कविता पढ़ने और नाटक देखने से पाठक और श्रोता को जो असाधारण और अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति होती है, वही रस है। रस से पूर्ण वाक्य ही काव्य है। 'साहित्य दर्पण' में काव्य की व्याख्या करते हुए आचार्य विश्वनाथ लिखते हैं-वाक्यं रसात्मकं काव्यं अर्थात् रसात्मक वाक्य को काव्य कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा कहा जाता है। Show 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति' अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी (संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। मानव हृदय में, कुछ भाव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं। इन्हें स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव की परिपक्व अवस्था ही रस है। ये 9 हैं, अतः रस भी 9 माने गये हैं। रसों में पारस्परिक सम्बन्ध कुछ रसों में आपस में विरोध है। शृंगार का करुण, रौद्र और भयानक के साथ, हास्य का भयानक और करुण के साथ, करुण का हास्य और श्रृंगार के साथ, वीर का भयानक और शान्त के साथ, वीभत्स का श्रृंगार के साथ, शान्त का वीर, रौद्र, श्रृंगार, हास्य और भयानक के साथ। इसी तरह, कुछ रस परस्पर मित्र होते हैं। शृंगार रस की हास्य, वीर और अद्भुत के साथ मित्रता है। हास्य की श्रृंगार के साथ, करुण की श्रृंगार के साथ, वीर की शृंगार, अद्भुत और रौद्र के साथ, रौद्र की अद्भुत के साथ, भयानक की वीभत्स के साथ, अद्भुत की श्रृंगार के साथ और शान्त की श्रृंगार के साथ परस्पर मित्रता है। यह केवल साधारण नियम है, कवि अपनी प्रतिभा के द्वारा इनका सफल उल्लंघन भी कर लेते हैं। रसों के उदाहरण 1. श्रृंगार रस1. संयोग श्रृंगार श्रीराम को देखकर सीता के प्रेम का वर्णन- देखन मिस मृग-बिहँग-तरु, फिरति बहोरि-बहोरि। निरिख-निरिख रघुबीर-छवि, बढ़ी प्रीति न थोरि॥ देखि रूप लोचन ललचाने। हरखे जनु निज निधि पहिचाने॥ थके नयन रघुपति-छवि देखी। पलकन हू परहरी निमेखी॥ अधिक सनेह देह भइ भोरी। सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी॥ लोचन-मग रामहिं उर आनी। दीन्हें पलक-कपाट सयानी॥ तुलसी (रामचरितमानस) रस-संयोग श्रृंगार। स्थायी भाव-रति। आश्रय-सीता। आलम्बन-राम। उद्दीपन-वाटिका आदि। अनुभाव-स्तम्भ, देह का भारी होना, नयनों का थकित होना, एकटक देखना। संचारी भाव-हर्ष, जड़ता। वियोग श्रृंगार 1. भूषन-बसन बिलोकत सिय के। प्रेम-बिबस मन, कंप पलक तन, नीरज-नैन नीर भरे पिय के। सकुचत कहत, सुमिरि उर उमगत, सील-सनेह-सुगुन-गम तिय के॥ रस-वियोग श्रृंगार। स्थायी भाव-रति। आश्रय-राम। आलम्बन-सीता उद्दीपन-सीता के वस्त्राभूषणों को देखना। अनुभाव-कंप, रोमांच, अश्रु। संचारी भाव-स्मृति, संकोच, उमंग। 2. बैठि अटा सर औधि बिसूरति पाय सँदेस न 'श्रीपति' पी के। देखत छाती फटै निपटै, उछटै जब बिज्जु-छटा छबि नीके। कोकिल कुकैं, लगें तक लूकैं, उठै, हिय हूकैं बियोगिनि ती के। बारि के बाहक, देह के दाहक आये बलाहक गाहक जी के॥ रस-वियोग शृंगार। स्थायी भाव-रति। आश्रय-नायिका। आलम्बन-नायक। उद्दीपन-वर्षाकाल, बादलों का उमड़ना, बिजली का चमकना, कोयलों का कूकना। संचारी भाव-चिन्ता, व्याधि। 