Rajasthan Board RBSE Class 11 Sociology Important Questions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण Important Questions and Answers. Show बहुविकल्पात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें- निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये- 1. समाजीकरण के दौरान हममें से प्रत्येक में स्वयं की पहचान की भावना तथा स्वतंत्र विचारों एवं कार्यों के लिए क्षमता विकसित होती है। निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये- 1. अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना (अ) संस्कृति का मानकीय आयाम 2. अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना (ब) संस्कृति का भौतिक आयाम 3. इंटरनेट चैटिंग (स) संस्कृति हस्तांतरित होती रहती है 4. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है (द) संस्कृति मानसिक तरीकों से संबंधित है 5. संस्कृति सोचने, अनुभव करने और विश्वास करने का तरीका है (य) संस्कृति का संज्ञानात्मक आयाम उत्तर: 1. अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना (य) संस्कृति का संज्ञानात्मक आयाम 2. अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना (अ) संस्कृति का मानकीय आयाम 3. इंटरनेट चैटिंग (ब) संस्कृति का भौतिक आयाम 4. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है (स) संस्कृति हस्तांतरित होती रहती है 5. संस्कृति सोचने, अनुभव करने और विश्वास करने का तरीका है (द) संस्कृति मानसिक तरीकों से संबंधित है।
प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7.
प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16.
प्रश्न 17.
प्रश्न 18: प्रश्न 19. प्रश्न 20.
लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. (2) मानकीय आयाम-संस्कृति के मानकीय आयाम के अन्तर्गत कार्य करने के तरीकों का उल्लेख किया जाता है। इसके अन्तर्गत नियमों, अपेक्षाओं, प्रथाओं, कानूनों को सम्मिलित किया जाता है। (3) भौतिक आयाम-संस्कृति के भौतिक आयाम के अन्तर्गत भौतिक साधनों के प्रयोग से संभव कोई भी क्रियाकलाप शामिल है। इसके अन्तर्गत आवास, औजार, कपड़ा, आभूषण, संगीत के उपकरण, पुस्तकें आदि सम्मलित किये जाते हैं। प्रश्न 2.
प्रश्न 3.
प्रश्न 4.
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प्रश्न 6. प्रश्न 7.
प्रश्न 8. प्रश्न 9.
प्रश्न 10. प्रश्न 11.
प्रश्न 12. (2) संस्कृति की उपलब्धियाँ-संस्कृति की उपलब्धियाँ भौतिक तथा अभौतिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनकी प्रगति से आंकी जाती हैं। कुछ संस्कृतियों का भौतिक पक्ष अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा प्रगतिशील हो सकता है। (3) संस्कृति उच्च और निम्न नहीं हो सकती-विभिन्न संस्कृतियों के बीच परस्पर आदान-प्रदान सदैव चलता रहता है। एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के प्रतिमानों को ग्रहण करती है लेकिन कोई भी संस्कृति अपने मूल्यों का पूर्ण लुप्तीकरण नहीं चाहती है। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी संस्कृति को भारतीय संस्कृति पर थोपने का प्रयास किया गया। इस प्रक्रिया में साधारणतः एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के भौतिक पक्ष को तो ग्रहण कर लेती है, लेकिन अभौतिक पक्ष के संदर्भ में ऐसा नहीं होता है। संस्कृति की संरचना चिंतन के प्रतिमानों, अनुभवों तथा व्यवहारों के माध्यम से होती है। चूंकि इन सभी तत्वों में विभिन्नता पायी जाती है अतः विभिन्न संस्कृतियों में भिन्नता स्वाभाविक है। (4) विश्वव्यापीकरण में व्यक्ति विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को मानता तथा इन्हें अपने अन्दर समायोजित करता है तथा एक-दूसरे की संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए सांस्कृतिक विनिमय तथा लेन-देन को बढ़ावा देता है। विविध शैलियों, रूपों, श्रव्यों तथा कलाकृतियों को शामिल करने से विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान प्राप्त होती है। अतः स्पष्ट है कि कोई संस्कृति दूसरी संस्कृति से उच्च या निम्न नहीं होती है। प्रश्न 13. उप-संस्कृति समूह एक सम्बद्ध इकाई के रूप में भी कार्य कर सकता है जो समूह के सदस्यों को पहचान देता है। ऐसे समूहों में नेता तथा अनुयायी हो सकते हैं, परन्तु समूह के सदस्य समूह के उद्देश्यों के प्रति वचनबद्ध होते हैं तथा इकट्ठे होकर इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, आस-पड़ोस के युवा सदस्य क्लब बना सकते हैं ताकि अपने आपको खेलों तथा अन्य रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जा सके। ऐसे कार्यों से सदस्यों की समाज में सकारात्मक छवि बनती है, जो समूह के रूप में उनकी पहचान में रूपान्तरण होता है। समूह अपने को अन्य समूहों से अलग करने में सक्षम होता है और इस तरह आस-पड़ोस में स्वीकृति तथा मान्यता द्वारा अपनी पहचान बनाता है। इस समूह की इस 'सांस्कृतिक पहचान' को ही उप-संस्कृति कहा जा सकता है। प्रश्न 14. (2) प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन या सांस्कृतिक सम्पर्क या अनुकूलन की क्रियाओं द्वारा परिवर्तनप्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन या अन्य संस्कृतियाँ या अनुकूलन की प्रक्रियाओं द्वारा भी सांस्कृतिक परिवर्तन हो सकते हैं। प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन से लोगों की जीवन-शैली में परिवर्तन हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर-पूर्वी भारत तथा मध्य भारत में रहने वाले जनजातीय समुदायों पर जंगली संसाधनों की कमी का विपरीत प्रभाव पड़ा तथा इनकी जीवन-शैली में परिवर्तन आया है। प्रश्न 15. (2) तकनीकी खोज या पारिस्थितिकीय रूपान्तरण-तकनीकी खोज या पारिस्थितिकीय रूपान्तरण के द्वारा भी क्रांतिकारी परिवर्तनों का प्रारंभ हो सकता है। हाल के वर्षों में प्रचार तंत्र, इलैक्ट्रॉनिक तथा मुद्रण दोनों में आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है। इससे जीवन-शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं। प्रश्न 16. प्रश्न 17. (2) आजन्म प्रक्रिया-समाजीकरण जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। मनुष्य अपने जीवन काल के दौरान विभिन्न प्रस्थितियाँ धारण करते हुए, उन्हीं के अनुरूप अपनी भूमिकाओं का निष्पादन करना सीखता है। लेकिन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया आरंभिक वर्षों में घटित होती है जिसे प्रारंभिक समाजीकरण कहा जाता है। बाद के वर्षों में जीवनपर्यन्त चलने वाली समाजीकरण की प्रक्रिया को द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है। प्रश्न 18. प्रश्न 19.
