर शिक्षण देने हेतु निम्न निर्देश दिये जा सकते हैं
:-

(1) अध्यापक बालकों को इस तरह से पढ़ायें कि वे समस्या के सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर, उस पर चिंतन कर सकें।

(2) समस्या से संबंध रखने वाले तथ्यों की जानकारी अध्यापक दे तथा तथ्यों के संकलन का काम छात्रों से कराया जाए।

(3) जो विद्यार्थी तथ्यों को नवीन रूप में प्रस्तुत कर सकते हों या जो भौतिक तथ्य संकलित कर सकते हों, उन्हें प्रोत्साहित किया जाए।

(4) अध्यापक को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि छात्र-छात्राओं में तथ्यों का सही-सही मूल्यांकन करने की वृत्ति का विकास हो ।

(5) समय-समय पर शिक्षक विद्यार्थियों के सामने कोई कार्य, प्रक्रिया अथवा वस्तु प्रस्तुत करे और उन्हें सुधार करने या संशोधन करने के लिए प्रेरित करे।

(6) यदि कोई बालक किसी क्षेत्र में असफल होता है, तो उसे दूसरे क्षेत्र में प्रतिभा के प्रकाशन हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए।

(7) सृजनात्मकता के लिए ज्यादा बुद्धि की आवश्यकता नहीं। इसलिए अध्यापक सिर्फ प्रखर बुद्धि छात्रों में ही सृजनात्मकता की खोज न करे । अपितु उसे तो प्रत्येक बालक को कुछ-न-कुछ सृजनात्मकता करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

दूसरे शब्दों में, क्लासमियर के तीन शिक्षण संबंधी निर्देशों के तहत, अपसरण उत्पादन अनेक माध्यमों में प्रोत्साहन, सृजनात्मक प्रयासों को पुरस्कृत करना तथा सृजनात्मक व्यक्तित्व विकसित करने में बालक की सृजनात्मक अभिव्यक्ति को प्रकाश में लाया जा सकता है।


सृजनशील बालक
:

सृजनशील बालक राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति होता है अतः उसकी तरफ विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है । सृजनशील बालकों की ओर विशेष ध्यान देने हेतु यह आवश्यक है कि हम उनका सर्वप्रथम पता लगायें ।

सृजनशील बालकों का पता लगाने की निम्नांकित आवश्यकताएं हैं-

1. सृजनशील बालकों का पता लगाने से उनके व्यवहार, व्यक्तित्व एवं मानसिक योग्यताओं से संबंधित हमारा ज्ञान व्यापक होगा।

2. सृजनशील बालकों का पता लगाने से ही उन्हें व्यक्तिगत शिक्षण प्रदान किया जा सकेगा

3. जब तक हुम सृजनशील बालकों का पता नहीं लगाते तब तक उन्हें समुचित मात्रा में शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन प्रदान नहीं कर सकते।

4. बालकों के सही मूल्यांकन हेतु सृजनशील बालकों का पता लगाना जरूरी है।

5. कक्षा में अनेक दैनिक समस्याएं इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि हम बालकों की शैक्षिक व मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं। सृजनशील बालकों का पता लगाकर ही उनकी शैक्षिक एवं मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है।

6. जब तक सृजनशील बालकों का पता नहीं लगा लिया जाता, तब तक उनकी सृजनात्मक शक्ति के विकास हेतु आवश्यक प्रयत्न भी नहीं किये जा सकते हैं।

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि सृजनशील बालकों का पता लगाया जाये। बालकों की सृजनात्मक योग्यता का पता लगाने के लिए प्राय: दो विधियाँ अपनाई जाती हैं।  

(1) सृजनशीलता के परीक्षण के द्वारा तथा

(2) कक्षाध्यापकों से बालकों के संबंध में सम्मति लेकर। इनमें सृजनशीलता के परीक्षण पर्याप्त सही सूचना बालकों को देते हैं पर इन परीक्षणों के अभाव में भी हम सृजनशील बालकों की पहचान कुछ सामान्य गुणों के आधार पर कर सकते हैं।


एक सृजनशील बालक में प्रायः निम्न विशेषताएं पाई जाती हैं
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1. सृजनशील बालकों में मौलिकता तथा नवीनता का अद्भुत गुण होता है।

2. सृजनशील बालकों की बुद्धि-लब्धि उच्च होती है।

3. इनमें संदेह की मात्रा अधिक होती है जिसके कारण वे प्रत्येक बहुप्रचलित धारणा की भी नये सिरे से जाँच करना चाहते हैं।

