जाति प्रथा और श्रम विभाजन में बुनियादी अंतर क्या है? - jaati pratha aur shram vibhaajan mein buniyaadee antar kya hai?

Shram Bibhajahan Aur Jati Pratha

- Meri Kalpana Ka Adarsh Samaj-

Class 12th Hindi ( आरोह ) 

श्रम विभाजन और जाति प्रथा, मेरी कल्पना का आदर्श समाज

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर

shram vibhajan class 12 pdf

श्रम विभाजन और जाति प्रथा

Shram Bibhajahan Aur Jati Pratha saransh श्रम विभाजन और जाति प्रथा सारांश –

इस पाठ में लेखक ने जातिवाद के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को सभ्य समाज के लिए हानिकारक बताया है | जाति आधारित श्रम विभाजन को अस्वाभाविक और मानवता विरोधी बताया गया है। यह सामाजिक भेदभाव को बढ़ाता है। जातिप्रथा आधारित श्रम विभाजन में व्यक्ति की रुचि को महत्त्व नहीं दिया जाता फलस्वरूप विवशता के साथ अपनाए गए पेशे में कार्य-कुशलता नहीं आ पाती | लापरवाही से किए गए कार्य में गुणवत्ता नहीं आ पाती और आर्थिक विकास बुरी तरह प्रभावित होता है| आदर्श समाज की नींव समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर टिकी होती है। समाज के सभी सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करने के लिए सबको अपनी क्षमता को विकसित करने तथा रुचि के अनुरूप व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए| राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।

 पाठ के साथ 



प्रश्न 1. जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?


उत्तर: जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के निम्न तर्क हैं –

  • जाति-प्रथा, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन भी करती है।
  • सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है, परंतु श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन किसी अन्य देश में नहीं है।
  • भारत की जाति-प्रथा में श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं होता। वह मनुष्य की क्षमता या प्रशिक्षण को दरकिनार करके जन्म पर आधारित पेशा निर्धारित करती है।
  • जु:शुल्यक विपितपिस्थितयों मेंपेश बालक अनुपितनाह देता फल भूखे मरने की नौबत आ जाती है।

प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है? 

उत्तर: जातिप्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण बनती रही है क्योंकि यहाँ जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। उसे पेशा बदलने की अनुमति नहीं होती। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है क्योंकि उद्योग धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है।

ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य को पेशा न बदलने की स्वतंत्रता न हो तो भुखमरी व बेरोजगारी बढ़ती है। हिंदू धर्म की जातिप्रथा किसी भी व्यक्ति को पैतृक पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। आज यह स्थिति नहीं है। सरकारी कानून, समाज सुधार व शिक्षा के कारण जाति प्रथा के बंधन कमजोर हुए हैं। पेशे संबंधी बंधन समाप्त प्राय है। यदि व्यक्ति अपना पेशा बदलना चाहे तो जाति बाधक नहीं है।


प्रश्न 3. लेखक के मत से दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

 

उत्तर: लेखक के मत से ‘दासता’ से अभिप्राय केवल कानूनी पराधीनता नहीं है। दासता की व्यापक परिभाषा है-किसी व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न देना। इसका सीधा अर्थ है-उसे दासता में जकड़कर रखना। इसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है।


प्रश्न 4.शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

उत्तर: शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर समता को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए। वे शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार को अनुचित मानते हैं। उनका मानना है कि समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है। तो उसे समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर व समान व्यवहार उपलब्ध करवाने चाहिए। राजनीतिज्ञों को भी सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए। समान व्यवहार और स्वतंत्रता को सिद्धांत ही समता का प्रतिरूप है। सामाजिक उत्थान के लिए समता का होना अनिवार्य हैं।


प्रश्न 5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?

उत्तर: हम लेखक की बात से सहमत हैं। उन्होंने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन-सुविधाओं का तर्क दिया है। भावनात्मक समत्व तभी आ सकता है जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। समाज में जाति-प्रथा का उन्मूलन समता का भाव होने से ही हो सकता है। मनुष्य की महानता उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप होनी चाहिए। मनुष्य के प्रयासों का मूल्यांकन भी तभी हो सकता है जब सभी को समान अवसर मिले। शहर में कान्वेंट स्कूल व सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के बीच स्पर्धा में कान्वेंट स्कूल का विद्यार्थी ही जीतेगा क्योंकि उसे अच्छी सुविधाएँ मिली हैं। अत: जातिवाद का उन्मूलन करने के बाद हर व्यक्ति को समान भौतिक सुविधाएँ मिलें तो उनका विकास हो सकता है, अन्यथा नहीं।

प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे/ समझेंगी?

