संचारी भाव को व्यभिचारी भाव क्यों कहा जाता है? - sanchaaree bhaav ko vyabhichaaree bhaav kyon kaha jaata hai?

संचारी भाव को व्यभिचारी भाव क्यों कहा जाता है? - sanchaaree bhaav ko vyabhichaaree bhaav kyon kaha jaata hai?

स्थायी भाव प्रधान मानसिक क्रियाएँ है ! इनके साथ ही कुछ ऐसे भाव है जो बहुत थोड़े समय तक रहते है, ये स्थायी भावों के सहायक मात्र होते है ! ये सभी रसों में यथासंभव संचार करते रहते है, इसलिए इन्हे संचारी भाव कहते है ! इन  भावों को व्यभिचारी भी कहा गया है क्योंकि वे किसी एक ही रस में स्थायी रूप से नहीं टिकते ! वे कभी किसी के साथ दिखाई देते है तो कभी किसी के साथ ! इस व्यभिचारी वृत्ति के कारण ही इन्हे व्यभिचारी कि संज्ञा दी गयी है !
संचारी भाव के विषय में एक बात का ध्यान रखना आवश्यक है , कोई भाव संचारी अथवा व्यभिचारी उसी समय कहा जा सकता है ज़ब वह स्थायी भाव के कारण उतपन्न हो तथा उसके ही साथ रहे !परन्तु यदि वह किसी प्रधान भाव के आधीन रह कर स्वतंत्र रूप से उतपन्न होता है तो उसे संचारी भाव नहीं कहा जा सकता
उदाहरण के लिए सपत्नी के लिए नायक का प्रेम देखकर नायिका के मन में जो ईर्ष्या का भाव होगा वह संचारी भाव है क्योंकि वह नायक के प्रति उसके प्रेम भाव में बाधक होने के कारण उत्पन्न हुआ है ! परन्तु किसी महान व्यक्ति कि उन्नति देखकर हुई ईर्ष्या संचारी भाव नहीं है क्योंकि वह किसी स्थायी भाव कि साधक अथवा बाधक नहीं है
संचारी भाव तैंतीस कहे गए है
1--निर्वेद (उदासीनता ) -- साधारणत : सांसारिक पदार्थो कि
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 असारता जानकर उनके प्रति जो उदासीनता उत्पन्न हो जाती है, उसे निर्वेद कहते हैं ! यह भावना संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करती है ! परन्तु इस अर्थ  में 'निर्वेद' शांत रस का स्थायी भाव है ,
और किसी प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति के वियोग, दारिद्रय ,अपमान, व्याधि  आदि के कारण अपने आप को कोसने अथवा धिक्कारने अथवा कोसने को भी निर्वेद कहा गया है ! इस अर्थ में यह संचारी भाव होता है ! इस संचारी भाव में दीनता, चिंता, अश्रुपात आदि अनुभाव होते है
2-- शंका
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किसी प्रकार के अनिष्ट अथवा इष्ट हानि कि सम्भावना को शंका कहते है ! इसमें स्वर भंग , मुख का रंग बदलना, कंप आदि अनुभाव होते है !
3-- गर्व
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रूप  विद्या, धन, शक्ति आदि के अभिमान को गर्व कहा जाता है !अविनय, अनादर ,उपेक्षा आदि इसके अनुभाव है
4-- चिंता
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अनिष्ट कि आशंका अथवा इष्ट वस्तु कि प्राप्ति में विघ्न पड़ने से चिंता होती है मलिन मुख, सूनापन, दुःख आदि इसके अनुभाव है
5--मोह
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दुःख, चिंता, भय  वियोग आदि के कारण चित्त के विक्षिप्त हो जाने को मोह कि संज्ञा दी है ! चेतनाहीन होना, ज्ञान का नष्ट हो जाना,  भ्रम उत्पन्न होना इसके अनुभाव है !
6--विषाद
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असफलता, इच्छित वस्तु कि हानि ,उत्साह का भंग होना, अनुताप होना विषाद होना कहलाता है ! पश्चाताप ,व्यग्रता,दीर्घ उच्छ्वास आदि इसके अनुभाव है !
7--दैन्य
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दुःख दारिद्रय से उत्पन्न हुई मन कि अवस्था ! हीनता, मलिनता आदि अनुभाव है !
