स्त्रियों को ओम का उच्चारण क्यों नहीं करना चाहिए? - striyon ko om ka uchchaaran kyon nahin karana chaahie?

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स्त्रियों को अधिकार है या नहीं? यह कोई स्वतन्त्र प्रश्न नहीं है। अलग से कहीं ऐसा विधि-निषेध नहीं कि स्त्रियां गायत्री जपें या न जपें। यह प्रश्न इसलिए उठता है कि—यह कहा जाता है कि स्त्रियों को वेद का अधिकार नहीं है। चूंकि गायत्री भी वेद-मन्त्र है, इसलिये अन्य मन्त्रों की भांति उसके उच्चारण का भी अधिकार नहीं होना चाहिये।<br><br>स्त्रियों को वेदाधिकारी न होने का प्रतिबन्ध वेदों में नहीं है। वेदों में तो ऐसे कितने ही मन्त्र हैं, स्त्रियों द्वारा ही उच्चारण होते हैं। उन मन्त्रों में स्त्रीलिंग की क्रियाएं हैं जिससे स्पष्ट होता है कि यह स्त्रियों द्वारा ही प्रयोग होने के लिए हैं।<br><br>देखिये:—<br><br>‘‘उदसौ सूर्यो अगाद्, उदयं मातको भगः अहं,<br><br>तद्विद वला पतिभभ्य साक्षि विपा सहि ।<br><br>अहं केतु रह मूर्धाहमुग्रा विवाचनी,<br><br>ममेदनु कृतुं पतिः सेहा नाया उपाचरेत् ।।’’<br><br>‘‘मम पुत्रा शत्रुहणेऽथे मे दुहिता विराट् ।<br><br>उताहमस्मि सं जया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः ।।’’<br><br>ऋग्वेद 10।159 2,3<br><br>अर्थ—सूर्योदय के साथ-साथ मेरा सौभाग्य बढ़े। मैं पतिदेव को प्राप्त करूं। विरोधियों को पराजित करने वाली और सहनशीला बनूं। मैं वेद को सुनने वाली बनूं। मैं तेजस्विनी और प्रभावशाली वक्ता बनूं। पतिदेव मेरी इच्छा, ज्ञान व कर्म के अनुसार कार्य करें। मेरे पुत्र भीतरी व बाहरी शत्रुओं को नष्ट करें, मेरी पुत्री अपने सद्गुणों के कारण प्रकाशवान् हों। मैं अपने कार्यों से पतिदेव के उज्ज्वल यश को बढ़ाऊं।<br><br>त्र्यम्बक य नामहे सुगन्धि पति वेदनम् ।<br><br>उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षोय मामुतः ।।<br><br>यजु. 3।60<br><br>अर्थात् हम कुमारियां उत्तम पतियों को प्राप्त कराने वाले परमात्मा का स्मरण करती हुई यज्ञ करती हैं, जो हमें इस पितृ-कुल से तो छुड़ादे, किन्तु पति से कभी वियोग न कराये।<br><br>आशा सान्तं सौमनसं प्रजां सौभाग्यं रयिम् ।<br><br>अग्नि रनुव्रता भूत्वा सन्नह्ये सुकृतायकम् ।।<br><br>अथर्व 14।2।52<br><br>वधू कहती है कि मैं यज्ञादि शुभ अनुष्ठानों के लिये शुभ वस्त्र पहनती हूं। सदा सौभाग्य, आनन्द, धन तथा सन्तान की कामना करती हुई मैं सदा प्रसन्न रहूंगी।<br><br>वेदोऽसिवित्तिरसी वेदसे त्वा वेदोमे विन्दविदेय ।<br><br>धृतवन्तं कुलायिनं रास्यम्पोपं सहस्त्रिणम् ।।<br><br>वेदोवाचं ददातु मे वेदोवीरं ददातु मे ।<br><br>काठक संहिता 5।4।23<br><br>आप वेद हैं, सब श्रेष्ठ गुणों और ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाले हैं। मैं ज्ञान-लाभ के लिये आपको भली प्रकार प्राप्त करूं। वेद मुझे तेजस्वी, कुल को उत्तम बनाने वाला, ऐश्वर्य बढ़ाने वाला ज्ञान दे। वेद मुझे वीर श्रेष्ठ सन्तान दें।