भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?

📌   भारत के कुल खनिज उत्पादन का लगभग कितना प्रतिशत झारखंड में उत्पादित होता है ?

📌   एच.ई.सी. (हैवी इंजिनीयरिंग कारपोरेशन) कहाँ स्थित है ?

📌   भारत में उपलब्ध खनिजों केसंचित भंडार का लगभग कितना प्रतिशत झारखंड में केंद्रित है ?

📌   झारखंड में उर्वरक (Fertilizer) का प्रथम कारखाना कहाँ स्थापित किया गया ?

📌   भारत का सबसे प्रथम एवं सबसे बडा लौह-इस्पात कारखाना है -

📌   भारतीय लाह अनुसंधान संस्थान कहाँ स्थित है ?

📌   भंडार एवं उत्पादन की दृष्टि से झारखंड का सर्व प्रमुख कोयला केन्द्र है -

📌   बोकारो स्टील प्लांट की स्थापना किस देश के सहयोग से की गई ?

📌   खरीफ फसल में किसका सर्वप्रमुख स्थान है ?

📌   मुरी किस उद्योग एक प्रमुख केन्द्र है ?

📌   पायरट उत्पादन में किस राज्य का देश में प्रथम स्थान है ?

📌   भारत का पहला तांबा उत्पादन खान कहाँ स्थापित किया गया ?

📌   रबी फसल में किसका सर्वप्रमुख स्थान है ?

📌   बिरसा मुण्डा हवाई अड्डा कहाँ स्थित हैं ?

📌   जपला किस उद्योग का एक प्रमुख केन्द्र है ?

📌   स्टिको से इस्पात का उत्पादन आरंभ हुआ -

📌   झारखंड में उच्च कोटि का अभ्रक मिलता है | इस अभ्रक को क्या कहा जाता है ?

📌   झारखंड का सबसे लम्बा राष्ट्रीय राजमार्ग है -

📌   टेल्को (टाटा इंजिनीयरिंग एंड लोकोमोटिव कम्पनी) कहाँ स्थित है ?

📌   टिस्को से लोहे का उत्पादन किस वर्ष आरंभ हुआ ?

📌   एशिया की सबसे बडी कोल वाशरी (Coal Washery) है -

📌   जादूगोडा (जादोगोडा8 की युरेनियम खदान झारखंड के किस जिले में स्थित है ?

📌   एशिया का सबसे बडी लोहे की खान है -

📌   झारखंड की खेती में किस फसल का सर्वोपरि स्थान है ?

📌   भारत का कुल कोयला उत्पादन का कितना भाग झारखंड में होता है ?


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आप प्रश्न 1912 में भारत में पहला लौह इस्पात कारखाना कहां स्थापित किया गया तुम्हें बताना चाहूंगा भारत में पहला लौह इस्पात कारखाना उनके बारे में नहीं उनके साथ में स्थापित किया गया और यह कारखाना जमशेदपुर टाटा में स्थापित किया गया था

aap prashna 1912 me bharat me pehla loha ispaat karkhana kaha sthapit kiya gaya tumhe batana chahunga bharat me pehla loha ispaat karkhana unke bare me nahi unke saath me sthapit kiya gaya aur yah karkhana jamshedpur tata me sthapit kiya gaya tha

आप प्रश्न 1912 में भारत में पहला लौह इस्पात कारखाना कहां स्थापित किया गया तुम्हें बताना चा

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भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?
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भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?

भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?

भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?

भारत का पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है? - bhaarat ka pahala lauh ispaat kaarakhaana kaun sa hai?

भारत में पहला लौह इस्पात कारखाना निम्न में से कहाँ पर स्थापित किया गया? ; भारत का पहला इस्पात संयंत्र किस स्थान पर स्थापित किया गया था? ;

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बेथलहेम स्टील, सन २००३ में बन्द होने के पहले विश्व के सबसे विशाल इस्पात उत्पादक कारखानों में से एक था। यह पेन्सिल्वानिया के बेथलहेम नगर में स्थित था।

