ऊंट का जन्म कब हुआ था? - oont ka janm kab hua tha?

द्वारा लिखा गया है। यह लेख राजस्थान में ऊंट निषेध अधिनियम (कैमल प्रोहिबीशन एक्ट) की प्रासंगिकता (रिलेवेंसी) और प्रभावों और घटती ऊंट आबादी की बढ़ती चिंता का वर्णन करता है। यह आगे उन वास्तविकताओ को स्थापित (एस्टेब्लिश) करता है जिन पर अधिनियम की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिकिटी) प्रश्न में आई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

  • परिचय (इंट्रोडक्शन)
  • अधिनियम की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)
  • ऊंटों की आबादी में गिरावट आने के मुख्य कारण
    • चराई क्षेत्रों का कम होना
      • वन विभाग और संरक्षित (प्रोटेक्टेड) क्षेत्र द्वारा इनक्लोजर
      • नलकूप और सिंचाई (ट्यूब वेल एंड इरिगेशन)
      • शहरी विकास
    • कई रोग
    • आर्थिक लाभ की कमी
  • अधिनियम के उद्देश्य
  • अधिनियम के प्रभाव
  • सरकार द्वारा उठाए गए कदम
  • सिफारिशें (रिकमेंडेशन)
    • ऊंट चराई क्षेत्रों को सुरक्षित करना, स्थापित करना, बनाए रखना
    • ऊंटनी के दूध के लिए बाजार स्थापित करना
    • ऊंटनी के दूध को बढ़ावा देना
    • ऊंट के कच्चे माल के मूल्यवर्धन (वैल्यू एडिशन) में निवेश करें
  • निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
  • संदर्भ (रेफरेंसेस)

परिचय (इंट्रोडक्शन)

ऊंट, राजस्थान राज्य में रहने वाले कई स्वदेशी समुदायों (इंडिजेनस कम्युनिटी) के अस्तित्व (सर्वाइवल) के प्रमुख स्रोतों (सोर्सेज) में से एक रहा है। पीढ़ियों से ये समुदाय अपने जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊंट की विभिन्न नस्लों का पालन-पोषण करते आ रहे हैं। लेकिन हाल के दिनों में, ऊंट की प्रजातियां खतरनाक दर से गिर गई हैं जो न केवल नस्ल-पालन करने वाले समुदायों के लिए बल्कि पर्यावरणविदों (एनवायरनमेंटलिस्ट) और अन्य हितधारकों (स्टेक होल्डर) के लिए भी चिंता का विषय है। 2019 में जारी 20वीं पशुधन जनगणना (लाइवस्टॉक सेंसस) के अनुसार, 2012 में पिछली जनगणना के दौरान गिने गए 4 लाख से कम, लगभग 2.5 लाख ऊंट हैं। इस स्थिति ने सरकार से जल्द से जल्द कोई कदम उठाने की मांग की है।

ऊंट का जन्म कब हुआ था? - oont ka janm kab hua tha?

राजस्थान में ऊंटों की घटती दर को ध्यान में रखते हुए, राज्य मंत्रिमंडल (स्टेट कैबिनेट) ने राजस्थान ऊंट (वध का निषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात का विनियमन) अधिनियम (राजस्थान कैमल (प्रोहिबिशन ऑफ़ स्लॉटर एंड रेगुलेशन ऑफ़ टेंपरेरी माइग्रेशन और एक्सपोर्ट) एक्ट), 2015 पेश किया था। इस अधिनियम ने ऊंटों के वध (स्लॉटर) से संबंधित उद्देश्यों के लिए राज्य के क्षेत्र के बाहर ऊंटों के निर्यात (एक्सपोर्ट) को समाप्त करने की मांग की है। किसी अन्य कारण से, यदि प्रजनक (ब्रीडर) ऊंटों का निर्यात करना चाहते है, तो यह मान्यता प्राप्त अधिकारियों के अनुमोदन (अप्रूवल) के बिना नहीं किया जा सकता है। हालांकि इस अधिनियम को विधायकों (लेजिस्लेटर) द्वारा सकारात्मक दृष्टिकोण (पॉजिटिव एप्रोच) के साथ शुरू किया गया था, लेकिन बड़े पैमाने पर प्रजनन समुदायों द्वारा इसके लिए इनकार किया गया था। प्रजनकों के लिए कानून स्थापित करने के बजाय, अधिनियम ने उन्हें उत्तेजित (एजिटेट) कर दिया क्योंकि इसके प्रावधान (प्रोवीजन) उनकी आजीविका (लाइवलीहुड) के लिए हानिकारक थे। सवाल उठाए गए कि क्या कानून उन्हें सशक्त (एंपावर) बनाता है या उन्हें सरकार के कठोर कार्यों के प्रति गुलाम बनाता है।

