पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की क्या भूमिका है? - paryaavaran sanrakshan mein mahilaon kee kya bhoomika hai?

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इतिहास गवाह है कि भारत की महिलाएँ किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं हैं। चाहे स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की बात हो, कला का क्षेत्र हो, साहित्य का क्षेत्र हो, समाज सेवा का क्षेत्र हो अथवा साहसिक कारनामों का क्षेत्र हो। भारत की महिलाएँ सदैव पुरुषों से आगे रही हैं तो भला पर्यावरण-संरक्षण में भारत की महिलाएँ पीछे क्यों रहे। सर्वप्रथम हम अपनी संस्कृति पर दृष्टिपात करें और सामाजिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों को देखें तो यह पता चलता है कि प्राचीन काल से ही महिलाएँ पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जागरुक रही हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज भी महिलाओं द्वारा व्रत-त्यौहार के अवसर पर या यूँ ही प्रतिदिन के क्रियाकलापों एवं पूजा-अर्चना में अनेक वृक्षों यथा-पीपल, तुलसी, आँवला, अशोक, बेल, शमी, नीम, आम आदि वृक्षों तथा अनेक पुष्पों एवं विभिन्न पशुओं यथा गाय, बैल, चूहा, घोड़ा, साँप, बंदर, उल्लू आदि को सम्मिलित करना एवं उनकी पूजा-अर्चना के माध्यम से संरक्षण प्रदान करना देखने को मिल जाता है।

इस तरह हमारी महिलाओं में न केवल पेड़-पौधों अपितु पशु-पक्षियों के प्रति भी संरक्षण की संकल्पना प्राचीनकाल से ही विद्यमान है। यही नहीं जल-स्रोतों के प्रति भी संरक्षण की भावना महिलाओं में प्राचीन काल से ही चली आ रही है जैसे- गंगा-पूजन, कुओं की पूजा करना अथवा तालाब की पूजा करना।

इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिकी को सन्तुलित बनाये रखने के प्रति महिलाएँ सदैव से ही अग्रणी रही हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में रची-बसी महिलाओं द्वारा प्रकृति-संरक्षण अथवा पर्यावरण-संरक्षण की यह भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आयी है एवं आज भी देखने को मिलती है।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना समीचीन प्रतीत होता है कि भारत की सामाजिक रचना में जहाँ महिलाओं की अपेक्षा पुरुष कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण एवं सुविधाभोगी है, खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण ने महिलाओं की जीवन-शैली को बुरी तरह प्रभावित किया है। यही कारण है कि पर्यावरण एवं प्रकृति से सीधे रूप में सम्पर्क में रहने के कारण ये ग्रामीण महिलाएँ पर्यावरण संरक्षण के प्रति अधिक सचेष्ट हैं।

आज ऐसे क्षेत्रों में जहाँ अन्धाधुन्ध पेड़ काटे जा रहे हैं, महिलाओं को जलाने के लिये लकड़ी एकत्र करने हेतु कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। इसी तरह जहाँ पानी की किल्लत है, खासतौर से रेगिस्तानी इलाकों एवं पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में पानी जुटाने का भी दायित्व महिलाओं पर ही है और एक-एक घड़ा पानी के लिये 10-15 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि इन प्राकृतिक संसाधनों यथा- वन, मिट्टी एवं जल से महिलाओं का सीधा एवं गहरा सम्बन्ध है। यही कारण है कि महिलाओं को ही इसका संरक्षक माना गया है। खासतौर से आदिवासी लोगों में तो वन-सम्पदा की अर्थव्यवस्था पूर्णतया महिलाओं की ही मानी जाती है। यही कारण है कि पर्यावरण-संरक्षण, खासतौर से वन-संरक्षण में महिलाओं की भागीदारी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हो गयी है और महिलाएँ इसके प्रति जागरुक भी हैं।

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की क्या भूमिका है? - paryaavaran sanrakshan mein mahilaon kee kya bhoomika hai?
भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में अपनी पहचान बना चुके ‘चिपको आन्दोलन’ ने पर्यावरण संरक्षण खासतौर से वन-संरक्षण की दिशा में एक नयी चेतना पैदा की है। यह आन्दोलन पूर्णतया महिलाओं से जुड़ा है और इस आन्दोलन ने यह सिद्ध कर दिया है कि जो काम पुरुष नहीं कर सकते, उसे महिलाएँ कर सकती हैं। ‘चिपको आन्दोलन’ इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