उत्तर: लेखक ने अपने आदर्श समाज में भ्रातृता के अंतर्गत स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है। भ्रातृता से अभिप्राय भाईचारे की भावना अथवा विश्व बंधुत्व की भावना से है। जब यह भावना किसी व्यक्ति विशेष या लिंग विशेष की है ही नहीं तो स्त्रियाँ स्वाभाविक रूप से इसमें सम्मिलित हो जाती हैं। आखिर स्त्री का स्त्री के प्रति प्रेम भी तो बंधुत्व की भावना को ही प्रकट करता है। इसलिए मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि यह शब्द पूर्णता का द्योतक है।

पाठ के आसपास

प्रश्न 1. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।

उत्तर: विद्यार्थी इस पाठ को पढ़ें।

प्रश्न 2. कार्य कुशलता पर जाति प्रथा का प्रभाव विषय पर समूह में चर्चा कीजिए। चर्चा के दौरान उभरने वाले बिंदुओं को लिपिबद्ध कीजिए।

उत्तर: विद्यार्थी स्वयं करें।

इन्हें भी जानें

आंबेडकर की पुस्तक जातिभेद का उच्छेद और इस विषय में गांधी जी के साथ उनके संवाद की जानकारी प्राप्त कीजिए।

उत्तर: विद्यार्थी स्वयं करें।

हिंद स्वराज नामक पुस्तक में गांधी जी ने कैसे आदर्श समाज की कल्पना की है, उसे भी पढ़ें।

उत्तर: विद्यार्थी स्वयं करें।

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1. डॉ० आंबेडकर के इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए – गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। क्या आज भी यह स्थिति विद्यमान है।

उत्तर: डॉ० आंबेडकर ने भारत की जाति प्रथा पर सटीक विश्लेषण किया है। यहाँ जातिप्रथा की जड़ें बहुत गहरी हैं। जाति व धर्म के ठेकेदारों ने लोगों के पेशे को जन्म से ही निर्धारित कर दिया भले ही वह उसमें पारंगत हो या नहीं हो। उसकी रुचि न होने पर भी उसे वही कार्य करना पड़ता था। इस व्यवस्था को श्रम विभाजन के नाम पर लागू किया गया था। आज यह – स्थिति नहीं है। शिक्षा, समाज सुधार, तकनीकी विकास, सरकारी कानून आदि के कारण जाति के बंधन ढीले हो गए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में जाति का महत्त्व नगण्य हो गया है।

प्रश्न 2. डॉ० भीमराव की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभूत बातें संक्षेप में समझाइए। आदर्श सामाज की स्थापना में डॉ० आंबेडकर के विचारों की सार्थकता पर अपने विचार प्रकट कीजिए। 

उत्तर: डॉ० भीमराव आंबेडकर की कल्पना के आदर्श समाज की आधारभूत बातें निम्नलिखित हैं –

  • उनका यह आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता व भ्रातृता पर आधारित होगा।
  • उस समाज में गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके।
  • ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होगा तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए।
  • सामाजिक जीवन में अवाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। डॉ० आंबेडकर के विचार निश्चित रूप से क्रांतिकारी हैं, परंतु व्यवहार में यह बेहद कठिन हैं। व्यक्तिगत गुणों के कारण जो वर्ग समाज पर कब्ज़ा किए हुए हैं, वे अपने विशेषाधिकारों को आसानी से नहीं छोड़ सकते। यह समाज कुछ सीमा तक ही स्थापित हो सकता है।

प्रश्न 3. जाति और श्रम विभाजन में बुनियादी अंतर क्या है? ‘ श्रम विभाजन और जातिप्रथा’ के आधार पर उत्तर दीजिए।

उत्तर: जाति और श्रम विभाजन में बुनियादी अंतर यह है कि जाति के नियामक विशिष्ट वर्ग के लोग हैं। जाति वाले व्यक्तियों की इसमें कोई भूमिका नहीं है। ब्राह्मणवादी व्यवस्थापक अपने हितों के अनुरूप जाति व उसका कार्य निर्धारित करते हैं। वे उस पेशे को विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं बदलने देते, भले ही लोग भूखे मर गए। श्रम विभाजन में कोई व्यवस्थापक नहीं होता। यह वस्तु की माँग, तकनीकी विकास या सरकारी फैसलों पर आधारित होता है। इसमें व्यक्ति अपना पेशा बदल सकता है।

प्रश्न 4. लोकतंत्र से लेखक को क्या अभिप्राय है?

