भारत में श्रमिक आंदोलन को संगठित करने वाला पहला नेता कौन था? - bhaarat mein shramik aandolan ko sangathit karane vaala pahala neta kaun tha?

Table of Contents

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  • ब्रिटिश भारत में मजदूर आंदोलन
  • श्रमिक संघों के गठन के कारण
    • शुरूआती मजदूर संघ आंदोलन
    • वामपंथी विचाधारा का विकास
    • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का उदय
    • कांग्रेस समाजवादी दल का उदय  सन् 1934 में

ब्रिटिश भारत में मजदूर आंदोलन

भारत में मजदूर आंदोलन उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आधुनिक उद्योगों की स्थापना के साथ ही भारत में मजदूर संघों की गतिवधियाॅ एवं उनके अस्थित्व की शुरूआत देखी गई। इस दिशा में सर्वप्रथम कदम था रेलवे का विकास जो आध्ुानिक भारतीय कांमगार वर्ग आंदोलन का अग्रदूत सिद्ध हुआ। औद्योगिक जीवन की कठिनाइयों को खत्म करने के लिए मजदूर संघवाद की प्रारंभिक अवस्था मे श्रमिकों ने अपनी मांगे प्रस्तुत की थीं। श्रमिक आंदलोन की प्रथम अभिव्यक्ति 1777 ई. में नागपुर स्थित एम्प्रेस मिल  के कामगारों की वेतन दरों के विरोध में हडताल थी। इस शताब्दी के अंतिम दशक तक किसी भी व्यवस्थित मजदूरा संघ का गठन नही हुआ था। भारतीय श्रमिकों की दशा का अध्ययन करने उसमें सुधारात्मक कार्य करने तथा भारतीय कामगारों की दशा को सुधारने के उदेश्य से 1875 ई. (जब कारखाना  श्रमिकों की स्थितियों की जाॅच के लिए प्रथम पांच समिति नियुक्त की गई थी) से 1890 ई0 तक (जब भारतीय श्रम आयोग की नियुक्ति की गई) की कालावधि मे कई प्रयास किए गए थे।

बम्बई विधानसभा में श्रमिकों की कार्य अवधि के विषय में 1878 ई में सोरावजी शपूर जी बंगाली ने एक विधेयक प्रस्तुत करने का प्रयास किय, लेकिन इसमें वे असफल रहे। रमिक नेता शाशिपाद बनर्जी ने 1870 ई. में श्रमिकों में जागरूकता लाने लाने हेतु मजदूरों का एक क्लब स्थापित किया और भारत श्रमजीवी नामक पत्रिका का सम्मपादन किया। 1890 ई. में एम लोखण्डे ने बाॅम्बे मिल हैंड्स एसोसिशन की स्थापना की जिसे भारत में गठित प्रथम श्रमिक संघ कहा जाता है। 1897 ई. में कोष स्थायी सदस्य तथा स्पष्ट नियमों के साथ पहली बार एक मजदूर संगठन अमलगमेटिड सोसायी आॅफ रेलवे सवेन्टस आॅफ हण्डिया एण्ड बर्मा का गठन हुआ। मजदूर वर्ग की प्रथम संगठित हड़ताल ब्रिटिश स्वामित्व वाली रेलवे में हुई जब 1899 ई. में ग्रेट इंझियन पेनिनसुलर में कार्यरत श्रमिकों ने कम मजदूरी और अधिक कार्य अवधि के कारण हड़ताल कर दी। इसी दौरान भारत में अनेक मजदूर संगठन अस्तित्व में आये। इन श्रमिक संगठनों से कामगार हितवर्धक सभा 1909 ई. सामाजिक सेवा संघ 1911 ई. कलकत्ता मुद्रक संघ 1905 ई भारतीय रेल कर्मचारी एकीकृत सोसायटी 1897 ई.,प्रिन्टर्स यूनियन 1905 ई, पोस्टल याूनियन 1907 ई आदि संगठन प्रमुख थे।

1908 ईख् में राष्टवादी नेता बाल गंगाधर तिलक को 8 वर्ष का कारावास होने  पर बम्बई के कमड़ा मजदूर लगभग एक सप्ताह तक हड़ताल पर रहे। यह मजदूरो की पहली राजनीतिक हड़ताल थी। श्रमिक आंदोलन के आरम्भिक दिनों में रमिकों की जिस समस्या ने लोगों का ध्यान खींचा, वह करारबद्ध  की व्यवस्था थी। यह उ भारतीयों की कार्य तथा जीवन संबंधी समस्याओं को संबोधित करता था जो बहुत बड़ी संख्या ब्रिटिश उपनिवेशों तथा अन्य देशों में भेजजे जाते थे। समान्यतः 1830 ई से ही भारतीय करारबद्ध श्रमिकों को देश से बाहर भेजा जाने लगा और 1922 ई. तक इस प्रथा के समाप्त हो जाने तक यह स्थिति बनी रही। दक्षिण अफ्रीका में महत्मा गांधी ने करारबद्ध श्रमिकों के बीच श्रमिक क्षेत्र में अपने कार्य की शुरूआत की थी। आगे चलकर उन्होंने अहमदाबाद के कमडा मिल श्रमिक का गठन किया और उसके विकास में सहायक रहे।

