सब्सक्राइब करे youtube चैनल Show वृद्धजनों की प्रमुख समस्याओं पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए , वृद्धों की समस्या और समाधान | वृद्धजनों की समस्या तथा उसके कारणों की व्याख्या कीजिए पर लेख या निबंध लिखिए problems of old age essay in hindi in india in sociology ? वृद्धों की समस्या का स्वरूप समस्या के आयाम वृद्धों की समस्या तो तब उठती है जब वे वृद्धावस्था की तरफ अग्रसर होते हुए अपने जीवन में कुछ विशेष घटनाओं का सामना करते हैं और उन्हें समाज से सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। इस तरह की घटनाओं को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी की घटनाएँ वृद्ध व्यक्तियों के विकास से संबंधित होती हैं जबकि दूसरी श्रेणी में ऐतिहासिक काल की घटनाएँ होती हैं, जब व्यक्ति वृद्ध हो रहा होता है। अतः समाज में वृद्धों की प्रस्थिति को जनसांख्यिकीय संक्रमण, उद्योगीकरण, आधुनिकीकरण आदि प्रक्रियाएँ प्रभावित करती हैं।
वृद्ध व्यक्ति विशेष के समक्ष समस्याएँ तथापि मानव की समाज में तालमेल करने की योग्यता न केवल विद्यमान विशेषताओं और क्षमताओं पर निर्भर करती है बल्कि समाज में वृद्धों के समायोजन के लिए मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों द्वारा भी उनको सहायता प्रदान की जा सकती है चाहे वे अनुकूल हों अथवा न हों। यह सब वृद्धों के जीवन काल के दौरान घटने वाली प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं पर भी निर्भर करता है। जनसांख्यिकी एवं सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन तथा वृद्ध जन क) जनसांख्यिकीय संक्रमण एवं वृद्ध जनसांख्यिकीय संक्रमण का तात्पर्य है वह प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई देश अथवा समाज अपनी उच्च जन्म दर और मृत्यु दर से किस प्रकार निम्न जन्म दर और निम्न मृत्यु दर की ओर अग्रसर होता है। पहली स्थिति को पूर्व-संक्रमण अवस्था (pre-transitional stage) के नाम से जानते हैं और दूसरी स्थिति को उत्तर-संक्रमण अवस्था (post-transitional stage) के नाम से जानते हैं। इन दोनों अवस्थाओं के बीच की अवधि को संक्रमण अवस्था के नाम से जानते हैं जिसको फिर से प्रारंभिक, मध्य और बाद की अवस्थाओं में विभाजित किया गया है। जब तक धीरे-धीरे संतुलन नहीं हो जाता तब तक संक्रमण अवस्था के दौरान जन्म दर की तुलना में मृत्यु दर में अपेक्षाकृत तेजी से कमी आती है और धीरे-धीरे इनके बीच संतुलन हो जाता है। इससे उत्तर-संक्रमण अवस्था में पर्दापण होता है। पिछले कुछ दशकों में भारत में ऐसा अनुभव किया गया है कि मृत्यु दरों और जन्म दरों में परिवर्तन में एक विशिष्ट विन्यास होने से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। इसी प्रकार जैसे-जैसे जन्म दर गिरती जा रही है, एक ओर जनसंख्या के आयु परिवृत्य के कारण, बच्चों का अनुपात गिर रहा है और दूसरी और वृद्धों का अनुपात बढ़ रहा है। समाज में जितनी कम प्रजनन दर होगी, उतना ही ज्यादा वृद्धों का अनुपात होगा। इसलिए जो विकसित देश निम्न प्रजनन दरों के कारण अपनी उत्तर-संक्रमण अवस्था में हैं, कुल मिलाकर उनमें भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले जनसंख्या में वृद्धों का उच्च अनुपात है। ख) औद्योगिकीकरण, आधुनिकीकरण एवं वृद्धजन पूर्व-औद्योगिक समाज में परिवार भी उत्पादन की एक इकाई होता था तथा उत्पादनकारी सम्पत्ति का नियंत्रण परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के हाथों में होता था जो उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं में कमी आने के बावजूद उनके प्रभाव एवं उनकी स्थिति को कायम रखता था। इसी प्रकार कोई वृद्ध अपने पारिवारिक उद्यम में उस समय तक जब तक कि उसके स्वास्थ्य की स्थिति अच्छी रहे, काम कर सकता है और घटती हुई कार्यक्षमता के अनुरूप ही वह वो कार्य करता