अधिनियम की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)

राजस्थान कई ऊंट प्रजनन समुदायों का घर है, खासकर रायका और रबारी समुदायों के लिए। सदियों से ये समुदाय ऊंट पालने के पेशे में लगे हुऐ हैं। पशुपालन (एनिमल हजबेंड्री) की अवधारणा (कांसेप्ट) के विकास के साथ उन्होंने, ऊंटों का सर्वोत्तम तरीके से उपयोग करने के लिए नए विकल्पों की खोज करना शुरू कर दिया। उन्हें केवल खेतों में संसाधनों (रिसोर्सेज) के रूप में उपयोग करने से लेकर दुहने (मिल्किंग) तक, उनके उत्पादों जैसे ऊन से दरी, गोबर से कागज के उत्पादों का उपयोग करने क साथ, प्रजनकों ने उनकी उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए एक लंबा सफर तय किया है।

लेकिन यह प्रदर्शित किया गया कि ऐसी गतिविधियों के लिए धन और निवेश की आवश्यकता होती है जिसके बिना ऊंटों का पालन असंभव होता है। इसके अलावा, यह देखा गया है कि ऊंटों की आबादी कई कारणों से तेज गति से घट रही है, उनमें से एक ऊंटों को वध के लिए निर्यात करना या नर ड्रोमेडेरीज को मांस के लिए बेचना था। ऊंटों की आबादी में कमी के कारण, प्रजनक अपने झुंड से खुद को अलग करने के लिए बेताब थे।

इन कारणों के अनुसरण (परसुएंस) में, राजस्थान सरकार ने 2015 में राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात का विनियमन) अधिनियम स्थापित करने की पहल की। ​​30 जून 2014 को ऊंट को राजस्थान के राज्य पशु के रूप में मान्यता दी गई थी।

ऊंटों की आबादी में गिरावट आने के मुख्य कारण

ऊंटों की घटती आबादी के संबंध में देहाती समुदायों के बढ़ते आगमन के साथ, कई कारणों का उल्लेख किया गया था। चराई क्षेत्रों के कम होने, पशु चिकित्सा देखभाल प्रदान करने में कठिनाइयों और आर्थिक लाभ की अनुपस्थिति जैसे कारकों (फैक्टर्स) ने ऊंटों की घटती आबादी को बढ़ा दिया है।

चराई क्षेत्रों का कम होना

ऊंटों की घटती आबादी का एक प्रमुख कारण चराई क्षेत्रों का कम होना है। इसके कुछ कारण हैं:

  • वन विभाग और संरक्षित (प्रोटेक्टेड) क्षेत्र द्वारा इनक्लोजर

ऐतिहासिक रूप से कहें तो ऊँट प्रजनकों ने, शासकों द्वारा ऊँटों के लिए लग रखी गई वन भूमि और चराई के लिए खेत में अपने झुंड को चराने की प्रथा का पालन किया है। लेकिन इन वर्षों में, ये भूमि दुर्गम (इनएक्सेसिबल) हो गई है। वन विभाग द्वारा चरागाहों पर चराई के संबंध में प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) बढ़ते जा रहे है। इससे पहले, ऊंटों को लगभग 2 महीने तक जंगली इलाकों में रहने की इजाजत थी, लेकिन अधिकारियों ने इस कार्य को अस्वीकार कर दिया है। कुंभलगढ़, जो कि प्रमुख वनाच्छादित (फारेस्टेड) क्षेत्र है, ने ऊंटों के चरने के अवसरों को समाप्त कर दिया है। वन अधिकारियों के अनुसार, वन, भूमि और वन्य जीवन के क्षेत्र को आरक्षित (रिजर्व) कर रहा है। इससे चारागाह की संभावना समाप्त हो जाती है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (शेड्यूल ट्राइब एंड अदर फॉरेस्ट ड्वेलर्स (रिकॉग्निशन ऑफ़ फॉरेस्ट राइट्स) एक्ट) (एफ.आर.ए.) 2006 के तहत, चराई अधिकारों को मान्यता देने का प्रावधान है। हालांकि, ऊंट प्रजनकों को कोई सामुदायिक वन अधिकार नहीं दिया गया था।