उत्तर: लेखक कहता है कि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है। यह मूलतः सामूहिक दिनचर्या की एक रीति और समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो। उनका मानना है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का नाम ही लोकतंत्र है। इसमें सभी का सहयोग होना चाहिए।

प्रश्न 5. लेखक ने मनुष्य की क्षमता के बारे में क्या बताया है।

उत्तर: लेखक बताता है कि मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर करती हैं –

  • शारीरिक वंश परंपरा
  • सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि सभी उपलब्धियाँ जिसके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्ट शिक्षा प्राप्त करता है।
  • मनुष्य के अपने प्रयत्न
  • लेखक का मानना है कि असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। वे प्रथम दो बातों पर असमानता को अनुचित मानते हैं।

प्रश्न 6. “श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जातिप्रथा गंभीर दोषों से युक्त है।” स्पष्ट करें।

उत्तर: लेखक कहता है कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जातिप्रथा दोषों से युक्त है। इस विषय में लेखक निम्नलिखित तर्क देता है –

  • जातिप्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा से नहीं होता।
  • मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता।
  • जातिप्रथा के कारण मनुष्य में दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने वे कम काम करने की भावना उत्पन्न होती
  • जातिप्रथा के कारण श्रम विभाजन होने पर निम्न कार्य समझे जाने वाले कार्यों को करने वाले श्रमिक को भी हिंदू समाज घृणित व त्याज्य समझता है।

प्रश्न 7. डॉ० आंबेडकर ‘समता’ को काल्पनिक वस्तु क्यों मानते हैं?

उत्तर: डॉ० आंबेडकर का मानना है कि जन्म, सामाजिक स्तर, प्रयत्नों के कारण भिन्नता व असमानता होती है। पूर्व समता एक काल्पनिक स्थिति है। इसके बावजूद वे सभी मनुष्यों को विकसित होने के समान अवसर देना चाहते हैं। वे सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार चाहते हैं।

प्रश्न 1-डॉ० भीमराव अंबेडकर जातिप्रथा को श्रम-विभाजन का ही रूप क्यों नहीं मानते हैं ?

उत्तर: –

i- क्योंकि यह विभाजन अस्वाभाविक है |

ii- यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है |

iii- व्यक्ति की क्षमताओं की उपेक्षा की जाती है |

iv- व्यक्ति के जन्म से पहले ही उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है |

v- व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति नहीं देती |

प्रश्न 2- दासता की व्यापक परिभाषा दीजिए |

उत्तर: – दासता केवल कानूनी पराधीनता नहीं है| सामाजिक दासता की स्थिति में कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा तय किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने को विवश होना पड़ता है | अपनी इच्छा के विरुद्ध पैतृक पेशे अपनाने पड़ते हैं |

प्रश्न 3- मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर रहती है ?

उत्तर: – मनुष्य की क्षमता मुख्यत: तीन बातों पर निर्भर रहती है-

i-शारीरिक वंश परंपरा

ii-सामाजिक उत्तराधिकार

iii-मनुष्य के अपने प्रयत्न

लेखक का मत है कि शारीरिक वंश परंपरा तथा सामाजिक उत्तराधिकार किसी के वश में नहीं है परन्तु मनुष्य के अपने प्रयत्न उसके अपने वश में है | अत: मनुष्य की मुख्य क्षमता- उसके अपने प्रयत्नों को बढ़ावा मिलना चाहिए |

प्रश्न 4- समता का आशय स्पष्ट करते हुए बताइए कि राजनीतिज्ञ पुरूष के संदर्भ में समता को कैसे स्पष्ट किया गया है ?