है जिस कारण उसकी जीर्णन प्रक्रिया (aging process) धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। दूसरी ओर आधुनिक औद्योगिक समाज में परिवार अपने उत्पादन प्रकार्य से अलग होने लगता है तथा परिवार के युवा या कनिष्ठ संबंधी अपने-अपने परिवार को और अधिक समृद्ध बनाने के उद्देश्य से अपने वरिष्ठ सदस्यों से आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के लिए अलग हो जाते हैं। इससे परिवार का ढाँचा बदल जाता है। सामान्यतः वृद्धों की समस्या के संबंधों में पूर्वोलिखित विवरण की पृष्ठभूमि में हम भारत में रहने वाले वृद्धों की समस्याओं के कुछ पहलुओं की आगे चर्चा
करेंगे। वृद्धों की कुछ जनसांख्यिकीय, आर्थिक तथा उनकी स्वाथ्य संबंधी स्थिति के बारे में देखी गई प्रवृत्तियों और उनके रहने की व्यवस्था एवं समाज में उनका सामंजस्य तथा उनकी समस्या के समाधान में लोगों की प्रतिक्रिया के संबंध में आगे विवेचना की गई है। कुछ वृद्ध लोग अवश्य ही आस-पड़ोस में आपके संपर्क में आते रहते होंगे। अपने अनुभव और बातचीत के आधार पर एक टिप्पणी लिखिए। वे कौन-से कारण हैं जिनसे वृद्धों के लिए गहन समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। यदि संभव हो तो अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों से अपनी टिप्पणी की तुलना कीजिए। वृद्धों की जनसांख्यिकीय विशेषताएँ वृद्धों की जनसंख्या में वृद्धि तालिका 1: व्यापक आयु-वगों द्वारा कुल जनसंख्या का प्रतिशत वितरण, 1901-2000 यदि आप कुछ क्षणों के लिए तालिका 1 में दिए गए कालम को ध्यान से देखें जिसमें 60़ वर्ष के समूह से संबंधित वृद्धों का प्रतिशत दिया गया है तो आपको पता चलेगा कि वर्ष 1901 से 2000 तक के लिए यह प्रतिशत 5.05 से 7.6 तक है। इन तथ्यों को ध्यान में रखने से पता चलता है कि कुछ विकसित देशों में 60 वर्ष से अधिक लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है किंतु भारत में वृद्धों की आयु का प्रतिशत प्रभावपूर्ण नहीं लगता परंतु यह महत्त्वपूर्ण बात है कि 1950 के दशक से भारत में वृद्धों की आयु का प्रतिशत लगातार तेजी से बढ़ा है, वर्ष 2000 में यह 7.6 तक पहुंच गया है। वृद्धों की जनसंख्या के प्रतिशत में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। चूंकि भारत हाल ही के दशक में जनसांख्यिकीय संक्रमण की विश्व प्रक्रिया की संक्रमण अवस्था से गुजर रहा है और तदनुसार आने वाले दशकों में वृद्धों के प्रतिशत में वृद्धि दर बहुत तेजी से बढ़ेगी। भारत में वृद्धों की जनसंख्या की एक अन्य आश्चर्यजनक विशेषता इसका प्रभावपूर्ण सुनिश्चित आकार है। वर्ष 1981 में इनकी जनसंख्या 4.3 करोड़ थी, 1991 में यह अनुमानतः 5.5 करोड़ रही और वर्ष 2001 में यह संख्या 7.5 करोड़ की सीमा को छू गई। किसी भी मानक पर ये चुनौती देने वाले आँकड़े हैं यदि हम उनकी स्थिति को ध्यान में रखते हुए वृद्धों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रयासों तथा संसाधनों को जुटाते हैं। निर्भरता अनुपात भारत की जनसंख्या की युवा प्रकृति के कारण देश के समक्ष बहुत बड़ी जनसंख्या में युवा निर्भरता अनुपात विद्यमान हैं जो 1971 में सबसे अधिक 80 प्रतिशत से ज्यादा था। दूसरी ओर वृद्ध निर्भरता अनुपात बहुत कम है। यह अनुपात 1951 तक 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं गया था। परंतु 1961 से यह अनुपात बढ़ता ही जा रहा है और 1991 में एक समय ऐसा आया जब यह अनुपात 12.26 प्रतिशत तक पहुँच गया था। यह अनुपात पिछले नौ दशकों के दौरान सबसे अधिक था। जैसा कि तालिका 2 में दिखाया गया है वृद्ध निर्भरता अनुपात में वृद्धि होगी। तालिका 2: भारत में लिंग-वार वृद्धावस्था पराश्रितता अनुपात जोड़ पुरुष यद्यपि, युवा और वृद्ध निर्भरता अनुपात की प्रवृत्तियाँ विपरीत दिशा की ओर जाती हैं, इससे कामकाजी आयु के लोगों द्वारा वहन की जाने वाली समूची निर्भरता के लिए अधिक परिमाणात्मक अंतर पैदा नहीं होता। लेकिन इसे समाज द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के लिए गुणात्मक अंतर पैदा होते हैं। जब युवा निर्भरता अनुपात अधिक होता है तो स्वास्थ्य देखभाल तथा बच्चों की स्कूली शिक्षा के लिए सुविधाओं की व्यवस्था करने के लिए हमें और अधिक ध्यान देना पड़ेगा, जबकि वृद्ध निर्भरता