आम के पेड़ में कौन कौन से रोग लगते हैं? - aam ke ped mein kaun kaun se rog lagate hain?

आम के बागों में अनेक रोग लगते हैं| ये रोग नर्सरी से लेकर भंडारण तक हर स्तर पर नुकसान पहुंचाते हैं तथा पौधों के लगभग हर भाग को प्रभावित करते हैं, जैसे- तना, टहनी, पत्तियाँ, जड़, बौर और फल आदि| ये आम के रोग फलों में सड़न, पौधों में सूखा रोग, मिल्ड्यू, धब्बे, स्कैब, गोंद निकलना, सूखना, काली फफूंदी, गुम्मा आदि लक्षण प्रदर्शित करते हैं| कुछ रोग आम की फसल को भारी नुकसान पहुँचाते हैं और आम की फसल के कुछ क्षेत्रों में उत्पादन में बाधक हैं|

पाउडरी मिल्ड्यू, एन्थ्रेकनोज, डाई बैक, सूटी मोल्ड, गमोसिस, मालफौरमेशन (गुम्मा रोग), ब्लैक टिप और नेक्रोसिस आम के बागानों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं| इस लेख में आम के प्रमुख रोग की पहचान, उसके लक्षण एवं उनकी रोकथाम की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है| आम की वैज्ञानिक बागवानी की जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- आम की खेती कैसे करें

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा)

लक्षण- इस रोग के लक्षण बौरों, पूष्पक्रमों की डंडियों, पत्तियों तथा नए फलों पर देखे जा सकते हैं| इस रोग का प्रमुख लक्षण, सफेद कवक या चूर्ण के रूप में प्रकट होता है और उनके ऊपर अनगिनत कोनिडिया (बीजाणु) लड़ी में कोनिडियोफोर पर लगे होते हैं|

पत्तियों पर- नयी पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखता है| जब पत्तियों का रंग भूरे से हल्के हरे रंग में परिवर्तित होता है| नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो निचली सतह पर ज्यादा स्पष्ट होते हैं| धीरे-धीरे यह धब्बे बड़ा आकार लेते हुए कुछ जामुनी भूरा रंग ले लेते हैं| बाद में धब्बे अधिक गहरे रंग के हो जाते हैं| अनुकूल वातावरण मिलने पर कवक के बीजाणु एवं माइसीलियम काफी मात्रा में दिखाई देते हैं|

रोग से प्रभावित पत्तियाँ अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी मुड़ी हुई हो जाती हैं| अक्सर रोगाणु मध्य शिरा से पार्श्व शिरा के बीच में सीमित रहते हैं| हाल में ऐसा देखा गया है, कि मैदानी इलाकों में पत्तियाँ इस रोग के लगने पर विकृत हो जाती हैं| किन्तु पहाड़ी इलाकों में यह सलेटी भूरे धब्बों और सफेद चूर्ण के साथ दिखाई देती हैं|

पुष्पक्रम पर- इसमें रोग के बीजाणु बौरों पर सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ते हैं| जो बौर में लगे फूलों के झड़ने का कारण बनते हैं| भीतरी दल के मुकाबले वाह्य दल इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं| ग्रसित होने पर फूल खिलते नहीं हैं तथा समय से पहले ही झड़ जाते हैं| निषेचन के पहले फूलों के गिर जाने से भारी नुकसान होता है|

फलों पर- नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है| इसका अधिक प्रकोप होने पर फल की ऊपरी सतह फट जाती है तथा सतह खुरदरी हो जाती है| फल पर बैंगनी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं| मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं| इन छोटे फलों के झड़ने से फसल में भारी नुकसान होता है|

रोकथाम के उपाय-

1. रोगग्रसित पत्तियों और गुम्मा ग्रसित पुष्प गुच्छों की छंटाई से प्राथमिक रोगकारक की मात्रा को कम किया जा सकता है, जिससे बाद में रासायनिक नियंत्रण अधिक लाभप्रद होता है|

2. आमतौर पर देखा गया है, कि सबसे अधिक हानि पुष्पक्रम के रोग से प्रभावित होने से होती है| अतः कवकनाशी दवा का तीन छिड़काव बौर के निकलने के समय में 15 से 20 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए|

3. पहला छिड़काव विलयनशील सल्फर 0.2 प्रतिशत का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3 से 4 इंच का होता है|