प्रश्न 20. परिणामस्वरूप बाद की अवस्थाओं में समाजीकरण की प्रक्रिया स्वचालित हो जाती है। इसे द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है। युवावस्था में वह अनेक सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, आर्थिक व व्यावसायिक संस्थाओं और संचार के साधनों से उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया प्रभावित होती है। प्रौढ़ावस्था में वह नये उत्तरदायित्व ग्रहण करता है और उनका निर्वहन करता है। वृद्धावस्था में वह नई पीढ़ी के साथ सामञ्जस्य करता है और इसके तहत वह कुछ न कुछ सदैव सीखता रहता है। प्रश्न 21.
प्रश्न 22. (2) द्वितीयक समाजीकरण-किशोरावस्था के बाद से युवावस्था तक चलने वाली समाजीकरण की प्रक्रिया को द्वितीयक समाजीकरण कहा जाता है। द्वितीयक समाजीकरण एक व्यक्ति के जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। समाजीकरण के इस स्तर पर व्यक्ति व्यवसाय तथा जीविका के साधनों की खोज में प्राथमिक समूहों के अलावा अन्य समूहों से अपने मूल्यों, प्रतिमानों, आदर्शों, व्यवहारों तथा सांस्कृतिक मानदण्डों को ग्रहण करता है। ऐसे समूहों को प्रायः संदर्भ समूह या असदस्यता समूह कहा जाता है। प्रश्न 23. निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1.
अतः संस्कृति व्यक्ति द्वारा सीखने या जीवन-जीने की वह प्रक्रिया है जो सामाजिक अन्तःक्रिया के साथ-साथ चलती है। संस्कृति की परिभाषाएँ विभिन्न मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों ने संस्कृति की अवधारणा को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है। (2) मानव विज्ञान के प्रकार्यात्मक स्कूल' के संस्थापक ब्रोनिसला मैलिनोवस्की के अनुसार, "संस्कृति में उत्तराधिकार में प्राप्त कलाकृतियाँ, वस्तुएँ, तकनीकी प्रक्रिया, विचार, आदतें तथा मूल्य शामिल हैं।" (3) क्लिफोर्ड ग्रीट्ज के अनुसार, "मानव एक प्राणी है जो अपने स्वयं के बुने हुए महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में फँसा हुआ है। मैं संस्कृति को यही जाल मानता हूँ।" (4) राल्फ लिंटन के अनुसार, "संस्कृति समाज के सदस्यों के जीवन का तरीका है। यह विचारों तथा आदतों का संग्रह है, जिन्हें व्यक्ति सीखते हैं, भागीदारी करते हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करते हैं।" (5) अल्फ्रेड कोबर तथा क्लाएड क्लूखोन ने संस्कृति की बहुल परिभाषाओं का एक व्यापक सर्वेक्षण किया तथा सर्वेक्षण में इन विभिन्न परिभाषाओं को प्रदर्शित किया। सर्वेक्षण में दी गई इन विभिन्न परिभाषाओं के कुछ प्रतिदर्श निम्नलिखित हैं
प्रश्न 2. (2) संस्कृति सीखी जाती है-मानव को उसकी शारीरिक विशेषताएँ, क्षमताएँ आदि वंशानुक्रमण के द्वारा उसके माता-पिता से प्राप्त होती हैं। संस्कृति को मानव वंशानुक्रमण के द्वारा प्राप्त नहीं करता है, अपितु ये तो व्यक्ति के सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग होता है। संस्कृति को मानव भाषा, प्रतीकों, विचारों के मंथन, तर्क आदि के माध्यम से सीखता है। सीखने की क्षमता मानव में ही नहीं वरन् पशुओं में भी होती है, किन्तु पशु द्वारा सीखा हुआ व्यवहार संस्कृति नहीं बन पाता; वह केवल पशु का व्यक्तिगत व्यवहार है। सभी प्रकार के सीखे हुए व्यवहार संस्कृति के अंग नहीं हैं, मनुष्य कई व्यक्तिगत व्यवहार भी सीखता है। जो व्यवहार सम्पूर्ण या अधिकतर समूह, समुदाय या समाज के होते हैं उनसे ही संस्कृति निर्मित होती है। सामूहिक व्यवहार ही प्रथाओं, जनरीतियों, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि को जन्म देते हैं और ये केवल मानव समाज में ही पाये जाते हैं, पशुओं में नहीं। (3) संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है-संस्कृति चूँकि सीखी जाती है, इसलिए ही नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के द्वारा संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करती है। इस प्रकार एक समूह से दूसरे समूह को, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है। मानव संस्कृति का हस्तान्तरण भाषा के माध्यम से करता है। भाषा के द्वारा ही वह ज्ञान प्राप्त करता है। भाषा के द्वारा ही ज्ञान को विस्तारित करता है। नयी पीढ़ी को अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान का भण्डार प्राप्त होता है जिसमें वे स्वयं का अनुभव भी जोड़ते हैं। इस प्रकार संस्कृति का विस्तार, विकास आदि किसी एक व्यक्ति या समूह पर निर्भर न होकर अनेकानेक पीढ़ियों के योगदान का फल होता है। (4) प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है-एक समाज की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ दूसरे समाज से भिन्न होती हैं अतः प्रत्येक समाज में अपनी एक विशिष्ट संस्कृति पायी जाती है। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक आविष्कार करता है। आविष्कारों का योग संस्कृति को एक नया रूप प्रदान करता है। प्रत्येक समाज की आवश्यकताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं जो सांस्कृतिक भिन्नताओं को जन्म देती हैं। मुरडॉक एवं बील्स तथा हॉइजर आदि का मत है कि ऊपरी तौर पर हमें विभिन्न संस्कृतियों में भिन्नता दिखाई देती है, लेकिन यदि हम गहराई से देखें तो अन्ततः उनमें पर्याप्त समानताएँ पायी जाती हैं। सभी समाजों में हमें धर्म, परिवार, विवाह, नातेदारी, प्रथाएँ, जनरीतियाँ आदि देखने को मिलेंगी, चाहे इनके बाहरी आवरण में अन्तर ही क्यों न हो। इस प्रकार से प्रत्येक समाज में संस्कृति के कुछ तत्त्व सामान्य रूप से समान होते हैं, वहीं कुछ तत्त्वों के कारण संस्कृति में पर्याप्त भिन्नता आ जाती है, यह स्थिति समाज को विशिष्टता प्रदान करती है। (5) संस्कृति समाज की देन है-संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष की देन नहीं होती वरन् सम्पूर्ण समाज की देन है। समाज की परम्परा ही संस्कृति को बनाये रखने का कार्य करती है। संस्कृति के अन्तर्गत जिन परम्पराओं, प्रथाओं, जनरीतियों, रूढ़ियों, धर्म आदि का समावेश रहता है वे व्यक्तिगत जीवन विधि की अपेक्षा सामूहिक जीवन विधि को व्यक्त करते हैं । इस प्रकार कहा जा सकता है कि संस्कृति मानव द्वारा निर्मित होने के बावजूद यह मानव को समाज की देन होती है। (6) संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है-एक समूह के लोग अपनी संस्कृति को आदर्श मानते हैं और वे उसके अनुसार अपने व्यवहारों एवं विचारों को ढालते हैं। जब संस्कृतियों की तुलना की जाती है तो एक व्यक्ति दूसरी संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताने का प्रयास करता है। संस्कृति आदर्श इसलिए होती है कि यह किसी एक व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित न कर सम्पूर्ण समूह के व्यवहार से सम्बन्धित होती है। ये व्यवहार समूह के द्वारा स्वीकृत होते हैं इसीलिये ये आदर्श माने जाते हैं। (7) संस्कृति मनुष्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक-संस्कृति की यह विशेषता है कि वह मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। मानव की अनेक सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकताएँ हैं। उनकी पूर्ति के लिए ही मानव ने संस्कृति का निर्माण किया है। मैलिनोवस्की व रैडक्लिफ ब्राउन का मत है कि प्रत्येक समाज में संस्कृति का कोई भी भाग या उपभाग बेकार नहीं होता। प्रत्येक सांस्कृतिक तत्त्व किसी न किसी रूप में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योग अवश्य देता है। मानव की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही समय-समय पर नये-नये आविष्कार होते रहते हैं और वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं। (8) संस्कृति में अनुकूलता का गुण होता है-संस्कृति में समय, स्थान, समाज एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढालने की क्षमता होती है। परिवर्तनशीलता संस्कृति का गुण है। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियाँ जैसे दुर्गम स्थानों, पहाड़ी क्षेत्रों, रेगिस्तानों, शीत प्रदेशों आदि में निवास करने वालों की संस्कृतियों में काफी अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर का मूल कारण यही है कि प्रत्येक स्थान की संस्कृति ने अपने आपको उस भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया है। निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों या इकाइयों में सदैव कुछ न कुछ बदलाव होता ही रहता है। बदलाव या परिवर्तन की इसी प्रक्रिया के कारण संस्कृति में अनुकूलनशीलता का गुण पाया जाता है। (9) व्यक्तित्व निर्माण में सहायक-एक मनुष्य का पालन-पोषण किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। जन्म के बाद बच्चा अपनी संस्कृति को सीखकर उसे आत्मसात् करता है। एक संस्कृति में पले हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरी संस्कृति के व्यक्ति से भिन्न होता है। इसका कारण यह है कि संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, प्रथाओं एवं व्यवहारों की छाप व्यक्ति के व्यक्तित्व पर पड़ती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में पला हुआ व्यक्ति अमेरिका में पले हुए व्यक्ति से भिन्न होता है। (10) संस्कृति में सन्तुलन एवं संगठन होता है-संस्कृति का निर्माण विभिन्न इकाइयों से मिलकर होता है। सांस्कृतिक इकाइयाँ जिन्हें हम सांस्कृतिक तत्त्व एवं संस्कृति-संकुल कहते हैं, परस्पर एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं वरन् एक-दूसरे से बँधे हुए हैं। ये सभी इकाइयाँ संगठित रूप से मिलकर ही सम्पूर्ण संस्कृति की व्यवस्था को बनाये रखती