उसने कहा था कहानी में कौन सी शैली का प्रयोग किया गया है? - usane kaha tha kahaanee mein kaun see shailee ka prayog kiya gaya hai?

प्रस्तावना

पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी “उसने कहा था’ को आपने परिवेश में ध्यानपूर्वक पढ़ा है। इससे आपको स्पष्ट हो गया होगा कि कहानीकार कहानी में क्या कहना चाहता है | जो वह कहना चाहता है उसके लिए वह एक कथा का निर्माण करता है। यह कथा निश्चय ही काल्पनिक है लेकिन इस कथा की पृष्ठभूमि वास्तविक है। कथा के पात्र काल्पनिक है लेकिन उनकी मनोदशा और भावनात्मक संबंध वास्तविक हैं। वस्तुत: कहानीकार एक काल्पनिक कथा और पात्रों द्वारा वास्तविक जीवन के ही संबंधों और संघर्षों को प्रस्तुत करता है। गुलेरी जी ने यही काम इस कहानी में किया है। स्पष्ट ही, इसे करने के लिए उन्होंने कहानी का जो विन्यास चुना है उसे समझे और विश्लेषित किये बिना हमारे सामने कहानी की सारी विशेषताएँ नहीं आ सकतीं। इस इकाई में हम कहानी का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं। जैसा कि इकाई 3 में बताया जा चुका है किसी भी कहानी में कोई एक घटना या कुछ घटनाएँ होती हैं| घटनाओं का विकास ही कहानी की कथावस्तु का निर्माण करता है। लेकिन ये घटनाएँ कुछ लोगों अर्थात्‌ कहानी के पात्रों के जीवन में घटित होती हैं, जिनके संस्कार, विवेक, शिक्षा और परिस्थितियाँ उन घटनाओं को प्रभावित करती हैं। पात्रों की इस भूमिका अर्थात्‌ चरित्र का विश्लेषण भी कहानी को समझने में सहायक होता है। प्रत्येक घटना किसी विशेष देश-काल में घटित होती है। घटनाओं के एक विशेष रूप में घटित होने तथा पात्रों के व्यक्तित्व के निर्माण में उनके देशकाल का भी प्रभाव होता है। इसे ही हम परिवेश कहते हैं। इसी तरह कहानीकार का कहानी की भाषा और शैली कहानी की संरचना को निर्धारित करते हैं। अंत में कहानी के उद्देश्य, रचनाकार की दृष्टि आदि पर विचार होगा। इस प्रकार “उसने कहा था’ का विश्लेषण हम इस इकाई में निम्नलिखित तत्त्वों के आधार पर करेंगे।

कथावस्तु

चरित्र-चित्रण

परिवेश

संरचना-शिल्प

प्रतिपाद्य

कथावस्तु

“उसने कहा था’ प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गयी कहानी है। गुलेरी जी ने लहनासिंह और सूबेदारनी के माध्यम से मानवीय संबंधों का नया रूप प्रस्तुत किया है। आइए, सबसे पहले कहानी में वर्णित घटनाओं का विश्लेषण करें।

कथा का आरंभ

‘उसने कहा था’ कहानी का आरंभ अमृतसर के एक बाजार से होता है। समय है 19वीं शताब्दी का अंतिम दशक, संभवतः 1890 के आसपास। 12 वर्षीय लड़का और 8 वर्षीय लड़की की मुलाकात होती है। दोनों सिख हैं। लड़का लड़की से पूछता है — “तेरी कुड़माई हो गई” | लड़की “धत्‌” कहती है और भाग जाती है। दोनों बालकों में थोड़ा परिचय भी हो जाता है। मिलने का यह सिलसिला लगभग एक माह तक चलता रहता है। लड़का हर बार उसी तरह पूछता है, “तेरी कुड़माई हो गई”, लड़की जवाब देती है। “धत्‌” | इस पूछने और बताने में ही उनके बीच एक अनकहा मधुर संबंध आकार लेने लगता है, जिसे अपनी अल्पवय के कारण दोनों ही नहीं जान पाते। एक दिन इसी तरह मिलने पर जब लड़का कुड़माई के बारे में पूछता है तो लड़की विश्वासपूर्वक जवाब देती है कि ”हाँ, हो गई ।” लड़के को लड़की के इस उत्तर से आघात लगता है। वह इसे ठीक-ठीक समझ नहीं पाता लेकिन उसकी मनोदशा बदल जाती है और वह गुस्से में अपने रास्ते में आने वालों से जबरदस्ती झगड़ पड़ता है।

कहानी का पहला भाग यहीं समाप्त हो जाता है। यहाँ तक कहानीकार दो किशोरवय की ओर बढ़ते बच्चों के स्नेह संबंध का चित्र प्रस्तुत करता है। कहानीकार कहानी के इस अंश को यहीं छोड़ देता है।

कहानी का दूसरा भाग इस घटना के लगभग पच्चीस वर्ष बाद की घटनाओं से संबंधित है। प्रथम विश्वयुद्ध का काल फ्रांस में भारतीय सैनिक इंग्लैंड की ओर से जर्मनी के विरुद्ध लड़ने के लिए तैनात किये गये हैं। इनमें लहनासिंह भी है। आगे की घटनाओं से मालूम पड़ता है कि लहनासिंह वही है जो पहले भाग में बालक के रूप में मौजूद था। लेकिन कहानीकार इस बात का खुलासा जल्दी नहीं करता वरन्‌ दूसरे भाग से कहानी बिल्कुल नये धरातल पर आगे बढ़ती है।

युद्ध के मोर्चे पर डटे सिपाही खन्दक में पड़े-पड़े उकता गये हैं। इनमें सूबेदार हजारासिंह है, उनका बेटा बोधासिंह है, लहनासिंह है। इसके अलावा भी कई सिपाही हैं। लहनासिंह चाहता है कि इस तरह पड़े रहने से अच्छा है, जल्दी से जल्दी लड़ाई शुरू हो, चाहे इसके लिए हमें स्वयं ही जर्मन फौज पर हमला क्‍यों न करना पड़े। लहनासिंह का यह उतावलापन जहाँ उसके साहस को दिखाता है; वहीं उकताहट की स्थिति को भी बताता है। हजारासिंह का बेटा बोधासिंह बीमार है। लहनासिंह उसका काफी ध्यान रखता है और उसकी देखभाल करता है।

यहाँ हमें अभी मालूम नहीं है कि लहनासिंह उसका इतना ध्यान क्‍यों रखता है। सिपाहियों की आपसी बातचीत से हमें यह मालूम पड़ता है कि ये सिपाही जो मूलतः किसान परिवार के हैं, इनके सपने भी किसानी जीवन से जुड़े हैं। लहनासिंह की आकांक्षा है कि युद्ध खत्म होने के बाद वह अपने आम के बगीचे में अपने भतीजे कीरतसिंह के साथ सुख-चैन से रहे।