3. अति मलीन बृषभानु-कुमारी अघ-मुख रहित, उरघ नहिं चितवति, ज्यों गथ हारे थकित जुआरी। छूटे चिकुर, बदन कम्हिलानो, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥ स्थायी भाव-रति। आश्रय-राधा। आलम्बन-कृष्ण। अनुभाव-अधोमुख रहना, अन्यत्र नहीं देखना, मुख का कुम्हला जाना, बालों का बिखरना। संचारी भाव-ग्लानि, चिन्ता, दैन्य। (2) हास्य रस1. सखि। बात सुनों इक मोहन की, निकसी मटुकी सिर रीती ले कै। पुनि बाँधि लयो सु नये नतना रु कहूँ-कहुँ बुन्द करीं छल कै॥ निकसी उहि गैल हुते जहाँ मोहन, लीनी उतारि तबै चल कै। पतुकी धरि स्याय खिसाय रहे, उत ग्वारि हँसी मुख आँचल कै॥ रस-हास्य। स्थायी भाव-हास। आश्रय-गोपी। आलम्बन-कृष्ण। उद्दीपन-कृष्ण का खिसियाना। अनुभाव-मुख पर आँचल करना, हँसना। संचारी भाव-चपलता, हर्ष (आक्षिप्त या अध्याहत)। 2. तेहि समाज बैठे मुनि जाई। हृदय रूप-अहमिति अधिकाई॥ तहँ बैठे महेस-गन दोऊ। विप्र-बेस गति लखइ न कोऊ॥ सखी संग दै कुँवर तब चलि जनु राज-मराल। देखत फिरइ महीप सब कर-सरोज जय-माल॥ जेहि दिसि नारद बैठे फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥ पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर-गन मुसकाहीं॥ रस-हास्य। स्थायी भाव-हास। आश्रय-हर-गण। आलम्बन-नारद। उद्दीपन-नारद का बन्दर का रूप, उनका फूलकर बैठना, उनका बार-बार उकसाना। अनुभाव-मुसकाना। संचारी भाव-चपलता आदि (ऊपर से आक्षेप करना होगा)। (3) करुण रस1. अभिमन्यु की मृत्यु पर उत्तरा का विलाप प्रिय मृत्यु का अप्रिय महा संवाद पाकर विष-भरा। चित्रस्थ-सी, निर्जीव-सी, हो रह गयी हत उत्तरा॥ संज्ञा-रहित तत्काल ही वह फिर धरा पर गिर पड़ी। उस समय मूर्छा भी अहो! हितकर हुई उसको बड़ी॥ फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई। कुररी-सदृश सकरुण गिरा से दैन्य दरसाती हुई॥ बहुविधि विलाप-प्रलाप वह करने लगी उस शोक में। निज प्रिय-वियोग समान दुख होता न कोई लोक में॥ रस-करुण। स्थायी भाव-शोक। आश्रय-उत्तरा। आलम्बन-अभिमन्यु की मृत्यु। अनुभाव-स्तम्भ, प्रलय (मूर्छा), सिर और छाती पीटना, अश्रु, रुदन, प्रलाप। संचारी भाव-जड़ता, मोह, दीनता।। 2. सुदामा की दीन दशा देखकर श्रीकृष्ण का व्याकुल होना पाँय बेहाल बिवाइन सों भये, कंटक-जाल लगे पुनि जोये। हाय ! महादुख पाये सखा ! तुम आये इतै न कितै दिन खोये। देखि सुदामा की दीन दसा, करुणा करिकै करुनानिधि रोये। पानी परात को हथा छुयो नहिं, नैननि के जल सों पग धोये॥ रस-करुण। स्थायी भाव-शोक। आश्रय-कृष्ण। आलम्बन-सुदामा। उद्दीपन-सुदामा की दीन दशा, बिवाई और काँटों से भरे पैर। अनुभाव-अश्रु, सुदामा के प्रति उपालंभ भरा कथन। संचारी भाव-विषाद, पश्चात्ताप। 3. सुनि मृदु बचन भूप-हिय सोकू। ससि कर छुअत विकल जिमि कोकू॥ गयेउ सहमि, नहिं कहि कछु आवा॥ जनु सचान वन झपटेउ लावा॥ बिबरन भयेउ निपट महिपालू। दामिनि हनेउ मनहँ तरु तालू॥ माथे हाथ, मूँदी दोउ लोचन। तनु धरि लाग सोचु जनु सोचन॥ रस-करुण। स्थायी भाव-शोक। आश्रय-दशरथ। आलम्बन-राम। उद्दीपन-कैकेयी के वचन। अनुभाव-स्वर भंग, वैवर्ण्य, माथे पर हाथ रखना, नेत्र मूंदना। संचारी भाव-विकलता, सहमना, चिन्ता। (4) वीर रस1. जय के दृढ़-विश्वास-युक्त थे दीप्तिमान जिनके मुख-मंडल। पर्वत को भी खण्ड-खण्ड कर रजकण कर देने को चंचल॥ फड़क रहे थे अति प्रचण्ड भुज-दण्ड शत्रु-मर्दन को विह्वल। ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर ऐसे युवक चले दल-के-दल। रस-युद्ध वीर। स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय-युवक। आलंम्बन-शत्रु ! अनुभाव-मुख का दीप्तिमय हो, भुजाओं का पड़कना। संचारी भाव-हर्ष, चपलता, आत्मविश्वास। 2. कालिय नाग को देखकर श्रीकृष्ण का जोश में भरना- स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा विगर्हणा देख मनुष्य-मात्र की। निहार के प्राणि-समूह को हुए समुत्तेजित वीर-केसरी॥ हितैषणा से निज जन्म-भूमि की अपार आवेश ब्रजेश को हुआ। बनी महा बंक गठी हुई भवें, नितान्त विस्फारित नेत्र हो गये॥ रस-वीर। स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय-श्रीकृष्ण। आलम्बन-कालिय नाग। उद्दीपन-स्वजाति की दुर्दशा, मनुष्य-मात्र की विगर्हणा, जन्मभूमि की हितैषणा। अनुभाव-भौंहों का बंकिम होना, नेत्रों का विस्फारित होना। संचारी भाव-हर्ष चपलता। 3. मैं सत्य कहता हूँ सखे ! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे॥ हे सारथे ? हैं द्रोण क्या ? आवें स्वयं देवेन्द्र भी। वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी॥ रस-युद्ध वीर । स्थायी भाव-उत्साह। आश्रय-अभिमन्यु। आलम्बन-द्रोण आदि कौरव-पक्ष के वीर। अनुभाव-अभिमन्यु का वचन। संचारी भाव-गर्व, हर्ष, उत्सुकता। (5) रौद्र रस1. श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे। सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे॥ संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। करते हुए वह घोषणा वे हो गये उठकर खड़े॥ उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उनका लगा। मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥ मुख बाल-रवि सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित, हुआ। प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ॥ रस-रौद्र। स्थायी भाव-क्रोध। आश्रय-अर्जुन। आलम्बन-कौरव। उद्दीपन-अभिमन्यु का वध। अनुभाव-हाथ मलना, घोषणा करना, मुख लाल होना, तन काँपना। संचारी भाव-उग्रता आदि। 2. माखे लघन, कुटिल भयी भौंहें। रद-पट फरकत नैन रिसौहैं॥ कहि न सकत रघुवीर डर, लगे वचन जनु बान। नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रसाद॥ रस-रौद्र । स्थायी भाव-क्रोध । आश्रय-लक्ष्मण। आलम्बन-जनक के वचन। उद्दीपन-जनक के वचनों की कठोरता। अनुभाव-भौंहें टेढ़ी होना, ओठ फड़कना, नेत्रों का रिसौंहे होना। संचारी भाव-अमर्ष, उग्रता आदि। (6) भयानक रससमस्त सर्पो सँग श्याम ज्यों कढ़े कलिंद की नन्दिनि के सु-अंक से। खड़े किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महा शंकित भीत हो उठे॥ हुए कई मूर्छित घोर त्रास से, कई भगे, मेदिनि में गिरे कई। हुई यशोदा अति ही प्रकंपिता, ब्रजेश भी व्यसन-समस्त हो गये॥ रस-भयानक। स्थायी भाव-भय। आश्रय-ब्रजवासी। आलम्बन-सों से घिरे हुए कृष्ण का दृश्य। अनुभाव-भागना, गिरना, कांपना, मूर्च्छित होना (प्रलय)। संचारी भाव-शंका, आवेग, मोह। (7) वीभत्स रस1. रिपु-आँतन की कुंडली करि जोगिनी चबात। . पीबहि में पागी मनो जुवति जलेबी खात॥ रस-वीभत्स। स्थायी भाव-जुगुप्सा। आश्रय-दर्शक। आलम्बन-जोगिनी। उद्दीपन-आँतों को पीब में पाग-पाग कर खाना। अनुभाव-रोमांच, नाक-भौं सिकोड़ना, आँखें बन्द करना आदि (ऊपर सेआक्षेप करना होगा)। संचारी भाव-आवेग आदि (आक्षेप करना होगा)। 