हैं। (11) संस्कृति अधि-वैयक्तिक एवं अधि-सावयवी है-क्रोबर ने संस्कृति की इस विशेषता का उल्लेख किया है। अधि-वैयक्तिक का अर्थ है कि संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं किया है और वह संस्कृति के एक भाग का ही उपयोग कर पाता है, सम्पूर्ण का नहीं। संस्कृति का निर्माण समूह द्वारा ही होता है। अतः संस्कृति की रचना और निरन्तरता किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इस अर्थ में संस्कृति अधि-वैयक्तिक है। संस्कृति एक और अर्थ में भी अधि-वैयक्तिक है। प्रत्येक संस्कृति का निर्माण, विकास, विस्तार एवं परिमार्जन होता रहता है जिसे रोकने या वश में करने की क्षमता किसी व्यक्ति विशेष में नहीं होती है। इस अर्थ में भी संस्कृति अधि-वैयक्तिक है। मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं का उपयोग कर संस्कृति का निर्माण किया है जो सावयव से ऊपर है, सावयव से अधिक है; इसे अधि-सावयवी कहते हैं। प्रश्न 3. वे समाज और संस्कृति के पुराने मूल्यों, विचारों, प्रथाओं आदि में अनेक परिवर्तन लाते हैं और उनके स्थान पर नवीन मूल्यों, विचारों, प्रथाओं एवं धर्म की स्थापना करते हैं। तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे ही सम्पूर्ण संस्कृति के निर्माता व वाहक हैं। लेकिन यह विचार त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इन महान् व्यक्तियों ने जो विचार ग्रहण किये, वे भी उनसे पूर्व समाज में विद्यमान थे। इससे स्पष्ट होता है कि कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माता नहीं हो सकता। वह केवल अपनी ओर से उसमें कुछ योगदान ही देता है। यदि संस्कृति एक व्यक्ति की देन होती तो वह उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद समाप्त हो सकती थी, लेकिन सम्पूर्ण संस्कृति समूह की देन होने के नाते समूह की आदत या व्यवहार के रूप में पीढ़ी-दर-पीढी चलती रहती है। स्पष्ट है कि संस्कृति की रचना और निरन्तरता व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इस अर्थ में संस्कृति अधिवैयक्तिक है। संस्कृति इस अर्थ में भी अधिवैयक्तिक है कि प्रत्येक संस्कृति का निर्माण, विकास, विस्तार एवं परिमार्जन होता रहता है; जिसे रोकने या वश में करने की क्षमता किसी व्यक्ति विशेष में नहीं होती। इस अर्थ में भी संस्कृति अधिवैयक्तिक है। (2) संस्कृति अधि-सावयवी है-सावयवी शब्द का प्रयोग हम उनके लिए करते हैं जिनमें जीवन पाया जाता है। इस अर्थ में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सावयवी हैं। संस्कृति को अधि-सावयवी निम्न अर्थों में कहा गया है। (ii) संस्कृति को अधि-सावयवी इसलिए भी कहा गया है, क्योंकि मात्र सावयवी घटनाओं से ही संस्कृति का निर्माण नहीं हो सकता है। संस्कृति मानव को वंशानुक्रमण से प्राप्त नहीं होती अपितु उसे सीखा और सिखाया जाता है। क्रोबर ने चींटियों का उदाहरण देते हुए इसे स्पष्ट किया है कि यदि चींटियों के कुछ अण्डों को अन्य अण्डों से पृथक् रख दें, इन अण्डों पर गर्मी, नमी का विशेष ध्यान रखा जाये, तब इनमें से निकलने वाली चींटियों में वे सभी गुण व विशेषताएँ मिलेंगी जो अन्य चींटियों में होती हैं । किन्तु यदि कुछ मानव शिशुओं को सामाजिक वातावरण से अलग रख दिया जाये तो उनमें संस्कृति का विकास होगा ही नहीं। सामाजिक वातावरण से दूर ये मानव शिशु समय के साथ बड़े तो हो जायेंगे किन्तु वे व्यवहार संस्कृतिविहीन पशुओं की तरह ही करेंगे। इस रूप में संस्कृति अधिसावयवी होती है। प्रश्न 4. (क) भौतिक संस्कृति भौतिक संस्कृति का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है (2) भौतिक संस्कृति की विशेषताएँ-भौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(ख) अभौतिक संस्कति अभौतिक संस्कृति का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है- (2) अभौतिक संस्कृति की विशेषताएँ-अभौतिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
भौतिक-अभौतिक संस्कृति परस्पर सम्बन्धित हैं भौतिक व अभौतिक संस्कृति पृथक् होते हुए भी परस्पर सम्बन्धित हैं। दोनों ही संस्कृतियां मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं और दोनों ही मानव-मस्तिष्क की उपज हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। प्रश्न 5. (ii) उन विचारों के द्वारा संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम को स्पष्ट किया जाता है जिनमें ज्ञान तथा विश्वास सम्मिलित होते हैं। विचार व्यक्तियों की बौद्धिक धरोहर होते हैं। शिक्षित समाज में इन्हें पुस्तकों एवं दस्तावेजों के रूप में अभिलेखित कर लिया जाता है। परन्तु निरक्षर समाजों में दंतकथाओं, जनश्रुतियों तथा मौखिक रूप से हस्तान्तरण के रूप में ये विद्यमान होते हैं। (iii) संज्ञान की प्रक्रिया के निर्माण में सभी लोग भागीदारी करते हैं, सभी लोग