सुलह-ए-कुल की नीति क्या थी?

Solution : अकबर की .सुलह-ए-कुल. की नीति-अकबर की.सुलह-ए-कुल. की नीति धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी। यह नीति विभिन्न धर्मों के अनुयाययिों में अन्तर नहीं करती। थी अपितु इसका केन्द्र बिन्दु था—नीतिशास्त्र की एक व्यवस्था, जो सर्वत्र लागू की जा सकती थी और जिसमें केवल सच्चाई, न्याय और शांति पर बल था।

प्रश्न:- अकबर की "सुलह-ए-कुल" की नीति का विस्तार से वर्णन कीजिए।

परिचय:- अकबर ने यह महसूस किया कि सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है। अतः उसने सर्वधर्म समन्वय अर्थात सब धर्मों की अच्छी बातें लेने का मार्ग अपनाया। इसी को उसने 'सुलह-ए-कुल' कहा। इस तरह सब धर्मों की अच्छी बातों को लेकर उसने दीन-ए-इलाही चलाया। अकबर की धार्मिक नीति के मुख्य रूप से दो पक्ष थे- उसकी राज्य नीतियां व उसके अपने व्यक्तिगत विचारों के कारण। उसने उदार नीति अपनाकर हिंदुओं के प्रति सामान्य व्यवहार किया तथा रूढ़िवादिता को समाप्त किया। अकबर की नीतियों ने धार्मिक विरोधी समाज में सामंजस्य और सद्भावना का वातावरण उत्पन्न किया। हाल के इतिहासकारों ने उन आधारों पर ध्यान केंद्रित किया है जिसके कारण अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। इतिहासकार "इक्तेदार आलम खान" के अनुसार अकबर ने शिया और राजपूतों को भी अपनी नीति में शामिल किया। अकबर ने इसे अपने शासनकाल के अंतिम वर्षों में अपनाया था। माना जाता है कि अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति जनमानस पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाई और उन्हें पूर्ण रूप से प्रभावित नहीं कर सकी।

बदायूंनी के समकालीन प्रमाणों के आधार पर पता चलता है कि 1581 के बाद अकबर मुसलमान ही नहीं रहा। अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति को जानने के लिए हमें उसके शासनकाल से उसके व्यक्तिगत विचारों का अध्ययन करने की जरूरत है।

 अकबर ने अपने शासनकाल के शुरुआती समय में 1563 में तीर्थ-यात्रा कर को समाप्त किया। उसने विद्रोही ग्रामीणों की पत्नियों और बच्चों को दासता से मुक्त कर दिया। अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किया और उन पर इस्लाम कबूल करने का कोई दबाव नहीं डाला। विवाह के उपरांत भी उसने अपने हिंदू पत्नियों को उनके अपने हिंदू धर्म का पालन करने की अनुमति दी। बदायूंनी के अनुसार अकबर अपनी हिंदू पत्नियों के साथ अग्नि पूजा भी करता था। 1564 में अकबर ने जजिया कर भी समाप्त कर दिया। जिसे गैर-मुसलमानों पर लगाया गया था। 1571 से अकबर पर अलगाववादी सूफियों का प्रभाव बढ़ता गया और उसने 1573 में शेख मोहम्मद बिन चिश्ती को अपने आध्यात्मिक गुरु के रूप में सम्मानित किया। 1575 में अकबर ने आगरा के फतेहपुर सीकरी में "इबादतखाना" का निर्माण करवाया। इसे सूफी संत शेख अब्दुल्ला नियाजी के कमरे के चारों और बनाया गया जो गुजरात चले गए थे।

धार्मिक बहस के लिए इबादतखाने का निर्माण करवाया गया था। इसमें अकबर भी अपनी इच्छानुसार शामिल होते थे। इसमें हिंदुओं, ईसाइयों और यहूदियों के साथ-साथ मुसलमानों ने भी सार्वजनिक तर्क-वितर्क में भाग लिया, ताकि वे भी अपनी बौद्धिक जिज्ञासा पूरी कर सके और दूसरों पर अपना विश्वास स्थापित कर सकें। शुरुआत में इबादत खाने में वाद-विवाद के लिए सूफी शेख, उलेमा जैसे विद्वान व्यक्तियों तथा सम्राटों के प्रिय साथी और सेवकों के लिए ही स्वीकृत किए गए। किंतु 1558 में एक रहस्यवादी अनुभव के बाद अकबर ने हिंदू, जैनों, इसाईयों और पारसी के वाद विवाद के लिए इबादतखाने का द्वार खोल दिया। "आर.पी.त्रिपाठी" के अनुसार इबादतखाने में होने वाले धार्मिक बहस का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, क्योंकि इसमें हुई बहस से और अधिक भ्रम पैदा हो गया।