4. दूसरा छिड़काव डिनोकेप (कैराथेन 0.1 प्रतिशत) का करना चाहिए, जो कि पहले छिड़काव के 15 से 20 दिनों के बाद करें|

5. दूसरे छिड़काव के 15 से 20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव ट्राईडीमार्फ (कैलिक्सीन 0.1 प्रतिशत) का करना चाहिए|

6. यदि बाग की नियमित देख-रेख की जा रही हो तो आवश्यकतानुसार छिड़काव के समय में परिवर्तन लाया जा सकता है| छिड़काव भी तीन से कम किए जा सकते हैं|

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एन्थ्रेकनोज (श्यामवर्णं)

लक्षण- पत्तियों, पर्णवृन्तों, टहनियों, मंजरियों और फलों पर यह रोग देखा जा सकता है|

पत्तियों पर- पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं| अधिक नमी होने पर यह कवक तेजी से बढ़ता है तथा रोग तेजी से फैलता है| इसके 20 से 25 मिलीमीटर तक के गोलाकार भूरे धब्बे बन सकते हैं| बाद में पत्तियों पर धब्बों की जगह छोटे-छोटे छेद बन जाते हैं|

पर्णवृन्तों और टहनियों पर- प्रभावित पर्णवृन्तों और टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं तथा फिर पूरी टहनी या पर्णवन्त सलेटी काले रंग की हो जाती है| पत्तियाँ नीचे की ओर झुक जाती हैं, सूखने लगती हैं एवं अंततः गिर जाती हैं| बाद में टहनियों पर काला निशान रह जाता है| नई शाखाओं का सिरा सूखने लगता है| सिरे से शुरू हो कर यह सूखना शाखा के नीचे तक पहुँच जाता है| इसे हम सिरा मुरझाने के नाम से जानते हैं, जो कि इस रोग की विशेष पहचान है|

बौर पर- बौर पर सबसे पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों और पुष्पवश्न्तों पर प्रकट होते हैं| बौर एवं खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरे-धीरे फैलते हैं तथा आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं| रोग से प्रभावित फूल झड़ जाते हैं एवं लम्बे समय तक टिकने वाले पुष्पवृन्त लगे रह जाते हैं|

फलों पर- बाग में फलों पर यह रोग गुप्त संक्रमण के रूप में प्रकट होता है| फलों पर बहुत छोटे छोटे धब्बे या निशान पड़ते हैं, जो ठीक से दिखाई भी नहीं देते, लेकिन भंडारण के समय ये पूरे फल को सड़ाते हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को वहाँ से हटा कर कहीं नष्ट कर देना चाहिए|

2. मंजरी संक्रमण को रोकने के लिए कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत) का दो बार छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करने से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है| पर्णीय संक्रमण को रोकने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 0.3 प्रतिशत का छिड़काव लाभप्रद पाया गया है|

3. थायोफनेट मिथाईल या कार्बेन्डाजिम (टॉपसिन एम या बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत) का बाग में तुड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकता है|

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डायबैक (उल्टा सूखा रोग)

लक्षण- यह रोग पूरे वर्ष में कभी भी देखा जा सकता है, किन्तु सबसे स्पष्ट रूप से इसे अक्टूबर से नवम्बर माह में देखा जा सकता है| इसका मुख्य लक्षण है, टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना| खास तौर पर पुराने पेड़ों में ज्यादा लगता है| इससे पत्ते सूख जाते हैं, जो कि आग से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं| प्रारम्भ में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं| जब यह धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियाँ सूख जाती हैं| ऊपर की पत्तियाँ अपना हरा रंग खो देती हैं तथा धीरे-धीरे सूख जाती हैं|

ऐसी टहनियों को यदि दो भागों में लम्बाई से काटें तो अन्दर की उत्तक में भूरापन दिखता है| शाखाएँ फटने लगती हैं, उनसे पीला गोंद निकलता है और फिर शाखाएँ सूख जाती हैं| यदि इससे नर्सरी में कलम बंधन का स्थान प्रभावित होता है, तो पौधे मर जाते हैं| पर्वसंधि गाँठ पर भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर संक्रमण होता है तथा प्रभावित टहनी का वह भाग दोनों तरफ से सूख जाता है|

रोकथाम के उपाय-

1. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे से छंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.3 प्रतिशत का छिड़काव रोग की रोकथाम में सबसे अधिक प्रभावशाली उपाय है|