चिन्तन करते हैं; अनुभव करते हैं; पहचानते हैं तथा अतीत की वस्तुओं का स्मरण करते हैं व उन्हें वास्तविक तथा कल्पनात्मक भविष्य के बारे में प्रक्षेपित करते हैं। - (2) संस्कृति का मानकीय आयाम-संस्कृति के मानकीय आयाम का सम्बन्ध आचरण के नियमों से है। यथा (ii) संस्कृति के मानकीय आयाम के द्वारा व्यक्तियों के बीच अन्तःक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है। (iii) मानकीय अवधारणा के अन्तर्गत चिन्तन के बजाय कार्य करने के तरीकों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता (iv) व्यक्ति के आचरण को मान्यता समाज द्वारा निर्धारित मानकों से ही प्राप्त होती है। मानक सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य हैं। इस प्रकार प्रतिमान (मानक) तथा मूल्य संस्कृति को समझने हेतु एक केन्द्रीय अवधारणा है। (3) भौतिक आयाम-संस्कृति का भौतिक आयाम औजारों, तकनीकों, यन्त्रों, भवनों तथा यातायात के साधनों । के साथ-साथ उत्पादन तथा सम्प्रेषण के उपकरणों से सन्दर्भित है। यथा- (ii) व्यक्तियों द्वारा निर्मित मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति कहते हैं। (iii) नगरीय क्षेत्रों में चालित फोन, वादक यन्त्रों, कारों, बसों, ए.टी.एम., रेफ्रिजरेटरों तथा संगणकों का दैनिक जीवन में व्यापक प्रयोग तकनीक पर निर्भरता को दिखाता है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रांजिस्टर-रेडियो का प्रयोग, सिंचाई के लिए इलैक्ट्रिक मोटर पम्पों का प्रयोग तकनीकी उपकरणों को अपनाए जाने को दर्शाता है। सारांश में संस्कृति के दो सैद्धान्तिक आयाम हैं-भौतिक तथा अभौतिक। संज्ञानात्मक और मानकीय आयाम अभौतिक हैं तो भौतिक आयाम-भौतिक हैं। संस्कृति के एकीकृत कार्यों हेतु भौतिक तथा अभौतिक आयामों को एकजुट होकर कार्य करना चाहिए। प्रश्न 6. (2) मानक पूरे समाज पर लागू नहीं होते, जबकि कानून पूरे समाज पर लागू होते हैं-कानून औपचारिक तथा स्पष्ट होते हैं तथा ये पूरे समाज पर लागू होते हैं तथा कानूनों का उल्लंघन करने पर जुर्माना तथा सजा हो सकती है। जबकि मानक आवश्यक रूप से पूरे समाज पर लागू हो यह आवश्यक नहीं है। उदाहरण के लिए यदि आपके घर में बच्चों को सूर्यास्त के बाद घर से बाहर रहने की अनुमति नहीं है, तो यह एक मानक है। यह मानक केवल आपके परिवार के लिए है। यह सभी परिवारों पर लागू नहीं हो सकता। दूसरी तरफ यदि आपको किसी दूसरे के घर से सोने की चेन चुराते हुए पकड़ा जाये तो आपने सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत निजी सम्पत्ति के कानून का उल्लंघन किया है तथा इसके लिए आपको जाँच के बाद सजा के रूप में जेल भेजा जा सकता है। (3) कानून सभी पर समान रूप से लागू होते हैं जबकि मानक प्रस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं-कानून जहाँ उन विभिन्न स्कूलों के विद्यार्थियों पर समान रूप से लागू होते हैं जो राज्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जबकि कानून के विपरीत मानक प्रस्थिति के अनुसार बदल सकते हैं। समाज के प्रभुत्वशाली हिस्से प्रभुता वाले मानक लागू करते हैं। अक्सर ये मानक भेदभावपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे मानक जो दलितों को समान कुएँ या यहाँ तक कि पानी के समान स्रोत से पानी पीने की या औरतों को सार्वजनिक स्थानों पर स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने की अनुमति नहीं देते हैं। प्रश्न 7. ग्रीन के शब्दों में, "समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्मपन और व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।" जॉनसन के अनुसार, "समाजीकरण सीखने की वह प्रक्रिया है जो सीखने वाले को सामाजिक भूमिकाओं का निर्वाह करने योग्य बनाती है।" गिलिन और गिलिन के अनुसार, "समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह में एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्यविधियों से समन्वय स्थापित करता है, उसकी परम्पराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करके अपने साथियों के प्रति सहन शक्ति की भावना विकसित करता है।" किम्बाल यंग के अनुसार, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा "व्यक्ति सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रवेश करता है तथा समाज के विभिन्न समूहों का सदस्य बनता है एवं जिसके द्वारा उसे समाज के मूल्यों और मानवों को स्वीकार करने की प्रेरणा मिलती है।" फिशर लिखते हैं कि, "समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को स्वीकारता है और उनसे अनुकूलन करना सीखता है।" हारालाम्बोस के अनुसार, "वह प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्ति अपने समाज की संस्कृति को सीखता है, समाजीकरण के नाम से जानी जाती है।" उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समाजीकरण सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह अथवा समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ग्रहण करता है, अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और समाज का क्रियाशील सदस्य बनता है। समाजीकरण द्वारा बच्चा सामाजिक प्रतिमानों को सीखकर उनके अनुरूप आचरण करता है, इससे समाज में नियन्त्रण बना रहता है। समाजीकरण की विशेषताएँ समाजीकरण की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है (1) सीखने की प्रक्रिया-समाजीकरण सीखने की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों, मानदण्डों तथा समाज-स्वीकृत व्यवहारों को अपनाया जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत केवल समाज द्वारा स्वीकृत तथा प्रतिपादित व्यवहारों को ही सीखा जाता है। लेकिन कुछ बातें जो समाज द्वारा स्वीकृत नहीं होतीं, समाजीकरण के अन्तर्गत नहीं आतीं। जैसे-एक व्यक्ति चोरी करना, कक्षा से भाग जाना व गाली देना आदि सीखता है तो उसे हम समाजीकरण नहीं कहेंगे क्योंकि इन गतिविधियों को सीखकर कोई भी व्यक्ति समाज का क्रियाशील सदस्य नहीं बनता है। (2) आजन्म प्रक्रिया-समाजीकरण की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक वह अनेक परिस्थितियाँ धारण करता है और उनके अनुसार अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करना सीखता है। बचपन में वह पुत्र, भाई, मित्र आदि के रूप में अन्य लोगों से व्यवहार करना सीखता है। युवावस्था में वह पति, पिता, व्यवसायी, किसी संगठन में पदाधिकारी एवं अन्य अनेक पदों को ग्रहण करता है। वृद्धावस्था में दादा, नाना, श्वसुर आदि पद धारण करता है और इन सभी पदों के अनुरूप भूमिका निर्वाह करना सीखता है। इस प्रकार व्यक्ति के सामने नयी-नयी प्रस्थितियाँ एवं पद आते हैं और उनके अनुसार समाज द्वारा मान्य व्यवहारों को सीखता जाता है। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। (3) समय व स्थान सापेक्ष-समाजीकरण की प्रक्रिया समय व स्थान सापेक्ष है अर्थात् दो अलग-अलग समयों या फिर दो अलग-अलग स्थानों की संस्कृतियाँ भिन्न हो सकती हैं तथा उसी के अनुसार समाजीकरण का पैमाना भी बदल सकता है। उदाहरण के लिये, प्राचीनकाल में स्त्रियों का सती होना प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था, किन्तु आज ये अपराध की श्रेणी में आता है। पूर्व काल में सती प्रथा समाजीकरण की विषय-वस्तु थी किन्तु वर्तमान काल में नहीं। उसी प्रकार प्रेम-विवाह पश्चिमी सभ्यता में सामान्य घटना मानी जाती है, जबकि भारतवर्ष में असामान्य । अतः पश्चिमी देशों में प्रेम-विवाह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा आत्मसात् किया जाता है, वहीं भारतवर्ष में समाज-स्वीकृत न होने के कारण यह समाजीकरण की परिधि में नहीं आता है। (4) संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया-इस प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति सांस्कृतिक मूल्यों, मानकों एवं समाज-स्वीकृत व्यवहारों को सीखता है तथा संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक तत्त्वों को आत्मसात् करता है। धीरे-धीरे संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंग बन जाती है। (5) समाज का प्रकार्यात्मक सदस्य बनने की प्रक्रिया-समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति सामाजिक कार्यों में भाग लेने योग्य बनता है। इसी के द्वारा वह प्राणीशास्त्रीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में बदल जाता है। किस पद पर रहकर किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह सब सामाजिक सम्पर्क से ही सीखा जाता है। सम्पर्क से ही व्यक्ति लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है। (6) 'स्व' विकास की प्रक्रिया-समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति के 'आत्म' का विकास होता है, व्यक्ति में अपने प्रति जागरूकता आती है और वह यह जानने लगता है कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में क्या सोचते हैं। (7) सांस्कृतिक हस्तान्तरण-समाजीकरण के द्वारा समूह अथवा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाता है। नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से संस्कृति ग्रहण करती है। डेविस कहते हैं कि "हस्तान्तरण की इस प्रक्रिया के बिना समाज अपनी निरन्तरता बनाये नहीं रख सकता और न ही संस्कृति जीवित रह सकती है।" प्रश्न 8. (i) प्राथमिक समाजीकरण-यह समाजीकरण का निर्णायक स्तर है। यह शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में सम्पन्न होता है। इस स्तर पर बच्चा मूलभूत व्यवहार प्रतिमान सीख पाता है। समाजीकरण की प्रथम अवस्था में परिवार प्रमुख संस्था होती है। (ii) द्वितीयक समाजीकरण-बचपन की