संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया - samprabhuta ke bahulavaadee siddhaant ka pratipaadan kisane kiya

Sovereignty quiz 01

प्रश्न =1 सम्प्रभुता सिद्धांत का सर्वप्रथम प्रतिपादन किसने किया?
(अ) हाॅब्स
(ब) ज्यां बोंदा ✔
(स) लाॅक
(द) क्रैब

प्रश्न =2 किसने कहा कि “सम्प्रभुता नागरिकों और प्रजाजनों के ऊपर एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति की द्योतक है जो कानून के बन्धनों से नहीं बंधी होतीं हैं।”
(अ) ज्यां बोंदा ✔
(ब) हाॅब्स
(स) रूस
(द) उपरोक्त में से कोई नही

प्रश्न =3 सम्प्रभुता सिद्धांत का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन करने का श्रेय किसको जाता है ?
(अ) रूसो
(ब) विलोबी
(स) जाॅन आॅस्टिन✔
(द) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न =4 सम्प्रभुता के लक्षण में शामिल है?
(अ) पूर्णता और स्थायित्व
(ब) सर्वव्यापकता और अदेय
(स) अविभाज्यता और अनन्यता
(द) उपरोक्त सभी ✔

प्रश्न =5 किसने सर्वप्रथम लोकप्रिय सम्प्रभुता की अवधारणा का प्रतिपादन किया?
(अ) हाॅब्स
(ब) लाॅक
(स) रूसो ✔
(द) मिल

प्रश्न =6 किसने कहा “कानून सम्प्रभु का आदेश हैं”?
(अ) ऑस्टिन ✔
(ब) लाॅस्की
(स) बेन्थम
(द) एक्वीनास

प्रश्न =7 किसने विधिक और राजनीतिक सम्प्रभुता में विभेद किया ?
(अ) बेन्थम
(ब) डायसी✔
(स) हयूम
(द) मिल

प्रश्न =8 विश्लेषणोपरान्त ऑस्टिन के सिद्धांत में सम्प्रभु के पास है?
(अ) अधिकार एवं कर्तव्य
(ब) न तो अधिकार न ही कर्तव्य
(स) मात्र अधिकार है, कर्तव्य नहीं ✔
(द) मात्र कर्तव्य है अधिकार नहीं

प्रश्न =9 किसने सम्प्रभुता को “राज्य की सर्वोच्च इच्छा” के रूप में परिभाषित किया है?
(अ) विलोबी ✔
(ब) लाॅस्की
(स) ग्रेशियस
(द) गार्नर

प्रश्न =10 निम्नलिखित में से कौन सा एक सही है ?
(अ)वैधानिक सम्प्रभुता सदा निश्चित नहीं होती है
(ब) वैधानिक सम्प्रभु राजनीतिक सम्प्रभु की इच्छा के विरुद्ध कार्य कर सकते हैं
(स) वैधानिक सम्प्रभुता अधिकारों को नहीं मानती
(द) वैधानिक सम्प्रभुता राजनीतिक सम्प्रभु इचछा के विरुद्ध कार्य नही कर सकता✔

प्रश्न =11 निम्नलिखित में से कौन एक एकीकृत सत्ता की आवश्यकता का बचाव नहीं करता है?
(अ)बोंदा
(ब) हाॅब्स
(स) क्रैब ✔
(द) ऑस्टिन

प्रश्न =12 सम्प्रभुता के अद्वैतवादी सिद्धांत का मुख्य दोष यह है कि वह-
(अ) अधिकांश जनता से आज्ञापालन की अपेक्षा करता है
(ब) लोकतन्त्र का विरोध हैं
(स) सम्प्रभुता की वैधानिक प्रकृति की व्याख्या करता है
(द) सभी शक्तियाँ एक निश्चित मानव श्रेष्ठ में निहित कर देता है ✔

प्रश्न =13 सम्प्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत के मुख्य  समर्थक कौन है ?
(अ) लाॅस्की , क्रैब , लिण्डसे ,मैटलेण्ड
(ब) बार्कर , फिगिंस , गिरके , फाॅलेट
(स) दुर्खीम, मैकाइवर, जी डी एच कोल
(द) उपरोक्त सभी ✔