भार अधिक होने के कारण वृद्धों के लिए जराचिकित्सा स्वास्थ्य रक्षा (हमतपंजतपब ीमंसजी बंतम) तथा उनके लिए आवास-व्यवस्था उपलब्ध कराना बहुत महत्त्व रखता है। लिंग अनुपात यह भी ध्यातव्य है कि लिंग के अनुसार महिलाओं में वृद्धों का प्रतिशत पुरुषों में वृद्धों के प्रतिशत से अधिक है। विकसित देशों में जन्म के समय पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की जीवन-प्रत्याशा लगभग 6-8 वर्ष ज्यादा होती है और सामान्य जनसंख्या और वृद्धों में महिलाओं का अनुपात अधिक होता है। जनसांख्यिकीय संक्रमण की प्रगति के साथ-साथ जीवन-प्रत्याशा में लिंग अनुपात और लिंग-संबंधित विभेद के संबंध में भारत में स्थिति विकसित देशों में मौजूद स्थिति की तरह ही हो जाने की संभावना है। शहरी-ग्रामीण वितरण शहरी क्षेत्रों में मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धों का अप्रत्याशित रूप से उच्च प्रतिशत दूसरी प्रवृत्ति से जोड़ा जा सकता है अर्थात् ग्रामीण से शहरी प्रवसन। भारत में शहरी जनसंख्या में ग्रामीण प्रवासियों का अनुपात अधिक है, और प्रायः प्रवासी युवा वृद्ध माता-पिता को अपने गृह समुदायों में छोड़ जाते हैं। इसी प्रकार शहरों में जटिल आवास समस्या के कारण कुछ सेवानिवृत्त व्यक्ति विशेषकर निम्न आर्थिक श्रेणियों के वृद्ध बसने के लिए शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों में अपने गृह समुदायों के पास वापस चले जाते हैं। मुम्बई से लगे कोंकण क्षेत्र जैसे कुछ क्षेत्र जिनसे बहुत बड़ी संख्या में प्रवासी बड़े शहरों में आते हैं, उनकी जनसंख्या में वृद्धों का अनुपात अपेक्षाकृत बहुत अधिक होता है। वैवाहिक प्रस्थिति देश आयु-वर्ग (वर्षो में) पुरूष महिला वृद्ध महिलाओं में वैधव्य की उच्च दर कुल मिलाकर निराशाजनक है क्योंकि आर्थिक सहायता के लिए महिलाएँ पुरुषों पर बहुत अधिक आश्रित रहती हैं और उनके पति ही उनके कानूनी प्रतिपालक होते हैं। इसलिए हमारे समाज में नियमतः एक विधवा की स्थिति एक विधुर की स्थिति के मुकाबले अधिक दुःखद है। शैक्षिक पृष्ठभूमि हमारे यहाँ वृद्धों में व्यापक निरक्षरता है। 1981 में आम जनसंख्या में 53 प्रतिशत पुरुष और 75 प्रतिशत महिलाएँ निरक्षर थीं और यह प्रतिशत वृद्ध पुरुषों में और महिलाओं में क्रमशः 65 और 92 था। इसी प्रकार के अंतर सभी शैक्षिक स्तरों पर पाए जाते हैं। तेजी से बदलते हुए समाज में जब वृद्ध महिलाओं को नई भूमिकाएँ ग्रहण करने की जरूरत होती है तो कुल मिलाकर वृद्धों की निम्न शैक्षिक पृष्ठभूमि, विशेषकर वृद्ध महिलाओं की पृष्ठभूमि उन्हें बहुत नाजुक स्थिति में पहुंचा देती है। बोध प्रश्न 1 वृद्धों की आर्थिक विशेषताएँ वृद्धों के सामाजिक समायोजन का एक प्रमुख कारक है उनकी आर्थिक स्थिति जिसे उनकी रोजगार प्रस्थिति और आय में विभाजित किया जा सकता है वृद्धावस्था में आय का कम होना अथवा आय का बिल्कुल न होना ही एकमात्र संभावना नहीं होती बल्कि यह तथ्य जानना भी जरूरी कि वृद्धावस्था में उन्हें अपना काम-धंधा छोड़ देने से, उन पर हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं। व्यवसाय व्यक्ति के लिए केवल आय का साधन ही नहीं होता बल्कि इससे वह स्वयं को समाज जोड़ता है। व्यवसाय या रोजगार व्यक्ति को आत्म, पहचान और सामाजिक प्रस्थिति प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वृद्धों के सामाजिक समायोजन पर ऐतिहासिक परिवर्तनों के प्रभाव को आर्थिक समंजन से कहीं भी बेहतर अनुभव नहीं किया जाता। औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण के कारण हाल ही के दशकों में आर्थिक ढांचे में गुणात्मक परिवर्तन होता रहा है जो महत्वपूर्ण तरीके से वृद्धों की आर्थिक भूमिका को प्रभावित कर रहा है। अतीत की असंगठित पूर्व-औद्योगिक अर्थव्यवस्था में वृद्ध जब तक चाहते थे तब तक अपने पारिवारिक उद्यम में कार्य करते थे परंतु संगठित आधुनिक अर्थव्यवस्था में वृद्धों को अनिवार्य सेवा निवृत्त कर दिया जाता है अनिवार्य कार्यमुक्ति या सेवा, निवृत्ति वृद्धों के लिए कई समस्याएँ उत्पन्न करती है जिनमें आय का समाप्त हो जाना या उसमें कमी आ जाना तो केवल एक समस्या है। इसीलिए श्रमिक बल में वृद्धों की सहभागिता के बारे में जानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कार्य