2. यह ध्यान में रखना चाहिए कि कलम के लिए उपयोग में लाई जाने वाली सांकुर डाली रोग ग्रसित नही होनी चाहिए|

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गोंद निकलना

सामान्यतः रेतीली मिट्टी में उगाए जाने वाले आम के पौधों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है, किन्तु यह सभी तरह की मिट्टी में हो सकता है| यह रोग तने और शाखाओं पर प्रायः वर्षा ऋतु के पश्चात् सर्दी में देखा जा सकता है|

लक्षण- इस रोग में पेड़ के मुख्य तने, शाखाओं तथा पेड़ों की छालों पर गोंद का रिसाव देखा गया है| जहाँ-जहाँ सतह पर दरार होती है, वहाँ गोंद की संभावना ज्यादा रहती है| इसका प्रकोप बढ़ने पर गोंद की बूदों के तने पर रिसने से छाल गहरे भूरे रंग में बदल जाती है एवं लम्बाई में दरारें पड़ जाती हैं| बाद में छाल पूरी तरह सड़ जाती है और पेड़ दरार, सड़न तथा छाल हटने की वजह से अंततः पूरी तरह से सूख जाता है|

रोकथाम के उपाय-

1. रोग ग्रसित छाल या हिस्से को हटा कर सफाई के बाद बोर्डो लेप या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड लेप लगाना चाहिए|

2. कॉपर सल्फेट का 500 ग्राम प्रति वृक्ष की दर से या पेड़ की उम्र के हिसाब से, जड़ के चारों तरफ डालना उपयोगी होता है|

3. जहाँ बाग में पत्तियों पर धब्बों की रोकथाम के लिए नियमित रूप से कॉपर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव होता है, वहाँ यह रोग बहुत कम पाया जाता है|

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फोमा ब्लाइट

लक्षण- यह रोग आम की पुरानी पत्तियों पर अधिकतर देखा जाता है| प्रारंभ में छोटे अनियमिताकार पीले भूरे धब्बे बनते हैं| जो पूरी पत्तियों पर होते हैं| जैसे-जैसे ये धब्बे बड़े होते हैं, आपस में मिल कर बड़ा आकर ले लेते हैं| पूर्णतया विकसित धब्बों में गहरे भूरे रंग का किनारा होता है तथा मध्य भाग हल्के भूरे रंग का रहता है|

रोग बढ़ने की स्थिति में ये धब्बे आपस में मिल कर बड़ा धब्बा बनाते हैं और पत्तियों पर बड़े-बड़े सूखे धब्बे नजर आते हैं और बाद में ऐसी पत्तियाँ झड़ जाती हैं| ऐसे पेड़ दूर से ही पहचाने जा सकते हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. यदि पौधों को उचित पोषण मिलता है तो पौधे इस रोग से कम प्रभावित होते हैं|

2. रोग नियंत्रण के लिए बेनोमिल 0.2 प्रतिशत या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना उपयोगी पाया गया है|

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काली फफूदी (सूटी मोल्ड)

लक्षण- रोग का मुख्य लक्षण है, कि इसमें पत्तियों, शाखाओं तथा फलों पर काली मखमली पपड़ी सी दिखाई पड़ती है| ये पतले फैले हुए जाल से लेकर गहरे रंग की मोटी परत जैसी हो सकती है| फफूंद की माईसीलियम पत्ती की ऊपरी सतह पर ही फैली होती है और सतह से अंदर प्रवेश नहीं करती| रोग की अधिकता में जब फफूंद पूरी पत्तियों तथा शाखाओं पर अधिक फैल जाती है, तो कई बार पेड़ दूर से ही काला दिखाई पड़ता है|

रोग की अधिकता कीटों द्वारा निकाले गए मधुद्रव्य के ऊपर निर्भर करती है| बहुत अधिक मात्रा में जब इस फफूंद के काले बीजाणु पैदा होते हैं, तो ये मधूद्रव्य के साथ चिपक कर पत्तियों तथा अन्य भागों को ढ़क देते हैं| जिससे पेड़ काला दिखाई पड़ता है और इसीलिए इस रोग का नाम सूटी मोल्ड पड़ा है| कीटों द्वारा विसर्जित यह मधुद्रव्य जितना अधिक होगा, रोग भी उतना ही तीव्र होगा|