उत्तर: – जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर मानवता अर्थात् मानव मात्र के प्रति समान व्यवहार ही समता है। राजनेता के पास असंख्य लोग आते हैं, उसके पास पर्याप्त जानकारी नहीं होती सबकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्षमताएँ, आवश्यकताएँ जान पाना उसके लिए संभव नहीं होता अतः उसे समता और मानवता के आधार पर व्यवहार के प्रयास करने चाहिए ।

प्रश्न 5- डॉ० भीमराव अंबेडकर जातिप्रथा को श्रम-विभाजन का ही रूप क्यों नहीं मानते हैं ?

उत्तर: – 

1- क्योंकि यह विभाजन अस्वाभाविक है |

2- यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है |

3- व्यक्ति की क्षमताओं की उपेक्षा की जाती है |

4- व्यक्ति के जन्म से पहले ही उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है |

5- व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति नहीं देती |

प्रश्न 6 - मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर रहती है ?

उत्तर: –मनुष्य की क्षमता मुख्यत: तीन बातों पर निर्भर रहती है-

  • शारीरिक वंश परंपरा
  • सामाजिक उत्तराधिकार
  • मनुष्य के अपने प्रयत्न

लेखक का मत है कि शारीरिक वंश परंपरा तथा सामाजिक उत्तराधिकार किसी के वश में नहीं है परन्तु मनुष्य के अपने प्रयत्न उसके अपने वश में है | अत: मनुष्य की मुख्य क्षमता- उसके अपने प्रयत्नों को बढ़ावा मिलना चाहिए |

प्रश्न 7 - समता का आशय स्पष्ट करते हुए बताइए कि राजनीतिज्ञ पुरूष के संदर्भ में समता को कैसे स्पष्ट किया गया है ?

उत्तर: - जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर मानवता अर्थात् मानव मात्र के प्रति समान व्यवहार ही समता है। राजनेता के पास असंख्य लोग आते हैं, उसके पास पर्याप्त जानकारी नहीं होती । सब की सामाजिक पृष्ठभूमि, क्षमताएँ, आवश्यकताएँ जान पाना उसके लिए संभव नहीं होता । अतः उसे समता और मानवता के आधार पर व्यवहार के प्रयास करने चाहिए ।

प्रश्न 8 - जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का कारण कैसे है बनती जा रही है?

उत्तर:- जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का कारण कैसे है बनती जा रही है क्योंकि:

i-मनुष्य के पेशे का पूर्व निर्धारण

ii-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पेशा बदलने की अनुमति न देना

iii-अपने पूर्व निर्धारित पेशे के प्रति व्यक्ति की अरुचि

जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा ना हो । आधुनिक युग में तकनीकी विकास के चलते कई बार ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसके चलते व्यक्ति पेशा बदलने को बाध्य हो जाता है । जाति प्रथा के बंधन व्यक्ति को पेशा बदलने की अनुमति नहीं देते । अत: व्यक्ति गरीबी एवं भुखमरी का शिकार हो जाता है । आधुनिक युग में भयंकर जाति प्रथा के बाद भी ऐसी बाध्यता नहीं है । लोग पैतृक पेशे को छोड़कर नए पेशे अपना रहे हैं ।

गद्यांश-आधारित अर्थग्रहण संबंधित प्रश्नोत्तर

गद्यांश संकेत-पाठ श्रम विभाजन और जाति प्रथा (पृष्ठ १५३)

“यह विडम्बना........................................... बना देती है |”

प्रश्न 1- श्रम विभाजन किसे कहते हैं ?

उत्तर: श्रम विभाजन का अर्थ है– मानवोपयोगी कार्यों का वर्गीकरण करना| प्रत्येक कार्य को कुशलता से करने के लिए योग्यता के अनुसार विभिन्न कामों को आपस में बाँट लेना | कर्म और मानव-क्षमता पर आधारित यह विभाजन सभ्य समाज के लिए आवश्यक है |

प्रश्न 2 - श्रम विभाजन और श्रमिक-विभाजन का अंतर स्पष्ट कीजिए |

उत्तर: श्रम विभाजन में क्षमता और कार्य-कुशलता के आधार पर काम का बँटवारा होता है, जबकि श्रमिक विभाजन में लोगों को जन्म के आधार पर बाँटकर पैतृक पेशे को अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है| श्रम-विभाजन में व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप व्यवसाय का चयन करता है | श्रमिक-विभाजन में व्यवसाय का चयन और व्यवसाय-परिवर्तन की भी अनुमति नहीं होती, जिससे समाज में ऊँच नीच का भेदभाव पैदा करता है, यह अस्वाभाविक विभाजन है |

प्रश्न 3 – लेखक ने किस बात को विडम्बना कहा है ?

