18 57 की क्रांति का स्वरूप क्या था? - 18 57 kee kraanti ka svaroop kya tha?

18 57 की क्रांति का स्वरूप क्या था? - 18 57 kee kraanti ka svaroop kya tha?

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1857 की क्रांति का स्वरुप Download

  • 1857 की क्रांति के स्वरुप को समझना आसन नहीं था|बड़े-बड़े इतिहासकारों ने 1857की क्रांति के स्वरुप को समझाने के लिए अध्ययन किया है तथा इन अध्ययनों पर काफी विवाद भी हुए हैं|यहाँ तक कि भारत सरकार ने 1857 ई० में हुए विद्रोह का अध्ययन करने के लिए भारतीय इतिहासकारों की नियुक्ति भी थी|
  • बी० डी० सावरकर ने 1904 ई० में एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन,अभिनव भारतसमाज की स्थापना की थी|इन्होने 1909 ई० में एक पुस्तक भी प्रकाशित की इस पुस्तक का नाम “The Indian War of Independence,1857” था| इस पुस्तक में बी० डी०सावरकर ने 1857 ई० हुए विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है|
  • आजादी के बाद भारत सरकार ने 1857 ई० के विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए एक सरकारी इतिहासकार के तौर परएस० एन० सेन को नियुक्ति किया| एस० एन० सेन की पुस्तक का नाम “Eighteen Fifty Seven” है| “Eighteen Fifty Seven” नामक पुस्तक में एस० एन० सेन ने 1857 ई० के विद्रोह को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन मानने से इंकार कर दिया|उन्होंने बताया कि 1857 के विद्रोह को किसी भी स्तर पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम नहीं कहा जा सकता है|
  • इसके बाद भारत सरकार ने आर० सी० मजूमदार को 1857 की क्रांति का इतिहासकार बनाया| लेकिन इन्होने इस काम को करने से इंकार कर दिया क्योंकि आर० सी० मजूमदार इस कार्य को स्वतंत्र रूप से करना चाहते थे|इन्होने स्वतंत्र रूप से अपनी पुस्तक “The Sepoy Muting and the Rebellion of 1857”प्रकाशित किया| इस पुस्तक में इन्होने यह निष्कर्ष निकाला कि,“यह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, न तो प्रथम था, न ही राष्ट्रीय था और न ही यह स्वतंत्रता संग्राम था|”
  • 1857 ई० का विद्रोह अंग्रजों के खिलाफ पहला विद्रोह नहीं था|1757 ई ० में अंग्रेजी हुकूमत की स्थापना के बाद पहला विद्रोह संन्यासी विद्रोह था|इसके बाद लगातार विद्रोह चलता रहा|
  • आधुनिक इतिहासकारों के द्वारा 1857 ई० की क्रांति को स्वतंत्रता आन्दोलन नहीं माना गया है क्योंकि 1857 ई० के विद्रोह के अंतर्गत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र होने का दृष्टिकोण था|ब्रिटिश शासन की समाप्ति में स्वाधीन होने का दृष्टिकोण नीहित है किन्तु इसे स्वतंत्रता संघर्ष नही माना जा सकता क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की भावना राष्ट्रीयता की भावना से जुड़ी है जबकि 19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीयता की सीमाएं थीं|
  • भारत में राष्ट्रीयता का विकास 1857 के बाद हुआ|चूँकि 1857 ई० के क्रांति तक भारत में राष्ट्रीयता का विकास नहीं हुआ था इसलिए इसे हम राष्ट्रीय संघर्ष नहीं मान सकते हैं|
  • 10 मई, 1857 ई० को विद्रोह की शुरुआत सैनिक विद्रोह के रूप में हुई थी|12 मई, 1857 ई० को विद्रोही सैनिकों ने मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफर को विद्रोहियों का नेता घोषित कर दिया|उस समय ब्रिटिश भारत में सेना की कुल तीन रेजिमेंट थी, किन्तु इस विद्रोह में केवल बंगाल रेजिमेंट ने ही हिस्सा लिया था और उसमे भी बंगाल रेजिमेंट के सभी सैनिकों ने हिस्सा नही लिया था|
  • 1857 का विद्रोह अंत में लोकप्रियस्वरुप धारण करता है|इस विद्रोह को जनता की बड़ी भागीदारी प्राप्त हुई| लेकिन फिर भी भारतीय समाज का प्रत्येक तबका इस विद्रोह में भाग नही लिया|भारत के अधिकांश राजा और बड़े जमींदार इस विद्रोह से न केवल अलग-थलग रहे, बल्कि उनमे से कुछ ने इस विद्रोह को समाप्त करने के लिए अंग्रेजों की सक्रिय सहायता भी की थी|ऐसे राजाओं में ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर और हैदराबाद के निजाम नेपाल के राजा, भोपाल के राजा,पटियाला के शासकआदि थे|
  • इसके अतिरिक्त मध्यम और उच्च वर्ग के अधिकांश पढ़े-लिखे भारतीय भी इस विद्रोह के आलोचक बने रहे और विद्रोहियों का साथ नही दिया|यह एक ऐसा तथ्य है जो विद्रोह के स्वतंत्रता संघर्ष होने के विचार पर प्रश्न चिह्न लगता है|
