लघुकथा की शुरुआत का आधुनिक दौर कब से माना जाता है? - laghukatha kee shuruaat ka aadhunik daur kab se maana jaata hai?

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लघुकथा किसे कहते हैं? | प्रमुख लघुकथाकार एवं उनकी रचनाएँ

Jun 30, 2022 09:06AM 575

लघुकथा क्या है?

आज से कुछ दशक पूर्व तक लघुकथा विधा स्थापित नहीं थी, पर अब यह विधा न उपेक्षित है और न ही अनजानी। आधुनिक कहानियों के संदर्भ में 'लघुकथा' का अपना स्वतंत्र महत्व एवं अस्तित्व है। लघुकथाएँ बहुत छोटी कथाएँ होती हैं, किन्तु इनकी संकल्पना सार्थक और रोचक होती है। ये हिन्दी की प्रमुख गद्य विधा है। हिन्दी की प्रमुख विधाओं (उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी आदि) की मूल कथा के अन्दर गौण कथाएँ होती हैं। ये कथाएँ छोटी और शिक्षा देने वाली होती हैं। इन्हें भी लघुकथा कहा जा सकता है। लघुकथा हिन्दी की प्रमुख गद्य विधाओं से स्वतंत्र भी होती है।

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लघुकथाएँ वस्तुतः दृष्टान्त के रूप में विकसित हुई हैं। ऐसे दृष्टान्त मुख्यतया नैतिक और धार्मिक क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार नैतिक दृष्टान्तों के स्तर से नैतिक लघुकथाएँ सर्वत्र मिलती हैं। लघुकथा अपने आप में एक स्वतंत्र और सशक्त विधा है। इसकी शक्ति के पीछे सामाजिक परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया है। लघुकथाओं में व्यंग्यों का पुट पाया जाता है। रचना की दृष्टि से लघुकथाओं में भावनाओं का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि सत्य, विचार और सारांश का महत्व होता है।

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लघुकथाकार एवं उनकी रचनाएँ

हरिशंकर परसाई हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख लघुकथाकार एवं उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं–
1. श्री शिवपूजन सहाय– एक अद्भुत कवि (1924 ई.)
2. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'– सुदर्शन, रावी
3. प्रेमचन्द
4. अज्ञेय
5. जैनेन्द्र
6. जयशंकर प्रसाद।

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I hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
rfcompetiton.com

इक्कीसवीं सदी के लघुकथाकार और उनकी लघुकथाएँ

July 31, 2015, 10:32 pm

जीवन एक अविरल धारा है जो बहते हुए आगे बढ़ती जाती है, जिसमें बहुत कुछ पीछे छूट जाता है, तो बहुत कुछ नया जुड़ता भी जाता है। वस्तुतः यही है जीवन की विकास-यात्रा । ठीक इसी प्रकार साहित्य और उसकी तमाम विधाएँ हैं जिनमें लघुकथा भी एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित है, उसमें भी समय के साथ-साथ अपनी-अपनी क्षमता के साथ पुराने लघुकथाकार पीछे छूटते जाते हैं और बढ़ते समय के साथ-साथ नये-नये लघुकथाकार आते-जाते हैं और अपनी सृजनात्मकता से अपनी पहचान बनाते हुए लघुकथा की विकास-यात्रा में उसके सहयात्री बन जाते हैं ।
जब चर्चा लघुकथा के वर्तमान यानी इक्कीसवीं सदी करनी है तो इससे पूर्व हमें इसकी नींव तक जाना पड़ेगा जिस पर लघुकथा का आज यह सुन्दर भवन खड़ा है। जब हम नींव पर आते हैं तो हमें संस्कृत भाषा में रचित कथा एवं कथात्मक ग्रंथों को भी देखना पड़ता है। हिन्दी संस्कृत की बेटी है, इसने उसी की कोख से जन्म लिया है, अतः हम वेद,पुराण, उपनिषद् इत्यादि ऐसे तमाम उल्लेखनीय ग्रंथों में प्रकाशित कथाओं और पिफर प्राकृत एवं पाली भाषाओं में प्रकाशित कथा एवं कथात्मक ग्रंथों का अवलोकन करने हेतु विवश होते हैं। कारण जीवधारियों की तरह, किसी साहित्यिक विधा के जन्म की कोई निश्चित तिथि नहीं हो सकती । साहित्यिक विधाएँ तो शनैः शनैः विकास करते हुए कब अपना आकार ग्रहण कर लेती हैं, पता तक नहीं चलता और जब पता चलता है, तब हम फिर अतीत की ओर चलते हैं।यह सही है प्रत्येक विधा पर अपने समय, तत्कालीन राजनीति, सामाजिक परिवर्तन, मानव-मनोविज्ञान इत्यादि का प्रभाव पड़ता है, लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है।
सन् 1874 के समय में जाएँ तो उस समय दो प्रवृत्तियाँ साहित्य में प्रत्यक्ष हो रही थीं । एक थी जो उपदेश लिए होती थी । उपदेश से तात्पर्य यह है कि अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्श को उद्देश्य के रूप में महत्त्व दिया जाता था। इस समय की लघुकथाओं का अवलोकन करते हेतु पटना से प्रकाशित ‘बिहार बन्धु’ (साप्ताहिक) को देखना होगा, जिसमें मुंशी हसन अली की लघुकथाएँ प्रायः प्रत्येक अंक में प्रकाशित हो रही थीं । पाठकीय प्रतिक्रियाओं से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन पाठक उन्हें पसंद भी कर रहे थे ।
सन् 1875 में बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी लघुकथाएँ लिख रहे थे, उनकी प्रवृत्ति व्यंग्यात्मक थी । कारण उस समय अपना देश परतंत्र था। समाज के सभी वर्ग देश के हित में देश को स्वतंत्र कराने हेतु यथासंभव जो कर सकते थे, कर रहे थे। साहित्यकार भी अपना दायित्व निर्वाह करने में किसी तरह भी पीछे नहीं थे । भारतेन्दु उसके समय के साहित्यकारों का एक तरह से नेतृत्व कर रहे थे। अतः अपनी लघुआकारीय कथात्मक रचनाओं के माध्यम से अंग्रेजों के विरु( जन-जागरण हेतु व्यंग्यपरक लघुकथाएँ लिख रहे थे जो बाद में रिहासिनी’ नामक पुस्तक में संगृहीत की गयीं ।इनके बाद फिर जयशंकर ‘प्रसाद’ अपनी लघुकथाओं में गंभीर दर्शन लिए उपस्थित हुए तो प्रेमचंद ने आदर्श एवं व्यंग्य को मिला-जुलाकर अपनी अलग राह लघुकथा में बनायी ।
इनके बाद तो फिर छबीलेलाल गोस्वामी, माखनलाल चतुर्वेदी, माधव राव सप्रे, सुदर्शन, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, पदुमलाल पन्नालाल बक्शी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, वनफूल, रमेश चंद्र श्रीवास्तव ‘चंद्र’, कालीचरण चटर्जी एम. ए., श्याम सुन्दर व्यास, विष्णु प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, आनंद मोहन अवस्थी, शांति मेहरोत्रा, बैकुंठ मेहरोत्रा, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, रामधरी सिंह ‘दिनकर’, भृंग तुपकरी, रामेश्वर नाथ तिवारी, भवभूति मिश्र, रघुवीर सहाय, रावी, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय, श्यामनंदन शास्त्री, शरद चन्द्र मिश्र, डॉ• त्रिलोकीलाल व्रजबाल इत्यादि लघुकथा लेखकों की लम्बी सूची है, जिन्होंने अपनी मूल विध के साथ-साथ लघुकथाएँ पर्याप्त मात्रा में लिखीं ।
सातवें दशक में डॉ• सतीश दुबे, डॉ• कृष्ण कमलेश इत्यादि की लघुकथाओं से लघुकथा का पुनरुत्थान काल यानी आधुनिक लघुकथा का दौर शुरू होता है जिसकी लघुकथाएँ अपनी अग्रज पीढ़ी की लघुकथाओं से भिन्नता लिए तो ज़रूर थीं किन्तु उनमें अग्रज पीढ़ी की लघुकथाओं का प्रभाव भी स्पष्ट था ।इस काल की लघुकथाएँ आकार की दृष्टि से एक-डेढ़ पंक्ति से लेकर आठ-दस पंक्तियों में सिमट जाती थीं । इनका विषय पुलिस, राजनीति, कार्यालय, समाज आदि में व्याप्त भ्रष्टाचार हुआ करता था। इसमें व्यंग्य अपने तीखे तेवर एवं अनिवार्यता के साथ उपस्थित था । लघुकथा का समापन प्रायः चौंका देने वाले वाक्य से हुआ करता था। आपातकाल में जहाँ ‘ग़ज़ल’ की लोकप्रियता बढ़ी, वहीं गद्य और विशेष रूप से कथा विधओं में ‘लघुकथा’ पाठकों की प्रिय विध बन गयी थी ।
इस विधा को लोकप्रिय बनाने में ‘सारिका’, ‘तारिका’ बाद में ‘शुभ तारिका’, ‘सुपर ब्लेज’, ‘मिनीयुग’, ‘आघात’ बाद में ‘लघु आघात’, ‘दिशा’, ‘ललकार’, ‘व्योम’, ‘साहित्यकार’, ‘पुनः’, ‘अवसर’ इत्यादि पत्रिकाओं का रेखांकन योग्य योगदान रहा है।
आठवाँ दशक समाप्त होते-होते अपने विषयों की पुनरावृत्ति, आकार में अति लघुता तथा लेखकों की बाढ़ ने लघुकथा के स्तर को गिराया और पाठकों के मन में ऊब पैदा की । इससे श्रेष्ठ लघुकथाकार चिंतित हो उठे और ‘दिशा’ पत्रिका के प्रवेशांक के सम्पादकीय ने अनेक लेखकों के विरोध् के बावजूद प्रायः लेखकों ने सम्पादकीय में दिये गये सुझावों को मानने में ही लघुकथा तथा स्वयं अपनी भलाई समझी । इस स्थिति में वैसे लेखक प्रायः इस विध से हट गये जो लघुकथा में बन रहे नये माहौल की गंभीरता को न समझ सके और न पचा सके, किन्तु लघुकथा अपने नये विषयों एवं विषयों के अनुकूल सटीक एवं सुन्दर शिल्प के कारण पुनः पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त करने में क्रमशः सफलता के सोपान चढ़ने लगी ।
नवें दशक से गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों ने भी इसके विकास में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया। इन सब समारोहों में पठित आलेखों एवं उनपर हुए तटस्थ विचार-विमर्श ने तत्कालीन युवा पीढ़ी को इस विध के विषय में बहुत कुछ दिया। इन समारोहों में पठित लघुकथाओं एवं उन पर हुई समीक्षात्मक टिप्पणियों ने तत्कालीन युवा पीढ़ी के लेखन को सार्थक एवं सुन्दर रचनात्मक दृष्टि दी । इससे उस पीढ़ी से अनेक श्रेष्ठ लघुकथा-लेखक उभर कर सामने आये। इनके साथ कुछ वे लोग भी सक्रिय रहे जो क्रमशः आठवें, नवें एवं बीसवीं सदी के अंतिम दशक से इस विध के विकास हेतु श्रेष्ठ रचनाएँ लिखने के साथ इसके शास्त्राीय एवं ऐतिहासिक पक्ष को उजागर करते शोधपरक लेख तथा तत्कालीन रचनाओं को केन्द्र में रखकर आलोचनात्मक लेख भी लिख रहे थे ।
नींव में खड़ी पीढ़ी तथा उसके बाद आने वाले दशकों के लेखकों ने अपने दायित्व का निर्वाह बहुत ही सुन्दर ढंग से किया ।इक्कीसवीं सदी में भी जो कतिपय वरिष्ठ लेखक सक्रिय थे, उनमें डॉ• सतीश दुबे, भगीरथ, बलराम अग्रवाल, डॉ• कमल चोपड़ा, डॉ• सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, चित्रा मुद्गल, मधुकांत, रूप देवगुण, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, कृष्णानंद कृष्ण, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, सिद्धेश्वर, तारिक असलम ‘तस्नीम’, सतीश राठी,अंजना अनिल, अशोक भाटिया, डॉ• श्याम सुन्दर दीप्ति, जसबीर चावला, श्याम सुन्दर अग्रवाल, उर्मि कृष्ण, डॉ• शकुन्तला ‘किरण’ इत्यादि प्रमुख हैं। यहाँ मधुदीप एवं राजकुमार ‘निजात’ की अलग से चर्चा वांछित है, क्योंकि ये दोनों लघुकथाकार ऐसे हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी के अंत में भी काम किया और अब भी सक्रिय हैं, किन्तु ये दोनों ही बीच के लगभग डेढ़ दशक तक मौन रहे हैं । मधुदीप का अभी हाल में ही एक संग्रह-‘समय का पहिया’ और निजात के तीन संग्रह ‘उमंग, उड़ान और परिंदे’, ‘बीस दिन’ और ‘अदालत चुप थी’ हाल में ही प्रकाश में आये हैं। मेरे इस लेख के लिखे जाने तक मध्ुदीप ने ‘पड़ाव और पड़ताल’ के बारह खंड अपने संपादन एवं निर्देशन में प्रकाशित कर दिये। तेरह खंड आने को हैं। मेरी दृष्टि से अभी तक लघुकथाओं में इससे बड़ा काम अभी तक नहीं हुआ है। विगत एक डेढ़ दशक से इस विधा में जो नये लेखक आये उनमें ज्ञानदेव मुकेश, जिनका लघुकथा संग्रह ‘भेड़िया जिंदा है’ बहुचर्चित रहा, मुरलीध्र वैष्णव, प्रताप सिंह सोढ़ी, डॉ• मिथिलेशकुमारी मिश्र, सरला अग्रवाल, मुकेश शर्मा, डॉ• लक्ष्मी विमल,सुनीता कुमारी सिंह, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, रुखसाना सिद्दीकी, सुरेन्द्र प्रसाद सिंह, डॉ• ध्रुव कुमार इत्यादि । इन लेखकों ने अपनी अग्रज पीढ़ी का अनुकरण करते हुए शनैः शनैः अपनी राह बनायी । ऐसे लेखकों में सुरेन्द्र प्रसाद सिंह को लिया जा सकता है। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह वय के ख्याल से तो वृद्ध थे और वह उपन्यास एवं कहानी-लेखन से जुड़े थे। ‘डियर रंजना’ उनका चर्चित उपन्यास है, किन्तु वे चूँकि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ से जुड़े थे, अतः क्रमशः उनकी रुचि लघुकथा-सृजन की ओर बढ़ी और फिर उनका लघुकथा-संग्रह ‘सुरेन्द्र की अस्सी लघुकथाएँ’ प्रकाश में आया । डॉ•प लक्ष्मी विमल ने भी लघुकथा-लेखन जब शुरू किया तो पर्याप्त मात्रा में लघुकथाएँ लिखीं,किन्तु अपना संग्रह ‘सादा लिफाफा’ आने के बाद वह निष्क्रिय प्राय हो गयीं और आजकल किसी भी पत्र-पत्रिका में उनकी लघुकथाएँ देखने में नहीं आतीं । सुनीता कुमारी सिंह की भी यही स्थिति रही । इनका भी एक संग्रह आया, जिसकी भूमिका बलराम अग्रवाल ने लिखी थी । इस संग्रह में इनकी कुछ लघुकथाएँ तो अवश्य ऐसी थीं ,जो चर्चा की माँग करती थीं, किन्तु पुस्तक सही हाथों में न पहुँच पाने के कारण इसकी वांछित चर्चा नहीं हो सकी ।सरला अग्रवाल प्रायः सभी विधओं में हाथ आजमाती रहीं, किन्तु उन्हें जो थोड़ी-बहुत चर्चा मिली वह लघुकथा में ही मिली, इनका ‘दिन दहाड़े’ एक संग्रह आया, जिसकी भूमिका डॉ• कमल चोपड़ा ने लिखी थी । इनकी भी कुछ लघुकथाएँ चर्चा के योग्य हैं। डॉ• मिथिलेशकुमारी मिश्र के दो एकल संग्रह ‘अँधेरे के विरुद्ध’ और ‘छँटता कोहरा’ (दो संस्करण आ चुके हैं) प्रकाश में आये। इन्होंने महिला लघुकथाकारों को लेकर एक संकलन ‘कल के लिए’ नाम से संपादित किया जो काफी चर्चित रहा। ‘छँटता कोहरा’ का ‘मलयालम’ एवं ‘अंगिका’ में अनुवाद हो चुका है। इसकी चर्चा मध्यप्रदेश सरकार ने भी अपने अनेक जिलों में करवाई । इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘बाज़ारवाद’, ‘पूँजी’, ‘अँधेरे के विरुद्ध, ‘छँटता कोहरा’, ‘झंडा’, ‘स्वाभिमान की राह’, ‘हिजड़े’, ‘हर शाख पे…..’, ‘पर उपदेश…..’, ‘छद्मवेशी’, ‘जीवन का यथार्थ’ इत्यादि पर्याप्त चर्चित हैं । इनकी लघुकथाओं में जहाँ प्रेम है, वहीं कामकाजी महिलाओं की स्थिति एवं समस्याएँ भी प्रत्यक्ष हुई हैं । इन्होंने लघुकथा विषयक अनेक लेख भी लिखे हैं, जिनमें कुछ इन्होंने ‘पड़ाव और पड़ताल’ हेतु भी लिखे जो उसके अलग-अलग खंडों में प्रकाशित हुए हैं। वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज के क्रमशः तीन संग्रह ‘सरोवर में थिरकता सागर’, ‘सुहागरात’ एवं ‘तीसरी यात्रा’ प्रकाश में आ चुके हैं।
भारद्वाज पूरी तरह से परम्परावादी हैं, अतः इनका लेखन प्रेमचंद के आदर्शवाद को लेकर चलता है, इनके कथानक प्रायः गाँव-घर के आसपास के ही हुआ करते हैं। समय के साथ इनकी प्रायः रचनाएँ नहीं चलतीं । इनकी लघुकथाओं में ‘असली निबंध्’, ‘खेती’, ‘छाती’, ‘फैसला’, ‘सच्चा’, ‘दूध’ आदि चर्चित रही हैं। इनकी रचनाओं में इनके पेशे यानी शिक्षक-जीवन का अनुभव स्पष्ट परिलक्षित होता है। पुष्पा जमुआर गृहिणी हैं। इनकी रचनाओं में घर-गृहस्थी ने अधिक स्थान प्राप्त किया है। ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ इनका एक लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आ चुका है। इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘अनुत्तरित प्रश्न’, ‘रजाई’, ‘अपना अधिकार’, ‘जलन’, ‘चुभन’, ‘लालसा’, ‘फरियाद’ इत्यादि लघुकथाएँ अपनी विषय-वस्तु एवं सटीक शिल्प के कारण चर्चित हैं । पुष्पा ने लघुकथा विषयक लगभग दो दर्जन से अधिक लेख लिखे हैं, जिन्हें वे विभिन्न गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों में पढ़ चुकी हैं।डॉ• रुखसाना सिद्दिकी मूलतः उर्दू में लिखती हैं किन्तु इसके समानांतर हिन्दी में भी वह उसी त्वरा से लघुकथाएँ लिखती हैं। इनका अभी तक कोई संग्रह तो प्रकाश में नहीं आया किन्तु पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ देखी-पढ़ी जा सकती हैं। इनकी लघुकथाएँ जोगेन्द्र पाल की तरह अपने विरले प्रतीकों के उपयोग से प्रायः दुरूह हो जाती हैं। तात्पर्य यह कि इनकी लघुकथाएँ साधारण पाठकों के लिए नहीं, अपितु मात्रा प्रबुद्ध पाठकों के लिए होती हैं। इनकी यही विशेषता भी है, और यही कमज़ोरी भी । डॉ ध्रुव कुमार जो ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के महासचिव होने के साथ-साथ लघुकथा-विधा पर केन्द्रित वार्षिक पत्रिका ‘सर्जना’ का संपादन भी करते हैं। अभी इसके दो अंक प्रकाश में आकर ख्याति अर्जित कर चुके हैं। इनकी चर्चित लघुकथाओं में ‘मोल-भाव’, ‘यही एक रास्ता’, ‘यह नहीं चलेगा’ इत्यादि का नाम लिया जाता है।
ज्ञानदेव मुकेश एवं मुरलीधर वैष्णव ये दोनों लेखक अपने लघुकथा-सृजन के प्रति काफी गंभीर हैं और प्रायः श्रेष्ठ लघुकथाएँ ही लिखते हैं। दोनों का एक-एक संग्रह भी प्रकाश में आ चुका है और इनकी लघुकथाएँ प्रायः अच्छी पत्रा-पत्रिकाओं में देखी-पढ़ी और पसंद की जाती हैं। ये दोनों मूलतः लघुकथा-लेखक ही हैं ।इनके अतिरिक्त कमल कपूर और नरेन्द्र कुमार गौड़ भी इस विध के प्रति समर्पित भाव रखते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में कमल कपूर नरेन्द्र कुमार गौड़ से बहुत अधिक गंभीर एवं लघुकथा में सृजन के स्तर पर अपेक्षाकृत कहीं अधिक कुशल हैं। प्रमाण स्वरूप कमल कपूर के संग्रह ‘आस्था के फूल’, ‘हरी-सुनहरी पत्तियाँ’ की लघुकथाओं में ‘लक्ष्मी-पूजा’, त्याग या प्यार’, ‘आधुनिका’, ‘शायद’, ‘चश्मा’ इत्यादि को देखा-परखा जा सकता है। इसी श्रेणी में पवित्रा अग्रवाल को भी रखा जा सकता है। इनकी लघुकथाएँ अधिकतर मानवोत्थान की बात करती हैं और ग़लत का विरोध करते हुए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सही दिशा की ओर संकेत करती हैं । इनका भी एक लघुकथा-संग्रह ‘आँगन से राजपथ’ अभी हाल में ही प्रकाश में आया है। इनकी लघुकथाओं में बकौल रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ पॉल्यूशन पैक’, ‘लोकतंत्र’, ‘समाज-सेवा’, ‘जन्नत’, ‘एक और फतवा’ इत्यादि श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं।
शोभा कुक्कल मूलतः कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने पर्याप्त लघुकथाएँ भी लिखीं । इनका एक संग्रह ‘तिनका-तिनका’ भी प्रकाश में आ चुका है। हालाँकि इसी शीर्षक से डॉ•रामकुमार घोटड़ का लघुकथा-संग्रह आज से छब्बीस वर्ष पूर्व प्रकाश में आ चुका है। इस संग्रह में इनकी 72 लघुकथाएँ हैं । कमल कपूर के अनुसार-फ्‘हरे पत्ते-पीले पत्ते’, ‘चार स्तंभ’, ‘धर्म-विधर्म”, ‘वापसी की राह’, ‘मायके की दहलीज़’, ‘भूख’ आदि इस संग्रह की श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं।डॉ• चन्द्रा सायता ने भी काफी लघुकथाएँ लिखी हैं। इनका एक संग्रह अभी हाल-फिलहाल में ‘गिरहें’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जिसकी भूमिका डॉ• सतीश दुबे ने लिखी है।इनकी दृष्टि में – ‘कापुरुष’, ‘पोली बैग’, ‘पोल पट्टी’, ‘प्रेरणा’, ‘तमाशा’ इत्यादि लघुकथाएँ अच्छी बन पड़ी हैं। गोविंद शर्मा बाल-साहित्य-सृजन के वरिष्ठ लेखक हैं। यों इन्होंने अन्य विधओं में भी पर्याप्त लेखन-कार्य किया है, किन्तु इनका लघुकथा-संग्रह ‘रामदीन का चिराग़’ 2014 में प्रकाशित हुआ। इनकी लघुकथाओं के विषय में डॉ• रामनिवास ‘मानव’ लिखते हैं, ”गोविन्द शर्मा ‘रामदीन का चिराग़’ के प्रकाशन के साथ सधे हुए कदमों से लघुकथा-क्षेत्र में दार्पण कर रहे हैं।” डॉ• मानव की दृष्टि में इनकी दो लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं -‘दूर होती दुनिया’ एवं ‘गिद्ध’ । मेरी दृष्टि में इनकी लघुकथाएँ ‘व्यंग्य’ अधिक ,लघुकथा कम हैं। लेखक को लघुकथा का रचना-कौशल ठीक से समझकर तथा अपनी अग्रज पीढ़ी (लेखन में) के लघुकथाकारों का गहराई से अध्ययन करते हुए इस विधा पर
और आगे काम करना चाहिए ।
इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसे लघुकथा-लेखक भी आए, जिन्होंने भले ही नया कुछ न जोड़ा, किन्तु चली आ रही परंपरा को ही अपने ढंग से आगे बढ़ाया । ऐसे लोगों में डॉ• शैल रस्तोगी, माला वर्मा, कृष्णलता यादव, किशन लाल शर्मा, शोभा रस्तोगी, सुकीर्ति भटनागर इत्यादि का नाम सहज ही लिया जा सकता है। डॉ• शैल रस्तोगी के क्रमशः दो घुकथा-संग्रह ‘यही सच है’ एवं ‘ऐसा भी होता है’ ((सं सतीशराज पुष्करणा), माला वर्मा के दो लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘परिवर्तन’ और ‘थोड़ी-सी हँसी’ प्रकाश में आये । इनमें प्रकाशित ‘साक्षात्कार’ जैसी इनकी कतिपय लघुकथाएँ ऐसी जरूर हैं, जो लेखिका के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करती हैं। कृष्णलता यादव के तीन लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘पतझड़ में मधुमास’, ‘चेतना के रंग’ और ‘भोर होने तक’ प्रकाश में आये, जिनमें से श्रेष्ठ लघुकथाओं के नाम पर मेरी दृष्टि में शायद दस रचनाएँ भी मुश्किल से मिल पायें। ‘दिन अपने लिए’ लघुकथा-संग्रह का अवलोकन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि डॉ• शैल रस्तोगी की भाँति शोभा रस्तोगी भी अपेक्षाकृत अधिक सतर्क लेखिका हैं, जो इस जगत् को काफी कुछ दे सकती हैं, किन्तु इन्हें परंपरा पर चलते हुए भी अपनी अलग राह की तलाश करनी ही होगी, तभी यह अपनी स्वतंत्र पहचान बना पायेंगी । इसी प्रकार सुकीर्ति भटनागर, शोभा से थोड़ा आगे चल रही हैं । यदि इसी प्रकार यह इस विधा को गंभीरता से लेते हुए चलती रहीं तो यह लघुकथा को बहुत कुछ दे सकती हैं। यह इनके संग्रह ‘अनकही पीड़ा’ को देखकर सहज ही स्पष्ट हो जाता है।
सैली बलजीत एक अच्छे कवि एवं कहानीकार हैं। यदा-कदा लघुकथाएँ भी नौवें दशक से लिखते आ रहे हैं, किन्तु इनकी गति अपेक्षाकृत काफी धीमी रही है। इक्कीसवीं सदी में प्रकाशित इनका संग्रह ‘आज के देवता’ अवश्य आश्वस्त करता है कि यदि यह इस ओर थोड़ी त्वरा से चलें तो लघुकथा की विकास-यात्रा में अह्म भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। आगरा के किशन लाल शर्मा की लघुकथाएँ प्रायः छोटी पत्रा-पत्रिकाओं में देखने को मिलती हैं, कभी-कभी किसी बड़ी पत्रिका में भी दर्शन हो जाते हैं। किन्तु इन्हें अपनी पहचान हेतु विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर धैर्य रखते हुए श्रम करना होगा। ‘नीम का पेड़’ इनका संग्रह एक-दो वर्ष पूर्व मेरी नज़रों से गुज़रा था । उसमें कुछ लघुकथाएँ तो ऐसी अवश्य हैं जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं, आलोचकों का भले ही न करें। कारण आलोचक को तो विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर नवीनता के साथ-साथ क्षिप्रता भी चाहिए । कारण नवीनता तो किसी भी विध हेतु महत्त्वपूर्ण होती है किन्तु क्षिप्रता तो लघुकथा का एक अत्यन्त विशिष्ट गुण है, बिना क्षिप्रता के तो लघुकथा में वांछित धार आएगी ही नहीं ।
रायबरेली के जवाहर इन्दु नवें दशक के अन्त में इस विध में थोड़ा-बहुत सक्रिय दिखे । बाद में शनैः शनैः लघुकथाएँ लिखते रहे । मूलतः ये कवि थे । किन्तु लघुकथा में फिर भी इतना तो वे कर ही गये कि उनका ‘कला का मूल्य’ नामक एक संग्रह आ गया । चर्चा योग्य उसमें अत्यल्प रचनाएँ ही मिलती हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य संग्रह प्रकाश में आये वे हैं- रघुविन्द्र यादव (‘बोलता आईना’ एवं ‘अपनी-अपनी पीड़ा’), राधे श्याम भारतीय ((अभी बुरा समय नहीं आया है), बालकृष्ण शर्मा ‘गुरु’ (गुरु-ज्ञान), सुभाष चन्द्र लखेड़ा (लघुकथाएँ: वैज्ञानिक की कलम से), सुनील विकास चौधरी (फोकस), आरिफ मोहम्मद (गाँधीगिरी), प्रदीप शशांक (वह अजनबी) इत्यादि । इनमें राधे श्याम भारतीय की लघुकथाओं में तो वह दम-खम है ( जो भविष्य में अपने श्रम एवं सोच के बलबूते पर अपना लोहा मनवा सकतीं हैं। इसी श्रेणी में नागपुर की उषा अग्रवाल ‘पारस’ को भी रखा जा सकता है। इसके संपादन में एक लघुकथा-संकलन ‘लघुकथा वर्तिका’ आया था, जिसने अच्छा नाम अर्जित किया था। अभी तक स्वयं उषा ने बहुत लघुकथाएँ तो नहीं लिखीं, किन्तु फिर भी इतनी तो लिखी ही हैं कि ‘पड़ाव और पड़ताल’ में अपनी श्रेष्ठता के बलबूते पर स्थान पा सकें। राधेश्याम भारतीय एवं उषा अग्रवाल ‘पारस’ के अतिरिक्त ‘पड़ाव और पड़ताल’ में इस यानी पन्द्रहवें खंड में अन्य चार लघुकथाकार खेमकरण सोमन, मनोज सेवलकर, शोभा रस्तोगी और संतोष सुपेकर हैं, जिन्होंने अपना लोहा भले ही न मनवाया हो, किन्तु इन्होंने यह तो बता ही दिया है कि आने वाले कल की लघुकथा की डोर उनके हाथों में हो सकती है और ये निकट भविष्य में लघुकथा को बहुत कुछ नया दे सकते हैं जिस पर लघुकथा गर्व कर सकती है । यहीं यह बताना प्रासंगिक होगा कि जहाँ शोभा रस्तोगी, संतोष सुपेकर और मनोज सेवलकर अपने लघुकथा सृजन में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं वहीं खेमकरन सोमन सृजन के साथ-साथ ये लघुकथा विषयक शोध एवं आलोचना में भी स्वयं को सिद्ध करने का प्रशंसनीय प्रयास कर रहे हैं। इन दिनों ये लघुकथा में ही पीएच. डी. की उपा्धि हेतु शोधरत हैं।
इनके अतिरिक्त सावित्री जगदीश (सच की परछाइयाँ), लक्ष्मी रूपल (आप ठीक कहते हैं), लक्ष्मी शर्मा (मुखौटे) इत्यादि लघुकथा-संग्रह भी आश्वस्त करते हैं।रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ के अनुसार, इक्कीसवीं सदी के वर्ष 2010 के पश्चात् इस विधा के सृजन-क्षेत्र में सक्रिय होते हैं, उनमें डॉ• हरदीप कौर सन्धु, प्रियंका गुप्ता, अनिता ललित, रचना श्रीवास्तव, डॉ• पूरन सिंह, सीमा स्मृति, डॉ•सुधा ओम ढींगरा, भावना सक्सेना, शेफाली पाण्डेय, राधेश्याम भारतीय, दीपक मशाल, आरती स्मित, रेखा रोहतगी, शशि पाधा, सपना मांगलिक, डॉ• मंजुश्री गुप्ता, डॉ• सुधा गुप्ता, डॉ• उर्मिला अग्रवाल, नरेन्द्र कुमार गौड़, सुमन कुमार घई, कमला निखुर्पा, कृष्णा वर्मा, मंजु मिश्रा, इला प्रसाद, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, निरुपमा कपूर, मंजीत कौर ‘मीत’, सुधा भार्गव, पीयूष द्विवेदी ‘भारत’, सुरेन्द्र कुमार पटेल इत्यादि अन्य अनेक ऐसे हैं कि जिनकी लघुकथाओं को लघुकथा डॉट कॉम, सर्जना, संरचना, शोध दिशा के नये अंकों में देखा-परखा जा सकता है।डॉ• हरदीप कौर सन्धु तो हिन्दी-पंजाबी दोनों भाषाओं में समानांतर लिख रही हैं। हिन्दी में इनकी लघुकथाओं में ‘खूबसूरत हाथ’, ‘घर और कमरे’, ‘शगुन’,‘रब की फोटो’, ‘जब जागो तब सवेरा’, ‘दीवार में कील’ इत्यादि ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है, जिससे इनके लघुकथा-सृजन के प्रति काफी आशाएँ बँधती हैं ।अनिता ललित मूलतः कवयित्री है ;किन्तु इनकी लघुकथाएँ शोध दिशा, सर्जना, लघुकथा डॉट कॉम के अतिरिक्त अन्य अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। ‘रस्म’ लघुकथा ने इन्हें लघुकथाकार के रूप में अच्छी पहचान दी है।
कोई भी लेखक जीवन में अनेक-अनेक रचनाएँ लिखता है, किन्तु उसकी पहचान बहुत कम रचनाओं से ही बनती है। पहचान बनने के अनेक-अनेक और अलग-अलग कारण हो सकते हैं, और होते हैं चन्द्रध्र शर्मा ‘गुलेरी’ ने मात्र तीन कहानियाँ लिखीं और उनमें भी मात्र ‘उसने कहा था’ कहानी ने ही उन्हें कहानी-जगत् में अमर कर दिया। आज भी इस कहानी का जवाब नहीं । विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर यह आज भी विशिष्ट मानी जाती है। प्रेमचंद ने लगभग दो-सौ कहानियाँ लिखीं, किन्तु जिनपर इनकी श्रेष्ठता की चर्चा होती है उनकी संख्या दस से अधिक नहीं है। इसी प्रकार लघुकथा-लेखक भी इसके अपवाद नहीं हैं। इक्कीसवीं सदी के लेखक भी विपुल मात्रा में लघुकथाएँ लिख रहे हैं,किन्तु अभी तक जिन लघुकथाओं से उनकी पहचान बन रही है, उनकी चर्चा यहाँ प्रासंगिक होगी । सुधा भार्गव (मुफ्त की सेवाएँ), रघुविन्द्र यादव (शुभ-अशुभ), मंजीत कौर ‘मीत’ (सयानी), जगदीश राय कुलरियां (एहसास), प्रियंका गुप्ता (भेड़िए), सुचिता वर्मा (थकान), डॉ• पूरन सिंह (बचा लो उसे), पीयूष द्विवेदी ‘भारत’ (लिटमस टेस्ट), सुरेन्द्र कुमार पटेल (सोशल साइट्स) इत्यादि । और इन सभी कथाकारों की यात्रा पूरी सक्रियता से जारी है। आशा है कि निकट भविष्य में शीघ्र ही इनकी अन्य अनेक-अनेक ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हमें पढ़ने को मिलेंगी, जो संभव है, लघुकथा के इतिहास में अपना उल्लेखनीय स्थान बना सकें।
इन सभी लघुकथाओं की विशेषता यह है कि इनके कथानक अपने समय के सच की विश्वसनीय और सार्थक अभिव्यक्ति हैं तथा इनका शिल्प पूर्णतः विषय-वस्तु के सर्वथा अनुरूप है। इन सभी का प्रतिपादन इतना सुन्दर एवं सटीक है कि वह संवेदना के स्तर पर हृदय में कहीं गहराई तक जाकर स्पर्श करता है। कहने का तात्पर्य यह है, ये सभी लघुकथाएँ बढ़ई की तरह कुर्सी-मेज को ठोक-ठाक कर नहीं बनायी गयी हैं, अपितु ये रची गयी हैं, वह भी सहज-स्वाभाविक ढंग से । जीवन के आसपास से लिये गये कथानकों का सुशिल्पित ढंग से प्रस्तुतीकरण इन लघुकथाओं की विशेषता है। सभी लघुकथाओं की भाषा-शैली सर्वथा पात्रों के चरित्रों के अनुकूल है यानी उच्चरित भाषा के माध्यम से रचना को यथार्थ के ध्रातल पर पूरी तरह उतारने का सार्थक प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं, इनकी श्रेष्ठता में सटीक शीर्षक भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता प्रतीत होता है। अपने इन्हीं गुणों के कारण ये सभी लघुकथाएँ श्रेष्ठ बन गयी हैं और इक्कीसवीं सदी में अब तक लिखी गयी लघुकथाओं में ये पांक्तेय हैं। यही इनकी बड़ी उपलब्धि है।फरीदाबाद की मीनाक्षी जिजीविषा भी विगत एक दशक से लघुकथा-जगत् में सक्रिय है। उसका एक संग्रह ‘इस तरह से भी’ भी प्रकाश में आ चुका है। उसकी लघुकथाओं में ‘संज्ञान’ एवं ‘स्त्री-स्वतंत्रता’ से पाठक भली-भाँति परिचित हैं। किन्तु इसे अभी काफी श्रम करना होगा । डॉ•अंजु दुआ ‘जैमिनी’ भी विगत डेढ़ दशक से सक्रिय है। इसने अपने को सिद्ध भी किया है। ‘कस्तूरी गंध’ संग्रह की लघुकथाएँ इसका प्रमाण हैं। इसकी लघुकथाओं में ‘उसका आदमी’, ‘पुनरावृत्ति’, ‘हतप्रभ’ इत्यादि चर्चित हैं ।
आशालता खत्री कोई जाना-पहचाना नाम तो नहीं है, किन्तु इसका एक संग्रह ‘बेटी है ना’ आ चुका है। जिससे भले ही पाठक परिचित न हों, किन्तु इसकी ‘दोषी कौन ?’, ‘वारिस’ आदि लघुकथाएँ अच्छी हैं, जिससे इसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।डॉ• इन्दु गुप्ता मूलतः कहानी विधा से जुड़ी हैं। हाइकु आदि भी लिखती हैं। इसी सदी में इनका एक लघुकथा-संग्रह ‘भविष्य से साक्षात्कार’ प्रकाश में आया । ‘खुद्दारी’, ‘देश की माटी’ आदि लघुकथाएँ इनकी पहचान हैं। इसी श्रेणी में मनजीत शर्मा ‘मीरा’, संतोष गर्ग, सरोज गुप्ता, डॉ•सुनीति रावत इत्यादि का नाम भी लिया जा सकता है । इन लेखिकाओं के क्रमशः लघुकथा-संग्रह ‘खबर है कि’, ‘अपनी-अपनी सोच’, ‘संयोग’, ‘तीर तरकश के’ प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु ये सभी संग्रह चर्चा के घेरे से पर्याप्त दूरी पर रहे हैं, कारण संभवतः इनकी लघुकथाओं में परिपक्वता का अभाव हो सकता है। वस्तुतः मुझे ऐसा लगता है कि नयी पीढ़ी को संग्रह प्रकाशित कराने हेतु बहुत जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए ,अपितु अपनी रचनाओं पर जी-तोड़ श्रम करके पाण्डुलिपि तैयार करनी चाहिए और तब किसी सिद्धहस्त लघुकथाकार से उसे दिखवा भी लेना चाहिए । परन्तु प्रायः लोग अपने झूठे अह से ऐसा नहीं करते जबकि विध का पांक्तेय हस्ताक्षर बनने हेतु यह प्रक्रिया अनिवार्य है।
डॉ•शील कौशिक पिछली सदी के अंत से इस विधा में सक्रिय हैं और इस सदी में तो इन्होंने अपने कार्यों द्वारा स्वयं को सिद्ध भी किया है। इनके दो लघुकथा-संग्रह क्रमशः ‘उसी पगडंडी पर पाँव’ और ‘कभी भी-कुछ भी’ प्रकाश में आ चुके हैं। इनकी लघुकथाओं में ‘सरोकार’, ‘खबर’, ‘नई बयार’, ‘हवा के विरुद्ध’, ‘अपने लिए’, ‘हिसाब-किताब’ आदि काफी चर्चित एवं श्रेष्ठ हैं ।
डॉ• मुक्ता हरियाणा साहित्य अकादमी की निदेशक रह चुकी हैं। इन्हीं के निदेशकीय कार्य-काल में ‘हरिगंधा’ का एक लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था । वस्तुतः लघुकथा-जगत् में इनकी पहचान इसी अंक से बनी । ‘मुखरित संवेदनाएँ’, ‘आखिर कब तक’ और ‘कैसे टूटे मौन’ इनके तीन संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं, किन्तु ये चर्चित नहीं हो सके। यों ”लोग” ‘बेटी का दुःख’, ‘अपनत्व’, ‘आखिर कब तक’ इत्यादि श्रेष्ठ लघुकथाओं के कारण इनके नाम से परिचित हैं। इंदिरा खुराना यों तो गत सदी से ही लिखती आ रही हैं, किन्तु ‘औरत होने का दर्द’ एवं ‘गँधारी की पीड़ा’ इनके संग्रह इसी सदी में आये और चर्चित होने के साथ-साथ ‘गंधारी की पीड़ा’ पुरस्कृत एवं सम्मानित भी हुआ । ‘कुंठा’, ‘उदर यज्ञ’, ‘और ‘कल्पनाएँ जल गईं’, ‘वोट का अधिकार’ इत्यादि इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इंद्रा बंसल बहुचर्चित लेखिका न होने के बावजूद ये गत सदी से ही लघुकथाएँ लिखती आ रही हैं। इनका संग्रह ‘मुखौटे’ प्रकाशित हुआ है, जिसकी ‘धनी संबंधी’, ‘प्रतिष्ठा का सवाल’, ‘जिसकी ख़ातिर’ इत्यादि लघुकथाएँ प्रशंसनीय हैं ।
रक्षा शर्मा ‘कमल’ मूलतः कवयित्री रही हैं, किन्तु इनका एक लघुकथा-संग्रह इक्कीसवीं सदी में ‘मंथन’ नाम से आया। ‘जूठन’, ‘भागीदार’, ‘कैसी विधि-विडम्बना’ आदि इनकी लघुकथाएँ हैं, जिनसे लोग परिचित हैं। सुधा जैन एक सुप्रतिष्ठ कवयित्री का नाम है। यों इनकी लेखनी प्रायः सभी विधाओं में चली । इनके तीन लघुकथा-संग्रह ‘रोशनी की किरणें’, ‘समय का सच’ और ‘जीवन के रंग’ प्रकाश में आये। ‘जीवन के रंग’ इसी सदी की देन है। इनकी लघुकथाओं में ‘पच्चीस प्रतिशत’, ‘लोहड़ी’, ‘पुरस्कार’, ‘विकल्प’ इत्यादि जानी-पहचानी एवं श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इस सदी के अन्य लेखक जो प्रायः पत्र-पत्रिकाओं में अपनी लघुकथाओं से उपस्थित रहते हैं जिन्हें लोग जानते भी हैं उनमें मुख्यतः डॉ•भगवान सिंह भास्कर, कुमार शर्मा ‘अनिल’, शैल चन्द्रा, डॉ•हरेराम पाठक, उज्ज्वला केलकर,दीपक मशाल, डॉ• सुनील कुमार,हारून रशीद, डॉ• यशोधरा राठौर, नीता श्रीवास्तव, विश्वम्भर प्रसाद चन्द्रा, डॉ•रामचन्द्र यादव, राजेन्द्र राकेश, नीलम राकेश, डॉ•लक्ष्मी विमल, डॉ•चन्द्रा सायता, घमंडीलाल अग्रवाल, ओमराज ‘ओ. पी. गुप्ता’, जगत् नन्दन सहाय, रितेन्द्र अग्रवाल, डॉ•ब्रजनन्दन वर्मा, बलिराम महतो ‘हरिचेरा’, शिवपूजन लाल ‘विद्यार्थी’, डॉ•नवनीत, मीना गुप्ता, प्रभात कुमार ध्वन, श्रीकांत व्यास, डॉ•जीतेन्द्र वर्मा, सीताराम शेरपुरी, ओजेन्द्र तिवारी, स्वाती गोदर, नरेन्द्र कुमार सिंह, उमेश कुमार पाठक ‘रवि’, जीतेन कुमार वर्मा, डॉ•अनीता राकेश, रामनिवास बांयला ‘शौरिश’, अरुण कुमार भट्ट, डॉ•महाश्वेता चतुर्वेदी, जयशंकर तिवारी ‘घायल’, प्रभात दुबे, अशोक आनन, कान्तिा भारद्वाज ‘कलाश्री’, पूनम आनंद, संजू शरण, डॉ•सरोज गुप्ता, जय सिंह आसावत, अब्बास खान ‘संगदिल’, अश्विनी कुमार पाठक, शिवचरण सेन ‘शिवा’, नंदकिशोर बावनिया, राना लिधौरी, सुशीला राठौड़, रमेश मनोहारा, दिनेश कुमार छाजेड, हरिचरण अहरवाल ‘निर्दोष’, उत्पल कुमार चौधारी, सीताराम पाण्डेय, के. एल. दिवान, ओमीश पारुथी, राजेन्द्र बहादुर सिंह ‘राजन’, विश्वम्भर पांडेय ‘व्यग्र’, श्याम ‘अंकुर’, डॉ•नीलम खरे, पवन बत्तरा, शिबली ‘सना’, डॉ•शरद नारायण खरे, कन्हैया लाल अग्रवाल ‘आदाब’, संजय वर्मा ‘दृष्टि’, एन. एस. धीमान, रोहित यादव, पूर्णिमा मित्रा, अंसारी एम. ज़ाकिर, डॉ•अनिल शर्मा ‘अनिल’, कीर्ति शर्मा, डॉ•अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’, जिनेन्द्र बी. जैन, श्याम लाल कौशल, अशोक जैन पोवाल, गुरुप्रीत सिंह, मोहन लोध्यिा, डॉ•जयशंकर शुक्ल, रघुराज सिंह कर्मयोगी, सरोज व्यास, शिव डोयले, देवी नागरानी, कुँवर प्रेमिल, भगवान अटलानी, डॉ•दशरथ असानिया, बी. एल. परमार, किरण राज पुरोहित ‘नितिला’, महावीर रवांल्टा, डॉ•दिवाकर दिनेश गौड़, राकेश ‘चक्र’, कुंदन सिंह ‘सजल’, हंसमुख भाई रामदेपुत्रा, देशपाल सिंह सेंगर, गौरी शंकर वैश्य ‘विनम्र’, मदन शर्मा, नानूचंद आसेरी, श्याम मोहन दुबे, हरिश्चन्द्र गुप्त, डॉ•शैल रस्तोगी, राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, दिलीप मारिया, संतोष सुपेकर, माणक तुलसीराम गौड़, सुरेश वर्मा, मोहन लाल भागी, रवि प्रताप सिंह, अमित कुमार लाडी, आकांक्षा यादव, कृष्ण कुमार यादव, गांगेय कमल भारतीय, मनोहर शर्मा ‘माया’, दिनेश नंदन तिवारी, जीवित राम सेतपाल, रामप्यारे रसिक, जयंत कुमार योरात, सुदर्शन रत्नाकर, भावना सक्सेना, हेमध्र शर्मा, रंजना फतेपुरकर, मनोज सेवलकर, राजेन्द्र नागर निरंतर, डॉ•शंकर प्रसाद, डॉ•निरुपमा राय, निर्मला सिंह, डॉ•मिथिलेश अवस्थी, योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, राजकुमार ‘प्रेमी’, आनंद दीवान, संतोष श्रीवास्तव, डॉ•भारती, मुसर्रत इमाम, विजय कुमार, सत्यनारायण भटनागर, अनिल रश्मि, नर्मदेश्वर चौधरी, डॉ•मेहता नगेन्द्र सिंह, रामपाल सिंह, महावीर रवांल्टा, अनिल यादव, डॉ•बी. के. मिश्र, घुँघरू परमार, डॉ•मधुबाला वर्मा, रचना गौड़ भारती, राधा कृष्ण सिंह, अरुण शाद्वल, बाँके बिहारी, अनिता रश्मि, अश्विनी कुमार ‘आलोक’, आनंद दिवान, इंदिरा दांगी, ॠचा शर्मा, कुमुद शाह, कृष्णचंद महादेविया, जयमाला, देवेन्द्र गो. होलकर,नंदलाल भारती, पल्लवी त्रिवेदी, पूर्णिमा मित्रा, प्रताप सिंह सोढ़ी, फरीदा जमाल, गणेश प्रसाद महतो, मनीष कुमार सिंह, मनोज अबोध, मो साजिद खान, वाणी दवे, विद्या लाल,विनय कुमार पाठक, संगीता शर्मा, सत्यप्रकाश भारद्वाज, सुधा भार्गव, सुनील सक्सेना, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेन्द्र कुमार भक्त, सुरेन्द्र गोयल, हरदान हर्ष, हंसमुख रामदेपुत्रा, धीरेन्द्र भारद्वाज इत्यादि हैं, जो वर्तमान में इस लघुकथा-जगत् में पूरी तरह सक्रिय हैं और अपने-अपने स्तर पर लघुकथा-सृजन में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। इनमें से अनेक ऐसे हैं जो आनेवाले कल की लघुकथा के पांक्तेय हस्ताक्षर हो पाने की क्षमता रखते हैं। इनमें अनेक ऐसे भी हैं, जिनके लघुकथा-संग्रह भी प्रकाश में आ चुके हैं, जो इस प्रकार हैं-रचना गौड़ भारती (मन की लघुकथाएँ), भगवान सिंह भास्कर (‘हाथी के दो दाँत’ और ‘साहित्यकार का दर्द’) इनके दो संपादित संग्रह भी हैं-‘वृक्षकोटर से….’ एवं ‘हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ । डॉ•लक्ष्मी विमल (सादा लिफाफा), डॉ•महाश्वेता चतुर्वेदी (सर्प दंश), रामनिवास बांयला ‘शौरिश’ (हिमायत), गणेश प्रसाद महतो (मानवता के हत्यारे), नैनूचंद ‘आसेरी’ (समय की सीपियाँ), राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’ (पहचान), दिलीप भाटिया (छलकता गिलास), संतोष सुपेकर (बंद आँखों का समाज), माणक तुलसीराम गौड़ (कर्तव्य-बोध), सुरेश वर्मा (आलोक-प्रसंग), काँच के टुकड़े (सं गोपाल अग्रवाल) इत्यादि । इन संग्रहों का अवलोकन करने पर राधेश्याम पाठक ‘उत्तम’, दिलीप भाटिया, संतोष सुपेकर इत्यादि के संग्रह भावी लघुकथा के प्रति काफी हद तक आश्वस्त करते हैं। शेष तो गिनती गिनाने मात्र की भूमिका का ही निर्वाह करते प्रतीत होते हैं ।
वस्तुतः बात यह है कि प्रायः लोग लघुकथा को साहित्य में प्रवेश का ‘शॉर्टकट’ रास्ता समझ लेते हैं और किसी भी घटना को केन्द्र में रखकर बिना किसी गंभीर विचार-विमर्श या चिंतन-मनन के कुछ पंक्तियों की रचना लिखकर समझते हैं इन्होंने कमाल की लघुकथा लिख दी है। जबकि लघुकथा देखने में ही लघुआकारीय है, किन्तु इसकी रचना-प्रक्रिया एवं रचना-कौशल अन्य विधाओं की तरह ही कापफी जटिल एवं श्रम साध्य है। बिना अपनी अग्रज पीढ़ी की गंभीर लघुकथाओं एवं गंभीर लघुकथा विषयक आलेखों को पढ़े-समझे श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखना दिवा-स्वप्न देखने जैसा है।इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं, जो संख्या की दृष्टि से तो बहुत नहीं लिख रहे हैं, किन्तु उनकी रचनाओं में गुणवत्ता कूट-कूट कर भरी है। वस्तुतः भावी लघुकथा का भार इन्हीं लेखकों के कंधें पर भी आ सकता है यदि ये लोग अपने लेखन की थोड़ी त्वरा बढ़ा दें । इन कथाकारों की लघुकथाओं में जहाँ हमें जीवन का यथार्थ अपनी पूरी विश्वसनीयता के साथ मिलता है, वहीं कल्पना के साथ भी उसका तालमेल बहुत सटीक है और संवादों के माध्यम से आयी सटीक नाटकीयता इन लघुकथाओं को और भी अधिक जीवंत बना देती है। इनकी लघुकथाओं में प्रत्यक्ष होती यही विशिष्टताएँ इन रचनाकारों को आगे ले जाने में सहायक हो सकती हैं। ऐसे रचनाकारों में कमल लक्ष्मीचंद शर्मा, रेखा सूरी, रणजीत आज़ाद काझला, डॉ•संदीप कुलकर्णी, मुकेश जोशी, राज हीरामन, स्मृति जोशी, ज्योति जैन, वाणी दवे, खुदेजा खान, हनुमान सिंह तमनाशक, किसलय पंचोली, गुरदीप सिंह पुरी, परिपूर्ण त्रिवेदी, नियति सप्रे, सीमा पाण्डेय ‘खुशी’, गफूर ‘स्नेही’, महेन्द्र महतो, डॉ•कृष्ण भूषण श्रीवास्तव, डॉ•दिनेश नंदन तिवारी, डॉ•गीता गीत, अशोक श्रीवास्तव ‘सिफर’, सुरेन्द्र प्रसाद ‘गिरी’, डॉ•पूनम शर्मा, संगीता शर्मा, आशा भाटी, अरविन्द अवस्थी, डॉ•सुनीता मिश्रा ‘सुनीति’, राकेश प्रवीर, रवीन्द्र वर्मा इत्यादि का नाम सहज ही लिया जा सकता है।
सन् 2006 में महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ के संपादकत्व में ‘कोसी अंचल की लघुकथाएँ’ नामक पुस्तक प्रकाश में आयी थी। इसमें प्रकाशित प्रायः सभी कथाकार यथा-अरविन्द कुमार ‘राही’, मंजुला उपाध्याय, डॉ•रेणु सिंह, सुनील कुमार पाण्डेय, श्रीनिवास सिंह, जयकान्त ठाकुर, संकल्प शिखर, सत्यभामा सिंह, हरि दिवाकर, मोहन कुमार प्रशांत, रमण कुमार सिंह, तारानन्द झा ‘तरुण’, तारानंद वियोगी, केदार कानन, सुष्मिता पाठक, डॉ•विनय कुमार चौधरी, डॉ•शांति यादव, सुरेन्द्र भारती, अलका वर्मा, ध्रुव नारायण सिंह ‘राई’, महेश कुमार सर्रापफ, भगवान चन्द्र विनोद, रामचन्द्र मेहता, सुरेश कुमार भारती, रामनारायण यादव ‘रमेश’, अरुण अभिषेक, आर्या दास, डॉ•भूपेन्द्र मधेपुरी, उज्ज्वल शैलाभ और जनार्दन यादव की लघुकथाएँ प्रकाशित थीं । इस संकलन की प्रायः रचनाएँ साधारण स्तर की थीं, किन्तु कलाधर, अरविन्द कुमार ‘राही’, भोला पंडित ‘प्रणयी’, महेन्द्र नारायण ‘पंकज’, मंजुला उपाध्याय इत्यादि की रचनाएँ अवश्य चर्चा के योग्य थीं। एक क्षेत्रा विशेष के लघुकथाकारों से परिचय कराने के कारण इस पुस्तक का महत्त्व स्वीकार किया जाएगा ।
2009 में गणेश प्रसाद महतो की पुस्तक ‘मानवता के हत्यारे’ प्रकाश में आयी ,जिसमें शिक्षा देती आदर्शवादी लघुकथाएँ हैं, ये शास्त्रीय शर्तें भले ही पूरी न करती हों, किन्तु मानव-मूल्यों हेतु राह अवश्य दिखाती हैं। सुमति कुमार जैन के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘लघुकथा-संसार’ 2011 में प्रकाशित हुआ। इस संपादित कृति में जहाँ कतिपय चर्चित कथाकारों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं, वहीं इक्कीसवीं सदी के नये-नये रचनाकार भी अपनी यथासंभव क्षमता के साथ प्रस्तुत हैं, जिनमें पूनम अरोड़ा, हीरा लाल मिश्र, गोविन्द भारद्वाज, अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, रमेश गौरव, अनूप घई, श्यामा शर्मा, ओम प्रकाश मंजु, शामलाल कौशल, वीना जैन, नीलिमा टिक्कू, नमन कुमार राठी, संतोष गोयल इत्यादि की रचनाएँ ध्यान तो आकर्षित करती हैं, किन्तु अभी इनमें परिपक्वता की आशा करना व्यर्थ है। उम्र की परिपक्वता और साहित्यिक परिपक्वता में बहुत अंतर होता है। साहित्य विशुद्ध साधना की चीज़ है, जिसे साधने से ही प्राप्त किया जा सकता है। जो जितना साधेगा उतना ही पायेगा । अतः इक्कीसवीं सदी के रचनाकारों में जिन्होंने साधना एवं श्रम किया, आज वो चर्चित कथाकारों के साथ पूरे दम-खम के साथ खड़े हैं। अतः इस पीढ़ी को अभी पर्याप्त श्रम एवं साधना की आवश्यकता है। डॉ•सुधाकर आशावादी ऐसे ही परिपक्व रचनाकारों में हैं, जिन्होंने अपनी साधना एवं श्रम से स्वयं को साधा है। इनकी यह साधना एवं श्रम इनकी ‘चैन’, ‘अजीब लोग’, ‘लम्हे’, ‘रंगत’, ‘लाभ का गणित’,‘छात्रवृत्ति’, ‘अतीत’ इत्यादि लघुकथाओं में देखा जा सकता है। अभी तक इनके ‘सरोकार’, ‘धूप का टुकड़ा’, ‘अपने-अपने अर्थ’, ‘मुखौटे’ और ‘सुधाकर आशावादी की प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ नामक संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं। इनकी लघुकथाओं की विशेषता साफ-सीधे शब्दों में अपने समय की विडंबनाओं को प्रत्यक्ष करना है।प्रदीप शशांक का लघुकथा-संग्रह 2013 में ‘वह अजनबी’ के नाम से प्रकाश में आया। इनकी लघुकथाओं से इनका वर्तमान पूरी शक्ति के साथ अपने सच को प्रत्यक्ष करता है।उदाहरण स्वरूप इनकी लघुकथा ‘आतंकवाद’ को देखा जा सकता है। इनकी प्रायः लघुकथाओं में पाखंड, प्रशासनिक तिकड़मबाजी तथा वर्तमान की अन्य समस्याओं को केन्द्र में रखकर समाधान की ओर संकेत किया गया है। यों इनकी अन्य रचनाओं में ‘ज़िन्दगी’, ‘मजबूरी’, ‘विखंडित न्याय’, ‘पुरस्कार’ आदि अपने होने का सुखद एहसास कराती हैं।अमित कुमार (गोरखपुर) की उनतालिस लघुकथाओं का संग्रह ‘विरासत’ 2014 में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने विषय तो ठीक उठाये, किन्तु सटीक शिल्प के अभाव में इनकी लघुकथाएँ अपनी वो चमक नहीं दिखा पायीं, जिनकी अपेक्षा थी, फिर भी इनसे यह आशा तो बनती ही है कि आने वाले समय में इनकी लघुकथाएँ और बेहतर सटीक शिल्प में आएँगी ।
इसी प्रकार आज दूर-सुदूर अनेक-अनेक लेखक अपने-अपने ढंग की लघुकथाएँ लिख रहे हैं, किन्तु मेरी दृष्टि से जो लोग गुज़रे, वो भी जिनमें कुछ दम-खम था, इस लेख में मैंने उनकी चर्चा तटस्थता से करने का ईमानदार सत्प्रयास किया है। मेरा निर्णय सही है या ग़लत, यह मैं नहीं जानता, किन्तु मुझे जो ठीक लगा मैंने वह अवश्य लिखा । किसी की अवहेलना या प्रशस्ति-गान मेरा उद्देश्य नहीं रहा है, यदि किसी का नाम या चर्चा करने से छूट गया हो तो यह मेरी अज्ञानता ही हो सकती है, ऐसी स्थिति में वैसे लेखक मुझे क्षमा करेंगे।
इक्कीसवीं सदी के लघुकथाकारों एवं लघुकथाओं से गुज़रने पर मैं आश्वस्त हुआ हूँ कि भावी लघुकथा अच्छे हाथों में है, किन्तु इस सदी के लेखकों को अभी साध्ना एवं श्रम तो भरपूर करना होगा, तभी यह पीढ़ी अपनी पूर्व की पीढ़ी के कार्यों को सही अर्थों में और आगे ले जाने में समर्थ हो सकेगी ।
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अतिरंजना और फैंटेसी में लिपटा क्रूर सामाजिक सत्य