8--असूया
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दूसरे के सौभाग्य, उत्कर्ष, ऐश्वर्य आदि को देखकर जलन करना तथा उसे हानि पहुंचाने कि भावना को असूया कहते है ! निंदा, तिरस्कार  दोष कथन आदि अनुभाव होते है
9--मृत्यु
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मरण के समान कष्ट अनुभाव करना ही मृत्यु कहलाता है ! प्रायः काव्य में इस प्रकार का वर्णन नहीं होता है अतएव मरणासन्न के द्वारा ही मृत्यु कि वयंजना कर दी जाती है !
10--मद
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मोह के साथ आनंद के मिश्रण को मद कहते है ! यह अवस्था मद्य पण जैसी होती है ! नेत्रों का लाल होना  अनर्गल प्रलाप करना ,विशेष प्रकार की मुस्कान इसके अनुभाव है !
11--आलस्य
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जागरण अथवा श्रम के कारण उत्साह हीनता अथवा कार्य न करने की भावना ! एक ही स्थान पर पड़े रहना ,जम्हाई लेना अनुभाव है!
12--श्रम
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किसी कार्य को करने से होने वाली थकान ! सुस्त होना ,अंगड़ाई लेना ,दीर्घ श्वास लेना आदि अनुभाव है !
13-- उन्माद
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काम, क्रोध, भय, शोक ,आदि के कारण चित्त के भ्रमित होने का नाम ही उन्माद होता है ! अपने आप से बातें करना ,हंसना ,रोना, आदि अनुभाव है !
14 --प्रकृति - गोपन ( अवहित्थ ) लज्जा ,श्रम, गौरव आदि के कारण हर्षादि भावों को अथवा किसी बात को छिपाने का नाम अवहित्थ  है ! बात बदलना, दूसरी Yऔर देखना ,मुँह नीचा कर लेना इसके अनुभाव है !
15-- चपलता
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अनुराग,  ईर्ष्या ,द्वेष आदि के कारण उत्पन्न होने वाली चित्त की अस्थिरता को चपलता कहते है ! कठोर शब्द कहना ,मनमाना उच्छृंखल आचरण  करना इसके अनुभाव है !
16--अपस्मार
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मानसिक संताप कि अधिकता के कारण चित्त के विक्षिप्त हो जाने को अपस्मार कहते है ! पृथ्वी पर गिर जाना, हाथ पैर पटकना, आदि इसके अनुभाव है !
17-- भय
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किसी अहित कि आशंका से उत्पन्न हुई चित्त कि व्यग्रता ! आशंका, कंप आदि इसके अनुभाव है !
18--ग्लानि
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मानसिक अव्यवस्था अथवा मन की खिन्नता का नाम ग्लानि है ! मन का उचटना ,किसी काम में मन न लगना इसके अनुभाव है !
19--ब्रीड़ा
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प्रिय के दर्शन से उत्पन्न लज्जा अथवा संकोच, पराजय ,प्रतिज्ञा भंग ,अनुचित कार्य करने के कारण लज्जित होने को ब्रीड़ा कहते है ! सिर नीचा करना ,आँखों को छिपाना ,संकोच आदि इसके अनुभाव है !
20--जड़ता
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विवेकशून्यता अथवा किंकर्तव्यविमूढ़ता !मौन हो जाना, टकटकी लगा कर देखते रहना इसके अनुभाव है !
21--हर्ष
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इच्छित वस्तु कि प्राप्ति से कारण उत्पन्न होने वाला आनंद !प्रसन्नता, गदगद हो जाना, पुलकावलि आदि अनुभाव है
22--धृति
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ज्ञान, साहस ,सत्संग आदि के प्रभाव से भय, चिंता आदि मनोविकारों को शांत करने वाली बुद्धि धृति होती है ! चित्त कि दृढ़ता, संतोष ,धैर्य आदि इसके अनुभाव है !
