Show परिचय[संपादित करें]दादू का जन्म फाल्गुनी सुदी 8 गुरुवार 1601 वि.( 1544 ईस्वी ) में भारतवर्ष के गुजरात राज्य के अहमदाबाद नगर में हुआ था।[2] ग्यारह वर्ष की अवस्था में दादू को भगवान ने वृद्ध के रूप में दर्शन दिए और इन्हीं वृद्ध ' बुड्ढन 'ये कबीर साहेब जी थे जो जिन्दा बाबा के रूप में मिले या वृद्धानन्द कबीर साहेब को दादू साहेब गुरु माना जाता हैं | इस बात का उल्लेख जनगोपाल कृत जन्मलीला परची में मिलता हैं | दादूजी की कई रचनाओं[3] में कबीर जी का जिक्र है। जैसे जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार।दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार।।दादू नाम कबीर की, जै कोई लेवे ओट।उनको कबहू लागे नहीं, काल बज्र की चोट।।दादू नाम कबीर का, सुनकर कांपे काल।नाम भरोसे जो नर चले, होवे न बंका बाल।।जो जो शरण कबीर के, तरगए अनन्त अपार।दादू गुण कीता कहे, कहत न आवै पार।।कबीर कर्ता आप है, दूजा नाहिं कोय।दादू पूरन जगत को, भक्ति दृढावत सोय।।ठेका पूरन होय जब, सब कोई तजै शरीर।दादू काल गँजे नहीं, जपै जो नाम कबीर।।आदमी की आयु घटै, तब यम घेरे आय।सुमिरन किया कबीर का, दादू लिया बचाय।।मेटि दिया अपराध सब, आय मिले छनमाँह।दादू संग ले चले, कबीर चरण की छांह।।सेवक देव निज चरण का, दादू अपना जान।भृंगी सत्य कबीर ने, कीन्हा आप समान।।दादू अन्तरगत सदा, छिन-छिन सुमिरन ध्यान।वारु नाम कबीर पर, पल-पल मेरा प्रान।।सुन-2 साखी कबीर की, काल नवावै माथ।धन्य-धन्य हो तिन लोक में, दादू जोड़े हाथ।।केहरि नाम कबीर का, विषम काल गज राज।दादू भजन प्रतापते, भागे सुनत आवाज।।पल एक नाम कबीर का, दादू मनचित लाय।हस्ती के अश्वार को, श्वान काल नहीं खाय।।सुमरत नाम कबीर का, कटे काल की पीर।दादू दिन दिन ऊँचे, परमानन्द सुख सीर।।दादू नाम कबीर की, जो कोई लेवे ओट।तिनको कबहुं ना लगई, काल बज्र की चोट।।और संत सब कूप हैं, केते झरिता नीर।दादू अगम अपार है, दरिया सत्य कबीर।।अबही तेरी सब मिटै, जन्म मरन की पीर।स्वांस उस्वांस सुमिरले, दादू नाम कबीर।।कोई सर्गुन में रीझ रहा, कोई निर्गुण ठहराय।दादू गति कबीर की, मोते कही न जाय।।जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार।दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार।।दादू जी की ये वाणियां कई बातों का संकेत देती है।[4] हालांकि दादू जी कबीर जी के समकालीन नहीं थे लेकिन उन्होंने साखियों में जिक्र किया है कि बूढ़े बाबा के रूप में उन्हें कबीर जी मिले थे, जिन्हें ही अपना सतगुरु माना है। उनकी साखियां यह भी संकेत देती है कि कबीर नाम स्वयं परमात्मा का है जिनके नाम के सहारे संसार सागर से पार हुआ जा सकता है। उन्होंने कबीर जी को ही सृजनहार अर्थात दुनिया का उत्पत्तिकर्ता कहा है।[5] इस पंथ के अनुयायी अपने साथ एक सुमरनी रखते हैं | सतराम कहकर ये आपस में अभिवादन करते हैं | दादू के बाद यह संप्रदाय धीरे-धीरे पांच उपसंप्रदायो में विभाजित हो गया , जो निम्नलिखित हैं - 1 . खालसा 2 . विरक्त तपस्वी 3 . उत्तराधे व स्थान धारक 4 . खाकी 5 . नागा दादू पंथियों का सत्संग स्थल ' अलख दरीबा ' के नाम से जाना जाता है। अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु परोपकार के लिए तुरंत दे देने के स्वाभाव के कारण उनका नाम “दादू” रखा गया। आप दया दीनता व करुणा के खजाने थे, क्षमा शील और संतोष के कारण आप ‘दयाल’ अतार्थ “दादू दयाल” कहलाये। विक्रम सं. 