प्रश्न =14 प्रभुता नागरिकों तथा प्रजा पर विधि से अनुवरूद्ध सर्वोच्च सत्ता है प्रभुता का यह निम्नलिखित में से आज किनके द्वारा व्यवहार में सीमित है?
(अ) भूमंडलीकरण
(ब) अधिसंख्या राज्य द्वारा सार्वभौमिक मानवाधिकार की उदघोषणा की स्वीकृति
(स) परिस्थितिकी तथा आंतकवाद जैसे सार्वभौमिक सरोकारों का उद्भव
(द) उपरोक्त सभी ✔

प्रश्न =15 आॅस्टिनियन सम्प्रभु –
(अ) राज्य की पूर्ण राजनीतिक शक्ति है
(ब) विधिक सत्ता का अंतिम स्त्रोत है✔
(स) राज्य की विधिक और नैतिक सर्वोच्च सत्ता है
(द) समुदाय की उसके प्रतिनिधियों द्वारा प्रयुक्त असीमित शक्ति हैं

प्रश्न = 16 निम्नलिखित राज्यों में से किस एक राज्य में द्विसदनीय व्यवस्थापिका  नही है  ?
(अ) कर्नाटक
(ब) पश्चिम बंगाल ✔
(स) बिहार
(द) महाराष्ट्र

राजनीति
पर एक शृंखला का हिस्सा
संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया - samprabhuta ke bahulavaadee siddhaant ka pratipaadan kisane kiya

प्रमुख विषय

  • सूची
  • रूपरेखा
  • देशानुसार राजनीति
  • उपखंड-अनुसार राजनीति
  • राजनीतिक अर्थशास्त्र
  • राजनीतिक इतिहास
  • विश्व का राजनैतिक इतिहास
  • दर्शन

प्रणालियाँ

  • अराजकता
  • नगर-राज्य
  • लोकतंत्र
  • अधिनायकत्व
  • निर्देशन
  • संघीय राजतंत्र
  • सामंतवाद
  • प्रतिभावाद
  • साम्राज्य
  • संसदीय
  • अध्यक्षीय
  • गणतंत्र
  • अर्ध-संसदीय
  • अर्ध-राष्ट्रपति
  • धर्मतंत्र

अकादमिक विषय

  • राजनीति विज्ञान
    (राजनीति वैज्ञानिक)

  • अंतर्राष्ट्रीय संबंध
    (सिद्धांत)

  • तुलनात्मक राजनीति

लोक प्रशासन

  • नौकरशाही(मोहल्ला-स्तरीय)
  • तदर्थशाही

नीति

  • लोकनीति (सिद्धांत)
  • गृह-नीति और विदेश नीति
नागरिक समाज
  • सार्वजनिक हित

सरकार के अंग

  • शक्तियों का पृथक्करण
  • विधानपालिका
  • कार्यपालक
  • न्यायतंत्र
  • चुनाव आयोग

संबंधित विषय

  • संप्रभुता
  • राजनीतिक व्यवहार के सिद्धांत
  • राजनीतिक मनोविज्ञान
  • जीवविज्ञान और राजनीतिक अभिविन्यास
  • राजनीतिक संगठन
  • विदेशी चुनावी हस्तक्षेप

विचारधाराएँ

  • साम्यवाद
  • मार्क्सवाद
  • समाजवाद
  • उदारवाद
  • रूढ़िवाद
  • आदर्शवाद
  • फ़ासीवाद
  • आंबेडकरवाद
  • अराजकतावाद
  • सर्वाधिकारवाद
  • सत्तावाद
  • गांधीवाद
  • नक्सलवाद
  • माओवाद
  • लेनिनवाद
  • कुलीनतावाद

उप-श्रंखलाएँ

  • निर्वाचन प्रणालियाँ
  • चुनाव( मतदान)
  • संघवाद
  • सरकार के रूप में
  • विचारधारा
  • राजनीतिक प्रचार
  • राजनीतिक दल

