10 मुहावरों से बनी एक कहानी - 10 muhaavaron se banee ek kahaanee

मुहावरों के इस्तेमाल से बनी कहानी

Short Story in Hindi With Muhavare. यह कहानी रोहन की है। रोहन एक अच्छा लड़का था। उसे खेलना कूदना बहुत पसंद था। वह दिन भर खेलता रहता और खेल खेलकर जब उसका अंग अंग ढीला हो जाता(अंग–अंग ढीला होना–बहुत थक जाना) तब वह अपने घर चला जाता। सब लोग उसे बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह जो भी खेल खेलता उसमें वह माहिर हो जाता था।

सब उसे अपनी टीम में लेने के लिए उत्साहित होते थे। वह अपने विरोधियों को बड़ी आसानी से हरा देता और उनके दांत खट्टे कर देता था(दांत खट्टे कर देना – हरा देना)। जितना वह खेल में माहिर था उतना ही वह अक्ल का दुश्मन था(अक्ल का दुश्मन होना – बेवकूफ या मूर्ख) क्योंकि जब कभी भी दिमाग दौड़ाने की बारी आती तो वह पीछे हट जाता। पढ़ाई लिखाई के मामले में वह एक अनाड़ी था।

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एक दिन उसका दोस्त रवि उसके पास आया और उससे बोला, “रोहन तुम खेलकूद में माहिर हो। मैं तो तुमसे यह कहना चाहूंगा कि तुम्हें अपना भविष्य खेलकूद में ही बनाना चाहिए। इसके लिए तुम्हें यहां-वहां भटकना छोड़ कर किसी एक खेलपर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। क्योंकि जब तुम किसी एक खेल पर ध्यान केंद्रित करोगे और उस पर मेहनत करोगे तो उसमें तुम निपुण हो जाओगे।”

रवि की बात सुनकर रोहन बोला, “तुम्हारी बात तो सही है मेरे दोस्त लेकिन मेरे अक्ल पर पत्थर ही नहीं पड़ रहा (अक्ल पर पत्थर पड़ना कुछ – समझ ना आना)। अब तुम ही मुझे बताओ कि मैं कौन सा खेल चुनू जिससे कि मैं उसे अच्छे से खेल कर अपना भविष्य बना सकूं?”

यह सवाल सुनकर रवि हंसने लगा और बोला, “मेरे दोस्त तुम बड़े ही भोले हो। इस सवाल का जवाब तुम्हारे पास ही है। तुम बस यह सोचो कि तुम्हें कौन सा खेल खेलना सबसे ज्यादा अच्छा लगता है और जिसमें तुम सबसे अच्छे हो।”

अपने दोस्त रवि की बात सुनकर रोहन ने अपने अक्ल के घोड़े दौड़ाया (अक्ल के घोड़े दौड़ाना – सोचना) फिर वह रवि से बोला, “मुझे क्रिकेट बहुत पसंद है लेकिन उसमें मैं उतना अच्छा नहीं हूं उसके अलावा मुझे…”

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रोहन की बात को काटते हुए रवि बोला, “क्यों ना तुम शतरंज खेलकर देखो उस खेल में भी बड़ा मजा आता है।”

“अरे मेरे दोस्त तुम भी बड़ा अजीब मजाक करते हो। तुम जानते हो कि दिमाग दौड़ाने में मैं पीछे हूं। जब कभी भी बात दिमाग के इस्तेमाल की होती है तो मैं पीछे हो जाता हूं। और शतरंज के खेल में दिमाग का इस्तेमाल करना पड़ता है। जो कि मुझ से नहीं हो पाता इसीलिए वह खेल मैं नहीं खेलना चाहता” रवि ने कहा, “इन सबके अलावा मुझे फुटबॉल बहुत पसंद है उस खेल में मैं बहुत अच्छा हूं और फुटबॉल खेलना मुझे बहुत पसंद है।”

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यह सुनकर रवि थोड़ी देर हसा और बोला, “हां शतरंज में तो दिमाग की जरूरत होती है लेकिन तुम कह रहे हो कि फुटबॉल खेलना तुम्हें ज्यादा पसंद है तो तुम्हें उसे खेलकर अपना भविष्य बनाओ।”

रवि की बातों ने रोहन पर अच्छा असर किया और अब से वह सिर्फ और सिर्फ फुटबॉल खेलने लगा। खेल खेलकर वह दिन रात एक कर देता था(दिन रात एक कर देना – कड़ी मेहनत करना)। समय के साथ-साथ रोहन फुटबॉल के खेल में माहिर हो चुका था। रोहन की चमक उठने लगी थी (चमक उठना – उन्नति करना)।

10 मुहावरों से बनी एक कहानी - 10 muhaavaron se banee ek kahaanee
Short Story in Hindi With Muhavare

रोहन जगह-जगह खेल को लेकर प्रसिद्ध होने लगा था और उसे बड़े-बड़े फुटबॉल मैच खेलने के लिए भी बुलाया जाता था। उसके खेल को देखकर लोग उसके दीवाने हो जाते और उसे प्रोत्साहित करने के लिए अपना गला फाड़ते रहते(गला फाड़ना – जोर से चिल्लाना)। अपने दोस्त रवि की सलाह मानकर वह अपने जीवन में आगे बढ़ता ही जा रहा था। अब वह एक प्रसिद्ध खिलाड़ी बन चुका था।

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इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा दूसरों के द्वारा दी गई अच्छी सलाह को जरूर मानना चाहिए। इस कहानी में रवि ने अपने दोस्त को एक अच्छी सलाह दी और उसे मानकर रोहन अपने जीवन को एक दिशा दे पाया। वह एक अच्छा खिलाड़ी बन पाया। इसीलिए आप भी दूसरों के द्वारा दी गई अच्छी सलाहों को समझें और उसे जीवन में अपनाएं। Short Story in Hindi With Muhavare.

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rajnish manga

19-09-2013, 01:16 AM

मुहावरों की कहानी

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भाषा की सुंदर रचना हेतु मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग आवश्यक माना जाता है। ये दोनों भाषा को सजीव, प्रवाहपूर्ण एवं आकर्षक बनाने में सहायक होते हैं। यही कारण है कि हिन्दी भाषा में विभिन्न मुहावरों एवं लोकोक्तियों का अक्सर प्रयोग होते हुए देखा गया है।

'मुहावरा' शब्द अरबी भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है- अभ्यास। मुहावरा अतिसंक्षिप्त रूप में होते हुए भी बड़े भाव या विचार को प्रकट करता है। जबकि 'लोकोक्तियों' को 'कहावतों' के नाम से भी जाना जाता है।

साधारणतया लोक में प्रचलित उक्ति को लोकोक्ति नाम दिया जाता है। कुछ लोकोक्तियाँ अंतर्कथाओं से भी संबंध रखती हैं, जैसे भगीरथ प्रयास अर्थात जितना परिश्रम राजा भगीरथ को गंगा के अवतरण के लिए करना पड़ा, उतना ही कठिन परिश्रम करने से सफलता मिलती है। संक्षेप में कहा जाए तो मुहावरे वाक्यांश होते हैं, जिनका प्रयोग क्रिया के रूप में वाक्य के बीच में किया जाता है, जबकि लोकोक्तियाँ स्वतंत्र वाक्य होती हैं, जिनमें एक पूरा भाव छिपा रहता है।

मुहावरा : विशेष अर्थ को प्रकट करने वाले वाक्यांश को मुहावरा कहते है। मुहावरा पूर्ण वाक्य नहीं होता, इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता । मुहावरे का प्रयोग करना और ठीक-ठीक अर्थ समझना बड़ा कठिन है,यह अभ्यास से ही सीखा जा सकता है।

कुछ प्रसिद्ध मुहावरे और लोकोक्तियाँ उनकी कथाओं सहित नीचे दिए जा रहे है।


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19-09-2013, 01:24 AM

न तीन में न तेरह में

एक नगर सेठ थे. अपनी पदवी के अनुरुप वे अथाह दौलत के स्वामी थे. घर, बंगला, नौकर-चाकर थे. एक चतुर मुनीम भी थे जो सारा कारोबार संभाले रहते थे.

किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.

अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.

एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.

मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.

मुनीम क्या करते. एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.

नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससेतुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”

नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए. मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”

नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.

तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.

बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.

मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”

सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.


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19-09-2013, 01:32 AM

टेढ़ी खीर

एक नवयुवक था. छोटे से क़स्बे का. अच्छे खाते-पीते घर का लेकिन सीधा-सादा और सरल सा. बहुत ही मिलनसार.
एक दिन उसकी मुलाक़ात अपनी ही उम्र के एक नवयुवक से हुई. बात-बात में दोनों दोस्त हो गए. दोनों एक ही तरह के थे. सिर्फ़ दो अंतर थे, दोनों में. एक तो यह था कि दूसरा नवयुवक बहुत ही ग़रीब परिवार से था और अक्सर दोनों वक़्त की रोटी का इंतज़ाम भी मुश्किल से हो पाता था. दूसरा अंतर यह कि दूसरा जन्म से ही नेत्रहीन था. उसने कभी रोशनी देखी ही नहीं थी. वह दुनिया को अपनी तरह से टटोलता-पहचानता था.
लेकिन दोस्ती धीरे-धीरे गाढ़ी होती गई. अक्सर मेल मुलाक़ात होने लगी.
एक दिन नवयुवक ने अपने नेत्रहीन मित्र को अपने घर खाने का न्यौता दिया. दूसरे ने उसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया.
दोस्त पहली बार खाना खाने आ रहा था. अच्छे मेज़बान की तरह उसने कोई कसर नहीं छोड़ी. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान बनाए.
दोनों ने मिलकर खाना खाया. नेत्रहीन दोस्त को बहुत आनंद आ रहा था. एक तो वह अपने जीवन में पहली बार इतने स्वादिष्ट भोजन का स्वाद ले रहा था. दूसरा कई ऐसी चीज़ें थीं जो उसने अपने जीवन में इससे पहले कभी नहीं खाईं थीं. इसमें खीर भी शामिल थी. खीर खाते-खाते उसने पूछा,

"मित्र, यह कौन सा व्यंजन है, बड़ा स्वादिष्ट लगता है."

मित्र ख़ुश हुआ. उसने उत्साह से बताया कि यह खीर है.

सवाल हुआ, "तो यह खीर कैसा दिखता है?"

"बिलकुल दूध की तरह ही. सफ़ेद."

जिसने कभी रोशनी न देखी हो वह सफ़ेद क्या जाने और काला क्या जाने. सो उसने पूछा, "सफ़ेद? वह कैसा होता है."

मित्र दुविधा में फँस गया. कैसे समझाया जाए कि सफ़ेद कैसा होता है. उसने तरह-तरह से समझाने का प्रयास किया लेकिन बात बनी नहीं.
आख़िर उसने कहा, "मित्र सफ़ेद बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि बगुला."

"और बगुला कैसा होता है."

यह एक और मुसीबत थी कि अब बगुला कैसा होता है यह किस तरह समझाया जाए. कई तरह की कोशिशों के बाद उसे तरक़ीब सूझी. उसने अपना हाथ आगे किया, उँगलियाँ को जोड़कर चोंच जैसा आकार बनाया और कलाई से हाथ को मोड़ लिया. फिर कोहनी से मोड़कर कहा,

"लो छूकर देखो कैसा दिखता है बगुला."

दृष्टिहीन मित्र ने उत्सुकता में दोनों हाथ आगे बढ़ाए और अपने मित्र का हाथ छू-छूकर देखने लगा. हालांकि वह इस समय समझने की कोशिश कर रहा था कि बगुला कैसा होता है लेकिन मन में उत्सुकता यह थी कि खीर कैसी होती है.

जब हाथ अच्छी तरह टटोल लिया तो उसने थोड़ा चकित होते हुए कहा, "अरे बाबा, ये खीर तो बड़ी टेढ़ी चीज़ होती है."

वह फिर खीर का आनंद लेने लगा. लेकिन तब तक खीर ढेढ़ी हो चुकी थी. यानी किसी भी जटिल काम के लिए मुहावरा बन चुका था "टेढ़ी खीर."


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19-09-2013, 01:39 AM

बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद

एक बंदर था। जंगल में रहता था। एक बार जंगल में एक पार्टी थी। वहाँ सभी जानवर आये हुये थे। पार्टी सियार के घर थी। सब ने छक कर खाना खाया। बंदर ने भी खाया। खाने-पीने के बाद सियार ने सबको सौंफ़ के बदले अदरक के छोटे छोटे टुकडे काट कर, उसमें नींबू और नमक लगा कर सबको दिया। सब ने एक-एक टुकडा उठाया और सब की देखा देखी बंदर ने भी। उसने पहले कभी अदरक खाया नहीं था। उसे बहुत पसंद आया अदरक का स्वाद। मगर और ले नहीं सकता था क्योंकि किसी ने भी एक-दो टुकडों से ज़्यादा लिया नहीं था । अदरक का स्वाद मुँह में लिये बंदर जी घर आये और आते समय बाज़ार से ढेरों अदरक ले आये। अदरक को ठीक उसी तरह छोटे छोटे टुकडों में काटा और नींबू और नमक लगाया। मगर इस बार उन्होंने जी भर के मुट्ठी पर मुट्ठी अदरक मुँह में डाल दिया। और बस फिर जो गत बनी बंदर मियाँ की वो आप सब समझ सकते हैं। तब से बंदर जी ने तौबा कर ली कि वो अदरक नहीं खायेंगे और सब से जंगल में कहते फिरे कि अदरक बडा बेस्वाद है और जंगल में अन्य जानवर एक दूसरे से " बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद" ।


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19-09-2013, 01:42 AM

मूंछों की लड़ाई
(आलेख: राकेश कुमार आर्य)

सन 1200 के लगभग भारत में कन्नौज में गहरवाड़ या राठौड, दिल्ली-अजमेर में चौहान, चित्तौड़ में शिशोदिया और गुजरात में सोलंकी-ये चार राजपूत वंश शासन कर रहे थे। इन राजपूत वंशों में परस्पर बड़ी ईर्ष्या बनी रहती थी। उसी ईर्ष्या भाव के कारण विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं को यहां शासन करने का अवसर मिला।एक बार की बात है कि गुजरात के सोलंकी राज परिवार के कुछ सदस्य रूष्ट होकर गुजरात से अजमेर आ गये। पृथ्वीराज चौहान उस समय अजमेर ओर दिल्ली के शासक नही बने थे। उनके पिता सोमेश्वर सिंह ने सोलंकी परिवार के अतिथियों का पूर्ण स्वागत सत्कार किया। अतिथि भी प्रसन्नवदन होकर रहने लगे। पृथ्वीराज चौहान व राजा तो अतिथियों के प्रति सदा विनम्र रहे और वह इन राजकीय परिवार के अतिथियों के महत्व को जानते भी थे, परंतु यह आवश्यक नही कि परिवार का हर सदस्य ही आपकी भावनाओं से सहमत हो और उसी के अनुरूप कार्य करना अपना दायित्व समझता हो। पृथ्वीराज व राजा सोमेश्वर के साथ भी यही हो रहा था, वह अतिथियों के प्रति जितने विनम्र थे पृथ्वीराज के चाचा कान्ह कुंवर उतने ही उनके प्रति असहज थे।

एक दिन की बात है कि राजा की अनुपस्थिति में दरबार में एक सोलंकी सरदार ने अपनी मूंछों पर ताव देना आरंभ कर दिया। कान्ह कुंवर ने राजा सोमेश्वर व पृथ्वीराज चौहान की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए मूंछों पर ताव देते सरदार की यह कहकर दरबार में ही हत्या कर दी कि चौहानों के रहते और कोई मूंछों पर ताव नही दे सकता। कान्ह कुंवर ने मानो आगत के लिए आफत के बीज बो दिये थे।


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19-09-2013, 01:43 AM

जब पृथ्वीराज चौहान दरबार में आए और उन्हें घटना की जानकारी मिली तो वह स्तब्ध रह गये। राजकीय परिवार के लोगों के साथ हुई यह घटना उनको भीतर तक साल गयी। उन्हें कान्ह कुंवर का यह व्यवहार अनुचित ही नही अपितु सोलंकियों से शत्रुता बढ़ाने वाला भी लगा। इसलिए उन्होंने आज्ञा दी कि कान्ह कुंवर की आंखों पर पट्टी बांध दी जाए और सिवाय युद्घ के वह कभी खोली न जाए।

उधर शेष सोलंकी अतिथि इस घटना के पश्चात स्वदेश लौट गये। गुजरात के सोलंकी राजपरिवार को यह घटना अपने सम्मान पर की गयी चोट के समान लगी। राजा मूलचंद सोलंकी ने अजमेर पर चढ़ाई कर दी। सोमवती युद्घ क्षेत्र में जमकर संघर्ष हुआ। मूलराज सोलंकी ने दांव बैठते ही राजा सोमेश्वर की गर्दन धड़ से अलग कर दी। मूंछों की लड़ाई की पहली भेंट राजा सोमेश्वर चढ़ गये।

आफत अभी और भी थी। इस घटना के बाद से चौहान और सोलंकी परस्पर एक दूसरे के घोर शत्रु बन गये। कालांतर में जब संयोगिता के स्वयंवर का अवसर आया तो सोलंकी राजा ने जयचंद का साथ दिया। पृथ्वीराज चौहान ने संयोगिता हरण के समय अपनी सुरक्षा में बताया जाता है कि अपने पक्ष के 108 राजाओं की सेना को कन्नौज से लेकर दिल्ली के रास्ते में थोड़ी थोड़ी दूर पर तैनात कर दिया था। उधर जयचंद की सेना भी अपने राजाओं की सेना को मिलाकर बहुत बड़ी बन गयी थी। कहा जाता है कि दोनों महान शक्तियों में घोर संग्राम कन्नौज से दिल्ली तक होता चला था। सयोगिता के डोले को सुरक्षा सहित दिल्ली पहुंचाने की व्यवस्था कर पृथ्वीराज चौहान स्वयं भी लड़ा। युद्घ तो जीत गया पर भारत माता के कितने ही वीर इस व्यर्थ की लड़ाई में नष्टï हो गये। मौहम्मद गोरी से लड़ने की शक्ति भी पृथ्वीराज की क्षीण हुई। पृथ्वीराज के 108 साथी राजाओं में से 64 राजा मारे गये। फलस्वरूप जब मोहम्मद गोरी आया तो उसने दोनों पक्षों को अलग अलग सहज रूप से पराजित कर दिया। इस प्रकार एक कान्ह कुंवर की मूर्खता और दम्भी स्वभाव के कारण देश घोर अनर्थ में फंस गया। व्यर्थ की लड़ाई ने भारी अनर्थ करा दिया।

आज तक लोग इस व्यर्थ के अनर्थ को ‘मूंछों की लड़ाई’ के नाम से जानते हैं। इसीलिए हिंदी में यह मुहावरा ही बन गया है मूंछों की लड़ाई का। आज भी लोग जब किसी व्यर्थ की बात को अपने अहम के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मेरी मूंछों की बात है तो उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि अहम की लड़ाई से अनर्थ के अतिरिक्त और कुछ हाथ नही आता है। इसलिए विवेक और धैर्य के साथ आगे बढें और अहम भी बातों को पीछे छोड़ें।


Dr.Shree Vijay

19-09-2013, 01:42 PM

मजेदार ज्ञानवर्धक मुहावरे.............................


rajnish manga

19-09-2013, 06:57 PM

मजेदार ज्ञानवर्धक मुहावरे.............................

:hello:

बहुत बहुत आभार, डॉक्टर साहब.


rajnish manga

19-09-2013, 07:01 PM

मुहावरों की कहानी: नमक हराम
काशी नरेश ब्रह्मदत्त का पुत्र बचपन से ही दुष्ट स्वभाव का था। वह बिना कारण ही मुसाफिरों को सिपाहियों से पकड़वा कर सताता और राज्य के विद्वानों, पंडितों तथा बुजुर्गों को अपमानित करता। वह ऐसा करके बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता। प्रजा के मन में इसलिए युवराज के प्रति आदर के स्थान पर घृणा और रोष का भाव था।

युवराज लगभग बीस वर्ष का हो चुका था। एक दिन कुछ मित्रों के साथ वह नदी में नहाने के लिए गया। वह बहुत अच्छी तरह तैरना नहीं जानता था, इसलिए अपने साथ कुछ कुशल तैराक सेवकों को भी ले गया। युवराज और उसके मित्र नदी में नहा रहे थे। तभी आसमान में काले-काले बादल छा गये। बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ मूसलधार वर्षा भी शुरू हो गई।

युवराज बड़े आनन्द और उल्लास से तालियाँ बजाता हुआ नौकरों से बोला, ‘‘अहा! क्या मौसम है! मुझे नदी की मंझधार में ले चलो। ऐसे मौसम में वहाँ नहाने में बड़ा मजा आयेगा!''

नौकरों की सहायता से युवराज नदी की बीच धारा में जाकर नहाने लगा। वहाँ पर युवराज के गले तक पानी आ रहा था और डूबने का खतरा नहीं था। लेकिन वर्षा के कारण धीरे-धीरे पानी बढ़ने लगा और धारा का बहाव तेज होने लगा। काले बादलों से आसमान ढक जाने के कारण अन्धेरा छा गया और पास दिखना कठिन हो गया।

युवराज की दुष्टता के कारण इनके सेवक भी उससे घृणा करते थे। इसलिए उसे बीच धारा में छोड़ कर सभी सेवक वापस किनारे पर आ गये। युवराज के मित्रों ने जब युवराज के बारे में सेवकों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वे जबरदस्ती हमलोगों का हाथ छुड़ा कर अकेले ही तैरते हुए आ गये। शायद राजमहल वापस चले गये हों।

मित्रों ने महल में युवराज का पता लगवाया। लेकिन युवराज वहाँ पहुँचा नहीं था। बात राजा तक पहुँच गयी। उन्होंने तुरंत सिपाहियों को नदी की धारा या किनारे-कहीं से भी युवराज का पता लगाने का आदेश दिया। सिपाहियों ने नदी के प्रवाह में तथा किनारे दूर-दूर तक पता लगाया लेकिन युवराज का कहीं पता न चला। आखिरकार निराश होकर वे वापस लौट आये।

इधर अचानक नदी में बाढ़ आ जाने और धारा के तेज होने के कारण युवराज पानी के साथ बह गया। जब वह डूब रहा था तभी उसे एक लकड़ी दिखाई पड़ी। युवराज ने उस लकड़ी को पकड़ लिया और उसी के सहारे बहता रहा। आत्म रक्षा के लिए तीन अन्य प्राणियों ने भी उस लकड़ी की शरण ले रखी थी- एक साँप, एक चूहा और एक तोता। युवराज ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था, बचाओ! बचाओ! लेकिन तूफान की गरज में उसकी पुकार नक्कारे में तूती की आवाज़ की तरह खोकर रह गई। बाढ़ के साथ युवराज बहता जा रहा था। थोड़ी देर में तूफान थोड़ा कम हुआ और बारिश थम गई। आकाश साफ होने लगा और पश्चिम में डूबता हुआ सूरज चमक उठा। उस समय नदी एक जंगल से होकर गुजर रही थी। नदी के किनारे, उस जंगल में ऋषि के रूप में बोधिसत्व तपस्या कर रहे थे।

(आगे है ...)


rajnish manga

19-09-2013, 07:03 PM

युवराज की करुण पुकार कानों में पड़ते ही बोधिसत्व का ध्यान टूट गया। वे झट नदी में कूद पड़े और उस लकड़ी को किनारे खींच लाये जिसने युवराज और तीन अन्य प्राणियों की जान बचायी थी। उन्होंने अग्नि जला कर सबको गरमी प्रदान की, फिर सबके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। सबसे पहले उन्होंने छोटे प्राणियों को भोजन दिया, तत्पश्चात युवराज को भी भोजन खिलाकर उसके आराम का भी प्रबन्ध कर दिया।

इस प्रकार वे सब बोधिसत्व के यहाँ दो दिनों तक विश्राम करके पूर्ण स्वस्थ होने के बाद कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने-अपने घर चले गये। तोते ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘महानुभाव! आप मेरे प्राणदाता हैं। नदी के किनारे एक पेड़ का खोखला मेरा निवास था, लेकिन अब वह बाढ़ में बह गया है। हिमालय में मेरे कई मित्र हैं।
यदि कभी मेरी आवश्यकता पड़े तो नदी के उस पार पर्वत की तलहटी में खड़े होकर पुकारिये। मैं मित्रों की सहायता से आप की सेवा में अन्न और फल का भण्डार लेकर उपस्थित हो जाऊँगा।''

‘‘मैं तुम्हारा वचन याद रखूँगा।'' बोधिसत्व ने आश्वासन दिया।

साँप ने जाते समय बोधिसत्व से कहा, ‘‘मैं पिछले जन्म में एक व्यापारी था। मैंने कई करोड़ रुपये की स्वर्ण मोहरें नदी के तट पर छिपा कर रख दी थीं। धन के इस लोभ के कारण इस जन्म में सर्प योनि में पैदा हुआ हूँ। मेरा जीवन उस खज़ाने की रक्षा में ही नष्ट हुआ जा रहा है। उसे मैं आप को अर्पित कर दूँगा। कभी मेरे यहॉं पधार कर इसका बदला चुकाने का मौका अवश्य दीजिए।''

इसी प्रकार चूहे ने भी वक्त पड़ने पर अपनी सहायता देने का वचन देते हुए कहा, ‘‘नदी के पास ही एक पहाड़ी के नीचे हमारा महल है जो तरह-तरह के अनाजों से भरा हुआ है। हमारे वंश के हजारों चूहे इस महल में निवास करते हैं। जब भी आप को अन्न की कठिनाई हो, कृपया हमारे निवास पर अवश्य पधारिए और सेवा का अवसर दीजिए। मैं फिर भी आप के उपकार का बदला कभी न चुका पाऊँगा।''

सबसे अन्त में युवराज ने कहा, ‘‘मैं कभी-न-कभी अपने पिता के बाद राजा बनूँगा। तब आप मेरी राजधानी में आइए। मैं आप का अपूर्व स्वागत करूँगा।''

कुछ दिनों के बाद ब्रह्मदत्त की मृत्यु हो गई और युवराज काशी का राजा बन गया। राजा बनते ही प्रजा पर अत्याचार करने लगा। सच्चाई और न्याय का कहीं नाम न था। झूठ और अपराध बढ़ने लगे। प्रजा दुखी रहने लगी।

यह बात बोधिसत्व से छिपी न रही। उसे राजा का निमंत्रण याद हो आया। उसने सबसे पहले राजा के यहाँ जाने का निश्चय किया। वे एक दिन राजा से मिलने के लिए काशी पहुँचे।

बोधिसत्व नगर में प्रवेश कर राजपथ पर पैदल चल रहे थे। तभी हाथी पर सवार होकर राजा सैर के लिए जा रहा था। उसने बोधिसत्व को पहचान लिया और तुरत अपने अंगरक्षकों को आदेश दिया, ‘‘इस साधु को पकड़कर खंभे से बाँध दो और सौ कोड़े लगाओ और इसके बाद इसको फाँसी पर लटका दो। यह इतना घमण्डी है कि इसने जान बूझ कर मेरा अपमान किया था।
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jai_bhardwaj

19-09-2013, 07:50 PM

ज्ञानवर्धक संग्रह को साझा करने के लिए आभार बन्धु।


rajnish manga

19-09-2013, 08:10 PM

ज्ञानवर्धक संग्रह को साझा करने के लिए आभार बन्धु।

सूत्र पर मूल्यवान सम्मति देने के लिए आभार, जय जी.


rajnish manga

23-09-2013, 11:10 PM

हास्य-व्यंग्य/ किस्सा कहावतों का

होता दरअसल ये था कि जब भी हम कहावतों के बारे में सोचते, तो वही दो-चार घिसी-पिटी कहावतें जेहन में उभरा करतीं- जैसे कि धोबी का कुत्ता घर का न घाट का, दिल्ली दूर है, आंख के अंधे नाम नयनसुख, नौ दो ग्यारह होना या फिर न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी वगैरह-वगैरह।

इन मुहावरों का तड़का जब भी हम किसी रचना में लगाते, तो नतीजा ढाक के वही तीन पात। लगता था जैसे कहावतें लुट-पिट चुकी हैं, उनमें जो धार, जो तासीर हुआ करती थी, वह रफ़ूचक्कर हो चुकी है। हमें यह भी लगता कि जैसे वह घड़ी आ पहुंची है- जब जीर्ण-शीर्ण कहावतें त्याग कर नई कहावतें धारण की जाती हैं। मगर नई कहावतें आएं कहां से? वे कोई ख़ालाजान के घर में तो रखी न थीं कि गए और निकाल लाए। दिमाग़ के मरियल गधे-घोड़े चारों तरफ़ दौड़ाए। ध्यान आया बचपन के दोस्त वेदपाठी का। हमें तो फ्रेश कहावतों की जरूरत थी ही। सोचा- वेदपाठी जी के कहावत भंडार से कुछ नायाब मोती चुग लिए जाएं। वेदपाठी जी के भवन पर उनसे मिलते ही हमने पूछ लिया, ‘महाराज, सुना है, आजकल आप नई कहावतें रच रहे हैं।’

वेदपाठी जी के चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट दौड़ गई। बोले, ‘ठीक सुना आपने। वैसे मैं कहावतों की रचना स्वांत: सुखाय कर रहा था, मगर आप गुन के गाहक हैं। ख़ाली कैसे जाने दूं? कुछ न कुछ देकर ही विदा करूंगा। एक बिल्कुल मौलिक, अप्रकाशित व अप्रसारित कहावत है- अ़क्ल के कुत्ते फेल होना। यह आपकी रचनाओं से मेल भी खाती है।’ फिर वे मुस्करा कर बोले, ‘इस कहावत का ताल्लुक सीधा दिमाग़ से है। जब दिमाग़ का दही होने लगे, तो समझ जाइए कि अ़क्ल के कुत्ते फेल हो गए।’


rajnish manga

23-09-2013, 11:11 PM

‘चलिए, एक मिनट को आपकी बात मान भी लें, मगर जनाब इस कहावत में नया क्या है। अ़क्ल पहले भी हुआ करती थी, अ़क्ल आज भी है। कुत्ते पहले भी थे, कुत्ते आज भी हैं। क्या यही लुटा-पिटा, थका-थकाया माल धरा था हमारे लिए?’ वेदपाठी जी बोले, ‘ऐसा नहीं है। चलो दूसरी कहावत देता हूं- उपभोक्ता का मोबाइल व्यस्त होना।’ मुस्कुरा कर हमने कहा, ‘ये हुई न बात! मोबाइल तो वाक़ई पहले नहीं थे। पर जनाब, मतलब इसका भी शून्य बटा सन्नाटा है।’ वेदपाठी जी बोले, ‘मतलब साफ़ है। स्वार्थ न होने पर उपेक्षा करना। आप लाख चाहते रहें बतियाना, मगर जनाब, हमारी इच्छा न होगी तो हर बार व्यस्त रहेगा हमारा मोबाइल।’

तभी गृहयुद्ध की कर्णभेदी ध्वनियां सुनाई पड़ीं। एक बच्चा गरज रहा था, ‘बत्तीसी उखाड़ कर हाथ में दे दूंगा।’ दूसरा गुर्रा रहा था, ‘चुप कर बेमौसम की भविष्यवाणी। गरजता तो ऐसे है कि जाने कितना बरसेगा। मगर कभी छींटा तक नहीं पड़ा। ज्यादा मत रेंकियो मेघदूत की औलाद। बता दिया। हां।’

हमने पूछा, ‘वेदपाठी जी, ये सब क्या है? समझाते क्यों नहीं?’ ‘क्या बताऊं वर्मा।’ वेदपाठी कराहे, ‘चावलों का मांड़ बन चुका है। नहीं मानते उल्लू के पट्ठे। कहता हूं- सुबह उठ कर मुंह-हाथ धो लो। कहते हैं- शेर मुंह नहीं धोते। कहता हूं- क़िताब निकाल कर पाठ याद करो। कहते हैं- बूढ़े तोते रटा नहीं करते। लो कल्लो बात।’

तभी चाय लिए आती काकली रुककर बोली, ‘अरे पापा, क्यों समझाते हैं? हैं तो ये कल के जोगी, पर पेट में जटा पूरी है।’ फिर भुनभुनाने लगी, ‘गधों के पीछे जाना, अपनी कब्र खुलवाना।’ बच्चों के मुखारविंद से ऐसी नायाब कहावतें सुन, हमारे सब संदेह मिट गए। हमने काकली का सिर सहलाते हुए कहा, ‘चाय रहने दे बेटी, ये तो घर में भी पी लूंगा। बस मेरे पास बैठ कर कुछ और कहावतें सुना दे।’

वह चहकी, ‘अरे अंकल, जहां बांस डूब चुके, वहां पोरियों की क्या गिनती! मैं तो कहती हूं, न छीले कोई सौ तोरियां, बस एक कद्दू छील ले। पता नहीं कैसे थे वो लोग, जो मरा हाथी भी सवा लाख में भेड़ देते थे। एक हमारे पापा हैं। सारे डंगर मु़फ्त में लेने को तैयार हैं, पर कोई दे तो। मीठा-मीठा गड़प-गड़प, कड़वा-कड़वा थू-थू। पीने को लपर-लपर, उठाने को ना नुकर।’ काकली बग़ैर अर्धविराम, पूर्णविराम, कौमा के दौड़ी जा रही थी।

हम कहावतों के इस सागर में डूबकर मोती चुनने लगे। इससे पहले कि ये मोती हाथ से छूट जाएं, याद से गिन-गिन कर उनकी माला यहां पिरो दी है।

( ‘अभिव्यक्ति’ वेबसाइटसेसाभार)


rajnish manga

23-09-2013, 11:15 PM

धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का

एक बार कक्षा दस की हिंदी शिक्षिका अपने छात्र को मुहावरे सिखा रही थी। तभी कक्षा एक मुहावरे पर आ पहुँची “धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का ” , इसका अर्थ किसी भी छात्र को समझ नहीं आ रहा था । इसीलिए अपने छात्र को और अच्छी तरह से समझाने के लिए शिक्षिका ने अपने छात्र को एक कहानी के रूप में उदाहरण देना उचित समझा ।

उन्होंने अपने छात्र को कहानी कहना शुरू किया , ” कई साल पहले सज्जनपुर नामक नगर में राजू नाम का लड़का रहता था , वह एक बहुत ही अच्छा क्रिकेटर था । वह इतना अच्छा खिलाड़ी था कि उसमे भारतीय क्रिकेट टीम में होने की क्षमता थी । वह क्रिकेट तो खेलता पर उसे दूसरो के कामों में दखल अन्दाजी करना बहुत पसंद था । उसका मन दृढ़ नहीं था जो दूसरे लोग करते थे वह वही करता था । यह देखकर उसकी माँ ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि यह आदत उसे जीवन में कितनी भारी पड़ सकती है पर वह नहीं समझा । समय बीतता गया और उसका अपने काम के बजाय दूसरो के काम में दखल अन्दाजी करने की आदत ज्यादा हो गयी । जभी उससे क्रिकेट का अभ्यास होता था तभी उसके दूसरे दोस्तों को अलग खेलो का अभ्यास रहता था । उसका मन चंचल होने के कारण वह क्रिकेट के अभ्यास के लिए नहीं जाता था बल्कि दूसरे दोस्तों के साथ अन्य अलग-अलग खेल खेलने जाता था।

उसकी यह आदत उसका आगे बहुत ही भारी पड़ी , कुछ ही दिनों के बाद नगर में ऐलान किया गया नगर में सभी खेलों के लिए एक चयन होगा जिसमे जो भी चुना जाएगा उसे भारत के राष्ट्रीय दल में खेलने को मिल सकता है । सभी यह सुनकर बहुत ही खुश हुए ओर वहीं दिन से सभी अपने खेल में चुनने के लिए जी-जान से मेहनत करने लगे , सभी के पास सिर्फ दो दिन थे । राजू ने भी अपना अभ्यास शुरू किया पर पिछले कुछ दिनों से अपने खेल के अभ्यास में जाने की बजाय दूसरो के खेल के अभ्यास में जाने के कारण उसने अपने शानदार फॉर्म खो दिया था । दो दिन के बाद चयन का समय आया राजू ने खूब कोशिश की पर अभ्यास की कमी के कारण वह अपना शानदार प्रदर्शन नहीं दिखा पाया और उसका चयन नहीं हुआ , वह दूसरे खेलों में भी चयन न हुआ क्योंकि व़े सब खेल उसे सिर्फ थोड़ा आते थे ओर किसी भी खेल में वह माहिर नहीं था । जिसके कारण वह कोई भी खेल में चयन नहीं हुआ और उसके जो सभी दूसरे दोस्त थे उनका कोई न कोई खेल में चयन हो गया क्योंकि वे दिन रात मेहनत करते थे ।अंत में राजू को अपने सिर पर हाथ रखकर बैठना पड़ा और वह धोबी के कुत्ते की तरह बन गया जो न घर का होता है न घाट का ।”

इसी तरह इस कहानी के माध्यम से सभी बच्चों को इस मुहावरे का मतलब पता चल गया । शिक्षिका को अपने छात्रों को एक ही सन्देश पहुँचाना था कि व़े जीवन में जो कुछ भी करे सिर्फ उसी में ध्यान दे और दूसरो से विचिलित न हो वरना वह धोबी के कुत्ते की तरह बन जाएगे जो न घर का न घाट का होता है ।


Arvind Shah

24-09-2013, 01:31 AM

बहुत ही बढ़ीया ! रोचक प्रस्तुती के लिए धन्यवाद !! नई पोस्टो का इन्तजार रहेगा !!!


rajnish manga

24-09-2013, 11:35 AM

बहुत ही बढ़ीया ! रोचक प्रस्तुती के लिए धन्यवाद !! नई पोस्टो का इन्तजार रहेगा !!!

सूत्र को पढ़ने के लिये और पसंद करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र अरविंद शाह जी. आगामी कथा प्रस्तुत है.


rajnish manga

24-09-2013, 11:37 AM

जिसका काम उसी को साझे

किसी गांव मे एक गरीब घोबी रहता था| धोबी के पास एक गधा था और एक कुत्ता था| दोनों धोबीके साथ रोज सुबह धोबी घाट जाया करते थे| शाम को घर आया करते थे| धोबी का गधा शांत स्वभाव का था और स्वामी भक्त भी था| लेकिन धोबी का कुत्ता आलसी और कृतघ्न था | गधा अपना काम पूरी लगन के साथ करता था| जब सुबह धोबी धोबी-घाट को जाता था तो सारे कपड़े गधे पर लाद कर ले जाता था और शाम को गधे पर ही कपडे लाद कर लाया करता था | कभी कभी तो धोबी जब थका होता था तो खुद भी गधे पर बैठ जाया करता था| दिन भर गधा धोबी घाट केनजदीक हरी हरी घास चारा करता था | धोबी का कुत्ता सारा दिन धोबी घाट मे सोया ही रहता था | एक दिन गधे ने कुत्ते से पूछा की तुम भी मालिक के लिए कोई काम क्यूँ नहीं करते? कुत्ते ने जवाब दिया कि मालिक कौन सा हमें पेट भर के खाना देता है | अपना बचा खुचा खाना हमें डाल देता है| इतना कह कर कुत्ता फिर से सो गया | एक दिन धोबी के घर मे कोई चोर घुस आया| चोर को आते हुए कुत्ते ने देख लिया था पर कुत्ताभौका नहीं | उधर गधे ने भी चोर को देख लिया था | गधे ने कुत्ते से कहा की इस समय तुम्हारा फर्ज बनाता है कि तुम भौककर मालिक को जगाओ ताकि मालिक को पता चल सके किचोर आया है| कुत्ते ने कहा मालिक सो रहा है जगाने पर मारेगा | गधे ने कहा कि क्यूँ मारेगा? हम तो उसका फ़ायदा कर रहे है| कुत्ता इस बात के लिए नहीं माना| गधे से रहा नहीं गया और खुद रैकना शुरू कर दिया| आधी रात को गधे के रेकने पर धोबी को गुस्सा आ गया | धोबी उठा उसने डंडा उठा कर तीन चार डंडे गधे को जड़ दिए और सो गया| धोबी केसो जाने के बाद कुत्ते ने गधे से कहा, "देखा, मैं न कहता था कि मालिक मारेगा|" फिर उसने बताया कि "जिस का काम उसी को साझे और करे तो डंडा बाजे". इस पर गधे ने कहा, "भाई तुम ठीक थे, मैं ही गलत था|"


sumitbagvar

24-09-2013, 08:21 PM

bhai mujhe namak haram wale muhaware ka matlab samajh me nhi aaya, uska ant to achanak ho gaya. Aakhir bodhisatv ne uska apman kis tarah kiya?


rajnish manga

24-09-2013, 11:27 PM

bhai mujhe namak haram wale muhaware ka matlab samajh me nhi aaya, uska ant to achanak ho gaya. Aakhir bodhisatv ne uska apman kis tarah kiya?

सूत्र भ्रमण के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, मित्र सुमित बगवार जी. यह ठीक है कि कहानी का अंत अचानक हो गया. यहीं आपको इस मुहावरे के औचित्य ज्ञात हो जाता है. आपने कहानी में पढ़ा कि बोधिसत्व ने बाढ़ से पीड़ित चार प्राणियों की जान बचाई थी और उनको दो दिन तक अपने आतिथ्य में रखा. यहां उनसे जो बन पड़ा उन्होंने उनकी सेवा की. बन्दर, सांप और चूहे ने उनको अपने यहां आने का निमंत्रण दिया; यह विश्वास दिलाया कि वे समय आने पर उनके उपकार का बदला अवश्य देंगे. लेकिन, राजकुमार ने नरेश बनते ही अपनी पहली सी दुष्टता का परिचय देना शुरू कर दिया था. अतः यह जानते हुये भी कि बोधिसत्व ने उसके प्राण बचाये थे और वन में उनका आतिथ्य किया था, उसे भुला दिया तथा निर्दोष बोधिसत्व को बंदी बना कर कोड़े लगाने व अन्ततः फांसी पर लटकाने की सजा भी सुना दी. यह क्या था?