फूल आने के समय यदि मंजरी पर फफूंद लग जाती है, तो फल नहीं बनते तथा कभी कभी छोटे फल झड़ जाते हैं| तैयार फलों पर भी काली फफूंद विकसित होती है| जो फल के ऊपरी भाग में दोनों तरफ अधिक होती हैं| ऐसा होने पर फल पसन्द नहीं किए जाते हैं और यह बिक्री योग्य नहीं रह जाते हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. स्केल, गुजिया और भुनगा कीटों की रोकथाम उचित कीटनाशक से करने पर उनसे विसर्जित होने वाले मधुद्रव्य के अभाव में फफूंद भी पनप नहीं पाती है|

2. स्टार्च 2 प्रतिशत का भी प्रयोग छिड़काव हेतु किया जा सकता है|

3. विलनशील गंधक + डाइमेथोएट + गोंद ( क्रमशः 0.2, 0.05, 0.06 प्रतिशत) का छिड़काव काली फफूंद को रोकता है|

4. इंडियन ऑयल फारमुलेशन (ट्री स्प्रे आयल) नं 1 या 2 (3 प्रतिशत) का 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव भी प्रभावशाली पाया गया है|

5. कीट व फफूदीनाशक का प्रयोग इस तरह करना चाहिए कि पत्तियों की दोनों सतह पर दवा पड़ सके|

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स्कैब रोग

लक्षण- आम का यह रोग फफूंद पत्तियों, बौरों, टहनियों, तनों की छाल तथा फल पर लगती है| ये धब्बे गोल, कोणीय, दीर्घाकार 2 से 4 मिलिमीटर के होते हैं| किन्तु बारिश के मौसम में धब्बों के रंग तथा आकार में फर्क देखा गया है| इस रोग के लक्षण ऐन्ट्रेकनोज के लक्षण से काफी मिलते जुलते हैं, पर ये धब्बे थोड़े छोटे होते हैं और सतह मखमली होती है| रोग के बढ़ने पर पत्तियाँ मुड़ने लगती हैं तथा इनका आकार पूरी तरह बिगड़ जाता है, जिससे पत्तियां समय से पहले ही ये झड़ जाती हैं|

नई पत्तियों पर जो बड़े धब्बे पड़ते हैं, वे सलेटी रंग के होते हैं एवं इनका बाहरी किनारा पतला गहरा रंग लिए होता है| धब्बों का मध्य भाग सूखने के कारण झड़ जाता है, जिससे अनियमिताकार छेद बन जाते है, जिसे हम शॉट होल कहते हैं| तने व छाल पर भी अनियमिताकार सलेटी रंग के धब्बे पड़ जाते हैं|

छोटे फलों पर संक्रमण सलेटी से सलेटी भूरे रंग के धब्बों में गहरे रंग के अनियमित किनारों के रूप में दिखाई पड़ता है| जैसे-जैसे फल बड़ा होता है, ये धब्बे भी बड़ा आकार ले लेते हैं और इसका मध्य भाग फटा सा उभरा हो जाता है| फलों की सतह पर बीजाणु पैदा होते रहते हैं, जब तक कि फल परिपक्व नहीं हो जाते है|

रोकथाम के उपाय-

1. कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का 10 से 15 दिनों पर छिड़काव करके नई पत्तियों को बचाया जा सकता है|

2. स्वस्थ नर्सरी द्वारा इस आम के रोग की रोकथाम की जा सकती है|

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ब्लैक बैन्डेड रोग

लक्षण- आम के इस रोग से पत्तियों की मध्यशिराओं, तनों और शाखाओं पर काली मखमली फफूंद की परत पड़ जाती है| आमतौर पर मुख्य शाखाओं पर यह फफूंद बहुत कम देखी जाती है| किन्तु हाल ही में गुजरात में इसका प्रकोप अधिक पाया गया है| इसमें शाखाओं की छालों पर काली पट्टी या बैन्ड बन जाती हैं|

जो इस रोग का एक विशेष लक्षण है एवं इसी के कारण इस रोग का नाम ब्लैक बैंडेड पड़ा है| छाल के संक्रमित हिस्से में फफूंद के बीजाणु एवं माइसीलियम झुंड में होते हैं| गर्मी के मौसम में माइसीलियम व बीजाणु झड़ जाते हैं और सिर्फ हल्की काली पट्टी रह जाती है| फफूंद छाल के सिर्फ ऊपरी सतह पर ही रहती है|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के इस रोग के नियंत्रण के लिए पहले बोरी से काली फफूंद को रगड़ कर साफ करना चाहिए|

