भारतेंदु युग के नाटकों का मूल उद्देश्य क्या है? - bhaaratendu yug ke naatakon ka mool uddeshy kya hai?

भारतेंदु को हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। माना जाता है कि आधुनिक हिंदी को नई दिशा प्रदान करने का श्रेय भारतेंदु को दिया जाता है। इस कारण उन्हें आधुनिक हिंदी नाटक का जनक भी माना जाता है। नाटकों को नई प्रेरणा , नई शैली और नई भाषा , खड़ी बोली देने वाले भारतेंदु जी थे।

अतः उनसे पूर्व भाषा इतनी कनिष्ठ थी जो आम जनता , एक सामान्य वर्ग के लिए कठिन भाषा थी। भारतेंदु को यह समझ में आया भारतीय जनता को साहित्य से जोड़ने के लिए सामान्य वर्ग की भाषा को साहित्य में अपनाना होगा। भारतेंदु का युग राजनीति , सामाजिक व धार्मिक विषय में उथल-पुथल का युग था। यह युग पुनरुत्थान , पुनर्जागरण का था।  देश में राजनीतिक और सामाजिक कुरीतियां विद्यमान थी।

धर्म के पीछे उच्च वर्ग सदैव सामान्य जनता का शोषण किया करता था। जिसकी जमीनी हकीकत को भारतेंदु ने पकड़ा और अपने नाटकों के माध्यम से व्यक्त किया। लोगों में शासन के खिलाफ रोष था , जिसका स्पष्ट रूप 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखने को मिला। यही से लोगों में चेतना राष्ट्रीय जागरण का बीज पड़ा , लोगों में स्वराज का अंकुर पड़ा लोगों में यह विश्वास जागा कि हम अपनी आजादी बाहर से आए लोगों से छीनकर ले सकते हैं , यही से स्वतंत्रता और पूर्ण स्वराज की पृष्ठभूमि तैयार की गई।

इस युग के प्रतिनिधि कवि भारतेंदु माने गए , उनके मित्र मंडली में – प्रताप नारायण मिश्र ,  बालकृष्ण भट्ट ,  देवकीनंदन खत्री , बद्रीनाथ चौधरी ‘प्रेमघन’ थे।

भारतेंदु के काल में अनेक प्रकार की नाटकों की रचना हुई साथ ही कथा कहानी का भी एक भरपूर भंडार देखने को मिलता है यह सभी साहित्य या तो मौलिक थे या अनूदित।  किंतु मुख्य रूप से भारतेंदु का युग नाटक के लिए जाना जाता है , इनके समय नाटकों के विभिन्न प्रकार थे –

  • पौराणिक नाटक
  • प्रेम नाटक
  • सामाजिक एवं धार्मिक नाटक
  • राजनीतिक नाटक
  • ऐतिहासिक नाटक
  • अनुदित नाटक
  • जन नाटक
  • प्रहसन आदि।

पौराणिक नाटक ( Pauranik natak )

भारतेंदु पूर्व काल में नाटकों में अधिकांश नाटक पौराणिक है जैसे – रामायन ,  महानाटक , हनुमन्नाटक , शाकुंतलम् नाटक , रामलीला नाटक , नहुष आदि।
भारतेंदु ने इन नाटकों के मूल सिद्धांत को ग्रहण किया और अपने साहित्य कौशल से नाटकों की रचना की। भारतेंदु ने इसी धारा में योगदान देते हुए सत्य हरिशचंद्र  ,  चंद्रावली , सती प्रताप ,  भारत – दुर्दशा , मंगलसूत्र आदि नाटकों की एक अनूठी रचना की।  नाटकों में भी पौराणिक नाटक की रचना भारतेंदु के साहित्य-ज्ञान को दिखाता है।

कृष्ण-सुदामा  , रुक्मणी हरण ,  सुदामा चरित , नंदोत्सव , द्रोपदी वस्त्रहरण , अभिमन्यु , रामलीला , लवजी का स्वप्न ,    भारतेंदु कृत –  सत्य हरिशचंद्र , महाराजा भर्तृहरि ,सती प्रताप आदि इस युग की अनूठी और विख्यात नाटकों में से एक है।

पौराणिक नाटक में आदर्श स्थापना का प्रयास सभी ने किया है , लोग आदर्शों को सामने रख रहे थे और नाटक उस उद्देश्य का एक साधन था। पौराणिक नाटक में ऐसे बहुत ही कम नाटक है जो भारतेंदु कृत – सत्य हरिश्चंद्र या चंद्रावली की कोठी में गिने जा सकते हो।

प्रेम नाटक ( Prem natak )

वैसे तो पौराणिक नाटकों में भी प्रेम नाटक मिलते हैं , किंतु लोगों ने प्रेम की धारा मानवीय जीवन से ग्रहण किया। प्रेम नाटक दो वर्गों में प्राप्त हुए हैं – दुखान्तक , सुखान्तक।