August 31, 2015, 8:05 pm

सुकेश साहनी कई दशकों से हिन्दी लघुकथा साहित्य के परिवर्द्धन में सक्रिय हैं। उनकी रचनाएँ कई भाषाओं में अनूदित और चर्चित रही हैं। सुकेश का लेखकीय व्यक्तित्व अपने समशील रचनाकारों की तरह यथार्थ की पकड़ और सम्प्रेषण की सहजता के आग्रह से निर्मित है लेकिन जो बात उन्हें अलग पहचान देती है वह उनके शिल्प की मौलिकता में निहित है। इसमें सन्देह नहीं कि उनकी लघुकथाओं का विधान किसी एक ढर्रे पर लीकोंलीक नहीं चलता, बल्कि कथ्य के अनुरूप अभिव्यक्ति को मारकता प्रदान करने के लिए वे शैली-शिल्प के स्तर पर तरह-तरह के प्रयोग करते दिखाई देते हैं। लघुकथा की प्रभवशीलता के लिए व्यंग्य, ध्वनि या व्यंजना की शक्ति को वे पहचानते हैं और उसका भली प्रकार इस्तेमाल करने में कुशल हैं। अतिरंजना और फैंटेसी का उन जैसा सटीक प्रयोग हर किसी के वश की बात नहीं। विस्मय और आकस्मिकता को भी सुकेश अच्छी तरह साध लेते हैं तथा साधारण स्थितियों के माध्यम से असाधारण निष्कर्षों को दर्शाना भी उन्हें अपनी विधा का उस्ताद बनाता है। संकेतों और अप्रस्तुतों की योजना उनकी कथाओं को काव्यभाषा का अतिरिक्त संस्कार प्रदान करती है। साथ ही यह भी कहना जरूरी है कि मनुष्य और समाज की तमामतर विकृतियों और विच्युतियों के समाकालीन बोध के बावजूद यह कथाकार पराजित या हताश नहीं है, बल्कि मनुष्यता की सर्वोंपरिता में विश्वास के कारण उसकी कलम जुझारू पात्रों का सृजन करने से बाज नहीं आती। यही वह चीज है जो सुकेश साहनी के लघुकथाकार को सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित रचनाकार का दर्जा दिलाने में समर्थ है।
लघुकथा अपनी सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और व्यंजकता में बहुत बार कविता के सर्वाधिक निकट की विधा प्रतीत होती है। संक्षिप्तता या सामाजिकता तो इस विधा की केन्द्रीय शर्त है ही। यही कारण है कि यहाँ शीर्षक भी कथ्य और शिल्प का अविभाज्य अंग होता है। इस दृष्टि से सुकेश के कुछ शीर्षक खूब सटीक बन पड़े हैं-गोश्त की गन्ध, चादर, आइसबर्ग, नपुंसक, शिनाख्त। ये सभी कथ्य के सबसे मार्मिक और विचलित करनेवाले अंश को अंजाने ही अग्रप्रस्तुत कर देते हैं।
इसके अलावा अपनी इन लघुकथा रचनाओं में सुकेश समापन के सम्बन्ध में काफी सतर्क प्रतीत होते हैं। आरम्भ कहीं से भी कर सकते हैं वे, और उसे रोचक भी बना सकते हैं; पर अन्त के मामले में वे रिस्क लेने के पक्षधर नहीं है। वे अपने प्रतिपाद्य को पाठक के मन-मस्तिष्क में रोपित करना चाहते हैं ताकि लघुकथा अपने सामाजिक उद्देश्य में सफल हो सके; भले ही इसके लिए उन्हें अन्त में लेखकीय टिप्पणी जोड़नी पड़े। दरअसल इस तकनीक द्वारा वे व्यंजना को अभिधा में ढालते हैं और रचना को सुख-बोध बनाने का यत्न करते हैं। यही कारण है कि ‘गोश्त की गंध’ के अन्त में वे यह कहना नहीं भूलते कि ‘‘काश, यह गोश्त की गन्ध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!’’ ‘चादर’ का अन्त भी प्रति उत्कर्ष से किया गया है जो पाठक को एक्टिव बनाना चाहता है-‘‘मैंने उसी क्षण उस खूनी चादर को अपने जिस्म से उतार फेंका।’’ ‘‘जागरूक’’ का अन्त इसकी तुलना में अधिक सांकेतिक है, ‘‘उनके आदेश पर बहुत-से वाचमैन लाठियाँ-डण्डे लेकर कोठियों से बाहर निकले और उस कुत्तों पर पिल पड़े।’’
‘आइसबर्ग’, ‘नपुंसक और ‘शिनाख्त’ का भी समापन लेखकीय टिप्पणी और चरम घटना को जोड़कर अत्यन्त कलापूर्ण और प्रभावी ढंग से किया गया है। ‘आइसबर्ग’ के अन्तिम अनुच्छेद में कई सारी भीतरी और बाहरी घटनाएँ तीव्रता के साथ घटित होती हैं और पाठक की चेतना को झटका-सा देती हैं। यह विचित्र विरोधाभास अथवा विडम्बना ही है कि अब तक असुरक्षित अनुभव करता हुआ जो युवक बार-बार भयग्रस्त होकर अपनी पहचान बदल रहा था, उत्तेजित सिखों के परस्पर झगड़ने पर खुद को सुरक्षित महसूस करता है। लेखक यहाँ यह भी सूचना देता है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र में यह युवक अपने दोस्त के घर दो दिन बिताकर आया है इसीलिए उस युवक को दंगे के भयावह अमानुषिक दृश्य भी याद आते हैं, लेकिन लेखक अपनी कहानी को एक सकारात्मक नोट पर समाप्त करता है-बेटे को शरारतों की मधुर स्मृति के साथ। यथा-‘‘एकाएक लगा कि वह बेहद थक गया है। कर्फ्यू के बीच दोस्त के घर बिताए गए दो दिन उसकी आँखों में तैर गए-लुटती दुकाने….भागते-चीखते लोग…जलते मकान….टनटनाती दमकलें। उसने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। अगले ही क्षण वह सीट से सिर टिकाए अपने बेटे की नन्हीं शरारतों को याद कर मुस्करा रहा था।’’ इसी प्रकार ‘नपुंसक’ का अन्त विपथन (डिफ्लेक्षन) की तकनीक से किया गया है। उठा लाई गई मजदूरिन पर सामूहिक दुष्कर्म कर रहे युवकों के बीच शेखर अपनी संवेदनशीलता के कारण विरल आचरण करता है परन्तु कापुरुष कहे जाने के डर से अपने साथियों पर इसे प्रकट नहीं करता। परिणामतः उसका अन्तरंग स्वयं उसे धिक्कारता है मानो मुक्तिदाता स्वयं पौरुषहीनता का शिकार हो-अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपने ही पदचाप से उसके दिमाग में धमाके-से हो रहे थे-‘‘नपुंसक…नपुंसक…! मुक्तिदाता!….नपुंसक!’’‘शिनाख्त’ का अन्त इस दृष्टि से विशिष्ट है कि इसके माध्यम से आज के मनुष्य की पैसे की भूख का वह रूप सामने आता है जिसे लाशखोरी ही कहा जा सकता है। जैसे ही यह घोषणा होती है कि साम्प्रदायिक दंगबों में मारे गए लोगों के लिए पाँच-पाँच लाख रुपया मुआवजा दिया जाएगा, वैसे ही बलात्कार के बाद क्रूरतापूर्वक मार दी गई अज्ञात युवती के अनेक रिश्तेदार पैदा हो जाते हैं, ‘‘सर! ताज्जुब है…उस सिर कटी युवती की लाश पर अपना दावा करनेवाले बहुत-से लोग बाहर खड़े है, सर!’’
वस्तु-चयन में लेखक ने सामाजिक यथार्थ पर दृष्टि केन्द्रित रखी है। दहेज, घरेलू हिंसा, बलात्कार, स्त्री का बहुमुखी शोषण, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, क्रूरता, अमानुषिकता, भीड़ का उन्माद, मानवीय सम्बन्धों का क्षरण, मीडिया, श्रम से जुड़ा आत्मसम्मान, बालश्रम, वृद्धावस्था, गरीब की साधनहीनता, मध्य वर्ग की लालसा, हिन्दुस्तानियों की अंग्रेजियत और बाजारवाद का चक्रव्यूह जैसे प्रत्येक संवेदनशील प्राणी को विचलित करनेवाले ज्वलन्त विषयों को उन्होंने मार्मिक घटनाओं और जीवन्त पात्रों के सहारे झकझोरनेवाली अभिव्यंजना प्रदान की है। कथ्य और शिल्प की अनुरूपता के कारण ही ये लघुकथाएँ चुटियल होने का अहसास दिलाती हैं और साथ ही चोट भी करती हैं। मर्मस्थल पर वार करने में इनकी चरितार्थता का मर्म निहित है।
अतिरंजना, फैंटेसी, आकस्मिकता और विस्मय तत्त्व के सहारे बुनी गई लघुकथाओं में सुकेश ने सामाजिक यथार्थ के क्रूर और असामाजिक चेहरे के विद्रूप को रूपायित करने में पूरी सफलता पाई है। इस प्रकार की लघुकथाओं में पाठक को विचलित करने और आत्मसाक्शात्कार के लिए विवश करने की ताकत दिखाई देती है। अगर कहा जाए कि इस शिल्प में सुकेश साहनी की कहानी-कला सर्वाधिक प्रभविष्णुता के साथ उभरी है, तो शायद गलत न होगा। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ‘गोश्त की गंध’, ‘चादर’, ‘जागरूक’, और ‘ओए बबली’को देखा जा सकता है। ‘गोश्त की गंध’ में दामाद जब भोजन के लिए बैठता है तो यह देखकर वह सन्न रह जाता है कि सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिलकुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। आगे यह भी बताया गया है कि सास, ससुर और साले के किस-किस अंग का गोश्त दामाद की खातिरदारी के लिए उतारा गया है और किस तरह उसे छिपाने की असफल कोशिश केवल इसलिए की जा रही है कि दामाद नाराज न हो जाए। ‘चादर’ भी प्रतीकात्मक है। पवित्र नगर और पवित्र पर्वत की कल्पना का रहस्य तब खुलता है जब आख्याता अपनी चादर पर खून से लाल और तर थीं जबकि सभी हट्टे-कट्टे थे और कोई खून-खराबा भी नहीं हुआ था। चेतना को झटका तो तब लगता है जब यह बात समझ में आती है कि जिसकी चादर जितनी अधिक रक्तरंजित है वह उतना ही आश्वस्त होकर मूँछे ऐंठ रहा है। साम्प्रदायिक दंगों की जेनेसिस पर ऐसी कहानियाँ शायद कम ही लिखी गई होंगी। ‘जागरूक’ की अतिरंजना और आकस्मिकता इन दोनों कहानियों से भिन्न प्रकार की है। यहाँ संकटग्रस्त युवती की चीख-पुकार पर सभ्य संभ्रान्त भद्रलोक कान मूँदे सोया रहता है; लेकिन लावारिस कुत्तों बदमाशों पर भौंकते हैं। वश न चलने पर कुलीन कोठियों के विशाल बन्द दरवाजों तक भी जाते हैं। व्यंग्यपूर्वक लेखक यह दर्ज करता है कि इस प्रयास पर लोहे के बड़े-बड़े गेटों के उस पार तैनात विदेशी नस्ल के पालतू कुत्तों उसे हिकारत से देखने लगे। अन्ततः जब गुण्डे बलात्कार के अपने उद्देश्य में सफल होते दीखते हैं गली का कुत्ता मुँह उठाकर जोर-जोर से रोने लगता है। लड़की का रोना जिन्होंने नहीं सुना उन्हें कुत्तों का रोना सुन जाता है क्योंकि कुत्तों का रोना अशुभ होता है। लड़की का रोना क्या होता है-शुभ या अशुभ? ऐसे समाज का क्या होगा-कल्याण या विनाश? कई सवाल पाठक को बेचैन करते हैं; और लेखक सूचना देता है कि भद्र लोगों के इशारे पर बहुत-से वाचमैन अशुभसूचक कुत्तों को मार रहे हैं। लावारिस कुत्तों की तुलना में हमारा यह तथाकथित भद्रलोक किस तरह का पामोरियन कुत्ता है! कुत्तों जागरूक हैं, और मनुष्य? ‘ओए बबली’ में लेखक ने स्वप्न की तकनीक अपनाई है। पानी की खोज! निरन्तर और असमाप्त खोज। पानी नहीं मिलता। रेता मिलती है। गंगा-जमुनी दोआबा रेगिस्तान में बदल जाता है। कुआँ मिलता है-टशन और प्यास के विज्ञापनोंवाली खूबसूरत लड़कियों के बीच। कुएँ में पानी नहीं है, बर्फ के ढेले हैं, कूल ड्रिंक की बोतले हैं। माँ के लिए पानी खोजती बेटी फ्रॅाक में बर्फ के ढेले भरकर दौड़ती है पर बर्फ तो बिना पिघले ही उड़नछू हो जाती है। इस बीच माँ कुआँ खोद लेती है। स्वप्न टूटता है माँ के इस निर्देश के साथ कि ‘‘चल…जल्दी कर बेटी! बर्तनों की कतारे लगने लगी हैं। पानी का टैंकर आता ही होगा। आज तो घरमें खाना पकाने के लिए भी पानी नहीं है…बबली!1’’ और इस तरह आभासी विश्व पर यथार्थ पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है।
अपनी कथाभाषा के गठन में सुकेश जहाँ सहजता और प्रतीकात्मकता को मुहावरेदानी और आमफहम शब्दावली के सहारे एक साथ साधते है, वहीं सटीक विशेषणों, उपमानों और विवरणों के सहारे अभिव्यंजना को सौन्दर्यपूर्ण भी बनाते हैं। ये उनकी कथा-रचना के वे इलाके हैं जो उन्हें कथाकार के साथ-साथ उत्कृष्ट शैलीकार के रूप में प्रतिष्ठित कराने के निमित्त पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध कराते है। अतः सामाजिक यथार्थ और कलात्मकता को अपनी लघुकथाओं में साथ-साथ सम्भव कर सकनेवाले लेखकों की पंक्ति में सुकेश साहनी की प्रतिष्ठा सुनिश्चित मानी जानी चाहिए।
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विक्रम सोनी की लघुकथाएँ

January 31, 2016, 4:33 pm

आठवें दशक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि डॉ. सतीश दुबे के सम्पादन में 1979 में प्रकाशित ‘आठवे दशक की लघुकथाएँ’ है,हालाँकि उसी समय सशक्त हस्ताक्षरों के बीच विक्रम सोनी को इस संकलन में न लेना आश्चर्य की बात थी’- अपने एक लेख ‘लघुकथा : स्वरूप और विकास’ में डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा द्वारा विक्रम सोनी के प्रति की गई इस टिप्पणी की ओर विक्रम सोनी को कुछ लघुकथाओं पर बातचीत करते हुए बरबस मेरा ध्यान चला गया। दरअसल ऐसा न तो किसी पूर्वाग्रह के कारण हुआ, न ही किसी विशेष सन्दर्भ में। व्यक्तिगत तौर पर एक रचनाकार के रूप में विक्रम सोनी से मैं डॉ. जुनेजा की अपेक्षा वर्षों पूर्व से परिचित रहा हूँ। ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ की प्रकाशनावधि में विक्रम सोनी एक बीज के अंकुरित होने की प्रसव–प्रसूत का आनन्द गूँगे के गुड़ की तरह ले रहे थे, और अपने मित्रों के बीच ईमानदारी से यह कबूल कर रहे थे कि–अभी मैं छिपा रहा हूँ,छपा नहीं रहा हूँ।
इस दो टूक बात की प्रासंगिकता, तत्कालीन सन्दर्भ में यह भी है कि एक लेखक की हैसियत से विक्रम सोनी हमेशा ईमानदार रहे हैं, और यही कारण है कि उनकी रचनाओं में समय, आदमी, घटना, चरित्र, प्रसंग या प्रतीक इतने ईमानदारी से खड़े हैं कि वे बरबस लघुकथा के वैशिष्ट्य का स्थान ग्रहण करते नजर आते हैं। विक्रम सोनी नौवें दशक के उगते क्षितिज में चमकने वाले देदीप्यमान सितारे हैं। ‘लघुआघात’ पत्रिका के प्रकाशन के कारण उनकी प्रतिभा को और कौंध मिली। रचनाकार, समीक्षक होने के साथ–साथ सम्पादक होने के नाते अनेक नये–पुराने लेखकों की रचनाएँ उनकी निगाह से गुजरीं, इन सब कारणों ने लघुकथा जगत से विक्रम सोनी को ऐसे मिला दिया जैसे पानी से रंग।
लघुकथा लिखने के पहले लघुकथा के रचनात्मक धरातल से बखूबी परिचित विक्रम सोनी का लघुकथा के बारे में वक्तव्य है कि जीवन का मूल्य स्थापित करने के लिए व्यक्ति और उसके ‘काल’ से विवेच्य क्षण लेकर, इसे कम–से–कम और सारगर्भित शब्दों में असरदार ढंग से कहने की सफलतम विधा का नाम लघुकथा है–जो सीधे चिन्तन तन्तुओं को प्रभवित करती है…
जाहिर है कि विक्रम सोनी के लेखन का मूल उद्देश्य जीवन–मूल्यों को स्थापित करना भी रहा है, इसीलिए इनकी लघुकथाओं में कही उत्साह का छोर थामें तो कहीं समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नई पीढ़ी तथा समसामयिकता के अनुरूप सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए चिन्तित समाज के अगुआ पात्र बनकर चित्रित हुए हैं।
विक्रम सोनी की इस वैचारिक मानसिकता को लघुकथा–लेखन के तकनीकी पक्ष की कसौटी के सन्दर्भ में देखा जाना जरूरी है–वह भी उनकी उन लघुकथाओं के सन्दर्भ में जिनको एक पाठक लेखक के नाते विशेष रूप से चुना गया है।
लघुकथाकार लघुकथा को बुनते हुए प्राय ऐसे कथानक चुनता है जिनका रचनागत वैशिष्ट्य लघु हो। किसी बड़े कथानक को बड़े कैनवास पर संयोजित करने की अपेक्षा आकार में लघु बना देना लघुकथा नहीं है। लघुकथा, कथानक को लघु करना नहीं, लघु कथानक को लघु फलक पर जीवन के जीवन्त क्षणों को कलागत स्पर्श देकर बड़ा बनाता है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ ‘जूते की जात’, ‘मीलों लम्बे पेंच,– ‘अन्तहीन सिलसिला’,‘अजगर’, ‘बनैले सुअर’, ‘बातचीत’ या ‘लाठी’ ऐसी ही हैं। ये लघुकथाएँ जीवन के विराट को अपने में समेटे हैं। कहने को बात भले ही छोटी हो और हम उसकी उपेक्षा कर जाएं, किन्तु उसमें जो एक चिंगारी है उसको फूँक मारना लघुकथा है–‘जूते की जात’ गोदान की सिलिया चमारन से चमारवाड़े द्वारा लिए गए शालीन बदले से बढ़कर पूरे वर्ग पर किए गए निरन्तर अत्याचारों की सशक्त अभिव्यक्ति है। ‘अन्तहीन सिलसिला’ में किसान के बारे में प्रचलित इस मिथ को कथानक के रूप में स्पर्श किया गया है कि किसान ऋण में पैदा होता है, बढ़ता है तथा मरता है, किन्तु नेतराम के चित्रण द्वारा इसे गाँव की किसी घटना से जोड़कर जो प्रभाव कायम किया गया है, वह अद्भुत है। ‘अजगर’ में भी इसी प्रकार कृषक के भाग्य को छोटे–से फलक पर रूपायित किया गया है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ तयशुदा शब्दों या आकार के फ़्रेम में नहीं मढ़ी गई हैं बल्कि कथानक के अनुरूप प्रयुक्त शब्द या आकार के अनुसार स्वत: फ़्रेम तैयार हुई हैं। इसीलिए इन लघुकथा को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि लघुकथा बनाने के लिए शब्दों को सीमित किया गया है या कैनवास को बड़ा या छोटा बनाने की कोशिश की गई है।
विक्रम सोनी को कई लघुकथाएँ ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुई है और इन लघुकथाओं में जिन जीवन्त संवादों की योजना की गई है वह इस कथा विधा के लिए अनूठी है। विक्रम सोनी के संवाद कथानक की पूर्व–पीठिका के साथ आते हैं, नतीजा यह होता है कि संवादों में एक स्वभावत: आकर्षण पैदा हो जाता है–मसलन–दिसा–मैदान से फारिग होकर पंडित रामदयाल मिश्र और रघुनाथ चौबे लौट रहे थे कि रास्ते में पोस्टमैन चिट्ठी पकड़ाकर चला गया। हाथ में पत्र रखे दोनों एक–दूसरे का मुँह ताकने लगे। चौबे बोले–‘अरे कहलाते हम पंडित हैं, मगर इस कागज का चेहरा तक नहीं बाँच सकते हैं। धिक्कार है हमारी पंडिताई पर….’ लघुकथा का कथानक संवाद–योजना से जुड़कर रचना को किस प्रकार बल प्रदान करता है यह विक्रम सोनी की रचनाओं से स्पष्ट है। कथा विधा में कुछ रचनाएँ केवल संवादों या कथोपकथन के आधार पर लिखी गई हैं। लघुकथा में भी कुछ सशक्त रचनाएँ इसी रूप में आई हैं। वस्तुत: कथोपकथन के दम पर पात्र चरित्र, वातावरण, प्रभाव कथात्मक–स्तर पर प्रस्तुत करना आसान नहीं है, इस जटिल शैली से विक्रम सोनी भी जुझे़े हैं। उनकी एक लघुकथा ‘बातचीत’ इसी प्रकार की है। यह लघुकथा न केवल लघुकथा है बल्कि देश की मौजूदा स्थितियों के बीच हमें खड़ा कर देने वाला सन्देश भी।
लघुकथा के पात्र प्राय: वे होते हैं जिन्हें हम प्राय: अपने आसपास देखते हैं, उनसे सम्पर्कित होते हैं किन्तु उनसे जुड़े अनुभव, विचार या घटना को जीवन के प्रवाह में तरंगों को तरह उभरकर मिटते नहीं देख सकते और जब लघुकथा के कैनवास पर पेण्ट हो जाते हैं तो लगता है , दररअसल जीवन इन्हीं अणुओं का उपन्यास है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ जीवन के ऐसे ही अनुभव–खण्डों से ली गई हैं। इन लघुकथाओं में कहीं चाँदी और सोने के सिक्कों के कारण ‘सर्वशक्तिमान’ बने मन्दिर का विचार है तो कहीं गरीब जनता के प्रति उपेक्षा–भाव बरतकर पूँजीपति वर्ग को उनके खून से जीवन देनेवाले डॉक्टर का उल्लेख। प्रतिदिन रोटी के जुगाड़ के लिए संघर्ष करते हुए नटवर ‘बड़ी मछली का शिकार’ होता है, ‘खेल–खेल मे बच्चे जीवन के लिए आत्मविश्वास का सबक सीख लेते हैं या सियारास मिसिर की गर्दन में उठे हूल का इलाज करते–करते रमोली चमार का मस्तिष्क प्रतिहिंसा की ज्वाला से जलने लगता है, इस प्रकार की तमाम एक मन:स्थिति का चित्रण विशेष संदर्भ ये लघुकथाएँ करती हैं डॉक्टर, गुरुजी,नटवर, खैरू, रमुआ,सियाराम मिसिर, रमोली चमार, फूलकुँवर, नेतराम, रामदयाल मिश्र, रघुनाथ चौबे या बड़कुल जैसे पात्र जिस परिवेश से आए हैं, वहाँ की जीवन्त लघुकथा के कैनवास पर उजागर करते है।
इस प्रकार विक्रम सोनी की लघुकथाएँ लघुकथा–लेखन की तकनीक से तराशी हुई रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अपने समय की पहचान है। इनकी पृष्ठभूमि मानव–मन के अन्तर्द्वन्द्व से जुड़ी होकर, अपनी स्थिति से नाखुश उस व्यक्ति के संघर्ष को व्यक्त करती है। जो बेहतर जीवन के लिए निरन्तर लड़ाई लड़ रहा है। ये लघुकथाएँ भारतवर्ष के उन इलाकों से साहित्य के पृष्ठों पर पहुँची हैं जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था अपने कुत्सित रूप में कायम है। एक रचनाकार के नाते विक्रम सोनी ने जिन परिदृश्यों को देखा है, उनकी सूक्ष्मता को रूपायित करते हुए इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया कि लघुकथा के तन्तु इतने कोमल होते हैं कि यदि उन्हें ठीक से संगठित नहीं किया गया, तो जो कहा जा रहा है, उसके बिखराव की पूरी गुंजाइश रहती है।
लघुकथा की प्रभावोत्पादकता इस बात में निहित है कि कथानक को सम्प्रेषित करते हुए उसे चमत्कार या विस्फोट के अन्त में तस्दीक नहीं किया जाए, क्योंकि चमत्कार आँखों के चौंधियाने के सुख का अहसास कराता है तथा विस्फोट बारूद के फूटने का। लघुकथा पाठक के साथ एक पूरी रचनात्मक यात्रा पूरी करती है, और अन्त में उसे एक ऐसे स्थान पर छोड़ देती है, जहाँ से उसके सोच के अहसास की यात्रा शुरू होती है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ पढ़ते हुए तकरीबन ऐसा ही अहसास होता है।
विक्रम सोनी के लघुकथा–लेखन पर विचार करते हुए महत्त्वपूर्ण प्रश्न जो उभरकर आता है ,वह यह नहीं है कि उनका लेखन कब से शुरू हुआ, वे कौन–से दशक के मसीहा है या उन्होंने अपने लेखन से कितने समकालीन लेखकों को प्रभावित किया, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपनी लेखकीय ऊर्जा से ऐसी कितनी रचनाएँ लघुकथा साहित्य को दीं, जिनके कारण हिन्दी लघुकथा विधा के रत्न–भंडार में अभिवृद्धि हो सकी।

लघुकथा का शिल्पविधान

February 29, 2016, 4:10 pm

डॉ0शंकर पुणतांबेकर

मूलत: उसके शिल्प से ही जानी जाती है और उसमें कोई एक तत्त्व प्रधान होता है। यथा कविता में कथा और संवाद के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व लय अथवा छंद है, नाटक में कथा और लय के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व संवाद है। कहानी में कथा और संवाद के रहते भी उसका प्रधान तत्त्व तथ्यविस्तार है; निबंध में विचारान्विति है; व्यंग्य में विडंबना–वैदग्ध्य हैं ;इसी तरह लघुकथा में प्रधान तत्त्व उसकी लघुता है। यही इसे अन्य विधाओं से अलगाती है। कहानी की भांति तथ्यान्विति लघुकथा में भी है; पर लघुकथा में लघुता या सामासिकता होती है, इसलिए वह कहानी से भिन्न है, वैसे ही जैसे उपन्यास से कहानी अथवा नाटक से एकांकी भिन्न है। इस तरह लघुकथा के शिल्प में मूल बात लघुता की है।
अब सवाल यह उठता है कि लघुकथा कितनी लघु हो? उसके सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रस्तुत किए गए हैं। अधिकांशत: इसके शब्दों की संख्या बताई गई है, यथा जगदीश कश्यप ‘मिनीयुग’ के एक संपादकीय में कहते हैं–‘आदर्श लघुकथा तीन सौ शब्दों तक होनी चाहिए और उसका अधिकतम विस्तार अमूमन पाँच सौ शब्दों तक किया जाना चाहिए।’ पर संपादक महोदय अपनी इस बात से खुद ही संतुष्ट नहीं लगते, तभी वे आगे कहते हैं–‘पाँच सौ से आठ सौ शब्दों या नौ सौ शब्दों तक की लघुकथाओं को भी आधुनिक लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता हे।’ माना कि लघुकथा छोटी है, पर हम उसे शब्दों में नहीं बाँध सकते। ऐसा करना अवैज्ञानिक और असाहित्यिक काम होगा।
‘लघुकथा के मानदंड’ लेख में मैंने लघुकथा को ‘वैचारिक कथागीत’ माना है। गीत छोटा होता है। वह कितना छोटा होना चाहिए, इसके लिए क्या हम उसके शब्दों की गिनती करते हैं, उसको समय से नापते हैं? वास्तव में गीत एक विशिष्ट भाव–प्रभाव उत्पन्न करता है, जिसमें निमग्नता की अपनी सीमा होती है। आप कोई गीत चाहे तो रेकॉर्ड के दोनों ओर बजा लीजिए। उससे अधिक में श्रोता की निमग्नता संभव नहीं। वह चाहे कितना ही अच्छा से अच्छा गीत क्यों न हो। अब तो बात ‘भाव–गीत’ पर लागू होती है, वही बात हमारी लघुकथा यानी ‘कथा–गीत’ पर भी। तात्पर्य यह कि लघुकथा की संक्षिप्तता केवल उसका लघु आकार नहीं, बल्कि उसमें सामविष्ट प्रभावात्मकता भी है। लघुकथा धनुष की वह टंकार है, जहाँ से चला बाण दूर कहीं भेदता है और गहरे भेदता है।
लघुकथा की लघुता सामासिकता से ही संभव है, जो संक्षेप में विस्तार की अथवा दूरान्वयी बात कह जाती है सहजता से अथवा संकेतात्मक ढंग से। इस सामासिकता का अर्थ जब खुलता है तो वह अपना एक विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती है, किसी यथार्थ की विडंबना को हम पर दे मारती है। एक अच्छा लेखक अपनी लघुकथा में दूरान्वयी संकेत वाली सामासिकता का विशेष ध्यान रखता है; जो अपनी कुंडली में कटु यथार्थ के फन को लिये होती है। यह सामासिकता सिद्धहस्त शैली से ही संभव है।
जब मैं लघुकथा को कथा–गीत कहता हूँ तो उससे तात्पर्य केवल लघुकथा के आकार तक सीमित नहीं होते हैं, उससे और भी अर्थ निकलते हैं। गीत में एक ही एक भाव होता है, आदि से अंत तक, लघुकथा में भी यही अपेक्षित है। इसमें एक ही एक विचार होता है आदि से अंत तक, और तीव्र प्रभाव गीत का प्राण है तो लघुकथा का भी। गीत में भावान्विति होती है, लघुकथा में विचारान्विति। गीत में भावात्मक लय होती है तो लघुकथा में विचारात्मक लय अपेक्षित है, भले ही लघुकथा गद्य की विधा है।
कहानी को उपन्यास का लघु रूप नहीं माना जाता, उसी तरह लघुकथा को भी हम कहानी का लघु रूप नहीं कहते। उपन्यास किसी मूल संवेदना और उससे जुड़े या उससे फूटते विभिन्न संवेदना–सूत्रों का अंकन है, जबकि कहानी मूल संवेदना की वह निरपेक्ष झलक है, जो किंचित् घटना, पात्र और परिवेश के विस्तार में जाती है। इससे भी आगे लघुकथा मूल संवेदना की वह सूक्ष्म एवं तीव्रतर अभिव्यक्ति है, जो अपनी किसी भी घटक के विस्तार की आकांक्षी नहीं है। इसीलिए इसे कहानी का संक्षेप नहीं कहा जाता। लघु होते हुए भी इसकी कथा की मूल संवेदना अपने आप में पूर्ण होती है। संवेदना कभी भी खंडात्मक या अंशात्मक नहीं होती। तात्पर्य यह नहीं कि उसकी कथा की मूल संवेदना ही अंशात्मक होती है, बल्कि इससे ताप्पर्य यह है कि लघुकथा हमारे अंशात्मक या खंडात्मक जीवन की संवेदनाओं को प्रस्तुत करती है। आज जन–जीवन खंड सत्यों को ही जीवन सत्य मानने को अभिशप्त है, हर खंड की अपनी संवेदनाएं हैं। बीमारी,बेरोजगारी,बेचारगी अपने आप में संवेदनाएं जगाती हैं, पर उन क्षणों की अनुभूति कम महत्त्च की नहीं, जब बीमारी में गंभीर स्थिति चोंचलों के मुकाबले अस्पताल में जगह नहीं पाती, बेरोजगारी में योग्यता अयोग्यता के मुकाबले परास्त हो खाली हाथ लौटती है या बेचारगी में भूख अपनी अस्मिता तक लुटा देने को मजबूर है। इस तरह लघुकथा की कथा जीवन के खंड तत्त्वों की तस्वीर प्रस्तुत करती है, जो अपनी मूल संवेदना में खंड या अंश न होकर पूर्ण होती है।
यहाँ हमने कथा में संवेदना की बात कही है। मूल बात तो संवेदना ही है, जो कथा के माध्यम से लेखक पाठक में जगाता है। संवेदना भी किसी विडंबना की, काल्पनिक नहीं, यथार्थ विडंबना की। संवेदना की बात बहुत कम लेखक जानते हैं, इसलिए वे कथा को रच या बुन लेते हैं, यथार्थ कथा, लेकिन वह कितनी संवेदनावाही बन पाई है, इसकी ओर उनका ध्यान नहीं जाता। यथार्थानुभूति काव्यानुभूति के धरातल पर तब पहुँचती है, जब शब्दावली उसमें निहित सुख–दुख को मुखर करने वाली हो। इसलिए कथा (स्टोरी) और कथानक (प्लॉट) में फर्क है।
‘राजा मर गया और रानी मर गई’, मात्र स्टोरी या सामान्य घटना है, जिसमें से कोई संवेदना नहीं जागती, किंतु वहीं यह कहा जाए कि राजा मर गया और इस कारण रानी भी मर गई तो यह प्लॉट या असामान्य घटना है, जिसमें से संवेदना जागती है। इस कसौटी से हमारी अधिकतर लघुकथाएँ लघुकथा नहीं रह जातीं। फिर वे भले ही ‘लघु’ हों और उनमें ‘कथा’ भी हो। इसीलिए आज लिखी जा रही ढेरों कथाएँ ‘लघु’ और ‘कथा’ दोनों होकर भी लघुकथा नहीं हैं।
ठीक है कि प्लॉट में संवदेना होती है, क्या कहानी के, उपन्यास के, नाटक के अथवा लघुकथा के। लघुकथा का प्लॉट छोटा होगा अपनी आकारगत सीमा के कारण, पर लघुता मात्र लघुकथा के प्लॉट को अन्य विधाओं के प्लॉट से नहीं अलगाती। लघुता के साथ–साथ एक बात और है उसकी तीक्ष्ण–तीखी प्रभावात्मकता। वास्तव में यह तीक्ष्ण–तीखी प्रभावात्मकता ही लघुकथा का प्राण है। लघुकथा में से यह प्रभावात्मकता तभी उत्पन्न हो सकती है, जब लेखक की अनुभूति तीव्र से तीव्रतर और घनी होगी। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता इतनी घनीभूत होती है कि वह हमें बिजली के तार की भाँति झटका दे जाती है, हमारी चेतना को एकदम झकझोर देती है। कहना न होगा कि यह झटका विचारगत होता है, प्रसंग अथवा शैली से संबद्ध चमत्कारगत नहीं। साथ ही यह भी कि इस झटके के लिए यों ही बनावटी चरम सीमा की भी आवश्यकता नहीं होती।
मैं शैली को रचना का बाह्य अंग नहीं मानता। उसका भी रचना की आत्मा के साथ वैसा ही सम्बन्ध है, जैसा कथ्य का। सही रचना, सही कहा जाए तो कथ्य और शैली के परस्पर बिंब–प्रतिबिंब भाव से बनती है। कथ्य और शैली का ताना–बाना ही रचना को बुनता है, इसलिए दोनों का समान रूप से महत्त्व है। शैली विषयवस्तु का बाह्य अंग नहीं है। वह विषयवस्तु से, उनके गुण–धर्म से, उसमें प्रतिबिंबित युग से, पात्रों के चरित्र से, उसमें से निरूपित तथ्यों से जुड़ी ‘भाषा–संवेदना’ है–‘खा ले रे। खा लीजिए। खा, मत खा। खा, कहता हूँ न। खा भी लो अब। खा–खा, खा डाल। शब्दों के ये बंध अपने स्वरूप में से क्या ‘संवदेना’ का परिचय नहीं देते! मूल ‘भाव–संवेदना’ के साथ वह ‘भाषा–संवेदना’ अपने आप बनती है।
लघुकथा सहित किसी भी पुष्ट रचना में ‘भाव–संवेदना’ और ‘भाषा–संवेदना’ दोनों कनक–कुंडल न्याय–सी विद्यमान होती है। सशक्त भाव (वस्तु) के साथ सशक्त भाषा (बिंब) लेखक के मस्तिष्क में अपने आप कौंधती है। वर्षा में जैसे अपने आप पानी है और अपने आप धार है, बिजली में अपने आप दीप्ति है, अपने आप गति है। इसी तरह किसी आवेग में अपने आप भाव है, अपने आप बिंब है। इस दृष्टि से यहाँ यह लक्षणीय है कि शैली लेखक विशेष की जितनी वैयक्तिक है, उतनी ही वह विषय से जुड़ी निर्व्यैक्तिक भी है, जिस पर बस लेखक का नहीं, कथ्य का है।
शैली संबंधी मुख्य मुद्दा यह नहीं है कि कौन–सी शैली अपनाई गई है–नाटकीय, प्रतीकात्मक अथवा व्यंग्यात्मक। लोककथा शैली है, पौराणिक शैली है या सामान्यत: प्रचलित वर्णनात्मक शैली। मुख्य मुद्दा है लघुकथा की प्रभावात्मकता बहुत कुछ अनोखेपन से उत्पन्न होती है। इसी अनोखेपन के कुछ उदाहरण देखिए–‘उन्होंने बोतल का ढक्कन नहीं, हमें ही निकालकर फेंका और गिलास में शराब उड़ेलकर आराम से पीने लगे। जब हमने उनकी आवाज सुनी कि सामने के बच्चे को हमारे कुत्ते ने काटा है, उसे फौरन अस्पताल ले जाओ, तो तत्काल हम उनके कुत्ते को अस्पताल ले गए।’
छोटे स्टेशनों ने कहा, ‘जक्शनों को तो आपने कूलर भी दे दिए, हमारे यहाँ पानी तक नहीं।’ वे बोले, ‘जरूर ख्याल रखेंगे आप लोगों का, पर पहले बड़ी गाडि़याँ तो रुकने दो।’
प्रभावात्मक शैली के अनोखेपन में हैं–सूचकता, सांकेतिकता और व्यांग्यात्मकता। सपाटबयानी में कथ्य कमज़ोर बना रह जाता है। अभिधा शक्ति की अपनी सीमा है, व्यंजना शक्ति की नहीं। व्यंजना बिंब–प्रतीक से लेकर लोककथा–पुराणकथा–इतिहासकथा सभी को वैदग्ध्य की दृष्टि से अपनाती है। विदग्ध अभिव्यक्ति विशेष प्रभाव डालती है। ‘गधा’ कहने से हमारा वह काम बन जाता है, जो एक सौ आठ बार ‘मूर्ख’ कहने से नहीं बनता। ‘क्रूर शोषक’ में इतना बल नहीं है, जितना ‘शाइलॉक’ में है। ‘सत्यावादी भूखों मर रहे हैं’ में वह प्रभाव नहीं, जो ‘हरिश्चंद्र भूखों मर रहे हैं’ कहने में हैं। विक्रमादित्य न्याय न कर सके, धर्मराज सत्य का पालन न कर सके, शकुंतला की अंगूठी को नकली घोषित कर दिया जाए, तो ये स्थितियाँ व्यवस्था की विभीषका को जिस गहराई से प्रस्तुत करती हैं, उससे पाठक का मानस एकदम आंदोलित हो उठता है। देश में अपनी ही भाषा संस्कृत या हिंदी की जो दुर्दशा है और अंग्रेजी की जो धाक है, उसे देखते हुए कोई कहे कि हमारे यहाँ कालिदास या तुलसी भूखों मर रहे हैं और शेक्सपीयर जो है, राज कर रहा है तो इस वैदग्ध्य से बात कुछ और ही बन जाती है।
लोगों ने आदर्श लघुकथा में कुछ अनिवार्य विशेषताओं का उल्लेख किया है, वे इन्हें सौंदर्यशास्त्रीय ढंग से प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक लेखन जब सौंदर्यशास्त्र से नाता तोड़ मुक्त चौकडि़याँ भर रहा है, उस दशा में लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र बनाना कहाँ तक उचित है। कथानक की प्रकृति, विषय, घटना, कथ्य की संरचना, लघुकथा का प्रभाव–लक्ष्य और न जाने क्या–क्या बातें लघुकथा के स्वरूप को, उसके शिल्प को लेकर कही जाती हैं और बिना उदाहरणों के निरे सिद्धांत रूप में इनका इस तरह विवेचन प्रस्तुत किया जाता है कि लघुकथा गोरखधंधे–सी नजर आने लगती है। विवेचन में कहा जाता है कि लघुकथा की अभिव्यक्ति सशक्त होती है। कहानी–नाटक या किस विधा की अभिव्यक्ति सशक्त नहीं होती? लघुकथा की पहुँच सूक्ष्मतम संवेदनाओं तक होती है। क्या कहानी–उपन्यास–नाटक में ऐसा नहीं होता? इसी तरह और भी बातें लघुकथा के सम्बन्ध में कही जाती हैं, जो और विधाओं पर भी लागू होती हैं, कथा लघुकथा का सत्य तीक्ष्ण होता है। लघुकथा में गंभीर तथा उपेक्षित तथ्यों का उद्घाटन होता है। लघुकथा अपने उद्देश्य सामाजिक–राजनीतिक–धार्मिक विसंगतियों पर प्रहार करना है। निकष के लिए सौंदर्यशास्त्र और उसका विवेचन बुरी बात नहीं, पर निकष में उसकी चार टाँगें, एक पूँछ, विशिष्ट चमड़ी जैसी बातें बता देने से काम नहीं बनता, जो उसी ऊँचाई–चमड़ी आदि के और जानवरों पर भी लागू हो सकती हैं। सही बात तो यह है कि हर लघुकथा का अपना शिल्प है। किसी भी जीवंत और प्रवाहमयी विधा का यही लक्षण है। और यह मान लेना गलत होगा, कि कहानी, उपन्यास, नाटक जैसी परंपरागत विधाओं का शिल्प, उनका निकष सुनिश्चित है। सो लघुकथा का भी हो ही जाना चाहिए।
हिंदी लघुकथा का लेखन सही रूप में आठवें दशक में हुआ और तभी से इसकी विधा के रूप में चर्चा होने लगी। आठवें दशक में इसका जो स्वरूप स्थापित हो चुका था, वही हमें अब तक दिखाई देता है, लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उसका रूप पूरी तरह से उभर और निखर आया। पिछले तीन दशकों में लघुकथा का विधागत स्वरूप जो सामने आया है, उससे यह स्पष्ट है कि यथार्थ के घनीभूत क्षणों को इसने बड़ी प्रभावात्मकता से पकड़ा है। पद्य में जो काम गीत का था, गद्य में वह लघुकथा ने कर दिखाया है। गीत भावों में ही तरंगता रहता है, बिना कथ के, इसके विपरीत लघुकथा विचारों के ठोस धरातल पर खड़ी होती है, कथात्मकता के साथ। पिछले वर्षों में से गुजरता लघुकथा का जो तेवर आज हमारे सामने है, उससे सहमत–असहत होने का सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं। कितने रूप–रंगों में से डूबता–उतराता, अनेकानेक लेखकों की कलम की तराश–खराद से बनता–बिगड़ता आज वह हमारे सामने है। लेखकों के खेमें बने, उन्होंने अपने–अपने झंडे गाड़े, कुछ लेखकों ने मसीहाई नारे दिए, इस–उस बात की आवश्यक–अनावश्यक तरफदारियाँ कीं और अंतत: लघुकथा का तेवर वह बना, जो एक साथ ‘लघु’ था और ‘कथा’ था। ‘लघु’ की अनावश्यक चर्चा शब्द गिनाकर हुई, जबकि इसका आशय था सघनता, सामासिकता, तीक्ष्णता और ‘कथा’ का आशय था जहरीला यथार्थ बिंदु। कहना न होगा कि ‘लघु’ में केवल कथा की संक्षिप्तता नहीं, शैली की सांकेतिकता–विदग्धता भी निहित है, जिसे बहुत कम लेखक समझ पाए हैं। इस समझ के अभाव में ‘कथा’ भाग का जहरीला यथार्थ बिंदु उस तीक्ष्णता के साथ अभिव्यक्त नहीं हो पाया, जो लघुकथा में अपेक्षित है, जो सही अर्थ में लघुकथा को लघुकथा बनाता है।
यह एक अजीब तथ्य है कि लघुकथा के लघुत्व और कथात्व का ताना–बाना आरंभिक लघुकथा लेखकों ने ही जिस ढंग से बुना, वही लघुकथा का सही तेवर बना। विषय नए–नए, शैलियाँ भिन्न–भिन्न और विषय–शैली की ऐसी एकरूपता कि शैली भी देह नहीं, प्राण लगे। आगे नकलची बढ़े। इन नकलचियों के कारण लघुकथा को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी, जो उसे वास्तव में आठवें दशक में ही मिल जानी थी। असहमति अथवा असंतोष इन्हीं नकलचियों से है। खेद तो इस बात का है कि बिना प्रेरणा के लिखने वाले कई नामवर लेखक भी इसके शिकार हैं। और असहमति अथवा अंसंतोष वहाँ भी उपस्थित होता है, जहाँ लेखक आलोचक के नाते तटस्थ न रहकर लघुकथा के सम्बन्ध में सही–गलत फतवे देता है और अपने तथा अपने खेमे के लोगों को स्थापित करने में अपनी प्रतिभा को नष्ट करता है। लघुकथा जब अपने निर्माण काल में थी, तब आठवें दशक के उत्तरार्ध में लघुकथा पर खूब बहसें हुईं, वाद–विवाद हुए, उखाड़–पछाड़ हुई, पर वह सब वैचारिक स्तर पर था, वैयक्तिक स्तर पर नहीं। किसी भी विधा की स्थापना या पुनर्स्थापना काल में ऐसा होता ही है।
लघुकथा से मेरी अपेक्षाएँ हैं। लघुकथा को मैं गद्य का विचारात्मक कथा–गीत मानता हूँ। मैं चाहता हूँ कि गीत में जो भावों का घनत्व होता है, वह लघुकथा में विचारों का घनत्व बने। गीत का जो भावात्मक विस्तार है अपने लघुत्व में, वही विस्तार अपने लघुत्व में कथा का लघुकथा में बने। इस दशा में लघुकथा की शब्द–संख्या के साथ ही नापजोख अपने आप खत्म हो जाती है। गीत की भावान्विति, लघुकथा में विचारान्विति बने, एक ही विचार आदि से लेकर अंत तक। गीत में जो सांकेतिकता–सूचकता, बिंब–प्रतीक प्रयुक्त होते हैं, कुछ इसी तरह की अभिव्यक्ति का ढंग लघुकथा का हो। अच्छी लघुकथाओं को पढ़–परखकर मैं लघुकथा संबंधी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। जहाँ तक लघुकथा के कथ्य का प्रश्न है; उसे वर्तमान के तीखे यथार्थ से जुड़ना चाहिए।
कोई भी लेखन अध्ययन–चिंतन के बाद की क्रिया है। हमारे लघुकथा लेखक, विशेष रूप से नई पीढ़ी के ऐसे कितने लेखक हैं, जिन्होंने साहित्य को ढंग से पढ़ा है? नज्म और शेरो–शायरी लिखने वाले लोग कितनी नज्में और शेर पढ़ते हैं। उनके मुख पर छा जाती हैं वह सब। लघुकथा लेखक अच्छे लेखकों की लघुकथाएँ पढ़ें। लघुकथा पर लिखी गई आलोचनाएँ पढ़ें। दो–चार लघुकथाएँ लिख लेने के बाद ही अपने को लेखक मान लेने वाले लघुकथा लेखकों से मेरा निवेदन है कि वे जगदीश कश्यप, भगीरथ, रमेश बतरा, बलराम, मालती बसंत, पुष्पलता कश्यप, कमल चोपड़ा, सतीश दुबे तथा कमलेश भारतीय जैसे पहली पीढ़ी के समर्थ लघुकथा लेखकों की कथाओं का गहराई से अध्ययन करें। दूसरी पीढ़ी के भी मेरे पास दर्जनों नाम हैं, जिन्होंने पहली पीढ़ी के कार्य को काफी आगे बढ़ाया है।
संकल्प रूप से भी अच्छा काम हुआ है। यथा बलराम द्वारा संपादित कथानामा, हिंदी लघुकथा कोश, भारतीय लघुकथा कोश, विश्व लघुकथा कोश एवं शमीम शर्मा द्वारा संपादित हस्ताक्षर आदि। कमल चोपड़ा, सतीशराज पुष्करणा, रूप देवगुण, राजकुमार निजात, सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, रूपसिंह चंदेल तथा सतीश राठी आदि ने भी अच्छे संकलन निकाले हैं।
मुझे दो शब्द लघुकथा के समालोचकों से भी कहने हैं- उनका दृष्टिकोण जहाँ तटस्थ हो, वहाँ वे स्वयं भी औरों की समीक्षाओं को देखें–परखें और इस प्रतिपादन से बचें कि लघुकथा एक विधा है। वह तो है ही, साथ ही इस कथन से भी कि लघुकथा अब तक प्रतिष्ठित नहीं हो सकी है और कि उसका कोई समर्थ आलोचक नहीं है।
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लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता और पुरस्कृत लघुकथाएँ

April 30, 2016, 11:53 am

 15 मार्च 2016 को साहित्य अकादमी और फिर 27 मार्च को हिन्दी अकादमी द्वारा लघुकथा पाठ के आयोजन को लघुकथा की विकास यात्रा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। इस उपलब्धि के पीछे जहाँ एक ओर लघुकथा के प्रति समर्पित लेखकों के अथक प्रयास हैं, वहीं कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादकों के प्रयासों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। कमलेश्वर जी के संपादन में सारिका के लघुकथा विशेषांक की हम सभी चर्चा करते रहते हैं। इधर पिछले कई वषों‍र् से  हरिनारायण जी के सम्पादन में लगातार आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता ने भी इस विधा को अतिरिक्त गरिमा प्रदान की है। लघुकथा की मूलधारा से जुड़े कथाकार न जाने क्यों इस महत्त्वपूर्ण आयोजन का अपने लेखों में उल्लेख नहीं करते। 15 मार्च को साहित्य अकादमी में आयोजित लघुकथा पाठ के अवसर पर राजकुमार गौतम ने कथादेश के इस आयोजन को विशेष रूप से रेखांकित किया। इधर मधुदीप के सम्पादन में ‘पड़ाव और पड़ताल’ के 25 खण्डों का प्रकाशन भी उल्लेखनीय है। बलराम के सम्पादन में लोकायत की समकालीन हिन्दी लघुकथा सीरीज की शुरुआत स्वागत योग्य है।

गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी लघुकथा प्रतियोगिता हेतु बड़ी संख्या में लघुकथाएँ प्राप्त हुईं, पर हर बार की तरह गिनी चुनी रचनाओं को ही विचारार्थ चयनित किया जा सका। जिन रचनाओं को निर्णायकों के पास भेजने हेतु उपयुक्त नहीं पाया गया, यहाँ उनकी चर्चा करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। मुझे याद है वर्षों पहले राजेन्द्र यादव  जी से जब हंस में विचारार्थ आनेवाली लघुकथाओं पर चर्चा होती थी ,तो वे इन लघुकथाओं को ‘मशीनी लेखन’ की श्रेणी में रखते थे। प्रतियोगिता हेतु ऐसी रचनाएँ बहुतायत में प्राप्त हुईं । दूसरे वे कथाएँ ,जो एक ही साँचे में ढली हुई थीं।ऐसी रचनाओं के लेखकों को स्वर्गीय जगदीश कश्यप ‘डाइमेकर’ कहा करते थे। चिंता का विषय यह भी है कि इस प्रकार की रचनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इधर फेसबुक/ब्लाग्स पर चट–पट तैयार की गई लघुकथाएँ अक्सर देखने को मिलती हैं। आकारगत लुता के कारण इन्हें पोस्ट करने में काफी सुविधा होती है।  मज़े की बात यह है कि इन लघुकथाओं को बिना पढ़े ‘लाइक’ करने वालों की संख्या अच्छी खासी है। वही यहाँ कुछ ‘स्कूल’ भी खुल गए हैं ,जो बाकायदा लघुकथा लिखने की  ट्रेनिंग ही नहीं देते; बल्कि अच्छी खासी  लघुकथा (यदि कोई है तो)का पोस्टमार्टम कर नए संभावनाशील लेखक को भी असहाय कर देते हैं।

लघुकथा के पक्ष को लेकर विभिन्न लघुकथा लेखक सम्मेलनों में विमर्श होते रहे हैं। कुछ बिन्दुओं पर आम सहमति भी बनी हैं। वरिष्ठ लघुकथा लेखक भी प्रतिवर्ष पंजाब में होने वाले ‘जुगनुओं के अंग–संग’ और पटना लघुकथा सम्मेलन में प्रतिभागिता करते हैं और लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता के ड्राफ्ट को संशोधित/परिमार्जित करने में सहयोग करते हैं ; परन्तु सत्य यही है कि रचनाकार यदि मस्तिष्क में विधा लेखन के नार्म्स को लेकर बैठेगा ,तो मशीनी लेखन ही संभव होगा। लघुकथा का सृजन भी दूसरी विधाओं की तरह स्वत:स्फूर्त होना चाहिए। घटना  को जस का तस उतार देना लघुकथा नहीं है।

विभिन्न लघुकथा लेखक शिविरों में लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता पर आधार लेख प्रस्तुत किए जाते रहे हैं; ताकि इसका स्वतंत्र समीक्षाशास्त्र निर्मित हो सके। इन आधार लेखों में दी गई टिप्पणियाँ विमर्श हेतु प्रस्तुत की जाती रही हैं ;परन्तु कई बार कुछ लेखक इन्हें लघुकथा  के लिए अनिवार्य  और अन्तिम शर्त मान लेते हैं–

–लघुकथा में ऐटम का जो स्फोट तव सन्निहित और सन्निविष्ट होता है, वह अपनी पठन .यात्रा के अंत में विस्फोट करता है। यह विस्फोट बिल्कुल वर्टिकल होता है। एक निर्दिष्ट और रिमोट कंट्रोल्ड ऊँचाई पर जाकर धमाका होता है। फिर सब कुछ शान्त। यह ग्राफ नहीं बनाता।

लघुकथा के लिए दो घटनाओं वाले कथानक आदर्श होते हैं।

लघुकथा को चरमोत्कर्ष पर समाप्त होना ही चाहिए।

कहानी में कथा और कथ्य साफ दीखते है, शब्द और अर्थ की तरह भूमिखंड और इतिहास के कालबोध की तरह, पर लघुकथा में सम्पूर्ण कथा ही कथ्य बन जाती है अथवा सम्पूर्ण कथ्य ही कलारूप ले लेता है।

लघुकथा में पात्रों के चरित्रचित्रण का कोई अवसर नहीं होता।

लघुकथा में मानवेत्तर पात्रों के प्रयोग नहीं करना चाहिए।

पौराणिक पात्रों के प्रयोग से बचना चाहिए।

लघुकथा में कालदोष नहीं होना चाहिए।

लघुकथा में एक शब्द भी फालतू नहीं होना चाहिए।

लघुकथा 500 शब्दों से अधिक की नहीं होनी चाहिए अथवा एक पृष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए।

लघुकथा भोजन निर्माण के पूर्व की विस्तृत आयोजन प्रक्रिया नहीं है,जैसा कहानी में होता है। यह तो कुकर में दाल भात सब्जी इत्यादि सभी खाद्य पदार्थों का सजाकर रखना और दो चार सीटियों पर दो चार मिनटों में उतार लेना है।

हम खाकर (पढ़कर) संतुष्ट हो जाते हैं,ऐसा ही शील स्वभाव और क्रि़या प्रक्रि़या लघुकथा की है।

 –लघुकथा का शीर्षक कहानी की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है।

 –लघुकथा का समापन बिन्दु अधिक मेहनत की माँग करता है।

लघुकथा विमर्श के दौरान उपयु‍र्क्त बहुत सी टिप्पणियों पर आंशिक सहमति हो सकती है और हुई भी है ;परन्तु कुछ टिप्पणियाँ तो हास्यास्पद हैं। बहुत सी स्तरहीन लघुकथाओं की उपज का सबसे बड़ा कारण कुकर में दो .चार सीटियाँ बजाकर लघुकथा तैयार करना नहीं तो और क्या है? कहीं कोई घटना देखी ….उसे कुकर में सजाया और फिर उसमें आक्ऱोश/विस्फोट की सीटियाँ बजवाई….लघुकथा तैयार। लेखक के भीतर विचारों के साथ पकने में लघुकथा को महीनों यहाँ तक की सालों लग सकते हैं। मुख्य बात यह है कि पकने के लिए उसके भीतर थीम किसकी है ? उपन्यास की,लघुकथा की या कहानी की। लोहे की कड़ाही में घण्टों मेहनत से तैयार की गई सब्जी और कुकर में चुटकियों में तैयार की गई सब्जी के स्वाद में जो फर्क़ है,उससे हम सभी वाकिफ हैं।

मानवेतर पात्रों का लघुकथा में प्रयोग नहीं करना चाहिए, इस टिप्पणी से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। यह सही है कि यदि लेखक कुशल नहीं है, उसके पास रचनाकौशल नहीं है ,तो इस प्रकार के प्रयोगों में अधिक खतरा है। हमने पिछले वर्षों  में उर्मिल कुमार थपलियाल की ‘मुझमें मण्टों ’जैसी रचना पढ़ीं। विमर्श के दौरान मण्टों की एक लघुकथा उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की गई  थी। लघुकथा में बारीक खयाली के परिपेक्ष्य में उस रचना को पेश किया गया था। पाठकों का ध्यान मण्टों की लघुकथा में गोली के ‘झुँझलाने’और ‘भिनभिनाने’ की ओर आकृष्ट किया गया था। मण्टों  की लघुकथा ‘बेखबरी का फायदा’ में पिस्टल से निकली गोली अपने गुण–धर्म के / जी हजूरी नहीं करती ,विरुद्ध व्यवहार करने लगी थी। ‘मुझमें मण्टो’ में तक आते–आते पिस्टल से निकली गोली बगावत कर देती है। अब इसे क्या कहा जाए कि कुछ विद्वान् मित्रों की यह टिप्पणी पढ़ने को मिली कि थपलियाल जी की रचना को समझने के लिए मण्टों की लघुकथा पढ़नी पड़े ,तो वह रचना की असफलता है।

कहना न होगा कि लघुकथा अपनी विकास.यात्रा में धमाकेदार अंत वाली स्थिति से काफी आगे निकल चुकी है। अंत पैना/विस्फोटक हो सकता है,पर उसे अनिवार्य रूप से लघुकथा के साथ जोड़ना उचित नहीं है। इसी प्रकार इस टिप्पणी से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि इसका ग्राफ नहीं बन सकता। इस वर्ष प्रथम पुरस्कार प्राप्त अरुण कुमार की लघुकथा ‘गाली’ को ही देखें–

पहली स्थिति– चरणदास की इस क्रि़या से बड़े बाबू की   क्रोधाग्नि   में घी पड़ गया मानो। वह कुर्सी को पीछे धकेलकर खड़े होते हुए चिल्लाया, ‘‘अबे ओ चूहड़े के बीज….तू अपना चूहड़ापना घर पर ही छोड़कर आया कर… यहाँ हमारे दफ्तर में अपनी गंदगी मत खिंडाया कर…..

दूसरी स्थिति–बड़े बाबू वो मानो इसी ताक में था। क्षंणांश की देरी किए बिना उसने चरणदास के पैर छू लिये। हाथ जोड़कर फफकता हुआ, ‘मेरी नौकरी तेरे हाथ है चरणदास…मेरी दो बेटियाँ अभी अनब्याही है….मुझे माफ कर दे।’’

तीसरी स्थिति –चरणदास की गर्दन आत्मविश्वास से तनी हुई थी तथा उसका चेहरा स्वाभिमान की आभा से दमक रहा था। यह देखकर बड़े बाबू के मन में जातीय द्वेष की भावना फिर से जाग्रत हो गई थी। बड़ा बाबू चरणदास के नजदीक आकर नफरत से उसकी तरफ देखता हुआ बुदबुदाया, ‘‘चरणदास….हो गई तेरे मन की पूरी! अब तो तू खुश  है। पर एक बात बता ….अब क्या तू ब्राह्मण हो गया है?’’

