रसवन्ती Show
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है। सूखे विटप की सारिके !(1) उजड़ी-कटीली डार से मुझ में जलन है प्यास है, (2) 1. रसवन्तीअरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात कोकिलों ने सिखलाया
कभी पत्तियों फूलों की सुकुमार तॄणों में कभी खोजता फिरा श्रवण कर चलदल-सा उर फटा शाप का अधिकारी यह विश्व तप्त मरु के सिंचन के हेतु बिन्दु या सिन्धु चाहिए उसे साधना की ज्वाला जब बढ़ी प्रिये रसवन्ती ! जग है कठिन द्वार कारा का बीचोबीच प्रणय उससे कैसा, यह जो कि दुखों की सुख में स्मृतियाँ मधुर याद है वह पहला मधुमास एक क्षण कोलाहल के बीच खोल दृग देखा प्राची ओर उठा मायाविनि ! अन्तर बीच लगी पृथ्वी आँखों को देवि ! ग्रहण कर उस दिन ही सुकुमारि गिरे थे जहाँ धर्म के बीज पन्थ में दूर्वा से सज तुम्हें विमूर्च्छित हुई तपोवन बीच धरा
का जिस दिन सौरभ-कोष प्रेम-बिरवा आंगन में रोप अचानक हम दोनों के बीच प्रकम्पित कर सारा ब्रह्माण्ड बन्धनों
से होकर भयभीत पुष्प का सौरभ से सम्बन्ध आपदाएँ सौ बन्धन डाल उठेगा व्याकुल दुर्दमनीय फोड़ दूंगा माया के दुर्ग मिटा दूंगा ब्रह्मा का लेख तरंगित सुषमाओं पर खेल सजेगा जिस दिन उत्सव-हेतु निखिल जन्मों में जिस पर देवि ! काल-नौका पर हो आरूढ़ चकित होंगे सुनकर गन्धर्व 'स्वर्ग से भी सुन्दर यह कौन ?' 2. भ्रमरीपी मेरी भ्रमरी, वसन्त में चूस-चूस मकरन्द हृदय का लते? कहूँ क्या, सूखी डालों किसे कहूँ? धर धीर सुनेगा मुझे रखा अज्ञेय अभी तक 3. दाह की कोयलदाह के आकाश में पर खोल, दर्द में भीगी हुई-सी तान, दूर छूटी छाँहवाली डाल, बालुओं का दाह मेरे ईश! याद है, तुम तो सुधा की धार, चिलचिलाती धूप का यह देश, 4. गीत-अगीतगीत, अगीत, कौन सुंदर है? गाकर गीत विरह की तटिनी तट पर एक गुलाब सोचता, गा-गाकर बह रही निर्झरी, बैठा शुक उस घनी डाल पर गाता शुक जब किरण वसंती गूँज रहा शुक का स्वर वन में, दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब चोरी-चोरी खड़ी नीम की वह गाता, पर किसी वेग से 5. बालिका से वधूमाथे में सेंदूर पर छोटी लदी हुई कलियों में मादक पीली चीर, कोर में जिसके पी चुपके आनंद, उदासी आँखों में दे आँख हेरती पर, समेट लेती शरमाकर भींग रहा मीठी
उमंग से तू वह, जो झुरमुट पर आयी तू वह, रचकर जिसे प्रकृति मां की ढीठ दुलार! पिता की कहो, कौन होगी इस घर की वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे किसके बाल ओज भर देंगे महँ-महँ कर मंजरी गले से बनी फिरेगी कौन बोलती हँसकर हृदय पहन लेता जब घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन पलती है दिल का रस पीकर पड़ जाता चस्का जब मोहक मंगलमय हो पंथ सुहागिन, जगे हृदय को शीतल करने- छाया करती रहे सदा पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी 6. प्रीतिप्रीति न अरुण साँझ के घन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि! प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि! दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि! मन की बात न श्रुति से कह सखि! कितना प्यार? जान मत
