लेखक के बचपन में अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने का प्रयास नहीं करते थे। परचूनिये और आढ़तीये जैसे कारोबारी भी अध्यापक से कहते थे कि मास्टर जी, हमने इसे कौन-सा तहसीलदार लगवाना है। थोड़ा बड़ा हो जाए तो पंडत घनश्याम दास से मुनीमी का काम सिखा देंगे। स्कूल में अभी तक यह कुछ भी नहीं सीख पाया है। इससे स्पष्ट है कि बच्चों की पढ़ाई न हो पाने के लिए अभिभावक अधिक जिम्मेदार थे। Show
Sapnon ke se din Class 10 – सपनों के-से दिन Chapter 2कक्षा 10 हिंदी – पाठ 2 (सपनों के-से दिन)Sapnon ke se din Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 Chapter 2 (सपनों के-से दिन), Summary, Notes, Explanation, Questions AnswersSapnon ke se din summary of CBSE Class 10 Hindi Sanchayan Bhag-2 lesson 2 along with meanings of difficult words. Given here is the complete explanation of the lesson सपनों के-से दिन , all the exercises and Question and Answers given here. यहाँ हम हिंदी कक्षा 10 “संचयन भाग-2” के पाठ-2 “सपनों के-से दिन” कहानी के पाठ-प्रवेश, पाठ-सार, पाठ-व्याख्या, कठिन-शब्दों के अर्थ और NCERT की पुस्तक के अनुसार प्रश्नों के उत्तर, इन सभी के बारे में जानेंगे। Author Intro – लेखक परिचय (सपनों के-से दिन)लेखक – गुरदयाल सिंह जन्म – 10 जनवरी 1933 Chapter Introduction – पाठ प्रवेश (सपनों के-से दिन)बचपन में भले ही सभी सोचते हों की काश! हम बड़े होते तो कितना
अच्छा होता। परन्तु जब सच में बड़े हो जाते हैं, तो उसी बचपन की यादों को याद कर-करके खुश हो जाते हैं। बचपन में बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो उस समय समझ में नहीं आती क्योंकि उस समय सोच का दायरा सिमित होता है। और ऐसा भी कई बार होता है कि जो बातें बचपन में बुरी लगती है वही बातें समझ आ जाने के बाद सही साबित होती हैं। Sapnon Ke Se Din Summary – पाठ सार (सपनों के-से दिन)लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। सभी के पाँव नंगे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते , जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब सभी खेल कर, धूल से लिपटे हुए, कई जगह से पाँव में छाले लिए, घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस
वाले भाग पर खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले आते। लेखक कहता है कि यह बात लेखक को तब समझ आई जब लेखक स्कूल अध्यापक बनने के
लिए प्रशिक्षण ले रहा था। वहाँ लेखक ने बच्चों के मन के विज्ञान का विषय पढ़ा था। Sapnon Ke Se Din Explanation – पाठ व्याख्या (सपनों के-से दिन)मेरे साथ खेलने वाले सभी बच्चों का हाल एक-सा होता। नंगे पाँव, फटी-मैली सी कच्छी और टूटे बटनों वाले कई जगह से फटे कुर्ते और बिखरे बाल। जब लकड़ी के ढेर पर चढ़कर खेलते नीचे को भागते तो गीरकर कई तो जाने कहाँ-कहाँ चोट खा लेते और पहले ही फाटे-पुराने कुर्ते तार-तार हो जाते। धूल भरे, कई जगह से छिले पाँव, पिंडलियाँ या लहू के ऊपर जमी रेत-मिट्टी से लथपथ घुटने ले कर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस खाने की जगह और पिटाई करतीं। कइयों के बाप बड़े गुस्सैल थे। पीटने लगते तो यह ध्यान भी नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है या उसके कहाँ चोट लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन फिर खेलने चले आते। (यह बात तब ठीक से समझ आई जब स्कूल अध्यापक बनने के लिए एक ट्रेनिंग करने गया और वहाँ बाल-मनोविज्ञान का विषय पढ़ा। ऐसी बातों के बारे में तभी जान पाया कि बच्चों को खेलना क्यों इतना अच्छा लगता है कि बुरी तरह पिटाई होने पर भी फिर खेलने चले आते हैं।) पिंडलियाँ – घुटने और टखने के बीच का पिछला मांसल भाग लेखक कहता है कि उसके बचपन में उसके साथ खेलने वाले बच्चों का हाल भी उसी की तरह होता था। लेखक के कहने का अभिप्राय है की सभी के पाँव नंगे होते थे, फटी-मैली सी कच्छी और कई जगह से फटे कुर्ते पहने हुए होते थे, जिनके बटन टूटे हुए होते थे और सभी के बाल बिखरे हुए होते थे। जब खेल-खेल में लकड़ी के ढेर से निचे उतरते हुए भागते, तो बहुत से बच्चे अपने-आपको चोट लगा देते थे और जो कुरता पहले से ही फटा-पुराना होता था, वह और ज्यादा फट जाता था। जब सभी बच्चे दिन भर धूल में खेल कर और कई जगह चोट खाए हुए खून के ऊपर जमी हुई रेत-मिट्टी से लथपथ पिंडलियाँ (घुटने और टखने के बीच का टाँग
के पीछे माँस वाले भाग) ले कर अपने-अपने घर जाते तो सभी की माँ-बहनें उन पर तरस नहीं खाती बल्कि उल्टा और ज्यादा पीट देतीं। कई बच्चों के पिता तो इतने गुस्से वाले होते कि जब बच्चे को पीटना शुरू करते तो यह भी ध्यान नहीं रखते कि छोटे बच्चे के नाक-मुँह से लहू बहने लगा है और ये भी नहीं पूछते कि उसे चोट कहाँ लगी है। परन्तु इतनी बुरी पिटाई होने पर भी दूसरे दिन सभी बच्चे फिर से खेलने के लिए चले आते। परचूनिये –
राशन की दुकान वाला लेखक कहता है कि बचपन में उसके साथ खेलने वाले उसके ज्यादातर साथी उसी के परिवार की तरह के थे। लेखक का परिवार आसपास के गाँव से आकर उस गाँव में बसा था और लेखक कहता है कि उसी के परिवार की तरह बहुत से परिवार दूसरे गाँव से आकर उस गाँव में बसे थे। साथ ही दो-तीन घर उजड़ी-सी गली में रहने वाले लोगों के थे। उन सभी की बहुत सी आदतें भी मिलती-जुलती थीं। उन परिवारों में से बहुत के बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते थे और जो कभी गए भी, पढाई में रूचि न होने के कारण किसी दिन बस्ता तालाब में फेंक आए और फिर स्कूल गए ही नहीं और उनके माँ-बाप ने भी उनको स्कूल भेजने के लिए कोई जबरदस्ती नहीं की। यहाँ तक की राशन की दुकान वाला और जो किसानों की फसलों को खरीदते और बेचते हैं वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजना जरुरी नहीं समझते थे। अगर कभी कोई स्कूल का अध्यापक उन्हें समझाने की कोशिश करता तो वे अध्यापक को यह कह कर चुप करवा देते कि उन्हें अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर कोई तहसीलदार तो बनाना नहीं है। जब उनका बच्चा थोड़ा बड़ा हो जायगा तो पंडत घनश्याम दास से हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि पढ़वाकर सीखा देंगे और दूकान पर खाता लिखवाने लगा देंगे। पंडत छह-आठ महीनें में हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी प्राचीन लिपि और दुकानदारी का सभी काम सीखा देगा। वैसे भी स्कूल में अभी तक अलिफ़-बे जिम-च (उर्दू भाषा की वर्णमाला ) भी नहीं सीख पाया है। ऐसा उत्तर मिलने पर अध्यापक कुछ नहीं बोल पता
