काले पानी की जेल कौन से देश में है? - kaale paanee kee jel kaun se desh mein hai?

वह कहानी तो आप को याद होगी कि सन 1857 में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ पंजाब में विरोध करने वाले अहमद ख़ान खरल की जान ले ली गयी और उनके कुछ साथियों को फांसी दी गयी, कुछ तोपों से उड़ा दिये गए और बाकी को 'काला पानी' भेजा गया.

'काला पानी' उपमहाद्वीप में आम तौर पर दूर-दराज़ की जगह के लिए बोला जाता है. मुहावरे में लंबी दूरी के लिए 'काले कोस' जैसे शब्द अर्सें से प्रचलित हैं.

प्राचीन भारतीय मान्यता यह थी कि देश से दूर समुद्र पार करते हुए कोई भी व्यक्ति 'पवित्र गंगा' से अलग होने के कारण अपनी जाति से वंचित हो जाएगा और समाज से कट जाएगा.

राजनीतिक अर्थों में काला पानी से तात्पर्य हिंद महासागर में वो द्वीप है,जहां अंग्रेज़ शासक क़ैदियों को देशनिकाला देते थे.

हज़ार द्वीपों का द्वीपसमूह 'अंडमान निकोबार'

कलकत्ते ( अब कोलकाता) से 780 मील दक्षिण में छोटे और बड़े लगभग एक हज़ार द्वीपों का समूह 'अंडमान निकोबार' कहलाता था और राजधानी का नाम 'पोर्ट ब्लेयर' रखा गया था.

इतिहासकार और शोधकर्ता वसीम अहमद सईद अपने शोध 'काला पानीः 1857 के गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी' में लिखते हैं, ''अंग्रेज़ों ने यहां अपना परचम लहराने के अलावा क़ैदियों की बस्ती और उपनिवेश बनाने के लिए सन 1789 में पहली कोशिश की जो विफल हो गयी.बाद में सन 1857 का हंगामा बरपा तो फांसियों, गोलियों और तोप से क्रांतिकारियों की जानें ली गयीं. ''

'' उम्र कै़द भी दी गयी मगर किसी दूर-दराज़ जगह पर सज़ा देने की बस्ती या क़ैदियों की कॉलोनी की ज़रूरत महसूस की गयी ताकि अंग्रेज़ों से 'बाग़ी' हुए लोग फिर से बग़ावत या विरोध न कर सकें. उनकी निगाह अंडमान द्वीप समूह पर ही गयी.''

ये द्वीप कीचड़ से भरे थे. यहां मच्छर, ख़तरनाक सांप, बिच्छुओं और जोंकों और अनगिनत प्रकार के ज़हरीले कीड़ों की भरमार थी.

1858 में पहुंचा था पहला जत्था

फ़ौजी डॉक्टर और आगरा जेल के वार्डन जे. पी. वॉकर और जेलर डेविड बेरी की निगरानी में 'बाग़ियों' को लेकर पहला जत्था 10 मार्च सन 1858 को एक छोटे युद्ध पोत में वहां पहुंचा.

खरल के साथी संभावित तौर पर उसी जहाज़ में ले जाए गये होंगे. फिर कराची से और 733 क़ैदी लाए गए और फिर यह सिलसिला जारी रहा.

सईद लिखते हैं ''काला पानी एक ऐसा क़ैदख़ाना था जिसके दर-ओ-दीवार का भी वजूद न था. अगर चारदीवारी या चौहद्दी की बात कीजिए तो समुद्री किनारा था और परिसर की बात कीजिए तो उफान मारता हुआ अदम्य समुद्र ही था.

क़ैदी क़ैद होने के बावजूद आज़ाद थे लेकिन फरार होने के सारे रास्ते बंद थे और हवाएं जहरीली थीं.

