कौन इस घर की देखभाल करें - kaun is ghar kee dekhabhaal karen

जौन उठता है यूं कहो या'नी'
'मीर'-ओ-'गालिब' का यार उठता है...
उर्दू ग़ज़लों की दुनिया के तसव्वुर शायर जौन एलिया की आज पुण्यतिथि है. जौन एलिया ऐसे शायर थे जो इश्क-मोहब्बत की अदमता से होकर गुजरे थे. जौन की आशिक-माशूक वाली शायरी में बेचारगी के बजाय एक किस्म की बेफिक्री दिखती है, जो इश्क की इबादत करने वाले आशिकों को खूब भाती है. जौन साहब दर्द पढ़ते, लेकिन लोग शायरी समझते.  
जौन साहब का मंच पर किरदार एक जोकर की तरह था, हर बार जब वह रोते थे, तो लोग हंसते थे. इस बाबत जौन साहब कहते कि मैं दूसरों की तरह साथ-साथ बड़ा नहीं हुआ, मैं बर्बाद हुआ हूं. जौन सिगरेट फूंककर जो शेर कहते समझो अमर हो जाता. वह ऐसे कलाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने मंचीय प्रस्तुति के ढर्रों को ध्वस्त किया. ऐसा शायर जो अपनी शायरी में खो जाता. शायरी में जौन का उरूद एक फित्ने का उरूद था.
कहते हैं जौन को अदब घर से मिला और बेअदबी जमाने से. जौन कहता है, मैं फकीरी का शायर हूं, मैं बौना शायर हूं. मैं जो म़ुल्क छोड़कर आया हूं, वहां बहादुर बहुत हैं और बहादुरों के लिए पढ़ना कत्तई जरूरी नहीं.
सलीम जाफरी, जौन के अजीज मित्र थे. सलीम की मौत के बाद मानों जौन पागल ही हो गए. एक मुशायरे में जौन कहते हैं, मैं सलीम के खिलाफ अर्जियां करता रहा. शराब पीता रहा, धुत रहा. क्यूं??? मैं हार चुका हूं. मैं बौना शायर हूं. मेरी बीवी, मेरे बच्चे सब मर गए. मैं तबाह होकर आया हूं और ये मेरा आखिरी मुशायरा है, इसके बाद मैं तबाह होने वाला हूं. तबियत बहुत खराब है, सलीम की आदत पड़ गई थी, जौन को. लेकिन आज वो नहीं है.
अक्सर हमने जौन को इश्क, मोहब्बत का फ़लसफे कहते सुना होगा लेकिन इश्क, मोहब्बत के सिवाय जौन‌ जन्मना बगावती थे. ऐसा शायर जो औपनिवेशिक शासन के खिलाफ ग़ज़लें कहता, जिसने विभाजन की विभीषिका को दर्द-ए-बयां किया. जौन नास्तिक थे, और साम्यवाद में विश्वास करते थे. वह भारत-पाकिस्तान विभाजन के सख्त खिलाफ थे. उनका मानना था अगर इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बनता तो कम से कम साम्यवादी पार्टी कभी उस मांग का समर्थन नहीं करती.
जौन को उम्मीद थी कि पाकिस्तान एक कम्युनिस्ट क्रांति का गवाह बनेगा, जो एक समतावादी समाज को जन्म देगा. जहां सबके लिए समान अवसर मौजूद होंगे, और लोग औपनिवेशिक शासन काल की पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त होंगे.
कहा जाता है, वामपंथ लाल या सुर्ख रंग को क्रांति का रंग मानता है. जौन ने भी इस रंग का इस्तेमाल किया, बगावत की बातें कहीं. जौन ने पाकिस्तान के लिए अर्ज किया-
खुश बदन, पैरहन हो सुर्ख तेरा
दिलबरा, बांकपन हो सुर्ख तेरा...
जौन ने मजदूरों की जिंदगियों के अहम हिस्से का इस्तेमाल इनसान के लिए एक इस्तियारे की तरह किया और ग़ज़ल लिखी-
हार आई है कोई आस मशीन शाम से है
बहुत उदास मशीन यही रिश्तों का कारखाना है
इक मशीन और उसके पास मशीन
एक पुर्जा था वो भी टूट गया,
अब रखा क्या है तेरे पास मशीन