कथा का विकास

सैनिकों की इस आपसी बातचीत के साथ कहानी का दूसरा भाग खत्म हो जाता है। तीसरे भाग में कहानी फिर एक नया मोड़ लेती है। यहाँ हम देख सकते हैं कि पहले दो भाग केवल कहानी की पृष्ठभूमि और उसके पात्रों के परिचय से संबंधित हैं। तीसरे भाग में कथावस्तु का विकास होता है। यहाँ लपटन साहब नाम के एक नये पात्र का प्रवेश होता है जो हजारासिंह को आदेश देता है कि वह एक मील आगे पचास जर्मन सैनिकों की टुकड़ी पर धावा बोले और इसके लिए वह दस सैनिकों को छोड़कर शेष सभी को अपने साथ ले जाए। बोधासिंह की बीमारी के कारण सूबेदार की इच्छा समझकर लहनासिंह वहीं रह जाता है। इसी दौरान लहनासिंह लपटन साहब से बात करने लगता है और इस बातचीत से लहनासिंह तत्काल समझ जाता है कि वह अंग्रेज अफसर नहीं वरन्‌ कोई जर्मन जासूस है।

इस नाटकीय मोड़ पर कहानी का यह भाग यहीं समाप्त हो जाता है। नये भाग में लहनासिंह अपनी बुद्धिमता का परिचय देते हुए तत्काल एक सिपाही को हजारासिंह के पास भेजता है और खुद उस जर्मन को काबू में करता है। लेकिन इस दौरान उस जर्मन की पिस्तौल से निकली गोली लहनासिंह की जांघ पर लगती है। बोधासिंह पिस्तौल की आवाज से पूछता है “क्या हुआ?” लेकिन लहनासिंह उसे वास्तविकता नहीं बताता।

इसी समय सत्तर जर्मन उस खाई पर हमला कर देते हैं। लहनासिंह वीरतापूर्वक उनका सामना करता है। तभी हजारासिंह की टुकड़ी भी वहाँ पहुंच जाती है और इस तरह दो तरफ से घिर जाने के कारण जर्मन सैनिकों का सफाया हो जाता है। इस लड़ाई में लहनासिंह को एक गोली पसली में भी लगती है। वह अपना यह घाव हजारासिंह और बोधासिंह से छुपाता है।

जब उनकी सहायता के लिए डाक्टर और बीमार ढोने वाली गाड़ियाँ पहुंचती हैं, तो एक बार फिर लहनासिंह गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद खुद न जाकर हजारासिंह और बोधासिंह को भेज देता है। यहाँ लहनासिंह सूबेदार से कहता है, ” सृब्रेदारनी होराँ को बिदृठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो क॒ह्द देना कि मुझसे उन्होंने जो कहा था वह मैंने कर (दिया/’ यहाँ कहानी का चौथा भाग खत्म होता है।

कहानी के अंतिम भाग पर पहुंचने से पहले अब हम कथावस्तु के अब तक के विकास पर विचार कर सकते हैं। यहाँ तक हमारे सामने दो घटनाएँ आती हैं। एक, दो बालकों की कथा और दूसरी, युद्ध मोर्चे पर एक सैनिक और उसके साथियों की कथा। जब कहानी का पहला भाग खत्म होता है तब हमारे मन में सहज ही यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि उन दोनों बालकों का क्या हुआ। क्या उनके बीच वे मधुर संबंध समाप्त हो गये? क्या उनका मिलन हुआ या वे फिर कभी नहीं मिल सके? कहानीकार हमारी इन जिज्ञासाओं का कोई उत्तर नहीं देता बल्कि एक नयी कहानी छेड़ देता है – लहनासिंह की कहानी। लेकिन यहाँ फिर कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं।

लहनासिंह और हजारासिंह का क्या संबंध है। लहनासिंह क्‍यों बोधासिंह की इतनी देखभाल कर रहा है। वह क्यों चाहता है कि हजारासिंह और बोधासिंह अस्पताल पहुंच जाए। वह अपने घायल होने को क्‍यों छुपाता है और अंत में जब वह सूबेदार से कहता है कि सूबेदारनी से कह देना कि जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया तो उसके इस कथन का कया तात्पर्य है। सूबेदारनी से लहनासिंह का क्‍या संबंध है और उसने लहनासिंह को क्या कहा था। इस तरह यहाँ तक आते-आते कहानी एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाती है जहाँ पाठकों में “कहानी में आगे क्या होगा?” को लेकर तीव्र जिज्ञासा पैदा हो जाती है। निश्चय ही ऐसी जिज्ञासा पैदा करना कहानीकार की कथावस्तु पर जबर्दस्त पकड़ को ही प्रदर्शित करता है।

कथा का अंत

कहानी का पाँचवां और अंतिम भाग, कथा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है। लहनासिंह खाई में पड़ा है और अंतिम सौँसें ले रहा है। उसके साथ उसका साथी वजीरा सिंह है। उसे एक-एक कर अतीत की घटनाएँ याद आने लगती है| गुलेरी जी की कहानी का चरम उत्कर्ष यहाँ देख सकते हैं। फ्लैशबैक (पूर्वदीप्ति) शैली का प्रयोग करते हुए उन्होंने लहनासिंह के जीवन की पूर्व घटनाओं को पाठकों के सामने खोला है, लेकिन यहाँ अतीत और वर्तमान इस तरह घुले मिले हैं कि लगता है जैसे हम एक साथ दोनों को देख रहे हों।

सबसे पहले उसे बचपन की वह घटना याद आती है जब उसने अमृतसर के बाजार में एक लड़की से यह पूछा था – “तेरी कुड़मार्ई हो गई” बचपन की यह स्मृति बचपन के साथ ही विलीन हो गई थी। लहनासिंह सब कुछ भूल चुका था। लेकिन पच्चीस साल बाद अकस्मात्‌ “उसी लड़की” से लहनासिंह की मुलाकात होती है जो अब सूबेदार हजारासिंह की पत्नी है। लहनासिंह उसे पहचान नहीं पाता तब सूबेदारनी उसे वही कुड़माई वाली घटना याद दिलाती है। लहनासिंह को बचपन के वो दिन याद आ जाते हैं और उन दिनों के साथ जुड़ी वह लड़की भी जो अब सूबेदारनी है और एक जवान बेटे बोधासिंह की माँ है। सूबेदारनी का बचपन की उन स्मृतियों और लहनासिंह की सूरत को मन में संजोये रखना लहनासिंह के लिए विस्मयकारी अनुभव था।