लौह अयस्क से इस्पात बनाने की प्रक्रिया का दूसरा चरण इस्पात निर्माण (Steelmaking) है। कच्चे लोहे से इस्पात बनाने के लिये कच्चे लोहे में उपस्थित अतिरिक्त कार्बन तथा गंधक, फॉस्फोरस आदि अशुद्धियों को निकाला जाता है और मैगनीज, निकिल, क्रोमियम तथा वनाडियम (vanadium) आदि तत्व मिलाये जाते हैं ताकि वांछित प्रकार का इस्पात बनाया जा सके।

इस्पात उत्पादन का इतिहास करीब चार हजार साल पुराना है। अंटोलिया के उत्खनन से कुछ इस्पात के सामान मिले हैं। एशिया महाद्वीप की बात करें तो श्रीलंका में तीन सौ वर्ष ईसापूर्व में उच्च-मात्रा वाले इस्पात का प्रमाण मिला है। श्रीलंका ने इस्पात निर्माण के लिए ही वायु-भट्टी का निर्माण किया था। दिल्ली का लौह स्तम्भ भारतीय इस्पात निर्माण की प्राचीनता एवं उत्कृष्टता का जिता-जागता प्रमाण है। सिमेंटीकरण विधि द्वारा पहली बार इटली में बलिस्टर इस्पात का निर्माण किया गया।

आधुनिक काल में इस्पात का व्यवसायिक निर्माण बेसमेर विधि की खोज के बाद शुरु हुआ। बेसमेर विधि से इस्पात का उत्पादन काफी सस्ता हो गया। बाद में गिलक्रिस्ट-थोमस विधि के आने से बेसमेर विधि में और ज्यादा सुधार हुआ। बाद में सीमन-मार्टिन विधि की खोज से इस्पात निर्माण और भी सुगम हो गया।

लोहा धरती के गर्भ में स्वतंत्र अवस्था में नहीं पाया जाता है, बल्कि यह ऑक्सीजन और सल्फर के साथ यौगिक अवस्था में पाया जाता है। मूल रूप से लौहे के दो अयस्क होते हैं- हेमाटाइट (एफ2ओ3) और पाइराइट (एफएस2)। हेमाटाइट से लौहे को निष्कर्षण किया जाता है, जिससे ऑक्सीजन अलग हो जाता है। लौह अयस्क से लोहे को अलग करना लौह निष्कर्षण कहलाता है। लौहे के निष्कर्षण में कार्बन की उपस्थिति में लोहे को गलाया जाता है। इस क्रिया को प्रगलन कहते हैं। शुरु-शुरु में कम गलनांक वाले धातुओं का प्रगलन किया जाता था। तांबे का गलनांक 1000 डिग्री सेल्सिसियस है, जबकि टीन 250 डिग्री सेल्सियस पर पिघल जाता है। कास्ट आयरन का गलनांक 1370 डिग्री सेल्सियस है। 800 डिग्री सेल्सियस के बाद ऑक्सीकरण दर तेजी से बढ़ जाता है। यही कारण है कि प्रगलन की क्रिया निम्न-ऑक्सीजन वाले वातावरण में करायी जाती है। तांबे और टीन के विपरीत, कार्बन तरह लोहे में आसानी से घुल जाता है। इस तरह से लोहे में कार्बन के मिश्रण से इस्पात बनाया जाता है।

अयस्क (ore) से अधिक से अधिक धातु प्राप्त करने के लिए अवकारक वस्तु, कार्बन, बहुतायत से मिलाई जाती है। कार्बन बाद में इच्छित मात्रा तक आक्सीकरण की क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है। इससे साथ के दूसरे तत्वों का भी, जिनका अवकरण हुआ रहता है और जो आक्सीकरणीय होते हैं, आक्सीकरण हो जाता है।

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि लोहे में कार्बन के थोड़ से हेर-फेर से इस्पात की गुणवत्ता में बड़ा बदलाव आ जाता है। इस्पात के गुणों में वांछित बदलाव के लिए लौहे और कार्बन के मिश्रण में दूसरे पदार्थ भी मिलाए जाते हैं। इस्पात की तन्यता बढ़ाने के लिए इसमें निकेल और मैंगनीज मिलाये जाते हैं। कठोरता बढ़ाने के लिए क्रोमियम और वेनेडियम का मिश्रण किया जाता है।