<br><br>विवाह के समय वर-वधू दोनों सम्मिलित रूप से इस मन्त्र का उच्चारण करते हैं:—<br><br>समज्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानिनौ । सं मातरिश्वा संघाता समुदेष्ट्री दधातु नौ ।<br><br>ऋग्वेद 10।85।47<br><br>अर्थात् सब विद्वान् लोग यह जान लें कि हम दोनों के हृदय जल की तरह परस्पर प्रेम पूर्वक मिले रहेंगे। विश्व-नियन्ता परमात्मा तथा विदुषी देवियां हम दोनों के प्रेम को स्थिर बनाने में सहायता करें।<br><br>स्त्री के मुख से वेद-मन्त्रों के उच्चारण के लिए असंख्यों प्रमाण भरे पड़े हैं। शतपथ ब्राह्मण 14।14।16 में पत्नी द्वारा यजुर्वेद के 37।26 मन्त्र ‘तष्ट्र मन्तस्वा सयेम...........’ इस मन्त्र को पत्नी द्वारा उच्चारण करने का विधान है। शतपथ के 1।9।2।2।1 तथा 1।9।1।22, 23 में स्त्रियों द्वारा यजुर्वेदः के 23।23, 25, 27, 29 मन्त्रों के उच्चारण का आदेश है।<br><br>तैत्तिरीय संहिता के 1।1।10 ‘सुप्रजसस्त्वी वयं’ आदि मन्त्रों को स्त्री द्वारा बुलवाने का आदेश है।<br><br>आश्नलायन गृह सूत्र 2।9 के ‘पाणिं गृह्यादि गृह्म.........’ में भी इसी प्रकार यजमान की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी पुत्र अथवा कन्या को यज्ञ करने का आदेश है।<br><br>काठक गृह्य सूत्र 3।1।30 एवं 27।3 में स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन, मन्त्रोच्चारण एवं वैदिक कर्मकाण्ड करने का प्रतिपादन है। लौगाक्षि गृह्य सूत्र की 25वीं काण्डिका में भी ऐसे ही प्रमाण मौजूद हैं।<br><br>पारस्कर गृह्य सूत्र 2।5।1, 2 के अनुसार विवाह के समय कन्या लाजा होम के मन्त्रों को स्वयं पढ़ती है। सूर्य-दर्शन के समय भी वह यजुर्वेद के 36।24 मन्त्र ‘तच्चक्षुर्देवं हितं.........’ को स्वयं ही उच्चारण करती है। विवाह के समय ‘समज्जन’ करते समय वर वधू दोनों साथ-साथ ‘अथै नौ समञ्जयति........’ इस ऋग्वेद 10।85।48 के मन्त्र को पढ़ते हैं।<br><br>ताड्य ब्राह्मण 5।6।8 में यज्ञ में स्त्रियों को वीणा लेकर सामवेद के मन्त्रों का गान करने का आदेश है तथा 5।6।15 में स्त्रियों को कलश उठाकर वेद-मन्त्रों का गान करते हुए परिक्रमा करने का विधान है।<br><br>ऐतरेय ब्राह्मण 5।5।29 में कुमारी गन्धर्व गृहता का उपाख्यान है, जिसमें कन्या के यज्ञ एवं वेदाधिकार का स्पष्टीकरण होता है।<br><br>द्वात्यायन श्रौत सूत 1।1।7 तथा 4।1।22 तथा 5।10।13 तथा 6।6।3 तथा 26।4।13 तथा 26।7।28 तथा 23।7।1 तथा 20।6।12, 13 आदि में ऐसे स्पष्ट आदेश हैं कि अमुक अमुक वेद मन्त्रों का उच्चारण स्त्री करे।<br><br>लाट्यायन श्रोत सूत्र में पत्नी को सस्वर सामवेद के मन्त्रों के गायन का विधान है।<br><br>शांखायन श्रौत सूत्र के 1।12, 13 में तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र 1।11।1 में इसी प्रकार के वेद मंत्रोच्चारण के आदेश हैं। मन्त्र ब्राह्मण के 1।