2. सफाई के बाद बोर्डो लेप या घोल 5:5:50 या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए|

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जड़ की सड़न (डैम्पिंग ऑफ)

लक्षण- आम के इस रोग से नई पौध के मिट्टी से निकलने के बाद अचानक पत्तियाँ झड़ जाती हैं| लम्बे समय तक वर्षा या आर्द्रता रहने से मिट्टी की सतह या फिर उसके नीचे संक्रमण फैलता है| इससे गोलाकार या अनियमिताकार जलसिक्त धब्बे पड़ जाते हैं| ये धब्बे बढ़ते हैं एवं फिर नीचे तने को पूरी तरह घेर लेते हैं|

सड़न होने के कारण रोग ग्रसित भाग गल जाता है और गहरे भूरे या काले रंग में बदल जाता है| इसके फलस्वरूप पौधा गिर कर मर जाता है| संक्रमित भाग पर फफूंद की माइसीलियम एवं स्क्लेरोशिया देखी जा सकती है| जमीन के ऊपर और नीचे जड़ तक तना इससे प्रभावित होता है और जड़ का विगलन हो जाता है|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के इस रोग से बचाव के लिए नर्सरी में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए|

2. आम के इस रोग से बचाव हेतु नर्सरी ऊँची जमीन पर होनी चाहिए|

3. नर्सरी की मिट्टी को फार्मलीन से उपचारित करना चाहिए|

4. नर्सरी में ट्राइकोडरमा डालना लाभप्रद पाया गया है|

5. जब पौधे बढ़ रहे हों तो 1.5 प्रतिशत बोर्डो घोल (7.5 : 7.5 : 50) का पौधों एवं मिट्टी पर हर सप्ताह छिड़काव करना चाहिए|

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बैक्टीरियल कैंकर

लक्षण- यह रोग पत्तियों, पर्णवृन्तों, तनों, टहनियों, शाखाओं तथा फलों पर पाया जाता है|

पत्तियों पर- आम के इस रोग से छोटे-छोटे जलसिक्त अनियमित कोणिक उभरे हुए 1 से 4 मिलीमीटर के धब्बे पत्तियों पर पड़ जाते हैं| प्रारम्भ में ये धब्बे भूरे हल्के पीले किनारों के होते हैं जो बाद में बढ़ कर अनियमिताकार गहरे भूरे कैंकर में परिवर्तित हो जाते हैं| सामान्यतया यह पत्तियों की निचली सतह पर अधिक होते हैं| नई पत्तियों पर धब्बों के किनारे की पीली धारी चौड़ी होती है तथा एकदम साफ दिखाई देती है|

जबकि पुरानी पत्तियों पर ये धारी पतली होती है और इसकी पहचान पत्तियों को सिर्फ रोशनी की दिशा में रख कर देखने से हो सकती है| रोग की तीव्रता बढ़ने पर पत्तियाँ पीली पड़ती हैं तथा पेड़ से गिर जाती हैं| कभी-कभी पर्णवृन्तों का कैंकर पत्तियों की मध्यशिरा तक फैल जाता है|

टहनी और शाखाओं पर- आम के इस रोग से टहनी, शाखाओं तथा तने पर नये विकसित धब्बे जलसिक्त, गहरे भूरे, सतह से उठे हुए होते हैं, जिस पर लम्बी दरारें पड़ती हैं| जिससे अन्दर की कोशिकाएं दिखने लगती है और गोंद बाहर निकलने लगता है| संक्रमण अन्दर तक फैला होता है| अंदर की सतह का काला पड़ना और छाल में दरार पड़ना इसके विशेष लक्षण हैं|

फलों पर- फलों पर इसके लक्षण आसानी से पहचाने जा सकते हैं| जलसिक्त, गहरे भूरे से लेकर काले धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में उभरे या चपटे कैन्कर में बदल जाते हैं| ये धब्बे 5 मिलीमीटर तक बढ़ कर पूरे फल को ढक देते हैं| बाद में यही धब्बे फट जाते हैं तथा बैक्टीरियायुक्त रिसाव होता है|