धातुकार्मिक व्यवहार में "विशुद्ध धातु" शब्द का उपयोग ऐसे व्यापारिक मेल की धातु के लिए भी होता है जिसमें प्रधानत: वे ही गुण (जैसे, रंग विद्युच्चालकता इत्यादि) होते हैं जो शुद्ध रासायनिक धातु में होते हैं। इनमें शेष जो अशुद्धता होती है या तो उसे दूर करना कठिन होता है, अथवा धातु में कोई विशेष गुण प्राप्त करने के लिए उसे जान बूझकर मिलाया जाता है। इस प्रकार मिलाए जानेवाले तत्वों को 'मिश्रधातुकारी तत्व' (alloying elements) कहते हैं।

प्राचीन काल में इस्पात उत्पादन की दो विधियाँ प्रचलित थीं।

  • (1) कार्बाधिशोषण या सीमेंटकरण विधि (Cementation Process) तथा
  • (2) घड़िया विधि (Crucible Process)

भारत का प्रसिद्ध 'वुत्स इस्पात' (wootz steel) इन्हीं विधियों से बनाया जाता था।

कार्बाधिशोषण विधि में पिटवाँ लोहे को कोक के संपर्क में रखकर पर्याप्त समय तक उच्च ताप पर गरम किया जाता है। जिन पात्रों में यह क्रिया की जाती है उन्हें परिवर्तन पात्र (Conversion Pots) कहते हैं और ये पत्थर की सिलों के बने होते हैं। इन पात्रों को कार्बाधिशोषण भट्ठियों में गरम किया जाता है। पात्र के अन्दर वायु का प्रवेश न हो इसके लिए इन्हें अच्छी तरह से अग्निसह पदार्थों से बंद कर दिया जाता है अन्यथा वायु के प्रभाव से कोयला जलकर राख बन जाएगा और लोहे का ऑक्सीकरण होने लगेगा। पात्र को लगभाग 48 घंटे में 1,000° सें. तक गरम किया जाता है। इस ताप को सात से लेकर नौ दिनों तक स्थिर बनाए रखते हैं। इस क्रिया के परिणाम स्वरूप कोयले का कार्बन लोहे में प्रविष्ट हो जाता है। जब कार्बन पर्याप्त गहराई तक पहुँच जाता है तब पात्रों को एक सप्ताह की अवधि तक धीरे धीरे शीतल किया जाता है। इस प्रकार जो छड़ें निकलती हैं उनकी सतह पर फफोले दिखाई देते हैं। इसलिए इन्हें 'फफोलेदार इस्पात' (Blister Steel) कहते हैं। इस इस्पात को गरम करके पिटाई की जाती है जिससे यह समरस हो जाए।

कार्बाधिशोषण इस्पात की पिटाई करने के बाद भी इसमें न्यूनाधिक असमता रहती है। इस इस्पात को घड़िया (crucible) में द्रवित करके उसक रासायनिक संघटन एक सा कर लिया जाता है। इस क्रिया के द्वारा कार्बाधिशोषण इस्पात में विद्यमान धातुमल के कणों से भी मुक्ति मिल जाती है। इस कार्य के लिए अधिकतर 50 पाउंड धारितावली ग्रैफाइट की घड़िया प्रयुक्त की जाती हैं। इन घड़ियों में कार्बाधिशोषण इस्पात को रखकर इन्हें कोक भट्ठियों में गरम किया जाता है। घड़िया विधि में धातु का परिष्कार नहीं होता, इसलिए इसके लिए उपयुक्त प्रभार यथासmभव शुद्ध होना चाहिए। पहले इसी विधि के द्वारा उच्च कोटि का औजारी इस्पात तैयार होता था।

इस्पात-निर्माण में असली क्रांति १८५० के दशक के अन्तिम दिनों में आयी। बेसमर विधि प्रथम सफल विधि थी जिससे बड़ी मात्रा में इस्पात उत्पादन किया जा सकता था। इसके बाद खुला चुल्हा विधि आयी।

आधुनिक इस्पातनिर्माण को दो भागों में बांट सकते हैं - प्राथमिक तथा द्वितीयक इस्पातनिर्माण (primary and secondary steelmaking)। प्राथमिक इस्पात निर्माण उसे कहते हैं जिसमें इस्पात-निर्माण के लिये अधिकांशतः वात्या भट्ठी से निकले नये लोहे का उपयोग किया जाय। द्वितीयक इस्पातनिर्माण उसे कहते हैं जिसमें इस्पात निर्माण के लिये भंगार या कबाड़ इस्पात (scrap steel) का उपयोग हो। इस्पातनिर्माण के समय निकलीं गैसों का उपयोग उर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सकता है।