किसी के उपकार को भुला कर उसी के विरुद्ध षड्यंत्र करना ही नमक-हरामी है और यह कथा काशी राजकुमार / नरेश के नमक हराम होने का ही एक उदाहरण है.

मैं समझता हूँ कि अब आपकी शंका का समाधान हो गया होगा, सुमित जी. धन्यवाद.


internetpremi

11-11-2013, 03:21 AM

Have copied all these to my Kindle reader.
Thanks.
If possible please continue
Regards
GV


rajnish manga

17-11-2013, 07:56 PM

have copied all these to my kindle reader.
thanks.
if possible please continue
regards
gv

आपका बहुत बहुत धन्यवाद, मित्र. अन्य मुहावरे जल्द प्रस्तुत करूंगा.


rajnish manga

30-11-2013, 07:49 PM

बीरबल की खिचड़ी

एक दफा शहंशाह अकबर ने घोषणा की कि यदि कोई व्यक्ति सर्दी के मौसम में नर्मदा नदी के ठंडे पानी में घुटनों तक डूबा रह कर सारी रात गुजार देगा उसे भारी भरकम तोहफ़े से पुरस्कृत किया जाएगा.

एक गरीब धोबी ने अपनी गरीबी दूर करने की खातिर हिम्मत की और सारी रात नदी में घुटने पानी में ठिठुरते बिताई और जहाँपनाह से अपना ईनाम लेने पहुँचा.

बादशाह अकबर ने उससे पूछा – तुम कैसे सारी रात बिना सोए, खड़े-खड़े ही नदी में रात बिताए? तुम्हारे पास क्या सबूत है?

धोबी ने उत्तर दिया – जहाँपनाह, मैं सारी रात नदी छोर के महल के कमरे में जल रहे दीपक को देखता रहा और इस तरह जागते हुए सारी रात नदी के शीतल जल में गुजारी.

तो, इसका मतलब यह हुआ कि तुम महल के दीए की गरमी लेकर सारी रात पानी में खड़े रहे और ईनाम चाहते हो. सिपाहियों इसे जेल में बन्द कर दो - बादशाह ने क्रोधित होकर कहा.

बीरबल भी दरबार में था. उसे यह देख बुरा लगा कि बादशाह नाहक ही उस गरीब पर जुल्म कर रहे हैं. बीरबल दूसरे दिन दरबार में हाजिर नहीं हुआ, जबकि उस दिन दरबार की एक आवश्यक बैठक थी. बादशाह ने एक खादिम को बीरबल को बुलाने भेजा. खादिम ने लौटकर जवाब दिया – बीरबल खिचड़ी पका रहे हैं और वह खिचड़ी पकते ही उसे खाकर आएँगे.

जब बीरबल बहुत देर बाद भी नहीं आए तो बादशाह को बीरबल की चाल में कुछ सन्देह नजर आया. वे खुद तफतीश करने पहुँचे. बादशाह ने देखा कि एक बहुत लंबे से डंडे पर एक घड़ा बाँध कर उसे बहुत ऊँचा लटका दिया गया है और नीचे जरा सा आग जल रहा है. पास में बीरबल आराम से खटिए पर लेटे हुए हैं.

बादशाह ने तमककर पूछा – यह क्या तमाशा है? क्या ऐसी भी खिचड़ी पकती है?

बीरबल ने कहा - माफ करें, जहाँपनाह, जरूर पकेगी. वैसी ही पकेगी जैसी कि धोबी को महल के दीये की गरमी मिली थी.

बादशाह को बात समझ में आ गई. उन्होंने बीरबल को गले लगाया और धोबी को रिहा करने और उसे ईनाम देने का हुक्म दिया.
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rajnish manga

02-12-2013, 01:40 PM

जैसे को तैसा

एक राजा के पास एक नौकर था,यूँ तो राजा के पास बहुत सारे नौकर थे जिनका काम सिर्फ महल की देख-रेख और साफ़ सफाई करना था.

तो एक बार राजा का एक नौकर उनके शयन कक्ष की सफाई कर रहा था,सफाई करते करते उसने राजा के पलंग को छूकर देखा तो उसे बहुत ही मुलायम लगा,उसे थोड़ी इच्छा हुयी कि उस बिस्तर पर जरा लेट कर देखा जाए कि कैसा आनंद आता है,उसने कक्ष के चरों और देख कर इत्मीनान कर लिया कि कोई देख तो नहीं रहा.

जब वह आश्वस्त हो गया कि कोई उसे देख नहीं रहा है तो वह थोड़ी देर के लिए बिस्तर पर लेट गया.

वह नौकर काम कर के थका-हारा था,अब विडम्बना देखिये कि बेचारा जैसे ही बिस्तर पर लेटा,उसकी आँख लग गयी,और थोड़ी देर के लिए वह उसी बिस्तर पर सो गया..उसके सोये अभी मुश्किल से पांच मिनट बीते होंगे कि तभी कक्ष के सामने से गुजरते प्रहरी की निगाह उस सोये हुए नौकर पर पड़ी.

नौकर को राजा के बिस्तर पर सोते देख प्रहरी की त्यौरियां चढ़ गयी,उसने तुरंत अन्य प्रहरियों को आवाज लगायी. सोते हुए नौकर को लात मार कर जगाया और हथकड़ी लगाकर रस्सी से जकड़ दिया.

नौकर को पकड़ लेने के पश्चात उसे राजा के दरबार तक खींच के लाया गया.

राजा को सारी वस्तुस्थिति बताई गयी. उस नौकर की हिमाकत को सुनकर राजा की भवें तन गयी,यह घोर अपराध!! एक नौकर को यह भी परवाह न रही कि वह राजा के बिस्तर पर सो गया.

राजा ने फ़ौरन आदेश दिया ‘नौकर को उसकी करनी का फल मिलना ही चाहिए, तुरत इस नौकर को 50 कोड़े भरी सभा में लगाये जाएँ.’
नौकर को बीच सभा में खड़ा किया गया, और कोड़े लगने शुरू हो गए.

लेकिन हर कोड़ा लगने के बाद नौकर हँसने लगता था. जब 10-12 कोड़े लग चुके थे, तब भी नौकर हँसता ही जा रहा था, राजा को यह देखकर अचरच हुआ.

राजा ने कहा ‘ठहरो!!’

सुनते ही कोड़े लगाने वाले रुक गए, और चुपचाप खड़े हो गए.

राजा ने नौकर से पूछा ‘यह बताओ कि कोड़े लगने पर तो तुम्हे दर्द होना चाहिए, लेकिन फिर भी तुम हंस क्यूँ रहे हो?’
नौकर ने कहा ‘हुजूर, मैं यूँ ही हंस नहीं रहा,दर्द तो मुझे खूब हो रहा है,लेकिन मैं यह सोचकर हँस रहा हूँ कि थोड़ी देर के लिए मैं आपके बिस्तर पर सो गया तो मुझे 50 कोड़े खाने पड़ रहे हैं, हुजूर तो रोज इस बिस्तर पर सोते हैं, तो उन्हें उपरवाले के दरबार में कितने कोड़े लगाये जायेंगे.’
इतना सुनना था कि राजा अनुत्तरित रह गए, उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने तुरत उस नौकर को आजाद करने का हुक्म दे दिया.


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02-12-2013, 02:08 PM

जैसे को तैसा (दो)

एक लघु कथा : जैसे को तैसा

एक गड़रिया एक बनिए को मक्खन बेचता था। एक दिन बनिए को शक हुआ कि गड़रिया ठीक मात्रा में मक्खन नहीं दे रहा है। उसने अपने तराजू में तोलकर देखा तो मक्खन का वजन कम निकला। वह आग बबूला हुआ, राजा के पास गया। राजा ने गड़रिए को बुलवाकर उससे पूछा, क्यों, तुम मक्खन कम तोलते हो?

हाथ जोड़कर गड़रिए ने नम्रतापूर्वक कहा, हुजूर, मैं रोज एक किलो मक्खन ही बनिए को दे जाता हूं।

नहीं हुजूर, मैंने तोलकर देखा है, पूरे दो सौ ग्राम कम निकले, बनिए ने कहा।

राजा ने गड़रिए से पूछा, तुम्हें क्या कहना है?

गड़रिया बोला, हुजूर, मैं ठहरा अनपढ़ गवार, तौलना-वोलना मुझे कहां आता है, मेरे पास एक पुराना तराजू है, पर उसके बाट कहीं खो गए हैं। मैं इसी बनिए से रोज एक किलो चावल ले जाता हूं। उसी को बाट के रूप में इस्तेमाल करके मक्खन तोलता हूं।

बनिए को मुंह छिपाने की जगह नहीं मिल रही थी।
(साभार: बालसुब्रमण्यम)


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02-12-2013, 02:12 PM

जैसे को तैसा (तीन)

रमेश और सुरेश दो भाई थे। रमेश बहुत धूर्त था, जबकि सुरेश बहुत सीधा था। पिता की मृत्यु के बाद उन्होने घर के सामान का बंटवारा करने की सोची। सामान मे एक भैंस, एक कम्बल, एक आम का पेड़ और एक 'आधा कच्चा, आधा पक्का' घर था। रमेश ने कहा मै बड़ा हूँ, इसीलिए मैं बँटवारा करता हूँ। सुरेश ने हामी भर दी। रमेश बोला, "भैंस का आगे का हिस्सा तेरा और पीछे का मेरा, कम्बल दिन में तेरा और रात में मेरा, पेड़ का नीचे का भाग तेरा और ऊपर का मेरा, छप्पर वाला घर तेरा और पक्के वाला मेरा।" सुरेश ने अपने सीधेपन मे भाई की सारी बात मान ली। रमेश के तो मजे आ गये। भैंस को चारा सुरेश खिलाता और दूध रमेश निकालता, दिन मे कम्बल यूँ ही पड़ा रहता और रात मे रमेश मजे से ओढ़कर सोता, सुरेश पेड़ में पानी देता और फल रमेश खाता, रात को रमेश कमरे मे सोता और सुरेश बेचारा मच्छरों व ठंड की वजह से रात को सो नहीं पाता। रमेश फल और दूध बेचकर पैसे कमा रहा था और आराम का जीवन बिता रहा था, जबकि सुरेश बेचारा दिन भर काम करता और रात को उसे चैन की नींद भी नसीब नही होती थी। इसी तरह दिन बीत रहे थे, बेचारा सुरेश सूखकर कॉंटा हो गया था।

एक दिन सुरेश के बचपन का दोस्त शहर से गॉव आया, सुरेश को इस तरह देखकर उसे बहुत दुख हुआ। जब उसने पूछा तो सुरेश ने सारी बात बताई। सुनकर उसके दोस्त ने उसके कान मे कुछ कहा और बोला ऐसे करने से उसकी सारी परेशानियां दूर हो जाएगी। अगले दिन सुबह ही जैसे ही रमेश दूध निकालने बैठा सुरेश ने भैंस के मुँह पर डंडे मारने शुरू कर दिये, जब रमेश ने रोकना चाहा तो वह बोला कि अगला हिस्सा उसका है, वह जो चाहे सो करे। उस दिन भैंस ने दूध नही दिया। रात को जब रमेश ने कम्बल ओढ़ना चाहा तो वह पूरा भीगा हुआ था, पूछने पर सुरेश ने कहा कि दिन मे कम्बल उसका है वह जो चाहे सो करे। रमेश दांत पीसता हुआ सोने चला गया, पर तभी उसने देखा कि उसके कमरे के बराबर वाले छप्पर मे सुरेश ने आग लगा दी है और पूछने पर उसने वही जबाब दिया। अब तक रमेश समझ चुका था कि सुरेश को उसकी चालाकी पता चल गयी है सो उसने हाथ जोड़कर सुरेश से माफी मांगी और उसका हिस्सा ईमानदारी से देने का वायदा किया।

(साभार: सविता अग्रवाल)


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02-12-2013, 02:48 PM

जैसे को तैसा (चार)

एक जंगल में एक लोमड़ी और एक सारस में दोस्ती हो जाती हैं. एक बार लोमड़ी सारस को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित करती है, लेकिन वह एक कम ऊँचाई वाली तश्तरी में भोजन देती है जिसे सारस खा नही सकता. सारस उस अपमान का बदला लेने का फैसला करता है. वह अगले दिन लोमड़ी को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित करता है और एक उंचे गर्दन के बर्तन में भोजन रखता है. लोमड़ी से कुछ खाया नहीं जाता और वह भूखी ही चली जाती है और इस प्रकार सारस का बदला पूरा होता है.

(पंचतंत्र की कथा के आधार पर)


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07-12-2013, 10:54 AM

चोर चोरी से जाये हेरा फेरी से न जाये

एक जंगल की राह से एक जौहरी गुजर रहा था । देखा उसने राह में । एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चला आ रहा है । चकित हुआ । ये देखकर कि ये कितना मूर्ख है । क्या इसे पता नहीं है कि ये लाखों का हीरा है । और गधे के गले में सजाने के लिए बाँध रखा है। पूछा उसने कुम्हार से । सुनो ये पत्थर जो तुम गधे के गले में बांधे हो । इसके कितने पैसे लोगे ? कुम्हार ने कहा - महाराज ! इसके क्या दाम । पर चलो । आप इसके आठ आने दे दो । हमनें तो ऐसे ही बाँध दिया था कि गधे का गला सूना न लगे । बच्चों के लिए आठ आने की मिठाई गधे की ओर से ल जाएँगे । बच्चे भी खुश हो जायेंगे । और शायद गधा भी कि उसके गले का बोझ कम हो गया है ।पर जौहरी तो जौहरी ही था । पक्का बनिया । उसे लोभ पकड़ गया । उसने कहा आठ आने तो थोड़े ज्यादा है । तू इसके चार आने ले ले ।

कुम्हार भी थोड़ा झक्की था । वह ज़िद पकड़ गया कि नहीं देने हो तो आठ आने दो । नहीं देने है । तो कम से कम छह आने तो दे ही दो । नहीं तो हम नहीं बेचेंगे । जौहरी ने कहा - पत्थर ही तो है ।चार आने कोई कम तो नहीं । उसने सोचा थोड़ी दूर चलने पर आवाज दे देगा । आगे चला गया । लेकिन आधा फरलांग चलने के बाद भी कुम्हार ने उसे आवाज न दी । तब उसे लगा । बात बिगड़ गई । नाहक छोड़ा । छह आने में ही ले लेता । तो ठीक था । जौहरी वापस लौटकर आया । लेकिन तब तक बाजी हाथ से जा चुकी थी । गधा खड़ा आराम कर रहा था । और कुम्हार अपने काम में लगा था ।

जौहरी ने पूछा - क्या हुआ ? पत्थर कहां है ? कुम्हार ने हंसते हुए कहा - महाराज एक रूपया मिला है । उस पत्थर का । पूरा आठ आने का फायदा हुआ है । आपको छह आने में बेच देता । तो कितना घाटा होता । और अपने काम में लग गया ।

पर जौहरी के तो माथे पर पसीना आ गया । उसका तो दिल बैठा जा रहा था ।सोच सोच कर । हाय । लाखों का हीरा । यूं मेरी नादानी की वजह से हाथ से चला गया । उसने कुम्हार से कहा - मूर्ख ! तू बिलकुल गधे का गधा ही रहा । जानता है । उसकी कीमत कितनी है । वह लाखों का था । और तूने एक रूपये में बेच दिया । मानो बहुत बड़ा खजाना तेरे हाथ लग गया ।

उस कुम्हार ने कहा - हुजूर मैं अगर गधा न होता तो क्या इतना कीमती पत्थर गधे के गले में बाँध कर घूमता ? लेकिन आपके लिए क्या कहूं ? आप तो गधे के भी गधे निकले । आपको तो पता ही था कि लाखों का हीरा है । और आप उस के छह आने देने को तैयार नहीं थे । आप पत्थर की कीमत पर भी लेने को तैयार नहीं हुए ।

यदि इन्सान को कोई वस्तु आधे दाम में भी मिले तो भी वो उसके लिए मोल भाव जरुर करेगा । क्योकि लालच हर इन्सान के दिल में होता है । कहते है न - चोर चोरी से जाये, हेरा फेरी से न जाये - । जौहरी ने अपने लालच के कारण अच्छा सौदा गँवा दिया ।

धर्म का जिसे पता है उसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है । जिन्हें पता नहीं है वे क्षमा के योग्य है । लेकिन जिन्हें पता है उनको क्या कहें ?

(स्वामी मुक्तानंद)


rajnish manga

21-12-2013, 04:24 PM

इस बार मैं यहां किसी मुहावरे से जुड़ी कहानी नहीं दे रहा बल्कि एक कविता दे रहा हूँ जिसमे मुहावरों का बड़ा मनोहारी उपयोग किया गया है. मुझे विश्वास है कि इससे आपका मनोरंजन तो होगा ही, मुहावरों को याद रखने में भी मदद मिलेगी. यह निम्न प्रकार से है:

मुहावरों की ग़ज़ल
(साभार: विकिसौर्स)

तिलक लगाये माला पहने भेस बनाये बैठे हैं, तपसी की मुद्रा में बगुले घात लगाये बैठे हैं.
घर का जोगी हुआ जोगिया आन गाँव का सिद्ध हुआ, भैंस खड़ी पगुराय रही वे बीन बजाये बैठे हैं.

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने को निकली है, सभी मियाँ मिट्ठू उसका आदाब बजाये बैठे हैं.
घर की इज्जत गिरवीं रखकर विश्व बैंक के लॉकर में, बड़े मजे से खुद को साहूकार बताये बैठे हैं.

उग्रवाद के आगे इनकी बनियों वाली भाषा है, अबकी मार बताऊँ तुझको ईंट उठाये बैठे हैं.
जब से इनका भेद खुला है खीस काढ़नी भूल गये, शीश उठाने वाले अपना मुँह लटकाये बैठे हैं.

मुँह में राम बगल में छूरी लिये बेधड़क घूम रहे, आस्तीन में साँप सरीखे फ़न फैलाये बैठे हैं.
विष रस भरे कनक घट जैसे चिकने चुपड़े चेहरे हैं, बोकर पेड़ बबूल आम की आस लगाये बैठे हैं.

नये मुसलमाँ बने तभी तो डेढ़ ईंट की मस्जिद में, अल्लाह अल्लाह कर खुद को ईमाम बताये बैठे हैं.
दाल भले ही गले न फिर भी लिये काठ की हाँडी को, ये चुनाव के चूल्हे पर कब से लटकाये बैठे हैं.

मुँह में इनके दाँत नहीं हैं और पेट में आँत नहीं, कुड़ी देखकर मेक अप से चेहरा चमकाये बैठे हैं.
खम्भा नोच न पाये तो ये जाने क्या कर डालेंगे, टी०वी० चैनेल पर बिल्ली जैसे खिसियाये बैठे हैं.

अपनी-अपनी ढपली पर ये अपना राग अलाप रहे, गधे ऊँट की शादी में ज्यों साज सजाये बैठे हैं.
पहन भेड़ की खाल भेड़िये छुरा पीठ में घोपेंगे, रंगे सियारों जैसे गिरगिट सब जाल बिछाये बैठे है.

एक-दूसरे की करके तारीफ़ बड़े खुश हैं दोनों, क्या पाया है रूप! आप क्या सुर में गाये बैठे हैं!
टका सेर में धर्म बिक रहा टका सेर ईमान यहाँ, चौपट राजा नगरी में अन्धेर मचाये बैठे हैं.

बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ थे छोटे मियाँ सुभान अल्ला, पैरों तले जमीन नहीं आकाश उठाये बैठे हैं.
अश्वमेध के घोड़े सा रानी का बेलन घूम रहा, शेर कर रहे "हुआ हुआ" गीदड़ झल्लाये बैठे हैं.

मुँह सी लेते हैं अपना जब मोहरें लूटी जायें तो, छाप कोयलों पर पड़ती तो गाल फुलाये बैठे हैं.
'क्रान्त' इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे, यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं.


Dr.Shree Vijay

21-12-2013, 05:34 PM

इस बार मैं यहां किसी मुहावरे से जुड़ी कहानी नहीं दे रहा बल्कि एक कविता दे रहा हूँ जिसमे मुहावरों का बड़ा मनोहारी उपयोग किया गया है. मुझे विश्वास है कि इससे आपका मनोरंजन तो होगा ही, मुहावरों को याद रखने में भी मदद मिलेगी. यह निम्न प्रकार से है:

मुहावरों की ग़ज़ल
(साभार: विकिसौर्स)

मुँह सी लेते हैं अपना जब मोहरें लूटी जायें तो, छाप कोयलों पर पड़ती तो गाल फुलाये बैठे हैं.
'क्रान्त' इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे, यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं.

अतिउत्तम और सरलतम.........

क्रान्त इन अन्धों के आगे रोये तो दीदे खोओगे,
यहाँ हंस कौओं के आगे शीश झुकाये बैठे हैं.......


rajnish manga

22-12-2013, 10:33 AM

किस्सा हूर और लंगूर का
(वाया गली मुहावरों वाली)

आप जितने भी जोड़े देखते होंगे उनमें से 95 प्रतिशत बेमेल ही मिलेंगे। पता नहीं क्या जादू है कि हमेशा हूर लंगूर के हाथों ही आ फँसती है। हमारे हाथ में भी आखिरकार एक हूर लग ही गई थी, आज से छत्तीस साल पहले।

जब शादी नहीं हुई थी हमारी तो बड़े मजे में थे हम।अपनी नींद सोते थे और अपनी नींद जागते थे।न ऊधो का लेना था न माधो का देना। हमारा तो सिद्धान्त ही था “आई मौज फकीर की, दिया झोपड़ा फूँक”। याने कि अपने बारे में हम इतना ही बता सकते हैं किआगे नाथ न पीछे पगहा। किसी केतीन-पाँच में कभी रहते ही नहीं थेहम।बसअपने काम से काम रखते थे। हमारे लिये सभी लोग भले थे क्योंकि आप तो जानते ही हैं किआप भला तो जग भला।

पर थे एक नंबर के लंगूर हम। पर पता नहीं क्या देखकर एक हूर हम पर फिदा हो गई। शायद उसने हमारी शक्ल पर ध्यान न देकर हमारी अक्ल को परखा रहा होगा और हमेंअक्ल का अंधापाकर हम पर फिदा हो गई रही होगी। या फिर शायद उसने हमेंअंधों में काना राजासमझ लिया होगा। या सोच रखा होगा कि शादी उसी से करो जिसे जिन्दगी भर मुठ्ठी में रख सको।

बस फिर क्या था उस हूर ने झटपट हमारी बहन से दोस्ती गाँठ ली और रोज हमारे घर आने लगी। “अच्छी मति चाहो, बूढ़े पूछन जाओ” वाले अन्दाज में हमारी दादी माँ को रिझा लिया। हमारे माँ-बाबूजी की लाडली बन गई। इधर ये सब कुछ हो रहा था और हमें पता ही नहीं था कि अन्दर ही अन्दर क्या खिचड़ी पक रही है।

इतना होने पर भी जब उसे लगा किदिल्ली अभी दूर हैतो धीरे से हमारे पास आना शुरू कर दिया पढ़ाई के बहाने। किस्मत का फेर, हम भी चक्कर में फँसते चले गये। कुछ ही दिनों मेंआग और घी का मेलहो गया। आखिरएक हाथ से ताली तो बजती नहीं। हम भी “ओखली में सर दिया तो मूसलो से क्या डरना” के अन्दाज में आ गये। उस समय हमें क्या पता था किअकल बड़ी या भैंस। गधा पचीसी के उस उम्र में तो हमेंसावन के अंधे के जैसा हरा ही हरा सूझता था। अपनी किस्मत पर इतराते थे और सोचते थे किबिन माँगे मोती मिले माँगे मिले ना भीख।

अबअपने किये का क्या इलाज? दुर्घटना घटनी थी सो घट गई। उसके साथ शादी हो गई हमारी। आज तक बन्द हैं हम उसकी मुठ्ठी में और भुगत रहे हैं उसको।अपने पाप को तो भोगना ही पड़ता है। ये तो बाद में समझ में आया किलंगूर के हाथ में हूरफँसती नहीं बल्कि हूर ही लंगूर को फाँस लेती हैं। कई बार पछतावा भी होता है परअब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
(साभार: जी.के.अवधिया)


internetpremi

22-12-2013, 08:33 PM

Thanks for this great "all in one" thaali. Delicious indeed.


rajnish manga

31-12-2013, 02:30 PM

विनाश काले विपरीत बुद्धि

पाण्डवों के वन जाने के बाद नगर में अनेक अपशकुन हुए। उसके बाद नारदजी वहां आए और उन्होंने कौरवों से कहा कि आज से ठीक चौदह वर्ष बाद पाण्डवों के द्वारा कुरुवंश का नाश हो जाएगा. (कुछ ).... द्रोणाचार्य की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गुरुजी का कहना ठीक है। तुम पाण्डवों को लौटा लाओ। यदि वे लौटकर न आवें तो उनका शस्त्र, सेवक और रथ साथ में दे दो ताकि पाण्डव वन में सुखी रहे। यह कहकर वे एकान्त में चले गए। उन्हें चिन्ता सताने लगी उनकी सांसे चलने लगी। उसी समय संजय ने कहा आपने पाण्डवों का राजपाठ छिन लिया अब आप शोक क्यों मना रहे हैं? संजय ने धृतराष्ट्र से कहा पांडवों से वैर करके भी भला किसी को सुख मिल सकता है। अब यह निश्चित है कि कुल का नाश होगा ही, निरीह प्रजा भी न बचेगी।

सभी ने आपके पुत्रों को बहुत रोका पर नहीं रोक पाए। विनाशकाल समीप आ जाने पर बुद्धि खराब हो जाती है। अन्याय भी न्याय के समान दिखने लगती है। वह बात दिल में बैठ जाती है कि मनुष्य अनर्थ को स्वार्थ और स्वार्थ को अनर्थ देखने लगता है तथा मर मिटता है। काल डंडा मारकर किसी का सिर नहीं तोड़ता। उसका बल इतना ही है कि वह बुद्धि को विपरित करके भले को बुरा व बुरे को भला दिखलाने लगता है। धृतराष्ट्र ने कहा मैं भी तो यही कहता हूं।

द्रोपदी की दृष्टि से सारी पृथ्वी भस्म हो सकती है। हमारे पुत्रों में तो रख ही क्या है? उस समय धर्मचारिणी द्र्रोपदी को सभा में अपमानित होते देख सभी कुरुवंश की स्त्रियां गांधारी के पास आकर करुणकुंदन करने लगी। ब्राहण हमारे विरोधी हो गए। वे शाम को हवन नहीं करते हैं। मुझे तो पहले ही विदुर ने कहा था कि द्रोपदी के अपमान के कारण ही भरतवंश का नाश होगा। बहुत समझा बुझाकर विदुर ने हमारे कल्याण के लिए अंत में यह सम्मति दी कि आप सबके भले के लिए पाण्डवों से संधि कर लीजिए। संजय विदुर की बात धर्मसम्मत तो थी लेकिन मैंने पुत्र के मोह में पड़कर उसकी प्रसन्नता के लिए उनकी इस बात की उपेक्षा कर दी।


Dr.Shree Vijay

07-01-2014, 04:23 PM

किस्सा हूर और लंगूर का (वाया गली मुहावरों वाली)
(साभार: जी.के.अवधिया)

विनाश काले विपरीत बुद्धि

श्री जी.के.अवधिया - के लिए कौवे के गले में मोतियों की माला.....

श्री ध्रतराष्ट्र जी - के लिए अक्ल के अन्धो कों कोई कैसे समझा सकता हैं..........

दोनों ही बेहतरीन हैं.............


rajnish manga

14-02-2014, 04:13 PM

मुहावरे में कुत्ता
(आलेख: वीरेन्द्र जैन)

कुत्ता बहुत पुरानी जाति है। पाण्डव स्वर्ग जाते हुये अपने कुत्ते को स्वर्ग में भी साथ ले गये थे और उसके बिना युधिष्टर ने स्वर्ग में जाने से भी मना कर दिया था। तब से ही यह परम्परा चल पड़ी है कि जो भी बड़ा आदमी कहीं जा रहा है उसके पीछे पीछे उसके कुत्ते भी जाते हैं। परम्परा बड़ी खराब चीज़ होती है जो चलती चली जाती है। पिछले दिनों जब अमेरिका के प्रेसीडेंट भारत आये थे तब गान्धीजी की समाधि पर जाने से पहले उनके कुत्तों ने गान्धीजी की पूरी समाधि को सूंघा था। वे सोचते होंगे कि क्या पता ये गान्धी अब पुराने गान्धी न हों और अचानक ही समाधि से उठ कर धायँ धायँ कर दें। अमेरिका ने इतने पाप किये हैं कि उसके पदाधिकारियों को हरेक से डर लगता रहता है।

किसी ज़माने में कुत्ते पुलिस के विशेषण की तरह याद किये जाते थे किंतु बहुत दिनों से पुलिस वालों ने उस विशेषण से पीछा छुड़ा लिया है क्योंकि अब राठौर जैसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ और भी बड़े बड़े विशेषण जुड़ने लगे हैं। किसी ज़माने में किसी कवि ने लिखा था कि -कुत्ता कहने से बुरा मानते पुलिस वाले:

रक्खा निज ठौर का फिर नाम कुतवाली क्यों

राजनीति को सर्वग्रासी कहा जाता है सो वो अब विशेषणों से लेकर गालियों तक सब कुछ हज़म करने लगी है। गालिब पहले ही कह गये हैं कि – गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ। किसी ज़माने में जब राम जेठमलानी भाजपा में थे तब उन्होंने बोफोर्स काण्ड पर राजीव गान्धी से प्रति दिन दस सवाल पूछने का सिलसिला शुरू किया था शायद वे राजीव जी की क्षमता पहचानते थे और नहीं चाहते होंगे कि एक दिन में ज्यादा सवाल पूछ कर सारे उत्तर एक साथ माँगे जायें। राजीवजी ने उनके किसी सवाल का तो उत्तर नहीं दिया था अपितु इतना भर कहा था कि कुत्ते भौंकते ही रहते हैं। प्रति उत्तर में अपने समय के नामी वकील जो अभी मनु शर्मा की वकालत करने में भी बिल्कुल नहीं शरमाये थे उत्तर में कहा था कि कुत्ता चोर को देखकर ही भौंकता है।


rajnish manga

14-02-2014, 04:16 PM

लोगों के शौकों का पता धीरे धीरे ही चलता है हाल ही में पता चला है कि भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी को मुहावरे दार भाषा बोलने का बहुत शौक है और इसी शौक के वशीभूत उन्होंने कह दिया कि लालू और मुलायम कुत्ते की तरह सोनिया जी के तलुवे चांटते है। अब ये बात काँग्रेसियों को कैसे हज़म हो सकती है कि उनके हक़ को दूसरी पार्टी के लोग हड़प जाएं। उन्होंने विरोध किया तो भारतीय संस्कृति के गौरव माननीय गडकरी जी ने कहा कि उन्होंने तो मुहावरे में कुत्ता कहा था। कल्पना करें कि अगर उन्होंने उक्त स्पष्टीकरण नहीं दिया होता तो हो सकता था कि लोग सोचते कि सोनिया जी के तलुवे इतने साफ सुथरे इसलिए रहते हैं। यह् रहस्य अब समझ में आया।

आदरणीय गडकरीजी जब मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करते हैं तो उन्हें पता ही होगा कि हिन्दी में मुहावरों का भण्डार भरा हुआ है। इनमें से कुछ हैं- राम नाम जपना पराया माल अपना मुँह में राम बगल में छुरी राम मिलायी जोड़ी, इक अन्धा इक कोड़ी राम नाम ले हज़म कर गये, गौशाला के चन्दे इत्यादि मुहावरे कम पड़ जायें तो इस अकिंचन को सेवा का अवसर दें। आप जैसे मुहावरेदार महानुभाव की सेवा करके मुझे बड़ी खुशी होगी।
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rajnish manga

26-02-2014, 07:26 PM

सांच को आंच नहीं

किसी नगर में एक जुलाहा रहता था| वह बहुत बढ़िया कम्बल तैयार करता था| कत्तिनों से अच्छी ऊन खरीदता और भक्ति के गीत गाते हुए आनंद से कम्बल बुनता| वह सच्चा था, इसलिए उसका धंधा भी सच्चा था, रत्तीभर भी कहीं खोट-कसर नहीं थी|

एक दिन उसने एक साहूकार को दो कम्बल दिए| साहूकार ने दो दिन बाद उनका पैसा ले जाने को कहा| साहूकार दिखाने को तो धरम-करम करता था, माथे पर तिलक लगाता था, लेकिन मन उसका मैला था| वह अपना रोजगार छल-कपट से चलाता था|

दो दिन बाद जब जुलाहा अपना पैसा लेने आया तो साहूकार ने कहा - "मेरे यहां आग लग गई और उसमें दोनों कम्बल जल गए अब मैं पैसे क्यों दूं?"

जुलाहा बोला - "यह नहीं हो सकता मेरा धंधा सच्चाई पर चलता है और सच में कभी आग नहीं लग सकती|

जुलाहे के कंधे पर एक कम्बल पड़ा था उसे सामने करते हुए उसने कहा - "यह लो, लगाओ इसमें आग|"

साहूकार बोला - "मेरे यहां कम्बलों के पास मिट्टी का तेल रखा था| कम्बल उसमें भीग गए थे| इस लिए जल गए|

जुलाहे ने कहा - "तो इसे भी मिट्टी के तेल में भिगो लो|"

काफी लोग वहां इकट्ठे हो गए| सबके सामने कम्बल को मिट्टी के तेल में भिगोकर आग लगा दी गई| लोगों ने देखा कि तेल जल गया, लेकिन कम्बल जैसा था वैसा बना रहा|

जुलाहे ने कहा - "याद रखो सांच को आंच नहीं|"

साहूकार ने लज्जा से सिर झुका लिया और जुलाहे के पैसे चुका दिए|

सच ही कहा गया है कि जिसके साथ सच होता है उसका साथ तो भगवान भी नहीं छोड़ता|
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ndhebar

26-02-2014, 11:58 PM

किस्सा हूर और लंगूर का
(वाया गली मुहावरों वाली)

ये वाला बेहतरीन है.………
:bravo::bravo:


rajnish manga

02-03-2014, 10:39 AM

कड़वा सच

एक फकीर कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक सौदागर मिला, जो पांच गधों पर बड़ी-बड़ी गठरियां लादे हुए जा रहा था। गठरियां बहुत भारी थीं, जिसे गधे बड़ी मुश्किल से ढो पा रहे थे। फकीर ने सौदागर से प्रश्न किया, ‘इन गठरियों में तुमने ऐसी कौन-सी चीजें रखी हैं, जिन्हें ये बेचारे गधे ढो नहीं पा रहे हैं?’

सौदागर ने जवाब दिया, ‘इनमें इंसान के इस्तेमाल की चीजें भरी हैं। उन्हें बेचने मैं बाजार जा रहा हूं।’ फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! कौन-कौन सी चीजें हैं, जरा मैं भी तो जानूं!’ सौदागर ने कहा, ‘यह जो पहला गधा आप देख रहे हैं इस पर अत्याचार की गठरी लदी है।’ फकीर ने पूछा, ‘भला अत्याचार कौन खरीदेगा?’ सौदागर ने कहा, ‘इसके खरीदार हैं राजा-महाराजा और सत्ताधारी लोग। काफी ऊंची दर पर बिक्री होती है इसकी।’

फकीर ने पूछा,‘इस दूसरी गठरी में क्या है?’ सौदागर बोला, ‘यह गठरी अहंकार से लबालब भरी है और इसके खरीदार हैं पंडित और विद्वान। तीसरे गधे पर ईर्ष्या की गठरी लदी है और इसके ग्राहक हैं वे धनवान लोग, जो एक दूसरे की प्रगति को बर्दाश्त नहीं कर पाते। इसे खरीदने के लिए तो लोगों का तांता लगा रहता है।’ फकीर ने पूछा, ‘अच्छा! चौथी गठरी में क्या है भाई?’ सौदागर ने कहा, ‘इसमें बेईमानी भरी है और इसके ग्राहक हैं वे कारोबारी, जो बाजार में धोखे से की गई बिक्री से काफी फायदा उठाते हैं। इसलिए बाजार में इसके भी खरीदार तैयार खड़े हैं।’ फकीर ने पूछा, ‘अंतिम गधे पर क्या लदा है?’ सौदागर ने जवाब दिया,‘इस गधे पर छल-कपट से भरी गठरी रखी है और इसकी मांग उन औरतों में बहुत ज्यादा है जिनके पास घर में कोई काम-धंधा नहीं हैं और जो छल-कपट का सहारा लेकर दूसरों की लकीर छोटी कर अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश करती रहती हैं। वे ही इसकी खरीदार हैं।’ तभी महात्मा की नींद खुल गई। इस सपने में उनके कई प्रश्नों का उत्तर मिल गया था।

(प्रस्तुति आभार: बेला गर्ग)

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rajnish manga

02-03-2014, 10:44 AM

पंचतंत्र से:
एक और एक ग्यारह

एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था। बनगिरी में ही एक पेड़ पर एक चिड़िया व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिड़िया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिड़िया के घोंसले वाला पेड़ भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।

चिड़िया और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिड़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोडवी आई। वह चिड़िया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिड़िया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली 'इस प्रकार ग़म में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।'

चिड़िया ने निराशा दिखाई 'हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?'

कठफोडवी ने समझाया 'एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।'

'कैसे?' चिड़िया ने पूछा।

'मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेनी चाहिए।' चिड़िया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया 'यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।'

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेंढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला 'आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।'

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला 'दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।'

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rajnish manga

02-03-2014, 10:46 AM

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पड़े। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।
तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।

जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।

चिड़िया कॄतज्ञ स्वर में मेंढक से बोली 'बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।'

मेंढक ने कहा 'आभार मानने की ज़रुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।'

एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी। मेंढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे। मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा। टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेंढकों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरू किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।
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rajnish manga

11-03-2014, 12:35 AM

एक चुप सौ सुख
एक जमीदार था, एक उसकी घर वाली थी| घर मे दो जने ही थे | जमीदार खेत मे काम करता था और उसकी पत्नी घर का काम करती थी | पति-पत्नी दोनों ही गरम स्वभाव के थे| थोड़ी थोड़ी बात पर दोनों मे ठन जाती थी| कभी कभी तो घरवाली का बना बनाया खाना भी बेकार हो जाता था| एक दिन घरवाली अपनी रिश्तेदारी मे गई| वहां उसे एक बुजुर्ग औरत मिली | बातों बातों मे जमींदार की घरवाली ने बुजुर्ग औरत को बताया कि मेरे घरवाले का मिजाज बहुत चिड़चिड़ा है वे जब तब मेरे से लड़ते ही रहते हैं| कभी कभी इससे हमारी बनी बनाई रसोई बेकार चली जाती है| बुजुर्ग महिला ने कहा यह कोई बड़ी बात नहीं है |ऐसा तो हर घर मे होता रहता है| मेरे पास इस की एक अचूक दवा है| जब भी कभी तेरा घरवाला तेरे साथ लड़े, तब तुम उस दवाको अपने मुंह मे रख लेना, इस से तुम्हारा घरवाला अपने आप चुप हो जाएगा| बुजुर्ग महिला अपने अन्दर गई, एक शीशी भर कर ले आई और उसे दे दी|

जमीदार की घरवाली ने घर आ कर दवा की परीक्षा करनी शुरू कर दी जब भी जमीदार उस से लड़ता था वह दवा मुंह मे रख लेती थी| इस से काफी असर दिखाई दिया | जमीदार का लड़ना काफी कम हो गया था| यह देख कर वह काफी खुश हुई| वह ख़ुशी-ख़ुशी बुजुर्ग महिला के पास गई और कहा आप की दवाई तो कारगर सिद्ध हुई है, आप ने इस मे क्या क्या डाला है जरा बता देना, मे इसे घर मे ही बना लूँगी | बार बार आना जाना मुश्किल हो जाता है| इसपर बुजुर्ग महिला ने जवाब दिया की जो शीशी मैंने तुम्हे दी थी उस मे शुद्ध जल के सिवाय कुछ भी नहीं था| तुम्हारी समस्या का हल तो तुम्हारे चुप रहने से हुई है | जब तुम दवा यानि की पानी को मुंह मे भर लेती थी तो तुम बोल नहीं सकती थी और तुम्हारी चुप्पी को देख कर तुम्हारे घरवाले का भी क्रोध शांत हो जाता था|इसी को "एक चुप सौ सुख" कहते हैं| बुजुर्ग महिला ने जमीदार की घरवाली को सीख दी की इस दवाको कभी भूलना मत औरअगर किसी को जरूरत पड़े तो आगे भी लेते रहना| जमीदार की घरवाली ने बुजुर्ग महिला की बात कोगांठ बांध लिया और ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर वापिस आ गई|
(आलेख: के. आर. जोशी)


Dr.Shree Vijay

11-03-2014, 01:38 PM

मुहावरे में कुत्ता
(आलेख: वीरेन्द्र जैन)

सांच को आंच नहीं

कड़वा सच
(प्रस्तुति आभार: बेला गर्ग)

पंचतंत्र से:
एक और एक ग्यारह

एक चुप सौ सुख
(आलेख: के. आर. जोशी)

एक से बढकर एक सुंदर मुहावरों की यथार्थवादी कहानियों को प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.........


rajnish manga

13-03-2014, 01:04 AM

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लेना एक न देना दो

एक पोखर के पास एक मोर और कछुआ साथ साथ रहते थे. मोर पेड़ पर रहता और दाना चुग्गा खा कर प्रसन्न रहता. उसका मित्र कछुआ पोखर में रहता और बीच बीच में पोखर से बाहर निकल कर मोर के साथ देर तक बातें करता. एक बार उस स्थान पर एक बहेलिया आया और उसने मोर को अपने जाल में फंसा लिया. वह मोर को बेचने के लिये हाट की ओर ले जाने लगा. इस पर मोर ने बहेलिये से बड़े कातर स्वर में कहा, “तुम मुझे जहां चाहे मर्जी ले जाओ. लेकिन, जाने से पहले मैं पोखर में रहने वाले अपने मित्र कछुए से मिलना चाहता हूँ. फिर तो उससे कभी मुलाक़ात होने से रही. बहेलिया राजी हो गया.

