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कबीर के दार्शनिक विचार
कबीरदास के निर्गुण ब्रह्म
कबीर के अनुसार आत्मा-
कबीर के अनुसार जगत-
कबीर के अनुसार माया-
माया ऐसी पापिणी, फन्दा ले बैठी हाट । सब जग तो फन्दा परया, कबीरा आया काट ॥ माया मन में आशा, तृष्णा, मान, सम्मान, लोभ-मोह, क्रोध आदि को जन्म देती है। वह मन को अपने वशीभूत कर जीव को ब्रह्म की ओर उन्मुख नहीं होने देती य मन को प्रभावित कर साधना- पथ से विचलित कर देती है। कबीर ने ऐसे मन की निंदा की भर्त्सना करते हुए कहा है कि कोटि करम पल मैं करै, यह मन विषिय स्वादि। सतगुरु सब्द न मानई, जनम गंवाया बादि । ऐसे विषय आसक्त मन को ईश्वर की ओर उन्मुख करने के लिए कबीर ने उसे मार डालने की बात कही क्योंकि तभी जीव को ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है यथा- मैं मंता मन मारि रे, नान्हा करि-करि पीसि। तब सुख पावै सुन्दरी, ब्रह्म झलकै सीसि ॥ माया को वशीभूत करने के लिए कबीर ने भक्ति का मार्ग सुझाया है। भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण करने से माया का अन्धकार विलीन हो जाता है और जीव को मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। कबीर के अनुसार सहज साधना-
सहज, सहज सब कोई कहें, सहज- चीन्हें कोइ । जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कही जै सोइ ।। कबीर की साधना में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। कबीर ने सहज साधना को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनकी साधना में ज्ञान, योग और प्रेम की महती भूमिका है। कबीर की साधना में तीर्थ-व्रत, संन्यास, धूनी रमाना, शारीरिक आसन, प्राणायाम और ब्रह्म आडम्बरों के लिए कोई स्थान नहीं है वे तो नाम स्मरण, ब्रह्म में चित्त को स्थापित करने, अजपाजाप, तथा सहज शून्य में समाधि को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं। कबीर की सामाजिक चेतना
कबीरदास : एक सामाजिक विश्लेषणजिन दिनों कबीरदास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदुओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएं प्रचलित थी। कोई वेद का दीवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान-पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे,. मदिरा सेवा में ही सब कुछ पाना चाहते थे तथा कुछ लोग तंत्र-मंत्र, औषधादि करामात को अपनाए हुआ था। यथा - इक पठहिर पाठ, इक भी उदास, इक नगन निरन्तर रहे निवास, इकं जीग जुगुति तन खनि, इक राम नाम संग रहे लीना। कबीर ने अपने चारों-ओर जो कुछ भी देखा-सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया: ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै ।. कबीर दास जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित आडम्बर देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया - पंडित देखहु मन मुँह जानी। कछु धै छूति कहाँ ते उपजी, तनहि छूति तुम मानी। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन । किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी- तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद, हम कत लौहू तुम कत दूध, जो तुम बामन बामनि जाया, आन घाट काहे नहि आया।
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।
Also Read.... कबीर की दार्शनिक विचारधारा का सम्यक विवेचन कीजिए?कबीर ने जगत को परमब्रह्मा परमेश्वर की सत्ता माना है। उन्होंने जगत को सत्य, नित्य, शाश्वत एवं चिन्तन माना है, लेकिन वे संसार और जीवन को असत्य और क्षणभंगुर मानते हैं। कबीर के अनुसार संसार के विषयों से सुख प्राप्ति की अभिलाषा मात्र भ्रम है। मनुष्य संसार में आकर विषय-वासनाओं एवं सांसारिकता में रहकर दुःख जाग्रत करता है।
कबीर के दार्शनिक विचारों का निरूपण?भक्तिकाल के वे पहले ऐसे संत है जिन्हें पूर्ण भक्त का दर्जा प्राप्त है। "कविता करना उनका लक्ष्य नहीं था। उनका लक्ष्य भगवत भक्ति था और उस सिलसिले में उन्होंने जो कुछ कहा या लिखा, यदि उसमें कविता है, तो जैसा कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है, वह घलुए में मिली वस्तु है । "1 इस प्रकार कबीर मूलत: भक्त हैं।
कबीर का दार्शनिक सिद्धांत किस वाद पर आधारित है?इन्होनें हिन्दुओं से अद्वैतवाद को ग्रहण किया तथा सूफियों के भावनात्मक रहस्यवाद के के द्वारा उसे एक नया रूप दे दिया। इन्होनें सिद्धों तथा नाथ योगियों की योग साधना तथा हठयोग को ग्रहण किया और वैष्णवो से अहिंसा तथा 'प्रपत्ति' भाव लिया। इस प्रकार कबीर ने 'सार-सार को' ग्रहण किया तथा जोकुछ भी 'थोथा' लगा उसे उड़ा दिया।
कबीर के सामाजिक दर्शन की विवेचना?कबीर जिस दुरावस्था के काल में पैदा हुए उस समय पूरी सामाजिक व्यवस्था अन्तर्विरोधों, रूढ़ियों, ढोंगों से जर्जरित होकर दिशाहीन हो गयी थी। इसलिए उन्होंने अंधविश्वासों रूढ़ियों और सामाजिक विषमताओं के विरोध में तूफानी अभियान चलाया था।
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