बड़े बाबू की विकृति को इस लघुकथा में ऐटम का स्फोट तव मान लें ,तो भी बड़े बाबू के चरित्र के आरोह और अवरोह से ग्राफ तो बन ही रहा है….बनता ही है। तीसरी स्थिति तक रचनाकार का पहुँचना ही लघुकथा को पूर्णता और ऊँचाई प्रदान करता है।

तो क्या’ (कुमार शर्मा अनिल) को पढ़ते हुए प्रदूषण (सूर्यकांत नागर) एवं बालीवुड डेज(सुकेश साहनी) स्मरण हो आईं। ‘तो क्या’ लेखक की आधुनिक पृष्ठभूमि पर सोद्देश्यपूर्ण रचना है ,जिसमें सम्पूर्ण कथा ही कथ्य बन गई है। यही वजह है कि रचना में तीन माह का अंतराल होने के बावजूद ,रचना की तीव्रता कहीं भी कम नहीं हुई है।

राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’ की दाँत कुचरनी में लेखक से अधिक मेहनत की अपेक्षा थी। पाठक को पता चलना चाहिए कि दाँत कुचरनी माँ की प्राथमिकताओं में से एक थी। वर्षों बाद विदेश से लौटा बेटा माँ को सोने की दाँत कुतरनी देता है ,तो माँ जोर से हँस पड़ती है। हँसते समय उसका पोपला खुला हुआ मुँह दिखाई देने लगता है। यही चित्र लघुकथा को प्रभावी बना देता है और पोपले मुँह वाली माँ की हँसी के पीछे छिपा रुदन पाठक के दिलोदिमाग में कहीं गहरे अंकित हो जाता है।

जहाँ अत्यावश्यक हो ,वहाँ पौराणिक पात्रों का प्रयोग लघुकथा को शक्ति प्रदान करता है। राम कुमार आत्रेय की ‘एकलव्य की विडम्बना’ में इसे देखा जा सकता है। द्रोणाचार्य और एकलव्य की पृष्ठभूमि से अवगत होने के कारण पाठक के दिलो.दिमाग पर लघुकथा आधुनिक संदर्भों में गहरा प्रभाव छोड़ने में सफल होती है।

अपना–अपना ईमान (हरीश कुमार अमित) सहारा (रणजीत टाडा) खुशियों की होम डिलीवरी (जगवती) बचपन–बचपन (मीरा जैन)लघुकथा की कसौटी पर खरी उतरती मुकम्मल रचनाएँ है।

चाँद के उस पार (सविता पांडे) आभासी संसार के सच को उजागर करती है। रचना को और कसा जा सकता था। घेवर (किरण अग्रवाल) अ-जातिवादी  (ओमप्रकाश कृत्यांश) पाठकों से संवाद करने में सफल रही हैं। ये लघुकथाएँ साहित्य की अन्य विधाओं की तरह पाठक के मन में भूख जगाती है, प्यास जगाती हैं…उसके सामने प्रश्न खड़े करती हैं….उसे सोचने पर मजबूर करती हैं।

भाषा और शिल्प के बारे में एक बात कहना  ज़रूरी है–बढ़िया कथ्य कमज़ोर भाषा और शिल्प के कारण अपनी  सही छाप नहीं छोड़ पाता , अत: लेखक भाषा की शुद्धता , व्याकरणिक गठन, अल्पविराम , अर्धविराम आदि का सही उपयोग करें। यथास्थान इनका प्रयोग न करने से अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। साधारण  और प्रचलित शब्द भी अगर  अशुद्ध लिखे जाएँगे( जैसे पानी पीने का लोटा होता है , लौटा नहीं), तो ऐसे रचनाकार को कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। गुड़िया का बहुवचन गुड़ियाएँ( लघुकथा–तो क्या) नहीं ; बल्कि गुडि़याँ होता है। अल्हड़ शब्द तत्सम शब्द नहीं है। इसके साथ ता प्रत्यय लगाकर  अल्हड़ता शब्द नहीं बनता । सही शब्द अल्हड़पन होगा। ऐसे ही ‘….पहिए के नीचे उसकी गर्दन आती–आती बची हो’ यहाँ ‘आते–आते’ होना चाहिए; क्योंकि यह क्रियापद नहीं , क्रिया विशेषण है ।विषयवस्तु और शिल्प पर मज़बूत पकड़ ही लघुकथा को और प्रखर बना सकती है। लघुकथाकार की यही सजगता इस विधा को और अधिक सम्मानजनक स्थान दिला सकती है। यह सन्तुलन ही लघुकथा की शक्ति है।

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हिन्दी–लघुकथा में संवेदना

May 31, 2016, 11:44 am

‘संवेदना’ से पूर्व ‘अनुभूति’ को समझना अनिवार्य है, कारण ये लगभग एक ही भाव के दो शब्द हैं, किन्तु पिफर भी भावों के स्तर में दोनों में बहुत अन्तर है। ‘अनुभूति’ को अंग्रेजी फ़ीलिन्ग कहते हैं किन्तु कैसी फ़ीलिन्ग? वैसी फ़ीलिन्ग जिसका एहसास हृदय के भीतर यानी समाज में घटित घटनाओं को देखकर होता और जिससे हृदय प्रभावित होता है। ‘संवेदना’ ‘अनुभूति’ के प्रभाव से लेखक जब शब्दों में अभिव्यक्त करता है तो वह ‘संवेदना’ कहलाती है।

मैं अपने इस लेख में वैसी कतिपय लघुकथाओं की चर्चा करूँगा जिनमें संवेदना का मात्रा पुट ही नहीं है, अपितु जिन्हें पढ़कर हृदय संवेदित हो जाता है। लघुकथाओं की चर्चा से पूर्व ‘संवेदना’ के विषय में अन्य विद्वानों के विचारों को भी समझ–जान लेना प्रासंगिक होगा ।

यों तो इस शब्द पर डॉ तपेश चतुर्वेदी, हरिचरण शर्मा इत्यादि ने भी अपने–अपने ढंग से विचार किया है, किन्तु डॉ धीरेन्द्र वर्मा के विचार अन्य विद्वानों की अपेक्षा मुझे अधिक  सटीक प्रतीत होते हैं–‘सवेदना को ही भाव पक्ष कहा जाता है। भाव पक्ष का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप रसनिष्पत्ति है।’

संवेदना लघुकथा के किसी विषय विशेष से बँधी हुई नहीं होती, प्राय: सभी विषयों में लेखक की योग्यता के अनुसार इसे खोजा एवं महसूस किया जा सकता है। जिसे मैं कतिपय लघुकथाओं के उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा ।

सर्वप्रथम मैं कमल चोपड़ा की लघुकथा की चर्चा करूँगा । कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ यों तो समग्रता में शोषण के विरुद्ध संघर्ष की गाथा प्रत्यक्ष होती हैं, किन्तु इसके बावजूद वे अपनी विशिष्ट भाषा–शैली में संवेदना जगाते हुए पाठक के हृदय में जाकर उसे झकझोर देती है । इनकी लघुकथाओं के पात्रा सदैव इन्सानियत की रक्षा एवं संवेदनशील आदमी को आदमी से जोड़ने में प्रयासरत प्रतीत होते हैं । यही उनकी लघुकथा की अतिरिक्त विशिष्टता है। उदाहरणार्थ ‘एक उसका होना’ लघुकथा का अवलोकन किया जा सकता है।

इस लघुकथा के अंतिम छह पंक्तियाँ देखें किस प्रकार संवेदित करती हैं–‘ठाकुर साहब वहाँ पहुँचे तो काशीराम के लड़कों ने मुँह बिचका दिया । वहाँ उपस्थित छोटे–छोटे लोगों ने ठाकुर साहब को कोई महत्त्व नहीं दिया । अपने आप पर काबू रख वे काशीराम की घरवाली के पास पहुँचे और धीरज बँधाते हुए बोले, ‘हिम्मत रखो ! मेरे होते हुए तुम्हें किस बात की चिन्ता है।’

काशीराम की घरवाली एकाएक रोते–रोते चुप हो गयी और बोली, ‘ठाकुर साहब…। एक आपके होने की ही तो चिन्ता है।’

यह अंतिम वाक्य न मात्रा लघुकथा को सार्थकता देते हुए श्रेष्ठता के उत्कर्ष पर ले जाता है, अपितु हृदय की गहराई तक जाकर संवेदित भी कर जाता है। इस वाक्य पर ही यह लघुकथा खड़ी है। यह लघुकथा सामंती व्यवस्था को पूरी ताकत से बेनकाब करती है। इस लघुकथा में मजदूरों के भीतर संवेदनशीलता के माध्यम से जागरूकता पैदा करने की सार्थक कोशिश की गयी है। ऐसा नहीं है कि कमल चोपड़ा की यही लघुकथा संवेदना को जगाती है, कमल चोपड़ा की प्राय: लघुकथाओं में इस विशेषता को देखा–परखा जा सकता है।

इसके पश्चात् डॉ सतीशराज पुष्करणा की लघुकथाओं की चर्चा अनिवार्य इसलिए है कि डॉ पुष्करणा की लघुकथाओं में विषय एवं प्रयोगों के स्तर पर पर्याप्त वैविध्य है। किन्तु एक बात जो उनमें सामान्य है वह है संवेदना । इस स्तर पर यों तो उनकी अनेक लघुकथाओं की चर्चा की जा सकती है, किन्तु ‘आत्मिक बन्धन’ अधिक सटीक है। इस लघुकथा में उन्होंने पति–पत्नी के मय उत्पन्न आत्मीयता को बहुत ही प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करने में सपफलता प्राप्त की है। पति–पत्नी वृद्धावस्था में अकेले रहते हैं । शीत लहर के दौरान पत्नी सोचती है, पति को ज्यादा ठंड लग रही होगी, अत: वह पति की रजाई के ऊपर एक कंबल और डाल देती है, उनके बार–बार मना करने के बावजूद वह नहीं मानती । पत्नी के सो जाने पर पति वह कम्बल पत्नी की रजाई पर डाल देते हैं और बिछावन पर आकर सो जाते हैं। ‘सुबह जब आँख खुली, तो देखा…… कम्बल पुन: उनकी रजाई के ऊपर था।’

यह वह वाक्य है जो लघुकथा को मजबूत आधर देने के साथ–साथ संवेदना के चरम तक ले जाता है। प्रत्येक लेखक की अपनी विशिष्ट भाषा–शैली होती है। डा पुष्करणा की भी है, जिसके कारण उनकी लघुकथाएँ अलग ही पहचान ली जाती हैं।

श्याम सुन्दर अग्रवाल तो अपनी संवेदनात्मक लघुकथाओं के कारण ही पहचाने जाते हैं। इस श्रेणी में यों इनकी अनेक लघुकथाएँ हैं किन्तु ‘माँ का कमरा’ इस श्रेणी में उनकी सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है।इस लघुकथा का शिल्प इस लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है, इसका कथानक  सकारात्मकता के कारण भी अलग पहचान बनाता है। प्राय: लेखकों ने इस विषय पर नकारात्मक सोच को प्रत्यक्ष करती लघुकथाएँ ही लिखी हैं। उन लघुकथाओं में प्राय: बेटे अपने वृद्ध माता–पिता को कष्ट ही पहुँचाते हैं, किन्तु श्यामसुन्दर का कथानायक एक सकारात्मक नायक के रूप में चमत्कृत करता है। इसकी संवेदना को प्रत्यक्ष करती इसकी चंद पंक्तियाँ यहाँ प्रासंगिक होंगी–शाम को जब बेटा घर आया तो बसन्ती बोली, ‘बेटा मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता ।’

बेटा हैरान हुआ, ‘माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने ।’ बसन्ती आश्चर्यचकित रह गई, ‘मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा ! डबल–बेड वाला….. ।’ ‘हाँ माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास ही सोना पसन्द करती है और तेरे पोता–पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ । तू टी. वी. देख, भजन सुन । कुछ और चाहिए, बेझिझक बता देना ।’ उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसन्ती की आँखों में आँसू आ गए ।’ अपेक्षा के विपरीत व्यवहार का प्रत्यक्षीकरण पाठकों को भीतर तक संवेदना से भर देता है।

सुकेश साहनी ने भी अनेक संवेदनापरक लघुकथाएँ लिखी हैं, जिनकी चर्चा हो सकती है किन्तु मुझे लगता है उस धरातल पर ‘ठंडी रजाई’– उनकी अग्रगण्य लघुकथा है। सुकेश की लघुकथाओं में भी विषय वैविध्य के साथ–साथ भिन्न–भिन्न शिल्पों का सटीक प्रयोग हुआ है। सुकेश साहनी प्राय: अपने पात्रों के भीतर प्रवेश करके उनके संवाद लिखते हैं, यही कारण है उनमें स्वाभाविकता अधिक रहती है और इसी कारण रचना में संवेदना सहज ही उत्पन्न हो जाती है। ‘ठंडी रजाई’ की ये कुछ पंक्तियाँ शायद मेरी बात को और अधिक पुष्ट कर सकें–‘आज जबर्दस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आये हैं। ऐसे में रजाई के बगैर कापफी परेशानी हो रही होगी ।’

‘हाँ !तो ?’ उसने आशा भरी नजरों से पति की ओर देखा ।

‘मैं सोच रहा था….. मेरा…. मतलब यह था कि …. हमारे यहाँ एक रजाई ।फालतू ही तो पड़ी है।’

‘तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,’ वह उछल कर खड़ी हो गयी, मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ ।

वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई । उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई गर्म थी।‘ इस लघुकथा का अंतिम पैरा न मात्र अर्थपूर्ण है अपितु भावों को भी ऊँचाइयाँ दे रहा है, इस पर यान देने की आवश्यकता है।

मधुदीप भी डॉ पुष्करणा की तरह प्रयोगधर्मी लघुकथाकार हैं। इन्होंने भी अनेक संवेदनशील और श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखी हैं। मुझे इनकी कई रचना इस दृष्टि से पसंद है किन्तु, ‘हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ’ मुझे अपेक्षाकृत अधिक झकझोरती है और कहीं भीतर तक प्रभावित करती है। इसकी विशेषता यह है कि यह एकालाप शैली में लिखी गयी है। इस लघुकथा का सारा दारोमदार अन्तिम पैराग्रापफ पर टिका है। अन्तिम पैराग्रापफ देखें –‘मैं जिंदगी से खुलकर बातें करना चाहता हूँ । सिर्फ़ बातें करना ही नहीं चाहता, जिंदगी से अपनी बातें मनवाना भी चाहता हूँ। ‘हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ।’, इस लघुकथा में नौकरी के जीवन की विवशता तथा अवकाश ग्रहण करने पर मिली स्वतंत्रता को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। यही पंक्तियाँ व्यक्ति को सोचने हेतु विवश करती है, संवेदित भी करती हैं ।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी लघुकथा–आंदोलन के सक्रिय रचनाकार हैं और उन्होंने भी अलग–अलग शेड्स की लघुकथाएँ लिखने में सफलता पाई है। संवेदनात्मक लघुकथाओं में भी वे पाठकों के प्रिय रहे हैं। यों उनकी अनेक–अनेक लघुकथाएँ उधृत करने योग्य हैं, किन्तु ‘ऊँचाई’ लघुकथा तो उनकी प्रतिनिधि लघुकथा है। यह एक पिता एवं बेटे के मध्य एक सार्थक सोच की लघुकथा है। इस लघुकथा का शीर्षक ‘ऊँचाई’ की भी उल्लेखनीय भूमिका है।

पिता के आने पर बेटा–बहू ऐसा समझते हैं कि पिता कुछ पैसे माँगने आए हैं किन्तु इसके ठीक विपरीत जब वे लौटने लगते हैं तो –‘उन्होंने जेब से सौ–सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिए, ‘रख लो ! तुम्हारे काम आएँगे । धन की अच्छी पफसल हो गयी थी। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया–पिया करो । बहू का भी यान रखो ।’

मैं कुछ नहीं बोल पाया । शब्द जैसे मेरे हलक में फँस कर रह गये हों । मैं कुछ कहता, इससे पूर्व पिताजी ने प्यार डाँटा, ‘ले–लो! बहुत बड़े हो गये हो क्या?’, ‘नहीं तो !’ मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए । बरसों पहले मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर अठन्नी टिका देते थे, पर तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।’

यह अन्तिम वाक्य इस रचना की नींव है, जिस पर यह लघुकथा अपनी ऊँचाई लिये खड़ी है।

राजेन्द्र मोहन त्रिावेदी ‘बन्धु’ विगत तीन दशकों से अधिक  समय से लघुकथा क्षेत्र में सक्रिय हैं, दो सौ से अधिक  लघुकथाएँ लिखकर चर्चित हो चुके हैं। इनकी लघुकथाएँ समसामयिक होते हुए भी संवेदना से परिपूर्ण हैं । ‘संस्कार’ इनकी लघुकथा ऐसी है, जिससे कोई भी संवेदित हो सकता है। उन्होंने कुत्तों के माध्यम से आज के आदमी के बिगड़ रहे संस्कार पर करारी चोट की है। इस लघुकथा का यह वाक्य जो एक वृद्ध कुत्ता अपने साथियों से कहता है-‘लगता है, मनुष्यों के बीच रहते–रहते तुम्हारे संस्कार भी उन्हीं के जैसे हो गये हैं’’ कृष्णानंद कृष्ण के अनुसार, ‘बन्धु जी के लघुकथाओं की खास खूबी जो पाठकों को आकर्षित करती है, वह है इनकी संवेदनशीलता …… । सीधे–सहज सरल संवादों के कारण वे सहज ही पाठकों के दिल में उतर जाती है, और इनकी रचनाओं का असर देर तक/दूर तक उनके मन–मस्तिष्क पर रहता है जो एक संवेदनशील रचना ही कर सकती है।’

डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र यों तो सर्वविधा सम्पन्न हैं ;किन्तु लघुकथा–जगत् में उनकी अपनी एक विशिष्ट पहचान है। तीन शतक से अधिक  रचनाओं की रचयिता डॉ मिश्र ने यों तो विभिन्न प्रकार की लघुकथाएँ लिखी हैं ;किन्तु एक बात जो सामान्य–रूप से सभी लघुकथाओं में स्पष्ट उभर कर सामने आती है वह है इनकी लघुकथाओं में जीवन के खुरदरे क्षणों के भीतर से झाँकते मार्मिक और संवेदनशील क्षणों को पकड़ने की सफल कोशिश की गयी है। उदाहरणस्वरूप इनकी ‘पूँजी’ लघुकथा को सहज ही अवलोकित किया जा सकता है। आज प्राय:  हर व्यक्ति भ्रम में जी रहा है। यदि आत्मचिंतन करके देखें तो आप पूरे परिवार, मित्र, समाज की भीड़ में जो आपको अपने लगते हैं, अपने को अकेला पाएँगे । आज प्राय: व्यक्ति स्वार्थी है। पूरा जीवन प्रत्येक व्यक्ति इसी भ्रम की ‘पूँजी’ लेकर जीता है। ‘पूँजी’ का वृद्ध कथा–नायक भी इसी भ्रम की पूँजी के सहारे अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। ‘पूँजी’ का अन्त कितना मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी है। देखें, ‘आठवीं पढ़ने का मुझे गर्व नहीं… जीवन पढ़ने–समझने का गर्व जरूर है… आज भी मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे–अच्छे लोगों से हैं…. किसी के भी पास चला जाऊँ, रहने–खाने की कमी नहीं रहेगी…. नहीं चाहता हूँ… कहीं उन लोगों ने भी मेरे पुत्रों की तरह नज़र फेर ली तो …. आज जो मेरे पास भ्रम की पूँजी शेष है… डरता हूँ कहीं वह भी लुट न जाए ’इस लघुकथा का एक–एक शब्द संवेदना भर देता है।

इस प्रकार लघुकथा जगत् में अन्य अनेक लघुकथाकारों की भी ऐसी लघुकथाएँ हैं, जो पाठक को संवेदना से भर देती हैं उनमें डॉ सतीश दुबे, विक्रम सोनी, कृष्णानंद कृष्ण, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, पवन शर्मा, डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति, हरदीप कौर ‘सन्धु’, डॉ शकुन्तला किरण, कमलेश भारतीय, डॉ रामनिवास ‘मानव’, डॉ बलराम अग्रवाल, बलराम, सुभाष नीरव, रमेश बतरा, महावीर जैन, पृथ्वीराज अरोड़ा, अंजना अनिल, ज्ञानदेव मुकेश, चैतन्य त्रिावेदी, शैल रस्तोगी, विभा रश्मि,अनिता ललित, कमल कपूर, मधुकांत, पवित्रा अग्रवाल, प्रबोध कुमार गोविल इत्यादि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त डॉ हरदीप कौर सन्धु बहुप्रतिभा सम्पन्न लेखिका हैं। जिन्होंने काव्य–विधाओं में भी अपना लोहा मनवाया है ,तो लघुकथा–सृजन में भी उनकी सार्थक सक्रियता अनेक सम्भावनाओं की ओर सुखद संकेत करती प्रतीत होती है। यों तो उनकी अन्य अनेक लघुकथाओं में संवेदना को लेकर यान आकर्षित किया है, किन्तु ‘संरचना’ के किसी अंक में प्रकाशित ‘खूबसूरत हाथ’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आकार की दृष्टि से बहुत ही छोटी लघुकथा है किन्तु संवेदना की दृष्टि से इसका आयाम काफी बड़ा है।

शिक्षक के आदेश पर बच्चों ने अपने–अपने ढंग से चित्र बनाए । करमो ने बदसूरत से दो हाथ बनाए। अयापक ने हैरान होकर पूछा, ‘ये क्या बनाया ? हाथ ! किसके हैं ये हाथ ?’

‘ये दुनिया के सबसे खूबसूरत हाथ हैं, मेरी माँ के हाथ हैं ये।’

‘तुम्हारी माँ क्या करती है ?’

‘वह मजदूरिन है। दिन भर सड़क पर पत्थर तोड़ने का काम करती है।’

वस्तुत: लघुकथा को और आगे विकास करने हेतु ऐसी ही संवेदना जगाती लघुकथाओं की आवश्यकता है, जो व्यक्ति के मर्म को स्पर्श करते हुए उसे कुछ सोचने हेतु विवश कर दे ।

इसी क्रम में एक और लघुकथा ‘मुक्ति’, जो सुदर्शन रत्नाकर की लेखनी का कमाल है। इसमें अन्य तमाम प्रकार की संवेदनाओं से भिन्न प्रकार की संवेदना है। इस लघुकथा में एक बेटे को अपनी माँ से लगाव है ; किन्तु उसकी बीमारी के कारण माँ के कष्ट को देखकर वह उसकी मुक्ति चाहता है। यद्यपि वह सेवाभाव में कोई कमी नहीं रखता । किन्तु जब वह दिवंगत हो जाती है तो, ‘सभी रस्मों को पूरा करने के बाद आज वह घर में नितान्त अकेला रह गया था । चारपाई, जिसपर माँ सोती थी, सूनी पड़ी थी। घर में सन्नाटा पसरा था । वह चारपाई के पाए पर सिर रखकर फफक पड़ा । उसे उसमें से माँ की ममता की अजीब–सी महक आ रही थी ।

लघुकथा के ये वे पंक्तियाँ हैं जो किसी भी पाठक को संवेदना से भर देने में सक्षम है। यह पूरी लघुकथा विवरणात्मक शैली में सृजित की गयी, इसमें एक भी संवाद नहीं है। इसका कथानक ही कुछ ऐसी ही माँग करता प्रतीत होता है। अपनी संवेदना के कारण यह लघुकथा पाठकों के हृदय में स्थान बना पाने में पूर्णत: सक्षम है।

इक्कीसवीं सदी के लेखकों में नीलिमा शर्मा ‘निविया’ अच्छी लघुकथाएँ लिख रही हैं। ‘तुम भी तो’ इनकी लघुकथा श्रेष्ठता का स्तर तो स्पर्श करती ही है । इसी के साथ वह संवेदना से भी लबालब भर देती है। इसके कतिपय वाक्य यहाँ प्रासंगिक होंगे–‘कौन कमबख्त सोएगा, जब तुम मेरे घर आ जाओगी ?’

‘देखो तो, तब तुमने क्या लिखा था खत में ?’ काया हँसते हुए बोली ।

शादी की 25वीं वर्षगाँठ पर पुराने खतों की पेटी निकालकर पति–पत्नी पढ़ रहे थे ।

‘और यह देख मोटी, तूने भी तो लिखा था, मैं हमेशा ऐसी बनी रहूँगी, जैसी अब हूँ। कभी नहीं बदलूँगी और देख तो आईना, कितना बदल गई।’ हँसते हुए सुनील ने कही तो बात दिल को लग गई। बात भावनाओं के बदल जाने की कही थी न कि शारीरिक संरचना की ।

आईना भी चुगली कर रहा था, आँखों के नीचे के काले घेरे । कमर के चारों तरफ मोटा टायरनुमा घेरा, डबल गर्दन, आँखें नम हो गईं काया की ।

‘उप्फ !मैं ही कौन–सा सलमान खान लग रहा हूँ। हम दोनों जैसे भी लग रहे हैं, परफेक्ट हैं, मेरी मोटो।’ कहते हुए सुनील ने उसे बाँहों में भर लिया ।

इसी सदी की रचनाकार डॉ नीरज शर्मा हैं जो लघुकथा–जगत् में पर्याप्त सक्रिय हैं। इनकी लघुकथा ‘सक्षम’ है, जिसमें एक कामकाजी माँ को शिशु सँभालने की समस्या को प्रत्यक्ष करने का सफल प्रयास किया है।

प्रसव के पश्चात् जब वह काम पर लौटती है तो बेटी को ‘डे–केयर’ में छोड़ आती है जो उसके ऑफ़िस के भवन में ही प्रथम तल पर था। यहाँ उस माँ की स्वाभाविक संवेदना को लेखिका ने देखें किस सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। वह बार–बार बिटिया के बारे में सोचकर हलकान हुई जा रही थी, पता नहीं अनजान लोगों के बीच कैसे रहेगी । रो तो नहीं रही होगी ? मुझे न पाकर दूध भी लिया होगा कि नहीं ? यह स्वाभाविक संवेदनात्मक द्वन्द्व एक ऐसी माँ का है जो अभी कुछ ही माह का है। यह द्वन्द्व इस लघुकथा को विश्वसनीयता के स्तर भी पुष्ट करने में सक्षम है।

इक्कीसवीं सदी में इन कतिपय लघुकथाओं को पढ़कर आशा जगती है, संवेदना के दृष्टिकोण से वर्तमान पीढ़ी आशा एवं संभावनाएँ जगाती है, जो लघुकथा हेतु सुखद स्थिति है। इन तीन लघुकथाकारों के अतिरिक्त इस दृष्टि से जिनकी लघुकथाएँ आशान्वित करती हैं उनमें कुछेक नाम– नीता सैनी, डॉ छवि निगम, आभा सिंह, शोभा रस्तोगी, नेहा अग्रवाल, सरोज परमार, अखिल रायजादा, सुभाष सलूजा, हरिवंश प्रभात, शिवेन्द्र मिश्र, पूर्णिमा शर्मा, विवेक कुमार, वैभव चौहान, प्रियंका गुप्ता, रीता गुप्ता, भावना सक्सेना, जगदीश राय कुलरियाँ, दीपक मशाल, शशि पाधा, डॉ शील कौशिक, सविता मिश्र, सीमा स्मृति, सपना मांगलिक इत्यादि एवं अन्य अनेक हैं ।

निष्कर्षत: मैं यह कहने में समर्थ हूँ कि नये हों या पुराने लघुकथाकार सभी ने हिन्दी–लघुकथा में संवेदना को महत्त्व दिया है और उसके सार्थक परिणाम हमारे समक्ष हैं। साहित्य का कोई भी रूप हो उसमें मस्तिष्क से उपजी अपनी–अपनी विचारधारा हो, अपनी–अपनी प्रतिबद्धता हो, इससे किसी को इंकार नहीं है, होना भी नहीं चाहिए किनतु उसी के साथ–साथ हृदय से निकली हृदय को स्पर्श करती संवेदना भी तो होनी ही चाहिए । कारण बिना संवेदना डॉ सतीशराज पुष्करणा के अनुसार, ‘रचना, रचना नहीं मात्रा वैचारिक ‘नारा’ बनकर रह जाती है, जैसी बिना जीवन कोई पत्थर की सुन्दर आकृति।’ अत: अन्य विधाओं की भाँति ही लघुकथा में भी संवेदना एक अनिवार्य कारक है, जिसका सटीक उपयोग लघुकथा को श्रेष्ठता की ऊँचाई तक सहज ही ले जाने में समर्थ हो जाता है।

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सतीशराज पुष्करणा जी की लघुकथाएँ

July 1, 2016, 10:42 am

हम सबने एक कहावत बहुत बार सुनी होगी-देखन में छोटी लगे, घाव करे गम्भीर- अगर मैं कहूँ कि यह कहावत एक अलग ही अर्थ में लघुकथा की विधा पर बिल्कुल सटीक बैठती है, तो शायद मेरी बात से आप सब भी इत्तेफ़ाक़ रखेंगे। अपने शिल्प और गठन में लघुकथा अपने नाम के अनुरूप भले ही छोटी होती हो, पर कथ्य और भाषा के साथ-साथ पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ने के मामले में यह भी किसी कहानी या उपन्यास सरीखी वृहद कलेवर वाली रचना से उन्नीस नहीं साबित होगी…बस शर्त यह है कि इस विधा को अपनाने वाला इसके सृजन में किसी प्रकार का समझौता या भेदभाव न रखे।

लघुकथा जितनी सशक्त विधा है, उतना ही अपने अस्तित्व के लिए इसे बीच-बीच में संघर्ष भी करते रहना पड़ा है। इसके विरोध में स्वर उठाने वालों ने न केवल इसे छोटीकहानी का नाम दिया, बल्कि इसे कहानी का ही एक कटा-छँटा रूप साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की गई। उनके अनुसार लघुकथा लेखकों में धैर्य का अभाव है और अपनी बात को विस्तार से कह पाने की क्षमता में कमी, जिसकी वजह से शीघ्र नाम कमाने की लालसा में लघुकथा सृजन किया जाता है। परन्तु विरोध करने वाले लाख विरोध करते रहें, इसके समर्थकों और साधना में जुटे साहित्यकारों ने हर स्थिति में लघुकथा के उत्थान के लिए अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए इस विधा में अपना रचनाकर्म नहीं छोड़ा।

सच तो यह है कि लघुकथा खुद में एक स्वतन्त्र विधा है। इसमें संवेदना है, साहस है, वैचित्र्य है। एक सशक्त लघुकथा चन्द शब्दों में ही अपने पाठकों में विभिन्न भावनाओं का संचार कर देती है। लघुकथा पढ़ते समय कभी वह आह्लादित होता है, कभी विचलित, कभी किसी पात्र या स्थिति के प्रति घृणा और जुगुप्सा से भी भर उठता है तो कभी उसमें एक तीव्र आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है। हाँ, यह ज़रूर है कि कुछेक ऐसे भी लोग इस क्षेत्र में आए ,जिन्होंने लघुकथा के नाम पर महज फ़िकरेबाज़ी को तरज़ीह देते हुए चुटकुलों या लतीफ़ों को ही लघुकथा बनाकर प्रस्तुत कर दिया। इससे लघुकथा की विश्वसनीयता पर कई तरह के प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। लघुकथा के नाम पर चुटकुले या लतीफ़े परोसने वाले लोग यह नहीं समझ सकते कि लघुकथा का फ़लक इनसे कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है। लतीफ़े गुदगुदाते हैं, जब कि लघुकथा झकझोर डालती है। कुछेक विद्वानों का मानना है कि लघुकथा अनादिकाल से अपने एक अलग ही रूप में हमारे बीच मौजूद रही है-पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथा-सरित्सागर और जातक कथाओं के रूप में; जिनके माध्यम से हमारे पूर्वज अपने संस्कार आगे की पीढ़ी में रोपते थे।

इसकी जड़ें भले ही अतीत में रही हों, लेकिन इसका आज का स्वरूप इसकी अपनी स्वतन्त्रा पहचान है, कुछ कहानीकारों को जो लघुकथा लिखने में सक्षम नहीं को छोड़कर लघुकथा की स्वतन्त्रा पहचान से असहमति हो सकती है

वर्तमान समय में हमारे बीच कई ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने पूरी लगन और समर्पण के साथ इस विधा के उत्थान में अपना योगदान दिया है। कुछ प्रबुद्ध लेखकों के नाम मुझे याद आ रहे हैं, जिन्होंने इस विधा को अपने सशक्त कलम से सजाया-सँवारा। जिनमें मुख्य रूप से डॉ. शंकर पुणतांबेकर, विक्रम सोनी, सतीशराजपुष्करणा,सुकेशसाहनी ,बलराम, प्रेम गुप्ता ‘मानी,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’,कमल चोपड़ा, रूप देवगुण, बलराम अग्रवाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, सतीश राठी, राजकुमार गौतम, हीरालाल नागर, शराफ़त अली खान, उर्मि कृष्ण,आदि के नाम मुझे याद आ रहे। हालाँकि इनमें से कुछ साहित्यकारों ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी बहुत उल्लेखनीय कार्य किया है, परन्तु इससे इनका लघुकथा के प्रति इनकी संलिप्तता को नकारा नहीं जा सकता।

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में श्री सतीशराज पुष्करणा जी एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी साहित्य की इस विधा की साधना में लगा दी और इसको एक नई ऊँचाई तक पहुँचाया। उनकी अनेकानेक लघुकथाओं में से मेरे सामने कुछ लघुकथाएँ हैं, जिन्हें मैने अपनी अल्प-बुद्धि से समझ कर उन पर कुछ शब्द लिखने का चुनौतीपूर्ण कार्य करने का साहस किया है। आशा करती हूँ कि अपने गुरुजनों के आशीर्वाद से मैं इस कार्य में थोड़ा-बहुत सफ़ल हुई हूँगी।

हम सब इंसान होने के नाते अनगिनत इंसानी दुर्बलताओं से समय-समय पर ग्रसित होते रहते हैं। कभी उन पर विजय पा लेते हैं तो कभी-कभी उनके हाथों पराजित भी हो जाते हैं। पर इंसान होने की सार्थकता तो इसी बात से है कि हम उन दुर्बलताओं के लिए समय रहते चेत जाएँ और उन पर काबू पा लें। ऐसी ही कुछ मानसिक दुर्बलताओं के उभरने और वक़्त रहते चेत कर उन पर सफ़लतापूर्वक विजय प्राप्त करने की अलग-अलग घटनाएँ पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हमारे सामने अपनी पूरी सार्थकता से प्रस्तुत होती हैं; जैसे- जैसे-‘आग’ शीर्षक लघुकथा में लगभग अध्ेड़ावस्था को पहुँच चुकी एक एक कुँवारी महिला अपने से कई बरस छोटे घर के नौकर के प्रति ही मन में दैहिक खिंचाव महसूस करती है, परन्तु इससे पहले कि वह अधमता की गर्त में गिरे, खुद को सम्हाल लेती है। हालाँकि इस लघुकथा के अन्त में उस महिला का अपने नौकर को दूसरे ही दिन निकाल देने का निर्णय कहीं-न-कहीं उसकी मानसिक इच्छाशक्ति की कमज़ोरी को दर्शा जाता है। इस लघुकथा को पढ़कर पाठक यह भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि वह महिला एक बार तो सम्हल गई, पर सम्भवतः भविष्य में वह अपने को न सम्हाल सके।

मन के साँप- लघुकथा भी कुछ ऐसी ही कथा के इर्द-गिर्द बुनी गई है, बस फ़र्क इतना है कि ‘आग’ में एक अविवाहित युवतीका भटकाव है तो इसमें पत्नी के मायके जाने पर एक पुरुष का अपनी नौकरानी के लिए ग़लत भाव आने के बावजूद समय रहते चेत जाने का ज़िक्र हुआ है। ‘आग’ के विपरीत इस लघुकथा का पात्र मुझे ज़्यादा दृढ़ इच्छा शक्तिवाला लगा, क्योंकि वह नौकरानी से अपने कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लेने  की ताक़ीद करता है। इससे पाठक के समक्ष एक बात तो पूरी तौर से स्पष्ट हो जाती है कि उसके मन में जो भी दुर्भावना उठी, वह क्षणिक थी और भविष्य में ऐसी किसी परिस्थिति के आने पर वह पहले ही सम्हल जाएगा।

‘मृगतृष्णा’ के मुख्य पात्र एक विधुर अधेड़ है जो अनजाने ही अपने बेटे के लिए आए एक रिश्ते के लिए खुद को ‘लेकर सपने सजा लेते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति ज्ञात होते ही सम्हल जाते हैं।

“वह तो ठीक है, पर ज़रा लड़के से भी तो पूछ लो कि उसे कहीं कोई एतराज़ तो नहीं होगा? या फिर…।”

बात को बीच में ही काटते हुए बोले,”अरे! लड़के से क्या पूछना। मरजी मेरी चलेगी या उसकी? बाप मैं हूँ या वह?”

“नहीं यार! फिर भी जिसे जीवन गुज़ारना है, उसकी राय जानना तो बहुत ही ज़रूरी है।”

इतना सुनते ही उन्हें लगा जैसे घड़ों ठण्डा पानी पड़ गया हो और वह दिवा-स्वप्नों की दुनिया से बाहर आ गए।

उपर्युक्त लघुकथा अपने अन्दर एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी समेटे हुए है। एक पुरुष का मनोविज्ञान, जो आमतौर पर एक स्त्राी की मानसिकता से नितान्त भिन्न होता है। एक तरपफ विध्वा हो जाने के पश्चात् सारा जीवन अकेले गुज़ार लेने वाली प्रायः स्त्रिायाँ आमतौर पर अपने पुनर्विवाह की बात करना तो दूर, उसकी कल्पना से भी खुद को दूर रखती हैं, वहीं एक पुरुष अक्सर समान परिस्थितियों में भी अपने पुत्रा की बजाय पहले अपने विवाह की तैयारी शुरू कर देता है।

समस्त पुरुष जाति का प्रतिनिध्त्वि करते शीर्षक के साथ पुष्करणा जी ने ‘पुरुष’ में एक पुरुष के मन की स्वाभाविक चंचलता को इंगित किया है, जो महज दो स्त्रिायों का वार्त्तालाप सुनकर, बिना उन्हें देखे ही उनकी ओर एक अजीब किन्तु सहज आकर्षण महसूस करने लगता है, परन्तु जैसे ही उनमें से एक युवती उसे ‘अंकल’ कहकर सम्बोध्ति करती है, उसे अपनी अवस्था का अहसास होता है और वह बिलकुल शान्त हो जाता है। इस तरह के क्षणिक भटकाव से बहुत सारे पुरुष कभी-न-कभी दो-चार होते हैं, परन्तु ये उनके अन्दर का मर्यादित आत्मबोध् ही होता है, जो वक़्त रहते उन्हें सम्हाल लेता है। इस तरह की परिस्थितियाँ कोई मनोविकार नहीं, बल्कि बहुत सहज-स्वाभाविक मानसिक स्थिति यानी मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती हैं।

इन लघुकथाओं के अतिरिक्त इसी तरह के किसी भटकाव और नियन्त्रण को लेकर दो और लघुकथाएँ भी मेरी नज़रों से गुज़री, यथा- अंतश्चेतना, और अमानत का बोध।

हमारे समाज में परिवार का एक बहुत अहम स्थान है, और यह परिवार बनता है पति-पत्नी से…उनसे ही जुड़े अन्य रिश्तों से…। पति-पत्नी के बीच अक्सर विभिन्न मुद्दों पर मतभेद हो जाने के बावजूद उसके मूल में जो आपसी सामंजस्य, प्रेम और दायित्व-निर्वाह की एक कोमल और मीठी-सी भावना होती है, उसकी भी बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हुई है, जैसे- आत्मिक बन्धन, जीवन-संघर्ष, बीती विभावरी, मन के अक्स, अपनी-अपनी विवशता, निष्ठा, झूठा अहम, स्वभाव, आकांक्षा ।

इस श्रेणी में पुष्करणा जी की एक लघुकथा ने विशेष रूप से मुझे प्रभावित किया, वह है ‘विश्वास’शीर्षक लघुकथा, जिसमें एक पत्नी का अपने पति के प्रेम पर इतना अटूट विश्वास होता है कि जब उसकी बीमारी से मानसिक रूप से बेहद दुःखी होकर उसका पति उसे दवा के नाम पर ज़हर देने चलता है, तो पत्नी बेहद निश्चिन्तता से ये बात उस पर ज़ाहिर कर देती है कि अगर वो कभी उसे ज़हर भी देगा, तो वो भी वह बेहद खुशी से ग्रहण कर लेगी। पत्नी का अपने ऊपर ऐसा विश्वास देखकर पति को तुरन्त अपनी सम्भावित ग़लती का बोध होता है और वह एक जघन्य कृत्य करने से बच जाता है। आप भी देखिए ज़रा:-

इससे तो अच्छा है-पत्नी को जीवन से ही मुक्त कर दिया जाए। और उसने ज़हर की एक शीशी खरीद ली ।

घर पहुँचा। पत्नी ने लेटे-लेटे मुस्करा कर पूछा,”आ गए?”

“हाँ।” वह बोला,”तुम दवा ले लो।”

“इतनी दवाइयाँ रखी हैं, किसी से भी कुछ लाभ तो नहीं हुआ। मैं नहीं खाऊँगी अब कोई भी दवा।”

पति बोला,”आज मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी दवा लाया हूँ। इससे तुम अच्छी हो जाओगी ।”

पत्नी पुनः मुस्करई,”तुम नहीं मानोगे। अच्छा लाओ! अब तुम मुझे ज़हर भी दे दो, तो पी लूँगी।”

उसी क्षण पति के हाथ से शीशी छूट कर ज़मीन पर गिर कर चूर-चूर हो गई।

आज हम युवा पीढ़ी को अक्सर उसकी संवेदनहीनता के लिए कोसते हैं। माँ-बाप या अन्य रिश्तों के प्रति इनमें पनप रहे तिरस्कार का वर्णन आज के साहित्य में बहुत प्रचुरता से होता है। ऐसे में बच्चों में माता-पिता के प्रति कर्तव्य-बोध और प्रेम-सम्मान को दर्शाती लघुकथाएँ किसी शीतल, सुगन्धित बयार की तरह मन प्रफ़ुल्लित कर देती है। पुष्करणा जी की इतनी सारी बेहतरीन लघुकथाओं में से इस श्रेणी के अन्तर्गत मुझे दो लघुकथाएँ नज़र आई; यथा-भविष्य निधि, और जीवन ।

‘जीवन’शीर्षकलघुकथामेंबेटियोंकोबेटोंसेकमतरनमानिए, ऐसे एक सन्देश के छुपे होने का भी अहसास मुझे हुआ। बस एक बात खुद भी एक बेटी होने के नाते मुझे खली, कि इसमें किसी बेटी को बेटा समझ कर पालने-पोसने की बात कही गई है। अपने आसपास यह बात हम लोग अक्सर बहुत सामान्य रूप से सुनते और कहते रहते हैं, परन्तु मुझे लगता है कि बेटी को ‘बेटी’ समझकर ही पालना चाहिए…बस उसे दिए जाने वाले अवसर किसी बेटे से कमतर नहों, फिर वो बेटी अपने माता-पिता को किसी ‘बेटे-सा’अहसासनहींकराएगी, बल्कि एक संतान द्वारा माँ-बाप के प्रति निभाए जाने वाले फ़र्ज़ को पूरा करने वाली सिर्फ़ एक औलाद होगी।

“कमाल कर दिया पापा ! आप जब हमें बेटा समझ कर ही पाल-पोस एवं पढ़ा-लिखा रहे हैं तो यक़ीन रखिए…आप निश्चिन्त हो जाइए।” प्रेरणा ने अपने माता-पिता के दुःख पर आशा का फ़ाहा रखा।

“हाँ पापा! दीदी ठीक कह रही हैं। आज लड़का-लड़की में अंतर नहीं है, बल्कि लड़कियाँ लड़कों से अधिक अपने दायित्व को समझती हैं…”

फ्भविष्यनिध्य िमें बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

‘भविष्य-निधि’में बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

जब उसे अपने बच्चों के सहारे और सेवा की ज़रूरत पड़ेगी। वह सोचता है कि यदि वह अभी से अपने बच्चों में ऐसे अच्छे संस्कार रोपेगा, तो उसका खुद का ही भविष्य सुरक्षित होगा।

रिश्ते भी अपने हर रंग-रूप में हमारे आसपास बिखरे होते हैं, कभी कुछ खट्टे, तो कभी कुछ मीठे से…। ऐसे ही खट्टे-मीठे से कुछ रिश्तों की कहानियाँ बुनी गई हैं इन कुछेक लघुकथाओं में- भँवर, जिसमें कुछ मीठे हो सकते रिश्तों के दरमियाँ पनप रही तल्खी है…।

‘समन्वय’ शीर्षक लघुकथा में सिर्फ़ एक ज़िन्दगी ही नहीं, बल्कि सात जन्मों के लिए बँधने वाले शादी के पवित्र रिश्ते का फ़ैसला उससे होने वाली लाभ-हानि का आकलन करने के पश्चात लिया जाता है।

शीशा दरक गया- ऐसे दो मित्रों के आपसी रिश्ते को बयान करता है, जिसमें एक मित्र तो अवसर पड़ने पर अपने मित्र की निस्वार्थ भाव से सहायता कर देता है, पर जब उसी मित्र को मदद की आवश्यकता होती है तो दूसरा मित्र साफ़ तौर पर मना तो नहीं करता, परन्तु उस मदद की वजह से उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ा, यह बात साफ़ तौर पर जता देता है। लघुकथा के मध्य में ही पाठकों को उसकी इस पीड़ा का अहसास हो जाता है:-

“तुम्हें भाभी को नाराज़ करके नहीं आना था। यह मेरा काम था…मैं अकेला ही आ जाता।” बहुत दुःखी मन से उसने स्वप्निल को कहा और सोचने लगा-“स्वप्निल वे दिन भूल गया जब मैं उसके साथ सैंकड़ों बार अपने व्यवसाय, घर-द्वार की चिन्ता किए बिना दो-दो, तीन-तीन दिन उसके साथ कामों के लिए आता-जाता रहा हूँ। इसके लिए कितनी बार पत्नी ने घर में झंझट-बखेड़ा खड़ा किया। मगर मैंने स्वप्निल से कभी इसकी चर्चा तक नहीं की। क्या यह प्यार, मित्रता, समर्पण, भावात्मक लगाव…सब कुछ एकतरफ़ा ही था? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह सम्बन्ध इकहरा नहीं है?”

इस लघुकथा के माध्यम से पुष्करणा जी ने लगभग हर पाठक के मन की किसी न किसी ऐसी याद को ज़रूर छुआ होगा, जब हम तो किसी के लिए भावात्मक रूप से कुछ महसूस करते हुए अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं, पर वक़्त पड़ने पर वही इंसान या तो हमसे कन्नी काट लेता है या फिर अपने किए बूँद भर कार्य के लिए गागर भर अहसान जता देता है।

‘नकलीचेहरा’ शीर्षक लघुकथा में हमारे-आपके, सबके जीवन में कभी न कभी खुल कर सामने आने वाली रिश्तों की कटु सच्चाई बड़ी सटीकता से दिखाई गई है। लघुकथा के मुख्य पात्र की पत्नी कैंसर से ग्रसित होकर मृत्यु-शय्या पर पड़ी अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रही होती है और ऐसे में जब वह अपने सगे-सम्बन्धियों के पास किसी सहायता की उम्मीद में जाता है, उसे हर जगह से निराशा हाथ लगती है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात वही सब तथाकथित अपने लोग शोक जताने आ जाते हैं।

हमारी ज़िन्दगी के इन तमाम रिश्तों की पोल सी खोलती ये लघुकथाएँ कहीं न कहीं झकझोर देती हैं।

रिश्ते सिर्फ़ खून से ही नहीं बनते। हम स्वयं भी कई रिश्ते चुनते हैं। ये मन से बँधे रिश्ते कभी क्षणिक होते हैं तो कभी जीवनपर्यन्त चलते हैं। कई रिश्तों को तो हम कोई नाम भी नहीं दे सकते, वह या तो दर्द का रिश्ता होता है या इंसानियत का।

इंसान का इंसान से तो कई रिश्ते देखते हैं हम अक्सर, पर एक इंसान और एक मूक जानवर के प्यारे से रिश्ते को दर्शाया गया है-दायित्वबोध- में ।

दो छोटे बच्चों के बीच पनपे एक मासूम से रिश्ते की दास्तान है-सबक- जिसमें दो नन्हें बच्चों के बीच खेल-खेल में हुए झगड़े के कारण दोनो के परिवारवाले आपस में बैर-भाव पाल लेते हैं, जब कि वे बच्चे सब कुछ भूलभाल कर फिर एक ही रहते हैं। इस लघुकथा में माता-पिता को अपने बच्चों से अपनी ग़लती सुधारने की शिक्षा मिलती है।

“फिर भी क्या! झगड़ा तो हम दोनो का था। और हम दोनो ने आपस में कभी बोलना तक बन्द नहीं किया। हम दोनों तो हर रोज़ उसी तरह साथ-साथ खेलते हैं। तो फिर आप बड़े, बिना किसी झगड़े के आपस में बैर-भाव क्यों रखते हैं?”

बच्चे का यह मासूम, लेकिन कितना सार्थक और सटीक सवाल क्या हम सभी को अपने नज़रिये के बारे में एक बार फिर सोचने पर मजबूर नहीं कर देती?

‘माँ’शीर्षकलघुकथामेंट्रेन यात्रा में ठण्ड से बेतरह काँपते एक युवक को जब एक अनजान वृद्धा से ओढ़ने के लिए शॉल मिलती है, तो उसे उस वृद्धा में अपनी माँ नज़र आती है।

वह लगभग चौंकते हुए उठी,”अरे! तुम तो काँप रहे हो।” और उसने झट से सिरहाने रखी अपनी बड़ी सी शॉल निकाली और बहुत ही सहजता से उसकी ओर उछाल दी।

“ले, ओढ़ ले ! काफ़ी ठण्ड है बेटा।”

उसे लगा वह वृद्धा कोई और नहीं उसकी अपनी माँ है। फिर उसके जेहन में विचार कौंधा-“माँ,…माँ ही होती है। उसका कोई एक चेहरा नहीं होता।”

‘उपहार’ शीर्षक लघुकथा में एकगुरु-शिष्य का अनमोल रिश्ता है, जिसमें एक मेधावी छात्रा रंजना को उसके कोचिंग टीचर निर्मल बाबू उसकी सारी फ़ीस लौटा देते हैं, ताकि वह आगे पढ़ सके। सिर्फ़ इस लघुकथा में ही रंजना अपने गुरु के लिए श्रद्धा से नहीं भरती, बल्कि एक पाठक का मन भी समाज में मौजूद ऐसे अध्यापकों के लिए नतमस्तक हो जाता है।

“मैने तुम्हें दस महीने पढ़ाया…दो सौ रुपए की दर से, दो हज़ार हुए…जो रुपये तुमने मुझे दिए…वही नोट ज़्यों के त्यों हैं…। मैं टीचर होने से पूर्व एक आदमी हूँ…पारिवारिक आदमी। मैने गरीबी झेली है…मैं ऐसे बच्चों का दुःख दर्द समझता हूँ…। हाँ, इन पैसों से तुम आगे भी पढ़ाई जारी रख सकती हो…।”

आत्मबल हो तो हम किसी भी परिस्थिति से निपतने, उससे साहसपूर्वक जूझ सकते हैं। कुछ ऐसी ही प्रेरक भावनाओं से ओतप्रोत लघुकथाएँ भी पुष्करणा जी की सशक्त कलम से निकली हैं। मन में ऐसा ही साहस जगाती लघुकथा है-विवशता के बावजूद- जिसमें ट्रेन में कुछ टुच्चे लोगों की अवांछनीय हरकतों को कुछ देर तक निरीहतापूर्वक बर्दाश्त करते रहने के बाद एक युवती किस प्रकार महज अपने आत्मबल के दम पर उनका सशक्त विरोध करके पूरी स्थिति ही पलट देती है, यह निःसन्देह क़ाबिले-तारीफ़ है। पीड़ित युवती में किस तरह बदलाव आता है, ये देखिए:-

धीरे धीरे उस युवती का चेहरा सख़्त होने लगा। उसके मन में यह बात आई कि मैं क्या कुत्तों से भी गई गुज़री हूँ?

यह विचार आते-आतेउसका चेहरा धीरे-धीरे तमतमा उठा और उसने आव देखा न ताव, अपनी पूरी शक्ति से उस थुलथुल व्यक्ति को ऐसा धक्का दिया कि वह बर्थ से नीचे जा गिरा। और वह दहाड़ी,”कमीने! लगता है तुम किसी इन्सान की नहीं, अन्य जीव की सन्तान हो।”

वह इस हमले के लिए तैयार नहीं था। इतने में गाड़ी में चल रहे बन्दूकधारी सिपाही भी आ गए, और उस कोच में बैठे यात्री भी सक्रिय हो उठे।

यही आत्मबल हम -बदलते प्रतिबिम्ब- के रिक्शाचालक में देखते हैं जो किसी भी हाल में अपना रिक्शा चलाने का रोजगार जारी रखने का निर्णय लेता है, तमाम विषमताओं के बावजूद…।

लौटते वक्त उसने निर्णय कर लिया था कि जब दया और विवशता की बैसाखियों पर ही ज़िंदा रहना है, तो फिर भीख मांगना ही क्या बुरा है। किन्तु सोच के इस क्रम में उसका पौरुष जाग उठा था और तत्काल लिए निर्णय के लिए उसने अपने को बहुत धिक्कारा था। सोचते-सोचते वह एकाएक चीख-सा उठा,”नहीं ! मैं दया और विवशता के सहारे नहीं चलूँगा, मैं लडूँगा, संघर्ष करूँगा…इसजीवनसे। आज के बाद मैं बिना अपना अधिकार लिए किसी को नहीं छोडूंगा ।”इस चीख के साथ ही वह एकाएक उठ कर बैठ गया था और उसकी मुट्ठियाँ स्वत: भिंच गई थी । इस समय वह अपने को एकदम हल्का महसूस कर रहा था…बिलकुल तनाव-मुक्त । उसके चेहरे पर संतोष के भाव उभर आए थे ।

‘इक्कीसवीं सदी’ शीर्षक लघुकथा में भी एक युवा इंजीनियर किस प्रकार भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प लेता है, यह बहुत प्रेरणास्पद है।

अग्रज ने कहा,”देखो ! अब देश में सभी बेईमान हो गए हैं, तो तुम ईमानदार रहकर ही क्या कर लोगे !”

प्रत्युत्तर में इंजीनियर ने बहुत दृढ़ निश्चयी होते हुए कहा, “भैया ! मैं और तो कुछ नहीं कर सकता, किन्तु बेईमानी की इतनी लम्बी गिनती में कम-से-कम एक अपनी गिनती और तो नहीं जुड़ने दूँगा।”

अपना संकल्प व्यक्त करते हुए वह गौरव का अनुभव कर रहा था ।

‘भीतर की आग’ में भी सुदीप नामक पत्रकार अपने आदर्शों से समझौता किए बग़ैर भ्रष्टाचार और दबावों से जूझने का निर्णय लेता है। इस लघुकथा मेंहमलेखक के अन्दर के जुझारूपन और स्वाभिमान की भी थोड़ी सी आग देखते हैं । आज हमारा समाज इस कदर भ्रष्टाचार की दलदल में गले तक डूबा हुआ है कि जिस कलम की ताकत से बड़ी बड़ी तानाशाही का तख्ता पलटा जा सकता है, आज वही कलम चंद नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के हाथों बिक कर किस तरह बेबस कर दी जाती है। ऐसे में सुदीप के माध्यम से पुष्करणा जी ने उन मुट्ठी भर ईमानदार कलम के सिपाहियों में एक अलख जगाने की बहुत अच्छी और सराहनीय कोशिश की है।

‘दिया और तूफ़ान’ में ससुराल में प्रताड़ित होकर माँ के पास आई मेघना अपनी भीषण अस्वस्थता के बावजूद एक दिये को तेज़ हवा में संघर्ष करते देख खुद भी अपने बच्चों के लिए लड़ने का साहस अपने अंदर संजो लेती है।

-दिया जलाया ही था कि ज़ोर से हवा चलने लगी…। मेघना की दृष्टि दीये पर जाकर केन्द्रित हो गई…। वह देखने लगी कि इतनी तेज़ हवा में दीया अपना अस्तित्व बचाने हेतु किस तरह से संघर्ष कर रहा है…। उसे मानो संघर्ष का गुरू-मंत्र मिल गया हो।

हम अक्सर अपने अधिकारों के प्रति तो बहुत जागरुक रहते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति बेहद उदासीन होते हैं। फिर चाहे वो कर्तव्य सामाजिक हों या पारिवारिक, पर जब यह उदासीनता एक सषक्त कलम के माध्यम से हमारे सामने आइना रखती है तो बहुत करारा झटका देती है।

‘ख़ुदगर्ज़’  शीर्षक लघुकथा में एक व्यक्ति अपने बच्चों पर गलत असर पड़ने के बारे में फ़िक्रमन्द होकर उनके सामने तो ध्रूमपान नहीं करता, पर वही शख़्स अपने मित्र के यहाँ उसके बच्चों की मौजूदगी में भी सिगरेट पीने के वक़्त एक बार भी नहीं सोचता कि उसके इस आचरण का उन बच्चों पर भी बुरा असर पड़ सकता है। ज़रा देखिए यह किस प्रकार हमारे सामने एक सवाल प्रस्तुत करती है-

उनकी ओर संकेत करते हुए पहले मित्र ने दूसरे को उत्तर दिया,”क्या इन बच्चों को तुम अपने बच्चों-सा नहीं समझते?”

इस उत्तर ने दूसरे को जड़-सा कर दिया।

यह लघुकथा हम सब में अचेतन में ही व्याप्त अपने-पराये की भावना को बड़ी खूबी से प्रदर्शित कर देती है।

ऐसा ही एक करारा तमाचा पड़ता है-उच्छ्लन- शीर्षक लघुकथा के माध्यम से,जिसमें आधुनिकता की अंधी दौड़ में लड़खड़ा रहे एक युवक को मानो होश तब आता है, जब वह अपनी ही बहन केसाथ किसी अन्य युवक के द्वारा वैसा ही व्यवहार करते हुए देखता है, जैसा वह खुद किसी अन्य युवती के साथ करने का इच्छुक था। इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति कुछ देर के लिए पाठक को स्तब्ध-सा करते हुए बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है…”तो क्या हुआ? मैं भी किसी की बहन हूँ, डॉर्लिंग…।”

अपने आसपास के जाने-अनजाने लोगों के प्रति हमारा भी कुछ नैतिक कर्तव्य होता है, पर अपने अन्दर के भय के चलते हम उनसे मुँह ही मोड़े रहते हैं। चाहे अन्दर ही अन्दर हमें कितनी भी ग्लानि क्यों न महसूस हो, पर आगे बढ़ कर असामाजिक तत्वों का विरोध करने का साहस हममें नहीं होता। कुछ ऐसी ही कहानी है- नपुंसक- की, जिसमें ट्रेन के डिब्बे में छेड़छाड़ का शिकार हुई महिला की मदद करने कोई आगे नहीं आता।

हमारे समाज में विकास करने का दावा करने वाली सरकारी योजनाएँ और कार्य की असलियत क्या होती है, इस पर से पर्दा उठाती लघुकथा है-परिभाषा- जिसमें बहुत सारे सरकारी स्कूल किस तरह बहुधा सिर्फ़ सरकारी दस्तावेज़ों पर ही चलते हैं, यह बहुत सशक्तता से दर्शाया गया है।

उन्होंने अपने रिश्तेदार से पूछा,”गाँव के दूर वृक्ष के नीचे अकेली यह झोपड़ी किसकी है?”

उत्तर में उन्होंने कहा,”सुनते हैं, यह स्कूल है।”

“कितने बच्चे पढ़ते होंगे इसमें?”

“बच्चे! यही कोई चार-छह बच्चे प्रतिदिन आते हैं, और कुछ देर इधर-उधर खेल-वेल कर अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं।”

“यहाँ के मास्टर साहेब कौन हैं?”

“मास्टर साहेब को तो कभी देखा ही नहीं। तो फिर कैसे पता चलता कि वे कौन हैं?”

“फिर, यह कैसा स्कूल है?”

“सरकारी है!”

इस लघुकथा का सबसे सटीक अन्त मेरे विचार से यही आखिरी डॉयलाग हो सकता था, पर पुष्करणा जी ने इसका अन्त इस पंक्ति से किया है- शिक्षा पदाधिकारी सरकारी स्कूल की परिभाषा सुन कर अवाक् रह गए।

सामाजिक असमानता पर लोगों की कथनी और करनी में हम प्रायः बहुत अन्तर देखते हैं। इसी बात को परिलक्षित किया गया है-हाथी के दाँत- शीर्षक लघुकथा में।

यही सत्य एक और लघुकथा में दिखाया गया है-बदबू-जिसमें एक निम्न जाति वाले से दोस्ती रखने में तो पात्र को कोई एतराज़ नहीं, परन्तु उससे रिश्तेदारी की बात सोचना भी उसे अत्यन्त अपमानजनक प्रतीत होता है। इस एक संवाद ने पूरी मानसिकता की पोल खोल दी है-

“क्या बकते हो तुम! अरे, कभी यह तो सोचा होता…कहाँ हम उच्च जाति के, और कहाँ तुम ! दोस्ती का हर्गिज़ यह अर्थ तो नहीं कि तुम हमारी इज्ज़त से ही खेलने लगो ।”

पुष्करणा जी मानव मन के भी सूक्ष्म विश्लेषक हैं। ‘रंग जम गया’ शीर्षक लघुकथा में एक पहलवान लड़ने की इच्छा न होते हुए भी महज अपनी हँसी उड़ने के भय से मैदान छोड़कर नहीं हट पाता। परन्तु जैसे ही उसे एक अन्य युवक के बीच-बचाव के कारण सम्मानपूर्वक लड़ाई छोड़ने का मौका मिलता है, वह झट से मान जाता है।बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा-वाली कहावत चरितार्थ हो गई। पहलवान भी जैसे चाह रहा हो। पीछे हटते हुए बोला,”तुम बीच में न आ जाते तो आज इसकी ख़ैर नहीं थी।”

हमारा समाज किस प्रकार झूठ के आवरण में छिपे सत्य को देख कर भी अनदेखा कर देता है, उसे बड़ी ही सहजता से-बोफ़ोर्स काण्ड-शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है। यद्यपि मेरे विचार से इस लघुकथा का शीर्षक कथ्य के हिसाब से कुछ और होता तो ज़्यादा अच्छा होता।

हम अक्सर महसूस करते हैं कि समाज बदल रहा, मंथर गति से ही सही, परन्तु लोगों की सोच भी बदल रही है…और सही दिशा में बदलनी चाहिए भी। एक सजग इंसान की तरह पुष्करणा जी ने भी इस बदलाव को महसूस किया तभी तो उन्होंने ऐसी ही सार्थक पहल की प्रेरणा देती लघुकथा रची है-कुमुदिनी के फूल- जहाँ एक बेटा अपनी विधवा माँ के त्यागों के नीचे कहीं गहरे दब गई उसकी एक इच्छा का सम्मान करते हुए उसके पुनर्विवाह की पहल करता है।

हमारे भारतीय समाज में बच्चों के प्रति दायित्व निर्वाह करते हुए किसी विधुर का पुनर्विवाह करना बहुत सहजता से स्वीकार्य है, वहीं अगर एक स्त्री समस्त कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करते हुए ऐसा सोचने का साहस भी करती है ,तो उसे चारित्रिक रूप से गिरा हुआ मान लिया जाता है। ऐसे में पुष्करणा जी की यह लघुकथा एक ठण्डी बयार की तरह मन को सहला जाती है। समाज की सोच को अपनी कलम की धार से एक नई दिशा देना एक साहित्यकार का प्रथम कर्तव्य होता है, जिसमें अपनी ऐसी लघुकथाओं द्वारा पुष्करणा जी पूरी तौर से खरे उतरे हैं।

एक पुरानी कहावत है- रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई-कुछ-कुछ इसी की याद दिलाती लघुकथा है, बाहर लौटते वक़्त उन्हें अपने ऊपर बड़ी कोफ़्त हो रही थी…नवाबी ख़त्म हो गई मगर फिर भी रुतबा अभी बाकी है…अब चाटो इस रुतबे को और मिटाओ अपनी भूख ।

कभी-कभी परोपकार करने की अपनी स्वभावगत विशेषता के चलते यदि हम किसी का भला करते भी हैं, तो समाज में दिनो-दिन बढ़ती जा रही आपराधिक मनोवृत्ति हमको कितनी दुविधा में डाल देती है, इसका बहुत सशक्त निरूपण किया गया है-उधेड़बुन- में, जिसमें मानवती बारिश में भीग रहे एक अधेड़ व्यक्ति को दयावश घर के बरामदे में बिठा कर चाय-नाश्ता तो करवाती है और कुछ पुराने वस्त्र देती है, ताकि वह ठण्ड से बच सके, परन्तु साथ-ही-साथ घर में अकेली होने के कारण उसे उस अधेड़ से डर भी लगता है। अन्ततः उसे विदा करके ही वह चैन की साँस ले पाती है। लगातार पाठकों को अपने में बाँधे रहने वाली यह लघुकथा एक बार फिर पुष्करणा जी की सूक्ष्म विवेचन दृष्टि की परिचायक है।

कुछ अन्य लघुकथाएँ जो विभिन्न मुद्दों का निर्वहन बड़ी कुशलतापूर्वक करती हैं, उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं- वापसी, श्रद्धाजलि, मरुस्थल, सज़ा, टेबल-टॉक, ऊँचाई, महानता, बदलती हवा के साथ, बेबसी, इबादत, बदलता युग, सिला फ़र्ज़, पुरस्कार, रंग, सिफ़ारिश, मास्क लगे चेहरे, लाज, रक्तबीज, काँटे ही काँटे, परिस्थिति, कुंजी, आतंक, हित, दरिद्र, नई पीढ़ी, ज़मीन की शक्ति, स्वाभिमान, काठ की हाँडी, बलि का बकरा, जयचंद, पिघलती बर्फ़, ज़मीन से जुड़ कर, चूक, आकाश छूते हौसले, आदि ।

सही दिशा- शीर्षक लघुकथा समाज के सामने साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित एक बहुत बड़ा सवाल उठाती है, जिसका जवाब शायद जानता हर कोई है, पर वक़्त आने पर मानता नहीं। कोई भी संवेदनशील पाठक इसे पढ़ कर कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य कर देगा।

…सहायतार्थ सेना आई। टुकड़ियों ने मलबे हटा कर लाशें निकालने के क्रम में ही उस डिब्बे के मलबे को हटाया। देखा- एक ब्राह्मण महाराज लुढ़के पड़े थे, उनके मुँह के ऊपर ही हरिजन का मुँह और बगल में चिर-निद्रा में सोये मौलवी साहब का दाहिना हाथ ब्राह्मण महाराज के दाहिने हाथ में जंजीर की भाँति गुँथा हुआ था।

सबका मिला-जुला रक्त, जाति एवं साम्प्रदायिकता की रूढ़ियों को मुँह चिढ़ता हुआ ठोस हो चुका था।

आज के युग में इंसान किस तरह सिर्फ़ अपना मतलब साधता है और उसके बाद गिरगिट की तरह रंग बदल लेता है, यह हम में से हर कोई कभी-न-कभी अनुभव कर ही चुका है। इसी को दर्शाती लघुकथा है-स्वार्थी- जिसमें अपना काम निकलने तक एक व्यक्ति अपने मित्र का समय तो बड़ी बेशर्मी से बर्बाद करता हुआ उसका काम भी बिगड़वा देता है, पर जब वही मित्र उसका काम हो जाने के बाद उससे रुकने का अनुरोध करता है, तो वह अपना समय बर्बाद होने की बात कहता हुआ बड़ी आसानी से अपना पल्ला झड़ लेता है।

गिरगिटी रंग में रंगी आज की राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधी साँठ-गाँठ का एक अनुपम उदाहरण है-साँप और छुछुन्दर-जिसमें एक नेता द्वारा पाला गया अपराधी भस्मासुर की तरह उसे ही बर्बाद करने पर तुल जाता है और नेता को ही मजबूर होकर उसकी बात माननी पड़ती है।

भ्रष्टाचार सिर्फ़ राजनीति में ही नहीं, बल्कि समाज को नई दिशा देने वाले साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी घुसपैठ बना चुका है। ‘छल-छद्म ’शीर्षक लघुकथा में मनुश्री इसी की झलक है, जो अपनी परिचित एक फ़र्ज़ी साहित्यिक संस्था से मिली नकली पुरस्कार राशि उसी संस्था को लौटाने का शिग़ूफ़ा छोड़ के खुद की उन्नति के रास्ते भी खोल लेती है। साहित्य-जगत में अब ऐसी घटनाएँ बहुत आम होती जा रही, जिसने निःसन्देह पुष्करणा जी जैसे साहित्य-साधक को इतना झकझोरा कि एक सशक्त लघुकथा का जन्म हुआ। “संस्था के पास इतना पैसा ही नहीं, वह तो मात्र दिखावा था। इससे मैं राज्यपाल की दृष्टि में एक बड़े साहित्यकार के रूप में आ गई…। सरकारी सम्मान मिलने की जब सूची बनेगी तो राज्यपाल तथा अन्य लोग मेरे नाम की सिफ़ारिश कर सकते हैं।” बेटी की दूर दृष्टि पर पिता को गर्व हो आया। अब उनका क्रोध काफ़ूर हो चुका था और उसका स्थान मुस्कान लेती जा रही थी।

सतीशराज पुष्करणा जी की मौजूदा लघुकथाओं की यदि मैं एक संक्षिप्त विवेचना करना चाहूँ तो हम यही पाएँगे कि उनकी लघुकथाएँ हमारे हृदय के किसी न किसी हिस्से को छूती ज़रूर हैं। उनका रचना-कार्य ज़िन्दगी के महज किसी एक पहलू को स्पर्श नहीं करता, वरन उन्होंने हर विषय पर अपनी कलम की धार पैनी की है। फिर चाहे वो राजनीति हो या सामाजिक भेदभाव, रिश्तों में बसा स्वार्थ हो या गहरा अटल विश्वास, विभिन्न परिस्थितियों से उपजी बेबसी हो या फिर इंसान का आत्मबल, हर किसी का बहुत सटीक वर्णन किया है उन्होंने। इंसानी स्वभाव और उसके मनोविज्ञान की भी बहुत गहरी और सूक्ष्म विश्लेषण-क्षमता पुष्करणा जी की लघुकथाओं में परिलक्षित होती है। कुछ लघुकथाएँ सम्भवतः अपने रचनाकाल की वजह से पुरानी विषय-वस्तु पर आधारित महसूस होती हैं, परन्तु फिर भी उनकी सामयिकता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि पुष्करणा जी नए युग के रंगों से अनजान हों। उनकी कई सारी लघुकथाएँ इस नए ज़माने की विडम्बनाओं को भी हमारे सामने उतनी ही सटीकता और गहराई से प्रस्तुत करती हैं।

कुल मिला कर हम सतीशराज पुष्करणा जी को एक ऐसे समर्पित लघुकथाकार की श्रेणी में रख सकते हैं जिन्होंने कथ्य के तौर पर ज़्यादा नए प्रयोग न करने के बावजूद अपनी रचनात्मकता के साथ समझौता नहीं किया है। कई बार एक बेहद मामूली- सी लगने वाली बात पर भी उन्होंने अपने कसे हुए शिल्प-भाषा-शैली के माध्यम से एक सार्थक लघुकथा हमारे सम्मुख पेश कर दी है, जिसके लिए वे निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। इस सन्दर्भ में मुझे उनकी `स्वभाव ’शीर्षक लघुकथा का जिक्र करना उचित प्रतीत होता है, जिसमे लगभग हर इंसान में मौजूद प्रशंसा की चाह का बहुत सहज ढंग से वर्णन किया गया है । बातचीत में प्रयुक्त संवाद बिलकुल वैसे हैं जैसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं । पुष्करणा जी ने अपने संवादों की इस सहजता को बरकरार रखने के लिए अंगरेजी के शब्दों का भी प्रयोग करने से गुरेज़ नहीं किया है…। जैसे कि पति-पत्नी के बीच के ये कुछ संवाद:-

अभी बातचीत चल ही रही थी कि ललित बाबू की बीवी ने अपने पति को संबोधित करते हुए कहा, “ज़रामेरे क्लाइंट की एक एप्लीकेशन तो लिख दीजिए, इतने में मैं कोर्ट जाने की तैयारी कर लेती हूँ ।”

पुष्करणा जी की अधिकतर लघुकथाएँ इसी तरह अपने पाठकों के सामने कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष रूप से कोई न कोई ऐसा सवाल खड़ा कर देता है, जिस पर वह कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है । बस कुछेक लघुकथाएँ थोड़ी सामान्य रचनाएँ कही जा सकती हैं, पर उनकी संख्या नगण्य ही है । उनका लघुकथा संसार बहुत विस्तृत कहा जा सकता है ।

हाँ, यदि वे नई और आधुनिक दुनिया के कुछ नए कथ्य और विषय भी थोड़ा अधिक चुने तो उनके इस अनूठे रचना-संसार में एक पाठक के तौर पर मुझे जो थोड़ी सी कमी खली, वह दूर हो जाएगी…इस बात में लेशमात्र भी संशय नहीं…।

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( सम्पादित रूप)

भारतीय लघुकथाओं में मनोविज्ञान

August 1, 2016, 6:07 pm

मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि ाहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा
होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।

बच्चे और परिवार
बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर, ।

बच्चे और समाज

बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।

बाल मन की गहराइयाँ

बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल

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पारस दासोत की लघुकथाओं में स्त्री

August 31, 2016, 11:56 am

  समूचे प्राणिजगत में दो गुण मूल रूप से पाए जाते हैं—जीवन-रक्षा और जाति-रक्षा। जहाँ तक मनुष्य की बात है, जीवन-रक्षा के लिए वह एक स्थान को छोड़कर किसी भी अन्य स्थान तक जा सकता है, भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी खा सकता है, स्वयं से बलिष्ठ प्राणियों से लड़-भिड़ सकता है और स्वयं को अशक्त महसूस कर पलायन भी कर सकता है। जाति-रक्षा से तात्पर्य मनुष्य-जाति की रक्षा से है और इसका सम्बन्ध युद्धादि से न होकर सन्तानोत्पत्ति से है। यहाँ काम के विकृत रूप की चर्चा करना हमारा ध्येय नहीं है। इसलिए इस बिन्दु पर तर्क कृपया न करें। जीवित प्राणियों में नर और मादा—ये दो रूप प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। इन दोनों में ही जननांग भी प्राकृतिक रूप विकसित होते हैं और जननांगों की संवेदनशीलता भी प्रकृति प्रदत्त गुण है जिसका सीधा सम्बन्ध स्वजाति को उत्पादित करने और बचाए रखने के मूल गुण से है । मनुष्य-जाति में इस मूल गुण का विकार ही ‘कामी’,‘कामान्ध’ आदि विशेषणों से व्यक्त होता है। अन्य प्रजातियों में यह प्रकृति द्वारा अनुशासित रहता है । अन्य प्रजाति के प्राणी ‘कामी’ नहीं होते; हाँ, ॠतु-विशेष में ‘कामान्ध’ अवश्य देखे जाते हैं, वह भी विपरीत लिंग के प्रति, समान लिंग के प्रति नहीं।

मुझे अक्सर महसूस होता है कि स्त्री मनोविज्ञान को आम तौर पर कमतर आँका जाता है। भक्तिकालीन समूचा हिन्दी काव्य स्त्री को ‘हेय’ और ‘त्याज्य’ मानकर चलता है तो रीतिकालीन हिन्दी काव्य ही नहीं, अनेक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ उसे आकर्षक ‘भोग्या’ के रूप में चित्रित करते हैं। तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में राम के समक्ष समुद्र नारी को ढोल, गँवार और शूद्र के समकक्ष रखता है। यह उसके अपने चरित्र की गिरावट है या उसके शब्दों में तुलसीदास का काल स्वयं बोल रहा है? जो भी हो, स्त्री और पुरुष के शारीरिक विकास और शारीरिक क्षमताओं को एक ओर करके जरा इन सवालों पर गौर करें —

1-क्या पुरुष स्त्रियों की तरह सोचते हैं?