उत्तर : लेखक कहते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो जातिवाद का समर्थन करते हैं और उसको सभ्य समाज के लिए उचित मानकर उसका पोषण करते हैं| यह बात आधुनिक सभ्य और लोकतान्त्रिक समाज के लिए विडम्बना है |

प्रश्न 4 : भारत में ऎसी कौन-सी व्यवस्था है जो पूरे विश्व में और कहीं नहीं है ?

उत्तर: लेखक के अनुसार जन्म के आधार पर किसी का पेशा तय कर देना, जीवनभर एक ही पेशे से बँधे रहना, जाति के आधार पर ऊँच-नीच का भेदभाव करना तथा बेरोजगारी तथा भुखमरी की स्थिति में भी पेशा बदलने की अनुमति न होना ऐसी व्यवस्था है जो विश्व में कहीं नहीं है |

प्रश्न 1- निम्नलिखित पठित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों का सही विकल्प चुनिए-

गद्यांश 1 

जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रूचि पर आधारित नहीं है| कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है|

1- पाठ पाठ और लेखक का नाम है-

क- श्रम विभाजन और जाति प्रथा, डॉ. भीम राव अम्बेडकर

ख- जाति प्रथा और श्रम विभाजन, हजारी प्रसाद द्विवेदी

ग- श्रम विभाजन और जाति प्रथा, जैनेंद्र कुमार

घ- जाति प्रथा, डॉ. भीम राव अम्बेडकर

उत्तर –श्रम विभाजन और जाति प्रथा,डॉ. भीम राव अम्बेडकर

2- लेखक के अनुसार जाति प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है-

क- क्योंकि यह तर्क संगत नहीं है।

ख- क्योंकि यह मनुष्य के लिए घातक है।

ग- क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।

घ- उपर्युक्त में से कोई नहीं है।

उत्तर- क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है|

3- सक्षम श्रमिक समाज के निर्माण के लिए क्या आवश्यक है?

क- समानता

ख- व्यवसाय चयन की स्वतंत्रता

ग- समर्थन

घ- समान विभाजन

उत्तर- व्यवसाय चयन की स्वतंत्रता

4- जाति प्रथा का दूषित सिद्धान्त क्या है ?

क- जाति आधारित व्यवसाय का चयन

ख- जाति व्यवस्था सर्वोपरि

ग- जाति का विभाजन

घ- समान दृष्टिकोण

उत्तर- जाति आधारित व्यवसाय का चयन

5- जाति प्रथा के अनुसार मनुष्य का पेशा कब निर्धारित होता है ?

क- गर्भ धारण के समय

ख- गर्भ धारण के बाद

ग- जन्म से पहले

घ- जन्म के बाद

उत्तर- गर्भ धारण के समय

गद्यांश 2

जाति प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को स्वीकार तो कर लेंगे,परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे,क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है,तो उसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़ कर रखना होगा,क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता|‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है, जिससे कुछ लोगों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है|यह स्थिति कानूनी पराधीनता ना होने पर भी पाई जा सकती है| उदाहरणार्थ,जाति प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है,जहां कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

1- जाति प्रथा के पोषक किसका अधिकार स्वीकार कर लेंगे?