अन्तिम अवस्था से प्रारम्भ होता है और परिपक्वता की आयु तक जाता है। इसके बाद भी व्यक्ति जीवन-पर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया से गुजरता है। उपर्युक्त दोनों चरणों के दौरान मनुष्य जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी में तब्दील हो जाता है। (2) पारसंस ने समाजीकरण को चार प्रमुख चरणों में विभाजित किया है (ii) शौच सोपान (Anul Stage)-यह अवस्था शिशु के जन्म के लगभग एक वर्ष बाद से शुरू होती है। इस अवस्था में बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह शौच सम्बन्धी कार्य स्वयं करे। इस सोपान के अन्त तक बच्चा खेलने, बोलने आदि के कारण अन्य लोगों के सम्पर्क में आता है और धीरे-धीरे उनसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने लगता (iii) मातरति सोपान (Oedipus Stage)-यह समाजीकरण की तीसरी अवस्था है जो कि बच्चे के जन्म के चौथे वर्ष से प्रारम्भ होकर तरुण होने तक चलती है। इस दौरान परिवार में लैंगिक आधार पर मान्यता प्राप्त सभी भूमिकाओं को वह आत्मसात् करता है। इस काल में बालक यौन-भेद की ओर आकृष्ट होता है। लड़का अपनी माँ को तथा लड़की अपने पिता को चाहने लगती है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने क्रमशः 'ऑडिपस कॉम्प्लेक्स' (Oedipus Complex) और 'इलैक्ट्रा कॉम्प्लेक्स' (Electra Complex) कहा है। (iv) किशोरावस्था-समाजीकरण की प्रक्रिया में इस स्तर को सबसे महत्त्वपूर्ण माना है क्योंकि यह अवधि किशोर के लिए सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होती है। एक ओर किशोर अधिक से अधिक स्वतन्त्रता की माँग करने लगता है जबकि दूसरी ओर परिवार और अन्य समूहों के द्वारा उनके सभी व्यवहारों पर कुछ न कुछ नियन्त्रण रखा जाता है। इस दौरान बालक परिवार के अतिरिक्त अन्य दूसरे समूहों से भी अन्तःक्रिया करना प्रारम्भ करता है। फलस्वरूप वह उचित व अनुचित के बीच भेद करना भी सीखता है और उसमें नैतिकता का विकास होता है। किशोरावस्था के बाद भी समाजीकरण अन्य तीन महत्त्वपूर्ण चरणों से होकर गुजरता है जो निम्नलिखित हैं (ii) प्रौढ़ावस्था-इस अवस्था के आने तक व्यक्ति विभिन्न जिम्मेदारियों से दब जाता है। जैसे—बच्चों की शिक्षा, विवाह, उसे व्यवसायों की जिम्मेदारियाँ देना आदि। वह व्यावसायिक (iii) वृद्धावस्था-यह जीवन की अन्तिम अवस्था है। इस समय तक व्यक्ति अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों का निपटारा कर चुका होता है। नौकरी से सेवानिवृत्त होकर वह दादा, नाना बन जाता है और परिवार के वृद्ध के रूप में अपने समाजीकरण का प्रयास करता है। प्रश्न 9.
(1) प्राथमिक संस्थाएँ व अभिकरण-प्राथमिक संस्थाओं तथा अभिकरणों में ही बालक अपने जीवन का प्रारम्भ करता है। इनमें ही उसके व्यक्तित्व का सही मायने में निर्माण होता है। प्राथमिक संस्थाओं के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रमुख अभिकरण तथा संस्थाएँ आती हैं (ii) समकक्ष या मित्र समूह-समाजीकरण की दृष्टि से मित्रों का समूह भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। परिवार के बाद सबसे अधिक समय बालक अपने साथियों के सम्पर्क में आता है। हमउम्र होने के कारण वह उनसे अनेक प्रकार के व्यवहार करना सीखता है। खेल के नियम, अनुशासन, सहयोग, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, अनुकूलन करना आदि वह अपने मित्र-समूह में ही सीखता है। ब्रूम एवं सेल्जनिक ने समाजीकरण में मित्रों के समूह को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है। (iii) पड़ोस-प्राथमिक संस्थाओं में 'पड़ोस' की भूमिका भी विशिष्ट होती है। न केवल बच्चे वरन् वयस्कों के समाजीकरण में भी पड़ोस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। बच्चे जाने-अनजाने में ही पड़ोसियों से कई बातें सीख जाते हैं। पड़ोसियों की प्रशंसा एवं निन्दा व्यक्ति को समाजसम्मत व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है जबकि उनसे सम्पर्क से ही स्नेह, सहयोग, भाईचारे आदि गुणों का विकास करता है। (iv) नातेदारी-नातेदार रक्त एवं विवाह से सम्बन्धित रिश्तेदार माने जाते हैं। भाई-बहिन, पति-पत्नी, सालेसाली, देवर-भाभी, सास-ससुर आदि कुटुम्ब जनों एवं सम्बन्धियों के सम्पर्क से व्यक्ति अनेक प्रकार के व्यवहार करना सीखता है तथा उनके अनुरूप विभिन्न भूमिकाएं निभाने के कारण उसका समाजीकरण होता है। (v) विवाह-वैवाहिक दायित्व, व्यक्ति के जीवन में मील के पत्थर की भाँति महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जो उनके जीवन में एक नया आयाम लाता है। विवाह के बाद व्यक्ति के जीवन में नए दायित्वों का जन्म होता है और उसे उनके अनुरूप ही आचरण करने होते हैं। नई परम्पराएँ, मान्यताएँ, विचारधाराएँ आदि उत्पन्न होती हैं। इन नए दायित्वों से जितना अधिक