2. सिर पै बैठ्यो काग, आँख दोउ खात निकारत। खैचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनन्द उर धारत॥ गीध जाँघ को खोदि-खोदि कै माँस उखारत। स्वान अंगुरिन काटि-काटि कै खान विचारत॥ बहु चील नोचि ले जात तुच, मोद-मढ्यो सब को हियो। मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन्ह कहँ दियो। रस-वीभत्स। स्थायी भाव-जुगुप्सा। आश्रय-दर्शक। आलम्बन-श्मशान । उद्दीपन-काग का आँखों को निकालना, स्यार का जीभ को खींचना, गीध का जाँघ का माँस उखाड़ना आदि। अनुभाव-रोमांच, नाक-भौं सिकोड़ना आदि (ऊपर से आक्षेप करना होगा)। संचारी भाव-आवेग आदि (आक्षिप्त)। 3. रक्त-मांस के सड़े पंक से उमड़ रही है महाघोर दुर्गन्ध, रुद्ध हो उठती श्वासा। तैर रहे गल अस्थि-खण्डशत, रुण्ड-मुण्डहत कुत्सित कृमि-संकुल कर्दम में महानाश के॥ रस-वीभत्स। स्थायी भाव-जुगुप्सा। आश्रय-मजदूर। आलम्बन-युद्ध-भूमि। उद्दीपन-सड़ाव, दुर्गन्ध आदि। अनुभाव-श्वास का रुद्ध होना। (8) अद्भुत रस1. अखिल भुवन चर-अचर जग हरिमुख में लखि मातु। चकित भयी, गदगद वचन, विकसित दृग पुलकातु॥ रस-अद्भुत। स्थायी भाव-विस्मय। आश्रय-माता यशोदा। आलम्बन-कृष्ण का मुख। उद्दीपन-मुख में अखिल भुवनों और चराचर प्राणियों का दीखना। अनुभाव-स्वरभंग, रोमांच, नेत्रों का विकास। संचारी भाव-त्रास आदि। 2. दिखरावा निज मातहि अद्भुत रूप अखंड। रोम-रोम प्रति लागे कोटि-कोटि ब्रह्मंड॥ अगनित रवि-ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन। तनु पुलकित, मुख बचन न आवा। नयन मूंदि चरनन सिर नावा॥ रस-अद्भुत। स्थायी भाव-विस्मय। आश्रय-कौशल्या। आलम्बन-राम का अद्भुत रूप। उद्दीपन-रूप की अद्भुद्ता, रोम-रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड, असंख्य सूर्य आदि। अनुभाव-रोमांच, स्वरभंग, नेत्रों को मूंदना, सिर नवाना। 3. सती दीख कौतुकं मग जाता। आगे राम सहित सिय-भ्राता॥ फिर चितवा पाछे प्रभु देखा। सहित बन्धु-सिय सुन्दर बेखा॥ जहँ चितवइ तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रवीना॥ सोइ रघुबर, सोइ लक्ष्मन-सीता। देखि सती अति भयी सभीता॥ हृदय कम्प, तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूंदि बैठा मग माहीं॥ रस-अद्भुत। स्थायी भाव-विस्मय। अश्रय-सती। आलम्बन-राम का आगेपीछे सर्वत्र दिखायी देना। अनुभाव-कम्प, स्तम्भ, नेत्र मूंदकर बैठ जाना। संचारी भाव-त्रास, जड़ता, मोह। (9) शान्त रस1. बुद्ध का संसार-त्याग- क्या भाग रहा हूँ भार देख ? तूम मेरी ओर निहार देख- मैं त्याग चला निस्सार देख। अटकेगा मेरा कौन काम। ओ क्षणभंगुर भव ! राम-राम ! रूपाश्रय तेरा तरुण गात्र, कह, कब तक है वह प्राण-मात्र ? भीतर भीषण कंकाल-मात्र, बाहर-बाहर है टीमटाम। ओ क्षणभंगुर भव ! राम-राम ! रस-शान्त। स्थायी भाव-निर्वेद। आश्रय-गौतमबुद्ध। आलम्बन-निस्सार और क्षणभंगुर संसार । उद्दीपन-सांसारिक विषयों की क्षणभंगुरता, विद्रुप परिणाम और निस्सारिता का बार-बार ध्यान आना। अनुभाव-संसार को त्याग कर घर से निकाल जाना। संचारी भाव-मति, वितर्क, धृति। 2. समता लहि सीतल भना, मिटी मोह की ताप। निसि-वासर सुख निधि लह्या, अंतर प्रगट्या आप॥ रस-शान्त। स्थायी भाव-शम। 