था। लोकोक्ति
– लोगों के द्वारा कही गयी उक्ति/बात लेखक कहता है कि उसके बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे। परन्तु यह याद नहीं कि उन्हें तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर क्या किया करते। (शायद जेब में डाल लेते, माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती या हम ही, स्कूल से बाहर आते उन्हें बकरी के मेमनों की भाँति ‘चर’ जाया करते। ) अलियार – गली की तरह का लंबा सीधा रास्ता लेखक कहता है कि बचपन में घास ज्यादा हरी और फूलों की सुगंध बहुत ज्यादा मन को लुभाने वाली लगती है। ये शब्द लेखक ने शायद आधी सदी पहले किसी किताब में पढ़े होंगे, परन्तु लेखक को आज भी ये पंक्ति याद है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये पंक्ति बचपन की भावनाओं और बच्चों की सोच-समझ के अनुकूल है। लेखक कहता है कि स्कूल के अंदर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर गली की तरह के लम्बे सीधे रास्ते में बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे थे जिन्हें लेखक और उनके साथी डंडियाँ कहा करते थे। उनसे नीम के पत्तों की तरह महक आती थी, जो आज भी लेखक अपनी आँखों को बंद करके महसूस कर सकता है। लेखक कहता है की उस समय स्कूल की छोटी क्यारियों में फूल भी कई तरह के उगाए जाते थे जिनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी सफ़ेद कलियाँ भी हुआ करतीं थीं। ये कलियाँ इतनी सूंदर और खुशबूदार होती थीं कि लेखक और उनके साथी चपरासी से छुप-छुपा कर कभी-कभी कुछ फूल तोड़ लिया करते थे। उनकी बहुत तेज़ सुगंध लेखक आज भी महसूस कर सकता है। परन्तु लेखक को अब यह याद नहीं कि उन फूलों को तोड़कर, कुछ देर सूँघकर फिर उन फूलों का वे क्या करते थे। लेखक कहता है कि शायद वे उन फूलों को या तो जेब में डाल लेते होंगे और माँ उसे धोने के समय निकालकर बाहर फेंक देती होगी या लेखक और उनके साथी खुद ही, स्कूल से बाहर आते समय उन्हें बकरी के मेमनों की तरह खा या ‘चर’ जाया करते होगें। जब अगली श्रेणी में दाखिल होते तो एक ओर तो बहुत बड़े, सयाने होने के एहसास से उत्साहित भी होते, परन्तु दूसरी ओर नयी, पुरानी कापियों-किताबों से जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली श्रेणी में पढ़ा चुके होते। तब स्कूल में, शुरू साल में एक-डेढ़ महीना पढ़ाई हुआ करती, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाया करतीं। अब तक जो बात अच्छी तरह याद है वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क था। पहले दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद हुआ करती। हर साल ही माँ के साथ ननिहाल चले जाते। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत प्यार करती। छोटा सा पिछड़ा गाँव था परन्तु तालाब हमारी मंडी के तालाब जितना ही बड़ा था। दोपहर तक तो उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो जी में आता माँगकर खाने लगते। नानी हमारे बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती। अपने पोतों को हमारी तरह बोलने और खाने-पीने को कहती। श्रेणी – कक्षा लेखक कहता है कि जब वे एक कक्षा से दूसरी कक्षा में शामिल होते तो एक ओर तो लगता की वे बहुत बड़े और समझदार हो गए हैं, परन्तु वहीं दूसरी ओर नयी-पुरानी कापियों-किताबों से न जाने कैसी बास आती कि उन्हीं मास्टरों के डर से काँपने लगते जो पिछली कक्षा में पढ़ा चुके होते थे। लेखक कहता है कि उसके समय में स्कूलों में, साल के शुरू में एक-डेढ़ महीना ही पढ़ाई हुआ करती थी, फिर डेढ़-दो महीने की छुटियाँ शुरू हो जाती थी। लेखक को जो बातें अब तक अच्छी तरह से याद है, वह छुटियों के पहले और आखरी दिनों का फर्क है। लेखक कहता है कि पहले के दो तीन सप्ताह तो खूब खेल कूद में बीतते थे। हर साल ही छुटियों में लेखक अपनी माँ के साथ अपनी नानी के घर चले जाता था। वहाँ नानी खूब दूध-दहीं, मक्खन खिलाती, बहुत ज्यादा प्यार करती थी। लेखक की नानी का जहाँ घर था, वह छोटा सा गाँव था जो विकास की दृष्टि से काफ़ी पीछे रह गया था। परन्तु वहाँ पर भी उतना ही बड़ा तालाब था जितना बड़ा लेखक की मंडी में था। दोपहर तक तो लेखक और उनके साथी उस तालाब में नहाते फिर नानी से जो उनका जी करता वह माँगकर खाने लगते। लेखक की नानी लेखक के बोलने के ढंग या कम खाने के कारण बहुत खुश होती थी। अपने पोतों को लेखक की तरह बोलने और खाने-पीने को कहती। जिस साल ननिहाल न जा पाते, उस साल भी अपने घर से थोड़ा बाहर तालाब पर चले जाते। कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ के उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते। याद नहीं की ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे बहुत अच्छे तैराक हों। परन्तु एक-दो को छोड़, मेरे किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए किसी भैंस के सींग या दुम पकड़कर बाहर आने की सलाह देते। उन्हें ढाँढ़स बँधाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँसते। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करते किसी न किसी तरह तालाब के किनारे पहुँच जाते। गंदले – गंदा, मटमैला लेखक कहता है कि जिस साल वह नानी के घर नहीं जा पाता था, उस साल लेखक अपने घर से दूर जो तालाब था, वहाँ जाया करता था। लेखक और उसके साथी कपड़े उतार कर पानी में कूद जाया करते थे, थोड़े समय बाद पानी से निकलकर भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर रेत के ऊपर लोटने लगते थे। गीले शरीर को गर्म रेत से खूब लथपथ करके फिर उसी तरह भागते थे। किसी ऊँची जगह जाकर वहाँ से तालाब में छलाँग लगा देते थे। जैसे ही उनके शरीर से लिपटी रेत तालाब के उस गंदे पानी से साफ़ हो जाती, वे फिर से उसी टीले की ओर भागते। लेखक कहता है कि उसे यह याद नहीं है कि वे इस तरह दौड़ना, रेत में लोटना और फिर दौड़ कर तालाब में कूद जाने का सिलसिला पाँच-दस बार करते थे या पंद्रह-बीस बार। कई बार तालाब में कूदकर ऐसे हाथ-पाँव हिलाने लगते जैसे उन्हें बहुत अच्छे से तैरना आता हो। परन्तु एक-दो को छोड़, लेखक के किसी साथी को तैरना नहीं आता था। कुछ तो हाथ-पाँव हिलाते हुए गहरे पानी में चले जाते तो दूसरे उन्हें बाहर आने के लिए सलाह देते कि ऐसा मानो जैसे किसी भैंस के सींग या पूँछ पकड़ रखी हो। उनका हौसला बढ़ाते। कूदते समय मुँह में गंदला पानी भर जाता तो बुरी तरह खाँस कर उसे बाहर निकालने का प्रयास करते थे। कई बार ऐसा लगता कि साँस रुकने वाली है परन्तु हाय-हाय करके किसी न किसी तरह तालाब के किनारे तक पहुँच ही जाते थे। फिर छुटियाँ बितने लगतीं तो दिन गिनने लगते। प्रत्येक दिन डर बढ़ता चला जाता। खेल-कूद और तालाब में नहाना भी भूलने लगता। मास्टरों ने जो छुट्टियों में करने के लिए काम दिया होता उसका हिसाब लगाने लगते। जैसे हिसाब के मास्टर जी दो सौ से काम सवाल कभी न बताते। मन में हिसाब लगाते कि यदि दस सवाल रोज़ निकाले तो बीस दिन में पुरे हो जाएंगे। जब ऐसा सोचना शुरू करते तो छुट्टियों का एक महीना बाकी हुआ करता। एक-एक दिन गिनते दस दिन खेल-कूद में और बीत जाते। स्कूल की पिटाई का डर और बढ़ने लगता। परन्तु डर भुलाने के लिए सोचते कि दस की क्या बात, सवाल तो पंद्रह भी रोज़ आसानी से निकाले जा सकते हैं। जब ऐसा हिसाब लगाने लगते तो छुट्टियाँ कम होते-होते जैसे भागने लगतीं दिन बहुत छोटे लगने लगते। ऐसा मालूम होता जैसे सूरज भाग कर दोपहरी में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते स्कूल का भय बढ़ने लगता। हमारे कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते जो छुट्टियों का काम करने के बजाय मास्टरों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। हम जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय हमारा सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता। हिसाब के मास्टर जी – गणित के अध्यापक लेखक कहता है कि जैसे-जैसे उनकी छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वे लोग दिन गिनने शुरू कर देते थे। हर दिन के ख़त्म होते-होते उनका डर भी बढ़ने लगता था। डर के कारण लेखक और उसके साथी खेल-कूद के साथ-साथ तालाब में नहाना भी भूल जाते। अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है – इस बारे में सोचने लगते। जैसे- गणित के अध्यापक हमेशा छुट्टियों में दो सौ से कम प्रश्न नहीं देते थे। मन में सोचने लगते कि अगर एक दिन में दस सवालों को भी करे तो भी उनका सारा काम ख़त्म हो जाएगा। जब लेखक और उसके साथी ऐसा सोचना शुरू करते तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। काम न किया होने के कारण स्कूल में होने वाली पिटाई का डर अब और ज्यादा बढ़ने लगता। फिर वे सभी अपना डर भगाने के लिए सोचते कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगते तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे। ऐसा लगता था जैसे सूरज भाग कर दिन में ही छिप जाता हो। जैसे-जैसे दिन ‘छोटे’ होने लगते अर्थात छुट्टियाँ ख़त्म होने लगती डर और ज्यादा बढ़ने लगता। लेखक बताता है कि उसके कितने ही सहपाठी ऐसे भी होते थे जो छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझते। लेखक और उसके साथी जो पिटाई से बहुत डरा करते, उन ‘बहादुरों’ की भाँति ही सोचने लगते। ऐसे समय में लेखक और उसके साथी का सबसे बड़ा ‘नेता’ ओमा हुआ करता था। हम सभी उसके बारे में सोचते ही हमारे में उन जैसा कौन था। कभी भी उस जैसा दूसरा लड़का नहीं ढूँढ़ पाते थे। उसकी बातें, गालियाँ, मार पिटाई का ढंग अलग था ही, उसकी शक्ल-सूरत भी सबसे अलग थी। हाँड़ी जितना बड़ा सिर, उसके ठिगने चार बालिश्त के शरीर पर ऐसा लगता जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। इतने बड़े सिर में नारियल-की-सी आँखों वाला बंदरिया के बच्चे जैसा चेहरा और भी अजीब लगता। लड़ाई वह हाथ-पाँव नहीं, सिर से किया करता। जब साँड़ की भाँति फुँकारता, सिर झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शरीर वाले लड़के भी पीड़ा से चिल्लाने लगते। हमें डर लगता कि किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम हमने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था-रेल के (कोयले से चलने वाले) इंजन की भाँति बड़ा और भयंकर ही तो था। हाँड़ी – मटका लेखक कहता है कि वह और उसके साथी ओमा के बारे में सोचते कि उसकी तरह उन सब के बीच और कौन था। लेखक और उसके साथी कभी उसकी तरह दूसरा लड़का नहीं ढूँढ पाए। ओमा की बातें, गालियाँ और उसकी मार-पिटाई का ढंग सभी से बहुत अलग था। वह देखने में भी सभी से बहुत अलग था। उसका मटके के जितना बड़ा सिर था, जो उसके चार बालिश्त (ढ़ाई फुट) के छोटे कद के शरीर पर ऐसा लगता था जैसे बिल्ली के बच्चे के माथे पर तरबूज रखा हो। बड़े सिर पर नारियल जैसी आँखों वाला उसका चेहरा बंदरिया के बच्चे जैसा और भी अजीब लगता था। जब भी लड़ाई होती थी तो वह अपने हाथ-पाँव का प्रयोग नहीं करता था, वह अपने सिर से ही लड़ाई किया करता था। जब वह किसी साँड़ की तरह गरजता और अपने सिर को झुका कर किसी के पेट या छाती में मार देता तो उससे दुगुने-तिगुने शारीरिक बल वाले लड़के भी दर्द से चिल्लाने लगते थे। लेखक और उसके साथी डर जाते थे कि कहीं वह किसी की छाती की पसली ही न तोड़ डाले। उसके सिर की टक्कर का नाम लेखक और उसके साथियों ने ‘रेल-बम्बा’ रखा हुआ था क्योंकि उसके सिर की वह टक्कर रेल के कोयले से चलने वाले इंजन की तरह ही भयानक होती थी। हमारा स्कूल बहुत छोटा था-केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की भाँति बने थे। दाईं ओर पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिक लटकी रहती। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते और सीधी कतारों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देख उनका गोरा चेहरा खिल उठता। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े होते। केवल मास्टर प्रीतम चंद ‘पीटी’ लड़कों की कतारों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते थे कि कौन सा लड़का कतार में ठीक नहीं खड़ा। उनकी घुड़की तथा ठुट्टों के भय से हम सभी कतार के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधे कतार में बने रहने का प्रयत्न करते। सीधी कतार के साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक सी हो। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा, न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरी पिंडली खुजलाने लगता तो वह उसकी और बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ के मुहावरे को प्रत्यक्ष करके दिखा देते। कतार
– पंक्ति लेखक कहता है कि वह जिस स्कूल में पढता था वह स्कूल बहुत छोटा था। उसमें केवल छोटे-छोटे नौ कमरे थे, जो अंग्रेजी के अक्षर एच (H) की तरह बने हुए थे। दाईं ओर का पहला कमरा हेडमास्टर श्री मदनमोहन शर्मा जी का था जिसके दरवाजे के आगे हमेशा चिटकनी लटकी रहती थी। स्कूल की प्रेयर (प्रार्थना) के समय वह बाहर आते थे और सीधी पंक्तियों में कद के अनुसार खड़े लड़कों को देखकर उनके गोरा चेहरे पर ख़ुशी साफ़ ही दिखाई देती थी। सारे अध्यापक, लड़कों की तरह ही कतार बाँधकर उनके पीछे खड़े हो जाते थे। केवल मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। उनकी धमकी भरी डाँट तथा लात-घुस्से के डर से लेखक और लेखक के साथी पंक्ति के पहले और आखरी लड़के का ध्यान रखते, सीधी पंक्ति में बने रहने की पूरी कोशिश करते थे। सीधी पंक्ति के साथ-साथ लेखक और लेखक के साथियों को यह भी ध्यान
रखना पड़ता था कि आगे पीछे खड़े लड़कों के बीच की दुरी भी एक समान होनी चाहिए। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली (घुटने और टखने के बीच का टाँग के पीछे माँस वाले भाग को) खुजलाने लगता तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके दिखा देते। त तो जैसे हमें भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसी मजेदार लगती जो तब पैसे की शायद दो आ जाया करती। लेखक कहता है कि मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे वे बहुत ही सख्त अध्यापक थे। परन्तु हेडमास्टर शर्मा जी उनके बिलकुल उलट स्वभाव के थे। वह पाँचवीं और आठवीं कक्षा को अंग्रेजी स्वयं पढ़ाया करते थे। लेखक और लेखक के साथियों में से किसी को भी याद नहीं था कि पाँचवी कक्षा में कभी भी उन्होंने हेडमास्टर शर्मा जी को किसी गलती के कारण किसी को मारते या
डाँटते देखा या सूना हो। (चमड़ी उधेड़ना लेखक और लेखक के साथियों के लिए बिलकुल ऐसा शब्द था जैसे उनके ‘सरकारी मिडिल स्कूल’ का नाम) अधिक से अधिक हेडमास्टर शर्मा जी गुस्से में बहुत जल्दी-जल्दी आँखें झपकाते थे और अपने लम्बे हाथ की उलटी अँगुलियों से एक चाँटा मार देते थे और लेखक के जैसे सबसे कमजोर शरीर वाले भी सिर झुकाकर मुँह नीचा किए हँस देते थे। वह चाँटा तो जैसे लेखक और लेखक के साथियों को भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसा मजेदार लगता था जो लेखक के बचपन के समय में एक पैसे की शायद दो आ जाती
थी। लेखक कहता है कि उसके बचपन में भी स्कूल सभी के लिए ऐसी जगह नहीं थी जहाँ ख़ुशी से भाग कर जाया जाए। पहली कच्ची कक्षा से लेकर चौथी कक्षा तक, केवल पाँच-सात लड़के ही थे जो ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाते होंगे बाकि सभी रोते चिल्लाते ही स्कूल जाया करते थे। वह स्थितियाँ बनती थी जब स्कूल
में स्काउटिंग का अभ्यास करवाते समय पीटी साहब सभी बच्चो के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा कर वन टू थ्री कहते और बच्चे भी झंडियाँ ऊपर-निचे, दाएँ-बाएँ हिलाते जिससे झंडियाँ हवा में लहराती और फड़फड़ाती। झंडियों के साथ खाकी वर्दियों तथा गले में दो रंग के रुमाल लटकाए सभी बच्चे बहुत ख़ुशी से अभ्यास किया करते थे। तमगा – पदक, मैडल लेखक कहता है कि यदि स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। और वैल बिगिन अगेन अर्थात दुबारा करने के लिए कहते हुए-वन, टू, थ्री, थ्री, टू, वन! करते जाते और बच्चे भी ख़ुशी-ख़ुशी उनका कहना मानते। लेखक कहता है कि उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। दूसरे मास्टरों की ओर से जब कभी लेखक और उसके साथियों को कापियों पर साल भर की मेहनत के लिए ‘गुड्डों’ (गुड का बहुवचन) दिया जाता, उससे कहीं अधिक पीटी साहब का शाबाश मूल्यवान लगता था। कभी-कभी लेखक और उसके साथियों को ऐसा भी लगता था कि कई साल की सख्त मेहनत से जो पढ़ाई उन्होंने प्राप्त की थी, पीटी साहब के अनुशासन में रह कर प्राप्त की ‘गुडविल’ का रॉब या घमंड उससे बहुत बड़ा था। परन्तु लेखक और उसके साथियों को यह भी एहसास रहता था कि जैसे गुरूद्वारे का भाई जी कथा करते समय बताया करता है कि सतगुरु के भय से ही प्रेम जागता है, इसी तरह लेखक और उसके साथियों की पीटी साहब के प्रति प्रेम की भावना जग जाती थी। लेखक कहता है कि यह ऐसा भी है कि आपको रोज डाँटने वाला कोई ‘अपना’ यदि साल भर के बाद एक बार ‘शाबाश’ कह दें तो यह किसी चमत्कार-से कम नहीं लगता है-लेखक और उसके साथियों की दशा भी कुछ ऐसी हुआ करती थी। हर वर्ष अगली श्रेणी