सन्‌ 1856 में हेनरी बेसेमर ने इस्पात उत्पादन की विधियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। इस विधि में नाश्पति में जिसे 'बेसेमर परिवर्तिद्ध' (Bessemer Converter) कहते है, द्रवित कच्चे लोहे में धौंकनी से वायु प्रवाहित की जाती है। द्रवित लोहे में विद्यमान अपद्रव्यों का ऑक्सीकरण वायु के ऑक्सीजन द्वारा होता है। ये क्रियाएँ ऊष्माक्षेपक होती हैं, इसलिए इस विधि में बाह्य ईधंन की आवश्यकता नहीं पड़ती। लोहे में विद्यमान अपद्रव्य ऑक्सीकृत होकर धातुमल बनाते हैं और बचा हुआ लोहा इस्पात का रूप धारण कर लेता है।

बेसेमर परिवर्तित्र का वाह्य भाग इस्पात पट्ट से बना होता है तथ अंदर की ओर ऊष्मसह पदार्थों के अस्तर दिए जाते हैं। बेसेमर विधि के अंतर्गत दो पद्धतियाँ प्रचलित हैं : (1) अम्लीय (acidic) तथा (2) समाक्षारीय (basic)। इन पद्धतियों का उपयोग कच्चे लोहे के गुणों पर निर्भर करता है। यदि कच्चे लोहे में फॉस्फोरस की मात्रा अधिक होती है तो समाक्षारीय विधि का उपयोग किया जाता है। जहाँ फॉस्फोरस के निराकरण की आवश्यकता नहीं होती वहाँ अम्लीय पद्धति व्यवहृत की जाती है। बेसेमर परिवर्तित्र के अंदर दिए जानेवाले ऊष्मसह पदार्थो के अस्तर उपयोग में लाई जानेवाली पद्धति पर निर्भर करते हैं। अम्लीय पद्धति में अधिकतर सिलिकामय पदार्थ (sileceous material) उपयोग में आते हैं जबकि समाक्षारीय पद्धति में समाक्षारीय पदार्थ, जैसे डॉलोमाइट (dolomite, CaCo3MgCO3), ही उपयोग में लाए जाते हैं।

बेसेमर परिवर्तित्र के नितल में हवा टोंटियाँ लगी होती हैं, जिनके द्वारा द्रवित लोहे में उच्च दाव (25 पाउंड प्रति वर्ग इंच) पर वायु धौंकनी से प्रवाहित की जाती है। उच्च दाब इसलिए आवश्यक है कि धमन काल में द्रव लोहा टोंटी के द्वारा परिवर्तितत्र के वायुधान (wind box) में न चला जाए। अम्लीय पद्धति में मुख्य अपद्रव्य सिलिकन, मैंगनीज़ तथा कार्बन होते हैं। इनके ऑक्सीकरण में लगभग 12 मिनट लगते हैं। पहले सिलिकन तथा मैगनीज़ का ऑक्सीकरण होता है और वे धातुमल बनाते हैं। फिर कार्बन ऑक्सीकृत होकर कार्बन मोनोक्साइड (CO) गैस बनाता है, जो परिवर्तित्र के मुँह पर प्रज्वलित होकर विशाल ज्वाला उत्पन्न करता है। इस क्रिया के बाद परिवर्तित्र पात्र को नमित करके तैयार इस्पात को दर्वी (ladle) में निकाल लिया जाता है। फिर आवश्यकतानुसार इसमें पुन: कार्बुरिकारक (recarburizer) तथा विऑक्सीकरण (deoxidizer) डालकर इस्पात को ऐच्छिक रासायनिक संघटन का बनाया जाता है।

समाक्षारीय पद्धति में सभी क्रियाएँ अम्लीय पद्धति की तरह ही होती हैं, परंतु उसमें फॉस्फोरस के ऑक्सीकरण के लिए 5-6 मिनट का अतिरिक्त समय लगता है। सिलिकन, मैंगनीज़, तथा कार्बन के क्रमिक ऑक्सीकरण के पश्चात्‌ ही फॉस्फोरस ऑक्सीकृत होता है और पात्र में विद्यमान चूने के साथ मिलकर समाक्षारीय धातुमल बनाता है। इस धातुमल को अलग करने के पश्चात्‌ ही धातु में पुन: कार्बुरीकारक तथा विऑक्सीकारक डाले जाते हैं।