मोर को बंदी हालत में देख कर कछुआ बहुत दुखी हुआ. उसने बहेलिये से कहा, “यदि तुम मेरे मित्र मोर को छोड़ दो तो मैं तुम्हें एक कीमती उपहार दूंगा. बहेलिया मान गया. कछुए ने तालाब में एक डुबकी लगाई और मुंह में एक कीमती हीरा ले कर बाहर आ गया. बहेलिये ने हीरे को देखा तो उसके एवज में उसने मोर को छोड़ दिया.
>>>


rajnish manga

13-03-2014, 01:06 AM

उधर हीरा ले कर बहेलिया चल गया तो कछुए ने मोर को कहीं दूर जा कर छुप जाने की सलाह दी. मित्र की बात मान कर मोर दूर चला गया. रास्ते में बहेलिये को लालच आ गया. उसके मन में विचार आया कि उसे कछुए से मोर की रिहाई के बदले में एक नहीं दो हीरे लेने चाहिये थे. यह ख़याल आते ही वह कछुए से मिलने पोखर पर आया. उसने कछुए से कहा कि मुझे मोर की रिहाई के बदले एक की जगह दो हीरे चाहिये थे.

उसकी बात सुन कर कछुआ समझ गया कि उसके मन में लालच आ गया है. सो, कछुए ने बहेलिये से कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें इसके साथ का दूसरा हीरा ला देता हूँ, जरा मुझे पहला वाला हीरा दे दो. बहेलिये ने कछुए को हीरा दे दिया. कछुए ने हीरा लिया और पोखर में चला गया और बहुत देर तक वापिस नहीं आया. यह प्रसंग सभी को मालूम हो गया और सब कहने लगे कि बहेलिये को एक हीरा वापिस नहीं देना चाहिये था और न ही कछुए को दो हीरे देने थे. तभी से यह कहावत मशहूर हो गई: लेना एक न देना दो.


rajnish manga

16-03-2014, 01:34 AM

अद्धी के वास्ते पैसे का तेल जलाना
(कम फायदे के पीछे अधिक नुक्सान सहना)

यह कहावत पैसे-पाई का हिसाब रखने वाले बनियों को ध्यान में रखते हुये बनी है. बनिए हिसाब के पक्के होते है. एक पैसे का हिसाब मिलाने के लिये घंटों मेहनत कर सकते हैं उससे कहीं अधिक खर्च कर सकते हैं. रात में काम करते समय चाहे रूपए का तेल जला दें. इस बारे में एक और कथा भी सुनने में आती है.

लखनऊ में एक अफीमची हलवाई के यहाँ से रेवड़ी खरीद कर लिये जा रहा था. उसके दोने में से दो रेवड़ियां जमीन पर गिर गयीं. उन्हें वह चिराग़ ले कर ढूंढने लगा. राहगीरों में से एक ने पूछा,
“मियाँ जी, आप इतनी देर से यहाँ क्या ढूंढ रहे है?”

अफीमची बोला, “दो रेवड़ियां गिर गयीं हैं दोस्त.”

राहगीर ने कहा, “आपने तो एक अद्धी की रेवड़ियों के लिये एक रूपए का तेल फूंक दिया होगा. इसी पैसे से और रेवड़ियां ले लेते.”

अफीमची ने जवाब दिया, “भाई जान, मुझे पैसे की फ़िक्र बिलकुल नहीं है. डर सिर्फ इस बात का है कि किसी बेदर्द के हाथ अगर रेवड़ी लग जायेगी तो वह उन्हें खट से चबा कर ख़त्म कर देगा.”
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16-03-2014, 01:35 AM

आब आब कर मर गये, सिरहाने था पानी

एक समय की बात है कि एक बनिया व्यापार के सिलसिले में काबुल गया. वहां रहते रहते वह अफ़गान भाषा बोलना सीख गया. अब वह पानी को ‘आब’ कहने लगा. कुछ समय पश्चात जब वह स्वदेश वापिस आया तो भी उसने अफ़गान भाषा के शब्द बोलने नहीं छोड़े.
इत्तफ़ाक से वह घर आते ही बीमार पड़ गया. बीमारी की नीम बेहोशी की हालत में वह ‘आब’ ‘आब’ चिल्लाता रहा. किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह क्या बोल रहा है. वह पानी न मिलने के कारण प्यासा ही मर गया.

इसी को लेकर एक शे’र बड़ा मशहूर ही:

काबुल गये बानिया, सीखी मुग़लिया बानी i
आब आब कर मर गये, सिरहाने रखा पानीii
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16-03-2014, 01:37 AM

आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से

दो मित्र आमों के मौसम में आम के एक बगीचे में पहुंचे. वहां रखवाले को देख कर एक ने उससे पूछा,
“भाई, यह बाग़ किसका है? इसमें कितनी तरह के आम हैं? कितने पेड़ हैं?” आदि आदि. दूसरे मित्र ने बाग़ में पहुँचते ही आमों का भाव पूछा, रखवाले को पैसे दिए और आम ले कर खाने शुरू कर दिए. पहला मित्र आम के पेड़ों का घूम घूम कर मुआयना करता रहा और उनकी किस्म की जानकारी लेता रहा. इस बीच दूसरे मित्र ने आम खा कर अपना पेट भर लिया. दूसरे मित्र ने जो पेड़ों की जानकारी ले रहा था, रखवाले से खाने के लिये कुछ आम खरीदने चाहे. इस पर रखवाले ने कहा कि आज तो मैं बुरी तरह थक गया हूँ. अभी एक आवश्यक काम से भी मुझे शहर जाना है. अब तो कल ही आपको आम मिल पायेंगे.”

यह मित्र बिना आम खाए अपना सा मुंह ले कर लौट आया. यहीं से यह कहावत चल निकली कि “आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से.” इसका आशय यह है कि आदमी को अपने काम से काम रखना चाहिये. व्यर्थ की बातों में उलझने से हानि की सम्भावना अधिक रहती है.
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16-03-2014, 07:49 PM

इक्के दुक्के का अल्ला बेली (मित्र)

दिल्ली से कोई दस मील दूर फरीदाबाद शहर के रास्ते में एक नाला था. बहुत पहले वहां घना जंगल था. एक बुढ़िया वहां बैठ कर मुसाफिरों से भीख माँगा करती. उसके बेटे पास के नाले के किनारे छुपे रहते. वे लूट पाट का काम करते. जब कोई इक्का दुक्का मुसाफिर उधर से निकलता, तो बुढ़िया उन्हें यह कह कर आगाह कर देती कि “इक्के दुक्के का अल्ला बेली.”यह सुन कर उसके बेटे नाले से लगे छुपने वाले स्थान से बाहर आते और यात्रियों को लूट लेते.

जब वहां से निकलने वाले यात्री समूह में होते तो बुढ़िया चिल्ला कर बोलती, “जमात में करामात है”.

यह सुनते ही बुढ़िया के बच्चे समझ जाते कि इतने आदमियों के सामने जाना खतरे से खाली नहीं है. अतः वे वहीँ बैठे रहते. कई दिनों तक उन लोगों का यह काम चलता रहा और गुजारा होता रहा. आखिर कब तक ऐसा चलता. एक दिन उनका भांडा फूट गया और वे लोग गिरफ्तार कर लिये गये. लेकिन सारे इलाके में उनकी लूट-पाट के किस्से लोगों में मशहूर हो चुके थे. बुढ़िया द्वारा बेटों को दिया जाने वाला संदेश “इक्के-दुक्के का अल्ला बेली” तो कहावत के रूप में सारे अंचल में प्रचलित हो गया.


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16-03-2014, 07:52 PM

ऊंट के गले में बिल्ली

किसी गाँव में एक आदमी का ऊंट खो गया. बहुत खोजा लेकिन ऊंट नहीं मिला. वह परेशान हो गया. हताश हो कर उसने कसम खायी कि अगर ऊंट अब मिल भी गया तो उसे अपने पास नहीं रखूँगा बल्कि उसे सो पैसे में बेच दूंगा. यह कसम उसने अपने कई जानने वालों के सामने खाई थी.

करनी करतार की यह हुयी कि ऊंट दो दिन बाद उसे मिल गया. वह बहुत शशोपंज में पड़ गया. अब कसम को कैसे पूरा करे. ऊंट भी उसके लिये बहुत जरुरी था. उसने अपने एक मित्र से सलाह-मशविरा किया. मित्र ने उसे एक तरकीब सुझाई कि तुम ऊंट के गले में बिल्ली बाँध दो और ढिंढोरा पिटवा दो कि “ऊंट की कीमत दो टके होगी और बिल्ली की कीमत दो सौ रूपए. दोनों को एक साथ बेचूंगा अलग अलग नहीं. कोई भी इतनी रकम चुका कर पशुओं को ले जा सकता है. मित्र ने कहा कि इस तरह से ‘सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी’ यानि तुम्हारी कसम भी पूरी हो जायेगी और तुम्हें घाटा भी नहीं पड़ेगा.


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16-03-2014, 10:54 PM

बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?

बचपन में बाबा एक कहावत कहते थे, "बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?" हम ने कहा, "बाबा ! यह कौन बड़ी बात है ? बिल्ली पकड़ कर आप लाइए घंटी तो हमबाँधहीदेंगे!!" तब बाबा ने हमें इस कहाबतका किस्सा सुनाया। आप भी पहले यह किस्सा सुन लीजिये!

हमारे गाँव मे एक थे धनपत चौधरी! उनका एक बड़ा-साखलिहान था। उस में अनाज-पानी तो जो था सो था ही, ढेरो चूहे भरे हुए थे। खलिहान मेंकटाई-खुटाई के मौसम ही लोग-बाग़ जाते थे वरना वहाँ चूहाराज ही था। चूहे दिन-रातधमा-चोकड़ी करते रहते थे। धनपत बाबू ने एक मोटी बिल्ली पाल रखी थी। वह बिल्लीदिन-दोपहर कभी भी चुपके से खलिहान में घुस जाती थी और झट से एक चूहे खा जाती थी।

एकदिन चूहों ने एक बड़ी बैठक बुलाई। उसमें बुज़ुर्ग चूहों द्वारा यह कहा गया कि हम लोग इतने चूहे हैं औरबिल्लीएक… फिर भी कमबख्त जब चाहती है तबहम लोगों को अपना शिकार बना लेती है... कुछ तो उपाय करना पड़ेगा। मसला तो बहुतगंभीर था। सो बहुत देर तक विचार विमर्श के बाद बूढ़ा चूहा बोला, "देखो बिल्ली से हम लोग लड़ तो नहीं सकते लेकिन बुद्धि लगा के बच सकते हैं। क्यूँ न बिल्ली के गले मेंएक घंटी बाँध दी जाए ? इस तरह से जब बिल्ली इधर आयेगी घंटी की आवाज़ सुन कर हम लोगछुप जायेंगे।"

अरे शाब्बाश....!!!! सारे चूहे इस बात पर उछल पड़े।लगा उन्हें सुरक्षा कवच मिल गया हो। लेकिन चूहों का सरदार बोला, 'आईडिया तो सॉलिड है परबिल्ली के गले मे घंटी बांधेगा कौन ?'

बूढा चूहा तो सबसे पहले पीछे हट गया। जवान भी औरबच्चे भी ! कौन पहले जाए मौत के मुंह में ? कौन घंटी बांधे ? थे तो सबचूहे... ! सो रोज अपनी नियति पर मरते रहे। समझे... !

मित्रो, इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है ऐसी योजना से कोई लाभ नहीं जिसे लागू न किया जा सके !


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16-03-2014, 10:58 PM

कम्बल नहीं छोड़ता

प्रातःकाल एक बाबा जी अपने चेलों के साथ नदी के किनारे नहा रहे थे. एक चेले ने, जो बहुत अच्छा तैराक भी था, देखा कि बीच धार में एक कम्बल बहा जा रहा है.

उसने बाबा जी से कहा, “गुरूजी, आपकी आगया हो तो मैं उस कम्बल को किनारे पर ले आऊँ.”

बाबाजी की आज्ञा ले कर वह नदी की धार में कूद गया और जल्द ही कम्बल के पास पहुँच गया. जिसे वह कम्बल समझ रहा था वह वास्तव में एक भालू था. कम्बल को जैसे ही उसने पकड़ा भालू ने भी उसे पकड़ लिया. चेला जान छुड़ाना चाहता था लिकिन भालू उसे छोड़ता ही न था. दोनों पानी में बहने लगे.

जब चेला किनारे पर वापिस नहीं आया तो बाबाजी ने उसे आवाज लगाई, “बच्चा, कम्बल छोड़ दे और चला आ.”

चेले ने जवाब दिया, “महाराज, मैं तो कम्बल को छोड़ता हूँ, मगर कम्बल मुझे नहीं छोड़ता.”


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27-04-2014, 01:00 PM

मित्रो, आज मैं फोरम के 'महफ़िल' विभाग में 'ऐसी की तैसी' नामक सूत्र देख रहा था जिसमें तारा बाबू की निम्नलिखित पोस्ट सामने पड़ गई. यह बहुत रोचक है और मुझे बहुत पसंद आई. मैं यहाँ उसी पोस्ट को उद्धृत कर रहा हूँ. आशा है यह आपका भी भरपूर मनोरंजन करेगी.

चीकू ने अपने दादा से पूछा कि जब भी मेरे से कोई गलती हो जाती है तो आप झट से कह देते हो कि तेरी ऐसी की तैसी। आखिर यह ऐसी की तैसी होती क्या है? दादा ने चीकू को बड़े ही प्यार से समझाया कि ऐसी की तैसी कुछ नहीं, केवल एक मुहावरा है लेकिन यह तुम्हारे जैसे अक्ल के अंधे को समझ नहीं आ सकता।

इतना सुनते ही चीकू जोर जोर से रोते हुए अपनी मां से बोला कि दादा जी मुझे अंधा कह रहे हैं। अपने कलेजे के टुकड़े की आंखों में आंसू देखते ही चीकू की मां का खून खौलने लगा। उसने बात की गहराई को समझे बिना कांव-कांव करते हुए दादा के कलेजे में आग लगा दी।

दादा ने एक तीर से दो शिकार करते हुए अपनी बहू को डांटते हुए कहा कि लगता है कि बच्चों के साथ तुम्हारी अक्ल भी घास चरने गई है। न जाने इस परिवार का क्या होगा जहां हर कोई खुद को नहले पर दहला समझता है। बहू तुम तो अच्छी पढ़ी लिखी हो। मुझे तुम से यह कदापि उम्मीद नहीं थी कि तुम कान की इतनी कच्ची हो। मैं तो तुम्हारे बेटे को सिर्फ मुहावरों के बारे में बताने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मेरी बातें तो तुम लोगों के सिर के ऊपर से ही निकल जाती है।

इतना कहते-कहते दादा जी की सांस फूलने लगी थी परंतु उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि मुहावरे किसी भी भाषा की नींव के पत्थर की तरह होते हैं जो उसे जिंदा रखने में मदद करते हैं। सारा गांव मेरी इतनी इज्जत करता है लेकिन तुम्हारे लिए तो मैं घर की मुर्गी की तरह हूँ जिसे सब दाल बराबर समझते है। लोग तो अच्छी बात सीखने के लिए गधे को भी बाप बना लेते हैं।

इससे पहले कि दादा मुहावरों के बारे में और भाषण देते, चीकू ने कहा कि लोग गधे को ही क्यूं बाप बनाते हैं, हाथी या घोड़े को क्यूं नही? दादा जी ने प्यार से चीकू को समझाया कि सभी मुहावरे किसी न किसी व्यक्ति के अनुभव पर आधारित होते हुए हमारी भाषा को गतिशील और रूचिकर बनाने के लिये होते है। हां, कुछ मुहावरे ऐसे होते हैं जो किसी एक खास धर्म और जाति के लोगों पर लागू नहीं होते।

चीकू ने हैरान होते हुए पूछा कि यह कैसे मुमकिन है? दादा जी ने चीकू को बताया कि अब एक मुहावरा है सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े। यह मुहावरा किसी तरह भी सिख लोगों पर लागू नहीं होता क्योंकि सिर तो सिर्फ हिंदू लोग ही मुंडवाते हैं। ऐसा ही एक और मुहावरा है, कल जब मैं रात को क्लब से रम्मी खेल कर आया तो मेरी हजामत हो गई। इतना तो आप भी मानते होंगे कि सब कुछ मुमकिन हो सकता है लेकिन किसी सरदार जी की हजामत करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता।

अजी जनाब आप ठहरिये तो सही, अभी एक और बहुत बढ़िया मुहावरा आपको बताना है, वो है हुक्का पानी बंद कर देना। अब सिख लोग ऐसी चीजों का इस्तेमाल करते ही नहीं तो उनका हुक्का पानी कैसे बंद हो सकता है? इतना सुनते ही चीकू ने दांतों तले उंगली दबाते हुए दादा से पूछा कि अगर आपको दांतों तले उंगली दबानी पड़े तो कहां दबाओगे क्योंकि आप के दांत तो हैं नही?

यही नहीं, ऐसे बहुत से और भी मुहावरे हैं जिन को बनाते समय लगता है, हमारे बुजुर्गों ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। सदियों पहले इनके क्या मायने थे, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन आज के वक्त में तो इनके मतलब बिल्कुल बदल चुके हैं। एक बहुत ही पुराना लेकिन बड़ा ही मशहूर मुहावरा है कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। अरे भैया, नाचने के लिए राधा को नौ मन तेल की क्या जरूरत पड़ गई? अगर नाचने वाली जगह पर थोड़ा सा भी तेल गिर जाये तो राधा तो बेचारी फिसल कर गिर नहीं जायेगी। वैसे भी आज के इस महंगाई के दौर में नौ मन तेल लाना किस के बस की बात है? घर के लिये किलो-दो किलो तेल लाना ही आम आदमी को भारी पड़ता है।

दादा ने चीकू से एक और मुहावरे की बात करते हुए कहा कि यह मुहावरा है बिल्ली और चूहे का। मैं बात कर रहा हूँ 100 चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। अब कोई मुहावरा बनाने वाले से यह पूछे कि क्या उसने गिनती की थी कि बिल्ली ने हज पर जाने से पहले कितने चूहे खाये थे? क्या बिल्ली ने हज में जाते हुए रास्ते में कोई चूहा नहीं खाया। अगर उसने कोई चूहा नहीं खाया तो रास्ते में उसने क्या खाया था? वैसे क्या कोई यह बता सकता है कि बिल्लियां हज करने जाती कहां है? कुछ भी हो, यह बिल्ली तो बड़ी हिम्मत वाली होगी जो 100 चूहे खाकर हज को चली गई।

अब जौली अंकल अपनी मुहावरों की बात को यही खत्म करना चाहते हैं नहीं तो कुछ लोग ऐसे डर कर गायब हो जायेंगे जैसे गधे के सिर से सींग। जी हां, मैं बात कर रहा हूँ दौड़ने भागने की। इससे पहले कि अब आप मेरे मुहावरों की ऐसी की तैसी करें, मैं तो यहां से 9 दो 11 हो जाता हूं।


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22-05-2014, 02:10 PM

पढ़ा खूब है, पर गुना नहीं

एक राजा ने अपने पुत्र को ज्योतिष की विद्या सीखने के लिये एक प्रसिद्ध ज्योतिषी के यहाँ भेजा. ज्योतिषी का बेटा और राजकुमार दोनों साथ ही शिक्षा प्राप्त करने लगे. कई वर्ष बाद ज्योतिषी ने राजा के पास आ कर निवेदन किया, महाराज, राजकुमार की शिक्षा पूर्ण हो गयी है.”

राजा ने अपने पुत्र की परीक्षा लेने का विचार किया और इसके लिये एक दिन निश्चित किया. राजा और ज्योतिषी के पुत्रों को दरबार में बुलाया गया. राजा ने अपने हाथ में चाँदी की एक अंगूठी रखते हुये राजकुमार से पूछा, “बताओ, मेरी मुट्ठी में क्या वस्तु है?”

राजकुमार बोला, सफ़ेद-सफ़ेद, गोल-गोल सी, कोई कड़ी चीज है, बीच में उसके एक सुराख है.”

राजा बहुत खुश हुआ और बोला, “इतना तुमने ठीक बताया है. अब उस चीज का नाम बताओ.”

राजकुमार ने बताया, “चक्की का पाट.”

राजा को यह सुन कर बहुत निराशा हुई. उसने मन में सोचा कि यही है इसकी ज्योतिष की पढ़ाई?

फिर उसने ज्योतिषी के लड़के से पूछा, “तुम बताओ कि मेरी मुट्ठी में क्या चीज है?”

“चाँदी की अंगूठी!!” ज्योतिषी के बेटे ने झट से उत्तर दे दिया. राजा ने सोच कि ज्योतिषी ने मेरे बेटे को तो विद्या सिखाई नहीं, अपने पुत्र को ही ज्योतिष का सारा ज्ञान दे दिया है.

जब उसने ज्योतिषी से इस बाबत सवाल किया तो ज्योतिषी ने बताया, “जहां तक ज्योतिष विद्या की बात है, वहां तक तो दोनों ने बराबर ही सीखी है. उसके द्वारा दिए गये पहले जवाबों से आपको इसका अंदाजा हो गया होगा. लेकिन राजन, अक़ल तो जिसके पास जितनी होती है, उतनी ही उसके काम आती है. राजकुमार में विद्या का नहीं, अक़ल का घाटा है. इसे यह मामूली बात भी समझ में नहीं आयी कि चक्की के पाट जैसी बड़ी चीज आपकी हथेली में कैसे आ सकती है? किसी को समझ देना मुश्किल है. इस लिये मैं यह कहता हूँ कि इसने पढ़ा तो खूब, पर गुना नहीं है.”


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22-05-2014, 02:13 PM

नौ दिन चले अढ़ाई कोस

आप जानते होंगे कि अफ़ीम पोस्त की डोड़ों से निकलती है और नशे के लिये इस्तेमाल की जाती है, इसीलिये अफ़ीम खाने वाले (अफ़ीमची) को पोस्ती भी कहते हैं.

किसी कवि ने पोस्ती की फ़ितरत समझाते हुये यह मिसरा कहा,

“पोस्ती ने ली पोस्त, नौ दिन चले अढ़ाई कोस”

यह सुन कर अफ़ीमची बोला, “जनाब, वह असली पोस्ती नहीं होगा, कोई डाकिया होगा. पोस्ती का तो उसूल ही यह है:

“मर जाता पर उठके जाना नहीं अच्छा
मर्दों का हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छाi”


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22-05-2014, 02:16 PM

पाँचवाँ सवार

एक बार दिल्ली में बाहर से आये चार सवार सदर दरवाजे से अन्दर आ रहे थे. उन्हीं के पीछे एक कुम्हार भी गधे पर बैठ कर आ रहा था.

तभी किसी ने सवारों से पूछा, “सवारों, आप लोगों ने रास्ते में किसी ऊंट को तो चरते हुये नहीं देखा?”

इससे पहले कि सवार इस प्रश्न का कोई उत्तर देते, कुम्हार बोल पड़ा, “हम पाँचों सवारों ने कोई ऊँट-वूंट नहीं देखा.”

सभी उस पांचवें सवार को हैरानी से देखने लगे. कहते हैं तभी से “पाँचवाँ सवार” मुहावरा उस व्यक्ति के लिये प्रयोग में लाया जाता है जो अपना महत्त्व बताने के लिये बिना मांगे या जबरदस्ती किसी मामले में लोगों को अपनी राय देने की कोशिश कर रहा हो.


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22-05-2014, 02:22 PM

दौलत अंधी होती है

समरकंद के बादशाह तैमूरलंग के के पास दिल्ली से एक अँधा गवैया आया. बादशाह ने उससे उसका नाम पूछा.

उसने उत्तर दिया, “दौलत.”

बादशाह ने मजाक में कहा, “अरे कहीं दौलत भी अंधी होती है?”

अंधे गायक ने उत्तर दिया, “दौलत अंधी न होती तो लंगड़े के यहाँ क्यों आती?”

बादशाह एक पैर से लंगड़ा था और इसी वजह से उसके नाम में लंग शब्द जुड़ गया था.

बादशाह गायक का उत्तर सुन कर दंग रह गया.


rafik

02-06-2014, 02:28 PM

बहुत शानदार


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13-06-2014, 11:33 PM

कविता में मुहावरे
आभार: पी. सी. गोदियाल ‘परचेत’

तू डाल-डाल, मैं पात-पात, नहले पे दहले ठन गए,
जबसे यहाँ कुछ अपने मुह मिंया मिट्ठू बन गए।

ताव मे आकर हमने भी कुछ तरकस के तीर दागे,
बडी-बडी छोडने वाले, सर पर पैर रखकर भागे ।

अक्ल पे पत्थर पड गये क्या, आग मे घी मत डालो,
दूसरों पर पत्थर फेकना छोडो, अपना घर संभालो।

समझदार नहीं धर्म की आंच पर रोटियाँ सेका करते,
कांच के घरों में रहने वाले, पत्थर नहीं फेंका करते।

हमेशा एक ही लकडी से हांकना ठीक सचमुच नहीं ,
मिंया, मुल्ले की दौड मस्जिद तक बाकी कुछ नहीं ।

आंखों मे धूल झोंक,खुद को तीस मार खां बताते हो,
चोर-चोर मौसेरे भाई हो, पर खिचडी अलग पकाते हो।

अपुन तो सौ सुनार की, एक लोहार की पे चलते है,
चिराग तले अन्धेरा होता है, काहे फालतू में जलते है।

हम सब जानते है कि दूर के ढोल सुहाने होते है,
नहीं समझदार लोग बहती गंगा में हाथ धोते है।


rajnish manga

14-07-2014, 12:38 AM

ठेंगा दिखा गये
(रजनीश मंगा / rajnish manga)
तारे गिना गये, त्रिशंकु बना गये, आँखें दिखा गये.
जिन जिन पे भरोसा था मुझको, ठेंगा दिखा गये.
उड़ती हुई चिड़िया के पंख जो, गिनना सिखा गये,
छठी का दूध हमें याद दिला कर, उल्लू बना गये.


rajnish manga

14-07-2014, 12:47 AM

आँखों का तारा
(रजनीश मंगा / rajnish manga)

घाट घाट का पानी पी आँखों में धूल मलो मेरी.
आस्तीन का सांप बनो छाती पर मूंग दलो मेरी.
मेरी आँखों का तारा ही बना खून का प्यासा है,
खिचड़ी अलग पकायेगा बात मान कर चलो मेरी.


rajnish manga

14-07-2014, 11:46 AM

मूंछों का है जमाना
साभार: निर्मल निर्मल

वैसे तो मूंछों की शान में अनगिनत कशीदे पढ़े गए हैं। तभी तो मूंछों को आन, बान, शान और स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है। विशेषकर राजस्थान जैसे परम्परावादी राज्य में तो मूंछों को लेकर काफी कुछ कहा गया है। देखा जाए तो मूंछें प्राचीनकाल से ही लोगों को लुभाती रही हैं और वर्तमान में भी इनकी प्रासंगिकता बरकरार है। मूंछों को लेकर कई किस्से, कहानियां, लोकोक्तियां एवं मुहावरे भी प्रचलन में है। मैं भी कई दिनों से मूंछों पर कुछ लिखने की सोच रहा था लेकिन न तो समय निकाल पाया और ना ही लिखने की कोई बड़ी वजह मिली।

सैलून में मूंछें सेट करवाते हुए नाई जब बातों-बातों में अजय देवगन की एक तरफ की मूंछ साफ कर देता है, और फिर डर के मारे वह जोर-जोर से चिल्लाता है, उस्ताद तोते उड़ गए, उस्ताद तोते उड़ गए। हकीकत जानने पर अजय देवगन ने थोड़ा गुस्सा होने के बाद दूसरी तरफ की मूंछ भी साफ करवा ली थी।

मूंछों को लेकर दर्जनों मुहावरें हैं, जो अलग-अलग संदर्भों में प्रयुक्त किए जाते हैं। मुहावरों की बानगी देखिए...। मूंछ मरोडऩा, मूंछें फरकाना, मूंछों पर ताव देना। मूंछों को बल देना। मूंछें ऊंची होना। मूंछें नीची होना। मूंछ लम्बी होना। मूंछ का बाल। मूंछ ही लड़ाई। मूंछ का सवाल आदि आदि। इन मुहावरों का भावार्थ देखा जाए तो मूंछों को इज्जत से जोड़कर देखा गया है। मूंछे ऊंची होना जहां सम्मान की बात है, वहीं मूंछें नीची होने का मतलब बेइज्जत होना है। इसी तरह मूंछों को ताव देने से आशय चुनौती देना है तो मूंछ का सवाल का अर्थ प्रतिष्ठा का सवाल है। इन मुहावरों से साफ होता है कि मूंछों की दर्जा काफी ऊंचा हैं और मूंछों के साथ इज्जत को जोड़कर देखा जाता रहा है।
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rajnish manga

14-07-2014, 11:52 AM

मूंछों का है जमाना
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खैर, मेरेविचारों से कोई यह ना समझ लेंकि मैं मूंछ ना रखने वालों का विरोधी हूं, ऐसा नहीं है। बस बात की बात हैऔर विषयवस्तु प्रासंगिक है, लिहाजा लिखने को मन कर गया। वैसे भी मैं तोपहले ही स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरे पास भी बिना मूंछ रहने का तीन साल काअनुभव है। फिर भी फिल्मी नायकों को देखकर या उन जैसा बनने की हसरत रखनेवाले जरूर मूंछें साफ करवाने में विश्वास रखते हैं लेकिन पिछले दोतीनसालों में फिल्मवालों का मूंछ प्रेम भी यकायक बढ़ गया है। हाल ही में आधादर्जन से ज्यादा फिल्मी आई हैं, जिनमें नायक बाकायदा बड़ी-बड़ी मूंछों केसाथ अवतरित हुए हैं। उदाहरण के लिए राउडी राठौड़ में अक्षय कुमार, दबंग वदबंग-2 में सलमान खान, बोल बच्चन में अजय देवगन, तलाश में आमिर खान, मटरू की बिजली का मन डोला में इमरान खान, जिलागाजियाबाद में संजय दत्त को देखा जा सकता है। राजस्थान के मंडावा मेंफिल्माई गई फिल्म पीके में भी संजय दत्त ने मूंछों में किरदार निभाया है।

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Dr.Shree Vijay

14-07-2014, 12:48 PM

सुंदर एक से बढकर एक मुहावरे और उनकी कथाएँ.........


rafik

18-07-2014, 06:01 PM

:bravo::bravo::bravo::bravo::bravo:


rajnish manga

19-07-2014, 05:54 PM

सुंदर एक से बढकर एक मुहावरे और उनकी कथाएँ.........

:bravo::bravo::bravo::bravo::bravo:

सूत्र की नई पोस्टों की प्रशंसा करने के लिये डॉ श्री विजय का और रफ़ीक जी का हार्दिक धन्यवाद.


rajnish manga

19-07-2014, 05:59 PM

मुहावरे v/s मुहावरे
(साभार: अनुराग शर्मा)

लगभग दो दशक पहले दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आता था, "कच्ची धूप।" उसकी एक पात्र को मुहावरे समझ नहीं आते थे। एक दृश्य में वह बच्ची आर्श्चय से पूछती है, "कौन बनाता है यह गंदे-गंदे मुहावरे?" वह बच्ची उस धारावाहिक के निर्देशक अमोल पालेकर और लेखिका चित्रा पालेकर की बेटी "श्यामली पालेकर" थी। "कच्ची धूप" के बाद उसे कहीं देखा हो ऐसा याद नहीं पड़ता। मुहावरे तो मुझे भी ज़्यादा समझ नहीं आए मगर इतना ज़रूर था कि बचपन में सुने हर नॉन-वेज मुहावरे की टक्कर में एक अहिंसक मुहावरा भी आसपास ही उपस्थित था।

जब लोग "कबाब में हड्डी" कहते थे तो हम उसे "दाल भात में मूसलचंद" सुनते थे। जब कहीं पढने में आता था कि "घर की मुर्गी दाल बराबर" तो बरबस ही "घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध" की याद आ जाती थी। इसी तरह "एक तीर से दो शिकार" करने के बजाय हम अहिंसक लोग "एक पंथ दो काज" कर लेते थे। इसी तरह स्कूल के दिनों में किसी को कहते सुना, "सयाना कव्वा *** खाता है।" हमेशा की तरह यह गोल-मोल कथन भी पहली बार में समझ नहीं आया। बाद में इसका अर्थ कुछ ऐसा लगा जैसे कि अपने को होशियार समझने वाले अंततः धोखा ही खाते हैं। कई वर्षों बाद किसी अन्य सन्दर्भ में एक और मुहावरा सुना जो इसका पूरक जैसा लगा। वह था, "भोला बछड़ा हमेशा दूध पीता है”।

खैर, इन मुहावरों के मूल में जो भी हो, कच्ची-धूप की उस छोटी बच्ची का सवाल मुझे आज भी याद आता है और तब में अपने आप से पूछता हूँ, "क्या आज भी नए मुहावरे जन्म ले रहे हैं?" आपको क्या लगता है?


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22-07-2014, 11:15 PM

जैसा देवे वैसा पावे

एक औरत ने अपने घर खीर पकाई. अभी खीर चूल्हे से उतार कर रखी ही थी कि कहीं से आकर इसमें एक सांप गिर गया. सांप तो उसने निकाल कर फेंक दिया लेकिन उस खीर का वह अब क्या करे? औरत थी लालची. घरवालों को तो वह यह खीर खिला नहीं सकती थी. फेंकना उसके उसूल के खिलाफ था. हुआ यूँ कि उसी समय वहाँ कहीं से घूमता हुआ एक साधू आ निकला. उसने वह खीर साधू को दे दी और यह सोच कर खुश हुई कि खीर बेकार नहीं गई. औरत किसी काम से अपने पडौस में निकल गई और साधु भी गंगा जी की ओर स्नान करने निकल गया. इस बीच उस औरत के पति व बेटा खेत से काम कर के घर आ गये. दोनों को जोर की भूख लगी थी. घर में उन्होंने खीर पड़ी देखी तो उनसे रहा नहीं गया. दोनों ने एक एक कटोरा खीर खा ली. कुछ ही देर में बाप बेटा दोनों वहीँ ढेर हो गये. औरत घर आयी तो यह दृष्य देख कर दहाड़ें मार कर रोने लगी. गांव वालों के पूछने पर उसने सारा किस्सा कह सुनाया. गांव वालों में से एक बोल उठा:

“जैसा देवे वैसा पावे, पूत भर्तार के आगे आवे”


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22-07-2014, 11:17 PM

जिस कारण मूंड मुंडाया, वो ही दुःख सामने आया

एक लड़का जब बड़ा हुआ तो गांव भर में आवारागर्दी करने लगा. किसी नौकरी में जी लगा कर काम न करता और मेहनत से जी चुराता था. घरवाले, यार दोस्त और रिश्तेदार उसको समझा कर हार गये थे. उस पर किसी बात का असर न होता था. अंत में उसके एक दोस्त ने उसे सुझाव दिया कि ‘तेरे लिये एक काम ही ठीक रहेगा. तू अपना सिर मुंडा ले और किसी तीर्थ स्थान में कोई डेरा देख कर उसमें शामिल हो जा.’ उसने ऐसा ही किया. सिर मुंडा कर वह हरिद्वार पहुँच गया. वहाँ बहुत से धार्मिक तबकों के डेरे थे. ऐसे ही एक डेरे में वह दाखिल हुआ और महंत को प्रणाम कर के कहने लगा, ‘मैं अपना घर परिवार सब छोड़ छाड़ कर आपके यहाँ रहने आया हूँ.’

महंत ने उससे पूछा कि ‘तू क्या काम कर सकता है?’

यह सुनते ही उसके पेरों के नीचे से जैसे जमीन ही निकल गई. काम ही करना होता तो अपने गांव में रह सकता था. फिर मन ही मन में बोला कि ‘जिस कारण मूंड मुंडाया, वो ही दुःख सामने आया.’


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03-08-2014, 11:55 AM

जो गरजते हैं वो बरसते नहीं
साभार: भंवरलाल मारवाल
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भज नाम का एक कुम्हार बहुत सुंदर घड़े, सुराही, गमले आदि बनाता था। उसके बनाए सामान की मांग दूर-दूर तक थी। वह अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करता था। उसके पास एक छोटा-सा कमरा था और बाहर बहुत बड़ा चौक। वह अपने सभी मिट्टी के बर्तनों को बनाकर उन्हें चौक में सुखाता था। उसके चौक में बहुत अच्छी धूप आती थी। कुम्हार भज अपने जीवन में दिन-रात मेहनत कर बेहद खुश रहता था। वह अभी अविवाहित था। उसने सोचा था कि जब मैं मेहनत से कुछ रुपए इकट्ठे कर एक बढिय़ा-सा घर बना लूंगा, तभी शादी करूंगा और फिर शादी के लिए रुपए भी तो चाहिए।

सुबह उठते ही वह पूरा चौक साफ करता। उसके बाद व्यायाम करता। उसका बदन भी गठीला और रोबदार था। वह बच्चों से भी बहुत प्यार करता था। बच्चे जब-तब उसके चौक में आकर सुंदर-सुंदर मिट्टी के बनाए बर्तन देखते और कुंभज से उन्हें बनाने की कला सीखते। कुंभज को इन सब में बहुत खुशी मिलती थी। वह बहुत होशियार था। हर बात को गहराई से समझकर ही किसी काम में हाथ डालता था।

कुंभज के बर्तन हमेशा चौक में ही रहते थे, इसलिए उसे उस समय खासी दिक्कत का सामना करना पड़ता, जब बारिश का मौसम शुरू हो जाता या बेमौसम बरसात आती थी।

इसके लिए उसने एक बड़ा तिरपाल लाकर रखा हुआ था और जैसे ही मौसम के मिजाज को देखकर उसे लगता कि बारिश होने वाली है, तो वह तुरंत अपने तिरपाल को चौक पर टांग देता।


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03-08-2014, 12:08 PM

इससे उसके बर्तन बच जाते थे। एक दिन जब वह अपने बर्तनों को बना रहा था तो अचानक ही मौसम के तेवर बदल गए।

आंधी चलने लगी, जोर-से बादल गरजने लगे। उसे लगा कि तेज बारिश होगी और आंधी उसके तिरपाल को हवा में उड़ा ले जाएगी। यह सोचकर व ह चौक के कोनों पर मजबूत कीलें ठोक कर तिरपाल को बांधने लगा। कुछ ही देर में उसने चारों कोनों में कीलों से तिरपाल बांध दिया।
लेकिन उसने देखा कि जो बादल जोर-जोर से गरज-गरज कर सबको डरा रहे थे, उनमें पानी की एक बूंद तक न थी और उस दिन बारिश की एक बूंद तक नहीं टपकी।

मौसम का ऐसा मिजाज देखकर कुंभज हैरान होकर मुस्कुरा उठा और अपने काम में लग गया। एक दिन कुंभज के पास उसका दूर का भाई अंबुज आया।

कुंभज चौक में अंबुज के साथ बातें करता हुआ बर्तन बना रहा था कि तभी जोर से हवाएं चलने लगीं और मौसम का रुख बदल गया।

आसमान में बादलों की गजर्ना गूंज उठी। उनकी गूंज से अंबुज भी कांप उठा और बोला, ‘भइया, ऐसा लगता है कि आपके इलाके में मूसलाधार बारिश होगी। क्या आपने इनसे निपटने के लिए कोई इंतजाम किया है?’ अंबुज की बात सुनकर कुंभज बोला, ‘अरे अंबुज घबराने की कोई बात नहीं है। जो गरजते हैं वो बरसते नहीं। अभी कुछ ही देर में मौसम शांत हो जाएगा। हां, मैंने बारिश से बचने के लिए इंतजाम किए हैं।

कुछ देर बाद ही अंबुज ने बादलों को देखा तो पाया कि सचमुच गरजने वाले बादलों में पानी की एक भी बूंद नहीं थी और सब कुछ शांत हो गया था। अंबुज कुंभज से बोला, ‘हां भाई, तुम सही कहते हो कि जो गरजते हैं वह बरसते नहीं।’ तभी से यह कहावत चली कि ‘जो गरजते हैं वह बरसते नहीं’।

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rafik

04-08-2014, 03:28 PM

कहानी के रूप में मुहावरे के अर्थ का प्रयोग करके बहुत अच्छी जानकारी दी !मेरा धन्यवाद स्वीकार करे !


bindujain

05-08-2014, 08:23 AM

:bravo::bravo::bravo:


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10-08-2014, 12:10 AM

कहानी के रूप में मुहावरे के अर्थ का प्रयोग करके बहुत अच्छी जानकारी दी !मेरा धन्यवाद स्वीकार करे !

:bravo::bravo::bravo:

रफ़ीक जी और बिंदुजी का उनकी प्रशंसात्मक टिप्पणियों के लिये हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ.