कभी-कभी फटी हुई सतह से गूदा दिखने लगता है, जिस पर कीड़े और अन्य सूक्ष्म जीव हमला करते हैं| जिसके फलस्वरूप फल सड़ जाते हैं| फलों की डंडी पर जहाँ से फल जुड़ा होता है, जब रोग लग जाता है, तो फल गिर जाते हैं| प्रकोप अधिक बढ़ने पर गूदा और गुठलियाँ भी संक्रमित हो जाती हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के बाग की बराबर निगरानी तथा साफ-सफाई रखना रोग की बढ़त को रोकता है| संक्रमित फलों, पत्तियों और टहनियों को जला कर नष्ट कर देना चाहिए|

2. मूलवृन्त हेतु प्रमाणित पौधों से स्वस्थ गुठलियों का चयन और प्रयोग करना चाहिए|

3. स्ट्रेप्टोसाइकलीन (200 पी पी एम) के तीन छिड़काव हर 10 दिनों के अन्तराल पर करने से फलों के संक्रमण को कम किया जा सकता है|

4. अधिक प्रकोप होने पर स्ट्रेप्टोसाइकलीन (300 पी पी एम) तथा साथ में कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) मिला कर छिड़काव करना चाहिए|

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रेड रस्ट (लाल रतुआ)

लक्षण- इस आम के रोग की पहचान आसानी से की जा सकती है| इसमें पत्तियों, शिराओं, पर्णवन्तों तथा नई टहनियों पर काई के बीजाणु बनते हैं| जो जंग के धब्बे (लाल रंग) से प्रतीत होते हैं| प्रारम्भ में ये धब्बे मखमली कुछ हरापन सलेटी रंग लिए होते हैं, जो बाद में ताँबे के रंग के हो जाते हैं| ये धब्बे गोलाकार से अनियमिताकार दो मिलीमीटर से शुरू होकर एक सेंतिमितात तक के होते हैं| बीजाणुओं के झड़ने के बाद पत्तियों पर सिर्फ गोलाकार सफेद चिन्ह ही रह जाते हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के इस रोग से बचाव के लिए संतुलित पोषण से पौधे स्वस्थ रहते हैं|

2. बोर्डो घोल (5:5:50) या कॉपर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत) का प्रयोग लाभकारी है| चूंकि बारिश के आगमन के साथ ही रोग फैलता है, अतः जुलाई में 15 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव जरूरी है|

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लाइकेन रोग

लक्षण- इस आम के रोग का प्रभाव पुराने पेड़ों के तनों, शाखाओं तथा टहनियों पर अधिक दिखता है| अधिक नमी व वर्षा वाले क्षेत्रों में और उन बागों में जिनमें अच्छी देख-रेख न हो उनमें इसका प्रकोप अधिक होता है| तना, शाखाओं, पत्तियों तथा टहनियों पर अनेक आकार के सफेद या गुलाबी रंग के उभरे हुए धब्बे बढ़ते हैं| ऐसे पेड़ों, जिसमें लाइकेन का प्रकोप अधिक होता है, उनकी बढवार रुक जाती है| लाइकेन पेड़ों को सीधा नुकसान नहीं पहुँचाते बल्कि पेड़ों का रूप बिगाड़ देते हैं| जिससे पेड़ अस्वस्थ दिखाई पड़ते हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के इस रोग से बचाव के लिए बाग की देखभाल और संतुलित पोषण पौधों को स्वस्थ रखता है|

2. लाइकेन की रोकथाम के लिए पहले रोगग्रसित भाग को बोरी से रगड़ कर साफ करके फिर कॉस्टिक सोडा (1 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए|

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भंडारण में फलों की सड़न

लक्षण- आम के इस रोग की शुरुआत गुप्त संक्रमण के रूप में बागों में होती है| भंडारित आम के फलों पर काले धब्बे पड़ जाते हैं| प्रारम्भ में ये धब्बे गोल होते हैं, जो बाद में बढ़ कर बड़े अनियमिताकार हो जाते हैं| कभी-कभी ये पूरे फल को ढक देते हैं और बाद में धब्बों में फटन दिखाई देती है तथा फफूंद फल के अंदर प्रवेश करके फलों को सड़ा देती है| नमी होने पर काले पड़े धब्बों की सतह पर गुलाबी रंग के बीजाणु पनपते हैं| फल के कंधे की तरफ नीचे की ओर धारियाँ पड़ना, काला पड़ना भी इस रोग के लक्षण हैं|

