उत्तक संवर्धन प्रौद्योगिकी का जन्म कैसे हुआ? - uttak sanvardhan praudyogikee ka janm kaise hua?

उत्तक संवर्धन प्रौद्योगिकी का जन्म कैसे हुआ? - uttak sanvardhan praudyogikee ka janm kaise hua?

ऊतक संवर्धन (टिशू कल्चर) वह क्रिया है जिससे विविध शारीरिक ऊतक अथवा कोशिकाएँ किसी बाह्य माध्यम में उपयुक्त परिस्थितियों के विद्यमान रहने पर पोषित की जा सकती हैं। यह भली भाँति ज्ञात है कि शरीर की विविध प्रकार की कोशिकाओं में विविध उत्तेजनाओं के अनुसार उगने और अपने समान अन्य कोशिकाओं को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। यह भी ज्ञात है कि जीवों में एक आंतरिक परिस्थिति भी होती है। (जिसे क्लाउड बर्नार्ड की मीलू अभ्यंतर कहते हैं) जो सजीव ऊतक की क्रियाशीलता को नियंत्रित रखने में बाह्य परिस्थितियों की अपेक्षा अधिक महत्व की है। ऊतक-संवर्धन-प्रविधि का विकास इस मौलिक उद्देश्य से हुआ कि कोशिकाओं के कार्यकारी गुणों के अध्ययन की चेष्टा की जाए और यह पता लगाया जाए कि ये कोशिकाएँ अपनी बाह्य परिस्थितियों से किस प्रकार प्रभावित होती हैं और उनपर स्वयं क्या प्रभाव डालती हैं। इसके लिए यह आवश्यक था कि कोशिकाओं को अलग करके किसी कृत्रिम माध्यम में जीवित रखा जाए जिससे उनपर समूचे जीव का प्रभाव न पड़े।

यद्यपि ऊतक संवर्धन में सफलता पाने की चेष्टा १८८५ ई. में की गई थी, तथापि सफलता १९०६ ई. में मिली, जब हैरिसन ने एक सरल प्रविधि निकाली जिससे कृत्रिम माध्यम में आरोपित ऊतक उगता और विकसित होता रहता था। इसके बाद से प्रविधि अधिकाधिक यथार्थ तथा समुन्नत होती गई। पोषक माध्यम की संरचना भी अधिक उपर्युक्त होती हुई है। अब तो शरीर के प्राय: प्रत्येक भाग से कोशिकाओं और ऊतकों का संवर्धन संभव है और उनको आश्चर्यजनक काल तक जीवित रखा जा सकता है।

काच में (अर्थात्‌ शरीर से पृथक्‌) पोषित की जा सकनेवाली कोशिकाएँ अनेक हैं, जैसे धारिच्छद कोशिकाएँ (एपिथिलियल सेल्स), तंतुघट (फाइब्रोब्लास्ट्स), अस्थि तथा उपास्थि (कार्टिलेज), तंत्रिका (नर्व), पेशी (मसल्‌) और लसीकापर्व (लिंफनोड्स) की कोशिकाएँ, प्लीहा (स्प्लोन), प्रजन ग्रंथियाँ (गोनद), गर्भकला (एंडोमेट्रियम), गर्भकमल (प्लैसेंटा), रक्त, अस्थिमज्जा (बोन मैरो) इत्यादि।

कोशिकाओं के कार्यकारण तथा संरचनात्मक गुणों के अध्ययन के अतिरिक्त, ऊतक-संवर्धन-प्रविधि प्रयोगात्मक जीवविज्ञान और आयुर्विज्ञान के प्राय: सभी क्षेत्रों में उपयोगी सिद्ध हुई है, विशेष कर कोशिका तत्व (साइटॉलोजी), औतिकी (हिस्टॉलोजी), भ्रूण तत्व (एंब्रिऑलोजी), कोशिकाकायिकी (सेल फ़िज़ियॉलोजी), कोशिका-व्याधि-विज्ञान (सेल पैथॉलोजी), प्रातीकारिकी (इंम्यूनॉलोजी) और अर्बुदों तथा वाइरसों के अध्ययन में। इस प्रविधि से निम्नलिखित विषयों के अध्ययन में सहायत मिली है : रुधिर का बनना, कार्यकरण तथा रोगों की उत्पत्ति; कोशिका के भीतर होनेवाली प्रकिण्वीय (एनज़ाइमैटिक) तथा उपापचयी (मेटाबोलिक) रासायनिक प्रतिक्रियाएँ; अंग-संचालन-क्रिया, कोशिका विभाजन तथा भेदकरण (डिफ़रेनशिएशन); कोशिका की अतिसूक्ष्म रचनाएँ, जैसे विमेदाभ जाल (गोलगी ऐपारेटस) तथा कणभसूत्र (मिटोकॉण्ड्रिया); कोशिका पर विकिरण, ताप, भौतिक अथवा रासायनिक आघात अथवा जीवाणुओं के आक्रमण; उनसे उत्पन्न पदार्थो की क्रिया के कारण होनेवाली क्षति; अर्बुदवाली तथा साधारण कोशिकाओं का अंतर और साधारण कोशिकाओं से अर्बुदवाली कोशिकाओं का बनना।