20 वीं शताब्दी के मध्य का दौर बगावत का दौर था. उलेमाओं ने बागियों को रोकने की कोशिश की, लेकिन साम्यवाद अपने चरम पर था, वो निष्फल हुए. जौन कहते हैं ऐसा नहीं था कि, उलेमा समाज को सही दिशा में ले जा रहे थे बल्कि, वे वर्ग और जातिगत पूर्वाग्रहों से भरे हुए थे.
यह वो दौर था जब वैश्विक परिदृश्य में भारत की भूमिका अहम हो चुकी थी. पूंजीवाद की चूले उखड़ने का दौर दशकों पहले शुरू हो गया था. वो कहते थे कि, एक साम्राज्यवादी और पूंजीवादी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप का अस्तित्व 21वीं सदी के आधुनिक समाज के लिए कलंक है. जौन कहते थे कि, धार्मिक लोगों और कम्युनिस्टों के बीच दुश्मनी जन्मजात नहीं है, बल्कि मार्क्सवादी विचारों को बदनाम करने के लिए पूंजीवाद के रक्षकों का एक मजबूत तर्क/आविष्कार है.
कुछ लोगों ने उनके लेखन पर गंगा-जमुनी परंपराओं के प्रभाव की ओर इशारा किया, लेकिन उनकी शायरी का एक महत्त्वपूर्ण पहलू जो उनके बारे में लिखते समय पूरी तरह से उपेक्षित रहा है, वह है इसकी प्रगतिशील प्रकृति.
बहरहाल आज दुनिया चाहे जिस वाद और विचारधारा के साथ हो और भारत सहित दुनियाभर में वामपंथ की स्थिति चाहे जैसी भी हो, लेकिन जौन के बगावती लेखन को लेकर अमेरिका सहित अन्य पूंजीवादी देशों ने कभी उन्हें या उनकी शायरी को निशाना नहीं बनाया. जौन, कट्टरपंथियों के सख्त खिलाफ थे. और निडर होकर ग़ज़ल कहते रहे.
एक खास बात यह भी कि जौन एलिया ने जब कभी मजदूरों की बात की, तो उन्हें बेचारा नहीं दिखाया, बल्कि मजदूरों को वैसा ही दिखाया जैसे वे हैं, ताकि आवाम को उस स्थिति का बोध कराया जा सके. मजदूर, जिनका किसी भी सभ्यता को स्थापित करने में सबसे बड़ा हाथ है, उनके बारे में जौन ने दो आवाज‌ नज़्म लिखीं.

पहली आवाज-
हमारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं,
के फर्क ए अफलास ओ जर मिटा कर निजाम ए फितरत से लड़ रहे हैं
निजाम ए दौलत खुदा की नेमत खुदा की नेमत से लड़ रहे हैं
हर इक रिवायत से लड़ रहे हैं, हर इक सदाकत से
मशीयत ए हक से हो के गाफिल खुद अपनी किस्मत से लड़ रहे हैं
हमारे सरकार कह रहे थे अगर सभी मालदार होते
तो फिर जलील ओ हकीर पेशे हर एक को नागवार होते
ना कारखानों में काम होता, ना लोग मसरूफ ए कार होते,
अगर सभी मालदार होते
तो मस्जिद ओ मंदिर ओ कलीसा में कौन सन्नत गरी दिखाता
हमारे राजों की और शाहों की अज्मतें कौन फिर जगाता
हसीन ताज और जलील अहराम ढाल कर कौन दाद पाता...

दूसरी आवाज-
तुम अपने सरकार से ये कहना ये लोग पागल नहीं हुए हैं
ये लोग सब कुछ समझ रहे हैं, ये लोग सब कुछ समझ चुके हैं
ये जर्दरू नौजवान फनकार जिनकी रग रग में वलवले हैं
ये जिनको तुमने कुचल दिया है, ये जिनमें जीने के हौसले हैं
दिया है फाकों ने जन्म जिनको जो भूख की गोद में पले हैं
ये लोग पागल नहीं हुए हैं
तुम्हारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं
ये लोग जमहूर की सदा हैं, ये लोग दुनिया के रहनुमा हैं
ये लोग पागल नहीं हुए हैं!

जौन कभी वह व्यक्ति नहीं रहे, जो वह चाहते थे कि हम विश्वास करें कि वह, यह थे. इस शेर को देखिए-

अपने अंदर हंसता हूं मैं, और बहुत शरमाता हूं
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका, और ये सब चालाकी थी...