2- क्या स्त्रियाँ पुरुषों की तरह सोचती हैं? अथवा,

3-क्या हर व्यक्ति का सोचने का अन्दाज़ अलग है?

शारीरिक सुख-दु:ख बहुत-से आवेशों और आवेगों के स्रोत होते हैं और ऐसा मन को उनकी अनुभूति के कारण या मन में उनका विचार उत्पन्न होने के कारण होता है। आवेश दो तरह के होते हैं—प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। शुभ या अशुभ तथा सुख या दु:ख से उत्पन्न आवेश प्रत्यक्ष होते हैं जैसे, इच्छा, अरुचि, उल्लास, आशा, भय, सुरक्षा का भाव आदि। अप्रत्यक्ष आवेश भी इन्हीं तत्त्वों से उत्पन्न होते हैं लेकिन कुछ अन्य गुणों का उनमें योग होता है। इनके अन्तर्गत गर्व, विनम्रता, महत्त्वाकांक्षा, मिथ्या-अभिमान, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, करुणा, द्वेष, उदारता आदि को रख सकते हैं। पारस दासोत की लघुकथा ‘सोने की चेन’ गर्व-प्रदर्शन का ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह असम्भव लगता है कि कोई व्यक्ति स्वयं को एक ही समय में विनम्र और गर्वित, दोनों प्रदर्शित करे; लेकिन अनेक ऐसे लोग आपको सहज ही मिल जाएँगे, जिनकी ‘विनम्रता’ से ‘गर्व’ का भाव इतना अधिक झलकता है कि आपको खिन्न कर डालता है। यही स्थिति ‘दीनता’ के ‘सगर्व’ प्रदर्शन की भी है। ऐसे अगणित ‘दीन’ आपको सत्ता के गलियारों में ‘सगर्व’ साष्टांग लेटे मिल जाएँगे ,जो अपने आका के कृपापात्र बनने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं।

आजकल की महिलाओं की ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण मुकाम तब आता है जब उन्हें कुवाँरी रहकर अपने करियर और गार्हस्थ्य धर्म के बीच किसी एक को चुनना होता है। जहाँ बच्चों से घिरी विवाहित स्त्रियाँ यह महसूस करती हैं कि उनकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो रहा, वहीं उम्रदराज़ कामकाजी अविवाहित महिलाएँ अपने असीम अकेलेपन से निपटने के लिए मनोविश्लेषकों की शरण में जाने को शापित रहती हैं। इसका मतलब है कि आज की स्त्री के लिए संतुलित जीवन एक बड़ी चुनौती है। एक कथाकार के तौर पर पारस दासोत का ध्यान स्त्री मनोविज्ञान के इस पक्ष की ओर नहीं जा पाया है।

स्त्रियाँ स्थायित्व चाहती हैं और यह चाहत उन्हें दुविधा में डाले रखती है। एक ही समय में वे दो दिशाओं की शिक्षा ग्रहण करती हैं।  एक ओर वह पुरुषों की तरह, सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने की शिक्षा पाती है; दूसरी ओर वह विवाह करके बाल-बच्चेदार जीवन जीना चाहती है। लगभग इसी मानसिक जद्दोजहद से उस महिला को भी दो-चार होना पड़ता है जिसका लालन-पालन तो पारम्परिक विचारधारा व परिधान-शैली के बीच हुआ हो, परन्तु जीना उसे आधुनिक विचारधारा और परिधान-शैली वाले समाज में पड़ रहा हो। पारस दासोत की लघुकथा खिड़की में इसका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। परन्तु कुछ आधुनिकाओं में तीसरी दिशा भी देखने को मिलती है—भोग की दिशा। इस दिशा में बढ़ते हुए वह अनेक अनर्थों की कर्त्री बनती है। ‘एक कहानी वही’ में ऐसी ही एक युवती का चित्रण हुआ है।

यह एक स्वीकृत तथ्य है कि लम्बे समय से आज तक स्त्री को पितृसत्तात्मक स्पष्ट कहें तो—पुरुष-सत्तात्मक समाज में रहना पड़ रहा है जिसमें उसकी मानसिक क्षमताओं तक का आकलन उसकी शारीरिक बनावट के मद्देनज़र किया जाता है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक क्लारा थॉम्प्सन के अनुसार—‘पुरुष-सत्तात्मक समाज ने स्त्री पर इतनी जिम्मेदारियाँ लाद दी हैं कि उसे काम सम्बन्धी अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाए रखना पड़ता है। इस स्त्री के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं। पहला, दिन-रात घर-परिवार के कामकाज में खटती स्त्री (उदाहरणार्थ, दासोत जी की लघुकथा प्याज की सब्जी में वर्णित माताजी) और दूसरा, पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के क्रम में घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त पुरुष के समांतर चलती स्त्री। इनमें पहली स्त्री की दयनीय दशा नि:सन्देह शोचनीय है। उससे उसे मुक्ति मिलनी चाहिए। लेकिन दूसरी स्त्री! इसका सुन्दर चित्रण पारस दासोत की ‘वह फौलादी लड़की’ में हुआ है। पुरुष-सत्तात्मक समाज से लोहा लेती स्त्री अपने प्राकृतिक लावण्य और सुमधुर संवेदनशीलता से वंचित रह जाती है और अवसर पाते ही वह अपने समक्ष खड़े समय से कहती है—‘मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी।’ यह पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के परिणामस्वरूप स्वयं ‘पुरुष’ बन चुकी आज की स्त्री का सत्य है। वह चाहती है, पुन: ‘स्त्री’ हो जाना; लेकिन इस काम के लिए ‘समय’ से वह आज नहीं मिलना चाहती, कल पर टालती है।

मानसिक-चरित्र की दृष्टि से आज की स्त्री को आसपास के समाज द्वारा मुख्यत: दो डरों से ग्रस्त पाते हैं—1-त्यागे जाने से डरी हुई और 2-अवहेलित होने से डरी हुई।  प्रत्येक स्त्री में कम या ज्यादा इनमें से कोई एक भय अवश्य बना रहता है। इस प्रकार उनके चार प्रकार निश्चित कर सकते हैं—आश्वस्त, जरूरतमंद, निर्भीक और भयभीत। इन सब की अलग-अलग व्याख्या भी की जा सकती है, लेकिन यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्त्री के इन सभी चरित्रों पदार्पण दासोत जी की समीक्ष्य लघुकथाओं में नहीं हो पाया है।

फिर भी, किसी ‘ज़रूररतमंद’ औरत के मनोविज्ञान को समझना ज़रूरी है। क्यों? इसलिए कि अगर आप उससे परिचित हैं तो अवश्य ही अपने साथ उसके बर्ताव को आसानी से झेल सकते हैं, अन्यथा नहीं।  कुछ महिलाएँ सबसे अधिक स्वयं को नकारे जाने की चिन्ता से ग्रस्त रहती  है। अपने विचार और मनोभावों को जाहिर करने में उन्हें लज्जा का अनुभव होता है। बावजूद इसके, वह भावनात्मक रिश्ता बनाए रखने को अपने दिल की गहराई से चाहती है। वे दूसरे लोगों के साथ अविश्वसनीय बनी रह सकती हैं ;लेकिन इस बात से भयभीत रहती हैं कि उन्होंने अगर किसी पर विश्वास किया तो वह उनके साथ विश्वासघात न कर दे, उनका हृदय न तोड़ दे। इन स्त्रियों में शर्मीलापन होता है लेकिन शर्मीलेपन की उस परत के नीचे संदेह छिपा होता है। ऐसी स्त्रियों का विश्वास जीतना बड़ी टेड़ी खीर साबित होता है। पारस दासोत की ‘नाइट गाउन’,‘शयनकक्ष की कुंडी’,‘घर में अकेली वह’,‘बिस्तर’,‘सृष्टि’ अपनी अनेक लघुकथाओं में पारस दासोत ‘जरूरतमंद’ स्त्री का चित्रण तो करते हैं, लेकिन काम-कुण्ठा से आगे की उसकी चेतना को छू नहीं पाते। यह एक विचारणीय तथ्य है कि स्त्री सिर्फ काम-कुण्ठित प्राणी नहीं है। उसकी भावनाओं को शरीर से अलग भी समझने की जरूरत है जिससे ये लघुकथाएँ वंचित हैं। स्त्री मनोविज्ञान की दृष्टि से लघुकथाओं को पढ़ते हुए मुझे पारस दासोत जी में मानववादी दृष्टि की बजाय पुरुषवादी दृष्टि का अधिक दर्शन होता है। उनकी लघुकथा पुत्रवधू का शीर्षक मेरी इस धारणा की पुष्टि करता है क्योंकि भूखी माँ को भोजन की बजाय नींद की गोली देने की अनैतिकता में पुत्र भी तो शामिल है!

भारतीय दर्शन मनुष्य के जीवन में चार पुरुषार्थ निर्धारित करता है—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष। इनमें काम को पहले स्थान पर रखा गया है, परन्तु यह काम सेक्स के अर्थ तक सीमित नहीं है, व्यापक है। जहाँ तक सेक्स का सवाल है, बेशक जीवन की सुचारुता का वह विशिष्ट अवयव है। स्त्री हो या पुरुष, सेक्स-तुष्टि उसे अनेक मानसिक विचलनों से बचाने वाला, मनुष्य होने के हेतु से सकारात्मकत: जोड़े रखने वाला, उसकी रचनात्मकता को बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण अवयव है। पारस दासोत की ‘एक सत्य’ इस तथ्य की पुष्टिस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती है। ‘जागृति’ का शीर्षक कथ्य के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। घटना पितृसत्ता से विद्रोह की है, जागरण की नहीं।

शरीर का गुणधर्म मन:स्थिति से संचालित होता है, इस तथ्य की पुष्टि दर्शन भी करता है और मनोविज्ञान भी। अपने देश में हिजड़ा समुदाय आम तौर पर ‘स्त्री’ भाव के साथ रहता है। अत: उनमें स्वयं के स्त्री होने सम्बन्धी मानसिक विकार पैदा हो जाना सामान्य समझा जाना चाहिए। ‘आँचल की भूख’ इस विकार की यथार्थ प्रस्तुति है। ‘छूट की छीनी हुई छूट’ एक बेहतरीन लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक में पुरुषवादिता नज़र आती है। संयुक्त परिवारों में परस्पर संवाद का एक रूप परस्पर विवाद भी है। घर के सदस्य लड़-झगड़कर मन का मैल साफ कर लेते हैं और सामान्य दिनचर्या में लौट आते हैं। ‘लाड़ली बहू’ में इस स्थिति का जीवन्त चित्रण देखने को मिलता है।

अपने रूप-सौंदर्य की ही नहीं, अपने परिधान आदि की प्रशंसा सुनना भी महिलाओं की आम मनोवैज्ञानिक कमजोरी माना जाता रहा है; लेकिन अपने करियर के प्रति सचेत आज की नारी ने कुछेक पारम्परिक मनोवैज्ञानिक धारणाओं को झुठलाकर रख दिया है। पारस दासोत की लघुकथा ‘उसका ब्लाउज़’ की पत्नी को पारम्परिक चेतना की स्त्री कहा जा सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्मश्लाघा पाने को लालायित रहने जैसी कुछेक मानसिक परम्पराएँ व्यक्ति में हमेशा जीवित रहती हैं। तथापि यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि स्त्री मनोविज्ञान सम्बन्धी उनकी लगभग सभी रचनाओं में ब्लाउज, चोली, कुरता-समीज़, आइना, बाथरूम, सुहागरात, भूख आदि के काम-कुण्ठित चित्र ही अधिक दृष्टिगोचर होते हैं, प्रगतिशील मानसिकता के चित्र नहीं। ‘झुबझुबी’ जैसी कुछेक रचनाएँ तो हास्यास्पद हो गई हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य को नहीं सबसे अधिक स्वयं को ही प्यार करता है। यह अलग बात है कि स्वयं को प्यार करने का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। यह भी देखा जाता है कि स्वयं को प्यार करने के क्रम में स्त्रियाँ कभी-कभी अत्यधिक स्वार्थी और हिंसक भी हो उठती हैं। ‘प्यारे का प्यार’ तथा ‘आइ लव यू’ स्वयं पर ही मोहित रहने के तथ्य का उद्घाटन करती है।

तिजोरी की चाबी और गहनों पर कब्जा—ये दो भी महिलाओं की आम मानसिक कमजोरियों में शामिल हैं। इन बिन्दुओं पर पारस जी ने ‘सत्ता की कोख में छिपा डर’,‘उसकी ताकत’ तथा ‘गहना’ लघुकथाएँ रची हैं।

प्राकृतिक रूप से लड़कियों के शरीर में आयु-विशेष के आगमन पर कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जो लड़कों के शरीर से भिन्न होते हैं। यह भी ठीक है कि यह परिवर्तन उन्हें भी रोमांचित करता है। लेकिन यह ठीक नहीं प्रतीत होता कि यह रोमांच जीवन में आगे बढ़ने के उनके इरादों में बाधा बनता है और वे बस्ता टेबिल पर पटककर सबसे पहले इस रोमांच की ओर अग्रसर होती हों, जैसा कि पारस जी ने लघुकथा ‘पहला मिलन’ में दिखाया है। उनकी ‘परतों के नीचे दबी चाह’ भी स्त्री के उस पारम्परिक मनोविज्ञान को ही दर्शाती है, जिसे आज की स्त्री ने काफी पीछे छोड़ दिया है।

रंग-रूप, चाल-ढाल, नाज़ो-अदा और उम्र आदि के मद्देनज़र अनाकर्षक महिलाएँ पुरुषों के द्वारा ‘बहिनजी’ सम्बोधित होती हैं, यह बात वे अच्छी तरह जानती हैं। यही कारण रहा कि बस में यात्रा कर रही ‘दिग्भ्रम’ की काली कलूटी यौवना अपने युवा सहयात्री से ‘बहिनजी’ सम्बोधन पाकर हँस पड़ती है; लेकिन जब वह पाती है कि युवा सहयात्री ने सद्भाववश उसे ‘बहिनजी’ कहा था ,तब शर्मिंदा भी होती है और उससे क्षमा भी माँगती है। ‘उलाहना’ स्त्री के अपने अस्तित्व को पाने की व्यथा कहती है।

पारस दासोत की लघुकथाओं में चित्रित महिलाओं/युवतियों को क्षुद्र मानसिकता वाली काम-विक्षिप्त स्त्रियाँ भी माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि काम की यह विक्षिप्तता इन चरित्रों को गढ़ने वाले कथाकार के मनो-मस्तिष्क में भी समाई हुई है अन्यथा वह इनसे इतर भी स्त्री मानसिकता के चित्र अवश्य उभारता। ‘गहरी चाहना’ में युवतियों के स्तनों की तुलना प्रकारान्तर से मन्दिर के गुम्बदों से की गई है। ‘दो सहेलियाँ’,‘दाँव’,‘एक चाल’,‘नाइट गाउन’ और ‘दिशा की ताकत’ में कथाकर ने भूख को पात्र बनाया है ;लेकिन उसकी बिम्बात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग वे इन लघुकथाओं में नहीं कर पाए। ‘कुछ लेट चलें’ की नायिका भी भोग की जीती-जागती तस्वीर है। ‘वासना की अंधी भूख’ को यद्यपि फ्रायड के एक सिद्धांत-विशेष पर आधारित करने का यत्न किया है ,तथापि यह भी सत्य है कि फ्रायड का उक्त सिद्धांत सर्वमान्य सत्य नहीं है। उसे मातृत्व की भावना पर कलंक के रूप में जाना जाता है। भोगवादी और बाज़ारवादी महिला-चरित्र को ‘बिल्ली की रणनीति’ में कुशलतापूर्वक दर्शाया गया है। पारस जी की कुछ लघुकथाएँ प्रेमी-प्रेमिका अथवा पति-पत्नी के बीच शरीर-भोग से पूर्व और पश्चात की यथार्थ मानसिकता पर केन्द्रित हैं। इनमें ‘अपराध’ को उत्कृष्ट माना जा सकता है, तो ‘शुभागमन’,‘बात ही तो है’ को सामान्य और ‘गुल्लक’,‘ठेंगा’ को नि:कृष्ट।

नि:संदेह, पारस दासोत जी की अनेक लघुकथाएँ इस लेख की चर्चा में आने से वंचित रह गई हैं, लेकिन उनमें व्यक्त ‘वस्तु’ इस लेख में अवश्य समाहित है। मैं समझता हूँ कि दासोत जी की स्त्री मनोविज्ञान विषयक लघुकथाओं और इस लेख में व्यक्त कुछ विचार समकालीन हिन्दी लघुकथा में स्त्री मानसिकता के कुछ अनकहे तथ्यों व कथ्यों को रचने व रेखांकित करने में सहायक सिद्ध होंगे।

अंत में, यह लेख पारस दासोत जी की लघुकथाओं में विशेष तौर पर स्त्री मनोविज्ञान को रेखांकित करते हुए लिखा गया है, अत: पारस जी के लघुकथा लेखन की भाषा, शैली, शिल्प आदि पर विचार प्रकट करने से स्वयं को अलग रखा है। अस्तु।

सम्पर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 / मोबाइल : 8826499115

संश्लिष्ट सृजन-प्रक्रिया

September 30, 2016, 11:39 am

रचनाकार का सोचा हुआ आशय अभिप्राय, विचार या अनुभूति रचना के माध्यम से पाठक तक कैसे संप्रेषित हो पाता है? अपनी बात वह दूसरों तक कैसे और कितने सफल एवं सही और किस रूप में संप्रेषित कर पाता है? इसका जायजा रचना-विधान सम्बन्धी कई पहलुओं और प्रश्नों के उत्तर खोजने पर लिया जा सकता है।

रचना का आशय, विचार, बात, अनुभूति या अभिप्राय, रचना में आये प्रसंगों, घटनाओं, सन्दर्भों, प्रश्नों, पात्रों, संवादों, वाक्यों, संवेदनाओं के प्रस्तुतीकरण में अन्तर्व्याप्त रहता है। लघुकथा अपने आप में स्वतन्त्र और सम्पूर्ण कला है।

लघुकथा के शिल्प को लेकर आज जितनी चर्चा हो रही है वह निःसन्देह लघुकथाकारों के शिल्प के प्रति जागरूकता का प्रमाण है और यह सजगता स्वाभाविक है। लेकिन लघुकथा विधा के मूलतः जीवन्त गद्य रूप को नजरअंदाज करके कई निरर्थक सवालों को लघुकथा से जबरदस्ती जोड़ा जा रहा है, जोकि लघुकथा को अगम्भीर, सीमित, अस्पष्ट एवं अपूर्ण साहित्य सिद्ध करते हैं। इनमें से कई कुछ प्रश्न उल्टा रचना-विधान की दृष्टि से लघुकथा की सीमाएँ बांधते दिखते हैं…… जिससे सिद्ध होता है कि लघुकथा वस्तु को उसकी समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में अक्षम है…… जबकि लघुकथा एक सार्थक, स्वतन्त्र एवं संभावनाशील विधा है और जीवन के यथार्थ अंश, खण्ड, प्रश्न, क्षण, केन्द्र, बिन्दु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करती है।अत्यधिक आग्रहों के कारण लघुकथा की मूल संवेदना तो खण्डित हो ही जाती है…. उसके कथ्य में अविश्वसनीयता, अपूर्णता और शिल्प में असहजता और कृत्रिमता आ जाती है।

कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती। रचनाकार जब जीवन की सूक्ष्म, गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं।

जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों में रचना की मूल संवेदना निश्चित करने के बाद रचनाकार के सामने संप्रेषण की समस्या उपस्थित होती है। कथ्य के अनुरूप शिल्प माध्यम ही इस समस्या का एकमात्र हल है। लघुकथा का रचना-विधान एक यन्त्र-क्रिया की भांति निश्चित नहीं किया जा सकता। अगर यह टेकनीक एकदम निश्चित कर दी जाती है तो रचनाकार रचनाकार न कहलाकर केवल टैक्नीशियन कहलायेगा। निर्धारित रूपों, मात्राओं, अवधियों और सीमाओं में लघुकथा के कथानक, चरित्र, संवाद…. उद्देश्य आदि को देखा, नापा और मापा जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी संभावनाशील विधा के सामर्थ्य, सार्थकता और संभावनाओं पर अंकुश लगाने जैसा है। लघुकथा एक जीवन्त विधा है। उसके अंग प्रत्यंग की जाँच टुकड़ों में निर्धारित प्रतिमानों के तहत नहीं की जानी चाहिए।

रूपबन्ध की दृष्टि से लघुकथा एक इकाई है और उसे उसके संश्लिष्ट रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिए। पाठक उसे एक इकाई के रूप में लेता है। कथनक चरित्र, संवाद, भाषा उद्देश्य आदि के सामंजस्य से लघुकथा बनती है। वस्तुतः लघुकथा के ये सभी तत्व अविभाज्य हैं और लघुकथा के उक्त समस्त तत्वों के सामूहिक रूप से सम्पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करके ही रचनाकार अपने आशय को संप्रेषित कर सकता है।

हालाँकि लघुकथा कहानी की ही तरह कथा और शिल्प की संश्लिष्ट इकाई है। कथा और शिल्प का सन्तुलन ही लघुकथा की संप्रेषण-शक्ति बनता है। क्योंकि लघुकथा की अपनी एक स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण उपस्थिति है और लघुकथा कथ्य और शिल्प की दृष्टि से अधिक सुगठित, संश्लिष्ट  और संघटित रूप है। लघुकथा के एक कलात्मक सृष्टि होने के कारण इसका शिल्पगत तात्त्विक विवेचन कला की सामान्य अवधारणाओं के तहत ही किया जा सकता है। लघुकथा में सख्त अनुशासन, अधिक कारीगरी, अतिरिक्त कुशलता, गहन रचनात्मक दृष्टि एवं सृजनात्मक प्रतिभा की मांग की जा सकती है।

शिल्प सम्बन्धी लघुकथा की विवेचनाओं में कथानक की संक्षिप्तता, पात्रों की सजीवता एवं प्रमुखता वातावरण की सुन्दरता, संवादों की मार्मिकता एवं मुखरता वगैरह-वगैरह जैसी सतही बातें कही जाती हैं जोकि लघुकथा की बजाय ‘कहानी’ के शिल्प सम्बन्धी विश्लेषणों के लगभग नजदीक जा पहुँचती हैं और लघुकथा के औसत शिल्प को समझ पाना और लघुकथा के शिल्प विधायक तत्वों की विशेषताएँ स्पष्ट समझ पाना असम्भव नहीं तो कठिन तो हो ही जाता है। निश्चित रूप से लघुकथा जैसे लघु-कथारूप के शिल्प विधायक तत्त्व उसके अनुरूप एवं विशिष्ट होंगे जो उसे सुगठित एवं संश्लिष्ट रूप दे सकें।

लघुकथा क्योंकि न्यूनतम शब्दों में अधिकतम व्यंजनता की सामर्थ्य रखती है, इसलिए लघुकथा की सृजनात्मक अपेक्षाओं को पूरा करना अधिक चुनौतीपूर्ण है।लघुकथा का शिल्प उसकी विशिष्ट अन्तर्वस्तु की आन्तरिक माँग और विवशता का परिणाम है- जिसमें गहनवस्तु, – चयन से लेकर तीव्र तीक्ष्ण लेखकीय दृष्टि के योग से उसे सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाया जाता है यानी कि कथा साहित्य के अन्य रूपों की भांति लघुकथा में भी अनिवार्य रूप से तत्व योजना रहती है। लघुकथा जैसी सृजनात्मक सम्भावनाओं से युक्त साहित्यिक विधा की मूल संवेदना, संप्रेषण शक्ति और तात्त्विक विशिष्टताओं को जानना आवश्यक हो जाता है।

लघुकथा की सही जमीन उसका कथापन ही है। सही शिल्प के अभाव से कथापन सार्थक नहीं हो सकता और यदि शिल्प कथानक को नये आयाम भी दे पाये तो रचना को और अधिक सार्थक और उत्कृष्ट बना दे सकता है।लघुकथा के स्वीकार्य तत्वों के सूत्र अत्यन्त बारीकी, कारीगरी एवं कुशलता से आपस में गुंथे हुए रहते हैं।

वस्तु, पात्र, संवाद, उद्देश्य आदि तत्त्वों की दृष्टि से कहानी लघुकथा और उपन्यास तीनों में मोटे तौर पर समानता है क्योंकि तीनों गद्य रूप हैं और कथा तीनों के केन्द्र में है, लेकिन अन्य कथा-रूपों की तुलना में लघुकथा की कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केन्द्रीयता, एकतन्तुता और सांकेतिकता आदि होने के कारण लघुकथा का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है और यह भी कि,क्योंकि लघुकथा का जोर सूक्ष्मता पर है, इसलिए लघुकथा के तत्वों में तीक्ष्णता तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। उसके लिए संगत तत्वों के चुनाव के परिणामस्वरूप लघुकथा का शिल्प अधिक सुगठित और संश्लिष्ट होता है।

कहानी और लघुकथा के कथानक में अन्तर कैसे किया जाए? निश्चित रूप से लघुकथा के शिल्प के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक तत्व के रूप में कथ्य को गिना जा सकता है। लघुकथा के कथ्य में सांकेतिकता, सूक्ष्मता, गहनता, सहजता, प्रवाहमयता, स्पष्टता, सन्तुलन, सुसम्ब(ता, सघनता, नवीनता आदि गुण होने चाहिए।लघुकथा की सार्थकता, न्यून, सूक्ष्म, तीक्ष्ण, गहन, कथ्य के प्रस्तुतीकरण में ही नहीं ; बल्कि समस्त रचना में परिव्याप्त मानवीय संवेदना से उसके शिल्प विधान में संश्लिष्ट बुनावट, कसावट कलात्मकता और प्रभावान्विति लाने तक है ।

लघुकथा के प्रमुख तत्वों के सापेक्षिक महत्त्व को देखा जाए तो कथ्य को लघुकथा का मूल तत्त्व माना जा सकता है।लघुकथा में वर्णन नहीं विश्लेषण, महज चित्रण नहीं यथार्थबोध, अवलोकन नहीं पड़ताल, विवरण नहीं संकेत आदि पर अतिरिक्त बल दिया जाता है।

जीवन-सत्यों के किसी प्रसंग, खंड, अंश, प्रश्न, स्थिति विचार, कोश, अर्थ अथवा विशिष्ट चरित्र में लघुकथा के कथानक की क्षमताएँ ढूँढी जा सकती हैं।

लघुकथा का कथ्य घटना और संवेदना का महत्त्व महज चित्रण की नहीं बल्कि लघुकथा में उन सूक्ष्म, गूढ़, गहन, तीव्र, प्रखर, स्पष्ट, मुख्य, सार्थक एवं तीक्ष्ण कथा-रूपों को लघुकथा अपना फार्म देकर हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्धि दे रही है, बल्कि पूर्णता दे रही है जिसके छूटे रह जाने से हिन्दी साहित्य की अपनी पूर्णता पर प्रश्न लग जाने का स्वाभाविक खतरा हो सकता है।युगीन स्थितियों, जीवनवास्तव, और परिवेश की तल्ख सच्चाईयों की व्यापक पड़ताल के बाद निष्कर्ष रूप से प्राप्त सूत्रों और स्रोतों की अभिव्यक्ति देना लघुकथा का सशक्त अभिव्यक्ति प्रकार होने का प्रमाण है।

कथावस्तु जिन अतिरिक्त सूत्रों से मिलकर बनती है जैसे प्रासंगिक कथाएँ, अन्त:कथाएँ (एपीसोड्स), उपकथानक और सहायतार्थ समाचार ब्यौरे आदि लघुकथा में ये अधिकांश प्रयुक्त नहीं होते। जबकि कहानी और उपन्यास में काफी हद तक इनका प्रयोग होता है। लेकिन यह भी नहीं कि लघुकथा की कथावस्तु केवल कथासूत्र ही है। लघुकथा का आकार लघु होने के कारण उसमें उपकथाएँ या प्रासंगिक अन्तर्कथाओं की जगह अधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा की यह एकतन्तुता, एकातानता, एकसूत्रता लघुकथा की अपनी विशिष्टता है। इसीलिए यह कहानी या उपन्यास न होकर लघुकथा है। वर्णनात्मकता और विवरणात्मकता की कमी के कारण सूक्ष्म कथानक अविराम गति से अपनी निश्चित दिशा में अग्रसर होता है, फलतः लघुकथा की कथावस्तु अत्यन्त प्वाइण्टड होती है।

लघुकथा का रूप-गठन और शब्द गठन संश्लिष्ट एवं सांकेतिक है। लघु कथाकार यह यों है, दरअसल यह इस तरह से समूचा कथ्य उसी पर खड़ा करता है।इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर सम्पूर्ण लघुकथा के रूप में आकार पा लेता है।समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली लघुकथा में कथानक की एक सुगठित सुग्रथित, सुसम्बद्ध एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा आदि का निर्माण अत्यन्त सावधानी से करना पड़ता है और कथ्य के अनुसार ही लघुकथा के आकार यानी शब्द सीमा का भी निर्णय होता है।

घटना के अन्तर्विरोध को लक्षित कर युग के मुख्य अन्तर्विरोध की गहनता और जटिलता की सूक्ष्म पकड़ लघुकथा की सार्थकता की परिचायक है।अधिक तीक्ष्ण, गहन दृष्टि और सूक्ष्म मानवीय संवेदना, लघुकथा के सन्दर्भ में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कथ्य का गहन एवं सूक्ष्म चयन और उसकी उचित अभिव्यक्ति ही उसे मानवीय संवेदना से जोड़ती है और उसकी निष्पत्ति उसे अतिरिक्त महत्ता दिला जाती है।

कथ्य के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा लघुकथा में निरर्थक है अथवा सार्थक, इस पर गौर किया जाना चाहिए।सामान्यतः लघुकथा में छोटी से छोटी घटना में कितने अर्थ और संभावनाएँ ध्वनित हो सकती हैं, उन्हें विश्लेषित कर और पूर्णता प्रदान कर लघुकथा उसे मानवीय संवेदना के साथ जोड़ देती है क्योंकि छोटी से छोटी घटना भी विराट मानवीय संवेदना, निर्माण-क्षमता, संघर्ष और अनेक गहन गूढ़ अर्थ निहित हो सकते हैं। यानी छोटी से छोटी अनुभूतियों को विराट मानवीय संवेदना के स्तर पर मूर्त करना लघुकथा के सामर्थ्य का परिचायक है।

अनुभूतियों, मनःस्थितियों, आशयों और अभिप्रायों को घटना के माध्यम से घटना से सम्ब( भाव-स्थितियों को उद्घाटित किया जाता है।छोटी-छोटी घटनाएँ, जो हर पल घटती रहती हैं उनके समान्तर ;बाह्य और आन्तरिकद्ध रूप से भी कुछ घटता है। लघुकथा में स्थूल घटना ही घटित नहीं होती बल्कि घटना के साथ सूक्ष्म भाव स्थिति को भी उद्घाटित किया जाता है।

कई लघुकथाओं के मूल घटना पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी होती है। कई बार लघुकथा में इसका प्रभाव संवेदना ही प्रमुख हो जाता है। यानी उस प्रभाव संवेदना के परिणाम स्वरूप जो एक यातना पूर्ण मानवीय मनःस्थिति बनती है या संघर्षपूर्ण स्थिति के परिणाम स्वरूप जो कुछ घटता है, विचारणीय है कि क्या उसका उद्घाटन लघुकथा के सन्दर्भ में महत्त्व नहीं रखता? पहली घटना ही महत्त्व रखती है, जो कि केवल उस स्थिति का आरम्भ मात्र है? इससे जुड़े लघुकथा के काल अवधारणा और समस्या, स्थितियों के ट्रीटमेन्ट सम्बन्धी प्रश्न भी आ जुड़ते हैं।

हालाँकि लघुकथा के सन्दर्भ में किसी बड़े क्रिया व्यापार गढ़ी हुई कई मोड़ों वाली, काल्पनिक संयोगों से निर्मित, व्यापक काल में फैली अविश्वसनीय घटनाक्रम आदि बिल्कुल भी महत्त्व नहीं रखते।

घटना को केवल घटना के रूप में जिज्ञासा, कौतूहल गुदगुदाने या आश्चर्य के लिये सम्मोहित न कर घटना-मूल में मानवीय स्थितियों को संवेदना के स्तर पर उकेरना लघुकथा का उद्देश्य ही होना चाहिये। स्पष्ट है कि लघुकथा घटनाओं और स्थितियों के संयोजन के माध्यम से युगीन स्थितियों और मानवीय संवेदनाओं को ही व्यंजित नहीं करती बल्कि उन अन्तर्विरोधों और विसंगतियों को बेपर्दा करने की पर्याप्त क्षमता भी रखती है।

समकालीन लघुकथा में ज्यादातर दो परस्पर विरोधी घटनाओं या स्थितियों को लघुकथाकार उठाता है और उनके अन्तर को दिखाने का प्रयास करता है। कथनी-करनी के अन्तर को घटनात्मक स्थिति न भी माने तो भी अन्य उदाहरण दिये जा सकते हैं।छोटी-सी घटना के परिणामस्वरूप मानवीय सत्य व स्थिति का उद्घाटन लघुकथा करती है। एक सूत्र में से अनेक रेशे निकल सकते हैं। यदि इन सभी की एक संश्लिष्ट बुनावट कर एक सुगठित रचना की जाये तो क्या वह सार्थक नहीं होगी !

वैसे भी घटनाओं, गिनतियों और अतिरंजना में नहीं उनकी सहजता या जटिलता और उसमें निहित अर्थों के दृष्टिकोण से परखा जाना चाहिये। रचनाकार का आशय उसके आब्ज़रवेशन, उसके विचार, उसकी संवेदनाएँ, उसका अभिप्राय, उसका मंतव्य किस रूप में किन-किन घटनाओं के माध्यम से संप्रेषित हो पायेगा, अधिक महत्त्व रखता है, न कि यह कि घटना या बिम्ब एक हो अथवा एकाधिक। जहाँ तक हो सके एकाधिक घटनाओं के लघुकथा में चित्रण से बचा जाना चाहिये।

सूक्ष्म से सूक्ष्म बिम्ब, संकेत एवं प्रतीकों का चित्रण सशक्त भाषा के माध्यम से किया जा सकता है जिससे शिल्प की दृष्टि से और अधिक उत्कृष्ट लघुकथायें लिखी जा सकती हैं।बिम्बों का प्रयोग रचना की शिल्पगत कलात्मकता सुन्दरता या उसकी मूल संवेदना को नये अर्थ देने के लिये किया जाता है। एक या एकाधिक बिम्बों के प्रयोग की कोई सीमा या निर्धारण लघुकथा के सन्दर्भ मंे बेमानी है। यह रचनाकार और उसकी प्रतिभा पर निर्भर करता है। एक ही सूक्ष्म घटना या बिम्ब का चित्रण, सार्थक लघुकथा के लिये आदर्श हो सकता है, अनिवार्य नहीं।

किसी भी समर्थ विधा की तरह लघुकथा के प्रमुख पात्र एक तरह से नियामक का कार्य करते हैं।लघुकथा के पात्रों का भी अपना महत्त्व है। कथानक को वहन करने, उसे गति देने, घटनाओं तथा स्थितियों के साथ संघर्ष करने, मानवीय स्थितियों का संप्रेषण और मानवीय मूल्यों की स्थापना पात्रों के माध्यम से की जा सकती है।पात्र कैसे भी स्थिर, गतिशील, जटिल, सरल, संघर्षरत, स्वाभाविक, सजीव, स्वतन्त्र, प्राकृतिक, अलौकिक, साधारण वर्ग के साधारण आदमी से लेकर विशिष्ट वर्ग के प्रतिनिधि पात्र तक कोई भी हो सकता है।

लघुकथा के कथा विन्यास के सूक्ष्मीकरण के कारण पात्रों की लघुकथा में विशेष अहमियत है। पात्रों के जरिये उसके परिवेश, जीवन से सम्बन्धित अवसाद, उल्लास स्पन्दन, संवेदना और सहानुभूति आदि और उसमें उसकी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया के निरीक्षण का उपयोग लघुकथा में किया जा सकता है। प्रमुख पात्र अपनी संघर्षशक्ति या विवशता में प्रमुख मूल्यों का छोड़ता-तोड़ता हुआ मानवीय मूल्यों की व्याख्या कर जाता है।

लघुकथाकार घटनाओं तथा स्थितियों के चित्रण के साथ-साथ सांकेतिक रूप से पात्रों के चरित्रों को भी स्पष्ट करते चलते हैं। संवादों के सहायता से रचनाकार की कुशलता से और भाषा की व्यंजकता से स्वयंमेव ही पात्र का चरित्र-चित्रण होता जाता है। लघुकथाकार विभिन्न परिस्थतियों का सृजन करके उनके माध्यम से चरित्र-चित्रण की सहजात, मौलिकता, स्वाभाविकता और विश्वसनीयता लाने के लिये पात्रों के सहारे उनके नैतिक, अनैतिक, शुभ-अशुभ, भले-बुरे, आचरण का औचित्य सिद्ध करते हैं।

हालाँकि लघुकथा की पात्रगत अवधारणाएँ काफी कुछ कहानी से साम्य रखती हैं। समकालीन हिन्दी कहानी में अधिकतर प्रकृतिगत पात्र जैसे पेड़-पौधे आदि उपादान नायक नहीं बनते जबकि लघुकथा में ये उपादान क्या केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं? इस प्रश्न के सन्दर्भ प्रथमतः तो यह धारणा ही गलत है कि ये प्रकृतिगत उपादान कहानी में नायक नहीं बनते। बनते हैं, लेकिन कहानी अन्य प्रकारों से प्रकृतिगत, अलौकिक मानवेतर और अमूर्त पात्रों के क्रमशः तिरोहित होते जाने और यथार्थ चरित्रों की प्रतिष्ठा के पीछे अनेक- समय, समाज, जीवन और यथार्थ सत्य आदि कारण सक्रिय रहे हैं।

यह रचनाकार के सृजनात्मक सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह अपने आशय या अनुभूति को प्रकट करने और उसे रचना में अन्तवर््याप्त करने के लिये कैसे पात्रों का चुनाव करता है। यथार्थ मानवीय या प्रकृतिगत और वे पात्र उसके आशय को सफलतापूर्वक संप्रेषित भी कर सकें।

विश्व लघुकथा साहित्य को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के अनेक ख्यात रचनाकारों ने इस प्रकार के प्रकृतिगत – पेड़-पौधे वगैरह को लघुकथा के मुख्य पात्र बनाकर सफल रचनायें दी हैं, बल्कि विश्व लघुकथा में मोटे तौर पर ऐसी ही लघुकथाओं का आधिक्य है। हिन्दी लघुकथा में भी ऐसी अनेक सफल लघुकथाएँ हैं।

हालाँकि लघुकथा का अपने मुख्य पात्रों के प्रति ऐसा कुछ विशेष पात्रगत आग्रह नहीं है, और न ही ऐसा कोई निर्धारण किया ही जाना चाहिए।

अपनी बात किस प्रकार से पात्रों के माध्यम से कही जाये जो कि सहज, सफल और सरलता से संप्रेषित हो पाए, यह रचनाकार पर निर्भर  है।प्रकृतिगत, अलौकिक और अमृतपात्रों के लघुकथा का मुख्य पात्र के रूप में आने से यह जबरदस्त खतरा तो अवश्य हो ही जाता है कि लघुकथा-लघुकथा न रहकर भावकथा, नीतिकथा या बोधकथा होकर रह जाए, और इससे संप्रेषण की सहजता और सरलता में भी थोड़ा व्यवधान आ सकता है। दरअसल इस तरह के पात्रों का निर्वाह एक चुनौती है और इस चुनौती को कई समर्थ रचनाकारों ने स्वीकारा है और सफल भी रहे हैं।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लघुकथा में कैसे भी मानवीय या प्रकृतिगत पात्र हो सकते हैं।

लघुकथा में कथोपकथन का पात्रानुकूल प्रवहमान, स्वाभाविक, सजीव संगत व्यंजना-शक्ति से युक्त समयानुकूल परिस्थितियों के अनुकूल सुसम्बद्ध अर्थपूर्ण,  साभिप्रायः,  संक्षिप्त,  सरस, ध्वन्यात्मक, भावपूर्ण, मार्मिक, मुखर, प्रभावोत्पादक, जानकारी पूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या अभिप्रायः संवादों के जरिये सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है।

कथोपकथन लघुकथा की क्षिप्रता की रक्षा करते हैं। संवादों में अभिव्यंजना व ध्वन्यात्मकता होनी चाहिये व भाषा पात्रानुरूप।जहाँ तक संवाद का प्रश्न है उसे लघुकथा का अत्यावश्यक तत्व नहीं कहा जा सकता और बिना किसी एक भी संवाद के भी लघुकथा लिखी जा सकती है।  लेकिन संवादों की उपस्थिति लघुकथा में उपरोक्त कई विशेषतायें लाकर उसके प्रभाव को बढ़ा देती हैं। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यन्त प्रभविष्णु अंश होता है और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य और महत्त्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं। परिणामतः कथोपकथन लघुकथा की तात्विक विशेषताओं में से एक है।

कुछ रचनाकार कथोपकथन में अपनी रचना शुरू करते हैं और कथोपकथन में ही समाप्त करते हैं। उसे लघुकथा संवाद कहा जा सकता है या लघुकथा?केवल संवादों की सहायता से कई विश्व स्तर की कहानियों की रचना सफलतापूर्वक की गई हैं। कहानी ही नहीं कुछ उपन्यास भी केवल कथोपकथन से शुरू और कथोपकथन पर ही खत्म हुए हैं।लघुकथा के सन्दर्भ में संवादों को ध्यान में रखकर उसे पूर्ण विधा या कोई अतिरिक्त विशेषण ;लघुकथा संवादद्ध देना सही नहीं कहा जा सकता क्योंकि संवादों के अतिरिक्त भी कुछ लघुकथा के बाकी तत्व कथानक, पात्र, भाषा, उद्देश्य आदि भी मौजूद रहते हैं।

केवल संवादों के बिना पर उसे नाटक या एकांकी नहीं कहा जा सकता। नाटक या एकांकी दृश्य-श्रव्य रूप हैं, जिसमें संगीत, अभिनय, ध्वनि, मंच-स्थान, साज-सज्जा आदि तत्वों की अपेक्षा रहती है, लघुकथा में नहीं……

लघुकथा अपनी सूक्ष्म घटना को अधिक प्रभावशाली व संवेदनशील बनाने के लिये पात्रों की बात उन्हीं मुख से बिना किसी आश्यक फैलाव, टिप्पणियों व लफ्फाजी के रखती है। वर्णन और विवरण के शब्द बाहुल्य के पचड़े में पड़ना किसी भी कुशल रचनाकार का लक्ष्य नहीं हो सकता। लघुकथाकार अपनी तरफ से कुछ भी न कहकर पात्रों के सुख-दुःख उन्हीं की जुबान से कहलता देते हैं। संवादों से ही कथ्य धीरे-धीरे खुलता चला जाता है।

इस संवाद शैली का चुनाव रचनाकार की अपनी समझ, रुझान और सामर्थ्य पर निर्भर है, जिससे वह अपनी अभिव्यक्ति इसी प्रकार से करने में सहजता, सरलता और सम्पूर्णता का अनुभव करता है।

वैसे भी लघुकथा में संवादों की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई लघुकथाओं की मूल संवेदना इसके पात्रों द्वारा उच्चारे गये संवादों के द्वारा ही खुलती है। जैसे एक लाजा था, वह बहुत गलीब था… (कहूँ कहानी)।

ऐसा नहीं है कि कहानी कुछ दिनों (या महीनों) और उपन्यास कुछ वर्षों (या दशकों, शताब्दियों) का ऐतिहासिक कालानुक्रमिक वर्णन हो। सृजनात्मक विधाओं को काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, तो लघुकथा को कुछ घण्टों के घटनात्मक इतिवृत्त के रूप मानना कहाँ तक उचित होगा? कुछ क्षणों या मिनटों या कुछ घण्टों में लिखी गई रचना क्या लघुकथा ही मानी जाये तो हिन्दी और विश्व साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि कई कहानियाँ कुछ ही मिनटों या घण्टों की घटनाओं और कई उपन्यास कुछ घण्टों या एकाध दिन (सात घण्टे, एक रात…..) की कालावधि में सिमटे हुए हैं। क्या उन्हें भी लघुकथा मान लिया जा सकता है?

हालाँकि कई श्रेष्ठ लघुकथाएँ जीवन के हर क्षण का मूर्त चित्र प्रस्तुत करती हैं। क्षण जो अतीत और भविष्य के बीच एक कड़ी होता है। लघुकथा में यह जो क्षण का चित्रण होता है वह इकहरा, आकस्मिक और सम्पूर्ण हो सकता है। ऐसा क्षण है जो अपनी आकस्मिकता में ही जीवन के कई अर्थ और आयामों को आलोकित कर सके। एक आदर्श एवं सार्थक लघुकथा में क्षण का चित्रण होता है। काल की न्यूनता उसे सार्वकालिक बना दे सकती है।

लेकिन पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी किसी घटना के चित्रण के बिना उचित प्रभाव संवेदना को क्या रेखांकित नहीं किया जा सकता, जिससे रचना के अपूर्ण रह जाने का खतरा स्वाभविक है। यहाँ फ्लैश बैक को एक सहज हल के रूप में लाया जा सकता है लेकिन उसी से यह प्रश्न भी उठ जाता है, क्या उससे रचना में सहजता, सरलता, ग्राह्यता और स्वाभाविकता के चूक जाने पर वांछित प्रभाव उत्पन्न हो सकता है? यदि फ्लैश बैक को स्वीकारा जा सकता है तो उस रूप में उसकी अनिवार्यता क्यों? यह रचनाकार पर निर्भर होना चाहिए। विश्व लघुकथा में काल के सन्दर्भ में कोई विशेष आग्रह नहीं दिखाई देता।

अगर लघुकथा में महीनों या वर्षों का कालानुक्रमिक बारीक अतिरंजित चित्रण सविस्तार किया जाये तो लघुकथा अपनी आकारगत विशिष्टता को खो देगी। उस रूप में महीनों या वर्षों का चित्रण अवश्य ही ‘कालदोष’, के रूप में आएगा।

आवश्यक स्थितियों में विस्तृत काल में फैले कथ्य को लघुकथा में समय परिवर्तन (अन्तराल) के संकेतों द्वारा संदर्भित व सूचित किया जा सकता है।लघुकथा का आकार लघु है। इसलिए कथ्य के अनुसार समय के थोड़ा बड़े हिस्सों या बहुत फलक को बिना अतिरिक्त वर्णन या विवरण के सांकेतिक रूप से अपनी सृजनात्मक प्रतिभा से लघुकथा को अधिक सार्थक बनाया जा सकता है।

एक सशक्त एवं आदर्श लघुकथा जीवन सन्दर्भों के क्षणांशों को सार्थक ढंग से प्रस्तुत करती है।लघुकथा में देशकाल या वातावरण की उपस्थिति कथानक और चरित्रों के अभीष्ट संवेदनात्मक लक्ष्य तक पहुँचने के लिये ही होती है न कि प्रकृति और बाह्य परिवेश के सहज वर्णन के लिये।

कोई भी जीवन्त रचना जीवन से आत्यंतिक रूप से जुड़ी होती है और जीवन देशकाल तथा परिवेश सापेक्ष होता है। किन्तु देशकाल या परिवेश का विस्तृत यथा तथ्य चित्रण लघुकथा के सन्दर्भ में वातावरण नहीं हो सकता और भी यह कि परिस्थिति देश, काल एवं परिवेशगत विवरण को ही वातावरण का पर्याय नहीं समझना चाहिये, लघुकथा के सन्दर्भ में इनकी मूल प्रकृति भिन्न है। वातावरण का निर्माण कथानक के अनुसार ही किया जाता है जो उसके मूल भाव को अभिव्यक्त करने का साधन होता है।

लघुकथा के सभी अवयवों को कलात्मक रूप से जोड़ने, पात्रों की बाह्य एवं आंतरिक मनःस्थिति का विश्वसनीय चित्रण करने और कार्य एवं परिस्थितियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिये वातावरण की आवश्यकता रहती है। परिवेश का गहन अध्ययन एवं सूक्ष्म आकलन लघुकथाकार के लिये आवश्यक है। लघुकथाओं में नियोजित घटनाओं, कार्य-व्यापारों का देशकाल सापेक्ष होना उसकी मूल संवेदनाओं को गहराने और उसमें प्रभावान्विति लाने मंे योग देता है।

लघुकथा में वातावरण-सृष्टि के लिये सूक्ष्म सांकेतिकता को आधार बनाया जा सकता है। वैसे भी लघुकथा का जोर क्योंकि सूक्ष्मता पर है, वातावरण जैसे सूक्ष्म तत्व के लिये गहनता व तीक्ष्णता लिये होना और भी आवश्यक हो जाता है।लघुकथा में वातावरण, देश काल की सूक्ष्म उपस्थिति या न्यूनता, लघुकथा सार्वकालिक व सार्वदेशिक व महत्त्व की रचना बना देती है।

अन्य रचना प्रकार की तरह लघुकथा के शीर्षक पर प्रथमतः गौर किया जा सकता है जैसे किसी मनुष्य की वैयक्तिक सत्ता के लिये उसका नाम मह्त्त्वपूर्ण होता है उसी प्रकार उतना ही बल्कि उससे भी अधिक लघुकथा के लिये शीर्षक होता है। लेकिन लघुकथा के शीर्षक में वर्णित-विषय मात्र की सूचना ही नहीं होती बल्कि कुछ विशेषताओं का होना भी आवश्यक है जिससे लघुकथा के सृजनात्मक सरोकारों को नये अर्थ दिये जा सकें। शीर्षक विषयानुकूल, स्पष्ट, आकर्षक, अर्थपूर्ण, कलात्मक, संक्षिप्त हो ही, साथ ही साथ रचना के स्पष्ट वैचारिक स्तर को स्पष्ट कर उसे नये आयाम दे सके। क्योंकि लघुकथा में रचनाकार का अपना आशय विस्तार से वर्णन करने की अधिक छूट नहीं मिलती। इसलिए शीर्षक को एक शब्द (एकाधिक शब्दों में भी हो सकते हैं) में अपने अभिप्राय का स्पष्ट संकेत कर देने में सक्षम होना चाहिये। साथ ही नये अर्थ भी निकलने चाहिए।

लघुकथा के सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक रचना पर रचनाकार के व्यक्तित्व की छाप रहती है। इसी से भाषा-शैली में विविधता आती है। प्रत्येक रचनाकार का अपना शब्द चयन (या शब्द ज्ञान) वाक्य-विन्यास, भाषा-सन्दर्भ, सामर्थ्य, चिन्तन और विवेचन होता है। (कथन के अनुसार भी रचना के शिल्प में विविधता आती है)

संश्लिष्ट अभिव्यक्ति की सूक्ष्म व्यंजना हेतु रचनाकार को सशक्त भाषा की आवश्यकता होती है क्योंकि रचनाकार के आशय, अनुभूति या विचार को दूसरों तक सम्प्रेषित करने के लिये, भाषा एक अनिवार्य माध्यम है।

कथ्य के अनुरूप जीवन्त भाषा जो कि सहज, सरल, प्रवाहात्मक, आलंकारिक चित्रात्मक, प्रतीकात्मक, प्रभविष्णु, बिम्बात्मक, सांकेतिक हो जो कि कथ्य को प्रभावी और सहज ढंग से सम्प्रेषित कर सके।

भाषा की दृष्टि से लघुकथा का घनत्व इतना अधिक होता है और शब्दों की मितव्ययिता इतनी अधिक सही और पूर्ण होती है कि बिना किसी वर्णन-विवरण फैलाव या बिखराव के अपनी प्रभावोत्पादकता खोये बिना कुछ ही शब्दों में लघुकथा कथ्य को संप्रेषित कर जाती है।

लघुकथा में गहन आंतरिक संवेदना समकालीन जीवन-सत्यों के अनुरूप जीवंत स्थितियों को समेटने एवं चित्रण करने वाली भाषा की जरूरत होती है। लघुकथा में एक-एक शब्द का अपना महत्त्व होता है। इसके अतिरिक्त एक-एक शब्द के अर्थों, शक्ति और सौन्दर्य की परख कर, काट-छाँट और तराश की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। लघुकथा में बोलचाल की भाषा भी अपने विशेष अंदाजेबयाँ के साथ आती है जो कि अर्थपूर्ण पात्रानुकूल होनी चाहिए।

लघुकथा में घटनाओं और मानवीय स्थितियों का निरूपण और संयोजन बिना इधर-उधर की बात किये और कोई वर्णन या विस्तार दिये न्यूनतम शब्दों में ही स्थितियों के महज प्रत्यक्षीकरण व मानवीय संवेदना को व्यंजित करने के माध्यम से किया जाता है।

न्यूनतम शब्दों में लघुकथा की मूल संवेदना को वहन करने और कथ्य और शिल्प को बांधने के लिये निश्चय ही अपेक्षाकृत अधिक सशक्त एवं सृजनात्मक भाषा की जरूरत होगी, जिसका एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य अतिरिक्त कारीगरी, मंजाव और कुशलता की मांग करता है।

लघुकथा में नाटकीय लहजों, विशेषणधर्मी बड़बोले वाक्यों, आरोपित सन्दर्भों, कृत्रिम या दुरूह शब्दों से परहेज रहता है।

कम से कम शब्दों में अभिप्राय को कह डालने का लेखकीय सामर्थ्य लघुकथाकार में होना चाहिये। लघुकथा की भाषा अन्य रूपों की विकसित हदों से थोड़ा और आगे निकलती दिखाई देती है। भाषा के नये रंगों और रूपों की बुनावट और सजावट रचनाकारों की प्रतिभा पर निर्भर करता है। ऐसी अनेक उत्कृष्ट लघुकथाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं।

निश्चित रूप से लघुकथाकार किसी घटना का वर्णन करने के लिये नहीं बल्कि जीवनगत किसी सत्य को उद्घाटित करने के लिये रचना में प्रवृत्त होता है।

लघुकथा के अन्त में उद्देश्य की घोषणा न कर दी जाये बल्कि स्थितियों का विन्यास इस प्रकार से हो कि अपने आप इसकी गति एक परिणाम, विचार या अर्थ की ओर पहुँचे।

यह रचनाकार की सृजनात्मक प्रतिभा पर भी निर्भर करता है कि वह किसी प्रकार अपनी बात शुरू करता है और कहाँ खत्म…। रचना का आरम्भ बिन्दु या चरम सीमा की स्थिति का निर्धारण लघुकथा की कथ्यात्मक अपेक्षाओं के दबाव पर निर्भर करता है।

अन्य विधाओं की तुलना में लघुकथा में लम्बी-चौड़ी भूमिकाएँ बाँधने के लिए अवकाश नहीं रहता। लघुकथाकार अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्षिप्र गति से लघुकथा का आरम्भ करता है, जिसके कुछ विशेष निर्धारित नियम नहीं हैं। अप्रत्याशित, चित्र, विधानात्मक, सूचनात्मक, घटनात्मक, आकर्षक, तथ्यपूर्ण, कलात्मक शुरूआत एक अच्छी लघुकथा के लिये आदर्श हो सकती है।

रचना का समूचा प्रभाव उसके अन्त पर ही निर्भर है। समकालीन लघुकथा के अन्त में उपसंहार नहीं दिया जाता और न किसी समस्या का समाधन ही सुझाया जाता है। अन्त के इस बिन्दु पर आकर लघुकथा के सारे संकेत स्पष्ट हो जाने चाहिए। अधिकांशतः लघुकथाओं का अन्त चरम सीमा पर ही कर दिया जाता है और उसके परिणाम को लेखक पाठक के अनुमान पर छोड़ देता है। कई आकस्मिक और अप्रत्याशित अन्त वाली लघुकथायें भी लिखी गई हैं। लघुकथा का अन्त तीव्रतम, गहनतम, तीक्ष्णतम स्थिति पर लाकर, अपना आशय या अभिप्राय स्पष्ट कर देता है।

कई लघुकथाओं में अन्तिम वाक्य रचना की मूल संवेदना को बड़े मार्मिक ढंग से कह जाने के लिये किसी पात्र के संवाद के रूप में भी आ सकता है जो कि मानवीय सत्य को उद्घाटित कर जाता है।

किसी जटिल समस्या से प्रेरित होकर लघुकथाकार सृजन में प्रवृत्त होता है। लघुकथा किसी भयावह संकट, जटिल समस्या, संश्लिष्ट जीवन, विकृत मानवीय स्थितियों, विषाक्त युगीन स्थितियों का यथार्थ प्रतीति से अवश्य ही जुड़ी होती है। इस यथार्थ प्रतीति को एक सार्थक लघुकथा का सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाती है। सही सुस्पष्ट वैचारिक स्तर का निर्माण ही लघुकथाकार का उद्देश्य होना चाहिये। इसी सुस्पष्ट वैचारिक स्तर में ही उक्त समस्याओं और उससे संघर्षों के चित्र आ सकते हैं। सायास प्रस्तुत किये गये समाधन लघुकथा के सन्दर्भ में बेमानी कहे जायेंगे।

गम्भीर विचार और तीखे द्वन्द्व-दंश वाली अपनी सृष्टि में संश्लिष्ट लघुकथा पाठक को अधिक दायित्वपूर्ण और समझने-सोचने और विचारने को विवश करती है। अपनी सृजनात्मकता में उत्कृष्ट एवं जीवन में गहन गम्भीर सत्य से युक्त लघुकथा पाठक को अधिक समझदार, सजग, सचेत और सतर्क करती है।

मानव की समस्याओं के स्रोतों और उसके परिवेश में सही अन्विति और सही इजहार देने वाली लघुकथा पाठक को उसकी पठन क्रिया के दौरान समझने और बाद में सोचने-विचारने के लिये उकसाती है। उसके लिये सहज दिशा निर्देशक चिहृ्नके अतिरिक्त व्यंजक संकेत के रूप में आती है।

लघुकथा में जीवन के तीव्र द्वन्द्व-दंश, गहन गम्भीर अर्थ, तीक्ष्ण सूक्ष्म अंश, युग सत्यों या तीव्र-तीक्ष्ण प्रश्नों की हैसियत को रेखांकित किया जाना चाहिए , जो कि पाठक को उसके अपने प्रश्न, समस्यायें या द्वन्द्व प्रतीत हों।

अपने परिवेश से लघुकथाकार एक अत्यन्त जटिल-सी समस्या का उठाता है और उसकी समग्र जटिलता, दुरूहता और भयावहता को मानवीय संवेदना से जोड़ता है और एक मानवीय आवेग उत्पन्न करता है।

मौजूदा समस्याओं से जूझते हुए पात्र के जरिये लघुकथाकार एक दृष्टिकोण विकसित करता है। परिणामतः विशिष्ट विचार-सृजन में रेखांकित हो पाते हैं, जो कि समस्या के समाधन में सहायक हो सकते हैं। लघुकथा में उद्देश्य की प्राप्ति प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होती है। समस्याओं का निदान करना लघुकथा में विशेष अर्थ रखता है।

भीषण रूग्णता और उसके व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभाव का विभिन्न कोणों और पार्श्वों से निदानात्मक दृष्टि से रूपायन लघुकथा में किया जाता है। यानी समस्याओं को मूर्त रूप में खड़ा करने में ही लघुकथा की सोद्देश्यता हो सकती है।

रचनाकार अपनी सृष्टि का मालिक होते हुए भी न्यायाधीश या निर्णायक नहीं हो जाता। अपनी विशिष्ट समझ के बावजूद उसके सुझाये हुए समाधान वैयक्तिक, सीमित, इकहरे, तात्कालिक और बेअसर हो सकते हैं।

पात्रों के समग्र संघर्ष के सहज स्वाभाविक परिणाम की रचना में रूपायित हो सकते हैं। व्यक्ति के इकाई रूप होने से व्यक्ति की समस्या और उसके संघर्ष को मानवीय संवेदना के मूर्तरूप में लाने की प्रक्रिया ही लघुकथा की सृजन प्रक्रिया होगी।

लघुकथा में नये दृष्टिकोणों, भावभूमियों, विषयों, विचारों और प्रयोगों के संप्रेषण के लिये नये शिल्प-रूपों को बराबर खोजा जाता है और उन्हें स्वीकृति भी मिलती रही है। परिणामतः लघुकथा का परिदृश्य व्यापक और विविध होता जा रहा है।

कहा जा सकता है कि लघुकथा का कथ्य, वस्तु, घटना चरित्र या वातावरण में से किसी एक को नहीं बल्कि उसका मिला-जुला स्वरूप सम्पूर्ण संवेगों और सम्पूर्ण चेतना को एकोन्मुख बना देता है।

लघुकथा में सूक्ष्म संदर्भों की खोज से गद्य साहित्य में सूक्ष्म अभिव्यंजना और सूक्ष्म सत्यों के उद्घाटन हुए हैं। लघुकथा अपने लघु विस्तार में ही जीवन की व्यापक विराटता को प्रस्तुत करती है।

युगीन सन्दर्भों के साथ-साथ अपने कथ्य और शिल्प को तराशते, संवारते जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी साहित्यिक विधा की जीवंतता एवं सार्थकता का परिचायक है।

प्रतिभाशील लेखक पूर्वनिर्मित मान्यताओं को तोड़कर नयी जमीन तैयार करते हैं। संप्रेषण की चुनौतियों से जूझता हुआ रचनाकार पूर्व निर्मित कथारूढ़ियों को तोड़ता रहता है।

अत्याधिक आग्रहों को लघुकथा पर आरोपित कर उसकी मूल संवेदना को खण्डित करना उचित नहीं कहा जा सकता। आरोपित आग्रहों को लघुकथा से जोड़ना उसकी सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकता और सम्भावना पर अंकुश लगाने जैसा है।

कोई भी रचना किसी भी प्रकार की औपचारिकताओं और आग्रहों के अधीन नहीं होती। क्योंकि लघुकथा का सम्बन्ध मानवीय संवेदनाओं से है, और मनुष्य का ज्यों-ज्यों मानसिक विकास होता चला जायेगा उसके अभिव्यक्ति रूपों में भी परिवर्तन होता चला जायेगा।

लघुकथा की सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकताओं और संभावनाओं को परखते हुए हम कह सकते हैं कि मानव मात्र की बेहतरी के लिये समय के समक्ष प्रस्तुत समस्याओं के मूल स्रोतों को ढूंढने और उसे उत्पन्न करने वाले कारणों को तलाशने में यानी परिवर्तन की सहायक शक्ति के रूप में लघुकथा का उपयोग अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है।

-0– कमल चोपड़ा,       1600/114, त्रिनगर,  दिल्ली – 110035.