4. उनमें व्यक्तित्व में जटिलता की मात्रा अधिक होती है अतः अध्यापक हेतु उस बालक को समझना कठिन हो जाता है

5. सृजनशील बॉलक में जिज्ञासा की मात्रा ज्यादा होती है जिसके कारण वे हर प्रश्न, घटना, कार्य आदि का पूरा-पूरा उत्तर चाहते हैं।

6. वे उन अस्पष्ट विचारों की तरफ भी विशेष ध्यान देते हैं जिन्हें सामान्य बालक लापरवाही के कारण छोड़ देते हैं। उनमें सामान्य बातों पर भी ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति ज्यादा होती है।

7. इनमें साहस की मात्रा ज्यादा होती है। साहस के कारण वे उन कार्यों में भी हाथ डाल देते हैं जिन्हें करने में सामान्य बालक डरते हैं। साहस के कारण ही वे परंपरागत तथा बहुप्रचलित मार्गों से हटकर नया मार्ग तलाश करने के प्रयsत्न करते हैं।

8. इनमें संवेदनशीलता ज्यादा होती है। इसलिए वे प्रत्येक कार्य को गंभीरता से लेते हैं

9. वे अपने विचारों को दबाकर नहीं रख सकते हैं वे अपने हर विचार को व्यक्त कर देते हैं।

10. उनके विचारों में व्यावहारिकता एवं वास्तविकता होती है।

11. उसमें विरोधी गुणों का अद्भुत सम्मिश्रण होता है। इस सम्मिश्रण के कारण वे कभी बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य करते हैं तो कभी पागलों जैसे कार्य करते हैं। वे कभी सुसंस्कृत बन जाते हैं तो कभी पूरी तरह जंगली, कभी-कभी उनके विचार बड़े विचित्र एवं मूर्खतापूर्ण लगते हैं।

12. सृजनशील बालक उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहता है।

13. इन बालकों में उच्च कल्पना-शक्ति संयोग का पुनर्संगठन करने की योग्यता एवं उच्च महत्वाकांक्षा होती है।

14. यह बालक काफी लगनशील एवं परिश्रमी होते हैं।

15. इनके व्यवहारों में लोच होती है अतः ये बालक एक ही विचारधारा से चिपके . नहीं रहते हैं।

16. इनमें एकाग्रचित्तता का महान गुण होता है। वह अपने कार्य में एकाग्रचित्त होकर लंबे समय बड़ी लगन के साथ धैर्यपूर्वक कार्य करता रहता है। वह असफलताओं से नहीं घबड़ाता । बार-बार की असफलताओं के बावजूद भी वह नये-नये प्रयत्न ता ही रहता है।

17. सृजनशील बालक दूरदर्शी होता है । वह आगे की सोच सकता है। वह वर्तमान एवं भविष्य में सफलतापूर्वक संबंध स्थापित कर सकता है।

18. उनमें स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति होती है। वह अपने निर्णय लेता है एवं वस्तुओं एवं विचारों को अपने ढंग से पेश करना चाहता है।

19. सृजनशील बालकों में परिहास एवं मनोविनोद की मात्रा प्राय: अधिक ही होती हैं।


सृजनात्मक क्रिया
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सृजनात्मक बालकों में उपरोक्त गुणों का होना जितना आवश्यक है,उतना ही आवश्यक सृजनात्मक क्रियाओं का होना । अतः सृजनात्मक क्रियाओं में इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

1. सृजनात्मक अभिव्यक्ति :- बालक की कल्पना तभी साकार होती है जबकि उसे सृजनात्मक रूप से अभिव्यक्त किया जाये। बालकों में वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है। उनमें सृजनात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता भी भिन्न होती है। इसके लिए-(i) संवेगों की अभिव्यक्ति, (ii) ज्ञान तथा अनुभव के पुनर्गठन की आवश्यकता पड़ती है। चित्रकला, पेंटिंग, कला एवं हस्तकला के द्वारा बालक को सृजनशीलता के अवसर दिये जा सकते हैं। बड़े बालकों को लिखने की अभिव्यक्ति के अवसर देकर सृजनशीलता को विकसित किया जा सकता है। इसी तरह नृत्य आदि की सृजनशीलता गत्यात्मक अभिव्यक्ति द्वारा दी जा सकती है। कलात्मक वस्तुओं का सृजन एवं उनकी प्रशंसा से भी सृजनात्मकता का विकास होता है।