रोकथाम के उपाय-

1. आम के इस रोग की रोकथाम का मुख्य उपाय है कि तुड़ाई के 15 दिनों पूर्व कार्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथाईल (बाविस्टीन या टॉपसिन एम 0.1 प्रतिशत अर्थातू 1 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करनाचाहिए| इससे फलों के गुप्त संक्रमण की रोकथाम होती है||

2. तुड़ाई के उपरांत फलों को गर्म पानी से उपचारित या गर्म पानी के साथ फफूंदीनाशक मिला कर उपचारित करने से रोग की बाद में रोकथाम की जा सकती है|

3. यदि फलों को तुड़ाई के बाद केवल 52+-1डिग्री सेंटीग्रेट पर 30 मिनट तक उपचारित किया जाए तो रोग की अच्छी रोकथाम होती है| इस अवधि को 15 मिनट तक कम किया जा सकता है| यदि गर्म पानी के साथ कार्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथाइल (बाविस्टीन या टॉपसिन एम 0.05 प्रतिशत) मिला कर फलों को उपचारित किया जाए|

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स्टेम एन्ड रॉट (ढेपी विगलन रोग)

लक्षण- आम के इस रोग की शुरुआत फल के उस छोर से होती है, जहाँ डंठल लगी होती है| डंठल लगे भाग के पास से फल पर भूरा गोलाकार धब्बा बनना शुरू होकर फल के निचले हिस्से में पहुँचते हुए पूरे फल को भूरा, फिर काले रंग का कर देता है| यह सड़न की प्रक्रिया इतनी तेजी से होती है कि 2 से 3 दिनों में पूरा फल सड़ जाता है| जब फल कहीं से चोट खा जाए या फिर कट फट जाए तो ऐसी स्थिति में इस रोग की शुरुआत डंडी से न होकर कहीं और से भी हो सकती है| पके हुए फलों पर ही यह रोग देखा गया है|

रोकथाम के उपाय-

1. तुड़ाई से 15 दिनों पहले कार्बेन्डाजिम या थायोफेनेट मिथाईल (बाविस्टीन या टॉपसिन एम 0.1 प्रतिशत) का छिड़काव, तुड़ाई के उपरान्त इस रोग से मुक्ति दिलाता है|

2. चूंकि आमतौर पर इस आम के रोग की शुरुआत डंठल के पास से फल पर शुरू होती है, अतः यदि डंठल के साथ फलों को तोड़ा जाय तो रोग को रोका जा सकता है|

3. यदि डंठल के साथ फल नहीं तोड़ा गया हो तो उस स्थान पर तुड़ाई के ठीक बाद मोम लगा देना लाभदायक होता है| जिससे आम के रोगकारक फल में प्रवेश न कर पाए||

4. फलों को 0.05 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 0.05 प्रतिशत) मिले गरम पानी (52+-1 सेंटीग्रेट) में 5 मिनट के लिए डुबोने के बाद भंडारित करने से भी इस रोग की रोकथाम की जा सकती है|

ब्लैक रॉट (काली सड़न)

लक्षण- आम के रोग से फलों पर पीले, हल्के सलेटी रंग के अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं, जो बाद में काले रंग के हो जाते हैं| काले रंग के धब्बों के ऊपर फफूंद के बीजाणु दिखाई देते हैं| धब्बों के नीचे तथा आस-पास के हिस्से गल जाते हैं, जिससे दुर्गन्ध आने लगती है| यह गलन की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ती है, किन्तु सड़न के लिए फल का कटा-फटा होना या चोट लगा होना आवश्यक है| फल की डंडी लगे स्थान से भी सड़न आरंभ हो सकती है| क्योंकि वहाँ उत्तक खुली होती है तथा फफूंद खुली सतह से अन्दर प्रवेश कर जाती है|

रोकथाम के उपाय-

1. फलों की तुड़ाई के समय विशेष सावधानी बरतनी चाहिए| फलों पर किसी भी तरह की चोट न पहुँचे| चोट लगने से एस्परजिलस फर्मूद फलों में आसानी से प्रवेश कर जाती है|

2. फलों को जमीन पर नहीं गिरने देना चाहिए और फलों पर मिट्टी नहीं लगने देना चाहिए|

3. फलों की तुड़ाई एवं भंडारण सावधानीपूर्वक स्वच्छ वातावरण में करना चाहिए|

4. रोग से बचाने के लिए फलों को 0.05 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम मिले गरम पानी 52+-1 डिग्री सेंटीग्रेट में 5 मिनट के लिए डुबो कर उपचारित कर भंडारित करना चाहिए|