एल. डी. विधि (L. D. Process)[संपादित करें]

इसे 'बेसिक आक्सीजन विधि' (basic oxygen steelmaking) भी कहते हैं। सन्‌ 1851 में आस्ट्रिया के लिंज तथा डोनाविट्ज़ धातुविज्ञों ने बेसेमर विधि के संपरिवर्तित रूप की खोज की, जिसे उनके नाम पर एल. डी. विधि कहा गया। इसमें परिवर्तित्र पात्र में द्रवित लोहे की सतह पर शुद्ध ऑक्सीजन प्रवाहित किया जाता है। इस विधि से अपद्रव्यों का शीघ्र ऑक्सीकरण होकर नाइट्रोजन रहित इस्पात की प्राप्ति होती है।

खुली चुल्ली भट्ठी विधियाँ (Open Hearth Processes)[संपादित करें]

सन् १८९५ में निर्मित खुली चूल्हा भट्ठी

आज विश्व का लगभग 75 प्रतिशत इस्पात उत्पादन खुली चुल्ली भट्ठी विधि से किया जाता है। इस कार्य के लिए खुली भट्ठी का उपयोग होता है। बेसेमर विधि की तरह ही इसमें भी अम्लीय तथा समाक्षारीय रूपांतरण (modifications) होते हैं। इन पद्धतियों का उपयोग कच्चे माल के रासायनिक संघटन पर निर्भर करता है। यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि खुली चुल्ली भट्ठी की इस्पात उत्पादन विधि में धातुमल की बनावट पर ही इस्पात का गुण निर्भर करता है। इसलिए इस विधि में धातुमल की तैयारी पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है। यदि समाक्षारीय धातुमल तैयार करने की आवश्यकता होती है, तो 'समाक्षारीय खुल्ली चुल्ली भट्ठी पद्धति' का उपयोग किया जाता है और यदि अम्लीय मल की आवश्यकता होती है तो 'अम्लीय विधि' का उपयोग होता है।

खुली चुल्लीभट्ठी 25 से 300 टन धारिता तक ही होती है। बड़े भ्राष्ट्रों का चुल्लीतल 15 फुट चौड़ा, 40 फुट लंबा तथा 20 इंच गहरा होता है। चुल्लीतल का निर्माण विभिन्न ऊष्मसह पदार्थों से होता है। अम्लीय पद्धति में अम्लीय ऊष्मसह तथा समाक्षारीय पद्धति में समाक्षारीय ऊष्मसह पदार्थ प्रयुक्त होते हैं। भ्राष्ट्र की दीवार तथ छत (roof) साधारणत: सिलिका ईटों की बनी हुई होती हैं। आजकल छत के लिए मैग्नेसाइट (magnesite) ईटों का भी उपयोग होने लगा है। चुल्लीतल के नीचे दोनों ओर ऊष्मसह ईटों के रोधकों (checkers) से निर्मित दो दो कक्ष होते हैं, जिन्हें 'पुनर्जनित्र' (Regenerator) कहते हैं। भ्राष्ट्र से बहिर्गामी दहन-उत्पाद एक ओर के दोनों पुनर्ज़नित्रों में से होकर गुजरते हैं और इस प्रकार अपनी ज्ञेय ऊष्मा (sensible heat) रोधकों को प्रदान करते हैं। कुछ समय पश्चात्‌ भट्ठी में दहन योग्य गैस तथा वायु इन तप्त रोधकों के द्वारा भेजी जाती हैं, जिससे ये (गैस तथा वायु) रोधकों से ऊष्मा प्राप्त करती हैं और तब दहन-उत्पाद दूसरी ओर के पुनर्जनित्रों से होकर गुजरता है। यह क्रिया 15-20 मिनट के अंतर पर दुहराई जाती है। इस प्रणाली के द्वारा भट्ठी में ईधंन तथा दहन के लिए आवश्यक वायु चुल्लीतल के दोनों ओर निर्मित दो अलग अलग मार्गों द्वारा भेजी जाती है। इन मार्गों को पोर्ट (Port) कहते हैं। बड़ी भट्ठियों में प्रभार को भरने के लिए सामान्यत: पाँच प्रभार द्वार (charging doors) होते हैं। द्रवित धातु तथा मल के निकलने के लिए भट्ठियों की पिछली दीवारों में 'टोंटी छिद्र (tap holes) होते हैं। इन भट्ठियों को तप्त करने के लिए गैसीय अथवा तरल ईधंन का प्रयोग किया जाता है।

