योग में बंद कितने प्रकार के होते हैं - yog mein band kitane prakaar ke hote hain

बंध का अर्थ है रोकना, कसना, बांधना या ताला लगाना। यदि हम योग में 'बंध' की बात करें तो यह शरीर के कुछ हिस्सों में ऊर्जा प्रवाह को रोककर, उसे अन्य अंगों में प्रवाहित या संचित करने का कार्य करता है। सही मायनों में यह ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। इससे आंतरिक अंगांे की मालिश होती है तथा रक्त का जमाव दूर होता है। इसके अलावा, यह अंग विशेष से संबंधित नाडि़यों के कायोर्ं को नियमित करता है, जिससे शरीर स्वस्थ रहता है।
बंध एक अंत: शारीरिक प्रक्रिया है। इसके अभ्यास से शरीर की अनेक क्रियाएं साधक के चेतन नियंत्रण में रहती हैं। सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करने वाली ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद ग्रंथि इस अभ्यास से खुल जाती हैं, जिससे आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न होती है। इस प्रकार यह भौतिक और मानसिक बिखराव को नियंत्रित करता है।
बंध चार प्रकार के होते हैं -जालंधर बंध, उड्डियान बंध, मूल बंध तथा महाबंध। महाबंध अन्य तीनों बंधों का सम्मिलित रूप है। इन तीनों बंधों को करने की विधियां, लाभ तथा सावधानियां यहां दी गई हैं:
जालंधर बंध
विधि:
-ध्यान के किसी ऐसे आसन में बैठिए, जिसमें घुटने जमीन से सटे रहें। सिद्धासन, पद्मासन या सिद्धयोनिआसन इसके लिए अच्छे हैं। इसमें रीढ़, गला तथा सिर एक सीध में होना चाहिए।
-हथेलियों को घुटनों पर रखें। आंखों को बंद कर पूरे शरीर को ढीला कीजिए। धीरे-धीरे गहरी सांस अंदर (पूरक) लेकर सांस को अंदर रोक (अंतर्कुम्भक) लीजिए।
-अंतर्कुम्भक की स्थिति में हाथों की कुहनियों को सीधा रख घुटनों पर दबाव डालते हुए कंधों को थोड़ा सामने झुकाकर ऊपर उठाइए। सिर को सामने इस प्रकार झुकाइए कि ठुड्डी कंठ कूप से सट जाए।
-बंध की इस स्थिति में आराम के साथ तब तक रुकिए जब तक सांस को भीतर रोक सकें, किंतु अधिक बल न लगाएं।
-रेचक के पहले सिर को सीधा कीजिए तथा कंधों को सामान्य स्थिति में लाइए, कुहनियों को मोड़कर ढीला कीजिए। अब धीरे-धीरे सांस बाहर (रेचक) निकालें।
यह जालंधर बंध की एक आवृत्ति है। सांस को कुछ देर सामान्य कर लेने के बाद इसी प्रक्रिया को दोहराएं। जालंधर बंध का अभ्यास बहिर्कुम्भक के साथ भी किया जा सकता है।
लाभ
इससे परेशानी, चिंता और क्रोध दूर होते हैं। गले की थॉयराइड और पैराथॉयराइड ग्रंथियों को उद्दीप्त कर इनके कार्य को संतुलित करता है तथा इससे इनकी मालिश होती है। यह क्रिया साधक को ध्यान के लिए तैयार करती है।
सावधानियां
-सर्वाइकल, स्पॉन्डिलाइटिस, अंत:कपाल दबाव, चक्कर आना, उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोग से पीडि़त व्यक्तियों को जालंधर बंध का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
-पूरक एवं रेचक में सिर एकदम सीधा होना चाहिए।
-कुम्भक की अवधि को बढ़ाने में ज्यादा जोर न लगाएं।
उड्डियान बंध
विधि
-पद्मासन, सिद्धासन या सिद्धयोनिआसन में बैठ जाएं। घुटने स्थिरता से जमीन में सटे रहें। हथेलियों को घुटनों पर रखें।
-आंखें ढीली बंद कर पूरे शरीर को विश्रांत कीजिए।
-दीर्घ रेचक कीजिए। सांस को बाहर रोककर बहिर्कुम्भक लगाएं।
-हाथों की कुहनियों का सीधा रख घुटनों पर दबाव डालते हुए कंधों को थोड़ा सामने झुकाकर ऊपर उठाएं। उसके बाद जालंधर बंध लगाएं।
-अब उदर की मांसपेशियों को अंदर एवं ऊपर की ओर संकुचित कीजिए। जिससे उदर धनुषाकार हो जाए।
-आरामदायक अवधि बहिर्कुम्भक एवं बंध लगाए रखें। उसके बाद उड्डियान बंध छोड़ें, फिर जालंधर बंध। उसके बाद हाथ एवं कुहनियों को सामान्य करते हुए सांस अंदर (पूरक) लें।
-यह एक चक्र हुआ। अगले चक्र का अभ्यास शुरू करने से पहले सांस को सामान्य कर लें।
लाभ
- यह उदर एवं जठर की बीमारियों के लिए रामबाण है। बदहजमी, अपच, पेट के कीड़े और मधुमेह की अवस्था को दूर करता है यह।
-यह उदर के सभी अंगों को व्यवस्थित कर उनकी क्रियाशीलता बढ़ाता है। यकृत, क्लोम वृक्क, तिल्ली की मालिश करता है। यह बंध पूरे शरीर में प्राण ऊर्जा के वितरण पर प्रभाव डालता है।
सावधानियां
-जिन्हें उदर अथवा आंत्न व्रण, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, हॉनिर्या अथवा कोलाइटिस हो, उन्हें उड्डियान बंध का अभ्यास नहीं करना चाहिए। गर्भावस्था में महिलाओं को यह अभ्यास रोक देना चाहिए, लेकिन शिशु जन्म के बाद पेट तथा मूत्नाश्य को सक्रिय करने के लिए यह बंध बहुत लाभदायक माना जाता है।
- जठर एवं आंतों को खाली करके ही इस बंध का अभ्यास करना चाहिए। इसका अभ्यास अंतर्कुम्भक में कभी नहीं करना चाहिए।
मूल बंध
विधि
-सिद्धासन अथवा सिद्धयोनिआसन मूलबंध के लिए आदर्श माने जाते हैं।
-गहरा पूरक कर सांस अंदर रोक (अंतर्कुम्भक) लें। हाथ को सीधा तानकर हथेलियों से घुटनों पर दबाव बनाएं। अब मूलाधार क्षेत्र की मांसपेशियों को जितना संभव हो, कसकर ऊपर की ओर संकुचित करें, लेकिन अत्यधिक बल प्रयोग से बचें।
-मूलाधार क्षेत्र पुरुषों में पेरेनियम अर्थात् मलद्वार और जननेंदिय के बीच में होता है तथा महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा के पीछे, जहां योनि एवं गर्भाशय मिलते हैं।
अब मूलबंध ढीला करें, उसके बाद हाथ एवं कुहनियों को सामान्य करें। फिर रेचक करें। यह बंध बहिर्कुम्भक के समय में भी किया जा सकता है। इसके 10 चक्र करें।
लाभ
मूलबंध से अनेक शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं। यह श्रोणि प्रदेश की नाडि़यों को उद्दीप्त करता है तथा मूत्र, जनन एवं उत्सर्जन तंत्रों में सामंजस्य लाता है। यह यौन इच्छाओं को स्थापित करने तथा अनेक यौन रोगों को दूर करने का अच्छा साधन है।
सावधानियां
जालंधर बंध के समान यह अभ्यास केवल अनुभवी शिक्षक के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए, क्योंकि यह ऊर्जा स्तरों को शीघ्रता से उन्न्त करता है और यदि गलत ढंग से किया जाए तो अति सक्रियता के लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं।
कौशल कुमार -योग आचार्य