ऊतक संवर्धन के लिए प्रयुक्त प्रविधियाँ अनेक प्रकार की है; जैस वे जिनमें लटकते हुए बिंदु बोतल, काच की छिछली तश्तरी अथवा अन्य विशेष बरतन का उपयोग होता है। संवर्धन के लिए प्रयुक्त माध्यम विविध प्रकार के हैं, जैसे रक्तप्लाविका (प्लैज्म़ा), लसी (सीरम), लसीका, शरीरक्रिया के लिए उपयुक्त लवण घोल (जैसे टाइरोड, रिंगर-लॉक, आदि के घोल)। ऊतक-संवर्धन के लिए माध्यम चुनते समय जीव की कोशिका के असामान्य पर्यावरण का सूक्ष्म ज्ञान अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त इसका भी निर्णय कर लेना आवश्यक है कि प्रत्येक जाति की कोशिका के लिए पर्यावरण में क्या-क्या बातें आवश्यक हैं। उपर्युक्त पर्यावरण स्थापित करने के लिए यह भी नितांत आवश्यक है कि माध्यम तक अन्य किसी प्रकार के जीवाणु न पहुँचे क्योंकि जिस माध्यम में कोशिकाएँ पाली जाती हैं वह अन्य जीवाणुओं के पनपने के लिए भी अति उत्तम होता है, चाहे वे जीवाणु रोगोत्पादक हों या न हों। इन जीवाणुओं की वृद्धि अवश्य ही संवर्धनीय कोशिकाओं को मार डालेगी। हाल में सल्फ़ोनामाइडों और पेनिसिलिन के समान जीवाणु द्वेषियों से इस प्रकार के संक्रमण को दबाए रखने में बड़ी सहायता मिली है।

माध्यम में उगते हुए ऊतकों में उपापचयी परिवर्तन होते रहते हैं और यदि उपापचय से उत्पन्न पदार्थ माध्यम में एकत्र होते रहेंगे तो कोशिकाओं के लिए वे घातक हो सकते हैं। इसलिए उच्छिष्ट पदार्थों की मात्रा के हानिकारक सीमा तक पहुँचने के पहले ही माध्यम को बदल देना आवश्यक है।

ऊतक-संवर्धन के विषय में ऊपर केवल थोड़ी सी बातें दी जा सकी हैं। इसका ध्यान रखना आवश्यक है कि ऊतक संवर्धन केवल कुछ जीववैज्ञानिक क्रियाओं को समझने में एक सहायक विधि है। न तो इसे मूल्यरहित मानकर इसकी उपेक्षा की जा सकती है और न इसे जीवप्रक्रियाओं को समझने के लिए जादू की छड़ी माना जा सकता हैं।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • www.research.umbc.edu/~jwolf/method5.htm - how-to guide for biology students
  • Plant Tissue Culture - way to "xerox" a plant
  • CELOS - a division of CELOS (Center for Agricultural Research in Suriname)
  • Cell Culture Basics - Introduction to cell culture, covering topics such as laboratory set-up, safety and aseptic technique including basic cell culture protocols and video training

ऊतक संवर्धन प्रौद्योगिकी का जन्म कैसे हुआ?

यद्यपि ऊतक संवर्धन में सफलता पाने की चेष्टा १८८५ ई. में की गई थी, तथापि सफलता १९०६ ई. में मिली, जब हैरिसन ने एक सरल प्रविधि निकाली जिससे कृत्रिम माध्यम में आरोपित ऊतक उगता और विकसित होता रहता था। इसके बाद से प्रविधि अधिकाधिक यथार्थ तथा समुन्नत होती गई।

उत्तक संवर्धन तकनीक द्वारा तैयार पौधे को क्या कहते हैं?

टिशू कल्चर (Tissue Culture) एक कृत्रिम वातावरण में पौधों को स्थानांतरित करके नए पौधे के ऊतकों को विकसित करने की एक तकनीक है.

ऊतक संवर्धन क्या है ऊतक संवर्धन का पादप प्रसार में महत्व दर्शाते हुये इसकी विधि का वर्णन कीजिए?

Solution : ऊतक संवर्धन तकनीक पादप कोशिकाओं/ऊतकों में विभाजन एवं वृद्धि को सुनिश्चित करता है। यह कृत्रिम माध्यम में नियंत्रित किया जाता है। पौधों के जिस भाग को संवर्धित किया जाता है, उसे कर्कोतिकी (explant) कहते हैं। किसी कोशिका कौतिकी से पूर्ण पादप में जनित्र होने की यह क्षमता पूर्णशक्तता (Totipotency) कहलाती है

उत्तक संवर्धन के जनक कौन है?

पादप ऊतक संवर्धन का जनक कहलाते हैं-(अ) रॉबर्ट हुक