2, 3 में कन्या द्वारा वेद-मन्त्रों के उच्चारण की आज्ञा है:—<br><br>नीचे के मन्त्रों में वधू को वेद-परायण होने के लिए कितना आदेश दिया हुआ है—<br><br>ब्रह्म परं युज्यतां ब्रह्म पूर्व ब्रह्मान्ततो मध्यतो<br><br>ब्रह्म सर्वतः अनाव्याधां देव पुरां प्रपद्य शिवा<br><br>स्वोना पतिलोके विराज ।<br><br>अथर्व 14।1।64<br><br>हे वधू! तेरे आगे, पीछे, मध्य तथा अन्त में सर्वत्र वेद विषयक ज्ञान रहे। वेद-ज्ञान को प्राप्त करके तदनुसार तू अपना जीवन बना। मंगलमयी सुखदायिनी एवं स्वस्थ होकर पति के घर में विराज और अपने सद्गुणों से प्रकाशवान् हो।<br><br>कुलियानी घृतवती पुरन्धिः स्योमे सीद सदने<br><br>पृथव्याः । अभित्वा रुद्रा वसयो गृणन्तु इमा<br><br>ब्रह्म पीपिहि सौभगाय अश्विनाध्वर्य सादयता-<br><br>मिहत्वा ।।<br><br>यजु. 14।2<br><br>हे स्त्री! तू कुलवती घृत आदि पौष्टिक पदार्थों का उचित उपयोग करने वाली, तेजस्विनी, बुद्धिमती, सत्कर्म करने वाली होकर सुख पूर्वक रह। तू ऐसी गुणवती और विदूषी बन कि रुद्र और वसु भी तेरी प्रशंसा करें। सौभाग्य की प्राप्ति के लिये इन वेद मन्त्र के अमृत का बार-बार भली प्रकार पान कर। विद्वान् तुझे शिक्षा देकर इस प्रकार की उच्च स्थिति पर प्रतिष्ठित करावें।<br><br>यह सर्व विदित है कि यज्ञ बिना वेदमन्त्रों के नहीं होता और यज्ञ में पति पत्नी दोनों का सम्मिलित रहना आवश्यक है। रामचन्द्र जी ने सीता की अनुपस्थिति में सोने की प्रतिमा रखकर यज्ञ किया था। ब्रह्मा जी को भी सावित्री की अनुपस्थिति में द्वितीय पत्नी को वरण करना पड़ा था, क्योंकि यज्ञ की पूर्ति के लिये पत्नी की उपस्थिति आवश्यकीय है। जब स्त्री यज्ञ करती है, तो उसे वेदाधिकार न होने की बात किस प्रकार कही जा सकती है? देखिये—<br><br>यज्ञो वा एष योऽपत्नीकः ।<br><br>तैत्तरीय सं. 2।2।2।6<br><br>अर्थात्—बिना पतनी के यज्ञ नहीं होता।<br><br>अथो अर्धोवा एष आत्मनः यत् पत्नी ।<br><br>तैत्तिरीय सं. 3।3।3।5<br><br>अर्थात् पत्नी पति की अर्धांगिनी है अतः उसके बिना यज्ञ अपूर्ण है।<br><br>या दम्पति समनसा सुनुत आ व धावतः ।<br><br>देवासो नित्ययाऽऽशिरा ।<br><br>ऋग्वेद 8।31।51<br><br>हे विद्वानों! जो पति पत्नी एक मन होकर यज्ञ करते हैं और ईश्वर की उपासना करते हैं वे सदा सुखी रहते हैं।<br><br>वित्वा ततसे मिथुना अवस्यवः यद<br><br>गव्यन्ता द्वाजना समूहसि ।<br><br>ऋग्वेद 2।19।6<br><br>हे परमात्मन्! तेरे निमित्त यजमान पत्नी समेत यज्ञ करते हैं तू उन दोनों को स्वर्ग की प्राप्ति करता है। अतएव वे मिल कर यज्ञ करते हैं।<br><br>अग्नि होत्रस्क्ष शुश्रूषा सन्ध्योपासान मेव<br><br>कार्य पत्न्या प्रति दिनं वलि कर्म च नैत्यिकम् ।<br><br>—स्मृति रत्न<br><br>पत्नी प्रति दिन अग्निहोत्र, संध्योपासन, वलि वैश्य आदि नित्य कर्म करें।