इसके बाद लहनासिंह को सूबेदारनी के साथ हुई बात याद आती है। सूबेदारनी उसे याद दिलाती है कि बचपन में उसने एक बार अपनी जान जोखिम में डालकर उसे बचाया था। वह लहनासिंह से प्रार्थना करती है कि युद्ध के मोर्चे पर भी वह उसी तरह उसके पति और पुत्र की रक्षा करे। सूबेदारनी अपना आंचल पसारकर दोनों की प्राणरक्षा की भीख माँगती है।

सुबेदारनी की यह बातें ही युद्ध के मैदान में लहनासिंह के कार्यों को विशेष दिशा प्रदान करती है। सूबेदार हजारासिंह और उसके बेटे की सेवा के लिए हर समय तत्पर रहना और अंत में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देना सूबेदारनी को दिये वचन का ही परिणाम था। निश्चय ही लहनासिंह के चरित्र का यह ऐसा पहलू है जिसे उद्घाटित करना ही कहानीकार का मुख्य ध्येय है और सारी कहानी इसी केंद्रीय भाव को व्यक्त करने के लिए रची गई है। लेकिन कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती है। लहनासिंह और सूबेदारनी के अनोखे परंतु मानवीय प्रेम की इस कहानी का अंत अत्यंत कारुणिक होता है।

लहनासिंह मर जाता है। शायद बच सकता था अगर वह हजारासिंह और बोधासिंह को भेजने की बजाए खुद अस्पताल की गाड़ी से चला जाता क्योंकि उसकी दशा इन दोनों से ज्यादा खराब थी लेकिन अपने घावों को छुपाकर वह जबरन सूबेदार व बोधासिंह को भेज देता है और खुद मरने के लिए पीछे छूट जाता हैं। अंत में वह मर भी जाता है। लेकिन उसका यह प्रेम, शौर्य और त्याग इस योग्य भी नहीं समझा जाता कि उसे सम्मानित किया जाता। ब्रिटिश सेना के लिए लहनासिंह की मौत अत्यंत साधारण मौत है – मैदान में घावों से मर | मालूम नहीं जिसके वचन के लिए सूबेदार हजारासिंह और उसके पुत्र को बचाने के लिए उसने ये किया, उसके त्याग की गाथा सूबेदारनी तक पहुंची भी या नहीं। इस तरह यह कहानी लहनासिंह के त्रासद अंत के साथ खत्म हो जाती है।

चरित्र-चित्रण

लहनासिंह “उसने कहा था” का नायक है। कहानी का सारा घटनाचक्र उसी के इर्द-गिर्द घूमता है। लेकिन इस चरित्र की संपूर्ण विशेषताओं को तभी समझा जा सकता है जब हम कहानी के कुछ और चरित्रों को समझें | इनमें सूबेदारनी, सूबेदार हजारासिंह और उसका बेटा बोधासिंह है। इसके अतिरिक्त वजीरासिंह, लपटन साहब आदि अन्य पात्र हैं। लेकिन ये गौण पात्र हैं। बोधासिंह के चरित्र पर भी विशेष प्रकाश नहीं डाला गया है। यहाँ हम लहनासिंह और सूबेदारनी के चरित्र पर विचार करेंगे। इनके आधार पर आप शेष पात्रों के चरित्र का विश्लेषण भी कर सकते हैं।

लहनासिंह

लहनासिंह से हमारा पहला परिचय अमृतसर के बाज़ार में होता है। उसकी उम्र सिर्फ 12 वर्ष है। किशोर वय, शरारती, चुलबुला। उसका यह शरारतीपन बाद में युद्ध के मैदान में भी दिखाई देता है। वह अपने मामा के यहाँ आया हुआ है। वहीं बाज़ार में उसकी मुलाकात 8 वर्ष की एक लड़की से होती है। अपनी शरारत करने की आदत के कारण वह लड़की से पूछता है – “तेरी कुड़मार्ड हो गई” और फिर यह “मजाक” ही उस लड़की से उसका संबंध सूत्र बन जाता हैं लेकिन मज़ाक-मज़ाक में पूछा गया यह सवाल उसके दिल में उस अनजान लड़की के प्रति मोह पैदा कर देता है। ऐसा ‘मोह” जिसे ठीक-ठाक समझ सकने की उसकी उम्र नहीं है। लेकिन जब लड़की बताती है कि हाँ उसकी सगाई हो गई है तो उसके हृदय को आघात लगता है। शायद उस लड़की के प्रति उसका लगाव इस खबर को सहन नहीं कर पाता और वह अपना गुस्सा दूसरों पर निकालता है। लहनासिंह के चरित्र का यह पक्ष अत्यंत महत्त्वपूर्ण तो है लेकिन असामान्य नहीं। लड़की के प्रति लहनासिंह का सारा व्यवहार बालकोचित है। लड़की के प्रति उसका मोह लगातार एक माह तक मिलने-जुलने से पैदा होता है और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन लहनासिंह के चरित्र की एक और विशेषता का प्रकाशन बचपन में ही हो जाता है, वह है उसका साहस, अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरे को बचाने की कोशिश | लहनासिंह जब सूबेदारनी से मिलता है तो वह बताती है कि किस तरह एक बार उसने उसे तांगे के नीचे आने से बचाया था और इसके लिए वह स्वयं घोड़े के आगे चला गया था।

इस तरह लहनासिंह के चरित्र के ये दोनों पक्ष आगे कहानी में उसके व्यक्तित्व को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। एक अनजान बालिका के प्रति मन में पैदा हुआ स्नेह भाव और दूसरे उसका साहस | तांगे वाली घटना यह भी बताती है कि बचपन में उन दोनों के बीच जो संबंध बना वह कितना गहरा और तीव्र था।

लेकिन पच्चीस साल का अंतराल कम नहीं होता। वह बालिका किसी और की पत्नी बन जाती है और लहनासिंह जो एक किसान का बेटा है, खेती छोड़कर सिपाही बन जाता है। लेकिन सिपाही बन जाने के बाद भी उसकी मानसिकता, उसके स्वप्न और उसकी आकांक्षाएँ किसानों- सी ही रहती हैं। सेना में वह मामूली सिपाही है। जमादार के पद पर। लेकिन वहाँ भी किसानी जीवन की समस्‍्याएँ उसका पीछा नहीं छोड़तीं। वह छुट्टी लेकर अपने गाँव जाता है — जमीन के किसी मुकदमें की पैरवी के लिए। कहानीकार यह संकेत नहीं देता है कि लहनासिंह विवाहित है या अविवाहित | लेकिन लहनासिंह की बातों से तो यही लगता है कि वह अविवाहित है। उसका एक भतीजा है – कीरतसिंह | जिसकी गोद में सिर रखकर वह अपने बाकी दिन गुज़ारना चाहता है। अपने गाँव, अपने खेत, अपने बाग में | उसे सरकार से किसी ज़मीन-जायदाद की उम्मीद नहीं है, न ही खिताब की | वह एक साधारण ज़िंदगी जी रहा है, उतनी ही साधारण जितनी कि किसी भी किसान या सिपाही की हो सकती है| उस लड़की की स्मृति भी समय की पर्तों के नीचे दब चुकी है। जिससे उसने कभी पूछा था कि क्या तेरी कुड़माई हो गई?