सहभागिता आमतौर पर पुरुषों और महिलाओं की कार्य सहभागिता दर में व्यापक अंतर है। तदनुसार, 1981 में वृद्धों में 63.71 प्रतिशत पुरुष और 10.19 प्रतिशत महिलाएँ श्रमिक बल में थीं। किंतु वृद्धों की कार्य सहभागिता के बदलते हुए विन्यास को जानने के लिए आपके लिए केवल वृद्ध पुरुषों की संबद्ध प्रवृत्तियों पर ध्यान देना ही काफी होगा। सामान्यतया पुरुष की जब श्रमिक बल में सहभागिता बहुत अधिक हो जाती है तो लगभग 97 प्रतिशत लोग रोजगार में लगे पाए जाते हैं। इसलिए यह तथ्य कि केवल 63.71 प्रतिशत पुरुष ही 1981 में श्रमिक बल में थे तो इससे अर्थ यह निकलेगा कि लगभग 33 प्रतिशत अथवा एक-तिहाई पुरुष वृद्धावस्था के कारण श्रमबल से हट गए थे। उसी प्रकार भारत में वृद्ध पुरुषों की कार्य सहभागिता दर इस तथ्य को मानते हुए बहुत ऊँची है कि विकसित देशों में यह दर बहुत ही कम है।भारत में वृद्ध पुरुषों की अपेक्षाकृत उच्च कार्य सहभागिता
दर इस तथ्य पर आधारित है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण के अत्यंत निम्न स्तर पर है। इसलिए यह दर्शाया जा सकता है कि भारत मे वृद्ध पुरुषों की कार्य सहभागिता दर उद्योगीकरण के स्तर से जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए, कई दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था का उद्योगी करण हो रहा है और यह अधिकाधिक संगठित हो रही है। इसीलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मुकाबले शहरी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक संगठित है। तदनुसार यह पता चलता है कि कई दशकों से वृद्धों की कार्य सहभागिता दरें, शहरी और ग्रामीण
क्षेत्रों में गिरी हैं, और एक निश्चित कालावधि में शहरी दर ग्रामीण दर से बहुत कम है। आपको इन प्रवृत्तियों की जानकारी तालिका 4 में दी गई जानकारी से मिलेगी। चूंकि महिलाओं की कार्य सहभागिता दरें सामाजिक सांस्कृतिक कारकों द्वारा प्रभावित होती हैं, इसलिए उनके मामले में कोई भी ध्यान देने योग्य प्रवृत्ति नहीं है जिससे आर्थिक परिवर्तन हो सकता हो। अतः यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा संगठित होती जा रही है, वैसे-वैसे भविष्य में वृद्ध पुरुषों की कार्य सहभागिता दरों में और ह्रास होता जा रहा है। जो वृद्ध अभी भी रोजगार में लगे हैं वे अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में मुख्य रूप से कार्य कर रहे हैं और वे उन काम-धंधों में लगे हैं जो अपेक्षाकृत कम लाभकारी हैं। आर्थिक प्रस्थिति यद्यपि कई वृद्ध जो सरकारी सेवा जैसे संगठित क्षेत्र से सेवानिवृत्त होते हैं उन्हे पेंशन अथवा भविष्य निधि लाभ के माध्यम से आंशिक आय की सुरक्षा प्रदान की जाती है। लेकिन उनमें से कुछ ही व्यक्ति वित्तीय समस्याओं से मुक्त होते हैं। यदि पेंशन वाले वृद्धों की आर्थिक दशा काफी खराब होती है तो उनकी सामान्य स्थिति तो और भी ज्यादा खराब हो जाती है। वृद्धों की आर्थिक समस्याओं पर किए गए अध्ययन के व्यापक निष्कर्षों से पता चलता है कि वृद्धों की आय अधिक नहीं है और जिन परिवारों के साथ वे रहते हैं, वे परिवार निम्न आय-समूहों से संबंधित है इसलिए वित्तीय चिंताएँ अधिकांश वृद्धों की दुविधापूर्ण समस्या है। वृद्धों की आर्थिक स्थिति के बारे में व्यापक जानकारी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 52वें चक्र से प्राप्त की जा सकती है। 