श्रमिक संघों के गठन के कारण

श्रमिक संघों के गठन संबधी प्रमुख कारणों में सर्वोंपरि थे- ग्रामीण गरीबी तथा ऋणग्रस्तता। गरीबी के कारण शहर आने वाले श्रमिक उन बिचैलियों कीदया पर निर्भर होते थे, जो उन्हें नौकरी दिलाने में मदद करते थे। ये श्रमिक देश के विभिन्न भागों से आते थे और धर्म, जाति, सम्प्रदाय एवं भाषा भेद के कारणों से एक दूसरे के स्वभाव से परिचित नहीं थे। इस परिवेश में रहने के कारण श्रमिकों को एकता एवं संगठन में निहित शक्ति का ज्ञान प्राप्त करने में काफी समय लगा। इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध तथा मन्दी के कारण आर्थिक संकट का भार श्रमिकों के कंधों पर आ पड़ा। भारत में यह स्थिति संगठित मजदूर आंदोलन के विकास के लिए एकदम उपयुक्त थी।

शुरूआती मजदूर संघ आंदोलन

भारत का पहला अधुनिक मजदूर संगठन था- बी.पी. वाडिया द्वारा गठित मद्रास संघ, 1918 ई. में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना तथा उसमें भारत की सदस्यता का परिणाम आॅल इंडिया टेªउ यूनियन कांग्रेस  की स्थापना के रूप में सामने आया। एटक  का पहला सम्मेलन 1920ई. में बम्बई में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता तत्कानीन कांग्रेस अध्यक्ष लाला लाजपत राय ने की। 1920 ई. तथा 1922 के मध्य यह संगठन कांग्रेस से सम्बद्ध था। कांग्रेस के गया अधिवेशन (1922) में श्रमिकों को संगठित करने के लिए कांग्रेस ने सहयोग करने का  निर्णय लिया।

कालांतर में लाल लाजपत राय सी0आर0 दास जी0ए0 सेन गुप्त, सी0एफ0 एन्डूज, सुभाषचंन्द्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जेसे नेताओं ने एटक की अध्यक्षता की। 1926 ई. में भारतीय मजदूर संघ अधिनियम पारित हुआ। जिससे मजदूर संघो को कानूनी दर्जा प्रदान किया गया। श्रमिक संघों में वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के कारण 1929 ई. में एटक का विवभाजन हो गया। 1929 में एटक से अलग हुए साम्यवादी नेता देशपाण्डेय ने लाल टेªड यूनियन का गठन किया।

1934 ई0 में कांग्रेस के अन्दर गठित समाजवादी कांग्रेस दल के प्रयासों से विभाजित एटक में एक बार फिर से एकता कायम हो गयी। कांग्रेस में ही वामपंथी विचारधारा वाले नेता जैसे श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर हमद, पूरणचन्द्र जोशी तथा सोहन सिंह जोश ने कामगार किसान पार्टी की स्थापना की। केन्द्रीय संघ के संगठनों को एक करने के परिणामस्वरूप 1933 ई. में राष्ट्रीय मजदूर संघ परिसंघ स्थापना हुई। 1938 ई. में एटक तथा छज्न्थ् की नागपुर में एक संयुक्त बैठक हुई पहले विभाजन के 11 वर्ष बाद अर्थात् 1940 में दोनों में एकता स्थापित हो गयी। बाद में छज्न्थ् का विघटन हो गया तथा उसके मजदूर संघ एटक  से जुड़ गये।