इबादतखाने में धार्मिक बहस के दो परिणाम हुए- इसने अकबर को विश्वास दिलाया कि सभी धर्मों में एक ही सच्चाई है और उनमें एक ही सर्वोच्च शक्ति है। अकबर के अपने धार्मिक विचारों के विकास में यह एक महत्वपूर्ण दौर था, जिसके चलते अकबर की धार्मिक विचारधारा का विकास हुआ और उसने सभी धर्मों के मध्य शांति स्थापित की। किंतु इसका दूसरा परिणाम यह हुआ कि इस बहस ने अकबर और उलेमा के बीच मतभेदों को जन्म दिया।

शेख मुबारक की सलाह से अकबर ने 1579 में "मुजाहिद" की उपाधि धारण की जिसके कारण वह सब धार्मिक मतभेदों में निर्णायक बन गया। शेख मुबारक ने अपने हाथ से एक घोषणा पत्र लिखा जिसके द्वारा अकबर नागरिक और धार्मिक मामलों का सर्वोच्च निर्णायक घोषित किया गया। अकबर "इमाम-ए-कामिल" अर्थात 'इस्लामिक कानून का अंतिम न्यायकरता' बन गया। यदि भविष्य में कोई धार्मिक प्रश्न उठता है तो उसकी राय और निर्णय मानव जाति के कल्याण के लिए अंतिम माने जाने लगी।"डॉ. स्मिथ" ने इस घोषणा को "सर्वज्ञता की घोषणा" कहा है।

 ऐसा प्रतीत होता है कि यह सुलह-ए-कुल के सिद्धांतों की पहली प्रभावशाली घोषणा थी। न्यायाधीश की भावना पर बल देने के अलावा अकबर ने उलेमाओं को भी इस दस्तावेज के माध्यम से यह बताया कि राज्य व्यवस्था लोगों के कल्याण के लिए है। पहले भारत में विद्वानों, देशभक्तों तथा आध्यात्मिक कार्य में लगे व्यक्तियों तथा सम्मानित व्यक्तियों को भूमि अनुदान दिया जाता था। जिसे मदद-ए-माश कहा जाता था। "बदायूंनी" के अनुसार पहले ऐसे अनुदान मुसलमानों को दिए गए थे, लेकिन 1575 के बाद हिंदुओं को भी यह अनुदान दिया गया। 1580 के बाद गैर मुस्लिम अनुदान की संख्या बढ़ गई तथा जैनों, पारसीयों और जेसुइट को चर्च निर्माण के लिए यह अनुदान दिये गए।

अकबर ने गरीब हिंदुओं और मुस्लिमों को खिलाने के लिए फतेहपुर सीकरी के बाहर दो स्थान बनाएं। हिंदुओं के लिए "धर्मपुर" और मुसलमानों के लिए "खैरपुर"। इस प्रकार रूढ़िवादी उलेमा के अधिपत्य के अंत से राज्य ने सभी वर्गों के संरक्षण के न्यायसंगत वितरण के द्वार खोल दिये।