मो0: 9999945679

हिन्दी लघुकथा में समीक्षा की समस्याएँ एवं समाधन

November 1, 2016, 1:26 am

हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार-समीक्षा अर्थात् अच्छी तरह देखना, जाँच करना-सम्यक् ईक्षा या ईक्षाणम् । किसी वस्तु, रचना या विषय के सम्बन्ध् में सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना, प्रत्येक तत्त्व का विवेचन करना समीक्षा है। जब साहित्य के सम्बन्ध में उसकी उत्पत्ति, उसके स्वरूप, उसके विविध अंगों, गुण-दोष आदि विभिन्न तत्त्वों और पक्षों के सम्बन्ध् में सम्यक् विवेचन किया जाता है, तो उसे ‘साहित्यिक समीक्षा’ कहते हैं। साहित्य के विविध तत्त्वों और रूपों का स्वयं दर्शन कर दूसरों के लिए उसे द्रष्टव्य बनाना ही समीक्षक का कर्म है। शास्त्रा में समीक्षा का अर्थ है-भाष्य के बीच प्रकृत विषय को छोड़कर दूसरे विषय पर विचार करना । यद्यपि कुछ विद्वान ‘चारों ओर देखना’, ‘आलोचना’, ‘समालोचना’ और ‘सम्यक् दृष्टि से ज्ञान प्राप्त करना’ ‘समीक्षा’ में अन्तर उपस्थित करते हैं और ‘समीक्षा’ को अधिक व्यापक रूप प्रदान करते हैं, तो भी व्यावहारिक रूप में ‘आलोचना’, ‘समालोचना’ और ‘समीक्षा’ का प्रयोग लगभग एक ही अर्थ में होता है। ‘समालोचना’ शब्द का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-युग के लोगों ने खूब प्रयोग किया। किन्तु बालकृष्ण भट्ट ने ‘आलोचना’ शब्द का ही उपयोग किया और धीरे-धीरे ‘समालोचना’ शब्द लुप्त हो गया । वर्तमान में इस शब्द का उपयोग कहीं दिखाई नहीं पड़ता । वर्तमान में ‘आलोचना’ एवं ‘समीक्षा’ का उपयोग एक ही तरह से होता है। किन्तु शब्दकोश के अनुसार समानार्थी होते हुए भी ‘समीक्षा’ एवं ‘आलोचना’ का उपयोग अलग-अलग समझा जाता है। ‘आलोचना शब्द को सामान्यतः लोग किसी ‘पुस्तक’ या ‘रचना’ का विस्तार में विश्लेषण करने के अर्थ में लेते हैं जबकि ‘समीक्षा’ को संक्षिप्त विश्लेषण करने के अर्थ में लेते हैं। सही बात जो भी हो, मैं ‘समीक्षा’ एवं ‘आलोचना’ को समानार्थी रूप में लेकर चल रहा हूँ और इस लेख में इसके बाद ‘समीक्षा’ शब्द का ही उपयोग करूँगा ।

मेरे विचार से किसी भी ‘पुस्तक’ या ‘रचना’ को समीक्षा करने से पूर्व उस ‘साहित्यरूप’ की शास्त्रीय जानकारी गम्भीर एवं गहराई तक होनी चाहिए तथा प्रत्येक समीक्षक का अपना साफ एवं स्पष्ट एक निकष भी होना चाहिए जबकि अभी तक कथा-साहित्य में ‘उपन्यास’ एवं ‘कहानी’ जिस ‘कथारूप’ की भी समीक्षा हुई है उसका आधर या तो ‘संस्कृत’ रहा है या फिर  किसी विदेशी भाषा और विशेष रूप से ‘अंग्रेजी’ से आयात किया गया है। हो सकता है मेरी इस बात पर कुछ लोग चिहुँक उठें-ऐसे लोगों से मैं अत्यन्त विनम्रता से कहना चाहूँगा कि वे पहले गम्भीरता से इस पर विचारें और ‘समीक्षा-साहित्य’ का अध्ययन करें तो स्थिति स्वतः स्पष्ट हो जाएगी । किन्तु इसका यह अर्थ हर्गिज नहीं है कि विदेशी साहित्य को पढ़ना या अपनाना नहीं चाहिए। किन्त जब हमारे देश में ही आदिकाल से लेकर अब तक एक-से-एक विद्वान हुए हैं और उन्होंने हमें विपुल मात्रा में ऐसा सुन्दर साहित्य (समीक्षा में भी), विचार, दर्शन, अध्यात्म-तात्पर्य यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा से जुड़े ग्रन्थ दिए हैं। हमारे पुराने ग्रन्थों को हमारे देश से विदेशी लोग आकर उठाकर ले गए । हमें उन्होंने उसी साहित्य को अपने नाम से पुनः लौटाना आरम्भ कर दिया और हम उन्हें उद्धृत कर-करके अपने थोथे पाण्डित्य का प्रदर्शन करने का ओछा प्रयास कर रहे हैं। क्या यह सच नहीं है ? फिर  जो कुछ उद्धृत किया जाता है उसकी प्रामाणिकता क्या है ? फिर  प्रत्येक भाषा एवं साहित्य रूप का अपना संस्कार एवं मिजाज होता है और हिन्दी भाषा का भी है । तो, उस भाषा के कथा-साहित्य की समीक्षा का भी अपना निकष होना चाहिए। निकष बनाने से पूर्व समीक्ष्य कथारूप की स्पष्ट आकृति समीक्षक के समक्ष होनी चाहिए।

लघुकथा-समीक्षा की समस्या में सबसे बड़ी समस्या इसके लेखक ही हैं-वे इतने संकीर्ण हैं कि अपनी मान्यताओं के अतिरिक्त वे किसी अन्य की मान्य को महत्त्व देना ही नहीं चाहते (जब कि उनका अन्तःकरण सच्चाई को स्वीकारता है-ऐसा उनके लेखों से आभासित होता है)। उन्हें यह खतरा बराबर दिखाई देता है कि शायद लघुकथा के इतिहास में उनके कार्यों का मूल्यांकन नहीं होगा । जबकि बात ऐसी नहीं है-किए गए कार्यों का देर-सवेर मूल्यांकन होता ही है। सूरज को बादल कितनी देर तक ढककर छिपा सकता है ? यकीनन बहुत देर तक नहीं । अतः इस भ्रम से ऊपर उठना चाहिए। इन लोगों की इन्हीं संकीर्णताओं ने लघुकथा के विकास में कई बाधाएँ खड़ी करने की कुचेष्टा की है, जिसका अन्दाज इन्हें स्वयं भी होगा ही। ऐसा भी देखा गया है कि अधिकतर लघुकथा लेखकों ने साहित्य को ठीक से पढ़ा भी नहीं है। कथा, कहानी, उपन्यास आदि के अतिरिक्त भी अन्य साहित्यरूपों का अध्ययन जरूरी है तभी ‘लघुकथा’ और सार्थक बहस की जा सकती है। आज सुनी-सुनाई बातों पर कोरी कल्पना के आधार पर बहस नहीं हो सकती ।

लघुकथा-समीक्षा की दूसरी समस्या यह है कि -लगभग प्रत्येक लघुकथा-लेखक कहता है कि उसकी अपनी लघुकथाओं के अतिरिक्त अधिकतर कूड़ा लिखा जा रहा है। इसमें झाड़-झंखाड़ उग आए हैं, आदि-आदि ‘रिमार्क पास’ करके वे लघुकथा की ‘ऐसी-तैसी’ करने पर उतारू रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अपनी कुण्ठा को आक्रोश का रूप देकर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे लोग स्पष्ट क्यों नहीं बताते कि यह कूड़ा-कर्कट या झाड़-झंखाड़ कहाँ से आ रहा है ? मैं पूछता हूँ कि यह सब कौन ‘सप्लाई’ कर रहा है? आप इस पर प्रकाश क्यों नहीं डालते हैं ? क्या इसमें आप कहीं से भी दोषी नहीं हैं ? दरअसल जिन अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी लोगों का लेखों में ‘नामोल्लेख’ नहीं हो पाता है-वे लोग ही इस प्रकार की कुण्ठाग्रस्त टिप्पणियाँ देते हैं और किसी को ‘समीक्षा’, किसी को ‘सेठिया सम्पादक’ और न जाने किन-किन बेहूदा टिप्पणियों से उन्हें अलंकृत करके अपना ताप उतारने का प्रयास करते हैं। ये लोग न तो लघुकथा के लिए कुछ करते हैं और न ही कुछ करने देना चाहिते हैं। इन्हें तो बिना श्रम के ‘पारिश्रमिक’ चाहिए। कुछ ऐसे भी कुण्ठित हैं जो एकाध पृष्ठ का पत्र, हैण्डबिल या बुकलेट प्रकाशित करके ही समझते हैं कि उन्होंने लघुकथा के हित में न जाने कौन-सा ‘अमोघ बाण’ छोड़ दिया है कि लघुकथा-जगत में उनका ‘राज्याभिषेक’ कर देना चाहिए । ऐसी स्थिति में यह सोच-विचार करने का विषय है कि ये लोग लघुकथा का हित या हानि कर रहे हैं। मेरे विचार से ऐसे लोग सिवा हानि के दूसरा कोई काम नहीं करते हैं। क्या ऐसे लोगों को लघुकथा-लेखकों के बताए रचना-विधान पर ही चलना चाहिए? क्या तभी अच्छी लघुकथाएँ (उनके अनुसार) लिखी जा सकेंगी ? यहीं एक प्रश्न मैं ‘वैसे’ (कूड़ा-कर्कट या झाड़-झंखाड़ कहने वाले) लोगों से पूछना चाहता हूँ कि (आपके निकषानुसार ही) क्या अन्य साहित्यरूपों में कूड़ा-कर्कट या झाड़-झंखाड़ नहीं लिखा गया है ? दरअसल ऐसे कुण्ठाग्रस्त लोगों को लघुकथा की नहीं अपनी चिन्ता है। ऐसे लोगों से लघुकथा को बचाने की आवश्यकता है।

लघुकथा की तीसरी समस्या है-लघुकथा के कुछ लेखक जाने-अनजाने इसे आवश्यकता से अधिक ‘कायदे-कानूनों की चौहद्दी’ में बाँधने  का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रयास करते हैं या कर रहे हैं। या यों कहें कि इसे ‘ग़णित’ एवं ‘विज्ञान’ की तरह ही ‘सूत्र’ में बाँधकर चलना चाहते हैं। ऐसे ही लोगों के ‘अड़ियल’ रुख ने शायद बहुत सारे ‘फालतू’ विवादों को जन्म दिया है जिससे लघुकथा-समीक्षा के विकास की बात तो एक किनारे रखिए ‘इसका’ ठीक से जन्म तक नहीं होने दिया। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि अन्य साहित्यरूपों की तरह ही अभी तक ‘लघुकथा’ की भी ‘व्याकरण’ या ‘विज्ञान’ की तरह बिलकुल सटीक परिभाषा नहीं दी जा सकी है। शायद यह सम्भव भी नहीं है। बात सिर्फ़ ‘समझने’ की हुआ करती है। मेरा ख्याल है, अधिकतर लघुकथा के मर्मज्ञ एवं कुशल सम्पादक इस बात को पूरी तरह समझते हैं। यही कारण है कि तमाम सार्थक एवं निरर्थक विवादों के बावजूद लघुकथा निरन्तर समृद्ध-पथ पर है। इसे किसी भी चौहद्दी में कसने या बाँधने का अर्थ इसकी प्रगति एवं विकास को अवरु( करना है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इसमें ‘अनुशासन’ नहीं होना चाहिए। अन्य साहित्यरूपों की तरह ही इसमें एक अनुशासन की आवश्यकता एवं अनिवार्यता तो है किन्तु ‘अंकुश’ की नहीं । प्रयोग करने की छूट बराबर रहनी चाहिए। ‘प्रयोग’ ही किसी भी साहित्यरूप को विकसित होने या करने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। यह स्मरण रहे कि साहित्य में ‘सार्थक’ प्रयोग ही सदैव जीवित रहते हैं, ‘निरर्थक’ प्रयोग कभी भी जीवित नहीं रहते और स्वतः ही काल-कवलित हो जाते हैं।

लघुकथा-समीक्षा की चौथी समस्या है कि अभी तक निशान्तर, डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा एवं राधिकारमण अभिलाषीजी को छोड़कर लघुकथा-समीक्षा का कार्य लघुकथा-लेखक ही करते आए हैं, और कर रहे हैं। प्रारम्भ में तो यह कोई बुरी बात नहीं थी। किन्तु अब यह स्थिति ठीक नहीं है। कारण, प्रत्येक लघुकथा-लेखक ने लघुकथा को अपने-अपने ढंग से समझा या समझने की चेष्टा/कुचेष्टा की है, जो कि स्वाभाविक ही है। और यही कारण है उन्हें अपनी ‘बात’ को स्पष्ट करने हेतु मात्रा ‘अपनी ही लघुकथाएँ’ दिखाई देती हैं या यों कहें कि यही उनकी विशेषता भी है। इसके दो कारण हो सकते हैं-एक तो उन्होंने अपने अतिरिक्त अन्य लेखकों की लघुकथाओं का अध्ययन करने का कष्ट ही नहीं किया या फिर  उन्होंने अपने अतिरिक्त दूसरे का महत्त्व देना अपने अस्तित्व के लिए ‘खतरा’ समझा हो । ऐसे लोगों को यह बात साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि किसी भी क्षेत्र में ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’। ऐसे लोगों को अपने लेखन पर विश्वास होना चाहिए तथा अपने में आत्मविश्वास पैदा करना चाहिए। अन्यथा कुण्ठा एवं हीन भावना उन्हें ‘संकीर्ण’ बना देगी या बना देती है, जिससे लघुकथा एवं उसकी समीक्षा का अहित होगा और हो रहा है।

शायद यह कुण्ठा ही है जो उन्हें अन्य ‘साहित्यरूपों’ के शास्त्रीय पक्ष का अध्ययन करने में बाधा उत्पन्न करती है या प्रेरित नहीं करती। यदि ऐसा होता तो आज ‘लघुकथा’ की स्थिति अन्य कथा-प्रकारों से किसी भी मायने में कम नहीं होती। यही कुण्ठा है जिसने उन्हें तथाकथित ‘आचार्य’ बनने को बाध्य किया और उन्होंने अपने आपको स्थापित करने या करवाने हेतु प्रायः लघुकथा-लेखकों को ‘अनर्गल वक्तव्य’ देने या ‘लेख’ लिखने को बाध्य कर दिया । निष्कर्ष सामने है-लघुकथा लेखकों का ‘सृजन’ या तो ‘रुक’ गया या फिर  जोर-जबरदस्ती कुछ लघुकथाएँ लिखीं भी तो ‘लज्जा’ का सामना करना पड़ा ।

इसकी पृष्ठभूमि में निश्चित रूप से नेतृत्व की भावना ही बलवती रही है या रही होगी। एक लेखक ने अपने लेख या वक्तव्य में एक बात कही तो दूसरे ने उसे जैसे-तैसे सही-गलत ढंग से काटने का सफल-असफल प्रयास किया । राजनीति की तरह ही लघुकथा में ‘दल’ बनने लगे और बात लघुकथा के उत्थान से हटकर व्यक्ति या व्यक्तियों के ‘समूह-विशेष’ के उत्थान पर केन्द्रित होने लगी । इससे ‘साहित्यिक मर्यादाएँ’ भंग हुई और अराजकता विस्तार पाने लगी जिससे दिनानुदिन स्थिति गम्भीर से गम्भीरतर होती जा रही है।

कमलेश्वर ने ठीक ही कहा है-आलोचना अब एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी इस्तेमाल होती है और चूँकि राजनीति के पास अपनी ‘विचारधारा’ होती है, अतः वह अन्य विचारों का तिरस्कार केवल लेखकों के नामों का सहयोग चाहती रहती है। यह भयंकर स्थिति है। राजनीति-मूलक आलोचकों को ‘विचार’ की जरूरत नहीं होती, उन्हें सिर्फ़ अपने समर्थकों की जरूरत होती है। ऐसी हालत में लेखक के अपने अनुभव का प्रामाणिकता का कोई मूल्य उन आलोचकमों के लिए नहीं रह जाता । केवल मतवाद को प्रामाणिक (यथासम्भव) तरीके से पेश कर देने वाले लेखक ही उनके लिए महान लेखक बन जाते हैं ।

यहीं पर उन लेखकों के लिए संकट उत्पन्न होता है, जो विचारधारा-विशेष को अपनी आस्था का अंग मानते हैं, पर लेखक के रूप में अनुाव की प्रामाणिकता को ही तरजीत देते हैं। क्योंकि राजनीति-मूलक समीक्षा लेखक का प्रामाणिक अनुभव नहीं चाहती, वह अपने अनुवाद को यथासम्भव प्रामाणिक आवरण पहनाने की माँग करती है।

अपनी विचारधारा मनवाने हेतु लघुकथा-लेखक द्वारा पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ होता है। फिर  जो मन में आता है, उसे लघुकथा के नाम पर प्रकाशित कर देता है। परिणाम यह होता है कि अनावश्यक विवाद की स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जिससे व्यक्तिगत स्तर पर भी मनमुटाव हो जाता है। इससे भी सृजनकार्य बाधित हो जाता है और ‘खेमे’ बनते हैं और बने हैं। यही कारण है, वर्तमान में लघुकथा के खाते में लघुकथा उतना विपुल भण्डार नहीं है जितना कि अब तक हो जाना चाहिए था । यदि ऐसा होता तो समीक्षक स्वयं इस ओर आकर्षित होते । इसके अतिरिक्त इच्छुक समीक्षक लघुकथा-लेखकों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों को सुन-सुनकर आतंकित हो उठते हैं और वे इस विवादास्पद कथा-प्रकार की ओर हाथ बढ़ाने से भी डरते हैं। यदि दुस्साहसी समीक्षक लघुकथा हेतु कुछ कार्य करना भी चाहते हैं तो लघुकथा-लेखक उन्हें अपने-अपने बनाए दायरों में ही रखना चाहते हैं या उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। यह कार्य अधिकतर वे सम्पादक करते हैं तो ‘लघुकथा-बाहुल्य’ पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन करते हैं। लेखक न तो इनका विरोध करते हैं और न ही स्पष्ट रूप से मुखर होते हैं। कारण, यदि वे विरोध करेंगे या मुखर होंगे तो उन्हें लघुकथा-जगत् की सीमा से बाहर कर दिया जा सकता है, इसका भय रहता है। बात यहीं तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है-लघुकथा में तो योजना बना-बनाकर किसी को ‘खारिज’ करने की साजिशें देखने-सुनने में आती रही हैं। जैसे-अमुक चर्चित लेखक को ‘खारिज’ करना है या उसकी बनी हुई छवि को धूमिल करना है तो किसी बन्द हुई पत्रा-पत्रिका के किसी पुराने अंक में छपी उसी चर्चित लेखक की रचना को किसी अन्य नाम से प्रकाशित करके अमुक चर्चित लेखक की छवि को धूमिल करने की साजिशें भी सामने आ चुकी हैं।

कुछेक पत्रिकाओं ने ‘चोर लेखक’ सिद्ध करने हेतु अपनी पत्रिकाओं में स्तम्भ आरम्भ किए थे, जिनका स्पष्ट उद्देश्य ‘ब्लैकमेलिंग’ था। अगर साहित्य में भी ‘ब्लैकमेलिंग’ होगी तो ‘अपराध-जगत’ और ‘साहित्य-जगत’ में क्या अन्तर रह जाएगा? ऐसी घृणित प्रवृत्तियों का घोर विरोध होना चाहिए । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मैं ‘चोर लेखकों’ की पैरवी कर रहा हूँ। मेरे कहने का अर्थ यह है कि यदि आपका उद्देश्य पवित्र है ,तो ऐसे चोर लेखकों को महत्त्व ही नहीं देना चाहिए । यदि उनके (चोर लेखक) पास लिखने की क्षमता नहीं है, तो वे स्वतः समाप्त हो जाएँगे । चोरी की रचनाओं पर वे कब तक जिन्दा रहेंगे ? इतनी ही अराजकता लघुकथा में नहीं है – कुछ लेखकों ने तो स्वयं मनगढ़न्त लघुकथाएँ लिखकर उन्हें किसी भी विदेशी रचना का नाम देकर प्रकाशित कर दिया ताकि वे अपने को शोधकर्ता सिद्ध कर सकें। ऐसे लोग क्या सभी विदेशी भाषाओं के जानकार हैं ? यदि उनकी बात में सच्चाई है तो वे मूल रचना का सन्दर्भ एवं अनुवाद-अनुवादक का सन्दर्भ क्यों नहीं प्रस्तुत करते ताकि उनकी नीयत पर शंका न की जा सके । लघुकथा-लेखकों-आलोचकों को भी चाहिए कि वे बिना मूल स्रोत जाने किसी बात या रचना को उद्धत न करें ।

कुछ लोग लघुकथा-लेखकों को अपनी ‘प्रजा’ समझते हैं और वे चाहते हैं कि वे अपनी पत्रा-पत्रिकाओं के माध्यम से जो ‘पफरमान’ जारी करें वह लघुकथा के लिए नियम बन जाए। किन्तु ऐसी स्थिति में क्या किया जाए जब उनके नियमों पर ही उनकी ‘लघुकथा’ पूरी न उतरे। अब यदि आप उनकी लघुकथा को ‘कमजोर’ कह दें तो वे आपकी ‘खारिज’ करने का अभियान चलाने की धमकी देंगे, देते हैं। इतना ही नहीं, वे फतवा भी देंगे कि आपको अभी ‘लघुकथा की समझ’ नहीं है। लगता है जैसे ‘लघुकथा’ उनकी जागीर है।

ऐसे अराजकतापूर्ण माहौल में लघुकथा को बढ़ाने की बात करना निःसन्देह अपने आप में एक गम्भीर समस्या है। इसी प्रकार लघुकथा-समीक्षा में बड़े पैमाने पर अराजकता फैल रही है, जिसे बहुत ही ढंग से-शालीनता से दूर करना होगा।

इसी प्रकार लघुकथा के नाम को लेकर काफी अराजकता फैली हुई है। पहले लघुकथा एवं लघुकहानी को लेकर झंझट था। उसके बाद क्रमशः ‘लघु व्यंग्य’, ‘मिनीकथा’, ‘अणुकथा’, ‘क्षणिक कथा’, ‘कथानिका’, ‘सूक्ष्मिका’ आदि शब्द यदा-कदा कुकुरमुत्तों की तरह से अनिच्छित ढंग से उगते रहे हैं। फिर  भी ‘लघुकथा’ लघुकथा है और लघुकथा ही रहेगी । कहने का तात्पर्य यह है कि ‘प्रवर्तक’ कहलवाने की ललक भी लघुकथा-समीक्षा की भारी क्षति कर रही है। जबकि होना यह चाहिए कि नेतृत्वकर्ता एवं प्रवर्तक बनने की होड़ समाप्त हो और लघुकथा-लेखन की ओर ध्यान केन्द्रित किया जाए। लघुकथा के भण्डार को श्रेष्ठ लघुकथाओं से इतना सम्पन्न कर दिया जाए कि समीक्षक स्वयं इस ‘कथा-रूप’ हेतु काम करने को आगे आएँ और श्रेष्ठ लघुकथाओं का चुनाव करके लघुकथा की पहचान को स्पष्ट करें। वे लघुकथा के रचना-विधान को तय करें। लघुकथा ‘कहानी’ से कहाँ और किस प्रकार भिन्न होती है, यह तय करें । इसके लिए समीक्षकों एवं लेखकों की अलग-अलग संगोष्ठियाँ हों और फिर  मिलकर मतैक्य होकर उसे अनुशासित करके उसमें फैली अराजकता को दूर करें, तब ही एक स्वस्थ माहौल कायम हो सकता है और लघुकथा लाभान्वित हो सकती है। लेखकों को चाहिए कि अच्छी लघुकथाएँ प्रकाशित करने वाली पत्र-पत्रिकाओं में ही अपनी लघुकथाएँ भेजें और सम्पादकों को भी चाहिए कि वे मात्रा श्रेष्ठ लघुकथाएँ ही प्रकाशित करें ।

इसी प्रकार ‘लघुकथा’ की कई अन्य छोटी-मोटी समस्याएँ हैं, हो सकती हैं। यहाँ मैं लेख की सीमा को और अधिक विस्तार न देते हुए इतना कहना चाहूँगा कि लघुकथा को समझने से पूर्व कथा को समझना नितान्त आवश्यक है। कथा हर काल में अलग-अलग ढंग से देखी, समझी एवं पढ़ी गई है। अग्निपुराण (उत्तर भाग-1 के  पृष्ठ 1643 में इसकी व्याख्या कुछ है, हिन्दी साहित्य कोश ;भाग-1 में कुछ है और बटरोही ने इस पर अपने अलग ढंग से विचार किया है। मेरे विचार से कथा का ही परिष्कृत, परिमार्जित, विकासशील एवं आधुनिक रूप लघुकथा है। यह परम्परा रही है कि समय-समय पर ‘समय’ और ‘परिवेश’ के अनुकूल ही साहित्यरूप भी अपना रूप बदल-बदलकर वर्तमान से जुड़कर चलते हैं और तभी ये प्रासंगिक भी रहते हैं और विकास भी पाते हैं । जो साहित्यरूप अपने को वर्तमान से नहीं जोड़ पाते हैं वे लुप्त हो जाते हैं और मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह जाते हैं।

लघुकथा का दुर्भाग्य यह है कि अभी तक इसका अपना कोई शास्त्र नहीं बन पाया है। हालाँकि धीरे-धीरे इस दिशा में प्रयास चल रहा है। अभी तक इसे एक अण्डरस्टैंडिंग के तहत ही समझा और लिखा जा रहा है। इसके अतिरिक्त एक दुर्भाग्य यह भी है कि लघुकथा के पास रचना के नाम पर विपुल भण्डार नहीं है। आज यदि श्रेष्ठ लघुकथाओं का कोई संकलन प्रकाशित करना हो, तो शायद एक सौ से अधिक ‘मानक लघुकथाएँ’ भी हाथ नहीं लगेंगी जिन पर गर्व किया जा सके या जिन्हें हम समीक्षकों को सौंपकर कहें कि इन्हें मानक मानकर आप लोग ‘लघुकथा का शास्त्र’ लिख दीजिए । यहाँ सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि सर्वप्रथम यह तय हो और शब्दों में बिलकुल सही-सही अभिव्यक्त किया जाए कि लघुकथा क्या है ? यह कहानी से कहाँ और किस प्रकार भिन्न है ? इसका अपना रचना-विधान क्या है? आदि-आदि कई बातें हैं जिन पर विचार करके यदि पूर्णतः नहीं तो लगभग की स्थिति में तो मतैक्य हो जाए। हालाँकि ऐसी बात नहीं है कि लोगों ने इस दिशा में प्रयास नहीं किया । इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किए गए हैं। अब जरूरत है लघुकथा-समीक्षा की दिशा में आगे कार्य करने हेतु विष्णु प्रभाकर, रमेश बतरा, भगीरथ, स्वर्ण किरण, जगदीश कश्यप, सतीशराज पुष्करणा, विक्रम सोनी, निशान्तर आदि के लेखों एवं वक्तव्यों को गम्भीरता से देखने एवं समझने की । हालाँकि अभी तक किसी ने भी लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष एवं समीक्षा को लेकर एक भी ऐसा लेख नहीं लिखा है जिसे लघुकथा पर लिखा गया ‘मानक लेख’ या सर्वश्रेष्ठ लेख कहा जा सके। उपर्युक्त लोग भी ‘एक लगभग’ की स्थिति को ही छू पाए है। हाँ! लघुकथा के इतिहास पक्ष में कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, शकुन्तला किरण, स्वर्ण किरण एवं सतीशराज पुष्करणा ने प्रामाणिक कार्य अवश्य ही किए हैं ।

‘लघुकथा’ एवं ‘कहानी’ में अन्त स्पष्ट करने का प्रयास मैंने ‘अवसर’ के लघुकथांक में किया था । किन्तु उस पर खुलकर चर्चा नहीं हो पाई। परिणाम हम देख ही रहे हैं कि आज भी समस्या अपने स्थान पर ज्यों-की-त्यों है। अभी मतैक्य हेतु हिन्दी लघुकथा-समीक्षा पर बिना किसी आग्रह या दुराग्रह के गोष्ठियों, संगोष्ठियों एवं सम्मेलनों की तत्काल आवश्यकता है और इससे भी अधिक आवश्यकता है श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने की, जिससे समीक्षक स्वतः इस ओर आएँ या उन्हें श्रेष्ठ लघुकथाएँ भेजकर उन पर समीक्षात्मक लेख लिखने हेतु आमन्त्रित करें ताकि वे लोग अलग-अलग अपने-अपने ढंग से लघुकथा का शास्त्रा तैयार कर सकें और समीक्षा के प्रतिमान प्रस्तुत कर कसें। फिर  संगोष्ठियों में खुली बहस होनी चाहिए न कि प्रतिष्ठा का झंझट। इस बहस में समीक्षको  के अतिरिक्त लेखकों को भी शामिल रहना चाहिए। इसके बाद जो निष्कर्ष हमारे सामने आएँगे, उनके न मात्र लघुकथा के निकष मतैक्य से सामने आएँगे बल्कि ‘लघुकथा-शास्त्र’ भी तैयार करने में सुविधा हो जाएगी। इस कार्य से चुटकुलेबाज़ तथा ‘मिथकों का दुरुपयोग’ करनेवाले अलघुकथा-लेखक स्वतः ही तलछट की भाँति छँटकर अलग हो जाएँगे और फिर  अधिकतर साफ- सुथरी लघुकथाएँ ही सामने आ पाएँगी ।

बटरोही ने बहुत ठीक कहा है –‘दूसरी ओर ऐसे जल्दबाज कथाकार भी हैं जो अनुभूति के स्तर पर ही खुद को व्यक्त कर देते हैं। वे रचनात्मक दायित्व से जुड़ी कष्ट समानता के बीच से गुजरना ही नहीं चाहते। परिणामस्वरूप अपनी निजी खुशी, निजी यातना को तात्कालिक स्तर पर ही व्यक्त करके दुःखी रहते हैं कि इतना अधिक लिखने पर भी उन्हें कोई नहीं पूछता। …. कहने का तात्पर्य यह है कि लिखने में गम्भीरता होनी चाहिए और लघुकथा के वैयक्तिक रचना होने का अहसास नहीं होना चाहिए । लेखक सार्वजनीन होना चाहिए भले ही लेखक स्वयं पात्रा के रूप में उपस्थित क्यों न हो ।

मुक्तिबोध के अनुसार-‘सही है कि मानव-ज्ञान स्थिति-सापेक्ष है। लेखक के अन्तःकरण में संचित संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन समीक्षकों-लेखकों का आत्मवृत्त जाने ! किन्तु यह तो हो ही सकता है कि समीक्षक अपने स्वयं के उद्योग से लेखक के अन्तर्बाह्य जीवन में ज्यादा दिलचस्पी ले । इसप्रकार की ज्ञान-प्राप्ति से निःसन्देह उसे लाभ होता है और उससे समीक्षा अधिक यथार्थोन्मुख और गहरी होती है।’

हम लोग परिवार और पारिवारिक जीवन को साहित्य के अध्ययन में विशेष महत्त्व ही नहीं देते । आदि के व्यक्ति का विकास बाह्य समाज में तो होता ही है, वह परिवार में भी होता है। परिवार व्यक्ति के अन्तःकरण में, संस्कार में तथा प्रवृत्ति-विकास में पर्याप्त योग देता है। लेखक को घर-परिवार या आस-पास की समस्याओं की ओर देखते हुए लेखन-कार्य करना चाहिए। कारण, अधिकतर ऐसी ही रचनाओं की कमी होती है।

अन्त में एक बात और कि लघुकथा की स्वायत्तता पर भी बात होनी चाहिए और अन्य कथा-रूपों से इसकी ‘अलग पहचान’ होनी चाहिए । पार्थक्य बिन्दु को मतैक्य से तय किया जाना चाहिए। जैसे उपन्यास और कहानी आकार में छोटे-बड़े होने के कारण ही एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार कहानी और लघुकथा भी आकार में छोटे-बड़े होने के कारण ही एक-दूसरे भिन्न नहीं हैं। एक लघुकथा आकार में कहानी से बड़ी हो सकती है और एक कहानी लघुकथा से छोटी हो सकती है। इनमें ‘अन्तर केवल कथानक का होता है।’ फिर  भी यह तो मानना ही होगा कि ‘आकारगत लघुता’ लघुकथा की एक विशेषता है।

लघुकथा-समीक्षकों को बिना किसी आग्रह एवं दुराग्रह के लघुकथा या उसकी पुस्तक को उसके रचना एवं प्रकाशन-काल को मान-जानकर ही उसका समीक्षाकर्म करना चाहिए । इससे भी पूर्व अन्य साहित्यरूपों और विशेष तौर पर कथा-साहित्य एवं उसकी समीक्षा का भी अध्ययन-मनन करना होगा। लघुकथा को विकसित करने के लिए जहाँ यह अनिवार्य है कि उसकी परिभाषा को सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष से प्रस्तुत करना चाहिए अर्थात् लघुकथा में क्या हो और क्या न हो-स्पष्ट करना चाहिए, वहीं यह भी जरूरी है कि लघुकथा को विकसित करने के लिए समीक्षक इसे कहानी की विकास-यात्रा वाले मार्ग से लेकर इसके सही स्थान पर पहुँचाएँ ,जिसकी यह सही हकदार है। इस कार्य में लघुकथा-लेखकों को समीक्षकों से मिलकर (परस्परवाद से दूर रहकर) ‘ईमानदारी’ से एक-दूसरे के कार्य में बिना दखलन्दाजी के सहयोग करना होगा।

इसके साथ-साथ मैं पुनः कहना चाहूँगा कि अच्छी लघुकथाएँ ही लिखी जाएँ और अच्छी लघुकथाएँ ही छापी जाएँ, भले ही पुरानी रचनाओं को ही बार-बार क्यों न छापना पडे़। अच्छी लघुकथाओं से हमें लघुकथा-जगत् को समृद्ध करना है, करना होगा और समीक्षक को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वतन्त्र रूप से काम करना होगा, तभी लघुकथा भी अन्य साहित्यरूपों की तरह से प्रतिष्ठा पा सकेगी।

एक बात और, हमें पत्रकारों द्वारा पूर्वाग्रह एवं राजनीति से वशीभूत होकर लिखी गई समीक्षाओं से घबराना नहीं चाहिए। पत्रकार जब समीक्षा लिखता है तो समीक्षाकर्म नहीं करता, वह पत्रकारिताकर्म (वर्तमान में जैसी पत्रकारिता चल रही है) हो सकता है। ऐसे असमीक्षकों को महत्त्व नहीं देना चाहिए । आपकी लघुकथाओं में दम होना चाहिए फिर  चाहे कोई भी, कुछ भी लिखता रहे, कोई अन्तर नहीं पड़ता । समय न्याय करता है और अच्छी रचनाओं से ही लेखक और स्वस्थ समीक्षाओं से ही समीक्षक, साहित्य एवं साहित्यरूप जीवित रहते हैं ।

-0-डॉ सतीशराज पुष्करणा,अध्यक्ष, अ.भा. प्रगतिशील लघुकथा मंच,‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू,पटना-800 006

मो: 08298443663, 09431264674

लघुकथा और शास्त्रीय सवाल

November 30, 2016, 10:30 pm

लघुकथा ज्यों–ज्यों फैलाव ले रही है, त्यों–त्यों उससे कुछ सवालों को अकारण ही जोड़कर स्वयं को

लघुकथा की शुरुआत का आधुनिक दौर कब से माना जाता है? - laghukatha kee shuruaat ka aadhunik daur kab se maana jaata hai?
उभारने की कोशिश भी होती रही है। ऐसी स्थिति में रचना और आलोचना तथा इसके रिश्तों पर बुरा असर पड़ा है।
वे सिद्धान्त, जो रचना को बेहतरी की ओर न ले जाएँ या व्यावहारिक न हों–व्यर्थ होते हैं। सिद्धान्त रचना में से जन्म लेते हैं। यदि उन्हें बाहर से लागू करने का प्रयास किया जाएगा तो या तो रचना नहीं रहेगी या सिद्धान्त नहीं रहेंगे। उदाहरण दिलचस्प है। हिन्दी में महाकाव्य के लिए जो लक्षण संस्कृत और हिन्दी के नामी आचार्यों ने दिए, उन पर हिन्दी का एक भी प्रसिद्ध महाकाव्य खरा नहीं उतरता। इससे रामचरितमानस, पद्मावत, साकेत या कामायनी का महत्त्व कम नहीं हो जाता। यहाँ तक कि आधुनिक काल में महाकाव्य के नए लक्षण दिए गए, जो काव्य के कण्टेण्ट और थीम को अधिक महत्त्व देते हैं। हालाँकि ये लक्षण एक क्लासिक किस्म की काव्य विधा के लिए थे, लेकिन लघुकथा तो इस दायरे में नहीं आती है।
एक समय था, जब कहानी और उपन्यास को छह तत्त्वों (कथानक, पात्र, संवाद, वातावरण, भाषा–शैली, उद्देश्य) के आधार पर परखा जाता था। लेकिन 1960 के आस–पास कथाकारों व समीक्षकों को अनुभव हुआ कि रचना की संश्लिष्टता को तत्त्वों में बाँटकर नहीं परखा जा सकता। समय के अनुसार सामाजिक प्रतिक्रियाएँ तेज होती जा रही हैं, ऐसे में ये स्थिर मापदण्ड उसके लिए प्रासंगिक नहीं रह गए। लेकिन इधर हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में लेखन के आधार तय करने के लिए कुछ शास्त्रीय सवाल रह–रहकर उभारे जा रहे हैं। तात्विक परख एक तरह की अध्यापकीय समीक्षा है, जो रचना की संवेदना से प्राय: दूर रहती है। और फिर समीक्षा की कसौटी आप जैसी भी बनाएँ, रचना करने के कोई ऐसे आधार कैसे बनाए जा सकते हैं?
एक सवाल है कि कथानक के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा कहाँ तक सार्थक है? लघुकथा में घटना एक भी हो सकती है, एक से अधिक भी और एक भी नहीं हो सकती। कई बार केवल स्थिति ही काफी होती है। तो सभी सम्भावनाएँ लेखक के सामने खुली हैं। उद्देश्य के लिहाज से जिस रूप में वह अपनी बात को ठीक ढंग से कह पाए–वही उसे अपनाना चाहिए। यही बात बिम्ब के बारे में कही जा सकती है। एक से अधिक बिम्बों का प्रयोग भी हो सकता है। बिम्ब रचना के सौन्दर्य में वृद्वि तो करता है, लेकिन कई रचनाओं में इसको लाना उसकी गतिशीलता में बाधक बन सकता है। इसलिए एक घटना और एक बिम्ब का सिद्धान्त कोई मायने नहीं रखता। रचनात्मक कौशल से बड़े फलक पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है।
दूसरा सवाल है कि क्या लघुकथा में पेड़–पौधे आदि प्रकृति के उपादान केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं? मेरा अपना मत है कि कथाकार को एलीगरी से यथासम्भव बचना ही चाहिए। इसमें रोमानी मानसिकता का और समाज से कटने का खतरा साफ दिखाई पड़ता है। यह खतरे लेखक के साथ–साथ पाठक को भी चपेट में ले सकते हैं। पेड़–पौधों का लघुकथा में प्रयोग करना या उन्हें नायक बनाना वर्जित नहीं है, लेकिन उन पर प्राथमिक तौर पर निर्भर करना भी ठीक नहीं है। यदि मनुष्य पात्र को रचना में उतारने से लेखक अपनी बात बेहतर कह सकता है, तो पेड़–पौधों का सहारा लेने की क्या जरूरत है? मनुष्यों की जटिल मानसिकता का, जटिल सम्बन्धों का, आज के जटिल व संश्लिष्ट यथार्थ का आरोप पेड़ों आदि पर कैसे कर सकते हैं? यह भी अस्वाभाविक है कि कोई चिडि़या या कबूतर मानव–मन का विश्लेषण करते हुए दिखाए जाएँ। वैसे खलील जिब्रान ने एलीगरी का बहुत और असरदार प्रयोग किया है। लेकिन आज जैसी रचनाओं की जरूरत है, उसमें इसका अधिक प्रयोग रचनात्मक लक्ष्य को पीछे धकेल देगा। आज जब, ‘सीधी कार्रवाई’ और ‘निर्णयात्मक लड़ाई’ की बात की जा रही है, तो हमें अपनी बात यथासम्भव सीधे–सीधे ही कहनी होगी।
तीसरा सवाल यह है कि लघुकथा में कथोपकथन (संवाद) तत्त्व का होना अति आवश्यक है या नहीं? और संवादों के वाक्यों का छोटा होना भी क्या अनिवार्य हैं? एक रचना को वाक्य के स्तर पर न तो परखा जा सकता है, न ही लिखते समय लेखक का ध्यान वाक्य–संरचना की विशेषताओं पर रहता है। जब कण्टेण्ट अपना रूप स्वयं निर्धारित करता है तो वाक्यों व संवादों के छोटे (चुस्त) होने की बात रचना पर कैसे लादी जा सकती है? संवाद स्वयं में रचना का महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है। इससे कई बार बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेखक को रचना में हस्तक्षेप भी नहीं करना पड़ता। लेकिन संवादों का होना कोई शर्त नहीं है। लघुकथा में संवाद हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते और सिफ‍र् संवादों के बल पर लघुकथा लिखी जा सकती है। जब पूरी कहानी (ऊपर, नीचे और दरमियान : लेखक सआदत हसन मण्टो, सन्दर्भ पहल–31) संवाद शैली में लिखी जा सकती है, तो लघुकथा क्यों नहीं लिखी जा सकती? संवादों का प्रयोग लेखक व रचना पर निर्भर करता है।
लघुकथा के कुछ लेखक–समीक्षक काल के अन्तराल को लघुकथा का दोष मानते हैं। मेरे विचार में अन्य विधाओं में कभी प्रचलित रही प्राचीन कसौटियों को लघुकथा में लाकर खड़ा करने का कोई औचित्य नहीं है। काल–दोष (और स्थान–दोष) की बात सबसे पहले अरस्तू ने उठाई थी। लेकिन शेक्सपियर ने अपने नाटकों में उस कसौटी को कोई महत्त्व नहीं दिया। आखिर हर रचना की अपनी प्रकृति और अपनी ज़रूरत होती है। हिन्दी में नाटक की समीक्षा के लिए प्रसाद–युग तक ‘त्रिदोष’ (समय, स्थान और कार्य का अन्तराल) को एक कसौटी बनाया गया, उसके बाद रचनात्मकता पर से यह बन्धन हट गया। दरअसल काल–दोष वाली बात अपने में जड़ अवधारणा है। काल एक निरन्तर गतिशील प्रवाह है, जिसका वर्तमान अतीत से जुड़ता और भविष्य में घटता रहता है। लघुकथा की एक ही समय में घटित होने की कसौटी उसका गला घोंट देने में ही सहायक होगी। इस कसौटी से एक स्थिर और सतही पॉप्युलर किस्म के यथार्थ को लेकर लिखी जानेवाली लघुकथाओं को बल मिलेगा। कई बार एक लम्बे समय को लेकर लघुकथा में अपनी बात अधिक सघन व असरदार ढंग से कही जाती है। जटिल, संश्लिष्ट व गतिशील यथार्थ को पकड़कर उसे कलात्मक यथार्थ तक पहुँचाने के लिए लेखक के पास विविध प्रयोगों के क्षेत्र खुले रहने चाहिएँ। कविता, उपन्यास और कहानी में एक लम्बे समय की बात को कहने के लिए लेखक कल से आज और आज से कल पर सुविधा या जरूरत के अनुसार फ्लिक करता है। समय का एक बड़ा दायरा, बड़ा फलक कई कथानकों के लिए जरूरी होता है। लघुकथा के लघु कलेवर में लेखक यदि समय के विशाल फलकवाले कथानक को सफलता से निभा जाता है, तो यह उसका रचनात्मक कौशल कहा जाएगा।
अनेक विश्वप्रसिद्व बाल–कथाओं और लोक–कथाओं में काल की सीमा का बन्धन नहीं माना गया। ‘मूर्ख गडरिया’ में अलग–अलग समय में गडरिया कुल चार बार ‘शेर–शेर’ चिल्लाता है। इस तरह काल–दोष देखने लगें तो उसमें तीन बार अन्तराल आया है, लेकिन लघुकथा प्रभावित करती है। पहली तीन बार झूठ–झूठ चिल्लाने पर लोग मदद के लिए आते हैं। चौथी बार सचमुच शेर के आने पर वह चिल्लाता है, पर लोग अब झूठ समझकर मदद को नहीं आते। इस लघुकथा का उद्देश्य अन्तराल को दिखाए बिना पूरा ही नहीं हो सकता था। इसलिए एक ही समय में घटना होने की कसौटी अतार्किक लगती है। उद्देश्य की दृष्टि से लघुकथा में अन्विति और एकतानता होगी तो काल–दोष वाली बात उसका बड़ा गुण दिखाई देगी। पाठक भी रचना के उद्देश्य को लेकर प्रभावित होता है, चाहे रचना कितने स्थानों और समय तक फैली हो। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कई लघुकथाएँ काल की सीमा से ऊपर हैं। ‘सूअर’, ‘अमरता’, ‘लिफ्ट’, ‘बाप बादल’, ‘थ्रू प्रॉपर चैनल’, ‘बात’ आदि उनकी ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। इस तरह लघुकथा में काल को लेकर लेखक पर बन्धन नहीं लगाना चाहिए। एक उद्देश्य, एक बात के हिसाब से लेखक जहाँ जाना चाहता है, वह जाएगा ही।
तो ऐसी शुष्क और गैर–रचनात्मक कसौटियाँ लघुकथा ही नहीं, किसी भी प्रकार के लेखन पर लागू नहीं होतीं। लेखक रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरते हुए इन कसौटियों पर कभी ध्यान नहीं देता, दे भी नहीं सकता। उसके सामने जीता–जागता, हलचलों से भरा जीवन है, पात्र हैं, लेखन का उद्देश्य है। रचना अगर लेखक के विचारशील–संवेदनात्मक व्यक्तित्व से उपजी है, तो वह उन सवालों से ऊपर है, बहुत ऊपर है। रचनात्मक क्षण इन प्रश्नों से अलग रहते हैं। बकौल रमेश बतरा–विचार और अनुभव तो जिन्दगी को भी पीछे छोड़ जाते हैं, शर्त तो क्या चीज है? एक श्रेष्ठ रचना वह है जिसमें पाठक की सोच, भावना और संवेदना को सही दिशा में प्रभावित करने की क्षमता हो।
(प्रकाशित :– ‘लघु आघात’ (त्रैमासिक), इन्दौर
अप्रैल–दिसंबर 1987)

सोचने को विवश करती लघुकथाएँ

January 31, 2017, 11:05 am

हरी- भरी वादियाँ,दूर दूर तक फैला वितान,एक सुनहरी आभा में मिलते धरती गगन, और उस आभा में आलोकित हो क्षितिज को पकड़ने दौड़ते बालकों से हम। हरी भरी वादियों में दौड़ते हुए कहीं किसी पत्थर से ठोकर हो जाती है, किसी मृदु भूमि पर पाँव पड़ जाता है, धँसता चला जाता है, तो कहीं किसी और के खोदे गड्ढे में गिर पड़ते हैं, आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है, मन उद्वेलित हो जाता है। जीवन के यही

लघुकथा की शुरुआत का आधुनिक दौर कब से माना जाता है? - laghukatha kee shuruaat ka aadhunik daur kab se maana jaata hai?
उद्वेलित करने वाले पल लघुकथा के उस खास पल को जन्म देते हैं जो उसकी आत्मा होती है। जिसके बिना लिखी गई लघु कथा आत्माहीन होती है। उस एक पल को शिल्प के चमकते सुनहरे पिंजरे में कसना, शब्दों में उतारना ही लघुकथा को जन्म देता है। कई बार उस पल के हम से टकराने के बाद लघुकथा के कागज पर उतरने में बरसों लग जाते हैं किंतु  उस पूरे अंतराल में भीतर ही भीतर मनन मंथन चलता रहता है। आत्मा से प्रत्यक्ष शरीर बनने की यह प्रक्रिया या रचना प्रक्रिया लघुकथा में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।

आज बहुत सी लघु कथाएँ  लिखी जा रही हैं ;किंतु सभी शायद लघु कथा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। किसी संवेदनशील विषय को लेकर उस पर कलम चलाना और प्रकाशित करा लेना किसी लघुकथाकार को स्थापित नहीं करता। एक सशक्त लघुकथा की अनिवार्यता है उसमें निहित आत्मा, सुस्पष्ट शिल्प  और इन सबसे ऊपर एक दायित्वबोध।

प्रतिष्ठित लघुथाकार सुकेश साहनी जी की लघुकथाएँ  इसी आत्मा  को स्पष्ट दायित्वबोध के साथ शिल्प कौशल से सुगठित देह प्रदान करती हैं। पिछले तीन दशकों से अधिक से लघुकथा–लेखन में सक्रिय सुकेश साहनी जी की प्रत्येक रचना के साथ गहन चिंतन जुड़ा हुआ है, उनका सतत तर्कपूर्ण लेखन वास्तव में  लघुकथा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। आपने न केवल हिन्दी  लघुकथा साहित्य को समृद्ध किया है अपितु इन लघुकथाओं के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद से अन्य भाषा साहित्य को भी समृद्ध किया है।

साहनी जी ने अपने लेखन में जीवन के हर क्षेत्र को स्पर्श किया और लघुकथा की मर्यादा को एक नई ऊँचाई प्रदान की है। आपने अपनी रचनाओं के अद्भुत बिम्ब व भाषा शक्ति से बहुत सटीकता के साथ आज हो रहे सामाजिक मूल्यों के ह्रास के प्रति चिंता व्यक्त की है, भोले-भाले ग्रामीणों के जीवन का, शहरों में खोखले अहम् से  पीड़ित लोगों व निम्न मध्यवर्ग की बेचारगी, पीड़ा और निराशा का चित्रण किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं पर प्रहार किया है। आपकी लघुकथाएँ  कथ्य, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद के माध्यम से अपना निहित उद्देश्य प्राप्त करती हैं और ऐसे स्थान पर छोड़ देती है, जहाँ से पाठक के मंथन की यात्रा शुरू होती है।

साहनी जी की लघुकथाएँ  हल्के फुलके पठन के लिए नहीं हैं। संवेदनाओं का सैलाब लिए ये गहरा आघात करती हैं, पाठक को झकझोर कर रख देती हैं, सोचने को विवश करती हैं औऱ कई बार पाठक को समाज के बौनेपन का अहसास कराती हैं, ये पाठक के मन में यह विचार नहीं छोड़ती…… लेकिन हम कर क्या सकते हैं अपितु यह भाव जागृत करती हैं कि कुछ करना होगा, बदलाव जरूरी है। लगभग हर लघुकथा को पढ़ने के बाद संकलन को बंद करके वैचारिक मंथन का सामना करना पड़ता है, कई को पढ़कर अकस्मात् मुँह से निकलता है – उफ्फ!

इनमें बहुत सी लघुकथाएँ  ऐसी हैं भी हैं जिन्हें पढ़ना अच्छा नहीं लगता। एक सामान्य पाठक जिसे लघुकथा के मर्म व निहित प्रयोजन का ज्ञान नहीं ,वह निश्चित ही इनमें से कुछ लघुकथाओं को किनारे रख देगा ; क्योंकि यह समाज के उस वीभत्स रूप को सामने लाती हैं ,जो गल -सड़ रहा है, जिस पर समाज निगाह डालना ही नहीं चाहता या यों कहें कि उसमें उलझना नहीं चाहता । जो चीजें इंसान को प्रत्यक्ष प्रभावित नहीं करती वह उनसे दूरी बना कर रखना चाहता है चाहे उसके कारण दूसरों का कितना भी अहित हो रहा हो ; लेकिन यह सब एक सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को उद्वेलित करता है, वह उसके निराकरण के लिए प्रयासरत रहता है। साहनी जी ने इस निराकरण हेतु अपनी सशक्त लेखनी को अपना हथियार बनाया है। साहनी जी ने राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक तथा धार्मिक व समसा‍मयिक समस्त विषयों को अपने लेखन की परिधि में रखा है। समाज के मध्यवर्ग में  और बड़े प्रभावशाली ढंग से उनसे जुड़ी कुरीतियों को उकेरा और उनका समाधान प्रस्तुत किया है।

उनका संवेदनशील हृदय अपने आसपास घट रहे घटनाक्रम से प्रभावित होता है, वह समाज में व्याप्त रूढ़ियों की पीड़ा अनुभव करते हैं, उनके खोखलेपन से द्रवित होते हैं और गोश्त की गंध जैसी क्लासिक लघुकथा की रचना कर उस पर प्रहार करते हैं, और यह प्रहार भी उस दामाद के माध्यम से जिस पर पूरा परिवार न्योछावर हुआ करता है और एक पैर पर सेवा के लिए खड़ा रहता है। दामाद को होने वाला दायित्वबोध नैतिक मूल्यों का दायित्वबोध है, एक बेहतर समाज की ओर कदम लौटाने की सकारात्मक पुष्टि है।

आदमजाद में घिसी-पिटी मान्यताओं और स्त्री के प्रति पुरुष के प्रताड़नापूर्ण व्यवहार पर प्रहार किया गया है।  स्त्री अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष कर  रास्ता तय करते हुए चाहे कितना आगे आई हो, किंतु आज भी एक बड़ा हिस्सा सदियों से सामाजिक अन्याय का शिकार है। स्त्रियों को न जाने कितने रीति-रिवाजों, परम्पराओं पौराणिक आख्यानों की दुहाई देकर दोयम दर्जे का जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है। कुछ शहरों में भले ही जागरूकता आई हो और स्त्रियों के प्रति सोच बदली हो ; लेकिन तब भी समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो ऐसे दकियानूसी विचारों के साथ  हाँफ-हाँफकर  घिसटता हुआ जी रहा है और इसी तथ्य को आदमजाद में उजागर किया गया है।  मृत्युबोध, स्कूटर और लाफिंग क्लब में भी लेखक ने लघुकथाओं के द्वारा न सिर्फ समाज की बुराइयों की ओर ध्यानाकर्षित किया है अपितु ऐसे ढंग से किया है कि पाठक के मन में वितृष्णा उत्पन्न होती है।

लघुकथा मृत्युबोध में जड़ हो चुके रिश्तों की संवेदनहीनता को बड़ी बारीकी से दर्शाया गया है। माँ के बीमार होने पर बड़े भाई द्वारा जल्दी बुला लिये जाने से अन्य भाई बहन खिन्न हैं और वहाँ पहुँ चने के कारण होने वाले नुकसान गिनाते बिनाते मां के प्राण निकलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अवचेतन अवस्था में पड़ी मां उनका सभी वार्तालाप सुन लेती हैं और आंखें खोलने पर सब बच्चों के चेहरों पर लिखी निराशा पढ़कर चुचाप आंसू बहा देती है। वृद्धावस्था की यह दयनीयता पाठक के मन पर गहरा विषाद छोड़ती है। वास्तव में यह बहुत से मध्यम वर्गीय परिवारों की वास्तविकता है कि आगे बढ़ चुकी पीढ़ी सफल मुकाम पर पहुँचकर अपने माता-पिता द्वारा उस हेतु किए गए परिश्रम और उनके द्वारा झेली गई कठिनाइयों को भूल जाती है। इस लघुकथा में साहनी जी ने खोखले व दिखावटी रिश्तों की संवेदनहीनता पर गहरा प्रहार किया है और बच्चों के स्वार्थ को रेखांकित किया है। लाफिंग क्लब में भी वृद्धावस्था में स्वार्थी व संवेदनहीन बच्चों से मिली पीड़ा को बारीकी से दर्शाया गया है।

बिरादरी में समाज के तथाकथित संपन्न लोगों के संपन्नता आधारित खोखले संबंधों को दर्शाया है, जो हमारे समाज की सच्चाई है।

आधी दुनिया में पुरुष की रुग्ण मानसिकता का चित्रण किया गया है। यह लघुकथा एक स्त्री द्वारा विवाह पूर्व से लेकर जीवन भर झेली जाने वाली मानसिक प्रताड़ना को कम से कम शब्दों में उकेरती है। एक छोटी समाज की गिरी हुई सोच और घिसी-पिटी मान्यताओं  के साथ- साथ आवश्यकतानुसार बदलते चेहरे का भी चित्रण करती है। इस कूड़े- कबाड़े की जगह कार ही दे देते और सस्ते में निपटा दिया बुढ़उ ने में दहेज लोलुपता दर्शाकर दहेज की विभीषिका पर प्रहार किया है ; तो तुम्हारे खानदान में किसी ने बेटा जना है ,जो तुम जनोगी में पुत्र लालसा है एक महिला के जीवन भर के समर्पण की परिणति- निकल जा मेरे घर से  में, अंतिम प्रहार है जो पाठक को एक ऐसे क्षण पर लाकर छोड़ता है जहाँ उसकी चेतना सुन्न हो जाती है।

हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं हमारे बच्चे, जिन पर आने वाला कल आश्रित है किंतु कई बार सुविधा और संसाधन जुटाने की कोशिश में लगे माता-पिता बच्चों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते। वे दिन-भर दफ्तर में या अपने आय उत्पन्न करने वाले कार्यों में व्यस्त रहते हैं। दूसरी ओर बच्चे पहले स्कूल फिर क्रेच या ट्यूशन और वह भी दिन में कई कई ट्यूशन या स्पर्धा के लिए ऐसी कोई अन्य कक्षाओं में व्यस्त रहते हैं। माता-पिता सुविधा-संसाधनों को पाने के लिए उतावलापन दिखाते हैं और बालक से चाहते हैं वह बस पढ़ता रहे ,ताकि वे अपने अधूरे सपनों को पूरा कर सकें। साहनी जी ने इस समस्या को पहचाना है और कई लघुकथाएँ  ऐसी लिखी हैं ,जो बालकों की इन्हीं समस्याओं को उजागर करती हैं। दौड़ती -भागती जिंदगी के माता-पिता पर हावी होने से उनके पास बच्चों के लिए समय की कमी को ग्रहण में बड़ी खूबसूरती से दर्शाया गया है। जहाँ एक ओर समय के अभाव में बच्चों की अनदेखी होती है ,वहीं  उन्हें एक खूबसूरत वस्तु की तरह प्रदर्शित किया जाता है।जिस परिवेश से उसको वस्तविक ज्ञान मिलता है , ग्रहण में उसी से वंचित करके उसे शिक्षा की अव्यावहारिक  रटन्त प्रणाली से जोड़ दिया जाता है। मैं कैसे पढ़ूँ में बाल हृदय की इन समस्याओं का मार्मिक व हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है। कक्षा में पढ़ाना जितना महत्त्वपूर्ण है उस  अधिक महत्त्वपूर्ण  है बच्चे की मानसिकता को  पहचानना और समझना  तथा तदनुरूप शिक्षण करना । बच्चे के मन पर घर में शिशु की आकस्मिक मृत्यु इस कदर हावी है कि वह सशरीर तो कक्षा में है, पर उसका मन दु:खद घटना से बाहर नहीं आ सका है। शिक्षक बच्चों के मन को पढ़ना सीखें तो तभी सफल शिक्षण कर सकेंगे।ये लघुकथाएँ हमारी आँखें खोलती हैं और बालकों के प्रति अपने व्यवहार पर गौर करने को बाध्य करती हैं। त्रिभुज के कोण, इमिटेशन, ग्रहण लघुकथाएँ  इसी द्वंद्व को आगे ले जाती हैं। बैल में बच्चे पर अपनी अपेक्षाएँ  थोपने और उन्हें अपनी ट्रॉफी की तरह प्रदर्शित करने की मानसिकता दर्शाई गई है। बच्चों के अनुशासन के नाम पर उन्हें प्रताड़ना की हद तक दंडित करना कितना सही है? आज हालत यह हो गई है कि बच्चों को भयावह मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ रहा है। आधुनिकता के नाम पर जिस शहरी जीवनशैली में हम जी रहे हैं ,वहाँ बच्चों का बचपन सबसे ज्यादा खतरे में है। ये कथाएँ इसी के प्रति आगाह करती हैं। आज अभिभावकों से लेकर शिक्षकों तक को बच्चों के प्रति अपने व्यवहार को सुधारने की आवश्यकता है, किंतु इसा अर्थ यह कदापि नहीं कि उन्हें खुली छूट दी जाए अथवा उच्छृंखल होने दिया जाए। शिक्षा के नाम पर बर्बरता की सीमा तक पहुँचा जाए यह नितांत निन्दनीय  और अस्वीकार्य  है। समाज को उसकी आने वाली पीढ़ी के प्रति संतुलित व्यवहार अपनाना होगा यही साहनी जी का मर्म है।

भौतिक जीवन में धन कमाने और आगे बढ़ने की होड़ में व्यक्ति अकसर सही गलत का भेद भूल जाता है, आगे बढ़ने के लिए वह जी तोड़ श्रम के साथ साथ कई बार गलत राह अख्तियार कर लेता है, किंतु एक समय ऐसा आता है जब कोई घटना, कोई बात उसे आत्ममंथन व आत्मविश्लेषण की राह पर ला खड़ा करती है। वापसी  चेतना-जागृति उम्मीद की यही नई रोशनी लाती हैं, कि अभी भी वापसी संभव है। वापसी उस अभियंता की कथा है जिसे याद आया कि कैसे उन दिनों वह ईमानदारी से काम करने के लिए अपने उच्चाधिकारियों से भिड़ जाया करता था। निर्माण कार्यों में जरा भी घपला नहीं होने देता था। वही बीस वर्ष बाद अपने ही बनाए पुल की मरम्मत और निरीक्षण का कार्य देखने पहुँचता है। इन बीस वर्षों में अपने भीतर हुए परिवर्तनों पर वह उदास  होता है किंतु अपनी तरह बनने का सपना देखने वाले बालक की अभिशंसा उसे झकझोर देती है और उसमें अपने पुत्र की छवि देखते हुए वह आत्मग्लानि से भर आत्मनिरीक्षण पर पहुँच जाता है। अभियंता की प्रतिक्रिया – उसका स्वयं से नफरत होना, मुट्ठियां भिंच जाना और लंबे लंबे डग भरकर मरम्मत स्थल पर पहुँचना, में शब्दों के माध्यम से एक सशक्त चित्र उभरकर सामने आ जाता है, और प्रतीत होता है कि हम एक लघुकथा नहीं पढ़ रहें हैं अपितु सिनेमा देख रहे हैं। “काम स्पेसिफिकेशन के हिसाब से होगा”  कहना काफी नहीं है, साहनी जी उसमें चिल्लाकर कहता है जोड़ते हैं, और प्रभाव दोगुना हो जाता है, यह साहनी जी का शिल्प है। शिल्प के साथ ही यह आशा भी है कि समाज में कहीं कहीं वे बिंदु हैं जो इसके अवमूल्यन को रोक सकेंगे। संस्कार में भी इसी तथ्य की पुष्टि है।

वापसी, नपुंसक, इमिटेशन, आखिरी पड़ाव का सफर, संस्कार, स्वीकारोक्ति और घंटियाँ आत्मबोध की कथाएँ  हैं। घंटियाँ दर्शाती है कि इंसान दुनियाभर से अपना कुकर्म छुपा ले ,लेकिन उसका अपराधबोध जीवन भर उसका पीछा नहीं छोड़ता।

समाज का ही एक और हिस्सा है हमारे देश का राजनैतिक व प्रशासनिक तंत्र। साहनी जी अद्भुत संवाद योजना के माध्यम से भ्रष्ट प्रशासनतंत्र को चित्रित करते हैं और उनपर करारी चोट करते हैं। यह एक जोखिम भरा कार्य है, प्रशासन पर कलम चलाना साधारण बात नहीं है, किन्तु वह किसी भी तरह अपने लेखकीय दायित्व से पीछे नहीं हटते और समाज में सुधार की आशा लिए यह जोखिमपूर्ण कार्य करते हैं। डरे हुए लोग, यम के वंशज, सोडावाटर, चतुर गाँव और दीमक में इस भ्रष्ट समाज का प्रतिबिंब हैं। दीमक लघुकथा तो आज के दफ़्तरी निकम्मेपन और  भ्रष्टाचार की कलंक –कथा प्रस्तुत करती है, जिसकी दलदल में आपाद मस्तक सारी व्यवस्था निरन्तर धँसती जा रही  है

यम के वंशज में सरकारी अस्पतालो में अनपढ़ एवं गरीब तबके के प्रति संवेदनहीनता और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहार को नग्न रुप में प्रस्तुत किया है। इस लघुकथा का शीर्षक बहुत सटीक व प्रभावशाली है। जच्चा की थकी -थकी सी आवाज सुन कर भी नर्स का ना उठना अमानवीयता की सारी सीमाएँ  पार करता है।आज इससे भी अधिक घोर अमानवीयता अस्पतालों में देखने को मिलती है।

भ्रष्टतंत्र और उस में होने वाली जाँच कैसी होती है ,इस का चित्रण किया गया है सोडावाटर , जिसमें फाइव स्टार में , घर पर भोजन, तमाम उपहारों और लड़की की शादी के लिए 10,000 की व्यवस्था से अधिकारी की जाँच का उबाल तुरंत शांत हो जाता है। चीफ केवल प्रसन्न होकर ही नहीं रह जाता ,अपितु उसे ईमानदार भी घोषित कर देता है और यह खुराफाती लोगों से बचने की नसीहत दे डालता है। यहाँ भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा दिखाई देती है।