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10-08-2014, 12:13 AM

बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताए

किसी नगर में एक ब्राह्मण था जो भिक्षा मांग कर ही अपना गुजारा करता था. एक दिन शाम को जब वह घर वापिस लौट रहा था तो क्या देखता है कि राह में एक मादा नेवला मरा पड़ा है और साथ में ही उसका नवजात बच्चा नेवला अपनी बाल सुलभ चेष्टायें कर रहा था. ब्राहमण को नेवले के उस बच्चे पर दया आ गयी. उसने सोचा कि यदि मैं इसे यहाँ छोड़ जाऊँगा तो कोई जानवर इसे मार देगा. इस विचार से प्रेरित हो कर वह उस नेवले के अच्छे को अपने घर ले आया.

जब उसकी पत्नी ने ब्राह्मण के मुंह से सारी घटना सुनी तो उसे क्रोध आ गया. उसने ब्राह्मण कहा कि जब तुम अपना और हमारा पेट भी भिक्षा से ही पालते हो तो इसे कहाँ से खिलाओगे? इस पर ब्राह्मण ने कहा कि यह छोटा सा नेवला शिशु कितना खा जाएगा. तुम चिंता मत करो. मैं जो भिक्षा में लाता हूँ उसी में से इसे भी कुछ खिला देंगे तो कुछ अंतर नहीं पड़ेगा. आखिर ब्राह्मण की जिद के सामने उसकी पत्नी की एक न चली.

एक बार ब्राह्मण जब भिक्षाटन पर शहर गया हुआ था तो उसकी पत्नी को आवश्यक कार्य से उनके यजमान की पत्नी ने बुला भेजा. महीने पंद्रह दिनों में एक बार वह उसे बुलवा भेजती और लौटते हुये कुछ कपड़ा-लत्ता या अनाज दे दिया करती. उस समय घर में उनका छोटा बच्चा चारपाई पर सोया हुआ था. उसके पास ही जमीन पर नेवले का बच्चा भी लेटा था जो अब पहले से बड़ा हो चुका था और तंदरुस्त व फुर्तीला भी हो गया था. वह किवाड़ भिड़ा कर बुलावे पर चली गयी.


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10-08-2014, 12:21 AM

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कुछ देर पश्चात वह वापिस आ गयी. उसने अनाज से भरी गगरी सर पर उठा रखी थी. जैसे ही उसने किवाड़ खोला, नेवला सामने दिखाई दिया. उसके मुंह पर खून लगा हुआ था जिसे देख कर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी. अनिष्ट की कल्पना से उसका मस्तक भन्ना गया. उसे लगा कि हो न हो नेवले के बच्चे ने उसके पुत्र को अपने दांतों से घायल कर दिया है और मार दिया है. उसकी आँखों में रक्त उतर आया. बस फिर क्या था? आव देखा न ताव उसने अपने सर पर रखी गगरी उठा कर नेवले पर दे मारी. नेवला बिना कोई आवाज किये वहीँ ढेर हो गया.

जब वह उस चारपाई की तरफ बढ़ी जिस पर वह अपने बच्चे को सोता छोड़ गयी थी, तो उसे फर्श पर खून से लथपथ एक मरा हुआ सांप दिखाई दिया. चारपाई पर उसका बच्चा इस घटनाक्रम से बेखबर किलकारियां मार रहा था. ब्राह्मण की पत्नी को समझते देर नहीं लगी कि नेवले ने सांप से उसके बच्चे की रक्षा करने के निमित्त ही सांप को मार डाला था और इसी कारण उसके मुंह पर खून लगा हुआ था. अब उसे इस बात का बड़ा अफ़सोस हो रहा था कि उसने बिना वास्तविकता जाने ही नेवले को मार दिया था. तभी कहते हैं कि “बिना विचारे जो करे, वो पाछे पछताए”.

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21-08-2014, 09:13 PM

दो और दो पाँच

एक दिन चिड़ा व चिड़िया उड़े जा रहे थे। दूर-दूर तक फेले खंडर देखकर चिड़े ने पूछा, ‘चिड़िया, ये दूर-दूर तक फैले खंडर कैसे है?’

इस पर चिड़िया ने कहा, ‘चिड़े, मैं तुम्हें इन खंडरों की कहानी सुनाती हूँ, ध्यान पूर्वक सुनो।’

एक बार की बात है कि एक सन्यासी ने होटल वाले को दस रुपये देते हुए कहा, ‘लो, चार रुपये काटकर छ: रुपया मुझे लौटा दो।’

इस पर होटल वाला बहुत हंसा और बोला, ‘स्वामी जी, किस लोक में रहते हो, छ: नहीं पांच रुपया लौटाना है।’

सन्यासी ने पूछा-‘कैसे?’

होटल वाले ने कहा, ‘दो रुपये की दो रोटी, और दो रुपये की एक कटोरी दाल। दो और दो पांच हुए।’

इस पर स्वामी जी ने कहा, ‘दो और दो चार होते हैं।’

होटल वाला दो और दो पांच बतला रहा था, और स्वामी जी दो और दो चार। इसी बहसम-बहसा के बीच वहाँ आस-पास के दुकानदारों व राहगिरों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। सन्यासी ने जब पास-पड़ोसियों से पूछा कि दो और दो कितने होते हैं तो किसी ने पांच बताया तो किन्ही ने छ:, सात और इससे भी अधिक। लोगों के इस आचरण को देख सन्यासी विस्मित था।

भीड़ में से किसी ने बोला, ‘सन्यासी जी, लगता है, तीर्थ पर नये-नये आये हो।’

‘हाँ भैया, बीस वर्ष से बियाबान में तपस्या कर रहा था।’

‘तभी तो, इस बीच देश में हुई तरक्की से अनभिज्ञ हो।’ और फिर बोला, ‘स्वामी जी, इन बीस वर्षों में देश बहुत तरक्की कर गया है। वह जमाना गया जब दो और दो चार हुआ करते थे। अब तो दो और दो पांच ही नहीं छ:, सात, आठ.....दस तक भी हो जाते हैं।’

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21-08-2014, 09:14 PM

सन्यासी ने पांच रुपये देने में ही भलाई समझी। उन्होनें होटल वाले को पांच रुपये दिये और गंगा मैया की ओर बढ़ चले। जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी वह रास्ते में बैठे भिखारियों में बांट दी। वें गंगा मैया की धारा में उतरते चले गये। बीच धारा में जाकर बोले, ‘मैया, यह देश बहुत तरक्की कर गया है। मैं अब यहाँ रहने योग्य नहीं हूँ। मुझे अपने आंचल में छुपा लो।’ और जल समाधि ले ली।

जो भी सन्यासी द्वारा जल समाधि लेने की बात सुनता, तरह-तरह की बातें करता। समूचा तीर्थ सन्यासी के जल समाधि लेने पर करुण रुदन सा करता प्रतीत हो रहा था।

उसी रात्रि का एक बजा होगा। एकाएक भयंकर बादल गर्जना हुई। आसमान टूट पड़ा। साढ़े आठ का भयंकर भूचाल आया। रिचर स्केल पर इसकी तीव्रता साढ़े आठ मापी गई । पहाड़ फट गये। और जो जहाँ, जिस अवस्था में था, वहीं दफन हो गया। इस तीर्थ के पचास कोस में एक भी जन-मानस जीवित नहीं बचा था।’

चिड़ा बहुत देर तक अफसोस करता रहा। तब चिड़िया ने कहा, ‘चिड़े, काहे का अफसोस करता है? जनमानस आज फिर उसी आचरण की पुनरावृति कर रहा है। आज जनमानस अवसरवादी हो गया है, भौतिकता में डूबा हैं। अपने को अमर समझकर सम्पत्ति संचय में लगा हुआ है, जैसे कि वह सब साथ बांध कर ले जायेगा। अपने को खुदा मान रहा है। इसका विनाश अवश्यम्भावी है। पुन: सृष्टि को अपनी जल, थल, नभ, वायु, अग्नि शक्ति को रौद्र रूप धारण करने को कहना होगा। चिड़े, आज के जनमानस का तो अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। हमने कोई खोटे कर्म किये होगें जो इस काल में पैदा हुए हैं।’

इस पर चिड़ा बोला, ‘भगवान इस देश के जनमानस को सदबुद्वि दें।’ और फिर बहुत देर तक चिंता में डूबा रहा।

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21-08-2014, 09:18 PM

दो जमा दो पाँच जब होने लगे
आभार: दिगंबर नस्वा जी

दो जमा दो पाँच जब होने लगे
अंक अपने मायने खोने लगे

कौन रखवाली करेगा घर कि जब
बेच के घोड़े सभी सोने लगे

मुश्किलों का क्या करोगे सामना
चोट से पहले ही जो रोने लगे

फैलती है सत्य की खुशबू सदा
झूठ का फिर बोझ क्यों ढोने लगे

खुद की गर्दन सामने आ जायेगी
खून से ख़ंजर अगर धोने लगे

ये फसल भी तुम ही काटोगे कभी
दुश्मनी के बीज जो बोने लगे


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22-08-2014, 12:43 AM

बगल में बच्चा शहर में ढिंढोरा

दिल्ली में किसी अफ़ीमची के छः लड़के थे. एक दिन तीन लड़कों को साथ ले हज़रत कुतुब के मेले को गया. वह भीड़ भड़क्का देख यह डर कर एक लड़के को कंधे पर चढ़ा दूसरे को गोद में ले, तीसरे का हाथ पकड़ अलग हो जो एक ओर खड़ा हुआ तो पीनक (अफीम का नशा) में आया. पहर एक पीछे मेले में कुछ हुल्लड़ जो हुआ तो वह पीनक से चौंक कांधे के लड़को को न देख बहुत घबराया.

निदान यों कहता कहता कोतवाल के पास आया कि हाय हाय! मेरा लड़का खोय गया. कोतवाल ने पूछा,‘‘तुम्हारे कै लड़के हैं?’’ बोला,‘‘छः उनमें से एक खोया है.’’

कोतवाल ने सुनके ढंढोरिए को उसके साथ कर दिया. वह सारा दिन उसे सारे नगर में लिए फिरा. निदान रो झींक सांझ के समय जो घर में घुसा तो पौर की चौखट लड़के के सिर में लगी तो वह रो पड़ा.

तब अफ़ीमची बोला,‘‘ये अभागा अनहोनहार सारे नगर में ख़राब कर मुझे रूला कर जो तू अब रोया पहले ही क्यों न बोला, तो मैं इतना खराब न होता.’’

इस बात को सुन उसे किसी चिनहारी ने कहा,‘‘भाई जो कहावत है सुनते थे सो तुमने कर दिखाई कि बग़ल में लड़का और शहर में ढंढोरा.’’


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22-08-2014, 12:50 AM

लाहौल बिला कूवत

एक सूफी यात्रा करते हुए रात हो जाने पर किसी मठ में ठहरा। अपना खच्चर तो उसने अस्तबल में बांध दिया और आप मठ के भीतर एक मुख्य स्थान पर जा बैठा। मठ के लोग मेहमान के लिए भोजन लाये तो सूफी को अपने खच्चर की याद आयी। उसने मठ के नौकरो को अज्ञा दी अस्तबल में जा और खच्चर को घास और जौ खिला।

नौकर ने निवेदन किया, "आपके फरमाने की जरुरत नहीं। मैं हमेशा यही काम किया करता हूं।"

सूफी बोला, "जौ पानी में भिगो कर देना, क्योंकि खच्चर बूढ़ा हो गया है और उसके दांत कमजोर हैं।"

"हरजत, आप मुझे सिखाते हैं लोग तो ऐसी-ऐसी युक्तियां मुझसे सीख कर जाते हैं।"

"पहले इसका तैरु उतारना। फिर इसकी पीठ के घाव पर मरहम लगा देना।"

"खुदा के लिए अपनी तदबीर किसी और मौके के लिए न रख लीजिए। मैं ऐसे सब काम जानता हूं। सारे मेहमान हमसे खुश होकर जाते है; क्योंकि हम अपने अतिथियों जान के बराबर प्यार समझते हैं।"
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22-08-2014, 12:51 AM

"और देख, इसको पानी भी पिलाना; परन्तु थोड़ा गर्म करके देना।"

"आपकी इन छोटी-छोटी बातों के समझाने से मुझे शर्म आती है।"

"जौ में जरा-सी घास भी मिला देना।"

"आप धीरज से बैठे रहिए। सबकुछ हो जायेगा।"

"उस जगह का कूड़ा-करकट साफ कर देना और अगर वहां सील हो तो सूखी घास बिछा देना।"

"ऐ बुजुर्गवार! एक योग्य सेवक से ऐसी बातें करने से क्या लाभ?"

"मियां, जरा खुरेरा भी फिर देना, और ठंड का मौसम है खच्चर की पीठ पर झूल भी डाल देना।"

"हजरत, आप चिन्ता न कीजिए। मेरा काम दूध की तरह स्वच्छ और बेलग होता है। मैं आपने काम में आपसे ज्यादा होशियार हो गया हूं। भले-बुरे मेहमानों से वास्ता पड़ा है। जिसे जैसा देखता हूं, वैसी ही उसकी सेवा करता हूं।"

नौकर ने इतना कहकर कम कसी और चला गया। खच्चर का इन्तजाम तो उसे क्या करना था। अपने गुट के मित्रों में बैठकर सूफ़ी की हंसी उड़ाने लगा। सूफी रास्ते का हारा-थका ही, लेट गया और अर्द्धनिद्रा की अवस्था में सपना देखने लगा।
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22-08-2014, 12:53 AM

उसने सपने में देखा, उसके खच्चर को एक भेड़िये ने मार दिया है और उसकी पीठ और जांघ के मांस के लोथड़े को नोच-नोचकर खा रहा है। उसकी आंख खुल गयी। मन-ही-मन कहने लगा—यह कैसा पागलपन का सपना है। भला वह दयालू सेवक खच्चर को छोड़कर कहां जा सकता है! फिर सपने में देखा कि वह खच्चर रास्ते में चलते समय कभी कुंए में गिर पड़ता है, कभी गड्ढे में। ऐसी भयानक दुर्घटना सपने में वह बार-बार चौंक पड़ता और आंख खूलने पर कुरानशरीफ की आयतें पढ़ लेता।

अन्त में व्याकुल हो कर कहने लगा, "अब हो ही क्या सकता है। मठ के सब लोग पड़े सोते हैं और नौकर दरवाजे बन्द करके चले गये।"

सूफी तो गफलत में पड़ा हुआ था और खच्चर पर वह मुसीबत आयी कि ईश्वर दुश्मन पर भी न डाले। उस बेचारे को तैरु वहां की धूल और पत्थरों में घिसटकर टेढ़ा हो गया और बागडोर टूट गयी। बेचारा दिन भर का हारा-थका, भूखा-प्यास मरणासन्न अवस्था में पड़ रहा। बार-बार अपने मन में कहता रहा कि ऐ धर्म-नेताओं! दया करो। मैं ऐसे कच्चे और विचारहीन सूफियों से बाज आया।

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rajnish manga

22-08-2014, 12:54 AM

इस प्रकार इस खच्चर ने रात-भर जो कष्ट और जो यातनाएं झेलीं, वे ऐसी थीं, जैसे धरती के पक्षी को पानी में गिरने से झेलनी पड़ती हैं। वह एक ही करवट सुबह तक भूखा पड़ा रहा। घास और जौ की बाट में हिनहिनाते-हिनहिनाते सबेरा हो गया। जब अच्छी तरह उजाला हो गया, तो नौकर आया और तुरन्त तैरु को ठीक करके पीठ पर रखा और निर्दयी ने गधे बेचनेवालों की तरह दो-तीन आर लगायीं। खच्चर कील के चुभ से तरारे भरने लगा। उस गरीब के जीभ कहां थी, जो अपना हाल सुनाता।

लेकिन जब सूफी सवार होकर आगे बढ़ा तो खच्चर निर्बलता के कारण गिरने लगा। जहां। जहां कहीं गिरता था, लोगा उसे उठा देते थे और समझते थे कि खच्चर बीमार है। कोई खच्चर के कान मरोड़ता, कोई मुंह खोलकर देखता, कोई यह जांच करता कि खुर और नाल के बीच में कंकर तो नहीं आ गया है और लोग कहते कि ऐ शेख तुम्हारा खच्चर बार-बार गिर पड़ता है, इसका क्या कारण है?
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rajnish manga

22-08-2014, 12:55 AM

शेख जवाब देता खुदा का शुक्र है खच्चर तो मजबूत है। मगर वह खच्चर जिसने रात भर लाहौल खाई हो (अर्थात् चारा न मिलने के कारण रातभर 'दूर ही शैतान' की रट लगाता रहा), सिवा इस ढंग के रास्ता तय नहीं कर सकता और उसकी यह हरकत मुनासिब मालूम होती है, क्योंकि जब उसका चारा लाहौल था तो रात-भर इसने तसबीह (माला) फेरी अब दिन-भर सिज्दे करेगा (अर्थात् गिर-गिर पड़ेगा)

[जब किसी को तुम्हारे काम से हमदर्दी नहीं है तो अपना काम स्वयं ही करना चाहिए। बहुत से लोग मनष्य-भक्षक हैं। तुम उनके अभिवादन करने से (अर्थात् उनकी नम्रता के भम्र में पड़कर) लाभ की आशा न रक्खो। जो मनुष्य शैतान के धोखे में फंसकर लाहौल खाता है, वह खच्चर की तरह मार्ग में सिर के बल गिरता है। किसी के धोखे में नहीं आना चाहिए। कुपात्रों की सेवा ऐसी होती है, जैसी इस सेवक ने की। ऐसे अनधिकारी लोगों के धोखे में आने से बिना नौकर के रहना ही अच्छा है।]

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rafik

28-08-2014, 02:31 PM

मेहनत करे मुर्गी अण्डा खाए फ़क़ीर!

एक बार एक किसान का घोडा बीमार हो गया। उसने उसके इलाज के लिए डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने घोड़े का अच्छे से मुआयना किया बोला, "आपके घोड़े को काफी गंभीर बीमारी है। हम तीन दिन तक इसे दवाई देकर देखते हैं, अगर यह ठीक हो गया तो ठीक नहीं तो हमें इसे मारना होगा। क्योंकि यह बीमारी दूसरे जानवरों में भी फ़ैल सकती है।"

यह सब बातें पास में खड़ा एक बकरा भी सुन रहा था।

अगले दिन डॉक्टर आया, उसने घोड़े को दवाई दी चला गया। उसके जाने के बाद बकरा घोड़े के पास गया और बोला, "उठो दोस्त, हिम्मत करो, नहीं तो यह तुम्हें मार देंगे।"

दूसरे दिन डॉक्टर फिर आया और दवाई देकर चला गया।

बकरा फिर घोड़े के पास आया और बोला, "दोस्त तुम्हें उठना ही होगा। हिम्मत करो नहीं तो तुम मारे जाओगे। मैं तुम्हारी मदद करता हूँ। चलो उठो"

तीसरे दिन जब डॉक्टर आया तो किसान से बोला, "मुझे अफ़सोस है कि हमें इसे मारना पड़ेगा क्योंकि कोई भी सुधार नज़र नहीं आ रहा।"

जब वो वहाँ से गए तो बकरा घोड़े के पास फिर आया और बोला, "देखो दोस्त, तुम्हारे लिए अब करो या मरो वाली स्थिति बन गयी है। अगर तुम आज भी नहीं उठे तो कल तुम मर जाओगे। इसलिए हिम्मत करो। हाँ, बहुत अच्छे। थोड़ा सा और, तुम कर सकते हो। शाबाश, अब भाग कर देखो, तेज़ और तेज़।"

इतने में किसान वापस आया तो उसने देखा कि उसका घोडा भाग रहा है। वो ख़ुशी से झूम उठा और सब घर वालों को इकट्ठा कर के चिल्लाने लगा, "चमत्कार हो गया। मेरा घोडा ठीक हो गया। हमें जश्न मनाना चाहिए। आज बकरे का गोश्त खायेंगे।"

शिक्षा: मैनेजमेंट को भी कभी पता नहीं चलता कि कौन सा कर्मचारी कितना योग्य है।


rajnish manga

29-09-2014, 08:41 PM

मित्रो, इस सूत्र में हम कुछ ऐसे प्रसंग, आलेख अथवा विचार आपके साथ शेयर करेंगे जो कहीं न कहीं मुहावरों से जुड़े हुए हैं या जो मुहावरों से ही विकसित हुए हैं. बीच बीच में हम पहले की तरह कतिपय मुहावरों की कहानियाँ भी आपके सामने लाते रहेंगे. आशा है आपको यह प्रस्तुति पसंद आएगी.


rajnish manga

29-09-2014, 09:28 PM

“घर का भेदी” विभीषण > सज्जन या दुर्जन ??

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQH-Maa8of9lYQmUZVThrkYiUVuvG-4YjGFZhhU_6Izy92WEXSa

'घर का भेदी लंका ढाए' मुहावरा बोलचाल में बहुत प्रयोग में लाया जाता है। और, हमारी भाषा में 'घर का भेदी' पद किसी व्यक्ति के नाम के आगे सम्मानजनक विशेषण के रूप में प्रयोग में नहीं लाया जाता है।

अब यह एक विरोधाभास है कि इसी घर के भेदी की सहायता से भगवान राम ने बुराईयों के प्रतीक रावण पर विजय पाई थी। यदि लंका में घर के भेदी विभीषण ने पहले हनुमान से संबंध न बनाए होते और बाद में श्रीराम की शरण में जाकर रावण के अमरत्व के रहस्य को न बतलाया होता तो रावण की मृत्यु ही नहीं होती, न रावण के चंगुल से सीता की मुक्ति होती और न लंका से रावण राज्य का अंत होता।
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rajnish manga

29-09-2014, 09:31 PM

इतना सब होते हुए भी 'विभीषण' केवल व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं रह गया बल्कि व्यक्तिगत हित के लिए परिवार या समाज को धोखा देकर विरोधी का साथ देने वाले व्यक्ति के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला विशेषण बन गया। कभी भूलवश भी विभीषण शब्द का प्रयोग किसी अच्छे संदर्भ में नहीं किया जाता है। इसी तरह विभीषण नाम का कोई व्यक्ति आपको न नागर समाज, न ग्राम्य समाज और न जनजातीय समाज में मिलेगा, जबकि रामायण और महाभारत के अन्य कुछ खलनायकों जैसे-दुर्योधन, कौरव, मेघनाथ आदि नाम के प्रयोग में किए गए मिलते हैं। इसका एक अर्थ यह है कि पौराणिक साहित्य का विभीषण नाम परवर्ती साहित्य और समाज में सर्वथा वर्जित हो गया है।


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29-09-2014, 10:07 PM

बहरहाल, हनुमान ने विभीषण को बहुत सम्मान दिया था और श्रीराम ने तो उन्हें लंका का राज ही सौंप दिया था जिससे वहां धर्म और मर्यादापूर्ण राज्य की स्थापना हो सकी। अब समझ में यह नहीं आता कि आखिर रावण राज्य में राम की भक्ति करने वाले, रावण को सद्मार्ग पर चलने के लिए सलाह देने वाले और बुराई के विरुध्द अच्छाई के संग्राम में अच्छाई का साथ देने वाले नायक विभीषण के प्रति ऐसी भर्त्सनात्मक धारणा क्यों बनी है। क्या यह वह बात है जो हर स्थिति में, परम्परागत परिवार में संबंधों के निर्वाह को अनिवार्य मानती है, भले ही वह पूरे परिवार के लिए हितकारी न हो। लेकिन बिना शुचिता और अशुचिता का ध्यान किए हर स्थिति में पारिवारिक संबंधों को निभाने पर समग्रत: तो अहित ही होता है न?

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29-09-2014, 10:36 PM

मुहावरों में व मुहावरों से परे
एक मछली ... और ... अकेला चना
(आलेख आभार: डॉ. महेश परिमल)

मेरे सामने दो मुहावरे हैं- एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इन दोनों में विरोधाभास है। कोई जब एक उदाहरण देता है तो दूसरा दहला मारते हुए दूसरा उदाहरण दे देता है और लोग हँस कर रह जाते हैं। आइए, इसका विश्लेषण करते हुए इसकी गंभीरता पर विचार करें।

दोनों में मुख्य अंतर है अच्छाई और बुराई का। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसे बुराई ज्यादा आकर्षित करती है। केवल आकर्षित ही नहीं करती बल्कि प्रभावित भी करती है। दूसरी ओर अच्छाई में चकाचौंध कर देने वाली कोई चीज नहीं होती। वह सदैव निर्लिप्त रहती है। जब तक एक कमरे में दीपक प्रकाशवान है, तो हमें उसकी उपस्थिति का भान नहीं होता, किंतु कमरे में जैसे ही अंधेरा पसरता है, हमें दीपक के महत्व का पता चलता है।

विदेशों से हमने कई नकलें की हैं। फैशन के मामले में, शिक्षा के मामले में, यहाँ तक कि राजनीति के मामले में, लेकिन इसके साथ हम उनके अनुशासन, समय की पाबंदी और निष्ठा जैसे गुणों को नहीं अपनाया। एक व्यक्ति वह भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने फैशन के बतौर विदेशी परंपरा को अपनाया। उसकी नकल कई लोगों ने की, किंतु उसी व्यक्ति ने विदेश से ही चुपचाप एक अच्छी परंपरा को आत्मसात किया। परिणाम यह कि लोगों ने उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस तरह से बुरी बातें लोगों को आकर्षित करती रही और अच्छाई एक कोने में रहकर यह सब देखती रही।


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29-09-2014, 10:40 PM

सड़ी हुई मछली में संक्रामक कीटाणु होते हैं, जो तेजी से फैलते हैं। उनकी संख्या प्रतिक्षण बढ़ती है। इसलिए सारे तालाब को गंदा करने में वह मछली सक्षम होती है। दूसरी ओर बहुत से चने का का इकट्ठा होना, भाड़ में पहुँचना, यहाँ तक उन सभी चनों का रूप सख्त है, किंतु गर्मी पाते ही उसका रूप बदल जाता है। वे सभी नरम पड़ जाते हैं। उनमें कोमलता आ जाती है, सख्ती गायब हो जाती है। भाड़ फोड़ने की बात एक क्रांति है और क्रांति बगावती विचारों के साथ आती है। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना क्रांति का आगाज है। फिर भाड़ ने चनों पर कोई अन्याय नहीं किया, बल्कि अपनी तपिश से उन्हें कोमल और स्वादिष्ट बनाया। तो फिर कहाँ क्रांति, कैसी क्रांति ?

इसी प्रकार हम देखते हैं कि मछली तालाब को सदैव गंदा नहीं रख सकती। बुराई कुछ देर के लिए तालाब पर हावी हो जाती है, पर कालांतर में उसी तालाब की अच्छाई सक्रिय होती है और बुराई का नाश करते जाती है। कुछ समय बाद तालाब फिर साफ हो जाता है। बुराई के ऐसे ही रंग हमें अपने जीवन में भी देखने को मिलते हैं। जैसे ही हमारे जीवन में बुराई रूपी अंधेरे का आगमन होता है, विवेक रूपी दीपक प्रस्थान कर जाता है। बुराई अपना खेल खेलती है। मानव को दानव तक बना देती है और उसी दानव को महात्मा भी बना देती है। अच्छाई को यदि कोई दानव भी सच्चे हृदय से स्वीकार करे, तो उसे महात्मा बनने में देर नहीं लगेगी।

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29-09-2014, 11:00 PM

लामबंद होना / लाम पर जाना
अजीत वडनेकर

लिखत-पढ़त और बोलचाल की हिन्दी में प्रयोग होने वाला एक शब्द लामबन्द भी है। क्रिया रूप में लामबन्द होना या लामबन्दी का इस्तेमाल होता है जिसमें किसी उद्धेश्य या मुहिम के लिए तैयार होने, एकजुट होने, इकट्ठा होने, गोलबन्द होने का भाव है। लामबन्द शब्दलाम + बन्द से मिल कर बना है। हिन्दी में लाम शब्द उर्दू-फ़ारसी की फौजी शब्दावली से आया है। मोटे तौर पर इसका आशय फ़ौज या सेना से है। इसका एक दूसरा अर्थ है फौजी मोर्चा या युद्ध स्थल। फौजी जमावड़े को भी लाम कहा जाता है क्योंकि जमावड़ा वहीं होता है जहाँ मोर्चा लगाया जाता है। लाम पर जाना जैसे मुहावरे का अर्थ युद्ध पर जाना ही होता है। लाम बांधना मुहावरे में लड़ाई के लिए एकत्रित होने, तैयार होने या मोर्चाबंदी का भाव है। आज़ादी से पहले तक लाम शब्द इन्हीं अर्थों में हिन्दी में खूब प्रचलित था, बाद में इसका चलन कम होता गया। मगर इससे ही बना लामबन्दी शब्द वामपंथियों, समाजवादियों की शब्दावली में स्थान पा गया और राजनीतिक अर्थों में ही इसका प्रयोग अब तक होता चला आ रहा है।


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29-09-2014, 11:07 PM

आधुनिक मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ

वैसे इस टॉपिक पर अधिक प्रकाश डालने से पहले ये ज़रूरी है की मैं आप लोगों को मुहावरों और लोकोक्तियों (कहावतों) में अंतर बता दूं. (मुझे पूर्ण विश्वास है की जब इस प्रश्न के उत्तर में नंबर मिलने का समय रहा होगा तो आपने भी नहीं पढ़ा होगा). मुहावरों का स्वयं में कोई अर्थ नहीं होता, अर्थात वे अपूर्ण वाक्य होते हैं, बहुधा उनमे क्रिया नहीं होती और जब तक वे वाक्य में प्रयुक्त न हों उनका कोई अर्थ नहीं होता. जैसे - अंधे की लाठी, आँख का तारा इत्यादि-इत्यादि.

(अब जा के हमे समझ आया, ये मैडम की चाल थी हमसे वाक्य प्रयोग करवाने की, अगर नहीं करते तो पड़े रहते बेकार उनके मुहावरे)

वहीँ दूसरी ओर कहावतें या लोकोक्तियाँ अपने आप में पूर्ण वाक्य होते हैं और उनका पूर्ण अर्थ भी होता है. जैसे - न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.


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29-09-2014, 11:08 PM

देखो सब तो कह दिया यहाँ. कुछ नहीं छोड़ा, नौ मन तेल लाओ राधा नचाओ, मुन्नी नचाओ, शीला नचाओ... बट प्लीज़ मैम, ये तो बता दीजिये कौन सा आयल लाना है लाइक क्रूड-ऑयल, केरोसीन etc. like राधा को करना क्या था? खाना बनाना था? स्कूटी में डालना था? इन्फोर्मशन पूरी नहीं है. question rejected...

चलिए अब मुख्य मुद्दे पर आते हैं...आधुनिक मुहावरे और लोकोक्तियाँ. ये वो मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं जिनका या तो पाठ्य पुस्तकों में उल्लेख नहीं मिलता, या वे हिंदी भाषा के अन्य भाषाओँ से 'in a relationship' status नतीजा हैं. लेकिन कालांतर में अब ये जन सामान्य के दैनिक भाष्य का अटूट अंग बन चुके हैं (गज़ब हिंदी लिख दिए हो भैया जी, समझ आ रही है..?)

1. वाट लगाना
2. लग लेना
3. झंड हो जाना
4. रायता फैलना
5. सेट्टिंग हो जाना
आदि आदि.

अब आप का होमवर्क ये है की आप इनका अर्थ लिख कर वाक्य प्रयोग करें और हम नंबर देंगे.


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02-10-2014, 11:10 PM

हिंदी के मुहावरे > बड़े ही बावरे
(मदन मोहन बाहेती 'घोटू')

हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है
खाने पीने की चीजों से भरे है
कहीं पर फल है तो कहीं आटा दालें है
कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले है
फलों की ही बात लेलो,
आम के आम, गुठलियों के भी दाम मिलते है
कभी अंगूर खट्टे हैं,
कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते है
कहीं दाल में काला है,
कोई डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता है
कहीं किसी की दाल नहीं गलती,
तो कोई लोहे के चने चबाता है
कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,
कोई दाल भात में मूसलचंद बन जाता है
मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है.

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02-10-2014, 11:11 PM

सफलता के लिए बेलने पड़ते हैं कई पापड़
आटे में नमक तो चल जाता है
नमक में आटा नहीं चलता
पर समस्या ये है कि
गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है
अपना हाल तो बेहाल है
ये मुंह और मसूर की दाल है
गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते है
और गुड़ का गोबर कर बैठते है
कभी तिल का ताड़, कभी राई का पर्वत बनता है
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है
किसी के दांत दूध के है,
किसी को छटी का दूध याद आ जाता है
दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है,
और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है

>>>


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02-10-2014, 11:15 PM

शादी बूरे के लड्डू है, जिसने खाए वो भी पछताये,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताये
पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है,
और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते है
कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है
किसी के मुंह में घी शक्कर है,
सबकी अपनी अपनी तकदीर है
कभी कोई चाय पानी करवाता है,
कोई मक्खन लगाता है
और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है,
तो सभी के मुंह में पानी आता है
भाई साहब अब कुछ भी हो,
घी तो खिचड़ी में ही जाता है
जितने मुंह है, उतनी बातें है
सब अपनी अपनी बीन बजाते है
पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?
सभी बहरे है, बावरें है
ये सब हिंदी के मुहावरें है.

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02-10-2014, 11:28 PM

बंदर के हाथ लगी हल्दी की गाँठ

मूर्ख और अज्ञानी लोग ज्ञान का एक लघु अंश भी मिल जाए तो समझते हैं के वह महाज्ञानी हो गए और एक रंगे सियार की भांति अपने आप से कई गुणा बड़ा बनने का प्रयास करते हैं और फिर ऐसे गिरते हैं - के... अंजर पंजर भी हिल जाता है.

अब ऐसे हजारो उदाहरण आपको इस देश की सार्वजानिक जीवनधारा में मिलेंगे, विशेषतर मीडिया और राजनीति मे. अब आप केंद्र में सत्ता से बाहर कर दी गई कांग्रेस पार्टी, दिल्ली की सत्ता से विमुख हुयी आम आदमी पार्टी या कुछ और “नाम बड़े और दर्शन छोटे” को चरितार्थ करते दलों के कुछ प्रवक्ताओं और नेताओं को ही देख लें, बन्दर या बंदरिया की तरह रातो रात, हल्दी की गाँठ हाथ लग जाए तो अपनी पंसारी की दूकान खोलकर भोले लोगो को उल्लू बनाना आरम्भ कर देते हैं. ये वो लोग हैं जो करेंगे कुछ भी नहीं, न जो भला करना चाह रहे हैं उन्हें ही करने देंगे, बस भोले भाले लोगो को आपस में लड़ा-भिड़ा कर स्वयं तमाशा देखेंगे.


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02-10-2014, 11:39 PM

मजेदार जर्मन मुहावरे

भारत की ही तरह जर्मनी में भी प्रचलित कई ऐसे मुहावरे हैं जिन्हें सुनने पर अलग ही मतलब निकलता है, लेकिन उनका असल अर्थ कुछ और ही होता है.

जिंदगी कोई अस्तबल नहीं

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33274&stc=1&d=1412271480

जब जिंदगी की कठिनाइयों को आप हल्के में उड़ाते हैं तो जर्मनी में याद दिलाने वाला आपसे यह मुहावरा कह सकता है कि जिंदगी कोई अस्तबल भी नहीं यानी जिंदगी सिर्फ खूबसूरत नहीं है.


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02-10-2014, 11:43 PM

मजेदार जर्मन मुहावरे
सारे कप अल्मारी में नहीं

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33275&d=1412271479 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33275&d=1412271479)

यहां कप और अल्मारी के चक्कर में मत पड़िए. यही बात अगर हिन्दी में कही जाएगा तो कुछ यूं, 'दिमाग ठिकाने पर नहीं है या फिर स्क्रू ढीला हो गया है’.


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02-10-2014, 11:47 PM

मजेदार जर्मन मुहावरे
मुझे सिर्फ स्टेशन समझ आता है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33276&d=1412271479 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33276&d=1412271479)

इस जर्मन कहावत को सुनकर लग सकता है कि कहने वाले को सिर्फ रेल्वे स्टेशन वाली भाषा बोलता है लेकिन असल में इसका मतलब दुविधा से है. यानि सुनने वाले को कही गई बात समझ नहीं आ रही.


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02-10-2014, 11:51 PM

मजेदार जर्मन मुहावरे
मेरी नाक भरी हुई है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33277&d=1412271479

इस मुहावरे को कहने वाला जुकाम का मरीज नहीं. उसका मतलब है कि अब बस बहुत हुआ. अब मेरे सब्र की और परीक्षा न लो.


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02-10-2014, 11:54 PM

मजेदार जर्मन मुहावरे
जश्न की रात

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33278&d=1412271479 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33278&d=1412271479)

दफ्तर में लंबे, थकान भरे दिन के बाद जर्मनी में साथी अक्सर जश्न भरी रात की शुभकामनाएं देते हैं. ये शुभकामनाएं आपको अच्छी शाम के लिए दी जाती हैं, काम खत्म होने के बाद.


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03-10-2014, 12:01 AM

मजेदार जर्मन मुहावरे
मेरी नजर में यह सॉसेज है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33279&stc=1&d=1412272825

काम खत्म करने के बाद दोस्तों के साथ शाम को बैठे आप अगर यह जुमला कहेंगे तो वे समझ जाएंगे कि आप सॉसेज की बात नहीं कर रहे, बल्कि मतलब है कि आपकी इस मुद्दे पर कोई राय नहीं है.


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03-10-2014, 12:05 AM

मजेदार जर्मन मुहावरे
अंगूठे दबाकर

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33280&d=1412272828 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33280&d=1412272828)

जर्मनी में जब दोस्त गुड लक कहते हैं तो वे इस तरह कहते है.


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03-10-2014, 12:07 AM

मजेदार जर्मन मुहावरे
झूठ के पांव छोटे होते हैं

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33281&d=1412272828 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=33281&d=1412272828)

झूठ के सहारे कुछ दूरी तो तय की जा सकती है लेकिन यह बहुत देर तक छुपता नहीं. जाहिर है इस मुहावरे के जरिए भी यही कहने की कोशिश हो रही है.


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03-10-2014, 12:11 AM

रूसी भाषा का एक मुहावरा:
मुहावरा: सेम प्यातनित्स ना निदेल्ये
अर्थ: एक हफ़्ते में सात शुक्रवार भावार्थ: बार-बार अपनी राय बदलना

यह मुहावरा कैसे शरू हुआ इस बारे में एक रोचक प्रसंग बताया जाता है. बहुत पहले की बात है. उन दिनों हर शुक्रवार अवकाश का दिन होता था. जितने भी कामगार होते थे वे शुक्रवार को ही अपनी सप्ताह भर की जरुरत का सामान खरीदने हाट में आया करते थे. कभी कभी उन्हें अपनी जरुरत का कोई सामान बाजार में नहीं मिल पाता था, इस पर वे दुकानदार से कहते कि वह अगले हफ्ते (शुक्रवार को) उनका यह सामान अवश्य लेता आये. दुकानदार भी उन्हें सामान लाने का आश्वासन देते लेकिन फिर भूल जाते. अगले शुक्रवार को ग्राहक अपने बताये हुए सामान की मांग करते तो दुकानदार उनसे माफ़ी मानते हुए कहता कि वह अगले हफ्ते जरुर ले आयेगा. लेकिन अगली बार भी सामान न लाता और कुछ न कुछ बहाना बना देता. इस प्रकार कई शुक्रवार निकल जाते पर ग्राहक को उसका फरमाइशी सामान न मिल पाता. तभी से यह मुहावरा बोलचाल की भाषा में चल निकला “सेम प्यातनित्स ना निदेल्ये” अर्थात् “एक हफ्ते में सात शुक्रवार”. इसका तात्त्पर्य यह है की आलसी व्यक्ति या काम न करने वाले व्यक्ति के लिए सप्ताह के सातों दिन यानी हर दिन अवकाश का दिन है. ऐसा व्यक्ति प्रतिदिन अपनी राय बदलता रहता है और काम न करने पर बहाने तलाशता है.


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03-10-2014, 12:16 AM

एक चीनी मुहावरा
मुहावरा: वीणा के तार तोड़ना

ज़ेन कथाएं हमें चेतनशील जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं । ज़ेन कथाओं में व्यक्ति की चेतना का अनेक-अनेक ढ़ँग से अवबोध कराने का प्रयास रहता है । इनके द्वारा दैनिक जीवन में सजगता के प्रयोग को गहराया जाता है और व्यक्ति को ध्यान में अवस्थित होने का अवसर मिलता है । इसी प्रकार की एक ज़ेन कथा प्रस्तुत है :-

चीन में दो मित्र हुए । एक मित्र वीणा वादन में कुशल था । उसके वीणा वादन में विभिन्न स्वर लहरियाँ थी । जब वह वीणा के तार झंकृत करता था, तो दूसरा उसके स्वरों को डूब कर सुनता था । जब पहला वीणा से कोई पहाड़ी धुन छेड़ता, तो दूसरा कहता, मेरी आँखों के सम्मुख पर्वतों की चोटियाँ सजीव हो उठी हैं और घाटियों की प्रतिध्वनि गूँज उठी है ।

वादक पानी के सुर लगाता, तो दूसरा मित्र कहता, ऐसा लगता है जैसे कल-कल करती नदी मेरे सम्मुख प्रवाहित हो रही है । एक मित्र के पास वीणा वादन की कुशलता थी तो दूसरे के पास सुनने की अद्-भूत कर्ण शक्ति ।

एक दिन सुनने वाला मित्र बीमार पड़ा और जल्दी ही देह से मुक्त हो गया । वीणा वादक ने अपनी वीणा के तार तोड़ डाले और कहते हैं कि फिर उसने कभी वीणा नहीं बजाई ।

क्यो ?