''जब क़ैदियों का पहला जत्था वहां पहुंचा तो स्वागत के लिए सिर्फ़ पथरीली और बेजान ज़मीन, घने और गगनचुंबी पेड़ों वाले ऐसे जंगल थे, जिनसे सूरज की किरणें छन कर भी धरती के गले नहीं लग सकती थीं. खुला नीला आसमन, प्रतिकूल और विषैली जलवायु, गंभीर जल संकट और शत्रुतापूर्ण जनजातियां.''

दिल्ली के इस शोधकर्ता के अनुसार अंडमान ही को भारत की आज़ादी की जंग की क़ुर्बानगाह क़रार दिया जाना चाहिए.

फिरंगियों, उनके पदाधिकारी, कर्मचारी और अमले के दूसरे लोगों के लिए तो तंबू गाड़ दिये गये लेकिन क़ैदियों को झुग्गी, झोंपड़ियां और अस्तबल जैसी जगह भी बहुत बाद नसीब हो सकी. वहां न कोई फ़र्श था, न रहने के लिए बुनियादी ज़रूरतों का कोई सामान.

झोंपड़ियों का यह हाल था कि बारिश के दौरान अंदर और बाहर एक जैसा हाल होता था. सारा दिन सश्रम कारावास के कारण अथाह और अकल्पनीय मेहनत करना, अत्याचार और हिंसा का शिकार रहना और फिर बेहद घटिया खाने पर संतोष करके लगातार मौत के लिए ज़िंदा रहना ही कै़दियों की क़िस्मत थ. लिहाज़ा हर क़ैदी मौत की दुआ करता था क्योंकि मुसीबतों से छुटकारे का एकमात्र रास्ता मौत ही थी.''

मज़हबी आलिम, ग़ालिब के समकालीन और दोस्त अल्लामा फ़ज़्ल ए हक़ ख़ैराबादी सन 1857 की आज़ादी की जंग के अगुआ थे. लेखक साक़िब सलीम के अनुसार उन्होंने अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ जामा मस्जिद से 'जिहाद' का फ़तवा दिया था.

खै़राबादी को 4 मार्च 1859 को हत्या के लिए उकसाने और बग़ावत के आरोप में बतौर शाही क़ैदी ज़िंदगी क़ैद दरिया पार- काला पानी और सारी संपत्ति ज़ब्त करने की सज़ा सुनायी गयी.

बीमारियों का खज़ाना थीं अंडमान की जेलें

ख़ैराबादी ने अपनी किताब 'अस्सूरतलहिन्दिया' में क़ैद के हालात लिखे हैं नीचे दिए गए कुछ वाक्य उसी किताब से अनूदित हैंः

'हर कोठरी पर छप्पर था जिसमें दुख और रोग भरेथे. हवा बदबूदार और बीमारियों का ख़ज़ाना थी. बीमारियां, असीमित खुजली और दाद जैसा एक और चर्मरोग जिसमें बदन की खाल फटने और छिलने लगती है,आम थीं.

बीमारी के इलाज, सेहत की देखभाल और घाव भरने का कोई उपाय न था.

दुनिया की कोई मुसबीत यहां की दर्दनाक मुसीबतों की बराबरी नहीं कर सकती थी. जब कोई उनमें से मर जाता तो लाश ले जाने वाला उसकी टांग पकड़कर खींचता और बिना नहलाये उसके कपड़े उतारकर रेत के ढेर में दबा देता है. न उसकी क़ब्र खोदी जाती है न नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ी जाती है.'

घने जंगल में ज़ंजीरों में जकड़े क़ैदियों को रास, ह्यूलाक और चैथम द्वीप पर कठोर श्रम करने का आदेश दिया गया.

निर्जन द्वीप के जंगलों की सफ़ाई का मेहनत वाला काम ख़ैराबादी और उनके साथियों को करना होता था.

रात में उन बिना आबादी वाले इलाक़ों में भी ज़ंजीरों में क़ैद करके रखा जाता था.

