पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?

पाठ्यक्रम का आधार – मानव जीवन में शिक्षा का अद्वितीय महत्व है। शिक्षा के अभाव में मानव को मानव कह पाना असंभव होगा। शिक्षा के अभाव में मनुष्य केवल प्राणी मात्र रह सकता है, मानव या इंसान नहीं। शिक्षा प्राप्त करके ही व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बनता है। शिक्षा एक जटिल एवं व्यापक प्रक्रिया है जो जीवन पर्यंत चलती रहती है। शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति अपनी अपरिपक्वता को परिपक्वता, बर्बरता को सभ्यता तथा पाश्विकता को मानवता में परिवर्तित करता है।

Contents

  • पाठ्यक्रम का आधार
    • 1. दार्शनिक आधार
    • 2. मनोवैज्ञानिक आधार
    • 3. ऐतिहासिक आधार
    • 4. सामाजिक आधार
    • 5. सांस्कृतिक आधार
    • 6. वैज्ञानिक आधार

पाठ्यक्रम का आधार

शिक्षा प्रक्रिया में पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण स्थान है और यह पाठ्यक्रम समय-समय पर अपने तत्कालीन समाज की दशाओं एवं परिवर्तनों से प्रभावित होता रहता है। पाठ्यक्रम निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया अनेकों तथ्यों व सिद्धांतों पर निर्भर करती है। अध्ययन की सुविधा के लिए पाठ्यक्रम के प्रमुख आधारों को निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. दार्शनिक आधार
  2. मनोवैज्ञानिक आधार
  3. ऐतिहासिक आधार
  4. सामाजिक आधार
  5. सांस्कृतिक आधार
  6. वैज्ञानिक आधार

पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?

1. दार्शनिक आधार

प्रसिद्ध विद्वान एवं दार्शनिक अरस्तु के मतानुसार “दर्शन एक ऐसा विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जांच करता है।”

ब्राइटमैन के शब्दों में “दर्शन की परिभाषा एक ऐसे प्रयास के रूप में दी जा सकती है, जिसके द्वारा संपूर्ण मानव अनुभूतियों के विषय में सत्यता से विचार किया जाता है अथवा जिसके द्वारा हम अपने अनुभव का वास्तविक सार जानते हैं।”

फिक्टे के शब्दों में, “दर्शन ज्ञान का विज्ञान है”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि दर्शन शास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक है तथा दर्शन का संबंध मानव जीवन की अनुभूतियों से है। दर्शन व शिक्षा में घनिष्ठ संबंध है। शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियां व अनुशासन व्यवस्था आदि सभी पक्ष समसामयिक दर्शन से प्रभावित होते हैं।

पाठ्यक्रम का तो मेरुदंड ही दर्शन है। बालक को क्या पढ़ाना चाहिए और क्या नहीं पढ़ाया जाए? इस प्रश्न का उत्तर व्यक्ति व समाज की दार्शनिक मान्यता के अनुरूप ही तय किया जाता है। शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्धारण शिक्षा के उद्देश्यों के अनुरूप किया जाता है। भिन्न भिन्न प्रकार के उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यक्रम भी बदलता रहता है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शिक्षा की पाठ्यचर्या पर दर्शन का प्रभाव पड़े। एक समय था जब भारत में शिक्षा का उद्देश्य आत्मानुभूति था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उस काल के पाठ्यक्रम में धर्म शास्त्र एवं नीति शास्त्र के अध्ययन तथा इंद्रीय निग्रह को अधिक महत्व दिया जाता था।

इससे भिन्न आधुनिक युग में, जबकि शिक्षा के भौतिकवादी उद्देश्य अत्यधिक प्रबल हैं, तब हमारे शैक्षिक पाठ्यक्रम में तकनीकी ज्ञान, प्रशिक्षण एवं भौतिक विज्ञान को अधिक महत्व दिया जा रहा है।

पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम का आधार

दर्शनशास्त्र न केवल शिक्षा के लिए उसके पाठ्यक्रम के निर्धारण में योगदान देता है, अपितु दर्शन ही पाठ्य विषयों की संख्या का भी निर्धारण करता है। इसका कारण यह है कि जब समाज में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियां आवश्यकताएं व आदर्श उत्पन्न हो जाते हैं, तो उन्हीं के अनुकूल शिक्षा के उद्देश्यों में भी वृद्धि करनी पड़ती है। शिक्षा के उद्देश्यों में वृद्धि के कारण उनकी पूर्ति के लिए पाठ्य विषयों में भी वृद्धि करनी पड़ती है। आज के भौतिकवादी युग में मानवीयता की उपेक्षा न हो, इसलिए इंजीनियरिंग आदि के प्रशिक्षण में मानवीय विज्ञान को भी स्थान दिया जाने लगा है। यह दर्शनशास्त्र द्वारा ही निश्चित हुआ है।