लेकिन तब से चीन में एक मुहावरा प्रचलित हो गया - "वीणा के तार तोड़ना" , जिसका अर्थ है : अटूट मित्रता ।

(आभार: मनोज भारती)


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06-10-2014, 12:18 AM

पैरों वाले मुहावरे
(आलेख आभार: गुरमीत बेदी)

वैसे मुहावरे तो मैंने बहुत सुन रखे हैं, लेकिन कुछ मुहावरे ऐसे हैं जो सरकारी योजनाओं की तरह ग्राउंड लेवल से शुरू होते हैं। ग्राउंड लेवल मतलब निचला स्तर, और निचला स्तर मतलब आदमी के पैर। अब कोई कितना भी नीचे क्यों न गिर जाए, लेकिन अपने पैरों से नीचे थोड़े ही गिर सकता है। ज्यादा से ज्यादा पैरों पर ही गिरेगा न।

अब पैरों की बात चली है तो इतना बता दें कि पैरों को लेकर चार डिफरेंट किस्म के मुहावरे मुझे बहुत प्रिय हैं, जिनमें से एक है- पैर पकड़ना, दूसरा है -अपने पैरों पर खड़े होना, तीसरा है- अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना और चौथा है- चादर देखकर पैर पसारना। वैसे पैरों को लेकर एक मुहावरा यह भी है कि झूठ के पैर नहीं होते, लेकिन यहां हम नेताओं की तरह झूठ-मूठ की बात नहीं करेंगे और मुहावरों के चार शुरुआती आप्शंस पर ही चर्चा करेंगे ।


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06-10-2014, 12:20 AM

पैरों वाले मुहावरे

पहला ऑप्शन है- पैर पकड़ना। अब पैर पकड़ना भी कई तरह से होता है। एक होता है किसी युवती को छेड़कर पहले उससे जूते खाना और फिर उसके सॉफ्ट पैर पकड़कर उससे माफी मांगना। दूसरा होता है- अपने बॉस के पैर पकड़कर उसे यह यकीन दिलाना कि भविष्य में अकेले-अकेले रिश्वत खाने का महापाप नहीं किया जाएगा और रिश्वत की राशि सबसे पहले बॉस के श्रीचरणों में ही रखी जाएगी। तीसरा होता है- किसी नेता के पैर पकड़कर उससे यह गुजारिश करना कि 'हे लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी, चलो इस बार तो आपने अपना बेटा चोर दरवाजे से नौकरी में फिट कर लिया, लेकिन अगली बार मेरे बेटे का भी ध्यान रखना। उसके भी फ्यूचर का सवाल है।'

चौथा होता है- अपनी टिकट कटती देखकर किसी नेता द्वारा हाईकमान के पैर पकड़ लेना और यह दुहाई देना कि 'हे पापियों के तारनहार, हे सर्वशक्तिदाता, मेरा टिकट काट कर इतना जुल्म न कर। मैंने घोटाले ही तो किए, कोई देश की सुरक्षा का सौदा थोड़े ही किया और घोटालों से जो भी कमाया है, उसका भोग आपको भी तो लगाया है। आपकी स्मरणशक्ति इतनी कमजोर कैसे हो गई?


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06-10-2014, 12:22 AM

पैरों वाले मुहावरे

अगला मुहावरा है- अपने पैरों पर खड़े होना। इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने पैरों की बजाय दूसरों के पैरों पर खड़े हैं। जैसे बिगड़ैल औलाद अपने बाप के पैरों पर चढ़कर ऐश करती है। चोर, उचक्के, डाकू, स्मगलर और तमाम तरह के धंधे करने वाले लोग पुलिस के पैरों पर खड़े होकर अपना कारोबार चलाते हैं, पुलिस वाले लीडरों के पैरों पर खड़े होकर लाठी चलाते हैं, लीडर लोग अपने पैरों की बजाय हाईकमान, बाहुबलियों और ठेकेदारों के पैरों पर खड़े होकर राज करते हैं, सरकारें घटक दलों के पैरों पर खड़ी होकर मुल्क को हांकती हैं....अगर वे अपने पैरों पर खड़े होने की जुर्रत करती हैं तो लड़खड़ा कर गिर जाती हैं।

अगला मुहावरा है- अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। भले ही आज जमाना एक-दूसरे को गोली और बम से उड़ाने का है, लेकिन इसके बावजूद पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाले सच्चे शूरवीर इस मुल्क में मौजूद हैं। ऐसे महानुभावों में कई माननीय सांसद पहले नंबर पर आते हैं। दूसरे नंबर पर मैं आता हूं। मैंने भी कई बार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। कई बार पत्नी के सामने प्यार भरी बातें करते- करते किसी और की तारीफ कर दी। कभी-कभी एक नेता के सामने दूसरे नेता की प्रशंसा कर दी। यह बात दीगर है कि जैसे कुर्सी मिलते ही लीडर का हाजमा ठीक हो जाता है, वैसे ही मरहम पट्टी के बाद मेरे पैर फिर से ठीक हो जाते हैं।

चौथा मुहावरा है- चादर देख कर पैर पसारना। तो जनाब, मैं पैर पसारने से पहले कई बार अपनी चादर देख चुका हूं। भ्रष्टाचार और अनैतिक कारनामों के जितने दाग मेरे दामन पर लगे हैं, उतने ही दाग मेरी चादर पर भी लगे हैं। यही नहीं, पैरों से ज्यादा चादर पसारने के कारण बेचारी चादर कई जगह से फट भी चुकी है। लेकिन मैं इसी चादर को ओढ़ता, बिछाता हूं और मुल्क के लोकतंत्र की तरह अपने भाग्य पर इठलाता हूं।
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14-10-2014, 12:25 AM

मुहावरों का वाक्यों में प्रयोग
सुप्रेम त्रिवेदी

स्कूल के दौरान इससे मज़ेदार और सृजनात्मक लेखन प्रश्नोत्तरों के दौरानशायद ही किसी ने किये हों. हमारी (इसे कुछ लोग मेरी भी कहते हैं, लेकिन हम लखनऊवासी 'मैं' को 'मैं' नहीं 'हम' कहते हैं क्योंकि हम कभी अकेलेनहीं चलते, जहाँ चलते हैं चार लड़के दायें बाएँ हमेशा रहते हैं.) हिंदी कीअध्यापिका महोदया हमेशा हमसे इसीलिए परेशान रहीं. कभी हम इस प्रश्न काउत्तर खाली छोड़ के नहीं आये. एक वाक्य बोलिन तौ दुई लिखेन की एक तौ सहीहुइबे करिहै. एक बार तो उन्होंने हद्द ही कर दी. प्रश्न में सिर्फ वाक्यप्रयोग करने को बोला अर्थ लिखने को नहीं. हम बड़े खुश ... पढ़ लो ये रायताफैलाये थे हम.

सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाना:मेरी सिट्टी-पिट्टी बहुत दिनों से गुम है, मिलती ही नहीं.

असमान फट पड़ना:मेरा असमान बहुत दिनों से फटा पड़ा है. कृपया उसे जोड़ दें.

अब इस पर नंबर तो मिले नहीं. हाँ लेकिन सबके सामने बुला के वाह-वाही खूबमिली, और क्लास से तीन दिन की छुट्टी भी.


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16-10-2014, 11:27 PM

मेरे युग का मुहावरा > फ़र्क़ नहीं पड़ता
आलेख: अजीत भारती

तुमने जहाँ लिखा है प्यार
वहाँ सड़क लिख दो
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहावरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता

(केदारनाथ सिंह)

केदारनाथ सिंह ने अपने समय में ये लिखा था और उसके बाद से तो प्यार की जगह सड़क, नाली, टट्टी, पेशावघर, काँजीहौस… कुछ भी लिख दो, फ़र्क़ नहीं पड़ता जी!

और प्यार का अगर थोड़ा व्यापक अर्थ लें कि प्राणीमात्र से प्यार, तो फिर स्थिति और भी भयावह है। समय नहीं है सोचने का क्योंकि फ़र्क़ नहीं पड़ता।

बदायूँ में इसी प्यार के सड़क पर रौंद दिये गए दो जीवन, और रौंद दिए जाते हैं लगभग रोज़ ही एसे प्यार करने वाले अलग अलग जगहों पर।

हमें क्या? वैसे भी हम बहुत ज़्यादा कर नहीं सकते, हाँ महसूस कर सकते हैं जिसमें कोताही नहीं होनी चाहिए। लेकिन ये बातें आपके गणित की किताब की त्रिकोणमिति नहीं है कि बीस नंबर का नहीं पढ़ेंगे तो भी पास हो जाएँगे।

गणित और जीवन में यही फ़र्क़ है और हमें, आपको, हर इंसान को फ़र्क़ तो पड़ना चाहिए। इराक़ के हालात का फ़र्क़ पड़ना चाहिए, ट्विन टावर पर प्लेन हमले का फ़र्क़ पड़ना चाहिए और घटते हुए लिंगानुपात का भी फ़र्क़ पड़ना चाहिए। हमारी सोच कैसे इन सब से बेपरवाह रह सकती है?

अपने युग के इस मुहावरे को बदलने की ज़रूरत है, फ़र्क़ तो पड़ना चाहिये अगर कोई प्यार की जगह सड़क लिख रहा हो तो।


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16-10-2014, 11:40 PM

तीन मुहावरे
(अंतरजाल से)

1. नाच न जाने आँगन टेढ़ा

हे सखी,
चल नाचते हैं!!
गाते हैं,
गुनगुनाते हैं!!
कैसे गाऊँ,
कैसे गुनगुनाऊं!!
गला मेरा खराब,
पांवोंमें है दर्द!!
मैं तोनाचना,
जानती नहीं!!
गाना गुनगुनाना,
जानती नहीं!!
इसलिए कहते हैं,
नाच ना जाने,
आँगन टेढ़ा !!


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16-10-2014, 11:43 PM

तीन मुहावरे

2. आलसी एक बहाने अनेक

चल बेटा उठ जा,
ताज़ा दम हो जा,
फिर स्कूल जा!!
माँ मुझे स्कूल,
नहीं जाना!!
मैं हूँ बहुत बीमार,
यह तेरा रोज़,
का बहाना!!
तुझे घर पे,
करना है आराम!!
इसलिए कहते हैं,
आलसी एक,
बहाने अनेक!!


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16-10-2014, 11:45 PM

तीन मुहावरे

3. हाथ न पहुँचे, थू कोड़ी

कितने मीठे मीठे आम,
लगे हैं पेड़ पे!!
चल दोस्त इसे तोड़ें,
तू चढ़ मेरी पीठ पे!!
रहने दे यार,
तू क्यूँ इन्हें,
करता है खराब!!
यह हैं कच्चे आम,
इन्हें खा कर,
नहीं करना गला खराब!!
इसलिए कहते हैं,
हाथ ना पहुँचे,
थू कोड़ी!!


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19-10-2014, 02:36 PM

मुहावरों पर पिटाई, क्यों भाई?
आलेख: सूर्यकुमार पांडेय

मेरा शायर मिजाज मित्र अमर अमरोहवी विलाप करता हुआ मेरे दरवज्जे पर प्रस्फुटित हुआ। कतई गुमसुम था। मैंने कुरेदा तो कहने लगा, ‘अब नहीं बोलूंगा। हरगिज नहीं बोलूंगा।’ मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए इस रहस्यवादी प्रलाप का कारण जानना चाहा। अमरोहवी ने अपने सूजे हुए गालों को सहलाते हुए बयान दिया, ‘आज से मैं न तो कोई मुहावरा बोलूंगा, न लोकोक्ति, न कहावत। मुझे पिटने का इतना शौक नहीं है। ..अब आप ही कहिए, मेरी गलती क्या थी, जो दोनों ने मिलकर मेरी कुटम्मस की!’

‘पहेलियां मत बुझाओ, शायरेआलम। आखिरकार वे दोनों थे कौन?’, मैंने खीजते हुए पूछा।

‘वही दोनों, चौबे ओर दुबे! पहने चौबे ने तोड़ा। फिर दुबे ने मेरी मरम्मत की,’ अमर अमरोहवी ने अपना थोबड़ा खोलते हुए फरमाया, ‘अरे, मैंने इतना ही तो कहा था कि चौबे चले छब्बे बनने, दुबे बन के आ गए। चांस की बात वे दोनों घटनास्थल पर ही खड़े थे।
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19-10-2014, 02:39 PM

मुहावरों पर पिटाई, क्यों भाई?

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‘एक बोला, तुमने मेरा अपमान किया है। दूसरे ने कहा, मेरी भी इंसल्ट हुई है। इसके बाद दोनों ने युगलगान करते हुए मेरी कंप्लीट इंसल्ट की। पांडे जी, वह तो गनीमत समझिए कि वहां पर कोई छब्बे नहीं था, वरना वह भी मुझे कूटता।’ मामला वास्तव में बीहड़ था। मैंने अमर अमरोहवी को उकसाते हुए कहा, ‘भैये, इतनी अच्छे सिक्स पैक शरीर के होते हुए तुम पिटकर आ गए। सौ सुनार की, एक लोहार की। धमक देते दुबे-चौबे दोनों बंधुओं को!’

अमर अमरोहवी कांखता हुआ दाएं-बाएं देखने लगा। फिर खुद ही कह उठा, ‘पांडे जी, आप सोच रहे होंगे, मैं अगल-बगल क्या देख रहा था? तो मैं यह देख रहा था कि कहीं कोई सुनार या लोहार महोदय तो मेरी बगल में नहीं खड़े हैं! मैं तो उनके हाथों से ही पिटा, आप तो आज हथौड़े से कूटे जाते।’

इसके बाद अमरोहवी ने, ‘धोबी का कुत्ता, न घर का, न घाट का,’ ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली,’ ‘जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट,’ ‘नाई रे नाई, कितने बाल,’ जैसे लगभग तीन दर्जन जुमले मेरे कानों में टपकाते हुए सख्त हिदायत दी कि मैं इनका उच्चारण न करूं। और हो सके तो विभिन्न जातियों और समुदायों के उल्लेख वाले इन मुहावरों को भरसक शब्दकोश, साहित्य, इतिहास और अपनी स्मृति तक से मिटाने का प्रयास करूं। वर्ना खैर नहीं। अपना शायर यार अमर अमरोहवी तो इतना कहकर फूट लिया और मैं यहां समाज के सर्वमान्य मुहावरे की तलाश में अपना मत्था फोड़ रहा हूं। और मुहावरे हैं कि मुंह बिरा रहे हैं।
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19-10-2014, 03:18 PM

मुहावरा:
संकट की घड़ी

दर खुला तो देखा
आँखों में आंसू चेहरे पे हँसी थी
साँसों में आहें पर दिल में बेबसी थी !!
अरे पहले क्यों नहीं बताया के
दरवाजे में ऊँगली फंसी थी?
सच बड़े संकट की घड़ी थी.


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21-10-2014, 12:46 PM

मुहावरों का मुहावरा
आलेख: जुगनू शारदेय

कितने समझदार और बड़े व्यंगकार रहे होंगे मुहावरा बनाने वाले लोग। अब देखिए न कह दिया, ‘पढ़े फारसी बेचे तेल ...।’ अभी तक किसी ने यह तय नहीं किया है कि यह बेरोजगारी पर व्यंग है या चमचागिरी की पहचान है ।

कभी फारसी जानने वालों को ही सरकारी नौकरी मिला करती थी। जैसे आज अंग्रेजी जानने वालों को मिला करती है। किसी फारसीदां को नौकरी न मिली होगी तो बेचारा तेल का कारोबार करने लगा होगा।

यहां बहस हो सकती है कि तेल का कौन-सा कारोबार करता होगा। तेल बेचने का या तेल लगाने का। मुहावरा में साफ कहा गया है कि ‘बेचे तेल।’ बेचने वाले अपनी चिकनी चुपड़ी बोली से तेल भी लगाते हैं। तेल लगाने के बहुत फायदे होते हैं। इन्हीं फायदों को ले कर भी एक मुहावरा है कि छुछुंदर के माथे पर चमेली के तेल। इन दिनों तेल बहुत महंगा है। इसलिए असली तेल के बजाए लोग बोली का तेल लगाते हैं।


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21-10-2014, 12:49 PM

मुहावरों का मुहावरा

बोली का कारोबार बहुत सारे लोग करते हैं। इस धंधा के बड़े कारोबारियों में नेता हैं, वकील भी और मदारी भी। मदारी आजकल मीडिया कहा जाताहै। यहां मीडिया का मतलब न तो ब्रोकेन न्यूज है और न ही छपास की भंडास।यहां मीडिया का मतलब राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता और एडवरटाइजिंग एजेंसियों के कॉपी राइटर होते हैं। यही ब्रोकेन न्यूज और छपास की भंडास को संचालित करते हैं। इन्होने साबित कर दिया है कि दाग अच्छे हैं।

दागी और दागदार कौन है, यह अदालत से तय होता है। अदालत की एक अच्छी बात यह है कि यह आज करे सो काल करे– इतनी जल्दी काहे को जब मुकदमा चलेगा बरसो। यह भी एक मुहावरा है। अदालत मेंदेर है, पर अंधेर नहीं। यह भी मुहावरा ही है। इस मुहावरा की वजह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश केजी बालकृष्णन का कथन है कि भारत में मुकदमों को टालते जाना आसान काम है। टाल मटोल भी मुहावरा है।

इंसाफ और कानून में बहुत फ़र्क होता है।कानून किताब में होता है। इंसाफ अदालत में होता है। अदालत में वकील होता है। किताबमें काला अक्षर भैंस बराबर होता है। भैंस का गुण कीचड़ में जाना है। इंसाफ का काम कीचड़ को धोना है।

यह और बात है कि कोयले की दलाली में हाथ काला वाले मुहावरे के कारण कीचड़ धोते धोते इंसाफ को भी कीचड़ लग जाता है। अब तो लोगों की समझ में ही नहीं आ रहा है कि इंसाफ पर लगे कीचड़ के दाग को कैसे धोएं।

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22-10-2014, 11:29 PM

मुहावरा: रस्सी जल गई पर बल नहीं गए
साभार: शिव सागर शर्मा

गागर है भारी, पानी खींचने से हारी,
तू अकेली पनिहारी, बोल कौन ग्राम जायेगी,
मैंने कहा, थक कर चूर है तू ला मैं,
रसरी की करूं धरी कुछ विश्राम तो तू पाएगी,
बोली जब खींच चुकी सोलह घट जीवन के,
आठ हाथ रसरी पे कैसे थक जायेगी,
मैंने कहा रसरी की सोहबत में पड़ चुकी तू,
जल चाहे जायेगी ते ऐंठ नहीं जायेगी.


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22-10-2014, 11:31 PM

मुहावरा: अधजल गगरी छलकत जाए
साभार: शिव सागर शर्मा

घाम के सताए हुए, दूर से हैं आए हुए,
घाट के बटोही को तू धीर तो बंधाएगी,
चातक सी प्यास लिए, जीवन की आस लिए,
आशा है तू एक लोटा पानी तो पिलाएगी,
बोली- ऋतु पावस में स्वाति बूँद पीना,
ये पसीने की कमाई यूँ न लुटाई जायेगी,
मैंने कहा पानी वाली होती तो पिला ही देती
अधजल गगरी है तो छलकत जाएगी.


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22-10-2014, 11:33 PM

मुहावरा: चुल्लू भर पानी मैं डूब मरना
साभार: शिव सागर शर्मा

हारे थके राहगीर नें कहा नहाने के लिए,
क्या तेरे पास कुल एक डोल पानी है,
मार्ग की थकान से हुए हैं चूर चूर हम,
दूर से बता दे किस ठौर मिले पानी है,
बोली घट में पानी है घूंघट में पानी है
भीगी लट में पानी है जहाँ तहाँ पानी है,
पानी तो है लेकिन नहाने के लिए ना है
डूबने के वास्ते यहाँ चुल्लू भर पानी है.


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26-10-2014, 04:00 PM

अदरक का स्वाद और कुत्ता
अविनाश वाचस्पति

एक कुत्ता अदरक खाने की कोशिश कर रहा था। उसे बार बार देख रहा था। जीभ से चाट रहा था। उलट पलट रहा था पर सुलट नहीं पा रहा था। उसकी खुशबू उसे सतर्क कर रही थी। लग तो हड्डी का टुकड़ा रहा था परंतु रंग ब्राउन। शायद कृत्रिम हो आदमी ने बनाया हो। विचार मग्न उसी में पूरी शिद्दत से जुटा हुआ था।

उसका मित्र एक बंदर वहां से गुजरा तो कुत्ता को अदरक से धींगा मुश्ती करते देख रूक गया। बंदर को रूकता देख कुत्ते ने जानना चाहा तो बंदर ने कहा कि यह नॉनवेज नहीं है।

कुत्ते ने पूछा पर इसका स्वाद ….

बंदर ने बतलाया मैं ही नहीं जान पाया। लगता है तुम अनपढ़ हो। इतनी शिक्षा तो ली होती। हिंदी कोर्स में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है ‘बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’

तो इस समय बंदर और अदरक दोनों तुम्हारे सामने हैं। अगर कोशिश करके तुम अपने इस प्रयास में सफल हो जाते हो तो एक नया मुहावरा हिंदी जगत को मिल जाएगा 'कुत्ता ही जाने अदरक का स्वाद’।


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26-10-2014, 04:10 PM

टोपी पहनाना > क्रिया व मुहावरा
(इंटरनेट से )

नगरपालिका सभागार में संपन्न ' पहाड़ सम्मान' के अवसर पर कई लोगों को टोपी पहनाई गई- मतलब कि टोपी पहनाकर सम्मानित किया गया. मंच से घोषणा होती रही और लोग टोपी पहनाकर -पहनकर खुश होते रहे, मुस्कराते रहे. निश्चित रूप से यह सम्मान - सौजन्य के प्रकटीकरण का एक बेहद सादा कार्यक्रम था- खुशनुमा और गर्मजोशी से लबरेज- न फूल, न माला, न बुके.. बस्स आदर से दोनो हाथों में सहेजी गई एक अदद टोपी और अपनत्व से नत एक शीश. उसी समय मुझे लगा कि घर पहुँचकर फुरसत से मुहावरा कोश खँगालना पड़ेगा, यह जानने के लिए कि हिन्दी में टोपी पर कितने व कितनी तरह के मुहावरे हैं . आपको यह नहीं लगता कि 'टोपी पहनाना' वाक्यांश मुहावरे की तरह इस्तेमाल होता है और उसका वह अर्थ तो आज की हिन्दी में भाषा नहीं ही होता है जो ‘पहाड़’ के आयोजकों की नेक मंशा थी. यही कारण था कि सभागर में विराजमान दर्शक - श्रोता टोपी पहनाने के बुलावे की घोषणा होते ही मंद-मंद मुस्कुराने लग पड़ते थे. मुहावरा कोश में मुझे टोपी पर कुल चार मुहावरे और उनके अर्थ कुछ यूँ मिले -

१. टोपी उछालना - इज्जत उतारना / अपमानित करना
२. टोपी देना - टोपी पहनाना , कपड़े देना / पहनाना
३. टोपी बदलना - भाई चारा होना
४. टोपी बदल भाई - सगे भाई न होते हुए भी भाई समान

ध्यान रहे कि इन मुहावरों का संदर्भ पगड़ी से भी जुड़ा है क्योंकि टोपी के मुकाबले पगड़ी से हिन्दी के भाषायी समाज का रिश्ता निकटतर रहा है.


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04-11-2014, 11:37 PM

भैंस की शान में मुहावरे
साभार: जॉली अंकल

यह क्या, अगले मुहावरे में तो और भी कमाल हो गया, इसमें तो किसी ने बेचारी भैंसो को ही घसीट लिया है, जी आपका अंदाजा बिल्कुल ठीक है। यह मुहावरा है भैंस के आगे बीन बजाना। यार अगर भैंस को कुछ सुनाना ही है, तो कोई तबला या कोई बढि़या सी गिटार पर धुन सुना दो। यदि यह नही बजा सकते तो कम से कम ढोल ही बजा दो। भैंस को कुछ मजा तो आये। भैंस बेचारी बीन सुन कर क्या करेगी? वैसे भी बीन तो सांप को खुश करने के लिये बजाई जाती है। अब छोटी सी बीन से भैंस को क्या मजा आयेगा? क्या कहा आपको तो अभी से ही चक्कर आने लगे है। अभी तो भैंस की और भी बहुत सारी बाते आपसे करनी है। भैंस का एक और बहुत ही मशहूर मुहावरा है, लो गई भैंस पानी में। अब एक बात बताओ कि भैंस यदि पानी में नही जायेगी तो क्या बाथरूम में नहाने जायेगी। हम सभी को गर्मी लगती है, हम भी तो पानी के साथ ही नहाते है, अब अगर भैंस पानी में चली गई तो उस बेचारी ने क्या गुनाह कर दिया?

और भी कुछ मुहावरों में भैंस को याद किया गया है जैसे – अक्ल बड़ी या भैंस, काला अक्षर भैंस बराबर, भैंस के पीछे लट्ठ ले कर पीछे पड़ जाना और जिसकी लाठी उसकी भैंस आदि आदि लेकिन उनके बारे में फिर कभी.


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05-11-2014, 08:32 PM

नो सौ चूहें खाकर बिल्ली हज को चली

सिर्फ इंसानो के मुहावरे ही नही जानवरों के मुहावरे भी चक्कर देने में कम नही है। जी हां, यह मुहावरा है बिल्ली और चूहे का। एक बात तो हमें यह नही समझ आती की आदमियों के मुहावरो में बिल्ली चूहे का क्या काम? खैर हमें उससे क्या लेना-देना जिस किसी ने भी यह मुहावरा बनाया होगा, कुछ सोच समझ कर ही बनाया होगा, या उसे चूहे बिल्लियों से बहुत प्यार रहा होगा। हम बात कर रहे है 900 चूहें खाकर बिल्ली हज को चली।

अब कोई मुहावरा बनाने वाले से यह पूछे कि क्या उसने गिनती की थी कि बिल्ली ने हज पर जाने से पहले कितने चूहे खाये थे? क्या बिल्ली ने हज में जाते हुए रास्ते में कोई चूहा नही खाया था। अगर उसने कोई चूहा नही खाया तो रास्ते में उसने क्या पीजा-बर्गर खाया था। मुहावरो बनाने वाले यह भी तो नही बताते कि बिल्लियां हज करने जाती कहां है? अजी छोड़ो इन बातो को हमें इससे क्या लेना है, बिल्ली जितने चूहे खाती है, खाने दो। वैसे यह बिल्ली तो बड़ी हिम्मत वाली होगी जो 900 चूहें खाकर हज को चली गई, क्योकि एक आम आदमी की तो दो-चार नान खाने से ही जान निकलने लगती है।


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05-11-2014, 08:36 PM

नो सौ चूहें खाकर बिल्ली हज को चली

सदियों पहले इनके क्या मायने थे यह तो हम नही जानते लेकिन आज के वक्त की पीढ़ी को इनका मतलब समझाते-समझाते सिर चक्कर खाने लगता है। एक बहुत ही पुराना लेकिन बड़ा ही लोकप्रिय मुहावरा है कि न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। अरे भैया, नाचने के लिए राधा को नौ मन तेल की क्या जरूरत पड़ गई? अगर नाचने वाली जगह पर 50-100 ग्राम भी तेल गिर जाये तो राधा तो बेचारी फिसल कर गिर नही जायेगी। क्या मुहावरा बनाने वालों ने इतना भी नही सोचा कि नीचे गिरते ही राधा के हाथ पांव में प्लास्टर लगवाना पड़ेगा। वैसे भी जहां नाच गाने का कोई प्रोग्राम होता है, वहां तो साफ सफाई की जाती है न कि वहां तेल मंगवा कर गिराया जाता है। अब जहां इतना तेल होगा, वहां तो आदमी खड़ा भी नही हो सकता, नाचना गाना तो बहुत दूर की बात है। वैसे भी मंहगाई के इस दौर में नौ मन तेल लाना किस के बस की बात है? घर के लिये किलो-दो किलो तेल लाना ही आम आदमी को भारी पड़ता है। महीने के शुरू में तो कुछ दिन तेल-घी वाली रोटी के दर्शन हो भी जाते है, लेकिन बाकी का सारा महीना तो सूखी रोटी से ही पेट भरना पड़ता है।

तेल की बढ़ती हुई कीमतो को देख कर तो बड़े से बडा रईस भी आज अपने घर में नौ मन तेल नही ला सकता। वैसे भी मुहावरा बनाने वालो से यह पूछा जाये कि इतना तेल मंगवा कर क्या राधा को उसमें नहलाना है? लोगो को नहाने के लिए पानी तक तो ठीक से नसीब होता नही, यह राधा को तेल से नहलायेगे क्या? इस मुहावरे को बनाने वालों ने यह भी नही बताया कि राधा को कौन सा तेल चाहिए? खाने वाला या गाड़ी में डालने वाला, सरसों का या नारियल का। क्या आज तक आपने कभी किसी को तेल पी कर नाचते देखा है। नाचने वालो को तो दारू के दो पैग मिल जाऐं बस वो ही काफी होते है। जिस आदमी ने जिंदगी में कभी डांस न किया हो, दारू के 2-4 पैग पीने के बाद तो वो भी डिस्को डांसर बन जाता है।


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15-11-2014, 11:50 AM

नया मुहावरा “हाथ काट लेना”

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बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने हमें एक नया ज्ञान दिया है कि हाथ काट लेना एक मुहावरा है जिसका मतलब होता है अधिकार सीमित कर देना। इसका अर्थ यह नहीं होता कि किसी का हाथ ही काट लिया जाएगा। जो मुहावरे का अर्थ नहीं समझते हैं, वे ही हल्ला कर रहे हैं। उन्होंने उनकी बात ना समझने वाले मूर्खों को जमकर कोसा है और कहा है आज का मीडिया मुहावरों का मतलब भी नहीं जानता। मेरे उक्त बयान से डॉक्टरों को खफा होने की जरूरत नहीं है। अर्थ का अनर्थ नहीं निकाले कोई।

मुख्यमंत्री पटना में पत्रकारों से बात कर रहे थे। उन्होंने 'हाथ काट लेंगे' वाले अपने बयान पर सफाई दी। उन्होंने कहा कि उनके बयान में हाथ काटना महज एक मुहावरा था। उनका आशय था कि गरीबों के साथ खिलवाड़ करने वाले चिकित्सा अधिकारियों के अधिकार कम कर दिये जायेंगे। विदित हो कि गत माह 17 अक्तूबर 2014 को उन्होंने मोतिहारी में एक अस्पताल के उद्घाटन के अवसर पर कहा था कि जो डॉक्टर मरीजों की इलाज ठीक से नहीं करेंगे उनका हाथ काट लेंगे। उन्होंने कहा-डॉक्टरों के प्रति मेरा पूरा सम्मान है। 90 फीसदी डॉक्टर अपनी सेवा अच्छी तरह से दे रहे हैं। दस फीसदी डॉक्टर हैं, जो ठीक से काम नहीं करते हैं। ऐसे ही डॉक्टरों के प्रति मेरा सम्मान नहीं है।


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15-11-2014, 12:06 PM

चक्कर आते ही मुहावरा दौड़ शुरू
जॉली अंकल

बंसन्ती ने जब बार-बार खाना खाने के लिये मना किया तो उसकी मौसी ने डांटते हुए उससे खाना न खाने का कारण पूछा। बंसन्ती ने डरते हुए बताया कि उसे उल्टी के साथ चक्कर आ रहे है। मौसी ने पूछा कि तेरा पति तो तुझे कब से छोड़ कर जा चुका है, फिर अब यह कैसी उल्टी और कैसे चक्कर आ रहे है? बंसन्ती ने थोड़ा झिझकते हुए कहा मौसी वो बीच में कभी-कभी माफी मांगने आ जाते है बस उसी कारण से यह चक्कर आ रहे है। इतना सुनते ही मौसी को ऐसा लगा जैसे उसके सिर पर घड़ों पानी पड़ गया हो। इससे पहले की मौसी कुछ और कह पाती वो चक्कर खाने के साथ बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ देर बाद जब मौसी को होश आया तो उसने कहा कि तेरा पति तो बहुत चलता-पुर्जा है ही तू भी चकमा देने में कम नही है। मेरे सामने तो हर समय उसकी बुराई करते नही थकती लेकिन मेरी पीठ पीछे झट से उसके साथ घी-खिचड़ी हो जाती है। तेरी इन्ही बेवकूफियों के कारण वो तुझे अपने चक्कर में फंसाने में कामयाब हो जाता है। यह सब कहते सुनते बंसन्ती का चेहरा फ़क पड़ता जा रहा था। वहीं मौसी का चेहरा गुस्से में और अधिक तमतमाने लगा था।

वैसे तो चक्कर आने के अलग-अलग कारण और परिस्थितियां होती भी है। कभी सेहत की गड़बड़ी से, कभी दिल के लगाने से और कभी दिल के टूटने से। परंतु तेजी से बदलते जमाने में यदि मुहावरों पर गहराई से विचार किया जाये तो इन्हें देख कर भी कई लोगो को चक्कर आने लगते है। बहुत से ऐसे मुहावरे है जिन को बनाते समय लगता है, कि हमारे बर्जुगो ने बिल्कुल ध्यान नही दिया।


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02-12-2014, 07:28 PM

के पी सक्सेना
व्यंग्यकार व फिल्मों के डायलाग राईटर
जन्म: 1934
मृत्यु: 31 अक्तूबर 2013

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRzF2_YvLX3o40DMdEeHII1P4TjfgoDd QpOrts9SvIOM9VUUbBS^https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTI5sK_2MrFXM8kD861oyIAPDy79pGjV D08VwabL1to2T36zKHM5w

बरेली में 1934 में जन्मे कालिका प्रसाद सक्सेना, अपने फैंस के बीच केपी नाम से लोकप्रिय हुए। वे पचास के दशक में लखनऊ आए थे।

तीन भाषाओं की एक राह
केपी को हिन्दी, उर्दू और अवधी समान रूप से आती थी। साहित्य में इनके योगदान के लिए भारत सरकार ने सन 2000 में केपी को पद्मश्री से नवाजा। सहज और जीवंत अंदाज की लेखनी के कारण केपी की फिल्मी राह आसान हुई। उन्होंने 'लगान (2001), स्वदेश (2004), हलचल (2004), जोधा अकबर (2008)' जैसी सुपरहिट फिल्में दी हैं। इनमें से 'जोधा अकबर' बेस्ट डॉयलाग कैटेगरी में फिल्म फेयर अवार्ड के लिए नोमिनेट हुर्इ थी। 'लगान' के संवादों में केपी ने अवधी के अलावा भोजपुरी और ब्रज-भाषा का भी प्रयोग किया। वे पिछले कुछ अर्से से अपनी आत्मकथा लिख रहे थे।


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02-12-2014, 07:38 PM

के पी सक्सेना

केपी ने बॉटनी में एमएससी किया था और वे लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज में लैक्चरार रहे। उन्होंने ग्रेजुएट क्लासेज़ के लिए बॉटनी विषय पर एक दर्जन से ज्यादा किताबें लिखी हैं। वे इंडियन रेलवे की सर्विस के दौरान स्टेशन मास्टर भी रहे।

आकाशवाणी, दूरदर्शन और मंच के लिए लिखे गए 'बाप रे बाप' और 'गज फुट इंच' नाटकों के अलावा दूरदर्शन के लिए लिखा गया धारावाहिक 'बीबी नातियों वाली' विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

केपी का मुहावराना अंदाज़

अकसर उनकी रचनाएं व्यंग्य से शुरू होकर सीरियस मोड पर खत्म होती हैं। 'सखी रे मनभायो मदनलाल', 'पुराने माल के शौकीन' और 'बैंक लाकर' जैसी बहुचर्चित कविताएं इस बात की तसदीक करती हैं। उनकी कविताओं और नाटकों में गढ़े गए मुहावरे और संवाद लोगों की जुबान पर चढ़ गए। किसी के मरने पर 'बेचारे खर्च हो गये' का मुहावरा ख़ासा लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा 'बहुत अच्छे', 'लपझप' और 'जीते रहिये' जैसे संवाद खूब इस्तेमाल किए जाने लगे। अकसर केपी अपनी लेखनी में नये-नये मुहावरे खुद गढ़ते थे। जैसे स्वदेश फिल्म का एक संवाद - 'अपने ही पानी में पिघलना बर्फ का मुकद्दर होता है'। इसके अलावा इसी फिल्म में कुंवारे चरित्र के लिए कहा गया था - 'भइयाए कब तक चारपार्इ के दोनों तरफ से उठते रहोगे'। उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी उनकी जिंदादिली कायम रही। बुढ़ापे पर उनका नजरिया था - 'बुढ़ापे में जवानी से भी ज्यादा जोश होता है, भड़कता है चिराग-ए-सहरी, जब ख़ामोश होता है'।

जीभ के कैंसर ने छीने स्वर

केपी को जीभ के कैंसर का पता पिछले साल चला। उनका दो बार सर्जरी हो चुकी है। पहली बार जुलाई 2012 में और दूसरी बार मार्च 2013 में। पिछले महीने ही उनकी जीभ में फिर से ग्रोथ का पता चला।


soni pushpa

05-12-2014, 09:30 PM

के पी सक्सेना जी के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने इस सूत्र में रजनीश जी ,, एइसे महान लेखक को सादर श्रध्दांजलि सपर्पित है .


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21-12-2014, 10:08 PM

कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर

https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRLj-MuGfO84cSEbLdFQF-lz0jz9YsYPMvLsevFUQDX7k-FXMLS3w^https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS1OZi2ma6ULuc4T21U6VUMBYrb25g5_ ds2YdDxUL687wWOgCxL


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21-12-2014, 10:11 PM

कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर

एक व्यक्ति अपने बेटे के साथ बाजार गया. ज़रुरत का सामान खरीदने के बाद वे बाजार से घर जाने के लिए अपने रास्ते पर चल दिए. अभी कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें सामने से एक बैल गाड़ी आती हुई दिखाई दी. बैल गाड़ी को और से देखते हुए पिता ने अपने बेटे से कहा,

“बेटे देखो, गाड़ी पर नाव आ रही है.”

बेटे ने भी उधर देखा तो पाया कि बैलगाड़ी पर नाव लदी हुई थी और वे लोग आगे की ओर चले जा रहे थे. यह दृश्य देख कर बालक को कुछ ध्यान आया तो वह अपने पिता से पूछ बैठा,

“पिता जी, नाव तो पानी में चलती है न. यह नाव गाड़ी पर क्यों चल रही है?”

“हाँ, तुम ठीक कहते हो, नाव तो पानी पर ही चलती है. लेकिन बेटा, यह एक नयी नाव है जिसे बढइयों ने बनाया है. अब क्योंकि नाव सड़क पर चल नहीं सकती, इसलिए इसे गाड़ी पर लाद कर नदी की ओर ले जाया जा रहा है. जब नाव नदी के किनारे पर पहुच जायेगी तब इसे पानी में उतारा जायेगा. उस समय यह पानी पर चलना शुरू कर देगी. समझ गये?” पिता ने पुत्र को समझाते हुये कहा.
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21-12-2014, 10:12 PM

कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर

“हाँ, पिता जी.” कुछ देर बाद वे दोनों बातें करते करते घर आ पहुंचे.

कुछ दिनों बाद किसी काम से पिता पुत्र को गाँव से बाहर जाना पड़ा. रास्ते में नदी पडती थी. उसे आर करने के लिए उन्हें नाव पर सवार होना पड़ा.

काम खत्म होने के बाद वे फिर से नदी के किनारे आ पहुंचे और नाँव का इंतज़ार करने लगे. नाँव आने पर वे उस पर सवार हुए और नदी के दूसरे किनारे की ओर जाने लगे. जब उनकी नाव नदी के बीचोबीच पहुंची, तो बालक सामने से आती हुई एक अन्य नाव को देख कर चकित हो कर बोला,

“पिता जी .... वो देखो, सामने से बड़ी नाव आ रही है...”

नाव जब उनके नज़दीक आयी तो कुछ देख कर पुत्र को उस दिन की घटना याद आ गयी. वह बोला, “पिता जी, उस दिन तो गाड़ी के उपर नाव थी लेकिन देखो, आज नाव में गाड़ी है.”

पिता भी उसी दिशा में देख रहे थे. उन्होंने देखा कि नाव पर यात्रियों के साथ साथ एक (बैल) गाड़ी भी सवार थी जिसे दूसरी ओर दूसरे किनारे पर जाना था. पिता ने पुत्र की शंका का समाधान करते हुए कहा, “बेटा, मैंने तुम्हें उस दिन भी बताया था कि नाव पानी पर चलती है, इसलिए सड़क का मार्ग इसे गाड़ी पर तय करना पड़ता है और गाड़ी सड़क का वाहन है और पानी पर नहीं चल सकती, इसलिए नदी का रास्ता इसे नाव पर तय करना पड़ता है. यह तो समय समय की बात है, बेटा. उस दिन नाव गाड़ी पर सवार थी और आज गाड़ी नाव पर सवार है.”

नाव में और लोग भी बैठे हुये इन पिता-पुत्र का वार्तालाप सुन रहे थे. उन लोगों में से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा, “यह तो भाइयो, ऐसे समझ लो कि- कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर.” तभी से यह मुहावरा हमें यदा-कदा सुनाई दे जाता है.

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बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक सूत्र है, रजनीश जी को इस सूत्र के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.


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25-12-2014, 11:18 AM

बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक सूत्र है, रजनीश जी को इस सूत्र के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

अभिषेक जी को सूत्र विजिट करने और ताजा पोस्टों को पसंद करने के लिए व मित्र राजू जी को उक्त उत्साहवर्धक टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.