में प्रवेश करते समय मुझे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं। हमारे हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे धनाढ्य लोग थे। उनका लड़का मुझसे एक-दो साल बड़ा होने के कारण मेरे से एक श्रेणी आगे रहा। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता तो शर्मा जी उसकी एक साल पुरानी पुस्तकें ले आते। हमारे घर में किसी को भी पढ़ाई में दिलचस्पी न थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो तब एक-दो रूपये में आ जाया करतीं) तो शायद इसी बहाने पढ़ाई तीसरी-चौथी श्रेणी में ही छूट जाती। कोई सात साल
स्कूल में रहा तो एक कारण पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से एक-दो रूपये साल भर में खर्च हुआ करते। परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी ‘रकम’ हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता और दो रूपये की एक मन (चालीस सेर) गंदम। इसी कारण, खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते। हमारे दो परिवारों में मैं अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था। लेखक कहता है कि हर साल जब वह अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। वे बहुत धनी लोग थे। उनका लड़का लेखक से एक-दो साल बड़ा होने के कारण लेखक से एक कक्षा आगे पढ़ता था। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। लेखक के घर में किसी को भी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। यदि नयी किताबें लानी पड़तीं (जो लेखक के समय में केवल एक-दो रूपये में आ जाया करतीं थी) तो शायद इसी बहाने लेखक की पढ़ाई तीसरी-चौथी कक्षा में ही छूट जाती। लेखक लगभग सात साल स्कूल में रहा तो उसका एक कारण लेखक को पुरानी किताबें मिल जाना भी था। कापियों, पैंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात में भी मुश्किल से साल भर में एक-दो रूपये ही खर्च हुआ करते थे। परन्तु उस जमाने में एक रूपया भी बहुत बड़ी सम्पति या दौलत हुआ करती थी। एक रूपये में एक सेर घी आया करता था और दो रूपये में तो एक मन यानि चालीस सेर गंदम आ जाते थे। यही कारण था की उस समय केवल खाते-पीते घरों के लड़के ही स्कूल जाया करते थे। लेखक के दोनों परिवारों में लेखक ही अकेला लड़का था जो स्कूल जाने लगा था। परन्तु किसी भी नयी श्रेणी में जाने का ऐसा चाव कभी भी महसूस नहीं हुआ जिसका ज़िक्र कुछ लड़के किया करते। अज़ीब बात थी कि मुझे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती कि मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो कभी समझ में नहीं आया परन्तु जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण यही समझ में आया कि आगे की श्रेणी की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का भय ही कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी तो नए न होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी श्रेणी में नहीं पढ़ाते थे। कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी अपेक्षा करने लगते कि जैसे हम ‘हरफनमौला’ हो गए हों। यदि उनकी आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ तो जैसे ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं, बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो अलिआर के झाड़ उगे थे उनकी गंध भी मन उदास कर दिया करती। चाव – शौक, इच्छा लेखक कहता है कि उसे कभी भी किसी भी नयी कक्षा में जाने की ऐसी कोई इच्छा कभी भी महसूस नहीं हुई जिसकी चर्चा कुछ लड़के किया करते थे। अज़ीब बात लेखक को यह लगाती थी कि उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। इसका ठीक-ठीक कारण तो लेखक को कभी समझ में नहीं आया परन्तु लेखक को जितनी भी मनोविज्ञान की जानकारी है, उस अरुचि का कारण उसे यही समझ में आया कि आगे की कक्षा की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का डर ही लेखक के कहीं भीतर जमकर बैठ गया था। सभी अध्यापक तो नए नहीं होते थे परन्तु दो-तीन हर साल ही वह होते जोकि छोटी कक्षा में नहीं पढ़ाते थे। लेखक के मन में कुछ ऐसी भी भावना थी कि अधिक अध्यापक एक साल में ऐसी उम्मीद करने लगते थे कि जैसे लेखक और उसके साथी सर्वगुण सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहने वाले हो गए हों। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की
आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ थे। इन्ही कुछ कारणों से केवल किताबों-कापियों की गंध से ही नहीं बल्कि बाहर के बड़े गेट से दस-पंद्रह गज दूर स्कूल के कमरों तक रास्ते के दोनों ओर जो बरामदे में झाड़ उगे थे, जिसकी गंध लेखक को बहुत अच्छी लगती थी परन्तु अब उनकी गंध भी लेखक का मन उदास कर दिया करती थी। ह्विसल – सीटी लेखक कहता है कि बचपन में स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु एक-दो कारणों के कारण कभी-कभी स्कूल जाना अच्छा भी लगने लगता था। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखक कहना चाहता है
कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे। लेखक कहता है कि जब लेखक स्कूल में था तब दूसरे विश्व युद्ध का समय था, परन्तु नाभा रियासत के राजा को अंग्रेजों ने 1923 में गिरफ़्तार कर लिया था और तमिलनाडु में कोडाएकेनाल में ही, जंग शुरू होने से पहले उसका देहांत हो गया था। जब राजा का देहांत हुआ, उस समय सभी कहते थे कि उस राजा का बेटा उस समय प्रदेश में पढ़ रहा था। इसलिए लेखक की देसी रियासत को भी अंग्रेजी सरकार ही चलाती थी फिर भी राजा