2. विश्वास की भूमिका :- बालक का जीवन ऐसी घटनाओं से परिपूर्ण रहता है कि मानसिक जीवन में उसे विश्वास की भूमिका अनिवार्य रूप से निभानी पड़ती है। वह यथार्थ से मुक्त होकर खेलता है। वह इन्हीं परिस्थितियों का सृजन एवं पुनर्सजन करता रहता है। ऐसे बालक घर में अनेक तरह का अभिनय करते हैं। पापा की ऐनक लगाकर पापा बनते हैं; आदि ।

3. मनतरंग की भूमिका :- मनतरंग भी विश्वास की भूमिका जैसी क्रिया है। नर्सरी कक्षाओं में याद की गई कहानियाँ एवं गीत कालांतर में उसकी कल्पना की वस्तु बन जाते हैं। इनसे संवेगों का विकास होता है। पढ़े जाने वाले साहित्य का प्रभाव उन पर पड़ता है तथा वे साधारणीकरण की प्रक्रिया में प्रवाहित होते रहते हैं।


सृजनात्मकता के परीक्षण
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सृजनात्मकता के परीक्षणों के लिए गिलफोर्ड ने कई परीक्षणों की रचना की है। टोरेन्स ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसके परीक्षण निरंतरता, लोचनीयता, मौलिकता तथा विस्तार आदि का मापन करते हैं। टोरेन्स ने चार परीक्षणों की एक बैटरी का निर्माण बच्चों में सृजनात्मकता के मापन के लिए किया है। इस बैटरी के दो परीक्षण मौखिक एवं दो लिखित हैं। ये परीक्षण इस तरह हैं-

1. चित्रपूर्ति परीक्षण :- यह मौलिक परीक्षण है। इस परीक्षण में अपूर्ण चित्र रहते हैं। इनको दिखाकर दूसरे सिरे पर दिये गये चित्र से मिलान कर नवीन चित्र बनाने के लिए कहा जाता है। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि छात्र इन चित्रों के सहारे मौलिक चित्र बनायें। इसके आधार पर एक कहानी का निर्माण करने के लिए कहा जाता है चित्र एवं कहानी का शीर्षक निर्माण करने के लिए कहा जाता है।

इस परीक्षण के प्राप्तांकों का निर्धारण निरंतरता तथा लोचनीयता, मौलिकता एवं विस्तार के आधार पर किया जाता है।

2. वृत्त परीक्षण :- पहले परीक्षण की भाँति ही दूसरा परीक्षण है। इसमें छात्र को वृत्त के के अंदर चित्र बनाने के लिए कहा जाता है । चित्र के लिए छात्र वृत्त के अंदर की जगह को इस्तेमाल करता है। वह मनचाहे चित्र बनाता है। इसमें निरंतरता, लोच, मौलिकता एवं विस्तार के आधार पर अंक प्रदान किये जाते हैं ।

3. प्रोडक्ट इम्प्रूवमैंट टास्क :- कुत्ते के खिलौने का चित्र छात्र के सम्मुख पेश किया जाता है। इसमें उसको चालाकी से कुत्ते को बदलने की घटना एवं उपायों को लिखने के लिए कहा जाता है । इस परीक्षण में नूतन विचार की निरंतरता, लोच, मौलिकता तथा विस्तार के संदर्भ में अंक दिये जाते हैं।

4. टीन के डिब्बों का उपयोग :- छात्र को खाली डिब्बों के नूतन उपयोग बतलाने हेतु कहा जाता है। यह परीक्षण गिलफोर्ड के ब्रिक्स टेस्ट जैसा है। इसमें डिब्बों की संख्या का कोई बंधन नहीं होता।

प्रत्येक परीक्षण की कालावधि 10 मिनट होती है। इनमें छात्रों को असंभव की सूची भी बनानी पड़ती है। इसमें इस तरह के परिकल्पनात्मक प्रश्न करने पड़ते हैं, जैसे-पृथ्वी में आर-पार छेद कर दिया जाये तो क्या होगा? यदि व्यक्ति जब चाहे अदृश्य हो जाये तो क्या होगा? आदि।

इन परीक्षणों के अतिरिक्त मैडनिक का रिमोट एसोसिएशन परीक्षण, जॉन सी. फ्लैगन का मेजरमेंट ऑफ इनजेनुइटी परीक्षण तथा बैरन वल्श आर्ट स्केल भी सृजनात्मक के मापन के लिए प्रसिद्ध है।