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07-01-2015, 09:20 PM

मुहावरे की भाषा नहीं बदल सकते

अनेक मुहावरे किसी-न-किसी के अनुभव पर आधारित होते हैं। अतएव यदि उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन या उलटफेर किया जाता है तो उनका अनुभव-तत्व नष्ट हो जाता है। उदाहरणार्थ, ‘पानी जाना’ एक मुहावरा है, इसके बदले में हम ‘जल-जल होना’ नहीं कह सकते। ऐसे ही 'गधे को बाप बनाना' की जगह पर 'बैल को बाप बनाना' और'मटरगश्ती करना' की जगह पर 'गेहूँगश्ती' या 'चनागश्ती' नहीं कहा जा सकता है।


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07-01-2015, 09:26 PM

चवन्नी की याद में
साभार: सैबल चटर्जी

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRddK70NzphVfRnEmibeRD9diKG1ymv5 uJtgMDFAzQpf7rNTYhmLA^https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQVULqBeQ7xACIvMcZ74Z3drzB61frtl 9F4rVlw-PToDet1tckwCg

एक रूपए में सौ पैसे या एक रूपए में चार चवन्नी और एक चवन्नी में 25 पैसे

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने आधिकारिक तौर पर 25 पैसे का सिक्का यानी आम लोगों की चवन्नी का प्रचलन 1 जुलाई 2011 के बाद बाजार में बंद कर दिया था. चवन्नी का हमारे बीच से चला जाना लगभग तय था. सरकार इस बारे मेंबहुत पहले ही सोच चुकी थी, क्योंकि चवन्नी को ढालने में जो लागत आती है, वहइस पर अंकित मूल्य से कहीं अधिक है. लेकिन यह वह सिक्का है, जिसका 'सिक्का' भारतीय समाज के तमाम लोकव्यवहारों, मुहावरों में खूब चलता था. देशके सांस्कृतिक संदर्भ में छोटी-सी चवन्नी का महत्व बहुत बड़ा है.

1958 में प्रदर्शित हास्य फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में एक बेहद मजेदार सीनहै. किशोर कुमार अपने खास हंसोड़ अंदाज में गाना गाते हुए मधुबाला के सामनेघिघियाते हैं कि वह उसके पांच रुपैया बारह आना (पांच रुपये और 12 आना, दूसरे शब्दों में, 5.75 रुपये) वापस कर दे. दरअसल वह उस समय देश की पैसाप्रणाली की अनूठी विशेषता बता रहे होते हैं. किसी भी चलन को भाषाजल्द ही अपना लेती है. यह टकसाली सिक्कों के बारे में भी यह बात उतनी ही सचहै. तभी तो लोगों का सौ फीसदी सच के लिए 'सोलहो आना सच' या 'सोलह आना खरा' (तथ्य है कि 16 आना यानी एक पूरा रुपैया, माने 100 प्रतिशत) जैसे जुमलेजनता का मुंह लगे मुहावरे बन गए.
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07-01-2015, 09:29 PM

चवन्नी की याद में

सच तो यह है कि सरकारी अधिसूचना आने से बहुत पहले ही चार आने का सिक्का या चवन्नी हमारे बटुए या पर्स से गायब हो चुकी थी, लेकिन यह तय है कि आने वाले कई दशकों तक बड़ी शिद्दत के साथ चवन्नी हमारे जेहन में जिंदा रहेगी. हमारी आमफहम शब्दावली, लोकगीत, लोक-कथाएं, लोकोक्तियां, मुहावरे और रोजमर्रा के जुमलों को शुक्रिया कि वे इसे लगातार जीवन देते रहेंगे और इसे जनजीवन का अभिन्न हिस्सा बनाए रखेंगे.

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा चवन्नी को दफना देने का फैसला एक तरह से चवन्नी छाप भारतीयों की आवश्यकता और भावना को नकारना माना जाएगा क्योंकि इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी अपना जीवन प्रतिदिन 50 -60 रुपये की कमाई पर काटता है. तो, अब देश औपचारिक रूप से चवन्नी को आखिरी विदाई देने की दहलीज पर खड़ा है. वह चवन्नी जिसके साथ आम जनता ने इतने बरस गुजारे, जो उसकी पूरी संस्कृति का साथी बना रहा, क्या हमें उसके शोक में दो आंसू नहीं बहाने चाहिए? जरा सोचिए, 30 जून के बाद उन करोड़ों हिंदू श्रद्धालुओं का क्या होगा, जो देश भर के मंदिरों में सवा रुपये का प्रसाद या चढ़ावा चढ़ाते थे, दान देते थे? एक रुपया तो खैर मिल जाएगा, पर चार आना कहां से लाएंगे? हम इन सभी भक्तों के साथ सहानुभूति रखते हुए, इन्हें बस भगवान भरोसे ही छोड़ सकते हैं, अब सर्वशक्तिमान ही इनके लिए कोई रास्ता निकाले.

थोड़ी देर के लिए, अपने विकास के ग्राफ को जरा साफ-साफ आर्थिक परिप्रेक्ष्य में आंकिए. एक समय था, जब इस अदने से चार आने से भी कुछ खरीदा जा सकता था - इससे इतर बरसों पहले 1950 में जब कोका कोला हमारे देश में अवतरित हुआ, तो उसकी एक बोतल महज 25 पैसे में मिल जाती थी. आज यही कोका कोला तब के तकरीबन 48 गुना ज्यादा दाम पर बिक रहा है. यह, यह बताने के लिए काफी है कि मुद्रास्फीति (जिसे विगत कई सालों से दस प्रतिशत के इर्द गिर्द माना जाता है) किस कदर बढ़ गई है.


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07-01-2015, 09:30 PM

चवन्नी की याद में

भारत भी अब सरपट दौडऩे वाली मुद्रास्फीति की चपेट में आया देश है. इस दौर में छोटे सिक्कों की क्या बिसात, अब यहां चवन्नी की फिक्र किसको है. सच तो यह है कि चवन्नी जब चलन में था, तब भी आखिरी कुछ समय में भिखारी तक इसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ लेते थे. वैसे असलियत तो यह है कि चवन्नी तो क्या अठन्नी को भी बाजार से बाहर हुए अरसा बीत गया. हममें से शायद ही किसी को याद हो कि आखिरी बार चवन्नी का इस्तेमाल क्या खरीदने के लिए, कब किया था.

हां, घर के बूढ़े-बुजुर्ग जरूर यह कह कर सस्ती के दौर का जिक्र करते सुनाई दे जाते हैं कि उनके जमाने में तो शुद्घ देसी घी भी चार आने का सवा किलो मिलता था. वैसे नमक, चायपत्ती की पुडिय़ा, माचिस और पोस्टकार्ड के साथ तो चवन्नी का रिश्ता अलग-अलग कालखंडों में इनसे खास तौर पर जुड़ा रहा है. पर अब तो यह अतीत की बात हो चली है. भारत में चवन्नी का दर्शन करने के लिए अब हमें भले ही संग्रहालय का रूख करना पड़े, लेकिन अमेरिका में इकन्नी या डॉलर का शतांश, सेंट अभी भी खूब चलन में है. वैसे जिस चवन्नी को आज सरकार ने अतीत का हिस्सा बना दिया है, उसका संबंध राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से भी जुड़ा रहा है. आजादी के दौर में एक नारा खूब मशहूर हुआ था- 'खरी चवन्नी चांदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की.'

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DevRaj80

07-01-2015, 09:32 PM

बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक सूत्र है पहली बार में ही दिल को छु गया ...

धन्यवाद रजनीश जी ...


DevRaj80

07-01-2015, 09:46 PM

रेटेड ५ स्टार


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07-01-2015, 09:55 PM

बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक सूत्र है पहली बार में ही दिल को छु गया ...

धन्यवाद रजनीश जी ...

रेटेड ५ स्टार

मित्र देवराज जी को सूत्र पसंद करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.


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07-01-2015, 10:04 PM

चैतन्य जीवो की ध्वनियों पर आधारित मुहावरे या लोकोक्तियाँ

पशु-वर्ण की ध्वनियों पर आधारित - टर-टर करना, भों-भों करना, में-में करना, आदि।
पक्षी और कीट-पतंगों की ध्वनियों पर आधारित - कांव-कांव करना, कुकड़ू-कूं बोलना, भिन्ना जाना आदि।

जड़ वस्तुओं की ध्वनियों पर आधारित मुहावरे - फुस-फुस करना, फुस-फुसाहट होना, टनाटन होना आदि।

तरल पदार्थों की गति से उत्पन्न ध्वनि पर आधारित - कल-कल करना, कुल-कुल करना या होना, गड़-गड़ करना, आदि।

वायु गति से उत्पन्न ध्वनि पर आधारित - सर-सराहट होना, सांय-सांय करना, आदि

क्या आप इन श्रेणिओ में कोई मुहावरे जोड़ सकते हैं?

बड़ बड़ करना या बड़बड़ाना, दांत पीसना, दांत कटकटाना, दांत निपोरना आदि.


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07-01-2015, 10:05 PM

मुहावरे या लोकोक्तियाँ
डेविड बैकहम और चीनी टैटू

चीन में सन 2008 में संपन्न हुये बीजिंग ओलंपिक के दौरान दुनिया भर में चीनी भाषा को काफी बढ़ावा मिला है। चीनी भाषा को सबसे कठिन भाषाओं में गिना जाता है, लेकिन ओलंपिक ने इसकी लोकप्रियता में काफी हद तक इजाफा किया है।

चीन की समाचार एजेंसी 'सिन्हुआ' के अनुसार इंग्लैंड के फुटबाल स्टार डेविड बेकहम इस भाषा से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी कमर पर चीनी भाषा के एक मुहावरे का टैटू गुदवा लिया, जिसका अर्थ है, 'इंसान की तकदीर भगवान के हाथों में होती है’।


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26-01-2015, 01:21 PM

लूट का माल

‘लूट का माल’ मुहावरा या शब्द समूह हमें हिंदी साहित्य में मिलता है, वह विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं की और विदेशी लेखकों की ही देन है। क्योंकि वहां इस शब्द का बार-बार और अतिरंजित शैली में प्रयोग किया गया है। इसलिए अपने लिए घातक होते हुए भी इस शब्द समूह को हिंदी में मुहावरे के रूप में अपना लिया गया है।

जब गोरी अपने देश गजनी पहुंचा तो उसने भारत की लूटों का और लूट के माल का बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया। समकालीन इतिहास लेखकों के माध्यम से भी हमें इसकी वास्तविक जानकारी मिलती है। 1400 ऊंटों पर गोरी भारत के लूट के माल को लेकर गजनी की ओर चला था। भारत पर गोरी ने जिन उद्देश्यों से प्रेरित होकर आक्रमण किया था उनके विषय में अधिकांश इतिहासकारों ने वर्णन करते समय भारत से असीम धन प्राप्ति की इच्छा को भी एक महत्वपूर्ण कारण माना है। काजी ने जब उसे भारत की ओर बढ़कर साम्राज्य विस्तार की प्रेरणा दी थी तो उसके पीछे साम्राज्य विस्तार, इस्लाम की सेवा और भारत से मिलने वाला असीम धन उसकी प्रेरणा को भी प्रेरित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारण था। अत: अब जब गोरी ने भारत में इस्लामिक साम्राज्य का विस्तार भी कर लिया था और इस्लाम की सेवा करते करते भारत से असीम धन भी प्राप्त कर लिया था तो यहां से अपने गुरू काजी के लिए कुछ ‘अनमोल भेंट’ ले जाना उसका कर्तव्य था और इसके लिए (जयचंद की पुत्री) कल्याणी और (पृथ्वीराज की पुत्री) बेला से उत्तम कोई भेंट उसकी दृष्टि में और नही हो सकती थी।

(कहते हैं कि कल्याणी और बेला ने स्वधर्म की रक्षा करते हुए युक्तिपूर्वक आत्मघात कर लिया था)
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27-01-2015, 07:45 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान
साभार: प्रणव भारती

http://sr.photos2.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP990/k11208214.jpg

एक कौआ नदी किनारे गया. सरदी के मौसम में वो गरीब ठन्डे पानी के विचार से ही कांप गया.


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27-01-2015, 07:47 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

फिर पानी में उतरा. वह सोचने लगा की स्नान करूँ या न करूँ.

http://sr.photos3.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP681/k6818245.jpg


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27-01-2015, 07:52 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

तब उसने अपनी पत्नी से पूछा, “नहाना जरुरी है क्या? बिना नहाए काम नहीं चलेगा?

http://sr.photos1.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP823/k8230861.jpg


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27-01-2015, 07:58 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

उसकी पत्नी ने डाल पर से उसे आँखें तरेर कर देखा और कहा, “अच्छा तुम अभी तक सोच ही रहे हो?”

http://sr.photos1.fotosearch.com/bthumb/UNS/UNS017/u17517940.jpg


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27-01-2015, 08:00 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

कौए ने कहा, “हाँ, हाँ, नहाता हूँ. मैं तो यूँ ही पूछ रहा था.” फिर वो नदी की और धीरे धीरे चल पड़ा, धीरे, धीरे. बेमन से...

http://sr.photos2.fotosearch.com/bthumb/UNS/UNS015/u11058394.jpg


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27-01-2015, 08:02 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

वह पानी के कुछ और नज़दीक पहुंचा और लगा घूरने जान के दुश्मन पानी को.

http://sr.photos1.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP905/k9055721.jpg


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27-01-2015, 08:04 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

उसने पत्नी की आँख बचा कर, जल्दी से पानी में पैर भिगो लिए और फुर्र-फुर्र करके छींटे उड़ाए. बस हो गया कौआ स्नान.

http://sr.photos1.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP904/k9049051.jpg


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27-01-2015, 08:07 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

एक बार चोंच में पानी ले कर गर्दन पर छिड़क लिया, देखो तो गर्दन कैसे झुंझलाई सी फूली सी हो गयी है? बेचारा कौआ !!

http://sr.photos3.fotosearch.com/bthumb/CSP/CSP927/k9272323.jpg


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27-01-2015, 08:10 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

नहाने के बाद अब तो उसकी शक्ल ही अजीब सी हो गई है.....बेचार, सूखने को एक चट्टान पर जा बैठा है !

https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQk6-SOC3-M8hEG6NMA_clsL5cL-7M7HY5IALvPtMuF13a0cAFfuA


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27-01-2015, 08:19 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

कौए की पत्नी ने शक करते हुए पूछा, “अब तक नहाए भी कि नहीं?”

https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTHNVK7OEhl2W_ubadRF6ixYvL-eT5Cje-Qq6KzTCqxTMBFG1AI


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27-01-2015, 08:23 AM

हिंदी मुहावरा / कौआ स्नान

बेचारा डरा हुआ सा और कुछ खीझता हुआ बोला, “अरे भागवान, नहा तो लिया....!!”

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTHAZ_Ser_iyyZ6dFwZaCu9Es5ZVyY0Q QlH6HeidvPvvgXT_AWugQ

तो मित्रो अब आप समझे!! इसे कहते हैं कौआ स्नान !!


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27-02-2015, 08:49 PM

हिंदी मुहावरा / उलटे बांस बरेली को
बलजीतबासी

यूपी के शहर बरेली को ही बांस बरेली कहा जाता है. यहाँ बांस बहुत होते हैं तो वहां बांस ले जाने का कोई तुक नहीं, इसीलिए निरर्थक काम के अर्थों में यह कहावत बनी. खोज से पता चला कि बांस बरेली नाम यहाँ अधिक बांस होने से नहीं, बल्कि यहाँ के किसी राजे के दो बेटों, बांसलदेव औरबरालदेव के नामों से पड़ा .

अंग्रेज़ी में भी ऐसी कहावत है to carry coals to Newcastle. जर्मनमें कहावतहै taking owls to Athens समझा जाता है कि एथेन्ज़ के लोग बहुत अक्लमंद होते हैं इसलिए उनको और अकल देने का क्या लाभ.

हमारे विपरीत, यूरोप में उल्लू को अक्लमंद समझा जाता है. यहाँ से मैं आपको एक और अपने मुहावरे की ओर ले जाता हूँ अपना उल्लू सीधा करना. मुझे अभी तक समझ में नहीं आया यह कैसे अक्लमंद बना होगा. कोई समझा सकता है?


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27-02-2015, 08:56 PM

हिंदी मुहावरा /अपना उल्लू सीधा करना
अभय तिवारी

'अपना उल्लू सीधा करने' की जगह फ़ैलन के मुहावरा कोष में 'अपनाउल्लूकहींनहीं गया' दिया है.. अर्थ वही है कि कोई न कोई मिल ही जाएगा उल्लू बनाने के लिए.. या सवारी करने के लिए.. यहाँ पर ये उल्लेखनीय है कि उल्लू लक्ष्मी जी की सवारी है.. उल्लू पर ही बैठकर लक्ष्मी आती हैं.. बिना उल्लू के कैसे आयेंगी.. तो किसी एक को उनकी लिए सवारी बनकर उनके आगे का मार्ग प्रशस्त करना होगा..
इसी से मिलती बात है उल्लू बनाना.. इसे ऊपर की व्याख्या के प्रकाश में देंखेगे तो मतलब यही निकलेगा.. किसी एक को वाहन बनना होगा.. सारा बोझा उसे ही ढोना होगा.. मगर उसे कुछ नहीं मिलेगा..

मार्क्स ने भी पूँजी के निर्मा की ऐसी ही व्याख्या की है. मज़दूर के मेहनताने का एक हिस्सा पूंजीपति रख लेता है और उससे कैपिटल की रचना होती है तंत्र में इसे बलि देने के समान्तर समझा जा सकता है.


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28-02-2015, 07:16 PM

हिंदी मुहावरा /आँखों की सुइयाँ निकालना
भावार्थ: किसी अधूरे पड़े काम को पूरा करना)

यह एक पुरानी कहावत है. लोक मानस में प्रचलित धारणा के अनुसार यदि आटे की मूर्ति बना कर शत्रु का नाम लेते हुए उसमे सुइयाँ चुभोई जायें और उसके मरने की कामना की जाये और बाद में उस मूर्ति को मरघट में रख दिया जाये तो उस व्यक्ति के अंगों में उसी तरह से सुइयाँ चुभ जायेंगी तथा उसकी मृत्यु हो जायेगी. लेकिन यदि किसी को तरकीब आती हो तो वह मृत व्यक्ति को जीवित भी कर सकता है. जीवित करने के लिए मंत्र पढ़ते हुए उन सुइयों को निकालना जरुरी है. इसी टोटके पर आधारित एक कहानी इस प्रकार है:

किसी ने उक्त विधि के अनुसार एक व्यक्ति को मार डाला. उसकी स्त्री जादू जानती थी. उसने पति को जीवित करने के लिए उसके शरीर से एक एक कर सभी सुइयाँ निकाल दीं. जब आँखों की सुइयाँ निकालने का समय आया तो बाहर से किसी ने उसे बुला लिया. वह बाहर चली गयी. इतने में उस घर में काम करने वाली नौकरानी वहाँ आ पहुंची. उसे भी वह तरकीब आती थी. उसने मंत्र पढ़ते हुए उस आदमी की आँखों से सुइयाँ निकाल दीं. इसके बाद वह आदमी जीवित हो गया. जीवित होने के बाद उसने आँखें खोली तो उसने नौकरानी को वहाँ देखा. वह सोचने लगा कि हो ना हो नौकरानी ने ही उसकी जान बचाई है. उसने अपनी पत्नी को त्याग कर उस नौकरानी से विवाह कर लिया. बाद में पता चला कि उस नौकरानी ने ही सारा षड़यंत्र रचा था.


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01-04-2015, 08:14 PM

हिंदी मुहावरा
नदी में रह कर मगर से बैर (1)

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT3TvJn4UJbXk8UAoyjHNHwxESkZxO8X Iqvq2HvPTEkT1UjjyPn

शिप्रा नदी के किनारे एक बड़ा-सा जामुन का पेड़ था। उस पेड पर एक बंदर रहता था। नीचे नदी में एक मगरमच्छ अपनी बीवी के साथ रहता था। धीरे-धीरे मगरमच्छ और बंदर में दोस्ती हो गई।

बंदर पेड़ से मीठे-मीठे रसीले जामुन गिराता था और मगरमच्छ उन जामुनों को खाया करता था। एक बार कुछ जामुन मगरमच्छ अपनी बीवी के लिए ले गया।

मीठे और रसीले जामुन खाने के बाद मगरमच्छ की पत्नि ने सोचा कि जब जामुन इतने मीठे हैं तो इन जामुनों को रोज खाने वाले बंदर का कलेजा कितना मीठा होगा?


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01-04-2015, 08:44 PM

उसने मगरमच्छ से कहा कि तुम अपने दोस्त बंदर को घर लेकर आना। मैं उसका कलेजा खाना चाहती हूँ।

अगले दिन जब नदी किनारे मगरमच्छ और बंदर मिले तो मगरमच्छ ने बंदर को अपने घर चलने के लिए कहा। बंदर ने कहा कि मैं तुम्हारे घर कैसे चल सकता हूँ? मुझे तो तैरना नहीं आता।

तब मगर ने कहा कि मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बैठा कर ले चलूँगा। मगरमच्छ की पीठ पर बैठकर नदी में घूमने और उसके घर जाने के लिए बंदर ने तुरंत हाँ कर दी।

बंदर झट से मगर की पीठ पर बैठ गया। मगरमच्छ नदी में उतरा और तैरने लगा। बंदर पहली बार नदी में सैर कर रहा था। उसे बहुत मजा आ रहा था। दोनों दोस्तों ने आपस में बातचीत करना शुरू कर दी।

आपस में बात करते हुए वो दोनों नदी के बीच में पहुँच गए। बातों-बातों में मगर ने बंदर को बताया कि उसकी पत्नी ने बंदर का कलेजा खाने के लिए उसे बुलाया है।

मगरमच्छ के मुँह से ऐसी बात सुनकर बंदर को झटका लग गया। उसने सोचा कि नदी में रह कर मगर से मोल लेना ठीक नहीं होगा । उसने खुद को संभालते हुए कहा कि दोस्त ऐसी बात तो तुझे पहले ही बताना थी। हम बंदर अपना कलेजा पेड़ पर ही रखते हैं। अगर तुम्*हें मेरा कलेजा खाना है तो मुझे वापस ले जाना होगा।

मैं पेड़ से अपना कलेजा लेकर फिर तुम्हारी पीठ पर सवार हो जाऊँगा। हम वापस तुम्हारे घर चलेंगे। तब भाभीजी मेरा कलेजा खा लेंगी।

मगर ने बंदर की बात मान ली और वह पलटकर वापस नदी के किनारे की ओर चल दिया। नदी के किनारे पर आने के बाद मगर की पीठ से बंदर उतरा। उसने मगर से कहा कि वो अपना कलेजा लेकर अभी वापस आ रहा है।

बंदर पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ पर चढ़ने के बाद बंदर ने मगर से कहा कि आज से तेरी मेरी दोस्ती ख़त्म। बंदर अपना कलेजा पेड़ पर रखेंगे तो जिंदा कैसे रहेंगे?

इस तरह अपनी चतुराई से बंदर ने अपनी जान बचा ली और मूर्ख मगरमच्छ मुँह लटकाकर लौट गया।

(पंचतंत्र की कहानी पर आधारित)


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01-04-2015, 08:51 PM

हिंदी मुहावरा
नदी में रह कर मगर से बैर (2)

https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRQ3FkVZpx2a_zV4ti3QQBYy08mMkJu1 NG325Dr8W7k7BEF-52b

किसी शहर में एक नवयुवक रहता था. उसकी शादी दूर दराज के एक गाँव में हुई. उसके ससुर बड़े धनवान थे. शादी बहुत धूम धाम से संपन्न हुई. लेकिन डोली चलने से पहले ही वहाँ डाकू आ धमके. उन्होंने आते ही लूटपाट शुरू कर दी. पहले दहेज के माल पर कब्जा किया. फिर बारातियों और लड़की के परिवारजनों के सोने चांदी के आभूषण और अन्य वस्तुएं लूटने के बाद डाकू वहां से रफ़ू चक्कर हो गये. सुबह होने पर दामाद ने अपने ससुर से कहा, “ससुर जी, यह तो बहुत बुरा हुआ. आइये अब कम से कम इस लूट की रिपोर्ट तो लिखवा दें.”

ससुर ने जवाब दिया, “बेटा, तुम यहाँ के चलन को नहीं जानते हो. जो हुआ उसे जाने दो.”

दामाद ने पूछा, “क्या यहाँ पर ऐसी वारदात की कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाता?”

ससुर ने जवाब दिया, “क्यों नहीं लिखवाता, लिखवाते तो हैं.”

दामाद ने इस पर कहा, “तब आप भी मेरा कहा मान कर रोप्त लिखवा दें.”
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01-04-2015, 08:53 PM

बारात तो चली गई लेकिन लड़का और उसका पिता वहीँ रह गए. सेठ जी अपने दामाद और समधी को ले कर थाने पहुंचे. थानेदार ने सेठ जी को देखा तो उनका स्वागत किया और घर से कुर्सियां मंगवा कर सेठ जी और उनके मेहमानों को बिठाया. दामाद को तो टीका लाया और समधी को मिलनी में चाँदी का एक रूपया भी दिया. थानेदार ने सेठ जी को आदरपूर्वक विदा किया लेकिन सेठ जी ने लूट की रिपोर्ट लिखाने का ज़िक्र भी न किया.

ऐसी खातिर होती देख कर दामाद और समधी दंग रह गए. थानेदार की विनम्रता देख कर वह आश्चर्यचकित हो गए. समधी के मन में विचार आया की थानेदार इतना मिलनसार और भला आदमी है, फिर भी सेठ जी ने रिपोर्ट नहीं लिखवाई.

उधर दामाद सोच रहा था कि मेरे ससुर भी अजीब आदमी हैं जो अपना हक़ भी नहीं लेना चाहते.

वापसी में समधी और दामाद सेठ से लड़ने लगे. उनका कहना भी जायज़ था.

सेठ जी चलते चलते रुक गए. उन्होंने उन दोनों को बताया, “देखो, मैं मूर्ख नहीं हूँ. तुमने देखा कितना सम्मान किया दरोगा ने तुम दोनों का. जो कुर्सियाँ उसने अपने घर से मंगवाई थीं, वो हमारी थीं जिसे रात को डाकू ले गए थे. वह चाँदी का रूपया भी हमारा ही था जो थानेदार ने तुम्हें दिया था.
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01-04-2015, 08:55 PM

मैंने दरोगा को तुम्हारी शादी की दस्तूरी नहीं भिजवाई थी. इसलिए उसने सारा दहेज ही उठवा लिया.

दामाद ने पूछा, “दस्तूरी क्या?”

सेठ बोला, “यह भी एक तरह का लगान है, स्थानीय टैक्स की तरह.”

दामाद डर कर बोला, “थानेदार तो अभी और बदला ले सकता है?”

“हाँ, इसीलिये मैंने रिपोर्ट लिखवाने की गलती नहीं की. नदी में रह कर मगर (मच्छ) से बैर ठीक नहीं.” सेठ ने कहा.

सभी ने समर्थन में सर हिलाया और वहाँ से चल दिए.
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02-04-2015, 09:51 AM

मुहावरा / हमाम में सब नंगे

राजनीति के बारे में बात करते हुए अक्सर कहा जाता है कि हमाम में सब नंगे हैं. यह मुहावरा हमारे यहाँ आम बोलचाल में काफी प्रयोग में लाया जाता है यद्यपि राजनीति में इसका लाक्षणिक अर्थ निर्लज्ज होना या सिद्धान्तविहीन व्यवहार करने से लगाया जाता है. लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि हमाम आखिर होता क्या है. हमाम असल में किसी साबुन का नाम नहीं बल्कि अरब देशों का सामूहिक स्नानगृह है. पानी बचाने के लिए अरब देशों में हमाम की परंपरा शुरू हुई. महिलाएं और पुरुष हमाम में जाकर लाइन में लगते हैं. नंबर आने पर मालिश, फिर त्वचा की सफाई होती है, उसके बाद एक बड़े से बरामदे नुमा तालाब में निर्वस्त्र होकर नहाया जाता है.

कुछ साल पहले तक नौजवान लोग महिलाओं वाले हमाम में ताक झांक भी करते थे. प्रेम कहानियां बनती थीं. शादी के वक्त दूल्हे को चिढ़ाया जाता था कि तेरी पत्नी हमाम में ऐसी दिखती है. हमाम न सिर्फ स्नानगृह था बल्कि उससे कहीं ज्यादा एक संस्कृति माना जाता रहा, कई कहानियों और कविताओं को जन्म देने वाला हमाम.

लेकिन अब अरब देशों में हमाम का चलन फीका पड़ता जा रहा है. घर घर में नल और बाथरूम होने की वजह से लोगों ने हमाम जाना कम कर दिया है. तुर्की की राजधानी इंस्ताबुल में कई ऐतिहासिक हमाम बंद हो चुके हैं. कई हमाम कॉफी हाउस में बदल दिए गए हैं. जो बचे हैं वह भी आधुनिकता के मेकअप से पुत गए हैं.

पुराने हमामों का दौर खत्म हो गया है. महिलाएं पहले हमाम में अकेली होती थीं, लेकिन अब वह पब, सिनेमा और शॉपिंग करने जा सकती हैं. घर घर में बाथरूम हैं. लेकिन परंपरा के रूप में उसका महत्व बढ़ रहा है. तुर्की में पर्यटन उद्योग में हमाम एक बड़ा आकर्षण है.


soni pushpa

02-04-2015, 11:54 AM

मुहावरा / हमाम में सब नंगे

राजनीति के बारे में बात करते हुए अक्सर कहा जाता है कि हमाम में सब नंगे हैं. यह मुहावरा हमारे यहाँ आम बोलचाल में काफी प्रयोग में लाया जाता है यद्यपि राजनीति में इसका लाक्षणिक अर्थ निर्लज्ज होना या सिद्धान्तविहीन व्यवहार करने से लगाया जाता है. लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि हमाम आखिर होता क्या है. हमाम असल में किसी साबुन का नाम नहीं बल्कि अरब देशों का सामूहिक स्नानगृह है. पानी बचाने के लिए अरब देशों में हमाम की परंपरा शुरू हुई. महिलाएं और पुरुष हमाम में जाकर लाइन में लगते हैं. नंबर आने पर मालिश, फिर त्वचा की सफाई होती है, उसके बाद एक बड़े से बरामदे नुमा तालाब में निर्वस्त्र होकर नहाया जाता है.

कुछ साल पहले तक नौजवान लोग महिलाओं वाले हमाम में ताक झांक भी करते थे. प्रेम कहानियां बनती थीं. शादी के वक्त दूल्हे को चिढ़ाया जाता था कि तेरी पत्नी हमाम में ऐसी दिखती है. हमाम न सिर्फ स्नानगृह था बल्कि उससे कहीं ज्यादा एक संस्कृति माना जाता रहा, कई कहानियों और कविताओं को जन्म देने वाला हमाम.

लेकिन अब अरब देशों में हमाम का चलन फीका पड़ता जा रहा है. घर घर में नल और बाथरूम होने की वजह से लोगों ने हमाम जाना कम कर दिया है. तुर्की की राजधानी इंस्ताबुल में कई ऐतिहासिक हमाम बंद हो चुके हैं. कई हमाम कॉफी हाउस में बदल दिए गए हैं. जो बचे हैं वह भी आधुनिकता के मेकअप से पुत गए हैं.

पुराने हमामों का दौर खत्म हो गया है. महिलाएं पहले हमाम में अकेली होती थीं, लेकिन अब वह पब, सिनेमा और शॉपिंग करने जा सकती हैं. घर घर में बाथरूम हैं. लेकिन परंपरा के रूप में उसका महत्व बढ़ रहा है. तुर्की में पर्यटन उद्योग में हमाम एक बड़ा आकर्षण है.

मुहावरों की सब कहानियां बहुत बढ़िया रही रजनीश जी ... बधाई


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03-04-2015, 05:22 PM

मुहावरों की सब कहानियां बहुत बढ़िया रही रजनीश जी ... बधाई

सूत्र पर दी गयी सामग्री पसंद करने के लिए आपका आभारी हूँ, पुष्पा सोनी जी. धन्यवाद.


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03-04-2015, 05:23 PM

नदी में रह कर मगर से बैर (3)

एक नदी में तरह तरह की मछलियाँ रहती थीं. आस पास के गाँवों के बच्चे नदी किनारे आ कर खेलते और मछलियों को तैरता देखते और उनके बच्चों को पकड़ने की कोशिश करते लेकिन मछलियों के बच्चे उनके हाथ नहीं आते थे. कभी कभी किनारे पर कछुए भी दिखाई दे जाते थे.

उसी नदी में एक मगर (मगरमच्छ) भी रहता था. वह मरघट के पास ही रहता था. वहीँ नज़दीक ही धोबी घाट भी था. वह मगर मरघट पर मुर्दों को खा कर अपना पेट भरता था. धोबी घाट की दिशा में चक्कर लगाया करता था. यूँ वह शोर शराबे से दूर ही रहा करता. धोबी घाट के नज़दीक ही लोगों के स्नान करने वाला घाट भी था. इस तरफ वह जब भी चक्कर लगता, दोपहर के सन्नाटे में ही आता. धोबी घाट पर गाँव के सारे धोबी कपड़े धोया करते थे. काम करते करते थक जाते तो दोपहर में पेड़ की छाया में बैठ कर भोजन करते और आराम करते. बुजुर्ग लोग तथा बच्चे पेड़ की छाया में बैठ कर विश्राम करते और पुरूष व महिलायें पानी के किनारे कपडे धोते रहते.

धोबी घाट पर आये लोगों को मगर अक्सर दिखाई दे जाता. उसकी पीठ पर एक कछुआ भी दिखाई देता. लोगो का कहना था कि उन दोनों में दोस्ती थी इसलिए साथ ही रहते थे.

कुछ दिन बाद मगर आता लेकिन साथ में कछुआ नहीं होता था. लोगों ने यह समझा कि या तो कछुआ मर मरा गया है या उन दोनों की दोस्ती ख़त्म हो गयी है. लेकिन कुछ ही दिनों बाद लोगों ने देखा कि मगरमच्छ कछुये का पीछा करता दिखाई पड़ा. सब जान गए कि उन दोनों की दोस्ती शत्रुता में बदल गयी है. एक दिन उन्होंने देखा कि कछुआ छपाक से नदी के किनारे आ लगा. वह अभी संभल भी न पाया था कि मगर ने उसे अपने नुकीले दाँतों में दबोच लिया और कुछ ही क्षणों में उसे निगल गया.

यह दृश्य देख कर सब लोगों को बहुत बुरा लगा और दुःख हुआ. उनमे से एक पके बालों वाले बुजुर्ग ने उस ओर देखते हुए एक लम्बी आह भरी और फिर बोला, “जल में रह कर मगर से बैर संभव नहीं है.” यह सुन कर सभी सकते में आ गए.
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06-07-2015, 10:52 PM

आया कुत्ता ले गया, तू बैठी ढोल बजा

भावार्थ: अपनी धुन में इतना मस्त हो जाना कि आसपास क्या हो रहा है, इसका भी ध्यान न रहना

पहली कथा: एक मिरासिन किसी दावत में गयी. वहाँ वह ढोल बजाने में इतनी खो गयी कि उसके सामने पड़ी खाने की पत्तल कुत्ता उठा कर ले गया और उसे पता भी नहीं चला.

दूसरी कथा: इस संबंध में एक और कथा भी है. एक बार हज़रत अमीर ख़ुसरो किसी गांव से गुज़र रहे थे. उन्हें जोर की प्यास लगी थी. उन्होंने देखा कि एक कुयें पर चार औरतें पानी भर रही थीं. एक औरत उन्हें पहचान कर बोली कि आप हमारी कही चीजों पर शायरी करें तो हम आपको पानी पिला देंगे. ख़ुसरो ने इसे मंजूर कर लिया. तब उनमे से एक ने कहा- आज हमारे घर खीर बनी है, इस पर कुछ कहें. दूसरी ने कहा- मेरे चरखे पर कुछ कहें. सामने खड़े कुत्ते पर कुछ कहिये. चौथी ने कहा- मेरे ढोल पर कुछ कहिये. ख़ुसरो ने चारों की इच्छा पूरी करते हुये कहा-

खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चला
कुत्ता आया खा गया, तू बैठी ढोल बजा

यह सुन कर सब बहुत ख़ुश हुईं और उन्हें पानी पिला दिया.


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10-08-2015, 11:24 PM

कहावत: आला ! दे निवाला !

(आला = दीवार में बने हुए छोटे बड़े खाने या ताक)
अर्थ: ऐ ताक! तू मुझे रोटी का निवाला दे.

कथा:
किसी राजा को एक भिखारन की सुंदर बेटी से प्यार हो गया और उससे शादी कर ली. महलों में आकर भी उस भिखारन की भीख मांगने की आदत नहीं छूटी. वह अपने कमरों की ताकों में रोटी रख कर कहती, “आला ! दे निवाला”. यह कह कर वह जैसे भीख माँगा करती. कहने का भाव यह है कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों की या बचपन में लगी पुरानी आदत जल्द नहीं छूटती.


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10-03-2016, 08:09 AM

दिल को ठंडक पहुँचना
साभार: चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद

कल ही की बात है जब मैं ब्लागदर्शन कर रहा था तो ब्लागगुरू बी.एस.पाब्ला जी का ब्लाग ‘ज़िंदगी के मेले’ पर उनका सफ़रनामा मिला। मोटर साइकल पर यात्रा करते हुए सुंदर चित्रों के साथ दिल दहलाने वाले ठंडक का वर्णन भी था। इस लेख के अंत में वे बताते हैं-

‘गरदन घुमा कर पीछे देखा तो मैडम जी चारों खाने चित्त धरती पर! हड़बड़ा कर मैं उतरा, गाड़ी खड़ी की और हाथ बढ़ाया कि उठो। लेकिन लेटे लेटे ही उलझन भरी आवाज़ आई ‘मेरे हाथ कहाँ हैं, मेरे पैर कहाँ हैं?’ तब महसूस हुआ कि बर्फीली ठण्डी हवाओं के मारे हाथ पैर ही सुन्न हो गए हैं।’

ठंड के विविध आयाम मस्तिष्क में घूमने लगे और सोंचते सोचते बात दिल को ठंडक पहुँचाने तक चली गई। ठंड में आदमी अकड जाता है तो शरीर सुन्न हो जाता है और जब हिमाकत में अकड़ जाता है तो मस्तिष्क सुन्न होगा। इस हिमाकत में वो क्या कर बैठे, कुछ पता नहीं, पर यदि उसकी हिमाकत कामियाब हो गई तो उसके दिल को ठंडक पहुँचेगी।

हर व्यक्ति के लिए ठंड की व्याख्या भी अलग होती है। आमीर खान के लिए ठंडा मतलब कोका कोला! किसी हिरोइन के लिए गाने की सीन क्रिएट होगी और वो गाने लगेगी- मुझे ठंड लग रही है...। कभी हीरो भी ठंड की शिकायत में कांपते हुए कहेगा- सरका लो खटिया...। इस प्रकार फिल्मी दुनिया में भी ठंड का बडा रोल होता है, वैसे ही जैसे बारिश या बर्फ़ का! यह और बात है कि यह ठंड कभी अश्लीलता के बार्डर लाइन तक पहुँच जाती है और डायरेक्टर को ‘कट’ कहना पड़ता है और यदि वो चूक गया तो नकटा मामू सेंसर तो है ही। खलनायक की छाती में ठंडक उस समय पडती है जब वो किसी को ठंडा कर देता है। हीरो तो ठंडे मिजाज़ का होता ही है और उसे देख कर विलेन के हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं। है ना, फ़िल्मों में ठंड के विविध आयाम!!!

साहित्य में भी ठंड ने अपना रोल अदा किया है। मुहावरों की शक्ल में ठंड का उपयोग आम बात है जैसे, आँख की ठंडक किसी भी प्रेमी को दिल की ठंडक पहुँचा ही देती है। जब प्रेमिका का बाप दिख जाता है तो प्रेमी को ठंडे पसीने छूटना स्वाभाविक बात ही कही जाएगी। हो सकता है कि प्रेम की पींगे बढ़ने के पहले ही उनके इस प्रेम-प्रसंग पर ठंडा पानी फिर जाय। यदि प्रेमिका को बाप के रूप में विलेन दिखाई दे तो बाप-बेटी के रिश्तों में ठंडक आ जाएगी। यह और बात है कि दो प्रेमियों को अलग करके बाप के कलेजे में ठंडक पड़ जाएगी।

अब आप ठंडे दिमाग से सोचिए कि ठंड हमें कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है।


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15-03-2016, 02:02 PM

भेड़ की खाल में भेड़िया

बहुत समय पहले की बात है .....

एक चरवाहा था जिसके पास 10 भेड़े थीं। वह रोज उन्हें चराने ले जाता और शाम को बाड़े में डाल देता। सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक सुबह जब चरवाहा भेडें निकाल रहा था तब उसने देखा कि बाड़े से एक भेड़ गायब है। चरवाहा इधर-उधर देखने लगा, बाड़ा कहीं से टूटा नहीं था और कंटीले तारों की वजह से इस बात की भी कोई सम्भावना न थी कि बहार से कोई जंगली जानवर अन्दर आया हो और भेड़ उठाकर ले गया हो।
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चरवाहा बाकी बची भेड़ों की तरफ घूमा और पुछा :- "क्या तुम लोगों को पता है कि यहाँ से एक भेंड़ गायब कैसे हो गयी…क्या रात को यहाँ कुछ हुआ था.?”
सभी भेड़ों ने ना में सर हिला दिया।

उस दिन भेड़ों के चराने के बाद चरवाहे ने हमेशा की तरह भेड़ों को बाड़े में डाल दिया। अगली सुबह जब वो आया तो उसकी आँखें आश्चर्य से खुली रह गयीं, आज भी एक भेंड़ गायब थी और अब सिर्फ आठ भेडें ही बची थीं।इस बार भी चरवाहे को कुछ समझ नहीं आया कि भेड़ कहाँ गायब हो गयी। बाकी बची भेड़ों से पूछने पर भी कुछ पता नहीं चला। ऐसा लगातार होने लगा और रोज रात में एक भेंड़ गायब हो जाती। फिर एक दिन ऐसा आया कि बाड़े में बस दो ही भेंड़े बची थीं।

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15-03-2016, 02:02 PM

चरवाहा भी बिलकुल निराश हो चुका था, मन ही मन वो इसे अपना दुर्भाग्य मान सब कुछ भगवान् पर छोड़ दिया था।आज भी वो उन दो भेड़ों के बाड़े में डालने के बाद मुड़ा। तभी पीछे से आवाज़ आई :-

“रुको-रुको मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ वर्ना ये भेड़िया आज रात मुझे भी मार डालेगा.!”