कॉलेज में कुछ शरारती तत्त्व किस प्रकार अन्य छात्रों को प्रभावित करते हैं और उन पर इस तरह हावी हो जाते हैं कि वह न सिर्फ आत्मग्लानि से भरते हैं ;अपितु उनकी क्षमता भी प्रभावित होती है। इसका चित्रण लेखक ने नपुंसक में किया है। इसके साथ ही उन लोगों पर व्यंग्य भी किया है जो अपनी झूठी शान बनाए रखने और अपनी मित्रों के उपहास पात्र बनने के डर से अपने आस-पास हो रहे कुकृत्यों को देखकर शांत रहते हैं। लघुकथा धीमे से यह भी कह जाती है कि  अपराध का विरोध न करना भी सबसे बड़ा अपराध है।

धन व सुख के लोभ में रिश्तो को नकारते भाई की कथा मोहभंग बदलते सामाजिक मूल्यों पर करारी चोट करती है। छोटे भाई की भावनाओं के प्रति उदासीनता और छोटे की हताशा एक ऐसे समाज का चित्रण करती है, जहाँ पिता की लाखों की फैक्टरी में छोटे भाई को हिस्सा न देने की मंशा से बड़ा भाई सीधा ही पूछ लेता है “कब जा रहे हो?” गिरते सामाजिक मूल्यों के साथ इस लघुकथा में मानवीय संवेदनाओ का चित्रण भी बखूबी किया गया है>

आखिरी पड़ाव का सफर उस व्यक्ति की कहानी है ,जो जीवन भर भ्रष्टाचार में लिप्त रहा और अपनी अंतरात्मा की आवाज को नकारता रहा। यहाँ साहनी जी ने बहुत ख़ूबसूरती से भ्रष्ट व्यक्ति का अंत दर्शाया है ,जहाँ अंत में हर तरफ अँधेरा और उदासी है।

संग्रह की लघुकथा उजबक बड़े सुंदर ढंग से दर्शाती है कि जब अन्याय व अत्याचार की अति हो जाती है तो सामान्यतया शांत व चुप रहने वाला व्यक्ति भी उसका विरोध करने को मजबूर हो जाता है। गाँव प्रधान व उसके मित्रों द्वारा सीधे साधे और गर्मी से बेहाल चेतू को उसी प्रकार परेशान करते दिखाया गया है, जैसे कम उम्र के नादान लड़के मक्खियों व तितलियों को पकड़कर सताया करते हैं। किंतु चेतू ने “नवल का घूँसा पड़ने से पहले झोंपड़े में एक तरफ पड़ा रुई का  बड़ा सा झोला देख लिया था।   अमीरी गरीबी के इस व्यापक अंतर में साहनी जी ने व्यक्ति की परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं को उकेरा है जो चेतू के लिए रुई का थैला मात्र है।

चादर नामक लघुकथा में लेखक में अंधविश्वास और अंधभक्ति में सांप्रदायिक तत्त्वों पर व्यंग्य किया है, जिसमें, चलते हुए कई दिन बीत जाने पर भी वह कहीं नहीं पहुँचे ।यहाँ वह हमें स्पष्ट रुप से कहना चाहते हैं कि अपना कद बढ़ाने के लिए व्यक्ति को किसी भौतिक ऊँचाई पर चढ़ने की आवश्यकता नहीं है। ऊँचाई का अर्थ सिर्फ अपने विचारों और व्यवहार को उन्नत करना है। कथा का आरंभिक वाक्य “दूसरे नगरों की तरह हमारे यहाँ भी खास तरह की चादरें लोगों में मुफ्त बाँटी जा रही थी जिन्हें ओढ़कर टोलियाँ पवित्र नगर को कूच कर रही थी” यह एक गहन व्यंग्य है जहाँ यह दर्शाया जा रहा है कि किस प्रकार व्यक्ति दूसरों के विचारों को ओढ़कर अपना मत बनाता है और बिना सोचे समझे सांप्रदायिकता की आग में कूद पड़ता है और जिसे यह सब नहीं पसंद वह भी अनजाने में उन विचारों को ग्रहण कर लेता है जो कि बाद में उसे प्रभावित करती हैं। सांप्रदायिक ठेकेदारों पर करारा व्यंग्य करते साहनी जी कहते हैं देखने की बात यह थी कि जिस की चादर जितनी ज्यादा खून से सनी हुई थी वह उसके प्रति उतना ही बेपरवाह हो मूँछे ऐंठ रहा था। अंततः कथा नायक अंधी सांप्रदायिकता की खूनी चादर को अपने जिस्म से उतार फेंकता है। आज का भेड़चाल वाला धर्म  जन सामान्य के लिए केवल शोषक का काम करता है , उसका सुख –चैन छीनता है।

लघुकथा ‘कंम्प्यूटर’ में वर्तमान राजनीति व जनता की मानसिकता का सशक्त उदाहरण दिया गया है। इस कथा में साहनी जी ने उत्कृष्ट शिल्प का सहारा लेकर कम्प्यूटर को विभिन्न शक्लों में ढालकर दो सम्प्रदायों के बीच हुई दंगे की घटना पर कटाक्ष किया है और दिखाया है कि जैसे कंप्यूटर में जितना डेटा फीड होगा  वह उतना ही काम करेगा उसी प्रकार सरकार के बर्खास्त होते ही संपूर्ण तंत्र चरमरा जाता है, वफादारी बदल जाती है। लेखक ने कम्प्यूटर को प्रतीक के रूप में प्रयोग कर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि किस प्रकार मीडिया भी राजनीतिक पार्टियों के प्रभाव में रहता है। सांप्रदायिक हिंसा के बावजूद इमाम और महंत सरकार के प्रयासों की सराहना करते हैं किंतु फिर भी सरकार गिर जाती है। विवरणात्मक व संवादात्मक शैली में कथानक को घटना व प्रतीकों में लेखक ने सफलतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वहन किया है किंतु कई बातें पाठकों के स्वयं समझने के लिए छोड़ दी हैं ।

नरभक्षी एक ऐसे युवक की कहानी है जो व्यवस्था में नया है और वहाँ के भ्रष्ट अधिकारियों से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है, एक साल की नौकरी में उस पर अनेक हमले हुए हैं। पत्नी का तुम मर क्यों नहीं जाते और हम इसे जल्दी मार देंगे एक व्यक्ति की ईमानदारी को दारुण अंत की ओर जाते दर्शाते हैं। स्पष्ट है कि जो अपनी ईमानदारी के कारण समाज के भ्रष्ट रवैये को नहीं अपना पाते उनको लीलने  लिए अपने पराए सब नरभक्षी बन बैठते हैं। इसी सब से बचने के लिए भेड़िए का नायक इस्तीफा देते हुए कहता है कि मैं जिंदा लोगों का ताजा खून नहीं पी सकता, जिसके लिए आप सब पंद्रह वर्षों से प्रयासरत हैं। किंतु अच्छी खासी सरकारी नौकरी से यों ही इस्तीफा दे देने के कारण सब उसे विचित्र ढंग से देखते हैं और उसे पागल समझने लगते हैं, यहाँ तक कि उसे आगरा ,बरेली एडमिट कराने की बातें करने लगते हैं। वह जानना चाहता हैं कि क्या नौकरी में खून पीना जरुरी है ;किंतु उसके स्थान पर आने के लिए लालायित व्यक्ति का संवाद, देखिए…. मुझे नहीं मालूम था कि नौकरी में क्या क्या करने को कहा जाता है, मैं बहुत परेशान हूँ…. मुझे बस नौकरी से मतलब है, बेरोजगारी के दर्द से परेशान व्यक्ति के भ्रष्टता के आगे घुटने टेकने की बेचारगी दर्शाता है। आवश्यकता मनुष्य को क्या कुछ करने पर मजबूर कर देती है इसका जीवंत प्रमाण प्रस्तुत करता है।  यहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि एक भ्रष्ट तंत्र से स्वयं को अलग कर लेना समस्या का समाधान नहीं है। पाठक को इस समझ व दायित्व से भर देना लेखकीय सफलता है।

दु:ख की बात यह है की इस भ्रष्टाचार से हमारा शिक्षातंत्र भी मुक्त नहीं है। शिक्षाकाल में लेखक ने शिक्षा संस्थाओं में व्याप्त इसी कुष्ठ को अनावृत्त किया है। गरीब घर से आए एक जिम्मेदार और गंभीर शोधार्थी के साथ एक प्रोफ़ेसर का बर्ताव और उसी की महिला सहपाठी के प्रति अत्यंत नरम रवैया तथा रिसर्च नोट्स उसे दिलाने की जिद्द दर्शाती है कि किस प्रकार शोध संस्थानों में शिक्षा का मजाक बना दिया जाता है शोधार्थी के मना करने पर प्रोफेसर का चेहरा विकृत हो जाता है और वह उसे धमकी देता है। अंत में माइक्रोस्कोप में झाँकने पर प्रोफेसर शर्मा के आग्नेय नेत्र और उसके बाद आशा भरी नजरों से अपनी ओर ताकते बूढ़े माँ बाप के सिवाय कुछ और न देख पाना बेचारे शोधार्थी की विवशता को दर्शाता है । पाठक सहज ही अनुमान लगा सकता है कि शोधार्थी का अगला कदम क्या होग।

हारते हुए एक ऐसे पिता की कहानी है, जो सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद अपने बेटे को शहर के नंबर वन कॉन्वेंट स्कूल में शिक्षा दिला रहा है, किन्तु जब वही बेटा हिकारत भरी नजरों से सीता राम की तरफ देखता है और फटाक से कार का दरवाजा बंद कर लेता है ,तो सभी मुश्किलों में खुश रहने वाला सीताराम अपनी आर्थिक स्थिति के कारण अपने आपको हारता हुआ महसूस करता है। इस कथा में साहनी जी ने बड़ी तल्खी से शिक्षा और आर्थिक स्थिति की दूरी को दर्शाया गया है जो आज हर स्कूल, कॉलेज में विद्यमान है। पढ़ने वाले बच्चे अकसर अपने दोस्तों से तुलना करते हैं और अपने आसपास के माहौल से सामंजस्य न बिठा पाने  कारण अपना क्षोभ अपने अभिभावकों पर उड़ेल देते हैं और ऐसा करने में अपने उस माहौल में होने के उद्देश्य को और माता-पिता द्वारा उठाए गए कष्टों भी भुला बैठते हैं। कथा के माध्यम से इस घिनौने तथ्य को उकेरा गया है कि एक अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना सिर्फ वही व्यक्ति देख सकता है जो आर्थिक स्तर पर मजबूत हो। शिक्षा –जगत् में साधारण वर्ग का टिके रहना अन असम्भव हो गया है। वह दौड़ में शामिल होने की स्थिति में  न होने के कारण, दौड़ से पूर्ण तया बाहर हो चुका है।

व्यवस्था तंत्र व कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार कुष्ठ के समान समाज में किस प्रकार फैलता जा रहा है इसकी परिणति शिनाख्त नामक लघुकथा में हैं जहाँ मुआवजे की राशि की घोषणा होते ही लाश को पहचानने वाले कई चेहरे सामने आ जाते हैं। सामाजिक पतन का यह दृश्यांकन पाठक को द्रवित करता है; किंतु यही यथार्थ है । साहनी जी ने यथार्थ पर ध्यान केंद्रित हर सामाजिक मुद्दे को अपनी कथाओं का विषय बनाया है, जैसे, स्त्रियों का शोषण, बालकों के प्रति अविवेकपूर्ण व्यवहार, संबंधों का खोखलापन, आत्मसम्मान, वृद्धावस्था, पाखंड, विवेकहीनता, असंवेदनशीलता, दहेज, घरेलू हिंसा, लालसा, गरीब का अभाव, बाजार का प्रभाव आदि। सभी विषयों को एक कुशल चित्रकार की भाँति उकेरकर सफलतापूर्वक सबके समक्ष  रखा है।

आज सांप्रदायिकता संपूर्ण विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। एक ओर जहाँ कट्टरपंथी मत के लोग इसे बढ़ावा दे रहे हैं वहीं अफवाहें फैलाने वाले लोग भी कुछ कम नुकसान नहीं कर रहे। आइसबर्ग में जहाँ सांप्रदायिक हिंसा से जान बचाते हुए युवक द्वारा अपने को बचाने के लिए गढ़ी गई फर्जी घटनाओं और धर्म बदलते दिखाया गया है वहीं बिना सोचे समझे भड़काउ बातें कहने का प्रभाव युवा सिक्ख पर स्पष्ट है, निःसंदेह उस समय उसके सामने कोई विधर्मी होता ,तो वह अपना आपा खो बैठता किंतु प्रौढ़ सिक्ख द्वारा ओए … चोप्प कर, होर गूं नई घोल!! यह दर्शाता है कि समझदार व्यक्ति समय रहते शरारती तत्त्वों को पहचानकर विनाश  रोक सकता है और साथ ही पाठक को अनकहे दायित्वबोध से भर देता है कि शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी शासन तंत्र से अधिक एक आम आदमी की है।। अंतिम अवतरण में कई भीतरी और बाहरी घटनाएँ  घटित होती हैं, जो विरोधाभासी भी हैं, कर्फ्यू के बीच दोस्त के घर बिताए दो दिन, भीषण बलवे के दृश्यों वाली उत्तेजनापूर्ण कथा का अंत बालक की नन्ही शरारतों से प्रस्फुटित मुस्कान पर सकारात्मक ढंग से किया गया है।

मृग मरीचिका में लेखक ने युवक अजय द्वारा पाश्चात्य प्रभावों के दबाव में आकर अपनी मंगेतर से अत्यधिक अपेक्षा का चित्रण किया है तथा साथ ही नशा उतरने पर उसी संस्कृति के प्रति वितृष्णा और आत्मग्लानि से भरते दिखाया है। कस्तूरी मृग, कुत्तेवाला घर, प्रदूषण सभी सामाजिक परिवर्तन व पतन को परिलक्षित करती हैं तो पैंडुलम,माँ और पत्नी के संबंधों की कड़वाहट के बीच पिसते पुरुष को दर्शाती है और वह अपनी स्थिति ठीक दीवार घड़ी के पेंडुलम के समान पाता है, जो नपी तुली जगह में टिक-टिक की आवाज़ के साथ इधर-उधर झूल रहा था।

कुत्तेवाला घर में संपन्न होने के बावजूद किसी अन्य व्यक्ति की मेहनत की कमाई को मार लेने की प्रवृत्ति को बखूबी दर्शाया गया है। आज समाज में बहुत से ऐसे व्यक्ति दिखाई दे जाते हैं  जो आदतन सिर्फ कुछ पैसे बचाने के लिए किसी गरीब मेहनती व्यक्ति का पेट काटने से नहीं चूकते। अखबार डालने वाले हॉकर को झूठा इल्जाम लगाकर डांटना और सताना रुग्ण मानसिकता को दर्शाता है और इसकी परिणति अखबार वाले द्वारा दूसरे घर का कुत्ते से सावधान बोर्ड उतार कर उस व्यक्ति के घर पर लगाना न सिर्फ अखबार वाले की मानसिक स्थिति को दर्शाता है अपितु समाज को आगाह करता है कि हमें जानवरों से नहीं अपितु दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों से बचने की आवश्यकता है। साहनी जी की इस लघुकथा पर पंजाबी में टेलिफ़िल्म भी बन चुकी है।

सभी लघु कथाएँ  समाज की विद्रूपता को सामने लाती हैं ,ऐसा भी नहीं। कुछ लघु कथाएँ  कोमल भावों को भी प्रतिबिंबित करती हैं, जिनका एक उदाहरण है ओएसिस। नियम धर्म की पक्की दादी का पिल्ले को चुपचाप उठाकर रजाई में सुला लेना उम्मीद की किरण जगा जाता है, कि अभी भी भीतर के कोमल भाव जीवित हैं, संभावनाएँ  समाप्त नहीं हुई हैं। फॉल्ट में दांपत्य में उपजी अप्रिय स्थिति का सहज निराकरण तो है ही, साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि पारिवारिक अशांति व्यक्ति को किस तरह प्रभावित करती है। ऑक्सीजन भी सहृदयता का कोमल भावना जागृत करती है, बताती है कि जरा सी मानवीयता किस प्रकार जीवनदायिनी प्राणवायु बन सकती है।

ठंडी रजाई, धुएँ की दीवार, अनुताप, वापसी, आखिरी पड़ाव का सफर, मास्टर, रास्तों से दोस्ती, विजेता, खारा पानी, संस्कार, आक्सीजन, अंततः भी इसी श्रेणी में आती हैं। इन लघु कथाओं में जहाँ एक और कटु वास्तविकता को दर्शाया गया है वहीं आधारभूत मानवीय संवेदनाओं को उकेरकर जीवन मूल्यों की स्थापना भी की गई है। लेखक ने सहानुभूति पर्ण रवैया अपनाते हुए दूरी की दीवार में सभी कटुता के बावजूद चाचा के हाथ से भतीजी को दूध का गिलास दिलवाकर  निश्छल प्रेम की ऐसी धारा को बहाया है जिसमें कहीं कोई राग-द्वेष नहीं है। इसी तरह अनुताप लघुकथा में रिक्शे वाले की अकस्मात मृत्यु के समाचार से कथाकार को ऐसा आघात लगता है कि उसके मन में अन्य रिक्शे वाले की प्रति संवेदना उपज आती है। समाज में इसी संवेदना की स्थापना करना है एक अच्छे लेखक का दायित्व है जिसे साहनी जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक निभाया है।

आधी दुनिया, नब्ज़ और कोलाज में लेखक ने नए प्रकार के शिल्प का प्रयोग किया है जिसमें छोटे छोटे कहीं संपृक्त और कहीं असंपृक्त वाक्यों के माध्यम से वह अपनी बात कहने मे सफल हुए हैं। नब्ज में लेखक ने देश और समाज के वर्तमान स्वरूप के कटु सत्य उजागर किया है कि आज का समाज किस प्रकार अधिकाधिक तकनीक पर निर्भर होता जा रहा है। फोन के बिना जीवन की कलपना असहनीय हो गई है। आज की पीढ़ी चौबीस घंटे फोन से चिपकी रहती है। इस संयोजन के असंपृक्त वाक्यों वाली शैली की विविधता ही इसे अन्य लघुकथाओं से अलग बनाती है। सभी वाक्य अपने आपमें इसी विचारधारा से जुड़े हैं कि यह तकनीक ही हमें असंवेदनशील भी बनाती जा रही है। हर समय जुड़े होकर भी आज का समाज बिलकुल अकेला है। इसी प्रकार खेल भी आजकल इंटरनेट पर विभिन्न माध्यमों से की जाने वाली चैट शैली का प्रयोग कर लिखी गई लघुकथा है जो आज के दोगले समाज पर जबरदस्त प्रहार करती है। कम से कम शब्दों में देश के हालात पर कटाक्ष करती कहती है – दिल्ली इज़ ऑलरेडी प्लेइंग विद गुजरात, जो न सिर्फ राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य को उजागर करती है अपितु यह दर्शाती है कि व्यक्ति पर्दे के पीछे कितने रंग बदलता है, एक सड़ी गली मानसिकता दर्शाती है। साइट के सेकुलर डॉट कॉम होते हुए भी पार्टी वाला पहले संप्रदाय की जानकारी चाहता है औऱ वह न बताए जाने पर निकल भागता है। यह इंटरनेट के घातक परिणामों को भी रेखांकित करती है।

व्यंग्य की एक बानगी प्रतिमाएँ  नामक लघुकथा में है जहाँ साहनी जी ने बहुत ही लाक्षणिकता का प्रयोग करते हुए अपनी बात रखी है। यह लघुकथा सत्ता के खिलाफ बोलने वालों के दुखद अंत को दर्शाती है और साथ ही राजनीति में कुटिल नेताओं को सत्य को भी उजागर करती है। यह कुटिलता ऐसी है जो प्रतिद्वंदी के प्रति द्वेष रखते हुए उसका कत्ल करने से नहीं चूकती और फिर झूठी सहानुभूति दिखाकर अपने वोट बटोरती है। राजनेताओं द्वारा जनता को  रास्ते से हटाने और बेवकूफ बनाए जाने का इससे बेहतरीन चित्रण शायद ही कहीं हुआ हो। सक्रिय राजनीति से  दरकिनार कर दल में कोई पद सौंपना या किसी अन्य  निष्क्रिय संवैधानिक पद पर बिठाकर राजनीति से बाहर कर देना आज खेल बन गया है। प्रतिमाओं के सच को  साहनी जी ने प्रतीकात्मक भाषा में उजागर करते हुए कहा है- “प्रतिमा की आँखे बंद थी, होंठ भिंचे हुए थे और कान असामान्य रूप से छोटे थे।”  इसका सीधा सीधा अर्थ है कि आज के युग में यदि सामने अन्याय हो रहा है तो भी उसो मत देखो, न ही उसके खिलाफ आवाज़ उठाओ और न कुछ सुनो। मुख्यमंत्री को देश की राजनीति से यह सूचना मिलना कि आपको जानकर हर्ष होगा कि पार्टी ने देश के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं विशाल प्रदेश की राजधानी में आपकी भव्य विशालकाय प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया है। प्रतिमा का अनावरण पार्टी अध्यक्ष एवं देश के प्रधानमंत्री के कर कमलों से किया जाएगा। बधाई! स्पष्ट रूप से यह दर्थाता है कि राजनीति में कोई भी नेता दूसरे का प्रभाव अपने से अधिक नहीं होने देना चाहता।

लघुकथा रास्तों से दोस्ती में लेखक ने यह दर्शाया है कि यदि व्यक्ति के भीतर डर नहीं है तो बाहरी किसी वस्तु से उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। स्वच्छ विचारों व सोच वाले व्यक्ति अक्सर ऐसे ही पाए जाते हैं। लघुकथा के अंत में यह कहा जाना कि बंदर और कुत्ते तो स्थान बदलते रहते हैं इस बारे में अगर कुछ जानना है तो सदियों से हमारी प्रत्येक गतिविधि के मूकदर्शक इन रास्तों से पूछो कथन बहुत प्रभावशाली व बहुत कुछ कह जाता है। बंदर और कुत्ते स्थान बदलते रहते हैं जबकि सही मार्ग पर चलने वाले सदैव तटस्थ रहते हैं। यह लघुकथा थोड़ा लीक से हटकर  हमारे चिन्तन का विश्लेषण करती है। जिसका अन्त:करण निर्मल है, उसके लिए इस संसार में भय जैसी कोई चीज़ नहीं है। मन में जब कुछ चालाकी या प्रपंच होते हैं , तो वे हमारे कार्य-व्यापार में भय का रूप धारण करके परिलक्षित होने लगते हैं।

यद्यपि इनकी संख्या बहुत कम है, बेताल की डाल लघुकथा को कुछ कम प्रभावशाली लघुकथाओं में रखा जा सकता है ,जहाँ पुराने विषय को नए रूपकों और प्रतीकों  के माध्यम से प्रस्तुत तो किया गया है ;किन्तु इसका अंत साहनी जी की अन्य लघु कथाओं की तरह सशक्त नहीं दिखाई पड़ता। यह कथा स्पष्ट रूप से नेताओं द्वारा किए गए झूठे वादों और जनता के समझदार हो जाने की कथा है ,जिसमें अंत में जनता निर्णय लेती है कि वह अगले चुनावों में किसी को भी वोट नहीं देगी।

उतार लघुकथा की तकनीक एकदम नई है जिसमें कुआँ खोदने वाले मिस्त्री की डायरी के लगभग एक वर्ष के अंतराल पर लिखे नोट्स के माध्यम से न सिर्फ गिरते जल स्तर पर पर्यावरणीय  चिंता व्यक्त की गई अपितु ग्राम्य परिस्थितियों पर राजनीति के प्रभाव और बिगड़ते आपसी संबंधों का भी चित्रण किया गया है।

जागरूक लघुकथा में जहाँ एक और अत्याधुनिकता के दुष्परिणामों को दर्शाया है वही आज समाज में स्त्रियों के प्रति बढ़ रही कुछ पुरुषों की रुग्ण मानसिकता के साथ-साथ समाज में एक दूसरे के प्रति बेपरवाही को भी दिखाया गया है। कोठियों में बंद लोग आसपास की घटनाओं से बेपरवाह एयरकंढीशनरों में सुख से रहते हैं, स्वार्थी सोच जहाँ एक लड़की की चीखों को नहीं सुन पाती वही आवारा कुत्तों के रोने को अपशकुन मानते हुए तुरंत बाहर निकल आक्रामक हो जाती है। यही आज के समाज की विडंबना है। इसी बढ़ती विद्रूप सोच का चित्रण कसौटी में है जहाँ एक अव्वल लड़की के मेरिट में दूसरे स्थान पर होते हुए भी उसे पर्सनैलिटी टेस्ट में इसलिए डिस्क्वालिफाई  कर दिया जाता है क्योंकि वह  नाइन्टी फाइव पर्सेंट प्योर  है। यह लघुकथा समाज में निरंतर बढ़ रहे पतन की द्योतक है।

संग्रह की अंतिम लघुकथा ओए बबली में लेखक ने फिर एक नई शैली को अपनाया है, वह स्वप्न की तकनीक से बताते हैं कि बबली सपना देख रही है, वह पानी को ढूंढ रही है पानी की खोज हमारी समाज में निरंतर गिरते जल स्तर को भी दर्शाती है जहाँ पानी समाप्त होता जा रहा है। समाज में जल की समस्या इतनी विकट है कि सपने में भी बबली पानी ही देखती है और उसकी नींद भी चल जल्दी कर बेटी बर्तनों की कतारें लगने लगी है पानी का टैंकर आता ही होगा आज तो घर में पकाने के लिए भी पानी नहीं है, बबली! पर आकर समाप्त होती है बड़ी सहजता से साहनी जी ने गिरते जल स्तर की समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है जहाँ स्पष्ट रुप से यह कहा गया है कि पानी का स्थान न तो बर्फ ले सकती है और न ही कोल्ड ड्रिंक की बोतल। मां के लिए पानी खोजती बबली अपनी फ्रॉक में बर्फ भरकर दौड़ती है किंतु अंत में उसके पास बर्फ भी नहीं बचती।

सुकेश साहनी जी की रचनाओं में अलग अलग तकनीक देखी जा सकती हैं ,जिनके माध्यम से आपने सिद्ध किया है कि लघुकथा लेखन में कथानक के चयन, कथ्य के विकास, शैली निर्धारण में नए प्रयोगों की आवश्यकता है जो लेखक के संदेश को न सिर्फ सफलतापूर्वक संप्रेषित कर सके अपितु पाठक पर ऐसा प्रभाव छोड़े जो उसकी चेतना के तारों को ऐसे झंकृत करे कि वह एक बेहतर इंसान बनने की दिशा में अग्रसर हो। यह निश्चित रूप से एक बहुत महत्वपूर्ण दायित्व है जिसका साहनी जी पिछले तीन दशकों से सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।  इन  सभी कारणों और प्रतीकात्मकता, बिंब प्रयोग भाषा शैली और लाक्षणिकता के कुशल प्रयोग के कारण साहनी जी कि लघुकथाएँ  विश्व की सर्वोत्तम लघुकथाओं में रखी जा सकती हैं।

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हिन्दी-लघुकथाओं में स्त्री की स्थिति

February 28, 2017, 10:51 am

सृष्टि में स्त्री-पुरुष दोनों का अपना-अपना महत्त्व है । यानी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हें हम बराबर भी नहीं कह सकते, किन्तु यह सत्य है कि दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं। दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। किन्तु समय एवं समाज की बदलती हुई स्थिति में दोनों की भूमिकाओं एवं महत्त्व में प्रायः उतार-चढ़ाव आता रहा है।

यदि हम अतीत के झरोखे में झाँकें जब समाज ने अपना स्वरूप ग्रहण नहीं किया था तब मनुष्य भी जानवरों की तरह ही रहता था । स्त्री-पुरुष दोनों अपने-अपने स्तर पर प्रत्येक दृष्टिकोण से स्वतंत्र थे। इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि नवजात शिशुओं की स्थिति खराब होने लगी और इनके विकास का स्वरूप भी काफी सीमा तक अनिश्चित-सा हो गया था ।

सृष्टि ने विकास के साथ-साथ मनुष्य में भी क्रमशः स्वाभाविक विकास होने लगा। मनुष्य ने अपने कष्टों एवं विकास में हो रहे अवरोधाों को ध्यान में रखकर अपने विकास हेतु सोचना एवं उसे कार्यरूप देना शुरू किया, इसी प्रक्रिया में क्रमशः समाज ने अपना रूप ग्रहण करना आरंभ किया ।

प्रारंभ में दोनों यानी स्त्री-पुरुष स्वतंत्र थे, बाद में विवाह प(ति में इस स्वतंत्रता को एक अनुशासन का रूप प्रदान किया, जिसमें पुरुष का कार्य मुख्यतः दिन भर श्रम करके अर्जन करना था तथा स्त्री का काम घर-परिवार के कामकाज को संभालना था । किन्तु आवश्कतानुसार स्त्री अपने घर-परिवार के कामकाज से समय निकालकर पुरुष को उसके कार्यों में भी पूर्ण सहयोग देती थी ।

प्रकृति ने शारीरिक रूप से पुरुष को बलिष्ठ एवं स्त्री को अपेक्षाकृत कोमल एवं अधिक संवेदनशील बनाया, यही कारण है वह माँ, बहिन, बेटी, पत्नी इत्यादि का भूमिका अति कुशलता से निर्वाह करती आयी है और आज भी ऐसा चल रहा है।

पुरुष के बलिष्ठ होने के बावजूद स्त्री को उसकी शक्ति माना गया; क्योंकि स्त्री घर-बाहर दोनों स्तरों पर न मात्र उसकी सहायक थी, अपितु वह पुरुष से अधिक श्रम कर रही थी, जिस कारण उसे पुरुष की शक्ति माना गया और क्रमशः उसने देवी का रूप ग्रहण कर लिया क्योंकि वह जननी थी । बच्चे को जन्म देते समय जो पीड़ा स्त्री झेलती है और फिर उसके पश्चात् उसकी किशोरावस्था तक जिस वात्सल्य भाव से उसके चरित्र एवं संस्कार का निर्माण करती है, वह उसे देवी के स्थान तक सहज ही पहुँचा देता है।

उसके बाद देश पर हुए विदेशी आक्रमणों एवं उनके शासनों ने भी देश समाज के साथ-साथ स्त्री-पुरुष के मानस को भी काफी हद तक परिवर्तन करने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया और विदेशियों की गुलामी करते-करते पुरुष ने अपने अधीन रहने वाली पत्नी एवं बच्चों को गुलाम बनाना शुरू किया यानी उनके साथ गुलामों जैसा सलूक करना शुरू किया ।

साहित्य-लेखन का जबसे उद्भव हुआ उस पर भी अपने समय का प्रभाव पूरी तरह पड़ा और अपने समय का सच क्रमशः प्रत्यक्ष होने लगा। उसी में स्त्री की स्थिति का भी चित्रण होता चला गया । स्वतंत्रता के पूर्व एवं बाद में भी क्रमशः स्त्री की काफी हद तक बिगड़ चुकी स्थिति में सुधार होने लगा । इसमें समाज सुधाारकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इसी कारण स्त्री को काफी हद तक गुलामी से भी क्रमशः मुक्ति मिलने लगी तथा सती-प्रथा जैसे रूढ़ियों एवं कुरीतियों से भी मुक्ति मिलने लगी ।

स्वतंत्रता से पूर्व से गाँधी जी जैसे नेताओं ने स्त्री की स्वतंत्रता एवं पर्दा-प्रथा एवं उसे सुशिक्षित करने पर बल दिया जाने लगा और स्वतंत्रता के पश्चात् तो स्त्री क्रमशः इन स्थितियों से उबरने लगी आज नारी एकाधा सम्प्रदाय विशेष को छोड़कर पर्दा-प्रथा से पूर्णतः मुक्त है तथा वह अकेले ही कहीं भी जाने-आने को स्वतंत्र है। उसे भी आज वे सारी अधिकार प्राप्त हैं,जो पुरुष को प्राप्त हैं। अब पुरुषों के सोच में भी बदलाव आया है और अपेक्षाकृत स्त्री भी दृढ़ एवं सशक्त हुई है। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र यथा राजनीति, शिक्षा, कला, सेना, पुलिस, रेलवे एवं अन्य तमाम क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ पुरुष का आधिपत्य था, वहाँ आज स्त्री भी अपनी भूमिका पूरी कुशलता से निर्वाह करते हुए अपने महत्त्व को पूरी तरह सिद्ध कर रही है।

इन्हीं सारी स्थितियों को प्रत्यक्ष करती कुछेक श्रेष्ठ हिन्दी लघुकथाओं से उदाहरण स्वरूप रख कर अपनी उपर्युक्त बातों को पुष्ट करने का सत्प्रयास कर रहा हूँ ।

सर्वप्रथम मैं कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘प्लान’ की चर्चा करना चाहूँगा। यह रचना नारी के एक नये पहलू पर फोकस करती है कि नारी की सार्थकता वस्तुतः माँ बनने में ही है, किन्तु आज के भौतिकवादी युग में जहाँ मात्र पैसा ही सब-कुछ हो गया है, ऐसे में प्रायः पति अपनी अति उच्च महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु पत्नी की इच्छाओं पर तुषारापात करने से भी नहीं चुकते किन्तु प्लान की नायिका श्रेया बहुत ही दृढ़ता से अपने साथी के सामने गर्भनिरोधक गोलियाँ निकालकर डस्टबिन में फेंकते हुए बोलती है-‘अब बच्चे के सिवाय कोई ‘प्लान’ नहीं । तात्पर्य यह कि आज की नारी पति की दासी नहीं, उसकी सहयोगिनी है। इसी क्रम में डॉ. सतीशराज पुष्करणा की यों तो कई लघुकथाएँ ऐसी हैं जिन्हें यहाँ उद्धृत किया जा सकता है, किन्तु ‘पिघलती बर्फ’ लघुकथा में नारी एक नये रूप में प्रत्यक्ष होती है। इस कथा की नायिका क्रमशः सहज ढंग से अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए दहेज-प्रथा की बहुत ही करीने से धज्जियाँ उड़ाती है और अपनी दृढ़ता को पूरे समाज के सामने रखती है।

साहित्य की कोई भी विधा को उस पर अपने समय का प्रभाव पड़ता ही है। आज के समय में जहाँ नारी को स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त हैं वहीं वह कहीं-कहीं अपने मातृत्वभाव से भी दूर होती दीख रही है। इस संदर्भ में विभा रश्मि की लघुकथा ‘चाबी खिलौना’ में देखा जा सकता है कि किस प्रकार पति-पत्नी अपने गृह-प्रवेश में अतिथियों के मध्य अपनी बेटी तक को भूल जाते हैं। जब उन्हें अपने अतिथियों से फुर्सत मिलती है, तब उन्हें अपनी बेटी का ध्यान आता है जो पलंग के नीचे बैठी भूख के कारण रोते हुए मिलती है और कहती है –‘अब तो कुछ दो भूक लगली और हिचकियाँ लेकर रो पड़ती है।’।वस्तुतः आज का व्यक्ति भौतिकता का क्रमशः ग्रास बनता जा रहा है। कहीं इसके ठीक विपरीत वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज, जो प्रायः पारिवारिक परंपराओं के रक्षार्थ ही लिखते आ रहे हैं। लघुकथा में भी उनका ढंग वही है और इनकी ‘प्यार’ लघुकथा की नायिका आज भी नहीं बदली। वह आज भी पत्नी के रूप में अपनी परंपरा का निर्वाह करती है। पति से नाराज होने के बाद भी पति को देवता-सा महत्त्व देती है। पुष्पा जमुआर की लघुकथा नारी के यौन मनोविज्ञान को बहुत ही सुशिल्पित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसकी नायिका रम्भा अपने पुत्र के उम्र के लड़के से प्रेम करती है ,जबकि कथा-नायक आलोक उसे  आंटी ही समझता है। इसकी प्रस्तुति इसे एक श्रेष्ठ रचना बना देती है वहीं यह लघुकथा नारी के एक सहज यौन मनोविज्ञान की प्रस्तुत करती है।

आज फेसबुक का क्रेज किस कदर बढ़ गया है कि लोगों को अपने बच्चे भी उसके सामने तुच्छ लगने लगे हैं। इस भाव को प्रत्यक्ष करती अनिता ललित की लघुकथा ‘खास आप सबके लिए’ को देखा जा सकता है। एक गृहिणी गुजिया बनाती है, किन्तु जैसे ही उसका बच्चा उन्हें खाने हेतु लेना चाहता है कि माँ का थप्पड़ उसके गाल से चिपक जाता है। सास भी जब गुजियों को भगवान का भोग लगाने हेतु माँगती है ,तो उस गृहिणी को बुरा लगता है, किन्तु वह ‘गुजिया की प्लेट’ का फोटो जब फेसबुक पर लगा देती है और उस पर आये ‘लाइक्स’ एवं ‘कमेंट’ से उसे जो खुशी मिलती है वह खुशी उसे अपने बच्चे या भगवान को भोग लगाने में नहीं मिलती । वर्तमान की बदलती सोच पर व्यंग्य करती तथा आज की नारी के एक भिन्न रूप को प्रस्तुत कर पाने में यह लघुकथा पूर्ण रूप से सफल हुई हैं।

मीना पाण्डेय की लघुकथा ‘अगले महीने’ भारतीय पत्नी के वास्तविक रूप को पेश करती है कि पति स्वस्थ है तो उसका जीवन भी सुरक्षित है। अतः वह चाहती है कि पति जैसे भी हो स्वस्थ रहे, जबकि पति कंजूस स्वभाव के कारण खर्च करना नहीं चाहता । हालाँकि वर्तमान में इस सोच की नारी संख्या अपेक्षाकृत बहुत में कम हैं; किन्तु फिर भी पूर्णतः उनमें यह पारंपरिक संस्कार समाप्त नहीं हुआ है। पत्नी दबाव बनाते हुए कहती है कि तो कल हम चल हैं न डॉक्टर के पास ?’

‘नहीं सावित्री, इस महीने तो नहीं हो पाएगा । अगले महीने जरूर चलेंगे। तुम भी न थोड़ा खाँस क्या दिया परेशान हो गयी । चेहरे पर मुस्कान की चादर ओढ़ ली उसने।’ ।भारतीय नारी की पारंपरिक तस्वीर बहुत ही सटीक ढंग से इस लघुकथा में प्रस्तुत हो पाई है ।

इस क्रम में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘पिघलती हुई बर्फ’ भी काफी महत्त्वपूर्ण है। पति-पत्नी के आत्मीय एवं घनिष्ठ संबंधों को अपने अनोखे ढंग से प्रस्तुत करती है। दोनों श्रेष्ठ पति-पत्नी आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें अथवा नोक-झोंक कर लें फिर भी उनके हृदय भीतर से एक एवं एक-दूसरे के प्रति प्रेम से भरे होते हैं। इसके ये संवाद इस रचना को ऊँचाई प्रदान करते हैं – फ्ठीक है! मैं जा रही हूँ।य् वह भरे गले से बोली और पल्लू से आँखें पोंछने लगी ।

‘इतनी आसानी से जाने दूँगा तुम्हें ?’ पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली-‘जाओ खाना बनाओ, जल्दी ! मुझे बहुत भूख लगी है।’

अपनी गीली आँखों से मुस्काई और रसोईघर में चली गई ।

मधुकांत की लघुकथा ‘बोध’ अपने उद्देश्य के कारण श्रेष्ठ रचना है, जिसे की नायिका माता-पिता के रोकने पर भी वह अपने साथ हुए बलात्कार हेतु पुलिस में रिपोर्ट तथा कानूनी कार्रवाई करने हेतु पूरी ताकत से निकल पड़ती है। वह अपनी स्थिति से यह बोध कराती है कि अन्याय सहकर चुप बैठना भी अपराध है, जो उसके माता-पिता भी कर रहे हैं।

‘साझा दर्द’ कमल कपूर की बहुत ही मार्मिक लघुकथा है जो यह बताती है माँ मात्र माँ होती है, वह चाहे किसी वर्ग या वर्ण की हो । इसके ये संवाद इस रचना एवं इसके उद्देश्य को बल देते हैं। मैं इतनी जालिम हूँ क्या ? अरे ! मैं भी एक माँ हूँ… दूसरी माँ के दर्द नहीं समझूँगी, क्या ? मैंने भी अपना बच्चा खोया था कभी…. बस फर्क इतना है कि वह अजन्मा था और तेरा संजू सात साल का । हम साझे दर्द की डोर में बँधे हैं पारो ।

अब नीरा रो रही थी और पारो उसके आँसू पोंछ रही थी। इस पल मन-भेद, मत-भेद और वर्ग-भेद से परे साझे दर्द की डोर में बँधी दो औरतें माँ थी वे दोनों ।

प्रद्युम्न भल्ला की एक लघुकथा जो कभी किसी पत्रिका में काफी पहले पढ़ी थी, स्मरण हो आ रही है। यहाँ नारी-नारी के विरोध में खड़ी होती है। जबकि पुरुष का भाव यह है कि बेटी अपनी हो या परायी बेटी तो बस बेटी होती है। पत्नी रिक्शा वाले की बेटी की शादी हेतु उधार पैसे माँगने पर इंकार कर देती है। वहीं पति उसे पाँच हजार दे देता है।

पत्नी कहती है ये तो मैंने अपनी बेटी हेतु रखे थे, वो आने वाली है। इस पर उसका पति जो उत्तर देता है वह इस लघुकथा के औचित्य को सहज ही सिद्ध करके ऊँचाई प्रदान कर जाता है – ‘मैंने भी तो ये पैसे बिटिया के लिए ही दिये हैं… बेटी चाहे गरीब की हो या अमीर की।’

नारी के भिन्न-भिन्न रूपों को लेकर प्राय लघुकथाकारों ने बहुत-सी रचनाएँ लिखी हैं, किन्तु मैंने मात्र उन्हीं का उल्लेख किया जो मेरी दृष्टि से गुज़रीं और जिन्होंने मुझे संवेदना के स्तर पर मेरे हृदय को स्पर्श कर गयीं। इसके अतिरिक्त जो उपलब्ध हो पायीं यों इस विषय पर पृथ्वीराज अरोड़ा, इंदिरा खुराना, डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, डॉ. अनीता राकेश, सुकेश साहनी, डॉ. मुक्ता, कमला चमोला, अंजु दुआ जैमिनी, श्याम सखा ‘श्याम’, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’, रूप देवगुण, मधुदीप, राजकुमार निजात, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, कृष्णानंद ‘कृष्ण’, प्रदीप शर्मा स्नेही, ओमप्रकाश करुणेश, डॉ. स्वर्ण किरण, विक्रम सोनी, प्रताप सिंह सोढ़ी, सतीश राठी, अमृत लाल मदन, अंजना अनिल, डॉ. शकुन्तला किरण, कमलेश चौधरी, आनन्द, उषा लाल, घमण्डी लाल अग्रवाल, ज्ञानदेव मुकेश, डॉ.परमेश्वर गोयल, कान्ता राय, डॉ. नीरज शर्मा, नीलिमा शर्मा, विकेश निभावन, रामकुमार आत्रेय, पूरन मुद्गल, प्रेम सिंह बरनालवी इत्यादि एवं अन्य अनेक लघुकथाकार भी हो सकते हैं।

अन्त में मैं यह कहना चाहता हूँ । सृष्टि में जितने भी जीव हुए हैं, उनका सबका स्वभाव अलग-अलग है। इसी प्रकार इस लेख में मैंने नारी पात्रों के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया है। सभी नारियाँ मन-मिजाज से एक नहीं होती हैं, किन्तु माँ तो प्रायः सब होती हैं किन्तु समय के अनुसार माँ की भूमिका में पर्याप्त अंतर आया है। उसे यहाँ सटीक लघुकथाओं के उद्धरण देकर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

इस लेख में समय के अनुसार भी आये बदलावों को रेखांकित करने का मेरा प्रयास रहा है। अपने उद्देश्य में मैं कहाँ तक सफल हो सका ये तो आप सुधी पाठक ही मुझे अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराने की कृपा करेंगे।

-0-डॉ. ध्रुव कुमार,पी. डी. लेन, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार)

स्मृति शेष मिथिलेशकुमारी मिश्र –

May 2, 2017, 3:34 am

नवें दशक केअन्त में जिन कतिपय महत्त्वपूर्ण लोगों ने लघुकथा के विकास मं योगदान देना आरंभ किया, उनमें एक नाम डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र का है। हिन्दी-लघुकथा सृजन से पूर्व उनका एक लघुकथा-संग्रह संस्कृत में ‘लघ्वी’ नाम से आया था, जिसमें संस्कृत साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी किन्तु बाद में उन्होंने हिन्दी में लघुकथा सृजन आरंभ किया और ‘अँधेरे के विरुद्ध’ उनका प्रथम लघुकथा-संग्रह 1998 ई. में प्रकाश में आया, जिसमें उनकी पचहत्तर लघुकथाएँ थीं । इस लघुकथा-संग्रह से ‘पूँजी’, ‘झण्डा’, ‘अँधेरे के विरुद्ध’ जैसी अनेक लघुकथाओं ने पाठकों एवं आलोचकों के मध्य अपनी पहचान बनाई । यही कारण था कि फिर आलोचकों द्वारा इस पुस्तक पर लिखे गये बत्तीस लेखों का संकलन कर डॉ. सतीशराज पुष्करणाा ने ‘ अँधेरे के विरुद्ध’ का सौंदर्यशास्त्र नामक पुस्तक का संपादन किया जो किसी एकल संग्रह पर हुआ यह लघुकथा-जगत् में यह प्रथम कार्य था।

2002 ई. में इनकी 101 लघुकथाओं का दूसरा संग्रह ‘छँटता कोहरा’ नाम से प्रकाश में आया । इसकी लघुकथाओं में ‘स्वाभिमान की राह पर’, ‘हर शाख पे …’ इत्यादि दर्जनों लघुकथाओं ने ख्याति अर्जित की और दो वर्षों के भीतर ही इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया । यही वह संग्रह ने जिस पर मध्य प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग ने अपने राज्य में प्रायः चर्चित नगरों में इस संग्रह की लघुकथाओं पर चर्चा का सफल आयोजन किया । इस प्रकार इस पुस्तक की ख्याति में स्वाभाविक रूप से चार चाँद लग गए ।

इनका तीसरा लघुकथा-संग्रह ‘सन्नाटा बोल उठा’ 2016 ई. में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में भी उनकी पचहत्तर लघुकथाएँ थी । इस संग्रह की भी अनेक लघुकथाएँ आज चर्चा के केन्द्र हैं ।

डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र की लघुकथाओं में विषय के स्तर पर यों तो पर्याप्त वैविध्य है; परंतु फिर भी उनकी लघुकथाओं में नारी सशक्तीकरण का स्वर अपेक्षाकृत अध्कि मुखर है। ऐसी लघुकथाओं में अँधेरे के विरुप्द्ध सन्नाटा बोल उठा, जीवन की राह पर, चुप नहीं रहना है इत्यादि कई दर्जन लघुकथा को देखा जा सकता है। इनकी लघुकथाओं के नारी पात्रा अपने अस्त्वि के रक्षार्थ हर संभव संघर्ष करते है। इनके पात्रा पुरुषों को अपना सहयोगी मानकर कदम से कदम मिलाकर सहयोग करने में तथा सम्मान देने लेने में विश्वास करती है। इसके अतिरिक्त इनकी लघुकथाएँ घर-परिवार, कार्यालयों में नारी की स्थिति, तत्कालीन राजनीति एवं तमाम समकालीन समस्याओं पर केन्द्रित इनकी लघुकथाएँ  अपनी उपस्थिति का पूरी शक्ति का एहसास कराती है।

मिथिलेश चूँकि संस्कृत, प्राकृत और पाली की भी विदुषी रही हैं; अतः उनकी लघुकथाओं में हिन्दी लोकभाषाओं के अतिरिक्त इन भाषाओं का उपयोग भी पूरी सटीकता के साथ दिखाई देता है।

डॉ.मिथिलेश नारी की वर्त्तमान स्थिति को लेकर अपने लेखन में बहुत सक्रिय रही हैं, इसलिए उन्होंने 118 महिला लघुकथाकारों को लेकर एक लघुकथा संकलन का संपादन भी किया था । इस संकलन में उस समय तक की प्रायः सभी महिला लघुकथा लेखिकाओं का समावेश हुआ था । इतना ही नहीं हिन्दी लघुकथा के विकास में महिलाओं के योगदान शीर्षक से उनका एक शोधपरक लेख भी प्रकाशित हुआ था, बाद में यह लेख कई पत्रा-पत्रिकाओं एवं संकलनों में भी प्रकाशित किया गया। पड़ाव और पड़ताल के महिला लघुकथाकारों के खण्ड में भी इनका सदुपयोग किया गया है। इस लेखक के अतिरिक्त हिन्दी लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व सहित दर्जनों शोध् एवं आलोचनात्मक लेख लिखे गये हैं, जिनमें कुछ का सदुपयोग पड़ाव और पड़ताल के खण्डों में भी हुआ है और शेष लेख अनेक लघुकथा गोष्ठियों, सम्मेलनों और संगोष्ठियों में पढ़े गए हैं। जिनका प्रकाशन यत्र-तत्र, पत्र-पत्रिकाओं में पूरी गरिमा के साथ हुआ है।

डॉ. मिथिलेश ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के प्रथम सम्मेलन से ही जुड़ी रही है। अभी तक हुए सभी अट्ठाइसों सम्मेलनों में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। वे जीवन पर्यन्त इस मंच की उपाध्यक्ष रहीं । निःसंदेह इन सम्मेलनों की सफलता में उनके सुझावों और सक्रिय भागीदारी की विशिष्ट भूमिका रही है। उनके लघुकथा संग्रह छँटता कोहरा का मलयालम और अंगिका में अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। लघुकथा के विकास में दिए गए उनके योगदान हेतु उन्हें परमेश्वर गोयल सम्मान सहित अनेक सम्मान-उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं।

लघुकथा के अतिरिक्त उनके सात उपन्यास, दो नाटक, दो खण्ड काव्य, दो महाकाव्य, दो गीत-संग्रह, दो ताँका संग्रह, एक हाइकु-संग्रह अनेक शोध् एवं आलोचनात्मक एवं अनुवाद कार्य सहित हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी में कुल मिलाक उनकी 42 पुस्तकें प्रकाशित हुईं ।

ऐसी विदुषी का जन्म 16 सितम्बर, 1954 में उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के एक गाँव में हुआ था, किंतु सरकारी दस्तावेजों में उनकी जन्म-तिथि 1 दिसम्बर, 1953 अंकित है।

डॉ. मिथिलेश ने बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद जैसी शोधपूर्ण पत्रिका के अतिरिक्त अभिनव प्रत्यक्ष सहित कई छोटी-बड़ी पत्रिकाओं का वर्षों तक सम्पादन कार्य भी किया है। वह सन् 1976 से बिहार सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से जुड़ीं और परिषद् के निदेशक पद से वह 30.11.2013 को सेवानिवृत्त हुईं । इन साहित्यिक और सरकारी कार्यों के अलावा वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन-प्रयाग, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, महिला चरखा समिति-पटना, भाषा संगम-इलाहाबाद, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, अखिल भारतीय हिन्दी प्रसार प्रतिष्ठांग, मगध कलाकार, बिहार संस्कृत संजीवन समाज इत्यादि अनेक चर्चित संस्थाओं से जीवन पर्यन्त सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं । इसके अतिरिक्त वे अपने स्तर से अपने पति मूलचंद मिश्र स्मृति संस्थान के तत्वावधन में प्रत्येक वर्ष 20 नवम्बर को आयोजित होने वाले समारोह में वह जहाँ साहित्य सेवियों एवं मेधवी छात्रा-छात्राओं को सम्मानित एवं पुरस्कृत करती थीं, वहीं वह बिना तिलक-दहेज के अनेक लड़कियों की शादियाँ भी करवाती थीं । पटना में भी उन्होंने अनेक ऐसी शादियाँ करवाईं ।

विगत् एक वर्ष से वह ‘लिवर सिरोसिस’ जैसी भयंकर बीमारी से संघर्ष कर रहीं थी, अंततः 10 अप्रैल 2017 की प्रातः 6.15 बजे पटना के फोर्ड हॉस्पीटल में संघर्ष करते-करते हार गईं और लोकांतरति कर गईं ।

ऐसी परम विदुषी के किए गए कार्यों का स्मरण करते हुए मैं उन्हें पूरी आस्था के साथ श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूँ ।

     – अध्यक्ष, अ. भा. प्रगतिशील लघुकथा मंच,‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू,पटना-800 006 (बिहार)

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लघुकथा में शिल्प की भूमिका

May 31, 2017, 11:31 am

शिल्प ही किसी रचना की ताकत है और रचनाकार की पहचान भी | शिल्प यानि गढ़न, अंदाजे -बयाँ, कहन पद्धति, रचना कौशल, रचनाकार द्वारा स्वयं को तलाशने की बेचैनी | लघुकथा के संदर्भ में बात करें तो हम कह सकते हैं कि इस बेचैनी के चलते ही लघुकथाकार प्रस्तुति के ऐसे नये-नये ढंग आविष्कृत करता है जिनके द्वारा वह पाठकों के दिलोदिमाग तक अपनी राह बना सके | वैसे शिल्प लघुकथाकार का आंतरिक लोकतन्त्र है जिसके अंतर्गत उसे यह निर्णय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है कि किसी कथ्य विशेष के लिए कौन-सी कहन पद्धति अपनायी जाय | यहाँ कोई नियम-कायदे, कोई शास्त्र काम नहीं देते | दूसरी ओर कई बार ऐसा भी होता है कि कथ्य अपने साथ रूप भी लेकर आता है | यह रचनाकार के अंतस की एक विस्मयकारी घटना है | जब अवचेतन में कोई कथ्य उमगता है तो इसके साथ ही प्रस्तुति का एक अमूर्त खाका भी चमक उठता है | परंतु जब यह परिघटना नहीं होती है, तब लघुकथाकार को अपना मार्ग स्वयं तलाशना पड़ता है |

एक लघुकथाकार के लिए रूप की तलाश बहुत टेढ़ा काम है | वह उपन्यासकार या कहानीकार की तरह निश्चिंत होकर कल्पना के घोड़े नहीं दौड़ा सकता | वह इस प्रकार का एक भी वाक्य, एक भी शब्द, एक भी दृश्य, एक भी चित्रण, एक भी संवाद, एक भी हाव-भाव समाविष्ट नहीं कर सकता जो लघुकथा की कसावट को लुंजपुंज कर दे | यहाँ तक कि उसे एक कवि की भाँति इस बात के प्रति भी सचेत रहना पड़ता है कि कहाँ अर्द्ध विराम आएगा, कहाँ पूर्ण विराम और किस स्थान पर प्रश्नवाचक व विस्मयादिबोधक चिह्न लगाये जाएंगे | उसे यह भी ध्यान रखना होता है कि कहाँ पैराग्राफ बदलना है और कि उसकी लंबाई कितनी रखनी होगी | इस तरह लघुकथा को उस मंज़िल पर पहुँचाना होता है जहां यदि एक शब्द भी निकाल दिया जाय तो लगे कि इमारत ढह जायेगी | सब कुछ बहुत कसा हुआ, सुगठित, मितव्ययता के साथ | शकुंतला किरण अपने शोध ग्रंथ ‘हिन्दी लघुकथा’ में ठीक ही लिखती हैं;

‘लघुकथा एक प्रकार से कम आय वाले एक अर्थशास्त्री का अपना निजी बजट है, जिसे वह प्रबुद्धता के साथ बहुत सोच-विचारकर इस प्रकार बनाता है कि प्रत्येक पैसे का सार्थक उपयोग हो सके |’

लघुकथा के तीन अंग होते हैं; क्या(कथ्य), कैसे(शिल्प) और क्यों( लक्ष्य, दृष्टिकोण या विचार) | शिल्प कथ्य और लक्ष्य के मध्य एक सेतु का कार्य करता है | शिल्प जितना आकर्षक होगा पाठकों की आवाजाही भी उतनी ही अधिक होगी | इस सेतुबंध के लिए लघुकथाकार कई-कई शैलियों का सहारा लेता है यथा वर्णनात्मक, संवादात्मक, प्रतीकात्मक, व्यंग्यात्मक, आत्मकथात्मक आदि | कुछ लघुकथाकार पत्र शैली, डायरी शैली व नाटक शैली का भी प्रयोग करते हैं, यद्यपि इस तरह के उदाहरण कम ही हैं | अनेक लघुकथाओं में जातक कथा, लोककथा, फैंटेसी, फ्लैश बैक, पौराणिक आख्यान के कथा शिल्प भी प्रयुक्त हुए हैं जिनके माध्यम से समसामयिक परिदृश्य का खूबसूरती से उद्घाटन हो सका है |

लघुकथाकार के रचना-कौशल का अनुमान उसके द्वारा दिए गये शीर्षक से ही हो जाता है | शीर्षक न केवल ध्यानाकर्षक व उत्सुकता जगाने वाला बल्कि लघुकथा के  केन्द्रीय  विचार का संवाहक भी होना चाहिए | बलराम अग्रवाल की एक लघुकथा का शीर्षक है  ‘आखिरी उसूल’ | इस शीर्षक से एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है जो लघुकथा को पूरा पढ़ने के लिए प्रेरित करती है | इसी प्रकार निम्न शीर्षक भी बहुत कुछ कह जाते हैं, अभी बहुत कुछ शेष है(सूर्यकांत नागर), कलेजा बंदर का(सतीश राठी), कैसी बदनामी(रेणु चन्द्रा), रामदीन का चिराग(गोविंद शर्मा), अयोध्या में खाता बही(हरिशंकर परसाई), उंगली के पोरों पर उतरे आँसू(पारस दासोत), भ्रम के बाज़ार में(संतोष सुपेकर), अनंत में अम्मा हँसती है(मुकेश वर्मा), कपों की कहानी(अशोक भाटिया) आदि | जाहिर है इनमें से कुछ शीर्षक काव्यात्मक हैं, कुछ व्यंग्यात्मक तो कुछ कथात्मक हैं |

लघुकथा का आरंभ और अंत भी शिल्प का एक अहम हिस्सा है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता | लघुकथाकार इन दो बिन्दुओं को लेकर जितना ऊहापोह में रहता है उतना मध्य को लेकर नहीं | प्रभावी आरंभ और सटीक समापन अलग कौशल की अपेक्षा रखते हैं | आरंभ के लिए प्रेमचंद का यह कथन लघुकथा के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कहानी के लिए, ‘कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है , एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है , जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता |’

लघुकथा का आरंभ चाहे संवाद से हो, चाहे वर्णन से या फिर चरित्र-चित्रण से; परंतु कुछ ऐसे हो कि इसमें रचनाकार का सम्पूर्ण रचना-कौशल दिखाई दे; ‘ध्रुपद की तान’ की तरह | सुकेश साहनी अपनी लघुकथा ‘बिरादरी’ का आरंभ यों करते हैं;

“बाबू |” मैं कार से उतरा ही था कि अपने बचपन का सम्बोधन सुनकर चौंक पड़ा | किसी पुराने परिचित से सामना होने की आशंका मात्र से मेरे कान गर्म हो उठे…|’

यह आरंभ एक साथ कई बातों की ओर संकेत कर देता है | यह कि कथानायक बड़ा आदमी बन गया है | वह अपने बचपन से पीछा छुड़ाना चाहता है | यानी एक किस्म का झूठा बड़प्पन उसके भीतर घर कर गया है | पाठक देखना चाहेगा कि इस अहंकार का क्या हश्र होता है ; खण्ड-खण्ड होता है कि और भी परवान चढ़ता है |

आगाज़ बता देता है कि अंजाम क्या होगा | यानी आरंभ देखकर अंत का अनुमान लगाया जा सकता है | परंतु पाठक के मन-मस्तिष्क पर वे लघुकथाएँ सदा के लिए अंकित हो जाती हैं जिनका समापन उसकी कल्पना के विपरीत बिन्दु पर जाकर होता है | जरूरी नहीं कि ऐसा अंत चमत्कारिक हो, प्रतीकात्मक या प्रश्नाकुल कर देने वाला हो | बल्कि सहज भी हो सकता है | उदाहरण के रूप में हम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’ लघुकथा ले सकते हैं | इसका आरंभ इस तरह होता है-

‘पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी-“लगता है बूढ़े को पैसों की जरूरत आ पड़ी है, वरना यहाँ कौन आने वाला था ! अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं , घरवालों का कहाँ से भरेंगे ?” मैं नज़रें झुकाकर दूसरी ओर देखने लगा |’

इस आरंभ को देखकर पाठक अनुमान लगाता है कि पिताजी यहाँ बस एक-दो दिन के ही मेहमान हैं | बहू के पटकों-झटकों से अपमानित व बेटे की उपेक्षा का शिकार होकर बेरंग ही गाँव लौट जायेंगे | परंतु लघुकथाकार बड़ी कुशलतापूर्वक कहानी को अलग ही अंजाम पर पहुँचाता है | पिताजी घर की हालत देखकर कुछ मांगने की बजाय सौ-सौ के दस नोट बेटे को थमा देते हैं |

लघुकथा के मध्य भाग पर काम करते हुए सदैव यह खतरा रहता है कि अनावश्यक विस्तार न हो जाए, लघुकथा अपने शिल्प का अतिक्रमण करते हुए कहानी के क्षेत्र में प्रवेश न कर जाए, लफ़्फ़ाज़ी का शिकार न हो जाए, रूप के बोझ तले दबकर कराह न उठे | मध्य भाग रीढ़ की हड्डी है | लघुकथा की रीढ़ नाजुक होती है, इस पर कहानी की तरह अधिक बोझ वांछित नहीं है | इसीलिए निष्णात लघुकथाकार ऊपर वर्णित शैलियों के दायरे में रहते हुए भी संक्षिप्तता, सांकेतिकता व कलात्मकता का संतुलन बनाए रखता है | कभी-कभी तो वह रूढ़ कथा शैलियों के पार जाकर बिलकुल मौलिक कथा पद्धति आविष्कृत कर लेता है जो मील का पत्थर सिद्ध होती हैं | गुलशन बालानी की लघुकथा ‘गुप्त सूचना’ का शिल्प देखते ही बनता  है | यहाँ कथ्य केवल तीन फोन कॉल में सिमटा हुआ है | प्रथम फोन किया जाता है दारोगाजी को यह बताने के लिए कि सेठ ज्वालाप्रसाद के गोदाम में दो नंबर का माल पड़ा   है | दूसरा फोन सेठ को किया जाता है कि आपके गोदाम में छापा पड़ने वाला है | तीसरा फोन पुनः दारोगा को किया जाता है कि सेठ की कोठी पर शराब व शबाब का इंतजाम है, आ जाइए | इन तीन फोन संवादों से दलाल, दारोगा व सेठ का चरित्र तार-तार हो जाता है | लघुकथा सिर्फ आठ पंक्तियों की है |

कुशल लघुकथा शिल्पी अधिक विस्तार में न जाकर केवल कुछ संवाद, पात्रों के हाव-भाव या प्रतीक से ही अपनी बात कह देता है | उसे अलग से चरित्र या परिवेश चित्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती | आनंद बिल्थरे की संवाद शैली में रचित लघुकथा ‘पक्की रिपोर्ट’ के आरंभिक कुछ संवादों से ही परिवेश के साथ-साथ पात्रों के चरित्र साकार हो उठते हैं-

“हजूर, रिपोर्ट लिखानी है |”

“अबे, काहे की रिपोर्ट ? कच्ची लिखूँ या पक्की ?”

“मैं कच्ची-पक्की क्या जानूं सरकार | गई रात डाकू मेरी जवान बेटी को उठाकर ले   गए |”

“अबे, तो हम क्या करें ? तू ने पहले रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई कि तेरी जवान बेटी भी  है ?”