जहाँ तक भनोविश्लेषण मत का प्रश्न है, वह सृजनात्मकता के परीक्षण के लिए रोर्शा परीक्षणों के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हॉल्ट तथा हेवल (196) ने प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर रोर्शा का उपयोग किया। इसका उपयोग व्यक्ति की योग्यता, उत्पादकता, अहं सम्प्रयुक्तता को जानने हेतु किया गया। अंक,श्रेणी, विषय तथा सामान्य चर या अपसार के तीन समूहों में अंक प्रदान किये गये। अंकों की इस प्रणाली को अनुसंधान साधन के रूप में लिया गया। बर्नार्ड मैकलर ने अनुकूली तथा अनुकूली प्रतिगमन की सृजनशीलता की पहचान के लिए इसका उपयोग किया है।

पाइन एवं हॉल्ट, गोल्डन बर्गर एवं हॉल्ट (1961) तथा कोहन (1961) ने भी रोर्शा को सृजनात्मक के परीक्षण हेतु उपयोग किया है। पाईन एवं हॉल्ट ने कल्पना के विभिन्न परीक्षणों के परिणामों, उत्पादों के गुण तथा सामग्री की प्रक्रिया के संबंधों को ज्ञात करके वांछित परिणाम प्राप्त किये। टी.ए.टी. , साइंस टेस्ट, ह्यूमर टेस्ट, पशु चित्रण एवं गिलफोर्ड के ब्रिक्स-यूज तथा कान्सीक्वेंसेज टेस्ट का भी बहुतायत में प्रयोग किया गया।

गोल्ड बर्गर एवं हॉल्ट (1961) ने रोर्शा परीक्षण को कालेज के 14 पुरुष छात्रों पर प्रयोग किया। इस परीक्षण से उसने छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन अनुभव किया। कोहन (1961) ने हॉल्ट एवं हैवल की प्रणाली की पुनर्व्याख्या की उसने इसमें अनुकूली अंक तथा अनुकूली प्रतिगमन अंक को सम्मिलित किया। रोर्शा टेस्ट का उपयोग बैरन, हैमर ने भी किया। इन सभी परीक्षणों का प्रयोग इस आधार पर किया गया। इससे विषय का प्रक्षेपण हो जाता है।

मैल्जमैन तथा उसके साथियों ने सन् 1960 में गिलफोर्ड का अनयूजवल यूजेज टेस्ट का उपयोग किया। मैडनिक ने 30 पदों वाले रिमोट एसोसिएशन परीक्षणों का प्रयोग किया।

इस समय भी 39 परीक्षणों का प्रयोग सृजनात्मक परीक्षणों के लिए किया जा रहा है। ये परीक्षण मौखिक तथा अमौखिक क्षेत्रों को पूरा करते हैं। इनमें टोरेन्स, गेजल तथा जैक्सन के परीक्षण निरंतरता, नमनीयता, मौलिकता तथा व्याख्या की ओर संकेत करते हैं। इन परीक्षणों के अतिरिक्त मैडनिक का रिमोट एसोसिएशन एवं मेजरमेंट ऑफ इनजेनुइटी एवं बैरन वैल्श आर्ट स्केल भी सृजनात्मकता के अध्ययन के लिए प्रचलित हैं।


सृजनात्मकता का शिक्षण द्वारा विकास
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शिक्षण द्वारा कक्षा-कक्ष में बालकों की सृजनात्मकता का विकास किया जा सकता है इसके लिए शिक्षण कार्य में शिक्षक को पाठ्यक्रम के अलावा शिक्षणेत्तर क्रियाओं को भी महत्त्व देना चाहिए। शिक्षक को कक्षा में गोष्ठियाँ, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबन्ध प्रतियोगिता, ड्राइंग प्रतियोगिता, सेमिनार, नवीन विषयों पर गोष्ठियाँ, भाषण, पोस्टर प्रतियोगिता का कार्यक्रम कराते रहना चाहिए। इससे छात्रों की सृजनात्मकता में वृद्धि होती है। सृजनात्मकता शून्य में क्रियाशील नहीं होती है। सृजनात्मकता के विकास हेतु वातावरण का भी काफी महत्त्व होता है। सृजनात्मकता को विकसित करने में वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों का ही महत्त्व होता है। कक्षा-कक्ष में बालकों में सृजनात्मकता विकसित करने हेतु उनके सामने परिस्थिति रखकर उस पर वे क्या सोचते हैं ? इस बात को सतर्कतापूर्वक नोट करना चाहिए; उदाहरण के लिए शिक्षक एक प्रश्न कर सकता है अगर आपके विद्यालय में पहिए लग जायें तो आपको क्या लाभ होगा? इस पर सभी छात्र अपनी नोट बुक में अपने विचार लिखें । शिक्षक को यह देखना है कि जिन छात्रों ने सामान्य छात्रों से बिल्कुल भिन्न उत्तर दिये हैं, वे ज्यादा सृजनात्मक योग्यता रखने वाले छात्रों की श्रेणी में आयेंगे।