चरवाहा फ़ौरन पलटा और अपनी लाठी संभालते हुए बोला, “ भेड़िया ! कहाँ है भेड़िया.?”

भेड़ इशारा करते हुए बोली :- “ये जो आपके सामने खड़ा है दरअसल भेड़ नहीं, भेड़ की खाल में भेड़िया है। जब पहली बार एक भेड़ गायब हुई थी तो मैं डर के मारे उस रात सोई नहीं थी। तब मैंने देखा कि आधी रात के बाद इसने अपनी खाल उतारी और बगल वाली भेड़ को मारकर खा गया.!”

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15-03-2016, 02:07 PM

भेड़िये ने अपना राज खुलता देख वहां से भागना चाहा, लेकिन चरवाहा चौकन्ना था और लाठी से ताबड़तोड़ वार कर उसे वहीँ ढेर कर दिया।चरवाहा पूरी कहानी समझ चुका था और वह क्रोध से लाल हो उठा, उसने भेड़ से चीखते हुए पूछा :- “जब तुम ये बात इतना पहले से जानती थीं तो मुझे बताया क्यों नहीं.?”

भेड़ शर्मिंदा होते हुए बोली :- “मैं उसके भयानक रूप को देख अन्दर से डरी हुई थी, मेरी सच बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई, मैंने सोचा कि शायद एक-दो भेड़ खाने के बाद ये अपने आप ही यहाँ से चला जाएगा पर बात बढ़ते-बढ़ते मेरी जान पर आ गयी और अब अपनी जान बचाने का मेरे पास एक ही चारा था- हिम्मत करके सच बोलना, इसलिए आज मैंने आपसे सब कुछ बता दिया.!"

चरवाहा बोला, :- “तुमने ये कैसे सोच लिया कि एक-दो भेड़ों को मारने के बाद वो भेड़िया यहाँ से चला जायेगा…भेड़िया तो भेड़िया होता है…वो अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता ! जरा सोचो तुम्हारी चुप्पी ने कितने निर्दोष भेड़ो की जान ले ली। अगर तुमने पहले ही सच बोलने की हिम्मत दिखाई होती तो आज सब कुछ कितना अच्छा होता.?”
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दोस्तों, ज़िन्दगी में ऐसे कई मौके आते हैं जहाँ हमारी थोड़ी सी हिम्मत एक बड़ा फर्क डाल सकती है पर उस भेड़ की तरह हममें से ज्यादातर लोग तब तक चुप्पी मारकर बैठे रहते हैं जब तक मुसीबत अपने सर पे नहीं आ जाती।

चलिए इस कहानी से प्रेरणा लेते हुए हम सही समय पर सच बोलने की हिम्मत दिखाएं और अपने देश और समाज को भ्रष्टाचार, आतंकवाद और महिलाओं के शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न के लिये ज़िम्मेदार भेड़ियों से मुक्त कराएं !!


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18-03-2016, 01:28 PM

कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा
साभार: शिवराज गूजर

'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' भानुमति का यह टोटका काफी पुराना है पर आज भी अचूक है। लोग धड़ल्ले से इसका उपयोग कर रहे हैं। उसने इसका पेटेंट करवा लिया होता तो आज उसकी पीडियों के वारे न्यारे होते. खैर गलती हो गयी उसका क्या रोना. आज रीमिक्स का दौर है. भाइयों ने इसका भी नया संस्करण निकल दिया. लेटेस्ट है जुगाड़. यह वर्जन जनता क्लास के लिए है. बालकनी वालों के लिए इसे हिंदी में 'गठबंधन' के नाम से और अंग्रेजी में 'एलायंस' के नाम से रिलीज किया गया है. जुगाड़ का सबसे अच्छा उदाहरण है किसान बुग्गा. एक कंपनी का डीजल इंजन लिया (वैसे बेचारे को डीजल कम, केरोसिन ही ज्यादा पीना पड़ता है) , ऊँट गाड़ी की बॉडी में जीप के पहिये लगाये और बन गया बुग्गा. 40-50 हजार रुपये के इस आइटम से सवारियां भी ढो लो और सामान भी. क्षमता का कोई लेना -देना नहीं. मड गार्ड तक पर सवारियां बैठा लो, नो प्रॉब्लम. जीप और ट्रैक्टर वाले जलें तो जलें. जहाँ तक में समझाता हूँ, राजग के उदय का प्रेरणा स्त्रोत भी यही रहा होगा. हमारी केंद्र सरकारें भी पिछले कई बरसों से इसी तकनीक से चल रही हैं.

मकान के बाहर एक विचित्र वाहन खडा है. यह आवाज वाही कर रहा था. उससे सामान उतारा जा रहा था. शायद कोई नया किरायेदार आया था. ऐसा वाहन हमने कभी नहीं देखा था. उसके बारे में जानने की उत्सुकता लिए हम तेजी से घर के बाहर आये. उसे घूमकर चारों ओर से देखा. जब कुछ समझ में नहीं आया तो हमने ड्राइवर से पूछा, 'यह क्या है?'

ड्राईवर बोला, ' जुगाड़'

जुगाड़ बोले तो?

ड्राईवर ने हमारे इस अज्ञानता भरे प्रश्न पर हमें ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा जैसे कह रहा हो, इतने तेज ज़माने में तुम्हें यह भी पता नहीं कि जुगाड़ क्या है? खैर उसने उदारता दिखाई और जुगाड़ का मतलब समझाया, 'जब आपके पास पर्याप्त साधन नहीं हो तो दूसरों से जो भी वह देने कि स्थिति में हो लेलो, और अपना काम निकल लो. यह टोटका भानुमति का है, जिसे इसको बनाने में काम में लिया गया है.'


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18-03-2016, 01:33 PM

लालच बुरी बला है
साभार: शिवराज गूजर

छठी में एक कहानी पढ़ी थी। लालची कुत्ते की 'ग्रीडी डॉग'। पढ़ी अंग्रेजी में थी पर याद हिंदी में है। लालच के बहकावे में आकर कुत्ते ने अपनी परछाई से ही दूसरी रोटी पाने की कोशिश की। इस चक्कर में उसने अपने पास वाली रोटी भी गंवा दी थी। तब तब शायद लालच छोटा रहा होगा इसलिए कुत्ते के माध्यम से इसे समझाया गया था। अब स्थितियां उलट है। कुत्ते समझदार हो गए हैं, इंसान लालची। कहानी वही है, बस पात्र बदल गए हैं।

अब कहानी कुछ यूं होती है-एक महिला होती है। नाम इसलिए नहीं दिया है कि किसी से मेल खा गया तो वो लडऩे मेरे घर तक आ जाएंगी। वह महिला एक दिन बस स्टैंड पर खड़ी होती है। उनके पास एक अन्य महिला और उसकी कथित बेटी आती हैं। दोनों उसे बताती हैं कि उन्हें बस में एक सोने के मोतियों की माला मिली है। कुछ बदमाशों ने माला देख ली, इसलिए मेरे पीछे पड़े हैं। मैं इसे बेचती तो नहीं लेकिन क्या करूं, कोई चीज जान से तो बढ़कर नहीं होती ना! मैं किसी तरह बदमाशों से नजर बचाकर आई हूं! मैं इसे बेचना चाहती हूं। आप ले लीजिए।

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rajnish manga

18-03-2016, 01:34 PM

महिलाजी की लालच से जीभ लपलपा गई। खट से अपने गहने उतार कर दे दिए। कम बताने पर खरीदारी के लिए लाए बीस हजार रुपए भी थमा दिए। बड़ी राजी (खुश) होते हुए घर पहुंची। घरवाळा भी खुशी से नाचने लगा। अपनी लुगाई की चतुराई पर ऐसा राजी हुआ कि घर वाळों के सामने उसकी ओर तिरछी नजर से भी नहीं देखने वाले ने लपक कर उसका माथा चूम लिया। ये और बात है कि बाद में शरमा के बाहर निकल गया। खुशी के पंखों पर सवार दोनों लोग-लुगाई सुनार के पास पहुंचे। सुनार ने जो बताया सुनकर दोनों के होश उड़ गए। सुनार ने उन्हें सपनों के संसार से उठाकर हकीकत की कठोर जमीन पर पटक दिया था। वो सोने के मोतियों की माला नकली थी। लुगाई की तारीफ कर रही जबान अब काफी कड़वी हो चली थी। लालच दोनों को देखकर मुस्करा रहा था। आज उसने इंसान को भी जीत लिया था। इस विजय ने उसे और ताकतवर बना दिया था। उसे इंसान की कमजोरी पकड़ में आ गई थी। वो समझ गया था कि इंसान जब दूसरे के साथ धोखाधड़ी होती है तो वह बहुत अफसोस करता है। उफनता भी है। उसकी नादानी पर फिकरे कसता है। उन्हीं परिस्थियों के बीच जब खुद पहुंचता है तो सारी समझदारी धरी रह जती है और वह भी लालच से मार खाकर रुदन करता लौटता है।

सवाल उठता है, यह मरता क्यों नहीं है? यह खुद नहीं मरता तो इसे मार क्यों नहीं देते? ऐसा नहीं है कि इंसान ने इससे लडऩे की कोशिश नहीं की। बहुत की, पर इसे बाली का सा (के जैसा) वरदान प्राप्त है। बाली को तो जानते हैं ना! रामायण में जिसका जिक्र है। उसके सामने जो भी मुकाबले के लिए खड़ा होता था उसका आधा बल उसमें आ जाता था। भगवान राम को भी उसे मारने के लिए छिपकर तीर चलाना पड़ा था। बाली का सा वरदानधारी यह लालच आए दिन शिकार कर-कर के पोषित होता आज रावण का सा अमर हो गया है। इसे मारने के लिए किसी राम को ही अवतार लेना पड़ेगा, पर यह कलयुग है। पता नहीं राम आएंगे कि नहीं। कल्कि का इंतजार है।

(इति)


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18-03-2016, 01:43 PM

घूरे के दिन ऐसे फिरते हैं
(इन्टरनेट से)

कहते हैं घूरे के भी दिन फिरते हैं यानी हर कुत्ते के दिन बदलते हैं और यही कहावत चरितार्थ हुई है हॉलीवुड के एक स्टार कुत्ते पर। जी हां, हॉलीवुड की कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों में काम कर चुका जैक रसेल टेरियर प्रजाति का दस साल का कुत्ता 'उग्गी' काम छोड़ने के बाद अब अपने संस्मरण लेकर आया है।

उग्गी ने कई फिल्मों में सराहनीय काम किया है और वो हॉलीवुड का जाना माना चेहरा है। इस संस्मरण में उग्गी के बचपन और कैरियर का लेखा जोखा दिया गया है। साथ ही उग्गी की चुनिंदा तस्वीरें भी लगाई गई हैं। उग्गी ने एक बड़े समारोह के तहत अपनी किताब लांच की।

उग्गी ने पिछले साल ऑस्कर विजेता फिल्म 'द आर्टिस्ट' में भी काम किया था। उग्गी के संस्मरण का नाम उग्गी: द आर्टिस्ट . माई स्टोरी है। उग्गी ने इस साल की शुरुआत में आधिकारिक रूप से फिल्मों में काम करना छोड़ दिया। उग्गी पहला कुत्ता है जिसे हॉलीवुड 'वॉक ऑफ फेम' में जगह मिली है।


rajnish manga

24-03-2016, 10:53 PM

कामचोर पेटू

किसी कामचोर पेटू लड़के के बारे में प्रश्नोत्तर रूप में प्रचलित यह कहावत देखिए:
‘‘नाम क्या है?’
‘‘शक्करपारा।’’
‘‘रोटी कितनी खाए?’’
‘‘दस-बारह।’’
‘‘पानी कितना पीए?’’
‘‘मटका सारा।’’
‘‘काम करने को?’’
‘‘मैं लड़का बेचारा।’’
कामचोर लोगों के लिए कैसा मजे़दार व्यंग्य भरा है इस कहावत में। इस प्रकार कहावत अपने में स्वतन्त्र अस्तित्व रखने वाली, सारगर्भित, संक्षिप्त एवं चटपटी उक्ति है, जिसका प्रयोग किसी को शिक्षा व चेतावनी देना या उपालंभ व व्यंग्य कसने के लिए होता है।


rajnish manga

25-03-2016, 03:33 PM

कौन छोटा कौन बड़ा

http://bharatdiscovery.org/bharatkosh/w/images/thumb/6/6c/Adi-Shankaracharya.jpg/200px-Adi-Shankaracharya.jpg

शंकर के जीवन में उल्लेख है कि शंकर सुबह-सुबह नहाकर ब्रह्ममुहूर्त में काशी के गंगा-घाट पर सीढ़ियां चढ़ रहे हैं, कि एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। क्रुद्ध हो गए, कहा कि देखकर नहीं चलते हो? मुझ ब्राह्मण को छू लिया! अब मुझे फिर स्नान करने जाना पड़ेगा।

शूद्र ने जो कहा, लगता है जैसे स्वयं परमात्मा शूद्र के रूप में आकर शंकर को जगाया होगा।

शूद्र ने कहा: एक बात पूछूँ ? तुम तो अद्वैत की बात करते हो -- एक ही परमात्मा है, दूसरा है ही नहीं। तो तुम अलग, मैं अलग ? शंकर ठिठके होंगे।

आकर हारना पड़ेगा इस शूद्र से, यह कभी सोचा भी न होगा। मगर बात तो चोट की थी।

सुबह के उस सन्नाटे में, एकांत घाट पर, शंकर को कांटे की तरह चुभ गई। बात तो सच थी -- अगर एक ही परमात्मा है, तो कौन शूद्र, कौन ब्राह्मण!

फिर उस शूद्र ने कहा: मेरे शरीर ने तुम्हें छुआ है, तो मेरे शरीर में और तुम्हारे शरीर में कुछ भेद है?

खून वही, मांस वही, हड्डी वही। तुम भी मिट्टी से बने, मैं भी मिट्टी से बना। मिट्टी मिट्टी को छुए, इसमें क्या अपवित्रता है ?

और अगर तुम सोचते कि मेरी आत्मा ने तुम्हारी आत्मा को छू लिया, तो क्या आत्मा भी पवित्र और अपवित्र होती है ?

कहानी कहती है, शंकर उसके चरणों पर झुक गए। इसके पहले कि उठें, शूद्र तिरोहित हो गया था। बहुत खोजा घाट पर, बहुत दौड़े, कुछ पता न चल सका।
जैसे परमात्मा ने ही शंकर को बोध दिया हो कि बहुत हो चुकी बकवास माया और ब्रह्म की, जागोगे कब ? शंकर की सब दिग्विजय व्यर्थ हो गई। और यह जो हार हुई शूद्र से, यही जीत बनी। इसी घटना ने उनके जीवन को रूपांतरित किया।

अब वे केवल दार्शनिक नहीं थे, अब केवल बात की ही बात न थी, अब जीवन में उनके एक नया अनुभव आया -- नहीं कोई भिन्न है, न ही कोई भिन्न हो सकता है।
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07-05-2016, 08:23 PM

बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी
साभार: अनिल अग्रोहिया

एक बनिया उदास मुंह अपनी दुकान पर बैठा था ,गाँव का ठाकुर उधर से निकला तो उसने पूछा सेठजी आज उदास क्यों बैठे हो। तो बनिया बोला क्या करें आज कल तकड़ी (तराजू) ही नही चलती। इस पर ठाकुर ने व्यंग से कहा कि कल से हमारे अस्तबल में घोड़ों की लीद तोलना शुरू करदो। बनिये ने सहर्ष स्वीकार कर लिया व दुसरे दिन अस्तबल में जाकर हर घोड़े की लीद तोलने लगा। यह देख कर घोड़ों के अधिकारी ने इस का कारण पूछा तो उसने कहा कि तुम ठिकाने से पैसा तो पूरा लेते हो पर दाना कम खिलाते हो , इसी की जाँच पड़ताल की जाएगी। अधिकारी चोरी करता था सो उसने बनिये का महिना बांध दिया और कहा की ठाकुर से मेरी शिकायत मत करना। दूसरी बार जब ठाकुर उक्त बनिए की दुकान के आगे से निकला तो बनिया प्रसन्न चित था क्यों की उसकी तकड़ी चल गयी थी। इसलिये राजस्थानी में कहावत है:

"बाणया की ताखड़ी चाल्यां बो कोई कै सारे कोनी”


desaikiran

16-03-2017, 06:30 PM

Thanku for sharing


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02-10-2017, 12:05 AM

मुहावरों वाली कथा

15 अगस्त का दिन था. सारा देश खुश और आजाद था.हम खाली बैठे थे.हमारा दिमाग हमसे पहले ही आजाद था. खाली खाली दिमाग यानी शैतान का घर. हमने सोचा कि कुछ बड़ा काम किया जाए.एक मुहावरा है कि एक पन्थ दो काज. हम क्या किसी से कम हैं? हम एक कहानी लिखेगे, उस में चार काम करेंगे.

हम रह रह कर भगवान का नाम लेंगे.उसके बिना हमारी नाव कब की डूब गई होती.वैसे तो हम अक्ल के दुश्मन हैं.अक्ल के पीछे लट्ठ लिए घूमना हमारा स्वभाव है.हमारा पढ़ने लिखने से जन्मजात वैर है. हमारे तो जीवन का ही यह नियम बन गया है.

जो पढ़ता वह भी मरता है
जो नहीं पढ़ता वह भी मरता है
फिर तू हे मूर्ख बच्चा
सर्दी में क्यों दांत किटकिटाताहै
या
जो पढ़न्त वह भी मरन्त
जो न पढ़न्त वह भी मरन्त
फिर सिर काहे को खपन्त

(क्रमशः)


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02-10-2017, 12:11 AM

मुहावरों वाली कथा (2)
पर यह जो हम सब की मां है ना शारदा. अरे! वही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी. इसे यह सब स्वीकार नहीं है. इसे अँधेरा या अज्ञान जरा भी पसंद नहीं है. जब भी इसका मन करता है जोर जबरदस्ती करके हमारे दिमाग में घुस जाती है. हमें तो डांट डपट कर चुप करा देती है. यह ऐसा खेल दिखाती है कि हम खुद हैरान हो जाते हैं कि यह कैसे हो गया. लोग भी हैरान हो जाते हैं कि वह बच्चा जिसे पास होने के लाले थें,जो सप्लीमेंट्री परीक्षा में रो पीट कर,ग्रेस के नम्बर ले के पास होता था,अचानक 95% नम्बर कैसे ले आया. वह यह भी नहीं कह सकते कि इसने किसी की नकल की होगी क्योंकि नालायक से नालायक बच्चा भी इसके साथ बैठने को तैयार नहीं होता था कि इसकी नकल करके कहीं खुद फ़ेल न हो जाये.

हम वैसे तो बड़ी हाय तोबा मचाते हैं, चीख पुकार मचाते हैं, चिल्ल पों मचाते हैं कि माँ हमारे साथ बड़ी जयाद्ती हो रही है. पर यह हमारी एक नहीं सुनती. हमारे मन में तो लड्डू फूटने लगते है, मन ही मन में हम बड़े खुश होते हैं क्योंकि हम को बाहर बहुत भाव मिलने लगता है. हमारे तो पों बारह हो जाते हैं. पाँचों उँगलियाँ घी में हो जाती हैं. वैसे तो हमे कोई घास नहीं डालता. हम तो यह चाहते हैं कि ऐसा रोज रोज हो.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 12:15 AM

मुहावरों वाली कथा (3)

हम सोचने लगे कि 14 सितम्बर को जब हिंदी दिवस मनाया जाएगा, हिंदी पखवाड़े में हमारे पाठकों की मुहावरा ज्ञान परीक्षा होगी तो उन पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ेगा. बेचारे काम काज के बोझ से थक टूट कर घर जायेंगे. ऐसे में वो पारिवारिक या सामाजिक दायित्व निभायेंगे या पढ़ेंगे. हम चाहते हैं कि उन्हें इतने मुहावरे इस रचना के माध्यम से सिखा दें कि उनके फटाफट दिए गये जवाबों से हैरान हो कर लोग अपने दांतों तले ऊँगली दबा लें, उनकी धाक जम जाये, लोग उनका लोहा मानने लगें, दुश्मनों के तो दांत खट्टे हो जाएँ, दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ें, नाकों चने चबाने पड़ें तथा उन्हें अपनी नानी याद आ जाए.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 12:31 AM

मुहावरों वाली कथा (5)

हमने सोचा कि अपनी यह जो हिंदी भाषा है न,पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने की क्षमता रखती है, यह स्वामी दयानन्द सरस्वती का कथन है. इसकी उन्नति से किसी भी भाषा का नुक्सान नहीं है. यह तो क्षेत्रीय भाषाओँ के बीच एक पुल का काम कर सकती है. क्यों न हम एक ऐसी रचना लिखें, जिस मे बहुत से मुहावरों और कहावतों का प्रयोग हो. जिसे लोग चटखारे ले ले कर पढ़ें. सो हमने आव देखा न ताव, झट से सारी दुनिया में ढिंढोरा पीट आये कि हम यह करने वाले हैं. इस तरह हमने अपने पैर पर कुल्हाड़ी दे मारी, आ बैल मुझे मार. इस तरह हमने मुसीबतों का पहाड़ हमेशा की तरह अपने उपर गिरा लिया. असल में बात यह है कि हमें पढना लिखना बिल्कुल बिल्कुल नहीं आता. हम पूरे अंगूठा टेक हैं, पढना लिखना हमारे लिए टेढ़ी खीर है. काला अक्षर भैस बराबर है. यह तो आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा काम है, उलटी गंगा पहाड़ चढाने जैसा है. यह तो हमारे बल बूते के बाहर की बात है.पर जहाँ चाह वहां राह. हमने लोगों से पूछा कि कैसे लिखा जाता है. कोई हमसे सीधे मुंह बात ही न करे. लोग हमसे किनारा करने लगे. हमसे नजरें चुराने लगे. सामने पड़ जाते तो मुंह फेर लेते. पर कहा गया है न कि हारिये न हिम्मत,बिसारिये ना राम. हमने नदी,पेड़,पहाड़,पशु,पक्षी,सबसे पूछ डाला. पर नतीजा वही ढाक के तीन पात. ठन ठन गोपाल.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 12:45 AM

मुहावरों वाली कथा (6)

अंत में हमने सोचा कि घर का जोगी जोगना,गाँव का जोगी सिद्ध. घर की मुर्गी दाल बराबर. घर में पढ़ी लिखी पत्नी के रहते हुए,हम क्यों दर दर की ठोकरें खाएं. हम किसी को भाव क्यों दें. हमने पत्नी के पास जा कर कहा—

सुनो बात तुम मेरी जरा सी
हे मेरे सुख दुःख की साथी
जरा दया हम पर भी करना
अपनी कृपा बनाये रखना

भूत के मूंह में राम राम. आज सूरज पश्चिम से कैसे निकला. मेरी इतनी लल्लो चप्पो क्यों कर रहे हो?

मैंने कहा---एक कलम तोड़ लेख लिख कर पाठकों को मुहावरे सिखाना चाहता हूँ. पर मुझे पता नहीं है कि कैसे लिखा जाता है. तुम इस काम में मेरी मदद करो.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 12:53 AM

मुहावरों वाली कथा (7)

पत्नी बोली: जब नहीं आता तो न लिखो. उतने ही पैर पसरो, जितनी लम्बी चादर हो. लिखते समय पैन पर इतना जोर न लगाओ कि वह टूट ही जाए. पर तुमने तो मेरी कोई भी बात न मानने की कसम चबा कर खाई हुई है. कान में हमेशा तेल डाले रहते हो. तुम्हारे कान पर तो जूं तक नहीं रेंगती. मेरी बात अगर मानी होती तो आज बड़े सुखी होते. खुद को कुछ पता नहीं है, बेचारे पाठकों को क्या समझाओगे. बसी नहीं ससुराल नसीहत दे सखियन को. घर में नहीं हैं दाने अम्मा चली भुनाने. आजकल जिसकी भलाई करो वही काटने को दौड़ता है हम तुम्हारी सेवा में आकाश=पाताल एक किये देते हैं, पर एक तुम हो, जो हमें ऑंखें दिखाते रहते हो. भले आदमी, एक मैं ही हूँ ,जो तुम्हारे साथ काटती हूँ. कोई दूसरी होती तो कब की भाग खड़ी होती.

बात तो सच ही है.हम तो बगलें झाँकने और हाथ मलने लगे.हाथ कंगन को आरसी क्या.हम तो यह सुन कर चारों खाने चित्त हो गये.सिट्टी पिट्टी गम हो गयी.काटो इओ खून नहीं.पर हारिये न हिम्मत बिसारिये न राम.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 01:04 AM

मुहावरों वाली कथा (8)

हमने कहा: भले काम के लिए तो तुम्हारी मदद मांग रहा हूँ.
राजभाषा का विकास है बड़ा जरूरी
जन जन की आशा हो पूरी
पत्नी- कहीं कटे न नाक तुम्हारी
कहीं लुटे ना लाज
जब इज्जत का प्रश्न बना है
रचनाओं का स्तर सुधारों महाराज

पत्नी जी की बात सुन कर हम तो जल भुन गये. आग बबूला हो गये. बहुत लाल पीले हुए. यह तो सिर मुंडाते ही ओले पड़े. यह तो ठीकरा हमारे सिर पर ही फूट गया. हमने सोचा कि इससे पहले पानी सिर के ऊपर से गुजर जाए,क्यों ना नहले पर दहला मारते हुए,ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाए. सारा दोष इन्हीं के माथे मढ़ा जाये. क्यों न समस्या से दो चार हुआ जाए.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 01:09 AM

मुहावरों वाली कथा (9)

हमने कहा- भागवान, यही कारण है कि राजभाषा का विकास नहीं होता. तुम्हारा तो वही हाल है कि बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद. थोथा चना बजे घना. अधजल गगरी छलकत जाए.यह कह कर हमने उन्ही का तीर उन्हीं पर चला दिया और अपना उल्लू सीधा कर लिया. हम ऐसे खुश हुए जैसे हमने किला फतेह कर लिया हो, चाहे हमें उधार ले कर लड़ना पड़ा हो. हमें क्या पता था कि हमने भिड के छत्ते में हाथ डाल दिया था. हमारी पत्नी हमें खरी खरी सुनाने लगी.

वह बोली कि तुम निरे बछिया के ताऊ हो. तुम से कुछ नहीं होता. बस कोल्हू के बैल की तरह काम करना ही जानते हो. तुम मेरे काम में मीन मेख भी नहीं निकाल सकते हो. कोई गलती हो जाए तो भी कुछ नहीं कहते हो. तुम बच्चों को भी नहीं डांटते हो. उन्हे बस प्यार से समझा देते हो कि मेरी बात ध्यान से सुनें. वह भी तुम्हारी बात बिना ना नुकुर किये ही मान जाते हैं. हम चाहे दिन भर चिल्लाते रहें, इन पर कोई असर नहीं होता. हमारा तो इस घर में कोई वजूद ही नहीं है.

हुंह, यह भी कोई बात हुई. तुम अपनी पत्नी पर जरा भी तरस नहीं खाते कि बच्चों को कभी डांट ही दो ताकि वोह तुमसे इसी बहाने कभी लड़ ही ले. हमारी तलवारों में तो जंग ही लग गया है. बड़े बड़े सपने देखे थे तुम से लडने के, सब चूर चूर हो गये, सब पर पानी फिर गया. सब कुछ खाक में मिल गया. सब धरा का धरा ही रह गया. सब गुड गोबर हो गया. तुमने ही बच्चों को सर पर चढ़ाया हुआ है. जब भुगतना पड़ेगा तब तुम्हें आटे दाल का भाव पता चलेगा बच्चे पढने लिखने में ध्यान नहीं देते.बस इधर की उधर लगाते फिरते हैं. ये पढ़ लिख कर कुछ बन जाएँ, तो मैं तो बस गंगा नहा लूं. वैसे तुम मेरे बच्चों को कुछ नहीं कह सकते. मैं चाहे जो मर्जी कहूं.
(क्रमशः)


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02-10-2017, 01:14 AM

मुहावरों वाली कथा (10)

फिर हमारा उतरा हुआ चेहरा देख कर पत्नी ने कहा- मेरी किसी बात का बुरा मत मानना. हमारा धर्म ही तुम्हारी हर बात को काटना है, चाहे वह कितनी भी सही क्यों न हो. जो पत्नी अपने पति को जितनी ज्यादा खरी खरी सुनाती है, वह अपने पति से उतनी ही ज्यादा खुश और संतुष्ट होती है. पति का चरित्र उतना ही उज्ज्वल माना जाता है. जिस घर में पत्नी अपने पति से संतुष्ट और खुश होती है, वहाँ यो देवताओं का वास होता है.

तभी हमारे बच्चे भी हंसते हुए यानी खीसें निपोरते हुए वहां पहुंच गये. बोले माँ का जब भी मन भारी होता है तब वह पिताजी से लोहा ले कर तरोताजा हो जाती है. वैसे आपका यश आप के पीठ फिराते ही डंके की चोट पर गाती है.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 01:19 AM

मुहावरों वाली कथा (11)

हमने भी मोके का फायदा उठाते हुए बहती गंगा में हाथ धोते हुए पत्नी के सिर चढ़ कर बच्चों को बनावटी क्रोध से डाँटना शुरू किया. तुम पढने लिखने में ध्यान दिया करो. ज्यादा तीन पांच नकरो. वरना वह हाल करूंगा कि छठी का दूध याद आ जायेगा. हमने सोचा कि बच्चे वहां से नौ दो ग्यारह हो जायेंगे. रफूचक्कर हो जायेंगे. हवा हो जायेंगे. छू मंतर हो जायेंगे. पढने बैठ जायेंगे. पर बच्चे तो हमसे बुरी आदत की तरह प्यार से हमसे चिपट गये.

हमारी तो बांछें ही खिल गईं. हमने खुश हो कर कहा कि हमें गागर में सागर भरना तो आता नहीं. निबंध लेखन में हमारे नम्बर जरा कम ही आते थे. इसलिए हमारी रचनाएँ जरा लम्बी होती हैं. पर एकता में बड़ा ही बल है. मेरे प्यारे बच्चो, तुम सब भाई बहन मिल कर मेरी रचनाओं का एक भाग पढ़ डालो और एक दूसरे को सुना दो. इससे किसी एक के दिमाग पर ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा.

(क्रमशः)


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02-10-2017, 01:24 AM

मुहावरों वाली कथा (12)

इसके बाद पता नहींक्या हुआ कि बच्चे वहाँ से सिर पर पैर रख कर भागे. वे जोर जोर से चीखें मार रहे थे और नहीं-नहीं कह रहे थे. दुम दबा कर और जान ले कर भागे. ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग.

ऐसा दुर्लभ, विरल ज्ञान और सम्मान पा कर हम ख़ुशी से फूले नहीं समाये. हमारा दिल बाग़ बाग़ हो गया. हम फूल कर कुप्पा हो गये. हम ख़ुशी ख़ुशी टीवी पर राक्षसी सासों और चुड़ैल बहुओं वाले सीरीयल देखने लगे.

(इति)


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10-10-2017, 11:46 AM

मुहावरों वाली कहानी
सांच को आंच
(इन्टरनेट से साभार)

किसी नगर में दो मित्र थे। एक का नाम रामथा और दूसरे का श्याम। बचपन में दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। मगरदोनों की आर्थिक स्थिति में जमीन-आसमान का फर्क था। राम के पिता एक बड़े व्यापारी थे और उनकी बदौलत राम बिना कुछ किए ही मालामाल हो गया।

कहावत है कि पैसा ही पैसे को खींचता है। राम ने भी जब पिता का व्यवसाय सँभाला तोउसकी संपत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। वहीं दूसरी ओरश्याम केपिता अत्यंत गरीब थे। स्कूल से मिले वजीफे के सहारे श्याम ने जैसे-तैसे स्कूल की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए श्याम को आकाश-पाताल एक करना पड़ा। मदद माँगने पर सभी रिश्ते नातेदारों ने उसेअँगूठा दिखा दिया।

अंतमें उसने ट्यूशन तथा अखबार बेचने जैसा पार्ट टाइम काम किया एवं इस तरह लोहे के चने चबाते हुए कॉलेज की फीस की व्यवस्था की एवं पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त कर अपनी धाक जमा दी।

(क्रमशः)


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10-10-2017, 11:49 AM

राम भी पास होकर स्नातक हो गया और उसके घर में घी के दिये जलाए गए। मगर श्याम के घर ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर तेल भी नहीं था। अत: उसने तेते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर वाली लोकोक्ति पर अमल करते हुए फिल्मी गीत पर डांस ही कर लिया। स्नातक होने के बाद श्याम ने नौकरी पाने के लिए दस जगह की खाक छानी। मगर कहीं भी उसकी दाल नहीं गली। अंतत: उसने बैंक से लोन लेकर एक पावरलूम मशीन डाल ली।

शुरू में इतनी कठिनाइयाँ आई मानो सिर मुँडाते ही ओले पड़ गए हों। मगर धीरे-धीरे उसका काम चल निकला। जिन लोगों के कारण उसकी नाक में दम रहता था और जीना मुहाल हो गया था, जो उसे नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, उन्होंने भी उसकी काबिलियत का लोहा मान लिया।

रामका एक बेटा अमित था जो उसकी आँखों का तारा था। श्याम का भी एक बेटा सुमित था जो कि उसके कलेजे का टुकड़ा था। संयोग से दोनों मित्रों के ये पुत्र एक ही स्कूल में पढ़ते थे। उनकी मित्रता देखकर लोग दंग रह जाते थे कि कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। मगर मित्रता अमीरी-गरीबी नहीं देखती।

(क्रमशः)


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10-10-2017, 11:52 AM

एक दिन अमित के मामा का फोन आया। उन्होंने उसे घूमने के लिए शहर बुलाया था। अमित ने सुमित को भी अपने साथ चलने के लिए तैयार कर लिया। नियत दिन अमित के पिता राम अमित व सुमित को रेलवे स्टेशन छोड़ने आए। जिसके पास बिना मेहनत का ज्यादा पैसा होता है उसकी धन कमाने और बचाने की लालसा बढ़ती ही जाती है।अमित के पिता ने भी दोनों मित्रों को बिना टिकट रेल में बैठाकर समझाया कि किस तरह शहर पहुँचकर उन्हें स्टेशन के एक छोर पर स्थित टूटी हुई ग्रिल के रास्ते से बाहर निकलना है कि टिकट चेकर से बचा जा सके। अमित के पिता के जाते ही उसने अमित को खूब खरी-खोटी सुनाई।

उसे उसके पिता के दिए संस्कारों ने बिना टिकट यात्रा करने की अनुमति नहीं दी।दोनों मित्रों ने अगला कदम तय किया और भागकर टिकट खिड़की पहुँचगए। वहाँ यात्रियों की इतनी लंबी कतार लगी थी मानो कि एक अनार सौ बीमार जैसे-तैसे टिकट लेकर वे रेल में सवार हुए। थोड़ी ही देर बाद एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि बेटा मिठाई खाओगे। मिठाई देखकर सुमित के मुँह में पानी आ गया। उसने हाथ आगे बढ़ाया था कि अमित ने उसका हाथ खींच लिया। फिर धीरे से कानाफूसी करते हुए समझाया कि यात्रा में किसी भीअजनबी से लेकर कोई चीज खाना-पीना नहीं चाहिए।

(क्रमशः)


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10-10-2017, 11:56 AM

ऐसे लोग बदमाश हो सकते हैं जो अपना जाल बिछाकर सहयात्रियों को बेहोश करके लूट लेते हैं। ऐसे लोगों के मुँह में राम तथा बगल में छुरी होती है।

शहर पहुँचने के बाद दोनों मित्र स्टेशन के बाहर सिर उठाकर पूरी निडरता के साथ आए क्योंकि जेब में टिकट जो रखा था। बाद में इस घटना का पता चलने पर अमित के पिता शर्म से पानी-पानी हो गए। वहीं सुमित के पिता को उस पर बहुत गर्व हुआ। किसी ने ठीक ही कहा है कि साँच को आँच नहीं। अर्थात सच्चे मनुष्य को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।

(समाप्त)


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23-10-2017, 10:24 PM

हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है...

आम के आम और गुठलियों के भी दाम मिलते हैं,
कभी अंगूर खट्टे हैं,
कभी खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं,
कहीं दाल में काला है,
तो कहीं किसी की दाल ही नहीं गलती,

कोई डेड़ चावल की खिचड़ी पकाता है,
तो कोई लोहे के चने चबाता है,
कोई घर बैठा रोटियां तोड़ता है,
कोई दाल भात में मूसरचंद बन जाता है,
मुफलिसी में जब आटा गीला होता है,
तो आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता है,
>>>


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23-10-2017, 10:25 PM

हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है...

सफलता के लिए बेलने पड़ते है कई पापड़,
आटे में नमक तो जाता है चल,
पर गेंहू के साथ, घुन भी पिस जाता है,
अपना हाल तो बेहाल है, ये मुंह और मसूर की दाल है,

गुड़ खाते हैं और गुलगुले से परहेज करते हैं,
और कभी गुड़ का गोबर कर बैठते हैं,
कभी तिल का ताड़, कभी राई का पहाड़ बनता है,
कभी ऊँट के मुंह में जीरा है,
कभी कोई जले पर नमक छिड़कता है,
किसी के दांत दूध के हैं,
तो कई दूध के धुले हैं,

कोई जामुन के रंग सी चमड़ी पा के रोई है,
तो किसी की चमड़ी जैसे मैदे की लोई है,
किसी को छटी का दूध याद आ जाता है,
दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक पीता है,
और दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है,
>>>


rajnish manga

23-10-2017, 10:27 PM

हिंदी के मुहावरे, बड़े ही बावरे है,
खाने पीने की चीजों से भरे है...

शादी बूरे के लड्डू हैं, जिसने खाए वो भी पछताए,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,
पर शादी की बात सुन, मन में लड्डू फूटते है,
और शादी के बाद, दोनों हाथों में लड्डू आते हैं,

कोई जलेबी की तरह सीधा है, कोई टेढ़ी खीर है,
किसी के मुंह में घी शक्कर है, सबकी अपनी अपनी तकदीर है...
कभी कोई चाय-पानी करवाता है,
कोई मख्खन लगाता है
और जब छप्पर फाड़ कर कुछ मिलता है,
तो सभी के मुंह में पानी आता है,

भाई साहब अब कुछ भी हो,
घी तो खिचड़ी में ही जाता है,
जितने मुंह है, उतनी बातें हैं,
सब अपनी-अपनी बीन बजाते है,
पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है,
सभी बहरे है, बावरें है
ये सब हिंदी के मुहावरें हैं...

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24-10-2017, 12:16 AM

कुत्तों पर मुहावरे या मुहावरों में कुत्ते

कई फिल्मी मुहावरे अब सामाजिक जीवन में घुल-मिलकर इंसानी मुहावरों में तब्दील हो गए हैं। इनमें एक प्रसिद्ध मुहावरा है आचार्य धर्मेद्र उच्चारित- कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा। यह अब कई प्रसिद्ध, लेकिन बासी मुहावरों में शामिल हो चुका है। जैसे- भारत एक कृषि प्रधान देश है या साहित्य समाज का दर्पण है आदि-आदि। लेकिन कुत्ते का खून पीने के संकल्प में एक साहस है। एक उद्बोधन है। इसमें गर्जन-तर्जन है। भाषाशास्त्र के अनुसार, यह दफा 302 की धारा है। हम सिर्फ पशु हत्या के इरादे से ही - तेरा खून पी जाऊंगा कहते हैं। असल में पीते नहीं। हम मुरगा और बकरा तो खाते हैं, मगर उनका खून नहीं पीते। हम सभ्य हैं। इधर कुछ ऐसा हुआ है कि आदमी और कुत्ता चर्चा में हैं। एक नया शोध यह है कि फुटपाथ कुत्तों के लिए होता है आदमियों के लिए नहीं। उन गरीब आदमियों के लिए भी नहीं, जो वाकई कुत्तों की जिंदगी जी रहे हैं। कुत्ता स्वयं एक सामाजिक जीव है। वह अभिव्यक्ति का माध्यम भी है। लोग अक्सर गालीनुसार कहते हैं कि- बड़ी कुत्ती चीज हो यार।

>>>


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24-10-2017, 12:17 AM

कुत्तों पर मुहावरे या मुहावरों में कुत्ते

कुत्ते की औलाद कहने की भी परंपरा है। टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों के आगे फेंक दूंगा- ये भी कुत्तों को दावत देना है। भंडारे की तरह का। सलमान खान की गाड़ी से अगर कुत्ता मर जाता, तो उसे जेल न होती। एक पूर्व फिल्मी गायक यदि यह साबित कर देता कि जो मरा वह कुत्ता था, तो न्यायपालिका शरमाने लगती। इस घटना में जो घायल हैं, उन्हें यदि उचित मुआवजा मिल जाता, तो वे स्वयं को आदमी साबित कर सकते थे। मगर क्या करें, जिसके भाग में कुत्ते की मौत लिखी हो, उसे कोई नहीं बचा सकता। ये भी सच है कि वफादारी सिर्फ कुत्तों में मिलती है। स्वर्ग के रास्ते पर युधिष्ठिर को एक कुत्ते ने ही गाइड किया था। कुत्तों के पक्ष में एक और बात है। अगर आप कभी घनी रात में अकेले हों और जंगल में रास्ता भूल जाएं, तो तारों की रोशनी में आप आसपास की बस्ती नहीं तलाश सकते। एक ही रास्ता बचता है कि जहां से कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दे, समझो उसी तरफ गांव है। बस्ती है। जीवन है।


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01-11-2017, 11:56 PM

आज नहीं कल
(टालमटोल करना)

एक मुसलमान प्रतिदिन रात में एक पेड़ के नीचे जा कर अपने अल्लाह से दुआ करता कि ‘ए खुदा! मुझे अपनी मुहब्बत में खेंच.’