यह सखि! तृणवत धधक-धधक मत जल सखि! अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि! 7. नारीखिली भू पर जब से तुम नारि, तिमिर में ज्योति-कली को देख हो उठी प्रतिभा सजग, प्रदीप्त, लगे रचने निज उर को तोड़ ज्ञानियों ने देखा सब ओर अगम ‘आनन्द’-जलधि में डूब कुशल विधि के मन की नवनीत, दृष्टि तुमने फेरी जिस ओर हो गया मदिर दृगों को देख एक चितवन के शर ने देवि! कर्मियों ने देखा जब तुम्हें; हृदय निज फरहादों ने चीर एक इंगित पर दौड़े शूर विकल उर को मुरली में फूँक कढ़ी यमुना से कर तुम स्नान, तुम्हारे अधरों का रस प्राण! पिया शैशव ने रस-पीयूष पुरुष पँखुरी को रहा निहार न छू सकते जिसको हम देवि! तैरती स्वप्नों में दिन-रात 8. अगुरु-धूमकल मुझे पूज कर चढ़ा गया श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु पुरनारि! तुम्हारे ग्राम बीच सिहरा जानें क्यों मुझे देख, नभ-सदृश चतुर्दिक तुम्हें घेर अपनी छवि में मैं आप लीन फिर कभी खोजने आऊँगा, पद "अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?" मैंने देखा वह धूम-जाल, तुम तो पथ के चिर पथिक देव! फिरना न कभी मधुमास वही चरणों पर कल जो चढ़ा गए छिपकर तुम पूज गए उस दिन, कल छोड़ गए जो दीप द्वार पर, मैं भेद न सकती तिमिर-पुंज मैं रह न गई मानवी आज, देखे जग मुझमें आज स्त्रीत्व कल सौंप गए जो मुझे प्रेम, माँ की ममता, तरुणी का व्रत, वह रही हृदय-यमुना अधीर 9. रास की मुरलीअभी तक कर पाई न सिंगार गई सहसा किस रस से भींग रास की मुरली उठी पुकार। रास की मुरली उठी पुकार। डोलती श्लथ
कटि-पट के संग, मुरली रही पुकार अरी भोली मानिनि! इस रात आज द्रोही जीवन का पर्व, अलक्तक-पद का आज न श्रेय, हृदय का संचित रंग उँडेल पहनकर केवल मादक रूप यूथिका के ये फूल बिखेर खोल बाँहें आलिंगन-हेतु रास की मुरली उठी पुकार। कहीं हो गया द्विधा में शेष रही बज आमन्त्रण के राग रहा उड़ तज फेनिल अस्तित्व सनातन महानन्द में आज 10. अन्तर्वासिनीअधखिले पद्म पर मौन खड़ी शशिमुख पर दृष्टि लगाये कुछ स्वर्ण-चूर्ण उड़-उड़ कर जब से चितवन ने फेरा अयि सगुण कल्पने मेरी! 11. पावस-गीतदूर देश के अतिथि व्योम में भींग रहीं अलकें संध्या की, किसका मातम? कौन बिखेरे आई याद आज अलका की, चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के बुझती नहीं जलन अंतर की, धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण, किंतु, आज क्षिति
का मंगल-क्षण, 12. सावन मेंजेठ नहीं, यह जलन हृदय की, जलना तो था बदा भाग्य में नन्दन आन बसा मरु में, अपनी बात
कहूँ क्या! मेरी सुन्दरि! ज्ञात किसे, अन्तर का सौदा कितना कठिन सुहागिनि! हाँ, सच है, छाया सुरूर तो 13. पुरुष-प्रियामैं तरुण भानु-सा अरुण भूमि पर स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त नाचती चतुर्दिक घूर्णि चली, मुक्ता ले सिन्धु शरण आया दिग्विदिक