खुल्ली चुल्ली भट्ठी में इस्पात उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में लोहा (ठोस तथा सरल), रद्दी माल (scrap) अथवा दोनों का मिश्रण उपयोग में लाया जाता है। भट्ठी के प्रभार के पश्चात्‌ प्रभार को द्रवित होने दिया जाता है। धातु के परिष्कार के लिए गालकों का उपयोग होता है, जिनमें पत्थर तथा लोह अयस्क प्रमुख हैं। लोह अयस्क के ऑक्सीजन के संपर्क से क्रमिक रूप से सिलिकन, मैंगनीज़ तथा फॉस्फोरस जैसे अपद्रव्यों का ऑक्सीकरण होता है और वे धातुमल बनाते हैं। तत्पश्चात्‌ लोहे के कार्बन का ऑक्सीकरण होता है, जो चूने में बुदबुदाहट उत्पन्न होने के काल में अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। जब धातु का रासायनिक संघटन ऐच्छिक विंदु पर पहुँच जाता है तब उसे दर्वी में निकाल लिया जाता है। वहाँ पर पुन: कार्बुरिकारक तथा विअक्सीकारक डाला जा सकता है। इस इस्पात को पिंड के रूप में संचित कर लेते हैं।

बहुधा अम्लीय बेंसेमर विधि के साथ समाक्षारीय खुली चुल्ली भट्ठी विधि का उपयोग किया जाता है। इसे डुप्ले विधि (Duplex Process) कहते हैं। जब अम्लीय बेसेमर तथा समाक्षारीय एवं अम्लीय खुली चुल्ली भट्ठी विधियों का उपयोग होता है तो उसे त्रिक या त्रिप्लेक्स, विधि (Triplex Process) कहते हैं।

इस्पात उत्पादन में मुख्यत: दो प्रकार की विद्युत्‌ भट्ठियों प्रयुक्त होती हैं :

  • (1) चाप भट्ठी (Arc Furnace) तथा
  • (2) प्रेरण भट्ठी (Induction Furnace)।

चाप भट्ठी में ग्रैफाइट विद्युदग्रों, अथवा विद्युदग्र और धातु, के बीच विद्युच्चाप बनता है, जिससे तेज ऊष्मा निकलती है और धातु का प्रगलन करती है। प्रेरण भट्ठी में धातु प्रेरित विद्युद्धारा के प्रवाह को अवरुद्ध करती है, जिससे ऊष्मा उत्पन्न होती है। बड़े परिमाण में इस्पात उत्पादन के लिए चाप भट्ठी ही अधिक उपयोगी है और इसकी धारिता एक टन से लेकर 100 टन तक ही होती है। प्रेरण भट्ठी मुख्यत: औजारी अथवा विशेष प्रकार के इस्पातों के उत्पादन में काम आती है।

चाप भट्ठी में विद्युदग्रों और धातु के बीच चाप उत्पन्न करके धातु का गलन होता है। गलन के पश्चात्‌ परिष्कार क्रिया आरंभ होती है, जो बहुत कुछ प्रभार के ऊपर निर्भर करती है। यदि प्रभार में अधिकांश रद्दी माल है, तो केवल विऑक्सीकरण की आवश्यकता पड़ती है और फिर कार्बनीकरण इत्यादि दर्वी में किया जा सकता है। प्रेरण भट्ठी में मुख्यत: गलन क्रिया ही की जाती है और वहाँ किसी प्रकार का परिष्करण संभव नहीं है।

ह्ल्सर्न इस्पात निर्माण प्रक्रिया[संपादित करें]