ज़ाहिर है कि संवाद थाने में  दारोगा व गरीब नादान व्यक्ति के मध्य है | दारोगा काइयाँ है, वह येन-केन-प्रकारेण गरीब लाचार व्यक्ति को टरकाना चाहता है | संवाद, विधा के अनुरूप चुटीले और संक्षिप्त हैं | संवाद शैली में पारस दासोत ने प्रचुर लघुकथाएँ लिखी हैं जो उनके संग्रह ‘मेरी आलंकारिक लघुकथाएँ’ में संकलित हैं | इनकी लघुकथाओं में आये संवाद टटके, संक्षिप्त और मारक हैं |

‘वॉक आऊट’(संतोष सुपेकर) में टोपियों और जूतों की दो विरोधाभासी स्थितियों को लेकर टोपियाँ अर्थात बड़बोले राजनेताओं पर जबर्दस्त कटाक्ष किया गया है | यह लघुकथा निर्जीव वस्तुओं के मानवीयकरण की अच्छी मिसाल है | इस शिल्प का उपयोग यों तो कई लघुकथाकारों ने किया है परंतु यहाँ जिस सधे हुए अंदाज में अपनी बात कही गई है वह उद्धरणीय बन पड़ी है |

अशोक भाटिया ने ‘तीसरा चित्र’ में शिल्प का एक सुंदर प्रयोग किया है जिसमें वृद्ध पिता अपने कलाकार पुत्र को तीन चित्र बनाने के लिए कहता है | पुत्र उच्च, मध्य व निम्न वर्ग के तीन चित्र बनाता है | तीसरा अर्थात निम्न वर्ग का चित्र सिर्फ पेंसिल से बनाया जाता है | पूछने पर पुत्र कहता है कि यहाँ तक आते-आते सारे रंग समाप्त हो गए थे | यह लघुकथा संकेत रूप में बहुत बड़ी बात कह जाती है | घनश्याम अग्रवाल ने अपनी लघुकथा ‘सरकारी गणित’ में सर्वथा मौलिक प्रयोग आजमाया है | यहाँ सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को टेबल नंबर 1 से 6 पर रखी फाइलों के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से बेनकाब किया गया है | इस लघुकथा में कोई कथा नहीं है और न ही कोई पात्र | फाइलें ही पात्र हैं और उनमें कैद रिपोर्ट ही कथा |

शिल्प की दृष्टि से निम्न लघुकथाएँ भी उल्लेखनीय हैं; मधुदीप की ‘समय का पहिया घूम रहा है’(नाटक शैली), गोविंद शर्मा की ‘दो बूँदें’, ‘अंगूर खट्टे हैं’(प्रतीकात्मक), अशोक भाटिया की ‘समय की जंजीरें’(इतिहास का पात्र के रूप में आना), श्यामसुंदर दीप्ति की ‘मूर्तियाँ’ (दृश्यात्मक), पारस दासोत की ‘आदमी’(संवाद शैली), सुरेश तन्मय की ‘एकलव्य’ (पौराणिक), हरिशंकर परसाई की ‘जाति’(वर्णनात्मक), जसवीर चावला की ‘कौआ’(जातक कथा), माधव नागदा की ‘प्रत्युत्तर’(पत्र शैली), ‘मुझे ज़िंदगी देने वाले’(डायरी शैली), घनश्याम अग्रवाल की ‘आज़ादी की दुम’(व्यंग्यात्मक), उपेंद्रनाथ अश्क की ‘गिलट’(फैंटेसी), कुमार नरेंद्र की ‘व्यापारी’(फ्लैश बैक) आदि |

दरअसल शिल्प का उपयोग जमूरे की डुगडुगी के रूप में नहीं होना चाहिए | शिल्प मकबरे के ऊपर की नक्काशी नहीं बल्कि उस भवन की वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना होता है जिसमें ज़िंदगी की हलचल निवास करती है | यहाँ विचारों की गरमाहट, मानवीय संवेदनाओं की खुशबू, लोकजीवन के संघर्ष, रिश्तों के बनते-बिगड़ते समीकरण और समाज की धड़कनें आबाद रहती हैं | इन सबके बिना खालिस शिल्प का कोई अर्थ नहीं | डॉ.विद्या भूषण के अनुसार, ‘कथ्य शिल्प की नोक पर चढ़कर ही पाठक के मर्म को भेद पाता है | किन्तु जहां शिल्प की नोक कृत्रिम और खुरदरी होती है वहाँ वह पाठक के मर्म को न भेदकर स्वयं रचना को ही भेद जाती है |’

शिल्प का कार्य है लघुकथा को अधिक से अधिक संप्रेषणीय बनाना ताकि इसमें समाहित युगीनबोध ठीक उसी रूप में पाठकों तक पहुँच सके जिस रूप में लघुकथाकार चाहता है | कहना न होगा कि आज का लघुकथाकार शिल्प की भूमिका के प्रति सचेत है |

(दृष्टि: सम्पादक अशोक जैन से साभार)

  •  -माधव नागदा, लालमादड़ी(नाथद्वारा)-313301(राज), मोब-098295884

सतीशराज पुष्करणा जी की लघुकथाएँ

July 1, 2016, 10:42 am

हम सबने एक कहावत बहुत बार सुनी होगी-देखन में छोटी लगे, घाव करे गम्भीर- अगर मैं कहूँ कि यह कहावत एक अलग ही अर्थ में लघुकथा की विधा पर बिल्कुल सटीक बैठती है, तो शायद मेरी बात से आप सब भी इत्तेफ़ाक़ रखेंगे। अपने शिल्प और गठन में लघुकथा अपने नाम के अनुरूप भले ही छोटी होती हो, पर कथ्य और भाषा के साथ-साथ पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ने के मामले में यह भी किसी कहानी या उपन्यास सरीखी वृहद कलेवर वाली रचना से उन्नीस नहीं साबित होगी…बस शर्त यह है कि इस विधा को अपनाने वाला इसके सृजन में किसी प्रकार का समझौता या भेदभाव न रखे।

लघुकथा जितनी सशक्त विधा है, उतना ही अपने अस्तित्व के लिए इसे बीच-बीच में संघर्ष भी करते रहना पड़ा है। इसके विरोध में स्वर उठाने वालों ने न केवल इसे छोटीकहानी का नाम दिया, बल्कि इसे कहानी का ही एक कटा-छँटा रूप साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की गई। उनके अनुसार लघुकथा लेखकों में धैर्य का अभाव है और अपनी बात को विस्तार से कह पाने की क्षमता में कमी, जिसकी वजह से शीघ्र नाम कमाने की लालसा में लघुकथा सृजन किया जाता है। परन्तु विरोध करने वाले लाख विरोध करते रहें, इसके समर्थकों और साधना में जुटे साहित्यकारों ने हर स्थिति में लघुकथा के उत्थान के लिए अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए इस विधा में अपना रचनाकर्म नहीं छोड़ा।

सच तो यह है कि लघुकथा खुद में एक स्वतन्त्र विधा है। इसमें संवेदना है, साहस है, वैचित्र्य है। एक सशक्त लघुकथा चन्द शब्दों में ही अपने पाठकों में विभिन्न भावनाओं का संचार कर देती है। लघुकथा पढ़ते समय कभी वह आह्लादित होता है, कभी विचलित, कभी किसी पात्र या स्थिति के प्रति घृणा और जुगुप्सा से भी भर उठता है तो कभी उसमें एक तीव्र आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है। हाँ, यह ज़रूर है कि कुछेक ऐसे भी लोग इस क्षेत्र में आए ,जिन्होंने लघुकथा के नाम पर महज फ़िकरेबाज़ी को तरज़ीह देते हुए चुटकुलों या लतीफ़ों को ही लघुकथा बनाकर प्रस्तुत कर दिया। इससे लघुकथा की विश्वसनीयता पर कई तरह के प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। लघुकथा के नाम पर चुटकुले या लतीफ़े परोसने वाले लोग यह नहीं समझ सकते कि लघुकथा का फ़लक इनसे कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है। लतीफ़े गुदगुदाते हैं, जब कि लघुकथा झकझोर डालती है। कुछेक विद्वानों का मानना है कि लघुकथा अनादिकाल से अपने एक अलग ही रूप में हमारे बीच मौजूद रही है-पंचतन्त्र, हितोपदेश, कथा-सरित्सागर और जातक कथाओं के रूप में; जिनके माध्यम से हमारे पूर्वज अपने संस्कार आगे की पीढ़ी में रोपते थे।

इसकी जड़ें भले ही अतीत में रही हों, लेकिन इसका आज का स्वरूप इसकी अपनी स्वतन्त्रा पहचान है, कुछ कहानीकारों को जो लघुकथा लिखने में सक्षम नहीं को छोड़कर लघुकथा की स्वतन्त्रा पहचान से असहमति हो सकती है

वर्तमान समय में हमारे बीच कई ऐसे साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने पूरी लगन और समर्पण के साथ इस विधा के उत्थान में अपना योगदान दिया है। कुछ प्रबुद्ध लेखकों के नाम मुझे याद आ रहे हैं, जिन्होंने इस विधा को अपने सशक्त कलम से सजाया-सँवारा। जिनमें मुख्य रूप से डॉ. शंकर पुणतांबेकर, विक्रम सोनी, सतीशराजपुष्करणा,सुकेशसाहनी ,बलराम, प्रेम गुप्ता ‘मानी,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’,कमल चोपड़ा, रूप देवगुण, बलराम अग्रवाल, पृथ्वीराज अरोड़ा, सतीश राठी, राजकुमार गौतम, हीरालाल नागर, शराफ़त अली खान, उर्मि कृष्ण,आदि के नाम मुझे याद आ रहे। हालाँकि इनमें से कुछ साहित्यकारों ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी बहुत उल्लेखनीय कार्य किया है, परन्तु इससे इनका लघुकथा के प्रति इनकी संलिप्तता को नकारा नहीं जा सकता।

वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में श्री सतीशराज पुष्करणा जी एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी साहित्य की इस विधा की साधना में लगा दी और इसको एक नई ऊँचाई तक पहुँचाया। उनकी अनेकानेक लघुकथाओं में से मेरे सामने कुछ लघुकथाएँ हैं, जिन्हें मैने अपनी अल्प-बुद्धि से समझ कर उन पर कुछ शब्द लिखने का चुनौतीपूर्ण कार्य करने का साहस किया है। आशा करती हूँ कि अपने गुरुजनों के आशीर्वाद से मैं इस कार्य में थोड़ा-बहुत सफ़ल हुई हूँगी।

हम सब इंसान होने के नाते अनगिनत इंसानी दुर्बलताओं से समय-समय पर ग्रसित होते रहते हैं। कभी उन पर विजय पा लेते हैं तो कभी-कभी उनके हाथों पराजित भी हो जाते हैं। पर इंसान होने की सार्थकता तो इसी बात से है कि हम उन दुर्बलताओं के लिए समय रहते चेत जाएँ और उन पर काबू पा लें। ऐसी ही कुछ मानसिक दुर्बलताओं के उभरने और वक़्त रहते चेत कर उन पर सफ़लतापूर्वक विजय प्राप्त करने की अलग-अलग घटनाएँ पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हमारे सामने अपनी पूरी सार्थकता से प्रस्तुत होती हैं; जैसे- जैसे-‘आग’ शीर्षक लघुकथा में लगभग अध्ेड़ावस्था को पहुँच चुकी एक एक कुँवारी महिला अपने से कई बरस छोटे घर के नौकर के प्रति ही मन में दैहिक खिंचाव महसूस करती है, परन्तु इससे पहले कि वह अधमता की गर्त में गिरे, खुद को सम्हाल लेती है। हालाँकि इस लघुकथा के अन्त में उस महिला का अपने नौकर को दूसरे ही दिन निकाल देने का निर्णय कहीं-न-कहीं उसकी मानसिक इच्छाशक्ति की कमज़ोरी को दर्शा जाता है। इस लघुकथा को पढ़कर पाठक यह भी अन्दाज़ा लगा सकता है कि वह महिला एक बार तो सम्हल गई, पर सम्भवतः भविष्य में वह अपने को न सम्हाल सके।

मन के साँप- लघुकथा भी कुछ ऐसी ही कथा के इर्द-गिर्द बुनी गई है, बस फ़र्क इतना है कि ‘आग’ में एक अविवाहित युवतीका भटकाव है तो इसमें पत्नी के मायके जाने पर एक पुरुष का अपनी नौकरानी के लिए ग़लत भाव आने के बावजूद समय रहते चेत जाने का ज़िक्र हुआ है। ‘आग’ के विपरीत इस लघुकथा का पात्र मुझे ज़्यादा दृढ़ इच्छा शक्तिवाला लगा, क्योंकि वह नौकरानी से अपने कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लेने  की ताक़ीद करता है। इससे पाठक के समक्ष एक बात तो पूरी तौर से स्पष्ट हो जाती है कि उसके मन में जो भी दुर्भावना उठी, वह क्षणिक थी और भविष्य में ऐसी किसी परिस्थिति के आने पर वह पहले ही सम्हल जाएगा।

‘मृगतृष्णा’ के मुख्य पात्र एक विधुर अधेड़ है जो अनजाने ही अपने बेटे के लिए आए एक रिश्ते के लिए खुद को ‘लेकर सपने सजा लेते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति ज्ञात होते ही सम्हल जाते हैं।

“वह तो ठीक है, पर ज़रा लड़के से भी तो पूछ लो कि उसे कहीं कोई एतराज़ तो नहीं होगा? या फिर…।”

बात को बीच में ही काटते हुए बोले,”अरे! लड़के से क्या पूछना। मरजी मेरी चलेगी या उसकी? बाप मैं हूँ या वह?”

“नहीं यार! फिर भी जिसे जीवन गुज़ारना है, उसकी राय जानना तो बहुत ही ज़रूरी है।”

इतना सुनते ही उन्हें लगा जैसे घड़ों ठण्डा पानी पड़ गया हो और वह दिवा-स्वप्नों की दुनिया से बाहर आ गए।

उपर्युक्त लघुकथा अपने अन्दर एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी समेटे हुए है। एक पुरुष का मनोविज्ञान, जो आमतौर पर एक स्त्राी की मानसिकता से नितान्त भिन्न होता है। एक तरपफ विध्वा हो जाने के पश्चात् सारा जीवन अकेले गुज़ार लेने वाली प्रायः स्त्रिायाँ आमतौर पर अपने पुनर्विवाह की बात करना तो दूर, उसकी कल्पना से भी खुद को दूर रखती हैं, वहीं एक पुरुष अक्सर समान परिस्थितियों में भी अपने पुत्रा की बजाय पहले अपने विवाह की तैयारी शुरू कर देता है।

समस्त पुरुष जाति का प्रतिनिध्त्वि करते शीर्षक के साथ पुष्करणा जी ने ‘पुरुष’ में एक पुरुष के मन की स्वाभाविक चंचलता को इंगित किया है, जो महज दो स्त्रिायों का वार्त्तालाप सुनकर, बिना उन्हें देखे ही उनकी ओर एक अजीब किन्तु सहज आकर्षण महसूस करने लगता है, परन्तु जैसे ही उनमें से एक युवती उसे ‘अंकल’ कहकर सम्बोध्ति करती है, उसे अपनी अवस्था का अहसास होता है और वह बिलकुल शान्त हो जाता है। इस तरह के क्षणिक भटकाव से बहुत सारे पुरुष कभी-न-कभी दो-चार होते हैं, परन्तु ये उनके अन्दर का मर्यादित आत्मबोध् ही होता है, जो वक़्त रहते उन्हें सम्हाल लेता है। इस तरह की परिस्थितियाँ कोई मनोविकार नहीं, बल्कि बहुत सहज-स्वाभाविक मानसिक स्थिति यानी मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती हैं।

इन लघुकथाओं के अतिरिक्त इसी तरह के किसी भटकाव और नियन्त्रण को लेकर दो और लघुकथाएँ भी मेरी नज़रों से गुज़री, यथा- अंतश्चेतना, और अमानत का बोध।

हमारे समाज में परिवार का एक बहुत अहम स्थान है, और यह परिवार बनता है पति-पत्नी से…उनसे ही जुड़े अन्य रिश्तों से…। पति-पत्नी के बीच अक्सर विभिन्न मुद्दों पर मतभेद हो जाने के बावजूद उसके मूल में जो आपसी सामंजस्य, प्रेम और दायित्व-निर्वाह की एक कोमल और मीठी-सी भावना होती है, उसकी भी बड़ी खूबसूरत अभिव्यक्ति पुष्करणा जी की कई लघुकथाओं में हुई है, जैसे- आत्मिक बन्धन, जीवन-संघर्ष, बीती विभावरी, मन के अक्स, अपनी-अपनी विवशता, निष्ठा, झूठा अहम, स्वभाव, आकांक्षा ।

इस श्रेणी में पुष्करणा जी की एक लघुकथा ने विशेष रूप से मुझे प्रभावित किया, वह है ‘विश्वास’शीर्षक लघुकथा, जिसमें एक पत्नी का अपने पति के प्रेम पर इतना अटूट विश्वास होता है कि जब उसकी बीमारी से मानसिक रूप से बेहद दुःखी होकर उसका पति उसे दवा के नाम पर ज़हर देने चलता है, तो पत्नी बेहद निश्चिन्तता से ये बात उस पर ज़ाहिर कर देती है कि अगर वो कभी उसे ज़हर भी देगा, तो वो भी वह बेहद खुशी से ग्रहण कर लेगी। पत्नी का अपने ऊपर ऐसा विश्वास देखकर पति को तुरन्त अपनी सम्भावित ग़लती का बोध होता है और वह एक जघन्य कृत्य करने से बच जाता है। आप भी देखिए ज़रा:-

इससे तो अच्छा है-पत्नी को जीवन से ही मुक्त कर दिया जाए। और उसने ज़हर की एक शीशी खरीद ली ।

घर पहुँचा। पत्नी ने लेटे-लेटे मुस्करा कर पूछा,”आ गए?”

“हाँ।” वह बोला,”तुम दवा ले लो।”

“इतनी दवाइयाँ रखी हैं, किसी से भी कुछ लाभ तो नहीं हुआ। मैं नहीं खाऊँगी अब कोई भी दवा।”

पति बोला,”आज मैं तुम्हारे लिए बहुत अच्छी दवा लाया हूँ। इससे तुम अच्छी हो जाओगी ।”

पत्नी पुनः मुस्करई,”तुम नहीं मानोगे। अच्छा लाओ! अब तुम मुझे ज़हर भी दे दो, तो पी लूँगी।”

उसी क्षण पति के हाथ से शीशी छूट कर ज़मीन पर गिर कर चूर-चूर हो गई।

आज हम युवा पीढ़ी को अक्सर उसकी संवेदनहीनता के लिए कोसते हैं। माँ-बाप या अन्य रिश्तों के प्रति इनमें पनप रहे तिरस्कार का वर्णन आज के साहित्य में बहुत प्रचुरता से होता है। ऐसे में बच्चों में माता-पिता के प्रति कर्तव्य-बोध और प्रेम-सम्मान को दर्शाती लघुकथाएँ किसी शीतल, सुगन्धित बयार की तरह मन प्रफ़ुल्लित कर देती है। पुष्करणा जी की इतनी सारी बेहतरीन लघुकथाओं में से इस श्रेणी के अन्तर्गत मुझे दो लघुकथाएँ नज़र आई; यथा-भविष्य निधि, और जीवन ।

‘जीवन’शीर्षकलघुकथामेंबेटियोंकोबेटोंसेकमतरनमानिए, ऐसे एक सन्देश के छुपे होने का भी अहसास मुझे हुआ। बस एक बात खुद भी एक बेटी होने के नाते मुझे खली, कि इसमें किसी बेटी को बेटा समझ कर पालने-पोसने की बात कही गई है। अपने आसपास यह बात हम लोग अक्सर बहुत सामान्य रूप से सुनते और कहते रहते हैं, परन्तु मुझे लगता है कि बेटी को ‘बेटी’ समझकर ही पालना चाहिए…बस उसे दिए जाने वाले अवसर किसी बेटे से कमतर नहों, फिर वो बेटी अपने माता-पिता को किसी ‘बेटे-सा’अहसासनहींकराएगी, बल्कि एक संतान द्वारा माँ-बाप के प्रति निभाए जाने वाले फ़र्ज़ को पूरा करने वाली सिर्फ़ एक औलाद होगी।

“कमाल कर दिया पापा ! आप जब हमें बेटा समझ कर ही पाल-पोस एवं पढ़ा-लिखा रहे हैं तो यक़ीन रखिए…आप निश्चिन्त हो जाइए।” प्रेरणा ने अपने माता-पिता के दुःख पर आशा का फ़ाहा रखा।

“हाँ पापा! दीदी ठीक कह रही हैं। आज लड़का-लड़की में अंतर नहीं है, बल्कि लड़कियाँ लड़कों से अधिक अपने दायित्व को समझती हैं…”

फ्भविष्यनिध्य िमें बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

‘भविष्य-निधि’में बूढ़े माँ-बाप की सेवा करते हुए बेटे को अहसास होता है कि कभी उसका भी ऐसा ही वक़्त आएगा,

जब उसे अपने बच्चों के सहारे और सेवा की ज़रूरत पड़ेगी। वह सोचता है कि यदि वह अभी से अपने बच्चों में ऐसे अच्छे संस्कार रोपेगा, तो उसका खुद का ही भविष्य सुरक्षित होगा।

रिश्ते भी अपने हर रंग-रूप में हमारे आसपास बिखरे होते हैं, कभी कुछ खट्टे, तो कभी कुछ मीठे से…। ऐसे ही खट्टे-मीठे से कुछ रिश्तों की कहानियाँ बुनी गई हैं इन कुछेक लघुकथाओं में- भँवर, जिसमें कुछ मीठे हो सकते रिश्तों के दरमियाँ पनप रही तल्खी है…।

‘समन्वय’ शीर्षक लघुकथा में सिर्फ़ एक ज़िन्दगी ही नहीं, बल्कि सात जन्मों के लिए बँधने वाले शादी के पवित्र रिश्ते का फ़ैसला उससे होने वाली लाभ-हानि का आकलन करने के पश्चात लिया जाता है।

शीशा दरक गया- ऐसे दो मित्रों के आपसी रिश्ते को बयान करता है, जिसमें एक मित्र तो अवसर पड़ने पर अपने मित्र की निस्वार्थ भाव से सहायता कर देता है, पर जब उसी मित्र को मदद की आवश्यकता होती है तो दूसरा मित्र साफ़ तौर पर मना तो नहीं करता, परन्तु उस मदद की वजह से उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ा, यह बात साफ़ तौर पर जता देता है। लघुकथा के मध्य में ही पाठकों को उसकी इस पीड़ा का अहसास हो जाता है:-

“तुम्हें भाभी को नाराज़ करके नहीं आना था। यह मेरा काम था…मैं अकेला ही आ जाता।” बहुत दुःखी मन से उसने स्वप्निल को कहा और सोचने लगा-“स्वप्निल वे दिन भूल गया जब मैं उसके साथ सैंकड़ों बार अपने व्यवसाय, घर-द्वार की चिन्ता किए बिना दो-दो, तीन-तीन दिन उसके साथ कामों के लिए आता-जाता रहा हूँ। इसके लिए कितनी बार पत्नी ने घर में झंझट-बखेड़ा खड़ा किया। मगर मैंने स्वप्निल से कभी इसकी चर्चा तक नहीं की। क्या यह प्यार, मित्रता, समर्पण, भावात्मक लगाव…सब कुछ एकतरफ़ा ही था? क्या यह स्वार्थ नहीं है? क्या यह सम्बन्ध इकहरा नहीं है?”

इस लघुकथा के माध्यम से पुष्करणा जी ने लगभग हर पाठक के मन की किसी न किसी ऐसी याद को ज़रूर छुआ होगा, जब हम तो किसी के लिए भावात्मक रूप से कुछ महसूस करते हुए अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं, पर वक़्त पड़ने पर वही इंसान या तो हमसे कन्नी काट लेता है या फिर अपने किए बूँद भर कार्य के लिए गागर भर अहसान जता देता है।

‘नकलीचेहरा’ शीर्षक लघुकथा में हमारे-आपके, सबके जीवन में कभी न कभी खुल कर सामने आने वाली रिश्तों की कटु सच्चाई बड़ी सटीकता से दिखाई गई है। लघुकथा के मुख्य पात्र की पत्नी कैंसर से ग्रसित होकर मृत्यु-शय्या पर पड़ी अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रही होती है और ऐसे में जब वह अपने सगे-सम्बन्धियों के पास किसी सहायता की उम्मीद में जाता है, उसे हर जगह से निराशा हाथ लगती है। पत्नी की मृत्यु के पश्चात वही सब तथाकथित अपने लोग शोक जताने आ जाते हैं।

हमारी ज़िन्दगी के इन तमाम रिश्तों की पोल सी खोलती ये लघुकथाएँ कहीं न कहीं झकझोर देती हैं।

रिश्ते सिर्फ़ खून से ही नहीं बनते। हम स्वयं भी कई रिश्ते चुनते हैं। ये मन से बँधे रिश्ते कभी क्षणिक होते हैं तो कभी जीवनपर्यन्त चलते हैं। कई रिश्तों को तो हम कोई नाम भी नहीं दे सकते, वह या तो दर्द का रिश्ता होता है या इंसानियत का।

इंसान का इंसान से तो कई रिश्ते देखते हैं हम अक्सर, पर एक इंसान और एक मूक जानवर के प्यारे से रिश्ते को दर्शाया गया है-दायित्वबोध- में ।

दो छोटे बच्चों के बीच पनपे एक मासूम से रिश्ते की दास्तान है-सबक- जिसमें दो नन्हें बच्चों के बीच खेल-खेल में हुए झगड़े के कारण दोनो के परिवारवाले आपस में बैर-भाव पाल लेते हैं, जब कि वे बच्चे सब कुछ भूलभाल कर फिर एक ही रहते हैं। इस लघुकथा में माता-पिता को अपने बच्चों से अपनी ग़लती सुधारने की शिक्षा मिलती है।

“फिर भी क्या! झगड़ा तो हम दोनो का था। और हम दोनो ने आपस में कभी बोलना तक बन्द नहीं किया। हम दोनों तो हर रोज़ उसी तरह साथ-साथ खेलते हैं। तो फिर आप बड़े, बिना किसी झगड़े के आपस में बैर-भाव क्यों रखते हैं?”

बच्चे का यह मासूम, लेकिन कितना सार्थक और सटीक सवाल क्या हम सभी को अपने नज़रिये के बारे में एक बार फिर सोचने पर मजबूर नहीं कर देती?

‘माँ’शीर्षकलघुकथामेंट्रेन यात्रा में ठण्ड से बेतरह काँपते एक युवक को जब एक अनजान वृद्धा से ओढ़ने के लिए शॉल मिलती है, तो उसे उस वृद्धा में अपनी माँ नज़र आती है।

वह लगभग चौंकते हुए उठी,”अरे! तुम तो काँप रहे हो।” और उसने झट से सिरहाने रखी अपनी बड़ी सी शॉल निकाली और बहुत ही सहजता से उसकी ओर उछाल दी।

“ले, ओढ़ ले ! काफ़ी ठण्ड है बेटा।”

उसे लगा वह वृद्धा कोई और नहीं उसकी अपनी माँ है। फिर उसके जेहन में विचार कौंधा-“माँ,…माँ ही होती है। उसका कोई एक चेहरा नहीं होता।”

‘उपहार’ शीर्षक लघुकथा में एकगुरु-शिष्य का अनमोल रिश्ता है, जिसमें एक मेधावी छात्रा रंजना को उसके कोचिंग टीचर निर्मल बाबू उसकी सारी फ़ीस लौटा देते हैं, ताकि वह आगे पढ़ सके। सिर्फ़ इस लघुकथा में ही रंजना अपने गुरु के लिए श्रद्धा से नहीं भरती, बल्कि एक पाठक का मन भी समाज में मौजूद ऐसे अध्यापकों के लिए नतमस्तक हो जाता है।

“मैने तुम्हें दस महीने पढ़ाया…दो सौ रुपए की दर से, दो हज़ार हुए…जो रुपये तुमने मुझे दिए…वही नोट ज़्यों के त्यों हैं…। मैं टीचर होने से पूर्व एक आदमी हूँ…पारिवारिक आदमी। मैने गरीबी झेली है…मैं ऐसे बच्चों का दुःख दर्द समझता हूँ…। हाँ, इन पैसों से तुम आगे भी पढ़ाई जारी रख सकती हो…।”

आत्मबल हो तो हम किसी भी परिस्थिति से निपतने, उससे साहसपूर्वक जूझ सकते हैं। कुछ ऐसी ही प्रेरक भावनाओं से ओतप्रोत लघुकथाएँ भी पुष्करणा जी की सशक्त कलम से निकली हैं। मन में ऐसा ही साहस जगाती लघुकथा है-विवशता के बावजूद- जिसमें ट्रेन में कुछ टुच्चे लोगों की अवांछनीय हरकतों को कुछ देर तक निरीहतापूर्वक बर्दाश्त करते रहने के बाद एक युवती किस प्रकार महज अपने आत्मबल के दम पर उनका सशक्त विरोध करके पूरी स्थिति ही पलट देती है, यह निःसन्देह क़ाबिले-तारीफ़ है। पीड़ित युवती में किस तरह बदलाव आता है, ये देखिए:-

धीरे धीरे उस युवती का चेहरा सख़्त होने लगा। उसके मन में यह बात आई कि मैं क्या कुत्तों से भी गई गुज़री हूँ?

यह विचार आते-आतेउसका चेहरा धीरे-धीरे तमतमा उठा और उसने आव देखा न ताव, अपनी पूरी शक्ति से उस थुलथुल व्यक्ति को ऐसा धक्का दिया कि वह बर्थ से नीचे जा गिरा। और वह दहाड़ी,”कमीने! लगता है तुम किसी इन्सान की नहीं, अन्य जीव की सन्तान हो।”

वह इस हमले के लिए तैयार नहीं था। इतने में गाड़ी में चल रहे बन्दूकधारी सिपाही भी आ गए, और उस कोच में बैठे यात्री भी सक्रिय हो उठे।

यही आत्मबल हम -बदलते प्रतिबिम्ब- के रिक्शाचालक में देखते हैं जो किसी भी हाल में अपना रिक्शा चलाने का रोजगार जारी रखने का निर्णय लेता है, तमाम विषमताओं के बावजूद…।

लौटते वक्त उसने निर्णय कर लिया था कि जब दया और विवशता की बैसाखियों पर ही ज़िंदा रहना है, तो फिर भीख मांगना ही क्या बुरा है। किन्तु सोच के इस क्रम में उसका पौरुष जाग उठा था और तत्काल लिए निर्णय के लिए उसने अपने को बहुत धिक्कारा था। सोचते-सोचते वह एकाएक चीख-सा उठा,”नहीं ! मैं दया और विवशता के सहारे नहीं चलूँगा, मैं लडूँगा, संघर्ष करूँगा…इसजीवनसे। आज के बाद मैं बिना अपना अधिकार लिए किसी को नहीं छोडूंगा ।”इस चीख के साथ ही वह एकाएक उठ कर बैठ गया था और उसकी मुट्ठियाँ स्वत: भिंच गई थी । इस समय वह अपने को एकदम हल्का महसूस कर रहा था…बिलकुल तनाव-मुक्त । उसके चेहरे पर संतोष के भाव उभर आए थे ।

‘इक्कीसवीं सदी’ शीर्षक लघुकथा में भी एक युवा इंजीनियर किस प्रकार भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प लेता है, यह बहुत प्रेरणास्पद है।

अग्रज ने कहा,”देखो ! अब देश में सभी बेईमान हो गए हैं, तो तुम ईमानदार रहकर ही क्या कर लोगे !”

प्रत्युत्तर में इंजीनियर ने बहुत दृढ़ निश्चयी होते हुए कहा, “भैया ! मैं और तो कुछ नहीं कर सकता, किन्तु बेईमानी की इतनी लम्बी गिनती में कम-से-कम एक अपनी गिनती और तो नहीं जुड़ने दूँगा।”

अपना संकल्प व्यक्त करते हुए वह गौरव का अनुभव कर रहा था ।

‘भीतर की आग’ में भी सुदीप नामक पत्रकार अपने आदर्शों से समझौता किए बग़ैर भ्रष्टाचार और दबावों से जूझने का निर्णय लेता है। इस लघुकथा मेंहमलेखक के अन्दर के जुझारूपन और स्वाभिमान की भी थोड़ी सी आग देखते हैं । आज हमारा समाज इस कदर भ्रष्टाचार की दलदल में गले तक डूबा हुआ है कि जिस कलम की ताकत से बड़ी बड़ी तानाशाही का तख्ता पलटा जा सकता है, आज वही कलम चंद नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के हाथों बिक कर किस तरह बेबस कर दी जाती है। ऐसे में सुदीप के माध्यम से पुष्करणा जी ने उन मुट्ठी भर ईमानदार कलम के सिपाहियों में एक अलख जगाने की बहुत अच्छी और सराहनीय कोशिश की है।

‘दिया और तूफ़ान’ में ससुराल में प्रताड़ित होकर माँ के पास आई मेघना अपनी भीषण अस्वस्थता के बावजूद एक दिये को तेज़ हवा में संघर्ष करते देख खुद भी अपने बच्चों के लिए लड़ने का साहस अपने अंदर संजो लेती है।

-दिया जलाया ही था कि ज़ोर से हवा चलने लगी…। मेघना की दृष्टि दीये पर जाकर केन्द्रित हो गई…। वह देखने लगी कि इतनी तेज़ हवा में दीया अपना अस्तित्व बचाने हेतु किस तरह से संघर्ष कर रहा है…। उसे मानो संघर्ष का गुरू-मंत्र मिल गया हो।

हम अक्सर अपने अधिकारों के प्रति तो बहुत जागरुक रहते हैं परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति बेहद उदासीन होते हैं। फिर चाहे वो कर्तव्य सामाजिक हों या पारिवारिक, पर जब यह उदासीनता एक सषक्त कलम के माध्यम से हमारे सामने आइना रखती है तो बहुत करारा झटका देती है।

‘ख़ुदगर्ज़’  शीर्षक लघुकथा में एक व्यक्ति अपने बच्चों पर गलत असर पड़ने के बारे में फ़िक्रमन्द होकर उनके सामने तो ध्रूमपान नहीं करता, पर वही शख़्स अपने मित्र के यहाँ उसके बच्चों की मौजूदगी में भी सिगरेट पीने के वक़्त एक बार भी नहीं सोचता कि उसके इस आचरण का उन बच्चों पर भी बुरा असर पड़ सकता है। ज़रा देखिए यह किस प्रकार हमारे सामने एक सवाल प्रस्तुत करती है-

उनकी ओर संकेत करते हुए पहले मित्र ने दूसरे को उत्तर दिया,”क्या इन बच्चों को तुम अपने बच्चों-सा नहीं समझते?”

इस उत्तर ने दूसरे को जड़-सा कर दिया।

यह लघुकथा हम सब में अचेतन में ही व्याप्त अपने-पराये की भावना को बड़ी खूबी से प्रदर्शित कर देती है।

ऐसा ही एक करारा तमाचा पड़ता है-उच्छ्लन- शीर्षक लघुकथा के माध्यम से,जिसमें आधुनिकता की अंधी दौड़ में लड़खड़ा रहे एक युवक को मानो होश तब आता है, जब वह अपनी ही बहन केसाथ किसी अन्य युवक के द्वारा वैसा ही व्यवहार करते हुए देखता है, जैसा वह खुद किसी अन्य युवती के साथ करने का इच्छुक था। इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति कुछ देर के लिए पाठक को स्तब्ध-सा करते हुए बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है…”तो क्या हुआ? मैं भी किसी की बहन हूँ, डॉर्लिंग…।”

अपने आसपास के जाने-अनजाने लोगों के प्रति हमारा भी कुछ नैतिक कर्तव्य होता है, पर अपने अन्दर के भय के चलते हम उनसे मुँह ही मोड़े रहते हैं। चाहे अन्दर ही अन्दर हमें कितनी भी ग्लानि क्यों न महसूस हो, पर आगे बढ़ कर असामाजिक तत्वों का विरोध करने का साहस हममें नहीं होता। कुछ ऐसी ही कहानी है- नपुंसक- की, जिसमें ट्रेन के डिब्बे में छेड़छाड़ का शिकार हुई महिला की मदद करने कोई आगे नहीं आता।

हमारे समाज में विकास करने का दावा करने वाली सरकारी योजनाएँ और कार्य की असलियत क्या होती है, इस पर से पर्दा उठाती लघुकथा है-परिभाषा- जिसमें बहुत सारे सरकारी स्कूल किस तरह बहुधा सिर्फ़ सरकारी दस्तावेज़ों पर ही चलते हैं, यह बहुत सशक्तता से दर्शाया गया है।

उन्होंने अपने रिश्तेदार से पूछा,”गाँव के दूर वृक्ष के नीचे अकेली यह झोपड़ी किसकी है?”

उत्तर में उन्होंने कहा,”सुनते हैं, यह स्कूल है।”

“कितने बच्चे पढ़ते होंगे इसमें?”

“बच्चे! यही कोई चार-छह बच्चे प्रतिदिन आते हैं, और कुछ देर इधर-उधर खेल-वेल कर अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं।”

“यहाँ के मास्टर साहेब कौन हैं?”

“मास्टर साहेब को तो कभी देखा ही नहीं। तो फिर कैसे पता चलता कि वे कौन हैं?”

“फिर, यह कैसा स्कूल है?”

“सरकारी है!”

इस लघुकथा का सबसे सटीक अन्त मेरे विचार से यही आखिरी डॉयलाग हो सकता था, पर पुष्करणा जी ने इसका अन्त इस पंक्ति से किया है- शिक्षा पदाधिकारी सरकारी स्कूल की परिभाषा सुन कर अवाक् रह गए।

सामाजिक असमानता पर लोगों की कथनी और करनी में हम प्रायः बहुत अन्तर देखते हैं। इसी बात को परिलक्षित किया गया है-हाथी के दाँत- शीर्षक लघुकथा में।

यही सत्य एक और लघुकथा में दिखाया गया है-बदबू-जिसमें एक निम्न जाति वाले से दोस्ती रखने में तो पात्र को कोई एतराज़ नहीं, परन्तु उससे रिश्तेदारी की बात सोचना भी उसे अत्यन्त अपमानजनक प्रतीत होता है। इस एक संवाद ने पूरी मानसिकता की पोल खोल दी है-

“क्या बकते हो तुम! अरे, कभी यह तो सोचा होता…कहाँ हम उच्च जाति के, और कहाँ तुम ! दोस्ती का हर्गिज़ यह अर्थ तो नहीं कि तुम हमारी इज्ज़त से ही खेलने लगो ।”

पुष्करणा जी मानव मन के भी सूक्ष्म विश्लेषक हैं। ‘रंग जम गया’ शीर्षक लघुकथा में एक पहलवान लड़ने की इच्छा न होते हुए भी महज अपनी हँसी उड़ने के भय से मैदान छोड़कर नहीं हट पाता। परन्तु जैसे ही उसे एक अन्य युवक के बीच-बचाव के कारण सम्मानपूर्वक लड़ाई छोड़ने का मौका मिलता है, वह झट से मान जाता है।बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा-वाली कहावत चरितार्थ हो गई। पहलवान भी जैसे चाह रहा हो। पीछे हटते हुए बोला,”तुम बीच में न आ जाते तो आज इसकी ख़ैर नहीं थी।”

हमारा समाज किस प्रकार झूठ के आवरण में छिपे सत्य को देख कर भी अनदेखा कर देता है, उसे बड़ी ही सहजता से-बोफ़ोर्स काण्ड-शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है। यद्यपि मेरे विचार से इस लघुकथा का शीर्षक कथ्य के हिसाब से कुछ और होता तो ज़्यादा अच्छा होता।

हम अक्सर महसूस करते हैं कि समाज बदल रहा, मंथर गति से ही सही, परन्तु लोगों की सोच भी बदल रही है…और सही दिशा में बदलनी चाहिए भी। एक सजग इंसान की तरह पुष्करणा जी ने भी इस बदलाव को महसूस किया तभी तो उन्होंने ऐसी ही सार्थक पहल की प्रेरणा देती लघुकथा रची है-कुमुदिनी के फूल- जहाँ एक बेटा अपनी विधवा माँ के त्यागों के नीचे कहीं गहरे दब गई उसकी एक इच्छा का सम्मान करते हुए उसके पुनर्विवाह की पहल करता है।

हमारे भारतीय समाज में बच्चों के प्रति दायित्व निर्वाह करते हुए किसी विधुर का पुनर्विवाह करना बहुत सहजता से स्वीकार्य है, वहीं अगर एक स्त्री समस्त कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करते हुए ऐसा सोचने का साहस भी करती है ,तो उसे चारित्रिक रूप से गिरा हुआ मान लिया जाता है। ऐसे में पुष्करणा जी की यह लघुकथा एक ठण्डी बयार की तरह मन को सहला जाती है। समाज की सोच को अपनी कलम की धार से एक नई दिशा देना एक साहित्यकार का प्रथम कर्तव्य होता है, जिसमें अपनी ऐसी लघुकथाओं द्वारा पुष्करणा जी पूरी तौर से खरे उतरे हैं।

एक पुरानी कहावत है- रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई-कुछ-कुछ इसी की याद दिलाती लघुकथा है, बाहर लौटते वक़्त उन्हें अपने ऊपर बड़ी कोफ़्त हो रही थी…नवाबी ख़त्म हो गई मगर फिर भी रुतबा अभी बाकी है…अब चाटो इस रुतबे को और मिटाओ अपनी भूख ।

कभी-कभी परोपकार करने की अपनी स्वभावगत विशेषता के चलते यदि हम किसी का भला करते भी हैं, तो समाज में दिनो-दिन बढ़ती जा रही आपराधिक मनोवृत्ति हमको कितनी दुविधा में डाल देती है, इसका बहुत सशक्त निरूपण किया गया है-उधेड़बुन- में, जिसमें मानवती बारिश में भीग रहे एक अधेड़ व्यक्ति को दयावश घर के बरामदे में बिठा कर चाय-नाश्ता तो करवाती है और कुछ पुराने वस्त्र देती है, ताकि वह ठण्ड से बच सके, परन्तु साथ-ही-साथ घर में अकेली होने के कारण उसे उस अधेड़ से डर भी लगता है। अन्ततः उसे विदा करके ही वह चैन की साँस ले पाती है। लगातार पाठकों को अपने में बाँधे रहने वाली यह लघुकथा एक बार फिर पुष्करणा जी की सूक्ष्म विवेचन दृष्टि की परिचायक है।

कुछ अन्य लघुकथाएँ जो विभिन्न मुद्दों का निर्वहन बड़ी कुशलतापूर्वक करती हैं, उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं- वापसी, श्रद्धाजलि, मरुस्थल, सज़ा, टेबल-टॉक, ऊँचाई, महानता, बदलती हवा के साथ, बेबसी, इबादत, बदलता युग, सिला फ़र्ज़, पुरस्कार, रंग, सिफ़ारिश, मास्क लगे चेहरे, लाज, रक्तबीज, काँटे ही काँटे, परिस्थिति, कुंजी, आतंक, हित, दरिद्र, नई पीढ़ी, ज़मीन की शक्ति, स्वाभिमान, काठ की हाँडी, बलि का बकरा, जयचंद, पिघलती बर्फ़, ज़मीन से जुड़ कर, चूक, आकाश छूते हौसले, आदि ।

सही दिशा- शीर्षक लघुकथा समाज के सामने साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित एक बहुत बड़ा सवाल उठाती है, जिसका जवाब शायद जानता हर कोई है, पर वक़्त आने पर मानता नहीं। कोई भी संवेदनशील पाठक इसे पढ़ कर कुछ सोचने पर मजबूर अवश्य कर देगा।

…सहायतार्थ सेना आई। टुकड़ियों ने मलबे हटा कर लाशें निकालने के क्रम में ही उस डिब्बे के मलबे को हटाया। देखा- एक ब्राह्मण महाराज लुढ़के पड़े थे, उनके मुँह के ऊपर ही हरिजन का मुँह और बगल में चिर-निद्रा में सोये मौलवी साहब का दाहिना हाथ ब्राह्मण महाराज के दाहिने हाथ में जंजीर की भाँति गुँथा हुआ था।

सबका मिला-जुला रक्त, जाति एवं साम्प्रदायिकता की रूढ़ियों को मुँह चिढ़ता हुआ ठोस हो चुका था।

आज के युग में इंसान किस तरह सिर्फ़ अपना मतलब साधता है और उसके बाद गिरगिट की तरह रंग बदल लेता है, यह हम में से हर कोई कभी-न-कभी अनुभव कर ही चुका है। इसी को दर्शाती लघुकथा है-स्वार्थी- जिसमें अपना काम निकलने तक एक व्यक्ति अपने मित्र का समय तो बड़ी बेशर्मी से बर्बाद करता हुआ उसका काम भी बिगड़वा देता है, पर जब वही मित्र उसका काम हो जाने के बाद उससे रुकने का अनुरोध करता है, तो वह अपना समय बर्बाद होने की बात कहता हुआ बड़ी आसानी से अपना पल्ला झड़ लेता है।

गिरगिटी रंग में रंगी आज की राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधी साँठ-गाँठ का एक अनुपम उदाहरण है-साँप और छुछुन्दर-जिसमें एक नेता द्वारा पाला गया अपराधी भस्मासुर की तरह उसे ही बर्बाद करने पर तुल जाता है और नेता को ही मजबूर होकर उसकी बात माननी पड़ती है।

भ्रष्टाचार सिर्फ़ राजनीति में ही नहीं, बल्कि समाज को नई दिशा देने वाले साहित्य के क्षेत्र में भी अपनी घुसपैठ बना चुका है। ‘छल-छद्म ’शीर्षक लघुकथा में मनुश्री इसी की झलक है, जो अपनी परिचित एक फ़र्ज़ी साहित्यिक संस्था से मिली नकली पुरस्कार राशि उसी संस्था को लौटाने का शिग़ूफ़ा छोड़ के खुद की उन्नति के रास्ते भी खोल लेती है। साहित्य-जगत में अब ऐसी घटनाएँ बहुत आम होती जा रही, जिसने निःसन्देह पुष्करणा जी जैसे साहित्य-साधक को इतना झकझोरा कि एक सशक्त लघुकथा का जन्म हुआ। “संस्था के पास इतना पैसा ही नहीं, वह तो मात्र दिखावा था। इससे मैं राज्यपाल की दृष्टि में एक बड़े साहित्यकार के रूप में आ गई…। सरकारी सम्मान मिलने की जब सूची बनेगी तो राज्यपाल तथा अन्य लोग मेरे नाम की सिफ़ारिश कर सकते हैं।” बेटी की दूर दृष्टि पर पिता को गर्व हो आया। अब उनका क्रोध काफ़ूर हो चुका था और उसका स्थान मुस्कान लेती जा रही थी।

सतीशराज पुष्करणा जी की मौजूदा लघुकथाओं की यदि मैं एक संक्षिप्त विवेचना करना चाहूँ तो हम यही पाएँगे कि उनकी लघुकथाएँ हमारे हृदय के किसी न किसी हिस्से को छूती ज़रूर हैं। उनका रचना-कार्य ज़िन्दगी के महज किसी एक पहलू को स्पर्श नहीं करता, वरन उन्होंने हर विषय पर अपनी कलम की धार पैनी की है। फिर चाहे वो राजनीति हो या सामाजिक भेदभाव, रिश्तों में बसा स्वार्थ हो या गहरा अटल विश्वास, विभिन्न परिस्थितियों से उपजी बेबसी हो या फिर इंसान का आत्मबल, हर किसी का बहुत सटीक वर्णन किया है उन्होंने। इंसानी स्वभाव और उसके मनोविज्ञान की भी बहुत गहरी और सूक्ष्म विश्लेषण-क्षमता पुष्करणा जी की लघुकथाओं में परिलक्षित होती है। कुछ लघुकथाएँ सम्भवतः अपने रचनाकाल की वजह से पुरानी विषय-वस्तु पर आधारित महसूस होती हैं, परन्तु फिर भी उनकी सामयिकता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि पुष्करणा जी नए युग के रंगों से अनजान हों। उनकी कई सारी लघुकथाएँ इस नए ज़माने की विडम्बनाओं को भी हमारे सामने उतनी ही सटीकता और गहराई से प्रस्तुत करती हैं।

कुल मिला कर हम सतीशराज पुष्करणा जी को एक ऐसे समर्पित लघुकथाकार की श्रेणी में रख सकते हैं जिन्होंने कथ्य के तौर पर ज़्यादा नए प्रयोग न करने के बावजूद अपनी रचनात्मकता के साथ समझौता नहीं किया है। कई बार एक बेहद मामूली- सी लगने वाली बात पर भी उन्होंने अपने कसे हुए शिल्प-भाषा-शैली के माध्यम से एक सार्थक लघुकथा हमारे सम्मुख पेश कर दी है, जिसके लिए वे निःसन्देह बधाई के पात्र हैं। इस सन्दर्भ में मुझे उनकी `स्वभाव ’शीर्षक लघुकथा का जिक्र करना उचित प्रतीत होता है, जिसमे लगभग हर इंसान में मौजूद प्रशंसा की चाह का बहुत सहज ढंग से वर्णन किया गया है । बातचीत में प्रयुक्त संवाद बिलकुल वैसे हैं जैसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं । पुष्करणा जी ने अपने संवादों की इस सहजता को बरकरार रखने के लिए अंगरेजी के शब्दों का भी प्रयोग करने से गुरेज़ नहीं किया है…। जैसे कि पति-पत्नी के बीच के ये कुछ संवाद:-

अभी बातचीत चल ही रही थी कि ललित बाबू की बीवी ने अपने पति को संबोधित करते हुए कहा, “ज़रामेरे क्लाइंट की एक एप्लीकेशन तो लिख दीजिए, इतने में मैं कोर्ट जाने की तैयारी कर लेती हूँ ।”

पुष्करणा जी की अधिकतर लघुकथाएँ इसी तरह अपने पाठकों के सामने कभी प्रत्यक्ष, तो कभी परोक्ष रूप से कोई न कोई ऐसा सवाल खड़ा कर देता है, जिस पर वह कुछ सोचने पर मजबूर हो जाता है । बस कुछेक लघुकथाएँ थोड़ी सामान्य रचनाएँ कही जा सकती हैं, पर उनकी संख्या नगण्य ही है । उनका लघुकथा संसार बहुत विस्तृत कहा जा सकता है ।

हाँ, यदि वे नई और आधुनिक दुनिया के कुछ नए कथ्य और विषय भी थोड़ा अधिक चुने तो उनके इस अनूठे रचना-संसार में एक पाठक के तौर पर मुझे जो थोड़ी सी कमी खली, वह दूर हो जाएगी…इस बात में लेशमात्र भी संशय नहीं…।

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( सम्पादित रूप)

भारतीय लघुकथाओं में मनोविज्ञान

August 1, 2016, 6:07 pm

मेरा बचपन संयुक्त परिवार में बीता है। एक घटना याद आ रही है। सुबह उठ कर देखता हूँ–माँ रसोई में नहीं है बल्कि रसोई के बाहर बने स्टोर में अलग–थलग बैठी हैं। दादी माता जी को वहीं चाय नाश्ता दे रही है। मुझे हैरानी होती है। माँ तो बहुत सबेरे उठकर काम में लग जाती है हम रसोई उनके पास बैठकर ही नाश्ता करते हैं। हमें खिलाने–पिलाने के बाद ही खुद खाती हैं।
‘‘आपको क्या हुआ है?’’ मैं माँ से पूछता हूँ।
‘‘कुछ भी नहीं।’’ माँ कहती है।
‘‘तो आज आप यहाँ क्यों बैठी हैं, दादी खाना क्यों बना रही है?’’
‘‘वैसे ही, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।’’ माँ हँसते हुए कहती हैं।
मेरा बाल मन सोच में पड़ जाता है– माँ बीमार भी नहीं लग रहीं,तबीयत खराब होने की बात हँसते हुए कह रही है? मैं खेलकूद में लग जाता हूँ और इस बात को भूल जाता हूँ। दोपहर में खाने के समय फिर मेरा ध्यान इस ओर जाता है। दादी माता जी को रोटी हाथ में दे रही हैं, किसी बर्तन में नहीं।
‘‘आप प्लेट में रोटी क्यों नहीं खा रही ?’’ मैं पूछता हूँ।
माँ मेरी ओर देखते हुए कुछ नहीं कहतीं। मैं अपना सवाल फिर दोहराता हूँ।
‘‘आज मैं गंदी हो गई हूँ।’’ माँ फिर हँसती हैं।
‘‘मतलब?’’
‘‘दरअसल आज जमादारिन को डिब्बे में पानी डालते समय कुछ छींटे मुझपर पड़ गए थे।’’
‘‘तो फिर?’’ मेरी समझ में कुछ नहीं आता।
‘‘जाओ खेलो, तुम अभी छोटे हो कुछ नहीं समझोगे।’’
माँ कहती हैं और दादी और ताई हँसने लगती है।
बात बहुत पुरानी है लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है। बाल मन कितनी गहराई से सोचता है, इसी को स्मरण करते हुए इस घटना के बारे में लिख रहा हूँ। मुझे याद है इस बात पर मैंने काफी माथापच्ची की थी अपने बड़े भाइयों से भी पूछा था।
दरअसल माँ मासिक धर्म से थीं। उन दिनों उनका रसोई में प्रवेश वर्जित था। देखने की बात यह है कि मेरे द्वारा उठाए गए सवाल पर माँ ने जो उत्तर दिया उससे मेरे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ा? उन दिनों हमारे यहाँ आधुनिक टायलेट नहीं थे। मैला उठाने जमादारिन आती थी। माँ द्वारा मासिक धर्म की बात न बता सकने की विवशता के चलते जो कारण दिया गया, उससे बाल मन पर दलितों के अपवित्र होने की बात कहीं गहरे अंकित हो जाती है। बहुत सी बातें धीरे–धीरे खुद ही समझ में आने लगती है।
अकसर हम बच्चों को बहलाने के लिए लापरवाही से कुछ भी कह जाते हैं; जबकि बच्चे हमारी बातों को काफी गम्भीरता से लेते हैं। बाल मनोविज्ञान पर आधारित संचयन के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट होकर सामने आती है। आज भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। भूपिन्दर सिंह : रोटी का टुकड़ा, नीलिमा टिक्कू : नासमझ, मीरा चन्द्रा : बच्चा जैसी लघुकथाओं में बच्चों द्वारा पूछे जा रहे प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। इतना अंतर अवश्य आया है कि ाहरी क्षेत्रों में दलित वर्ग का बच्चा अब अपने शोषण के प्रति जागरूक है (कमल चोपड़ा : खेलने दो, रंगनाथ दिवाकर : गुरु दक्षिणा )
विषयों के आधार पर लघुकथा के विभिन्न संचयनों को तैयार करते समय लघुकथा की ताकत का अहसास होता है। लघुकथा लेखक उस विषय की कितनी गहन पड़ताल करने में सक्षम हैं, इसे वर्तमान संचयन में भी देखा जा सकता है।
प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को अध्ययन की दृष्टि से निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है–

बच्चे और शिक्षा
होश संभालते ही हर माँ–बाप बच्चे को शिक्षित करना चाहता है। सबकी सोच अलग–अलग होती है। बालक, अभिभावक और शिक्षक के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है ।शिक्षा की कोई भी विधि -प्रविधि ,पाठ्यक्रम-पाठ्यचर्या लागू करने से पहले बच्चे को समझना होगा।कोई भी तौर-तरीका बच्चे से ऊपर नहीं है और न हो सकता है ।कोई भी व्यक्ति या संस्था इसके ऊपर नहीं है ,वरन् इसके लिए है ।यह बात सदैव ध्यान में रखनी होगी ।
गिजु भाई की लघुकथा तुम क्या पढ़ोगे उन अभिभावकों पर करारा व्यंग्य है जो आनंद लेकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर रहे बच्चे को बाल पोथी पढ़ने के लिए विवश कर पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करते हैं। आज हमारे स्कूल बच्चों के लिए यातना गृह हो गए हैं (श्याम सुन्दर अग्रवाल : स्कूल)। ऐसे पिंजरों में बंद बच्चे अपनी बाल सुलभ जिज्ञासाओं एवं इच्छाओं से विमुख होकर मशीन बन जाते हैं। ऐसे में जब किसी पाठशाला में बच्चे से खुश होकर कुछ मांगने के लिए कहा जाता है तो यदि वह ‘लड्डू’ की माँग करता है तो श्रीचन्द्रधर शर्मा गुलेरी आश्वस्त होते है उन्हें लगता है कि बच्चा बच गया, उसके बचने की आशा है। स्कूल के अध्यापकों एवं अभिभावकों ने बच्चे की जन्मजात प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रेम भटनागर की शिक्षाकाल उस विडम्बना से परिचय कराती है जहाँ स्कूल वाले बच्चे की प्रतिभा को सम्मानित करना चाहते है परन्तु स्कूल में अभिभावकों को बुलाने का एक ही अभिप्राय समझा जाता है कि बच्चे ने कोई शरारत की होगी। इस पर अभिभावक बच्चे की डायरी में लिख भेजते हैं –हमने कल रात को उसकी जम कर पिटाई कर दी है। उसने वादा किया है कि वह आगे से कोई शिकायत का मौका नहीं देगा। आशा है अब सम्पर्क की आवश्यकता नहीं रह गई है। बच्चों के मन में स्कूल के प्रति डर का बीजारोपण जाने अनजाने माता–पिता द्वारा भी कर दिया जाता है (सुरेश अवस्थी : स्कूल)। शिक्षा को कंधों पर भार के रूप में ढोता बच्चा युनिवर्सिटी तक की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् खूब–खूब खेलने के सपने देखता है (अशोक भाटिया : सपना)। जहाँ शिक्षक अपने दायित्व के प्रति समर्पित हैं वहाँ बच्चा शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने मन की गाँठें गुरुजन के आगे खोलने में देर नहीं करता (सतीशराज पुष्करणा : अन्तश्चेतना) । इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं अहमद निसार : पद चिह्न, भगीरथ : शिक्षा, बलराम अग्रवाल : जहर की जड़े, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र : जिज्ञासा, शैलेन्द्र सागर : हिदायत ।

बच्चे और परिवार
बच्चे अपना अधिकांश समय घर और स्कूल में बिताते हैं। ऐसे में माता–पिता की जिम्मेवारी और भी बढ़ जाती है। बच्चों का कोमल मस्तिष्क चीजों को बहुत जल्दी ग्रहण करता है। आज भागम–भाग के दौर में काम काजी माता–पिता के पास बच्चों के लिए अवकाश नहीं है। विभिन्न कारणों से टूटते पति–पत्नी के रिश्ते बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आधुनिकता की दौड़ में बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ाने वाले माता–पिता बच्चों की प्रतिभा की नुमाइश करते हुए गर्व महसूस करते हैं ऐसे अभिभावकों की पोल बहुत जल्दी खुल जाती है (महेन्द्र रश्मि : कान्वेंट स्कूल)। अक्सर माता–पिता बच्चों के प्रतिकूल आचरण हेतु टी.वी. को दोषी मानते हैं, जबकि बच्चा उनके आचरण का अनुसरण करता है (माघव नागदा : असर)। ऐसे माता–पिता की परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच नन्हा बचपन पिसता रहता है (बलराम : गंदी बात)। हमारा आचरण किसी नन्हें बच्चे के मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता के विष बीज का रोपण कर सकता है (सूर्यकांत नागर : विष बीज)। बच्चों के मानसिक विकास में आर्थिक कारण बड़ी बाधा के रूप में सामने आते हैं। गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जीता आम आदमी बच्चे को पाठ पढ़ाते हुए सेब और अनार के बारे में बता तो सकता है लेकिन बच्चे के प्रश्नों के आगे खुद को लाचार महसूस करता है (सुभाष नीरव : बीमार)। पारस दासोत की भूख में उस माँ की पीड़ा को महसूस किया जा सकता है जो यह कहती है कि दौड़ने कूदने से भूख अच्छी नहीं अधिक लगती है इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं –सतीश दुबे : विनियोग, नासिरा शर्मा : रुतबा, प्रेम जनमजेय : जड़, अमरीक सिंह दीप : जिंदा बाइसस्कोप, उर्मि कृष्ण : अमानत, हरदर्शन सहगल : गंदी बातें, अनूप कुमार : मातृत्व, निर्मला सिंह : आक्रोश, विजय बजाज : संस्कार, काली चरण प्रेमी : चोर, ।

बच्चे और समाज

बच्चों के चरित्र निर्माण में समाज का बहुत बड़ा योगदान होता है। यह दुनिया सबसे बड़ी पाठशाला है। (सुकेश साहनी : स्कूल)। आर्थिक कारणों से घर छोड़ कर कमाने निकला बालक जीवन संघर्ष करता हुआ समाज के कथाकथित ठेकेदारों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकता है। संग्रह में सम्मिलित अधिकतर रचनाएं बच्चों के प्रति समाज की उपेक्षा को चित्रित करती है। यहाँ तक कि वक्त कटी के लिए किसी भिखारी बच्चे तमाम सवाल किए जाते हैं, बिना उसकी परिस्थितियाँ जाने। ऐसे उजबकों को बच्चा निरुत्तर कर देता है जब वह यह कहता है कि माँ को बेटा कमा कर नहीं खिलायागा तो कौन खिलाएगा (हीरालाल नागर : बौना)। समाज के निर्मम रवैये के चलते बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हमारी जरा सी चूक किसी बच्चे की जीवन दिशा बदल सकती है इसे रावी की लघुकथा भिखारी और चोर में देखा जा सकता है। हरीश करमचंदाणी की लूट उन गरीब बच्चों के दर्द को रेखांकित करती है जो पतंग न खरीद पाने के कारण कटकर आई पतंग उड़ाना चाहते हैं पर यहाँ भी किसी बड़ी कोठी की छत पर खड़ा बच्चा पतंग की डोर थाम उन्हें इस खुशी से वंचित कर देता है।
छोटी उम्र में काम के लिए निकलना पड़ना जहाँ गरीब तबके के बच्चों की नियति है वहीं समाज के सक्षम तबके द्वारा आर्थिक लाभ कमाने के लिए भोलेभाले बचपन को बाल श्रम में झोंक दिया जाता है। सरकारी मशीनरी इस समस्या पर खानापूरी कर पल्ला झाड़ लेती है और यह अंतहीन सिलसिला (विक्रम सोनी) चलता रहता है। मजदूरी के लिए विवश ऐसे बच्चे सपनों (देवांशु वत्स) में जीने को विवश है। सपने और सपने (रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’) में बहुत ही मार्मिक ढंग से इस हकीकत को रेखांकित किया गया है कि सपनों से जीवन नहीं चलता, भूख तो रोटी से ही शांत होगी। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–हरिमोहन शर्मा : सिद्धार्थ, भारत यायावर : काम, कुमार नरेन्द्र : अवमूल्यन, दीपक घोष : रोटी, यशपाल : सीख, अवधेश कुमार : मेरे बच्चे, दिनेश पाठक शशि : लक्ष्य, चित्रा मुद्गल : नसीहत, जोगिन्दर पाल : चोर, नीता सिंह : टिप, मुकीत खान : भीख।

बाल मन की गहराइयाँ

बाल मन की गहराई को रेखांकित करती अनेक लघुकथाएं यहाँ उपस्थित है। कामगार का बच्चा अपने पिता की परिस्थितियों से भली–भाँति वाकिफ है (रमेश बतरा : कहूं कहानी)। डॉ. तारा निगम की लघुकथा में बच्ची माँ से गुड़िया न लेने की बात कहती है क्योंकि उसे पता है कि आगे चलकर उसे गुड़िया नहीं बनना है। राजेन्द्र कुमार कन्नौजिया की लघुकथा की लड़की उस घरौंदे को बार–बार तोड़ देती है जिसपर लड़का सिर्फ़ अपना नाम लिखता है। वह उससे कहती है कि तू इस पर मेरा नाम क्यों नहीं लिखता। इस श्रेणी में राजेन्द्र यादव की अपने पार उत्कृष्ट रचना है। इस श्रेणी की अन्य लघुकथाएं हैं–विष्णु नागर : बच्चा और गेंद, अनिंन्दिता : सपने, रमेश गौतम : बारात, जगदीश कश्यप : जन–मन–गण, पूरन मृद्गल

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पारस दासोत की लघुकथाओं में स्त्री

August 31, 2016, 11:56 am

  समूचे प्राणिजगत में दो गुण मूल रूप से पाए जाते हैं—जीवन-रक्षा और जाति-रक्षा। जहाँ तक मनुष्य की बात है, जीवन-रक्षा के लिए वह एक स्थान को छोड़कर किसी भी अन्य स्थान तक जा सकता है, भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी खा सकता है, स्वयं से बलिष्ठ प्राणियों से लड़-भिड़ सकता है और स्वयं को अशक्त महसूस कर पलायन भी कर सकता है। जाति-रक्षा से तात्पर्य मनुष्य-जाति की रक्षा से है और इसका सम्बन्ध युद्धादि से न होकर सन्तानोत्पत्ति से है। यहाँ काम के विकृत रूप की चर्चा करना हमारा ध्येय नहीं है। इसलिए इस बिन्दु पर तर्क कृपया न करें। जीवित प्राणियों में नर और मादा—ये दो रूप प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। इन दोनों में ही जननांग भी प्राकृतिक रूप विकसित होते हैं और जननांगों की संवेदनशीलता भी प्रकृति प्रदत्त गुण है जिसका सीधा सम्बन्ध स्वजाति को उत्पादित करने और बचाए रखने के मूल गुण से है । मनुष्य-जाति में इस मूल गुण का विकार ही ‘कामी’,‘कामान्ध’ आदि विशेषणों से व्यक्त होता है। अन्य प्रजातियों में यह प्रकृति द्वारा अनुशासित रहता है । अन्य प्रजाति के प्राणी ‘कामी’ नहीं होते; हाँ, ॠतु-विशेष में ‘कामान्ध’ अवश्य देखे जाते हैं, वह भी विपरीत लिंग के प्रति, समान लिंग के प्रति नहीं।

मुझे अक्सर महसूस होता है कि स्त्री मनोविज्ञान को आम तौर पर कमतर आँका जाता है। भक्तिकालीन समूचा हिन्दी काव्य स्त्री को ‘हेय’ और ‘त्याज्य’ मानकर चलता है तो रीतिकालीन हिन्दी काव्य ही नहीं, अनेक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ उसे आकर्षक ‘भोग्या’ के रूप में चित्रित करते हैं। तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में राम के समक्ष समुद्र नारी को ढोल, गँवार और शूद्र के समकक्ष रखता है। यह उसके अपने चरित्र की गिरावट है या उसके शब्दों में तुलसीदास का काल स्वयं बोल रहा है? जो भी हो, स्त्री और पुरुष के शारीरिक विकास और शारीरिक क्षमताओं को एक ओर करके जरा इन सवालों पर गौर करें —

1-क्या पुरुष स्त्रियों की तरह सोचते हैं?