सृष्टि के पर्ण-पर्ण पर मैं स्वर्ग-देश का जयी वीर, कर दलित चरण से अद्रि-भाल, उर के मन्थन की दर्द-भरी चूमे जिसको झुक
अहंकार, सहसा आई तुम मुझ अजेय को मैं युवा सिंह से खेल रहा था लघु कनक-कुम्भ कटि पर साजे, सध्यःस्नाता, मद-भरित, सिक्त मैं चकित देखने लगा तुम्हें, तुम नई किरण-सी लगी, मुझे मैं रहा देखता निर्निमेष, तुम सहसा बोली, ‘प्रियतम’ अधीर, ‘प्रियतम’, ‘प्रियतम’, रसकूक मधुर उमड़ा व्याकुल यौवन विबन्ध, तुम अर्ध चेतना में बोली "सीखा यह निर्दय खेल कहाँ? दो वर्ण ‘प्रिया’, यह मधुर नाम नर की यह चकित पुकार ‘प्रिया’, विस्मय की चकित पुकार ‘प्रिया’, जब पुरुष-नयन में
वह्नि नहीं, विस्यम की चकित पुकार ‘प्रिया’, दो वर्ण, ‘प्रिया’, यह नाद उषा दो वर्ण ‘प्रिया’, संध्या सुनती सुन रही दिशाएँ मौन खड़ी, अकलंक प्राण का सम्बोधन व्यवधान वासना का कराल उन आँखों का व्यवधान, ज्ञात उत्सुक नर
का व्यवधान, शृंग अम्बर का देख वितान उड़ा, जिस दिवस अवारित प्रेम-सदन में क्या ले, क्या छोड़े, रत्नराशि का पा सका न मन का द्वार,
लुब्ध जीवन पर प्रसारित खिली चाँदनी तरुणी-उर को कर चूर्ण खोजने खोजते मोह का उत्स पुरुष ने सब ओर तीव्र-गति घूम रहा सुन्दर थी तुम जब पुरुष चला, जब-जब फिर आता पुरुष श्रान्त, 14. मरणलगी खेलने आग प्रकट हो बन्ध
काट बोला यों धीरे पुण्य पर्व में आज सुहागिनि! आज कहाँ की लाज बावली? देख रहा ज्यों स्वप्न बीज उठी यवनिका आज तिमिर की, पूछ रहा था जिसकी सुधि ठौर-ठौर हैं मरण-सरोवर 15. आश्वासन तृषित! धर धीर मरु में। नए पल्लव
सजीले, दुखों की चोट खाकर सुधा यह तो विपिन की, करें क्या बात उसकी सदा आनन्द लूटें, 16. प्रभातीरे प्रवासी, जाग , तेरे भेदमय संदेश सुन पुलकित व्योम-सर में हो उठा विकसित सिन्धु-तट का आर्य भावुक 17. कविऊषा भी युग से खड़ी लिए खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती दन्तुरित केतकी की छवि पर अलि की जड़ सुप्त शिराओं को थी व्यथा किसे प्रिय? कौन मोल उर के क्षत का शीतल प्रलेप मृगदृगी वन्य-कन्या कर पाई शैथिल्य देख कलियाँ रोईं, यों विधि-विधान को दुखी देख आह टकराई सुर-तरु में, कवि! पारिजात के छिन्न कुसुम जिस दिन तमसा-तट पर तुमने फूलों को वाणी मिली, चेतना प्राणों में कम्पन हुआ, विश्व की निर्झर मुख पर चढ़ गया रंग अंकुरित हुआ नव प्रेम, कंटकित कवि! तुम अनंग बनकर आए सीखी जगती ने जलन, प्रेम पर उच्छ्वासों से गल मोम हुई तुमने जो सुर में भरा
मेघों पर चढ़ कर प्रिया पास कवि! स्वर्ग-दूत या चरम स्वप्न विधि ने भूतल पर स्वर्ग-लोक सब कुछ देकर भी चिर-नवीन,
जीवन का रस-पीयूष नित्य कितना जीवन रस पिला-पिला सूने में रो-रो बहा चुके दाएँ कर से जल को उछाल किरणे लहरों से खेल रहीं, "आँखों से पूछो, स्यात, आँसुओं "पाली मैंने जो आग, लगा आँखें जो कुछ हैं दे रही "मुझको न याद, किस दिन मैंने आँसू पर देता विश्व हृदय का रोओ, रोना वरदान यहाँ खारी लहरों पर स्यात, कहीं 18. विजन मेंगिरि निर्वाक खड़ा निर्जन
में, सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर मुझ मानव को क्षितिज-वृत्त से चीर शान्ति का हृदय दूर पर सुघर, मूक, स्वप्नों के शिशु-से जड़-चेतन विश्राम रहे कर मर्त्य-अमर्त्य एक-से लगते, 19. संध्याजीर्णवय अम्बर-कपालिक शीर्ण, वेपथुमान खो गई चूकर जलद के जाल में मद-धार; कौन तम की आँख-सा कढ़कर प्रतीची-तीर व्योम के उस पार अन्तर्धान, एक अलका व्योम के उस ओर; षोड़शी, तिमिराम्बरा सुकुमार; एक
अलका व्योम के उस ओर, दीप्ति खोई, खो गया दिनमान; उडु नहीं, तम में न उज्जवल हंस, नीलिमा-पट खोलकर सायास उठ रहे पल मन्दगति निस्पन्द, पर्ण-कुंजों में न मर्मर-गान; दूर-श्रुत अस्फुट कहीं की तान, व्योम से झरने लगा तमचूर्ण-संग प्रमाद, सान्त्वना के स्पर्श से श्रम भूल, 'भूमि से आकाश तक जिसका
अनन्त प्रसार, मैं बढ़ाता बाहुओं का पाश, बन्ध से बाहर खड़ा निस्सीम का विस्तार, याद कर, जानें न, किसका प्यार, आँसुओं की दो कनी इस साँझ का वरदान, 20. अगेय की ओरगायक, गान, गेय से आगे सुनना श्रवण चाहते अब तक जोह रहे उनका पथ दृग, उछल-उछल बह रहा अगम की दृश्य, अदृश्य कौन सत इनमें? जलकर चीख उठा वह कवि था, अन्तर-वहिर एक छवि देखी, चाह यही छू लूँ स्वप्नों की गीत बनी जिनकी झाँकी, 21. संबलसोच रहा, कुछ गा न रहा मैं। निज सागर को थाह रहा हूँ, वातायन शत खोल हृदय के, ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ, देखी दृश्य-जगत की झाँकी, चरण-चरण साधन का श्रम है, एक निरीह पथिक निज मग का 22. प्रतीक्षाअयि संगिनी सुनसान की! मन में मिलन की आस
है, तुम जानती सब बात हो, मुख में हँसी, मन म्लान है, 23. रहस्यतुम समझोगे बात हमारी? उडु-पुंजों के कुंज सघन में, अस्तोदधि की अरुण लहर में, सुख-दुख में डुबकी-सी देकर, 24. शेष गानसंगिनि, जी भर गा न सका मैं। गायन एक व्याज़ इस मन का, विम्बित इन में रश्मि अरुण है, बँधे सिमट कुछ भाव प्रणय के, घूम चुकी कल्पना गगन में, गाता गीत विजय-मद-माता, परिधि-परिधि मैं घूम रहा हूँ, सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है, पट पर पट मैं खींच हटाता, पल-पल दूर देश है कोई, उडे जा रहे पंख पसारे, जिस दिन वह स्वर में आयेगा, (नोट='रसवंती' के प्रथम संस्करण में क्रमांक 25. मानवतीरूठ गई अबकी पावस के पहले मानवती मेरी तारों के श्रुति-फूल मनोहर, चलो, करो शृंगार, बुलाती तुम्हें खंजनों की टोली, दिन की नई दीप्ति; हरियाली- आज खेलने नहीं
चलोगी रानी, कासों के वन में?" "रानी, आधी रात गई है, मना रहा, ‘आनन्द-सूत्र में ग्रन्थि डाल रोओ न लली! रानी, यह कैसी विपत्ति है? चलो शीघ्र, पौ फटे नहीं, उग जाय न कहीं अरुण रेखा।" "प्रासादों से घिरी कुटी में गहनों से शोभा बढ़ती है,
उदरपूर्ति है अन्नों से। गिरती कठिन गाज-सी सिर पर, ‘बना रखूँ पुतली दृग की, निर्धन का यही दुलार सखी! घास-पात की कुटी हमारी, जलती हुई धूप है तो आँगन में वट की छाँह सखी! यह अचरज मानिनि, तो देखो, कलियाँ हृदय चीर