ख़ैराबादी कहते हैं, ''अपनी आंखों से दूसरे कै़दियों को बीमार होते हुए भी बेड़ियां पहने और ज़ंजीरों से खींचे जाते हुए देखता हूं. एक कठोर और गंदा व्यक्ति कष्ट पर कष्ट पहुंचाता और भूखे प्यासे पर भी रहम नहीं खाता. सुबह और शाम इस तरह बसर होती है कि पूरा शरीर घावों से छलनी बन चुका है. आत्मा को घुला देने वाले दर्द और तकलीफ के साथ घाव बढ़ते रहते हैं. वह समय दूर नहीं जब ये फुंसियां मुझे मौत के पास पहुंचा दें.''

फ़ज़्ल ए हक़ ख़ैराबादी ने अंडमान में आखि़री सांस ली और वहीं दफ़न हुए

जाफ़र थानेसरी हरियाणा के इलाक़े थानेसर से थे. पहले सज़ा-ए-मौत और फिर काला पानी की सज़ा हुई. अपनी किताब 'काला पानी अलमारूफ तवारीख़ अजायब' में 11 जनवरी सन 1866 को अंडमान द्वीप समूह के समुद्री किनारे पर पहुंचने का दृश्य कुछ इस प्रकार बताते हैंः

'दूर से समुद्र के किनारे काले पत्थर ऐसे मालूम होते थे जैसे भैंसों के झुंड के झुंड पानी में तैर रहे हों.'

तब तक वह क्षेत्र अपेक्षाकृत साफ़ हो चुका था. कैदी जंगलों की सफ़ाई के साथ साथ नये पेड़ भी लगा रहे थे. इससे पहले अंग्रेज शासन ने महिला क़ैदियों को भी वहां भेजना शुरू कर दिया था.'

हबीब मंज़र और अशफ़ाक़ अली का शोध यह है कि आरंभिक दौर में ब्रितानी शासन शादी और फिर बच्चों की पैदाइश को क़ैदियों में सुधार का एक उपाय समझता था.

मद्रास, बंगाल, बंबई (मुंबई), उत्तर पश्चिम राज्य, अवध और पंजाब आदि से ऐसी महिलाओं को अंडमान भेजा गया जो सज़ा के कुछ साल ब्रिटिश भारत की जेलों में गुज़ार चुकी थीं.

पोर्ट ब्लेयर के अधीक्षक ने भारत सरकार को पत्र लिखा ''पोर्ट ब्लेयर में महिला कै़दियों की संख्या कम हो रही है और अगर पिछले तीन साल में भेजी जाने वाली संख्या से अधिक महिला बंदियों को न भेजा गया तो न पांच साल की सज़ा भुगत लेने के बाद उनकी शादी की व्यवस्था जारी रखी जा सकेगी और न कातने, बुनने के वो काम हो सकेंगे जिनसे सरकार को बहुत अधिक बचत होती है.''

सेल्फ सपोर्टर क़ैदी अगर शादी करना चाहते तो वे एक ख़ास दिन महिला बंदियों में से किसी एक को चुनते और अगर वह राज़ी होती तो शासन उनकी शादी करवा देता और उसे क़ानूनी रूप दे देता. अपना इंतज़ाम ख़ुद करने वाले जोड़े को एक सेल्फ सपोर्टिंग गांव में रहने को जगह दे दी जाती.

लेकिन महिला बंदियों को अंडमान भिजवाने का सिलसिला कुछ ही साल चल सका. सन 1897 में 2447 सेल्फ सपोर्टर में 363 महिलाएं थीं. बीमारी और मौत की दर भी महिलाओं में अधिक थी.

थानेसरी ने जिन कश्मीरी महिलाओं से शादी की वे बिन ब्याही मां बनने और बच्चे को मारने के जुर्म में सज़ा पा रही थीं.