क-संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता

ख-धार्मिक स्वतंत्रता

ग- सामाजिक स्वतंत्रता

घ- सांस्कृतिक स्वतंत्रता

उत्तर- संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता

2- लेखक के अनुसार दासता है-

क- व्यवसाय चयन की स्वतंत्रता

ख- अन्य द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना

ग- दूसरे के कर्तव्यों का पालन न करना

घ- राजनीतिक पराधीनता

उत्तर- अन्य द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का पालन करना

3- कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करना पड़ता है-

क- क्योंकि वह सक्षम होते हैं|

ख- कयोंकि वे समर्थ होते हैं|

ग- कयोंकि वे कमज़ोर होते हैं|

घ- क्योंकि वे शक्तिवान होते हैं|

उत्तर- क्योंकि वे कमज़ोर होते हैं|

4- दासता केवल................ नहीं कहा जा सकता |

क- कानूनी पराधीनता को

ख- सामाजिक स्वतंत्रता को

ग- राजनैतिक स्वतंत्रता को

घ- पूर्व निर्धारित नियम को

उत्तर- कानूनी पराधीनता को

5- निर्धारित शब्द में उपसर्ग मूल शब्द प्रत्यय होंगे-

क- नी:, धारण, इक

ख- निर, धारण, इत

ग- नि, धार, इट

घ- नित धारण, इत

उत्तर- निर, धारण, इत

लघुत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-1 भारत की जाति प्रथा क्या काम करती है ?

उत्तर- भारत की जाति प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, इसके साथ-साथ विभाजित वर्गों को एक दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है | ऐसा विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता|

प्रश्न-2- आधुनिक युग में भी जाति प्रथा क्यों बनी हुई है ?

उत्तर- आधुनिक युग में भी जाति प्रथा इसलिए बनी हुई है, क्योंकि जाति प्रथा के पोषक इसको समाप्त नहीं होने देते | वे हमेशा इसको बढ़ावा देते हैं |

प्रश्न-3-आज की सबसे बड़ी समस्या क्या नहीं है और क्या है ?

उत्तर- आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न समस्या होते हुए भी इतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी बड़ी समस्या यह है कि बहुत से लोग निर्धारित काम को अरुचि के साथ विवशतावश करते हैं | यह प्रवृत्ति टालू काम कराने व कम काम कराने को प्रेरित करती है |

प्रश्न-4-जाति प्रथा का दोष क्या है ?

उत्तर- जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं रहता | इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या रुचि को कोई महत्व नहीं दिया जाता |

प्रश्न-5-डॉ. अंबेडकर अपनी कल्पना में समाज का कैसा रूप देखते हैं ?

उत्तर- डॉ. अम्बेडकर का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता अर्थात भाईचारे पर आधारित है| उनके अनुसार, ऐसे समाज में सभी के लिए एक जैसा मापदंड तथा उनकी रुचि के अनुसार कार्यों की उपलब्धता होनी चाहिए |

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

इस पाठ के अंतर्गत समाज में प्रचलित जाति प्रथा को गलत ठहराकर कार्य कुशलता के आधार पर श्रम विभाजन को आवश्यक बताया गया है , क्योंकि जाति के आधार पर श्रम विभाजन करने से व्यक्ति की निजी क्षमता का सदुपयोग नहीं हो पाता ।

जाति -प्रथा एक ओर तो मनुष्य को जीवन भर किसी पेशे के साथ बाँधे रखती है तथा दूसरी ओर यदि कभी किसी व्यक्ति को पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ जाए तो उसके पास भूखे मरने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं छोड़ती । 

श्रम विभाजन के अनुसार व्यक्ति अपने पूर्व निर्धारित कार्य / श्रम को ही कर सकता है । उसको वही कार्य करना पड़ता है जो समाज उसके लिए निर्धारित करता है, चाहे वह कार्य उसकी रुचि के अनुरूप हो या प्रतिकूल ।

इस प्रकार श्रम विभाजन मनुष्य में काम के प्रति अरुचि और उसे टालने की प्रवृत्ति का कारण बनता है । ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो और न दिमाग, वहाँ कोई कुशलता कैसे प्राप्त कर सकता है ?

जाति -प्रथा भारत में बेरोज़गारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है, क्योंकि समाज में अपनी रुचि अनुसार पेशा न चुनने की आज़ादी बेरोज़गारी का एक मुख्य कारण है । जाति - प्रथा आर्थिक रूप से भी हानिकारक है ।

जाति प्रथा पर आधारित श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं होता और न ही मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व होता है ।

अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति -प्रथा हानिकारक प्रथा है , क्योंकि यह मनुष्यों की स्वाभाविक प्रेरणा , रुचि व आत्म - शक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है ।

( मेरी कल्पना का आदर्श समाज )

कि लेखक की कल्पना का आदर्श समाज वह हैं जिसमें स्वतंत्रता , समता और भाईचारे का भाव हो | भाई चारे में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती | समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज में तुरंत सब तरफ फैल जाए | 