के न रहते, अंग्रेजी सरकार लेखक की रियासत के गाँवों से ज़ोर-ज़बरदस्ती किसी को भी फ़ौज में भरती नहीं कर पायी थी। लोगो को फ़ौज में भर्ती करने के लिए जब कुछ अफसर गाँव में आते तो उनके साथ कुछ नौटंकी वाले भी आया करते थे। वे रात को खुले मैदान में तम्बू लगाकर लोगों को फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी के दृश्य दिखाकर फ़ौज में भर्ती होने के लिए आकर्षित किया करते थे। उनका एक गाना अभी भी लेखक को याद है। कुछ हँसी-मजाक करने वाले व्यक्ति अज़ीब सी वर्दियाँ पहनकर और अच्छे, बड़े फ़ौजी बूट पहनकर गाना गाया करते
थे- वे सेना या पुलिस आदि में नए लोगों को भरती करवाने के लिए कहते थे कि यहाँ पर उन्हें सिर्फ फटे-पुराने खस्ताहाल जूते ही मिलेंगे, वहाँ बहुत बढ़िया जूते मिलेंगे। ज्यादा सोच मत भरती हो जाओ। लेखक कहता है कि कभी-कभी उन्हें भी लगता कि वे सब भी फौजी जवानों से कम नहीं हैं। जब वे धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में कभी भी हमने मुस्कुराते या हँसते न देखा था। उनका ठिगना कद, दुबला-पतला परन्तु गठीला शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले बूट-सभी कुछ ही भयभीत करने वाला हुआ करता। उनके बूटों की ऊँची एड़ियों के निचे भी खुरियाँ लगी रहतीं, जैसे
ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते। यदि वह सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते। हम ध्यान से देखते, इतने बड़े और भारी-भारी बूट पहनने के बावजूद उनके टखनों में कहीं मोच तक नहीं आती थी। (उनको देख कर हम यदि घरवालों से बूटों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे, सारी उमर सीधे न चलने पाओगे।) लेखक कहता हैं कि उन्होंने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों की भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँचीएड़ियों के निचे भी उसी तरह की खुरियाँ लगी रहतीं थी, जैसे ताँगे के घोड़े के पैरों में लगी रहती है। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोठे सिरों वाले कील ठुके होते थे। यदि मास्टर प्रीतमचंद सख्त जगह पर भी चलते तो खुरियों और किलों के निशान वहाँ भी दिखाई देते थे। लेखक और उसके साथी उन निशानों को ध्यान से देखते और सोचते कि इतने बड़े और भारी-भारी जूते पहनने के बावजूद भी मास्टर प्रीतमचंद के टखनों (पिंडली एवं एड़ी के बीच की दोनों ओर उभरी हड्डी) में मोच कैसे नहीं आती थी। ये सब देख कर लेखक और उसके साथी यदि घरवालों से वैसे ही जूतों की माँग करते तो माँ-बाप यही कहते कि टखने टेढ़े हो जाएँगे और फिर सारी उमर सीधे नहीं चल पाओगे। मास्टर प्रीतमचंद से हमारा डरना तो स्वाभाविक था,
परन्तु हम उनसे नफ़रत भी करते थे। कारण तो उसका मारपीट था। हम सभी को (जो मेरी उमर के हैं) वह दिन नहीं भूल पाया जिस दिन वह हमें चौथी श्रेणी में फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। हमें उर्दू का तो तीसरी श्रेणी तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल थी। अभी हमें पढ़ते एक सप्ताह भी न हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने हमें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आदेश दिया कि कल इसी घंटी में ज़बानी सुनेंगे। हम सभी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे जिन्हें
आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया। दूसरे दिन बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। तभी मास्टर जी गुर्राए-सभी कान पकड़ो। लेखक कहता हैं कि मास्टर प्रीतमचंद से सभी बच्चों का डरना तो प्राकृतिक था, परन्तु सभी बच्चे उनसे नफ़रत भी करते थे। इसका कारण लेखक बताता है कि वे बच्चों को मारते-पीटते थे जिस कारण बच्चे उनसे नफरत करते थे। लेखक अपनी पूरी ज़िन्दगी में उस दिन को कभी नहीं भूल पाया जिस दिन मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। लेखक कहता है कि उसकी कक्षा को उर्दू का तो तीसरी कक्षा तक अच्छा अभ्यास हो गया था परन्तु उन सभी को फ़ारसी तो अंग्रेजी से भी मुश्किल लगने लगी थी। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। सभी विद्यार्थी घर लौटकर, रात देर तक उसी शब्दरूप को बार-बार याद करते रहे परन्तु केवल दो-तीन ही लड़के थे, जिन्हें आधी या कुछ अधिक शब्दरूप याद हो पाया था। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी गुस्से में चिल्लाए कि सभी विद्यार्थी अपने-अपने कान पकड़ो। सभी ने झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़े तो वह फिर से गुस्से से चीखे कि सभी अपनी पीठ ऊँची रखें। पीठ
ऊँची करके कान पकड़ने से, तीन-चार मिनट में ही टाँगों में जलन होने लगती थी। मेरे जैसे कमज़ोर तो टाँगों के थकने से कान पकडे हुए ही गिर पड़ते। जब तक मेरी और हरबंस की बारी आई तब तक हेडमास्टर शर्मा जी अपने दफ़्तर में आ चुके थे। जब हमें सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी, स्कूल की पूरब की ओर बने सरकारी हस्पताल में डाक्टर कपलाश से मिलने गए थे। वह दफ़्तर के सामने की ओर चले आए। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि वह पीटी प्रीतमचंद की उस बर्बरता को सहन नहीं
कर पाए। वह उत्तेजित हो गए थे। ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स। लेखक कहता है कि पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को देख कर हेडमास्टरर शर्मा जी भड़क कर कहने लगे कि ह्वाट आर यू डूईंग, इज इट दा वे टू पनिश दा स्टूडेंट्स ऑफ फोर्थ क्लास? स्टाप इट ऐट वन्स। लेखक कहता है कि उस समय उसकी कक्षा को समझ नहीं आया कि