  • विद्रोह के विस्तार की भी सीमाएं रहीं|विद्रोह अधिकतर उत्तरी भारत में ही सीमित रहा| इस विद्रोह मे पूरी तरह से पूर्वी भारत, दक्षिण भारत तथा पश्चिमी भारत के अधिकांश क्षेत्रों ने हिस्सा नहीं लिया था|
  • विद्रोह के दौरान घटित घटनाओं का अवलोकन करने बाद पता चलता है कि विदोह के दौरान ही कहीं स्थानीय संघर्ष के मुद्दे उभर गये, कहीं वर्ग संघर्ष के मुद्दे उभर गये, तो कहीं विद्रोहियों के साथ असामाजिक तत्त्व शामिल हो गये|ग्रामीणों अथवा किसानों का निशाना अक्सर जमींदार होते थे|
  • बिहार में किसानों ने जमींदारों को अपना निशाना बनाया|किसानों ने इस विद्रोह में जमींदारों का घर जला डाला, मारा-पिटा और उन्हें अपने घरों से खदेड़ दिया|इसके आलावा ग्रामीण जनता का निशाना,सूदखोर और महाजन हुआ करते थे|इस बात के साक्ष्य भी मिलते हैं किकिसानों ने कई स्थानों पर जमींदार एवं महाजन दोनों पर प्रहार किया|इसके आलावा असामाजिक तत्वोंने इन विद्रोहियों के साथ भीड़ में शामिल होकर लूट-पाट किया|
  • 19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीयता के विकास की अपनी सीमाएं थीं|राष्ट्रीयता की भावना का उद्भव 1860 के वर्षों के बाद प्रारम्भ हुआ, जब पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का धीरे-धीरे प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया|
  • 19वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रीय का प्रसार भारत में नहीं हुआ था| 1857 के विद्रोह में जन सहभागिता थी|एक बहुत बड़ी जनसंख्या जिसमे किसान, मजदूर, हिदू, मुस्लिम आदि शामिल थे, ये सभी अंग्रेजों के प्रति विरोध की भावना से प्रभावित थे न की राष्ट्रीयता की भावना से|उन्हें बस इतना ही पता था कि अंग्रेज हमारे शत्रु हैं|विद्रोह की शक्ति काफी हद तक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर निर्भर थी|सभी ने सामूहिक तौर पर मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र को बादशाहनियुक्त किया और उसे अपने विद्रोह का नेता घोषित कर दिया|
  • बहादुरशाह जफ़र को विद्रोह का नेता घोषित करके, उसे फिर से बादशाह घोषित कर देना; इसमें कहीं नकहीं पुरानी सामंती व्यवस्था को फिर से सुदृढ करने का दृष्टिकोण दिखाई देता है, जिस सामंती व्यवस्था को ध्वंश करने का कार्य अंग्रेजों ने प्रारम्भ किया था|
  • विद्रोही यह समझ सकने में असफल रहे कि भारत की मुक्ति पुरानी सामंती व्यवस्थाओं में लौटने में नहीं है बल्कि आगे बढ़कर आधुनिक समाज, आधुनिक अर्थव्यवस्था, वैज्ञानिक शिक्षा और प्रगतिशील राजनीतिक संस्थाओं को अपनाने से संभव हो सकती है|
  • वास्तव में अगर देखा जाये तो इन आन्दोलनकारियों में भारत को गुलाम बनाने वाले उपनिवेशवाद की समझ नहीं थी और न ही आधुनिक विश्व की कोई खास समझ थी|इस आन्दोलन में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी शिकायत थी और स्वतंत्र भारत के राजनीति की अपनी धारणायें थीं|
  • इसी तरह नेतृत्व के स्तर पर मुग़ल शासक के अलावा कोई प्रगतिशील नेतृत्व नहीं उभर सका|जब विद्रोह के प्रति कोई प्रगतिशील विचार ही नहीं है तो उसे फिर राष्ट्रीय कैसे कहा जा सकता है|उपरोक्त ऐसे तथ्य हैं जो 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहे जाने पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं|
  • समाजवादी विचारक तो इस विद्रोह को स्वतंत्रता आन्दोलन नही मानते हैं|अंग्रेज इतिहासकार लॉरेंसऔर सीले ने इसे ‘सैनिक विद्रोह’ कहा है|भारतीयों में सर सैय्यदअहमद खान ने भी इसे एक ‘सैनिक विद्रोह’ ही कहा है|सर सैय्यद अहमद खान की पुस्तक का नाम “An Eassay on theCauseof the Indian Revoltहै|
  • अंग्रेज इतिहासकार T R Homes ने इस विद्रोह को सभ्यता और बर्बरता के बीच में जंग के रूप में बताया है|
  • जेम्स आउट्रम ने इस विद्रोह को“मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम” बताया है, जिसमे मुसलमानों ने हिन्दुओं के शिकायतोंका लाभ उठाया और मुसलमानों ने हिन्दुओंको अपने साथ मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ भड़काया है|
  • बेंजामिन डिजरायली, ब्रिटिश संसद के एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने इस विद्रोह को “राष्ट्रीय विद्रोह” कहा है| बेंजामिन डिजरायली, ब्रिटिश संसद में रूढ़िवादी दल के नेता थे|भारतीय इतिहासकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक “The Great Rebellien” में1857 में हुए विद्रोह को“राष्ट्रीय विद्रोह” स्वीकार किया है|

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