लेकिन उसके साधारण जीवन में जबरदस्त मोड़ तब आता है जब उसकी मुलाकात सूबेदारनी से होती है। पच्चीस साल बाद, यानी जब उसकी उम्र 37 साल की व सूबेदारनी की उम्र 33-34 साल की है। लेकिन पच्चीस साल ने बहुत कुछ बदल दिया है। सूबेदारनी अब सूबेदार हज़ारासिंह की पत्नी है और बोधासिंह की माँ है। सूबेदार हज़ारासिंह लहनासिंह की तरह मामूली किसान नहीं है। उसको बहादुरी का खिताब मिला है और लायलपुर में ज़मीन-जायदाद भी है। सूबेदार की हैसियत लहनासिंह से बहुत ऊँची है।

सूबेदारनी उसे इतने सालों बाद भी देखते ही पहचान लेती है। इससे पता चलता है कि बचपन की घटना उसको कितनी अधिक प्रभावित कर गई थी। जब वह उसे बचपन की उन घटनाओं का स्मरण कराती है तो वह अवाक्‌ सा रह जाता है। भूला वह भी नहीं है, लेकिन समय ने उस पर एक गहरी पर्त बिछा दी थी। आज वह एकाएक धूल पोंछकर साफ हो गई। लहनासिंह के लिए सूबेदारनी से इस तरह मिलना चमत्कार से कम नहीं था। सूबेदारनी से हुई यह मुलाकात युद्ध के मोर्चे पर उसके कार्यों को विशेष दिशा देते हैं। सूबेदारनी ने बचपन के उन संबंधों को अब तक अपने मन में जिलाये रखा, यह लहनासिंह के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। उसी संबंध के बल पर सूबेदारनी का यह विश्वास करना कि लहनासिंह उसकी बात टालेगा नहीं, लहनासिंह के लिए यह और भी विस्मयकारी था। वस्तुतः उसका लहनासिंह पर यह विश्वास ही बचपन के उन संबंधों की गहराई को व्यक्त करता है और इसी विश्वास की रक्षा करना लहनासिंह के जीवन की धुरी बन जाता है।

लहनासिंह एक वीर सिपाही है और खतरे के समय भी अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता। युद्ध में वह इसलिए शामिल नहीं हुआ है कि उसे अंग्रेज सरकार के प्रति वफादारी व्यक्त करनी है या सरकार से कुछ इनाम हासिल करना है। सिपाही हो जाने के बावजूद वह तो किसानी के ही सपने देखता है। लेकिन युद्ध के मोर्चे पर वह एक वीर नायक भी है। खंदक में पड़े-पड़े उकताने से वह शत्रु पर आक्रमण करना बेहतर समझता है। यहाँ भी उसकी कृषक मानसिकता प्रकट होती है जो निकम्मेपन और ऊब से बेहतर तो लड़ते हुए अपनी जान देना समझती है।

जब उनकी टुकड़ी में जर्मन जासूस लपटन साहब बनकर घुस आता है तब उसकी सूझबूझ और चतुराई देखते ही बनती है। उसे यह पहचानने में देर नहीं लगती कि यह लपटन साहब नहीं वरन्‌ जर्मन जासूस है और तब वह उसी के अनुकूल कदम उठाने में नहीं हिचकिचाता | और बाद में उस जर्मन जासूस के साथ मुठभेड़ या लड़ाई के दौरान भी उसका साहस और चतुराई स्पष्ट उभर कर प्रकट होती है। किंतु इस सारे घटनाचक्र में भी वह सूबेदारनी को दिये वचन के प्रति सजग रहता है और अपने जीते जी हजारासिंह व बोधासिंह पर किसी तरह की आँच नहीं आने देता। यही नहीं उनके प्रति अपनी आंतरिक भावना के कारण ही वह अपने घावों के बारे में सूबेदार को कुछ नहीं बताता | पसलियों में लगी गोली उसके लिए प्राणघातक होती है और अंत में वह मर जाता है। लेकिन मृत्यु शय्या पर उसकी नजरों के आगे दो ही चीजें मंडराती हैं – एक सूबेदारनी का कहा वचन और दूसरा आम के बाग में कीरतसिंह के साथ आम खाना। सूबेदारनी ने बचपन के उन संबंधों के बल पर लहनासिंह पर जो भरोसा किया था, उसी भरोसे के बल पर उसने अपने पति और पुत्र की जीवन रक्षा की भीख मांगी थी | लहनासिंह अपनी जान देकर उस भरोसे की रक्षा करता है। यह विश्वास और त्याग सूबेदारनी और लहनासिंह के संबंधों की पवित्रता और गहराई पर मोहर लगा देते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच यह बिल्कुल नये तरह का संबंध है और इस दृष्टि से लहनासिंह एक नये तरह का नायक है जो नये सूक्ष्म रूमानी मानवीय संबंधों की एक आदर्श मिसाल सामने रखता है।

अपने व्यक्तित्व की इन ऊँचाइयों के बावजूद उसकी मृत्यु त्रासद ही कही जाएगी | उसका साहस, उसकी चतुराई, जिसके कारण जर्मनों को शिकस्त खानी पड़ी, इस योग्य भी नहीं समझी जाती कि कम से कम मृत्यु की सूचना में इतना उल्लेख तो होता कि युद्ध के दौरान साहस दिखाते हुए प्राणोत्सर्ग किया, बल्कि समाचार इस रूप में छपता है कि “मैदान में घावों से मरा” | इससे यह जाहिर होता है कि जिस सूबेदारनी के कारण वह उसके पति और पुत्र की प्राण रक्षा करता है, उसके लिए भी लहनासिंह का बलिदान अकारथ ही चला जाता है | लहनासिंह का ऐसा दुखद अंत उसे त्रासद नायक बना देता है।

सूबेदारनी

सूबेदारनी कहानी में सिर्फ दो बार आती हैं। एक बार कहानी के आरंभ में, दूसरी बार कहानी के अंतिम भाग में, वह भी लहनासिंह की स्मृतियों में। लेकिन कहानी में सूबेदारनी का चरित्र लहनासिंह के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण चरित्र है। उस से पहली मुलाकात आठ वर्ष की बालिका के रूप में होती है जो अपने ही हम उम्र लड़के के मज़ाक से लज्जाती है। लेकिन उसके व्यक्तित्व में पहला परिवर्तन ही हमें तब नजर आ जाता है। लहनासिंह के इस प्रश्न के जवाब में कि “तेरी कुड़मार्ई हो गई।” जब वह यह कहती है कि “हाँ हो गई देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ ख़ालू” तो उसका इतने विश्वास के साथ जवाब देना यह बताता है कि जैसे सगाई के साथ वह एकाएक बहुत बड़ी हो गई है इतनी बड़ी कि उसमें इतना विश्वास आ गया है कि वह दृढ़तापूर्वक जवाब दे सके कि “हाँ हो गई | जाहिर है विश्वास की यह अभिव्यक्ति सूबेदारनी के व्यक्तित्व का नया पहलू है। फिर भी, अभी वह यह समझने में असमर्थ है कि सगाई का अर्थ क्‍या है।

इसीलिए, शायद वह अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाती,/या शायद लड़की होने के कारण।| इसलिए ऐसा नहीं लगता कि “सगाई” का उस पर भी वैसा “आघात” लगा है जैसा लहनासिंह पर लगा था। फिर आठ साल की उम्र होती ही क्‍या है?