थानेसरी सत्रह साल दस महीने के बाद अंडमान से 9 नवंबर सन 1883 को भारत रवाना हुए. वे तब वहीं थे जब सन 1872 में पोर्ट ब्लेयर के दौरे के दौरान वायसराय ऑफ इंडिया लार्ड मेयो को एक क़ैदी ने क़त्ल कर दिया था.

फरार होने की कोशिश करने वालों को फांसी

दानापुर की छावनी में बग़ावत के मुजरिम क़ैदी नारायण पहले शख़्स थे जिन्होंने फरार होने की कोशिश की. उन्हें पकड़ा गया, डॉक्टर वॉकर के सामने लाया गया और फांसी दे दी गयी.

'तारीख़ ए अंडमान जेल' में लिखा है कि मार्च सन 1868 में 238 क़ैदियों ने फरार होने की कोशिश की. अप्रैल तक वे सब पकड़े गये. एक ने आत्महत्या कर ली और वॉकर ने 87 को फांसी देने का आदेश दिया.

जब फांसियों की ख़बर कलकत्ता पहुंची तो काउंसिल के अध्यक्ष जे.पी. ग्रांट ने इस पर अफसोस जताते हुए एक पत्र लिखा 'मैं फांसी देने के लिए उनके बताये गये कारणों में किसी को स्वीकार नहीं कर सकता.''

लेकिन वॉकर सरकारी अभियोग से बच गये और ग्रांट के आदेश पर ऐसा बंदोबस्त किया गया कि क़ैदी दोबारा कभी भागने और 'जनता को उकसाने' में सक्षम न हों.

फिर भी कै़दी महताब और चेतन 26 मार्च 1872 को फरार हो ही गये. बंगाल की खाड़ी में 750 मील की यात्रा खुद की बनायी गयी नावों से की. एक ब्रितानी समुद्री जहाज़ के अमले को उन्होंने यह समझा दिया कि वे एक नष्ट हो चुकी नाव के मछुआरे हैं. अंततः उन्हें लंदन में स्ट्रैंजर्स होम फॉर एशियाटिक्स में छोड़ दिया गया.

दोनों को खिलाया गया, कपड़े पहनाये गये और एक बिस्तर दिया गया लेकिन जब वे सो रहे थे तो मालिक कर्नल ह्यूज ने उनकी तस्वीरें खींचीं और सरकार को भिजवा दीं. एक सुबह महताब और चेतन जागे तो खुद को बेड़ियों में जकड़ा पाया, फिर कुछ दिन बाद उन्हें भारत जाने वाले जहाज़ पर सवार कर दिया गया.

उन्नीसवीं सदी के आखि़र तक स्वतंत्रता आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया. इस तरह अंडमान भेजे जाने वाले कै़दियों की संख्या बढ़ती गयी और एक कड़ी सुरक्षा वाली जेल की ज़रूरत महसूस की गयी.

क़ैदियों को ही जेल बनानी पड़ी

अगस्त सन 1889 से ब्रितानी राज में होम सेक्रेटरी चाल्र्स जेम्स लायल को पोर्ट ब्लेयर में सज़ा पाने वाली आबादी पर शोध का काम भी सौंपा गया. ये वही लायल हैं जिनके नाम पर 1890 में पाकिस्तान में लायलपुर की बुनियाद पड़ी और सन 1979 में इसे फै़सलाबाद का नाम दिया गया.

लायल और ब्रितानी शासन के एक सर्जन ए.एस. लेथब्रिज ने ये नतीजा निकाला कि अंडमान द्वीप समूह भेजने की सज़ा अपने मक़सद में नाकाम रही है और यह भी कि मुजरिमों ने भारतीय जेलों में क़ैद रहने के बदले वहां जाना पसंद किया है.

लायल और लेथब्रिज ने सिफारिश की कि देश निकाला की सज़ा में एक दंड-सत्र भी होना चाहिए, जिसके तहत क़ैदियों को आगमन पर कठोर व्यवहार का निशाना बनाया जाए.