1995-96 में ग्रामीण क्षेत्रों में 60.3 प्रतिशत वृद्ध पुरुष और शहरी क्षेत्रों में 35.3 प्रतिशत वृद्ध पुरुष आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे। शेष आंशिक तौर पर या पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर थे। वृद्ध महिलाओं में ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 17.3 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 9.2 प्रतिशत ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र थीं। यहाँ तक कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र पुरुषों और महिलाओं पर परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल करने की जिम्मेदारी का भार होता है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में 69 प्रतिशत आर्थिक रूप से स्वतंत्र वृद्ध पुरुषों पर ही परिवार के अन्य सदस्य आश्रित थे। वृद्धावस्था में जो अपर्याप्त आय के कारण सबसे अधिक कष्ट में हैं वे हैं निर्धन वर्ग के वरिष्ठ सदस्य (बुजुर्ग) जो आमतौर पर अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक अथवा असंगठित क्षेत्र में कार्य करते हैं और जिन्हें पेंशन लाभ प्राप्त नहीं होते। उनके पास अपनी बचत राशि भी नहीं होती और उनके कनिष्ठ संबंधी भी, जो अपना निर्वाह ही कर पाते हैं, उनकी सहायता करने में असमर्थ होते हैं। सबसे अधिक दुख की बात यह है कि गरीबों को जो कठिन व शारीरिक श्रम करना पड़ता है वह वृद्धावस्था में नहीं किया जा सकता। फिर भी परिस्थितियों से मजबूर होकर वृद्ध निर्धन व्यक्तियों को तब तक कार्य करते रहना पड़ता है जब तक वे शारीरिक रूप से टूट नहीं जाते और भूख से मर नहीं जाते। वृद्धों का सामाजिक समायोजन वृद्धों की जनसांख्यिकीय, आर्थिक और स्वास्थ्य परिस्थितियों के संबंध में आगामी चर्चा से भारत में वृद्धों की कुछ महत्त्वपूर्ण समस्याओं के बारे में बतलाया गया है। आपने पढ़ा है जनसंख्या में वृद्धों का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ रहा है और साथ ही साथ बहुत तेजी से वृद्धों को आधुनिक और संगठित अर्थव्यवस्था से निष्कासित अथवा अलग किया जा रहा है। जो वृद्ध श्रमिक बल में रहते हैं अर्थात् कार्यरत रहते हैं वे अर्थव्यवस्था के कम लाभकारी अनौपचारिक क्षेत्र तक सीमित रहते हैं। इसलिए वृद्धों की आर्थिक असुरक्षा का उत्तरोत्तर अधिक खतरा होता जा रहा है। महिलाएँ वृद्धावस्था में विशेषतौर पर असुरक्षित हो जाती हैं। पुरुषों के मुकाबले वृद्ध महिलाओं का शिक्षा स्तर बहुत कम होता है, लाभकारी रोजगार में भागीदारी बहुत कम होती है और उनके पास आर्थिक परिसंपत्ति या तो नाममात्र या होती ही नहीं है। इसलिए वे लगभग पूरी तरह से अपने पुरुष संबंधियों पर निर्भर होती हैं। वे इसलिए भी मजबूर हो जाती हैं कि उनमें से अधिकांश महिलाएँ विधवा होती हैं अर्थात् उनका कानूनी प्रतिपालक नहीं होता। इसलिए वृद्ध महिलाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असुरक्षा बहुत ज्यादा होती है। जैसा कि पहले बतलाया गया है कि वृद्धों की समस्याएँ उनके जैविक, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय जीर्णन और समाज में दूरगामी ऐतिहासिक परिवर्तनों में मौजूद होती हैं। आइए, अब यह देखें कि वृद्ध अपने आपको इन परिस्थितियों में समाज के साथ कैसे ढाल रहे हैं। अतीत में वृद्धों के रहने की व्यवस्था परंपरागत भारतीय समाज में वृद्धों की परिवार में एक सम्मानित प्रस्थिति होती थी। उनकी प्रतिष्ठित प्रस्थिति आदर्श परिवार की भाँति विशेष स्वरूप की देन थी जो संयुक्त परिवार कहलाता था। संयुक्त परिवार में कई पीढ़ियों के सगे-संबंधी होते थे जो एक ही वंश के होते थे और वे पति/पत्नी और बाल-बच्चों के साथ रहते थे। संयुक्त परिवार में कई प्रकार के संबंधी होते थे और निस्संतान, अविवाहित अथवा विधवा/विधुर वृद्ध व्यक्ति परिवारों में रह सकते थे। परंतु संयुक्त परिवार में संबंधियों की नातेदारी के विन्यास नातेदारी प्रथा के सिद्धांतों द्वारा निर्धारित किए जाते थे चाहे वह देश के अधिकांश भागों में अपनाई पितृवंश परंपरा हो अथवा कुछ क्षेत्रों में प्रचलित मातृवंश परंपरा हो। उदाहरण के लिए, पितृवंश नातेदारी प्रथा में वृद्ध अपनी पुत्री तथा दामाद के साथ नहीं रहते। परंतु वास्तव में संयुक्त परिवार अपने वृद्ध सदस्यों के प्रति कार्य करने के लिए जिस कारण से प्रेरित था वह भी पूर्व-औद्योगिक आर्थिक व्यवस्था और मध्यकालीन संपत्ति अवधारणाएँ पूर्व-औद्योगिक आर्थिक व्यवस्था में, जैसे कि कृषि अर्थव्यवस्था में अब भी है, परिवार उत्पादन की एक इकाई था और मध्यकालीन