1620 में 12 वर्ष की अवस्था में दादूजी गृह त्याग कर सत्संग के लिए निकल पड़े, केवल प्रभु चिंतन में ही लीन हो गए। अहमदाबाद से प्रस्थान कर भ्रमण करते हुए राजस्थान की आबू पर्वतमाला, तीर्थराज पुष्कर से होते हुए करडाला धाम (जिला जयपुर) पधारे और पूरे 6 वर्षों तक लगातार प्रभु की साधना की कठोर साधना से इन्द्र को आशंका हुई की कहीं इन्द्रासन छीनने के लिए तो वे तपस्या नहीं कर रहे , इसीलिए इंद्र ने उनकी साधना में विघ्न डालने के लिए अप्सरा रूप में माया को भेजा। जिसने साधना में बाधा डालने के लिए अनेक उपाय किये मगर उस महान संत ने माया में व अपने में एकात्म दृष्टि से बहन और भाई का सनातन प्रतिपादित कर उसके प्रेमचक्र को एक पवित्र सूत्र से बाँध कर शांत कर दिया। संत दादू जी विक्रम सं. 1625 में सांभर पधारे यहाँ उन्होंने मानव-मानव के भेद को दूर करने वाले, सच्चे मार्ग का उपदेश दिया। तत्पश्चात दादू जी महाराज आमेर पधारे तो वहां की सारी प्रजा और राजा उनके भक्त हो गए। उसके बाद वे फतेहपुर सीकरी भी गए जहाँ पर बादशाह अकबर ने पूर्ण भक्ति व भावना से दादू जी के दर्शन कर उनके सत्संग व उपदेश ग्रहण करने के इच्छा प्रकट की तथा लगातार 40 दिनों तक दादूजी से सत्संग करते हुए उपदेश ग्रहण किया। दादूजी के सत्संग प्रभावित होकर अकबर ने अपने समस्त साम्राज्य में गौ हत्या बंदी का फरमान लागू कर दिया।[6] उसके बाद दादूजी महाराज नराणा(जिला जयपुर) पधारे और उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना और यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान होकर लम्बे समय तक तपस्या की और आज भी खेजडा जी के वृक्ष के दर्शन मात्र से तीनो प्रकार के ताप नष्ट होते हैं। यहीं पर उन्होंने ब्रह्मधाम “दादू द्वारा” की स्थापना की जिसके दर्शन मात्र से आज भी सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है। तत्पश्चात श्री दादूजी ने सभी संत शिष्यों को अपने ब्रह्मलीन होने का समय बताया। ब्रह्मलीन होने के लिए निर्धारित दिन (जेयष्ट कृष्ण अष्टमी सम्वत 1660 ) के शुभ समय में श्री दादूजी ने एकांत में ध्यानमग्न होते हुए “सत्यराम” शब्द का उच्चारण कर इस संसार से ब्रहम्लोक को प्रस्थान किया। श्री दादू दयाल जी महाराज के द्वारा स्थापित “दादू पंथ” व “दादू पीठ” आज भी मानव मात्र की सेवा में निर्विघ्न लीन है। वर्तमान में दादूधाम के पीठाधीश्वर के रूप में आचार्य महंत श्री गोपालदास जी महाराज विराजमान हैं। वर्तमान में भी प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल अष्टमी पर नरेना धाम में भव्य मेले का आयोजन होता है तथा इस अवसर पर एक माह के लिए भारत सरकार के आदेश अनुसार वहां से गुजरने वाली प्रत्येक रेलगाड़ी का नराणा स्टेशन पर ठहराव रहता है। उनके उपदेशों को