राजनीति प्रवेशद्वार

  • दे
  • वा
  • सं

किसी भौगोलिक क्षेत्र या जन समूह पर सत्ता या प्रभुत्व के सम्पूर्ण नियंत्रण पर अनन्य अधिकार को सम्प्रभुता (संप्रभुता) (Sovereignty) कहा जाता है। सार्वभौम सर्वोच्च विधि निर्माता एवं नियंत्रक होता है यानि संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति है|

परिचय[संपादित करें]

युरोप में आधुनिक राज्य के उदय के परिणामस्वरूप सत्रहवीं सदी में 'सम्प्रभुता' की अवधारणा का जन्म हुआ। मध्य युरोप में युरोपीय राजशाहियों और साम्राज्यों में सत्ता राजा, पोप और सामंतों के बीच बँटी रहती थी। पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में सामंतवाद के तिरोहित होने और उधर प्रोटेस्टेंट मत के उभार के कारण कैथॅलिक चर्च की मान्यता में ह्रास होने से सम्प्रभु राज्यों को पनपने का मौका मिला। सम्प्रभुता का मतलब है - 'सम्पूर्ण और असीमित सत्ता'। लेकिन इसके निहितार्थ इतने सहज नहीं हैं। महज़ इस अर्थ से यह पता नहीं चलता कि आख़िर इस सम्पूर्ण सत्ता की संरचना में क्या-क्या शामिल है? क्या इसका मतलब किसी सर्वोच्च वैधानिक प्राधिकार से होता है या फिर इसका संबंध एक ऐसी राजनीतिक सत्ता से है जिसे चुनौती न दी जा सके?

सम्प्रभुता के अर्थ संबंधी इसी तरह के विवादों के कारण उन्नीसवीं सदी से ही इसे दो भागों में बाँट कर समझा जाता रहा है : विधिक सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता। इस अवधारणा को व्यावहारिक रूप से आंतरिक सम्प्रभुता और बाह्य सम्प्रभुता के तौर पर भी ग्रहण किया जाता है। सम्प्रभुता के आंतरिक संस्करण का मतलब है राज्य के भीतर होने वाले सत्ता के बँटवारे में यानी राजनीतिक प्रणाली के भीतर सर्वोच्च सत्ता का मुकाम। बाह्य संस्करण का तात्पर्य है अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के तहत राज्य द्वारा एक स्वतंत्र और स्वायत्त वजूद की तरह सक्रिय रह पाने की क्षमता का प्रदर्शन। सम्प्रभुता की अवधारणा आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रवाद के आधार में भी निहित है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता, स्व-शासन और सम्प्रभुता के विचारों के मिले-जुले प्रभाव के बिना अ-उपनिवेशीकरण के उस सिलसिले की कल्पना भी नहीं की जा सकती जिसके तहत द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद एशिया, अफ़्रीका और लातीनी अमेरिका में बड़े पैमाने पर नये राष्ट्रों की रचना हुई। विधिक और राजनीतिक सम्प्रभुता के बीच अंतर का एक बौद्धिक इतिहास है जिसे समझने के लिए ज्याँ बोदाँ और थॉमस हॉब्स के तत्संबंधित मतभेदों पर नज़र डालनी होगी। बोदाँ ने अपनी रचना द सिक्स बुक्स ऑफ़ कॉमनवील (1576) में एक ऐसे सम्प्रभु के पक्ष में तर्क दिया है जो ख़ुद कानून बनाता है, पर स्वयं को उन कानूनों के ऊपर रखता है। इस विचार के मुताबिक कानून का अर्थ है लोगों को सम्प्रभु के आदेश पर चलाना। इसका मतलब यह नहीं बोदाँ यहाँ किसी निरंकुश शासक की वकालत करना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि कानून बनाने और उनका अनुपालन कराने वाला सम्प्रभु शासक एक उच्चतर कानून (ईश्वर या प्राकृतिक कानून) के अधीन रहेगा। यानी लौकिक शासक के प्राधिकार पर दैवी कानून की मुहर ज़रूरी होगी। बोदाँ के इस विचार के विपरीत हॉब्स अपनी रचना लेवायथन (1651) में सम्प्रभुता के विचार की व्याख्या प्राधिकार के संदर्भ में न करके सत्ता के संदर्भ में करते हैं। हॉब्स से पहले सेंट ऑगस्टीन ने एक ऐसे सम्प्रभु की ज़रूरत पर बल दिया था जो मानवता में अंतर्निहित नैतिक बुराइयों को काबू में रखेगा। इसी तर्क का और विकास करते हुए हॉब्स ने सम्प्रभुता को दमनकारी सत्ता पर एकाधिकार के रूप में परिभाषित करते हुए सिफ़ारिश की कि यह ताकत अकेले शासक के हाथ में होनी चाहिए। हालाँकि हॉब्स निर्बाध राजशाही को प्राथमिकता देते थे, पर वे यह मानने के लिए भी तैयार थे यह सत्ता शासकों के एक छोटे से गुट या किसी लोकतांत्रिक सभा के हाथ में भी हो सकती है।