टहनी का खिलने को अकुलाती हैं, घूम रही कल्पना अकेली जीवन की रसवृष्टि (पंक्ति कविवर की) क्यों चाँदी न हुई? खोज रही आनन्द कल्पना जिसके मूर्त्त स्वप्न भूखे हों, वह गायक कैसे गाए?" 26. समयजर्जरवपुष्! विशाल! भीमाकृति! बढ़, बढ़, कबन्ध-सा कर फैलाए; भर बुभुक्षु! निज उदर तुच्छतम द्रव्य-निकर से, खाकर जग का दुरित एक दिन तू मदमाता, आयेगी वह घड़ी, मलिन पट मिट्टी का तज, वह जीवन जिसमें न जरा, रुज, क्षय का भय
है, 27. कालिदाससमय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, शिला-लेख मुद्रा के अंकन, अब हो चुके पुराने, काल-स्रोत पर नीराजन-सम ये बलते आये हैं, वाणी का रस-स्वप्न खिला था जो कि अवन्तीपुर में, एक सिक्त-कुंतला खोलकर मेघों का वातायन और हेतानाशनवती तपोवन की निर्धूम शिखाएँ बँधे विटप से बैखानस के चीवर टँगे हुए हैं, वह निसर्ग-कन्या अपने आश्रमवासी
परिजन को प्रथम स्पर्श से झंकृत होती वेपथुमती कुमारी, इस रहस्य-कानन की अगणित निबिडोन्नतस्तनाएँ, अमित युगों के अश्रु, अयुत जन्मों की विरह-कथाएँ, किसका विरह नहीं बजता अलकावासिनि के मन में? कम्पित रुधिर थिरकता किसका नहीं रणित नूपुर में? 28. गीत-शिशुआशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से, ये अबोध कल्पक के शिशु क्या रीति जगत की जानें, चुन अपरूप विभूति सृष्टि की मैंने रूप सँवारा। नन्हें अरुण चरण ये कोमल, क्षिति की परुष प्रकृति है, सीख न पाये रेणु रत्न का भेद अभी ये भोले, रुन-झुन-झुन पैंजनी चरण में, केश कटिल घुँघराले कुछ विस्मय, कुछ शील दृगों में, अभिलाषा कुछ मन में, छूकर भाल वरद कर से, मुख चूम बिदा दो इनको; 29. कत्तिन का गीतकात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी; हरी डार पर श्वेत फूल, यह तूल-वृक्ष मन भाया; वह घर्घर का नाद कि चरखे की बुलबुल की लय है? बोल काठ की बुलबुल, मुँह का कौर न रहे
अलोना; 30. गीतउर की यमुना भर उमड़ चली, दिशि-दिशि उँडेल विगलित कंचन, लहरें अपनापन खो न सकीं, (नोट='रसवंती' के प्रथम संस्करण में क्रमांक २४ तक की ही रचनायें शामिल हैं) रसवंती का प्रकाशन वर्ष कौन सा है?वर्तमान में यह संग्रह उदयांचल प्रकाशन से जनवरी ०१, २०१० को प्रकाशित है।
रसवंती के रचनाकार कौन हैं?रसवन्ती - रामधारी सिंह दिनकर Rasvanti - Hindi book by - Ramdhari Singh Dinkar.
दिनकर की प्रथम रचना कौन सी थी?दिनकर का पहला काव्यसंग्रह 'विजय संदेश' वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ. इसके बाद उन्होंने कई रचनाएं की. उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं 'परशुराम की प्रतीक्षा', 'हुंकार' और 'उर्वशी' हैं. उन्हें वर्ष 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया.
रामधारी सिंह दिनकर कितने वर्षों तक संसद सदस्य रहे?दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।
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