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तुड़ाई के बाद फलों को रोग से बचाने संबंधी सावधानियां-

आम के फलों में तुड़ाई के बाद अनेक रोग परिवहन और भण्डारण के समय लग सकते हैं| इसके लिए निम्न सावधानिया बरतना आवश्यक है| जो इस प्रकार है, जैसे-

1. फलों की तुड़ाई सावधानीपूर्वक करनी चाहिए, जिससे फलों में किसी प्रकार की चोट न लगे|

2. फलों को करीब 5 सेंटीमीटर लम्बी डंडियों सहित तोड़ना चाहिए|

3. फलों को पैकिंग के पहले चेप निकलने के लिए उलटा रखकर चेप निकाल देनी चाहिए| यह ध्यान रखना चाहिए कि चेंप फलों पर न लगे|

4. बाग में तुड़ाई के बाद फलों को मिट्टी के सम्पर्क से बचाना चाहिए| इसके लिए साफ पालीथीन बाग में बिछाकर फलों को इकट्ठा किया जा सकता है|

5. फलों को नई पेटियों में ही भण्डारित करना चाहिए, ज्यादा उपयुक्त यह रहेगा कि गत्ते की नई पेटियों का इस्तेमाल किया जाये|

6. पेटियों में लगाने वाले लाइनिंग कागज सीले तथा पुराने नहीं होने चाहिए| ठीक से सूखे तथा नए कागज का प्रयोग अधिक उपयुक्त होता है|

7. आम के रोग से बचाव के लिए पेटियों में उपर और नीचे की तह को गद्देदार रखना चाहिए, जिससे फलों में परिवहन के दौरान किसी प्रकार की चोट न लगे|

8. आम की पेटियों को सावधानीपूर्वक उतारना चढ़ाना चाहिए, फेंकना नहीं चाहिए|

9. तोड़े गए आमों में एक भी आम ऐसा पेटी में नही रखना चहिए जो जरा सा भी रोग ग्रस्त हो, इससे अन्य आम संक्रमित हो जाते हैं|

10. यदि इन उपरोक्त आम सावधानियों को अपनाया जाए तो भण्डारण के समय फलों में लगने वाले रोगों से फलों को आसानी से बचाया जा सकता है|

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आम में कौन कौन से रोग होते हैं?

कुछ रोग आम की फसल को भारी नुकसान पहुँचाते हैं तथा कुछ क्षेत्रों में आम की फसल के उत्पादन में बाधक हैं। पाउडरी मिल्ड्यू, ऐन्थ्रेकनोज, डाई बैक, सूटी मोल्ड, गमोसिस, मॉलफौरमेशन ( गुम्मा रोग), ब्लैक टिप और नेक्रोसिस आम की फसल को भारी नुकसान पहुँचाते हैं ।

आम के पेड़ में कौन सी दवाई डालनी चाहिए?

अलवर| इन दिनों आम के पेड़ों में फूल आना और फल बनना शुरू हो जाते हैं। छोटे फलों को गिरने से रोकने के लिए 2, 4डी नामक दवा 2 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। यह छिड़काव तब करना चाहिए, जब फल मटर के दाने के बराबर हो जाएं।

आम का पेड़ क्यों सूख जाता है?

बहराइच : आम के पेड़ो में लगने वाला उल्टा सूखा रोग व तना छेदक कीट हरियाली का दुश्मन बन रहा है। रोग के प्रकोप से आम का हरा भरा पेड़ कुछ महीनों में ही सूख कर ढांचे में तब्दील हो जाता है। आम के पेड़ में तना बेधक कीट एक प्रमुख समस्या बन कर उभरा है। इस रोग का कीड़ा पौधे के तने में छेद कर अंदर घुस जाता है।

आम का कोयली रोग क्या है?

ब्लैक टिप / कोइली रोग (black tip /Koili rog): इस बीमारी में सबसे पहले फल का अग्र भाग काला पड़ जाता है, इसके बाद ऊपरी हिस्सा पीला पड़ जाता है। तत्पश्चात गहरा भूरा और अंत में काला पड़ जाता है। यह रोग दशहरी किस्म के आम में अधिक होता है।