हेडमास्टर शर्मा जी क्या कह रहे हैं क्योंकि तब उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी, क्योंकि उस समय पाँचवी श्रेणी से अंग्रेजी पढ़ानी शुरू की जाती थी। परन्तु लेखक के स्कूल के सातवीं-आठवीं श्रेणी के लड़कों ने बताया था कि शर्मा जी ने कहा था-क्या करते हैं? क्या चौथी श्रेणी को सजा देने का यह ढंग है? इसे फ़ौरन बंद करो। इतना कह कर शर्मा जी गुस्से से काँपते हुए बरामदे से ही अपने कार्यालय में चले गए थे। उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो हमारी छाती धक्-धक् करती फटने को
आती। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, हमारे चेहरे मुरझाए रहते। लेखक कहता है कि जिस दिन से हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी प्रीतमचंद को निलंबित किया था उस दिन के बाद यह पता होते हुए भी कि पीटी प्रीतमचंद को जब तक नाभा से डायरेक्टर ‘बहाल’ नहीं करेंगें तब तक वह स्कूल में कदम नहीं रख सकते, फिर भी जब भी फ़ारसी की घंटी बजती तो लेखक की और उसकी कक्षा के सभी बच्चों की छाती धक्-धक् करने लगती और
लगता जैसे छाती फटने वाली हो। परन्तु जब तक शर्मा जी स्वयं या मास्टर नौहरिया रामजी कमरे में फ़ारसी पढ़ाने न आ जाते, तब तक तो सभी बच्चों के चेहरे मुरझाए ही रहते थे। लेखक कहता है कि कई सप्ताह तक पीटी मास्टर स्कूल नहीं आए। लेखक और उसके साथियों को पता चला कि बाज़ार में एक दूकान के ऊपर उन्होंने जो छोटी-छोटी खिड़कियों वाला चौबारा (वह कमरा जिसमें चारों और से खिड़कियाँ और दरवाजें हों) किराए पर ले रखा था, पीटी मास्टर वहीं आराम से रह रहे थे। कुछ सातवीं-आठवीं के विद्यार्थी लेखक और उसके साथियों को बताया करते थे कि उन्हें निष्कासित होने की थोड़ी सी भी चिंता नहीं थी। जिस तरह वह पहले आराम से पिंजरे में रखे दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते थे, वे आज भी उसी तरह आराम से पिंजरे में रखे उन दो तोतों को दिन में कई बार, भिगोकर रखे बादामों की गिरियों का छिलका उतारकर खिलाते और उनसे बातें करते रहते हैं। उनके वे तोते लेखक और उसके साथियों ने भी कई बार देखें थे जब लेखक और उसके साथी उन लड़कों के साथ पीटी मास्टर के चौबारे में गए थे जो लड़के पीटी साहब के आदेश पर उनके घर में काम करने जाया करते थे ।परन्तु लेखक और उसके साथियों के लिए यह चमत्कार ही था कि जो प्रीतमचंद पट्टी या डंडे से मार-मारकर विद्यार्थियों की चमड़ी तक उधेड़ देते, वह अपने तोतों से मीठी-मीठी बातें कैसे कर लेते थे? लेखक स्वयं में सोच रहा था कि क्या तोतों को उनकी आग की तरह जलती, भूरी आँखों से डर नहीं लगता होगा? लेखक और उसके साथियों की समझ में ऐसी बातें तब नहीं आ पाती थीं, क्योंकि तब वे बहुत छोटे हुआ करते थे। वे तो बस पीटी मास्टर के इस रूप को एक तरह से अद्भुत ही मानते थे। Sapnon Ke Se Din Question Answers – प्रश्न उत्तरप्रश्न 1 – कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती-पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है? उत्तर – कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती। यह बात लेखक के बचपन की एक घटना से सिद्ध होता है -लेखक के बचपन के ज्यादातर साथी राजस्थान या हरियाणा से आकर मंडी में व्यापार या दुकानदारी करने आए परिवारों से थे। जब लेखक छोटा था तो उनकी बातों को बहुत कम ही समझ पाता था और उनके कुछ शब्दों को सुन कर तो लेखक को हँसी आ जाती थी। परन्तु जब सभी खेलना शुरू करते तो सभी एक-दूसरे की बातों को बहुत अच्छे से समझ लेते थे। उनका व्यवहार एक दूसरे के लिए एक जैसा ही रहता था। प्रश्न 2 – पीटी साहब की ‘शाबाश’ फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए। उत्तर – मास्टर प्रीतम चंद जो स्कूल के ‘पीटी’ थे, वे लड़कों की पंक्तियों के पीछे खड़े-खड़े यह देखते रहते थे कि कौन सा लड़का पंक्ति में ठीक से नहीं खड़ा है। सभी लड़के उस ‘पीटी’ से बहुत डरते थे क्योंकि उन जितना सख्त अध्यापक न कभी किसी ने देखा था और न सुना था। यदि कोई लड़का अपना सिर भी इधर-उधर हिला लेता या पाँव से दूसरे पाँव की पिंडली खुजलाने लगता, तो वह उसकी ओर बाघ की तरह झपट पड़ते और ‘खाल खींचने’ (कड़ा दंड देना, बहुत अधिक मारना-पीटना) के मुहावरे को सामने करके दिखा देते। यही कारण था कि जब स्कूल में स्काउटिंग का अभ्यास करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता, तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। प्रश्न 3 – नयी श्रेणी में जाने और नयी कापियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था? उत्तर – हर साल जब लेखक अगली कक्षा में प्रवेश करता तो उसे पुरानी पुस्तकें मिला करतीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर शर्मा जी एक बहुत धनी लड़के को उसके घर जा कर पढ़ाया करते थे। हर साल अप्रैल में जब पढ़ाई का नया साल आरम्भ होता था तो शर्मा जी उस लड़के की एक साल पुरानी पुस्तकें लेखक के लिए ले आते थे। उसे नयी कापियों और पुरानी पुस्तकों में से ऐसी गंध आने लगती थी कि उसका मन बहुत उदास होने लगता था। आगे की कक्षा की कुछ मुश्किल पढ़ाई और नए मास्टरों की मार-पीट का डर और अध्यापक की ये उम्मीद करना कि जैसे बड़ी कक्षा के साथ-साथ लेखक सर्वगुण सम्पन्न या हर क्षेत्र में आगे रहे वाला हो गया हो। यदि लेखक और उसके साथी उन अध्यापकों की आशाओं पर पूरे नहीं हो पाते तो कुछ अध्यापक तो हमेशा ही विद्यार्थियों की ‘चमड़ी उधेड़ देने को तैयार रहते’ थे। प्रश्न 4 – स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्वपूर्ण ‘आदमी’ फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता है? उत्तर – जब लेखक धोबी द्वारा धोई गई वर्दी और पालिश किए चमकते जूते और जुराबों को पहनकर स्काउटिंग की परेड करते तो लगता कि वे भी फौजी ही हैं। मास्टर प्रीतमसिंह जो लेखक के स्कूल के पीटी थे, वे लेखक और उसके साथियों को परेड करवाते और मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे। फिर जब वे राइट टर्न या लेफ्ट टार्न या अबाऊट टर्न कहते तो सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है, अर्थात लेखकहना चाहता