<br><br>यदि पुरुष न हो तो स्त्री को अकेली भी यज्ञ करने का अधिकार है। देखिये—<br><br>होम कर्तारः स्वयं स्वस्यासम्भवे पत्नादयः ।<br><br>—गदाधराचर्य<br><br>होम करने में पहले स्वयं यजमान का स्थान है। वह न हो तो पत्नी पुत्र आदि करें।<br><br>पत्नी कुमारः पुत्री वा शिष्यो वाऽपि यथाक्रमम् ।<br><br>पूर्व पूर्वत्व चाभावे विदध्या दुत्तरोत्तरः ।<br><br>—प्रयोग रत्नस्मृति<br><br>यजमानः प्राधानंस्यात् पत्नी पुत्रश्च कन्यका ।<br><br>ऋत्विक् शिष्यो गुरुर्भ्राता भगिनेयः सुता पतिः ।<br><br>—स्मृत्यर्थसार<br><br>उपरोक्त दोनों श्लोकों का भावार्थ यह है कि यदि यजमान हवन के समय किसी कारण उपस्थित न हो सके तो उसकी पत्नी पुत्र, कन्या, शिष्य, गुरु, भाई आदि कर लेवें।<br><br>हु रप्युत्तमस्त्रीणाम अधिकारं तु वैदिके ।<br><br>यथेर्वशी यमी चैव शय्याद्याश्च तथाऽपराः।<br><br>—व्योमसंहिता<br><br>श्रेष्ठ स्त्रियों को वेद का अध्ययन तथा वैदिक कर्मकाण्ड करने का वैसे ही अधिकार है जैसे कि उर्वशी यमी शची आदि ऋषिकाओं को प्राप्त था।<br><br>अग्निहोत्रस्य शुश्रूया सन्ध्योपासन मेव च ।<br><br>स्मृति रत्न (कुल्लू भट्ट)<br><br>इस श्लोक में स्त्रियों को यज्ञोपवीत एवं संध्योपासन का प्रत्यक्ष विधान है।<br><br>या स्त्री भर्ता वियुक्तिापि स्वाचारे संयुता शुभा ।<br><br>साच मंत्रान् प्रगृह्लातु स भर्त्री तदनुज्ञया ।।<br><br>भविष्य पुराण उत्तर पर्व 4।13।62।63<br><br>उत्तम आचरण वाली विधवा स्त्री वेद मंत्रों को ग्रहण करे और सधवा स्त्री अपने पति की अनुमति से मन्त्रों को ग्रहण करे।<br><br>यथा धिकारः श्रोतुषु योषितां कर्म सुश्रतः ।<br><br>एवमेवानुमन्यस्व ब्रह्माणी ब्रह्म वादिताम् ।।<br><br>—यमस्मृति<br><br>जिस प्रकार स्त्रियों को वेद के कर्मों में अधिकार है, वैसे ही ब्रह्म विद्या प्राप्त करने का भी उन्हें अधिकार है।<br><br>कात्यायनी च मत्रीयी गार्गी वाचक्नवी तथा ।<br><br>एव माह्य विदुर्ब्रह्म तस्मात् स्त्री ब्रह्मविद् भवेद् ।<br><br>—अस्य वामीय भाष्यम्<br><br>जैसे कात्यायनी, मैत्रेय, वाचक्नवी, गार्गी आदि ब्रह्म (वेद और ईश्वर) को जानने वाली थीं, वैसे ही सब स्त्रियों को ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।<br><br>वाल्मीकि रामायण में कौशिल्या, कैकेयी, सीता, तारा आदि नारियों द्वारा वेद मन्त्रों का उच्चारण, अग्निहोत्र, सन्ध्योपासन का वर्णन आता है।<br><br>सन्ध्याकाल मनः श्यामा ध्रुव मेष्यति जानकी ।<br><br>नदी चेमां शुभ जलां सन्ध्यार्थे वर वर्णिनी ।।<br><br>—बा. रा. 5।15।48<br><br>सायंकाल के समय सीता इस उत्तम जल वाली नदी के तट पर सन्ध्या करने अवश्य आवेगी।<br><br>वैदेही शोक सन्ताप्ता हुताशन मुपागतम् ।<br><br>बा. सुन्दर 53।23<br><br>अर्थात् तब शोक सन्तप्त सीता जी ने हवन किया।<br><br>‘‘तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ।’’<br><br>वेद मन्त्रों को जानने वाली कैकेयी ने सुमन्त से कहा—<br><br>सा क्षोभ वसना हृष्टा, नित्यं त्रत परायण ।