रीति काव्य की भूमिका के रचनाकार कौन है - reeti kaavy kee bhoomika ke rachanaakaar kaun hai

रीति काव्य की भूमिका के लेखक/रचयिता

रीति काव्य की भूमिका (Reeti Kavya Kee Bhoomika) के लेखक/रचयिता (Lekhak/Rachayitha) "डॉ नगेन्द्र" (Dr. Nagendra) हैं।

Reeti Kavya Kee Bhoomika (Lekhak/Rachayitha)

नीचे दी गई तालिका में रीति काव्य की भूमिका के लेखक/रचयिता को लेखक तथा रचना के रूप में अलग-अलग लिखा गया है। रीति काव्य की भूमिका के लेखक/रचयिता की सूची निम्न है:-

रचना/रचनालेखक/रचयिता
रीति काव्य की भूमिका डॉ नगेन्द्र
Reeti Kavya Kee Bhoomika Dr. Nagendra

रीति काव्य की भूमिका किस विधा की रचना है?

रीति काव्य की भूमिका (Reeti Kavya Kee Bhoomika) की विधा का प्रकार "रचना" (Rachna) है।

आशा है कि आप "रीति काव्य की भूमिका नामक रचना के लेखक/रचयिता कौन?" के उत्तर से संतुष्ट हैं। यदि आपको रीति काव्य की भूमिका के लेखक/रचयिता के बारे में में कोई गलती मिली हो त उसे कमेन्ट के माध्यम से हमें अवगत अवश्य कराएं।

सन् 1700 ई.(1757 विक्रमी संवत) के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं।

इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए।

कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई।

रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। केशवदास (ओरछा), प्रताप सिंह (चरखारी), बिहारी (जयपुर, आमेर), मतिराम (बूँदी), भूषण (पन्ना), चिंतामणि (नागपुर), देव (पिहानी), भिखारीदास (प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ (काशी), बेनी (किशनगढ़), गंग (दिल्ली), टीकाराम (बड़ौदा), ग्वाल (पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई (पटियाला), हरनाम (कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज (पन्ना), सुरति मिश्र (दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ (अमेठी), ऋषिनाथ (काशी), रतन कवि (श्रीनगर-गढ़वाल), बेनी बन्दीजन (अवध), बेनी प्रवीन (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), बोधा (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)।

रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।

रीति काव्य की भूमिका के रचनाकार कौन है - reeti kaavy kee bhoomika ke rachanaakaar kaun hai

लेखक :

Book Language

हिंदी | Hindi

पुस्तक का साइज़ :

15 MB

कुल पृष्ठ :

196

श्रेणी :

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ ‡ रीति-काव्य को एतिहासिक पृष्ठभूमि राजनीतिक रिथति आज पं° रामचन्द्र शुक्ल द्वारा किया हुआ हिन्दी-सादहित्य का काल-विभाजन प्रायः स्वैमान्य-सा ही हो गया हं--ओौर वास्तव मं सवेया निर्दोष न होते हए भी, वहु बहूत- कुछ संगत तथा विवेकपूर्ण ह । उसके अनुसार रीति-काल के अन्तर्गत सं० १७०० से सं० १९०० तक पूरी दो शताब्दियाँ आ जाती हैं । सम्वत्‌ १७०० से १९०० तक भारत का राजनीतिक इतिहास चरम उत्कर्ष को प्राप्त मुगरु साम्राज्य की अवतति के आरम्भ ओर फिर क्रमशः उसक पूणं विनाश का इतिहास है । सम्वत्‌ १७०० में भारत के सिंहासन पर सम्राट्‌ शाहजहाँं आसीन था। मगल वैभव अपने चरम उत्कषं पर पहुँच चुका था--जहाँगीर ने जो साम्राज्य छोड़ा था, चाहजहाँ ने उसकी और भी श्री-वृद्धि और विकास कर लिया था । दक्षिण में अहमद- नगर, गोलकुण्डा और बीजापुर-राज्यों ने मुगलो का आधिपत्य स्वीकार कर ल्या था, और उत्तर-पदिचम में सं० १६९५ में कन्घार का किला मुगलों के हाथ में आ गया था । अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार उसका साम्राज्य सिन्ध के लहिरी बन्दरगाह से लेकर आसाम में सिलहट तक और अफगान-प्रदेश के बिस्त के किले से लेकर दक्षिण में औसा तक फैला हुआ था । उसमें २२ सूबे थे, जिनकी आमदनी ८८० करोड़ दाम अथवा २२ करोड़ रुपया थी । देश में अखण्ड शान्ति थी; खजाना माला-माल था। हिन्दुस्तान की कला अपने चरम वैभव पर थी । मयूर-सिहासन और ताजमहल का निर्माण हो चुका था । परन्तु उत्कर्ष के चरम बिन्दु पर पहुँचने के उपरान्त यहीं से अपकर्षे का भी आरम्भ हो गया था । अप्रतिहत मुगल-वाहिती पर्चिमोत्तर प्रान्तो मं लगातार तीन बार पराजित हुई--मध्य एशिया के आक्रमण बुरी तरह विफल हुए । इन विफलताओं से न केवल धन-जन की हानि हुई, वरन्‌ मुगल-साम्राज्य की प्रतिष्ठा को भी भारी धक्का लगा । उधर दक्षिण में भी उपद्रव आरम्भ हो गए थे । बाहर से यद्यपि हिन्दुस्तान सम्पन्न और शक्तिशाली दिखाई देता था, परन्तु उसके अन्तस्‌ में अज्ञात रूप से क्षय के बीज जड़ पकड़ रहे थे । जहाँगीर की मस्ती और शाहजहाँ के अपव्यय दोनों का परिणाम अह्वितिकर

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रीतिकाल के प्रवर्तक आचार्य कौन हैं?

RitiKal | रीतिकाल के प्रवर्तक : डॉ. नगेंद्र ने रीतिकाल का प्रवर्तक केशवदास को माना है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल का अखंडित प्रवर्तक चिंतामणि त्रिपाठी को माना है।

रीतिकाल के प्रथम कवि कौन है?

केशव को रीतिकाल का पहला कवि तथा चिन्तामणि को रीतिकाल का प्रवर्तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने माना है। केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है। उन्हें सर्वाधिक सफलता संवाद निरूपण में मिली है।

रीतिकालीन कवि कौन कौन से हैं?

रीतिकाल के प्रमुख कवि चिंतामणि, मतिराम, राजा जसवंत सिंह, भिखारी दास, याकूब खाँ, रसिक सुमति, दूलह, देव, कुलपति मिश्र, सुखदेव मिश्र, रसलीन, दलपति राय, माखन, बिहारी, रसनिधि, घनानन्द, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव, लाल कवि, पद्माकर भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज, भूषण, वृन्द, राम सहाय दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर कविराय, गुरु गोविंद ...

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति कौन सी है?

रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्ति रीति निरूपण या लक्षण-ग्रंथों का निर्माण है। इन कवियों ने संस्कृत के आचार्यों का अनुकरण पर लक्षण-ग्रंथों अथवा रीति ग्रंथों का निर्माण किया है। फिर भी इन्हें रीति निरूपण में विशेष सफलता नहीं मिली है। इनके ग्रंथ एक तरह से संस्कृत-ग्रंथों में दिए गए नियमों और तत्वों का हिंदी पद्य में अनुवाद हैं।