3. अपुनपो आपुन ही में पायो। सबद-हि-सबद भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो॥ ज्यों कुंडल नाभी कसतूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो। फिर चितयो जब चेतन ह्वा, करि आपुनहो में पायो॥ सपने माँहि नारि को भ्रम भयो, बालक कहूँ गमायो॥ जागि लख्यो ज्यों-को-त्यों ही है, ना कहुँ गयो न आयो। सूरदास, समुझे की यह गति, मन-ही-मन मुसकायो। पर कही न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूंगे गुर खायो॥ रस-शान्त। स्थायी भाव-शम। आश्रय-साधक। आलम्बन-आत्मज्ञान। अनुभाव-मन-ही-मन मुसकाना। संचारी भाव-धृति। (10) वात्सल्य रससन्तान के प्रति स्नेह भाव वात्सल्य कहा जाता है। यही वात्सल्य भाव विभावादि के संयोग से 'वात्सल्य' की व्यंजना करता है। यशोदा हरि पालने झुलावै। हलरावै दुलरावै जोइ-सोई कुछ गावै। जसुमति मन अभिलाष करे कब मेरो लाल घुटुरुवन रेगै, कब धरनि पग दै धरै। रस-वात्सल्य। स्थायी भाव-पुत्र के प्रति स्नेह। आश्रय-माता यशोदा। आलम्बन-पुत्र श्रीकृष्ण। उद्दीपन-बालक की चेष्टाएँ। अनुभाव-बालक को पालने झुलाना, लोरी गाना। संचारी भाव-हर्ष, आवेग आदि। हरि अपने रंग में कछु गावत। तनक-तनक चरनन सों नाचत, मनहिं-मनहिं रिझावत॥ बाँगि उँचाइ काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत। माखन तकन आपने कर ले तनक बदन में नावत॥ कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ में लवनी लिये खवावत। दुरि देखत जसुमति यह लीला हरखि अनन्द बढ़ावत॥ रस-वात्सल्य। स्थायी भाव-स्नेह (वात्सल्य)। आश्रय-यशोदा। आलम्बन- बालक कृष्ण । उद्दीपन-कृष्ण का गाना, नाचना, बाँह उठाकर गायों को बुलाना, मुँह में माखन डालना, प्रतिबिंब को माखन खिलाना। अनुभाव-यशोदा का छिपकर देखना। संचारी भाव-हर्ष आदि। (11) भक्ति रसजाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो। सोइ सुसील, पुनीत, बेद-बिद विद्या-गुननि भर्यो॥ उतपति पांडु-सुतन की करनी सुनि सतपंथ डर्यो। ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुन लोक तर्यो। जो निज धरम बेद बोधित सो करत न कछु बिसर्यो। बिनु अवगुन कृकलासकूप मज्जित कर गहि उधर्यो॥ रस-भक्ति। स्थायी भाव-देव के प्रति भक्तिभाव। आश्रय-स्वयं कवि। आलम्बन-श्रीराम। उद्दीपन-श्रीराम की दयालुता, भक्त के प्रति वत्सलता। अनुभाव- श्रीराम की महिमा (गुणों) का कथन। संचारी भाव-हर्ष, स्मृति आदि। रस कितने प्रकार के होते हैं Class 10?भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा
उन्होंने अपने 'नाट्यशास्त्र' में आठ प्रकार के रसों का वर्णन किया है। विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होने वाला आनन्द ही 'रस' है।
रस कितने प्रकार के होते हैं?रस कितने प्रकार के होते हैं || Ras kitne Prakar Ke Hote Hain. श्रृंगार रस :- जब किसी काव्य छंद पद को पढ़ने से स्थाई भाव रति की व्यंजना होती है ,तो उसे श्रंगार रस कहते हैं। ... . हास्य रस हास्य रस का स्थायी भाव हास है। ... . करुण रस ... . रौद्र रस ... . वीर रस ... . भयानक रस ... . वीभत्स रस ... . अद्भुत रस. रस के अंग कितने होते हैं उनके नाम?रस के चार प्रमुख अंग होते हैं: स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव।
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