1581 के बाद अकबर ने सुलह-ए-कुल की नीति को पूर्ण रूप से आत्मसात कर लिया। समकालीन निर्गुण भक्ति संप्रदाय की शिक्षाओं के काफी निकट होने के कारण वह हिंदुत्व और इस्लाम दोनों की ही आलोचना करता था। अकबर की धार्मिक मान्यताओं का आधार एकेश्वरवाद में विश्वास था। अनेक सूफियों के भांती अकबर ने माना कि ईश्वर से संपर्क साधना के माध्यम से ही संभव है। अकबर किसी एक धर्म को मानने के लिए तैयार नहीं था। वह सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाता था। इस प्रकार उसने गौ-वध, दशहरा आदि का निषेध किया। उसका दृढ़ विश्वास, जैसा कि आईने अकबरी में अबुल फजल ने कहा है, "सभी मनुष्यों के साथ समझदारी से काम लेना मेरा कर्तव्य है और अगर यह लोग खुदा की राह पर चल पड़े हो तो उनमें हरगिज कोइ दगाबाज नहीं होगा और यदि ऐसा न हो तो यह लोग अज्ञानता की बीमारी में है और मेरी करुणा के पात्र हैं"। अकबर हिंदू नारियों की दुर्दशा से चिंतित था विशेषकर जब वे अपने पति के मरने के बाद वे स्वयं को सती कर लेती थी।

तो वहीं दूसरी और वह मुस्लिम कानून की आलोचना करता था। अकबर मानता था कि लड़कियों को संपत्ति में से छोटा हिस्सा नहीं मिलना चाहिए बल्कि कमजोर लोगों को सबसे अधिक हिस्सा मिलना चाहिए।

 समकालीन रूढ़ीवादी मुल्लोओं ने अकबर की निंदा की है। इस प्रकार बदायूनी ने भी अकबर पर पैगंबर और संतों के चमत्कारों और यहां तक की शरिया के खंडन का आरोप लगाया, जिससे कि कालांतर में इस्लाम का कोई चिन्ह नहीं रह गया। आधुनिक इतिहासकार के अनुसार अकबर ने इस्लाम पर किसी प्रकार का आरोप नहीं लगाया। आई.एच. कुरैशी के अनुसार अकबर ने अपने अनुयायियों से इस्लाम को त्यागने के लिए नहीं कहा जैसा कि कुछ इतिहासकारों ने उन पर आरोप लगाया, लेकिन उन्होंने इसके एक कट्टरपंथी स्वरूप को मानने को कहा। बदायूनी के अनुसार अकबर ने एक नया धर्म स्थापित किया। जिसे दीन-ए-इलाही कहा जाता था। अकबर अपने आपको प्रमुख बनाना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि वह परमात्मा की तरह दिखें या किसी महान नबी की तरह सम्मानित रहे। लोगों को विश्वास था की वह चमत्कार कर सकते हैं और अपने पैरों को धोए गए पानी से बीमारों की चिकित्सा कर सकते है।

आधुनिक शोध से पता चलता है कि अकबर एक नया धर्म स्थापित करना चाहता था। दीन-ए-इलाही किसी पारंपरिक व्यवस्था पर आधारित नहीं थी, न इसमें कोई धर्म विधि थी न ही कोई पुस्तक। 

दीन-ए-इलाही प्रचलित करने का अभिप्राय एक राष्ट्रीय धर्म की स्थापना करना था जो हिंदू और मुसलमान दोनों को ही मान्य हो। "अबुल फजल" के अनुसार अकबर सारे राष्ट्र के धर्म का पथ प्रदर्शक बन गया। उसने लोगों की सत्य जानने की मंशा को शांत करने का प्रयत्न किया। अबुल फजल ने दीन-ए-इलाही के कुछ संस्कार भी लिखे हैं। अकबर का मानना था कि मृत्यु के पश्चात मृत्युभोज देने के विपरीत प्रत्येक सदस्य अपने जीवनकाल में ही भोज देकर अपनी अंतिम यात्रा के लिए सामग्री एकत्रित करें। लोग मांस भोजन से बचने का प्रयत्न करें। इसके अनुयायियों की चार श्रेणियां थी। यह चार श्रेणियां सम्राट के प्रति संपत्ति, जीवन, स्वाभिमान और धर्म समर्पण करने पर आधारित था। जो उपर्युक्त चारों वस्तुएं बलिदान करता वह प्रथम श्रेणी और जो एक वस्तु बलिदान करता व चौथी श्रेणी में गिना जाता था। अकबर ने इस नए मत को अपनाने के लिए दबाव या शक्ति का प्रयोग नहीं किया। राजा भगवानदास और मानसिंह ने इस मत को अपनाने से मना कर दिया किंतु अकबर ने उन पर जोर नहीं डाला।