23--मति
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शास्त्र आदि से प्राप्त ज्ञान के आधार पर किसी बात का निश्चय कर लेना ही मति है ! संतोष ,धैर्य ,आनंद इसके अनुभाव है
24--आवेग
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किसी आकस्मिक भय आदि के कारण उत्पन्न होने वाली चित्त कि घबराहट को आवेग कहा जाता है ! विस्मय ,स्तंभ, कंप, हर्ष ,शोक आदि इसके अनुभाव है !
25-- उत्कंठा (उत्सुकता )
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इच्छित वस्तु कि प्राप्ति में विलम्ब न सह सकना ! आतुरता, व्याकुलता ,निःश्वास आदि इसके अनुभाव है !
26--निद्रा
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शारीरिक श्रम, थकावट , मद्यपान से उत्पन्न चित्त के बाह्य बिषयों  से निवृति का नाम ही निद्रा है ! आंखे झपकाना , अंगड़ाई लेबा इसके अनुभाव है !
27-- स्वप्न
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सुप्तावस्था में जाग्रत अवस्था कि भाँति आचरण करने के अनुभाव का नाम ही स्वप्न है ! आवेग ,ग्लानि, सुख, दुःख ,क्रोध आदि इसके अनुभाव है !
28--बोध (विबोध )
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निद्रा के त्याग अथवा अज्ञान के नष्ट होने के उपरांत चेतना प्राप्त करने का नाम ही विबोध है ! जम्हाई, अंगड़ाई, शांति इसके अनुभाव है !
29--उग्रता
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अपमान दुर्व्यवहार आदि के कारण उतपन्न होने वाली निर्दयता का नाम ही उग्रता है ! घुड़की देना, मर - पीट करना इसके अनुभाव है!
30--व्याधि
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रोग, वियोग आदि के कारण उत्पन्न होने वाले  मनस्ताप का नाम ही व्याधि है ! व्याकुलता ,कंप, मूर्छा इसके अनुभाव है !
31-- अमर्ष
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किसी अनुचित व्यव्हार आदि से उत्पन्न हुई असहनीयता अथवा असहिषुणता को ही अमर्ष कहते है ! नेत्रों का लाल होना, भोहों का कुटिल होना, प्रतिकार के उपाय आदि इसके अनुभाव है !
32--वितर्क
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संदेह अथवा अनिश्चय के कारण मन में अनेक प्रकार के विचारों का उठना ही वितर्क है !
33--स्मृति
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पूर्व - अनुभूति, वस्तुओ, व्यक्तिओं के स्मरण को स्मृति कहते है  ! भोहों को चढ़ाना, चंचलता आदि इसके अनुभाव है !

व्याभिचारी भाव को संचारी भाव क्यों कहते हैं?

व्यभिचारी भाव को संचारी भाव इसलिए कहते हैं क्योंकि ये भाव एक जगह स्थिर नही रहते तथा पानी के बुलबुले के समान चंचल होते हैं और यहाँ-वहाँ संचार करते रहते हैं

व्यभिचारी भाव का अर्थ क्या है?

व्यभिचारी भाव- 'विं' और 'अभि' उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक 'चर्' धातु से निष्पन्न व्यभिचारी का अर्थ है, जो विभिन्न प्रकार के रसों की ओर उन्मुख होकर संचरणशील रहता है । व्यभिचारी भाव वाचिक, आंगिक एवं सात्त्विक अभिनयों से रस की प्रतीति कराते हैं ।

व्यभिचारी भाव कितने होते हैं?

संचारी भाव या व्यभिचारी भाव, जो पल-पल पर बदलते हैं, आते-जाते रहते हैं। शास्त्रकारों ने इनकी संख्या तेतीस बताई है।

संचारी भाव कैसे होते?

संचारी भाव कहलाता है:.
वह भाव जो केवल थोड़ी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं |.
जो भाव सदैव के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं |.