विकासशील देशों में पर्यावरण विनाश का मुख्य दोषी किसे माना गया है - vikaasasheel deshon mein paryaavaran vinaash ka mukhy doshee kise maana gaya hai

पर्यावरण प्रदूषण पर दो निबंध | Read these two Essays on Environmental Pollution in Hindi.

# Essay 1: पर्यावरण प्रदूषण पर दो निबंध | Essay on Environmental Pollution in Hindi!

प्रस्तावना:

आज हम 21 वीं सदी में जाने की धूमधाम से तैयारी कर रहे हैं, लेकिन त्रासदी तो यह है कि हम एक अस्वस्थ सदी की आगवानी करने के लिए मजबूर हैं । विकास को गलत परिभाषित करना ही आज पर्यावरण संकट का कारण बन गया है ।

जिस कारण वर्तमान में मानव सभ्यता के सम्मुख पर्यावरण प्रदूषण का गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है । जल, जमीन, जंगल, वायु, कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं रह गया है जहाँ प्रदूषण का खतरा महसूस नहीं किया जा रहा है ।

चिन्तनात्मक विकास: जब से मनुष्य अस्तित्व में आया है, तभी से ही व्यक्ति तथा प्रकृति की लड़ाई होती आयी है । सदैव ही व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य प्रकृति पर आधिपत्य जमाना रहा है । प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की इस प्रक्रिया को ही मनुष्य ने विकास कहा है । पर्यावरण प्रदूषण सारी दुनिया के लिए एक गंभीर समस्या का रूप ने चुका है ।

राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह सर्वाधिक चर्चित विषय बना हुआ है । पर्यावरण को हम दो भागों में बाँट सकते हैं: प्राकृतिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण । यह दोनों ही एक-दूसरे से परस्पर सम्बधित हैं । प्रदूषित प्राकृतिक पर्यावरण सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण को कुप्रभावित करते हैं और सामाजिकसांस्कृतिक जटिलतायें, प्राकृतिक पर्यावरण पर कुप्रभाव डालती है ।

इससे मानव सभ्यता को खतरा उत्पन्न हो गया है । उद्योगीकरण, प्राकृतिक असन्तुलन, सामाजिक, राजनैतिक एवम् सांस्कृतिक समस्यायें पर्यावरण को प्रदूषित कर रही हैं जिसके कारण सामाजिक सन्तुलन बिगड़ गया है । अनेक बीमारियाँ फैल रही हैं । प्रशासनिक व्यवस्था असफल हो रही है । पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता अत्यन्त आवश्यक है ।

उपसंहार:

अत: हमें विकास की स्वतन्त्र अवधारणा का निर्माण कुछ इस प्रकार करना होगा जिससे विकास की गति में हम पिछड़ भी न जाएं तथा बिकास के कारण हमें पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं से भी न जूझना पड़े । हर समाज के जीने का अपना एक ढंग होता है, जीवन शैली होती है, भाषा, रहन-सहन, एक समूची जीवन दृष्टि होती है और यह सब उस इलाके के पर्यावरण से संचालित होता है ।

बर्फ से घिरे लोगों के लिए बर्फ चिंता का विषय नहीं होती, समुद्र तट वासी सागर की लहरों से परेशान नहीं होते, रेगिस्तान के लोगों के लिए रेत समस्या नहीं होती । विभिन्न असमान भौगोलिक स्थितियो के पीछे प्रकृति की एक व्यवस्थित कल्पना है और हर समाज अपनी इन्हीं भौगोलिक परिस्थितियों से एक जीवन दृष्टि विकसित करता है जो पर्यावरण पर आधारित होती है ।

मगर मानव विकास के इतिहास की एक सच्चाई यह भी है कि हर कालखंड में किसी विचार विशेष का झंडा बुलद रहता है । पिछले 150 सालों से पश्चिमी विशेषकर यूरोपियन जीवन पद्धति की वैचारिकता का झडा बुलद है । हिंदुस्तान में वर्तमान सदी के प्रारंभ से ही इस विचार बुलंदी का खास प्रभाव रहा है ।

पर्यावरण को जो एक शब्द सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है वह है ‘विकास’ । अपने आपमें यह निगरानी करने लायक शब्द है । हिंदी के पुराने ग्रंथों को देखें तो शायद ही कहीं यह शब्द मिल पाए । गांधी के समूचे वाङ्‌मय को देखें तो कहीं ‘विकास’ शब्द का इस्तेमाल नहीं दिखेगा और अगर कहीं यह शब्द मिल जाए तो वहां यह अपने वर्तमान अर्था में नहीं होगा ।

कोई भी समाज अपने कामो को इस ढंग से नहीं देखता है कि हमने विकास किया या नहीं । जो एक कालचक्र है वह सीधी रेखा में नहीं चलता । किसी 1 वीं या 21 वीं शताब्दी के लिए नहीं चलता । किसी नेता को देश और समाज को अपने कंधों पर उठा कर 21 वीं शताब्दी में नहीं ले जाना पड़ता ।

एक दिन सूरज डूबेगा और आप 21 वीं सदी में पहुंचे होंगे, इन्हीं सडकों, इसी अर्थव्यवस्था के साथ आप 21 वीं शताब्दी में पहुंच जाएंगे । उस दिन आप किसी नई रोशनी, नई आभा और नए जागरण में नहीं जगेंगे । स्वाधीनता के पश्चात् हमारे देश ने अग्रेजों की जीवन-पद्धति को जस का तस अपना लिया । क्या पर्यावरण के विनाश में इस उधार की जीवन पद्धति का भी योगदान है ?

पश्चिमी जीवन-पद्धति आज भी हमारी लालसाओं में शामिल है । जब तक ऐसा रहेगा हमारा पर्यावरण अपने विनाश के लिये अभिशप्त रहेगा । स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय जीवन-पद्धति अपने परम्परागत रूप में सचालित थी ।

अत: यह माना जाता है कि यदि यही स्थिति वर्तमान में विद्यमान रहती तो पर्यावरण बच सकता था । लेकिन विकास की आधुनिक परिभाषा में यह जीवन-पद्धति पिछडे होने की निशानी है । यह सत्य है कि देश में उद्योगीकरण अंग्रेजी साम्राज्य की ही देन है किन्तु यदि आज हम देश के उद्योगीकरण की ओर से आँखे मूंद लें तो भारतीय अर्थव्यवस्था का आधारभूत ढाँचा ही चरमरा जाएगा । उद्योगीकरण के परिणामस्वरूप ही देश ने आज विकसित देशों की पक्ति में खड़े होने का सामर्थ्य जुटा लिया है ।

पर्यावरण की चिन्ता भारतीय समाज में तथ्यात्मक है । हम उद्योगीकरण भी जारी रखना चाहते हैं और पर्यावरण भी सही रखना चाहते हैं । क्या यह दोनों बातें एक साथ सम्भव है’ नहीं, बिल्कुल सम्भव नहीं है । पर्यावरण लगातार बिगड़ रहा है । जन सामान्य की परम्परागत सोच अभी तक जितनी बदलनी चाहिए थी उतनी बदली नहीं है । वर्तमान परिस्थिति में पर्यावरण का अर्थ सिर्फ कुछ सुन्दर पेड़, जानवर और साफ हवा-पानी ही नहीं है ।

आज की स्थिति यह है कि प्रदूषण पृथ्वी पर पर्यावरण के विनाश का कारण बन कर उभर रहा है, जिससे भौतिकवादी विकास की अंधी दौड के साथ-साथ आधुनिक राजनीतिक स्वार्थ और इस स्वार्थ मे उपस्त्री सौदेबाजी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है ।

फिर इसे रोकने की चिन्ता क्यों नहीं बढ़ रही ? इस आकस्मिक प्रश्नों पर आज सामान्यता सम्पूर्ण मानवता को मिल-बैठकर विचार करना चाहिए क्योंकि पर्यावरण की समस्या समूचे विश्व की समस्या है । आज कुछ विकासशील देशों द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि पर्यावरण की चिन्ता करना उन अमीर देशों का काम है जिनके पास अपनी आजादी की हिफाजत के लिए पर्याप्त पैसा है ।

बिगड़ते पर्यावरण, प्रलय की कल्पना, सीमित विकास, आबादी का तेजी से बढ़ना और प्राकृतिक संपदा का संरक्षण जैसी बातो में गरीबी, भूख और बीमारी से जूझ रहे आदमी को कोई दिलचस्पी नहीं है और इनके इन तर्को का जवाब यह दिया जाता है कि विकासशील देश जिन समस्याओ से आज जूझ रहे हैं, वैसी समस्याएं विकसित देश भुगत चुके हैं ।

अर्द्धविकसित देशों द्वारा दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि प्रदूषण से गरीबों का कोई सरोकार नहीं है लेकिन साथ ही इसका जवाब भी यह कहकर दिया जाता है कि गरीबी पर्यावरण की कुछ ऐसी अप्रत्यक्ष समस्याओं को जन्म देती है जिनसे गरीबी और बढती है और किसानों द्वारा कमजोर जमीन पर खेती करने से उसका क्षरण और भी बढता है, अत: किसान की निर्धनता बढती ही जाती है जिसे वे समझ नहीं पाते ।

दूसरा उदाहरण गरीबों द्वारा जंगल की लकडी काटकर शहर ले जाकर बेचने को दिया जाता है । इससे जंगल तो नष्ट होता ही है, जलाऊ लकडी की भी कमी हो रही है और अंतत: गरीबों की तकलीफें ही बढ़ रही हैं । इस प्रकार से विकसित और विकासशील देशों के बीच आरोप और प्रत्यारोप की राजनीति में पर्यावरण की समस्या गंभीर से गंभीरतम ही होती जा रही है ।

यदि हम ससाधनों के औपनिवेशीकरण को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहें तो हम पाते हैं कि उस समय लोगो ने अपने पर्यावरण के अनुसार अपना रहन-सहन बना लिया था । रेगिस्तानी इलाको में रहने वालो ने पशुपालन व बंजारा जीवन पद्धति अपनाई तो पहाडो पर रहने वाली ने क्षेत्र बदल-बदल कर खेती करने का तरीका विकसित किया था ।

मकान और शहरों का निर्माण स्थानीय चीजों का उपयोग करके किया गया और ये स्थानीय मौसम के अनुकूल ही बनें पर आधुनिक विज्ञान के आते ही कुछ लोगो के हाथों में ढेर सारी ताकत आ गयी । इस वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान का इस्तेमाल समृद्ध लोगो ने और अधिक स्वार्थ साधने के लिए किया । सबसे पहले दूरदराज के क्षेत्रों में प्राकृतिक ससाधनो के दोहन के लिए उपनिवेश बनाया ।

जब उपनिवेश खत्म हो गये तो दुनिया भर के संसाधनो के दोहन का भार बहुराष्ट्रीय कंपनियो ने उठा लिया । इस प्रकार निकट भविष्य में आबाद जगहों पर संसाधनो की तलाश का अर्थ होगा, गंभीर टकराव । सघन आबादी वाले विश्व में एक जगह की चीज जो दूसरे के लिए संसाधन है, वह उस क्षेत्र के अस्तित्व का आधार भी है और जब यह चीज जीवन-मरण से जुडी हों तो उसके लिए सघर्ष बढेगा ।

तब धनी देशों द्वारा साधनो का जो औपनिवेशीकरण किया जा रहा है, वह गरीब देशों को अपनी ही जमीन पर और भी बुरी हालत मे डाल देगा । यही दुष्प्रवृत्ति आज के माहौल में पर्यावरण का राजनीतिक प्रोपगेंडा बनकर प्रबल रूप से उभर रही है, जिसकी मार विकासशील देशो पर पड़ रही है ।

यह दोषपूर्ण प्रक्रिया पश्चिमी उद्योगीकरण वाले उस ढांचे पर प्रश्नचिन्ह लगाती है जिसमें कुछ लोगों की जरूरत को पूरा करने के लिए दुनिया भर के संसाधनो का उपयोग किया जाता है । यह वर्ग दूर की चीजो को अपने लिए खींच लाता है जिसे स्वार्थ की राजनीति से प्रेरित पर्यावरण के विरुद्ध किया गया काला कारनामा कहा जा सकता है ।

दिल्ली में पहनी गई उस कमीज के बारे में जरा सोचकर तो देखिए कि इस कमीज को तैयार करने के लिये जो कपास तैयार की गयी है, वह महाराष्ट्र के खेतों में ढेर सारी कीटनाशक दवा छिड़कने के बाद पैदा हुई है । यह दवा मच्छरों को और भी जबर बनाती है ।

दूसरी ओर जरा उस पश्चिमी उपभोक्ता की स्थिति की कल्पना करें, जिसके लिए मांस और फल अफ्रीका और लातिन अमरीका से, मूंगफली पश्चिमी अफ्रीका से, कॉफी पूर्वी अफ्रीका से, चाय भारत से और लकड़ी पूरी दुनिया से खिंची चली आती है । यह पश्चिमी उपभोक्ता अपनी किसी भी महत्वपूर्ण जरूरत के लिए अपने पास के पर्यावरण को दूषित नहीं करता है । ऐसे में वह धीरे-धीरे इसमें विनाश की बात को भूल रहा है ।

इस तरह हम आज तक ऐसी राजनीति से प्रेरित आर्थिक विकास के चक्कर में फंस गए हैं जिसमें सत्ता-शक्ति संपन्न लोग पास या दूर के पर्यावरण की चिन्ता करना भूल गये हैं और भयंकर दरिद्रता में कैसे और बिगडते पर्यावरण की मुश्किल झेल रहे विपन्न लोग पर्यावरण की चिन्ता से ग्रसित हो चले हैं और यह भी अजीब बात है कि इन्हीं लोगो के बीच पर्यावरण संबंधी शिक्षा के कार्यक्रम चलाने की बात की जाती है ।

इसी सदर्भ में आज ब्रिटेन इस बात पर गर्व करता है कि उसके यहां सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा या स्तर बहुत घट गया है । पर वास्तविकता यह है कि ब्रिटेन में ऐसी चिमनियों को बहुत उठा दिया गया है, जिससे सल्फर डाइऑक्साइड प्रवाह के साथ बहकर उत्तरी समुद्र के पार स्कैनेवियाई देशों मे पेड-पौधों पर अपना कहर बरपा रही है ।

सन् 1992 में रियो-डिजेरियो में सम्पन्न पृथ्वी शिखर सम्मेलन में भी कुछ ऐसे समझौतों को अमरीका जैसे कुछ विकसित देश, विकासशील देश पर थोपने की कोशिश करते देखे गये जिससे भविष्य में जनसख्या, बेरोजगारी, भूखमरी आदि की त्रासदी इन विकासशील देशो को भोगनी पड़ती ।

वन सरक्षण सिद्धांत पर अमरीका ने इस सम्मेलन में एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें कहा गया था कि चूंकि जंगल विश्व की सांझा सम्पत्ति हैं, इसलिए इनकी देखरेख के लिए एक अतरराष्ट्रीय कानून बनना चाहिए लेकिन निजी वनों को इस कानून क्षेत्र से बाहर रखने की बात कही गयी ।

जाहिर है कि अमरीका में अधिकतर वन निजी स्वामित्व के अतर्गत हैं । फलस्वरूप विकासशील देशों ने इस समझौते को मानने से इन्वगर कर दिया है । अत: इस प्रकार के स्वार्थ से प्रेरित जो राजनीतिक दाव पेच खेले जा रहे हैं, पर्यावरण के लिए वे गंभीर खतरा पैदा कर सकते हैं ।

बहरहाल आज की परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि भोजन, वस्त्र और आवास की अनिवार्य आवश्यकता से कहीं पहले पर्यावरण को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है । क्योंकि अगर हवा इतनी प्रदूषित हो गयी कि आपका दम घुटने लग जाए तो ये सारी भागदौड एवं विकास की दुनिया धरी की धरी रह जाएगी ।

पानी इतना दूषित हो जाए कि जिसे पीकर हम बीमारी के चंगुल में फस जाए तो जीवन का महत्व ही समाप्त हो जाता है । वातावरण में शोर इतना बढ जाए कि आप अपनी श्रवण शक्ति ही खो दें, तो ये भौतिकवादी सुख सुविधा किस काम की ।

इस प्रकार पहले हम अपने आपको, अपने पर्यावरण को स्वार्थपरक राजनीति के चुंगल से मुक्त कराए, यही स्वयं के हित में, सम्पूर्ण मानवता की प्रकृति के हक में हितकर होगा क्योंकि यह समस्या किसी एक व्यतित की नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति की है ।

विकास के नाम पर मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल नहीं, बल्कि उनका दोहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गई हैं । प्रकृति के साथ इस प्रकार के व्यवहार ने वायु, जल, जमीन और आकाश को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है । अविचारित और अनियंत्रित उद्योगीकरण से आज प्रदूषण का स्तर कुछ इतना बढ़ गया है कि वह भौतिक, रासायनिक और जैविक रूप में जीवन के लिए खतरे की घंटी है ।

प्रकृति से छेड़छाड़ के अत्यंत विकराल नतीजे सामने आ रहे हैं । ताप के एक नाजुक संतुलन पर टिकी हमारी धरती इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती । पिछले कुछ वर्षो से पृथ्वी के तापमान में जो लगातार वृद्धि महसूस की जा रही है वह चिंताजनक है ।

तमाम पुराने रिकार्ड तोडते हुए ‘पारा’ रोज-बेरीज जिस तरह नयी-नयी ऊचाइयों को छू रहा है, उसने मौसम वैज्ञानिकों को चिंतित कर दिया है । तपिश की विकरालता का यह आलम है कि मौसम की शुरुआत में ही ग्लोब के कुछ हिस्से ‘तंदूर’ की तरह तपने लगे हैं ।

मौसम का मिजाज जिस तरह और जिस तेजी से बदल रहा है, वह एक ”तापयुग” की आहट के सिवा कुछ भी नहीं । ‘ग्रीन पीस’ नामक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 140 वर्षो के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है ।