एलियसन बाशफोर्ड और कैरोलीन स्ट्रेंज के अनुसार इसी के नतीजे में सेल्यूलर जेल का निर्माण हुआ, जिसे 'दूर दराज़ दंड केंद्र के अंदर और निर्वासन व एकांत स्थल' कहा गया.

1896 में सेल्यूलर जेल का निर्माण आरंभ हुआ. बर्मा से ईंटें आयीं और तुर्रा यह देखिए कि निर्माण उन्हीं क़ैदियों को करना पड़ा जिन्हें खुद इसमें क़ैद होना था.

पांच लाख से अधिक रुपयों के खर्च से सेल्यूलर जेल का निर्माण सन 1906 में पूरा हुआ. जेल के बीच में एक टावर से क़ैदियों पर सख़्त पहरा रखा जाता, जिन्हें साढ़े तेरह फीट लंबे और सात फीट चैड़े सात सौ कमरों में रखा गया था.

जेल के कमरों में रौशनदान के लिए गुंजाइश रखी गयी तो कुछ इस तरह कि इससे हवा भी न आ सके. पेशाब और शौच के लिए सुबह, दोपहर और शाम के समय तय किये गये. इस दौरान किसी को ज़रूरत महसूस हो तो सिपाहियों के डंडे खाने पड़ते थे. फांसी घर भी बना दिया गया ताकि अंग्रेज़ जिसे चाहे ठिकाने लगा सकें.

कई क्रांतिकारी बंद रहे यहां

कै़दियों की मानसिक प्रताड़ना के लिए जेलर कोठरियों को बंद कर चाबियां अंदर फेंक देते थे लेकिन ताले इस तरह से बनाए गए थे कि बंदी जेल के अंदर से ताले तक न पहुंचे सकें.

जेल के अंदर हर कोठरी में सिर्फ़ एक लकड़ी की चारपाई, एक अल्यूमीनियम की प्लेट, दो बर्तन, एक पानी पीने के लिए और एक शौच के समय इस्तेमाल के लिए और एक कंबल होता था.अक्सर बंदियों के लिए एक छोटा सा बर्तन काफी नहीं होता था और इसलिए उन्हें शौच के लिए कोठरी के एक कोने का इस्तेमाल करना पड़ता था और फिर उन्हें अपनी ही गंदगी के पास लेटना पड़ता था.

कै़द ए तन्हाई लागू की गयी क्योंकि ब्रितानी उपनिवेशवादी सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि राजनैतिक क़ैदियों को एक दूसरे से अलग रखा जाए.

राजनैतिक क़ैदियों में फ़ज़्ल ए हक़ ख़ैराबादी, योगेन्द्र शुक्ला, बटुकेश्वर दत्त, बाबा राव सावरकर, विनायक दामोदर-वीर- सावरकर, सचिंद्र नाथ सान्याल, हरे कृष्ण कोनार, भाई परमानंद, सोहन सिंह, सुबोध राय और त्रिलोकी नाथ चक्रवर्ती, महमूद हसन देवबंदी, हुसैन अहमद मदनी और जाफ़र थानेसरी के नाम चर्चित हैं.

1911-1921 के मध्य जेल में क़ैद दामोदर सावरकर ने अपनी रिहाई के बाद उन भयानक हालात के बारे में लिख जिनका उन्हें सामना करना पड़ा था.

उनके अनुसार कट्टर जेलर डेविड बेरी ख़ुद को 'पोर्ट ब्लेयर का भगवान' कहलवाता था. सावरकर ने लिखा है, ''जेल के दरवाज़े बंद होते ही उन्हें लगा कि वे 'मौत के मुंह में चले गये हैं.''