ऐसे समाज में सब कार्यों में संभाग होना चाहिए सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग होना चाहिए | सब को सामाजिक संपर्क के साधन और अवसर उपलब्ध होने चाहिए |

स्वतंत्रता का अधिकार 

आवागमन,जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता का विरोध कोई नहीं करता| संपत्ति रखने , जीविकोपार्जन ये औजार तथा सामान रखने के अधिकार पर भी किसी को आपत्ति नहीं है | परंतु मनुष्य के लक्षण और प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के अधिकार के लिए लोग तैयार नहीं होते |

इसके लिए अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता देनी होती है |इस स्वतंत्रता के अभाव में मनुष्य दासता मे जकड़ा जाता है | दास्तां केवल कानूनी ही नहीं होती |जहाँ दूसरों के द्वारा निर्धारित व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करना पड़े वहाँ भी दासता होती है |जाति प्रथा में भी अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाने पड़ते हैं |

समता 

फ्रांसीसी क्रांति के नारे में समता शब्द विवादास्पद रहा है  |क्षमता के आलोचकों का कहना है कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते |

मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर है 

शारीरिक वंश परंपरा 

सामाजिक उत्तराधिकार 

मनुष्य को अपने प्रयत्न

प्रश्न है कि इन तीनों दृष्टियों से मनुष्य समान नहीं होते | परन्तु तब भी क्या समाज को उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए ? इसका उत्तर है –आसमान प्रयत्न  के कारण असमान व्यवहार करना उचित है परंतु उसमें भी सब को अपनी क्षमता विकसित करने के पूरे अवसर देने चाहिए |

वंश और सामाजिक उत्तराधिकार 

लेखक मानते हैं कि वंश परंपरा और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर असमानता नहीं की जानी चाहिए इससे केवल सुविधा संपन्न लोगों को लाभ मिलेगा वास्तव में प्रयास मनुष्य के वश में है किंतु वंश और सामाजिक प्रतिष्ठा उसके वश में नहीं है | अतः वंश और सामाजिकता के आधार पर असमान व्यवहार करना अनुचित है |

राजनेता 

एक राजनेता का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है |परन्तु उसके पास सब के बारे में जानने का उनकी अलग अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं के बारे में जानने का अवसर नहीं होता  | अतः उन्हें मानवता को ध्यान में रखते हुए सब को दो वर्गों और श्रेणियों में विभाजित न किया जाए | सबके साथ समान व्यवहार किया जाए |

 हिंद स्वराज 

दूसरा गुजराती संस्करण दक्षिण अफ्रिका इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस १९१४

हिंद स्वराज्य मैने १९०९ में इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रिका) वापिस आते हुए जहाज पर लिखी थी। किताब बम्बई प्रेसीडेंसी में जब्त कर ली गई थी इसलिए सन् १९९० में मैंने उसका (अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। पुस्तक में व्यक्त विचारों को प्रकाशित हुए इस प्रकार पाँच वर्ष हो चुके है। इस बीच उनके संबंध में अनेक व्यक्तियों ने मेरे साथ चर्चा की है। कई अंग्रेजो और भारतीयों ने पत्र-व्यवहार भी किया है। बहुतों ने उससे अपना मतभेद प्रकट किया। किन्तु अंत में हुआ यही है कि पुस्तक में मैंने जो विचार व्यक्त किए थे वे और ज्यादा मजबूत हो गए है। यदि समय की सुविधा हो तो मैं उन विचारों की युक्तियाँ और उदाहरण देकर और विस्तार दे सकता है लेकिन उनमें फेरफार करने का मुझे कोई कारण नहीं दिखता।

हिंद स्वराज्य की दूसरी आवृत्ति की माँग कई लोगों की और से आई है. अतः फीनिक्स के निवासियों और विद्यार्थियों ने अपने उत्साह और प्रेम के कारण जब-तब समय निकालकर यह दूसरा संस्करण छापा है।