उनके शिष्य रज्जब जी ने “दादू अनुभव वाणी” के रूप में समाहित किया, जिसमे लगभग 5000 दोहे शामिल हैं। संतप्रवर श्री दादू दयालजी महाराज को निर्गुण संतो जैसे की कबीर व गुरु नानक के समकक्ष माना जाता है तथा उनके उपदेश व दोहे आज भी समाज को सही राह दिखाते आ रहे हैं। दादूपन्थ[संपादित करें]दादूदयाल का उद्देश्य पंथ स्थापना नहीं था , परन्तु वे इतना अवश्य चाहते थे की विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सहिष्णुता व समन्वय की भावना पैदा करने वाली बातों का निरूपण किया जाए और सभी के लिए एक उत्कृष्ट जीवन-पद्धति का निर्माण किया जाए।इस तरह व्यक्तिगत व सामुहिक कल्याण की भावना के परिणाम स्वरुप 'दादूपंथ' का उदय हुआ।सुंदरदास ने गुरु सम्प्रदाय नामक अपने ग्रन्थ में इसे'परब्रह्म सम्प्रदाय'कहा है। परशुराम चतुर्वेदी इस सम्प्रदाय का स्थापना काल 1573 ई. में सांभर में मानते हैं।परब्रह्म सम्प्रदाय का पूर्व नाम ब्रह्म सम्प्रदाय भी है, लेकिन सर्वाधिक लोकप्रिय नाम दादूपंथ ही है। दादूपंथी नागा सम्प्रदाय[संपादित करें]महान संत दादूदयाल जी के प्रथम शिष्य बड़े सुन्दरदास जी के शिष्य प्रह्लाददास जी ने घाटड़ा में अपनी गद्दी स्थापित की थी, उनकी पांचवीं पीढ़ी मे संत हृदयराम जी महंत बने थे ये महान राजर्षि संत थे। उस समय देश मे मुसलमानो और अंग्रेजों का शासन था इनके अत्याचारों से हिन्दुओं की बड़ी दुर्दशा थी! ऐसे कठिन समय में हृदयराम जी ने आवश्यकता समझी कि देश एवं धर्म रक्षार्थ संतो को शस्त्र धारण करने चाहिये, उन्होने सर्वप्रथम अपने शिष्यों को शस्त्र चालन सिखाकर वि० सं० १८१२ में दादूपंथी संतों की नागा सेना स्थापित की। ये संत सैनिक बड़े शूरवीर तो थे ही, विद्वान और तपस्वी भी होते थे, उस समय पूरे देश मे दादूपंथियों जैसी सशक्त सेना किसी सम्प्रदाय मे नहीं थी यह सुनकर गुरु गोविंदसिंह जी भी धर्मयुद्ध मे सहयोग मांगने हेतू नरैना पधारे थे। संतसेना ने २०० वर्षों में ३३ बड़े युद्ध लड़े और एक भी नहीं हारे थे। इन्होने अपने स्वार्थ के लिये एक भी युद्ध नहीं किया कभी किसी को सताया नहीं कमजोरों का साथ देते थे, राजाओं का युद्ध में सहयोग करते थे अत: राजाओं ने संतसेना के निर्वाह हेतू जागीरें एवं सम्पत्तियां दी, वि० सं० १८२८ तक तो जयपुर दरबार से प्रतिमाह २४०० रू खर्चे हेतू गंगाराम जी को मिलते थे। वि० सं० १८३६ में एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई थी, जयपुर राज्य पर रींगस खाटू की तरफ से तुर्कों ने भीषण हमला किया एवं खाटू मे लूटमार मचानी शुरु की, उस समय जमात के महंत महायोद्धा संत मंगलदास जी थे। जयपुर महाराजा सवाई प्रतापसिंह जी के अत्यंत निवेदन पर मंगलदास जी संतसेना लेकर धर्मयुद्ध करने खाटू पहुँचे मंगलदास जी ने युद्ध से पहले अपने हाथों अपना शीश उतार कर एक तरफ रख दिया फिर भीषण युद्ध हुआ! इस युद्ध में हमारे सात सौ संत वीरगति को प्राप्त हुये एवं तीन हजार पांच सौ तुर्क मारे गये बाकी के विधर्मी जान बचाकर भाग गये! राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा हुई! तत्त्पश्चात् उनके शिष्य