उसकी यह बात किसी मसखरे ने सुन ली. एक रात वह पेड़ पर चढ़ गया और उसने रस्सी का फंदा नीचे गिरा कर ऊपर खींचना शुरू कर दिया.

तब वह अल्लाह का बंदा यह सोच कर कि खुदा ने उसकी दुआ कबूल करते हुए यह रस्सी ऊपर से मेरे लिए भिजवाई है, घबरा कर जोर जोर से चिल्लाने लगा कि ‘इतनी जल्दी नहीं मौला .... आज नहीं कल ... आज नहीं कल’. तब से यह कहावत चल निकली.
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02-11-2017, 02:33 PM

आठ जुलाहे नौ हुक्का जिस पर भी ठुक्कम थुक्का

(भावार्थ: आठ जुलाहं के पास नौ हुक्के होते हुए भी इस बात का झगडा हो गया कि हुक्कों को आपस में किस प्रकार बांटा आये कि कोई हुक्के से महरूम न रह जाए. जुलाहे आमतौर पर सीधे साधे और मूर्ख समझे जाते थे. यह उसी का एक उदाहरण है)
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जुलाहों के भोलेपन या बुद्धूपन के अनेक किस्से प्रचलित हैं. एक किस्सा यह है कि एक बार दस जुलाहे एक रेगिस्तान पार कर रहे थे. वहां उन्हें मृग मारीचिका दिखाई दी जिसे उन्होंने नदी समझ कर पार किया. यह देखने के लिए कि कोई डूब तो नहीं गया, उन्होंने अपने को गिनना शुरू किया. हर आदमी ने गिना और हर बार एक आदमी गिनती में कम पाया. दरअसल, हर कोई अपने को गिनना भूल जाता था. सब ने कहा कि यह तो बड़ी भारी मुसीबत हो गई. यात्रा के शुरू में दस व्यक्ति थे परन्तु अब नौ रह गए थे. वह सब वहां बैठ कर रोने लगे.

उसी समय वहां से एक घुड़सवार निकला. उसने उनका किस्सा सुना और उन्हें गिन कर बताया कि वे नौ नहीं दस ही हैं और रोने की कोई बात नहीं है.


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05-11-2017, 12:58 AM

हिसाब ज्यों का त्यों,आखिर कुनबा डूबा क्यों?

किस्सा कुछ इस प्रकार है कि एक पटवारी साहब अच्छे ऊंचे-पूरे कद के थे और उनके साथ तीन-तीन छोटे बच्चे थे, पटवारी जी को एक नदी पार करनी थी, उन्होंने नदी की गहराई नापी, अपना और बच्चों के कद का हिसाब जोड़ा, औसत लगाया गुणा-भाग कर समाधान निकाला और निकल पड़े नदी पार करने, नदी के दूसरे किनारे पर पहुंचे तो देखा कि पीछे एक बच्चा दिखाई नहीं दे रहा उसने बार-बार हिसाब लगाया, सोचा-विचारा, सिर खुजाया पर बच्चों के डूबने का कारण समझ न पाया और झल्ला कर बोल पड़ा ‘हिसाब ज्यों का त्यों, आखिर कुनबा डूबा क्यों?


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05-11-2017, 01:03 AM

वही किस्सा एक नए रूप में
हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों?

औसत की बात चली तो एक साहूकार की कहानी याद आ गई। साहूकार महोदय अपनी बीवी और तीन बच्चों के साथ पास के शहर को जा रहे थे। रास्ते में एक नदी पड़ी। नांव का इंतजार किया। वो नहीं आयी तो साहूकार ने सोचा कि ये नदी तो घुसकर पार की जा सकती है। उन्होंने किनारे से लेकर बीच तक नदी की गहराई नापी – 1 फुट, 3 फुट, 7 फुट, 3 फुट और 1 फुट यानी नदी की औसत गहराई निकली 15/3=3 फुट। अब साहूकार ने अपने कुनबे में सभी की ऊंचाई नापी। वो खुद 5 फुट 10 इंच के, बीवी 5 फुट 2 इंच की, पहला बेटा 4 फुट 8 इंच का, छोटी बेटी 3 फुट 4 इंच की और गोद का बेटा 2 फुट का। उन्होंने गिना कि इस तरह कुनबे की औसत लंबाई हुई करीब 4 फुट ढाई इंच। यानी, कुनबे की औसत लंबाई नदी की औसत गहराई से पूरे 1 फुट ढाई इंच ज्यादा है। इसलिए कुनबा तो आसानी से नदी पार कर जाएगा। साहूकार बीबी-बच्चे समेत नदी में उतर गए। उन्हें तैरना आता था, सो नदी के उस पार पहुंच गए। बाकी सारा कुनबा बीच नदी में बह गया। साहूकार फेर में पड़कर कहने लगे – हिसाब ज्यों का त्यों, कुनबा डूबा क्यों...


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19-11-2017, 07:25 PM

चोट तब करो जब लोहा गरम हो
(प्रमिला कटरपंच के ब्लॉग से साभार)

मैं सबसे बातें कर रही हूँ। बच्चों से और औरतों से, युवाओं से और बूढ़ों से भी। लेकिन लगता है जैसे वे मेरी भाषा नहीं समझ रहे हैं। ये गाडिया लोहार हैं. वे सब मेरी ओर देखते हैं, तनिक सा मुस्कराते हैं और फिर लोहे को गर्म करने और उसे हथौड़े से पीटने के कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। वे सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं, जैसे उन्हें हमसे कोई सरोकार नहीं है। सूरज बादलों के पीछे छिप गया है और तपती धूप में तपते लोहे पर काम करने वाले ये नर-नारी थोड़ा ठंडापन महसूस करते हैं। बहुत देर तक लोगों को काम करती देखती रहती हूँ। वहाँ सब लोग काम कर रहे हैं, चाहे वह आदमी हो या औरत, छोटा हो या बड़ा, युवा हो या वृद्ध। बच्चे भी इस काम में उनका हाथ बंटा रहे हैं। थोडा आश्चर्य होता है और थोड़ा गर्व भी। जब देखती हूँ हौथड़े हाथ में लिये गर्म लाल लोहे को पीट रही हैं। सहसा बचपन में पढ़ी हुई अंग्रेजी कविता की पंक्तियाँ याद आ जाती है, जो हर पढ़े-लिखे व्यक्ति द्वारा रोजाना प्रयोग में आने वाला मुहावरा बन गया है - “हिट व्हेन दा आयरन इज हâट”। इन भोले-भाले और अनपढ़ लोगों ने बिना पढ़े ही इस मुहावरे के तथ्य को जैसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है।


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21-11-2017, 07:36 PM

एक भोजपुरी मुहावरा
(पूजा उपाध्याय के ब्लॉग से साभार)

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद 40 प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.


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29-11-2017, 08:21 PM

'प्राण जाय पर वचन न जाय' से
'जान बची सो लाखों पाय' तक

यह उस जमाने की कहानी है, जब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीनस्थ विभिन्न राजे-रजवाड़े अपनी-अपनी आजादी के लिए आपस में कटते-पिटते अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर चुके थे। हमारे कथा का नायक ऐसे ही एक रजवाड़े का युवराज था। इंग्लैंड में ऊंची शिक्षा हासिल कर लौटने के बाद उसने जाना कि उसके परदादा ने ‘प्राण जाय पर वचन न जाय’ नामक संस्कृति में फिट होने के कारण राजगद्दी हासिल की थी, और उसके दादा ने गरीब-निरीह प्रजा के प्राणों की खातिर अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण किया। और पिता ने प्रजा के साथ खुद को ‘जान बची तो लाखो पाये’ मुहावरे में फिट कर लिया। युवराज के पढाई के लिए विदेश जाने के पूर्व ब्रिटिश साम्राज्य ने सिर्फ इतना किया था कि एक दिन आत्मसमर्पण का भव्य आयोजन करवाया था। उसमें दादा से एक सादे कागज पर देसी भासा में हस्ताक्षर कराकर उन्हें आजाद कर दिया। यानी लिखित एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कराकर उनकी सेना के तमाम घोड़े-हाथियों पर कब्जा किया, उनकी तलवार-भाले से लैस सेना को ‘पैदल’ कर दिया और जान बख्श दी। अंग्रेजों के निर्देश पर दादा ने ‘राज्य’ के राज-काज का अधिकार युवराज के पिता को सौंप दिया। अंग्रेजी पढ़ने-लिखने की तैयारी में व्यस्त युवराज समझदार था। इसलिए समझ गया कि उसे गुलामी बरतने की आजादी मिली है। हालांकि यह भी कमोबेश ठीक उसी तरह की आजादी है, जो उसके पुरखों ने अपने शासन में अपनी प्रजा को दे रखी थी।
(इन्टरनेट से साभार)


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04-12-2017, 01:38 PM

बार बार सुना झूठ सच लगता है

एक भोलाराम नाम का व्यक्ति होता है। वह शहर से बकरी खरीद कर लाता है। रास्ते में उसे तीन ठग मिलते हैं। ठगों का दिल बकरी पर आ जाता है तथा वे आपस में सलाह करते हैं कि किसी न किसी तरह भोलू से बकरी हथिया ली जाये। तीनों ठग अलग-अलग हो जाते हैं।

तयशुदा योजना के तहत पहला ठग जाकर भोला राम को पूछता है, ''क्यों भाई, ये क्या ले जा रहे हो?"
''दिखाई नहीं देता? बकरी है।" भोले ने उत्तर दिया,

''बकरी कहां है, ये तो कुत्ता है।"

भोला उस ठग से बहस करने लगा, ''कुत्ता नहीं भई यह बकरी है, बकरी।"

''नहीं कुत्ता है।"

''नहीं बकरी है।"

''कुत्ता।"

''बकरी।"

ठग भोला राम से काफी देर बहस करने के बाद चला जाता है। वह थोड़ा आगे जाता है तो उसे दूसरा ठग मिलता है, ''भोला राम कहां से आ रहे हो?"
''शहर गया था, बकरी खरीदने।"

''तथा ले आये कुत्ता?" ठग ने ठहाका लगाया।

भोला राम ने बकरी की ओर देखकर जबाव दिया, ''कुत्ता नहीं, यह बकरी है।"

''बकरी क्या ऐसी होती है, यह तो कुत्ता है।"

भोला राम की उस ठग के साथ भी काफी बहस होती है। थोड़ा आगे जाने पर भोलाराम को तीसरा ठग मिलता है, ''और सुनाओ मित्र, कुत्ते को कहां ले जा रहे हो?"

कुत्ता कह रहे हैं तो जरूर ही यह कुत्ता होगा, बकरी नहीं। गांव में जाने पर लोग मजाक न करें, इसलिये वह बकरी का रस्सा वहीं छोड़कर चला जाता है तथा ठग बकरी को संभाल लेते हैं।


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13-12-2017, 01:35 PM

ढोल की पोल
(पंचतंत्र की एक कहानी)

एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे।

युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के ज़ोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज़ होती।

एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज़ सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज़ बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं ’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला।

एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज़ भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।

सियार बडबडाया 'ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।'

सियार फूंक-फूंककर क़दम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज़ हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।
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13-12-2017, 01:39 PM

'अब समझ आया।' सियार समझने की कोशिश करता हुआ बोला 'यह तो बाहर का खोल हैं। जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज़ बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।

अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला 'ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।'

सियारी पूछने लगी 'तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'

सियार ने उसे झिडकी दी 'क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाज़े हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाज़े से न भाग जाता?'

चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज़ निकली। सियार सियारी के कान में बोला 'सुनी उसकी आवाज? जरा सोच जिसकी आवाज़ ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।'

दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला 'होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।' दोनों ने ‘हूं’ की आवाज़ के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए 'हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।' और वे माथा पीटकर रह गए।
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16-12-2017, 03:56 PM

सावन के अंधे
(इन्टरनेट से)

पिछले दिनों जब फेसबुक पर अकल की मारी एक कमसिन सी दिखने वाली फेसबुकिया मित्री ने चैट करते हुए मुझे वेलेनटाइन डे की बधाई दी तो मेरी बत्तीसी मेरे मुंह से बाहर आते-आते रह गई। मेरे लिये यह अजब-अनूठा अनुभव था। जीवन में कभी भी वेलेनटाइन डे जैसे खास अवसरों पर इस तरह के आफरनुमा बधाई से मैं सदा ही अछूता रहा हूं। कहना न होगा कि जब तक इन अवसरों व बधाईयों का कुछ अर्थ समझ में आता तब तक सिर के बाल उजड़ने व बत्तीसी मुंह से बाहर आने को आतुर हो चुकी थी। पर कहते हैं कि बंदर लाख बूढ़ा हो जाये, गुलाटी लगाना नहीं छोड़ सकता। वही हाल हम मर्दों का है।

अंतिम अवसर का लाभ भला कौन उठाना नहीं चाहता। वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने ऐसे अवसरों को अपनी नादानी व अनभिज्ञता के चलते सदा खोया ही खोया हो। जीवन भर भले ही हमने कोई घास न खोदी हो पर बुढ़ापे की ओर लेफ्ट राइट करते हुए अंदर का मर्द उस दिन अंततः जाग ही उठा। मैंने बधाई देने वाली फेसबुकिया मित्री के कुछ और करीब आने की चाहत में कांपते हाथों से व डरते-डरते उसे बधाई तो दी ही चैट बाक्स में उसे ‘आई लव यू’ लिखने की जुर्रत भी कर डाली।

उस कुआंरी कन्या (उसकी फेसबुक प्रोफाइल के अनुसार) से लगभग आधे घंटे तक पूरी बराबरी से वैलेनटाइन डे सेलीबरेट करने के बाद अचानक बीच-बीच में उस कन्या द्वारा स्त्रीलिंग से बिछड़कर पुर्लिंग में बात करने पर दिमाग को कुछ खटका लगा। और मुझे यह बात समझते देर न लगी कि कोई अक्ल का बादशाह मेरी पहले से ही बुझ चुकी भावनाओं से खेलना चाहता है। मैं अपने अनेक करीबियों से फेसबुक पर फेक प्रोफाइल के ऐसे अनेक किस्से पहले भी सुन चुका था, फिर भी ‘दिल है कि मानता नहीं’ के कारण मैं काफी समय तक बेवकूफ बनता रहा।
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16-12-2017, 04:15 PM

सावन के अंधे
आखिर मुझे सोचना चाहिये था कि जिस व्यक्ति के जीवन में अधेड़ावस्था तक कभी बसंत बहार न आई हो और स्टूडेंट लाइफ से लेकर अभी तक अनेक कलाबाजियां दिखाने के बावजूद जिसे किसी गधी ने भी घास न डाली हो उसे आज के हालातों में कोई वचुर्वल दुनिया की कमसिना क्यों कर चारा डालने लगी। मेरे एक निजी मित्र के अनुसार आजकल 13-14 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते लड़के-लड़कियां अपना कोई न कोई जोड़ा बना ही लेते हैं। ऐसे में कोई मुझ जैसा अक्ल का मारा व्यक्ति यह सोचे कि इस उम्र तक कोई कुंवारी कली उसके लिये पलक पांवडे़ बिछाये बैठी होगी और उसे लिफ्ट देगी तो यह बेवकूफी और अक्लबंदी की पराकाष्ठा ही होगी।

मैं अपने मित्र की बात पर विश्वास करता पर कैसे? हमारी तो शादी ही 13-14 की उम्र में हो गई थी पर यहां तो सठियाने की उम्र में पहुंचने के बावजूद आज तक अपनी धार्मिक पत्नी तक के साथ जोड़ी बना पाने में कामयाबी मुयस्सर नहीं हो सकी। और वेलेंनटाइन डे को तो छोड ही दीजियेे करवा चौथ जैसे त्यौहारों पर भी पत्नी बख्शने के मूड में नहीं दिखाई देती है।

कहते हैं कि सावन के अंधे को हर समय हरा ही हरा नज़र आता है और यदि कोई काली अंधेरी रात में अंधा हुआ हो तो उसे भला क्या नज़र आयेगा, अंधेरा ही अंधेरा ना! मुझमे और मेरे निजी दोस्त में बस यही फर्क है। वह सावन का अंधा है तो मैं अंधरी रात का अंधा। जहां तक मुझे याद आता है कि मेरे साथ यह सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया था। कहते हैं 12 वर्ष में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं परन्तु वह दिन है और आज का दिन है पचासों सावन बीते, अनेक बसंत आये और गये पर इस वीराने में बहार नहीं आने वाली थी तो नहीं ही आई। अब इसे आप समय का दोष समझें या मेरे मुकद्दर का पर जो समय बीत गया वह अब अपने नये संस्करण या शोले फिल्म की तरह थ्री डी में तो आने से रहा। है ना सही बात?
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19-12-2017, 01:16 PM

दूध का दूध पानी का पानी
(मुहावरे पर कहानी)

पंजाब के उत्साह से भरे शहर में एक सीधा-सादा परिवार रहता था। उसमें थे- माता-पिता और उनकी दो बेटियाँ। एक का नाम रेखा और दूसरी का नाम राखी था। वे जुड़वाँ बहने थीं जो बिल्कुल समान दिखतीं थीं। राखी शैतान थी। रेखा सब की मदद करती थी जैसे कि एक अंधे आदमी को सड़क पार कराती तो कभी-कभी किसी बीमार पशु की देखभाल करती जबकि राखी सब को उल्लू बनाती और सब के साथ शरारत करती थी।

रेखा और राखी हाल ही में एक नए स्कूल में आठवीं कक्षा पढ़ने आईं थीं क्योंकि वे एक दूसरे के समान ही दिखती थीं । उनके अध्यापक तक चकरा जाते थे। सबसे बड़ी बात तो उनका नाम भी मिलता-जुलता था।

राखी हमेशा अध्यापकों का मज़ाक उड़ाया करती थी और अंत में सारा इल्ज़ाम अपनी जुड़वाँ बहन रेखा पर डाल देती थी जैसे कि अध्यापक की कुर्सी पर गोंद लगा देना तो कभी श्यामपट पर चित्र बना देना तो कभी कुछ और ऐसे मज़ाक उड़ाती थी । जब उनके माता-पिता को स्कूल बुलाया जाता था तब सभी रेखा को ही भला-बुरा कहते। माँ-बाप राखी जैसे रेखा को बनने को कहते और उसे डाँटते-फटकारते । ऐसे ही बहुत समय तक चलता रहा। आखिर में एक दिन दूध का दूध और पानी का पानी हो गया।


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19-12-2017, 01:17 PM

रेखा बीमार थी और घर पर अपने माता-पिता के साथ ही थी। वह स्कूल नहीं गई। राखी स्कूल गई थी । हमेशा की तरह राखी ने शैतानी की । दरवाजे के सामने केले का छिलका डाल दिया । जब अध्यापक ने कमरे के अंदर कदम रखा तो वे एक बड़े धमाके के साथ केले के छिलके पर फिसले और सारी कक्षा हँस पड़ी। सब इतना हँसे कि लग रहा था कि मेजें और कुर्सियाँ भी हँस रही थीं। बिना सोचे-समझे जल्दी से राखी ने पूरा इल्ज़ाम रेखा पर डाल दिया । राखी भूल गई थी कि रेखा घर पर बीमार थी और स्कूल आई ही नहीं थी। जब प्राचार्य जी ने रेखा के माता-पिता को बुलाया तो उन्हें यह सुनकर धक्का लगा क्योंकि रेखा तो उनके साथ घर पर ही थी। सबकी निगाह राखी पर उठी तब सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी की तरह साफ हो गया।

उस दिन ही सबको पता चला कि इन सब शरारतों के पीछे राखी ही है। उसे स्कूल से थोड़े दिन के लिए निलम्बित कर दिया गया । रेखा की अच्छाई और बिना कुछ कहे सब कुछ सहते जाने के लिए माता-पिता प्रसन्न हुए पर उन्हें दु:ख भी हुआ कि राखी ने रेखा को बहुत सताया था । माँ-बाप गुजरता समय तो वापिस ला नहीं सकते थे । पर राखी को इस व्यवहार के लिए उन्होंने रेखा को एक तोहफा दिया और आगे से उस पर झूठे इल्ज़ाम लगाने से पहले खुद भी एक बार सोचने का वादा भी किया।
(इन्टरनेट से साभार)


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19-12-2017, 01:26 PM

दूध का दूध और पानी का पानी (2)

एक छोटे गांव में एक गूजरी रहती थी। उसके दो भैंसे थी। वह प्रतिदिन शहर में दूध बेचने के लिए जाती थी। एक दिन उसने सोचा – मार्ग में तालाब तो पड़ता ही है यदि मैं पाँच सेर दूध में पांच सेर पानी मिला दूँ, तो मुझे दस सेर के पैसे मिलते रहेंगे। और मेरी चालाकी को कोई पकड़ भी नहीं सकेगा। क्योंकि दूध और पानी एक हो जायेंगे। उसने वैसा ही किया। शहर के लोगों को गूजरी के प्रति विश्वास था कि यह बिल्कुल शुद्ध दूध लाती है, तनिक भी मिलावट नही करती है। इससे किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। गूजरी का काम बनता रहा। उसकी अपनी निपुणता पर अपूर्व गर्व था कि संसार में मेरे जैसी होशियार महिला कोई नहीं है। मैं बड़े-बड़े आदमियों की आंखों में धूल झोंकने वाली हूँ।

चाहे कोई कितनी ही कपटाई करे, किन्तु एक दिन उसका भण्डाफोड़ हुए बिना नहीं रहता। पाप का घड़ा अवश्य फूटता है। “सौ सुनार की एक लुहार की” भी चरितार्थ होकर रहती है। महीना समाप्त होते ही गूजरी ने दूध का सारा हिसाब किया। जितने भी रुपये इकट्ठे हुए, उन सबको कपड़े में बांध टोकरी में रख गूजरी पानी पीने को तालाब में गई।


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19-12-2017, 01:27 PM

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अचानक एक बन्दर आया। उसने रुपयों की थैली को खाद्य वस्तु समझकर उठा लिया और वृक्ष के ऊपर जाकर बैठ गया गूजरी वापिस आई। रुपयों की थैली न दिखने के कारण अवाक् रह गई। चेहरे पर उदासी छा गई। इधर-उधर अन्वेषण करने पर उसकी नजर बन्दर पर जा पड़ी। करुण आक्रन्दनपूर्वक जोर-जोर से वह पुकारने लगी-“अरे बन्दर! यह थैली तेरे क्या काम आयेगी? इसमें तनिक भी खाद्य वस्तु नही। मुझ पर कृपा कर। मैं तेरा उपकार कभी नही भूलूंगी। मेरी थैली मुझे दे दे।”

बन्दर स्वभावतः चंचल होता ही है। उसने अपने नाखूनों से थैली को फाडा़ और क्रमशः एक रुपया टोकरी में और एक तालाब में डालना प्रारम्भ कर दिया। रुपया ज्यों ही पानी में गिरता त्यों ही गूजरी का कलेजा कराह उठता। वह हाय-हाय करती पर क्या उपाय। आखिर आधे रुपये टोकरी में आये और आधे तालाब (पानी में) में चले गये।

इतने में एक कवि वहां पर आ गया। उसने पूछा-“बहिन! रोती क्यों हो?’ गूजरी ने कहा-“अरे भाई! इस दुष्ट बन्दर ने मेरे आधे रूपये पानी में डाल दिये। इसी दुख में बेहाल हो रही हूँ।”

कवि बड़ा अनुभवी था। उसने कहा-“बहिन! तूने कभी दूध में पानी तो नहीं मिलाया? सच-सच बोल।” गूजरी-“मैंने अधिक तो नहीं मिलाया? किन्तु पांच सेर दूध में पांच सेर पानी अवश्य मिलाया था।” कवि-“तो फिर दुखी क्यों हो रही है? बन्दर ने यथोचित न्याय कर दिया। ’दूध का दूध, और पानी का पानी’ दूध के पैसे तुझे मिल गये और पानी के पैसे तालाब को मिल गये। जानती हो न्याय के घर देर है, अन्धेर नहीं।” गूजरी हाथ मलती हुई अपने घर को चल पड़ी।


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30-12-2017, 01:43 PM

मानिये तो देव नहीं तो पत्थर

जिन्होंने यह कहावत गढ़ी होगी, "मानिए तो देव, नहीं तो पत्थर,' उन्होंने सार की बात कही है। यही स्थिति है अधिक मनुष्यता की। मान-मान कर सब चल रहे हैं। अंधे ने मान लिया है कि रोशनी है। बस माना है; आंख खुली नहीं है; खुली आंख ने देखा भी नहीं। यह भी हो सकता है कि अंधा आंख पर चश्मा लगा ले। लेकिन अंधे की आंख पर चश्में का क्या मूल्य है? आंख हो तो चश्मा देखने में सहायता भला कर दे; आंख न हो तो चश्मा क्या करेगा? तो बहुत-से अंधे चश्मे लगाए चल रहे है; फिर भी टकराते हैं। टकराएंगे ही। बहुत-से अंधों ने चश्मा भी लगा लिया है, हाथ में लालटेनें भी ले रखी हैं ताकि रोशनी साथ रहे। मगर फिर भी टकराएंगे।

तुम्हारे शास्त्र तुम्हारे हाथ में लटकी हुई लालटेनों की तरह हैं। और तुम्हारे विश्वास तुम्हारी अंधी आंखों पर चढ़े हुए चश्मों की भांति हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है दो कौड़ी मूल्य नहीं है। इनसे हानि है; लाभ तो ज़रा भी नहीं। इनके कारण आंख नहीं खुल पाती है। इनकी भ्रांति के कारण तुम कभी जानने की चेष्टा में संलग्न ही नहीं हो पाते।

मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को मानना मत। मानने की जरूरत नहीं है। परमात्मा को मानोगे तो फिर जानोगे किसको? परमात्मा को मानने का मतलब तो यह हुआ कि तुमने जानने में हताशा प्रकट कर दी, तुम हार गए, तुमने अस्त्र-शस्त्र डाल दिए। तुमने कहा, खोज समाप्त हो गई; जानने को तो है नहीं, माने लेते हैं। सूरज को तो नहीं मानते हो, चांद को नहीं मानते हो; जानते हो। इस संसार को मानते तो नहीं, जानते हो। और परमात्मा को मानते हो? यह माना हुआ परमात्मा अगर तुम्हारे जाने हुए संसार के सामने बार-बार हार जाता है तो कोई आश्चर्य तो नहीं है। परमात्मा भी जाना हुआ होना चाहिए। जिस दिन परमात्मा जाना हुआ होता है उस दिन यह संसार फीका पड़ जाता है, माया हो जाता है, सपना हो जाता है।

अनुभव ही संपत्ति बनती है; थोथे विश्वास नहीं।

तो मैं इस कहावत में थोड़ा फर्क करता हूं। मैं कहता हूं: "जानिए तो देव, नहीं तो पत्थर।'

(ओशो)


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30-12-2017, 02:02 PM

परमात्मा आदमियोंकी आकांक्षाएं पूरी कर दे,
तो आदमी बड़ी मुसीबत में पड़ जाएं

एक आदमी ने यह कहावत पढ़ ली कि ‘परमात्मा आदमियों की आकांक्षाएं पूरी कर दे, तो आदमी बड़ी मुसीबत में पड़ जाएं’। उसकी बड़ी कृपा है कि वह आपकी आकांक्षाएं पूरी नहीं करता। क्योंकि अज्ञान में की गई आकांक्षाएं खतरे में ही ले जा सकती हैं। उस आदमी ने कहा, यह मैं नहीं मान सकता हूं। उसने परमात्मा की बड़ी पूजा, बड़ी प्रार्थना की। और जब परमात्मा ने आवाज दी कि तू इतनी पूजा-प्रार्थना किसलिए कर रहा है? तो उसने कहा कि मैं इस कहावत की परीक्षा करना चाहता हूं। तो आप मुझे वरदान दें और मैं आकांक्षाएं पूरी करवाऊंगा; और मैं सिद्ध करना चाहता हूं, यह कहावत गलत है।

परमात्मा ने कहा कि तू कोई भी तीन इच्छाएं मांग ले, मैं पूरी कर देता हूं। उस आदमी ने कहा कि ठीक। पहले मैं घर जाऊं, अपनी पत्नी से सलाह कर लूं।

अभी तक उसने सोचा नहीं था कि क्या मांगेगा, क्योंकि उसे भरोसा ही नहीं था कि यह होने वाला है कि परमात्मा आकर कहेगा। आप भी होते, तो भरोसा नहीं होता कि परमात्मा आकर कहेगा। जितने लोग मंदिर में जाकर प्रार्थना करते हैं, किसी को भरोसा नहीं होता। कर लेते हैं। शायद! परहेप्स! लेकिन शायद मौजूद रहता है।

तय नहीं किया था; बहुत घबड़ा गया। भागा हुआ पत्नी के पास आया। पत्नी से बोल कि कुछ चाहिए हो तो बोल। एक इच्छा तेरी पूरी करवा देता हूं। जिंदगीभर तेरा मैं कुछ पूरा नहीं करवा पाया। पत्नी ने कहा कि घर में कोई कड़ाही नहीं है। उसे कुछ पता नहीं था कि क्या मामला है। घर में कड़ाही नहीं है; कितने दिन से कह रही हूं। एक कड़ाही हाजिर हो गई। वह आदमी घबड़ाया। उसने सिर पीट लिया कि मूर्ख, एक वरदान खराब कर दिया! इतने क्रोध में आ गया कि कहा कि तू तो इसी वक्त मर जाए तो बेहतर है। वह मर गई। तब तो वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा कि यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। तो उसने कहा, हे भगवान, वह एक और जो इच्छा बची है; कृपा करके मेरी स्त्री को जिंदा कर दें।

ये उनकी तीन इच्छाएं पूरी हुईं। उस आदमी ने दरवाजे पर लिख छोड़ा है कि वह कहावत ठीक है। हम जो मांग रहे हैं, हमें भी पता नहीं कि हम क्या मांग रहे हैं। वह तो पूरा नहीं होता, इसलिए हम मांगे चले जाते हैं। वह पूरा हो जाए, तो हमें पता चले। नहीं पूरा होता, तो कभी पता नहीं चलता है।

(ओशो)


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24-01-2018, 01:50 PM

कुत्ते की पूंछ- विभिन्न स्थितियाँ
(इन्टरनेट से साभार डॉ किशोर पंवार)

जिस तरह बैरोमीटर का पारा हवा के दबाव के साथ ऊपर-नीचे होता रहता है, ठीक उसी प्रकार कुत्ते की पूँछ उसकी भावनाओं के उतार-चढ़ाव को दर्शाती है।

कुत्ते की पूँछ, वाह क्या बात है! झबरीली, रौबदार, कभी ऊँची, तो कभी नीची। इस पूँछ ने हिन्दी को भी समृद्ध किया है। 'कुत्ते की दुम' बड़ा जोरदार मुहावरा है। जिस व्यक्ति के व्यवहार में लाख कोशिशों के बावजूद कोई बदलाव न दिखे उसके लिए यही कहा जाता है कि वह तो 'कुत्ते की दुम' है। यह भी कहा जाता है कि बारह साल तक पोंगली में रखने के बाद भी 'कुत्ते की पूँछ टेढ़ी की टेढ़ी' रहती है।

आइए, मुहावरों और कहावतों को यहीं छोड़ कुत्ते की पूँछ की वास्तविकता पर आते हैं। दरअसल, कुत्ते की दुम उसकी पूँछ के अलावा उसकी भावनाओं का बैरोमीटर भी है। जिस तरह बैरोमीटर का पारा हवा के दबाव के साथ ऊपर-नीचे होता रहता है, ठीक उसी प्रकार कुत्ते की पूँछ उसकी भावनाओं के उतार-चढ़ाव को दर्शाती है।

जंतुओंके व्यवहार का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक उनके प्रत्येक व्यवहार को एकइकाई के रूप में देखते हैं जिन्हें कोनार्ड लॉरेंज ने फिक्स्ड एक्शन पैटर्न (एफएपी) यानी 'फेप' कहा है। एक फेप किसी जंतु की ऐसी मुद्रा या गति है, जो अपनी भावनाएँ दूसरे को प्रेषित करने में सहायक होती है।
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24-01-2018, 01:51 PM

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कुत्ते की पूँछ के उतार-चढ़ाव फेप के शानदार उदाहरण हैं, जैसे-

* कुत्ते की पूँछ जब दोनों टाँगों के बीच अंदर की ओर मुड़ी हो तो इसका अर्थ है, इसने दूसरे कुत्ते से अपनी हार स्वीकार ली है।

* पूँछ दोनों टाँगों के बीच में दबी हुई परंतु अंदर मुड़ी न हो तो इसका आशय है, दूसरे की सत्ता स्वीकारना।

* जब कुत्ते की पूँछ जमीन के समानांतर खड़ी हो तो इसका मतलब है, यह कुत्ता दूसरे कुत्ते को डरा रहा है।

* जब पूँछ ऊपर की ओर सीधी खड़ी हो तो इसका अर्थ होता है समूह पर अपना प्रभुत्व दर्शाना अर्थात समूह का मुखिया होना।

* जब पूँछ टाँगों के बीच थोड़ी-सी बाहर की ओर लटक रही हो तो समझिए वह कह रहा है, 'मुझे कोई लेना-देना नहीं है।'

ऐसा नहीं है कि व्यवहार-प्रदर्शन में केवल पूँछ की स्थिति में ही बदलाव आता है। पूँछ के साथ चेहरे के हाव-भाव भी बदलते हैं जिनमें मुँह और कान की स्थितियाँ बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं।
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27-01-2018, 12:56 PM

रंगे हाथ पकडे जाना

यह मुहावरा सदियों से चला आ रहा है : ”रंगे हाथों पकड़े जाना ।” आखिर ये मुहावरा कब और कैसे बना ? हमारा खयाल है कि इस घटना के बाद ही यह बना होगा-एक दिन दक्षिण भारत के प्रसिद्ध विजय नगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराय के दरबार की कार्यवाही चल रही थी कि नगर सेठ वहां उपस्थित होकर दुहाई देने लगा : ”महाराज! मैं मर गया…बरबाद हो गया-कल रात चोर मेरी तिजोरी का ताला तोड़कर सारा धन चुराकर ले गए। हाय…मैं लुट गया।”

महाराज ने तुरन्त कोतवाल को तलब किया और इस घटना के बारे में पूछा । कोतवाल ने बताया : ”महाराज! हम कार्यवाही कर रहे हैं मगर चोरों का कोई सुराग नहीं मिला है ।” ”जैसे भी हो, वो शीघ्र ही पकड़ा जाना चाहिए ।” महाराज ने कोतवाल को हिदायत देकर सेठ से कहा : ”सेठ जी आप निश्चित रहे-शीघ्र ही चोर को पकड़ लिया जाएगा ।”

आश्वासन पाकर सेठ चला गया । उसी रात चोरों ने एक अन्य धनवान व्यक्ति के घर चोरी कर ली । पुलिस की लाख मुस्तैदी के बाद भी चोर पकड़े न जा सके । और उसके बाद तो जैसे वहां चोरियों की बाढ़ सी आ गई। कभी कहीं चोरी हो जाती कभी कहीं।
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27-01-2018, 12:58 PM

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सभी चोरियां अमीर-उमरावों के यहाँ हो रही थीं । हर बार चोर साफ बचकर निकल जाते । शिकायतें सुन-सुनकर महाराज परेशान हो उठे । उन्होंने एक दिन क्रोध में अपने दरबारियों को खूब लताड़ा : ”क्या आप लोग यहां हमारी शक्ल देखने के लिए बैठे हैं-क्या कोई भी दरबारी चोर को पकड़ने की युक्ति नहीं सुझा सकता ।”

सभी दरबारी चुप बैठे रहे । क्या करें ? जब कोतवाल जैसा अनुभवी व्यक्ति चोरों को नहीं पकड़ पा रहा तो कोई दरबारी भला कैसे पकड़ सकता था । किन्तु तेनालीराम को बात खटक गई । वह अपने स्थान से उठकर बोला : ” महाराज! मैं पकडूँगा इस चोर को ।”

उसी दिन तेनालीराम शहर के प्रमुख जौहरी की दुकान पर गया । उससे कुछ बातें कीं, फिर अपने घर आ गया । अगले ही दिन जौहरी की ओर से एक प्रदर्शनी की मुनादी कराई गई जिसमें वह अपने सबसे कीमती आभूषणों और हीरों को प्रदर्शित करेगा । प्रदर्शनी लगी और लोग उसे देखने के लिए टूट पड़े ।

एक से बढ़कर एक कीमती हीरे और हीरों के आभूषण प्रदर्शित किए गए थे । रात को जौहरी ने सारे आभूषण व हीरे एक तिजोरी में बंद करके ताला लगा दिया जैसा कि होना ही था-रात को चोर आ धमके । ताला तोड़कर उन्होंने सारे आभूषण और हीरे एक थैली में भरे और चलते बने ।
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27-01-2018, 01:00 PM

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इधर चोर दुकान से बाहर निकले, उधर जौहरी ने शोर मचा दिया । देखते ही देखते पूरे क्षेत्र में जाग हो गई । चोर माल इधर-उधर डालकर लोगों की भीड़ में शामिल हो गए । मगर तभी सिपाहियों की टुकड़ी के साथ तेनालीराम वहां पहुंच गए और सिपाहियों ने पूरे क्षेत्र की नाकेबंदी कर ली ।

तेनालीराम ने कहा : ”सब की तलाशी लेने की आवश्यकता नहीं है, जिनके हाथ और वस्त्र रंगे हुए हैं, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए वे ही चोर हैं ।” और इस प्रकार आनन-फानन में चोर पकड़े गए । अगले दिन उन्हें दरबार में पेश किया गया । महाराज ने देखा कि चोरों के हाथ और वस्त्र लाल रंग में रंगे हुए हैं ।

”इनके हाथों पर ये रंग कैसा है तेनालीराम ।” ”महाराज! तिजोरी में माल रख ने से पहले उसे लाल रंग से रंगा गया था-इसी कारण इनके हाथ रंगे हुए हैं । इसी को कहते हैं, चोरी करते रंगे हाथों पकड़ना ।” ”वाह!” महाराज तेनालीराम की प्रशंसा किए बिना न रह सके, फिर उन्होंने चोरों को आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया ताकि वे जीवन में फिर कभी चोरी न कर सकें ।
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07-02-2018, 09:54 PM

राम राम जपना, पराया माल जपना
(उत्पत्ति)
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राम नाम जपना, पराया माल अपना’ – आजकल तो यह जुमला अधिक सुनाई नहीं देता है पर जब मैं स्कूल में था उन दिनों इसका बड़ा बोल-बाला था। इस जुमले ने न-जाने कितने बालक-बालिकाओं के मन में ब्राह्मणों के विरुद्ध दुर्भावना का बीज बोया था। समाज में कुछ ऐसी छवि आँकी गई थी जैसे ब्राह्मण मुँह से तो राम-नाम जपते दिखाई देते हैं पर उनकी नज़र दूसरों के माल पर रहती है जिसे वे हड़पने की फ़िराक में होते हैं। यह ख्याल कभी भी मेरे मन में न आया कि आर्यसमाज का इस षड़यंत्र में कोई हाथ हो सकता है। एक विद्वान वक्ता ने अपने श्रोताओं को बड़े ही गर्व से बताया कि उस तुकबंदी को रचने का श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है।

हमें यह सामग्री इन्टरनेट से प्राप्त हुई है. किसी का दिल दुखाने की हमारी कोई मंशा नहीं है.
(साभार: सत्यमार्ग)


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14-06-2018, 11:55 PM

कुछ पुराने मुहावरों का नया हुलिया

1- अपने मुँह मियां मोदी होना।

2- नौ दो माल्या हो जाना।

3- धोबी का आडवाणी ना घर का ना घाट का।

4- बेपेंदी का मुलायम होना।

5-अमित शाह की दाढ़ी मे तिनका।

6- काला अक्षर स्मृति ईरानी बराबर।

7- मोदी के ढोल सुहाने।

8- ना मामा से रामदेव मामा अच्छा।

9- घर का भेदी राजनाथ ढाए।

10- आ जेटली मुझे मार (g s t )

11- पप्पू क्या जाने सत्ता का स्वाद।

(इन्टरनेट से)


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17-03-2019, 03:06 PM

एक की छींक सबका जुकाम

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यूरोप में सन 1815 में विएना कांग्रेस के समय एक जुमला बहुत मशहूर हुआ था 'यदि यूरोप के किसी एक देश को छींक आती है तो पूरे यूरोप को ज़ुकाम लग जाता है.' लेकिन मैं इस प्राचीन मुहावरे को अक्सर हमारी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एकदम सटीक पाता हूँ.

बॉलीवुड में यदि एक फ़िल्मकार को छींक आती है तो पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री को ज़ुकाम लग जाता है. क्योंकि हम अक्सर देखते हैं कि हमारे यहाँ यदि किसी एक कथानक, एक विषय पर बनी फ़िल्म हिट हो जाती है तो लगभग सभी फ़िल्मकार उसी थीम पर फ़िल्म बनाने लगते हैं.

आजकल इस बात को बायोपिक फ़िल्मों के रूप में साफ़ देखा जा सकता है. पिछले कुछ समय में हमारे यहाँ जिस तरह कुछेक बायोपिक फ़िल्म हिट-सुपर हिट हो रही हैं, उसे देख अनेक फ़िल्मकार अब बायोपिक फ़िल्म बनाने में जुट गए हैं.


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