किंतु लहनासिंह के साथ उसके संबंध कितने गहरे थे, इसका अहसास भी हमें कहानी में सूबेदारनी के माध्यम से ही होता है। आठ साल की नादान सी उम्र में जिस लड़के से उसका मज़ाक का संबंध बना था, उसे वह पच्चीस साल बाद भी अपने मन-मस्तिष्क से नहीं निकाल पाई। जबकि इस दौरान वह किसी और की पत्नी बन चुकी थी, उसका अपना घर परिवार था। जवान बेटा था। और जैसा कि कहानी से स्पष्ट होता है, वह अपने घर-परिवार में सुखी और प्रसन्‍न थी।

लेकिन पच्चीस साल बाद भी जब लहनासिंह उसके सामने आता है तो वह उसे तत्काल पहचान जाती है। न केवल पहचान जाती है, अपने बचपन के उन संबंधों के बल पर उसे विश्वास है कि अगर वह लहनासिंह को कुछ करने को कहेगी, तो वह कभी इनकार नहीं करेगा। निश्चय ही यह विश्वास उसके अंदर लहनासिंह के व्यक्तित्व से नहीं पैदा हुआ था, बल्कि स्वयं उसके मन में लहनासिंह के प्रति जो भावना थी, उससे पैदा हुआ था। लहनासिंह के प्रति उसके अंतर्मन में बसी लगाव की भावना का इस तरह पच्चीस साल बाद भी जिंदा रहना, सूबेदारनी के व्यक्तित्व को एक नया निखार देता है। और इस अर्थ में वह परंपरागत भारतीय नारी से भिन्‍न नजर आती है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि सूबेदारनी अपने घर-परिवार के दायित्व से विमुख है। बल्कि इसके ठीक विपरीत लहनासिंह से उसकी पच्चीस साल बाद हुई मुलाकात उसके अपने घर-परिवार के प्रति गहरे दायित्व बोध को भी व्यक्त करता है। वह लहनासिंह से प्रार्थना करती है कि जिस तरह बचपन में उसने तांगे से उसे बचाया था, उसी तरह अब उसके पति और पुत्र के प्राणों की भी रक्षा करे। इस तरह उसमें अपने पति और पुत्र के प्रति प्रेम और कर्त्तव्य की भावना भी है।

हम कह सकते हैं कि सूबेदारनी के लिए जितना सत्य अपने पति और पुत्र के प्रति प्यार और कर्त्तव्य है, उतना ही सत्य उसके लिए वे स्मृतियाँ भी हैं, जो लहनासिंह के प्रति उसके लगाव को व्यक्त करती है। उसके चरित्र के ये दो पहलू हैं और इनसे ही उसका चरित्र महत्त्वपूर्ण बनता है।

‘उसने कहा था” कहानी के इन दो प्रमुख पात्रों का यह चारित्रिक विश्लेषण स्पष्ट कर देता है कि लहनासिंह ही कहानी का केंद्रीय चरित्र है जिसके व्यक्तित्व के विभिन्‍न पक्षों को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं सूबेदारनी। इस तरह सूबेदारनी भी कहानी में महत्त्वपूर्ण चरित्र बनकर उभरती है। 

परिवेश

“उसने कहा था’ कहानी गुलेरीजी ने 1915 ई. में लिखी थी। इस कहानी की पृष्ठभूमि में प्रथम विश्वयुद्ध है, जिसे शुरू हुए अभी एक साल हुआ है। कहानी का मुख्य घटनाचक्र भारत से बाहर फ्रांस में घटित होता है, लेकिन कहानी का आरंभ अमृतसर से होता है। 1890 ई. के आसपास का अमृतसर। कहानी के आरंभ में ही अमृतसर के तांगेवालों का लंबा खाका खींचा गया है। बाज़ार से गुजरते हुए तांगे वाले किस तरह की आवाजें लगाते हैं, किस तरह का व्यवहार करते हैं, इसका अत्यंत जीवंत और यथार्थपरक चित्र खींचा गया है।

 “यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं चलती है. पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती है/ यदि कोर्ड डुढ़िया बार-बार बितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी क्वनावली के ये नमूने हैं – हट जा जीणे जोगिए हट जा करना वालिए हट जा पुत्तां प्यारिए हट जा लंबी उमर वालिए/’ 

उपर्युक्त अंश से स्पष्ट है कि अमृतसर का पंजाबी वातावरण आरंभ से ही कहानी पर छाया हुआ है। पात्रों की वेशभूषा, उनकी ज़बान, उनके मुहावरे और उनके व्यवहार में पंजाबीपन की स्पष्ट महक महसूस की जा सकती है।

“उसके बालों और उसके ढीले छुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख है’ (वेशभूषा) 7 वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ”

(पंजाब का घरेलू जीवन)

“तेरी कुड़मार्ड हो गई (भाषा)

“उसने कहा था’ के सभी पात्र पंजाबी हैं, इसलिए उनकी भाषा और व्यवहार में पंजाबीपन का आना स्वाभाविक है। अगर, कहानीकार पात्रों की क्षेत्रीय पृष्ठभूमि की उपेक्षा करता तो उसमें वह बात नहीं आती जो कहानी में अब नज़र आती है। यानी कि इस पंजाबीपन के कारण कहानी के पात्र अधिक जीवंत और वास्तविक लगते हैं। 

युद्ध के मैदान में भी उनका यह पंजाबीपन नहीं छूटता | पंजाब के लोग – विशेषतः सिख अपने साहस और चुलबुलेपन के लिए विख्यात हैं। यह विशेषताएँ हम लहनासिंह और अन्य पात्रों में भी देख सकते हैं।

“वजीराप्तिंह पल्रटन का विदृषक था। ब्राल्टी में गंदा पानी भरकर खाई के ब्राहर फेंकता हुआ बोला – मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के ब्रावशाह का तर्षण” | इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल छँट गये।”