संतोषदास जी ने खाटू में जहां शीश रखा था वहां पर शीशमन्दिर बनवाया जो आज खाटूश्यामजी के नाम से प्रसिद्ध है और रणक्षेत्र में जहां धड़ गिरा वहां समाधी बनवाकर चरण स्थापित किये, रामगंज जयपुर में दादू द्वारा बनाकर अपनी गद्दी स्थापित की ऱणक्षेत्र की २००० बीघा जमीन जयपुर महाराजा ने दादूपंथ के नाम करदी थी! वर्तमान समय में तीनों स्थान अच्छी स्थिति मे है। खाटू युद्ध के बाद दादूपंथ की पूरे देश में प्रतिष्ठा बढ़ गई थी, जयपुर महाराजा पूरी नागा सेना को जयपुर ले आये, वि० सं० १८४३ में महंत संतोषदास जी ने रामगंज बाजार मे अपनी गद्दी स्थापित की, वर्तमान में जो शासन सचिवालय का भवन है इसमें नागासेना को रक्खा गया, यहां हमारे ४००० संत सैनिक रहते थे! जब द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ तो अंग्रेजों ने जयपुर महाराजा को आदेश दिया कि नागासेना को युद्ध हेतू जर्मनी भेजना है परन्तु नागासेना ने अंग्रेजों के पक्ष मे युद्ध करने से साफ मना कर दिया, तब अंग्रेजों के कहने पर महाराजा ने नागासेना को भंग कर दिया, कई स्थानो पर जागीरें दी कईयों को यथायोग्य प्रशासन में नौकरियां देकर यहां से सबको विदा कर दिया! आज भी कुछ स्थानो पर विपरीत परिस्थितियों में भी कुछ सज्जनो ने उस प्राचीन युद्धकला को जीवित रख रखा है जिन्हें हम आज खण्डेत कहते हैं। दादूपंथी नागा सम्प्रदाय की प्रधानपीठ रामगंज, जयपुर में स्थित है जिसे दादूद्वारा रामगंज के नाम से जाना जाता है, वर्तमान में महन्त गोविन्द दास जी महाराज की देखरेख में इसका संचालन किया जा रहा है। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
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संंदर्भ[संपादित करें]
दादू जी के कितने शिष्य थे?संत दादू की शिष्य परम्परा में 152 शिष्य माने जाते हैं, जिनमें 52 प्रमुख शिष्य अब 52 स्तम्भ कहलाते हैं । दादूजी की रचनाएँ दादूदयाल री वाणी और दूहा हरड़ेवाणी है । इनकी भाषा ढूंढाडी है ।
दादू दयाल के शिष्य कौन कौन थे?दादूदयाल के 52 शिष्य थे इनमे से रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल प्रमुख थे. जिन्होंने अपने गुरु की शिक्षाएँ जन जन तक फैलाई. इनकी शिक्षाएँ दादुवाणी में संग्रहित है. दादू दयाल ने बहुत ही सरल भाषा में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है.
दादू जी की कितनी शाखाएं हैं?प्रमुख शिष्य- बखनाजी, रज्जबजी, संुदरदास , माधोदास आदि। दादूखोल- नारायणा में भैराणा पहाड़ी पर स्थित वह गुफा जिसमें दादू जी ने समाधि ली थी। इन्हें राजस्थान का कबीर कहा जाता है। दादू जी की मृत्यु के बाद दादू पंथ की छः शाखाएं बन गई है।
दादू पंथ की स्थापना कब हुई थी?59 दादू वाणी को कई लोगों ने सम्पादित किया है। जिनमें चन्द्रिका प्रसाद, बाबू बालेश्वरी प्रसाद, स्वामी नारायण दास, स्वामी जीवानंद, भारत भिक्षु आदि प्रमुख हैं। सन् 1907 में सुधाकर द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से इनकी रचनाओं को दादू दयाल की बानी के नाम से प्रकाशित करवाया।
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