सृजनात्मकता के प्रकार
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टेलन उन विभिन्न स्तरों के बीच में विभेद करता है, जिस पर व्यक्ति सृजनात्मक हो सकता है। उसकी राय है कि सृजनात्मकता को पाँच भिन्न स्तरों पर सोचा जा सकता है जो एक बढ़ते पदानुक्रम में होते हैं।

(1) उसके अनुसार प्रथम स्तर, प्रकटात्मक सृजनात्मकता है, जिसमें स्वतंत्र प्रकटीकरण शामिल होता है जहाँ कुशलता की मौलिकता तथा उत्पाद की गुणवत्ता उतने महत्त्वपूर्ण नहीं होते। यह बच्चों की तुरंत बनाई चित्रकला में प्रदर्शित होता है।

(2) दूसरा स्तर उत्पादकीय सृजनात्मकता है, जिसमें व्यक्ति पर्यावरण के ऊपर महारत हासिल करता है तथा किसी ऐसी चीज को उत्पादित करता है जो पहले कभी उत्पादित नहीं की गई थी।

(3) नवप्रवर्तनीय सृजनात्मकता तीसरे स्तर को संघटित करती है जो प्रवीणता की उपस्थिति से मार्क होता है। आविष्कारकों, जाँचों तथा खोजकों जो पुरानी चीजों के नए तरीके खोजते हैं, की उपलब्धि में प्रकट पुराने भागों के नए उपयोग नवप्रवर्तनीय सृजनात्मकता के उदाहरण हैं।

(4) ऐसे लोग होते हैं जो एक सिद्धान्त के मूलभूत आधारों या सिद्धान्तों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करते हैं, वे सृजनात्मकता के चौथे स्तर को पाते हैं। इसे इनोवेटिव सृजनात्मकता कहा जाता है।

(5) सृजनात्मकता का पाँचवाँ तथा सबसे ऊंचा स्तर एमरजेंटिव सृजनात्मकता है इसके लिए उन अनुभवों को अवशोषित करने की क्षमता की जरूरत होती है जो सामान्यतः उपलब्ध कराए जाते हैं एवं तब उससे किसी ऐसी चीज को उत्पादित करना जो विशिष्ट हो। आइंस्टाइन, फ्रायड, पिकास्को, राइट, तुलसीदास, रामानुजम, टैगोर आदि के निर्माणों को एमरजेंटिव सृजनात्मकता के उदाहरणों के रूप में उद्धरित किया जा सकता है।

छात्रों में सृजनात्मकता के विकास हेतु कौन से उपाय करने चाहिये?

बालकों/बालिकाओं में सृजनात्मकता के गुणों के विकास की विधियां.
बालकों के स्तर पर- * स्वयं को प्रसन्नता देने वाले कार्य करें। * चित्त को शांत रखने हेतु मनन एवं आत्मचिंतन करें। ... .
अभिभावकों के स्तर पर- * सकारात्मक चिंतन को बढ़ावा दे। * बच्चों की रुचियों को पहचान कर उन्हें अभिव्यक्ति का अवसर दें। ... .
शिक्षकों के स्तर पर-.

कक्षा में सृजनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए विद्यार्थियों को कैसे अवसर प्रदान करने चाहिए?

छात्रों की सृजनात्मकता का विकास और पोषण करने के निम्न तरीके हैं:.
बच्चे के विचारों का सम्मान करना।.
बच्चे को नवीन सोच के लिए उत्साहित करना।.
बच्चे की चिंताओं को संतुष्ट करना।.
जोखिम लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करना।.
छात्रों को लचीले तरीके से सोचने में मदद करना।.
एक समृद्ध वातावरण प्रदान करना।.

सृजनात्मकता के विकास में शिक्षक की क्या भूमिका है?

अध्यापक ऐसे बालकों को विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अवसर प्रदान करें। कलात्मक अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किये जाए। अध्यापक ऐसे बालकों को आत्म मूल्यांकन के लिए प्रोत्साहित करें। अध्यापक कक्षा में मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता युक्त वातावरण पैदा करें कि बालक स्वयं को सुरक्षित व स्वतंत्र महसूस करें।

शिक्षा में सृजनात्मकता का क्या महत्व है?

सृजनात्मकता का गुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है परन्तु शिक्षा एवं उचित वातावरण के द्वारा सृजनात्मक योग्यता का विकास किया जा सकता है। सृजनात्मकता एक बाध्य प्रक्रिया नहीं है, इसमें व्यक्ति को इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होती है। सृजनात्मकता अभिव्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।