यहाँ में सिर्फ एक बात का उल्लेख करना चाहूँगा। मेरे कान में यह बात आई है कि पद्यपि हिंद स्वराज्य लगातार यही सीख देता है कि हमें किसी भी स्थिति में किसी भी समय शरीरबल का आषय नहीं लेना चाहिए और अपना साध्या सदा आत्मक्ल से ही प्राप्त करना चाहिए लेकिन सौख जो भी रही हो, परिणाम की दृष्टि से उससे अंग्रेजों के प्रति तिरस्कार का भाव और उनके साथ हथियारों से लड़कर या और किसी तरह मारकर उन्हें भारत से निकाल देने का विचार पैदा हुआ है। यह सुनकर मुझे दुःख हुआ हिंद स्वराज्य लिखने में यह हेतु बिलकुल नहीं था और मुझे कहना पड़ेगा कि उसमें से जिन लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला है वे उसे बिलकुल नहीं समझे है में स्वयं अंग्रेजों के या अन्य किसी भी राष्ट्र की जनता या व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखता

जैसे किसी महासागर की जल-राशि की सारी बूंद एक ही अंग है उसी प्रकार सब प्राणी एक ही है मेरा विश्वास है कि प्राणिसागर में रहनेवाले हम सब प्राणी एक ही हैं और

एक-दूसरे से हमारे संबंध अत्यंत प्रगाढ़ है जो बिंदु समुद्र से अलग हो जाता है वह सूखा जाता है उसी प्रकार जो जीव अपने को दूसरों से भिन्न मानता है वह नष्ट हो जाता है। मैं तो यूरोप की आधुनिक सभ्यता का मात्र हूँ और हिंद स्वराज्य में मैंने अपने इसी विचार को निरूपित किया है और यह बताया है कि भारत की दुर्दशा के लिए अंग्रेज नहीं बल्कि हम गही दोष है जिन्होंने आधुनिक सभ्यता स्वीकार करती है। इस सभ्यता को छोड़कर हम सच्ची धर्म-नौति से युक्त अपनी प्राचीन सभ्यता पुनः अपना ले तो भारत आज ही मुक्त हो सकता है। हिंद स्वराज्य को समझने की कुजी इस बात में है कि हमें दुनियावी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर धार्मिक जीवन ग्रहण करना चाहिए। एसे जीवन में काले या गोरे किसी भी मनुष्य के प्रति हिंसक व्यवहार के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।

इंडियन ओपिनियन २२-४-१९१४

मो. क. गांधी

जय हिन्द : जय हिंदी 

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जाति और श्रम विभाजन में बुनियादी अंतर क्या है श्रम विभाजन और जातिप्रथा के आधार पर उत्तर दीजिए?

Answer: सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है परंतु श्रमिकों के वर्गों में विभाजन आवश्यक नहीं है। जाति-विभाजन में श्रम-विभाजन या पेशा चुनने की छूट नहीं होती जबकि श्रम-विभाजन में ऐसी छूट हो सकती है। जाति-प्रथा विपरीत परिस्थितियों में भी रोजगार बदलने का अवसर नहीं देती, जबकि श्रम-विभाजन में व्यक्ति ऐसा कर सकता है।

जाति प्रथा के आधार पर श्रम विभाजन को स्वाभाविक क्यों नहीं माना गया?

अथवा, जाति भारतीय समाज में श्रम-विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती ? उत्तर ⇒ भारतीय समाज में जाति प्रथा, श्रम-विभाजन का स्वाभाविक रूप नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है । इसमें मनुष्य की निजी क्षमता का विचार किए बिना उसका पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

श्रम विभाजन का अर्थ क्या होता है?

जब किसी बड़े कार्य को छोटे-छोटे तर्कसंगत टुकड़ों में बाँटककर हर भाग को करने के लिये अलग-अलग लोग निर्धारित किये जाते हैं तो इसे श्रम विभाजन (Division of labour) या विशिष्टीकरण (specialization) कहते हैं। श्रम विभाजन बड़े कार्य को दक्षता पूर्वक करने में सहायक होता है।

जाति प्रथा के अनुसार श्रम विभाजन करने का क्या प्रभाि पड़ता है?

भारत की जाति-प्रथा में श्रम-विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं होता। वह मनुष्य की क्षमता या प्रशिक्षण को दरकिनार करके जन्म पर आधारित पेशा निर्धारित करती है। जु:शुल्यक विपितपिस्थितयों मेंपेश बालक अनुपितनाह देता फल भूखे मरने की नौबत आ जाती है