लेकिन वर्तमान ने इस दर में चिंताजनक उछाल आया है । आने वाले समय में उक्त तापमान में प्रति दशक 0.3 डिग्री सेल्सियस वृद्धि का अनुमान है । इस तरह सन् 2100 तक पृथ्वी के औसत तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी । जबकि अमरीका के वर्ल्डवाच नामक संस्थान द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार सन 2050 तक पृथ्वी के औसत तापमान के 16 से 19 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने की उम्मीद है ।

वर्तमान में यह 15.32 डिग्री सेल्सियस पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से होने वाले दुष्प्रभावों में मौसम चक्र में परिवर्तन होने, जल के तापीय प्रसार और हिमखंडों के पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ने, अतिवृष्टि के कारण बाढ आने, सूखा पड़ने और रेगिस्तानीकरण की प्रक्रिया तेज होने आदि को गिनाया जाता रहा है ।

लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इससे जलवायु में पूरी तरह बदलाव का खतरा भी पैदा हो रहा है, जो धरती के जीवों और वनस्पतियों के जीवन में भी परिवर्तन ला देगा । इस कारण बहुत सी प्रजातियों के लुप्त होने का भी अनुमान है ।

पृथ्वी का यह बढता हुआ तापमान खतरनाक महामारियों को भी दावत दे रहा है । ‘ग्रीन पीस’ की रिपोर्ट के अनुसार, तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से घातक बीमारी और महामारी फैलाने वाले कीटों और जीवों के फैलाव में वृद्धि हो सकती है ।

इस रिपोर्ट के अनुसार केवल रोग फैलाने वाले जीवों का ही नहीं, फसलों और पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों का फैलाव और प्रकोप भी बढ़ सकता है । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका द ‘साइंस’ में कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक रिपोर्ट में भी ऐसी ही आशंका व्यक्त की गयी है ।

पृथ्वी का तापमान बढने का विश्वव्यापी असर अब नजर आने लगा है । इससे मध्य यूरेशिया तथा उत्तरी अमरीका की वायु की शुष्कता में खतरनाक हद तक हजाफा हुआ । इस बढ़ते हुए तापमान का स्वाभाविक असर समुद्र पर भी पड रहा है । उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षो मे समुद्र की सतह में छ: सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है ।

वैज्ञानिकों के अनुसार अगर सब कुछ यूं ही चलता रहा तो सन् 2030 तक समुद्र का जलस्तर बीस सेंटीमीटर तक ऊपर उठ जायेगा । कहा तो यहां तक जा रहा है कि यदि उक्त तापमान में साढ़े तीन डिग्री की वृद्धि और हो गयी तो अंटार्कटिका और आर्कटिक ध्रुवों के विशाल हिमखंड पिघल जायेंगे और समुद्र का जलस्तर एक मीटर ऊंचा हो जायेगा । ऐसी स्थिति बहुत चिंतनीय है ।

जलवायु में परिवर्तन के कारण एशिया के सात देशों के सामने संकट पैदा हो सकता है । विशेषज्ञों ने कहा कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और फिलीपीन जलवायु परिवर्तन के भवर में हैं । तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से इन देशों के तटवर्ती इलाको में समुद्र की सतह धीरे-धीरे ऊंची हो रही है ।

गौरतलब है कि इससे अन्य समस्याओं के जन्म लेने के साथ ही साथ भूमि, जल और पृथ्वी की उर्वरा शक्ति पर भी प्रतिकूल असर होगा । जलवायु में बदलाव का असर पेडू-पौधों और फसलों पर भी पड़ेगा । इससे कुछ पौधो के लुप्त हो जाने और कुछ के स्थान बदल जाने का अनुमान है । कहने की जरूरत नहीं कि वनों की संरचना में बदलाव से मौसम का मिजाज और भी खराब हो जाने की आशंका है ।

धरती के बढ़ते हुए तापमान और उसके नतीजे में होने वाले जलवायु परिवर्तन का सबसे खतरनाक अजाम विकासशील देशों को भुगतना पड रहा है, हालाकि इस समस्या को पनपाने में उनकी हिस्सेदारी अपेक्षाकृत बहुत कम है । दरअसल ये विकासशील देश मूलत: जिन प्राकृतिक प्रणालियो पर निर्भर हैं धरती के बुखार से आज उनका वजूद खतरे में पड़ गया तापमान में हो रही वृद्धि के जो भी कारण गिनाये जा रहे हे, उनमें ग्रीन हाउस गैसों का निस्सरण प्रमुख है ।

ऊर्जा की जरूरतों के लिए जीवाश्मों (फॉसिल्स) पेट्रोलियम और कोयले जिस बेतरह जलाया जा रहा है, उसने वायुमंडल को प्रदूषित कर दिया है । वायुमंडल में गैसों का खतरनाक हद तक जमाव हो गया है । वैज्ञानिकों के अनुसार, यदि इन गैसों के निसकरण में यथोचित कटौती नहीं की गयी तो पृथ्वी का तापमान लगातार बढता जायेगा ।

यह सच है कि विश्वव्यापी औद्योगिक क्रांति के नतीजे में कार्बन, एच.सी.एफ.सी. मिथाइल ब्रोमाइड और एअरोसल जैसे रसायनों ने मानवता के लिए नये संसाधन और सुविधाएं जुटायीं, लेकिन इन्हीं की बदौलत पृथ्वी के इर्द-गिर्द लिपटी ”ओजोन” की परत भी छीजने लगी है ।

मौजूदा स्थिति में धरती के प्रति वर्गमीटर हिस्से पर दो वाट अतिरिक्त ऊर्जा प्रभाव पड़ रहा है । एक आकलन के अनुसार वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि के लिए कार्बन डाइऑक्साइड की 54 प्रतिशत है । दरअसल कार्बन डाइऑक्साइड की ज्यादा मौजूदगी सूर्य की किरणों के पुन: विकिरण री-रेडिएशन) को प्रभावित करती है ।

नतीजे में धरती के तापमान में वृद्धि हो जाती है । मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप प्रतिवर्ष 5.7 अरब टन कार्बन डास्सॉक्साइड वायुमंडल में जमा हो जाती है । प्राप्त जानकारियों के अनुसार वर्तमान में वायुमंडल में 350 पी.पी.एम. कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है ।

वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड जमा होने का मुख्य स्रोत जीवाश्म ईधनों का धुआ है । अनुमान है कि अस्सी के दशक के प्रतिवर्ष ओसतन पांच सौ टन कार्बन जलाया जा रहा है । इस तरह पंद्रह वर्षो में कार्बन डाइऑक्साइड की इतनी मात्रा वायुमंडल में पहुंचा दी जायेगी, जितनी पिछले सौ वर्षो में पहुंची होगी ।

उल्लेखनीय है कि औद्योगिक क्रांति के बाद वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड पहले की अपेक्षा 26 प्रतिशत बढ़ गयी है । वायुमंडल में शामिल होने वाली कार्बन डास्थॉक्साइड का 40 प्रतिशत हिस्सा (1.8 अरब टन) कल-कारखानों तथा मोटरगाड़ियों से निकलने वाले धुएं के कारण है । इसी तरह क्लोरो पलोरी कार्बन से तापमान में वृद्धि का अनुपात 12 प्रतिशत है ।

वायुमंडल में गर्मी बढ़ाने वाली अन्य गैसों में मीथेन प्रमुख है । वैज्ञानिकों के अनुसार, मीथेन पर नियंत्रण द्वारा धरती के बढ़ते हुए तापमान को 20 से 40 गुना कम किया जा सकता है । इस पर नियंत्रण अपेक्षाकृत आसान भी है, क्योंकि वायुमंडल में पहुंचने वाली मीथेन का 60 प्रतिशत मानवीय क्रियाकलापों द्वारा उत्पन्न होता है । वर्तमान में 400 से 600 टेराग्राम मीथेन वायुमंडल में पहुंच रही है । इसके अलावा नाइट्रस ऑक्साइड नामक गैस भी इस समस्या का एक महत्वपूर्ण कारक हे ।

दुखद तथ्य यह है कि इन गैसों के निस्सरण पर अंकुश लगाने के दावों और वायदों के बावजूद इसमें लगातार इजाफा हो रहा है । यही नहीं, मानवनिर्मित उपग्रहों के नष्ट हो जाने की स्थिति में अंतरिक्ष में लगातार बढ़ता जा रहा मलबा ही तापमान में वृद्धि का एक प्रमुख कारण माना जा रहा है ।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान में लगभग दो हजार उपग्रहों का मलबा अंतरिक्ष में बिखरा पड़ा है । कुछ वैज्ञानिक इस बढ़ते हुए तापमान की वजह जून 1991 में फिलीपींस के माउंट पिनादुबों पर हुए ज्वालामुखी विस्फोट के कारण वायुमंडल में तीन करोड़ टन एअरोसल जमा हो जाना मानते हें ।

बहरहाल, कुल मिलाकर स्थितियां बहुत चिंताजनक हैं । प्रकृति के साथ साहचर्य संबंध के बजाय, हमने शोषण की मनोवृत्ति अपना रखी है और दरअसल यही हमारा गुनाह हे । विकास के नाम पर प्रकृति के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर, हमने विनाश को खुद आमंत्रित किया है । हमारे भोगवादी नजरिये ने प्रकृति को बुरी तरह जख्मी कर दिया है और अब वही जख्म हमारे लिए नासूर बन गये हैं । प्रकृति के साथ मानवीय छेड़छाड़ के अत्यंत विकराल और विनाशकारी नतीजे सामने आ रहे है ।