बंदी एक दूसरे से इस तरह अलग रखे जाते कि सावरकर को तीन साल बाद पता चला कि उनके बड़े भाई भी इसी जेल में क़ैद हैं।

ब्रितानी दैनिक 'द गार्डियन' के सन 2021 में किये गये एक शोध के अनुसार 'ब्रितानी राज ने भारतीय विरोधियों और विद्रोह करने वालों को एक ऐसे 'प्रयोग' के तहत एक दूर दराज़ औपनिवेशिक द्वीप में भेजा जिसमें अत्याचार, औषधीय प्रयोग, बलपूर्वक काम कराना और बहुत से लोगों के लिए मौत शामिल थी. दवाओं के प्रयोग के तहत उनकी ट्रायल होती थी जिससे कई लोग बीमार पड़े और कई की जान चली गयी.

अख़बार के लिए कैथी स्कॉट क्लार्क और एड्रियन लेवी ने सरकारी रिकार्ड छाना और जेल से बच जाने वालों से बात की.

सेल्यूलर जेल में देश के विभिन्न भागों से लाये गये बंदियों, जिनमें बाद में विभिन्न अपराधों में सज़ा पाने वाले भी शामिल थे को भयानक रूप से प्रताड़ित किया जाता था.

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विनायक दामोदर सावरकर

सन 1909 और 1931 के बीच सेल्यूलर जेल के जेलर डेविड बेरी को नये नये अंदाज़ में सज़ा देने का माहिर माना जाता था. डेविड बेरी का कहना था कि उनकी क़िस्मत में लिखा है कि वह अपनी महारानी के दुश्मनों को फांसी देने या गोली मारने की बजाय , प्रताड़ना और शर्मनाक अत्याचार से ही समाप्त कर देंगे. उनमें चक्की चलाना, तेल निकालना, पत्थर तोड़ना, लकड़ी काटना, एक-एक हफ़्ते तक हथकड़ियों और बेड़ियों में खड़े रखना, एकांत, चार चार दिन तक भूखे रखना आदि शमिल था.

तेल निकालने का काम और भी दर्दनाक था आम तौर पर सांस लेना बहुत मुश्किल होता था, ज़बान सूख जाती थी, दिमाग़ सुन्न हो जाता था, हाथों में छाले पड़ जाते थे.

लेखक रॉबिन विल्सन ने एक बंगाली बंदी सुशील दासगुप्ता के बेटे से मुलाक़ात की. सुशील 26 साल के थे तब उन्हें ब्रितानी राज से आज़ादी चाहने पर गिरफ्तार किया गया और 17 अगस्त 1932 को अंडमान द्वीप समूह भेज दिया गया.

दासगुप्ता के बेटे के अनुसार 'चिलचिलाती धूप में छह घंटे कठोर परिश्रम के बाद उनके हाथ अपने ही ख़ून में रंगे होते. उनका शरीर रेशे बनाने में दिन का कोटा पूरा करने के लिए नारियल कूटते कूटते थक जाता. उनका गला सूख कर कांटा हो चुका होता. सुस्ती पर भयानक दंड दिये जाते. उनके शौच जाने के समय पर भी सख्ती की जाती.

किसी भी क़ैदी को शौच के लिए गार्ड की इजाज़त के लिए घंटों इंतज़ार करना पड़ता. बंदियों से गुलामों की तरह काम लिया जाता. कुछ पागल हो जाते, दूसरे आत्महत्या पर मजबूर हो जाते.'

बंदी इंदू भूषण राय ने तेल के कारखाने की न थमने वाली मेहनत से तंग आकर फटे हुए कुर्ते के साथ खुद को फांसी पर लटका लिया. बंदी तेल की चक्कियों के ज़िंदा जहन्नुम में होते लेकिन बेरी और दूसरे ब्रितानी अफसर रास द्वीप पर पानी के पार खुशहाली में रहते थे.

उनके शासकीय मुख्यालय की दूसरी इमारतों में उनका अपना टेनिस कोर्ट, एक स्विमिंग पूल और अफ़सरों के लिए क्लब हाउस था.