‘चिपको आन्दोलन’ की मुख्य संचालक महिलाएँ ही हैं। राजस्थान की बिश्नोई जाति की महिलाओं ने इस सम्बन्ध में एक अनोखा उदाहरण पेश किया है। थार रेगिस्तान के मध्य बिश्नोई जाति की बस्ती एक नखलिस्तान की तरह दृष्टिगोचर होती है। यह इस जाति की महिलाओं का पेड़ों के प्रति अनुराग का ही प्रतिफल है कि उनके समाज में एक लोक कथा प्रचलित है कि ‘‘प्राचीन काल में जब राजा के नौकर एवं कर्मचारी राजमहल बनाने के लिये वृक्षों को काटने आते थे इस जाति की महिलाएँ पेड़ों को काटने से बचाने की दृष्टि से पेड़ों से ही लिपट जाती थीं और कर्मचारी पेड़ों के साथ निर्दयतापूर्वक महिलाओं को भी काट देते थे। जब राजा ने यह सुना कि पेड़ों के साथ महिलाएँ भी काट डाली जा रही हैं, तो राजा ने उस क्षेत्र में जंगलों को कटवाना रोक दिया।’’

इस तरह विश्नोई जाति की महिलाओं ने न केवल उस समय पेड़ों की सुरक्षा की, बल्कि एक इतिहास रच डाला, जो आज भी महिलाओं के लिये प्रेरणा का काम करता है और आज भी पहाड़ों पर महिलाएँ यही प्रक्रिया अपना कर पेड़ों को बचाने में लगी हैं।

वर्तमान समय में यह ‘चिपको आन्दोलन’ उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों- चमोली, कुमाऊँ, गढ़वाल, पिथौरागढ़ आदि में प्रारम्भ हुआ और जंगलों के विनाश के विरुद्ध सफल आन्दोलन के रूप में पूरी दुनिया में सराहा जा चुका है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आन्दोलन का संचालन करने वाली महिलाएँ पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों की रहने वाली निरक्षर एवं अनपढ़ महिलाएँ हैं। यह स्वतः स्फूर्त एवं अहिंसक आन्दोलन विश्व के इतिहास को महिलाओं की अनूठी देन हैं। यह आन्दोलन उनका अपनी जीवन रक्षा का आन्दोलन है। इन महिलाओं ने अपने आन्दोलन को इस तरह से संगठित किया है कि उनके गाँवों का प्रत्येक परिवार जंगलों की रक्षा के लिये सुरक्षाकर्मी तैनात करके सामूहिक चन्दा अभियान से उनके वेतन भुगतान की व्यवस्था करता है। इन महिलाओं के शब्दकोश में असम्भव नामक कोई शब्द है ही नहीं। इस आन्दोलन की प्रमुख अगुआ गायत्री देवी हैं। जिन्होंने घोषणा की है कि जंगलों एवं पर्यावरण की रक्षा हेतु निरन्तर उनका संघर्ष जारी रहेगा।

राजस्थान में उदयपुर के निकट ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ऊसर एवं रेतीली भूमि को हरे-भरे खेतों में बदल रही हैं। ‘सेवा मण्डल’ एक संस्था ने पिछड़े भील समुदाय को इतना अधिक प्रेरित किया है कि अब वह सैकड़ों वर्षों से वीरान पड़ी भूमि को हरा-भरा बनाने में जुट गया है। ये संस्था उदयपुर के 6 विकासखण्डों की सुरक्षा में बड़े ही मनोयोग से जुड़ी हुई हैं। उनके इस उत्साह एवं सफलता को देखते हुये ही पर्यावरण-संरक्षण के लिये वर्ष 1991 का ‘के.पी. गोयनका पुरस्कार’ इन महिलाओं द्वारा तैयार ‘सेवा मण्डल’ नामक संस्था को मिला है।