कहीं-कहीं तो हमारे अस्तित्व के सामने सवालिया निशान ही लग गये हैं । इसी की एक सुलगती हुई मिसाल यह निरंतर बढता हुआ तापमान है । कहने की जरूरत नहीं कि पर्यावरण असंतुलन के नाते हम एक खतरनाक ताप युग की ओर बढ रहे हैं और जो मानवता का कदाचित सबसे भयानक सफर है ।

इस बुरी खबर के साथ एक अच्छी खबर भी है और वह यह है कि धरती और इंसान के वजूद के लिए आसन्न खतरों के खिलाफ जागरूकता पहले से बढी है । विगत दो-ढाई दशकों के दौरान विभिन्न राष्ट्रीय एव अंतरराष्ट्रीय मची द्वारा धरती के संरक्षण के लिए लगायी जाने वाली पुरजोर गुहार उसी जागरूकता का परिणाम है ।

सुखद यह भी है कि इन प्रयासो में कार्यात्मकता गंभीरता अधिक दिखायी दे रही है । अब से लगभग तीन पूर्व रियोडीजनेरीं और हाल में बारलीन में सपन्न पर्यावरण सम्मेलनो में इस मुद्दे पर सघन और सार्थक बहस इस बात का जीवंत सुबूत है कि हम इस मामले को गभीरता से ले रहे हैं, लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए महज इतना ही काफी नहीं है ।

विडम्बना है कि देश में लगातार बढ़ते वायु-प्रदूषण पर आए दिन चिन्ता जताते रहने के बावजूद इसे रोकने या कम करने के प्रभावी प्रयास कहीं नजर नहीं आते । वायु-प्रदूषण को कभी विकास की अनिवार्य दुष्परिणति मान कर छोड़ा जा रहा है । यदि ऐसा कर दिया गया तो क्या यह आत्मघात नहीं होगा ?

कुछ समय पहले विश्व स्वास्थ्य सगठन और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने विश्व के 20 बड़े महानगरो में वायु-प्रदूषण की स्थिति का अध्ययन कर जो निष्कर्ष नकल हैं वे हमारे लिए खतरे की घटी से कम नहीं हैं । अगर इस चेतावनी को अनदेखा किया गया तो हमारे शहर न केवल गैस-चैंबरों जैसे यातना-शिविरों में तब्दील हो जाएंगे बल्कि प्रदूषण की महामारी के विस्तार के कारण गांव-कच्चे भी रहने लायक नहीं रह जाएगे ।

इस अध्ययन में भारत के दिल्ली, कलकत्ता और बंबई के अलावा विश्व के बैंकाक, पेईचिग, ब्यूनस आयर्स, काहिरा, जकार्ता, कराची, लंदन, लास एंजिलिस, मनीला, मेक्सिको सिटी, मास्को, न्यूयार्क, रियो डी जेनेरिया, साओ पायलो, सिओल, शंघाई और तोक्यो जैसे प्रमुख शहरों को शामिल किया गया था ।

इन शहरो में वायु-प्रदूषण के छह प्रमुख तत्वों का अध्ययन किया गया । विद्युत उत्पादन और उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं से पैदा होने वाली सल्फर डाइऑक्साइड गैस, औद्योगिक कचरा, पेट्रोल इंजनो से निकलने वाला सीसा, मोटर वाहनों से निकलने वाली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस और भारी यातायात व सूर्य की गर्मी के मिलने से पैदा होने वाली नाइट्रोजन ऑक्साइड और ओजोन गैस ये छह तत्व थे ।

अध्ययन के लिए इन शहरों के चयन का एक मापदड यह था कि इन प्रमुख महानगरों की जनसंख्या एक करोड या इससे अधिक है अथवा सन् 2000 तक इतनी हो जाने की संभावना है । अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि इन 20 महानगरों मे लदन, न्यूयार्क और तोक्यो हैं जहां वायु-प्रदूषण सबसे कम है ।

इसके विपरीत मेक्सिको में सबसे अधिक वायु-प्रदूषण है जबकि औद्योगिक कचरे से बैंकाक, पेइचिंग, बंबई, काहिरा, दिल्ली, कलकत्ता मनीला, सिओल और शंघाई इन ग्यारह शहरों में गंभीर समस्या पैदा हो गई है । काहिरा और कराची में सीसा की समस्या है तो पेइचिंग और सिओल में सल्फर डाइऑक्साइड की समस्या मौजूद है । लास एंजिलिस, साओ पायलो और तोक्यो में ओजोन गैस की समस्या गंभीर रूप अख्तियार कर चुकी है ।

रिपोर्ट में कहा गया हे कि इन शहरों में वायु-प्रदूषण का प्रमुख कारण मोटर-वाहन याताय हैं । इस समय दुनिया में 63 करोड़ से अधिक वाहन हैं और विकासशील देशों और पूर्वी यूरोप में तेजी से हो रहे विकास के कारण आगामी बीस वर्षों में इन वाहनों की संख्या दुगुनी हो जाने की संभावना है ।

विश्व के बड़े देशों में विकास की गति काफी तेज है और जनसंख्या पर नियत्रण लगाने के उपाय प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं जिससे करोडों शहरी निवासियों का जीवन दूभर हो जाएगा । वायु-प्रदूषण से उनके स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इसलिए इस विकट समस्या पर प्राथमिकता से ध्यान दिया जाना चाहिए ।

वायु-प्रदूषण से सबसे अधिक युवक और वृद्ध प्रभावित होते हैं । सल्फर डाइऑक्साइड और औद्योगिक कचरे से मृत्यु दर, रोगों और अपंगता में वृद्धि होती है । नाइट्रोजन डाइऑक्साइड व ओजोन गैस सास लेने में तकलीफ पैदा करने के अलावा आख, नाक व गले में जलन पैदा करती है ।

ओजोन गैस से सिरदर्द भी हो सकता है जबकि कार्बन मोनोऑक्साइड खून में ऑक्सीजन को हटा कर स्वयं मिल जाती है जिससे हृदय और मस्तिष्क के रोग हो सकते हैं । सीसा से हडिया पर बुरा असर पड़ता है और जिगर व गुर्दा प्रक्रिया प्रभावित होती है । इससे दिमाग पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडता है और बच्चों का मानसिक विकास रुक जाता है ।

भारत में जहां-जहां ताप बिजली घर बने हैं, उनके आसपास के कच्चे, शहर और गांव बुरी तरह से प्रदूषण के शिकार हो चुके हैं । पंजाब में भटिंडा स्थित 440 मेगावाट क्षमता वाला ताप बिजली घर प्रतिवर्ष 1200 टन से अधिक पलाई एश पैदा करता है ।

राज्य के कृषि अधिकारी मानते हैं कि बिजली घर के आसपास हजारों एकड कृषि योग्य भूमि खराब हो रही है । डॉक्टरो का भी कहना है कि कारखाने के आसपास जो बस्तियाँ होती हैं, वहां के निवासियो में आख, नाक और सांस के रोगियों की सख्या अधिक होती है । उत्तर प्रदेश के रिहंद और सिंगरौली ताप विद्युत घरों के आस-पास भी व्यापक प्रदूषण फैल चुका है ।

वायु-प्रदूषण रोकने के लिए अध्ययन रपट में सात प्रमुख कदम उठाने की जरूरत पर बल दिया गया है । ये हैं बेहतर वायु-व्यवस्था कार्यक्रम, ऊर्जा बचत, मोटर वाहनो का परीक्षण व रख रखाव कार्यक्रम, पेट्रोल में से सीसा निकालना, हुत परिवहन व्यवस्था को प्रोत्साहित करना, कचरे को जला का कर नष्ट करने के उपाय करना और साफ-सुथरी तकनीकें अपनाना ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण की समस्याओं और बेहतर वायु-व्यवस्था नीतियो की पूर्ण और मौजूदा स्थिति का अध्ययन करने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और सयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम को विश्वास है कि प्रमुख महानगरों के समक्ष मौजूद वायु-प्रदूषण की कई समस्याए भविष्य में दूर की जा सकती हैं ।

इस रिपोर्ट के संदर्भ में भारत में प्रदूषण की स्थिति की समीक्षा की जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि यहां प्रदूषण रोकने की तो कौन कहे, उल्टे प्रदूषण-न्यौतने वाली नीतियां जारी है । वायु-प्रदूषण में वाहनों व औद्योगिक इकाइयो का प्रमुख योगदान है लेकिन लगातार ऐसी नीतिया अपनाई जा रही हैं कि लोग निजी वाहन रखने को प्रेरित हों ।

कुछ समय पहले पर्यावरण विशेषज्ञों ने पर्यावरण संरक्षण कानून की खामियों को दूर करने और उसे प्रभावी बनाने के लिए उसमें संशोधन की माग की थी । भारतीय पर्यावरण समिति ने भी पर्यावरण और उद्योग के बीच जटिल संबंधों का विस्तार से अध्ययन करने के बाद कहा था कि पर्यावरण कानून तोडने से संबंधित मामलों के निपटारे की कोई समय सीमा तय नहीं होने के कारण उसमें वर्षो लग जाते हैं ।