संपत्ति अवधारणाओं ने वृद्ध व्यक्तियों विशेषकर वरिष्ठ पुरुष सदस्य को परिवार की उत्पादक परिसपंत्ति का कर्ता-धर्ता बना दिया था। इस प्रकार के ढाँचे में कनिष्ठ सदस्य वरिष्ठ सदस्यों पर आर्थिक रूप से निर्भर थे। इस प्रकार आर्थिक निर्भरता द्वारा मजबूत किए गए संतान संबंधी प्रेम और कर्तव्य ने कनिष्ठ सगे-संबंधियों को अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों की बेहतर देखभाल करने के लिए बाध्य कर दिया था। बदलती हुई परिवार-व्यवस्था उभरती अर्थव्यवस्था में, परिवार के कमाऊ सदस्य जो कि एक उत्पादन इकाई नहीं है, परिवार से बाहर रोजगार पाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। ऐसे मामलों में न केवल परिवार के छोटे संबंधी सदस्य बड़े सदस्यों के आर्थिक सत्ता से मुक्त होते हैं बल्कि उनमें से कुछ अपनी अलग गृहस्थी भी बसा लेते हैं और यहाँ तक कि अन्य स्थानों में चले जाते हैं। इन परिस्थितियों में वृद्ध व्यक्ति को अपने निजी संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि किसी वृद्ध की आय पर्याप्त नहीं होती तो वह दूसरों पर आश्रित हो जाता है क्योंकि वृद्धों के बढ़ते हुए अनुपात के कारण ऐसा हो भी रहा है। आप वृद्धों का आर्थिक स्तर से संबंधित भाग में पहले ही देख चुके है कि अधिकांश वृद्ध आंशिक तौर पर या पूर्ण तौर पर दूसरों पर निर्भर हैं। भारत में परिवार व्यवस्था विश्व की अन्य परिवार व्यवस्थाओं की भाँति परिवर्तनीय स्थिति में है। प्राचीन संयुक्त परिवार के ढाँचे से जुड़े परिवार अब तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। इसके स्थान पर परिवार के अधिक सरल ढाँचे बन रहे हैं जो उत्पादन की एक इकाई होते हुए भी परिवार पर निर्भर नहीं होते। परिवार के बनते-उभरते ढाँचों से एकल परिवार (छनबसमंत थ्ंउपसल) विकसित हो रहा है जिसमें इकाई के रूप में पति, पत्नी और बच्चे होते हैं। वृद्ध माता-पिता की उपस्थिति के कारण नाभिक परिवार साधारण वंशगत संयुक्त परिवार का रूप ले सकता है जिसमें वृद्ध माता-पिता में विवाहित पुत्र अथवा पुत्री में से किसी एक के साथ रहते हैं। जब सभी बच्चों (संतान) का विवाह होता है तो वृद्ध पति पत्नी या तो स्वयं एक साथ रह सकते हैं या वृद्ध व्यक्ति विधुर/विधवा हो जाए तो वह बिल्कुल अकेला भी रह सकता है। वृद्धों के रहने की व्यवस्थाओं की उपर्युक्त संभावनाओं को भारत में वृद्धों के रहने की व्यवस्थाओं में दर्शाया गया है। यह राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 52वें चक्र से पता चलता है। यथोचित निष्कर्ष तालिका 6 में प्रस्तुत किए गए हैं। आपके लिए तालिका 6 का ध्यान से अवलोकन करना उचित होगा। आपको पता चलेगा कि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में लगभग 86 प्रतिशत वृद्ध या तो अपने जीवन-साथी अर्थात् पति या पत्नी के साथ या अपनी संतानों के साथ रह रहे हैं। लगभग 6 प्रतिशत वृद्ध ग्रामीण क्षेत्रों में और 4 प्रतिशत वृद्ध शहरी क्षेत्रों में अकेले रहते हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गैर-संबंधियों और वृद्ध आश्रम (ओल्ड एज होम) में रहने वाले वृद्धों का प्रतिशत नाममात्र है। अतः अधिकतर वृद्ध अपने सगे-संबंधियों के साथ रहते हैं। तालिका 6: लिंग के आधार पर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में वृद्धों की विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों में वृद्धों के संबंध में किए गए विभिन्न अध्ययनों की जानकारी से पता चलता है कि यदि हम पिछले इतिहास को देखें तो अपनी संतान के साथ रहने वाले वृद्धों का प्रतिशत पहले ज्यादा था। अन्य देश जो भारत से बहुत आधुनिक हैं, वहाँ की प्रवृत्तियों को देखने से पता चलता है कि इस श्रेणी की रहने की व्यवस्थाएँ और घटती जा रही हैं और ‘‘अकेले रहना‘‘, ‘‘पति या पत्नी के साथ रहना‘‘ की श्रेणियाँ बढ़ती जा रही हैं। इस प्रकार वृद्धों के वर्तमान परिवार का दायरा अधिकाधिक सीमित होता जा रहा है जिससे वृद्धों के लिए नई-नई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इस प्रकार की दो महत्त्वपूर्ण