बोदाँ और हॉब्स के बीच की यह बहस बताती है कि विधिक सम्प्रभुता राज्य के कानून को सर्वोपरि मानने पर टिकी हुई है। इसके विपरीत राजनीतिक सम्प्रभुता सत्ता के वास्तविक वितरण से जुड़ी हुई है। इस फ़र्क के बावजूद यह भी मानना पड़ेगा कि सम्प्रभुता की व्यावहारिक धारणा में विधिक पहलू भी होते हैं और राजनीतिक भी। आधुनिक राज्यों की सम्प्रभुता कानून की सर्वोपरिता पर भी निर्भर है और उस कानून का अनुपालन करवाने वाले सत्तामूलक तंत्र पर भी जिसके पास दमनकारी मशीनरी होती है। कोई भी कानून महज़ नैतिक बाध्यताओं के दम पर लागू नहीं होता। दण्ड देने वाली व्यवस्था, पुलिस, जेल और अदालतों के बिना उसे कायम नहीं किया जा सकता। विधिक और राजनीतिक सम्प्रभुता का यह समीकरण दोनों तरफ़ से कारगर होता दिखाई देता है। कानून को अपने अनुपालन के लिए अगर सत्ता के तंत्र की ज़रूरत है, तो सत्ता को अपनी वैधता के लिए कानून की संस्तुति की आवश्यकता पड़ती है। शासन को कानूनसम्मत और संविधानसम्मत होना पड़ता है, तभी उसकी वैधता कायम रह पाती है। केवल राजनीतिक सम्प्रभुता के दम पर तानाशाह सरकारें ही काम करती हैं। अगर सरकार लोकतांत्रिक है तो उसकी दमनकारी मशीनरी को कानून की सीमाओं में रह कर अदालतों के सम्मुख जवाबदेह रहना पड़ता है।