लंबी अदालती कार्यवाही का लाभ उठा कर उद्योग दिखावे के लिए कचरा शोधन संयंत्र लगवा लेते हैं लेकिन उस पर होने वाले खर्च को बचाने के लिए उसका इस्तेमाल ही नहीं करते । रोजमर्रा के जीवन में बढ़ता शोर एक गम्भीर खतरे के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा हे । मगर ध्वनि प्रदूषण के विरुद्ध शोर प्राय: सुनाई नहीं पड़ता । अगर इसी रफ्तार से ध्वनि प्रदूषण में बढोतरी होती रही तो सन् दो हजार तक दस वर्ष से अधिक उस के लोगों को ठीक से सुनने में दिक्कत आएगी ।

आज हालत यह है कि लोगों को आमतौर पर 110 डेसीबल स्तर तक का शोर झेलना पड़ता हे जिससे शारीरिक और मानसिक तनाव बढते हैं । इस शोर से बहरेपन के अतिरिक्त नींद नहीं आना, थकान, तनाव, अल्सर, अकौता और दमा जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं ।

ध्वनि की तीव्रता को मापने की इकाई को डेसीबल या डीबी कहा जाता है । येह ध्वनि की तीव्रता का वह स्तर है जहां से कोई आवाज सुनाई देना शुरू होती है । इस हिसाब से मनुष्य के लिए 45 से 50 डेसीबल तीव्रता की ध्वनि निरापद मानी जाती है, लेकिन अफसोस की बात है कि आज मनुष्य को अक्सर इससे ज्यादा तीव्र अश्रव्य ध्वनियों को न चाहते हुए भी सुनने पर विवश होना पड रहा है और यही सबसे चिंताजनक स्थिति है ।

वैज्ञानिक निष्कर्षो के मुताबिक 85 डेसीबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि में ज्यादा समय तक रहने पर मनुष्य बहरा हो सकता है और 120 डेसीबल से अधिक तेज ध्वनि गर्भवती महिलाओं और गर्भस्थ शिशुओं तक को प्रभावित कर सकती है ।

आज शहरों में वाहनों की चीख-पुकार, कारखानों की खटपट, लाउडस्पीकरों का शोर आदि मनुष्य स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनते जा रहे हैं । दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसे बड़े राज्यों में शोर का स्तर स्वीकार्य सुरक्षित स्तर से अर्थात् 45 डेसीबल से कहीं ज्यादा है ।

दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसे बड़े शहरों के अलावा अब बोकारो जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर का उदाहरण लें । बोकारो की एक रपट के मुताबिक रोजाना 50 से 70 मानसिक रोगियों का इलाज के लिए बोकारो जनरल अस्पताल में आना यह साबित करता है कि इस शहर में ध्वनि प्रदूउषण किस हद तक पहुंच चुका है ।

इन रोगियों में एक-चौथाई ध्वनि प्रदूषण के कारण रक्तचाप और बहरेपन के शिकार हैं । बोकारो कारखाने के अंदर होने वाले शोर-शराबे के साथ-साथ लाउडस्पीकर, वाहन, टेप, दूरदर्शन आदि की ध्वनि से हुआ प्रदूषण रोगों का जनक बन रहा है । इनका असहनीय शोर न केवल कान के परदे की श्रवण क्षमता को प्रभावित करता है बल्कि मानसिक तनाव, सोचने-समझने व स्मरण शक्ति को भी कमजोर बनाता है और अनेक शारीरिक रोगों के जन्म का कारण बनता है ।

डॉक्टरो का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति तेज ध्वनि के बीच लंबे अरसे तक रहे तो वह न सिर्फ मानसिक रूप से असंतुलित हो जाएगा बल्कि उसकी आयु भी कम हो जाती है । अनिद्रा, मानसिक तनाव, थकावट, चिड़चिड़ापन, घबराहट, सिरदर्द और रक्तचाप आदि ध्वनि-प्रदूषण से पीड़ित रोगी के सामान्य लक्षण बताए जाते हैं । ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव बोकारो के बच्चो पर भी पड़ रहा है ।

उनकी स्मरण शक्ति, पढाई-लिखाई मे एकाग्रता की कमी और स्वभाव में विचित्र बदलाव देखा गया है । रक्तचाप का बढना, कानी की तत्रियों का निष्क्रिय हो जाना, सिरदर्द, चिडचिडापन जैसी बीमारियां यहां के बच्चो में भी पाई जा रही हैं ।

अफसोस की बात है कि अपने देश में ध्वनि प्रदूषण को शहरीकरण और औद्योगिक विकास की अनिवार्य परिणति मानकर उसे लाइलाज मान लिया गया है । यह स्थिति और भी घातक है । ध्वनि प्रदूषण से जनस्वास्थ्य का ही क्षय नहीं हो रहा बल्कि इसके कारण बढ़ती अक्षमता से पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है ।

अमेरिका ने तो 1971 में ही मान लिया था कि औद्योगिक शोर के कारण उसे हर साल डॉलर से ज्यादा की क्षति होती है । विशेषज्ञों का मानना है कि शोर के कारण वायुमंडल बढ जाता है और इस स्थिति में मनुष्य को 1600 कैलोरीज की अतिरिक्त आवश्यकता । इसके अभाव में शरीर को पर्याप्त पोषक तत्व नहीं मिल पाते । इस तरह राष्ट्र की श्रम भी क्षय होता है । क्या इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में ध्वनि प्रदूषण के विरुद्ध व्यापक अभियान अनिवार्यता से मुह चुराया जा सकता है ?

वैज्ञानिकों के अनुसार शोर भी घुध की तरह धीरे मृत्यु की तरफ धकेलने वाला तत्व है । जिस तरह यह बढ़ रहा है, वह मानव समाज संहारक साबित हो सकता है । इस खतरे की रोकथाम के लिए भी वृक्ष हमारे रक्षा कवच कर सकते है ।

नीम, बरगद, इमली, चीड़, अशोक आदि के वृक्ष और झाडिया व बेल-शोर के अवशोषण की अदभुत क्षमता है । वैज्ञानिकों के अनुसार वृक्ष शोर के 26 फीसदी तत्वों को ही नहीं सोखते बल्कि बाकी 74 फीसदी शोर को परावर्तित कर उसकी तीव्रता को मनुष्य के लिए निरापद होने की हद तक कम भी कर देते हैं ।

लगता है कि प्रदूषण की समस्या सर्वव्यापी हो गई है । हो सकता है कि ब्रह्माण्ड मे अवस्थित ग्रहों-उपग्रही पर भी, जहा मनुष्य व जीव-जन्तुओं की आबादी है, वहा भी प्रदूषण का सकट हो । पर इतना अवश्य है कि भूमंडल पर कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं, जहा प्रदूषण का हो । जल, थल और नभ में-जहां वनस्पतियों, मानव प्राणियों व जीव-जतुओ का अस्तित्व जगह प्रदूषण का सकट गहरा रहा है ।

धरती के करीब तीन-चौथाई हिस्से पर कई महासागर हैं तथा जल का अक्षय भडार है । हजारों महासागर धरती के पर्यावरण का ढांचा तय करने और पारिस्थितिक सतुलन बनाये प्राकृतिक संसाधन हैं । ये महासागर महज जल-ससाधन नहीं, बल्कि हमारी दैनिक ओं की पूर्ति भी करते है । मसलन-प्राकृतिक गैस, नमक, कोयला, चूना, लोहा, ग्रेनाइट, पेट्रोलियम पदार्थ, बेशकीमती रत्नो, मछलियो का अक्षय भंडार है महासागरों में । जाहिर है कि मानव प्राणी काफी हद तक समुद्र पर आधारित हैं ।

समुद्र के तटों पर हो रहे परमाणु परीक्षण, सामुद्रिक संसाधनों-खनिजो का अंधाधुंध दोहन, के जरिए विषाक्त कचरो व रसायनों का प्रवेश, जलयानों, हवाई जहाजो, तेल टेकरों की सामुद्रिक वनस्पतियों का सडना, मछलियों का मरना-ऐसे अनेक कारण हैं जिसके फलस्वरूप समुद्र का जल प्रदूषित हो रहा है ।

बहरहाल अभी महासागरों में जल-प्रदूषण का कहर है, जैसा कि गंगा, यमुना व अन्य नदियों में जल विषाक्त हो उठा है । लेकिन यह मी कि अनेक महासागरी मे प्रदूषण की मौजूदगी से जीव-जंतुओं की संख्या घट रही है । मछलिया दम तोड़ रही हैं तथा समुद्री पक्षियो की संख्या तेजी से घट रही है ।

महासागरों के किनारे बसे देशों का-महासागरों के तटों पर अधिकार होता है । इस लिहाल का समुद्र पर अधिकार पडोस के देशो के मुकाबले अधिक है । भारत का समुद्र तलों कार के मामले में विश्व में आठवां स्थान है जिसके तीनो छोरो पर, सीमाओ पर समुद्र मार रहा है ।