समस्याओं की ओर आपका ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। पहली समस्या है वृद्धों के अंतर्वैयक्तिक पारिवारिक संबंध। ये संबंध वृद्धों के अपने पुत्रों के साथ रहने के बावजूद अत्यधिक जटिल होते जा रहे हैं। ऐसा विशेषकर शहरी क्षेत्रों में है। पहले जब परिवार के संसाधनों का नियंत्रण वृद्धों द्वारा किया जाता था तो पुत्र अपने माता-पिता पर आश्रित होते थे। आज स्थिति बिल्कुल उल्टी है। आज अधिक से अधिक माता-पिता आर्थिक रूप से अपने पुत्रों पर निर्भर हैं जिस कारण वृद्धों के आत्म-सम्मान को हानि पहुँच रही है। दूसरी समस्या है परिवार में मौजूद देखभाल करने वाले लोगों की संख्या घटती जा रही है। अब पुत्रों के घरों में वृद्ध अपनी पुत्रवधुओं की सेवाएँ प्राप्त नहीं कर सकते जबकि पहले पुत्रवधुएं उनकी परंपरागत देखभाल करने वाली होती थी। विकसित समाजों में वृद्धों के लिए परिवारों की संरक्षण क्षमता बहुत कमजोर हो गई है और परिवार का स्थान कुछ सीमा तक बड़ी संस्थाओं जैसे वृद्ध आश्रम और वृद्ध देखभाल केंद्रों ने ले लिया है। भारत में ऐसी संस्थाओं के लिए बहुत गुजांइश है परंतु उनका विकास अभी प्रारंभिक अवस्था में है। तालिका 6 में यह देखा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 0.7 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 0.4 प्रतिशत वृद्ध ऐसे आश्रमों में रह रहे हैं। वृद्ध देखभाल केंद्र अभी प्रयोगात्मक चरण में हैं और वो भी केवल बड़े शहरों में हैं। पुरुषों और महिलाओं के रहने की व्यवस्थाएँ वृद्ध पुरूषों और महिलाओं में रहने की व्यवस्था के ढाँचे में महत्त्वपूर्ण अंतर उनकी विशेषताओं में दो बुनियादी विषमताओं के कारण है। पहली, पुरुषों की तुलना में वृद्ध महिलाओं का प्रतिशत बिना पतियों के बहुत अधिक है। इससे स्पष्ट है कि अपने जीवनसाथी के साथ रहने वाली महिलाओं का प्रतिशत क्यों कम है। दूसरे, महिलाओं की दूसरों पर आर्थिक निर्भरता पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा है जिससे पता चलता है कि अकेली रहने वाली महिलाओं का प्रतिशत इतना कम क्यों है। ये दोनों कारण महिलाओं को दूसरों पर निर्भर रहने के लिए बहुत ज्यादा विवश करते हैं। वृद्धों के लिए सार्वजनिक नीतियाँ और कार्यक्रम विकसित समाजों में जहाँ पर वृद्धों की समस्या बहुत गंभीर हो गई है, वहाँ पर वृद्धों के लिए सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा तैयार की गई सुविकसित सहायता पद्धतियाँ विद्यमान हैं। वृद्धों की वित्तीय, आवासीय और स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की आवश्यकताओं पर ध्यान देने के लिए संस्थाओं द्वारा व्यवस्था की जाती है। ये संस्थाएँ परिवार का कार्य करती हैं और परिवार द्वारा भरण-पोषण की निर्भरता को भुला देती हैं। सामाजिक कार्यकलाप की हर शाखा में वृद्धों की विशेष जरूरतों को खासतौर पर मान्यता दी जाती है। भारतीय समाज में भी वृद्धों की देखभाल करने के लिए वृहत समाज की जिम्मेदारी को मान्यता मिली है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 41 राज्य को वंचित और कमजोर वर्गों के लाभ के लिए जिनमें वृद्ध भी शामिल हैं, सार्वजनिक सहायता (भरण-पोषण) का प्रभावकारी प्रावधान बनाने का अधिकार प्रदान करता है। किंतु सरकार ने जिन नीतियों और कार्यक्रमों को अपने हाथ में लिया है, उनमें अभी तक वृद्धों की समस्या के छोर को ही स्पर्श किया है। वृद्धों के संबंध में सरकार द्वारा उठाए गए तीन कदमों का यहाँ उल्लेख किया जा सकता है। पहला, सरकार ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए जिसके पास पर्याप्त साधन है, अपने वृद्ध अथवा अशक्त माता-पिता जो अपना भरण-पोषण नहीं कर सकते, उनके भरण-पोषण और देखभाल करने का कर्तव्य