बंदी उलाहस्कर दत्त पर इतना अत्याचार किया गया कि वो पागल हो गये. उन्हें द्वीप के एक इलाके में पागलखाने में 14 साल तक रखा गया. तब दत्त के पिता ने वायसराय ऑफ इंडिया को बार बार पत्र लिखकर उनसे पूछा कि उनके बेटे के साथ क्या हुआ मगर कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद और आठ पत्रों के बाद आख़िरकार उन्हें अंडमान के द्वीप के चीफ कमिश्नर का पत्र मिला जिसमें लिखा था 'मरीज का पागलपन मलेरिया के इनफेक्शन की वजह से है. उसकी अभी की हालत ठीक है.''

ऐसे ही अत्याचार पर बंदियों ने बग़ावत कर दी. एक बार 1930 के दशक के आरंभ में सेल्यूलर जेल के कुछ क़ैदियों ने कठोर व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल की.

मई 1933 में कै़दियों की भूख हड़ताल ने जेल प्रशासन का ध्यान खींचा. कैथी स्कॉट क्लार्क और एड्रियन लेवी के अनुसार भारत सरकार के आंतरिक विभाग के रिकार्ड में से उन्होंने राज्यों के गर्वनरों और चीफ कमिश्नरों के दिये गये आदेशों में अंग्रेज़ शासन की प्रतिक्रिया देखी.

भूख हड़ताल करने वाले सुरक्षा बंदियों के बारे में, घटनाओं को होने से रोकने के लिए हर संभव कोशिश की जाए, जिन क़ैदियों को ज़िंदा रखना ज़रूरी है उन्हें कोई छूट न दी जाए. उन्हें रोकने के लिए हाथ का इस्तेमाल बेहतरीन उपाय हैं और अगर वो विरोध करें तो फिर मशीनी उपाय अपनाया जाए.''

33 क़ैदियों ने अपने इलाज के विरोध में भूख हड़ताल की थी. उनमें भगत सिंह के साथी महावीर सिंह, लाहौर षड्यंत्र मामले में, मोहन राकेश, किशोर नामादास और मोहित मोइत्रा, आर्म्स एक्ट केस में सज़ा पाए भी शामिल थे.

आर वी आर मूर्ति के अनुसार तीनों की मौत ज़बर्दस्ती खाना खिलाने की वजह से हुई. ज़बर्दस्ती खाना खिलाने की कोशिश में उनके फेफड़ों में दूध चला गया, जिसके नतीजे में उन्हें निमोनिया हो गया और इससे उनकी मौत हो गयी. उनकी लाशों को पत्थरों से बांधकर द्वीप के आसापास के पानी में डुबो दिया गया.

जापान का अंडमान के द्वीपों पर क़ब्ज़ा

सन 1941 में एक भयानक भूकंप आया, सूनामी आयी होगी लेकिन जान माल के नुकसान के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

जापान ने मार्च 1942 में अंडमान के द्वीपों पर क़ब्ज़ा कर लिया. सेल्यूलर जेल में उसके बाद बाद पकड़े गये ब्रितानी, ब्रिटेन के संदिग्ध भारतीय समर्थक और बाद में इंडियन इंडिपेंडेंस के सदस्यों को क़ैद किया गया.

एन इक़बाल सिंह लिखते हैं कि बहुत से लोगों को वहां हिंसा का शिकार बनाया गया और मार दिया गया.

वसीम अहमद सईद लिखते हैं कि 30 जनवरी 1944 को जापानियों ने 44 स्थानीय बंदियों को सेल्यूलर जेल से निकाला और ट्रकों में भरकर हम्फ्रीगंज ले गये जहां एक खाई पहले ही खोदी जा चुकी थी.

उन लोगों को अंग्रेज़ों के लिए जासूसी के शक में गोलियों से भूनकर उनकी लाशों को ठोकर मारकर उसी खाई में फेंक दिया गया और ऊपर से मिट्टी डाल कर खाई को पाट दिया गया.