HIsarna steelmaking process

लौह-इस्पात उद्योग विश्व में अन्य सभी उद्योगों की जननी है। भारत में लौह इस्पात उद्योग का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। भारत में इसका आरम्भ 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में हुई। वर्तमान में भारत विश्व का चौथा इस्पात उत्पादक देश है।

भारत में देश का पहला लौह उद्योग कारखाना 1874 ईo में कुल्टी (आसनसोल, पश्चिम बंगाल) में बंगाल आयरन वर्क्स (BIW) के नाम से स्थापित किया गया। बाद में फण्ड के भाव में यह कंपनी बंद हो गयी और बंगाल सरकार ने इसका अधिकरण कर लिया। इसके बाद इसका नाम बदलकर 'बराकर आयरन वर्क्स' कर दिया गया।

बड़े पैमाने पर भारत का पहला कारखाना 1907 ईo में जमशेदजी टाटा द्वारा बिहार (अब झारखण्ड) के साकची नामक स्थान पर स्थापित किया गया।

भारतीय लौह इस्पात कारखाना – इसकी स्थापना 1918 ईo में प. बंगाल के हीरापुर नामक स्थान पर की गयी। सन् 1922 ईo में यहाँ पर उत्पादन शुरू हुआ। बाद में कुल्टी, हीरापुर, बर्नपुर स्थित संयंत्रों को भी इसी में मिला दिया गया।

मैसूर आयरन एण्ड स्टील वर्क्स – इसकी स्थापना 1923 ईo में कर्नाटक के भद्रावती नामक स्थान पर की गयी। अब इसे 'विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील कंपनी लिमिटेड' (VISCL) के नाम से जाना जाता है।

स्टील कॉर्पोरेशन ऑफ़ बंगाल – इसकी स्थापना 1937 ईo में बर्नपुर (प. बंगाल) में की गयी थी। 1953 ईo में इसे भारतीय लौह-इस्पात कंपनी में मिला दिया गया।

भिलाई इस्पात संयंत्र – इसकी स्थापना 1955 ईo में सोवियत संघ की मदद से दुर्ग जिले के भिलाई में की गयी। तब यह मध्य प्रदेश में था, अब छत्तीसगढ़ में है।

हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड, राउलकेला – पश्चिमी जर्मनी की सहायता से 1955 ईo में इसकी स्थापना राउरकेला (ओडिशा) में की गयी थी।

हिन्दुस्तान स्टील लिमिटेड, दुर्गापुर – 1956 ईo में इसकी स्थापना ब्रिटेन की सहायता से प. बंगाल के दुर्गापुर में की गयी थी।

बोकारो स्टील प्लान्ट – इसकी स्थापना 1968 ईo में सोवियत संघ की मदद से बोकारो में की गयी थी। तब यह बिहार में अवस्थित था, अब झारखण्ड में अवस्थित है।

स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (SAIL) – 24 जनवरी 1973 ईo को भिलाई, राउलकेला, बर्नपुर, सलेम, बोकारो, दुर्गापुर, विश्वेश्वरैया आयरन एन्ड स्टील कंपनी लिमिटेड को एक कर SAIL की स्थापना की गयी।

भारत में पहला लौह इस्पात कारखाना कौन सा है?

भारत में देश का पहला लौह उद्योग कारखाना 1874 ईo में कुल्टी (आसनसोल, पश्चिम बंगाल) में बंगाल आयरन वर्क्स (BIW) के नाम से स्थापित किया गया।

भारत का सबसे बड़ा लौह इस्पात कारखाना कौन है?

राउरकेला इस्पात कारखाना (आरएसपी) भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का पहला एकीकृत इस्पात कारखाना है। 10 लाख टन स्थापित क्षमता का यह कारखाना जर्मनी के सहयोग से स्थापित किया गया।

भारत में पहला कारखाना कब और कहां खुला?

Bharat Me Pehla Sooti Karkhana Kahan Sthapit Hua Tha ध्यान रहे की सबसे पहला सफल आधुनिक कारख़ाना 1854 में मुम्बई में ही कावसजी डाबर द्वारा खोला गया जिसमें 1856 में उत्पादन प्रारम्भ हुआ था।

लोहा इस्पात उद्योग का शुभारंभ कब हुआ?

भारत में लौह इस्पात उद्योग की प्रथम सफल इकाई की स्थापना स्वतंत्रतापूर्व 1874 में में हुई थी।