सम्प्रभुता के आंतरिक स्वरूप के प्रश्न पर राजनीतिक सिद्धांत के दायरों में काफ़ी बहस हुई है। आख़िर सर्वोच्च और असीमित सत्ता का मुकाम क्या होना चाहिए? क्या उसे किसी एक शासक के हाथ में रखा जाना श्रेयस्कर होगा या उसका केंद्र किसी प्रतिनिधित्वमूलक संस्था में निहित होना बेहतर होगा? सत्रहवीं सदी में फ़्रांस के सम्राट लुई चौदहवें ने दर्प से कहा था कि मैं ही राज्य हूँ। एक व्यक्ति के हाथ में सम्प्रभुता देने के पीछे तर्क यह है कि उस सूरत में सम्प्रभुता के अविभाज्य होने का गारंटी रहेगी। उसकी अभिव्यक्ति एक ही आवाज़ में होगी और उसमें कोई दूसरा प्राधिकार हस्तक्षेप नहीं कर पायेगा। सम्प्रभुता की इस सर्वसत्तावादी धारणा में प्रभावशाली हस्तक्षेप अट्ठारहवीं सदी में किया गया जब ज्याँ-ज़ाक रूसो ने लोकप्रिय सम्प्रभुता की अवधारणा पेश की। रूसो ने राजशाही की हुकूमत को ख़ारिज करते हुए अपनी रचना सोशल कांट्रेक्ट में लिखा : ‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है, पर हर जगह वह ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।’ दरअसल, सोशल कांट्रेक्ट आधुनिक राजनीतिक दर्शन को एकदम नया रूप दे देती है। उनका सामाजिक समझौता हॉब्स और लॉक के सामाजिक समझौते से अलग है। रूसो से पहले के दार्शनिकों का यकीन था कि मनुष्य अपनी बुद्धिगत क्षमताओं के कारण दूसरे प्राणियों से भिन्न है, जबकि रूसो मानते हैं कि इनसान नैतिक चुनाव की क्षमता के कारण अलग है। अगर उसे यह चुनाव करने की आज़ादी न दी जाए तो वह दास से अधिक कुछ नहीं रह जाएगा। चूँकि समाज तरह-तरह की अ-स्वतंत्रताओं से भरा हुआ है और मनुष्य अपनी प्राकृतिक स्वतंत्रता के शुरुआती संसार में नहीं लौट सकता, इसलिए रूसो तजवीज़ करते हैं कि उसे अपनी उस आज़ादी का विनिमय नागरिक स्वतंत्रता से करना चाहिए। इसके लिए मनुष्य को एक-दूसरे से मिल कर संगठन बनाना होगा, सामाजिक अस्तित्व रचना होगा जिसके तहत सभी लोग अपने अधिकार त्याग देंगे और बदले में नागरिक के रूप में अधिकार प्राप्त करेंगे, एक सम्प्रभु के सदस्य के रूप में रहेंगे। अर्थात् एक संविधान बनाना पड़ेगा जिसके तहत हर व्यक्ति अधीन भी होगा और सहभागी नागरिक भी। केवल इसी तरह स्वतंत्रता की गारंटी की जा सकेगी। यह लोकतंत्र की अवधारणा थी, पर रूसो जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाये जाने वाले लोकतंत्र या विधि-निर्माण से सहमत नहीं थे। प्राचीन यूनान के प्रत्यक्ष लोकतंत्र की तरह रूसो चाहते थे कि सभी नागरिक एक सार्वजनिक स्थान पर जमा हो कर विधि निर्माण करें। अल्पमत को बहुमत द्वारा लिए गये निर्णय के अधीन होने से बचाने के लिए रूसो ने सर्वसम्मति का पक्ष लिया जिसे कारगर बनाने के लिए उन्होंने अपने सबसे विख्यात सिद्धांत ‘जन-इच्छा’ (जर्नल विल) का सूत्रीकरण किया। ‘जन-इच्छा’ के आधार पर रचे गये कानून के पालन का मतलब था स्वयं अपनी इच्छा का पालन करना।

रूसो द्वारा प्रवर्तित ‘जन-इच्छा’ का सिद्धांत आगे चल कर आधुनिक लोकतांत्रिक सिद्धांत का आधार बना। रूसो ने ऐसे नागरिकों के सहज समुदाय कल्पना की थी जो ऊँच- नीच के संबंधों से परे समानता और एकता के वाहक होंगे, इसलिए उन्हें विश्वास था कि उनके बीच में ‘जन-इच्छा’ उपलब्ध करना आसान होगा। लेकिन रूसो कभी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये कि नागरिकों की आम सभा में व्यक्त की जाने वाली इच्छाओं में से ‘जर्नल-विल’ कैसे निकलेगी। इसलिए अंत में वे यह कहते हुए नज़र आये कि अगर ‘जन- इच्छा’ नहीं उपलब्ध हो पा रही है तो बहुमत की इच्छा को ही उसका पर्याय मान लिया जाना चाहिए।

