जौन उठता है यूं कहो या'नी' 20 वीं शताब्दी के मध्य का दौर बगावत का दौर था. उलेमाओं ने बागियों को रोकने की कोशिश की, लेकिन साम्यवाद अपने चरम पर था, वो निष्फल हुए. जौन कहते हैं ऐसा नहीं था कि, उलेमा समाज को सही दिशा में ले जा रहे थे बल्कि, वे वर्ग और जातिगत पूर्वाग्रहों से भरे हुए थे. पहली आवाज- दूसरी आवाज- जौन कभी वह व्यक्ति नहीं रहे, जो वह चाहते थे कि हम विश्वास करें कि वह, यह थे. इस शेर को देखिए- अपने अंदर हंसता हूं मैं, और बहुत शरमाता हूं जौन ऐसा शायर जिसने खून थूकने को रोमांचित किया. एक वो बदनाम शायर जिसने मोहब्बत/शरारत में ख़ून थूका. किसी ने उस खून थूकने वाली के बारे में जानना चाहा तो जौन ने इस तरह एक किस्सा पेश किया- "मेरी एक भतीजी की शादी थी, मेरे एक दोस्त के साथ. मेरे एक और दोस्त हैं कमर अजीज, कमाल स्टूडियोज के मैनेजर हैं. तो शादी में, मैं और वो स्टेज पर ही बैठे थे उनके बराबर में. तो ख़्वातीन भी हमें देख रही थीं तो एक लड़की जो स्टूडेंट थी इस्लामिया कॉलेज की, उसने मुझे देखा. मुझे क्या मालूम? फिर उसने मुझे ख़त लिखने शुरू किए, बहुत, बेशुमार शिद्दते चाव से. जैसे पहले जमाने में पूजा जाता था न, जैसे टैगोर को पूजा गया, मीर को या मजाज को, इस तरह से पूजती थी वो. अच्छा किस्सा क्या है?
मोहब्बत कोई जबरी शै तो है नहीं. वो आई, मैंने देखा कि वो आई. ख़त तो पहले ही लिख चुकी थी, फोन वगैरह भी. पर मेरे लिए उसके दिल में मुहब्बत नहीं थी. पर चूंकि वो मुझसे मोहब्बत करती थी तो मैंने अख़लाकी तौर पे मोहब्बत की अदाकारी की, कि इसका दिल न टूट जाए. ये जाहिर न हो कि मैं मोहब्बत नहीं करता. -प्रत्यक्ष मिश्रा |