जौन ऐसा शायर जिसने खून थूकने को रोमांचित किया. एक वो बदनाम शायर जिसने मोहब्बत/शरारत में ख़ून थूका. किसी ने उस खून थूकने वाली के बारे में जानना चाहा तो जौन ने इस तरह एक किस्सा पेश किया-

"मेरी एक भतीजी की शादी थी, मेरे एक दोस्त के साथ. मेरे एक और दोस्त हैं कमर अजीज, कमाल स्टूडियोज के मैनेजर हैं. तो शादी में, मैं और वो स्टेज पर ही बैठे थे उनके बराबर में. तो ख़्वातीन भी हमें देख रही थीं तो एक लड़की जो स्टूडेंट थी इस्लामिया कॉलेज की, उसने मुझे देखा. मुझे क्या मालूम? फिर उसने मुझे ख़त लिखने शुरू किए, बहुत, बेशुमार शिद्दते चाव से. जैसे पहले जमाने में पूजा जाता था न, जैसे टैगोर को पूजा गया, मीर को या मजाज को, इस तरह से पूजती थी वो. अच्छा किस्सा क्या है? मोहब्बत कोई जबरी शै तो है नहीं. वो आई, मैंने देखा कि वो आई. ख़त तो पहले ही लिख चुकी थी, फोन वगैरह भी. पर मेरे लिए उसके दिल में मुहब्बत नहीं थी. पर चूंकि वो मुझसे मोहब्बत करती थी तो मैंने अख़लाकी तौर पे मोहब्बत की अदाकारी की, कि इसका दिल न टूट जाए. ये जाहिर न हो कि मैं मोहब्बत नहीं करता.
"गोया मैं एक्टिंग करता रहा. उसे किसी तरह से इसका अंदाजा हो गया. मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि सच्चाई लगे. जो कुछ भी हो, ये मेरे लिए इनसानी मामला था कि यार ये इतना चाहती है मुझे, कहीं इसे ये महसूस न हो कि इसे इसकी मोहब्बत का जवाब नहीं मिला. मैंने मोहब्बत का जवाब मुहब्बत से ही दिया, लेकिन बहरहाल असली मोहब्बत, ड्रामे की मोहब्बत में तो फर्क होता है. जहीन लड़की थी, समझ गई और बीमार रहने लगी. टीबी हो गई.
"वो जो लिखा है खून थूकती है, मजाक थोड़े ही है. मुझे भी टीबी हुई थी. वो फिर ख़त्म हो गई. अब किस किस तरह मैंने खून थूका‌. उसके बाद जितना उसका असर अब तक मेरी रूह में है, उनका असर नहीं है जिनसे वाकई मैंने मुहब्बत की है. मुझे अहसास-ए-जुर्म है. अच्छा आप मोहब्बत ज़बरदस्ती तो कर नहीं सकते. मैं एक काम कर सकता था. मैं ये जाहिर कर सकता था मैं शदीद मोहब्बत करता हूं. मैंने ये जाहिर किया. आप कहते हैं मैंने गलती की. उसने नज़्म भी कही थी, पर मैंने महफूज नहीं रखी वो. कुछ यूं थी-
जौन तुम्हें ये दौर मुबारक, दूर गम ओ आलाम से हो,
एक लड़की के दिल को दुखाकर अब तो बड़े आराम से हो
एक महकती अंगड़ाई के मुस्तकबिल का खून किया,
तुमने उसका दिल रखा या उसके दिल का खून किया.
जौन विभाजन के बाद भी भारत बराबर आते रहे, लेकिन कभी अपनी माशूका को पहले जैसा प्रेम नही दे पाते. अपनी पत्नी जाहिदा हिना से तलाक लेने के बाद जौन ने शराब पीनी शुरू कर दी. जौन एक अवसाद से गुजरने लगे, जिसके कारण उन्होंने अपनी प्रेमिका को खत लिखना बहुत कम कर दिया. इस बात का खुलासा जौन अपनी एक शायरी में करते हैं, जिसमें वो कहते हैं-
क्या सितम है, कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है,
कौन इस घर की देखभाल करे,
रोज एक नयी चीज टूट जाती है!
एक बार अनवर शूर ने कहा था कि हमें याद नहीं है कि हमने जौन को कभी किसी चीज के लिए खुश देखा हो.‌‌ शायद, खुशी वास्तव में उनकी चाय का प्याला नहीं थी.
जौन एलिया शायद मुखौटा थे, असली नहीं. उन्होंने जो कुछ भी किया या कहा, वह सिर्फ एक व्यक्तित्व था. वह जानते थे कि लोग दुखवादी होते हैं और वे दूसरे लोगों को पीड़ित देखकर आनंदित होते हैं. तभी अर्ज किया-
क्या तकल्लुफ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं...
उनकी शायरी व्यावहारिक नहीं बल्कि आदर्शवादी भी थी. उनके अधिकतर समकालीनों ने जौन के एक आदर्श दुनिया में रहने की बात कहीं और जब उन्होंने महसूस किया कि उनके आदर्श कहीं नहीं हैं, तो उनकी कड़वाहट बढ़ती गई. मैं पहले भी लिख चुका हूं कि जौन नास्तिक थे. अब सोचिए जरा, एक नास्तिक व्यक्ति, जो किसी के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, जो एक आदर्शवादी दुनिया में रहता है और उससे प्यार करने का नाटक करता है, जिससे प्यार है ही नहीं. फिर जिन राजनीतिक विचारों में उनका विश्वास था, वह कभी फला नहीं.
मलिक जादा मंसूर ने जौन एलिया के बारे में एक बार कहा भी था- "अनुभव की वादियों में इनसान जब तक सीने के बल न चल लें, वो जौन एलिया नहीं हो सकता"
जौन एलिया का जीवन बहुत जटिल और उदास था, शायद वो चाहते भी यही थे. वह अपने आंतरिक विचारों और उदास स्थिति में इतना शामिल थे कि वह प्रकृति को अल्लाह की रचना को देखने या अल्लाह के अस्तित्व को खोजने के बजाय दुख व्यक्त करने में अधिक समय व्यतीत करते. जौन ने अर्ज किया -
यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?
जौन एलिया की इस शायरी ने स्पष्ट किया कि वे नास्तिक हैं, हालांकि लोग जौन को इतना प्यार और सम्मान देते हैं कि वे इस बात पर विश्वास नहीं कर सकते थे कि वे नास्तिक हैं. हर कोई उन्हें देखना या सुनना चाहता था लेकिन अब जब वह नहीं हैं कोई भी इस सच्चाई से इन्कार नहीं कर सकता कि, वे नास्तिक थे.
जौन ने जब अपनी एकमात्र पुस्तक प्रकाशित की, तो उनसे एक दोस्त ने पूछा, लोग आपकी किताबों से ज्यादा मेरी किताबें क्यों पढ़ते हैं? जौन ने जवाब दिया, "यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि वे किसकी किताबें पढ़ते हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण है कि वे किताब पढ़ें. यदि वे आज तुम्हारा पढ़ रहे हैं, तो कल मेरा भी पढ़ेंगे. और आज जौन सही साबित हुए.
जौन का मानना था कि, इस दुनिया में कोई भी आत्मा सब अपने-आप में पूर्ण नहीं हो सकती, यही कारण था कि जौन ने अपनी किताब 'शायद' की प्रस्तावना में लिखा कि, मियां गालिब, 'आप तो पच्ची शेर के शायर हैं.' मिर्जा गालिब जिनकी लगभग सभी पीढ़ियों ने प्रशंसा की है, फिर भी जौन ने उनके बारे में यह कहा. जौन ने कहा, 'एक शायर को खुदरंग होना चाहिए. मैं इसे अलग तरह से देखता हूं.' उनका मानना ​​​​था कि गालिब हर चीज के बारे में बात करते थे, और किसी कारण से उन्हें यह अच्छा नहीं लगा.
कभी-कभी लगता है दर्द है तो जौन है, इसी दर्द ने हमें जौन दिया, और अर्ज किया-
जौन! गुजाश्त-ए-वक्त की हालत-ए-हाल पर सलाम
उस के फिराक को दुआ, उसके विसाल पर सलाम
अपना कमाल था अजब, अपना जवाल था अजब
अपने कमाल पर दारूद, अपने जवाल पर सलाम !!

-प्रत्यक्ष मिश्रा
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. साहित्य के पारखी हैं और हिन्दू कॉलेज, मुरादाबाद में हिन्दी परिषद् के अध्यक्ष हैं.