इसके अलावा, विकसित प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के साथ, ऊंटों के संसाधनों को कम कर दिया गया है, जो उन्हें अप्रभावी बना देता है। कृषि के क्षेत्र में उर्वरकों (फर्टिलाइजर) और अन्य उन्नत तकनीकों के बढ़ते उपयोग के कारण, किसानों ने कृषि भूमि के पोषण के रूप में काम करने वाले ऊंट मूत्र और मल की उपयोगिता को नकार दिया है।

  • नलकूप और सिंचाई (ट्यूब वेल एंड इरिगेशन)

हरित क्रांति (ग्रीन रिवोल्यूशन) की शुरुआत के साथ, किसानों ने नलकूपों की स्थापना के माध्यम से सिंचाई की गतिविधियाँ शुरू कीं थी। इन नलकूपों के माध्यम से पानी की आपूर्ति (सप्लाई) केवल 6-7 साल तक चलती है जिसके बाद किसान दूसरी भूमि पर चले जाते हैं। बिना किसी वनस्पति आवरण (वेजीटेशन कवर) के भूमि का परित्याग (एबंडनमेंट) करने से भूमि शुष्क (एरिड) हो जाती है और चरने के लिए अक्षम हो जाती है।

  • शहरी विकास

बढ़ते शहरीकरण (अर्बेनाइजेशन) के साथ, निर्जन (डिसर्टेड) भूमि को चरागाहों और चराई के प्रयोजनों के लिए उपयोग करने के बजाय, उस पर मानव जाति द्वारा कब्जा कर लिया गया है। इससे चराई के खेत और कम होते जा रहे हैं। इसके अलावा, इंदिरा गांधी नहर के निर्माण ने ऊंटों के प्रवासन (माइग्रेशन) पैटर्न के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया है और उन्हें अपने कदम वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस तरह के कार्य प्रजनकों को पालन गतिविधियों को जारी रखने के लिए हतोत्साहित (डिस्करेज) करते हैं।

कई रोग

ऊंटों की आबादी में कमी होने का एक अन्य कारण, उचित पशु चिकित्सा देखभाल की कमी है। ऊंट मुख्य रूप से त्वचा की बीमारियों से पीड़ित होते हैं, जिनमें मेंज भी शामिल है, जो हालांकि इतनी खतरनाक नहीं है, लेकिन अगर उन्हें अनुपचारित छोड़ दिया जाए तो यह हानिकारक हो सकता है। इसके अलावा, इन रोगों के लिए दवाएं व्यापक (वाइड) रूप से उपलब्ध नहीं हैं और इनकी कीमत अधिक है जो प्रजनकों के लिए कठिनाइयों को और बढ़ा देती है। राजस्थान सरकार के पशुपालन विभाग ने राज्य भर में 7,897 पशु चिकित्सा संस्थानों (इंस्टीट्यूशन) की स्थापना की है, जिसमें पॉलीक्लिनिक, पशु चिकित्सालय, उप-केंद्र और जिला मोबाइल पशु चिकित्सा इकाइयां (यूनिट) शामिल हैं। लेकिन ये संस्थान बहुत दूर तक नहीं पहुंच सकते हैं और सभी गांवों को अपनी सेवाएं नहीं देते हैं।