निर्धारित किया है, लेकिन सरकार के इस कदम द्वारा परिवार की परंपरागत भूमिका जिसके द्वारा वृद्धों को सहायता प्रदान की जाती है, उसकी उपेक्षा ही हुई है। इस कानून का व्यवहारिक प्रयोग नहीं हो पाता क्योंकि कोई भी मातापिता अपनी संकल्प रहित, संतान से सहायता प्राप्त करने के लिए न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाना चाहता। सरकार ने जो दूसरा कदम उठाया है वह है-उन वृद्धों के लिए भरण-पोषण की आंशिक जिम्मेदारी निर्धारित करना जिनके पास कमाने वाली संतान नहीं है या संतान है परंतु उनके भरण-पोषण के लिए जिनके पास पर्याप्त साधन नहीं है। सरकार असहाय वृद्धों को वृद्धावस्था पेंशन देती है और जो संस्थाएँ ऐसे वृद्धों की देखभाल करती हैं उन्हें सहायता अनुदान देती है। वृद्धावस्था पेंशन की राशि यद्यपि भरण-पोषण के लिए बहुत कम होती है। वृद्धों के संबंध में सरकार द्वारा उठाया गया तीसरा कदम अनिवार्य सेवानिवृत्त किए जाने वाले वृद्धों को नियोक्ताओं द्वारा उपदान (हतंजनपजल), पेंशन और भविष्य निधि (चतवअपकमदज निदक) जैसे सेवानिवृत्ति लाभ (तमजपतमउमदज इमदमपिजे) सुरक्षित करवाने के लिए कानून पास करना है। ऐसा कानून बड़े-बड़े उद्यमों पर लागू होता है और इस प्रकार से यह लाभ वृद्धों का एक छोटा भाग ही प्राप्त कर पाता है। सरकार के अतिरिक्त अनेक गैर-सरकारी संगठन (छळव्) भी हैं जो वृद्धों को विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करते हैं। गैर-सरकारी संगठनों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं में शामिल हैंः आपको उपर्युक्त चर्चा से पता चल जाएगा कि अधिकांश वृद्ध सरकार अथवा गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रदान की गई वृद्धावस्था सहायता की सार्वजनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आ पाते। बोध प्रश्न 3 बोध प्रश्नों के उत्तर बोध प्रश्न 3 2) सामाजिक समायोजन के संबंध में पहले वृद्ध की सहायता परिवार करते थे। परिवार की विशिष्ट संरचना और प्रकार्य वृद्धों के सामंजस्य के लिए पहले बहुत लाभदायक होते थे। विशेषकर यह तथ्य कि परिवार एक उत्पादन इकाई था और परिवार की उत्पादनकारी संपत्ति पर वृद्धों का नियंत्रण, वृद्धों की प्रस्थिति और सुरक्षा का संरक्षण करता था। 3) आज के समय में अर्थव्यवस्था बहुत अधिक औद्योगीकृत और संगठित हो रही है। इससे परिवार को उत्पादन कार्य से वंचित होना पड़ रहा है। युवा वर्ग जन आर्थिक रूप से वृद्धों पर कम निर्भर है और इसके विपरीत वृद्ध जन अपने कनिष्ठ संबंधियों पर अधिक निर्भर होते जा रहे हैं। बदलती हुई परिस्थितियों में परिवार में वृद्धों को सहायता प्रदान करने वाले सदस्यों की संख्या, योग्यता और देखभाल करने की स्थिति गिरती जा रही है। इसलिए वृद्धों को अपने सामाजिक समायोजन में अधिक कठिनाई हो रही है। वृद्धों की समस्या क्या है?आर्थिक निर्भरता तथा परावलंबन की समस्या: कार्यक्षमता में कमी के कारण वृद्धों की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती जिससे उनकी दूसरों पर निर्भरता बढ़ती है। इसके अतिरिक्त बढ़ती उम्र के साथ कई अन्य कार्यों के लिये भी वृद्ध-जन परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर होते हैं परंतु उन्हें उचित सहयोग व सहारा नहीं प्रदान किया जाता है।
वृद्धजनों की समस्याएं कौन कौन सी हैं?उम्र बढऩे के साथ-साथ शरीर कमजोर होने लगता है। शारीरिक रूप से शुगर, मोतियाबिंद, हायपर टैंशन, कम सुनाई देना, हृदय रोग, आर्थराइटिस, कब्ज रहना आदि समस्या होती है। इसके अलावा मानसिक रूप से डिप्रेशन, डिमेंशिया, नींद की दिक्कत, नशा करना आदि समस्याएं होती है।
बुजुर्गों की प्रमुख समस्या कौन सी है?अतः वृद्धावस्था में शरीर अशक्त हो जाना, क्षीण हो जाना बुजुर्ग की प्रमुख समस्या होती है। जो बुजुर्ग अपने युवा काल में अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहते आए हैं, आवश्यकता अनुरूप व्यायाम, खानपान, एवं बीमारियों से बचाव करते रहे हैं, उनका बुढ़ापा अपेक्षाकृत सुखमय व्यतीत होता है।
वृद्धों की समस्या पर लिखी गई कहानी कौन सी है?'बूढ़ी काकी' समाज में व्याप्त वृद्ध समस्याओं का यथार्थ चित्रण है । साहित्य के क्षेत्र में साहित्यकारों ने अपने लेखन को माध्यम बनाकर वृद्धों के जीवन में फैले अंधकार और निराशा पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है ।
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