पश्चिम में अरब सागर, दक्षिण में हिंद महासागर तथा पूरब में बंगाल की खाड़ी अवस्थित है । हाल में-बंगाल की खाडी से उठे तूफानों-चक्रवातों से जो कहर बरपा है जग जाहिर है । 22 लाख वर्ग किलोमीटर तक फैली बंगाल की खाडी को ‘जानलेवा खाड़ी’ जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । अनुमान है कि पिछले 100 वर्षों में तीस लाख से लोग खाड़ी में काल कवलित हुए हैं-तूफानों-चक्रवातों से ।

बंगाल की खाडी की गहराई 8 मीटर से 4500 मीटर तक है लेकिन अब यह भी प्रदूषित रही है-तूफानों, चक्रवातों से । कई देशों की प्रदूषित नदियां खाड़ी में विलीन होती हैं, अत: छ की मौजूदगी स्वाभाविक है । बंगलादेश, भारत व बर्मा की अधिकांश प्रदूषित नदियां बंगाल खाडी में मिलती हैं । भारत की कृष्णा, कावेरी, महानदी, गोदावरी तथा गंगा जैसी अति प्रकृपित खाडी में प्रदूषण छोड़ती हैं ।

इसी प्रकार बर्मा की इरावती तथा बंगलादेश की समस्त नदियां बाक्त कचरों व रसायनों को खाडी तक पहुंचाती हैं । जाहिर है कि भविष्य में जब खाड़ी में दूषण का खतरा उत्पन्न हो जाएगा तो तटवर्ती देशों की तबाही को रोका नहीं जा सकेगा लेकिन तक खाडी से उठने वाले तूफानों-चक्रवातों से सुरक्षा के लिए पुख्ता प्रबंध नहीं हो सका प्रदूषण से बचाने के बारे में सोचने की फुरसत किसे है ?

औद्योगिक इकाइयों व कल-कारखानों के जहरीले पदार्थ नदी-नालों के माध्यम से आख मूंदकर तक पहुंचाए जा रहे हैं । जहरीले पदार्थो व रसायनों से हाइड्रोकार्बन की मात्रा महासागरों बढ़ रही है । समुद्र में प्रदूषण का एक और कारण हैं-पारे का गिरना । बताया जाता है कि पारे से समुद्री के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । लगभग दस हजार टन पारे का उत्पादन रहा है जिसका आधा भाग तकरीबन पांच हजार टन पारा समुद्र में प्रतिवर्ष गिरता है ।

समुद्र के अंतराल में वनस्पतियों की भरमार है । ये वनस्पतियां-समुद्री जीवों का आहार होती और सामुद्रिक पारिस्थितिकी नियंत्रित करती है ! समुद्र में प्रदूषण की मौजूदगी के फलस्वरूप व रसायनों से वनस्पतियां नष्ट होने का खतरा बना है जिससे समुद्र में प्रदूषण की समस्या होना अवश्यंभावी है ।

फलत: समुद्र में प्रदूषण की रोकथाम के लिए शोध अनुसंधान होना हो गया है । भारत की जैविक वन-संपदा विश्व में सबसे अधिक विविधताओं वाली है । इसी को ध्यान रखते हुये सन् 1972 में विश्व बैंक ने इसे धरोहर के रूप में रखे जाने को कहा था, किन्तु नहीं हुआ । दोषपूर्ण वन संरक्षण नीति भी पर्यावरण असन्तुलन को बढ़ाने में सहायक हो रही ।

न जाने भोगवाद ने कैसा तांडव मचाया है कि वर्तमान को भोगने के लिए हम आज अपने के भविष्य को अंधकार में धकेलने से भी नहीं घबराते । कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड । कीजेट्रिक्स परियोजना के लिए 26 शर्ते रखी थीं । कर्नाटक विद्युत बोर्ड के अध्यक्ष बी.एस.पाटील ने भी इस परियोजना पर सौ से अधिक आपत्तियां व्यक्त की थी ।

वास्तविकता यह है अरब सागर के किनारे जिस क्षेत्र में कीजेट्रिक्स परियोजना लागू करने का प्रावधान है, वह अपनी जैविक तथा वानस्पतिक सम्पदा के कारण अद्वितीय है । यहां सुंदर वन हैं । इस योजना कारण यह सब तो नष्ट होगा ही, साथ ही हजारों किसान तथा मछुआरे भी बेघर व बेरोजगार जाएंगे । वहां की नदियां प्रदूषित हो जाएंगी तथा फसलें नष्ट हो जाएंगी ।

हाल ही में जिस 455 फुट सरदार सरोवर बांध के ‘निर्माण’ की स्वीकृति मिली है, उससे लगभग 50,000 हेक्टेयर सुरक्षित बन नष्ट हो जाएंगे 1 गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में आने वाली इस परियोजना में विस्थ्य पर्वत शृंखला, महादेव पहाड़ तथा सतपुडा पर्वत शृंखला आदि के जंगल बहुत दुष्प्रभावित होंगे ।

भारत में निर्माणाधीन लगभग दो दर्जन बहुउद्देशीय परियोजनाएं पर्यावरण के लिए बहुत घातक हैं । सभी राज्य भयभीत हैं कि न जाने कब उनके वनों पर विकास के नाम पर हमला बोल दिया जाये । इन समस्याओं के पीछे वास्तविकता यह है कि लोग अपने स्वार्थ में अन्धे होने के कारण पर्यावरण में सुधार लाने के लिए जोरदार प्रयास नहीं कर रहे हैं ।

वनों के विनाश के दुष्परिणामों पर चिंतन तो किया जा रहा है, लेकिन वन रोपण, वन विज्ञान एवं वन प्रबन्ध आदि विषयों की जानकारी को कोई महत्व नहीं दिया जा रहा है । लगता है, वन-रोपण संबंधी सरकार की योजनाएं केवल कागजी ही रही हैं । हम तथा हमारी सरकार पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करने के लिए जितना काम नहीं करती उससे अधिक ढोल पीटते हैं । पर्यावरण दिवस मनाते हैं । सेमिनार आयोजित करते है । लम्बे-चौडे भाषण देते हैं ।

इन आयोजनों में लाखों लाख खर्च करते हैं । यह’ तो पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कराने का नाटक जैसा है । दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि विश्व रंगमंच पर प्रदूषण दूर करने का यह केवल नाटक मात्र है । क्या इन नाटकों से पर्यावरण प्रदूषण मुक्त हो सकता है ?

प्रत्येक वर्ष वनरोपण के नाम पर लाख-करोड़ों पौधे लगाये जाते हैं । वे पौधे क्या हो जाते सच पूछा जाय तो वनरोपण के ये कार्यक्रम कागजों में केवल कड़े बन कर रह जाते हैं जो पौधे सचमुच में लगाये जाते हैं, उनकी सुरक्षा का कोई फ्युंध नहीं किया जाता, तभी वे नष्ट हो जाते हैं ।

आज भी वनों की कटाई में कोई कमी नहीं आयी है । पलामू के जंगलों यदि दृष्टिपात किया जाए तो पायेंगे कि वहां वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, जिसके जंगल तो एक तरह से साफ ही हो चले हैं । उदाहरणस्वरूप यदि आप डालटनगंज स्टेशन सुबह आठ बजे चले जाएं तो देखेंगे कि बरवाडीह की तरफ से आने वाली रेलगाडी की में लटकी हुई सैकड़ों बंडल लकड़ियां रोज बेचने के लिए डालटनगंज शहर में आती । यह क्रम पिछले कई वर्षो से चला आ रहा है । क्या इस ओर कभी वन विभाग का ध्यान हे ?

आज पर्यावरण उपहासजनक मूल्य बनकर रह गया है । फलत: अनीति बढ़ती जा रही हे । हानि का लेखा-जोखा करना अत्यन्त जटिल हो गया है । इसमें से कुछ हानि को तो ही नहीं किया जा सकता है और कुछ की मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकती । प्रकृति के विनाश का कोई मूल्य नहीं आका जा सकता ।

फिर भी जो क्षति हुई है, उसके थोड़े से भाग को ल दृष्टि से सामने लाना आवश्यक होगा कि नव-उदारवारियों को पता चल सके कि उद्योगवाद अभी मूल्य पर उद्योगीकरण में उनकी आस्था पूरी तरह गलत है । हम शुरुआत करेंगे कि बैंक के दो कर्मचारियों-कार्टरबंडन और किर्स्टन होम्मन के अध्ययन से ।

उनके “निष्क्रियता मूल्य: भारत में पर्यावरण की खराबी के कारण हुई अत्यिक क्षति का मूल्यांकन” नामक , के अंतर्गत इस समय हो रही पर्यावरणीय क्षति का अनुमान लगाने का प्रयास किया गया । उनकी मान्यताएं नरम है और होने वाली क्षति को उन्होंने कम करके बताया है ।

किंतु उनके निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं । 1992 में पर्यावरणीय खराबी के कारण भारत को कुल मिलाकर 34,000 करोड़ रुपये (9.7 बिलियन अमरीकी डालर) की हानि हुई । वायु और जल के प्रदूषण के कारण एक वर्ष में 24,500 करोड़ रुपये की हानि हुई और उसके अलावा भूमि की खराबी और वन कटाई के कारण 9,450 करोड़ रुपये की हानि हुई ।