आर्थिक लाभ की कमी

पिछले कुछ वर्ष, प्रजनकों के लिए अत्यंत कठिन रहे हैं क्योंकि ऊंट पालने में उनकी जीवन भर की कमाई पूंजी गई है। यह देखा गया है कि झुंड के भरण-पोषण के लिए बड़ी मात्रा में निवेश की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, विकसित प्रौद्योगिकी के अस्तित्व में होने के कारण, इसने प्रजनकों की दुर्दशा को बढ़ा दिया है क्योंकि विभिन्न उद्देश्यों के लिए ऊंटों का उपयोग काफी हद तक कम हो गया है।

दुग्ध उद्योग (मिल्क इंडस्ट्री) ने, भारत के सबसे बड़े उद्योगों में से एक होने के नाते, दूध उत्पादों या अन्य आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के लिए ऊंट के दूध का उपयोग करने का विकल्प अभी तक नहीं खोजा है। ऊंटनी के दूध का कोई संगठित (ऑर्गेनाइज्ड) बाजार नहीं है और यह कम वसा (लो फैट) वाला दूध होने के कारण, इसकी कीमत केवल 18-20 रूपए प्रति लीटर है। इसके अतिरिक्त, ऊंटों के लिए दवाओं की लागत बहुत अधिक है, जिससे प्रजनकों के लिए इसे वहन करना असंभव हो जाता है।

एक अन्य कारक लोगों में शाकाहार के प्रति बढ़ती जागरूकता हो सकती है। समाज धीरे-धीरे शाकाहार की अवधारणा की ओर बढ़ रहा है जो प्रजनकों को मांस के लिए ऊंट न बेचने के लिए प्रस्तुत करता है। इससे उनकी लागत और बढ़ जाती है।

अधिनियम के उद्देश्य

इस “निषेध अधिनियम” को मुख्य रूप से वध के उद्देश्य से ऊंट के निर्यात पर रोक लगाकर ऊंट की नस्ल के घटते अनुपात को रोकने के लिए प्रस्तावित किया गया था। यह अधिनियम घटती जनसंख्या के कारणों को कम करने और उचित समाधान द्वारा कारकों को संबोधित करने पर केंद्रित है। इसका उद्देश्य राज्य के भीतर मांग पैदा करके उनकी नस्ल का प्रसार (प्रोलिफेरेट) करना था।

अधिनियम के प्रभाव

2015 के अधिनियम की प्रशंसा की तुलना में अधिक आलोचना (क्रिटिसिज्म) हुई थी। 8,000 प्रजनकों के एक पशु निकाय (बॉडी), लोक-हित पशु पालक संस्थान द्वारा उजागर की गई प्रमुख चिंताओं में से एक यह थी कि राज्य सरकार ने वध के उद्देश्य से राजस्थान के क्षेत्र के बाहर ऊंटों के निर्यात पर प्रतिबंध (बैन) लगा दिया था। इसके अलावा, अधिनियम में कहा गया है कि सूखे या अकाल के समय या मेलों के लिए अस्थायी (टेंपरेरी) प्रवास के समय, ऊंटों को अधिकारियों के पूर्व अनुमोदन से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया जा सकता है। सक्षम अधिकारी की अनुमति के बिना, राजस्थान से ऊंटों का निर्यात प्रतिबंधित है, और ट्रांसपोर्टर को उकसाने का दोषी ठहराया जा सकता है और दंड के लिए भी उत्तरदायी बनाया जा सकता है।

प्रजनकों द्वारा यह तर्क दिया गया था कि अधिनियम ने लाभ देने के बजाय उन पर नकारात्मक (नेगेटिव) प्रभाव डाला है क्योंकि इससे ऊंट की आबादी 2012 में 3,00,000 से घटकर वर्तमान में 2,00,000 हो गई है। अन्य राज्यों को दूध उपलब्ध कराने के लिए ऊंटों का राज्य की सीमा से पलायन (माइग्रेशन) आवश्यक था, जिन्हें अब आवश्यक शर्तों को पूरा किए बिना प्रतिबंधित कर दिया गया है। लोक-हित पाशु संस्थान के अनुसार, उच्च मांग के कारण अरब देशों में ऊंटों का निर्यात भी किया जा रहा है और राज्य से निर्यात पर प्रतिबंध से ऊंटों की कीमत 30,000 रुपये से केवल 2500 रुपये हो गई है। इसके अलावा, पंजाब और हरियाणा में खेतों की जुताई के लिए ऊंटों की मांग की गई है, लेकिन वे व्यापक कागजी कार्रवाई के कारण उन्हें खरीदने से बचते हैं।