“कौन जानता था क्रि दाढ़ियों वाले घरवारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँऐ पर सारी खंदक गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए मानो चार दिन से सोते और मौज करते हों/’

 ‘उसने कहा था’- कहानी का अधिकांश हिस्सा फ्रांस के युद्ध-मैदान से संबंधित है। कहानी में इतना अवसर नहीं था कि फ्रांस के परिवेश का चित्रण किया जाता, लेकिन कहानी में युद्ध के मोर्चे का वातावरण अवश्य प्रभावशाली ढंग से चित्रित हुआ है।

“अचानक आवाज़ आयी “वाह गुरुजी दी फ़तह/ वाह गुरुजी दा खालजा/” और धड़ाधड़ बदूकों को फायर जर्मनों की प्रीठ पर पड़ने लगे।/ ऐन मौको पर जर्मन दो चक्की के प्रा्टों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आय बरसाते थे और सामने से लहनाम़िंह के साथियों को संगीन चल रहे थे। पास आने पर प्रीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया/”

युद्ध के मोर्चे पर सिपाहियों के जीवन के कई रूप इस कहानी में देखने को मिलते हैं। खंदकों में लेटे-लेटे लड़ाई का इंतजार करते सैनिक, उनकी बातचीत, उनकी मनःस्थिति, भविष्य की

उनकी योजनाएँ, सभी कुछ इस कहानी में व्यक्त हुए हैं। इसके बाद जब सचमुच युद्ध शुरू होता है, उस वातावरण का भी गुलेरीजी ने अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया है। लेकिन कहानी में लहनासिंह की बदलती मनःस्थितियों का चित्रण करने में लेखक को विशेष सफलता मिली है। आरंभ में बालिका (सूबेदारनी) के साथ उसकी छेड़छाड़, उसके बाद बालिका की सगाई का सुनकर उसकी प्रतिक्रिया। यहाँ लेखक बजाए अपनी ओर से टिप्पणी देने के, लहनासिंह की तत्काल की गई प्रतिक्रियाओं से ही उसकी मनः:स्थिति व्यक्त कर देता है। रास्ते में लड़के को मेरी में ढकेल दिया. एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोर्ड एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक ग्रोगी वाले ठेले में दूध उँडेल दिया। सामने नह्मकर आती हुई किमी वैष्णवी से टकराकर अधि की उपाधि प्रार्ड तब कहीं घर पहुँचा। इसी तरह युद्ध के मोर्चे पर उसका उत्साह, उसका साहस, उसकी समझदारी यानी उसकी मनःस्थिति और उनमें आते बदलाव का चित्रण करने में गुलेरीजी सफल रहे हैं। अंत में, जब लहनासिंह घायल अवस्था में लेटा हुआ अपने अतीत को याद करता है एक ओर उसे सूबेदारनी की कही बातें याद आती हैं तो दूसरी ओर उसे अपना घर-गाँव याद आता है। धीरे-धीरे उसकी चेतना लुप्त होने लगती है और वह वजीरासिंह को ही कीरतसिंह समझकर अपने बाग-बगीचे की बात बड़बड़ाने लगता है– वही किसानी सपना जिसे देखते-देखते वह मर जाता है।

संरचना-शिल्प

संरचना शिल्प के अंतर्गत यहाँ हम कहानी की शैली, संवाद और भाषा पर विचार करेंगे। “उसने कहा था’ कहानी जब लिखी गई थी, तब तक हिंदी में कुछ ही कहानियाँ लिखी गई थी, लेकिन उनमें से एक भी कहानी ऐसी नहीं थी, जिसकी शैली या शिल्प को उल्लेखनीय कहा जा सके। “उसने कहा था’ के माध्यम से पहली बार कहानी-कला अपने उत्कृष्ट रूप में व्यक्त हुई।

शैली

“उसने कहा था’ की शैली वैसे तो वर्णनात्मक कही जा सकती है, लेकिन इसमें नाटकीयता के तत्त्व भी पर्याप्त हैं। कहानी काल के दो भिन्‍न खंडों में चलती है। काल का पहला खंड, कहानी के मूल कथ्य का आधार है, और उसी पर शेष कहानी विकसित होती है। इसके लिए गुलेरी जी कथ्य को सीधे-साधे प्रस्तुत नहीं करते वरन्‌ उसमें नाटकीयता उत्पन्न करने के लिए पहले कथा को दो भिन्‍न एवं स्वतंत्र रूपों में विकसित करते हैं और कहानी के अंतिम भाग में उन्हें पूर्वदीष्ति शैली द्वारा एक-दूसरे से जोड़ते हैं| पूर्वदीप्ति शैली का यह प्रयोग हिंदी कहानी के लिए नया ही नहीं था वरन्‌ अत्यंत प्रौढ़ प्रयोग भी था। कथ्य की सारी संभावनाएँ इसी शैली के कारण संप्रेषित हो सकी है। कथ्य के अनुकूल सही शैली की खोज लेखक की महत्त्वपूर्ण सफलता है।

भाषा और संवाद

कहानी की उत्कृष्टता का दूसरा मुख्य आधार है, भाषा। वर्णन और संवाद दोनों ही जगह भाषा की सृजनात्मकता हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। गुलेरी जी वैसे कहानी का सीधा-सादा वर्णन ही नहीं करते वरन शब्दों के द्वारा इस स्थिति का पूरा चित्र खींच देते हैं। यही चीज़ हम मनःस्थिति के वर्णन में देख सकते हैं। वहाँ भी भाषा परिस्थिति के अनुकूल अपने को परिवर्तित कर लेती है| गुलेरी जी भाषा का प्रयोग करते हुए स्थिति के प्रायः सभी पहलुओं का ध्यान रखते हैं। तांगे वालों का वर्णन करते हुए भाषा का रूप वैसा ही हो जाता है, जैसा तांगे वालों की वास्तविक जबान को व्यक्त करने के लिए ज़रूरी है। “हटो बाछा”, “आने दो लालाजी” जैसे शब्द प्रयोग इसीलिए महत्त्वपूर्ण है। गुलेरी जी भाषा का संयमित प्रयोग करते हैं। जहाँ कम शब्दों में बात कही जा सकती है, वहाँ वे मितव्ययता से काम लेते हैं। लहनासिंह और सूबेदारनी के बचपन के संबंधों का जो वर्णन हमें कहानी में मिलता है, उसके विस्तार की काफी गुंजाइश थी, लेकिन गुलेरी जी केवल “कुड़माई” वाले प्रसंग द्वारा उन दोनों की सारी मनोभावनाओं को व्यक्त कर देते हैं। इसी तरह सूबेदारनी से मिलने पर सूबेदारनी की कहीं बातों पर लेखक लहनासिंह की कोई प्रतिक्रिया कहानी में नहीं दर्शाता, यद्यपि उनका यह मिलन लहनासिंह के चरित्र को एक खास दिशा देने में मुख्य कारण बनता है। यही बात लहनासिंह के करुण और त्रासद अंत में देख सकते हैं जहाँ “मैदान में घावों से मरा”- वाक्यांश लहनासिंह की मौत को त्रासद अंत में बदल देती है।