अकेले भूमि की खराबी के कारण ही भारतीय कृषि में 4 से 6.9 प्रतिशत की हानि होती है, जिसका मूल्य 8,400 करोड़ रुपये तक होता है । इन दो अनुसंधानकर्ताओं ने बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य सबंधी खर्चों और प्राकृतिक साधनो की खराबी के कारण होने वाली उत्पादन हानि की ही गणना की है ।

उन्होंने यह पाया कि अकेले जल प्रदूषण से ही लोगों के स्वास्थ्य पर पडने वाले प्रभाव के कारण 19,950 करोड़ रुपये की हानि होती है । पानी से पैदा होने वाली बीमारियो के कारण 305.1 करोड़ रुपये विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों की हानि होती है ।

अगले स्थान पर आता है वायु प्रदूषण । इसके कारण 7,650 समय-पूर्व मौतें हो जाती हैं और कई बीमारियां फैल जाती हैं जिनके परिणामस्वरूप 4,500 करोड़ रुपये की वार्षिक हानि होती है । इसके अलावा मिट्टी की खराबी के कारण 7,640 करोड़ रुपये का नुकसान होता है ।

डॉक्टर अनिल अग्रवाल ने जो कि हमारे अग्रणी पर्यावरण शास्त्री हैं इस अध्ययन की ‘डाउन टु अर्थ’ पत्रिका में समीक्षा प्रस्तुत की है । उनके अनुसार इस अध्ययन में कार्यपद्धति सबंधी खामियां हैं । उदाहरण के लिए भारतीय जीवन के मूल्य (4000 से 40,000 अमरीकी डालर के बीच) की मान्यता अमरीकी मूल्यों (उन्हें भारत-अमरीकी प्रति व्यक्ति आयीं के अनुपात से विभाजित करने) के अनुसार आके गए तथ्यों पर आधारित है जिन पर अपने आप में प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है ।

यह मान्यता देशीय भिन्नता के आधार पर संदिग्ध और आर्थिक आधार पर त्रुटिपूर्ण है । निष्कर्षत: अब समय आ गया है, जबकि हम आगे होने वाली क्षति को न केवल रोकें, बल्कि उसमें निरन्तर कमी करते चले जाएं । हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे यहाँ पर्यावरण सन्तुलन की व्यवस्था न के बराबर है । वस्तुस्थिति यह है कि उदारवादी नीतियों ने सकट को और भी गम्भीर बनाया है ।

पर्यावरण संरक्षण का दायित्व केवल सरकार अथवा कानून व्यवस्था पर ही नहीं है बल्कि हम सब पर भी है । पर्यावरणीय समस्याओ के लिए विज्ञान दोषी नहीं है । अक्सर यह देखा गया है कि किसी भी समस्या के समाधान में प्रशासन आडे आ जाता है ।

जब कभी हमें समय पर वांछित प्रशासनिक सहायता नहीं मिलती है, हमारी नीतियां सफल नहीं हो पातीं । अत: पर्यावरण के प्रश्न पर भी प्रशासन का यह दायित्व बनता है कि वह देश के वर्तमान कानूनों के अनुसार उन अल्पसंख्यक सुविधाभोगियों से कडाई से पेश आये जो अपना लाभ बढाने के चक्कर में पर्यावरण असंतुलन पैदा कर रहे हैं ।

शहरीकरण पर रोक लगानी होगी, जनसंख्या वृद्धि को कम करना होगा । निर्धनता को दूर करना होगा । आकाशवाणी, दूरदर्शन, अखबार एवं पर्यावरणविद समाजसेवी संस्थाओं को भी अत्यधिक सक्रियता बढ़ानी होगी । विकास, विज्ञान एवं उद्योगीकरण में परस्पर सन्तुलन बनाना होगा । पर्यावरण सम्बंधी सम्मेलनों का आयोजन सार्थक हो, इस ओर ध्यान देना होगा ।

अब हमें औपचारिकता को छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए कोई ठोस कदम उठाना होगा । वनरोपण की व्यवस्था ठीक करनी होगी तथा उसकी सुरक्षा का भरपूर प्रबन्ध करना होगा । वाहनों का प्रयोग कम करना होगा । जिन वाहनों से धुआ निकलता हो, उनके चलने पर रोक लगायी जाए । कल-कारखानों से निकलने वाले धुए के लिए कोई विशेष प्रबन्ध किया जाए ।

वन माफियाओं को पकड़ा जाए तथा उनसे सांठ-गांठ रखने वाले वनकर्मियों को कड़ी से कडी सजा दी जाए । संरक्षण अधिनियमों का कडाई से पालन कराया जाए । उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए । वनरोपण कार्यक्रम ठीक ढंग से चलाया जाए । बातें कम और काम ज्यादा हो । जल प्रदूषण को रोकना होगा ।

पर्यावरण दृष्टिकोण के अनुसार औद्योगिक नगर १साए जाएं । ऐसा होने से ही पर्यावरण प्रदूषण मुक्त हो सकेगा, तभी हम खुली हवा में सांस ले सकेंगे और जी सकेंगे । यदि ऐसा नहीं हुआ तो इन सारे कार्यक्रमों को केवल दिखावे के लिए ही समझा जाएगा तथा इन्हें विश्व रंगमंच पर पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त कराने का एक नाटक ही कहा जाएगा ।

सम्भवत: समय की मांग है-एक तथ्यपूरक राष्ट्रीय नीति, जिसमें किसी प्रकार की थोपी आदर्शवादिता न शामिल हो और जो जमीनी सच्चाइयों से सम्बंध रखती हो ।


# Essay 2: पर्यावरण प्रदूषण पर निबंध | Essay on Environmental Pollution in Hindi

धरती के प्राणियों एवं वनस्पतियों को स्वस्थ व जीवित रहने के लिए हमारे पर्यावरण का स्वच्छ रहना अति आवश्यक है, किन्तु मानव द्वारा स्वार्थ सिद्धि हेतु प्रकृति का इस प्रकार से दोहन किया जा रहा है कि हमारा पर्यावरण दूषित हो चला है और आज पर्यावरण प्रदूषण भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की एक गम्भीर समस्या बन गई है ।

इस समस्या से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रयास किए जा रहे है । हमारी पूर्व प्रधानमन्त्री स्व श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था- ”यह बड़े दुख की बात है कि एक के बाद दूसरे देश में विकास का तात्पर्य प्रकृति का विनाश समझा जाने लगा है । जनता को अच्छी विरासत से दूर किए बिना और प्रकृति के सौन्दर्य, ताजगी व शुद्धता को नष्ट किए बिना ही मानव जीवन में सुधार किया जाना चाहिए ।”

पर्यावरण में सन्दूषकों (अपशिष्ट पदार्थों) का इस अनुपात में मिलना, जिससे पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ता है, प्रदूषण कहलाता है । प्रदूषण के कई रूप हैं-जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भूमि प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि । जल में अपशिष्ट पदार्थों का मिलना-जल प्रदूषण, वायु में विषैली गैसों का मिलना-वायु प्रदूषण, भूमि में रासायनिक अपशिष्टों का मिलना-भूमि या मिट्‌टी प्रदूषण एवं वातावरण में अत्यधिक शोर का होना-ध्वनि प्रदूषण कहलाता है । इन प्रदूषणों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रदूषण भी है जैसे-प्रकाश प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण आदि ।

उल्लेखनीय है कि पर्यावरण प्रदूषण से एक ओर तो हमारा वातावरण प्रदूषित हो रहा है एवं दूसरी ओर इसके कारण अन्य जटिल समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं । विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों से परिपूर्ण सौरमण्डल के ग्रह पृथ्वी के वातावरण में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन तथा 3% कार्बन डाइ-ऑक्साइड शामिल है ।

इन गैसों का पृथ्वी पर समुचित मात्रा में होना जीवन के लिए अनिवार्य है, किन्तु जब इन गैसों का आनुपातिक सन्तुलन बिगड़ जाता है, तो जीवन के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । विश्व में आई औद्योगिक क्रान्ति के बाद से ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू हो गया था, जो उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में अपने चरम पर रहा, कुपरिणामस्वरूप पृथ्वी पर गैसों का आनुपातिक सन्तुलन बिगड़ गया, जिससे विश्व की जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पढ़ा एवं प्रदूषण का स्तर इतना अधिक बढ गया कि यह अनेक जानलेवा बीमारियों का कारक बन गया ।

आज मानव गतिविधियों के दुष्परिणामस्वरूप हमारे वातावरण में प्रत्येक वर्ष 30 अरब टन कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस छोड़ी जा रही है । विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में प्रत्येक वर्ष लगभग 13 लाख लोग केवल शहरी आउटडोर वायु प्रदूषण के कारण और लगभग 2 लाख लोग इनडोर प्रदूषण के कारण अपनी जान गँवा देते है ।