इस अधिनियम में निहित प्रतिबंधों और उनके झुंड को चराने के लिए वनाच्छादित भूमि में प्रतिबंधित प्रवेश, कृषि के लिए पानी, और कृषि प्रौद्योगिकी के साथ ऊंटों के प्रतिस्थापन (रिप्लेसमेंट) ने प्रजनकों के लिए अत्यधिक कठिनाइयों में योगदान दिया है, जिससे उन्हें अपनी आजीविका छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

जहां तक ​​ऊंटों की प्रतिकूलता (काउंटरप्रोडक्टिविटी) का संबंध है, उनका उपयोग दूध दुहने के लिए किया जा सकता है। लेकिन इस उद्योग में राज्य असंगठित है और सरकार इस मामले में कोई प्रतिक्रिया (रिस्पॉन्स) नहीं दे रही है। ऊँट का दूध, जो चिकित्सीय लाभों के लिए प्रभावी है, को बहुत आवश्यक महत्व नहीं दिया गया है। राजस्थान में भिवाड़ी, चित्तौड़ और उदयपुर में 3 प्रमुख ऊंट दूध संग्रह (कलेक्शन) केंद्र हैं। इन केन्द्रों की स्थापना के बाद भी राजस्थान डेयरी सहकारिता (कॉपरेटिव) ऊंटनी का दूध स्वीकार नहीं करती है।

अधिनियम के मूल दृष्टिकोण (रुडिमेंट्री एप्रोच) के साथ, प्रजनकों को ऊंट पालन से संबंधित एक स्थिर (स्टेबल) आजीविका खोजने के लिए जीवन भर संघर्ष करना होगा। इस अधिनियम की शुरुआत से पहले, सरकार उन प्रजनकों के सुझावों को लेने में विफल रही जो इससे तबाह हो गए थे।

सरकार द्वारा उठाए गए कदम

2015 के निषेध अधिनियम की स्थापना के साथ, सरकार ने 2016 में उष्ट्र विकास योजना के तहत ऊंट विकास योजना (कैमल डेवलपमेंट स्कीम) (सी.डी.एस.) नामक एक योजना शुरू की थी। इस योजना ने प्रजनकों को, जन्म लेने वाले प्रत्येक ऊंट बछड़े के लिए 10,000 रुपये का प्रोत्साहन देकर आजीविका का साधन प्रदान किया था। इसका भुगतान तीन किस्तों में किया जाता है- जन्म के समय 3,000 रुपये; 9 महीने की उम्र में 3,000 रुपये; और बछड़े के 18 महीने के पार होने पर 4,000 रुपये। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, चार वर्षों की अवधि में लगभग 30,000 प्रजनकों को इस योजना से लाभ हुआ है। लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां करती है। प्रजनकों के समुदाय के अनुसार, उनमें से ज्यादातर को 2016-17 में केवल एक किस्त मिली और उसके बाद कुछ भी नहीं मिला। राज्य ने 2018 में इस योजना को बंद कर दिया क्योंकि केंद्र सरकार से अनुमति समाप्त हो गई थी।

हाल ही में राजस्थान विधानसभा के बजट सत्र (सेशन) में इस मामले में सत्ता पक्ष की ओर से किए जा रहे प्रयासों को लेकर सवाल उठाए गए थे। पशुपालन मंत्री, लालचंद कटारिया ने कहा कि उनके विभाग ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति का गठन (कांस्टीट्यूट) किया है और वह खुद समिति का नेतृत्व कर रहे हैं। उनके द्वारा यह स्वीकार किया गया था कि हाल के दिनों में ऊंट “अप्रासंगिक (इररिलेवेंट)” हो गए हैं, और किसान उन्हें जंगलों में छोड़ रहे हैं। लेकिन पीड़ित प्रजनकों और अन्य हितधारकों ने उसी के समाधान के लिए नवंबर 2020 में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को एक पत्र लिखा था। एक बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें आई.सी.ए.आर.-राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र (नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन कैमल) के निदेशक (डायरेक्टर), गैर सरकारी संगठनों, प्रजनकों और राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के अधिकारियों सहित विभिन्न हितधारकों को शामिल किया गया था। राजस्थान ऊंट (वध निषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात का विनियमन) अधिनियम 2015 की वैधता के खिलाफ कई चिंताएं उठाई गईं थी।

इसके परिणामस्वरूप सरकार ने न केवल ऊंटों की घटती आबादी का मुकाबला करने के लिए बल्कि प्रजनकों को आजीविका के साधन उपलब्ध कराने के लिए फिर से उष्ट्रा विकास योजना शुरू करने की योजना बनाई। इसके अलावा, बीकानेर में राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र (एन.आर.सी.सी.) ने प्रजनकों को समर्थन देने के लिए ऊंट के दूध से उत्पादों का उत्पादन करने की पहल की है। एन.आर.सी.सी. ने इस निष्कर्ष को स्थापित किया है कि टाइप 1 मधुमेह (डायबटीज), उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन), तपेदिक (ट्यूबरक्लोसिस) और यहां तक ​​कि आत्मकेंद्रित (ऑटिज्म) के उपचार में ऊंट के दूध के कई लाभ होते हैं। 2016 में, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक आधिकारी (फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया) (एफ.एस.एस.ए.आई) ने विशिष्ट मानकों के साथ खाद्य पदार्थ के रूप में ऊंट के दूध की बिक्री और व्यापार को मंजूरी दी। लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अधिनियम में प्रजनकों की भलाई के लिए प्रावधानों की कमी है। बल्कि यह कानून उनके समुदाय के हित के समानांतर (पैरलल) काम करता है जो आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

सिफारिशें (रिकमेंडेशन)

प्रजनकों और राजस्थान सरकार ने कुछ सिफारिशें तैयार करने का कर्त्तव्य उठाया है जिन्हें सक्षम अधिकारी द्वारा लागू किया जाएगा। कुछ सिफारिशों में शामिल हैं:

  • ऊंट चराई क्षेत्रों को सुरक्षित करना, स्थापित करना, बनाए रखना

यह देखा गया है कि प्रथागत चराई क्षेत्रों में कटौती के कारण, ऊंट की नस्ल कालानुक्रमिक (क्रोनिकल) रूप से प्रभावित हुई है जिससे उनकी प्रजनन अवस्था में गिरावट आई है। ऊंटों के लिए उचित चराई क्षेत्र उपलब्ध कराने के लिए, प्रजनकों से परामर्श किया जाना चाहिए और इसके लिए संबंधित क्षेत्रों को चिह्नित किया जाना चाहिए। हालांकि, इससे अन्य चरने वाले जानवरों के अधिकारों में बाधा नहीं आनी चाहिए।

  • ऊंटनी के दूध के लिए बाजार स्थापित करना

ऊंट प्रजनकों के पास विकास के साथ आय का कोई स्रोत (सोर्स) नहीं है। ऊंटों के प्रतिकूल उपयोग प्रदान करना आवश्यक हो जाता है। ऊंटों का दूध निकालना एक ऐसा तरीका है जो आय का एक बड़ा स्रोत हो सकता है बशर्ते कि इसे भारत में मान्यता प्राप्त हो। डेयरी मार्केटिंग में प्रवेश करने के लिए निजी क्षेत्र को सब्सिडी देने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं। इसके अलावा, ऊंटनी के दूध को बढ़ावा देने के लिए विज्ञापन अभियान शुरू किया जाना चाहिए। अलग संग्रह और भुगतान प्रणाली (सिस्टम) भी पेश की जा सकती है।

  • ऊंटनी के दूध को बढ़ावा देना

ऊंटनी के दूध की उपयोगिता को नकारा नहीं गया है क्योंकि यह ऑटिज्म और मधुमेह जैसे विभिन्न प्रकार के रोगों में कई चिकित्सीय लाभ प्रदान करता है। लोगों में जागरूकता की कमी है जिसे प्रचार गतिविधियों के माध्यम से बढ़ाया जा सकता है। सबसे पहले, इसे एक स्वास्थ्य उत्पाद के रूप में प्रचारित किया जाना चाहिए, जो उत्पाद के अंतर्निहित लाभों का पुनर्पूंजीकरण (रीकैपिटुलेट) करता है। दूसरे, समाज में इसे और जागरूकता बढ़ाने के लिए, महिलाओं और टीबी रोगियों के साथ-साथ छात्रों को मध्याह्न भोजन (मिडडे मील) के साथ प्रदान किया जाना चाहिए। अंत में, भारत और राजस्थान आने वाले पर्यटकों के बीच आयुर्वेदिक ऊंटनी के दूध को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिससे हमारी अंतरराष्ट्रीय पहुंच बढ़ेगी।

  • ऊंट के कच्चे माल के मूल्यवर्धन (वैल्यू एडिशन) में निवेश करें

ऊंट के कच्चे माल से बने उत्पादों के लिए प्रौद्योगिकियों और डिजाइनों के उत्पादन के लिए अनुसंधान (रिसर्च) और प्रशिक्षण (डिजाइन) संस्थानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। डिजाइन छात्रों को ऊंट उप-उत्पादों से उत्पाद बनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अंत में, सूक्ष्म कारीगरों और छोटे उद्यमों (एंटरप्राइज) को इसके उत्पादन के लिए सब्सिडी प्रदान की जानी चाहिए।

इन सिफारिशों के अलावा, प्रजनकों ने ऊंटों के निर्यात पर प्रतिबंध को हटाने की भी मांग की, हालांकि इस संबंध में राज्य सरकार द्वारा अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

ऊंटों की गिरती आबादी चिंताजनक रही है, लेकिन उनके निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर उनकी आबादी बढ़ाने के प्रयासों से कोई फायदा नहीं होगा। प्रजनकों के हितों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वे ही हैं जो प्रजातियों के अस्तित्व के साथ निकटता से जुड़े हुए हैं। मरुस्थल (डेजर्ट) के कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र (एग्रो इको सिस्टम) और ऊंट प्रजातियों की एक एकीकृत प्रणाली (इंटीग्रेटेड सिस्टम) स्थापित की जानी चाहिए अन्यथा ऊंट की सेवाएं बेमानी और गैर-आर्थिक रहेगी।

संदर्भ (रेफरेंसेस)
  • For the Camels of Rajasthan, a Struggle for Survival – and Relevance – The Wire Science
  • Why Rajasthan’s camel protection law is not enough to save its camels (downtoearth.org.in)
  • Why Rajasthan’s ban on camel slaughter may actually end up reducing their numbers (scroll.in)
  • Rajasthan talks of changing law that hit camel population (downtoearth.org.in)
  • After new law, camel breeding hits a hump – Hindustan Times
  • Rajasthan law, its modernising villages — why you may find camels only in a zoo in future (theprint.in)

    ऊंट की स्थापना कब हुई?

    लगभग 2000 ई. पू. में पहले पहल मनुष्य ने ऊँटों को पालतू बनाया था। अरबी ऊँट और बैकट्रियन ऊँट दोनों का उपयोग अभी भी दूध, मांस और बोझा ढोने के लिये किया जाता है।

    ऊंट कितने साल जीता है?

    एक ऊंट का जीवनकाल 40 से 50 साल तक का होता है।

    ऊंट भारत में कब आए थे?

    भारत में सर्वप्रथम ऊंट मोहम्मद बिन कासिम लेकर आया था इसीलिए भारत में ऊंट लाने का श्रेय मोहम्मद बिन कासिम को दिया जाता है। ✍ राजस्थान में सर्वप्रथम ऊँट महमूद गजनवी से पाबूजी लेकर आये थे इसीलिए राजस्थान में ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी महाराज को दिया जाता है।

    ऊंट कितने दिन के बाद पानी पीता है?

    ऊंट एक बार में १०० से १५० लीटर तक पानी पी सकता है और ६ महीने तक बिना पानी पिए जीवित रह सकता है ।