इतिहासकार "अतहर अली" इस कथन पर संदेह जताते हैं कि अकबर ने कट्टर इस्लाम के माननेवालो के प्रति दमनकारी रवैया अपनाया था। अली का मानना है कि 1592 में मानसिंह ने एक शानदार मस्जिद का निर्माण करवाया था। 

यह कहा जा सकता है कि अकबर की धार्मिक नीति हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता की थी। फिर भी स्वयं को जगत गुरु के रूप में स्थापित करने के अकबर के दृष्टिकोण से अकबर की धार्मिक व्याख्या उसके राजनीतिक उद्देश्यों के अनुरूप थी। उसके कार्य जैसे कि सूर्योदय से पहले हर दिन अपने लोगों को "झरोखा दर्शन" देना और "अल्लाह हू अकबर" की घोषणा करके अपने कार्यों को वैधता प्रदान करने का एक नया तरीका माना जाता है। वह अपने आपको भगवान के बराबर दर्जा नहीं दिलाना चाहता था लेकिन कई बार वह अपने आप को "जिल्ले-इलाही" या "ईश्वर की छाया" कहते थे। अकबर की धार्मिक नीति लागू करने के उद्देश्य के पीछे राजनीतिक कारण थे। किंतु उसकी नीतियों के कई महत्व थे। इसके द्वारा अकबर का साम्राज्य मजबूत हुआ हिंदू और मुस्लिम के बीच सांस्कृतिक एकता का विकास हुआ। उसने सती प्रथा का विरोध किया तथा विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन किया।

निष्कर्ष:- अकबर की धार्मिक नीति का मुख्य उद्देश्य सार्वभौमिक सहिष्णुता थी। अर्थात वह सभी के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार का सिद्धांत अपनाना चाहता था। अकबर के प्रारंभिक धार्मिक विचारों पर उसके शिक्षक अब्दुल लतीफ तथा सूफी विचारधारा का काफी प्रभाव पड़ा था। अकबर ने समस्त धार्मिक मामलों को अपने हाथों में लेने के लिए मजहरनामा या एक घोषणापत्र जारी करवाया। जिसने उसे धर्म के मामलों में सर्वोच्च बना दिया। अकबर ने उलेमाओं के विरोध को कम करने तथा राजत्व की गरिमा को बचाने के लिए भी इस घोषणापत्र को जारी किया। 

अकबर की सुलह ए कुल की नीति क्या थी?

सुलह--कुल अकबर ने यह महसूस किया कि सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है। अतः उसने सर्वधर्म समन्वय अर्थात सब धर्मों की अच्छी बातें लेने का मार्ग पकड़ा। इसी को उसने 'सुलह कुल' कहा।

सुलह इ कुल की नीति किसकी थी?

सुलह-ए-कुल की नीति मुगल सम्राट अकबर द्वारा तैयार की गई थी। 1570 के दशक के दौरान उन्होंने उलामा, ब्राह्मणों, रोमन पुजारियों के साथ धर्म पर चर्चा शुरू की जो रोमन कैथोलिक और ज़ोरोस्ट्रियन थे। इसने अकबर को सुलह-ए-कुल या "सार्वभौमिक शांति" के विचार के लिए प्रेरित किया।

7 सुलह ए कुल की नीति क्या थी क्या यह मुगल काल की जरूरत थी इस पर अपने विचार व्यक्त कीजिए?

1570 के दशक में अकबर के शासन काल में विभिन्न धर्मों के गुरुओं के साथ चर्चा करके अकबर ने सुलह--कुल की सार्वभौमिक धार्मिक शांति नीति अपनाई। इस नीति के तहत सभी धर्मों में भेदभाव ना करते हुए सहिष्णुता का विचार बनाया गया। यह विचार नैतिकता की प्रणाली पर केंद्रित था। इसमें ईमानदारी, न्याय और शांति जैसे व्यवस्था लागू थी

सुलह ए कुल से क्या तात्पर्य है?

सुलह--कुल का अर्थ सर्वधर्म मैत्री होता है. ... वहीं, यही सूफियों का पहला सिद्धांत भी रहा है. एक बार सूफी शायर रूमी के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा कि एक मुसलमान एक ईसाई से सहमत नहीं होता और ईसाई यहूदी से.