श्रमिक आंदांलन 1930-36 के बीच कमजोर पड़ गया। इसका परिणाम हुआ कि 1932-34 ई0 में शुरू हुए द्वितीय विनय अवज्ञा आंदोलन में मजदूरों की भागीदारी कम रही। 1935 ई के अधिनियम के बाद लोकप्रय मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने से मजदूर संघों की संख्या में अत्याधिक वृद्धि हुई। आमतौर पर कांग्रेस मंत्रिमडल श्रमिकों की माॅगों के प्रति सहानुभूति रखते थे। उसके कार्याकाल मे कांग्रेस मंत्रिमांडलों द्वारा 1938 ई0 के बम्बई औद्योगिक विवाद अधिनियम तथा 1939 ई. के दुकान और संस्थान अधिनियम जैसे विभिन्न श्रम अधिनियम पारित किए गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध का श्रमिक संघ आंदोलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। युद्ध के परिणाम स्वरूप पहले तो मूल्यों में वृद्धि हुई और जरूरी वस्तुओं का आभाव हो गया। दूसरे युद्ध की माॅग को पूरा करने के लिए औद्योगिक क्रियाकालापों में अत्याधिक वृद्धि हुई। कांग्रेस मंत्रिणमंडल पहले ही त्याग-पत्र दे चुके थे। श्रमिकों ने महॅगाई भत्ता तथा बोनस की माॅग की परंतु सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम के तहत सभी हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। तथापि, युद्ध से उत्पन्न स्थितियाॅ श्रमिक संघों के विकास में सहायक हुई। लाहौर में नवम्बर 1941 में श्रमिक संघों के बहुत बडे़ सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें विशाल संख्या में श्रमिक संघों ने भाग लिया। इसी सम्मूलन में भारतीय श्रमिक परिस्ंाघ  नाम से नए केन्द्रीय मजदूर संघ के गठन का निर्णय लिया गया। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ से ही भारत की स्वतंत्रताप्राप्ति तक श्रमिक संघों की गतिवधियाॅ बहुत धीमी रहीं 1940 ई0 के बाद से ही साम्यवादी युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहे थे तथा वे हड़ताल के समर्थन में नहीं थे। इसके अलावा, केंग्रेस के श्रमिक संघों के अधिकतर नेता 1942 ई0 के भारत छोडों आंदोलन में गिरफ्तार किएजा चुके थे।  स्वतंत्रताप्राप्ति से से पूर्व श्रमिक संघ आंदोलन के इतिहास में युगांतरकारी घटना मई 1944 में भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन की स्थापना थी। इसका लक्ष्य श्रमिक आंदोलन को गंाधीवादी आदर्शों पर चलाना था। इस संगठन के गठन का प्रमुख कारण 1938ई. में नागपुर एकता के बाद साम्यवादियों द्वारा एटक  पर अपना प्रभुत्व जमा लेना था। राष्ट्रवादियों ने सरदार बल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में मई 1947 में एटक  से अलग होकर भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन बना ली।

देश में 1918 ई0 में प्रथम श्रमिक स्ंाघ के गठन के साथ श्रमिक आंदोलनो की विकास-यात्रा आंरभ हुई। इसके विकास का अनुमान इस बात से लाया जा सकता है कि भारत जब आजाद हुआ तब इन संघों की संख्या 195 तक पहुॅच गयी थी। फिर भी, स्वंतत्रताप्राप्ति से पूर्व भारतीय श्रमिक संघ आंदोलन में अधिकांश औद्योगिक श्रमिकों की निरक्षरता, बाम्ह नेतृत्व पर उनकी निर्भरता तथा राजनीति चेतना का आभाव आदि प्रमुख कारण थे, जिनके परिणामस्वरूप यह आंदोलन कई धाराओं में विभक्त हो गया था इसे आपसी फूट का शिकार होना पड़ा।

वामपंथी विचाधारा का विकास

वामपंथी एवं दक्षिणपंथी  फ्रांसीसी क्रांति की देन हैं। राजा के समर्थक दक्षिणपंथी तथा राजा के विरोधी वामपंथी कहलाए। कालांतर में समाज वादी  तथा साम्यवादी  विचारधाराओं के संदर्भ में वामपंथी। शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।

प्राचीन भारतीय परंपरा में चोलकाल के अंतर्गत भी दो वर्ग थे- वैलगै तथा इड़गै। वैलंगे समर्थकों का वर्ग था जबकि इड़गै राजा के विरोधियों का प्रतिनिधत्व करते थे। अठरहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रांति के पश्चात् समाज में दो नए वर्गों पूंजीपति  एव मजदूर वर्ग  का उदय हुआ। धीरे-धीरे इन मजदूरों की दशा बहुत खराब होने लगी। कार्ल माक्र्स एवं फैडरिक एंजिल्स द्वारा सन् 1848 ई. में प्रसिद्ध प्रस्तक कम्युनिस्ट लिखी गई, जिसमें जिसमें सर्व प्रथम साम्यवाद शब्द का प्रयोग हुआ।