<br><br>अग्नि जुहोतिस्व तदा मन्त्र वित्कृत मंगला ।।<br><br>बा. रा. 2।20।15<br><br>वेद मन्त्रों को जानने वाली, व्रत परायण, प्रसन्न मुख, सुवेशी कौशिल्या मंगल पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी।<br><br>ततःस्वत्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी ।<br><br>बा. रा. 4।16।12<br><br>तब मन्त्रों को जानने वाली तारा ने अपने पति बालि को विजय के लिये स्वस्ति वाचन के मन्त्रों का पाठ करके अन्तपुर में प्रवेश किया।<br><br>गायत्री मन्त्र के अधिकार के सम्बन्ध में तो ऋषियों ने और भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है, नीचे के दो स्मृति प्रमाण देखिये जिनमें नारियों को गायत्री उपासना का विधान किया गया है।<br><br>पुराकल्पेतु नारीणां मौञ्जीबंधन मिष्यते ।<br><br>अध्यापनं च वेदानां सावित्री वाचनं तथा ।।<br><br>—यमस्मृति<br><br>प्राचीन समय में नारियों को मौञ्जी बन्धन, वेदों का पढ़ना तथा गायत्री का उपदेश इष्ट था।<br><br>मनसा भर्तुरभिचारे निरन्त्रं यावकं क्षीरौदनं वा भुज्जनाऽघशयीत ऊर्ध्व निात्रादप्सु निमग्नायाः सावित्र्यष्ट शतेन शिरोभिर्जुहुयात् पूता भवतीति विज्ञायते ।<br><br>—वाशिष्ट स्मृति 21।7<br><br>यदि स्त्री के मन में पति के प्रति दुर्भाव आवे तो उस पाप का प्रायश्चित करने के साथ 108 मन्त्र गायत्री के जपने से वह पवित्र होती है।<br><br>इतने पर भी यदि कोई यह कहे कि नारियों को गायत्री का अधिकार नहीं है तो उसे दुराग्रही या कुसंस्कार ही कहना चाहिये।<br><br>जो लोग स्त्री और शूद्रों को एक श्रेणी में रखकर स्त्रियों को गायत्री का अधिकार न होने की बात कहते हैं उन्हें पुकारते हुए महर्षि हारीत कहते हैं:—<br><br>न शूद्र समाः स्त्रियः । नहिं शूद्र योनौ ब्राह्मण क्षत्रिय<br><br>वैश्या जायन्ते तस्माच्छन्दसास्धियः संस्कार्याः<br><br>—हारीत<br><br>यां शूद्रों के समान नहीं हो सकतीं। शूद्र-योनि से भला ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों की उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है? स्त्रियों को वेद द्वारा संस्कृत करना चाहिये।<br><br>नर और नारी एक ही रथ के दो पहिये हैं, एक ही मुख के दो नेत्र हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। दोनों अर्द्धांगों के मिलने से एक पूर्ण अंग बनता है। मानव प्राणी के अविच्छिन्न दो भागों में इस प्रकार की असमानता, द्विधा, नीच ऊंच की भावना पैदा करना भारती धर्म में सदा नर नारी को एक और अविच्छिन्न अंग माना है।<br><br>तथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा ।<br><br>मनु. 9।130<br><br>आत्मा के समान ही सन्तान है। जैसा पुत्र वैसी ही कन्या दोनों समान है।<br><br>एतावानेव पुरुषो यज्जायात्मा प्रजेति ह ।<br><br>विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सास्मृताङ्गना ।।<br><br>मनु 9।