2- क्या स्त्रियाँ पुरुषों की तरह सोचती हैं? अथवा,

3-क्या हर व्यक्ति का सोचने का अन्दाज़ अलग है?

शारीरिक सुख-दु:ख बहुत-से आवेशों और आवेगों के स्रोत होते हैं और ऐसा मन को उनकी अनुभूति के कारण या मन में उनका विचार उत्पन्न होने के कारण होता है। आवेश दो तरह के होते हैं—प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। शुभ या अशुभ तथा सुख या दु:ख से उत्पन्न आवेश प्रत्यक्ष होते हैं जैसे, इच्छा, अरुचि, उल्लास, आशा, भय, सुरक्षा का भाव आदि। अप्रत्यक्ष आवेश भी इन्हीं तत्त्वों से उत्पन्न होते हैं लेकिन कुछ अन्य गुणों का उनमें योग होता है। इनके अन्तर्गत गर्व, विनम्रता, महत्त्वाकांक्षा, मिथ्या-अभिमान, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, करुणा, द्वेष, उदारता आदि को रख सकते हैं। पारस दासोत की लघुकथा ‘सोने की चेन’ गर्व-प्रदर्शन का ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। यद्यपि यह असम्भव लगता है कि कोई व्यक्ति स्वयं को एक ही समय में विनम्र और गर्वित, दोनों प्रदर्शित करे; लेकिन अनेक ऐसे लोग आपको सहज ही मिल जाएँगे, जिनकी ‘विनम्रता’ से ‘गर्व’ का भाव इतना अधिक झलकता है कि आपको खिन्न कर डालता है। यही स्थिति ‘दीनता’ के ‘सगर्व’ प्रदर्शन की भी है। ऐसे अगणित ‘दीन’ आपको सत्ता के गलियारों में ‘सगर्व’ साष्टांग लेटे मिल जाएँगे ,जो अपने आका के कृपापात्र बनने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं।

आजकल की महिलाओं की ज़िन्दगी में महत्वपूर्ण मुकाम तब आता है जब उन्हें कुवाँरी रहकर अपने करियर और गार्हस्थ्य धर्म के बीच किसी एक को चुनना होता है। जहाँ बच्चों से घिरी विवाहित स्त्रियाँ यह महसूस करती हैं कि उनकी क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो रहा, वहीं उम्रदराज़ कामकाजी अविवाहित महिलाएँ अपने असीम अकेलेपन से निपटने के लिए मनोविश्लेषकों की शरण में जाने को शापित रहती हैं। इसका मतलब है कि आज की स्त्री के लिए संतुलित जीवन एक बड़ी चुनौती है। एक कथाकार के तौर पर पारस दासोत का ध्यान स्त्री मनोविज्ञान के इस पक्ष की ओर नहीं जा पाया है।

स्त्रियाँ स्थायित्व चाहती हैं और यह चाहत उन्हें दुविधा में डाले रखती है। एक ही समय में वे दो दिशाओं की शिक्षा ग्रहण करती हैं।  एक ओर वह पुरुषों की तरह, सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने की शिक्षा पाती है; दूसरी ओर वह विवाह करके बाल-बच्चेदार जीवन जीना चाहती है। लगभग इसी मानसिक जद्दोजहद से उस महिला को भी दो-चार होना पड़ता है जिसका लालन-पालन तो पारम्परिक विचारधारा व परिधान-शैली के बीच हुआ हो, परन्तु जीना उसे आधुनिक विचारधारा और परिधान-शैली वाले समाज में पड़ रहा हो। पारस दासोत की लघुकथा खिड़की में इसका उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। परन्तु कुछ आधुनिकाओं में तीसरी दिशा भी देखने को मिलती है—भोग की दिशा। इस दिशा में बढ़ते हुए वह अनेक अनर्थों की कर्त्री बनती है। ‘एक कहानी वही’ में ऐसी ही एक युवती का चित्रण हुआ है।

यह एक स्वीकृत तथ्य है कि लम्बे समय से आज तक स्त्री को पितृसत्तात्मक स्पष्ट कहें तो—पुरुष-सत्तात्मक समाज में रहना पड़ रहा है जिसमें उसकी मानसिक क्षमताओं तक का आकलन उसकी शारीरिक बनावट के मद्देनज़र किया जाता है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक क्लारा थॉम्प्सन के अनुसार—‘पुरुष-सत्तात्मक समाज ने स्त्री पर इतनी जिम्मेदारियाँ लाद दी हैं कि उसे काम सम्बन्धी अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाए रखना पड़ता है। इस स्त्री के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं। पहला, दिन-रात घर-परिवार के कामकाज में खटती स्त्री (उदाहरणार्थ, दासोत जी की लघुकथा प्याज की सब्जी में वर्णित माताजी) और दूसरा, पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के क्रम में घर-परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त पुरुष के समांतर चलती स्त्री। इनमें पहली स्त्री की दयनीय दशा नि:सन्देह शोचनीय है। उससे उसे मुक्ति मिलनी चाहिए। लेकिन दूसरी स्त्री! इसका सुन्दर चित्रण पारस दासोत की ‘वह फौलादी लड़की’ में हुआ है। पुरुष-सत्तात्मक समाज से लोहा लेती स्त्री अपने प्राकृतिक लावण्य और सुमधुर संवेदनशीलता से वंचित रह जाती है और अवसर पाते ही वह अपने समक्ष खड़े समय से कहती है—‘मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी।’ यह पुरुष-सत्तात्मक समाज से विद्रोह के परिणामस्वरूप स्वयं ‘पुरुष’ बन चुकी आज की स्त्री का सत्य है। वह चाहती है, पुन: ‘स्त्री’ हो जाना; लेकिन इस काम के लिए ‘समय’ से वह आज नहीं मिलना चाहती, कल पर टालती है।

मानसिक-चरित्र की दृष्टि से आज की स्त्री को आसपास के समाज द्वारा मुख्यत: दो डरों से ग्रस्त पाते हैं—1-त्यागे जाने से डरी हुई और 2-अवहेलित होने से डरी हुई।  प्रत्येक स्त्री में कम या ज्यादा इनमें से कोई एक भय अवश्य बना रहता है। इस प्रकार उनके चार प्रकार निश्चित कर सकते हैं—आश्वस्त, जरूरतमंद, निर्भीक और भयभीत। इन सब की अलग-अलग व्याख्या भी की जा सकती है, लेकिन यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि स्त्री के इन सभी चरित्रों पदार्पण दासोत जी की समीक्ष्य लघुकथाओं में नहीं हो पाया है।

फिर भी, किसी ‘ज़रूररतमंद’ औरत के मनोविज्ञान को समझना ज़रूरी है। क्यों? इसलिए कि अगर आप उससे परिचित हैं तो अवश्य ही अपने साथ उसके बर्ताव को आसानी से झेल सकते हैं, अन्यथा नहीं।  कुछ महिलाएँ सबसे अधिक स्वयं को नकारे जाने की चिन्ता से ग्रस्त रहती  है। अपने विचार और मनोभावों को जाहिर करने में उन्हें लज्जा का अनुभव होता है। बावजूद इसके, वह भावनात्मक रिश्ता बनाए रखने को अपने दिल की गहराई से चाहती है। वे दूसरे लोगों के साथ अविश्वसनीय बनी रह सकती हैं ;लेकिन इस बात से भयभीत रहती हैं कि उन्होंने अगर किसी पर विश्वास किया तो वह उनके साथ विश्वासघात न कर दे, उनका हृदय न तोड़ दे। इन स्त्रियों में शर्मीलापन होता है लेकिन शर्मीलेपन की उस परत के नीचे संदेह छिपा होता है। ऐसी स्त्रियों का विश्वास जीतना बड़ी टेड़ी खीर साबित होता है। पारस दासोत की ‘नाइट गाउन’,‘शयनकक्ष की कुंडी’,‘घर में अकेली वह’,‘बिस्तर’,‘सृष्टि’ अपनी अनेक लघुकथाओं में पारस दासोत ‘जरूरतमंद’ स्त्री का चित्रण तो करते हैं, लेकिन काम-कुण्ठा से आगे की उसकी चेतना को छू नहीं पाते। यह एक विचारणीय तथ्य है कि स्त्री सिर्फ काम-कुण्ठित प्राणी नहीं है। उसकी भावनाओं को शरीर से अलग भी समझने की जरूरत है जिससे ये लघुकथाएँ वंचित हैं। स्त्री मनोविज्ञान की दृष्टि से लघुकथाओं को पढ़ते हुए मुझे पारस दासोत जी में मानववादी दृष्टि की बजाय पुरुषवादी दृष्टि का अधिक दर्शन होता है। उनकी लघुकथा पुत्रवधू का शीर्षक मेरी इस धारणा की पुष्टि करता है क्योंकि भूखी माँ को भोजन की बजाय नींद की गोली देने की अनैतिकता में पुत्र भी तो शामिल है!

भारतीय दर्शन मनुष्य के जीवन में चार पुरुषार्थ निर्धारित करता है—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष। इनमें काम को पहले स्थान पर रखा गया है, परन्तु यह काम सेक्स के अर्थ तक सीमित नहीं है, व्यापक है। जहाँ तक सेक्स का सवाल है, बेशक जीवन की सुचारुता का वह विशिष्ट अवयव है। स्त्री हो या पुरुष, सेक्स-तुष्टि उसे अनेक मानसिक विचलनों से बचाने वाला, मनुष्य होने के हेतु से सकारात्मकत: जोड़े रखने वाला, उसकी रचनात्मकता को बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण अवयव है। पारस दासोत की ‘एक सत्य’ इस तथ्य की पुष्टिस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती है। ‘जागृति’ का शीर्षक कथ्य के अनुरूप नहीं प्रतीत होता। घटना पितृसत्ता से विद्रोह की है, जागरण की नहीं।

शरीर का गुणधर्म मन:स्थिति से संचालित होता है, इस तथ्य की पुष्टि दर्शन भी करता है और मनोविज्ञान भी। अपने देश में हिजड़ा समुदाय आम तौर पर ‘स्त्री’ भाव के साथ रहता है। अत: उनमें स्वयं के स्त्री होने सम्बन्धी मानसिक विकार पैदा हो जाना सामान्य समझा जाना चाहिए। ‘आँचल की भूख’ इस विकार की यथार्थ प्रस्तुति है। ‘छूट की छीनी हुई छूट’ एक बेहतरीन लघुकथा है लेकिन इसके शीर्षक में पुरुषवादिता नज़र आती है। संयुक्त परिवारों में परस्पर संवाद का एक रूप परस्पर विवाद भी है। घर के सदस्य लड़-झगड़कर मन का मैल साफ कर लेते हैं और सामान्य दिनचर्या में लौट आते हैं। ‘लाड़ली बहू’ में इस स्थिति का जीवन्त चित्रण देखने को मिलता है।

अपने रूप-सौंदर्य की ही नहीं, अपने परिधान आदि की प्रशंसा सुनना भी महिलाओं की आम मनोवैज्ञानिक कमजोरी माना जाता रहा है; लेकिन अपने करियर के प्रति सचेत आज की नारी ने कुछेक पारम्परिक मनोवैज्ञानिक धारणाओं को झुठलाकर रख दिया है। पारस दासोत की लघुकथा ‘उसका ब्लाउज़’ की पत्नी को पारम्परिक चेतना की स्त्री कहा जा सकता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्मश्लाघा पाने को लालायित रहने जैसी कुछेक मानसिक परम्पराएँ व्यक्ति में हमेशा जीवित रहती हैं। तथापि यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि स्त्री मनोविज्ञान सम्बन्धी उनकी लगभग सभी रचनाओं में ब्लाउज, चोली, कुरता-समीज़, आइना, बाथरूम, सुहागरात, भूख आदि के काम-कुण्ठित चित्र ही अधिक दृष्टिगोचर होते हैं, प्रगतिशील मानसिकता के चित्र नहीं। ‘झुबझुबी’ जैसी कुछेक रचनाएँ तो हास्यास्पद हो गई हैं। एक अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य को नहीं सबसे अधिक स्वयं को ही प्यार करता है। यह अलग बात है कि स्वयं को प्यार करने का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में अधिक पाया जाता है। यह भी देखा जाता है कि स्वयं को प्यार करने के क्रम में स्त्रियाँ कभी-कभी अत्यधिक स्वार्थी और हिंसक भी हो उठती हैं। ‘प्यारे का प्यार’ तथा ‘आइ लव यू’ स्वयं पर ही मोहित रहने के तथ्य का उद्घाटन करती है।

तिजोरी की चाबी और गहनों पर कब्जा—ये दो भी महिलाओं की आम मानसिक कमजोरियों में शामिल हैं। इन बिन्दुओं पर पारस जी ने ‘सत्ता की कोख में छिपा डर’,‘उसकी ताकत’ तथा ‘गहना’ लघुकथाएँ रची हैं।

प्राकृतिक रूप से लड़कियों के शरीर में आयु-विशेष के आगमन पर कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जो लड़कों के शरीर से भिन्न होते हैं। यह भी ठीक है कि यह परिवर्तन उन्हें भी रोमांचित करता है। लेकिन यह ठीक नहीं प्रतीत होता कि यह रोमांच जीवन में आगे बढ़ने के उनके इरादों में बाधा बनता है और वे बस्ता टेबिल पर पटककर सबसे पहले इस रोमांच की ओर अग्रसर होती हों, जैसा कि पारस जी ने लघुकथा ‘पहला मिलन’ में दिखाया है। उनकी ‘परतों के नीचे दबी चाह’ भी स्त्री के उस पारम्परिक मनोविज्ञान को ही दर्शाती है, जिसे आज की स्त्री ने काफी पीछे छोड़ दिया है।

रंग-रूप, चाल-ढाल, नाज़ो-अदा और उम्र आदि के मद्देनज़र अनाकर्षक महिलाएँ पुरुषों के द्वारा ‘बहिनजी’ सम्बोधित होती हैं, यह बात वे अच्छी तरह जानती हैं। यही कारण रहा कि बस में यात्रा कर रही ‘दिग्भ्रम’ की काली कलूटी यौवना अपने युवा सहयात्री से ‘बहिनजी’ सम्बोधन पाकर हँस पड़ती है; लेकिन जब वह पाती है कि युवा सहयात्री ने सद्भाववश उसे ‘बहिनजी’ कहा था ,तब शर्मिंदा भी होती है और उससे क्षमा भी माँगती है। ‘उलाहना’ स्त्री के अपने अस्तित्व को पाने की व्यथा कहती है।

पारस दासोत की लघुकथाओं में चित्रित महिलाओं/युवतियों को क्षुद्र मानसिकता वाली काम-विक्षिप्त स्त्रियाँ भी माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि काम की यह विक्षिप्तता इन चरित्रों को गढ़ने वाले कथाकार के मनो-मस्तिष्क में भी समाई हुई है अन्यथा वह इनसे इतर भी स्त्री मानसिकता के चित्र अवश्य उभारता। ‘गहरी चाहना’ में युवतियों के स्तनों की तुलना प्रकारान्तर से मन्दिर के गुम्बदों से की गई है। ‘दो सहेलियाँ’,‘दाँव’,‘एक चाल’,‘नाइट गाउन’ और ‘दिशा की ताकत’ में कथाकर ने भूख को पात्र बनाया है ;लेकिन उसकी बिम्बात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग वे इन लघुकथाओं में नहीं कर पाए। ‘कुछ लेट चलें’ की नायिका भी भोग की जीती-जागती तस्वीर है। ‘वासना की अंधी भूख’ को यद्यपि फ्रायड के एक सिद्धांत-विशेष पर आधारित करने का यत्न किया है ,तथापि यह भी सत्य है कि फ्रायड का उक्त सिद्धांत सर्वमान्य सत्य नहीं है। उसे मातृत्व की भावना पर कलंक के रूप में जाना जाता है। भोगवादी और बाज़ारवादी महिला-चरित्र को ‘बिल्ली की रणनीति’ में कुशलतापूर्वक दर्शाया गया है। पारस जी की कुछ लघुकथाएँ प्रेमी-प्रेमिका अथवा पति-पत्नी के बीच शरीर-भोग से पूर्व और पश्चात की यथार्थ मानसिकता पर केन्द्रित हैं। इनमें ‘अपराध’ को उत्कृष्ट माना जा सकता है, तो ‘शुभागमन’,‘बात ही तो है’ को सामान्य और ‘गुल्लक’,‘ठेंगा’ को नि:कृष्ट।

नि:संदेह, पारस दासोत जी की अनेक लघुकथाएँ इस लेख की चर्चा में आने से वंचित रह गई हैं, लेकिन उनमें व्यक्त ‘वस्तु’ इस लेख में अवश्य समाहित है। मैं समझता हूँ कि दासोत जी की स्त्री मनोविज्ञान विषयक लघुकथाओं और इस लेख में व्यक्त कुछ विचार समकालीन हिन्दी लघुकथा में स्त्री मानसिकता के कुछ अनकहे तथ्यों व कथ्यों को रचने व रेखांकित करने में सहायक सिद्ध होंगे।

अंत में, यह लेख पारस दासोत जी की लघुकथाओं में विशेष तौर पर स्त्री मनोविज्ञान को रेखांकित करते हुए लिखा गया है, अत: पारस जी के लघुकथा लेखन की भाषा, शैली, शिल्प आदि पर विचार प्रकट करने से स्वयं को अलग रखा है। अस्तु।

सम्पर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 / मोबाइल : 8826499115

संश्लिष्ट सृजन-प्रक्रिया

September 30, 2016, 11:39 am

रचनाकार का सोचा हुआ आशय अभिप्राय, विचार या अनुभूति रचना के माध्यम से पाठक तक कैसे संप्रेषित हो पाता है? अपनी बात वह दूसरों तक कैसे और कितने सफल एवं सही और किस रूप में संप्रेषित कर पाता है? इसका जायजा रचना-विधान सम्बन्धी कई पहलुओं और प्रश्नों के उत्तर खोजने पर लिया जा सकता है।

रचना का आशय, विचार, बात, अनुभूति या अभिप्राय, रचना में आये प्रसंगों, घटनाओं, सन्दर्भों, प्रश्नों, पात्रों, संवादों, वाक्यों, संवेदनाओं के प्रस्तुतीकरण में अन्तर्व्याप्त रहता है। लघुकथा अपने आप में स्वतन्त्र और सम्पूर्ण कला है।

लघुकथा के शिल्प को लेकर आज जितनी चर्चा हो रही है वह निःसन्देह लघुकथाकारों के शिल्प के प्रति जागरूकता का प्रमाण है और यह सजगता स्वाभाविक है। लेकिन लघुकथा विधा के मूलतः जीवन्त गद्य रूप को नजरअंदाज करके कई निरर्थक सवालों को लघुकथा से जबरदस्ती जोड़ा जा रहा है, जोकि लघुकथा को अगम्भीर, सीमित, अस्पष्ट एवं अपूर्ण साहित्य सिद्ध करते हैं। इनमें से कई कुछ प्रश्न उल्टा रचना-विधान की दृष्टि से लघुकथा की सीमाएँ बांधते दिखते हैं…… जिससे सिद्ध होता है कि लघुकथा वस्तु को उसकी समग्रता के साथ प्रस्तुत करने में अक्षम है…… जबकि लघुकथा एक सार्थक, स्वतन्त्र एवं संभावनाशील विधा है और जीवन के यथार्थ अंश, खण्ड, प्रश्न, क्षण, केन्द्र, बिन्दु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करती है।अत्यधिक आग्रहों के कारण लघुकथा की मूल संवेदना तो खण्डित हो ही जाती है…. उसके कथ्य में अविश्वसनीयता, अपूर्णता और शिल्प में असहजता और कृत्रिमता आ जाती है।

कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती। रचनाकार जब जीवन की सूक्ष्म, गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं।

जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों में रचना की मूल संवेदना निश्चित करने के बाद रचनाकार के सामने संप्रेषण की समस्या उपस्थित होती है। कथ्य के अनुरूप शिल्प माध्यम ही इस समस्या का एकमात्र हल है। लघुकथा का रचना-विधान एक यन्त्र-क्रिया की भांति निश्चित नहीं किया जा सकता। अगर यह टेकनीक एकदम निश्चित कर दी जाती है तो रचनाकार रचनाकार न कहलाकर केवल टैक्नीशियन कहलायेगा। निर्धारित रूपों, मात्राओं, अवधियों और सीमाओं में लघुकथा के कथानक, चरित्र, संवाद…. उद्देश्य आदि को देखा, नापा और मापा जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी संभावनाशील विधा के सामर्थ्य, सार्थकता और संभावनाओं पर अंकुश लगाने जैसा है। लघुकथा एक जीवन्त विधा है। उसके अंग प्रत्यंग की जाँच टुकड़ों में निर्धारित प्रतिमानों के तहत नहीं की जानी चाहिए।

रूपबन्ध की दृष्टि से लघुकथा एक इकाई है और उसे उसके संश्लिष्ट रूप में ही ग्रहण किया जाना चाहिए। पाठक उसे एक इकाई के रूप में लेता है। कथनक चरित्र, संवाद, भाषा उद्देश्य आदि के सामंजस्य से लघुकथा बनती है। वस्तुतः लघुकथा के ये सभी तत्व अविभाज्य हैं और लघुकथा के उक्त समस्त तत्वों के सामूहिक रूप से सम्पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करके ही रचनाकार अपने आशय को संप्रेषित कर सकता है।

हालाँकि लघुकथा कहानी की ही तरह कथा और शिल्प की संश्लिष्ट इकाई है। कथा और शिल्प का सन्तुलन ही लघुकथा की संप्रेषण-शक्ति बनता है। क्योंकि लघुकथा की अपनी एक स्वतन्त्र एवं सम्पूर्ण उपस्थिति है और लघुकथा कथ्य और शिल्प की दृष्टि से अधिक सुगठित, संश्लिष्ट  और संघटित रूप है। लघुकथा के एक कलात्मक सृष्टि होने के कारण इसका शिल्पगत तात्त्विक विवेचन कला की सामान्य अवधारणाओं के तहत ही किया जा सकता है। लघुकथा में सख्त अनुशासन, अधिक कारीगरी, अतिरिक्त कुशलता, गहन रचनात्मक दृष्टि एवं सृजनात्मक प्रतिभा की मांग की जा सकती है।

शिल्प सम्बन्धी लघुकथा की विवेचनाओं में कथानक की संक्षिप्तता, पात्रों की सजीवता एवं प्रमुखता वातावरण की सुन्दरता, संवादों की मार्मिकता एवं मुखरता वगैरह-वगैरह जैसी सतही बातें कही जाती हैं जोकि लघुकथा की बजाय ‘कहानी’ के शिल्प सम्बन्धी विश्लेषणों के लगभग नजदीक जा पहुँचती हैं और लघुकथा के औसत शिल्प को समझ पाना और लघुकथा के शिल्प विधायक तत्वों की विशेषताएँ स्पष्ट समझ पाना असम्भव नहीं तो कठिन तो हो ही जाता है। निश्चित रूप से लघुकथा जैसे लघु-कथारूप के शिल्प विधायक तत्त्व उसके अनुरूप एवं विशिष्ट होंगे जो उसे सुगठित एवं संश्लिष्ट रूप दे सकें।

लघुकथा क्योंकि न्यूनतम शब्दों में अधिकतम व्यंजनता की सामर्थ्य रखती है, इसलिए लघुकथा की सृजनात्मक अपेक्षाओं को पूरा करना अधिक चुनौतीपूर्ण है।लघुकथा का शिल्प उसकी विशिष्ट अन्तर्वस्तु की आन्तरिक माँग और विवशता का परिणाम है- जिसमें गहनवस्तु, – चयन से लेकर तीव्र तीक्ष्ण लेखकीय दृष्टि के योग से उसे सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाया जाता है यानी कि कथा साहित्य के अन्य रूपों की भांति लघुकथा में भी अनिवार्य रूप से तत्व योजना रहती है। लघुकथा जैसी सृजनात्मक सम्भावनाओं से युक्त साहित्यिक विधा की मूल संवेदना, संप्रेषण शक्ति और तात्त्विक विशिष्टताओं को जानना आवश्यक हो जाता है।

लघुकथा की सही जमीन उसका कथापन ही है। सही शिल्प के अभाव से कथापन सार्थक नहीं हो सकता और यदि शिल्प कथानक को नये आयाम भी दे पाये तो रचना को और अधिक सार्थक और उत्कृष्ट बना दे सकता है।लघुकथा के स्वीकार्य तत्वों के सूत्र अत्यन्त बारीकी, कारीगरी एवं कुशलता से आपस में गुंथे हुए रहते हैं।

वस्तु, पात्र, संवाद, उद्देश्य आदि तत्त्वों की दृष्टि से कहानी लघुकथा और उपन्यास तीनों में मोटे तौर पर समानता है क्योंकि तीनों गद्य रूप हैं और कथा तीनों के केन्द्र में है, लेकिन अन्य कथा-रूपों की तुलना में लघुकथा की कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केन्द्रीयता, एकतन्तुता और सांकेतिकता आदि होने के कारण लघुकथा का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है और यह भी कि,क्योंकि लघुकथा का जोर सूक्ष्मता पर है, इसलिए लघुकथा के तत्वों में तीक्ष्णता तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। उसके लिए संगत तत्वों के चुनाव के परिणामस्वरूप लघुकथा का शिल्प अधिक सुगठित और संश्लिष्ट होता है।

कहानी और लघुकथा के कथानक में अन्तर कैसे किया जाए? निश्चित रूप से लघुकथा के शिल्प के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक तत्व के रूप में कथ्य को गिना जा सकता है। लघुकथा के कथ्य में सांकेतिकता, सूक्ष्मता, गहनता, सहजता, प्रवाहमयता, स्पष्टता, सन्तुलन, सुसम्ब(ता, सघनता, नवीनता आदि गुण होने चाहिए।लघुकथा की सार्थकता, न्यून, सूक्ष्म, तीक्ष्ण, गहन, कथ्य के प्रस्तुतीकरण में ही नहीं ; बल्कि समस्त रचना में परिव्याप्त मानवीय संवेदना से उसके शिल्प विधान में संश्लिष्ट बुनावट, कसावट कलात्मकता और प्रभावान्विति लाने तक है ।

लघुकथा के प्रमुख तत्वों के सापेक्षिक महत्त्व को देखा जाए तो कथ्य को लघुकथा का मूल तत्त्व माना जा सकता है।लघुकथा में वर्णन नहीं विश्लेषण, महज चित्रण नहीं यथार्थबोध, अवलोकन नहीं पड़ताल, विवरण नहीं संकेत आदि पर अतिरिक्त बल दिया जाता है।

जीवन-सत्यों के किसी प्रसंग, खंड, अंश, प्रश्न, स्थिति विचार, कोश, अर्थ अथवा विशिष्ट चरित्र में लघुकथा के कथानक की क्षमताएँ ढूँढी जा सकती हैं।

लघुकथा का कथ्य घटना और संवेदना का महत्त्व महज चित्रण की नहीं बल्कि लघुकथा में उन सूक्ष्म, गूढ़, गहन, तीव्र, प्रखर, स्पष्ट, मुख्य, सार्थक एवं तीक्ष्ण कथा-रूपों को लघुकथा अपना फार्म देकर हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्धि दे रही है, बल्कि पूर्णता दे रही है जिसके छूटे रह जाने से हिन्दी साहित्य की अपनी पूर्णता पर प्रश्न लग जाने का स्वाभाविक खतरा हो सकता है।युगीन स्थितियों, जीवनवास्तव, और परिवेश की तल्ख सच्चाईयों की व्यापक पड़ताल के बाद निष्कर्ष रूप से प्राप्त सूत्रों और स्रोतों की अभिव्यक्ति देना लघुकथा का सशक्त अभिव्यक्ति प्रकार होने का प्रमाण है।

कथावस्तु जिन अतिरिक्त सूत्रों से मिलकर बनती है जैसे प्रासंगिक कथाएँ, अन्त:कथाएँ (एपीसोड्स), उपकथानक और सहायतार्थ समाचार ब्यौरे आदि लघुकथा में ये अधिकांश प्रयुक्त नहीं होते। जबकि कहानी और उपन्यास में काफी हद तक इनका प्रयोग होता है। लेकिन यह भी नहीं कि लघुकथा की कथावस्तु केवल कथासूत्र ही है। लघुकथा का आकार लघु होने के कारण उसमें उपकथाएँ या प्रासंगिक अन्तर्कथाओं की जगह अधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा की यह एकतन्तुता, एकातानता, एकसूत्रता लघुकथा की अपनी विशिष्टता है। इसीलिए यह कहानी या उपन्यास न होकर लघुकथा है। वर्णनात्मकता और विवरणात्मकता की कमी के कारण सूक्ष्म कथानक अविराम गति से अपनी निश्चित दिशा में अग्रसर होता है, फलतः लघुकथा की कथावस्तु अत्यन्त प्वाइण्टड होती है।

लघुकथा का रूप-गठन और शब्द गठन संश्लिष्ट एवं सांकेतिक है। लघु कथाकार यह यों है, दरअसल यह इस तरह से समूचा कथ्य उसी पर खड़ा करता है।इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर सम्पूर्ण लघुकथा के रूप में आकार पा लेता है।समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली लघुकथा में कथानक की एक सुगठित सुग्रथित, सुसम्बद्ध एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा आदि का निर्माण अत्यन्त सावधानी से करना पड़ता है और कथ्य के अनुसार ही लघुकथा के आकार यानी शब्द सीमा का भी निर्णय होता है।

घटना के अन्तर्विरोध को लक्षित कर युग के मुख्य अन्तर्विरोध की गहनता और जटिलता की सूक्ष्म पकड़ लघुकथा की सार्थकता की परिचायक है।अधिक तीक्ष्ण, गहन दृष्टि और सूक्ष्म मानवीय संवेदना, लघुकथा के सन्दर्भ में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कथ्य का गहन एवं सूक्ष्म चयन और उसकी उचित अभिव्यक्ति ही उसे मानवीय संवेदना से जोड़ती है और उसकी निष्पत्ति उसे अतिरिक्त महत्ता दिला जाती है।

कथ्य के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा लघुकथा में निरर्थक है अथवा सार्थक, इस पर गौर किया जाना चाहिए।सामान्यतः लघुकथा में छोटी से छोटी घटना में कितने अर्थ और संभावनाएँ ध्वनित हो सकती हैं, उन्हें विश्लेषित कर और पूर्णता प्रदान कर लघुकथा उसे मानवीय संवेदना के साथ जोड़ देती है क्योंकि छोटी से छोटी घटना भी विराट मानवीय संवेदना, निर्माण-क्षमता, संघर्ष और अनेक गहन गूढ़ अर्थ निहित हो सकते हैं। यानी छोटी से छोटी अनुभूतियों को विराट मानवीय संवेदना के स्तर पर मूर्त करना लघुकथा के सामर्थ्य का परिचायक है।

अनुभूतियों, मनःस्थितियों, आशयों और अभिप्रायों को घटना के माध्यम से घटना से सम्ब( भाव-स्थितियों को उद्घाटित किया जाता है।छोटी-छोटी घटनाएँ, जो हर पल घटती रहती हैं उनके समान्तर ;बाह्य और आन्तरिकद्ध रूप से भी कुछ घटता है। लघुकथा में स्थूल घटना ही घटित नहीं होती बल्कि घटना के साथ सूक्ष्म भाव स्थिति को भी उद्घाटित किया जाता है।

कई लघुकथाओं के मूल घटना पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी होती है। कई बार लघुकथा में इसका प्रभाव संवेदना ही प्रमुख हो जाता है। यानी उस प्रभाव संवेदना के परिणाम स्वरूप जो एक यातना पूर्ण मानवीय मनःस्थिति बनती है या संघर्षपूर्ण स्थिति के परिणाम स्वरूप जो कुछ घटता है, विचारणीय है कि क्या उसका उद्घाटन लघुकथा के सन्दर्भ में महत्त्व नहीं रखता? पहली घटना ही महत्त्व रखती है, जो कि केवल उस स्थिति का आरम्भ मात्र है? इससे जुड़े लघुकथा के काल अवधारणा और समस्या, स्थितियों के ट्रीटमेन्ट सम्बन्धी प्रश्न भी आ जुड़ते हैं।

हालाँकि लघुकथा के सन्दर्भ में किसी बड़े क्रिया व्यापार गढ़ी हुई कई मोड़ों वाली, काल्पनिक संयोगों से निर्मित, व्यापक काल में फैली अविश्वसनीय घटनाक्रम आदि बिल्कुल भी महत्त्व नहीं रखते।

घटना को केवल घटना के रूप में जिज्ञासा, कौतूहल गुदगुदाने या आश्चर्य के लिये सम्मोहित न कर घटना-मूल में मानवीय स्थितियों को संवेदना के स्तर पर उकेरना लघुकथा का उद्देश्य ही होना चाहिये। स्पष्ट है कि लघुकथा घटनाओं और स्थितियों के संयोजन के माध्यम से युगीन स्थितियों और मानवीय संवेदनाओं को ही व्यंजित नहीं करती बल्कि उन अन्तर्विरोधों और विसंगतियों को बेपर्दा करने की पर्याप्त क्षमता भी रखती है।

समकालीन लघुकथा में ज्यादातर दो परस्पर विरोधी घटनाओं या स्थितियों को लघुकथाकार उठाता है और उनके अन्तर को दिखाने का प्रयास करता है। कथनी-करनी के अन्तर को घटनात्मक स्थिति न भी माने तो भी अन्य उदाहरण दिये जा सकते हैं।छोटी-सी घटना के परिणामस्वरूप मानवीय सत्य व स्थिति का उद्घाटन लघुकथा करती है। एक सूत्र में से अनेक रेशे निकल सकते हैं। यदि इन सभी की एक संश्लिष्ट बुनावट कर एक सुगठित रचना की जाये तो क्या वह सार्थक नहीं होगी !

वैसे भी घटनाओं, गिनतियों और अतिरंजना में नहीं उनकी सहजता या जटिलता और उसमें निहित अर्थों के दृष्टिकोण से परखा जाना चाहिये। रचनाकार का आशय उसके आब्ज़रवेशन, उसके विचार, उसकी संवेदनाएँ, उसका अभिप्राय, उसका मंतव्य किस रूप में किन-किन घटनाओं के माध्यम से संप्रेषित हो पायेगा, अधिक महत्त्व रखता है, न कि यह कि घटना या बिम्ब एक हो अथवा एकाधिक। जहाँ तक हो सके एकाधिक घटनाओं के लघुकथा में चित्रण से बचा जाना चाहिये।

सूक्ष्म से सूक्ष्म बिम्ब, संकेत एवं प्रतीकों का चित्रण सशक्त भाषा के माध्यम से किया जा सकता है जिससे शिल्प की दृष्टि से और अधिक उत्कृष्ट लघुकथायें लिखी जा सकती हैं।बिम्बों का प्रयोग रचना की शिल्पगत कलात्मकता सुन्दरता या उसकी मूल संवेदना को नये अर्थ देने के लिये किया जाता है। एक या एकाधिक बिम्बों के प्रयोग की कोई सीमा या निर्धारण लघुकथा के सन्दर्भ मंे बेमानी है। यह रचनाकार और उसकी प्रतिभा पर निर्भर करता है। एक ही सूक्ष्म घटना या बिम्ब का चित्रण, सार्थक लघुकथा के लिये आदर्श हो सकता है, अनिवार्य नहीं।

किसी भी समर्थ विधा की तरह लघुकथा के प्रमुख पात्र एक तरह से नियामक का कार्य करते हैं।लघुकथा के पात्रों का भी अपना महत्त्व है। कथानक को वहन करने, उसे गति देने, घटनाओं तथा स्थितियों के साथ संघर्ष करने, मानवीय स्थितियों का संप्रेषण और मानवीय मूल्यों की स्थापना पात्रों के माध्यम से की जा सकती है।पात्र कैसे भी स्थिर, गतिशील, जटिल, सरल, संघर्षरत, स्वाभाविक, सजीव, स्वतन्त्र, प्राकृतिक, अलौकिक, साधारण वर्ग के साधारण आदमी से लेकर विशिष्ट वर्ग के प्रतिनिधि पात्र तक कोई भी हो सकता है।

लघुकथा के कथा विन्यास के सूक्ष्मीकरण के कारण पात्रों की लघुकथा में विशेष अहमियत है। पात्रों के जरिये उसके परिवेश, जीवन से सम्बन्धित अवसाद, उल्लास स्पन्दन, संवेदना और सहानुभूति आदि और उसमें उसकी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया के निरीक्षण का उपयोग लघुकथा में किया जा सकता है। प्रमुख पात्र अपनी संघर्षशक्ति या विवशता में प्रमुख मूल्यों का छोड़ता-तोड़ता हुआ मानवीय मूल्यों की व्याख्या कर जाता है।

लघुकथाकार घटनाओं तथा स्थितियों के चित्रण के साथ-साथ सांकेतिक रूप से पात्रों के चरित्रों को भी स्पष्ट करते चलते हैं। संवादों के सहायता से रचनाकार की कुशलता से और भाषा की व्यंजकता से स्वयंमेव ही पात्र का चरित्र-चित्रण होता जाता है। लघुकथाकार विभिन्न परिस्थतियों का सृजन करके उनके माध्यम से चरित्र-चित्रण की सहजात, मौलिकता, स्वाभाविकता और विश्वसनीयता लाने के लिये पात्रों के सहारे उनके नैतिक, अनैतिक, शुभ-अशुभ, भले-बुरे, आचरण का औचित्य सिद्ध करते हैं।

हालाँकि लघुकथा की पात्रगत अवधारणाएँ काफी कुछ कहानी से साम्य रखती हैं। समकालीन हिन्दी कहानी में अधिकतर प्रकृतिगत पात्र जैसे पेड़-पौधे आदि उपादान नायक नहीं बनते जबकि लघुकथा में ये उपादान क्या केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं? इस प्रश्न के सन्दर्भ प्रथमतः तो यह धारणा ही गलत है कि ये प्रकृतिगत उपादान कहानी में नायक नहीं बनते। बनते हैं, लेकिन कहानी अन्य प्रकारों से प्रकृतिगत, अलौकिक मानवेतर और अमूर्त पात्रों के क्रमशः तिरोहित होते जाने और यथार्थ चरित्रों की प्रतिष्ठा के पीछे अनेक- समय, समाज, जीवन और यथार्थ सत्य आदि कारण सक्रिय रहे हैं।

यह रचनाकार के सृजनात्मक सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह अपने आशय या अनुभूति को प्रकट करने और उसे रचना में अन्तवर््याप्त करने के लिये कैसे पात्रों का चुनाव करता है। यथार्थ मानवीय या प्रकृतिगत और वे पात्र उसके आशय को सफलतापूर्वक संप्रेषित भी कर सकें।

विश्व लघुकथा साहित्य को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के अनेक ख्यात रचनाकारों ने इस प्रकार के प्रकृतिगत – पेड़-पौधे वगैरह को लघुकथा के मुख्य पात्र बनाकर सफल रचनायें दी हैं, बल्कि विश्व लघुकथा में मोटे तौर पर ऐसी ही लघुकथाओं का आधिक्य है। हिन्दी लघुकथा में भी ऐसी अनेक सफल लघुकथाएँ हैं।

हालाँकि लघुकथा का अपने मुख्य पात्रों के प्रति ऐसा कुछ विशेष पात्रगत आग्रह नहीं है, और न ही ऐसा कोई निर्धारण किया ही जाना चाहिए।

अपनी बात किस प्रकार से पात्रों के माध्यम से कही जाये जो कि सहज, सफल और सरलता से संप्रेषित हो पाए, यह रचनाकार पर निर्भर  है।प्रकृतिगत, अलौकिक और अमृतपात्रों के लघुकथा का मुख्य पात्र के रूप में आने से यह जबरदस्त खतरा तो अवश्य हो ही जाता है कि लघुकथा-लघुकथा न रहकर भावकथा, नीतिकथा या बोधकथा होकर रह जाए, और इससे संप्रेषण की सहजता और सरलता में भी थोड़ा व्यवधान आ सकता है। दरअसल इस तरह के पात्रों का निर्वाह एक चुनौती है और इस चुनौती को कई समर्थ रचनाकारों ने स्वीकारा है और सफल भी रहे हैं।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लघुकथा में कैसे भी मानवीय या प्रकृतिगत पात्र हो सकते हैं।

लघुकथा में कथोपकथन का पात्रानुकूल प्रवहमान, स्वाभाविक, सजीव संगत व्यंजना-शक्ति से युक्त समयानुकूल परिस्थितियों के अनुकूल सुसम्बद्ध अर्थपूर्ण,  साभिप्रायः,  संक्षिप्त,  सरस, ध्वन्यात्मक, भावपूर्ण, मार्मिक, मुखर, प्रभावोत्पादक, जानकारी पूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या अभिप्रायः संवादों के जरिये सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है।

कथोपकथन लघुकथा की क्षिप्रता की रक्षा करते हैं। संवादों में अभिव्यंजना व ध्वन्यात्मकता होनी चाहिये व भाषा पात्रानुरूप।जहाँ तक संवाद का प्रश्न है उसे लघुकथा का अत्यावश्यक तत्व नहीं कहा जा सकता और बिना किसी एक भी संवाद के भी लघुकथा लिखी जा सकती है।  लेकिन संवादों की उपस्थिति लघुकथा में उपरोक्त कई विशेषतायें लाकर उसके प्रभाव को बढ़ा देती हैं। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यन्त प्रभविष्णु अंश होता है और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य और महत्त्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं। परिणामतः कथोपकथन लघुकथा की तात्विक विशेषताओं में से एक है।

कुछ रचनाकार कथोपकथन में अपनी रचना शुरू करते हैं और कथोपकथन में ही समाप्त करते हैं। उसे लघुकथा संवाद कहा जा सकता है या लघुकथा?केवल संवादों की सहायता से कई विश्व स्तर की कहानियों की रचना सफलतापूर्वक की गई हैं। कहानी ही नहीं कुछ उपन्यास भी केवल कथोपकथन से शुरू और कथोपकथन पर ही खत्म हुए हैं।लघुकथा के सन्दर्भ में संवादों को ध्यान में रखकर उसे पूर्ण विधा या कोई अतिरिक्त विशेषण ;लघुकथा संवादद्ध देना सही नहीं कहा जा सकता क्योंकि संवादों के अतिरिक्त भी कुछ लघुकथा के बाकी तत्व कथानक, पात्र, भाषा, उद्देश्य आदि भी मौजूद रहते हैं।

केवल संवादों के बिना पर उसे नाटक या एकांकी नहीं कहा जा सकता। नाटक या एकांकी दृश्य-श्रव्य रूप हैं, जिसमें संगीत, अभिनय, ध्वनि, मंच-स्थान, साज-सज्जा आदि तत्वों की अपेक्षा रहती है, लघुकथा में नहीं……

लघुकथा अपनी सूक्ष्म घटना को अधिक प्रभावशाली व संवेदनशील बनाने के लिये पात्रों की बात उन्हीं मुख से बिना किसी आश्यक फैलाव, टिप्पणियों व लफ्फाजी के रखती है। वर्णन और विवरण के शब्द बाहुल्य के पचड़े में पड़ना किसी भी कुशल रचनाकार का लक्ष्य नहीं हो सकता। लघुकथाकार अपनी तरफ से कुछ भी न कहकर पात्रों के सुख-दुःख उन्हीं की जुबान से कहलता देते हैं। संवादों से ही कथ्य धीरे-धीरे खुलता चला जाता है।

इस संवाद शैली का चुनाव रचनाकार की अपनी समझ, रुझान और सामर्थ्य पर निर्भर है, जिससे वह अपनी अभिव्यक्ति इसी प्रकार से करने में सहजता, सरलता और सम्पूर्णता का अनुभव करता है।

वैसे भी लघुकथा में संवादों की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई लघुकथाओं की मूल संवेदना इसके पात्रों द्वारा उच्चारे गये संवादों के द्वारा ही खुलती है। जैसे एक लाजा था, वह बहुत गलीब था… (कहूँ कहानी)।

ऐसा नहीं है कि कहानी कुछ दिनों (या महीनों) और उपन्यास कुछ वर्षों (या दशकों, शताब्दियों) का ऐतिहासिक कालानुक्रमिक वर्णन हो। सृजनात्मक विधाओं को काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, तो लघुकथा को कुछ घण्टों के घटनात्मक इतिवृत्त के रूप मानना कहाँ तक उचित होगा? कुछ क्षणों या मिनटों या कुछ घण्टों में लिखी गई रचना क्या लघुकथा ही मानी जाये तो हिन्दी और विश्व साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि कई कहानियाँ कुछ ही मिनटों या घण्टों की घटनाओं और कई उपन्यास कुछ घण्टों या एकाध दिन (सात घण्टे, एक रात…..) की कालावधि में सिमटे हुए हैं। क्या उन्हें भी लघुकथा मान लिया जा सकता है?

हालाँकि कई श्रेष्ठ लघुकथाएँ जीवन के हर क्षण का मूर्त चित्र प्रस्तुत करती हैं। क्षण जो अतीत और भविष्य के बीच एक कड़ी होता है। लघुकथा में यह जो क्षण का चित्रण होता है वह इकहरा, आकस्मिक और सम्पूर्ण हो सकता है। ऐसा क्षण है जो अपनी आकस्मिकता में ही जीवन के कई अर्थ और आयामों को आलोकित कर सके। एक आदर्श एवं सार्थक लघुकथा में क्षण का चित्रण होता है। काल की न्यूनता उसे सार्वकालिक बना दे सकती है।

लेकिन पृष्ठभूमि में घटित हो चुकी किसी घटना के चित्रण के बिना उचित प्रभाव संवेदना को क्या रेखांकित नहीं किया जा सकता, जिससे रचना के अपूर्ण रह जाने का खतरा स्वाभविक है। यहाँ फ्लैश बैक को एक सहज हल के रूप में लाया जा सकता है लेकिन उसी से यह प्रश्न भी उठ जाता है, क्या उससे रचना में सहजता, सरलता, ग्राह्यता और स्वाभाविकता के चूक जाने पर वांछित प्रभाव उत्पन्न हो सकता है? यदि फ्लैश बैक को स्वीकारा जा सकता है तो उस रूप में उसकी अनिवार्यता क्यों? यह रचनाकार पर निर्भर होना चाहिए। विश्व लघुकथा में काल के सन्दर्भ में कोई विशेष आग्रह नहीं दिखाई देता।

अगर लघुकथा में महीनों या वर्षों का कालानुक्रमिक बारीक अतिरंजित चित्रण सविस्तार किया जाये तो लघुकथा अपनी आकारगत विशिष्टता को खो देगी। उस रूप में महीनों या वर्षों का चित्रण अवश्य ही ‘कालदोष’, के रूप में आएगा।

आवश्यक स्थितियों में विस्तृत काल में फैले कथ्य को लघुकथा में समय परिवर्तन (अन्तराल) के संकेतों द्वारा संदर्भित व सूचित किया जा सकता है।लघुकथा का आकार लघु है। इसलिए कथ्य के अनुसार समय के थोड़ा बड़े हिस्सों या बहुत फलक को बिना अतिरिक्त वर्णन या विवरण के सांकेतिक रूप से अपनी सृजनात्मक प्रतिभा से लघुकथा को अधिक सार्थक बनाया जा सकता है।

एक सशक्त एवं आदर्श लघुकथा जीवन सन्दर्भों के क्षणांशों को सार्थक ढंग से प्रस्तुत करती है।लघुकथा में देशकाल या वातावरण की उपस्थिति कथानक और चरित्रों के अभीष्ट संवेदनात्मक लक्ष्य तक पहुँचने के लिये ही होती है न कि प्रकृति और बाह्य परिवेश के सहज वर्णन के लिये।

कोई भी जीवन्त रचना जीवन से आत्यंतिक रूप से जुड़ी होती है और जीवन देशकाल तथा परिवेश सापेक्ष होता है। किन्तु देशकाल या परिवेश का विस्तृत यथा तथ्य चित्रण लघुकथा के सन्दर्भ में वातावरण नहीं हो सकता और भी यह कि परिस्थिति देश, काल एवं परिवेशगत विवरण को ही वातावरण का पर्याय नहीं समझना चाहिये, लघुकथा के सन्दर्भ में इनकी मूल प्रकृति भिन्न है। वातावरण का निर्माण कथानक के अनुसार ही किया जाता है जो उसके मूल भाव को अभिव्यक्त करने का साधन होता है।

लघुकथा के सभी अवयवों को कलात्मक रूप से जोड़ने, पात्रों की बाह्य एवं आंतरिक मनःस्थिति का विश्वसनीय चित्रण करने और कार्य एवं परिस्थितियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिये वातावरण की आवश्यकता रहती है। परिवेश का गहन अध्ययन एवं सूक्ष्म आकलन लघुकथाकार के लिये आवश्यक है। लघुकथाओं में नियोजित घटनाओं, कार्य-व्यापारों का देशकाल सापेक्ष होना उसकी मूल संवेदनाओं को गहराने और उसमें प्रभावान्विति लाने मंे योग देता है।

लघुकथा में वातावरण-सृष्टि के लिये सूक्ष्म सांकेतिकता को आधार बनाया जा सकता है। वैसे भी लघुकथा का जोर क्योंकि सूक्ष्मता पर है, वातावरण जैसे सूक्ष्म तत्व के लिये गहनता व तीक्ष्णता लिये होना और भी आवश्यक हो जाता है।लघुकथा में वातावरण, देश काल की सूक्ष्म उपस्थिति या न्यूनता, लघुकथा सार्वकालिक व सार्वदेशिक व महत्त्व की रचना बना देती है।

अन्य रचना प्रकार की तरह लघुकथा के शीर्षक पर प्रथमतः गौर किया जा सकता है जैसे किसी मनुष्य की वैयक्तिक सत्ता के लिये उसका नाम मह्त्त्वपूर्ण होता है उसी प्रकार उतना ही बल्कि उससे भी अधिक लघुकथा के लिये शीर्षक होता है। लेकिन लघुकथा के शीर्षक में वर्णित-विषय मात्र की सूचना ही नहीं होती बल्कि कुछ विशेषताओं का होना भी आवश्यक है जिससे लघुकथा के सृजनात्मक सरोकारों को नये अर्थ दिये जा सकें। शीर्षक विषयानुकूल, स्पष्ट, आकर्षक, अर्थपूर्ण, कलात्मक, संक्षिप्त हो ही, साथ ही साथ रचना के स्पष्ट वैचारिक स्तर को स्पष्ट कर उसे नये आयाम दे सके। क्योंकि लघुकथा में रचनाकार का अपना आशय विस्तार से वर्णन करने की अधिक छूट नहीं मिलती। इसलिए शीर्षक को एक शब्द (एकाधिक शब्दों में भी हो सकते हैं) में अपने अभिप्राय का स्पष्ट संकेत कर देने में सक्षम होना चाहिये। साथ ही नये अर्थ भी निकलने चाहिए।

लघुकथा के सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक रचना पर रचनाकार के व्यक्तित्व की छाप रहती है। इसी से भाषा-शैली में विविधता आती है। प्रत्येक रचनाकार का अपना शब्द चयन (या शब्द ज्ञान) वाक्य-विन्यास, भाषा-सन्दर्भ, सामर्थ्य, चिन्तन और विवेचन होता है। (कथन के अनुसार भी रचना के शिल्प में विविधता आती है)

संश्लिष्ट अभिव्यक्ति की सूक्ष्म व्यंजना हेतु रचनाकार को सशक्त भाषा की आवश्यकता होती है क्योंकि रचनाकार के आशय, अनुभूति या विचार को दूसरों तक सम्प्रेषित करने के लिये, भाषा एक अनिवार्य माध्यम है।

कथ्य के अनुरूप जीवन्त भाषा जो कि सहज, सरल, प्रवाहात्मक, आलंकारिक चित्रात्मक, प्रतीकात्मक, प्रभविष्णु, बिम्बात्मक, सांकेतिक हो जो कि कथ्य को प्रभावी और सहज ढंग से सम्प्रेषित कर सके।

भाषा की दृष्टि से लघुकथा का घनत्व इतना अधिक होता है और शब्दों की मितव्ययिता इतनी अधिक सही और पूर्ण होती है कि बिना किसी वर्णन-विवरण फैलाव या बिखराव के अपनी प्रभावोत्पादकता खोये बिना कुछ ही शब्दों में लघुकथा कथ्य को संप्रेषित कर जाती है।

लघुकथा में गहन आंतरिक संवेदना समकालीन जीवन-सत्यों के अनुरूप जीवंत स्थितियों को समेटने एवं चित्रण करने वाली भाषा की जरूरत होती है। लघुकथा में एक-एक शब्द का अपना महत्त्व होता है। इसके अतिरिक्त एक-एक शब्द के अर्थों, शक्ति और सौन्दर्य की परख कर, काट-छाँट और तराश की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। लघुकथा में बोलचाल की भाषा भी अपने विशेष अंदाजेबयाँ के साथ आती है जो कि अर्थपूर्ण पात्रानुकूल होनी चाहिए।

लघुकथा में घटनाओं और मानवीय स्थितियों का निरूपण और संयोजन बिना इधर-उधर की बात किये और कोई वर्णन या विस्तार दिये न्यूनतम शब्दों में ही स्थितियों के महज प्रत्यक्षीकरण व मानवीय संवेदना को व्यंजित करने के माध्यम से किया जाता है।

न्यूनतम शब्दों में लघुकथा की मूल संवेदना को वहन करने और कथ्य और शिल्प को बांधने के लिये निश्चय ही अपेक्षाकृत अधिक सशक्त एवं सृजनात्मक भाषा की जरूरत होगी, जिसका एक-एक शब्द, एक-एक वाक्य अतिरिक्त कारीगरी, मंजाव और कुशलता की मांग करता है।

लघुकथा में नाटकीय लहजों, विशेषणधर्मी बड़बोले वाक्यों, आरोपित सन्दर्भों, कृत्रिम या दुरूह शब्दों से परहेज रहता है।

कम से कम शब्दों में अभिप्राय को कह डालने का लेखकीय सामर्थ्य लघुकथाकार में होना चाहिये। लघुकथा की भाषा अन्य रूपों की विकसित हदों से थोड़ा और आगे निकलती दिखाई देती है। भाषा के नये रंगों और रूपों की बुनावट और सजावट रचनाकारों की प्रतिभा पर निर्भर करता है। ऐसी अनेक उत्कृष्ट लघुकथाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं।

निश्चित रूप से लघुकथाकार किसी घटना का वर्णन करने के लिये नहीं बल्कि जीवनगत किसी सत्य को उद्घाटित करने के लिये रचना में प्रवृत्त होता है।

लघुकथा के अन्त में उद्देश्य की घोषणा न कर दी जाये बल्कि स्थितियों का विन्यास इस प्रकार से हो कि अपने आप इसकी गति एक परिणाम, विचार या अर्थ की ओर पहुँचे।

यह रचनाकार की सृजनात्मक प्रतिभा पर भी निर्भर करता है कि वह किसी प्रकार अपनी बात शुरू करता है और कहाँ खत्म…। रचना का आरम्भ बिन्दु या चरम सीमा की स्थिति का निर्धारण लघुकथा की कथ्यात्मक अपेक्षाओं के दबाव पर निर्भर करता है।

अन्य विधाओं की तुलना में लघुकथा में लम्बी-चौड़ी भूमिकाएँ बाँधने के लिए अवकाश नहीं रहता। लघुकथाकार अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्षिप्र गति से लघुकथा का आरम्भ करता है, जिसके कुछ विशेष निर्धारित नियम नहीं हैं। अप्रत्याशित, चित्र, विधानात्मक, सूचनात्मक, घटनात्मक, आकर्षक, तथ्यपूर्ण, कलात्मक शुरूआत एक अच्छी लघुकथा के लिये आदर्श हो सकती है।

रचना का समूचा प्रभाव उसके अन्त पर ही निर्भर है। समकालीन लघुकथा के अन्त में उपसंहार नहीं दिया जाता और न किसी समस्या का समाधन ही सुझाया जाता है। अन्त के इस बिन्दु पर आकर लघुकथा के सारे संकेत स्पष्ट हो जाने चाहिए। अधिकांशतः लघुकथाओं का अन्त चरम सीमा पर ही कर दिया जाता है और उसके परिणाम को लेखक पाठक के अनुमान पर छोड़ देता है। कई आकस्मिक और अप्रत्याशित अन्त वाली लघुकथायें भी लिखी गई हैं। लघुकथा का अन्त तीव्रतम, गहनतम, तीक्ष्णतम स्थिति पर लाकर, अपना आशय या अभिप्राय स्पष्ट कर देता है।

कई लघुकथाओं में अन्तिम वाक्य रचना की मूल संवेदना को बड़े मार्मिक ढंग से कह जाने के लिये किसी पात्र के संवाद के रूप में भी आ सकता है जो कि मानवीय सत्य को उद्घाटित कर जाता है।

किसी जटिल समस्या से प्रेरित होकर लघुकथाकार सृजन में प्रवृत्त होता है। लघुकथा किसी भयावह संकट, जटिल समस्या, संश्लिष्ट जीवन, विकृत मानवीय स्थितियों, विषाक्त युगीन स्थितियों का यथार्थ प्रतीति से अवश्य ही जुड़ी होती है। इस यथार्थ प्रतीति को एक सार्थक लघुकथा का सुस्पष्ट वैचारिक स्तर तक ले जाती है। सही सुस्पष्ट वैचारिक स्तर का निर्माण ही लघुकथाकार का उद्देश्य होना चाहिये। इसी सुस्पष्ट वैचारिक स्तर में ही उक्त समस्याओं और उससे संघर्षों के चित्र आ सकते हैं। सायास प्रस्तुत किये गये समाधन लघुकथा के सन्दर्भ में बेमानी कहे जायेंगे।

गम्भीर विचार और तीखे द्वन्द्व-दंश वाली अपनी सृष्टि में संश्लिष्ट लघुकथा पाठक को अधिक दायित्वपूर्ण और समझने-सोचने और विचारने को विवश करती है। अपनी सृजनात्मकता में उत्कृष्ट एवं जीवन में गहन गम्भीर सत्य से युक्त लघुकथा पाठक को अधिक समझदार, सजग, सचेत और सतर्क करती है।

मानव की समस्याओं के स्रोतों और उसके परिवेश में सही अन्विति और सही इजहार देने वाली लघुकथा पाठक को उसकी पठन क्रिया के दौरान समझने और बाद में सोचने-विचारने के लिये उकसाती है। उसके लिये सहज दिशा निर्देशक चिहृ्नके अतिरिक्त व्यंजक संकेत के रूप में आती है।

लघुकथा में जीवन के तीव्र द्वन्द्व-दंश, गहन गम्भीर अर्थ, तीक्ष्ण सूक्ष्म अंश, युग सत्यों या तीव्र-तीक्ष्ण प्रश्नों की हैसियत को रेखांकित किया जाना चाहिए , जो कि पाठक को उसके अपने प्रश्न, समस्यायें या द्वन्द्व प्रतीत हों।

अपने परिवेश से लघुकथाकार एक अत्यन्त जटिल-सी समस्या का उठाता है और उसकी समग्र जटिलता, दुरूहता और भयावहता को मानवीय संवेदना से जोड़ता है और एक मानवीय आवेग उत्पन्न करता है।

मौजूदा समस्याओं से जूझते हुए पात्र के जरिये लघुकथाकार एक दृष्टिकोण विकसित करता है। परिणामतः विशिष्ट विचार-सृजन में रेखांकित हो पाते हैं, जो कि समस्या के समाधन में सहायक हो सकते हैं। लघुकथा में उद्देश्य की प्राप्ति प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होती है। समस्याओं का निदान करना लघुकथा में विशेष अर्थ रखता है।

भीषण रूग्णता और उसके व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभाव का विभिन्न कोणों और पार्श्वों से निदानात्मक दृष्टि से रूपायन लघुकथा में किया जाता है। यानी समस्याओं को मूर्त रूप में खड़ा करने में ही लघुकथा की सोद्देश्यता हो सकती है।

रचनाकार अपनी सृष्टि का मालिक होते हुए भी न्यायाधीश या निर्णायक नहीं हो जाता। अपनी विशिष्ट समझ के बावजूद उसके सुझाये हुए समाधान वैयक्तिक, सीमित, इकहरे, तात्कालिक और बेअसर हो सकते हैं।

पात्रों के समग्र संघर्ष के सहज स्वाभाविक परिणाम की रचना में रूपायित हो सकते हैं। व्यक्ति के इकाई रूप होने से व्यक्ति की समस्या और उसके संघर्ष को मानवीय संवेदना के मूर्तरूप में लाने की प्रक्रिया ही लघुकथा की सृजन प्रक्रिया होगी।

लघुकथा में नये दृष्टिकोणों, भावभूमियों, विषयों, विचारों और प्रयोगों के संप्रेषण के लिये नये शिल्प-रूपों को बराबर खोजा जाता है और उन्हें स्वीकृति भी मिलती रही है। परिणामतः लघुकथा का परिदृश्य व्यापक और विविध होता जा रहा है।

कहा जा सकता है कि लघुकथा का कथ्य, वस्तु, घटना चरित्र या वातावरण में से किसी एक को नहीं बल्कि उसका मिला-जुला स्वरूप सम्पूर्ण संवेगों और सम्पूर्ण चेतना को एकोन्मुख बना देता है।

लघुकथा में सूक्ष्म संदर्भों की खोज से गद्य साहित्य में सूक्ष्म अभिव्यंजना और सूक्ष्म सत्यों के उद्घाटन हुए हैं। लघुकथा अपने लघु विस्तार में ही जीवन की व्यापक विराटता को प्रस्तुत करती है।

युगीन सन्दर्भों के साथ-साथ अपने कथ्य और शिल्प को तराशते, संवारते जाना लघुकथा ही नहीं किसी भी साहित्यिक विधा की जीवंतता एवं सार्थकता का परिचायक है।

प्रतिभाशील लेखक पूर्वनिर्मित मान्यताओं को तोड़कर नयी जमीन तैयार करते हैं। संप्रेषण की चुनौतियों से जूझता हुआ रचनाकार पूर्व निर्मित कथारूढ़ियों को तोड़ता रहता है।

अत्याधिक आग्रहों को लघुकथा पर आरोपित कर उसकी मूल संवेदना को खण्डित करना उचित नहीं कहा जा सकता। आरोपित आग्रहों को लघुकथा से जोड़ना उसकी सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकता और सम्भावना पर अंकुश लगाने जैसा है।

कोई भी रचना किसी भी प्रकार की औपचारिकताओं और आग्रहों के अधीन नहीं होती। क्योंकि लघुकथा का सम्बन्ध मानवीय संवेदनाओं से है, और मनुष्य का ज्यों-ज्यों मानसिक विकास होता चला जायेगा उसके अभिव्यक्ति रूपों में भी परिवर्तन होता चला जायेगा।

लघुकथा की सृजनात्मक सामर्थ्य, सार्थकताओं और संभावनाओं को परखते हुए हम कह सकते हैं कि मानव मात्र की बेहतरी के लिये समय के समक्ष प्रस्तुत समस्याओं के मूल स्रोतों को ढूंढने और उसे उत्पन्न करने वाले कारणों को तलाशने में यानी परिवर्तन की सहायक शक्ति के रूप में लघुकथा का उपयोग अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है।

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लघुकथा की शुरुवात का आधुनिक दोर कब से माना जाता है?

यह ऐसे था मानो इन लोगों के जीवन के बाहर कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिसे जानना महत्वपूर्ण हो । इन लोगों के जीवन का क्रम ब्रिटिश भारत के इतिहास में अलग-अलग अध्यायों का विषय बन जाता था। क्या हम इसी दौर के इतिहास को अलग ढंग से नहीं लिख सकते?

हिंदी की प्रथम लघुकथा कौन सी है?

'सर्वोदय विश्ववाणी' में पहली हिन्दी लघुकथा के तौर पर 'झलमला' की प्रस्तुति के उपरान्त दूसरा सद्प्रयास बलराम ने किया—माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा 'बिल्ली और बुखार' को पहली हिन्दी लघुकथा घोषित करके।

लघुकथा की कितनी विशेषताएं?

लघुकथा की विशेषताएँ.
संक्षिप्त ... .
तीव्र ... .
यह "एक कहानी के भीतर एक कहानी है" ... .
विवेकशील शैली ... .
यथार्थवादी खाता ... .
शानदार कहानी ... .
इस प्रकार के कई ग्रंथों को पढ़ें ... .
सुनाई जाने वाली घटनाओं पर विशेष ध्यान दें.

लघुकथा के लेखक कौन हैं?

लघुकथा का लोककथा, बोधकथा, नीतिकथा आदि से अन्तर लोककथाएँ समाज में सुनी-सुनाई परम्परा यानी मौखिक रूप में प्रचलित होती हैं। अनेक पीढ़ियों के हाथों सँवरने के कारण लोककथाओं का कोई एक लेखक नहीं होता।