जब खाने के सामान की किल्लत होने लगी तो तो जापानियों ने बूढ़े और ऐसे बंदियों से मुक्ति पाने का फैसला किया जो काम करने के क़ाबिल न थे.

डेविड मिलर के अनुसार 13 अगस्त 1945 को 300 भारतीयों को तीन नावों पर लादकर एक निर्जन द्वीप पर ले जाया गया. जब नावें समुद्री किनारे से कई सौ गज दूर थीं तो उन बंदियों को समुद्र में कूदने पर मजबूर किया गया.

उनमें से लगभग एक तिहाई डूब गये और जो किनारे तक पहुंच पाये वे भूख से मर गये. जब ब्रितानी राहतकर्मी छह हफ्ते बाद पहुंचे थे तो सिर्फ 11 बंदी ज़िंदा थे.

अगले दिन 800 कै़दियों को एक और निर्जन टापू पर ले जाया गया जहां उन्हें किनारे पर छोड़ दिया गया.

जो किनारे पर आ गए और उनमें से हर एक को गोली मार दी गई. बाद में फौजी दस्ते सभी लाशों को जलाने और दफ़नाने आए.

अक्टूबर 1945 में जापानियों ने संयुक्त सेना के सामने हथियार डाल दिये और ये द्वीप दोबारा अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े में आ गए. इस बार पीड़ितों में जापानी भी शामिल थे.

दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर जापान के हथियार डालने के एक महीने के बाद अंग्रेज़ों ने 7 अक्टूबर 1945 को सज़ा देने के लिए बनायी गयी यह बस्ती मिटा दी और बंदियों को भारत के विभिन्न भागों की जेलों में भेज दिया.

रिकार्ड के अनुसार लगभग 80 हज़ार भारतीयों को सन 1860 से सज़ा के तौर पर अंडमान भेजा गया. स्वतंत्रता के दीवानों की अधिक संख्या बंगाल, पंजाब और महराष्ट्र से थी. वे अधिकतर हिन्दू, सिख और मुसलमान थे और सभी जातियों और बिरादरियों के थे.

सन 1957 में आज़ादी की जंग की याद में भारत और पाकिस्तान में शत वार्षिक समारोह हुए. उस अवसर पर विद्रोही शायद साहिर लुधियानवी ने कहा था कि 'ब्रिटेन को आज़ादी की जंग में क़त्ल ए आम पर माफ़ी न सही लेकिन काले पानी के अत्याचारों पर उपमहाद्वीप के लोगों से ज़रूर माफ़ी मांगनी चाहिए.

काला पानी की जेल कौन से देश में है?

आपको बता दें कि यह जेल अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी हुई है। इसे अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कैद रखने के लिए बनाया गया था, जो कि भारत की भूमि से हजारों किलोमीटर दूर स्थित थी। काला पानी का भाव सांस्कृतिक शब्द काल से बना माना जाता है जिसका अर्थ होता है समय या मृत्यु।

काला पानी की जेल में कितने कैदी हैं?

यह काला पानी के नाम से कुख्यात थी। अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव 1897 में रखी गई थी। इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं

काला पानी की सजा कब और किसने शुरू की?

काले पानी की इस सजा की शुरुआत वर्ष 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से हुई थी। पहली बार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े ब्रिटिश सरकार का विरोध करने वाले 200 कैदियों को जेलर डेविड बेरी की कस्टडी में काले पानी की सजा सुनाई गई थी।

काला पानी की सजा कैसे दी जाती है?

सेल्युलर जेल जहाँ पर स्थिति है उसके चारों ओर पानी ही पानी हॉइ, जहां से कोई कैदी भाग नही सकता है। जेल के चारो तरफ पानी होने के कारण ही सेल्युलर जेल को कालापानी की सजा बोला जाता हैं।