45<br><br>पुरुष अकेला नहीं होता, किन्तु स्वयं पत्नी और सन्तान मिलकर पुरुष बनता है।<br><br>‘‘अथो अर्द्धो वा एष आत्मानः पत् पत्नी ।’’<br><br>अर्थात् पत्नी पुरुष का आधा अंग है।<br><br>ऐसी दशा में यह उचित नहीं कि नारी को प्रभु की वाणी वेद-ज्ञान से वंचित रखा जाय। अन्य मन्त्रों की तरह गायत्री का भी उसे पूरा अधिकार है। ईश्वर की हम नारी के रूप में, गायत्री के रूप में उपासना करें और फिर नारी जाति को ही घृणित, पतित, अस्पर्शा, अनाधिकारिणी ठहरावें, यह कहां तक उचित है? इस पर हमें स्वयं ही विचार करना चाहिये।<br><br>वेद-ज्ञान सब के लिए है, नर नारी सभी के लिए है। ईश्वर अपनी सन्तान को जो सन्देश देता है, उसे सुनने पर प्रतिबन्ध लगाना ईश्वर के प्रति द्रोह करना है। वेद भगवान् स्वयं कहते हैं—<br><br>समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनः सह<br><br>चित्त मेषाम् । समानं मन्त्र मभि मन्त्रये यः<br><br>समाने न वो हविर्षा जुहोभि ।<br><br>ऋग्वेद 10।19।3<br><br>अर्थ—हे समस्त नर-नारियो! तुम्हारे लिये ये मन्त्र समान रूप से दिये गये हैं तथा तुम्हारा परस्पर विचार भी समान रूप से हो। तुम्हारी सभाएं सबके लिए समान रूप से खुली हुई हों। तुम्हारा मन और चित्त समान तथा मिला हुआ हो। मैं तुम्हें समान रूप से मन्त्रों का उपदेश करता और समान रूप से ग्रहण करने योग्य पदार्थ देता हूं।<br><br>***<br><br> </div> <div class="magzinHead"> <div style="text-align:center"> <a target="_blank" 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महिलाओं को ओम का उच्चारण क्यों नहीं करना चाहिए?

ओउम् के उच्चारण में तीन अक्षर है। प्रत्येक अक्षर को सटीक स्वर के साथ बोलने पर यह शरीर मे अद्भुद प्रभाव दिखाता है। प्रत्येक स्वर से शरीर के विभिन्न भागों में कम्पन होता है और उस कम्पन के बार बार होने से स्त्री में गर्भ नही ठहरता। इसलिए जो स्त्री अभी तक माँ नही बनी है उसे ॐ का उच्चारण नही करना चाहिए

स्त्रियों को कौन से मंत्र का जाप करना चाहिए?

"यदि स्त्री के मन में पति के प्रति दुर्भाव आये तो उस पाप का प्रायश्चित्त करने के साथ १०८ बार गायत्री-मन्त्र के जपने से वह पवित्र होती है।"

ओम का उच्चारण कितनी बार करना चाहिए?

- बता दें कि ॐ का उच्चारण 5, 7, 11 और 21 बार करना उपयोगी माना गया है. - इसके साथ ही पूजा के वक्त विशेष रूप से का जाप अपने हिसाब से करें और भगवान की कृपा पाएं.

ओम का उच्चारण करने से क्या फायदा होता है?

जाप के फायदे- ॐ का उच्चारण और जाप करने से आसपास के वातावरण में भी सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यदि सही प्रकार से पूर्ण ध्यान लगाकर का जाप किया जाए तो इससे आपको सकारात्मकता, शांति और ऊर्जा की प्राप्ति होती है। माना जाता है कि नियमित रूप से का जाप करने से एकाग्रता और स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है।