हिमाचल प्रदेश की महिलाएँ भी पर्यावरण-संरक्षण कार्यक्रम में किसी से पीछे नहीं हैं। यहाँ की महिलाएँ छोटे-छोटे गुट बनाकर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं। यही कारण है कि अखबारों में इनकी चर्चा तक नहीं है। हिमाचल प्रदेश में ही रामपुर परगने में तुरू नाम का एक गाँव है। गाँव की महिलाओं ने देवदार में वृक्षों को काटने से बचाकर अच्छा खासा तहलका मचा दिया है। केशू देव नाम की एक महिला की जमीन पर देवदार के पेड़ लगाये थे। जब उसकी मौत हो गयी तो उसका लड़का उन पेड़ों को काटकर उस भूमि का प्रयोग दूसरे कार्यों में करना चाहता था। किन्तु स्थानीय महिला मण्डल से सम्बन्धित महिलाएँ सक्रिय हो गयी और उन्होंने पेड़ों को काटे जाने का प्रयास विफल कर दिया।

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की क्या भूमिका है? - paryaavaran sanrakshan mein mahilaon kee kya bhoomika hai?
‘नर्मदा बचाओ’ आन्दोलन को लेकर इधर मेधा पाटकर भी काफी चर्चित रही हैं। इन्हें इस आन्दोलन के लिये जेल तक भी जाना पड़ा है। पर्यावरण संरक्षण में इनकी सक्रिय भूमिका को देखते हुये ही इन्हें अन्तरराष्ट्रीय ‘ग्रीन रिबन’ पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। जो नोबेल पुरस्कार के समकक्ष है। इसके अतिरिक्त भी अनेकानेक स्वदेशी पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।

सुश्री वन्दना शिवा भी इसी तरह की जुझारू पर्यावरण-संरक्षक कार्यकर्ता हैं। पर्यावरण-संरक्षण में इनके कार्यों को देखते हुये ही उन्हें वर्ष 1993 के ‘राइट लिवली हुड’ अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की क्या भूमिका है? - paryaavaran sanrakshan mein mahilaon kee kya bhoomika hai?
वंदना शिवाइस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं ने विशेष भूमिका निभाई है और खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के योगदान को तो कभी भुलाया ही नहीं जा सकता।

सम्पर्क
प्राध्यापक, महाविद्यालय, दूबेछपरा, बलिया (उ.प्र.)

संरक्षण में महिलाओं की क्या भूमिका है?

पर्यावरण के संरक्षण में भारतीय महिलाओं की महती भूमिका है। पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में महिलाओं की भूमिका को अलग-अलग विद्वानों ने परिभाषित किया है। कार्ल मार्क्स के अनुसार 'कोई भी बड़ा सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के बिना नहीं हो सकता है। ' कोफी अन्नान के अनुसार इस ग्रह का भविष्य महिलाओं पर निर्भर है।

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में व्यक्तिगत रूप से हमारा क्या योगदान होना चाहिए?

कम से कम उर्वरक व कीटनाशकों का प्रयोग किया जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपने आसपास गमलों में छोटे-छोटे पौधे लगाएं। कम बिजली, कम पानी, कम गैस का प्रयोग कर कोई भी व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण में महती भूमिका निभा सकता है। प्रदूषण रोकने के लिए जलाऊ लकड़ी का उपयोग कम करना जरूरी है, जिसके लिए विद्युत शवदाह गृहों का उपयोग करना चाहिए

पर्यावरण नारीवाद से आप क्या समझते हैं?

इसीलिए पर्यावरण नारीवाद के तर्क में औरतों और प्रकृति के प्रभुत्व के बीच के संबंध को वैचारिक स्तर पर देखा जाता है । यह आप सभी तरह के विचारों, मूल्यों मान्यताओं में पाएंगे कि औरतों और गैर मानवीय जगत को मर्दों से कमतर माना गया है । यह मांग करता है कि औरत और मर्द अपने बारे में फिर से विचार करें ।

पर्यावरण को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

प्रकृति या पर्यावरण संरक्षण के सरल उपाय | Paryavaran ko Bachane ke upay.
घर की खाली जमीन, बालकनी, छत पर पौधे लगायें.
ऑर्गैनिक खाद, गोबर खाद या जैविक खाद का उपयोग करें.
कपड़े के बने झोले-थैले लेकर निकलें, पॉलिथीन-प्लास्टिक न लें.
खिड़की से पर्दे हटायें, दिन में सूरज की रोशनी से काम चलायें.