दुखान्तक – गिरिधर दास कृत नहुष की दृष्टि दुखान्तक है। भारतेंदु की – ‘नीलदेवी’ दुखान्तक नाटक है। इसमें स्त्री के संघर्ष का चित्रण देखने को मिलता है।

सुखान्तक – भारतेंदु कृत विद्या – सुंदरी सबसे पहला सुखान्तक नाटक है। अन्य नाटक – प्रेम-सुंदरी ,  चंद्रकला  ,  प्रेम कुसुम आदि सुखान्तक नाटक है।

सामाजिक और धार्मिक नाटक ( Samajik aur dharmik natak ) –

भारतेंदु युग पुनरुत्थान का युग माना जाता है। इस काल में अनेक धार्मिक आंदोलनों ने जनता के मन मस्तिष्क को झकझोरा था।  सामाजिक एवं धार्मिक ललकारो ने जन को सचेत कर कहा कि – तू अपने जीवन को सुधार ईश्वर की ओर मुड़ और अपने दूसरे लोक को बना। फलतः इस काल में सामाजिक एवं धार्मिक नाटकों का प्रणय स्वभाविक ही था।

इस काल के नाटकों ने अपने काल की सभी प्रधान सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान दिया और उनका चित्र अपने नाटकों में किया। विवाह में विवाह के अवसर पर धन को स्वाहा किया जाता है। अनेक नाटककारों ने इस अपव्यय का चित्रण अपने नाटकों में किया है। विवाह विडंबना , सामाजिक कुरोग विस्तार से चित्रित है , हिंदुओं में उस समय बाल विवाह जोरों के साथ प्रचलित था। बाल विवाह के कुरूप को परिणाम दिखाने वाले नाटक हैं –
बाल्य विवाह – श्री शरण

बाल्य विवाह , बाल्य विवाह दूषक – देवकीनंदन

जन्मपत्री के मिल जाने पर भी दुख पड़ता है और मृत्यु आती है। नाटककारों ने यह बताया और हिंदुओं को सावधान किया कि ब्राह्मणों के जाल में पडकर जन्मपत्री मिलवाने की कुप्रथा छोड़कर स्वयं कन्या या वर की परीक्षा करो। बाल विधवा की दुर्दशा का चित्रण इस काल के नाटककारो ने हृदय रक्त के अश्रुओं से खींचा है। वृद्ध व्यक्ति के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता था। छुआ-छूत जैसी भावनाओं को नाटककारों ने विस्तार से वर्णन किया है।

राजनीतिक नाटक ( Rajneeti natak )

पुनरुत्थान काल में सामाजिक नाटकों का निर्माण एक नया मोड़ है। अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रकट किया।
यह वह काल था जब कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ। यह काल राजनीतिक क्षेत्र में अस्थिर काल था। भारतेंदु काल में अंग्रेज के हल से और मुसलमानों के हास्य से बराबर बढ़ रहा था। इटावे में रामलीला और मुहर्रम एक साथ पड़ गए तो , सांप्रदायिक वातावरण दूषित हो गया। संघर्ष के पीछे अंग्रेज काम करते थे।

गौ – समस्या ने भारतेंदु युग में प्रधान को लेकर ही हुआ , जिसमें हिंदू मुसलमान संघर्ष चित्रित है। देवकीनंदन – गोवध निषेध , प्रचंड गोरक्षण , गोसंकट , अकबर गो-रक्षा न्याय नाटक ,

भारत की दशा को सामने रखकर भी अनेक नाटकों का निर्माण हुआ। हिंदुओं की अपनी अापसी फूट , पारस्परिक भेदभाव एवं उसकी अपनी सामाजिक परिस्थितियां पारिवारिक निर्बलतायों आदि के कारण – भारत दुर्दशा , अंधेर नगरी , भारत – भारत , भारत सौभाग्य , वर्तमान दशा

आदि नाटकों का प्रादुर्भाव हुआ , इन नाटकों में उस समय की स्थिति परिवेश आदि का पूरा वर्णन विस्तार सहित है। किस प्रकार का समाज , राजनीति और अविश्वास का भाव समाज में व्याप्त था , यह सभी नाटकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

ऐतिहासिक नाटक ( Atihaasik natak )