हठयोग के सन्दर्भ में बन्ध अभिप्राय है - बन्धन, एक साथ मिलाना या पकड़। यह एक प्रकार की शारीरिक स्थिति है जिसमें शरीर के कुछ अवयव या अंगों को सिकोड़ा अथवा नियंत्रित किया जाता है। शरीर में प्राण के संचार हेतु ऊर्जा के अपव्यय को रोकने में बन्ध का उपयोग किया जाता है तथा अन्यत्र हानि पहुंचाए बिना ऊर्जा को यथास्थान ले जाने में बन्ध का उपयोग सावधानीपूर्वक किया जाना आवश्यक भी है। प्रमुख बन्ध ये हैं-

  • मूल बन्ध
  • उड्डियान बन्ध
  • जालन्धर बन्ध
  • महा बन्ध

बंध कितने प्रकार के होते हैं Yoga?

बन्ध चार प्रकार के होते हैं। मूल बन्ध : गुदा संबंधी रोक। उड्डियान बन्ध : मध्य पेट को उठाना। जालन्धर बन्ध : ठोड्डी को बन्द करना।

बंध के दो प्रकार क्या है?

आबंध के प्रकार आयनिक बन्ध- यह बन्ध आयनों के मध्य आकर्षण से बनता है। 2. सहसंयोजक आबन्ध - इलेक्ट्रॉन के समान साझा से बनता है।

प्रमुख बंद कितने होते हैं?

पाँच प्रमुख बंध इस प्रकार हैं

योग में बंध का अर्थ क्या है?

बंध का अर्थ है रोकना, कसना, बांधना या ताला लगाना। यदि हम योग में 'बंध' की बात करें तो यह शरीर के कुछ हिस्सों में ऊर्जा प्रवाह को रोककर, उसे अन्य अंगों में प्रवाहित या संचित करने का कार्य करता है। सही मायनों में यह ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। इससे आंतरिक अंगांे की मालिश होती है तथा रक्त का जमाव दूर होता है।