वर्ष 2014 के अन्त में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रतिवर्ष बायु प्रदूषण से जुड़ी लगभग एक लाख मौतें भारत सहित अमेरिका, ब्राजील चीन, यूरोपीय संघ और मैक्सिको में होती हैं किन्तु परिवहन, इमारत एवं औद्योगिक क्षेत्रों में ऊर्जा दक्षता के उपाय कर वर्ष 2030 तक वार्षिक स्तर पर इनसे बचा जा सकता है ।

प्रदूषण के कई कारण हैं- उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट पदार्थ जल एवं भूमि प्रदूषण का तो कारण बनते ही है, साथ ही इनके कारण वातावरण में विषैली गैसों के मिलने से वायु भी प्रदूषित होती है । मनुष्य ने अपने लाभ के लिए जंगलों की तेजी से कटाई की है ।

जंगल के पेड प्राकृतिक रूप से प्रदूषण नियन्त्रण का काम करते है । पेड़ों के पर्याप्त संख्या में न होने के कारण भी वातावरण में विषैली गैसें जमा होती रहती हैं और उनका शोधन नहीं हो पाता । मनुष्य सामानों को ढोने के लिए पॉलिथीनों का प्रयोग करता है । प्रयोग के बाद इन पालिथीनों को यूँ ही फेंक दिया जाता है ।

ये पॉलिथीनें नालियों को अवरुद्ध कर देती हैं, जिसके फलस्वरूप पानी एक जगह जमा होकर प्रदूषित होता रहता है । इसके अतिरिक्त, ये पालिथीनें भूमि में मिलकर उसकी उर्वराशक्ति को भी कम कर देती हैं । प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ ही मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता बड़ी है । मोटर, रेल, घरेलू मशीनें इसके उदाहरण हैं ।

इन मशीनों से निकलने वाला धुआँ भी पर्यावरण के प्रदूषण के प्रमुख कारकों में से एक है बढ़ती जनसंख्या को भोजन उपलब्ध करवाने के लिए खेतों में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग में वृद्धि हुई है । इसके कारण भूमि की उर्वराशक्ति का ह्रास हुआ हे ।

रासायनिक एवं चमड़े के उद्योगों के अपशिष्टों को नदियों में बहा दिया जाता है । इस कारण जल प्रदूषित हो जाता है एवं नदियों में रहने वाले जन्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । परमाणु शक्ति उत्पादन के क्रम में परमाणु विखण्डन के कारण भी पर्यावरण प्रदूषण काफी बढ़ता है ।

विश्व के महान् वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने इसकी जगह परमाणु संलयन को विकल्प बताते हुए कहा है- ”हम एक व्यावहारिक शक्ति स्रोत बनने हेतु परमाणु संलयन चाहते हैं । यह प्रदूषण या ग्लोबल वार्मिंग के बिना ऊर्जा की बड़ी आपूर्ति प्रदान करेगा ।”

पर्यावरण प्रदूषण के कई दुष्पीरणाम सामने आए हैं, इसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ा है । आज मनुष्य का शरीर अनेक बीमारियों का धर बनता जा रहा है । खेतों में रासायनिक उर्वरकों के माध्यम से उत्पादित खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सही नहीं हैं ।

वातावरण में घुली विषैली गैसों एवं धुएँ के कारण शहरों में मनुष्य का साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है । विश्व की जलवायु में तेजी से हो रहे परिवर्तन का कारण भी पर्यावरणीय असन्तुलन एवं प्रदूषण ही है । मनुष्य स्वाभाविक रूप से प्रकृति पर निर्भर है ।

प्रकृति पर उसकी निर्भरता तो समाप्त नहीं की जा सकती, किन्तु प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि इसका प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर न पडने पाए, इसके लिए हमें उद्योगों की संख्या के अनुपात में बड़ी संख्या में पेड़ों को लगाने की आवश्यकता है ।

इसके अतिरिक्त, पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए हमें जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने की भी आवश्यकता है, क्योंकि जनसंख्या में वृद्धि होने से स्वाभाविक रूप से जीवन के लिए अधिक प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पडती है और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रयास में बडे स्तर पर उद्योगों की स्थापना होती है और उद्योग कहीं-न-कहीं प्रदूषण का कारक भी बनते है ।

यदि हम चाहते है कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ सन्तुलित विकास भी हो, तो इसके लिए हमें नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा । प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा तब ही सम्भव है, जब हम इनका उपयुक्त प्रयोग करें ।

हमारे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा है – ”हमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के माध्यम से पानी, ऊर्जा, निवास स्थान, कचरा प्रबन्धन और पर्यावरण के क्षेत्रों में पृथ्वी द्वारा झेली जाने बाली समस्याओं को दूर करने के लिए काम करना चाहिए ।”

उल्लेखनीय है कि पर्यावरण प्रदूषण पर नियन्त्रण के लिए समय-समय पर अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास भी किए जाते रहे हे ओजोन परत के संरक्षण के लिए वर्ष 1985 में वियना सम्मेलन हुआ । वियना समझौते के परिणामस्वरूप वर्ष 1987 में ओजोन परत में छेद करने वाले पदार्थ पर मॉण्ट्रियल समझौता हुआ ।

इसके बाद वर्ष 1990 में जापान में क्योटो प्रोटोकॉल गे तय किया गया कि विकसित देश पृथ्वी के बढ़ते तापमान से दुनिया को बचाने के लिए अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाएंगे ।  प्रदूषण को कम करने तथा विश्वस्तरीय ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को नियन्त्रित करने के लिए कार्बन क्रेडिट का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है तथा इसको नियमित रूप से नियन्त्रित करने के लिए एक स्वच्छ विकास प्रणाली का गठन किया गया है ।

नवम्बर, 2007 में सम्पन्न आसियान के 13वें शिखर सम्मेलन में ऊर्जा, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन तथा सतत विकास को विचारणीय विषय बनाया गया । इण्डोनेशिया के बाली में वर्ष 2007 में ही सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 180 देशों एवं अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस सम्मेलन में क्योटो सन्धि के आगे की रणनीति पर विचार किया गया ।

दिसम्बर, 2009 में सम्पन्न कोपेनहेगन सम्मेलन का उद्देश्य भी पर्यावरण की सुरक्षा ही था । वस्तुतः पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है, जिससे निपटना वैश्विक स्तर पर ही सम्भव है, किन्तु इसके लिए प्रयास स्थानीय स्तर पर भी किए जाने चाहिए । विकास एवं पर्यावरण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, अपितु एक-दूसरे के पूरक है । सन्तुलित एवं शुद्ध पर्यावरण के बिना मानव का जीवन कष्टमय हो जाएगा ।

हमारा अस्तित्व एवं जीवन की गुणवत्ता एक स्वस्थ प्राकृतिक पर्यावरण पर निर्भर है । बिकास हमारे लिए आवश्यक है और इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग किया जाना भी आवश्यक है, किन्तु ऐसा करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि इससे पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान न हो ।

पृथ्वी के बढ़ते तापक्रम को नियन्त्रित कर, जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए देशी तकनीकों से बने उत्पादों का उत्पादन तथा उपभोग जरूरी है । इसके साथ ही प्रदूषण को कम करने के लिए सामाजिक तथा कृषि वानिकी के माध्यम से अधिक-से-अधिक पेड़ लगाए जाने की भी आवश्यकता है ।

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को दूर करने के सम्बन्ध में अमेरिकी नागरिक सूसन किसीकस की कही ये बातें अनुकरणीय हैं- ”हम चाहे कहीं भी रहे पर्यावरण की देखभाल करना हमारे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । छोटे स्तर पर काम शुरू करें । दस या बीस मित्रों के साथ पृथ्वी दिवस मनाएं । अगले वर्ष यह बहुत बडा समूह हो जाएगा और उसके बाद यह जागरूकता विश्वभर में फैल जाएगी ।”

पर्यावरण विनाश का मुख्य कारण क्या है?

वायु प्रदूषण, गरीब कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल टेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि / मिट्टी का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है। भारत की जनसंख्या वृद्धि पर्यावरण के मुद्दों और अपने संसाधनों के लिए दबाव समस्या बढ़ाते है

Vikas से पर्यावरण कैसे प्रभावित हुआ?

प्राकृतिक संसाधनों के तीव्र विनाश के प्रति चिन्तित हो गये हैं और पर्यावरण-संरक्षण के लिए जन-आन्दोलन विश्व स्तर पर देखे जा सकते हैं । आज प्रत्येक राष्ट्र में पर्यावरण के प्रति जागरूकता विकसित हुई और पर्यावरणीय नीतियों का निर्माण किया गया है। इसके कारण पशुपालक उजड़ रहे हैं।

पर्यावरण का प्रमुख मुद्दा क्या है?

16.9 वनोन्मूलन गत सौ वर्ष में मनुष्य की जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है। इसके कारण अन्न, जल, घर, बिजली, सड़क, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में भी वृद्धि हुई है । परिणामस्वरूप हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ रहा है और वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।

पर्यावरण संकट क्या है इसके दो प्रमुख कारण बताइए?

प्रदूषण.
बढ़ती जनसंख्या.
आर्थिक विकास.
शहरीकरण.
औद्योगीकरण.
पेड़ काटना.
कारखानों से निकलता रसायन.