पौराणिक नाटकों की परंपरा तो संस्कृत से प्रवाहित थी। ऐतिहासिक नाटकों में संस्कृत का मुद्राराक्षस प्रसिद्ध है। ब्रज भाषा के काव्य नाटक में ऐतिहासिक नाटक नहीं है। ऐतिहासिक नाटकों के निर्माण की और भी भारतेंदु कालीन नाटककारों का एक प्रकार से नवीन प्रयास ही था। इन ऐतिहासिक नाटकों में हिंदू वीरो एवं वीरांगनाओं को स्थान मिला है। हिंदू वीरांगनाओं ने मुस्लिम प्रतिनायकों के दांत खट्टे किए , उन्हें परलोक पहुंचाया तथा धर्म और प्रतिष्ठा के लिए प्राण भी त्याग दिए। भक्त नारी का आदर्श भी चित्रित किया गया है। महारानी पद्मावती , महाराणा प्रताप , पन्ना ,  पुरु विजय   ,  हठी हम्मीर ,  अमर सिंह राठौर  आदि नाटकों में वीरांगनाओं व वीरों का वर्णन विस्तार सहित किया गया है।

अनूदित नाटक ( Anoodit natak )

भारतेंदु काल में अनुवादों की ओर भी बराबर ध्यान दिया गया था। भारतेंदु ने नाटक क्षेत्र में अनुवादों के साथ प्रवेश किया था। पूर्व भारतेंदु काल में संस्कृत नाटकों में अनुवाद की और भारतेंदु काल के बराबर चरम गतिमान थे। राजा लक्ष्मण सिंह के अनुवाद – शकुंतला नाटक में भी मार्ग प्रदर्शन किया है। भारतेंदु जी ने प्रवास और रत्नावली नाटक इस काल के संस्कृत से अनूदित थे। अन्य नाटक उत्तररामचरित  , रत्नावली , धनजय विजय  ,  मुद्राराक्षस  , प्रबोध चंद्रोदय , शकुंतला। 

भारतेंदु के अनुवाद बड़े सरल थे , जिसके कारण व लोक प्रसिद्ध हुए और इसकी भाषा और अन्य की अपेक्षा और परिष्कृत है। भारतेंदु पूर्व में प्रबोध चंद्रोदय के अनुवाद अधिक हुए। भारतेंदु ने भी इसका अपूर्ण अनुवाद किया , पाखंड विडंबन  , प्रबोध चंद्रोदय का अंश है।

जननाटक ( Jan natak )

भारतेंदुजी ने अपने नाटक नामक निबंध में जिन्हें भ्रष्ट नाट से स्मरण किया है , यह जन नाटक  – रासलीला ,  पारसी नाटक  , स्वांग आदि भरपूर मात्रा में जनता में लोकप्रिय होते रहे और अपनी वृद्धि देखते रहे।  भारतेंदु के पूर्व से स्वांग लिखे जा रहे थे , पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने भी सागीत शाकुंतलम लिखा।
मुंशी रमजान कृत लैला मजनू , प्रहलाद चरित्र भी स्वांग नाटक है। फारसी शैली में नाटकों की संख्या स्वांग नाटकों से भी अधिक है।

प्रहसन ( Prahasan )

जन नाटकों के अतिरिक्त इस काल में प्रहसनों के लिखने की विशेष परिपाटी चली। प्रहसनों में व्यंग्यात्मक शैली में लेखक अपने सामाजिक एवं राजनीतिक विचार रखते थे।

यह प्रहसन अभिनय और हास्य की दृष्टि से लिखे गए थे और थीएट्रिकल शैली पर थे। पारसी थियेटर का भोंडा श्रृंगार नहीं है।  वरन सोद्देश्य  लिखे गए। जयनार सिंह  , शिक्षा दान  ,  रक्षाबंधन  , स्त्री चरित्र  , बूढ़े मुंहासे  , हास्य  , अति अंधेर नगरी आदि।

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भारतेंदु के अनुसार कितने उद्देश्य है?

हास्य, 3. कौतुक, 4. समाज संस्कार और 5 देशवत्सलता । नाटक के ये पाँच उद्देश्य इस बात के द्योतक हैं कि किस प्रकार भारतेन्दु रीतिवादी दृष्टिकोण से आधुनिक दृष्टिकोण की ओर उन्मुख हो रहे थे।

भारतेन्दु नाटक इनमें से कौन सा है?

(3) कानपुर में भारतेन्दु के सहयोगी पं. प्रतापनारायण मिश्र ने हिन्दी रंगमंच का नेतृत्व किया और भारतेन्दु के 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति', 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'भारत-दुर्दशा', 'अंधेर नगरी' आदि नाटकों का अभिनय कराया।

भारतेंदु के बाद नाटक के क्षेत्र में किसका योगदान रहा?

उत्तर―भारतेन्दु के बाद नाटक के क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान जयशंकर प्रसाद का रहा

भारतेंदु का एक ऐतिहासिक नाटक क्या है?

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसी रचनाएं कीं. सन् 1881 में मात्र एक रात में लिखा गया नाटक आज भी उतना ही सामयिक और समकालीन है. बाल रंगमंच हो अथवा वयस्क रंगमंच – यह नाटक सभी तरह के दर्शकों में लोकप्रिय है.