भारत में प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् साम्यवादी विचारधारा का प्रचलन हुआ। इस विचारधारा का प्रसार सबसे अधिक औद्योगिक नगरों जैसे बंबई, कलकत्ता, मद्रास, लाहौर, में हुआ। लाहौर में गुलाम हुसैन के संपादन में इकलाब, बम्बई में एस.ए. डांगे के संपादन में सोशल्सिट बंगाल मे मुजफ्फर अहमद के संपादन में नवयुग ने वामपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व किया तथा पद्रास में सिंगारबेलु चेट्टियार ने कृषकों तथा मजदूरों को समर्थन देकर साम्यवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भमिका निभाई। भारत में वामपंथी आंदोलन का दो विचारधाराओं – साम्यवाद एवं कांग्रेस सोशलिस्ट दल के रूप में विकास हुआ। कांग्रेस सोशलिस्ट दल को भारतीय राष्ट्रीय का समर्थन प्राप्त था। जबकि सम्यवाद को रूस के साम्यवादी संगठन कमिन्टर्न का समर्थन प्राप्त था।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का उदय

1920 में ताशकंद (तत्काीन सेावियत रूस) में एम.एन. राय एवं उनके कुछ सहयोगियों ने मिलकर साम्यवादी दल के गठन की घोषणा की। एम0एन0 राय कम्युनिस्ट इंटरनेशल की सदस्यता पाने वाले प्रथम भारतीय थे। सन् 1925 ई0 में कानपुर में भारतीय कम्युनिट पार्टी का गठन हुआ। जिसके महामंत्री का पदभार एस0पी0 घाटे ने संभाला।  साम्यवादी दल के चर्चित होने का मुख्य कारण पेशावर षड्यंत्र केस (1922-24) कानपुर षड्यंत्र मामला (1924)ई0 तथा मेरठ षड्यंत्र केस 1929-33 ई में इस दल से संबंधित व्यक्तियों की संलिप्तता थी। इन मकदमों से निपटने के लिए कांग्रेस ने केन्द्रीय सुरक्षा समिति का गठन किया। पं0 जवाहर लाल नेहरू, कैलाशनाथ काटजू एवं डाॅ0एफ0एच0 अंसारी ने इन मुकदमों की सुनवाई के दौरान प्रतिवादी की ओर से पैरवी की। 1934 ई0 क साम्यवादी दल के आंदोलनों ने भारत कें काफी प्रसिद्ध प्राप्त कर ली थी, जिसके परिणमस्वरूप सन् 1934 ई0 में ब्रिटिश सरकार ने साम्यवादी दल पर प्रतिबंध लगा दिया।

कांग्रेस समाजवादी दल का उदय  सन् 1934 में

1934 में आचार्य नरेन्द्र जय प्रकाश नारायण, मीनू मसानी एवं अशोक मेहता के सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप कांग्रेस समाजवादी दल  स्थापन हुई। इसका प्रथम सम्मेलन सन्-1934 ई में पटना में हुआ। कांग्रेस की नितियों में समाजवादी विचारधारा को सम्मिलित करना तथा भारत के आर्थिक विकास की प्रक्रिया के नियंत्रण एवं नियम हेतु राज्य की सर्वोच्चता  को स्वीकार करना समाजवादी दल की स्थापना का उद्देश्य था। साथ ही, राजाओं और जमींदारों की प्रथा का उन्मूलन बिना मुआवजे के करना, इसके अन्य उदेश्यों में शामिल था।  जुलाई 1931 में बिहार में समाजवादी दल की स्थापना जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा तथा अन्य व्यक्तियों ने की। पंजाब में भी सन् 1933 में एक समाजवादी दल की स्थापना की गई। दौरान आचार्य नरेन्द्र देव की समाजवाद एवं राष्ट्रीय आंदोलन तथा प्रकाश नारायण की ’समाजवाद ही क्यों’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई।

सुभाषचंन्द्र बोस द्वारा 1939 ई. में गठित फाॅरवर्ड ब्लाॅक अन्य वामपंथी संस्थाओं में प्रमुख है। सन् 1940 ई. में क्रांतिकारी समाजवादी दल का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को शक्ति द्वारा भारत से निकाल फेंकना था तथा भारत में समाजवाद की स्थापना करना था। एन. दत्त मजूमदार द्वारा सन्् 1939 ई. में बोल्शेविक दल और सौम्येन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन्- 1942 ई. में क्रांतिकारी साम्यवादी दल  का गठन किया गया। सन्- 1941 में बोल्शेविक लेनिनिस्ट दल की स्थापना का श्रेय क्रांतिकारी नेताओं अजीय राय एवं इन्द्रसेन को जाता है। अतिवादी लोकतंत्र दल का गठन भारतीय साम्यवादी दल के जनक एम. एन. द्वारा 1940 ई0 में किया गया।