देश और काल के परिवर्तन के फल स्वरुप अभी तक जिन विभिन्न विचारधाराओं का अभ्युदय हुआ है, उनमें प्रमुख विचारधाराएं निम्न है-

  1. आदर्शवाद
  2. प्रकृतिवाद
  3. प्रयोजनवाद
  4. यथार्थवाद
  5. अस्तित्ववाद

2. मनोवैज्ञानिक आधार

वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान का महत्व बढ़ता जा रहा है, आधुनिक मनोविज्ञान ही बताता है कि प्रत्येक बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएं होती हैं, जैसे बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था आदि। इन्हीं अवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए बालकों को शिक्षित किया जाना चाहिए। विकास की विभिन्न अवस्थाओं के ज्ञान के अभाव में बालक एक सी‌ व नीरस शिक्षा प्राप्त करते रहते व अपना सर्वांगीण विकास करने में असमर्थ रहते हैं।

शिक्षा में मनोविज्ञान के समावेश के परिणाम स्वरूप अब बालकेंद्रित शिक्षा पर बल दिया जाने लगा है। पाठ्यक्रम का निर्धारण भी बालक को केंद्र बनाकर किया जाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार संपूर्ण शिक्षा प्रणाली का केंद्र बालक को होना चाहिए। प्राचीन दृष्टिकोण के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु शिक्षक को माना जाता था व छात्र को गौण स्थान प्राप्त था। शिक्षा की समस्त प्रक्रिया शिक्षा के चारों ओर घूमती रहती है परंतु वर्तमान शिक्षा प्रक्रिया छात्र के चारों ओर घूमती है व छात्र के अनुकूल कार्य करती है।

पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?

3. ऐतिहासिक आधार

शिक्षा एवं इतिहास का निकट संबंध है। शिक्षाशास्त्र समाज की आवश्यकतानुसार शिक्षा की व्यवस्था करने का कार्य करता है। साथ ही वह समाज की शिक्षा संबंधी समस्याओं का निवारण करने का प्रयत्न करता है। परंतु वह यह कार्य अकेले संपन्न नहीं कर सकता। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपाय व साधन ढूंढने और योजनाएं बनाने में उसे इतिहास के अध्ययन से पर्याप्त सहायता मिलती है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के लिए इतिहास का ज्ञान आवश्यक है। इतिहास के द्वारा ही यह जाना जा सकता है कि पूर्व काल में शिक्षा की क्या व्यवस्था थी और तत्कालीन समाज के लिए यह कहां तक उपयोगी थी। इस प्रकार इतिहास के अध्ययन के द्वारा ही यह ज्ञात हो सकता है कि पूर्व कालीन समाज की शैक्षिक समस्याएं क्या क्या थी। समस्याओं के स्वरूप के अतिरिक्त इतिहास के अध्ययन द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि उनके निवास के लिए क्या-क्या प्रयत्न किए गए और उन प्रयत्नो को कहां तक सफलता प्राप्त हुई।

पूर्व कालीन पाठ्यक्रम में जो दोष बा कमियां थी उन्हें इतिहास के अध्ययन द्वारा वर्तमान में दोहराने से बचने का प्रयास किया जाता है।

4. सामाजिक आधार

मानव स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है। उनका जन्म तथा विकास समाज में होता है। शिक्षा व्यक्ति को सामाजिक प्राणी बनाती है और समाज शिक्षा के लिए आधार प्रस्तुत करता है। अन्य शब्दों में, शिक्षा एवं सामाजिक जीवन की धारणा में गहरा संबंध है। एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। समाजशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है जो कि समाजशास्त्री सिद्धांतों को एवं शिक्षा की समग्र प्रक्रिया को व्यावहारिक रूप देता है। इस प्रक्रिया में पाठ्यक्रम, विषय वस्तु, क्रियाएं, शिक्षालय संगठन, विधियां तथा मूल्यांकन सभी सम्मिलित हैं।

ओटावे के मतानुसार, “शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है।” इसकी विधि और इसके लक्ष्य समाज विशेष की मान्यताओं के अनुसार तय होते हैं। जॉन डेवी ने भी सामाजिक चेतना को शैक्षिक विकास का आधार माना है। ब्राउन ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है कि समूह की सामाजिक चेतना में व्यक्ति का योगदान शिक्षा व समाज के मिले-जुले प्रयासों के कारण ही संभव है।

पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?

इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा एवं समाजशास्त्र के मध्य गहरा संबंध है। समाजशास्त्र शिक्षाशास्त्र को प्रभावित तत्व प्रदान करता है। इसका कारण है कि समाजशास्त्र में शिक्षा के सामाजिक प्रभावों तथा मनुष्य के जीवन में उसकी गतिशीलता का अध्ययन किया जाता है। दूसरी और शिक्षा शास्त्र में समाज में व शिक्षा के स्वरूप तथा व्यक्तित्व विकास में योगदान आदि कारको का अध्ययन किया जाता है।

5. सांस्कृतिक आधार

समाज की जैसी संस्कृति होती है, उसी के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। जहां की संस्कृत में धर्म तथा आध्यात्मिक भावना प्रधान होती है, वहां पर शिक्षा शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति पर बल देती है। यदि समाज की संस्कृति का स्वरूप भौतिक होता है तो शिक्षा द्वारा भौतिक उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास किया जाता है। जिस समाज की कोई संस्कृति नहीं होती उसकी शिक्षा का स्वरूप भी अनिश्चित होता है। संस्कृति के द्वारा उसके समाज की शैक्षिक प्रक्रिया पर्याप्त सीमा तक प्रभावित होती है। संस्कृति द्वारा ही शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियां, विद्यालय एवं अनुशासन के स्वरूप का निर्धारण होता है।

शिक्षा के पाठ्यक्रम को भी संस्कृति अत्यंत प्रभावित करती है। क्योंकि समाज की संस्कृति शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करती है और पाठ्यक्रम इन उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। अत: पाठ्यक्रम समाज की संस्कृति पर ही आधारित होता है। चूंकि विद्यालय समाज का लघु रूप है। इसलिए समाज में फैली हुई संस्कृति विद्यालयों में दिखाई देती है। इस दृष्टि से विद्यालय समाज की संस्कृति के केंद्र होते हैं। संस्कृति शिक्षक, शिक्षार्थी, शिक्षण विधि और अनुशासन व्यवस्था पर भी व्यापक प्रभाव डालती है।

इसी प्रकार नारी शिक्षा, सह शिक्षा, और शिक्षा आदि शैक्षिक समस्याओं के विषय में निर्णय भी संस्कृत के आधार पर किए जाते हैं।

पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?
पाठ्यक्रम के निर्धारक तत्व कौन कौन से हैं? - paathyakram ke nirdhaarak tatv kaun kaun se hain?

6. वैज्ञानिक आधार

वर्तमान में विज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है। विज्ञान और सभ्यता एवं संस्कृति का पर्याय बन चुका है। शिक्षा के क्षेत्र में भी विज्ञान का बढ़ता प्रभाव एवं महत्त्व सरलता से देखा जा सकता है। अधिकांश विद्यार्थियों ने पाठ्यक्रम में विज्ञान एवं तकनीकी विषयों में समावेश पर बल दिया है ताकि बालक, समाज व पूरे देश का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बन सके।

पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों के महत्वपूर्ण स्थान पर बल दिया जाए इस विचार के मुख्य प्रतिपादक हरबर्ट स्पेंसर हैं। उन्होंने माना है कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य पूर्ण जीवन की तैयारी है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों के सम्मिलित किए जाने पर बल दिया है। उन्होंने बालकों के अध्ययन के लिए शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भाषा, गणित, पदार्थ विज्ञान, मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, राजनीतिकशास्त्र व अर्थशास्त्र आदि विषयों की सिफारिश की है।

पाठ्यचर्या के निर्धारक तत्व क्या है?

पाठ्यचर्या के मनोवैज्ञानिक निर्धारक - शिक्षार्थी की प्रकृति और अधिगम की प्रक्रिया का ज्ञान और सर्वोत्तम अधिगम की सुविधा प्रदान करने वाली स्थिति। बुद्धि और विकास का ज्ञान, विकास क्षमता। पाठ्यचर्या बाल केन्द्रित हो, शिक्षार्थी के मानसिक विकास के अनुरूप अधिगम अनुभव प्रदान किया जाना चाहिए, सीखने वाले की रुचियाँ।

पाठ्यक्रम विकास के प्रमुख निर्धारक तत्व कौन से हैं?

पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक तत्त्व.
(1) परिवार (Family).
(2) परम्पराएँ (Traditions).
(3) सामाजिक दबाव वर्ग (Social Pressure Groups).
(4) धार्मिक संगठन (Religious Organisations).
(5) समाज की बदलती आवश्यकताएँ (Changing Needs of the Society).
(6) समाज की प्रकृति (Nature of Society).

एक पाठ्यक्रम के निर्धारक क्या है?

शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्धारण शिक्षा के उद्देश्यों के अनुरूप किया जाता है। भिन्न भिन्न प्रकार के उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यक्रम भी बदलता रहता है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शिक्षा की पाठ्यचर्या पर दर्शन का प्रभाव पड़े। एक समय था जब भारत में शिक्षा का उद्देश्य आत्मानुभूति था।

पाठ्यक्रम के कितने मूल तत्व हैं?

इस प्रकार पाठ्यचर्या के चार मूल तत्त्व माने जाते हैं- उद्देश्य, पाठ्यवस्तु, शिक्षण विधियाँ तथा मूल्यांकन।