सम्प्रभुता के सिद्धांत को उदारतावादी-लोकतांत्रिक विचार के पैरोकारों ने आड़े हाथों भी लिया है। उनका कहना है कि बहुलतावादी और लोकतांत्रिक शासन के संदर्भ में सम्प्रभुता की धारणा अनावश्यक है। ये लोग सम्प्रभुता के विचार को उसके सर्वसत्तावादी अतीत से पीड़ित और इसलिए अवांछनीय मानते हैं। उनका कहना है कि लोकतांत्रिक सरकारें दमनकारी मशीनरी द्वारा थोपे जाने वाले कथित रूप से विधिसम्मत शासन द्वारा नहीं चलतीं। वे तो नियंत्रण और संतुलन के समीकरण और उसके आधार पर बने नेटवर्क के ज़रिये शासन करती हैं। दरअसल, संघात्मक चरित्र वाले आधुनिक राज्यों में आंतरिक सम्प्रभुता का केंद्र तय करना बहुत मुश्किल है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्टे्रेलिया और भारत जैसे संघात्मक राज्यों में सरकार दो स्तरों में विभाजित है और प्रत्येक स्तर के पास अपने स्वायत्त अधिकार हैं। इस प्रकार के राज्यों में सम्प्रभुता केंद्र और परिधि के बीच साझेदारी के रूप में उभरती है। ऐसी परिस्थिति में अगर कोई अविभाजित सम्प्रभु है तो वह है संविधान जो केंद्र को भी सम्प्रभुता सम्पन्न बनाता है और राज्यों को भी।

बाह्य सम्प्रभुता अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में किसी राज्य की हैसियत की द्योतक है। इस तरह की परिस्थितियाँ भी होती हैं कि किसी राज्य में आंतरिक सम्प्रभुता पर विवाद चलता रहता है, पर अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी बाह्य सम्प्रभुता का आदर किया जाता है। वैसे भी लोकतंत्रों के युग में आंतरिक सम्प्रभुता के मसले अब इतने ज़्यादा अहम नहीं माने जाते, पर बाह्य सम्प्रभुता का प्रश्न पहले से कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो चुका है। ऐसे कई अंतर्राष्ट्रीय विवाद हैं जिनमें एक देश की सम्प्रभुता का दावा दूसरे देश की तरफ़ से अपनी सम्प्रभुता के लिए चुनौती के रूप में देखा जाता है। फ़िलिस्तीनियों द्वारा अपने सम्प्रभु राष्ट्र के लिए चलाया जाने वाला आंदोलन इजरायल को अपनी सम्प्रभुता के क्षय का कारक लगता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. कृष्णा मेनन (2008), ‘सॉवरनिटी’, राजीव भार्गव और अशोक आचार्य (सम्पा.), पॉलिटिकल थियरी : ऐन इंट्रोडक्शन, पियर्सन लोंगमेन, नयी दिल्ली.

2. ज्याँ हैम्पटन (1988), हॉब्स ऐंड द सोशल कांटे्रक्ट ट्रेडीशन, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज, यूके.

3. डेविड हेल्ड (1989), पॉलिटिकल थियरी टुडे, पॉलिटी प्रेस, केम्ब्रिज, यूके.

4. एफ़.एच. हिंसले (1986), सोवरिनटी, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज, यूके.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • राष्ट्र
  • देश
  • राज्य
  • सार्वभौमिक राष्ट्र
  • सभी देशों में शहरों की सूचियाँ

संप्रभुता के बहुलवादी सिद्धांत के विचारक कौन हैं?

उत्तर : बहुलवादी प्रजातंत्र के प्रतिपादक लास्की, बार्कर, लिंडसे, क्रैब आदि थे।

संप्रभुता के एकल वादी सिद्धांत के प्रतिपादक कौन हैं?

→जॉन ऑस्टिन द्वारा प्रतिपादित प्रभुसत्ता सिद्धांत को 'एकलवादी सिद्धांत' कहा जाता है।

बहुलवाद का जनक कौन है?

बहुलवाद को विचारधारा के रूप में स्थापित करने का श्रेय जर्मन समाजशास्त्री गीयर्क तथा बिर्टिश विद्वान मेटलेंड को है, जिन्हें आधुनिक राजनीतिक बहुलवाद का जनक कहा जाता है।

संप्रभुता के सिद्धांत का जनक कौन है?

जीन बोंदा ने 1756 में अपनी किताब Six Book Concerning Republic में संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। उन्होंने फ्रांसीसी राजा की ताकत को और को मजबूत करने के लिए संप्रभुता की नई अवधारणा का प्रयोग किया था। किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता संप्रभुता कहलाती है।