है कि सभी विद्यार्थी अपने-आप को फौजी समझते थे। प्रश्न 5 – हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअतल कर दिया? उत्तर – मास्टर प्रीतमचंद लेखक की चौथी कक्षा को फ़ारसी पढ़ाने लगे थे। अभी मास्टर प्रीतमचंद को लेखक की कक्षा को पढ़ते हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ होगा कि प्रीतमचंद ने उन्हें एक शब्दरूप याद करने को कहा और आज्ञा दी कि कल इसी घंटी में केवल जुबान के द्वारा ही सुनेंगे। दूसरे दिन मास्टर प्रीतमचंद ने बारी-बारी सबको सुनाने के लिए कहा तो एक भी लड़का न सुना पाया। मास्टर जी ने गुस्से में चिल्लाकर सभी विद्यार्थियों को कान पकड़कर पीठ ऊँची रखने को कहा। जब लेखक की कक्षा को सज़ा दी जा रही थी तो उसके कुछ समय पहले शर्मा जी स्कूल में नहीं थे। आते ही जो कुछ उन्होंने देखा वह सहन नहीं कर पाए। शायद यह पहला अवसर था कि उन्होंने पीटी प्रीतमचंद की उस असभ्यता एवं जंगलीपन को सहन नहीं किया और वह भड़क गए थे। यही कारण था कि हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को मुअतल कर दिया। प्रश्न 6 – लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा? उत्तर – बचपन में लेखक को स्कूल जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था परन्तु जब मास्टर प्रीतमसिंह मुँह में सीटी ले कर लेफ्ट-राइट की आवाज़ निकालते हुए मार्च करवाया करते थे और सभी विद्यार्थी अपने छोटे-छोटे जूतों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर जूतों की ठक-ठक करते और ऐसे घमंड के साथ चलते जैसे वे सभी विद्यार्थी न हो कर, बहुत महत्वपूर्ण ‘आदमी’ हों, जैसे किसी देश का फौज़ी जवान होता है । स्काउटिंग करते हुए कोई भी विद्यार्थी कोई गलती न करता तो पीटी साहब अपनी चमकीली आँखें हलके से झपकाते और सभी को शाबाश कहते। उनकी एक शाबाश लेखक और उसके साथियों को ऐसे लगने लगती जैसे उन्होंने किसी फ़ौज के सभी पदक या मैडल जीत लिए हों। यह शाबाशी लेखक को उसे दूसरे अध्यापकों से मिलने वाले ‘गुड्डों’ से भी ज्यादा अच्छा लगता था। यही कारण था कि बाद में लेखक को स्कूल जाना अच्छा लगने लगा। प्रश्न 7 – लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुटियों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति ‘बहादुर’ बनने की कल्पना किया करता था? उत्तर – जैसे-जैसे लेखक की छुट्टियों के दिन ख़त्म होने लगते तो वह दिन गिनने शुरू कर देता था। हर दिन के ख़त्म होते-होते उसका डर भी बढ़ने लगता था। अध्यापकों ने जो काम छुट्टियों में करने के लिए दिया होता था, उसको कैसे करना है और एक दिन में कितना काम करना है यह सोचना शुरू कर देता। जब लेखक ऐसा सोचना शुरू करता तब तक छुट्टियों का सिर्फ एक ही महीना बचा होता। एक-एक दिन गिनते-गिनते खेलकूद में दस दिन और बीत जाते। फिर वह अपना डर भगाने के लिए सोचता कि दस क्या, पंद्रह सवाल भी आसानी से एक दिन में किए जा सकते हैं। जब ऐसा सोचने लगता तो ऐसा लगने लगता जैसे छुट्टियाँ कम होते-होते भाग रही हों। दिन बहुत छोटे लगने लगते थे। लेखक ओमा की तरह जो ठिगने और बलिष्ट कद का उदंड लड़का था उसी की तरह बनने की कोशिश करता क्योंकि वह छुट्टियों का काम करने के बजाय अध्यापकों की पिटाई अधिक ‘सस्ता सौदा’ समझता था। और काम न किया होने के कारण लेखक भी उसी की तरह ‘बहादुर’ बनने की कल्पना करने लगता। प्रश्न 8 – पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। उत्तर – लेखक ने कभी भी मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल के समय में मुस्कुराते या हँसते नहीं देखा था। उनके जितना सख्त अध्यापक किसी ने पहले नहीं देखा था। उनका छोटा कद, दुबला-पतला परन्तु पुष्ट शरीर, माता के दानों से भरा चेहरा यानि चेचक के दागों से भरा चेहरा और बाज़ सी तेज़ आँखें, खाकी वर्दी, चमड़े के चौड़े पंजों वाले जूत-ये सभी चीज़े बच्चों को भयभीत करने वाली होती थी। उनके जूतों की ऊँची एड़ियों के निचे भी खुरियाँ लगी रहतीं थी। अगले हिस्से में, पंजों के निचे मोटे सिरों वाले कील ठुके होते थे। वे अनुशासन प्रिय थे यदि कोई विद्यार्थी उनकी बात नहीं मानता तो वे उसकी खाल खींचने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। वे बहुत स्वाभिमानी भी थे क्योंकि जब हेडमास्टर शर्मा ने उन्हें निलंबित कर के निकाला तो वे गिड़गिड़ाए नहीं, चुपचाप चले गए और पहले की ही तरह आराम से रह रहे थे। प्रश्न 9 – विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट कीजिए। उत्तर – विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में जिन युक्तियों को अपनाया गया है उसमें मारना-पीटना और कठोर दंड देना शामिल हैं। इन कारणों की वजह से बहुत से बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। परन्तु वर्तमान में इस तरह मारना-पीटना और कठोर दंड देना बिलकुल मना है। आजकल के अध्यापकों को सिखाया जाता है कि बच्चों की भावनाओं को समझा जाए, उसने यदि कोई गलत काम किया है तो यह देखा जाए कि उसने ऐसा क्यों किया है। उसे उसकी गलतियों के लिए दंड न देकर, गलती का एहसास करवाया जाए। तभी बच्चे स्कूल जाने से डरेंगे नहीं बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी स्कूल जाएँगे। प्रश्न 11 – प्रायः अभिभावक बच्चों को खेल-कूद में ज्यादा रूचि लेने पर रोकते हैं और समय बर्बाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए – उत्तर – जितना खेल जीवन में जरुरी है, उतने ही जरुरी जीवन में बहुत से कार्य होते हैं जैसे- पढाई आदि। यदि खेल स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, तो पढाई भी आपके जीवन में कामयाबी के लिए बहुत आवश्यक है। यदि हम अपने खेल के साथ-साथ अपने जीवन के अन्य कार्यों को भी उसी लगन के साथ पूरा करते जाएँ जिस लगन के साथ हम अपने खेल को खेलते हैं तो अभिभावकों को कभी भी खेल से कोई आपत्ति नहीं होगी। |