अनुकूल हो सकता है समाजीकरण की प्रक्रिया भी उतनी ही सफल होती है। (2) द्वितीयक संस्थाएँ तथा अभिकरण-ऐसी संस्थाओं तथा अभिकरणों का निर्माण किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है और ये सभी संस्थाएँ व्यक्ति के समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। द्वितीयक संस्थाएँ निम्नलिखित हैं (ii) राजनैतिक संस्थाएँ-राजनैतिक संस्थाएँ व्यक्ति को समाज और राजनीति के प्रति जागरूक बनाती हैं और शासन, कानून, अनुशासन आदि सिखाती हैं। ये संस्थाएँ समाज की दिशा का ज्ञान कराती हैं तथा व्यक्ति को उसके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग बनाती हैं। इसके द्वारा व्यक्ति समाज में अपना समाजीकरण कर पाता है। (ii) आर्थिक संस्थाएँ-ये संस्थाएँ मनुष्य के जीवन-यापन एवं व्यावसायिक गतिविधियों का दिशा-निर्देशन करती हैं। बेईमानी तथा ईमानदारी के लक्षण व्यक्ति इन्हीं संस्थाओं से सीखता है। आर्थिक जीवन में व्यक्ति की सफलता का राज क्या हो सकता है, इसकी जानकारी इन्हीं संस्थाओं द्वारा प्राप्त होती है। यहाँ मनुष्य प्रतिस्पर्धा, सहकारिता, समायोजन आदि के गुण सीखता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्क्स के अनुसार आर्थिक संस्थाएँ ही व्यक्ति के सामाजिक तथा सांस्कृतिक ढाँचे को निर्धारित करती हैं। (iv) धार्मिक संस्थाएँ-समाजीकरण में धार्मिक संस्थाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। व्यक्ति के जीवन पर धर्म का गहरा प्रभाव होता है। ईश्वरीय भय एवं श्रद्धा के कारण वह शान्ति, पवित्रता, नैतिकता, आदर्श, दया, ईमानदारी, न्याय आदि गुणों का विकास करता है। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की धारणाएँ भी लोगों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार करने पर बल देती हैं। (v) सांस्कृतिक संस्थाएँ-हमें अपनी संस्कृति की जानकारी सांस्कृतिक संस्थाओं, जैसे-संगीत अकादमी, नाटक मण्डली, कवि सम्मेलन, क्लब गोष्ठियों आदि से होती है। ये संस्थाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इनके द्वारा ही मनुष्य अपनी कला, भाषा, प्रथा, परम्परा, वेशभूषा आदि से परिचित होता है। (vi) व्यवसाय समूह या कार्य-स्थल-व्यक्ति जिस पद या व्यवसाय में कार्यरत होता है, उसी के अनुरूप आचरण करता है। अपने से बड़े या छोटे अधिकारी या उस व्यवसाय से जुड़े अन्य लोगों के साथ उसे किस प्रकार का व्यवहार करना है, इसका समाजीकरण व्यवसाय समूह के द्वारा ही होता है। (vii) जन-माध्यम-जन-माध्यम हमारे दैनिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। आज इलैक्ट्रॉनिक माध्यम, जैसे-दूरदर्शन का विस्तार हो रहा है। मुद्रण माध्यम का महत्त्व भी लगातार बना हुआ है। भारत के 19वीं सदी में अनेक भाषाओं में छपी 'आचरण पुस्तकें' काफी लोकप्रिय थीं जिनमें यह बताया जाता था कि महिलाएँ एक अच्छी गृहिणी तथा अच्छी पत्नी कैसे बन सकती हैं।-जन-माध्यमों के द्वारा सूचना ज्यादा लोकतान्त्रिक ढंग से पहुँचाई जा सकती है। इलैक्ट्रॉनिक संचार एक ऐसा माध्यम है जो ऐसे गाँवों में भी पहुँच सकता है जो न तो सड़कों द्वारा अन्य क्षेत्रों से जुड़े हैं और न ही वहाँ साक्षरता केन्द्र स्थापित हुए हैं। समाजीकरण क्या है समझाइये?सामाजीकरण (Socialization) वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से मनुष्य समाज के विभिन्न व्यवहार, रीति-रिवाज़, गतिविधियाँ इत्यादि सीखता है। जैविक अस्तित्व से सामाजिक अस्तित्व में मनुष्य का रूपांतरण भी सामाजीकरण के माध्यम से ही होता है। सामाजीकरण के माध्यम से ही वह संस्कृति को आत्मसात् करता है।
समाजीकरण कितने प्रकार के होते हैं?समाजीकरण के प्रकार. प्राथमिक सामाजीकरण यह मनुष्य के सामाजीकरण का पहला चरण है जिसका जीवन में विशेष महत्व है। ... . दूसरे चरण का सामाजीकरण जब बच्चा बचपन की दहलीज लाँघकर किशोरावस्था में प्रवेश करता है तब उसके सामाजीकरण का दूसरा चरण आरंभ होता है। ... . लैंगिक सामाजीकरण ... . अग्रिम सामाजीकरण ... . पुनर्सामाजीकरण ... . वयस्क सामाजीकरण. समाजीकरण क्या है pdf?समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी बनाती है। इस प्रक्रिया के अभाव में व्यक्ति सामाजिक प्राणी नहीं बन सकता है । इसी से सामाजिक व्यक्तित्व का विकास होता है । सामाजिक- सांस्कृतिक विरासत के तत्वों का परिचय भी इसी से प्राप्त होता है ।
समाजीकरण क्या है और इसके कारक?▶समाजीकरण की परिभाषा (Definition of Socialization) "समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक पर्यावरण के साथ अनुकूलन करता है और इस प्रकार वह उस समाज का मान्य, सहयोगी और कुशल सदस्य बनता है." जॉनसन के मतानुसार, “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने योग्य बनाता है ।"
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