जहाँ तक संवादों की बात है, गुलेरी जी ने प्रत्येक पात्र के मुख से वैसी ही भाषा बुलवाई है जो उसकी स्थितियों के अनुकूल हो। आरंभ में दोनों बच्चों की बातों में वैसी ही लज्जा, अबोधपन और चुलबुलापन है जो उस उम्र के बच्चों में होता है। लेकिन बाद में विभिन्‍न पात्रों की बातचीत में उनकी सामाजिक-पारिवारिक स्थिति के अनुसार अंतर आया है। सभी पात्रों की भाषा पर पंजाबी का प्रभाव है, जो स्वाभाविक है क्योंकि कहानी की कथावस्तु पंजाबी जीवन से ही संबंधित है। इसलिए इस कहानी में ऐसे शब्दों का प्रयोग पर्याप्त है जो पंजाबी भाषा से लिए गये हैं या जिनमें पंजाबी उच्चारण का प्रयोग किया गया है और कुड़माई, सालू, करमा वालिये, पुत्ता प्यारिए, गनीम, गैबी, मत्था टेकना, गुमा, पाधा, माँदा पड़ना आदि। ‘उसने कहा था’ कहानी पंजाबी जीवन से संबंधित है और इनके पात्र भी साधारण पढ़े-लिखे हैं इसलिए उनकी भाषा में अपनी मातृभाषा का प्रभाव स्वाभाविक है, लेकिन कहानी में एक स्थान पर रात का वर्णन करते हुए कहानीकार संस्कृत के कवि बाणभट्ट की कही बात का उल्लेख कर जाता है | हालांकि यह कहानी में स्थिति के वर्णन का हिस्सा है, न कि संवाद का।

“ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी” नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसे कि ब्राणभद्ट की भाषा में “दंतवीणोपदेशाचार्य” कहलाती ।

गुलेरी जी की भाषा पात्रों की मनःस्थिति का चित्रण करने में भी अत्यंत सक्षम है। सूबेदारनी जब लहनासिंह से मिलती है और अपने मन की व्यथा कहती है तो उसके मन में चल रहा द्वंद्व इतना साफ उभर कर आता है कि पाठक उसे आसानी से समझ लेता है।

“मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया/ एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाय फूट यये/ सरकार ने बहादुर का खिताब दिया है. लायलपुर में ज़मीन दी है. आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीगियों की घँघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं थी सूबेदारजी के स्राथ चली जाती। एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक वर्ष हुआ/ उस्रके पीछे चार और हुए पर एक भी नहीं जिया।” सूब्रेदारनी रोने लगी “अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग /” ठुम्हें याद है. “एक दिन तांये वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बियड्र गया था। ठुमने उम्त दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोज़ों की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के प्रास॒ तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना यह मेरी मिक्षा हैं। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूँ । “

या इसी तरह बेहोशी की हालत में लहनासिंह की बड़बड़ाहट महज बड़बड़ाहट नहीं है वरन्‌ उसके स्वप्न, उसकी आकांक्षा, उसके जीवन की त्रासदी ही मानो मूर्तिमान हो जाती है।

इस प्रकार ‘उसने कहा था कहानी का शिल्प अत्यंत सधा हुआ, कहानी के कथ्य के अनुकूल और सृजनात्मक उत्कृष्टता से युक्त है। कहानी में प्रत्येक प्रसंग, पात्र व मनोभाव का चित्रण अत्यंत कलात्मक ढंग से हुआ है। कहानी उतना ही नहीं कहती, जितना कथ्य सीधे तौर पर व्यक्त करता है बल्कि उससे आगे जाकर वह कई ऐसे पहलुओं को उजागर करती है, जो कहानी के मूल कथ्य को और समृद्ध करते हैं।

मूल्यांकन

कहानी के विश्लेषण के बाद उसका मूल्यांकन करना आसान हो जाता है। यहाँ मूल्यांकन का तात्पर्य कहानी के बारे में कोई निर्णय देना नहीं वरन्‌ लेखक की दृष्टि, कहानी का प्रतिपादूय और शीर्षक की उपयुक्तता पर विचार करना है।

रचनाकार की दृष्टि और कहानी का प्रतिपाद्य

“उसने कहा था’ कहानी का कथ्य लहनासिंह और सूबेदारनी के संबंधों पर आधारित है। सूबेदारनगी और लहनासिंह के बीच बचपन में जो मधुर संबंध पनपे थे, वे सामाजिक संबंधों में प्रतिफलित होने से पूर्व ही खत्म हो गये थे। लेकिन उन संबंधों की स्मृतियाँ दोनों के मन से कभी न मिट सकीं। सूबेदारनी जो बाद में सूबेदार हजारासिंह की पत्नी बन जाती है, अपने मन में लहनासिंह के साथ बीते बचपन के उन क्षणों को जीवित रखती है। बाद में इन्हीं संबंधों के बल पर वह लहनासिंह से अपने पति और पुत्र की रक्षा की प्रार्थना करती है। स्त्री और पुरुष के बीच यह एक नये तरह का रिश्ता है, जिसे किसी परंपरागत नाम से नहीं पुकारा जा सकता। सूबेदारनी अपने पति और पुत्र के प्रति उतनी ही वफादार और ईमानदार है, जितनी की कोई भी पत्नी या माँ हो सकती है। इसके बावजूद लहनासिंह के प्रति उसके मन का भाव, और उस पर इतना अगाध विश्वास निश्चय ही एक नये तरह के मानवीय संबंध की ओर इंगित करता हैं।

गुलेरी जी इन्हीं नये बनते मानवीय संबंधों को अपनी कहानी के द्वारा प्रस्तुत करना चाहते हैं। इन संबंधों को स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंध कहना पर्याप्त नहीं है क्योंकि तब सूबेदारनी के अपने पति और पुत्र के साथ संबंध मिथ्या होते लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है, इसलिए ये संबंध स्त्री-पुरुष के बीच नये संबंधों को व्यक्त करता है। लहनासिंह सूबेदरनी के अपने प्रति विश्वास से अभिभूत होता है, क्योंकि उस विश्वास की नींव में बचपन के संबंध हैं। सूबेदारनी का यह विश्वास ही लहनासिंह को उस महान त्याग की प्रेरणा देता है, जिसका चित्रण कहानी में हुआ है। इस प्रकार इस कहानी में लेखक की दृष्टि आधुनिक और मानवतावादी कही जा सकती है।

युद्ध विरोधी कहानी : कहानी एक और स्तर पर अपने को व्यक्त करती है। प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी एक अर्थ में युद्ध विरोधी कहानी भी है। पहला विश्वयुद्ध जिन देशों के बीच लड़ा गया, इनमें भारत शामिल नहीं था। भारतीय सैनिक तो इंग्लैड की ओर से लड़ रहे थे, जिसने कि भारत को पराधीन बना रखा था। भारतीय सैनिकों की बहादुरी अंग्रेजी साम्राज्य की रक्षा के लिए थी। उससे हिंदुस्तान को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होने वाली थी। लहनासिंह जैसे मामूली सैनिक अंग्रेज सरकार के प्रति वफादारी व्यक्त करने के लिए सेना में भर्ती नहीं हुए थे, जैसा कि हजारासिंह के मामले में स्पष्ट है। बल्कि लहनासिंह जैसे मामूली किसान

तो अपने जीवन की मजबूरियों से प्रेरित होकर ही सेना में भर्ती हुए थे। यही कारण है कि लेखक कहानी में एक भी प्रसंग ऐसा नहीं रचता जिनमें इन सैनिकों की वफादारी का उल्लेख हो वरन्‌ इसके विपरीत सेना में रहते हुए किसानी के सपने देखना यही बताता है कि वे सेना में सिर्फ बेहतर किसान जीवन की आकांक्षा लेकर ही भर्ती हुए हैं। लहनासिंह आदि का युद्ध के लिए उतावलापन भी या तो उनके व्यक्तिगत शौर्य को व्यक्त करता है या खंदक में पड़े-पड़े ऊबने से उभरने के भाव को। इसलिए युद्ध के दौरान लहनासिंह के लिए सूबेदारनी का वचन उसके लिए इतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है और इस वचन के लिए अपने प्राणों की बलि दे देता है यद्यपि उसका शौर्य और बलिदान अंग्रेजों के लिए हितकर भी हैं। और इस लिहाज से उसके बलिदान का उचित सम्मान किया जाना चाहिए परन्तु उसका बलिदान व्यर्थ ही जाता है और इस तरह लहनासिंह का करुण अंत युद्ध के विरोध में खड़ा हो जाता है। क्‍योंकि इस युद्ध से लहनासिंह का कोई सपना पूरा नहीं होता।

शीर्षक की उपयुक्तता

जहाँ तक कहानी के शीर्षक का सवाल है उसकी उपयुक्‍तता स्पष्ट है। “उसने कहा था’ सूबेदारनी के कहे वचन की ओर संकेत करता है। सूबेदारनी की बातें जहाँ स्वयं सूबेदारनी के चरित्र को उज़ागर करती है, वहीं लहनासिंह के चरित्र में भी महत्त्वपूर्ण मोड़ लाने वाली साबित होती है| सूबेदारनी की बातें ही उनके बीच के संबंधों को भी उजागर करती हैं, जो कहानी का मुख्य प्रतिपाद्य है। इसलिए सूबेदारनी के कहे वचन की ओर संकेत कराने वाला यह शीर्षक उपयुक्त है| मृत्यु की ओर बढ़ते लहनासिंह के अंतिम क्षणों में भी सूबेदारनी के कहे शब्द ही गूंजते रहते हैं।

सारांश

आपने ‘उसने कहा था’ कहानी के विश्लेषण को ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  •  “उसने कहा था’ की कथावस्तु का विश्लेषण कर सकते हैं और बता सकते हैं कि बचपन में लहनासिंह और सूबेदारनी के बीच किस तरह का संबंध बना। सूबेदारनी ने लहनासिंह को अपने पुत्र और पति की रक्षा करने को क्‍यों कहा और लहनासिंह ने सूबेदारनी के वचन का कैसे पालन किया।
  •  लहनासिंह और सूबेदारनी के चरित्र की विशेषताएँ पहचान सकते हैं और यह भी बता सकते हैं कि दोनों के बीच के संबंधों का आधार क्या है।
  •  “उसने कहा था’ प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई कहानी है। लेखक ने उस युग के समय को अत्यंत जीवंत रूप में कहानी में प्रस्तुत किया है। आप कहानी से संबद्ध परिवेश की विशेषताएँ बता सकते हैं।
  •  कहानी कला की दृष्टि से “उसने कहा था* अत्यंत प्रौढ़ रचना है। शैली, भाषा और संवाद की दृष्टि से इसमें कई नये प्रयोग हैं। शैली में पूर्वदीष्ति शैली, भाषा में यथार्थपरकता और संवादों में बोलचालपन इसकी खास विशेषताएँ है। आप इन विशेषताओं की कहानी के संदर्भ में व्याख्या कर सकते हैं।
  •  “उसने कहा था’ शीर्षक की उपयुक्तता का निर्णय कर सकते हैं।

उपयोगी पुस्तकें

कपूर मस्तराम : बंद्रधर शर्मा युलेरी साहित्य अकादमी, नई दिलली।

मदान इंद्रनाथ : हिंदी कहानी : पहचान और परख, लिपि प्रकाशन, नई दिल्ली |

उसने कहा था कहानी में कौन सी शैली का प्रयोग किया है?

उसने कहा था ' कहानी फ़्लैश बैक शैली में लिखी गई है। " उसने कहा था " कहानी चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा लिखित है। इस कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन प्रस्तुत करना नहीं बल्कि उदात्त प्रेम का प्रस्तुतीकरण है। इस कहानी की भाषा सीधी, सरल व हृदय स्पर्शी है।

उसने कहा था कहानी का मूल संवेदना क्या है?

उत्तर—'उसने कहा था' कहानी की मूल संवेदना निश्छल प्रेम, त्याग और कर्त्तव्यनिष्ठा है । लहनासिंह बचपन में अंकुरित प्रेम के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग करता है और जो वचन दिया था उसके पालन में अपने प्राणों का बलिदान कर देता है। दूसरी ओर वह एक सिपाही के कर्त्तव्य का भी निर्वाह करता है ।

उसने कहा था कौन सी विधा है?

भारतीय साहित्य के इतिहास में प्रेम को लेकर अद्भुत, अकल्पनीय और अप्रतिम कहानियां लिखी गई हैं, लेकिन 103 साल पहले 1915 में महान लेखक चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' अद्वतीय रचना है।

उसने कहा था कहानी की विशेषता क्या है?

'उसने कहा था' प्रथम विश्वयुद्ध के तुरंत बाद लिखी गई थी. तुरंत घटे को कहानी में लाना उसके यथार्थ को इतनी जल्दी और इतनी बारीकी से पकड़ पाना आसान नहीं होता पर गुलेरी जी ने यह किया और खूब किया. इस कहानी में प्रेम से भी ज्यादा युद्ध का वर्णन और माहौल है. यह बताने की खातिर कि युद्ध हमेशा प्रेम को लीलता और नष्ट करता है.